ज्ञानरंजन जी से मिलकर
- गिरीश ‘मुकुल’
ज्ञानरंजन जी के घर से लौट कर बेहद खुश हूं. पर कुछ दर्द
अवश्य अपने सीने में बटोर के लाया हूं. नींद की गोली खा चुका पर नींद न आयेगी मैं
जानता हूं. खुद को जान चुका हूं.कि उस दर्द को लिखे बिना निगोड़ी नींद न
आएगी. एक कहानी उचक उचक के मुझसे बार बार
कह रही है :- सोने से पहले जगा दो सबको. कोई गहरी नींद न सोये सबका गहरी नींद लेना
ज़रूरी नहीं. सोयें भी तो जागे-जागे. मुझे मालूम है कि कई ऐसे भी हैं जो जागे तो
होंगें पर सोये-सोये. जाने क्यों ऐसा होता है.
ज्ञानरंजन जी ने मार्क्स को कोट किया था चर्चा में
विचारधाराएं अलग अलग हों फ़िर भी साथ हो तो कोई बात बने. इस तथ्य से अभिग्य मैं एक कविता लिख तो चुका था
इसी बात को लेकर ये अलग बात है कि वो देखने में प्रेम कविता नज़र आती है :-
प्रेम
की पहली उड़ान है
तुम
तक मुझे बिना पैरों
के
ले आई..!
तुमने
भी था स्वीकारा मेरा न्योता
वही मदालस एहसास
होता
है साथ
तुम
जो कभी कह न सके
जोखम
कभी सुन न सके
उसी
प्रेमिल संवाद की तलाश थी
प्रेम
जो देह से ऊपर
प्रेम
जो ह्रदय की धरोहर
उसे
संजोना मेरी तुम्हारी जवाबदारी
नहीं
हैं हम पल भर के अभिसारी
उन
दो तटों सी जी साथ साथ रहतें हैं
बीच उनके जाने कितने धारे बहते हैं
अनंत
तक साथ साथ
होता
है मिलने का विश्वास
एक
विवरण जो ज्ञानरंजन जी ने सुनाया उसी को भुला नही पा रहा हूं वो कहानी बार
बार कह रही है सबको न बताओगे मुझे सबों तक ले चलो तो कहानी की ज़िद्द पर प्रस्तुत
है वही ज़िद्दी कहानी
“ एक राजा था, एक रानी थी, एक
राज्य तो होगा ही .रानी अक्ल से असाधारण, किन्तु शक्ल से असाधारण रूप से सामान्य थी. वो रानी इस
लिये थी कि एक बार आखेट के दौरान राजा बीमार हो गया. बीमार क्या साथियों ने ज़हर
दे दिया मरा जान के छोड़ भी दिया. सोचा मर तो गया है न भी मरा होगा तो कोई जंगली जानवर का आज़ का भोजन बन जाएगा.
बूढ़ी मां के लिये बूटियां तलाशती एक वनबाला ने उस निष्प्राण सी देह को देखा.
वनबाला ने छुआ जान गई कि कि अभी इस में जीवन शेष है. सोचा मां की सेवा के साथ इसे
भी बचा लूं पता नहीं कौन है . जी जाए तो ठीक न जिये तो मेरे खाते में एक पुण्य
जुड़ जाएगा . बूटी खोजी और बस उसे पिलाने की कोशिश . शरीर के भीतर कैसे जाती बूटी बहुत जुगत
भिड़ाती रही फ़िर के ज़रिये बूटी का सत
डाल दिया उसकी नाक में. इंतज़ार करती रही कब जागे और कब वो मां के पास वापस जाए .
आधी घड़ी बीती न थी कि राज़ा को होश आ ही गया. राजा ने बताया कि उसने शिकार की
तलाश में भूख लगने पर आहार लिया था.
