अध्यापन से सिनेमा और वापस
कॉनी हाम – और आपका सिनेमा का काम?
कादर ख़ान – मैंने कोई अट्ठाईस सालों तक
फिल्मों के लिए लिखा. फिर मैं उकता गया. मूलतः मेरे पिता ने मुझे एक शिक्षक बनाया
था. मुझे पढ़ाने में ही सबसे ज़्यादा आनन्द आता था. मैं ग्लैमर के संसार में गया.
मैंने अच्छा नाम और पैसा बनाया. लेकिन मेरे दिल को आराम न था. मुझे महसूस होता था
कि मेरे छात्र कहीं मेरा इंतज़ार कर रहे हैं. और इसी लिए जब एक दिन मैंने पाया कि
नई पीढ़ी बॉलीवुड में आकर कब्जा कर रही है - मतलब नए नए लड़के, और वो लड़के जो मेरे
निर्देशक के असिस्टेंट के नीचे काम किया करते थे, वो भी थर्ड या फोर्थ या फिफ्थ असिस्टेंट.
वे हीरो बन रहे थे, डायरेक्टर बन रहे थे. तो एक तरह का जेनेरेशन गैप आ रहा था.
विचारों और भावनाओं में एक गैप आ रहा था. मैंने एकाध के साथ काम किया पर उसे चालू
नहीं रख पाया. सो धीरे धीरे मैंने काम करना कम कर दिया. इस तरह मैं फिल्म
इंडस्ट्री से बाहर आया. मेरे समय के ७० से ८०% निर्देशक और एक्टर अब जा चुके हैं.
और उनसे बात करना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है. उनके थॉट्स वो सारे इम्पोर्टेड
हैं. मैं इस ज़मीन का आदमी हूँ. मैं कमाठीपुरा का रहनेवाला हूँ. जब तक मुझे वो
माहौल, वो कमाठीपुरा का माहौल नहीं मिलता, न अमिन एक्टिंग कर सकता हूँ न लिखना. और
ये नई जेनेरेशन – इसे कम्प्यूटर साइंस और बिजनेस मैनेजमेंट के बारे में सब पता है.
हमारे समय में ये विषय होते ही नहीं थे. मैनेजमेंट बहुत दुरुस्त है. तकनीक बहुत
आगे की है. लेकिन साहित्य को उन्होंने खो दिया है. अब कोई लेखक हैं ही नहीं. वो
लोग लिखते ही नहीं. क्योंकि लिखने से पहले आपको ज़िन्दगी के कई उबलते हुए सबक सीखने
पड़ते हैं, उनसे गुजरना होता है.
कॉनी हाम – तो आप सोचते हैं कि नई पीढ़ी
ने उतना सब सहा ही नहीं कि वे अच्छा लिख सकें?
कादर ख़ान – देखिये, यातना की सघनता – वे
लोग यातना को कुछ और नाम से पुकारते हैं. अगर एक लड़के को एक लडकी से मोहब्बत हो
जाती है और वह घंटों तक उसका इंतज़ार कर रहा है, उसे वो लोग यातना मतलब सफ़रिंग कहते
हैं. नहीं साहब, वह सफ़रिंग नहीं है. वह कुछ और होती है. और वह ऐसी चीज़ होती है जो
आपके अचेतन में चली जानी चाहिए, उसे वहीं लिखा जाना चाहिए, वहीं रेकॉर्ड किया जाना
चाहिए. जीवन के किसी भी समय आप अपने को रोने के मूड में पा सकते हैं. आप क्यों
चाहते हैं रोना? क्योंकि सारी बुरी चीज़ें भाप में बदल जाती हैं और आप उन्हें भूल
जाते हैं, लेकिन वहाँ अचेतन में एक कैमरा होता है जो सब कुछ दर्ज करता चलता है. और
एक दिन एक प्रोजेक्शन रूम भी होता है, और कैमरा प्रोजेक्टर बन जाता है और उस
एपीसोड को प्रोजेक्ट करने लगता है जिसे आँखों ने देखा होता है. और वह कोई नाटकीय
या संवेदनशील दृश्य होता है जो आपको रुला देता है. तो असल में यह यूं घटता है. इस
तरह एक इंसान बस एक इंसान नहीं होता, वह कई हिस्सों में बंटा होता है. और शरीर का
सबसे अहम् डिपार्टमेंट होता है अचेतन यानी सबकॉन्शस. हम उसे दिल या दिमाग कहते हैं
पर वह सबकॉन्शस की परम शक्ति होती है असल में,
6 comments:
बढ़िया :)
Very nice
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Very Nice
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अद्भुत है इसे पढ़ना... यह कादर खान की अब तक बनी बनाई (मेरे अपने ही भीतर) ध्वस्त कर देने वाला है। अगली किस्तों का इंतजार रहेगा...
इंतजार ................!!!!!!अगली किस्तों का!!!!!!!
मुझे याद है कि जितेंद्र, गोविन्दा और शक्तिकपूर के साथ इनकी जोड़ी भयंकर जुगुप्सा पैदा करती थी । फ़िल्म '"हम" में इनका खुजली वाले नौटंकी अदाकार का अभिनय आज भी जी मिचला देता है लेकिन वहीं क़लम पर इनकी पकड़ गज़ब की रही है । हम में इनका एक संवाद है जो ये डबल रोल में बतौर एक रिटायर्ड जनरल एक नकली जनरल से बोलते हैं जो इनकी बेटी से अपने भाई का रिश्ता कराने आया है। ये कहते हैं -- "किसी इंसान की सीरत उसकी सूरत से नहीं उसके जूतों से पता चलती है , तुम्हारे जूते में छेद है इसलिए तुम कभी असली जनरल नहीं हो सकते ।" इससे पहले मैं हमेशा सस्ते क़िस्म के जूते पहना करता था लेकिन इसके बाद ही मैंने वुडलैंड का रुख किया । जितेंद्र के साउथ इंडियन पुनर्जागरण से पहले इनका अभिनय भी अच्छा लगता था । कोई बता रहा था कि इन्होंने घर में लकडी के गोल गोल खांचे बनवा रखे थे दीवार में जिसमें सिचुएशन के हिसाब से सीन और स्क्रिप्ट रखे रहते थे और पैसे लेकर ज़रूरत के हिसाब से कागज़ निकाल कर थमा देते थे
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