Thursday, June 30, 2011
नायक बनने की हबड़तबड़ नहीं साधारण बने रहने की विनम्र ज़िद
कुमार अम्बुज के कहानी संग्रह 'इच्छाएं' का एक आकलन प्रस्तुत है. एक्सक्लूसिव कबाड़.
हिन्दी साहित्य का संसार कुमार अम्बुज को एक कवि के रूप में जानता है. कविता के लिए दिये जाने वाले तमाम सम्मान और पुरुस्कार उन्हें मिल चुके हैं. समय-समाज के विभिन्न ज़रूरी विषयों-मुद्दों पर कलम चला चुके और कुल चार कविता-संग्रह 'किवाड़'. 'क्रूरता' 'अनन्तिम' और अतिक्रमण' दे चुके कुमार अम्बुज की रचनाधर्मिता अपनी गहरी प्रतिबद्ध मूल्यनिष्ठा के लिए जानी जाती रही है. अब वे अपना पहला कहानी संग्रह ले कर आए हैं.
इस कहानी संग्रह 'इच्छाएं' की पहली कहानी 'हकला' अपने तरह का इकलौता अद्वितीय दस्तावेज़ है. एक हकले नायक (यदि नायकोचित परिभाषाएं उस पर लागू की जा सकती हों) का आत्मवृत्त पढ़ना वेदना के बिल्कुल नए संसार से गुज़रने की अनुभूति देता है. हकलापन देह में अवस्थित एक ऐसी विकलांगता है जो इस से ग्रस्त व्यक्ति को मानव-भाषा के उच्चारण के अनुपम अनुभव से वंचित करने के साथ ही शर्म, असहायता और विवशता के अंधेरे संसार में धकेल देता है.
अपनी विषयवस्तु को खोल रही कहानी एक तरह की कराह से शुरू होती है. घर पर हकले बच्चे की उपस्थिति से हकबकाए पिता का "क्षोभ भरा विलाप" और उसी क्रम में साथ-साथ नायक का पिटना और उसका क्रमशः "पक्के तौर पर" हकला हो जाना एक सघन नैराश्य का निर्माण करने वाली छवियां हैं. कहानी के विकसित होने का सिलसिला नायक द्वारा अपने हकलेपन के बेहद इन्टेन्स विवेचन के साथ जुड़ा हुआ है. उस के सवाल आपसे मुख़ातिब है: "अनगिन शब्दों ने मेरा गला घोंटा है, मेरे कण्ठ में वे फंसे पड़े हैं, और मेरी नींद में, मेरे सपनों में चुभते हैं. टूटे-फूटे शब्दों के कोने-किनारे, उनकी नोकें किस कदर तकलीफ़ देती हैं, मुझसे ज़्यादा कौन समझेगा?"
समय के साथ साथ नायक बोले जाने वाले शब्दों के संसार से तिरस्कृत महसूस करता हुआ लिखित शब्दों के संसार में प्रवेश करता है जहां शब्दों के साथ हकलेपन की कोई समस्या नहीं होती. साथ ही वह स्वीकार करता है कि इस तिरस्कार भरे संसार में बेज़ुबान पशुओं ने उसे मनुष्यों से अधिक प्रेम दिया - गाय के बछड़े, तोते, आवारा कुत्ते उसकी इस कहानी के बेहद ज़रूरी हिस्से हैं. वह कहता भी है: "वे सब मेरे अधूरे शब्दों को पूर्ण बनाते थे. मेरे अर्धउच्चारित शब्दों या अटक कर बोले गए वाक्यों का उन्होंने कभी अनादर नहीं किया."
प्रत्यक्ष रूप से किंचित हड़बड़ी में लिखे गए इस आत्मवृत्त के अन्तिम हिस्से में वह अपनी शैली को न्यायोचित ठहराता हुआ पाठक से कहता है कि उसे हकले का दर्द और उसकी व्याकुलता को समझते हुए यह जानना चाहिये कि "हकला न होना कितनी बड़ी नियामत है." मां से जुड़ी एक बचपन की स्मृति की याद के साथ समाप्त होने वाला यह वृत्त आपको हकबकाया छोड़ देता है और मांग करता है कि इसे एक सामान्य कहानी की तरह ट्रीट न किया जाए बल्कि दोबारा-तिबारा पढ़ा जाए और हैरत की जाए. कई अर्थों में यह एक असाधारण कहानी है. शिल्प की दृष्टि से जैसी कि इसकी मांग थी, कुमार अम्बुज ने करीब छः पृष्ठों की इस कहानी को एक पैराग्राफ़ में लिखा है. इस से कहानी की गति कभी थमती या अटकती नज़र नहीं आती और अटक अटक कर बोलने की जन्मजात आदत से मजबूर हकले को एक बेहद मजबूत और संवेदनशील चरित्र प्रदान करने में सहायता मिली है.
यह कहानी एक तरह से इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी होने का दर्ज़ा रखती है और निस्संदेह एक बड़ी उपलब्धि है. 'हकला' कहानी के साथ ही कुमार अम्बुज अपने कहानीकार की विशिष्ट शैली को स्थापित कर देते हैं और संग्रह की दूसरी कहानी 'मां रसोई में रहती है' में और भी मुखर होकर सामने आते हैं. भारतीय मध्यवर्ग के परिवारों की धुरी को सदियों से मजबूती के साथ थामे अडिग खड़ी माताओं की जिजीविषा का बहुत संवेदनशील चित्र इस कहानी में देखने को मिलता है.
संग्रह की कहानियों की विषयवस्तुएं इस कदर भिन्न्ता लिये हुए और अनूठी हैं कि उनमें से हर एक के बारे में लिख पाना यहां सम्भव भी नहीं है और सम्भवतः उचित भी नहीं होगा. विभिन्न तरीकों से इस क्रूर संसार में अपनी उपस्थिति को भरसक अर्थपूर्ण और संवेदनापूरित बनाए रखने के बेहद मुश्किल उद्यम में लगे भारतीय मध्यवर्ग का बहुत ही सामयिक और महत्वपूर्ण दस्तावेज़ीकरण इस तमाम कहानियों की खूबी है. नौकरियां, बीमारियां, परिवार, दफ़्तर, लोगबाग इन कहानियों के केन्द्र में हैं और उनमें नायक बनने की हबड़तबड़ नहीं साधारण बने रहने की विनम्र ज़िद दिखाई देती है.
यह संग्रह मानव जीवन की साधारणता का महान कोरस है जिसमें बग़ैर अधिक लाग लपेट के, बिना किसी साहित्यिक चमत्कार की कामना के, एक ज़रूरी और विरल तत्व का ईमानदार संधान किया गया है.
लम्बी कहानी 'संसार के आश्चर्य' का उपशीर्षक बहुत रोचक है: "जो विस्मित नहीं हो सकते, वे अधूरे मनुष्य हैं". इस कहानी के ठीक पहले वाली कहानी 'सनक' रत्तियां बेचने वाले, कविताओं की पंक्तियां इकठ्ठा करने वाले और फ़िलहाल जुगनू पालने का काम शुरू कर चुके एक ऐसे ही अधेड़ सेल्समैन का किस्सा है, जो अपने हर वाक्य से हमें विस्मय में डालता है.
'संसार के आश्चर्य' में लेखक अपने तीन यात्रा वृत्तान्त सुनाता है जिनमें वह जैसा कि शीर्षक से जाहिर है, संसार के आश्चर्यों की उसकी यात्राओं के विवरण दर्ज़ हैं. बदलते समाज, बदलती चिन्ताओं और उनकी जटिल विद्रूपताओं और उनकी खूबसूरत बारिकियों को किसी खिलंदड़े दार्शनिक की सी नज़र से देखा गया है. कहानी की शैली दिलचस्प भी है और अतीव मनोरंजक भी. कहानी की दरकार है कि उसके वाक्यों-शब्दों की सतह को खुरचकर उस के अन्दर प्रविष्ट हुआ जाए. आख़िर में एक जगह लिखा गया है: "पर्यटक होना भी मुश्किलों और पागलपन का पुलिन्दा हो जाना है. इतना तो आप भी समझ गए होंगे. पर्यटक अपने आप को असाधारण समझते हैं और शेष दुनिया उन्हें असामान्य मानती है. ... मेरी तरह आप भी सांसारिक व्याधियों और विपन्नता में फंसे हुए हैं, लेकिन फिर भी मैं कहूंगाकि आप थोड़ा सा समय, कुछ पैसा और उत्साह लेकर 'संसार के आश्चर्यों' की यात्रा ज़रूर करें. जितनी जगहों पर जाना मुमकिन हो, उतना ही सही."
'एक दिन मन्ना डे' और 'पीतल का अदमी' भी ऐसी ही कहानियां है जो बताती है कि बाहर से बेहद एकांगी दिखाई देने वाला मानव-संसार दरअसल हमें लगातार विस्मित करते जाने वाले तत्वों और चरित्रों से भरपूर है. और दिखाई देने वाले संसार के भीतर का यह संसार देख पाने के लिए किसी जादू की ज़रूरत नहीं होती. बस अपने आसपास की चीज़ों के प्रति थोड़ा अधिक सजग, थोड़ा अधिक संवेदनशील होना होता है.
फ़्रांज़ काफ़्का से लेकर ज्ञानरंजन तक लेखकों द्वारा पिताओं को लेकर दुनिया भर के साहित्य में बहुत सारा गद्य लिखा गया है - 'मुश्किल' और 'कहना-सुनना' शीर्षक कहानियां इस विषय पर नई दृष्टि डालती हैं. खास तौर पर 'कहना-सुनना' कहानी में क्रमशः वयस्क और अधेड़ होते पुत्र और बूढ़े होते पिता के सम्बन्धों के बीच पसर जाने वाले रेगिस्तान को कुमार अम्बुज किसी तटस्थ और उस्ताद करीगर की बारीक निगाह से उधेड़ देने का जोखिम उठाते हैं.
घर के छोटे बच्चे को हो गई टीबी को लेकर एक पिता की चिन्ताओं, चिकित्सकों द्वारा सुरक्षित उपचार के बाबत आश्वस्त कर दिये जाने के बावजूद पत्नी से इस बात को छिपाने की जद्दोजहद और एक छोटे से घर की छोटी सी ज़िन्दगी के भीतर बहुत संवेदनशीलता के साथ झांका गया है 'ख़ुशी' शीर्षक कहानी में.
किताब के ब्लर्ब पर जितेन्द्र भाटिया का कथन है: "अव्वल तो ये कहानियां फ़ॉर्म के किसी पूर्वनिर्धारित ढांचे में सीमित किये जाने की मोहताज नहीं हैं और न ही इन्हें अम्बुज के मुकम्मल, सुपरिचित कवि संसार का महज विस्तार या उसका स्वाद बदलने वाला 'बाई प्रोडक्ट' माना जा सकता है. इस कथन के परिप्रेक्ष्य में 'बारिश' कहानी का ज़िक्र करना आवश्यक लगता है.
'बारिश' एक काव्यात्मक कहानी है. दरअसल यह कहानी एक मुकम्मिल कविता है और जब कुमार अम्बुज "अपनी बारिश" का ज़िक्र करते हैं तो लगता है कि बताना चाह रहे हैं कि ये कहानियां मेरी "अपनी" हैं - ये तमाम कहानियां बेशक एक कवि ही लिख सकता था, जिसकी अभिव्यक्ति के संसार को सचमुच ही किसी बने-बनाए सांचे के बरअक्स नहीं देखा जा सकता और देखा जाना चाहिये भी नहीं. इस तरह के कई मायनों में यह संग्रह न सिर्फ़ महत्वपूर्ण माना जाना चाहिये, कुमार अम्बुज की तरफ़ से आगे के दिनों में आने वाले साहित्य की समृद्ध विविधता की तरफ़ इशारा भी करता है.
'बारिश' कहानी के शुरू में भूमिका तैयार करते हुए कुमार अम्बुज लिखते हैं:
"जानता हूं कि बारिश को ठीक-ठाक पूरा-पूरा किसी कविता में भी नहीं लिखा जा सकता. कहानी में तो कतई नहीं. वह गद्य के स्पर्श भर से स्थूल हो जाएगी. या हो सकता वह विवरण के किसी रेगिस्तान में ही विलीन हो जाए. जबकि उसके हर अंग से बारिश होती है. उन अंगों से भी जो मृत कोशिकाओं से बने हैं. उसके नाख़ूनों से. उसके रोओं से. और पलकों से. ..."
