Wednesday, September 30, 2009

सो रहा है सदियों से

मैथिली भाषा में पहली कविता संग्रह 'हम पुछैत छी' मतलब 'मैं पूछता हूँ' इन दिनों प्रेस में है। संग्रह में एक कविता जिसका हिन्दी अनुवाद है 'सो रहा है सदियों से' है, जो हमारे जीवन और सामाजिक परिवेश को सामने लाने की कोशिश करती है। समय का तकाजा है कि हर तरफ़ नींद में ऊँघे लोग अधिक दीखते हैं, मुट्ठी भर लोग कामकरते दीखते हैं, झूठ-फरेब की दुनिया से निकल पाना इतना आसान नहीं होता. आख़िर कहीं न कहीं रूक कर सामाजिक पड़ताल तो करनी होगी अन्यथा बेवकूफ ज्ञानी कभी भी किसी की बात नहीं सुनेंगे...विनीत उत्पल

सो रहा है सदियों से

वह सो रहा है सदियों से
ऐसा नहीं कि वह काफी थका हुआ है
ऐसा भी नहीं कि वह रात भर जगा है
ऐसा भी नहीं कि वह चिंता में डूबा है
उसके घर या दफ्तर में कलह भी नहीं हुआ है

वह सो रहा है सदियों से
रातभर करवट बदलने के बाद
राक्षसी भोजन करने से देह में शिथिलता आने पर
धन के लिए झूठ-फरेब करने के बाद
आधी दुनिया पर छींटाकशी करने के बाद

वह सो रहा है सदियों से
क्योंकि उनके मामले में तमाम बातें झूठी हैं
सच को झूठ और झूठ को सच बनाकर पेश करना है आसान
क्योंकि उसे नींद आती है ‘सच का सामने’ करने के दौरान
और उसे नींद आती है कडुवा सच सुनने पर

वह सो रहा है सदियों से
क्योंकि वह पढ़ नहीं पाया
क्योंकि वह ऐसा मुरीद है कि बस ‘जी हां, जी हां’ करने के सिवाय
और तलुवे चाटने से हटकर नहीं कर सकता कोई सवाल
क्योंकि सुन नहीं सकता वह, जो वह है
आस्था पर विश्वास कर सकता लेकिन बहस नहीं

तो समय आ गया है
कुंभकर्णी नींद में सोने वालों को जगाने का
तथ्य व तर्क की कसौटी पर कसने का
अनपढ़ को पढ़ाने का
क्योंकि बेवकूफ ज्ञानी कभी किसी की कुछ नहीं सुन सकते।

Tuesday, September 29, 2009

बीटल्स का देहरादून



१९ अक्टूबर २००७ को मैंने 'बीटल्स' के मुख्य गायक गिटारिस्ट जॉर्ज हैरिसन का गाया 'देहरादून ' पेश किया था. तब से अब तक संगीत अपलोड करने वाले कई सारे टोटके आजमाने के बाद अब जाकर डिवशेयर नाम की साइट लम्बे समय से मुफ़ीद पाई जा रही है.

इस तरह संगीत अपलोड करने वाली कई साइट्स बन्द हो गई हैं और पहले की कई पोस्ट्स पर लगा संगीत अब सुना नहीं जा सकता. आज सुबह एक मित्र ने इस मुतल्लिक शिकायत की सो आज इसी गीत को दोबारा लगा देने में मुझे कोई बुराई नज़र नहीं आ रही.

ब्रिटिश रॉक और पॉप बैन्ड 'बीटल्स' की स्थापना जॉन लेनन, पॉल मैकार्टनी, जॉर्ज हैरिसन और रिन्गो स्टार द्वारा १९६० में लिवरपूल में की गई थी. बीटल्स को लोकप्रिय संगीत के इतिहास के सबसे सफल समूहों में गिना जाता है.
इस बैन्ड के सदस्य आत्मिक शांति की खातिर ऋषिकेश बहुत आया जाया करते थे। प्रस्तुत गीत उसी दौर का है।

गीत के बोल प्रस्तुत हैं :



Dehra, Dehra dun,
Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun

Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days
Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun

Many people on the roads looking at the sights
Many others with their troubles looking for their rights

Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun

See them move along the road in search of life devine
..........................
Beggers in a goldmine

Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dunDehradun, Dehradun dun
Dehradun

Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days

Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dunDehradun, Dehradun dun
Dehradun

दो बरस का कबाड़ख़ाना



आज कबाड़ख़ाना दो बरस का हो गया. एक हज़ार से ज़्यादा पोस्ट्स की यह यात्रा अब तक ठीकठाक चलती रही है और इसे पाठकों ने लगातार स्नेह और प्रोत्साहन दिया है. उम्मीद करता हूं यह सिलसिला जारी रहेगा और हम आपके लिए और उम्दा कबाड़ जुटा सकेंगे इस बरस भी. आप सभों का धन्यवाद.

ख़ास पेशकश के बतौर सुनिये पंडित राजन मिश्र-साजन मिश्र की आवाज़ों में राग अड़ाना. बन्दिश है "तान कप्तान, छा गयो जग में फ़तेह अली ख़ान."



पुनश्च: ब्लॉगवाणी आज से पुनः चालू हो गया है. उस की टीम ने अपने प्रशंसकों की गुज़ारिशों का मान रखा, इसके लिए वह धन्यवाद की अधिकारी है.

तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह?

जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें

उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें

जिन कारखानों में उगता था तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज

वहां दिन को रोशनीरात के अंधेरों से मिलती है

ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत

कि कांपी तक नही जबान

सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते

अभी एक सदी भी नही गुज़री

और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी

कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे

तुमने देखना चाहा था

जिन हाथों में सुर्ख परचम

कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में

रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने

तुम जिन्हें दे गए थे

एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब

सजाकर रख दी है उन्होंने

घर की सबसे खुफिया आलमारी में

तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल

जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ

सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर

अपने अपने चश्मे सजाने को

तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें

और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं

अवतार बनने की होड़ में

भरे जा रहे हैं

तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग

रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में

तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है

मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल

तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह

जबकि जानता हूँ कि तुम्हें याद करना

अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है

कौन सा ख्वाब दूँ मै अपनी बेटी की आंखों में

कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ उसके सिरहाने

जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते...

हिन्दुस्तान बन गया है

Monday, September 28, 2009

ब्लॉगवाणी की टीम से विनम्र अनुरोध



कुछ दिन ब्लॉगजगत से दूर रहा. आज अभी अभी पता लगा है कि हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर ब्लॉगवाणी को बन्द करने का दुर्भाग्यपूर्ण फ़ैसला लिया जा चुका है.

पिछले दो वर्षों से श्री मैथिली गुप्त और उनकी टीम के अथक प्रयासों से चल रहा यह निस्वार्थ महाकार्य अपनी प्रतिबद्धता और त्वरित सेवा के चलते बहुत लोकप्रिय बन चुका था. कबाड़ख़ाना शुरू होने के उपरान्त जब पहली बार ब्लॉगवाणी ने हमारी पोस्ट्स को प्रदर्शित करना शुरू किया था, उन दिनों महसूस होने वाली रोमांचभरी प्रसन्नता आज भी ब्लॉगजगत में हासिल हुई सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिनता हूं.

हिन्दी में ब्लॉगिंग अभी भी एक बनती हुई विधा है. लेकिन इसे शैशव के उन अनिश्चितता भरे दिनों से इस मुकाम तक लाने में ब्लॉगवाणी की टीम का बड़ा योगदान है. आज यदि करीब दस हज़ार से ज़्यादा लोग हिन्दी में ब्लॉगिंग कर रहे हैं तो इस तथ्य के पीछे ब्लॉगवाणी का बहुत बड़ा हाथ रहा है.

