Sunday, July 21, 2013

मनोहारी सिंह का साक्षात्कार – १


मनोहारी सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. संगीतप्रेमी उनके बजाए गीतों को कभी भूल नहीं सकते. चाहे सैक्सोफोन हो या पश्चिमी बांसुरी या क्लैरिनेट या मेंडोलिन, इन वाद्यों के साथ जिस तरह का जादुई बर्ताव मनोहारी दादा ने किया, भारतीय फ़िल्मी संगीत में वह अद्वितीय है. वे देश के सबसे बड़े सैक्सोफोन वादक के तौर पर स्थापित हुए.

८ मार्च १९२९ को जन्मे मनोहारी १९५८ में बंबई आए और उसी साल उन्होंने एस.डी. बर्मन की ‘सितारों से आगे’ का बैकग्राउंड स्कोर कम्पोज़ किया.

१३ जुलाई २०१० को उन्होंने अपनी अंतिम साँसें ली थीं.

उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले शंकर अय्यर ने उनका यह इंटरव्यू लिया था.

हमें अपने बचपन के बारे में बताइये. और यह कि संगीत ने आपको सबसे पहले कब आकर्षित किया?

मैं पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले में संगीतकारों के एक घर में पैदा हुआ और वहीं मेरी परवरिश हुई. मेरे पिता भीम बहादुर सिंह ब्रिटिश ज़माने में पुलिस बैंड में बांसुरी और बैगपाइप बजाया करते थे. मेरे मामा क्लैरिनेट बजाते थे और मेरे पिता भी. मेरे दादाजी ट्रम्पेट वादक थे और म्यूजिक ऑपेराओं में हिस्सा लेते थे.

हालांकि मैं शुरू में स्कूल गया लेकिन पढाई में मेरा मन नहीं लगता था. हमारे घर में एक की-फ्लूट होती थी. छः साल की आयु में मैंने उस पर कुछ बेसिक धुनें बजाने की कोशिश की. दादाजी हफ़्ते में एक बार हमारे घर आया करते थे. उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया और बांसुरी बजाने के लिए मुझे बाकायदा पैसा भी इनाम में दिया. इस से उत्साहित होकर मैंने की-फ्लूट सीखना शुरू कर दिया.

क्या आप अपनी बनाई धुनें बजाया करते थे?

कुछ मेरी अपनी थीं कुछ अंग्रेज़ी धुनों से प्रभावित थीं. इन्हें बैंड में बजाया जाता था. हम किस्मत वाले थे कि इन बैंड्स को लाइव सुन सकते थे. मेरे पिताजी अच्छे संगीतकार तो थे ही उन्हें नोटेशन लिखने में भी महारत थी. उन्होंने बांसुरी की जटिलताओं के साथ साथ मुझे नोटेशन पढ़ना भी सिखाया. धीरे धीरे मैंने सीखना शुरू कर दिया और दादाजी के घर आने पर मेरा हौसला कुछ ज़्यादा ही बढ़ जाता था.

अपनी प्रतिभा को संवारने के लिए आपने और क्या किया?

मेरे चाचा और मामा तब के कलकत्ता के बाटानगर की बाटा शू कम्पनी के ब्रास बैंड में हिस्सेदारी किया करते थे. मेरे चाचा ने बैंड के कंडक्टर हंगरी के रहनेवाले जोसेफ़ न्यूमैन से मुझे मिलवाया. १९४२ में मुझे ३ रुपये हफ़्ते की तनख्वाह पर नौकरी मिल गयी और मैं १९४५ तक वहां रहा.

बैंड में अमूमन चेकोस्लोवाकिया का शास्त्रीय संगीत बजाया जाता था. मैंने न्यूमैन से बहुत सीखा. उन्होंने मुझे पियानो तक बजाना सिखाया. यह दौर दिन-रात अभ्यास करने का था. मुझे दो कंसर्ट्स में हिस्सा लेने की याद है जिसमें जोसेफ़ के पिता, जो एक शानदार ज़ाईलोफ़ोन वादक थे, ने भी बजाया था. मैं पिकोलो और पोल्का जैसे वाद्य बजाया करता था. यह बाटानगर में बिताए दिनों की बदौलत हुआ कि नोटेशंस पढ़ने और बजाने की मेरी बुनियाद खासी मज़बूत हो गयी.

१९४५ में जोसेफ़ न्यूमैन ने एच.एम.वी. जॉइन की और उन्हें बाटानगर का ब्रास बैंड छोड़ना पड़ा. वे मुझे और मेरे मामाओं-चाचाओं को अपने साथ ले गए. उन्होंने मुझ छोकरे की संगीत प्रतिभा पर भरोसा किया और उन्हें विश्वास था कि अधिक अभ्यास से मैं बेहतर होता जाऊंगा.

एच.एम.वी. के साथ वाले इन दिनों में मैंने बंगाली और हिन्दी गाने बजाना शुरू किया. नोटेशंस पढ़ने और बजाने के पिछले अभ्यास के कारण कलकत्ता में बीते मेरे आठ साल बहुत आनंददायक रहे. वहीं कलकत्ता सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा भी था जहाँ बीथोवन, मोत्ज़ार्ट, बाख़ और चाइकोवस्की जैसे दिग्गजों की कम्पोज़ीशन्स बजाई जाती थी. यहीं पर अत्यंत प्रतिभावान संगीतकारों की संगत में मेरा संगीत-ज्ञान और निखरा. इनमें विख्यात वायोलिन वादक स्टेनली जेम्स थे. ऑर्केस्ट्रा के कंडक्टर एक फ्रेंच सज्जन थे डॉ. सनरे और उनके सहायक थे फ्रांसेस्को कैसानोवा.