इतना लिख चुकने के बाद वे बारिश के बारे में लिखते जाने का जोखिम उठाते हैं और उसके विविध प्रत्यक्ष-परोक्ष आयामों से आप को रू-ब-रू कराते चलते हैं. गाब्रीएल गार्सिया मारकेज़ की कहानी 'वॉचिंग इट रेन इन माकोन्दो' में अनवरत बारिश को देखती हुई ईसाबेल को कभी कभी जैसा महसूस होता रहता है, कुछ कुछ वैसा ही इस कहानी के कुछ हिस्सों में देखने को मिलता है. इस विकट कविता-कहानी या कहानी-कविता का अन्त इन पंक्तियों से होता है :
"अब उसने दूसरी सारी आवाज़ों को आग़ोश में ले लिया है.
दसों दिशाओं से बारिश की आवाज़ आती है.
उसने हर दृश्य को ढांप लिया है.
अब सब तरफ़ सिर्फ़ बारिश है.
मेरी बारिश."
(इच्छाएं, कहानी-संग्रह, लेखक: कुमार अम्बुज, भारतीय ज्ञानपीठ, रु. ११०)
हिन्दी साहित्य का संसार कुमार अम्बुज को एक कवि के रूप में जानता है. कविता के लिए दिये जाने वाले तमाम सम्मान और पुरुस्कार उन्हें मिल चुके हैं. समय-समाज के विभिन्न ज़रूरी विषयों-मुद्दों पर कलम चला चुके और कुल चार कविता-संग्रह 'किवाड़'. 'क्रूरता' 'अनन्तिम' और अतिक्रमण' दे चुके कुमार अम्बुज की रचनाधर्मिता अपनी गहरी प्रतिबद्ध मूल्यनिष्ठा के लिए जानी जाती रही है. अब वे अपना पहला कहानी संग्रह ले कर आए हैं.
इस कहानी संग्रह 'इच्छाएं' की पहली कहानी 'हकला' अपने तरह का इकलौता अद्वितीय दस्तावेज़ है. एक हकले नायक (यदि नायकोचित परिभाषाएं उस पर लागू की जा सकती हों) का आत्मवृत्त पढ़ना वेदना के बिल्कुल नए संसार से गुज़रने की अनुभूति देता है. हकलापन देह में अवस्थित एक ऐसी विकलांगता है जो इस से ग्रस्त व्यक्ति को मानव-भाषा के उच्चारण के अनुपम अनुभव से वंचित करने के साथ ही शर्म, असहायता और विवशता के अंधेरे संसार में धकेल देता है.
अपनी विषयवस्तु को खोल रही कहानी एक तरह की कराह से शुरू होती है. घर पर हकले बच्चे की उपस्थिति से हकबकाए पिता का "क्षोभ भरा विलाप" और उसी क्रम में साथ-साथ नायक का पिटना और उसका क्रमशः "पक्के तौर पर" हकला हो जाना एक सघन नैराश्य का निर्माण करने वाली छवियां हैं. कहानी के विकसित होने का सिलसिला नायक द्वारा अपने हकलेपन के बेहद इन्टेन्स विवेचन के साथ जुड़ा हुआ है. उस के सवाल आपसे मुख़ातिब है: "अनगिन शब्दों ने मेरा गला घोंटा है, मेरे कण्ठ में वे फंसे पड़े हैं, और मेरी नींद में, मेरे सपनों में चुभते हैं. टूटे-फूटे शब्दों के कोने-किनारे, उनकी नोकें किस कदर तकलीफ़ देती हैं, मुझसे ज़्यादा कौन समझेगा?"
समय के साथ साथ नायक बोले जाने वाले शब्दों के संसार से तिरस्कृत महसूस करता हुआ लिखित शब्दों के संसार में प्रवेश करता है जहां शब्दों के साथ हकलेपन की कोई समस्या नहीं होती. साथ ही वह स्वीकार करता है कि इस तिरस्कार भरे संसार में बेज़ुबान पशुओं ने उसे मनुष्यों से अधिक प्रेम दिया - गाय के बछड़े, तोते, आवारा कुत्ते उसकी इस कहानी के बेहद ज़रूरी हिस्से हैं. वह कहता भी है: "वे सब मेरे अधूरे शब्दों को पूर्ण बनाते थे. मेरे अर्धउच्चारित शब्दों या अटक कर बोले गए वाक्यों का उन्होंने कभी अनादर नहीं किया."
प्रत्यक्ष रूप से किंचित हड़बड़ी में लिखे गए इस आत्मवृत्त के अन्तिम हिस्से में वह अपनी शैली को न्यायोचित ठहराता हुआ पाठक से कहता है कि उसे हकले का दर्द और उसकी व्याकुलता को समझते हुए यह जानना चाहिये कि "हकला न होना कितनी बड़ी नियामत है." मां से जुड़ी एक बचपन की स्मृति की याद के साथ समाप्त होने वाला यह वृत्त आपको हकबकाया छोड़ देता है और मांग करता है कि इसे एक सामान्य कहानी की तरह ट्रीट न किया जाए बल्कि दोबारा-तिबारा पढ़ा जाए और हैरत की जाए. कई अर्थों में यह एक असाधारण कहानी है. शिल्प की दृष्टि से जैसी कि इसकी मांग थी, कुमार अम्बुज ने करीब छः पृष्ठों की इस कहानी को एक पैराग्राफ़ में लिखा है. इस से कहानी की गति कभी थमती या अटकती नज़र नहीं आती और अटक अटक कर बोलने की जन्मजात आदत से मजबूर हकले को एक बेहद मजबूत और संवेदनशील चरित्र प्रदान करने में सहायता मिली है.
यह कहानी एक तरह से इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी होने का दर्ज़ा रखती है और निस्संदेह एक बड़ी उपलब्धि है. 'हकला' कहानी के साथ ही कुमार अम्बुज अपने कहानीकार की विशिष्ट शैली को स्थापित कर देते हैं और संग्रह की दूसरी कहानी 'मां रसोई में रहती है' में और भी मुखर होकर सामने आते हैं. भारतीय मध्यवर्ग के परिवारों की धुरी को सदियों से मजबूती के साथ थामे अडिग खड़ी माताओं की जिजीविषा का बहुत संवेदनशील चित्र इस कहानी में देखने को मिलता है.
संग्रह की कहानियों की विषयवस्तुएं इस कदर भिन्न्ता लिये हुए और अनूठी हैं कि उनमें से हर एक के बारे में लिख पाना यहां सम्भव भी नहीं है और सम्भवतः उचित भी नहीं होगा. विभिन्न तरीकों से इस क्रूर संसार में अपनी उपस्थिति को भरसक अर्थपूर्ण और संवेदनापूरित बनाए रखने के बेहद मुश्किल उद्यम में लगे भारतीय मध्यवर्ग का बहुत ही सामयिक और महत्वपूर्ण दस्तावेज़ीकरण इस तमाम कहानियों की खूबी है. नौकरियां, बीमारियां, परिवार, दफ़्तर, लोगबाग इन कहानियों के केन्द्र में हैं और उनमें नायक बनने की हबड़तबड़ नहीं साधारण बने रहने की विनम्र ज़िद दिखाई देती है.
यह संग्रह मानव जीवन की साधारणता का महान कोरस है जिसमें बग़ैर अधिक लाग लपेट के, बिना किसी साहित्यिक चमत्कार की कामना के, एक ज़रूरी और विरल तत्व का ईमानदार संधान किया गया है.
लम्बी कहानी 'संसार के आश्चर्य' का उपशीर्षक बहुत रोचक है: "जो विस्मित नहीं हो सकते, वे अधूरे मनुष्य हैं". इस कहानी के ठीक पहले वाली कहानी 'सनक' रत्तियां बेचने वाले, कविताओं की पंक्तियां इकठ्ठा करने वाले और फ़िलहाल जुगनू पालने का काम शुरू कर चुके एक ऐसे ही अधेड़ सेल्समैन का किस्सा है, जो अपने हर वाक्य से हमें विस्मय में डालता है.
'संसार के आश्चर्य' में लेखक अपने तीन यात्रा वृत्तान्त सुनाता है जिनमें वह जैसा कि शीर्षक से जाहिर है, संसार के आश्चर्यों की उसकी यात्राओं के विवरण दर्ज़ हैं. बदलते समाज, बदलती चिन्ताओं और उनकी जटिल विद्रूपताओं और उनकी खूबसूरत बारिकियों को किसी खिलंदड़े दार्शनिक की सी नज़र से देखा गया है. कहानी की शैली दिलचस्प भी है और अतीव मनोरंजक भी. कहानी की दरकार है कि उसके वाक्यों-शब्दों की सतह को खुरचकर उस के अन्दर प्रविष्ट हुआ जाए. आख़िर में एक जगह लिखा गया है: "पर्यटक होना भी मुश्किलों और पागलपन का पुलिन्दा हो जाना है. इतना तो आप भी समझ गए होंगे. पर्यटक अपने आप को असाधारण समझते हैं और शेष दुनिया उन्हें असामान्य मानती है. ... मेरी तरह आप भी सांसारिक व्याधियों और विपन्नता में फंसे हुए हैं, लेकिन फिर भी मैं कहूंगाकि आप थोड़ा सा समय, कुछ पैसा और उत्साह लेकर 'संसार के आश्चर्यों' की यात्रा ज़रूर करें. जितनी जगहों पर जाना मुमकिन हो, उतना ही सही."
'एक दिन मन्ना डे' और 'पीतल का अदमी' भी ऐसी ही कहानियां है जो बताती है कि बाहर से बेहद एकांगी दिखाई देने वाला मानव-संसार दरअसल हमें लगातार विस्मित करते जाने वाले तत्वों और चरित्रों से भरपूर है. और दिखाई देने वाले संसार के भीतर का यह संसार देख पाने के लिए किसी जादू की ज़रूरत नहीं होती. बस अपने आसपास की चीज़ों के प्रति थोड़ा अधिक सजग, थोड़ा अधिक संवेदनशील होना होता है.
फ़्रांज़ काफ़्का से लेकर ज्ञानरंजन तक लेखकों द्वारा पिताओं को लेकर दुनिया भर के साहित्य में बहुत सारा गद्य लिखा गया है - 'मुश्किल' और 'कहना-सुनना' शीर्षक कहानियां इस विषय पर नई दृष्टि डालती हैं. खास तौर पर 'कहना-सुनना' कहानी में क्रमशः वयस्क और अधेड़ होते पुत्र और बूढ़े होते पिता के सम्बन्धों के बीच पसर जाने वाले रेगिस्तान को कुमार अम्बुज किसी तटस्थ और उस्ताद करीगर की बारीक निगाह से उधेड़ देने का जोखिम उठाते हैं.
घर के छोटे बच्चे को हो गई टीबी को लेकर एक पिता की चिन्ताओं, चिकित्सकों द्वारा सुरक्षित उपचार के बाबत आश्वस्त कर दिये जाने के बावजूद पत्नी से इस बात को छिपाने की जद्दोजहद और एक छोटे से घर की छोटी सी ज़िन्दगी के भीतर बहुत संवेदनशीलता के साथ झांका गया है 'ख़ुशी' शीर्षक कहानी में.
किताब के ब्लर्ब पर जितेन्द्र भाटिया का कथन है: "अव्वल तो ये कहानियां फ़ॉर्म के किसी पूर्वनिर्धारित ढांचे में सीमित किये जाने की मोहताज नहीं हैं और न ही इन्हें अम्बुज के मुकम्मल, सुपरिचित कवि संसार का महज विस्तार या उसका स्वाद बदलने वाला 'बाई प्रोडक्ट' माना जा सकता है. इस कथन के परिप्रेक्ष्य में 'बारिश' कहानी का ज़िक्र करना आवश्यक लगता है.
'बारिश' एक काव्यात्मक कहानी है. दरअसल यह कहानी एक मुकम्मिल कविता है और जब कुमार अम्बुज "अपनी बारिश" का ज़िक्र करते हैं तो लगता है कि बताना चाह रहे हैं कि ये कहानियां मेरी "अपनी" हैं - ये तमाम कहानियां बेशक एक कवि ही लिख सकता था, जिसकी अभिव्यक्ति के संसार को सचमुच ही किसी बने-बनाए सांचे के बरअक्स नहीं देखा जा सकता और देखा जाना चाहिये भी नहीं. इस तरह के कई मायनों में यह संग्रह न सिर्फ़ महत्वपूर्ण माना जाना चाहिये, कुमार अम्बुज की तरफ़ से आगे के दिनों में आने वाले साहित्य की समृद्ध विविधता की तरफ़ इशारा भी करता है.