वनबाला समझ गई की राजा खुद शिकार
हुआ है . उसने कहा – ”राजन, आप अब यहीं रहें मैं आपके महल में जाकर पुष्टि कर लूं कि षड़यंत्र में
जीते लोग क्या कर रहे हैं. आप मेरा ऋण चुकाएं. मेरी बीमार मां की सेवा करें. गांव
से कंद मूल फ़ल लेकर राजधानी में बेचने निकली. वहां देखा राजभवन बनावटी शोक
में डूबा था. राजपुरोहित ने प्रधान मंत्री
से सलाह कर राजा के मंद-बुद्धि भाई को राजा बना दिया था. सच्चे नागरिक उन
सत्ताधारियों के प्रति मान इस कारण रख रहे थे क्योंकि उनने प्रत्यक्ष तया सत्ता तो
न छीनी थी. राजा के असामयिक नि:धन से जनता दु:खी थी. वनबाला ने राजपुरोहित और
प्रधान-मंत्री के व्यक्तित्व का परीक्षण किया. ज़ल्द ही जान गई.. वे महत्वाकांक्षी
विद्वान हैं. साथ हिंसक भी हैं.राजपुरोहित की पड़ताल में उस कन्या ने पाया कि राज़
पुरोहित न तो राजा का वफ़ादार था न अपनी पत्नि-पुत्री का ही . उसकी घरेलू नौकरानी
बन के देखा था उसने पुरोहित पुत्री के सामने पत्नी पर कोड़े बरसाते हुए. पुत्री भी
कम दु:खी न थी. पिता की जूतियों से गंदगी साफ़ करती थी. पिता के वस्त्र भी धोती
यानी हर जुल्म सहती. वन बाला समझ चुकी थी
जिस देश का विद्वान ही ऐसी हरकतें करे ,वहां जहां
नारी का सम्मान न हो वो देश देश नहीं नर्क हो जावेगा. बस अचानक एक रात बिना कुछ
कहे पुरोहित की नौकरी से भाग के वन आ गई वापस. राज़ा को हालात बताए. और फ़िर राजा
को साथ में शहर फ़िर ले आई अपने प्रिय
राजा को देख जनता में अदभुत जोश उमड़ गया. ससम्मान फ़िर राजा ने गद्दी पर बैठाया
महल की कमान सम्हाली वनबाला ने फ़िर वो रानी बनी. ये थी वो कहानी जो कभी मां ने
सुनाई ही- एक राजा था, एक रानी थी,यहीं
से शुरु होती थी मां की कहानियां. मुझे नहीं मालूम था क्यों सुनाई थी सव्यसाची ने
ये कहानी पर आज़ पता चला कि क्यों सुनाई थी.ये एक लम्बा सिलसिला है रुकेगा बहीं सब
जानते हैं.
इस कहानी का प्रभाव मेरे मानस पर
गहरा है . पर जिसे नानी-दादी-मां कहानी नहीं सुना पातीं उसके हालत पर गौर करें एक
कहानी ये भी है-
एक बात जो मुझे बरसों से चुभ रही है
जो शक्तिवान है उसे भगवान मान लेतें हैं शक्ति बहुधा मूर्खों के हाथों में पाई
जाती है. जिनकी आंखों में तो विज़न नहीं न ही होती है होता मानस में रचनात्मकता.
एक दिन एक मूर्ख ने भरी सभा में कंधे उचका-उचका के “पाप-पुण्य” की परिभाषा खोज़ रहा था.कुछ मूर्ख भय वश
उत्तर भी खोजने लगे कुछ ने दिये भी उत्तर शक्ति शाली था सो नकार दिया उसने . उसे
आज़ भी उसी उत्तर की तलाश है इसी खोज-तपास में वह जो भी कर रहा होता है एक सैडिस्ट
की तरह करता है. यदी कहीं कोई भगवान है तो ऐसों को समझ दे बेचारा पाप-पुण्य के भेद
क्यों न खोजे … शायद मां से उसे ऐसी कहानियां न सुनी होंगीं
जो उसे जीवन के भेद बताती. इसका दूसरा पहलू ये है कि उसे मालूम है जीना भी एक कला
है वो एक कलाकार. वो कलाकार जो हंस की सभा में हंस बनके शब्दों का जाल बुनता है
कंधे उचकाता है और ऐसे काम करता करता है मनोवैग्यानिक-नज़रिये से केवल एक सैडिस्ट
ही कर सकता है. इस किरदार को फ़िर कभी शब्दों में उतारूंगा आज़ के लिये बस इतना
ही
1 comment:
मूर्खों की जय हो ।
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