परमौत की प्रेम कथा - भाग सात
अपने
सखा द्वारा ज़हर खाकर मर जाने की सीरियस धमकी दिए जाने के बाद पहली बार हमें परमौत
के पोस्ट-कम्प्यूटर-क्लास मल्टी-मोहब्बतनामे के इस कालखंड के अपनी सामूहिक
जिंदगियों में पड़ रहे प्रभावों के बारे में संजीदगी से विचार करने पर विवश होना
पड़ा. तय था कि पिरिया की मोहब्बत में परमौत की गिरफ्तारी के बाद से गोदाम एक
निर्जीव अड्डे में बदलता जा रहा था. नब्बू डीयर का नैराश्यभरा जीवनदर्शन वैसे ही
कम मनहूस था जो परमौत भी उसी लाइन पर निकल पड़ने को उद्यत था. इस माहौल को हम सब के
मानसिक स्वास्थ्य के लिए किसी भी दशा में मुफीद नहीं कहा जा सकता था. गोदाम के
जीवनदायी आनंद-उत्स को बचाया जाना अनिवार्य था. लेकिन बड़ा सवाल था कि किया क्या
जाए.
नब्बू
डीयर की मुकेश-पीड़ित आत्मा के भीतर एक और आत्मा बसती थी जो घनघोर काइयां,
मौकापरस्त और स्वार्थी थी. संक्षेप में वह हरामी था. हम तीनों इसे जानते थे लेकिन
वह हमारा बचपने का दोस्त था. हमारे विश्वास पर मोहर लगाते हुए उसने परमौत को ऑफ़र
दिया कि यदि वह चाहे तो पिरिया से आशिकी करता रहे और अगर ज़्यादा तकलीफ न हो तो ससी
के साथ उसकी फ्रेण्डसिप करा दे. उसका बोझ हल्का हो जाएगा और नब्बू को मित्रधर्म
निभाने का अवसर मिल जाएगा. इतनी ज़्यादा प्रत्यक्ष और टुच्ची सलाह से भड़क गए
गिरधारी लम्बू ने नब्बू को खरीखोटी सुनाते हुए उसे परमौत की पुच्छवाटिका में जादे
न घुसने और मुकेश के गानों में ही मोक्ष तलाशने की महायात्रा में लगे रहने की
मित्रवत सलाह भी - "तेरे बूते की ना है नब्बू गुरु. तुम तो गाने सुनो और ये
भूरा वाला नुवान पीते जाओ बस." वह परमौत से मुखातिब होकर बोला -"यार
परमौद्दा देख ... सब परेशानी ये साले कम्पूटर-हम्पूटर के चक्कर में शुरू हुई है.
छोड़ साले को. कौन सा तूने वो जगदीच्चन बोस बनके नौकरी में लगना हुआ. मैं तो कैता
हूँ धंधे में ध्यान दे. मन लगा के पैसे कमा. ये पिरिया-फिरिया जैसी हज्जार
लौंडियें तेरे आगे लाइन लगाने को तैयार नहीं हुई ना तो बाप कसम मेरा नाम बदल देना
यार ..."
गिरधारी
लम्बू का आइडिया मुझे भी जंच रहा था. कम्प्यूटर सीखने से भी परमौत से उखड़ना कुछ था
नहीं. हाँ पिरिया से मोहब्बत करना एक उदात्त कार्य था जिसे करते हुए परमौत जैसे
अनगिनत आशिक सहस्त्राब्दियों से गली-मोहल्लों में नाम अर्जित करने का इतिहास लिखने
में सन्नद्ध रहे थे और वह उसे करता रह सकता था. मेरे ऐसा कहने पर वह बोला -
"अबे अगर मैं वहां जाना छोड़ दूंगा तो पिरिया को कैसे देखूँगा? कोर्स आधा
छोड़ने पर ददा नाराज हो जाएगा नफे में."
गिरधारी
ने परमौत को उलाहना दिया - "तो जा फिर वहीं अपनी बेज्जती खराब कराने, परमौद्दा.
कल तक तेरी वो मोटी वाली हीरोइन आधे हल्द्वानी को बता चुकी होगी कि उसकी सादी तेरे
साथ तय हो गयी है ... फिर सनिच्चर-सनिच्चर उसी के साथ भुट्टे खाने सलड़ी-चन्दादेवी
के चक्कर लगइयो..."
हल्द्वानी
में शनिवार को बाज़ार बंद रहती है और उस दिन प्रेमी लौंडों द्वारा स्कूटर-मोटरसाइकिल
इत्यादि वाहनों की पिलियन सीट पर अपनी लैलाओं-शीरियों-साहिबाओं-पिरियाओं को बिठाकर
इन तीर्थस्थलों पर में लहसुन का नमक और मक्खन लगे भुने हुए भुट्टे का प्रसाद खिला
कर लाने की परम्परा करीब दस हज़ार सालों से चली आ रही है. प्रेमीजनों की अटूट मान्यता है कि इस प्रसाद भोग लगाने-लगवाने के बाद ही फ्रेण्डसिप का देवता
प्रसन्न होता है.