'बारिश' कहानी के शुरू में भूमिका तैयार करते हुए कुमार अम्बुज लिखते हैं:
"जानता हूं कि बारिश को ठीक-ठाक पूरा-पूरा किसी कविता में भी नहीं लिखा जा सकता. कहानी में तो कतई नहीं. वह गद्य के स्पर्श भर से स्थूल हो जाएगी. या हो सकता वह विवरण के किसी रेगिस्तान में ही विलीन हो जाए. जबकि उसके हर अंग से बारिश होती है. उन अंगों से भी जो मृत कोशिकाओं से बने हैं. उसके नाख़ूनों से. उसके रोओं से. और पलकों से. ..."
इतना लिख चुकने के बाद वे बारिश के बारे में लिखते जाने का जोखिम उठाते हैं और उसके विविध प्रत्यक्ष-परोक्ष आयामों से आप को रू-ब-रू कराते चलते हैं. गाब्रीएल गार्सिया मारकेज़ की कहानी 'वॉचिंग इट रेन इन माकोन्दो' में अनवरत बारिश को देखती हुई ईसाबेल को कभी कभी जैसा महसूस होता रहता है, कुछ कुछ वैसा ही इस कहानी के कुछ हिस्सों में देखने को मिलता है. इस विकट कविता-कहानी या कहानी-कविता का अन्त इन पंक्तियों से होता है :
"अब उसने दूसरी सारी आवाज़ों को आग़ोश में ले लिया है.
दसों दिशाओं से बारिश की आवाज़ आती है.
उसने हर दृश्य को ढांप लिया है.
अब सब तरफ़ सिर्फ़ बारिश है.
मेरी बारिश."
(इच्छाएं, कहानी-संग्रह, लेखक: कुमार अम्बुज, भारतीय ज्ञानपीठ, रु. ११०)
Wednesday, June 29, 2011
हमारा यार है हम में हम को इंतजारी क्या
२००६ में आशा भोंसले ने यूनीवर्सल रेकॉर्डस से 'कहत कबीर' संग्रह जारी किया था. आशा भोंसले की आवाज़ में कबीर को सुनना बहुत सुखद अनुभव था. इस संग्रह से आपको सुनवाता हूं अपना पसंदीदा पीस. वैसे तो यह रचना आज से दो साल से अधिक समय पहले कबाड़ख़ाने पर लगाई जा चुकी है पर अब उसके प्लेयर ने काम करना बन्द कर दिया है. आनन्द लीजिए -
हम है इश्क मस्ताना हम को होशियारी क्या
रहें आजाद इस जग से हमें दुनिया से यारी क्या
जो बिछुड़े हैं पियारे से भटकते दरबदर फिरते
हमारा यार है हम में हम को इंतजारी क्या
खलक सब नाम अपने को बहुत कर सिर पटकता है
हमन गुरनाम सांचा है हमन दुनिया से यारी क्या
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से
उन्हीं से नेह लागी है हम को बेकरारी क्या
कबीरा इश्क का माता दुई को दूर कर दिल से
जो चलना राह नाज़ुक है, हम सिर बोझ भारी क्या
हम है इश्क मस्ताना हम को होशियारी क्या
रहें आजाद इस जग से हमें दुनिया से यारी क्या
जो बिछुड़े हैं पियारे से भटकते दरबदर फिरते
हमारा यार है हम में हम को इंतजारी क्या
खलक सब नाम अपने को बहुत कर सिर पटकता है
हमन गुरनाम सांचा है हमन दुनिया से यारी क्या
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से
उन्हीं से नेह लागी है हम को बेकरारी क्या
कबीरा इश्क का माता दुई को दूर कर दिल से
जो चलना राह नाज़ुक है, हम सिर बोझ भारी क्या
हँस रही थी मध्यकाल से वह सरस्वती
पाँवटा साहब (हिमाचल) के मित्र कवि प्रदीप सैनी ने पिछले दिनो मुझे यह कविता मेल की थी . आज अचानक याद आया कि गत वर्ष दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय मे सरस्वती की 11वीं सदी की बनी हुई संगमरमर की खण्डित लेकिन खूबसूरत मूर्ति देखी थी. और इस की कुछ तस्वीरें भी खींच लाया था. उस समय ये तस्वीरें मैं किसी ऐतिहासिक साक्ष्य के निमित्त सेव कर रहा था .
लेकिन हुसैन प्रकरण के सन्दर्भ मे ये फोटो बहुत प्रासंगिक और प्रतीकात्मक लग रहे हैं.
हुसैन की सरस्वती
बन्दर
पढ़ा रहे हैं पाठ
वे हमें अपनी तरह
सभ्य बनाने पर उतारू हैं
इस वक़्त वे मचान के ठीक ऊपर हैं
पर बन्दर क्या जानें
मचान में नहीं होता
टहनियों जैसा लचीलापन
कि मोड़ लें जिधर चाहें
वे गिरेंगे मचान से
उछलकूद करते करते
मुँह के बल
और बहुत दिनों के बाद हँसेगी
हुसैन की सरस्वती .
Saturday, June 25, 2011
किताबें , शब्द और अंतर्जाल
हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका तद्भव (अंक -23 )का यह सम्पादकीय हिन्दी साहित्यप्रेमियों का * साईबर फोबिया* ज़रूर दूर करेगा. कम्प्यूटर और साईबर वर्ल्ड से बहुत ज़्यादा जुड़े न होने के बावजूद अखिलेश जी भविष्य के माध्यमो के प्रति पोज़िटिव नज़रिया रखते है.
अंक/23 /2011 सम्पादकीय
इन दिनों प्रायः कुछ लोगों द्वारा इस बात की चिंता प्रकट की जाती है कि इंटरनेट का विस्तार किताबों के वर्तमान स्वरूप को समाप्त कर देगा। जाहिर है, यहां आशय छपी हुई पुस्तकों से है। इसी बात को कभी यूं कहा जाता है कि एक दिन आयेगा जब कागज और रोशनाई का लोप हो जायेगा और दुनिया में छापाखाना का उद्योग बंदी के कगार पर पहुंच जायेगा। इसी प्रकार कुछ उत्साही जो इतना अंधकारपूर्व भविष्य कथन नहीं करते, कहते हैं कि इंटरनेट पर ब्लागों और वेब पत्रिाकाओं के प्रति बढ़ती रुचि एक दिन मुद्रित अखबारों और पत्रिाकाओं की किस्मत को रूंध देगी। इस चुनौती के जवाब में हिंदी का आशावादी समुदाय इतमीनान दिखाता है कि इस तरह के दुर्वचन बहुत बार कहे गये हैं किंतु छपे हुए साहित्य का कुछ नहीं बिगड़ा है और इस बार भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। यह विपर्यय एक प्रकार से हमारे देश की अवस्थिति की तरह है जहां एक तरफ भूमंडलीकरण के बाद की दुनिया की द्रुत रफ्तार और हृदयहीन आक्रामकता है तो दूसरी तरफ पुराने वक्त की मंथरता में बसे लोगों का अबोध किंतु कारुणिक वास भी है। कितना दिलचस्प है कि कई लेखक गर्व से कहते हैं कि वे कहानियां, कविताएं, उपन्यास, आलोचना कम्प्यूटर पर लिखते हैं। लेकिन उनमें भी कम गर्व नहीं महसूस किया जा सकता जो ठाठ से कहते हैं कि वे कलम कागज के मेल से ही शब्दों का जादू उपस्थित कर पाते हैं। यहां ठहरकर हम कहना चाहेंगे कि खतरे का अंदेशा कर रहा वर्ग कम से कम इतना सहिष्णु है कि वह सामाजिक जीवन में इंटरनेट की भूमिका और उसके महत्व को नकार नहीं रहा है और न वह ऐसी किसी मुहिम का प्रणेता और समर्थक है कि इसकी विदाई में ही मनुष्यता की सुरक्षा है। उसकी चाहत अधिक से अधिक सहअस्तित्व की है कि सूचना संजाल के समानांतर उसका अपना जो अभ्यास है उसकी भी गरिमा, सौंदर्य एवं शक्ति को कमतर न आंका जाये।
अब जरा कुछ दशक पहले के वक्त पर निगाह डालें। सिनेमा के अभ्युदय में भी साहित्य की समाप्ति का दुःस्वप्न देखा गया था। टेलिविजन को सिनेमा और साहित्य दोनों का संहारक माना गया। रंगीन टेलिविजन के खिलाफ तो बकायदा वैचारिक संघर्ष हुआ था और कम्प्यूटर की भर्त्सना में बौद्धिक दुनिया ने विराट प्रतिरोध दर्ज किया था। इतना ही नहीं, हमारे कुछ महत्वपूर्ण कवियों ने कम्प्यूटर की निंदा करते हुए अपनी कविता में उसे न छूने तक की प्रतिज्ञा की थी। लेकिन समय गवाह है कि वे चीजें बदस्तूर जारी रहीं। इतना ही नहीं अपने फलक, क्षमता और प्रयोग में अनवरत अभिवृद्धि करती रहीं। यहां हमारा मंतव्य यह नहीं है कि विजयी होने पर ही कोई संघर्ष अथवा प्रतिपक्ष सार्थक होता है। या किसी प्रतिरोध की विफलता उसकी सार्थकता को संदिग्ध बनाती है। दुनिया की अनेक नैतिक, सच्ची, मानवीय लड़ाइयां कई बार परास्त हुई हैं किंतु वे मानव इतिहास की बेशकीमती धरोहर हैं। कम्प्यूटर, टेलिविजन, सिनेमा और अद्यतन इंटरनेट माध्यम को खतरे के रूप में ग्रहण करने के संदर्भ में कहना सिर्फ यह है कि संसार में विज्ञान के आविष्कारों की बुनियाद में मनुष्य और समाज की बेहतरी के स्वप्न एवं संकल्प होते हैं, यह तो सत्ताएं होती हैं जो विज्ञान की बुनियाद और सिद्धांत को लांघकर अपनी शक्ति संरचना की हिफाजत के लिए उसके दुरुपयोग की गुंजाइश बनाती हैं। इसीलिए, जैसाकि कहा गया है कि, समाज में वर्चस्वशाली वर्ग के चरित्रा के मुताबिक ही अधिभूत संरचनाओं का स्वरूप तय होता है। विज्ञान के साथ भी वही सलूक होता रहा है। विज्ञान के संदर्भ में यह भी सोचना चाहिए कि जब समाज के किसी चरण में कोई आविष्कार प्रकट हो उठता है तो वह लोगों की लाख नाराजगी, चिढ़ के बावजूद विस्थापित नहीं हो सकता है। किसी तकनीक का तिरोहण उससे उन्नत तकनीक ही कर सकती है। पुरानी अथवा यथस्थिति की तकनीक उससे लड़ाई जीतने में सर्वथा अक्षम होती है। मगर इस प्रसंग में जो एक दूसरी बात है उसका जिक्र करना यहां जरूरी है कि किताबें हों, साहित्य या अन्य कुछ हो जब उसके सम्मुख मिट जाने की चुनौती आती है तो वह अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए अपने को परिवर्तित करता है और तत्कालीन परिस्थितियों में भी अपनी उपस्थिति को निर्धारित करता है, कई बार नये सिरे से स्थापित करता है। हमारे कथा साहित्य मेंᄉ कविता मेंᄉ जो विभिन्न बदलाव हुए हैं उनके पीछे सामाजिक, वैचारिक दबावों के साथ इस कारक का भी निश्चय ही योगदान रहा होगा। यह अनायास नहीं है कि कैमरे की ताकत का मुकाबला कथा साहित्य ने यथार्थ की अभिव्यक्ति हेतु यथार्थवाद का अतिक्रमण करके किया परिणामस्वरूप स्थैतिक कैमरा की शान गतिमान कैमरा की यांत्रिाकी के आगमन से कमतर हो गयी लेकिन कथा साहित्य ने रचनात्मकता के उत्कर्ष हासिल किये। कहना यह है कि साहित्य का स्वरूप बदला न कि शब्द और साहित्य मिट गये। यहां निवेदन करना होगा कि शासक वर्ग एक छद्म विजेता के दम्भ में कई बार यह गुमान पाल लेता है कि उसकी आंधी में तमाम लोग मिट गये। महल हो या मॉल, पांच सितारा होटल हो या सेज, बड़े बांध हों या नयी कॉलोनियांᄉ इनके निर्माण में बड़ी आबादी देखते देखते नदारद हो जाती है तब निर्माण के नियंताओं को यह वहम होने लगता है कि जो कभी वहां थे अब मिट गये किंतु वे मिटे नहीं होते हैं बल्कि वे उनकी आंखों से ओझल हो चुके होते हैं। सृजनात्मक शब्दों के संदर्भ में भी कहा जाना चाहिए कि बार बार अपने अंत का फरमान सुनने के बाद भी वे अपनी उ+ष्मा और संवेदना के साथ जीवित तथा सक्रिय हैं। थोड़ा ठहरकर यहां यह भी रेखांकित करना होगा कि उपरोक्त की भांति यह भी कम सच नहीं है कि जो सृजनात्मक शब्द नूतन परिस्थितियों के मुताबिक अपने भिन्न तेवरᄉ अपने भ्रूभंगᄉ नहीं तैयार करते वे वाकई मिटने के लिए अभिशप्त होते हैं।