इस समूचे प्रकरण की वजहें जो भी रही हों, गहरे आहत करने वाला कुछ न कुछ ऐसा हुआ ज़रूर है जिसने इतना बड़ा फ़ैसला लेने पर विवश किया ब्लॉगवाणी को.

मैं कबाड़ख़ाने के सारे सदस्यों की तरफ़ से श्री मैथिली गुप्त जी से निवेदन ही कर सकता हूं कि वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें. हिन्दी ब्लॉगिंग को आपके इस एग्रीगेटर की और आपके दिशानिर्देशन की ज़रूरत है.

बाक़ी अपनी 'गुडबाई' पोस्ट में आप ने लिखा ही है:

"ब्लागवाणी चलाना हमारी मजबूरी कभी न थी बल्कि इस पर कार्य करना नित्य एक खुशी थी. पिछले दो सालों में बहुत से नये अनुभव हुए, मित्र भी मिले. उन सबको सहेज लिया है, लेकिन अब शायद आगे चलने का वक्त है. तो फिर अब हम कुछ ऐसा करना चाहेंगे जिससे फिर से हमें मानसिक और आत्मिक शांति मिले."

आपकी मानसिक और आत्मिक शान्ति को अब भी हम सर्वोपरि मानते हैं.

आमीन!

'होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।'



दशहरा , दुर्गापूजा, विजयादशमी पर सभी को शुभकामनायें - बधाई !

शाम को रावण का पुतला जलेगा और देवी विदा होंगी. हर कोई इस त्योहार को अपने तरीके से मना रहा है , मनाना भी चाहिए . उत्सव और उल्लास के क्षण हम सबके जीवन में आते रहें , ऐसी कामना है !आज निराला जी की लंबी कविता ' राम की शक्ति पूजा' की बार - बार याद आ रही है . जैसा कि सबको पता है यह कविता हिन्दी की लम्बी कविताओं की परम्परा में मील का पत्थर है और सचमुच में एक कालजयी रचना है. रावण और आसुरी शक्तियों पर विजय को लेकर उठे राम के मन का संशय देवी ही दूर करती हैं. आइए इस लम्बी कविता के अंतिम हिस्से को एक बार पढ़ें , देखें और अपने भीतर के कलुष को टटोलें और उस पर विजय प्राप्त करने की सोचें !

प्रस्तुत है निराला जी की कविता ' राम की शक्ति पूजा' का अंतिम अंश -

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़ जटा दृढ़ मुकुटबन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन से गहनतर होने लगा समाराधन।
क्रम क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित मन,
प्रतिजप से खिंच खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवीपद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर थर थर अम्बर।

दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान्युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा हरि शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वहाँ रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
'धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका।
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय।

बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
'यह है उपाय', कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन
'कहती थीं माता मुझको सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।'
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय।

'साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!'
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर।


'होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।'
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।

Sunday, September 27, 2009

दुनिया शिमले से आगे और चान्सल से पीछे की ...


नैनीताल और मसूरी की भांति, बढ़ती आबादी और वाहन शिमला का भी मट्ठ मार चुके हैं मगर फिर भी सितम्बर से मार्च तक ये पर्वतीय नगर सेवनीय हैं. इन दिनों तो ये तीनों नगर खासकर जाने लायक होते हैं चूंकि वर्षा के बाद आसमान की असल रंगत का नज़ारा इन दिनों देखने लायक होता है . कहने को शिमला अंग्रेज़ों की समर-कैपिटल थी ,साल के आठ महीने राज -काज यहीं से चलता था मगर कोई ऐसी कशिश यहाँ नहीं पाता कि बार-बार यहाँ आऊँ . आता फिर भी हूँ ..बस रात भर ठहर अल्लसुबह जाखू मंदिर में मत्था टेक आगे निकल जाने के लिए . आगे याने ,कुफरी-फागु- थियोग-छैला-कोटखाई-खडा पत्थर-हठकोटी-रोहडू -चड गाँव . दरअसल शिमला तक तो बोली-बानी -भेस में पंजाबियत ही हावी है . असल हिमाचल की छटा तो शिमला के बाद दिखती है . शिमला से तत्ता पानी के गर्म चश्मों से होकर मनाली का भी रास्ता है . थियोग से छैला न मुडे तो सीधे किन्नोर जा निकलेंगे . बहरहाल , रोहडू और चड गाँव की तरफ पर्यटन कम है मगर सड़क मस्त है , सुविधाएँ ठीक ठाक हैं और नज़ारे से भी ज्यादा मज़ा इस रास्ते पर ड्राइव में है . कोटखाई में तेजी से नीचे आकर खडा पत्थर की चढाई आपको एकदम ८००० फुट की ऊँचाई पर ले जायेगी और हवा में तेजी से ठंडक का लुत्फ़ आप ले सकते है . हठकोटी में देवी हठेश्वरी यानि पारवती, शंकर जी के साथ बिराजती हैं . मंदिर बहुत पुराना और बौद्ध पगोडा शैली का है . साथ-साथ नदी बहती चलती है और कहीं कहीं आप बिलकुल नदी के लेवल पर चलते हैं . अभिनेत्री प्रीती झिन्गता उर्फ़ जिंटा यहीं रोहडू के पास की हैं . प्रीती के गालों और यहाँ के सेबों दोनों में साम्य है भी ! बहरहाल रोहडू में सेब की मंडी होने के चलते ट्रांसपोर्ट वाले बहुत हैं और यहाँ से सीधे चड गाँव निकल कर आगे बीसेक किलोमीटर ,जहाँ तक सड़क बनी हुई है, पहुंचना चाहिए . मनोरम जगह है बशर्ते ड्राइव का लुत्फ़ लेने का शौक़ आप रखते हों . रुकने के लिए रोहडू में हिमाचल पर्यटन का सुन्दर गेस्ट हाउस सस्ती दर पर पूरी क्वालिटी के साथ मौजूद है ,और क्या जान लोगे बाऊ जी ? नीचे लगायी गयी तस्वीरें मेरे डिजीटल युग में आने से पहले की हैं मगर खींची मैंने ही हैं .
'' पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाडों के कभी काम नि आनी '' , चौकीदार परमेशरी निर्विकार भाव से बीडी सुलगाते हुए कहता है । ''उसकी बात में दम है बॉस ! '' मेरा दोस्त रोह्डू के ताज़े , रसीले सेब का लुत्फ़ लेते हुए सुर में सुर मिलाता है । मैं हठेश्वरी मन्दिर के करीब बहती बिष -कुल्टी को देखते हुए हैरान होता हूँ की इसे विष की नदी क्यों कहा गया । ये भी तो और नदियों की तरह वनस्पति और पशु, पक्षी को पोसती है ,इंसान की भी प्यास बुझाती है । सेब , हठेश्वरी मन्दिर और प्रिटी जिंटा के अलावा रोह्डू का कोई और' क्लेम टू फेम ' नहीं है । सैलानी यहाँ कम ही आते हैं । ' रोड एंड्स हियर ' लिखे बोर्ड तक पहुँच कर हमने जाना की जगह का नाम टिर्की है । आगे भी सड़क बनेगी बताते हैं ''चान्सल तक जैगी साब्ब जी , उधर दुनिया का सबसे बड़ा रिजोर्ट बनेगी बरफ का खेल की '' सड़क महकमे का ओवेरसीर कहता है । '' ''यानी हम लोग यहाँ सही टाइम पे आ गए बाऊ जी वरना कल को यहाँ भी वही रंड -रोना शुरू हो जाना हैगा '' कजिन हिमांशु कहता है और मैं सब पहाडों की इकलौती पसंद कैप्स्तान सिगरेट का कश खींचते हुए कहता हूँ '' बात में दम है बॉस'' !