सलड़ी-चन्दादेवी
के भुट्टों की बात चलने पर नब्बू डीयर बोल पड़ा - "भुट्टे तो साले दोगांव के
बढ़िया होते हैं यार. एकदम मुलायम दाने वाले. सलड़ी-चन्दादेवी वाले महंगे भी होते
हैं और कड़ियल भी. पंडित याद है उद्दिन कितना मज़ा आया था जब तू-मैं दोगांव गए थे वो
सुरिया की ईजा के मरे वाले दिन रानीबाग से. वैसे तो भुट्टे सबसे बढ़िया होने वाले
हुए पहाड़ के. मेरी ईजा के गाँव चलेंगे कभी यार ... मतलब मेरे मकोट ... क्या गज़ब
होने वाले हुए वहां के भुट्टे साले ...खाने वाला कोई हुआ नहीं वहां. बस एक मामा
ठैरे उनको भुट्टे खा के गैस जैसी हो जाने वाली हुई. कितनी दफे मुझसे कहते हैं
बिचारे कि नबुआ कभी मकोट आ जाया कर भुट्टे के सीज़न में ... बोर-बोरे भर के भुट्टे बाँट
देने वाले हुए गाँव वालों को मामा ... यहाँ हो रहे होते वैसे भुट्टे तो
उन्हीं को बेच-बाच के बिचारे लखापति बन गए होते कब्भी के ..."
बात
परमौत की मोहब्बत के मुस्ताबिल की चल रही थी और नब्बू अपने भुट्टा और मकोट-प्रेम
में धंसता चला गया. उसके अनर्गल भुट्टा-व्याख्यान में कुछ शिद्दत रही हगी कि परमौत
बोल उठा - "कुछ भी कह लो नब्बू
वस्ताज भुट्टे बनाने वाला ठैरा दोगांव में वो किनारे वाला ... क्या नाम है उसका
... वो शिबुआ ... मल्लब साले के यहाँ सिल-बट्टे में पिसा लहसुन-खुश्याणी का चरबरान
नमक सारी दुनिया में कोई क्या बनाता होगा ...
आहा ग़ज़ब ..."
"ना
ना वो भी मल्लब बढ़िया बनाता है लेकिन ममाजी के यहाँ जो है ..."
करीब
आधे घंटे तक सब कुछ भूल-भुला के हम हल्द्वानी और उसके आसपास मिलने वाले भुट्टों की
क्वालिटी को लेकर वार्तालाप में रमे रहे. इसका तात्कालिक लाभ यह हुआ कि परमौत के
दिल का मामला कुछ देर स्थगित रहा अलबत्ता जब घरों को जाने का समय आया तो मैंने उस
से पूछ ही लिया - "तो फिर क्या तय रहा?"
"क्या
मल्लब क्या तय रहा?"
"मतलब
ये कि कल से कम्प्यूटर क्लास का क्या करने वाला है तू?"
"सोचेंगे
पंडित गुरु सोचेंगे .... सोचेंगे ..."
परमौत
ने रात भर सोचा और तमाम तरह की कैलकुलेशन लगा कर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि
पिरिया से मोहब्बत तो बिना कम्प्यूटर सीखने जाए भी जारी रखी जा सकती है. एक खतरनाक
चुनौती की तरह मुंह बाएं खड़े मुटल्ली ससी के मामले को शीघ्रातिशीघ्र निबटाया जाना
अनिवार्य था. पिरिया के आगे अपना इम्प्रेशन अब किसी भी कीमत पर डाउन नहीं होने
देना था. ससी और उसकी लम्बसखी से निजात पाने का सबसे उचित तरीका कल रात उसे
दोस्तों ने बता दिया था. बड़े भाई परकास को तो वह कैसे भी सम्हाल लेगा.
उसने सुबह
जल्दी उठकर, नहा-धो कर, मोपेड पर मसालों की खेप लादी और काठगोदाम-रानीबाग से लेकर
तिकोनिया तक के सारे दुकानदार बारह बजे तक निबटा दिए. भाई-भाभी किसी घरेलू समारोह
में हिस्सेदारी करने कालाढूंगी गए हुए थे और डेढ़ बजे वाले लंच के लिए अनिवार्यतः हर
रोज़ घर पर होने की शर्त लागू नहीं थी. रात को तय कर ली गयी अपनी आगामी रणनीति के
तहत उसने गांधी भण्डार के आसपास एक ऐसा गुप्त ठीहा तलाशना था जहाँ उसे सड़क में
चलता कोई भी देख न सके और ढाई से चार-साढ़े चार तक के बीच का समय नष्ट किया जा सके
और कम से कम दो बार पिरियादर्शन किये जा सकें.