अच्छा वही मशहूर कैसानोवा जिन्होंने पंकज मालिक के “याद आये कि न आये तुम्हारी” का संगीत अरेंज किया था! कलकत्ता के उन दिनों के बारे में हमें और बताइये.

हम लोग एच.एम.वी. में हफ़्ते में दो दिन बजाते थे. जोसेफ़ न्यूमैन कई संगीत निर्देशकों जैसे कमल दासगुप्ता, एस.डी. बर्मन, तिमिर बरन और पंडित रविशंकर के लिए संगीत अरेंज करते थे. हम उनकी नोटेशंस बजाते थे; यह काम डमडम के मशहूर स्टूडियो में संपन्न होता था. बाकी समय मैं कलकत्ता सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा में बांसुरी और पिकोलो बजाया करता था.

कलकत्ता में और उसके आसपास कई सारे संगीतकार हुआ करते थे. कलकत्ता सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा में गवर्नर बैंड के अलावा बहुत सारे प्रतिभाशाली नाईट-क्लब संगीतकार हिस्सेदारी करते थे. संगीत का स्तर बहुत ऊंचा हुआ करता. फ्रांसेस्को कैसानोवा कलकत्ता के एक नाईट-क्लब रेस्तरां फुर्फो में एक स्पेनिश बैंड की अगुवाई किया करते थे. वे खासे विख्यात बांसुरीवादक थे. उन्हें मैं पसंद था और उन्होंने मुझे की-फ्लूट बजाने की बारीकियों से परिचित कराया. जिस तरह के अलग अलग मौके मुझे मिल रहे थे, वे मेरे पथप्रदर्शक बने रहे. उनकी वजह से वाद्यों को बजाने की मेरी प्रतिभा लगातार निखरी. बाद में जब मैं कलकत्ते में रहने लगा, मैंने तमाम नाईट-क्लबों और सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा में नियमित रूप से ख़ूब बजाया.

आपने सैक्सोफोन बजाना सबसे पहले कब शुरू किया? क्योंकि अब तो आपका नाम सबसे ज़्यादा इसी के साथ जोड़ कर देखा जाता है.

नाईट-क्लबों में बजानी की मेरी इच्छा ने मुझे सैक्सोफोन बजाना सीखने को प्रेरित किया. जैसा मैंने बताया मुख्य कलकत्ता में आने के बाद मुझे कई नाईट-क्लब संगीतकारों को सुनने का अवसर मिला. बेनी गुडमैन और आर्टीसियो जैसे कुछ नाम याद आ रहे हैं. मेरे दूर के रिश्ते के दो चाचा भी कलकत्ता के कई बैंड्स में संगीतकार थे. ग्रैंड होटल कलकत्ता में कई बैंड्स के साथ काम कर चुके तेग बहादुर (ख्यात संगीतकार लुई बैंक्स के पिता) एक शानदार ट्रम्पेट प्लेयर थे. वे जॉर्जी बैंक्स के नाम से बजाया करते थे. दुसरे चाचा बॉबी बैंक्स थे. इन चाचाओं के कारण नाईट-क्लबों में बजाने की मेरी इच्छा बलवती होती गयी.

मैंने सैक्सोफोन के साथ ज़्यादा समय बिताना शुरू कर दिया. बांसुरी और क्लैरिनेट बजाना मैं पहले ही सीख चुका था. करीब साल भर-छः महीने में मैं ठीकठाक सैक्सोफोन बजाने लगा. धीरे-धीरे मैं सांस के नियंत्रण और अन्य बारीकियों पर काम करने लगा.

मुझे नाईट-क्लबों में सैक्सोफोन बजाने के मौके मिलना शुरू हो गए. अंतर्राष्ट्रीय बैंड प्लेयर्स की तरह मुझे अनिवार्यतः सैक्सोफोन और क्लैरिनेट दोनों बजाने होते थे. साथ ही मैंने बंगाली फिल्मों के लिए बजाना भी शुरू कर दिया – कभी बांसुरी, कभी सैक्सोफोन तो कभी क्लैरिनेट. मुझे आर.सी. बोराल, पंकज मालिक, नचिकेता घोष, कमल दासगुप्ता और सुधीन दासगुप्ता जैसे बड़े नामों के साथ काम करने का मौका मिला.

आपको उन दिनों के कोई लोकप्रिय गीत याद हैं?

मुझे कमल दासगुप्ता के गाने की याद आ रही है अलबत्ता उसके शब्द याद नहीं.

रेस्त्राओं और नाईट-क्लबों में बजाए जाने वाले संगीत को कौन कम्पोज़ करता था?

अमूमन अमेरिका में छपा नाईट-क्लब संगीत बजता था. दुनिया भर के नाईट-क्लबों में बजाए जाने वाले और ज़्यादातर जैज़ विधा से सम्बंधित पीसेज़ बजाए जाते थे. हमारी भूमिका नोटेशन को पढ़ने और बजाने की होती थी. कभी कभार हमें इम्प्रोवाइज़ करने की छूट होती थी. इस सब से मुझे बहुत फायदा हुआ जिसने लम्बे समय तक मेरी सहायता की. जब मैं बंबई आया तो एस.डी. बर्मन के क्लैरिनेट प्लेयर डेनिस वाज़ और एक दूसरे मशहूर क्लैरिनेट वादक पीटर मोंसोराटे मुझ से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे सी.सी.आई. क्लब जाकर गुडी सर्वाय का बैंड जॉइन करने की सलाह दी.

(जारी)


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