Thursday, May 8, 2014

मूलतः मेरे पिता ने मुझे एक शिक्षक बनाया था - कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार - 5


अध्यापन से सिनेमा और वापस

कॉनी हाम – और आपका सिनेमा का काम?

कादर ख़ान – मैंने कोई अट्ठाईस सालों तक फिल्मों के लिए लिखा. फिर मैं उकता गया. मूलतः मेरे पिता ने मुझे एक शिक्षक बनाया था. मुझे पढ़ाने में ही सबसे ज़्यादा आनन्द आता था. मैं ग्लैमर के संसार में गया. मैंने अच्छा नाम और पैसा बनाया. लेकिन मेरे दिल को आराम न था. मुझे महसूस होता था कि मेरे छात्र कहीं मेरा इंतज़ार कर रहे हैं. और इसी लिए जब एक दिन मैंने पाया कि नई पीढ़ी बॉलीवुड में आकर कब्जा कर रही है - मतलब नए नए लड़के, और वो लड़के जो मेरे निर्देशक के असिस्टेंट के नीचे काम किया करते थे, वो भी थर्ड या फोर्थ या फिफ्थ असिस्टेंट. वे हीरो बन रहे थे, डायरेक्टर बन रहे थे. तो एक तरह का जेनेरेशन गैप आ रहा था. विचारों और भावनाओं में एक गैप आ रहा था. मैंने एकाध के साथ काम किया पर उसे चालू नहीं रख पाया. सो धीरे धीरे मैंने काम करना कम कर दिया. इस तरह मैं फिल्म इंडस्ट्री से बाहर आया. मेरे समय के ७० से ८०% निर्देशक और एक्टर अब जा चुके हैं. और उनसे बात करना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है. उनके थॉट्स वो सारे इम्पोर्टेड हैं. मैं इस ज़मीन का आदमी हूँ. मैं कमाठीपुरा का रहनेवाला हूँ. जब तक मुझे वो माहौल, वो कमाठीपुरा का माहौल नहीं मिलता, न अमिन एक्टिंग कर सकता हूँ न लिखना. और ये नई जेनेरेशन – इसे कम्प्यूटर साइंस और बिजनेस मैनेजमेंट के बारे में सब पता है. हमारे समय में ये विषय होते ही नहीं थे. मैनेजमेंट बहुत दुरुस्त है. तकनीक बहुत आगे की है. लेकिन साहित्य को उन्होंने खो दिया है. अब कोई लेखक हैं ही नहीं. वो लोग लिखते ही नहीं. क्योंकि लिखने से पहले आपको ज़िन्दगी के कई उबलते हुए सबक सीखने पड़ते हैं, उनसे गुजरना होता है.

कॉनी हाम – तो आप सोचते हैं कि नई पीढ़ी ने उतना सब सहा ही नहीं कि वे अच्छा लिख सकें?

कादर ख़ान – देखिये, यातना की सघनता – वे लोग यातना को कुछ और नाम से पुकारते हैं. अगर एक लड़के को एक लडकी से मोहब्बत हो जाती है और वह घंटों तक उसका इंतज़ार कर रहा है, उसे वो लोग यातना मतलब सफ़रिंग कहते हैं. नहीं साहब, वह सफ़रिंग नहीं है. वह कुछ और होती है. और वह ऐसी चीज़ होती है जो आपके अचेतन में चली जानी चाहिए, उसे वहीं लिखा जाना चाहिए, वहीं रेकॉर्ड किया जाना चाहिए. जीवन के किसी भी समय आप अपने को रोने के मूड में पा सकते हैं. आप क्यों चाहते हैं रोना? क्योंकि सारी बुरी चीज़ें भाप में बदल जाती हैं और आप उन्हें भूल जाते हैं, लेकिन वहाँ अचेतन में एक कैमरा होता है जो सब कुछ दर्ज करता चलता है. और एक दिन एक प्रोजेक्शन रूम भी होता है, और कैमरा प्रोजेक्टर बन जाता है और उस एपीसोड को प्रोजेक्ट करने लगता है जिसे आँखों ने देखा होता है. और वह कोई नाटकीय या संवेदनशील दृश्य होता है जो आपको रुला देता है. तो असल में यह यूं घटता है. इस तरह एक इंसान बस एक इंसान नहीं होता, वह कई हिस्सों में बंटा होता है. और शरीर का सबसे अहम् डिपार्टमेंट होता है अचेतन यानी सबकॉन्शस. हम उसे दिल या दिमाग कहते हैं पर वह सबकॉन्शस की परम शक्ति होती है असल में,

(जारी)

हम भीग रहे थे और हमारे बीच की हवा गर्म थी


हम बारिश में भीग कर आए.


