यह हर किसी के नसीब में नहीं होता कि उसे सुबह सुबह उठा कर उसकी भाषा का कोई बड़ा कवि अपनी नवीनतम कविता का पहला ड्राफ़्ट पढ़ कर सुनाए और इसरार करने पर फ़ोन पर ही लिखा भी दे.
मेरे साथ अभी सुबह सुबह ऐसा ही हुआ.
जब जगूड़ी जी ने ये दो कविताएं मुझे सुनाईं तो मुझे लगा कि यह कवि आयु के साथ साथ और बड़े विषयों की तरफ़ बढ़ रहा है जो हिन्दी में बहुत देखा नहीं जाता. जगूड़ी जी न सिर्फ़ एक कवि के रूप में मेरे पसंदीदा हैं, एक शानदार और खुले-फ़क्कड़ इन्सान के रूप में मैंने उन्हें कभी अपना हमउम्र समझा है, कभी गुरू माना है, कभी बड़ा भाई और कभी पितासदृश. एक सिपाही की मामूली नौकरी से जीवन शुरू करने वाले जगूड़ी जी के अनुभवों का संसार बहुत विस्तृत है और ज्ञान की उनकी कोठरियों तलक बिना सेंध मारे नहीं पहुंचा जा सकता. मैं पिछले कई वर्षों से उनसे एक औपन्यासिक या संस्मरणात्मक गद्य हिन्दी समाज को देने की गुज़ारिश कर चुका हूं.उम्मीद है ऐसा जल्द होगा. आमीन!
कबाड़ख़ाने के पाठक पहले भी जगूड़ी जी को पढ़ चुके हैं. साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी जी की दो बिल्कुल ताज़ा और अप्रकाशित कविताएं आपके लिए खा़सतौर पर:
1
प्रेम
प्रेम ख़ुद एक भोग है जिसमें प्रेम करने वाले को भोगता है प्रेम
प्रेम ख़ुद एक रोग है जिसमें प्रेम करने वाले रहते हैं बीमार
प्रेम जो सब बंधनों से मुक्त करे, मुश्किल है
प्रेमीजनों को चाहिये कि वे किसी एक ही के प्रेम में गिरफ़्तार न हों
प्रेमी आएं और सबके प्रेम में मुब्तिला हों
नदी में डूबे पत्थर की तरह
वे लहरें नहीं गिनते
चोटें गिनते हैं
और पहले से ज़्यादा चिकने, चमकीले और हल्के हो जाते हैं
प्रेम फ़ालतू का बोझ उतार देता है,
यहां तक कि त्वचा भी.
2
गिलहरी और गाय के बहाने
कौन नहीं जानता ये अलग प्रजातियों के प्राणी हैं
पर एक दूसरे से काम लायक जो समाज बनाया जाता है
यह कोई देवताओं से नहीं बल्कि उनके प्रति मनुष्य की श्रद्धा से सीखे
तो नतीज़े कुछ और निकलेंगे
गिलहरी को मनुष्य पालतू नहीं बना सका या बनाना नहीं चाहता था
क्योंकि वह गाय जैसी दुधारू नहीं हो सकती
अगर होती भी तो आदमी कभी उसे दुह नहीं पाते
लतखोर गाय से लाख गुना चंचल है वह
एकदम पारे जैसी
पर पारे की चंचलता पारे को सिर्फ़ लुढ़का सकती है, छितरा सकती है
पारा अपने पैरों से पेड़ पर उतर-चढ़ नहीं सकता
गाय में भी एक ख़ास गाय है हिमालय की चंवरी गाय
जो संभवतः हूणों और खसों के साथ आई थी
जिसके बछड़े को याक कहते हैं
-दोनों की पूंछ के बनते हैं चंवर
चलते चलते भी याक स्थूल और स्थिर दिखाई देता है
चंचल गिलहरी की चंवर जैसी पूंछ देख कर
मुझे सुस्त चंवरी गाय और मोटा मन्द याक याद आये
- यह समुद्र देख कर हिमालय याद आने की तरह है
एक धरती की विराट जांघों के बीच आलोढ़ित जलाशय है
दूसरा उसके सिर पर चढ़कर जमा हुआ
-नीलाशय में पीठाधीश्वर,
महाशय श्वेताशय - मीठी नदियों का अक्षय स्रोत
जैसे किसी पहाड़ से भी दोगुनी-तिगुनी उसकी पगडंडी होती है
वैसे ख़ुद से दुगुनी-तिगुनी होती है गिलहरी की पूंछ
जिसके चेहरे और पूंछ में से कौन ज़्यादा चंचल है कुछ पता नहीं चलता
चंचल लहरों से बनी नदी का संक्षिप्ततम शरीर है गिलहरी
- पूंछ के अंतिम बाल तक धुली-खिली
मुंह से दुम तक की स्पंदित लहरियों में गिन नहीं पा रहा मैं एक भी लहर
गिलहरी की चंवराई चंचलता
क्या याक की घंटे जैसी लटकी ध्यानस्थ दुम बन सकती है?
जो अपनी पीठ पर बैठनेवाली मक्खियों को
हमेशा वैसे ही उड़ा देती है
जैसे दुनिया के अनर्थों से दूर रखने के लिये
हम उसे भगवानों पर डुलाते हैं
4 comments:
वाह, सुबह अच्छी कर दी आपने. सुंदर कविताएं.
अद्भुत कवितायें हैं. सचमुच ये कविता की तरह कविता नहीं हैं. कुछ नया है. यह उनके ही वश की बात है. जगूडीजी के क्या कहने! बतौर इंसान तो वह बेमिसाल हैं ही.
याक के पैदा होने कि प्रक्रिया बडी लम्बी और उल्झाऊ है, न तो यूं ही चंवर गाय पैदा हो जाती है और न ही चवर गाय से सिधे याक. कभी धारचूला से ऊपर का कोई मिले तो उससे जान समझ कर उस प्रक्रिया को रखना अशोक भाई. मुझे एक बार उधर की यात्रा के दौरान ये जानने का अव्सर मिला भी था पर उस जानकारी को सहज नही पाया, चलिये मै भी कोशिश करुंगा.
क्या बात है ! जगूड़ी जी अनूठे कवि हैं .
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