जहां तक इंटरनेट द्वारा किताबों के सम्मुख पेश की गयी चुनौती का प्रश्न है तो देखने की बात है कि यह ठीक उस प्रकार की चुनौती नहीं है जैसी कैमरा ने यथार्थवाद के सामने उपस्थित की थी। यहां मूल संकट शब्द के सम्मुख नहीं कागज, छपाई और रोशनाई के सामने है। लेखक कम्प्यूटर पर रचे या हाथ से लिखे, या अमृत लाल नागर, मनोहर श्याम जोशी सरीखे रचनाकारों की तरह बोलकर सृजन करेᄉ क्या फर्क पड़ता है। इसी प्रकार विशेष फर्क नहीं पड़ता है, रचना चाहे पढ़कर ग्रहण की जाये या सुनकर। आखिर संसार की अनेक महान रचनाएं बगैर लिपि के मौखिक परम्परा में जन्मी और मौखिक परम्परा में जीवित रहीं। अपने देश का ही दृष्टांत लें, विभिन्न संस्कृतियों में उनकी अपनी अपनी लिपि की यात्राा भोजपत्रा से ई बुक और ई पत्रिाका तक पहुंची है। दरअसल यह विरुद्धों के संघर्ष की स्थिति नहीं है। आज कम्प्यूटर प्रेमी जो रचनाकार ब्लाग को अपनी अभिव्यक्ति का प्रिय माध्यम मानते हैं वे भी अंततः अपनी रचनाओं का मुद्रित रूप देखकर खुश होते हैं। इसी प्रकार इस इलाके को खास तवज्जो न देने वाले रचनाकार भी अपनी रचना और रचना के विषय में संदर्भ सामग्री इंटरनेट पर देख पढ़कर सुखी होते हैं। यह उसी तरह है जैसे मौखिक परम्परा के सृजनकर्ता की महत्वाकांक्षा मुद्रित में शामिल होना रहती है तो छपी हुई कृतियों के हर सर्जक का मोक्ष उसका मौखिक परम्परा बन जाना है।
छापाखाना का आविष्कार अभिव्यक्ति के विश्व में क्रांति की तरह था। उसने अभिव्यक्ति के लिए लोकतांत्रिाक वातावरण के निर्माण में अभूतपूर्व भूमिका का निर्वाह किया। खास यह कि छपाई ने आत्माभिव्यक्ति को राज्याश्रय के संरक्षण और दासता से आजाद होने की संजीवनी दी तो उसे पाठकों के विपुल लोक तक पहुंचाने की दिशा में वह पुल बनी। और गद्य के लिए तो वह कोख ही सिद्ध हुई। लेकिन यही छपाई तमाम अश्लील भावों, हिंसक और तानाशाह विचारों और सत्ता के पैरोकार अभिलेखों के लिए भी खाद पानी खुराक बनी। इसी मत को कम ज्यादा करके हम लिपि के लिए भी लागू कर सकते हैं। आशय यह है कि लिपि हो या मुद्रणᄉ ये गुलाम बनाने, शोषण करने के लिए मजबूत फंदे बने तो ये उनकी बेड़ियों को काटने के लिए घारदार हथियार भी बने। गैरबराबर दुनिया में किसी चीज की तरह लिपि और छपाई का भी परस्पर विपरीत प्रयोग हुआ। यही विश्लेषण इंटरनेट पर उपलब्ध शब्दलोक पर लागू होता है। छपाई का विचारों एवं भावनाओं के प्रसार में निस्संदेह महान अवदान रहा है। किंतु इससे कैसे इंकार किया जा सकता है कि इंटरनेट के अभ्युदय ने उसकी इस समस्या को आईना भी दिखाया कि वह महंगी है। वह पांडुलिपि निर्माण और उसके प्रतिलिपि निर्माण की तुलना में भले ही सस्ती और जनोन्मुख थी लेकिन इंटरनेट के आगमन के बाद वह महंगी सुविधा लगने लगी। आज बहुत सारा साहित्य, पत्रिाकाएं, ज्ञान इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध हैं जबकि किताबें और पत्रिाकाएं और अखबार अपनी कीमतें बढ़ाने के लिए अभिशप्त हैं। दूसरी ओर जैसाकि ब्लाग प्रेमियों का तर्क है : सम्पादकों, प्रकाशकों के अंकुश, दमन और तानाशाही से रचनाकारों को ब्लाग ने आजाद कर दिया है। छपाई की शक्ति संरचना और धनाभाव की समस्या ने रचनाकारों की अभिव्यक्ति की राह में जो कांटें बिछा रखे थे, ब्लाग और वेबसाइट ने उनको उससे बचाकर एक आत्मीय पनाह दी है।
यहां पर ठहरकर यह विचार करने की आवश्यकता है कि आत्माभिव्यक्ति की उपरोक्त आजादी और बाजार व्यवस्था की स्वतंत्राता में कोई समानता तो नहीं है? कहीं यह स्वतंत्राता अन्य से समाज से निरपेक्ष तो नहीं है। हिंदी साहित्य से जुड़े कुछ ब्लागों पर आत्माभिव्यक्ति की आजादी के रूप में कई बार जैसी रचनाएं और प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं उससे लगता है कि क्या वाकई कोई स्वाधीनता ऐसी भी होती है जो आत्मनियंत्राण, जिम्मेदारी से मरहूम और भयानक वाचाल हो। लेकिन यह हर माध्यम में होता है और उस पर अंततः निर्णय उसके श्रेष्ठ उदाहरणों पर दिया जाता है न कि कमजोर और क्षरित दृष्टांतों पर। आज इसी माध्यम की मदद से पिछले दिनों कुछ देशों में सत्ताएं पलट गयीं और जनविद्रोहों का तूफान आया। विकीलीक्स ने इसी हथियार से अमेरिकी शासन की चूलें हिला दीं और कई राष्ट्रों की विकृतियों का उद्घाटन करके खलबली पैदा की है। तो इसी माध्यम पर विकृतियों के अभूतपूर्व संसार का खजाना भी है। इसलिए एक मंच के रूप में न इसके बहिष्कार की आवश्यकता है न इसके अंधाधुंध स्वीकार की। इस चौकसी में सर्वाधिक गौरतलब चीज है अंतर्वस्तु। वस्तुतः किताब बनाम इंटरनेट का द्वंद्व खड़ा करने में यह सिद्ध करने की कोशिश होती है कि अंतर्वस्तु नहीं माध्यम श्रेष्ठतर होता है। इसे पारम्परिक भाषा में कहें, इस मुहिम से निष्कर्ष निकलता है कि साध्य से साधन उच्च्तर है। भूमंडलीकरण के उपरांत मनुष्यता की विचारधारा, सरोकार और सामूहिकता से छुटकारा दिलाने की जो परियोजना चलायी जा रही है, उपर्युक्त निष्कर्ष उसकी ही फलश्रुति हैᄉयह संदेह किया जा सकता है?
अंततः हम कहना चाहेंगे कि किताब और कम्प्यूटर का अंतर्संघर्ष एक तरह से चाहे अनचाहे रचना में अतंर्वस्तु की प्रधानता को हाशिए पर धकेलता है। और यह भी कि यह एक निरर्थक झगड़ा है, क्योंकि चाहे कागज पर हो या कम्प्यूटर पर वह होगी तो किताब अथवा पत्रिाका ही।
इस बिंदु पर किताबों की तरफदारी में बार बार कही गयी और रूढ़ि बन गयी इन दलीलों को सामने रखने से कोई फायदा नहीं है कि कम्प्यूटर के बरक्स किताबों की व्याप्ति बहुत ज्यादा है। पहले यह तर्क दिया जाता था कि किताबों, अखबारों को आप बाथरूम, सफर, शयन कहीं भी ले जा सकते हैं और पढ़ सकते हैं। लैपटाप के बाद किताबों का यह बल छीन लिया गया है। आने वाले समय में हो सकता है, प्रत्येक वाहन में कम्प्यूटर हो या इतनी तरक्की हो जाय कि कम्प्यूटर के बगैर कम्प्यूटर आपके सामने हो। जैसे जल्द ही बिना की बोर्ड वाले कम्प्यूटर बाजार में आने वाले हैं जो इंसान के दिमाग के संकेतों का यथानुसार अनुपालन करेंगे। मान लीजिए विज्ञान इतना उन्नति करे कि आदमी की इच्छा होते ही उसके सामने इंटरनेट का ब्रह्मांड सक्रिय हो जाय। लेकिन तब भी शब्द की सत्ता बनी रहेगी और इसी तरह मनुष्यविरोधी और मनुष्य समर्थक शब्दों की टकराहट भी बनी रहेगी। कहना ही होगा कि जब तक शब्द रहेंगे, तब तब तक साहित्य भी रहेगा और निश्चय ही वह किताबों, पत्रिाकाओं में दर्ज होगा।
पिछले दिनों कन्हैया लाल नंदन, सुरेन्द्र मोहन, भवदेव पांडे, सोहन शर्मा, शिवराम, अनिल सिन्हा के निधन से हिन्दी साहित्य एवं समाज को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है। इन लोगों ने अपने शब्दकर्म और अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों से हिन्दी समाज को समृद्धि दी। तद्भव इन सभी की स्मृति को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
अखिलेश
अंक/23 /2011 सम्पादकीय
इन दिनों प्रायः कुछ लोगों द्वारा इस बात की चिंता प्रकट की जाती है कि इंटरनेट का विस्तार किताबों के वर्तमान स्वरूप को समाप्त कर देगा। जाहिर है, यहां आशय छपी हुई पुस्तकों से है। इसी बात को कभी यूं कहा जाता है कि एक दिन आयेगा जब कागज और रोशनाई का लोप हो जायेगा और दुनिया में छापाखाना का उद्योग बंदी के कगार पर पहुंच जायेगा। इसी प्रकार कुछ उत्साही जो इतना अंधकारपूर्व भविष्य कथन नहीं करते, कहते हैं कि इंटरनेट पर ब्लागों और वेब पत्रिाकाओं के प्रति बढ़ती रुचि एक दिन मुद्रित अखबारों और पत्रिाकाओं की किस्मत को रूंध देगी। इस चुनौती के जवाब में हिंदी का आशावादी समुदाय इतमीनान दिखाता है कि इस तरह के दुर्वचन बहुत बार कहे गये हैं किंतु छपे हुए साहित्य का कुछ नहीं बिगड़ा है और इस बार भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। यह विपर्यय एक प्रकार से हमारे देश की अवस्थिति की तरह है जहां एक तरफ भूमंडलीकरण के बाद की दुनिया की द्रुत रफ्तार और हृदयहीन आक्रामकता है तो दूसरी तरफ पुराने वक्त की मंथरता में बसे लोगों का अबोध किंतु कारुणिक वास भी है। कितना दिलचस्प है कि कई लेखक गर्व से कहते हैं कि वे कहानियां, कविताएं, उपन्यास, आलोचना कम्प्यूटर पर लिखते हैं। लेकिन उनमें भी कम गर्व नहीं महसूस किया जा सकता जो ठाठ से कहते हैं कि वे कलम कागज के मेल से ही शब्दों का जादू उपस्थित कर पाते हैं। यहां ठहरकर हम कहना चाहेंगे कि खतरे का अंदेशा कर रहा वर्ग कम से कम इतना सहिष्णु है कि वह सामाजिक जीवन में इंटरनेट की भूमिका और उसके महत्व को नकार नहीं रहा है और न वह ऐसी किसी मुहिम का प्रणेता और समर्थक है कि इसकी विदाई में ही मनुष्यता की सुरक्षा है। उसकी चाहत अधिक से अधिक सहअस्तित्व की है कि सूचना संजाल के समानांतर उसका अपना जो अभ्यास है उसकी भी गरिमा, सौंदर्य एवं शक्ति को कमतर न आंका जाये।
