Tuesday, October 28, 2014

मिस्टर एक्स, आप बेसिकली हरामज़ादे क़िस्म के दलाल हैं - धंधेबाज और सत्ता परस्त पत्रकारों के लिए कुछ मिनट का मौन

भड़ास फ़ॉर मीडिया चलाने वाले यशवंत सिंह की फेसबुक वॉल से साभार यह ज़रूरी पोस्ट एक सामान्य वक्तव्य नहीं, आने वाले अंधेरों की टोह लेने और सचेत नागरिकों को कुछ आवश्यक तथ्यों से अवगत कराने का एक ईमानदार प्रयास है. यशवंत को सलाम!
दलाल, धंधेबाज और सत्ता परस्त पत्रकारों के लिए कुछ मिनट का मौन
मैं आज के दिन को मीडिया के लिहाज से शर्मनाक दिन कहूंगा. पत्रकारिता के छात्रों को कभी पढ़ाया जाएगा कि २५ अक्टूबर २०१४ के दिन एक बार फिर भारतीय राजनीति के आगे पत्रकारिता चरणों में लोट गई. धनिकों की सत्ता भारी पड़ गई जनता की आवाज पर. कभी इंदिरा ने भय और आतंक के बल पर मीडिया को रेंगने को मजबूर कर दिया था. आज मोदी ने अपनी 'रणनीति' के दम पर मीडिया को छिछोरा साबित कर दिया. दिवाली मिलन के बहाने मीडिया के मालिकों, संपादकों और रिपोर्टरों के एक आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आए. देश, विदेश, समाज और नीतियों पर कोई बातचीत नहीं हुई. सिर्फ मोदी बोले. कलम को झाड़ू में तब्दील हो जाने की बात कही. और, फिर सबसे मिलने लगे. जिन मसलों, मुद्दों, नारों, आश्वासनों, बातों, घोषणापत्रों, दावों के नाम पर सत्ता में आए उसमें से किसी एक पर भी कोई बात नहीं की.
सुधीर चौधरी सेल्फी बनाने लगे. दीपक चौरसिया हालचाल बतियाने लगे. रिपोर्टरों में तो जैसे होड़ मच गई सेल्फी बनाने और फोटो खिंचाने की. इस पूरी कवायद के दौरान कोई पत्रकार ऐसा नहीं निकला जिसने मोदी से जनता का पत्रकार बनकर जनहित-देशहित के मुद्दों पर सवाल कर सके. सब गदगद थे. सब पीएम के बगल में होने की तस्वीर के लिए मचल रहे थे. जिनकी सेल्फी बन गई, उन्होंने शायद पत्रकारिता का आठवां द्वार भेद लिया था. जिनकी नहीं बन पाई, वो थोड़े फ्रस्ट्रेट से दिखे. जबसे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, एक बार भी पूरी मीडिया के सामने नहीं आए और न ही सवाल जवाब का दौर किया. शायद इससे पोल खुलने, ब्रांडिंग खराब होने का डर था. इसीलिए नया तरीका निकाला गया. ओबलाइज करने का. पीएम के साथ फोटो खिंचाने भर से ओबलाइज हो जाने वाली भारतीय मीडिया और भारतीय पत्रकार शायद यह आज न सोच पाएं कि उन्होंने कितना बड़ा पाप कर डाला लेकिन उन्हें इतिहास माफ नहीं करेगा.
जी न्यूज पर ब्रेकिंग न्यूज चलने लगी. एडिटर इन चीफ सुधीर चौधरी ने पीएम के साथ सेल्फी बनाई. इंडिया न्यूज पर ब्रेकिंग न्यूज चलने लगी. एडिटर इन चीफ दीपक चौरसिया का प्रधानमंत्री ने हालचाल पूछा. महंगाई, बेरोजगारी और बदहाली से कराह रही देश की जनता का हालचाल यहां से गायब था. दिवाली की पूर्व संध्या पर सुसाइड करने वाले विदर्भ के छह किसानों की भयानक 'सेल्फी' किसी के सामने नहीं थी. सबके सब प्रधानमंत्री से मिलने मात्र से ही मुस्करा-इतरा रहे थे, खुद को धन्य समझ रहे थे.