Thursday, September 24, 2009

तीर्थ का तीर्थ,पिकनिक की पिकनिक,दर्शन करिये बस्तर की घाटियों मे विराजी मां दन्तेश्वरी के








नवरात्रि के अवसर पर आईये आपको सैर करा लायें दन्तेवाड़ा की.यहां मां दन्तेश्वरी का मंदिर है। मान्यता है कि भगवान शिव के तांडव के बादा माता सती का दांत टूट कर यहां गिरा था इसलिये माता का नाम दन्तेश्वरी और इलाके का नाम दन्तेवाड़ा पड़ा। दन्तेश्वरी मैया के मंदिर के भीतर प्रवेश करने के लिये आपको धोती या लुंगी ही पहनना पड़ता है। नक्सलियों का यहां ज़बरदस्त प्रभाव है और बस्तर के कुंआरे वनों से उठती मादक बयार दीवाना कर देने के लिये काफ़ी है। दन्तेवाड़ा रायपुर से 383 किमी दूर स्थित है और सड़क मार्ग बारहमासी है।





दन्तेश्वरी माता से जुड़ी एक और मान्यता है। वारंगल के काकातिया राजा अन्नम देव यहां आये थे। बस्तर राजवंश के पहले उनका राज था। उन्हें माता ने वरदान दिया था जंहा तक़ वे जायेंगे उनका राज्य होगा शर्त ये थी कि उन्हे पीछे मुड़ कर नही देखना होगा। अन्नम देव चलते-चलते यंहा तक़ आये और शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम को पार करने के बाद रूक गये। उन्हें पीछे चल कर आ रही माता की पायल की रुनझुन सुनाई नही दी। उन्होने पीछे पलट कर देखा तो माता नदी पार कर रही थी और पानी के कारण पायल की आवाज़ निकल नही रही थी। बस माता वंही रूक गई और अन्नम देव ने संगम के तट पर उनका मंदिर बना कर उन्हे स्थापित किया।


मां दन्तेश्वरी की प्रतिमा भव्य है और काले पत्थर की है। आंखे और भवें चांदी की है सर पर बारीक काम किया हुआ चांदी का छत्र है और नाक मे चांदी की नथ है। यहां भगवान नरसिंह की प्रतिमा है। गर्भ गृह से जुड़े सभामंडप और नृत्यमंडप हैं। यहां बारसूर शैली की नटराज की और मां दुर्गा की खडी प्रतिमा हैं। नंदी और दो द्वारपाल की विशालकाय प्रतिमायें देखते ही बनती है। मंदिर परिसर मे बना गरुड स्तंभ इस इलाके मे उस काल मे वैष्णवों के प्रभाव का प्रमाण है। मंदिर लकड़ी का बना हुआ है और यदि किसी को बताया ना जाये तो मकान जैसा लगता है। पहले इस इलाके से आगे यात्रा पर जाने वाले मंदिर मे एक बकरी दिया करते थे जो उनकी यात्रा की सफ़लता की गारंटी होती थी। मंदिर का महात्म्य का प्रमाण मशहूर तांत्रिक चंद्रस्वामी का यहां अनुष्ठान के लिये आना भी है। उन्होने अर्जुनसिंह और नरसिंह राव विवाद के समय यंहा की यात्रा की थी।


दन्तेवाड़ा हालांकि नक्सल प्रभावित क्षेत्र है लेकिन दिन के समय यंहा किसी प्रकार का डर नही रहता। दन्तेवाड़ा ज़िला है लेकिन ये एक छोटे से कस्बे से बड़ा नही है। यहां जाने के लिये राजधानी रायपुर से ही जाना होता है जो सड़क और हवाई मार्ग से सारे प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। राजधानी से बमुश्किल 15 किमी की ड्राईव मे ट्रैफ़िक ज्यादा नज़र आता है उसके बाद तो लांग ड्राईव का आनंद है। 77 किमी दूर धमतरी ज़िला पार करते ही पहाड़ और जंगल शुरू हो जाते है और मेरा दावा है कि ये बहुत खूबसूरत द्श्यो से भरी गिनी चुनी सडको मे से एक होगी।


चारामा के बाद कांकेर और उस्के बाद केशकाल की घाटी तो ऐसा लगता है कि अलग ही दुनिया मे ले आई है। चारों ओर दूर-दूर तक़ फ़ैले घने जंगल,शांत,शीतल बहती हवा मदहोश कर देती है। बस्तर नाम का संभाग है मगर इस नाम का एक छोटा सा 2000 के आसपास की आबादी वाला गांव भर बस है यहां। जगदलपुर ज़िला मुख्यालय है यहां रूकने के लिये अच्छे होटल और मोटल के अलावा सरकारी रेस्ट हाऊस भी है। यहां से करीब ही भारत का सबसे बड़ा जलप्रपात चित्रकोट भी है जिसे देसी नियाग्रा कहा जाता है। दन्तेवाड़ा के करीब बारसुर मे तंत्र गणेश है। बलुआ पत्थर की विशालकाय गणेश प्रतिमायें देखते ही बनती है। यहीं आपको विलुप्त हो रही पहाड़ी मैना भी देखने मिल जायेगी। और भी बहुत कुछ है बताऊंगा फ़िर कभी फ़ुरसत से बस्तर के बारे मे। इसी लिये कहता हूं बस्तर तीर्थ का तीर्थ,पिकनिक की पिकनिक।

Wednesday, September 23, 2009

'पृथ्वी के लिए तो रुको' का लोकार्पण



पहले कविता संग्रह के प्रकाशन और लोकार्पण के अवसर पर कबाड़ख़ाना अपने बेहद क़ाबिल और ज़हीन कबाड़ी भाई विजयशंकर चतुर्वेदी को मुबारकबाद देता है. प्रस्तुत है उनकी पुस्तक के लोकार्पण समारोह की एक रपट और उसके बाद विजय भाई की कुछ कविताएं. पाठकों को याद होगा कबाड़ख़ाने पर उनकी कविताओं पर एक लम्बी पोस्ट पहले लगाई जा चुकी है.



महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी ने युवा कवि विजयशंकर चतुर्वेदी के प्रथम कविता संग्रह 'पृथ्वी के लिए तो रुको' का लोकार्पण हिन्दी दिवस के अवसर पर मुम्बई में किया. टोकियो विश्वविद्यालय (जापान) के प्रोफेसर और हिन्दी के जाने-माने विद्वान श्री सुरेश ऋतुपर्ण के हाथों यह लोकार्पण हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के सभागृह में संपन्न हुआ. इस अवसर पर महाराष्ट्र सचिवालय में कार्यरत वरिष्ठ आईएएस अधिकारी श्रीमती लीना मेंहदेले की पुस्तक 'मेरी प्रांतसाहबी' का लोकार्पण भी किया गया. कार्यक्रम की अध्यक्षता अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने की और विशेष अतिथि के तौर पर हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के मानद सचिव सुभाष संपत उपस्थित थे.

विजयशंकर के कविता संग्रह पर अपनी बात रखते हुए प्रसिद्ध कवि डॉक्टर बोधिसत्व ने कहा- 'वर्ष में १०० के करीब कविता संग्रह छपते हैं लेकिन यह संग्रह उनसे भिन्न है. विजय की कविताओं में आलोचकों का दबाव नहीं है. ये कवितायें तुलसी से लेकर कबीर और बाबा नागार्जुन तक जुड़ती हैं. इनमें स्त्रियों के कई रूप हैं जिनमें माँ, बेटी, बहन का जिक्र बार-बार आता है. विषय भी इतने तरह के हैं जो आजकल देखने को नहीं मिलते.' इस अवसर पर बोधिसत्व ने विजयशंकर की एक कविता 'बेटी हमारी' का पाठ भी किया.