क्लास
ढाई बजे शुरू होती थी. काफी दिनों के बाद उसने तिकोनिया में ठेले पर छोले-भटूरों
की मौज लूटी और मोपेड को एक दुकान के बाहर लगाकर भविष्य के कार्यक्षेत्र के मुआयने
पर निकल पड़ा. गांधी आश्रम से दक्षिण की तरफ घनुवा सौंठ का समोसों का ठेला था और
काफी सारी परचूने की दुकानें. इन दुकानों के बाहर टोकरियों में अगरबत्ती, पूजा का
सामान वगैरह सजाये लौंडे टाइप के दुकानदार बैठा करते थे. पुरातन छातों और टॉर्च
इत्यादि वैज्ञानिक वस्तुओं की मरम्मत करने में पारंगत हल्द्वानी के मशहूर साइंटिस्टों की प्रयोगशालाएं भी इसी दिशा में थी. गांधी भण्डार के उत्तर की तरफ जाने पर भी ऐसा
ही दृश्य दिखा लेकिन लेडीज़ कॉर्नर नामक एक जनrl स्टोर-कम-पार्लर से लगी हुई पान
की एक दुकान ने परमौत का ध्यान खींचा. दुकान के भीतरी हिस्से में मटमैले-भूरे प्लास्टिक
के आवरण से ढंकी एक मेज़ पर धरे मैल में लिथड़े गैस के चूल्हे और चार-छः चीकट
कुर्सियों ने परमौत के अनुसंधान को जल्दी पूरा करने में मदद की.
"चाय
मिलेगी दाज्यू?" उसने भरसक बेपरवाह दिखने की कोशिश करते हुए गद्दी पर पालथी
मारे बैठे धोती-कुरताधारी ठिगने दुकानदार
से पूछा.
"बैठो
साब. लौंडा जरा दूध लाने गया हुआ है ... पांच मिनट की बात है ..."
परमौत
ने खोखानुमा दुकान के भीतरी हिस्से में प्रवेश किया और तुरंत ही इस नवीन अड्डे ने
उसे अपने आकर्षण में बाँध लिया. फर्श पर बीड़ी-सिगरेट के बेशुमार ठुड्डे बिखरे हुए
थे. कुर्सियों के बीच एक ऊंची तिपाई रखी हुई थी जिसके बीचोबीच धरे गए कांच के गिलास
के अन्दर 'चाबी' ब्रांड माचिस का डिब्बा घुसा हुआ था. जितना अँधेरा ऐसी जगहों को
ऐसी जगहें बनाता है, वहां उतना ही अँधेरा था - न कम न ज्यादा. गोदाम में हम लोगों
ने जिस चैंटू के खेल को अपना राष्ट्रीय खेल बना रखा था उसे खेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय
सुविधाओं वाले ऐसे ही स्टेडियम चाहिए होते थे.
लौंडा
दूध लेकर नहीं आया था. दुकानदार ने अपनी गद्दी पर बैठे-बैठे उस से पूछा -
"कुछ सिगरेट बीड़ी तो नहीं चाहिए साब?"
"लाओ
गुरु एक कैपिस्टन पिलाओ जरा तब तक"
परमौत
ने सिगरेट सुलगाई और चैंटू खेलने लगा. इस खेल में माचिस को मेज़ के किनारे इस तरह
रखना होता है कि एक साइड से उसका छोटा सा तिकोना कोना बाहर की तरफ निकल आये. दो
उँगलियों को एक खास पोजीशन में लाकर उन की मदद से इस बाहर निकले कोने को हिट करके
माचिस के डिब्बे को इस तरह फ्लाईट देने की कोशिश करनी होती है कि वह गिलास के भीतर
टपक जाये. अगर माचिस सुलटी होकर मेज़ पर गिरे तो आप आउट और उलटी गिरे तो एक पॉइंट. खिलाड़ी
आउट होने तक खेलता रह सकता है. डिब्बा मेज़ पर गिरकर अपनी साइड पर खड़ा हो जाए तो
पांच पॉइंट और सीधा खडा हो तो दस. गिलास में माचिस घुसने के बीस पॉइंट मिलते हैं.
माचिस तिपाई अथवा मेज़ से बाहर गिर जाए तो पांच पॉइंट की पेनाल्टी पड़ती है और आप
आउट. अस्सी के दशक में हल्द्वानी के कई होटलों-खोखों में चैंटू को बाकायदा जुए की
शक्ल दे दी गयी थी और अपने नब्बू डीयर इस खेल के सर्वमान्य चैम्पियन माने जाते थे.