- फ़रीद ख़ाँ

छाता लेकर निकलना तो इक बहाना था,
असल में हमको इस बारिश में भीगना था.

हम लम्बे मार्ग पर चल रहे थे,
ताकि देर तक भीग सकें साथ साथ....
और ऐसा ही इक मार्ग चुना,
जिस पर और किसी के आने जाने की संभावना क्षीण हो.

लम्बी दूरी के बाद हमें दिखा
एक पेड़ के नीचे,
एक चूल्हा और एक केतली लिए, एक चाय वाला.
एक गर्म चाय हमने पी. 
हम भीग रहे थे और हमारे बीच की हवा गर्म थी.  
हमारे अन्दर भाप उठ रही थी.

हमने पहली बार एक दूसरे को इतना एकाग्र हो,
इस क़दर साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ देखा था बिल्कुल भीतर.    

उस क्षण आँखों के सिवा और कुछ नहीं रहा शेष इस सृष्टि में.

बाक़ी सब कुछ घुल रहा था पानी में.   

Wednesday, May 7, 2014

अल्लाह से मिलने वाली मोहब्बत सबसे टॉप लेवल की मोहब्बत है - कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार - 4

(पिछली क़िस्त से आगे)


बुरा वक़्त

कादर ख़ान – मैं करीब २४ का था. तब मैं अपनी माँ से मिलने दोपहरों को जाया करता था. वे मुझसे वापस आ जाने को कहती थीं. मैं मना कर दिया. मैं तुम्हारे प्यार के लिए आता हूँ. मेरे भीतर एक आत्मसम्मान है जो मुझे यहाँ आने से रोकता है. मैंने उस से कहा कि मैं वहाँ इस लिए नहीं आना चाहता कि मैं नहीं चाहता वो आदमी मुझे बेइज़्ज़त करे. जब वह मुझे बेइज़्ज़त करता है तो मुझे लगता है वह तुम्हें बेइज़्ज़त कर रहा है. कई सालों तक ऐसे ही रहा. फिर मेरी शादी का दिन आया. यह आदमी काम भी किया करता था और एक बेहतरीन बढ़ई था. अगर वह चाहता होता तो बहुत पैसा बना सकता था. लेकिन उसकी संगत खराब थी. उसके दोस्त उसे शराबखानों में ले जाते थे. वह दारू पीता था. शराब पीता था, आता था, हंगामा करता था, माँ को मारता था, सब गालियाँ देता था. और जब मैं छोटा था वह मुझसे कहता था “जा अपने बाप से पैसे मांग के ला.” तो कभी कभी मैं अपने पिताजी के पास जा कर खड़ा हो जाया करता.

“क्या है?”

“दो रुपये चाहिए.”

“मैं कहाँ से लाऊँ? मैं मुश्किल से छः रुपये कमाता हूँ.”

खैर. वे मुझे दो रूपये दे देते. उन पैसों से में थोडा आटा, दल, घी या तेल ले जाया करता. तब जाकर माँ डाल रोटी बनाती और हम खाना खाते.  हफ्ते में दो दिन में तीन दिन में एक बार भूखा रहना पड़ता था, फाका करते थे न – ये ज़िन्दगी में सब कुछ देख लिया है!  इन सारी चीज़ों में मुझे विद्रोही बना दिया. और मैंने कहीं से साहित्य वगैरह पढ़े बिना लिखना शुरू कर दिया.


