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पहली मुलाकात, उल्फा की मदद करने के आरोप में कुछ दिन पहले तक टाडा में बंद रहे और अब अपना बिल्कुल नया अखबार जमाने में लगे “आजि” के संपादक अजित भुंईया से हुई. खूबसूरत और सुकुमार भुंईया का परिचय एक टीवी पत्रकार ने यह ईर्ष्या भरी जानकारी के साथ दिया था कि राज्यसभा सदस्य मतंग सिंह का बेनामी पैसा उनके अखबार में लगा हुआ है. लेकिन धूल से अटे और सड़ते पानी की दुर्गंध से गमकते राजगढ़ लिन्क रोड स्थित उनके दफ्तर में दूसरा ही नजारा था. भुईयां अपना ही रोना लेकर बैठ गए कि प्रफुल्ल कुमार मंहतो की सरकार लोन देने में अड़ंगा डाल रही है, बिजली का कनेक्शन नहीं मिला इसलिए जनरेटर से अखबार निकाला जा रहा है.
कोई डेढ़ महीने बाद जब सुल्फा (सरेन्डर्ड यूनाइटेड लिबरेशन फोर्स आफ असोम) ने पुलिस के साथ साझा आपरेशन में उल्फा के उग्रवादियों के घरों पर हमले शुरू किए तब एक रात, लाउडस्पीकर से उड़कर आती एक कविता में अजित भुंईया का जिक्र सुना. उस आधी रात दीघाली पुखुरी के किनारे चल रही नरसंहार, खंत्रास विरोधी खिल्पी (कलाकार) सभा में एक चौदह साल का किशोर काव्यपाठ कर रहा था- “आमि होबो अजित भुंईया, परागदास……..” लेखक परागदास जिनकी हत्या सुल्फा ने कर दी थी, को असम में शहीद का दर्जा हासिल है. अजित भुंईया उन्हीं के दोस्त हुआ करते थे और अब उग्रवाद के प्रति सरकारी रवैये पर कुछ बोलकर नए झंझट में नहीं फंसना चाहते थे. पुराने झंझट ही बहुत थे.
अगले ही दिन लालमाटी में सेना मुख्यालय में उग्रवाद के खिलाफ बने नए संयुक्त कमान की प्रेस कांफ्रेस थी. हम लोग सुबह ही होटल ब्रह्मपुत्र पहुंच गए जिसके लाउंज के सोफों और बाहर की सड़क पर लोकल पत्रकारों का अड्डा हुआ करता था क्योंकि दिल्ली से आना वाला हर महत्वपूर्ण आदमी इसी होटल में ठहरता था. वहाँ से सूचना विभाग की एक खटारा जीप में लटक कर, सेना के मुख्यालय के भव्य लॉन में सजी कलफदार, झक्क सफेद कुर्सियों पर पहुंच गए. वहाँ सेना की हरी और पुलिस की खाकी वर्दियां लयबद्ध ढंग से आईएसआई-आईएसआई का कीर्तन कर रहीं थीं. जीओसी कार्प्स के कर्नल महेश विज बता रहे थे कि जनता के प्रति सेना के मैत्रीपूर्ण रूख के कारण हमारी मारक क्षमता सौ प्रतिशत बढ़ गई है. पिछले तीन साल में हमने पहले की तुलना में दोगुने उग्रवादी मारे हैं और लगभग दो हजार आत्मसमर्पण कराए हैं.
“…दुरकेला” बस दो घंटे पहले परिचित हुए एक असमिया रिपोर्टर ने मुझसे कहा, “सरकारी लोन लेने के लिए एक आदमी चार-चार बार सरेन्डर करता है. तुम विश्वास नहीं मानता हमारा तो तुमको ले चल कर टेलर मास्टर से मिलवा देगा जिससे आर्मी का अफसर सरेन्डर करने वाले को पहनाने के लिए उल्फा का वर्दी सिलवाता है.”