विजयशंकर चतुर्वेदी ने मुम्बई के वर्त्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा- 'लगता है यह मुंबई में हम लोगों की आख़िरी पीढ़ी है जो कविता-कहानी लिख-पढ़ रही है. कुछ तो मुंबईबदर कर दिए गए. हमारे साथ भी अब यहाँ मुश्किल से दो-तीन नाम हैं. बाकी लोग जो लिख रहे थे या लिख रहे हैं उनमें से अधिकाँश उम्र के छठवें दशक में हैं. हमारे बाद मुंबई में काव्य-संस्कार पाया हुआ एक भी युवा नजर नहीं आता. महानगर के उर्दू परिदृश्य में तो हाल और भी बुरा है. यह चिंता का विषय इसलिए भी है कि मुबई में तथाकथित लेखक संगठन भी सक्रिय हैं लेकिन उन्होंने प्रतिभाएं तराशने की जगह प्रतिभाओं की कब्र ही खोदी है.’ बोरिस पास्तरनाक का उल्लेख करते हुए विजयशंकर का कहना था कि जरूरी नहीं है कि कवियों की शहर में बाढ़ ही आ जाए लेकिन अगर अच्छा साहित्य लिखने वाले युवा मुंबई में अधिक हों तो बुराई क्या है?

इस अवसर पर प्रोफेसर ऋतुपर्ण ने जापान के साथ-साथ अपनी गयाना, फिजी, त्रिनिदाद, मारीशस और अन्य देशों की यात्राओं तथा रहिवास के रोचक अनुभव सुनाते हुए कहा कि आज हिन्दी विश्वभाषा बन चुकी है और यह करोड़ों लोगों के दिलों की धड़कन है.अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने इस अवसर पर महत्वपूर्ण बात कही- "आज हिन्दी से भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखंडी आदि को निकालने के अभियान चलाये जा रहे हैं. अगर ये बोलियाँ निकल गयीं तो हिन्दी में क्या बचेगा?" उन्होंने आरोप लगाया कि यह साजिश बड़े अफसरों की है ताकि हिन्दी मृतप्राय हो जाए और अंग्रेजी महारानी बनी रहे.श्रीमती लीना मेंहदेले ने विजयशंकर को बधाई देते हुए अपनी पुस्तक का परिचय दिया. प्रसिद्ध समीक्षक और हिन्दी की विदुषी डॉक्टर सुशीला गुप्ता ने कार्यक्रम का संचालन सूत्र सम्भाला. अकादमी के कार्यवाहक सदस्य सचिव जयप्रकाश सिंह ने खचाखच भरे सभागृह में उपस्थित विद्वज्जनों का आभार माना.

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संग्रह से कुछ कविताएं:

नौकरी पाने की उम्र

जिनकी चली जाती है नौकरी पाने की उम्र
उनके आवेदन पत्र पड़े रह जाते हैं दफ्तरों में
तांत्रिक की अँगूठी भी
ग्रहों में नहीं कर पाती फेरबदल
नहीं आता बरसोंबरस कहीं से कोई जवाब
कमर से झुक जाते हैं वे
हालाँकि इतनी भी नहीं होती उमर
सब पढ़ा-लिखा होने लगता है बेकार
बढ़ी रहती हैं दाढ़ी की खूँटियाँ
कोई सड़क उन्हें नहीं ले जाती घर
वे चलते हैं सुरंगों में
और चाहते हैं कि फट जाए धरती
उनकी याद्दाश्त एक पुल है
कभी-कभार कोई साथी
नजर आता है उस पर बैठा हुआ
वे जाते हैं
और खटखटाते हैं पुराने बंद कमरे
वहाँ कोई नहीं लिपटता गले से
चायवाला बरसों से बूढ़ा हो रहा है वहीं
मगर बदल जाते हैं लड़के साल दर साल
जिनकी चली जाती है नौकरी पाने की उम्र
वे सोचते हैं नए लड़कों के बारे में
और पीले पड़ जाते हैं।

किसके नाम है वसीयत

झाँझ बजती है तो बजे
मँजीरे खड़कते हैं तो खड़कते रहें
लोग करते रहें रामधुन
पंडित करता रहे गीता पाठ मेरे सिरहाने
नहीं, मैं ऐसे नहीं जाऊँगा।

आखिर तक बनाए रखूँगा भरम
कि किसके नाम है वसीयत
किस कोठरी में गड़ी हैं मुहरें।
कसकर पकड़े रहूँगा
कमर में बँधी चाबी का गुच्छा।

बाँसों में बँधकर ऐसे ही नहीं निकल जाऊँगा
कि मुँहबाए देखता रह जाए आँगन
ताकती रह जाए अलगनी
दरवाजा बिसूरता रह जाए।
मेरी देह ने किया है अभ्यास इस घर में रहने का
कैसे निकाल दूँ कदम दुनिया से बाहर।

चाहे बंद हो जाए सिर पर टिकटिकाती घड़ी
पाए हो जाएँ पेड़
मैं नहीं उतरूँगा चारपायी से।
चाहे आखिरी साबित हो जाए गोधूलिवेला
सूरज सागर में छिप जाए
रात चिपचिपा जाए पृथ्वी के आरपार
कृमि-कीट करने लगें मेरा इंतजार
धर्मराज कर दें मेरा खाता-बही बंद
मैं डुलूँगा नहीं।

खफा होते हैं तो हो जाएँ मित्र
शोकाकुल परिजन ले जाएँ तो ले जाएँ
मैं जलूँगा नहीं।

जन्मस्थान

किसी को नहीं रहता याद
कहाँ गिरा था वह पहली बार धरती पर

कहाँ जना गया
किस ठौर पड़ी थी उसकी सोबत?

आसान नहीं है सर्वज्ञों के लिए भी यह जान लेना
कि क्यों पैदा होता है कोई?

कितने ईसा
कितने बुद्ध

कितने राम
कितने रहमान

कितने फुटपाथ
कितने अस्पताल

कितने रसोईघर
कितने मैदान

कितने महल
कितने अस्तबल
कौन पार पा सकता है जच्चाघरों से?

कैसे बता सकती हैं खानाबदोश जातियाँ
किस तंबू में जनी गयीं वे

किस देस-घाट का पानी पीकर
चली आई अयोध्या तक...

माँ की नींद

किताब से उचट रहा है मेरा मन
और नींद में है माँ।
पिता तो सो जाते हैं बिस्तर पर गिरते ही,
लेकिन बहुत देर तक उसकुरपुसकुर करती रहती है वह
जैसे कि बहुत भारी हो गई हो उसकी नींद से लंबी रात।

अभी-अभी उसने नींद में ही माँज डाले हैं बर्तन,
फिर बाँध ली हैं मुट्ठियाँ
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से।
मैं देख रहा हूँ उसे असहाय।

माँ जब तब बड़बड़ा उठती है नींद में
जैसे दबी हो अपने ही मलबे के नीचे
और ले रही हो साँस।
पकड़ में नहीं आते नींद में बोले उसके शब्द।
लगता है जैसे अपनी माँ से कर रही है कोई शिकायत।

बीच में ही उठकर वह साफ कराने लगती है मेरे दाँत
छुड़ाने लगती है पीठ का मैल नल के नीचे बैठकर।
कभी कंघी करने लगती है
कभी चमकाती है जूते।
बस्ता तैयार करके नींद में ही छोड़ने चल देती है स्कूल।
मैं किताबों में भी देख लेता हूँ उसे
सफों पर चलती रहती है अक्षर बनकर
जैसे चलती हैं बुशर्ट के भीतर चीटियाँ।

किताब से बड़ी हो गई है माँ
सावधान करती रहती है मुझे हर रोज
जैसे कि हर सुबह उसे ही बैठना है इम्तिहान में
उसे ही हल करने हैं तमाम सवाल
और पास होना है अव्वल दर्जे में।
मेरे फेल होने का नतीजा
मुझसे बेहतर जानती है माँ।

(पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन, ७/३१, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली से छपी है और संग्रह की कीमत है रु. एक सौ पचास)

Tuesday, September 22, 2009

कविता क्या है ?