और मुझे एक अच्छे अध्यापक के तौर पर ईनाम दिया गया क्योंकि मैं जो कुछ करता उसे प्यार से करता था. मुझे माँ बाप के अलावा किसी का प्यार नहीं मिला. तो प्यार का वो इलाका ख़ाली था. मैं ऐसे स्कूल कॉलेज में पढ़ा जहां लडकियाँ नहीं होती थीं. सो किसी तरह का कोई अनुराग नहीं, कोई मोहब्बत नहीं. हर किसी को माँ-बाप का प्यार चाहिए होता है. सच बात है. लेकिन उसके भीतर भी एक कोई शैतान होता है. आपको अल्लाह से भी मोहब्बत  मिलती है. वह सबसे टॉप लेवल की मोहब्बत है. लेकिन इंसान टॉप लेवल नहीं होता. वह पहाड़ की चोटी पर नहीं घाटी में रहता है. सो एक इंसान को प्यार चाहिए होता है. लेकिन प्यार होता कहीं नहीं, सो उस सारे प्यार को मैंने विद्रोह की तरफ मोड़ दिया. मैं लिखा करता था. मैं तीखी पंक्तियाँ लिखा करता था. तीखे नाटक.

(जारी)

गंगा में अर्घ्य देते हाथों के बीच से दिखता लाल सा सूरज


छठ की याद में

-फ़रीद ख़ाँ

पटना की स्मृति के साथ मेरे मन में अंकित है,
गंगा में अर्घ्य देते हाथों के बीच से दिखता लाल सा सूरज.

पूरे शहर की सफ़ाई हुई होगी.
उस्मान ने रंगा होगा त्रिपोलिया का मेहराब.
बने होंगे पथरी घाट के तोरण द्वार.   

परसों सबने खाए होंगे गन्ने के रस से बनी खीर,
और गुलाबी गगरा निंबू.   
व्रती ने लिया होगा हाथ में पान और कसैली.

अम्मी बता रही थीं,
चाची से अब सहा नहीं जाता उपवास,
इसलिए मंजु दीदी ने उठाया है उनका व्रत.
धान की फ़सल अच्छी आई है इस बार. 
रुख़सार की शादी भी अब हो जायेगी.
उसकी अम्मी ने भी अपना एक सूप दिया था मंजु दीदी को.
सबकी कामनाएँ पूरी होंगी.
  
पानी पटा होगा सड़कों पर शाम के अर्घ्य के पहले.
धूल चुपचाप कोना थाम कर बैठ गई होगी.
व्रती जब साष्टांग करते हुए बढ़ते हैं घाट पर,
तो वहाँ धूल कण नहीं होना चाहिए, न ही आना चाहिए मन में कोई पाप.
वरना बहुत पाप चढ़ता है.

इस समय बढ़ने लगती है ठंड पटना में.  

मुझे याद है एक व्रती.
सुबह अर्घ्य देकर वह निकला पानी से,
अपने में पूरा जल जीवन समेटे
और चेहरे पर सूर्य का तेज लिये.
गंगा से निकला वह
दीये की लौ की तरह सीधा और संयत.

सुबह के अर्घ्य में ज़्यादा मज़ा आता था,
क्यों कि ठेकुआ खाने को तब ही मिलता था.

पूरा शहर अब थक कर सो रहा होगा,
एक महान कार्य के बोध के साथ.

Tuesday, May 6, 2014

फिर इन सब में लगा पलीता


पढ़िए गीता

-रघुवीर सहाय


पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर-बार बसाइए

होंय कँटीली
आँखें गीली
लकड़ी सीली, तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भरकर भात पसाइए

मैं दुआ करता हूँ काश हर बेटे को ऐसी माँ मिले - कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार - 3

(पिछली क़िस्त से आगे)


कॉनी हाम – पढ़ाई के लिए ऐसी इच्छा उनके भीतर कहाँ से आई?