रजत शर्माओं और संजय गुप्ताओं जैसे मीडिया मालिकों के लिए पत्रकारिता पहले से ही मोदी परस्ती रही है, आज भी है, कल भी रहेगी. इनके यहां काम करने वालों से हम उम्मीद नहीं कर सकते थे कि वो कोई सवाल करेंगे. खासकर तब जब ये और इन जैसे मीडिया मालिक खुद उपस्थित रहे हों आयोजन में. सुभाष चंद्राओं ने तो पहले ही भाजपा का दामन थाम रखा है और अपने चैनल को मोदी मय बनाकर पार्टी परस्त राष्ट्रीय पत्रकारिता का नया माडल पेश किया है. अंबानियों के आईबीएन7 और ईटीवी जैसे न्यूज चैनलों के संपादकों से सत्ता से इतर की पत्रकारिता की हम उम्मीद ही नहीं कर सकते हैं. कुल मिलाकर पहले से ही कारपोरेट, सत्ता, पावर ब्रोकरों और राजनेताओं की गोद में जा बैठी बड़ी पूंजी की पत्रकारिता ने आज के दिन पूरी तरह से खुद को नंगा करके दिखा दिया कि पत्रकारिता मतलब सालाना टर्नओवर को बढ़ाना है और इसके लिए बेहद जरूरी है कि सत्ता और सिस्टम को पटाना है. होड़ इस बात में थी कि मोदी ने किसको कितना वक्त दिया. मोदी ने कहा कि हम आगे भी इसी तरह मिलते जुलते रहेंगे. तस्वीर साफ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कभी कोई कड़ा बड़ा सवाल नहीं पूछा जा सकेगा. वो जो तय करेंगे, वही हर जगह दिखेगा, हर जगह छपेगा. वो जो इवेंट प्लान करेंगे, वही देश का मेगा इवेंट होगा, बाकी कुछ नहीं.
ब्लैकमेलिंग में फंसे सुधीर चौधरियों और फिक्सर पत्रकार दीपक चौरसियाओं से हमें आपको पहले भी उम्मीद न थी कि ये जन हित के लिए पत्रकारिता करेंगे. दुखद ये है कि पत्रकारिता की पूरी की पूरी नई पीढ़ी ने इन्हीं निगेटिव ट्रेंड्स को अपना सुपर आदर्श मान लिया है और ऐसा करने बनने की ओर तेजी से अग्रसर हैं. यह खतरनाक ट्रेंड बता रहा है कि अब मीडिया में भी दो तरह की मीडिया है. एक दलाल उर्फ पेड उर्फ कार्पोरेट उर्फ करप्ट मीडिया और दूसरा गरीब उर्फ जनता का मीडिया. ये जनता का मीडिया ही न्यू मीडिया और असली मीडिया है. जैसे सिनेमा के बड़े परदे के जरिए आप देश से महंगाई भ्रष्टाचार खत्म नहीं कर सकते, उसी तरह टीवी के छोटे परदे के जरिए अब आप किसी बदलाव या खुलासे या जन पत्रकारिता का स्वाद नहीं चख सकते. दैत्याकार अखबारों जो देश के सैकड़ों जगहों से एक साथ छपते हैं, उनसे भी आप पूंजी परस्ती से इतर किसी रीयल जर्नलिज्म की उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि इनके बड़े हित बड़े नेताओं और बड़े सत्ताधारियों से बंधे-बिंधे हैं. दैनिक जागरण वाले अपने मालिकों को राज्यसभा में भेजने के लिए अखबार गिरवी रख देते हैं तो दैनिक भास्कर वाले कोल ब्लाक व पावर प्रोजेक्ट पाने के लिए सत्ताओं से डील कर अखबार उनके हवाले कर देते हैं.
ऐसे खतरनाक और मुश्किल दौर में न्यू मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. न्यू वेब में वेब मीडिया शामिल है. सोशल मीडिया समाहित है. न्यूज पोर्टल और ब्लाग भी हैं. मोबाइल भी इसी का हिस्सा है. इन्हें दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी. कार्पोरेट मीडिया, जिसका दूसरा नाम अब करप्ट मीडिया या पेड मीडिया हो गया है, इसको एक्सपोज करते रहना होगा. साथ ही, देश के सामने खड़े असल मुद्दों पर जनता की तरफ से बोलना लिखना पड़ेगा. अब पत्रकारिता को तथाकथित महान पत्रकारों-संपादकों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. ये सब बिक चुके हैं. ये सब चारण हो गए हैं. ये सब कंपनी की लायजनिंग फिट रखने और बिजनेस बढ़ाने के प्रतिनिधि हो गए हैं. इतिहास बताता है कि इंदिरा ने मीडिया से झुकने को कहा था तो मीडिया वाले रेंगेने लगे थे. अब कहा जाएगा कि मोदी ने मीडिया को मिलन के बहाने संवाद के लिए कहा तो मीडिया वाले सेल्फी बनाने में जुट गए.
फेसबुक पर वरिष्ठ और युवा कई जनपक्षधर पत्रकार साथियों ने मीडिया की इस घिनौनी और चीप हरकत का तीखा विरोध किया है. वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता अखबार के संपादक ओम थानवी  लिखते हैं : ''जियो मेरे पत्रकार शेरो! क्या इज्जत कमाई है, क्या सेल्फियाँ चटकाई हैं!''