( आज काफी लम्बे समय बाद `तार सप्तक´ पढ़ने बैठा । प्रभाकर माचवे की एक कविता 'कविता क्या है ?' पर आ कर अटक गया । क्या करूं ? बाबा रामचंद्र शुक्ल और मार तमाम आलोचक , समीक्षक , आचार्य , लेखक , कविगण इस बाबत बहुत कुछ कह गए हैं . साहित्य के विद्यार्थियों को 'काव्यशास्त्र' वाले पेपर की तैयारी में घिसते - पिसते आपने भी देखा होगा . हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में भी कविताओं की उपस्थिति सबसे ज्यादा दिखाई देती है. साथ ही यह भी सुनने - देखने को मिल रहा है कि साहब 'कविता' और 'ब्लाग की कविता' दो जुदा - जुदा चीजें हैं - एकदम अलहदा . दोस्तो ! तनिक बताओ तो कविता क्या है ? अगर कुछ बताने का मन न हो तो देख ही लो कि माचवे जी की कविता के हिसाब से - 'कविता क्या है ?' )

कविता क्या है ? कहते हैं जीवन का दर्शन है-आलोचन ,
( वह कूड़ा जो ढंक देता है बचे-खुचे पत्रों में के स्थल ।

कविता क्या है ? स्वप्न वास है उन्मन कोमल ,
( जो न समझ में आता कवि के भी ऐसा है वह मूरखपन )

कविता क्या है ?आदिम कवि की दृग झारी से बरसा वारी-
( वे पंक्तियां जो कि गद्य हैं कहला सकतीं नहीं बिचारी ) !

( `तार सप्तक´ -हिन्दी के सात कवियों का पहला संकलन । स . ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय' के संपादन में 1943 में छपा और खासा चर्चित हुआ )

Monday, September 21, 2009

अर्जे दक़न में जान तो देहली में दिल बनी

हिन्दी -उर्दू सिनेमा की मौसिकी को नई ऊँचाइयां देने वाले नौशाद साहब की पेशकश 'तर्ज़'।

बतर्ज 'तर्ज़' मैं जब चाहता हूँ स्मॄति के गलियारे में घूम आता हूँ. इस कैसेट को मैंने १९९२ में गुवाहाटी के पलटन बाज़ार की एक म्युजिक शाप से खरीदा था. अब तक इसे कितनी बार सुना गया है - कोई गिनती नहीं. गणेश बिहारी 'तर्ज़' के शानदार शब्द, नौशाद साहब के स्वर में 'तर्ज़' की परिचयात्मक भूमिका और उस्ताद मेंहदी हसन साहब की करिश्माई आवाज में उर्दू शायरी की सबसे लुभावनी, लोकरंजक, लोकप्रिय विधा 'ग़ज़ल' के वैविध्य , वैशिष्ट्य और वैचित्र्य का पठन और श्रवण भी अवश्य कर लीजिए -

दुनिया बनी तो हम्दो - सना बन गई ग़ज़ल.
उतरा जो नूर नूरे - खुदा बन गई ग़ज़ल.

गूँजा जो नाद ब्रह्म बनी रक्से मेह्रो- माह,
ज़र्रे जो थरथराए सदा बन गई गज़ल.

चमकी कहीं जो बर्क़ तो अहसास बन गई,
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल.

आँधी चली तो कहर के साँचे में ढ़ल गई,
बादे - सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल.

हैवां बने तो भूख बनी बेबसी बनी,
इंसां बने तो जज्बे वफा बन गई ग़ज़ल.

उठ्ठा जो दर्दे - इश्क तो अश्कों में ढ़ल गई,
बेचैनियां बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल.

जाहिद ने पी तो जामे - पनाह बन के रह गई,
रिन्दों ने पी तो जामे - बक़ा बन गई ग़ज़ल.

अर्जे दक़न में जान तो देहली में दिल बनी,
और शहरे - लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल.

दोहे -रुबाई - नज़्म सभी 'तर्ज़' थे मगर,
अखलाके - शायरी का खुदा बन गई ग़ज़ल.

स्वर - मेंहदी हसन
शब्द - गणेश बिहारी 'तर्ज़'
संगीत - ललित सेन



Saturday, September 19, 2009

सालोमान वेस्ट की कहानी


कल आपने फ़र्नान्दो पेसोआ द्वारा अलैक्ज़ैंडर सर्च के नाम से लिखी गई कविता 'स्मृतिलेख' के कुछ हिस्से पढ़े थे. आज पढ़िये इसी कवि की मशहूर रचना 'सालोमन वेस्ट की कहानी'

बस इतनी ही है सालोमन वेस्ट की कहानी
दिखता था हमेशा हड़बड़ी में पर जल्दी कभी न थी उसे
वह झींकता, मशक्कत करता जानवरों की तरह
लेकिन अन्त में किया कुछ नहीं उसने
बस इतनी ही है सालोमन वेस्ट की कहानी

उसने इच्छा करने और उन्हें पाने की मेहनत में जीवन बिताया
और कुछ बना ही नहीं उसके जीवन का
दर्द और पसीने के बावजूद वह किया करता था मशक्कत
लेकिन किसी काम नहीं आया वह सारा
बस इतनी ही है सालोमन वेस्ट की कहानी

बाक़ी की चीज़ें शुरू होती थीं ख़त्म नहीं
और बहुत सारा जो किया जाना था नहीं किया गया
तमाम ग़लत चीज़ों को सुधारा नहीं गया
बस इतनी ही है सालोमन वेस्ट की कहानी

हर दिन की नई योजनाओं से मिलता था धोखा
तो भी हर दिन था बाक़ी दिनों सा
इन्हीं के बीच वह जिया और मरा
वह ख़ुद को चिढ़ाता ख़ुद ही चिन्ता करता था
वह भागा, फ़िक्रमन्द रहा और रोया
लेकिन कुछ और नहीं कहा जा सकता उसके जीवन को लेकर
सिवाय इन दो साफ़ तथ्यों के -
वह जिया और मरा.
बस इतनी ही है सालोमन वेस्ट की कहानी

Friday, September 18, 2009

जीवन ने हमें जिया हमने जीवन को नहीं



पुर्तगाली महाकवि फ़र्नान्दो पेसोआ ने कुछ रचनाएं अंग्रेज़ी में भी की थीं. अलैक्ज़ैंडर सर्च के नाम से की गई इन रचनाओं में 'सालोमन वेस्ट की कहानी' और 'स्मृतिलेख' सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती हैं.

'स्मृतिलेख' से प्रस्तुत हैं चार अंश.


१.

कुछ प्रेम किए जाते प्रेम जैसे थे कुछ इनाम दिए जाते इनामों जैसे.
मेरे खाए-पिए साथी के लिए मैं एक नैसर्गिक पत्नी जैसा था
मैं पर्याप्त था जिसके लिए मैं पर्याप्त था.
मैं चला, सोया और बूढ़ा हुआ बिना किसी भाग्य के.

२.

एक ख़ामोशी है जहां शहर पुराना था.
वहां घास उगती है जहां एक भी स्मृति नहीं नीचे.
हम जो भोजन कर रहे थे शोर करते, आज बालू हैं.
कही जा चुकी कथा.
फुसफुसाती है सुदूर टापों की आवाज़.
रैनबसेरे की आख़िरी बत्ती बुझती है.

३.