कादर ख़ान – मुझे नहीं मालूम. मेरे लिए वो एक फ़रिश्ता थीं. मैं दुआ करता हूँ काश हर बेटे को ऐसी माँ मिले. उसने मुझे ज़िन्दगी में सब कुछ दिया. मेरे कहने का मतलब दुनियावी चीज़ों से नहीं है, यानी मैं जो कुछ भी हूँ, जो कुछ भी बन सका हूँ, वह मेरी माँ और मेरे पिता के कारण संभव हुआ. मेरे वालिद बहुत कमज़ोर आदमी थे. बेहद ग़रीब. वे बहुत पढ़े-लिखे थे. उन्हें दस तरह की फ़ारसी और आठ तरह की अरबी का ज्ञान था.

कॉनी हाम – उन्होंने यह सब कहाँ सीखा?

कादर ख़ान – काबुल में. उन्होंने वहाँ कोई स्कूल ज्वाइन किया था. उनकी हस्तलिपि शानदार थी. लेकिन पढ़े-लिखे लोग पैसे नहीं कमा पाते. जब वे बम्बई आये तो एक मस्जिद में मौलवी बन गए. वहाँ वो दूसरों को अरबी सिखाया करते थे – अरबी व्याकरण, फ़ारसी, उर्दू. लिकं उन्हें बदले में कुछ नहीं मिलता था – बस चार या पांच या छः रूपये एक महीने के.

मेरे सौतेले पिता

गरीबी की वजह से मेरे माँ-बाप का साथ चल नहीं सका. मेरे वालिद घर की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते थे. घर में हमेशा एक तनाव बना रहता था. तो वो दोनों अलग हो गए. मैं कोई चार साल का था जब मेरे माँ-बाप का तलाक हुआ. तब मेरे नाना मेरे मामा के साथ आये और उन्होंने कहा “एक जवान औरत ऐसी गंदी जगह में बिना पति के नहीं रह सकती. तुम्हे शादी करनी होगी.” और उन्होंने मेरी माँ की फिर से शादी करा दी. सो आठ साल की आयु से मैंने जीवन को एक माँ और दो पिताओं के साथ गुज़ारना शुरू किया – एक मेरे असली पिता एक सौतेले. मेरे माता-पिता अलग हो चुके थे पर दोनों के मन में एक दूसरे के लिए सहानुभूति थी. हर कोई जानता था कि उनका अलगाव गरीबी के कारण हुआ है. माहौल ने उन्हें अलग होने पर विवश किया था. वर्ना उनके अलग हो जाने का कोई करण न था. मेरे मन में अपनी माँ के लिए बेतरह मोहब्बत थी पर अपने सौतेले पिता के लिए उतनी ही बेपनाह नफ़रत. वह किसी ड्रामा या स्क्रीनप्ले के सौतेले बाप जैसे थे – कठोर दिल वाले. एक दफ़ा मेरा नाटक ‘लोकल ट्रेन’ राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में पहुंचा. हमने बेस्ट प्ले, बेस्ट राइटर और बेस्ट एक्टर के अवार्ड्स जीते. मैं इनिनामों को माँ को दिखाने की नीयत से घर लाया. मेरे सौतेले पिता उस दिन मुझसे बात करने के मूड में नहीं थे. उन्होंने ट्राफी को देखना था और वे आगबबूला होकर मुझे पीटने लगे – उन्होंने पीट पीट कर मुझे नीला बना दिया और लतियाते हुए घर से बाहर निकाल दिया. मैं अपने संस्थान गया और प्रिंसिपल के दरवाज़े पर बैठकर उनसे बातचीत की. वे बोले, “अगर तू चाहो तो स्टाफ क्वार्टर्स में रह सकते हो..” उन्होंने मुझे बांस की बनी एक खटिया, बिस्तर, कम्बल और तकिया दिया. “मैं यही तुम्हारी मदद कर सकता हूँ” वे बोले. मैंने वहाँ रहना शुरू कर दिया.

कॉनी हाम – तब आप कितने साल के थे?

हिंसा का इतिहास हारे हुए पुरुषों का इतिहास है - फ़रीद ख़ाँ की कवितायेँ - 5


अपमान की परंपरा का इतिहास

हिंसा का इतिहास पुरुषों का इतिहास रहा है. 
उसने धन दौलत, साम्राज्य और औरत के लिए मूर्खता पूर्ण युद्ध किए.  