कई मीडिया हाउसों में काम कर चुके आध्यात्मिक पत्रकार मुकेश यादव लिखते हैं: ''सवाल पूछने की बजाय पीएम साब के साथ सेल्फी लेने के लिए पत्रकारों, संपादकों में होड़ मची है! शर्मनाक! धिक्कार! निराशा हुई! सवाल के लिए किसकी आज्ञा चाहिए जनाब?''
सोशल एक्टिविस्ट और युवा पत्रकार मोहम्मद अनास कहते हैं: ''लोकतंत्र में संवाद कभी एक तरफा नहीं होता। एक ही आदमी बोले बाकि सब सुने। साफ दिख गया लोकशाही का तानाशाही में कन्वर्जन। मनमोहन ने एक बार संपादकों को बुलाया था, सवाल जवाब हुए थे। कुछ चटुकारों और दलालों ने पत्रकारिता को भक्तिकाल की कविता बना डाला है। वरना करप्टों, झूठों और जनविरोधियों के लिए पत्रकार आज भी खौफ़ का दूसरा नाम है।''
कई अखबारों में काम कर चुके जोशीले पत्रकार राहुल पाण्डेय सोशल मीडिया पर लिखते हैं :
''आज पत्रकारों के सेल्‍फी समारोह के बाद पि‍छले साल का कहा मौजूं है .. आप भी गौर फरमाएं
पत्रकार नहीं बनि‍या हैं
चार आने की धनि‍या हैं।
खबर लाएं बाजार से
करैं वसूली प्‍यार से
लौंडा नाच नचनि‍या हैं
पत्रकार नहीं, ये बनि‍या हैं।
चार आने की धनि‍या हैं।
करैं दलाली भरकर जेब
जेब में इनकी सारे ऐब
दफ्तर पहुंचके पकड़ैं पैर
जय हो सुनके होवैं शेर
नेता की रखैल रनि‍या हैं,
पत्रकार नहीं ये बनि‍या हैं,
चार आने की धनि‍या हैं''
वरिष्ठ अंग्रेजी पत्रकार विनोद शर्मा लिखते हैं : ''Facebook flooded with selfies of media persons with our PM. A day to rejoice? Or reflect?''
कई अखबारों में काम कर चुके पत्रकार आशीष महर्षि लिखते हैं : ''हे मेरे देश के महान न्‍यूज चैनलों और उसके कथित संपादकों, प्रधानमंत्री ने आपको झुकने के लिए कहा तो आप रेंगने लगे। क्‍या देश में मोदी के अलावा कोई न्‍यूज नहीं है। ये पब्‍लिक है, सब जानती है ... हमें पता है कि मोदी की न्‍यूज के बदले आपको क्‍या मिला है ...''
वरिष्ठ पत्रकार अरुण खरे लिखते हैं : ''मीडिया ने कलम को झाड़ू में बदल दिया –मोदी. मोदी जी आपने इस सच से इतनी जल्दी परदा क्यों उठा दिया. कुछ दिन तो मुगालते में रहने देते देश को.''
फेसबुक पर एक्टिव जन पत्रकार धर्मेन्द्र गुप्ता लिखते हैं : ''जिस तरह से मीडिया के चम्पादक आज मोदी के साथ सेल्फी खिंचवा कर के उस को ब्रेकिंग न्यूज बना रहे है उस से लगता है की अब लड़ाई भ्रष्ट राजनीतिको के साथ भ्रस्ट मीडिया के खिलाफ भी लड़नी होगी.''
फेसबुक पर एक्टिव जन पत्रकार धनञ्जय सिंह बताते हैं एक किस्सा : ''एस.सहाय जी स्टेट्समैन के संपादक हुआ करते थे,उनके पास इंदिरा जी के यहाँ से कोई आया सूट का कपड़ा लेकर की खास आपके लिए प्रधानमंत्री ने भेजा है,साथ में टेलर का पता भी था. उन्होंने धन्यवाद के साथ उसे लौटा दिया. कुछ समय बाद प्रधानमंत्री ने बंगले पर संपादकों को डिनर दिया. सहाय जी के अलावा बाकी सभी क्रांतिकारी संपादक एक जैसे सूट में थे ... सब एक दूसरे की तरफ फटी आँखों से देखने लगे ... इंदिरा जी का अलग ही स्टाइल था ... समय बदला है अब तो खुद ही सब दंडवत हुए जा रहे हैं ... हाँ सहाय जी के घर रघु राय की उतारी एक तस्वीर दिखती थी की संसद की सीढ़ियों के पास एक भिखारी कटोरा लेकर खड़ा है (शायद तब सिक्योरिटी इतनी नहीं रही होगी) ... सहाय जी के पास अंतिम समय में खटारा फिएट थी और वो अपने बच्चों के लिए भी 'कुछ भी' छोड़ कर नहीं गए.''
संपादक और साहित्यकार गिरीश पंकज इन हालात पर एक कविता कुछ यूं लिखते हैं :