अब जरा कुछ दशक पहले के वक्त पर निगाह डालें। सिनेमा के अभ्युदय में भी साहित्य की समाप्ति का दुःस्वप्न देखा गया था। टेलिविजन को सिनेमा और साहित्य दोनों का संहारक माना गया। रंगीन टेलिविजन के खिलाफ तो बकायदा वैचारिक संघर्ष हुआ था और कम्प्यूटर की भर्त्सना में बौद्धिक दुनिया ने विराट प्रतिरोध दर्ज किया था। इतना ही नहीं, हमारे कुछ महत्वपूर्ण कवियों ने कम्प्यूटर की निंदा करते हुए अपनी कविता में उसे न छूने तक की प्रतिज्ञा की थी। लेकिन समय गवाह है कि वे चीजें बदस्तूर जारी रहीं। इतना ही नहीं अपने फलक, क्षमता और प्रयोग में अनवरत अभिवृद्धि करती रहीं। यहां हमारा मंतव्य यह नहीं है कि विजयी होने पर ही कोई संघर्ष अथवा प्रतिपक्ष सार्थक होता है। या किसी प्रतिरोध की विफलता उसकी सार्थकता को संदिग्ध बनाती है। दुनिया की अनेक नैतिक, सच्ची, मानवीय लड़ाइयां कई बार परास्त हुई हैं किंतु वे मानव इतिहास की बेशकीमती धरोहर हैं। कम्प्यूटर, टेलिविजन, सिनेमा और अद्यतन इंटरनेट माध्यम को खतरे के रूप में ग्रहण करने के संदर्भ में कहना सिर्फ यह है कि संसार में विज्ञान के आविष्कारों की बुनियाद में मनुष्य और समाज की बेहतरी के स्वप्न एवं संकल्प होते हैं, यह तो सत्ताएं होती हैं जो विज्ञान की बुनियाद और सिद्धांत को लांघकर अपनी शक्ति संरचना की हिफाजत के लिए उसके दुरुपयोग की गुंजाइश बनाती हैं। इसीलिए, जैसाकि कहा गया है कि, समाज में वर्चस्वशाली वर्ग के चरित्रा के मुताबिक ही अधिभूत संरचनाओं का स्वरूप तय होता है। विज्ञान के साथ भी वही सलूक होता रहा है। विज्ञान के संदर्भ में यह भी सोचना चाहिए कि जब समाज के किसी चरण में कोई आविष्कार प्रकट हो उठता है तो वह लोगों की लाख नाराजगी, चिढ़ के बावजूद विस्थापित नहीं हो सकता है। किसी तकनीक का तिरोहण उससे उन्नत तकनीक ही कर सकती है। पुरानी अथवा यथस्थिति की तकनीक उससे लड़ाई जीतने में सर्वथा अक्षम होती है। मगर इस प्रसंग में जो एक दूसरी बात है उसका जिक्र करना यहां जरूरी है कि किताबें हों, साहित्य या अन्य कुछ हो जब उसके सम्मुख मिट जाने की चुनौती आती है तो वह अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए अपने को परिवर्तित करता है और तत्कालीन परिस्थितियों में भी अपनी उपस्थिति को निर्धारित करता है, कई बार नये सिरे से स्थापित करता है। हमारे कथा साहित्य मेंᄉ कविता मेंᄉ जो विभिन्न बदलाव हुए हैं उनके पीछे सामाजिक, वैचारिक दबावों के साथ इस कारक का भी निश्चय ही योगदान रहा होगा। यह अनायास नहीं है कि कैमरे की ताकत का मुकाबला कथा साहित्य ने यथार्थ की अभिव्यक्ति हेतु यथार्थवाद का अतिक्रमण करके किया परिणामस्वरूप स्थैतिक कैमरा की शान गतिमान कैमरा की यांत्रिाकी के आगमन से कमतर हो गयी लेकिन कथा साहित्य ने रचनात्मकता के उत्कर्ष हासिल किये। कहना यह है कि साहित्य का स्वरूप बदला न कि शब्द और साहित्य मिट गये। यहां निवेदन करना होगा कि शासक वर्ग एक छद्म विजेता के दम्भ में कई बार यह गुमान पाल लेता है कि उसकी आंधी में तमाम लोग मिट गये। महल हो या मॉल, पांच सितारा होटल हो या सेज, बड़े बांध हों या नयी कॉलोनियांᄉ इनके निर्माण में बड़ी आबादी देखते देखते नदारद हो जाती है तब निर्माण के नियंताओं को यह वहम होने लगता है कि जो कभी वहां थे अब मिट गये किंतु वे मिटे नहीं होते हैं बल्कि वे उनकी आंखों से ओझल हो चुके होते हैं। सृजनात्मक शब्दों के संदर्भ में भी कहा जाना चाहिए कि बार बार अपने अंत का फरमान सुनने के बाद भी वे अपनी उ+ष्मा और संवेदना के साथ जीवित तथा सक्रिय हैं। थोड़ा ठहरकर यहां यह भी रेखांकित करना होगा कि उपरोक्त की भांति यह भी कम सच नहीं है कि जो सृजनात्मक शब्द नूतन परिस्थितियों के मुताबिक अपने भिन्न तेवरᄉ अपने भ्रूभंगᄉ नहीं तैयार करते वे वाकई मिटने के लिए अभिशप्त होते हैं।
जहां तक इंटरनेट द्वारा किताबों के सम्मुख पेश की गयी चुनौती का प्रश्न है तो देखने की बात है कि यह ठीक उस प्रकार की चुनौती नहीं है जैसी कैमरा ने यथार्थवाद के सामने उपस्थित की थी। यहां मूल संकट शब्द के सम्मुख नहीं कागज, छपाई और रोशनाई के सामने है। लेखक कम्प्यूटर पर रचे या हाथ से लिखे, या अमृत लाल नागर, मनोहर श्याम जोशी सरीखे रचनाकारों की तरह बोलकर सृजन करेᄉ क्या फर्क पड़ता है। इसी प्रकार विशेष फर्क नहीं पड़ता है, रचना चाहे पढ़कर ग्रहण की जाये या सुनकर। आखिर संसार की अनेक महान रचनाएं बगैर लिपि के मौखिक परम्परा में जन्मी और मौखिक परम्परा में जीवित रहीं। अपने देश का ही दृष्टांत लें, विभिन्न संस्कृतियों में उनकी अपनी अपनी लिपि की यात्राा भोजपत्रा से ई बुक और ई पत्रिाका तक पहुंची है। दरअसल यह विरुद्धों के संघर्ष की स्थिति नहीं है। आज कम्प्यूटर प्रेमी जो रचनाकार ब्लाग को अपनी अभिव्यक्ति का प्रिय माध्यम मानते हैं वे भी अंततः अपनी रचनाओं का मुद्रित रूप देखकर खुश होते हैं। इसी प्रकार इस इलाके को खास तवज्जो न देने वाले रचनाकार भी अपनी रचना और रचना के विषय में संदर्भ सामग्री इंटरनेट पर देख पढ़कर सुखी होते हैं। यह उसी तरह है जैसे मौखिक परम्परा के सृजनकर्ता की महत्वाकांक्षा मुद्रित में शामिल होना रहती है तो छपी हुई कृतियों के हर सर्जक का मोक्ष उसका मौखिक परम्परा बन जाना है।
छापाखाना का आविष्कार अभिव्यक्ति के विश्व में क्रांति की तरह था। उसने अभिव्यक्ति के लिए लोकतांत्रिाक वातावरण के निर्माण में अभूतपूर्व भूमिका का निर्वाह किया। खास यह कि छपाई ने आत्माभिव्यक्ति को राज्याश्रय के संरक्षण और दासता से आजाद होने की संजीवनी दी तो उसे पाठकों के विपुल लोक तक पहुंचाने की दिशा में वह पुल बनी। और गद्य के लिए तो वह कोख ही सिद्ध हुई। लेकिन यही छपाई तमाम अश्लील भावों, हिंसक और तानाशाह विचारों और सत्ता के पैरोकार अभिलेखों के लिए भी खाद पानी खुराक बनी। इसी मत को कम ज्यादा करके हम लिपि के लिए भी लागू कर सकते हैं। आशय यह है कि लिपि हो या मुद्रणᄉ ये गुलाम बनाने, शोषण करने के लिए मजबूत फंदे बने तो ये उनकी बेड़ियों को काटने के लिए घारदार हथियार भी बने। गैरबराबर दुनिया में किसी चीज की तरह लिपि और छपाई का भी परस्पर विपरीत प्रयोग हुआ। यही विश्लेषण इंटरनेट पर उपलब्ध शब्दलोक पर लागू होता है। छपाई का विचारों एवं भावनाओं के प्रसार में निस्संदेह महान अवदान रहा है। किंतु इससे कैसे इंकार किया जा सकता है कि इंटरनेट के अभ्युदय ने उसकी इस समस्या को आईना भी दिखाया कि वह महंगी है। वह पांडुलिपि निर्माण और उसके प्रतिलिपि निर्माण की तुलना में भले ही सस्ती और जनोन्मुख थी लेकिन इंटरनेट के आगमन के बाद वह महंगी सुविधा लगने लगी। आज बहुत सारा साहित्य, पत्रिाकाएं, ज्ञान इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध हैं जबकि किताबें और पत्रिाकाएं और अखबार अपनी कीमतें बढ़ाने के लिए अभिशप्त हैं। दूसरी ओर जैसाकि ब्लाग प्रेमियों का तर्क है : सम्पादकों, प्रकाशकों के अंकुश, दमन और तानाशाही से रचनाकारों को ब्लाग ने आजाद कर दिया है। छपाई की शक्ति संरचना और धनाभाव की समस्या ने रचनाकारों की अभिव्यक्ति की राह में जो कांटें बिछा रखे थे, ब्लाग और वेबसाइट ने उनको उससे बचाकर एक आत्मीय पनाह दी है।
यहां पर ठहरकर यह विचार करने की आवश्यकता है कि आत्माभिव्यक्ति की उपरोक्त आजादी और बाजार व्यवस्था की स्वतंत्राता में कोई समानता तो नहीं है? कहीं यह स्वतंत्राता अन्य से समाज से निरपेक्ष तो नहीं है। हिंदी साहित्य से जुड़े कुछ ब्लागों पर आत्माभिव्यक्ति की आजादी के रूप में कई बार जैसी रचनाएं और प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं उससे लगता है कि क्या वाकई कोई स्वाधीनता ऐसी भी होती है जो आत्मनियंत्राण, जिम्मेदारी से मरहूम और भयानक वाचाल हो। लेकिन यह हर माध्यम में होता है और उस पर अंततः निर्णय उसके श्रेष्ठ उदाहरणों पर दिया जाता है न कि कमजोर और क्षरित दृष्टांतों पर। आज इसी माध्यम की मदद से पिछले दिनों कुछ देशों में सत्ताएं पलट गयीं और जनविद्रोहों का तूफान आया। विकीलीक्स ने इसी हथियार से अमेरिकी शासन की चूलें हिला दीं और कई राष्ट्रों की विकृतियों का उद्घाटन करके खलबली पैदा की है। तो इसी माध्यम पर विकृतियों के अभूतपूर्व संसार का खजाना भी है। इसलिए एक मंच के रूप में न इसके बहिष्कार की आवश्यकता है न इसके अंधाधुंध स्वीकार की। इस चौकसी में सर्वाधिक गौरतलब चीज है अंतर्वस्तु। वस्तुतः किताब बनाम इंटरनेट का द्वंद्व खड़ा करने में यह सिद्ध करने की कोशिश होती है कि अंतर्वस्तु नहीं माध्यम श्रेष्ठतर होता है। इसे पारम्परिक भाषा में कहें, इस मुहिम से निष्कर्ष निकलता है कि साध्य से साधन उच्च्तर है। भूमंडलीकरण के उपरांत मनुष्यता की विचारधारा, सरोकार और सामूहिकता से छुटकारा दिलाने की जो परियोजना चलायी जा रही है, उपर्युक्त निष्कर्ष उसकी ही फलश्रुति हैᄉयह संदेह किया जा सकता है?