उसने हार के डर से औरत को घर में बैठाया
फिर जीत की शान में कोठे पर. 

कपडे उतार कर इधर से उधर घुमाया. 
या सिर से पाँव तक परदा ओढाया. 
जो जीना चाहती थी उसे पत्थर से मार मार कर मार दिया. 
फिर भी हार गया.

बिस्तर में कमज़ोर पड़ा पुरुष 
लोहे की छड़ का सामूहिक इस्तेमाल करके विजय प्राप्त कर लेता है. 

हिंसा का इतिहास हारे हुए पुरुषों का इतिहास है. 

हिंसा का इतिहास अपमान की लम्बी परंपरा का इतिहास है.  

Monday, May 5, 2014

क्‍या ये शहरी लोग सही हैं और उसके गांव की औरतें ग़लत?



सिदो हैम्‍ब्रम और दुख की नदी: एक आधुनिक लोककथा

तैंतीस साल के छरहरे, सांवले सिदो हेम्‍ब्रम के जीवन में तंगी का संकट नहीं था. नवधनिक ठाठ नहीं थे मगर अच्‍छी नौकरी की कामचलाऊ ज़ि‍न्‍दगी थी. दो कमरों के साफ़-सुथरे घर में सुघड़ पत्‍नी की व्‍यवस्‍था थी. चाहता तो सब समय फ्रिज़ का पीना पी सकता, लेकिन मटकी के पानी और मटकी वाले हंड़ि‍या के बीच पले-बढ़े सिदो हैम्‍ब्रम को फ्रिज़ के बर्फीले पानी से असुविधा होती. लगता अपनी पहचान और नैतिकता से समझौता कर रहा है. जबकि गांव में पीने के पानी की एक गगरी के लिए औरतें चार कोस का रस्‍ता तय करती थीं, हाथ में ठंडा पानी लेकर वह उन सभी औरतों के साथ धोखा करेगा. ज्ञान की चेतना पाते ही पहली बात उसने समझी कि धोखेबाजी और रंगबाजी ही गांव में दुख का यथास्थितिवाद बनाये हुए हैं. सिदो हैम्‍ब्रम सुबह-शाम इस यथास्थितिवाद को तोड़ने की तरकीबें सोचता, मगर धोखेबाज बनकर उसका हिस्‍सा हो जाए, ऐसा अपराध तो उसे सपने में भी न सूझता.

राजधानी की खुशगवार सड़कों पर सस्‍ते शर्ट और सस्‍ते पैंट में पीठ के पीछे हाथ बांधे सिदो हैम्‍ब्रम सुखी नागरजनों के कौतुक देखता और मन ही मन विचार करता कि इनके जीवन में पानी है फिर उसके गांव में क्‍यों नहीं. क्‍या ये सही लोग हैं और उसके गांव की औरतें गलत? वर्त्‍तमान समय की कौन-सी तस्‍वीर सही और प्रामाणिक है. वह जो दिन-रात उसके दिमाग में खदबदाते भात की तरह खौलती रहती है, या वह जिसकी छाया वह नागरजनों की सुखी आंखों में देखता है? सिदो हैम्‍ब्रम देर तक विचार करता और अपने सवाल का सही उत्‍तर न पाकर घंटों उद्वि‍ग्‍न बना रहता. गांव-घर की पत्‍नी पूछती किस बात की चिंता है तो सिदो हैम्‍ब्रम ऊंची आवाज़ में उसके आगे अपनी चिंतायें बकता बेचारी सीधी औरत और पड़ोसियों की शांति में खलल बनता. ज़ि‍रह के पेंच और उलझते जाते तो सिदो हैम्‍ब्रम अचानक हंसने लगता. इस तरह अपनी उलझन व कुंठा जोर-जोर की हंसी के पीछे छिपाकर वह अपनी तक़लीफ भूलने की कोशिश करता.

सिदो हैम्‍ब्रम चाहता तो एक बड़ी छलांग मारकर दुख की नदी पार कर जाता. इतनी चेतना और राजधानी में रहकर इतनी चालाकी अर्जित कर ली थी उसने. मगर गांव के मोह से बंधा हुआ था. खुद को दुख से अलग करके वह गांव से अलग होने के अपराध का भागी होना नहीं चाहता था.