'' पत्रकारिता का सेल्फ़ीकरण
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कई बार सोचता हूँ
बिलकुल सही समय पर
मर गए पत्रकारिता के पुरोधा,
नहीं रहे तिलक और गांधी,
नहीं रहे बाबूराव विष्णु पराड़कर
गणेश शंकर विद्यार्थी भी
हो गए शहीद
राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी
का भी हो गया अवसान।
आज ये ज़िंदा होते तो
खुद पर ही शर्मिन्दा होते
पत्रकारिता की झुकी कमर
और लिजलिजी काया देख कर
शोक मनाते
शायद जीते जी मर जाते
सुना है कि दिल्ली में
'सेल्फिश' पत्रकारिता अब
'सेल्फ़ी ' तक आ गयी है
हमारी खुदगर्ज़ी
हमको ही खा गयी है''
जो भक्त लोग हैं, उन्हें मोदी की हर स्टाइल पसंद है. वे मोदी की कभी बुराई नहीं करते और मीडिया की कभी तारीफ नहीं करते. इन्हें ऐसी ही चारण मीडिया चाहिए, जिसे गरिया सकें, दुत्कार सकें और लालच का टुकड़ा फेंक कर अपने अनुकूल बना सकें. सवाल उन लोगों का है जो आम जन के प्रतिनिधि के बतौर मीडिया में आए हैं. जिन्होंने पत्रकारिता के नियम-कानून पढ़े हैं और मीडिया की गरिमा को पूरे जीवन ध्यान में रखकर पत्रकारिता की. क्या ये लोग इस हालात पर बोलेंगे या मीडिया बाजार के खरबों के मार्केट में अपना निजी शेयर तलाशने के वास्ते रणनीतिक चुप्पी साधे रहेंगे. दोस्तों, जब-जब सत्ता सिस्टम के लालचों या भयों के कारण मीडिया मौन हुई या पथ से विचलित हुई, तब तब देश में हाहाकार मचा और जनता बेहाल हुई. आज फिर वही दौर दिख रहा है. ऐसे में बहुत जरूरी है कि हम सब वह कहें, वह बोलें जो अपनी आत्मा कहती है. अन्यथा रामनामी बेचने और रंडियों की दलाली करने में कोई फर्क नहीं क्योंकि पैसा तो दोनों से ही मिलता है और दोनों ही धंधा है. असल बात विचार, सरोकार, तेवर, नजरिया, आत्मसम्मान और आत्मस्वाभिमान है. जिस दिन आपने खुद को बाजार और पूंजी के हवाले कर दिया, उस दिन आत्मा तो मर ही गई. फिर आप खुद की लाश ढोकर भले इनसे उनसे मिलते रहें, यहां वहां टहलते रहें, पर कहा यही जाएगा कि ''मिस्टर एक्स, आप बेसिकली हरामजादे किस्म के दलाल हैं, पत्रकारिता में तो आप सिर्फ इसलिए हैं ताकि आप अपनी हरमजदई और दलाली को धार दे सकें''.
शायद मैं कुछ ज्यादा भावुक और आवेश में हो रहा हूं. लेकिन यह भावुकता और आवेश ही तो अपन लोगों को पत्रकारिता में ले आई. ये भावुकता और आवेश ही तो अपन लोगों को कारपोरेट और करप्ट मीडिया में देर तक टिका नहीं पाई. यह भावुकता और आवेश ही
तो भड़ास फ़ॉर मीडिया  जैसा बेबाक पोर्टल शुरू करने को मजबूर कर गया और इस न्यू मीडिया के मंच के जरिए सच को पूरे ताकत और पूरे जोर के साथ सच कहने को बाध्य करता रहा जिसके नतीजतन अपन को और अपन जैसों को जेल थाना पुलिस कोर्ट कचहरी तक के चक्कर लगाने पड़े और अब भी यह सब क्रम जारी है. शरीर एक बार ही ठंढा होता है. जब सांसें थम जाती हैं. उसके पहले अगर न भावुकता है और न ही आवेश तो समझो जीते जी शरीर ठंढा हो गया और मर गए. मुझे याद आ रहे हैं पत्रकार जरनैल सिंह. सिख हत्याकांड को लेकर सवाल-जवाब के क्रम