जीवन ने हमें जिया हमने जीवन को नहीं. हमने देखा, बातें कीं
और हम रहे जैसे मधुमक्खियां शहद चूसती हैं.
पेड़ तब तक बढ़े जब तक हम ज़िन्दा थे.
हमने प्रेम किया देवताओं को लेकिन जैसे हम देखते हैं एक जहाज़ को
न जानते हुए कि हम जानते हैं हम गुज़रे.

४.

यह ढंके है मुझे जिसके ऊपर कभी नीला आसमान था.
मिट्टी रौंदती है मुझे जिसे कभी मैंने रौंदा. मेरे अपने हाथ ने
लिखा इन स्मृतिलेखों को यहां, आधा जानते हुए कि क्यों
आख़िर में, और गुज़र रहे जुलूस का सब कुछ देख चुकने के बाद.

Wednesday, September 16, 2009

आप भी शामिल हों इस अभियान में

युवा संवाद ने प्रतिवर्ष की तरह इस साल भी भारतीय युवा की क्रांतिकारी चेतना के प्रतीक शहीद भगत सिंह की जन्मतिथि २७ सितम्बर को युवा दिवस के रूप में मना रहा है। इस के साथ ही हम उनके जन्म दिवस को युवा दिवस घोषित कराने तथा उनके लेखों को पाठ्यक्रम में शामिल कराने की मांग को लेकर हस्ताक्षर अभियान भी चला रहे हैं।


इस अवसर पर हमने '' भगत सिंह ने कहा'' शीर्षक से भगत सिंह के चार लेखों तथा एक पत्र का संकलन भी प्रकाशित किया है। इसमे शामिल लेख हैं - अछूत समस्या, धर्म और हमारा स्वाधीनता संग्राम, इंक़लाब जिंदाबाद का अर्थ तथा विद्यार्थी और राजनीति। साथ ही जेल से लाहौर के छात्र सम्मलेन को भेजा गया उनका पत्र भी इसमे शामिल किया गया है। इसका मूल्य रखा है ५ रूपये। आप इस अभियान में शामिल होना चाहें तो इसे मंगा सकते हैं।


साथ ही २७ तारीख को हम 'देश, देशभक्ति और भगत सिंह ' विषय पर एक खुली बहस का आयोजन कर रहे हैं जिसमे दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रोफेसर संजय मुख्य वक्ता होंगे.

Tuesday, September 15, 2009

बीते कल की ek बात



खूब मिली
खूब मिलती रही तुक
मसलन -
बिन्दी
चिन्दी
जिन्दी
रिन्दी

और ... और ...

कम पड़ गए तुक
छान मारी डिक्शनरी -किताब - बुक
फिर भी न मिला नया - सा तुक.
अब क्या करें ?

कुछ नहीं - साल भर इंतजार !

अब जाने भी दो यार !

Sunday, September 13, 2009

एक किताब के बहाने

खाने के साथ नए नए प्रयोग करने में गहरी दिलचस्पी रखने वाले मेरे एक मित्र के घर पर कुकिंग बुक्स की एक पूरी आल्मारी है. अभी कुछ दिन पहले मैं यूं ही उनमें से कुछ किताबों को पलट रहा था तो एक किताब के शीर्षक ने अपनी तरफ़ खींचा. शीर्षक था:'मैमोरीज़ विद फ़ूड एट जिप्सी हाउस'.

पहली बार तो यह लगा कि सम्भवतः यह बंजारों के खानपान पर कोई किताब हो सकती है. लेकिन किताब खोलते ही एक नाम देख कर मैं सुखद आश्चर्य से भर उठा. यह किताब मेरे सर्वप्रिय लेखकों में से एक रोआल्ड डाल के घर 'जिप्सी हाउस' की रसोई में बनने वाले व्यंजनों और उनसे सम्बन्धित दिलचस्प किस्सों की खान निकली. स्वयं रोआल्ड डाल और उनकी पत्नी फ़ेलिसिटी डाल की लिखी यह पुस्तक एकबारगी मुझे पिछले करीब पच्चीस-तीस सालों में रोआल्ड डाल की किताबों से मिले अपार रोमांच और आनन्द की स्मृतियात्रा में घसीट ले गई.



बीसवीं सदी में सबसे ज़्यादा पढ़े गए लेखकों में शुमार रोआल्ड डाल ने उपन्यास लिखे, बच्चों के लिए किताबें लिखीं और सबसे महत्वपूर्ण यह कि एक से एक अविस्मरणीय कहानियां लिखीं.

नॉर्वेजियन मूल के माता-पिता के घर वेल्स, इंग्लैण्ड में १३ सितम्बर १९१६ को जन्मे (यानी आज उनका जन्मदिन भी है) डाल ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान रॉयल एयर फ़ोर्स में नौकरी की. १९४० के दशक से उन्होंने पूर्णकालिक लेखन को जीवनयापन का माध्यम बना लिया. कुछ ही सालों में वे दुनिया भर की बैस्टसैलर्स की सूची में नियमित रूप से पाए जाने लगे. आज भी यानी अपनी मौत (२३ नवम्बर १९९० को उनका देहान्त हुआ) के करीब बीसेक सालों बाद उनका यह रुतबा कायम है.

उनकी कहानियां अपने आशातीत क्लाइमैक्स के लिए जानी जाती हैं. यह डाल साहब की ख़ूबी है कि वे आप को अन्त तक बांधे रहते हैं और आमतौर पर आख़िरी पंक्ति में आपको हैरत में डाल देते कि अरे ...! उनकी कहानियों में सीधे सादे ग्रामीण, धूर्त पादरी, यौनवर्धक दवाओं की खोज में जुटे रहने वाले व्यवसायी, सतत कामुक और बेहद ज़हीन और कुलीन अंकल ओसवाल्ड, किशमिश को पानी में डाल फुला देने के उपरान्त उसमें घोड़े की पूंछ के बाल का ज़रा सा टुकड़ा फंसा कर जंगली मुर्गियों के शिकार हेतु चारे की तरह इस्तेमाल करने वाला क्लाउड, एक से एक वैज्ञानिकी कारनामे, नेत्रहीनों के लिए ब्रेल में लिखी गई पोर्नोग्राफ़ी ... और जाने क्या क्या लगातार आता रहता है आपको चमत्कृत करता रहता है.

उनका बाल साहित्य इस तरह के आम साहित्य से काफ़ी फ़र्क है. बचपन और कैशोर्य की अपनी असाधारण समझ के चलते रोआल्ड डाल अपने युवतर पाठकों को बच्चा नहीं समझते और उनके लिए ख़ाली संवेदनापूर्ण विषयों का निर्माण नहीं करते. उनके बालसाहित्य का अपेक्षाकृत 'ब्लैक ह्यूमर' मुझे तो और किसी लेखक में नज़र नहीं आया. सम्भवतः इसी वजह से डाल बच्चों में भी उतने ही लोकप्रिय हैं. उनकी पुस्तकों की बिक्री हर साल बढ़ती जाती है.

अगर आपने डाल को नहीं पढ़ा है तो कहीं से उनकी कोई किताब का जुगाड़ बनाइये और जुट जाइए. द ट्विट्स, एडवैन्चर्स ऑफ़ अंकल ओसवाल्ड, चार्ली एन्ड द चॉकलेट फ़ैक्ट्री, माटील्डा, द बीएफ़जी, किस किस, बिच वगैरह उनकी कुछ प्रमुख किताबें हैं. वैसे उनकी प्रतिनिधि कहानियों के छोटे छोटे संग्रहों से लेकर समग्र संकलन भी उपलब्ध हैं.