अंततः हम कहना चाहेंगे कि किताब और कम्प्यूटर का अंतर्संघर्ष एक तरह से चाहे अनचाहे रचना में अतंर्वस्तु की प्रधानता को हाशिए पर धकेलता है। और यह भी कि यह एक निरर्थक झगड़ा है, क्योंकि चाहे कागज पर हो या कम्प्यूटर पर वह होगी तो किताब अथवा पत्रिाका ही।
इस बिंदु पर किताबों की तरफदारी में बार बार कही गयी और रूढ़ि बन गयी इन दलीलों को सामने रखने से कोई फायदा नहीं है कि कम्प्यूटर के बरक्स किताबों की व्याप्ति बहुत ज्यादा है। पहले यह तर्क दिया जाता था कि किताबों, अखबारों को आप बाथरूम, सफर, शयन कहीं भी ले जा सकते हैं और पढ़ सकते हैं। लैपटाप के बाद किताबों का यह बल छीन लिया गया है। आने वाले समय में हो सकता है, प्रत्येक वाहन में कम्प्यूटर हो या इतनी तरक्की हो जाय कि कम्प्यूटर के बगैर कम्प्यूटर आपके सामने हो। जैसे जल्द ही बिना की बोर्ड वाले कम्प्यूटर बाजार में आने वाले हैं जो इंसान के दिमाग के संकेतों का यथानुसार अनुपालन करेंगे। मान लीजिए विज्ञान इतना उन्नति करे कि आदमी की इच्छा होते ही उसके सामने इंटरनेट का ब्रह्मांड सक्रिय हो जाय। लेकिन तब भी शब्द की सत्ता बनी रहेगी और इसी तरह मनुष्यविरोधी और मनुष्य समर्थक शब्दों की टकराहट भी बनी रहेगी। कहना ही होगा कि जब तक शब्द रहेंगे, तब तब तक साहित्य भी रहेगा और निश्चय ही वह किताबों, पत्रिाकाओं में दर्ज होगा।
पिछले दिनों कन्हैया लाल नंदन, सुरेन्द्र मोहन, भवदेव पांडे, सोहन शर्मा, शिवराम, अनिल सिन्हा के निधन से हिन्दी साहित्य एवं समाज को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है। इन लोगों ने अपने शब्दकर्म और अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों से हिन्दी समाज को समृद्धि दी। तद्भव इन सभी की स्मृति को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
अखिलेश
Monday, June 20, 2011
ऐ इश्क हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
आज फिर आबिदा :
कुछ इस अदा से आज वो पहलूनशीं रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
या-रब किसी की राज़-ए-मुहब्बत की ख़ैर हो
दस्त ए जुनूँ रहे न रहे आस्तीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक के ये सख्त मरहले
हैराँ हूँ मैं के फिर भी तुम इतने हसीं रहे
जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
अल्लाह रे चश्म-ए-यार की मौजिज़ बयानियाँ
हर इक को है गुमाँ के मुख़ातिब हमी रहे
इस इश्क की तलाफ़ी ए माफ़ात देखना
रोने की हसरतें हैं जब आंसू नहीं रहे
Sunday, June 19, 2011
उसने जब कहा...
यह साल मजाज की भी जन्मशती है...उस आवारा शायर की जिसने हुस्नो इश्क के साथ इन्कलाब के भी गीत गाये...जिसने सबका तो इलाज किया बार खुद अपना इलाज न कर सका...शराब ने लील लिया उसे...लेकिन क्या सिर्फ शराब ने? सच तो यह है कि हम अपने शायरों की कद्र ही नहीं जानते......फैज़ अहमद फैज़ उनके बारे में लिखते हैं- "मजाज़ की इन्कलाबियत आम इंकलाबी शायरों से अलग है. आम इंकलाबी शायर इन्कलाब को लेकर गरजते हैं,सीना कूटते हैं इन्कलाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते. वे इन्कलाब की भीषणता को देखते हैं उसके हुस्न को नहीं पहचानते." वह पहचानता था...इससे ज्यादा क्या लिखूं उस पर ... बस उसकी कुछ नज्में...कुछ गजलें पेश कर रहा हूँ...
१-उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना
उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना
सर्द है फिजा दिल की, आग तुम लगा दो ना
क्या हसीं तेवर थे, क्या लतीफ लहजा था
आरजू थी हसरत थी हुक्म था तकाजा था
गुनगुना के मस्ती में साज़ ले लिया मैं ने
छेड़ ही दिया आख़िर नगमा-ऐ-वफ़ा मैंने
यास का धुवां उठा हर नवा-ऐ-खस्ता से
आह की सदा निकली बरबत-ऐ-शिकस्ता से
सर्द है फिजा दिल की, आग तुम लगा दो ना
क्या हसीं तेवर थे, क्या लतीफ लहजा था
आरजू थी हसरत थी हुक्म था तकाजा था
गुनगुना के मस्ती में साज़ ले लिया मैं ने
छेड़ ही दिया आख़िर नगमा-ऐ-वफ़ा मैंने
यास का धुवां उठा हर नवा-ऐ-खस्ता से
आह की सदा निकली बरबत-ऐ-शिकस्ता से
२- अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?मैने माना के तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तलत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तलत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है
ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गंवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गंवाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गंवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गंवाई है जवानी मैने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है
उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरी-ओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरी-ओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
एक बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी
क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहां से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ
जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
मगर वो आज भी बर्हम नहीं है
बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है
बहुत कुछ और भी है जहाँ में,
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है
मेरी बर्बादियों के हम्नशिनों,
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुर्नम नहीं है
'मज़ाज़' एक बादाकश तो है यक़ीनन,
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है
मगर वो आज भी बर्हम नहीं है
बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है
बहुत कुछ और भी है जहाँ में,
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है
मेरी बर्बादियों के हम्नशिनों,
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुर्नम नहीं है
'मज़ाज़' एक बादाकश तो है यक़ीनन,
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है
४- ख्वाबे सहर
रात ही तारी रही इंसान की अदराक पर।
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा,
दिल में तारिकी दिमागों में अंधेरा ही रहा।
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे,
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे।
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए उमराँ भी उठे,
राम व गौतम भी उठे, फिरऔन व हामॉ भी उठे।
मस्जिदों में मौलवी खुतवे सुनाते ही रहे,
मन्दिरों में बरहमन श्लोक गाते ही रहे।
एक न एक दर पर जबींए शौक घिसटती ही रही,
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही।
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही,
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही।
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते ही रहे,
जहल के तारीक साये हाथ फैलाते ही रहे।
जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है।
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा,
दिल में तारिकी दिमागों में अंधेरा ही रहा।
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे,
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे।
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए उमराँ भी उठे,
राम व गौतम भी उठे, फिरऔन व हामॉ भी उठे।
मस्जिदों में मौलवी खुतवे सुनाते ही रहे,
मन्दिरों में बरहमन श्लोक गाते ही रहे।
एक न एक दर पर जबींए शौक घिसटती ही रही,
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही।
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही,
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही।
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते ही रहे,
जहल के तारीक साये हाथ फैलाते ही रहे।
जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है।
Friday, June 17, 2011
जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
खिचड़ी विप्लव देखा हमने
बाबा नागार्जुन
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है
जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!
Thursday, June 16, 2011
रोहित उमराव के कैमरे से चन्द्रग्रहण
कल रात/ आज सुबह हुए दुर्लभ चन्द्रग्रहण की विभिन्न छवियों को अपने कैमरे में कैद किया है कबाड़ी रोहित उमराव ने.
*फ़ोटो पर क्लिक कर बड़े आकार में देखें.
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Tuesday, June 14, 2011
हम भारत के लोग और हमारा एक नागरिक हुसैन
मेरी कतिपय व्यक्तिगत समस्याओं के कारण भाई शिवप्रसाद जोशी द्वारा भेजा गया यह आलेख मैं थोड़ी देर से लगा रहा हूं. उस के लिए क्षमाप्रार्थी हूं.
एक नागरिक हुसैन
-शिवप्रसाद जोशी
दिल्ली में बहुत साल पहले हुसैन अपनी कोयला सीरिज की पेंटिग्स लेकर आए थे. कोयला बंबई की मसाला फिल्म थी जिसके नायक शाहरूख खान और नायिका माधुरी दीक्षित थी. माधुरी को उस दौरान हुसैन पेंटिग्स में ला रहे थे. कोयला फिल्म से भी उन्होंने इंप्रेशन उतारे थे. मीडिया के लिए ये दिलचस्प घटना थी. धडाधड कवरेज हो रही थी. उसी दौरान हुसैन से बातचीत का मौका मिला जी न्यूज के लिए. हुसैन का अपना एक ठाठ था. वो उस पांचसितारा होटल में पांव पर पांव रखे बैठे थे. अपने चिरपरिचित अंदाज में. कला पर मेरे कुछ सवालों के अटपटेपन पर उन्होंने लगभग डपटते हुए कहा था कि पेंटिग्स को और ध्यान से देखो सीखो. हालांकि वे पेंटिग्स पॉप्युलर खांचे की थीं पर हुसैन की वो छवि दिमाग से नहीं जाती. वो एक ऐसे देहाती लगते थे एक ऐसे हलवाहे जिसे कह दिया गया हो कि ये महंगी पोशाक पहनो ये महंगी कार रखो ये महंगा साजोसामान रखो और लंबे बालों नंगे पांवों एक लंबी कूची के साथ टहलो और स्टाइलिश बन जाओ.
हुसैन की पर्सनैलिटी का ये ठेठ ग्राम्य शेड ही होगा कि कूची भी उनके हाथ में खेतीबाडी के किसी औजार की तरह लगती थी. उनके हाथ लंबे फैले हुए और रूखे से थे, नसें उभरी हुई थीं और उन्हें देखकर लगता था कि जैसे वो भी कोई लैंडस्केप का टुकडा हो. उनमें एक अटपटापन था एक ऊबडखाबड टैक्सचर एक टेढामेढापन.
वे ऐसी किसानी धज और काया वाले हुसैन 21वीं सदी के मध्य के दशकों में देश से दूर कर दिए गए और कतर की नागरिकता लेने के लिए विवश किए गए, हिन्दुस्तान लौटना चाहते रहे पर मजहबी हुडदंगियों और धर्म और निंदा से भय खाते रहने वालों की एक भरीपूरी बिरादरी की अश्लीलता ने ये मुराद पूरी न होने दी. बाबाओं और ध्वज पताकाओं और विजय जुलूसों, ललकारों, बात बात पर गांधी और भगत सिंह के नामों को फुलाते हुंकारों, इधर न जाने मध्यवर्गीय नाकारापन के किस कोने से उठीं और एक झटके में सिविल सोसायटी कहलाई जा रही गदगद जमातों, नकली किस्म के अनशनों, नाना किस्म की प्रेस कॉफ्रेंसों भगवा और न जाने कौन से साजिश भरे रंगों से लोटती पोटती घबराती उखडती सरकारों उनके नुमायंदों सौदेबाज गुटों नक्कालों की रंगीनियों और रंगबाजियों के बीच सहसा तमाम रंगों से ऊपर उठता हुआ एक रंग फनां हो गया. एक कोने पर हुसैन के छाते रखे हुए हैं. उन्हें खोलने की अब जुर्रत भी न होगी किसी की. सारे रंग उन छातों ने सोख लिए हैं.
हुसैन बाहर नहीं रहना चाहते थे. उनकी जिंदगी थ्रू द आईज ऑफ पेंटर सरीखी थी जो उनकी एक फिल्म का नाम है. 1967 में बनी इस फिल्म को बर्लिन फिल्मोत्सव में गोल्डन बियर अवार्ड मिला था. कतर की नागरिकता लेकर रहने भले लगे थे लेकिन वे एक जगह रहते कहां थे. पर उनका मन देश पर अटका हुआ था. देश के लिए उनकी तडप उनकी वेदना ने उन्हें कमजोर करना शुरू कर दिया था. वो हैरान थे कि आखिर उनके और उनकी कला के बीच में कहां से आ गए वे लोग कौन हैं जो तय करने लगते थे कि कौन देश में रहेगा कौन नहीं. वे हैरान थे कि उन्हें किस आसानी से, किस सामरिक खुराफात के साथ बाहर ठेल दिया गया.