सिदो हैम्‍ब्रम ने बचपन से आदिवासी जीवन के दुख देखे थे. आदिवासी जीवन से बाहर आकर दुखों का एक वृहत्‍तर भूगोल देखा. बड़े गुनी-ज्ञानी लोगों की संगत में बैठकर दुख की इस नदी की वह ठीक-ठीक व्‍याख्‍या समझने की कोशिश करता. इतना शांत व समर्पित रहता कि लोग भूल जाते सिदो हैम्‍ब्रम ऊंची आवाज़ में बात करता है. और फिर इस खूराक़ से लैस होकर वह अपने सस्‍ते हवाई चप्‍पल में मीलों पैदल चलता. दिमाग में सवालों की व्‍यवस्‍था करता, नए ज़ि‍रह डिज़ाइन करता. और इस ख़्याल से उसे अपूर्व सुख की अनुभूति होती कि वह दुख का केवल अपने व अपने गांव के लिए ही नहीं, समूचे समाज का तोड़ पा लेगा, और उसकी कहानी का निजी सबक सामाजिक सबक के बतौर बरता जा सकेगा.

जितना सिदो हैम्‍ब्रम अपने को समझता था, उतना वह समझदार था नहीं. दरअसल भोला और बुद्धू था. क्‍योंकि जिस घड़ी वह इन सपनों में डूबा रहता, ठीक उसी वक़्त उसके दफ़्तर के सहकर्मी और शांत पड़ोसी उसके हल्‍ले के ख़ि‍लाफ़ पुलिस थाने में शिकायत लेकर बैठे होते. कुछ ही समय में फ़ैसला सुनाकर सिदो हैम्‍ब्रम से हमेशा-हमेशा के लिए दाल भात छीन लिए जाने की नीति रची जा रही होती.

आखिर में एक निजी चिंता. मैं सिदो हैम्‍ब्रम के साथ रहूं, या उसके शांत पड़ोसियों की शिकायत के साथ- इस प्रश्‍न को लेकर अभी तक असमंजस में हूं. मेरी मदद कीजिए- आप ही बताइए, क्‍या करना उचित व संगत होगा?

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कोई मरने से मर नहीं जाता, देखना वो यहीं कहीं होगा – पहल के गलियारों से - 5

कवयित्री ज़ेहरा निगाह के साथ इजलाल मजीद

[पहल-92 से साभार]

इजलाल मजीद एक ऐसे शायर हैं, जिन्हें लिखते हुए ज़माना बीत चुका है. लेकिन ज़माने पर यह खबर आम न हो, इसका पुख्ता इंतज़ाम कर रखा था. मोहब्बतों से भरे एक छोटे से कमरे में करीबी दोस्तों के बीच डायरी के पन्नों से अपनी शायरी के मोती चुन-चुन कर सुनाते रहे. तारीफ सुनते तो चेहरे पर किसी नवयौवना की सी शर्मीली लाली आ जाती. अब यह सिलसिला टूट रहा है. लगभग 75 साल के अनोखे लबो-लहजे वाले इस शायर की यह रचनाएं हिंदी की किसी भी पत्रिका में प्रकाशित उनकी पहली रचनाएं हैं. इसी के साथ उनका गज़लों का पहला संग्रह भी हिंदी और उर्दू में 'यात्रा' से हाल ही में प्रकाशित हुआ है इस किताब का नाम 'ख्रुद गरिफ्त' है. मूलत: लखनऊ के रहने वाले इजलाल मजीद, 1963 में भोपाल के सेफिया कालेज में हिस्ट्री के लेक्चरर मुकर्रर हुए और भोपाल के ही होकर रह गए. उर्दू के नामवर लेखक इकबाल मजीद उनके बड़े भाई है और मशहूर शायर जां निसार अख्तर उनके हम-ज़ुल्फ थे.