पहले आप को 'मैमोरीज़ विद फ़ूड एट जिप्सी हाउस' के एक दिलचस्प हिस्से के बारे में बताता हूं. किताब में व्यंजनों, कॉकटेल्स, बेकरी पर शानदार फ़ोटोग्राफ़्स और इलस्ट्रेशन्स से सजे कई पन्ने हैं. पर एक हिस्सा ग़ज़ब का मज़ेदार है. 'द हैंगमैन्स सपर' नामक इस खंड में 'जिप्सी हाउस' में रह चुके प्रख्यात व्यक्तियों ने बताया है कि अगर उन्हें अगली सुबह फांसी दी जानी तय हो तो वे अपने 'लास्ट सपर' में क्या खाना पसन्द करेंगे.

१९९० में डाल की मौत प्री-ल्यूकीमिया के कारण हुई. जाहिर है ऐसे ग़ज़ब के आदमी का अन्तिम संस्कार ऐसा-वैसा नहीं हो सकता था. उन्हें किसी वाइकिंग की तरह विदाई दी गई (वाइकिंग्स के बारे में फिर कभी). उनके साथ दफ़नाई गई चीज़ों में निम्नलिखित वस्तुएं थीं:
- रोआल्ड के स्नूकर क्यूज़
- शानदार बरगन्डी शराब की कुछ बोतलें
- चॉकलेटें
- एच. बी. पेसिलों के कुछ डिब्बे
- बिजली से चलने वाली एक छोटी आरी.

२००६ के बाद से समूचे यूरोप में १३ सितम्बर को रोआल्ड डाल दिवस के रूप में मनाए जाने की परम्परा चल निकली है. यकीन न हो तो इस लिंक को देखिये:

Celebrate Roald Dahl Day

डाल के साथ जुड़ाव इस कदर अन्तरंग रहा है कि लिखते चले जाने की इच्छा हो रही है. लेकिन फ़िलहाल इतना ही.











Saturday, September 12, 2009

कबाड़ख़ाने की हजारवीं पोस्ट !


यह कबाड़ख़ाने की हजारवीं पोस्ट है।

अब है सो है ; इसमें ऐसी कोई खास बात तो नहीं ! असंख्य संख्याओं के बीच हजार भी एक संख्या है - एक गिनती , एक काउन्ट , लेकिन एक कबाड़ी की निगाह में यह सिर्फ इतना ही भर नहीं है. इसलिए 'दो शब्द' कहने का मन कर रहा है. अब जब आप सभन ने 'नौ सौ निन्यानबे' सुन ली तो ये हजारी बयान भी सुन ही लेवें -

* सबसे पहले तो 'कबाड़ख़ाना' के सभी पाठको, दर्शकों और श्रोताओं के प्रति ढ़ेर सारा आभार - थैंक्यू - धन्यवाद - शुक्रिया !

** आज से लगभग दो बरस पहले इस साझे ब्लाग की शुरुआत हुई थी. शुरू में यह क्या हो , कैसा हो टाइप का कोई स्पष्ट खाका भी नहीं था ; था तो बस यह कि मिल - मिला कर 'कुछ अच्छा और अलग - सा' करना है और धीरे - धीरे सबके सहयोग से गाड़ी आगे बढ़ती गई और आज आलम यह है कि एक बरस में पाँच सौ पोस्ट का औसत चल रहा है. ये पोस्ट्स विविधवर्णी हैं , विविध प्रकार के रुचि - संपन्न लोगों के द्वारा प्रस्तुत. इन दो सालों में कई साथी जुड़े़ और आपने आपको 'श्रेष्ठ कबाड़ी' सबित करने के काम में लगे रहे. सभी की मिहनत और महत्व को सलाम !

*** अब इस मोड़ तक पहुँचकर यह लग रहा हा है कि 'कुछ अच्छा और अलग - सा' करने की मंशा कुछ हद तक आकार लेती दीख रही है. अब ऐसी विनम्रता भी किस काम की कि - साहब, हमने तो कुछ किया ही नहीं ! और न ही ऐसा कोई मुगालता ही है कि - कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया है ! फिर भी पीछे मुड़कर देखने पर संतोष का अनुभव जरूर हो रहा है कि कबाड़ियों की टीम ने उम्दा व तरह-तरह का कबाड़ डिस्प्ले किया जिसमें 'कुछ अच्छा और अलग - सा' करने की ईमानदार नीयत निहित थी .

**** कुल मिलाकर यह कि अपनी दुकान लग रहा है कि सई चल रई दिक्खे है। यह तो अपना कहना है बाकी तो - अपने गिराक बतांगे कि कैसा चल रिया है 'कबाड़ख़ाना' !
@ थोड़ा लिखना , ज्यादा समझना .अतएव अर्जेन्टीना के महाकवि रॉबेर्तो हुआर्रोज़ की 'वर्टिकल पोइट्री' से प्रस्तुत है एक अंश -

हर चीज़ अपने लिये हाथ बनाती है।
मिसाल के तौर पर पेड़
हवा को बाँटने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये पाँव बनाती है
मिसाल के तौर पर घर
किसी का पीछा करने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये आँखें बनाती है
मिसाल के तौर पर तीर
निशाने पर लगने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये जीभ बनाती है
मिसाल के तौर पर गिलास
शराब से बात करने के लिये।

हर चीज़ अपने लिये एक कहानी बनाती है
मिसाल के तौर पर पानी
दूर तक साफ़ बहने के लिये।

***** एक बार फिर आभार। 'कुछ अच्छा और अलग - सा' करने के वास्ते साथ ही 'दूर तक साफ़ बहने के लिये' आपका साथ बने रहने की उम्मीद.
( ऊपर लगी पेंटिंग रवीन्द्र व्यास की है )

Friday, September 11, 2009

जोगिया मेरे घर आए


उस्ताद अमीर ख़ान साहब की गायकी को लेकर इधर कबाड़ख़ाने में भाई सुशोभित सक्तावत ने एक बेहतरीन पोस्ट लगाई थी. तभी से इच्छा थी कि मंगलेश डबराल जी की उस्ताद पर लिखी कविता यहां लगाता.

पढ़िये यह कविता और करीब दो मिनट की उस्ताद की बन्दिश - 'जोगिया मेरे घर आए'

अमीर खां

मंगलेश डबराल

तुम खोजते रहे रहने के लिए एक घर
गाने के लिए एक घराना
तुम खोजते रहे दोस्तों की बैठकों में
किसी स्त्री के चेहरे पर
अपने ही जैसे लापरवाह शिष्यों की आवाज में
विकल करती हुई उन बंदिशों में
जिन्हें तुम एक निराकार शांति के साथ प्रस्तुत करते थे
आरोह-अवरोह के आकाश –पाताल के बीच
संगीत के मेरूखंड में तुम कहीं एक कोना ढूंढ़ते रहे
तुम बनाते रहे एक असंभव घर
सरगमों और छूट की तानों में
खिड़कियों दरवाजों के लिए खाली जगहें छोड़ते हुए
इतनी दूर से तुम सहज ही सम पर लौट आते थे
जैसे कोई लौटता है अपने घर
जहां बहुत दूर की चीजें भी बहुत पास रखी हुई होती हैं।

तुम गाते थे एक चट्टान की सिहरन
पेड़ों का रूदन, बादलों की हंसी
वियोग की तरह फैली हुई रात में उड़ता अकेलापन
तुम बार-बार मनाते रहे किसी रूठे हुए प्रेम को
देह को आत्मा और आत्मा को
देह की पुकार से भरते हुए
लेकिन कला में हम जितना बनाते-बनाते जाते हैं
उतना वह ढहता-ढहता जाता है
ऊपर उठते हुए ऊंचाइयां और ऊंची हो उठती हैं
नीचे उतरते हुए गहराइयां और गहरी

संगीत तुम्हारा एकमात्र काम था
हालांकि तुम्हें दे दिए गए थे दूसरे कई काम
जो संगीत के साथ थे बेसुर-बेताल
तुम्हें हिसाब रखना नहीं आया पैसे पता नहीं कहां खोते रहे
महान अमूर्तनों का समय खत्म हुआ आया व्यापार का युग
पाश् र्व में सुनाई देते रहे विवादी स्वर
समझ में न आने वाला गायन आवाज की सीमाएं
हिंदू संगीत मुस्लिम संगीत
घर घराना परंपरा कहीं की ईंट कहीं रोड़ा
लेकिन तुम गाते रहे बागेश्री पूरिया चंद्रकौंस
जगसम्मोहिनी अहीर भैरव कोमल ऋषभ आसावरी
और उत्तर दक्षिण हिंदी फारसी ईश्वर अल्लाह सबको एक करती
ज्ञान और गुण मांगती हंसध्वनि
इत्तिहादे मियाने मनो तो नेस्त मियाने मनो तो ...