में जब तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम ने लीपापोती भरा बयान दिया तो तुरंत जूता उछाल कर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया. जरनैल सिंह अब किसी दैनिक जागरण जैसे धंधेबाज अखबार के मोहताज नहीं हैं. उनकी अपनी एक शख्सियत है. उन्होंने किताब लिखी, चुनाव लड़े, दुनिया भर में घूमे और सम्मान पाया. मतलब साफ है कि जब हम अपने दिल की बात सुनते हैं और उसके हिसाब से करते हैं तो भले तात्कालिक हालात मुश्किल नजर आए, पर आगे आपकी अपनी एक दुनिया, अपना व्यक्तित्व और अपनी विचारधारा होती है.
करप्ट और कार्पोरेट पत्रकारिता के इस दौर में पत्रकार की लंबाई चौड़ाई सिर्फ टीवी स्क्रीन तक पर ही दिखती है. उसके बाहर वह लोगों के दिलों में बौना है. लोगों के दिलों से गायब है. उनका कोई नामलेवा नहीं है. अरबों खरबों कमा चुके पत्रकारों से हम पत्रकारिता की उम्मीद नहीं कर सकते और यह नाउम्मीदी आज पूरी तरह दिखी मोदी के मीडिया से दिवाली मिलन समारोह में. बड़ी पूंजी वाली करप्ट और कार्पोरेट पत्रकारिता के बैनर तले कलम-मुंह चला रहे पत्रकारों से हम उम्मीद नहीं कर सकते कि वह अपनी लंबी-चौड़ी सेलरी को त्यागने का मोह खत्म कर सके. इसी कारण इनकी 'सेल्फी पत्रकारिता' आज दिखी मोदी के मीडिया मिलन समारोह में.
आज राजनीति जीत गई और मीडिया हार गया. आज पीआर एजेंसीज का दिमाग सफल रहा और पत्रकारिता के धुरंधर बौने नजर आए. आइए, मीडिया के आज के काले दिन पर हम सब शोक मनाएं और कुछ मिनट का मौन रखकर दलाल, धंधेबाज और सत्ता परस्त पत्रकारों की मर चुकी आत्मा को श्रद्धांजलि दे दें.
(इस पोस्ट के उपसंहार के तौर पर महान शायर हबीब जालिब की एक नज़्म यहाँ लगाने का लालच आ रहा है, जिसे कबाड़ख़ाने पर एकाधिक बार पोस्ट किया जा चुका है :
अब कलम से इजारबंद ही डाल 

कौम की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल
बेजमीरी का और क्या हो मआल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

तंग कर दे गरीब पे ये ज़मीन
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे ज़बीं
ऐब का दौर है हुनर का नहीं
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात बात चले
क्यों सितम की सियाह रात ढले
सब बराबर हैं आसमान के तले
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

नाम से पेश्तर लगाके अमीर
हर मुसलमान को बना के फकीर
कस्र-ओ-दीवान हो कयाम कयाम पजीर
और खुत्बों में दे उमर की मिसाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

आमीयत की हम नवाई में
तेरा हम्सर नहीं खुदाई में
बादशाहों की रहनुमाई में
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो
और दिल सुबह का सितारा हो
सामने मौत का नज़ारा हो
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

*सहाफ़ी : पत्रकार, इजारबंद: नाड़ा )

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत बढ़िया जियो कहीं लगा है जान अभी :)

girish melkani said...

बहुत उम्दा