परमौत
चैंटू की प्रैक्टिस करते हुए सड़क का जायजा भी करता जाता. गांधी भण्डार और कम्प्यूटर
सेंटर में घुसने वाले हर प्राणी को बिलकुल साफ़-साफ़ देखा जा सकता था. यानी परमौत की
रिसर्च सफल रही थी. लौंडे ने चाय भी उम्दा बनाई थी. पान की दुकान का धंधा खतरनाक
तरीके से मद्दा चलता दिखता था और ठिगना दुकानदार जीवन के तमाम मोहों से परे पहुंचे
चुके किसी संन्यासी की वैराग्यपूर्ण दृष्टि के साथ अपने सामने हो रहे बाज़ीच-ए-अत्फ़ाल
का मुआयना करने में मसरूफ़ था. अपनी दूसरी चाय और दूसरी ही सिगरेट ख़तम
कर वह बाहर आकर पैसे देने लगा. पचास का नोट देखकर दुकानदार ने कराह सी निकाली -
"अब टूटे कहाँ से लाऊँ साब ...". परमौत ने इस मौके को ताड़ते हुए दांव चला -
"अरे दाज्यू एडवांस रख लो यार ... कौन सा ऐसी आफत आ रई साली ... अभी आ के ले
जाऊंगा."
दुकानदार
कृतज्ञता से भर उठा और उसने अविश्वास से भरी एक नज़र परमौत पर डाली.
"ठीक
हुआ साब. आप कहते हो तो ऐसा ही सही ... नहीं तो फिर दे जाना ... पैसे का क्या है
..." पचास का नोट गद्दी के नीचे जा चुका था और दुकानदार से साथ साथ अब लौंडा
भी परमौत को इस निगाह से देखने लगा था जैसे वह कोई बहुत बड़ा लाटसाहब हो.
दो
पंद्रह पर परमौत पुनः पान-कम-चाय खोखे पर था.
"चाय बना रे लौंडे साहब के लिए" कहकर दूकान में
उसका स्वागत किया गया. अंदर परमौत की ही उम्र के तीन-चार लड़के चैंटू खेल रहे थे और
किसी अश्लील बात पर ठहाके लगा रहे थे. परमौत के भीतर घुसने से वे दसेक सेकेण्ड को
झेंप कर शांत हुए. इतनी ही देर में उन्होंने ताड़ लिया कि वह बेमतलब और हानिरहित था.
परमौत को उम्मीद थी कि इतनी मुश्किल से मिली वह जगह उसे खाली मिलेगी जिसकी तन्हाई
से वह पिरियादर्शन कर सकेगा लेकिन इन बदतमीज़ लड़कों ने उसके प्लान का गोबर बना दिया
था. न तो वे चैंटू ही सीरियसली खेल रहे थे न चाय ही पी रहे थे. वे किन्हीं दो
लड़कियों की बाबत एक सस्ता वार्तालाप कर रहे थे.
परमौत
को लगा था कि वे पांचेक मिनट में निकल जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लगता था वे वहां
बसने की नीयत से बैठे हुए हैं. लौंडे ने परमौत को चाय थमाई ही थी कि उनमें से एक
लड़का बाहर निकला और कुछ देखने लगा. उसकी मुद्रा बता रही थी कि वह इस दिशा में आ
रहे लोगों को ताड़ रहा है. अचानक वह बदहवास सा होकर अन्दर घुसा और बोला - "मुकेस
तेरी वाली आ गयी बे ..."
परमौत
को पूरा मसला समझने में एक सेकेण्ड से कम समय लगा. जिस कारनामे को करने की जुगत
में इस अड्डे को तलाश कर लेने के बाद वह खुद को बहुत ज़्यादा अकलमन्द और स्मार्ट
समझ रहा था, ये लड़के उसी में पीएचडी कर चुके थे.
चैंटू
छोड़-छाड़ कर लड़के जल्दी-जल्दी बाहर निकलने की होड़ में उठना शुरू कर चुके थे.
परमौत
ने निगाह सड़क पर लगाई तो देखा उसके साथ पढ़ने वाली तीन-चार लड़कियां सर झुकाए, कापी-किताब
थामे गांधी भण्डार की तरफ जा रही थीं. उनमें पिरिया भी थी.
"सई में क्या
माल है यार मुकेस" एक लड़का लार टपकाता फुसफुसा रहा था. उसने माल किसे कहा
होगा, इस प्रश्न पर जब तक परमौत विचार कर पाता, वही लड़का पलट कर परमौत से बोला -"चाय
जल्दी पी लो दाज्यू, तुम्हारी क्लास का टाइम हो गया."
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