कठिन था घर और घराने का बनना
कठिन था संगीत का गुरुत्व थामे रहना
अंत में तुम जीवित रहे अपनी उदारता औऱ विनम्रता के किस्सों में
घरेलू महफिलों और रेडियो स्टेशनों में दर्ज धुंधली पड़ती आवाज में
तुम जीवित रहे उन संस्मरणों में
कि किसने तुम्हें आखिरी बार कहां कब क्या गाते सुना था
और हर बार तुम्हें एक परीक्षा से गुजरना पड़ा
तुम्हारा जीवन संघर्ष अपने ही संगीत से था
अपनी ही आवाज से
और १९७४ में जब कलकत्ते के पास
एक कार दुर्घटना में तुम्हारी आकस्मिक मृत्यु हुई
तुम एक दोस्त के विवाह में अपना आखिरी राग सुनाकर
लौट रहे थे अपने असंभव घर और घराने की ओर।

(इत्तिहादे मियाने मनो तो नेस्त मियाने मनो तो... - अमीर खुसरो की फ़ारसी रचना जिसका अर्थ है –तुम और मैं इस तरह एक हैं कि तुम्हारे और मेरे बीच कोई बीच नहीं है। )

Amir Khan - Jogiya Mere Ghar Aaye
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नज़ीर अकबराबादी का रीछ का बच्चा

कुछ ऐसी रचनाएं होती हैं जिनके साथ पहली ही मुलाकात में आपका लम्बा रिश्ता बन जाता है. और उनसे पहली बार रू-ब-रू होते ही आप जान जाते हैं कि यह रिश्ता कैसा नज़दीकी और कितना पाएदार होने जा रहा है. हालांकि मैं आमतौर पर पिछली पोस्ट्स को रीपोस्ट करने का बहुत हिमायती नहीं हूं पर अभी अभी कुछ घन्टे बाबा 'नज़ीर' अकबराबादी की सोहबत में बिताने के बाद उन पर लिखी अपनी एक पुरानी पोस्ट को दुबारा जस का तस लगा रहा हूं ताकि सुधीजन कुछ पल को ही सही किसी तरह का नॉस्टैल्जिया महसूस करें - हम सब का अपना अपना बाबा होता है और अपना अपना ही रीछ का बच्चा.



नज़ीर अकबराबादी साहब (१७४०-१८३०) उर्दू में नज़्म लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं. समाज की हर छोटी-बड़ी ख़ूबी नज़ीर साहब के यहां कविता में तब्दील हो गई. पूरी एक पीढ़ी के तथाकथित साहित्यालोचकों ने नज़ीर साहब को आम जनता की शायरी करने के कारण उपेक्षित किया - ककड़ी, जलेबी और तिल के लड्डू जैसी तुच्छ वस्तुओं पर लिखी गई कविताओं को ये सज्जन कविता मानने से इन्कार करते रहे. वे उनमें सब्लाइम एलीमेन्ट जैसी कोई चीज़ तलाशते रहे जबकि यह मौला शख़्स सब्लिमिटी की सारी हदें कब की पार चुका था. बाद में नज़ीर साहब के जीनियस को पहचाना गया और आज वे उर्दू साहित्य के शिखर पर विराजमान चन्द नामों के साथ बाइज़्ज़त गिने जाते हैं.

जीवन भर नज़ीर आगरे के ताजगंज मोहल्ले में रहे 'लल्लू जगधर का मेला' की टेक में वे कहते भी हैं: "टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर". तमाम मेलों, त्यौहारों, सब्ज़ियों, जीवन-दर्शन, प्रार्थनाओं, पशु-पक्षियों, देवी-देवताओं पर लिखी नज़ीर अकबराबादी की लम्बी नज़्में एक महात्मा कवि से हमारा परिचय कराती हैं - उनके यहां कृष्ण कन्हैया और गणेश जी की स्तुति होती है तो बाबा नानक और हज़रत सलीम चिश्ती की भी, होली, दीवाली, ईद और राखी पर उनकी कलम चली है. "सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा" जैसी महान सूफ़ियाना पंक्तियों से उनका सूफ़ी साहित्य बेहद समृद्ध है.

नज़ीर साहब ने आस पास पाए जाने वाले कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों पर कई अविस्मरणीय रचनाएं की हैं. मुझे तो इस कोटि की उनकी रचनाएं पढ़कर लगातार ऐसा लगता रहा है कि लोग अब जाकर 'बर्डवॉचिंग' को एक गम्भीर विषय मानने लगे हैं जबकि आज से क़रीब तीन सौ साल पहले जो काम नज़ीर साहब कर गए हैं, उस के आगे बड़े-बड़े सालिम अली पानी भरते नज़र आते हैं. मेरी बात का यक़ीन न हो तो उनकी रचनाओं में आने वाले बेशुमार कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों के नामों की सूची भर बना के देखिये.

नज़ीर साहब पर कुछ भी अधिक लिख पाने की मेरी औकात नहीं है. स्कूल के दिनों से डायरी में हर साल दर्ज़ होने वाली यह अद्भुत रचना आप के सामने प्रस्तुत करते हुए मेरा मन इस उस्ताद शायर के प्रति कृतज्ञता से भरा हुआ है:

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा

था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा
लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा
कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा
आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा

था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर
कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर
वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र
जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा

झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल
मुक़्क़ीश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल
यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल
गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा

एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें
एक तरफ़ को थीं, पीरओ-जवानों की कतारें
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा

कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर
वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर
हम उनसे यह कहते थे "यह पेशा है क़लन्दर
हां छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगले के अन्दर
जिस दिन से ख़ुदा ने ये दिया, रीछ का बच्चा"

मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया
लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया
यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया
इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया
जो सबकी निगाहों में खुबा रीछ का बच्चा

फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह
फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"
हर चार तरफ़ सेती कहीं पीरो जवां "वाह"
सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां"
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा

इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद
करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद
हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद
और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’
"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा"

जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया
लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया
वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया
इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा

जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा
गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा
एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा

यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर
यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर
"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा"

कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा
इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"
यह सहर किया तुमने तो नागाह "अहा हा"
क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछ का बच्चा

जिस दिन से नज़ीर अपने तो दिलशाद यही हैं
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं
सब कहते हैं वह साहिब-ए-ईजाद यही हैं
क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा

(नीचे लगी तस्वीर में नज़ीर साहब की कब्र अपने सफ़ेद रंग और आकार के कारण अलग पहचानी जा सकती है. पिछले साल आगरा भ्रमण के दौरान हम कुछ मित्र खोजते-बीनते ताजगंज पहुंचे थे. उसी मित्र मंडली में एक कार्ल होफ़बावर ने मेरे लिए यह तस्वीर खींची थी.)