हुसैन के अभिनेत्री प्रेम और पेंटिग्स की चर्चा और विवाद तो खूब चटखारेदार शोरशराबे और हिंसक ढंग से होते रहे हैं लेकिन उनकी रचनाशीलता की वास्तविकता से परहेज करने की टेंडेंसी बनी रही है. ये जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि कैसे हुसैन ने राममनोहर लोहिया के सुझाव पर रामायण सीरीज की पेंटिग्स बनाई थीं. उनकी कला के संरक्षक बद्री विशाल पित्ती के बारे में कितने लोग जानते हैं. कैसे उनकी कुछ पेंटिग्स विश्व कला में धरोहर जैसी हैं. कैसे वो अकेले भारतीय पेंटर हैं जिनकी कला में समूची भारतीयता, समूची भारतीय आत्मा रचीबसी है. आखिर इस बात पर कोई चर्चा क्यों नहीं होती कि हुसैन क्योंकर समस्त भारतीयता को उकेरने वाले सबसे अग्रणी चित्रकार हैं. सबसे आगे और हमेशा. वैसा कोई और हो नहीं सकता. हुसैन के लिए देश में रहना दूभर कर दिया गया था और देश से बाहर रहना उनके लिए दूभर था. वो गांव देहात के बेटे थे. उनकी कला इस देश की मिट्टी और तहजीब में घुली मिली थी. हिंदू हिंदू चिल्लाने वाली जमात क्या अब अपने कपडे फाडेगी कि हुसैन वहीं चले गए हैं जहां तमाम आराध्य रहते बताए जाते हैं.
नवउदारवाद के राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक जुनूनों के आगे नतमस्तक हो जाने वाली सरकारें हुसैन को देश वापस नहीं बुला पाईं. केंद्र सरकार की कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि हुसैन के खिलाफ जो अजीबोगरीब मुकदमे पूरे देश भर में न जाने कहां कहां दर्ज हैं उन्हें रद्द कराए, कोर्ट में दलीले दें और अपने सबसे बडे चित्रकार देश के सबसे बुजुर्ग रचनाधर्मी को मान सम्मान दे पाए. अब तो बहुत देर हो चुकी है. हुसैन के साथी, प्रशंसक, शिष्य एक ऐसे अचंभे में दिखते हैं जिसका कोई जवाब नहीं सूझता, जो सच्ची मार्मिक टिप्पणियां आई हैं वे ऐसी हैं कि आप उनमें रोने रोने को हो उठने की हिचकी बंधी हुई महसूस कर सकते हैं. एक ऐसी उमडघुमड से भरी हिचकी जिसमें उलझन आवेग रेला और एक खीझ है. इस मोमेंटम को समझना बहुत मुश्किल है.
अब जैसे ये लग रहा है सबको क्या उन्हीं की गलती थी कि हुसैन वापस नहीं बुलाए जा सके. क्या इस देश में ऐसी कोई विराट साहसी मांग न उठ सकती थी जो हुसैन को लौटा लाने में उत्प्रेरक होती. उनसे क्षमा मांग सकने का साहस होता. क्या जंतर मंतर और रामलीला मैदान हमारे समय की वास्तविक लडाइयां हैं. हुसैन पर हर तरह से हमला करने वालों की आत्मा में क्या नश्तर जैसा कुछ चुभता होगा. क्या रीढ की हड्डी पर कोई कंपकंपी कोई सिहरन पसीने की कोई बूंद गुजरी होगी. एक साल पहले फरवरी में कतर की नागरिकता लेने को विवश हुए थे हुसैन, और उन पर किस किस ढंग से फब्तियां नहीं कसी गईं. उनका कितना अपमान किया गया. उनके काम को कैसे कैसे कोणों से न उधेडा गया. हुसैन के राम सीता हनुमान को नोंचने की कोशिशें की गईं. उनकी रेखाओं की ज्यामिति को छिन्नभिन्न किया जाता रहा. उस कला के नाजुक कांच पर किस किसने न जाने कितनी बार पांव न रखे. वह न टूटा न दरका न मुडा न गिरा. वह बस चलता गया.
जाहिर है एक इंसान आखिर कितना झेल सकता है. हुसैन को आखिर देश से जाना पडा. और अब 96 साल के हुसैन की मौत क्या लगता है आपको एक उम्रदराज व्यक्ति की स्वाभाविक मौत है. या ये मौत के घेरे तक धकेल दिए जाने की एक अप्रत्यक्ष प्रक्रिया थी. हुसैन की तूफानी रचनाधर्मिता का रिकॉर्ड बताता है कि वो थके हुए नहीं थे, वे लगातार काम करते थे. 2006 से वो बाहर हैं. 2010 में औपचारिक रूप से दूसरे देश के भी नागरिक हो गए. इस एक साल में हुसैन घर लौटने की इच्छा से इतनी तीव्रता और उससे इतर न जाने कौन से गहरे गम और क्षोभ से भरे हुए थे कि इस बात की तस्दीक मशहूर पेंटर रामकुमार के बयान से की जा सकती है जो बीबीसी हिंदी में उन्होंने हुसैन के साथ अपनी एक बातचीत के हवाले से दिया है कि जब उन्होंने हुसैन से पूछा कि क्या आपका देश आने का मन नहीं करता तो हुसैन साहब ने कहा कि मेरा मन करता है कि मैं खिडकी से कूद कर मर जाऊं.
हुसैन मर गए हैं. कांग्रेस की अगुवाई वाली भारत सरकार के प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि नेशन को लॉस हो गया है. बीजेपी में शामिल बंबइया फिल्मों का एक पूर्व अभिनेता अपनी गर्जना भरी आवाज में कहता है मकबूल फिदा ‘हसन’ रेरस्ट ऑफ रेयर स्पेशीज थे, दुर्लभतम आर्टिस्ट थे.
मौत के बाद के ढोल बजते रहेंगे. हम कभी शर्मिंदा नहीं होंगे. हम जो बातबेबात पर इकट्ठा हो जाते हैं. दांत भींच लेते हैं मारने दौड पडते हैं हम जो समाधिस्थलों पर रातों में प्रेतों की तरह नाचने लगते हैं हम जो नैतिकता और इंसाफ को अपने अपने तराजू पर तौलते हैं हम भारत के नागरिक जो अपने एक बुजुर्ग सह नागरिक की हिफाजत नहीं कर पाते हैं हम जो अपनी कला को कुचलते हैं हम जंतर मंतर जाने वाले हम रामलीला मैदान जाने वाले हम वोट देने वाले हम आतताइयों के खौफ से डर कर रह जाने वाले हम घुटनों के बल घिसटने पर कोई एतराज न करने वाले इन दिनों एक धंसे हुए वक्त में एक धंसती हुई जाती हुई जगह पर गिरते डगमगाते रहने वाले लोग हैं. हम आखिर ये कैसी हो गईं जिंदा कौमें हैं. हम कितना और नष्ट हो जाएंगें.
हम भारत के लोग.
एक नागरिक हुसैन
-शिवप्रसाद जोशी
दिल्ली में बहुत साल पहले हुसैन अपनी कोयला सीरिज की पेंटिग्स लेकर आए थे. कोयला बंबई की मसाला फिल्म थी जिसके नायक शाहरूख खान और नायिका माधुरी दीक्षित थी. माधुरी को उस दौरान हुसैन पेंटिग्स में ला रहे थे. कोयला फिल्म से भी उन्होंने इंप्रेशन उतारे थे. मीडिया के लिए ये दिलचस्प घटना थी. धडाधड कवरेज हो रही थी. उसी दौरान हुसैन से बातचीत का मौका मिला जी न्यूज के लिए. हुसैन का अपना एक ठाठ था. वो उस पांचसितारा होटल में पांव पर पांव रखे बैठे थे. अपने चिरपरिचित अंदाज में. कला पर मेरे कुछ सवालों के अटपटेपन पर उन्होंने लगभग डपटते हुए कहा था कि पेंटिग्स को और ध्यान से देखो सीखो. हालांकि वे पेंटिग्स पॉप्युलर खांचे की थीं पर हुसैन की वो छवि दिमाग से नहीं जाती. वो एक ऐसे देहाती लगते थे एक ऐसे हलवाहे जिसे कह दिया गया हो कि ये महंगी पोशाक पहनो ये महंगी कार रखो ये महंगा साजोसामान रखो और लंबे बालों नंगे पांवों एक लंबी कूची के साथ टहलो और स्टाइलिश बन जाओ.
हुसैन की पर्सनैलिटी का ये ठेठ ग्राम्य शेड ही होगा कि कूची भी उनके हाथ में खेतीबाडी के किसी औजार की तरह लगती थी. उनके हाथ लंबे फैले हुए और रूखे से थे, नसें उभरी हुई थीं और उन्हें देखकर लगता था कि जैसे वो भी कोई लैंडस्केप का टुकडा हो. उनमें एक अटपटापन था एक ऊबडखाबड टैक्सचर एक टेढामेढापन.
वे ऐसी किसानी धज और काया वाले हुसैन 21वीं सदी के मध्य के दशकों में देश से दूर कर दिए गए और कतर की नागरिकता लेने के लिए विवश किए गए, हिन्दुस्तान लौटना चाहते रहे पर मजहबी हुडदंगियों और धर्म और निंदा से भय खाते रहने वालों की एक भरीपूरी बिरादरी की अश्लीलता ने ये मुराद पूरी न होने दी. बाबाओं और ध्वज पताकाओं और विजय जुलूसों, ललकारों, बात बात पर गांधी और भगत सिंह के नामों को फुलाते हुंकारों, इधर न जाने मध्यवर्गीय नाकारापन के किस कोने से उठीं और एक झटके में सिविल सोसायटी कहलाई जा रही गदगद जमातों, नकली किस्म के अनशनों, नाना किस्म की प्रेस कॉफ्रेंसों भगवा और न जाने कौन से साजिश भरे रंगों से लोटती पोटती घबराती उखडती सरकारों उनके नुमायंदों सौदेबाज गुटों नक्कालों की रंगीनियों और रंगबाजियों के बीच सहसा तमाम रंगों से ऊपर उठता हुआ एक रंग फनां हो गया. एक कोने पर हुसैन के छाते रखे हुए हैं. उन्हें खोलने की अब जुर्रत भी न होगी किसी की. सारे रंग उन छातों ने सोख लिए हैं.
हुसैन बाहर नहीं रहना चाहते थे. उनकी जिंदगी थ्रू द आईज ऑफ पेंटर सरीखी थी जो उनकी एक फिल्म का नाम है. 1967 में बनी इस फिल्म को बर्लिन फिल्मोत्सव में गोल्डन बियर अवार्ड मिला था. कतर की नागरिकता लेकर रहने भले लगे थे लेकिन वे एक जगह रहते कहां थे. पर उनका मन देश पर अटका हुआ था. देश के लिए उनकी तडप उनकी वेदना ने उन्हें कमजोर करना शुरू कर दिया था. वो हैरान थे कि आखिर उनके और उनकी कला के बीच में कहां से आ गए वे लोग कौन हैं जो तय करने लगते थे कि कौन देश में रहेगा कौन नहीं. वे हैरान थे कि उन्हें किस आसानी से, किस सामरिक खुराफात के साथ बाहर ठेल दिया गया.
हुसैन के अभिनेत्री प्रेम और पेंटिग्स की चर्चा और विवाद तो खूब चटखारेदार शोरशराबे और हिंसक ढंग से होते रहे हैं लेकिन उनकी रचनाशीलता की वास्तविकता से परहेज करने की टेंडेंसी बनी रही है. ये जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि कैसे हुसैन ने राममनोहर लोहिया के सुझाव पर रामायण सीरीज की पेंटिग्स बनाई थीं. उनकी कला के संरक्षक बद्री विशाल पित्ती के बारे में कितने लोग जानते हैं. कैसे उनकी कुछ पेंटिग्स विश्व कला में धरोहर जैसी हैं. कैसे वो अकेले भारतीय पेंटर हैं जिनकी कला में समूची भारतीयता, समूची भारतीय आत्मा रचीबसी है. आखिर इस बात पर कोई चर्चा क्यों नहीं होती कि हुसैन क्योंकर समस्त भारतीयता को उकेरने वाले सबसे अग्रणी चित्रकार हैं. सबसे आगे और हमेशा. वैसा कोई और हो नहीं सकता. हुसैन के लिए देश में रहना दूभर कर दिया गया था और देश से बाहर रहना उनके लिए दूभर था. वो गांव देहात के बेटे थे. उनकी कला इस देश की मिट्टी और तहजीब में घुली मिली थी. हिंदू हिंदू चिल्लाने वाली जमात क्या अब अपने कपडे फाडेगी कि हुसैन वहीं चले गए हैं जहां तमाम आराध्य रहते बताए जाते हैं.