दिल्ली से आए संयुक्त गृह सचिव पिल्लै बता रहे थे कि संयुक्त कमान की सफलता से भयभीत उल्फा ने अब निरीह लोगों (साफ्ट टार्गेट्स) को मारना शुरू किया है ताकि वे असम में अपनी उपस्थिति जता सकें. दरअसल अब विचारधारा से उनका कोई नाता नहीं रह गया है और वे विशुद्ध आतंकवादी संगठन में बदल गए हैं. कई दिन से मेरे भीतर जो सवाल कुलबुला रहा था, वह पिल्लै साहब की बात खत्म होने से पहले ही टपक पड़ा, “अगर उन्हें साफ्ट टार्गेट ही चुनना है तो वे बांग्लादेशी घुसपैठियों को क्यों नहीं मारते जिन्हें यहाँ से वापस भेजना ही असम आंदोलन की सबसे प्रमुख मांग थी. घुसपैठियों को वापस भेज पाने में सरकार की विफलता के कारण ही तो असम गण परिषद (एजीपी) से नाराज लड़कों ने उल्फा बनाया था. उनके बजाय यहाँ अपने ही देश के बिहारियों को ही क्यों मारा जा रहा है.”
वहाँ मौजूद चेहरों पर व्यंग्य भरी मुस्कानें खिल गईं जैसे कोई बहुत बेतुकी बात मैने उठा दी हो, जिसे यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है.
आपका परिचय…पिल्लै ने जवाब देने के बजाय सवाल किया तो मेरी टाँगे कांप गईं. अगर कहीं इसने मेरा परिचय पत्र देखने के लिए माँग लिया तो अभी पोल खुल जाएगी. मैने हिम्मत बटोर कर कुछ ज्यादा ही जोर से कहा, मैं दिल्ली से हूँ. जवाब असम के पुलिस महानिदेशक एच के डेका देने लगे- “क्योंकि उल्फा पूरी तरह से आईएसआई के हाथ में चला गया है. आप ही लोग रोज लिखते हैं कि ढाका में उसका हेडक्वार्टर है और काक्स बाजार बंदरगाह से उसके हथियारों की खेप आती है. उल्फा कमांडर परेश बरूआ समेत कई नेताओं के ढाका में मल्टीस्टोरी बिजनेस काम्प्लेक्सेज हैं और उनके पास पाकिस्तान के सैटेलाइट फोन हैं. आप अपने ही अखबार के शीर्षकों को याद कीजिए, सब समझ में आ जाएगा.”
मेरा सारा ध्यान पुलिस महानिदेशक के जवाब पर नहीं उसके अंग्रेजी उच्चारण पर अटक गया. वह हॉलीवुड की किसी क्राइम थ्रिलर फिल्म के सुपरकॉप की तरह बोल रहा था. पता नहीं क्यों मुझे ट्रेन में मिली मोरेगाँव की सहुआईन की लड़कियों की याद आई और लगा कि उन्होंने अपनी जान और पुलिस महानिदेशक ने अपनी नौकरी बचाने के लिए भाषा का अविष्कार एक ही तरह से किया है. चारो तरफ लोग मारे जा रहे हैं, उग्रवादी दिन और समय बताकर हमले कर रहे हैं. सेना और पुलिस ने नेताओं के लंबे भाषणों से गूंजते फर्जी समर्पण समारोहों और मुठभेड़ों के मीडिया मैनेजमेंट में महारत हासिल कर ली है. ऐसे में भाषा, बंदूक से ज्यादा ज़रूरी असलहा हो जाती है जो भ्रम बनाए रखती है कि उग्रवाद को काबू में रखने के लिए काफी कुछ किया जा रहा है.
मीडिया मैनेजमेन्ट के नियमों की चहारदीवारी के भीतर सनसनीखेज स्टोरी की तलाश करते एक बूढ़े चश्माधारी पत्रकार ने सवाल किया- “उग्रवाद सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या है या दिल्ली के खिलाफ युद्ध जैसी स्थिति है?”
आप बताइए. हम लोग आपसे भी यही जानना चाहते हैं. लेफ्टिनेन्ट जनरल ने उसे टरकाया. पीछे एक टीवी चैनल का कोई घिसा हुआ कैमरामैन बुदबुदा रहा था, “एक ठो बासी पेस्ट्री और लाल सा देकर फांकी मार दिया बेट्टा.”
वाकई मुझे भी अफसोस हो रहा था. सोचा था कि कम से कम सेना मुख्यालय में तो आज ढंग का खाना मिलेगा लेकिन दाँव खाली चला गया था.