इजलाल मजीद की शायरी


ग़ज़ल – एक

कुछ दिनों का साथ कर लो लौट आना बाद में
लौट जो आओ तो रखना आना जाना बाद में

पहले तो शर्त-ए-वफा भी छोड़ देना इश्क में
और फिर हीलों से उसको आज़माना बाद में

गर्मी-ए-सोहबत में उसका पहले तो खुल-खेलना
और फिर सब याद करके मुस्कुराना बाद में

प्यार के झरने में खेलो जिस कदर चाहो मगर
वस्ल का देना पड़ेगा, आबयाना बाद में

वक्त ने लिक्खा है जो उस पर जली अल्फाज़ में
पढ़ तो लो पहले उसे, दीवार ढाना बाद में

(गर्मी-ए-सोहबत : संगत की उष्णता, आबयाना = जलकर, जली अल्फाज़ : सुस्पष्ट, मोटी सुर्खी)

ग़ज़ल – दो

किसलिए है अगर मगर मत पूछ
जानता तो है, जानकर मत पूछ

उनके बनने से ले के गिरने तक
खौफ की बूंद का सफर मत पूछ

इस तरफ देख चल रहा है जो
होता रहता है क्या उधर मत पूछ

जान्ते हैं दुआ के बारे में
और क्या चीज़ है असर मत पूछ

किसलिए धूप में खड़ा है पेड़
पूछ सकता है तू मगर मत पूछ

जो कहीं का न हो सका उस से
घर है, क्या चीज़ है सफर मत पूछ

एक दिन तो सुकून से जी ले
एक दिन तो कोई खबर मत पूछ

ग़ज़ल – तीन

दरिया चढ़ा तो पानी नशेबों में भर गया
अबके भी बारिशों में हमारा ही घर गया

पत्ते का सब्ज़ शाख पे चेहरा उतर गया
झोंका हवा का शोख था छूकर गुज़र गया

इक रोशनी थी मेरे तअक्कुब में रात भर
इक साया रहनुमा था मिरा, मैं जिधर गया

इक कहकहा हो जैसे पहाड़ों में बाजगश्त
इक वसवसा जो सूरत-ए-साया गुजर गया

फिर पल रहा है शब़ की इसी तीरा कोख में
सूरज जो कोह-ए-शाम से टकरा के मर गया

मंज़िल पे होश आया कि राहों में मिस्ल-ए-जां
इक शख्स साथ-साथ था जाने किधर गया

(नशेबों : निचले इलाकों में, तअक्कुब : पीछा करना, बाज़गश्त : गुंज प्रतिध्वनि, तीरा : अंधेरी, कोह-ए-शाम : शाम का पर्वत, मिस्ल-ए-जाँ : जान की तरह प्यारा)

ग़ज़ल – चार

वो न छूता है न कुछ बात किया करता है
एक साया सा मिरे साथ चला करता है

इन फलक बोस पहाड़ों से निकल कर सूरज
मेरी दीवार के पीछे ही ढला करता है

एक पत्ता भी नहीं जिस पे वो सूखा सा शजर
सर फिरी तुन्द हवाओं पे हंसा करता है

दिल में कुछ ऐसे रहा करता है यादों का गुबार
बंद कमरे में धुआं जैसे घुटा करता है

काश वो सित्ह तक इक बार उभर कर आये
तेज़ धारा जो तह-ए-आब बहा करता है

(फलकबोस : गगनचुम्बी, शजर : पेड़, तुन्द : तेज, सित्ह : सतह, तह-ए-आब : पानी के नीचे)

ग़ज़ल – पांच

मिट्टी था किसने चाक पर रखकर घुमा दिया
वो कौन हाथ थे कि जो चाहा बना दिया

जो अब तलक छुपाये थी कमरे की रोशनी
रस्तों की तीरगी ने वो सब कुछ दिखा दिया

परियों के देस वाली कहानी भी खूब है
बच्चों को जिसने फिर यूंही भूखा सुला दिया

अब और क्या तलाश है क्यों दीदारेज हो
मिट्टी में बस वही था जो तुमने उगा दिया

कुछ अज़दहे से रेत पे कुछ बंद सीपियां
साहिल को लौटती हुई लहरों ने क्या दिया

(तीरगी : अंधकार, दीदारेज़ : आंखों पर अत्यधिक जोर डालना, अज़दहे : अजगर)

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नज़्म – एक

(बस्ती में पहली बार कर्फ्यू )

यह तब की बात है जब
किसी बस्ती में पहली बार
अचानक
कर्फ्यू नाफ़िज़ हुआ था

किसी घर में
कोई बच्चा
उछलता कूदता
बाहर से आया था
सहन में नाचते
चक्कर लगाते
कर्फ़ियू आया
कर्फ़ियू आया
कोई गाना सा गाता था

यह सुनकर
कदीमी घर में जन्मीं
पुरानी औरतें
अब आन बैठी थीं, दरीचों में
कि शायद, कार्फियू दूल्हा उपर देखे
और आंखें चार हों
दूल्हा से
कर्फ़ियू  दुल्हा से
मगर वीरानगी सड़कों की
कदीमी घर में जन्मीं,
पुरानी औरतों की
हैरानगी से कुछ ज़ियादा थी

वीरानगी, हैरानगी, हैरानगी, वीरानगी
मैं कुछ दिन, बड़बड़ाया था
यह तब की बात है


नज़्म – दो

अब वे
नहीं फुस्फुसाते
एक दूसरे के कानों में

अब वे
नहीं देते हवा
सीनों में सुलगती चिंगारियों को
तवारीख के पन्नों से

अब के
नहीं लगाते तिलक
काटकर अंगूठे
एक दूसरे के माथों पर

अब वे सिर्फ
भरते है स्वांग हमारा
हमारे सामने

नज़्म - ३ 

इज़राईल

बर्कपाश मुस्कुराहटों सी पन्नियाँ
हैरती, मासूम और ज्ञानी आंखों सी कांच गोलियाँ
नीले, पीले
सब्ज़-ओ-सियाह
ख्वाबों से बेशुमार संगरेज़ो
और दांत झड़े पोपले मुह जैसे कंघे

अभी अभी घर के आंगन में
अपनी तमाम फूली जेबें
उलट दी हैं
नन्हे पप्पू ने!!

(इज़राईल – यमराज)

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जाड़ों की दोपहरी थी और छत के ऊपर दिलबर था
लेकिन आँख मिलाते कैसे सूरज भी तो सिर पर था

किस के दर पर भूल खड़ावें नंगे पाँव खड़ा था मैं
कौन मेरी चौखट पर कब से छोड़ खड़ावें अंदर था

गैरत को क्या जाने सूझी उस दम सब दर खोल दिए
घेरा छोड़ के जाने ही को जिस दम दुश्मन लशकर था

अभी वो थोड़ा सा थोड़ा सा प्यार मांगेगा
फिर उसके बाद बहुत इखतियार मांगेगा

हमारे वक्त का खंजर है, चुप नहीं रहता
यह खूँ उछालेगा और इशतिहार मांगेगा

धुले धुले से फलक में तारे न जाने कब से बुला रहे हैं
मगर अंधेरी गुफाओं में हम खबीस रूहें जगा रहे हैं

वो ताज़ा दम फिर उठे सवेरे, तो रात आंखों में काटकर
हम शरीर बच्चों सी ख्वाहिशों को थपक-थपक कर सुला रहे हैं

अपने हाथ कहां तक जाते भाग दौड़ बस यूं ही थी
उनके बांस बहुत थे लम्बे जो कनकईया लूट गए

बाहर धूप थी शिद्दत की और हवा भी अंदर थी बेचैन
गुब्बारे वाले के आख़िर सब गुब्बारे फूट गए

सच में है झूठ, झूठ में है सच ज़रा ज़रा
आवारगी बिना यह कोई जानता नहीं

इन आखरी घडिय़ों में भी बच्चों के वास्ते
देने को मेरे पास कोई मशवरा नहीं

एक ज़िद्दी ज़ायका ये और क्या
ऐ फना तेरे सिवा ये और क्या

चांद ने आंखों में झांका और कहा
पुतलियों में चांद सा ये और क्या

कोई मरने से मर नहीं जाता
देखना वो यहीं कहीं होगा