नवउदारवाद के राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक जुनूनों के आगे नतमस्तक हो जाने वाली सरकारें हुसैन को देश वापस नहीं बुला पाईं. केंद्र सरकार की कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि हुसैन के खिलाफ जो अजीबोगरीब मुकदमे पूरे देश भर में न जाने कहां कहां दर्ज हैं उन्हें रद्द कराए, कोर्ट में दलीले दें और अपने सबसे बडे चित्रकार देश के सबसे बुजुर्ग रचनाधर्मी को मान सम्मान दे पाए. अब तो बहुत देर हो चुकी है. हुसैन के साथी, प्रशंसक, शिष्य एक ऐसे अचंभे में दिखते हैं जिसका कोई जवाब नहीं सूझता, जो सच्ची मार्मिक टिप्पणियां आई हैं वे ऐसी हैं कि आप उनमें रोने रोने को हो उठने की हिचकी बंधी हुई महसूस कर सकते हैं. एक ऐसी उमडघुमड से भरी हिचकी जिसमें उलझन आवेग रेला और एक खीझ है. इस मोमेंटम को समझना बहुत मुश्किल है.
अब जैसे ये लग रहा है सबको क्या उन्हीं की गलती थी कि हुसैन वापस नहीं बुलाए जा सके. क्या इस देश में ऐसी कोई विराट साहसी मांग न उठ सकती थी जो हुसैन को लौटा लाने में उत्प्रेरक होती. उनसे क्षमा मांग सकने का साहस होता. क्या जंतर मंतर और रामलीला मैदान हमारे समय की वास्तविक लडाइयां हैं. हुसैन पर हर तरह से हमला करने वालों की आत्मा में क्या नश्तर जैसा कुछ चुभता होगा. क्या रीढ की हड्डी पर कोई कंपकंपी कोई सिहरन पसीने की कोई बूंद गुजरी होगी. एक साल पहले फरवरी में कतर की नागरिकता लेने को विवश हुए थे हुसैन, और उन पर किस किस ढंग से फब्तियां नहीं कसी गईं. उनका कितना अपमान किया गया. उनके काम को कैसे कैसे कोणों से न उधेडा गया. हुसैन के राम सीता हनुमान को नोंचने की कोशिशें की गईं. उनकी रेखाओं की ज्यामिति को छिन्नभिन्न किया जाता रहा. उस कला के नाजुक कांच पर किस किसने न जाने कितनी बार पांव न रखे. वह न टूटा न दरका न मुडा न गिरा. वह बस चलता गया.
जाहिर है एक इंसान आखिर कितना झेल सकता है. हुसैन को आखिर देश से जाना पडा. और अब 96 साल के हुसैन की मौत क्या लगता है आपको एक उम्रदराज व्यक्ति की स्वाभाविक मौत है. या ये मौत के घेरे तक धकेल दिए जाने की एक अप्रत्यक्ष प्रक्रिया थी. हुसैन की तूफानी रचनाधर्मिता का रिकॉर्ड बताता है कि वो थके हुए नहीं थे, वे लगातार काम करते थे. 2006 से वो बाहर हैं. 2010 में औपचारिक रूप से दूसरे देश के भी नागरिक हो गए. इस एक साल में हुसैन घर लौटने की इच्छा से इतनी तीव्रता और उससे इतर न जाने कौन से गहरे गम और क्षोभ से भरे हुए थे कि इस बात की तस्दीक मशहूर पेंटर रामकुमार के बयान से की जा सकती है जो बीबीसी हिंदी में उन्होंने हुसैन के साथ अपनी एक बातचीत के हवाले से दिया है कि जब उन्होंने हुसैन से पूछा कि क्या आपका देश आने का मन नहीं करता तो हुसैन साहब ने कहा कि मेरा मन करता है कि मैं खिडकी से कूद कर मर जाऊं.
हुसैन मर गए हैं. कांग्रेस की अगुवाई वाली भारत सरकार के प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि नेशन को लॉस हो गया है. बीजेपी में शामिल बंबइया फिल्मों का एक पूर्व अभिनेता अपनी गर्जना भरी आवाज में कहता है मकबूल फिदा ‘हसन’ रेरस्ट ऑफ रेयर स्पेशीज थे, दुर्लभतम आर्टिस्ट थे.
मौत के बाद के ढोल बजते रहेंगे. हम कभी शर्मिंदा नहीं होंगे. हम जो बातबेबात पर इकट्ठा हो जाते हैं. दांत भींच लेते हैं मारने दौड पडते हैं हम जो समाधिस्थलों पर रातों में प्रेतों की तरह नाचने लगते हैं हम जो नैतिकता और इंसाफ को अपने अपने तराजू पर तौलते हैं हम भारत के नागरिक जो अपने एक बुजुर्ग सह नागरिक की हिफाजत नहीं कर पाते हैं हम जो अपनी कला को कुचलते हैं हम जंतर मंतर जाने वाले हम रामलीला मैदान जाने वाले हम वोट देने वाले हम आतताइयों के खौफ से डर कर रह जाने वाले हम घुटनों के बल घिसटने पर कोई एतराज न करने वाले इन दिनों एक धंसे हुए वक्त में एक धंसती हुई जाती हुई जगह पर गिरते डगमगाते रहने वाले लोग हैं. हम आखिर ये कैसी हो गईं जिंदा कौमें हैं. हम कितना और नष्ट हो जाएंगें.
हम भारत के लोग.
Saturday, June 11, 2011
Friday, June 10, 2011
Wednesday, June 8, 2011
जानते क्या हो ?
बाबुषा कोहली कबाड़ खाना के गम्भीर पाठकों मे से एक हैं. आप लोगों ने यहाँ उन की महत्वपूर्ण टिप्पणियँ देखीं हैं. आज उन्हो ने मुझे अपने एक अद्भुत फेसबूक नोट पर टेग किया. वह नोट शेयर किए बिना नहीं रह सकता:
कहते हैं औस्पेंसकी तत्व-ज्ञान के बहुत निकट पहुँच गया था. उसके लिखे में अनहद के शब्द सुनायी पड़ते थे.पर कुछ बाक़ी था अब भी . गुरु की खोज में उसने दुनिया का हर कोना खंगाल डाला . गुरुओं की धरती भारत आ पहुंचा. दुनिया के कोने -कोने की खाक़ छान डाली ..पर गुरु कहीं मिलता ही न था . एक दिन जब वह थका -हारा हुआ मॉस्को के एक कॉफ़ी हाउस में पंहुचा.. तब उसे वो मिला जिसके लिए औस्पेंसकी दर-दर भटक रहा था.
गुर्जियफ़ !
गुर्जियफ़ की आँखें याद आयीं आपको ? कैसे कलेजा भेद देती हैं! मनुष्यता के इतिहास में हुए सबसे शक्तिशाली और सामर्थ्यवान पुरुषों में से एक है गुर्जियफ़ ... शक्तिशाली भुजाओं से नहीं! सामर्थ्यवान संपत्ति से नहीं! लेकिन बेहद शक्तिशाली और सामर्थ्यवान !
तो बस, उन कलेजा भेदने वाली आँखों ने औस्पेंसकी को भेद दिया! आर-पार!
औस्पेंसकी चकित ... सम्मोहित ... बौराया हुआ सा पहुँच गया गुर्जियफ़ के पास! उसकी खोज पूरी हो चुकी थी. वो आँखें उसके बदन में सूराख कर के उस पार निकल गयी थीं.
बहुत ताक़त लगाने पर ये भाव शब्द ले सके - "मैं औस्पेंसकी हूँ."
"ओह औस्पेंसकी. अ न्यू मॉडल ऑफ़ द यूनिवर्स वाला औस्पेंसकी! बहुत खूब औस्पेंसकी. तुमने गज़ब की किताब लिखी है. अद्भुत. बेहतरीन. मैं उस किताब का प्रशंसक हूँ."
गुर्जियफ़ की वाणी ही नहीं ... आँखें भी प्रशंसा से भरी हुयी थीं !
फिर गुर्जियफ़ धीरे से औस्पेंसकी के कान की तरफ बढ़ा और बोला - " वो सब तो ठीक है. पर ये तो बताओ, तुम जानते क्या हो? " औस्पेंसकी के पास इस प्रश्न का उत्तर न था . बात सही थी ... इतना लिख तो डाला था. पर जानता क्या था ? उफ्फ्फ्फ़ ... क्या बता दे...? क्या जानता है? कठिन प्रश्न! गुर्जियफ़ ने पुनः प्रश्न किया. औस्पेंसकी निरुत्तर! गुर्जियफ़ ने एक कागज़ उसकी तरफ बढ़ाया - " शायद , तुम बोलने में कठिनाई महसूस कर रहे हो. एक काम करो.जो भी जानते हो उसे लिख दो.' बड़ी देर तक औस्पेंसकी उस कागज़ को लिए खड़ा रहा. कहते हैं ... मॉस्को में हड्डियां गला देने वाली ठंड के दिन थे. औस्पेंसकी के माथे से पसीना चू रहा था .
कहते हैं औस्पेंसकी तत्व-ज्ञान के बहुत निकट पहुँच गया था. उसके लिखे में अनहद के शब्द सुनायी पड़ते थे.पर कुछ बाक़ी था अब भी . गुरु की खोज में उसने दुनिया का हर कोना खंगाल डाला . गुरुओं की धरती भारत आ पहुंचा. दुनिया के कोने -कोने की खाक़ छान डाली ..पर गुरु कहीं मिलता ही न था . एक दिन जब वह थका -हारा हुआ मॉस्को के एक कॉफ़ी हाउस में पंहुचा.. तब उसे वो मिला जिसके लिए औस्पेंसकी दर-दर भटक रहा था.
गुर्जियफ़ !
गुर्जियफ़ की आँखें याद आयीं आपको ? कैसे कलेजा भेद देती हैं! मनुष्यता के इतिहास में हुए सबसे शक्तिशाली और सामर्थ्यवान पुरुषों में से एक है गुर्जियफ़ ... शक्तिशाली भुजाओं से नहीं! सामर्थ्यवान संपत्ति से नहीं! लेकिन बेहद शक्तिशाली और सामर्थ्यवान !
तो बस, उन कलेजा भेदने वाली आँखों ने औस्पेंसकी को भेद दिया! आर-पार!
औस्पेंसकी चकित ... सम्मोहित ... बौराया हुआ सा पहुँच गया गुर्जियफ़ के पास! उसकी खोज पूरी हो चुकी थी. वो आँखें उसके बदन में सूराख कर के उस पार निकल गयी थीं.
बहुत ताक़त लगाने पर ये भाव शब्द ले सके - "मैं औस्पेंसकी हूँ."
"ओह औस्पेंसकी. अ न्यू मॉडल ऑफ़ द यूनिवर्स वाला औस्पेंसकी! बहुत खूब औस्पेंसकी. तुमने गज़ब की किताब लिखी है. अद्भुत. बेहतरीन. मैं उस किताब का प्रशंसक हूँ."
गुर्जियफ़ की वाणी ही नहीं ... आँखें भी प्रशंसा से भरी हुयी थीं !
फिर गुर्जियफ़ धीरे से औस्पेंसकी के कान की तरफ बढ़ा और बोला - " वो सब तो ठीक है. पर ये तो बताओ, तुम जानते क्या हो? " औस्पेंसकी के पास इस प्रश्न का उत्तर न था . बात सही थी ... इतना लिख तो डाला था. पर जानता क्या था ? उफ्फ्फ्फ़ ... क्या बता दे...? क्या जानता है? कठिन प्रश्न! गुर्जियफ़ ने पुनः प्रश्न किया. औस्पेंसकी निरुत्तर! गुर्जियफ़ ने एक कागज़ उसकी तरफ बढ़ाया - " शायद , तुम बोलने में कठिनाई महसूस कर रहे हो. एक काम करो.जो भी जानते हो उसे लिख दो.' बड़ी देर तक औस्पेंसकी उस कागज़ को लिए खड़ा रहा. कहते हैं ... मॉस्को में हड्डियां गला देने वाली ठंड के दिन थे. औस्पेंसकी के माथे से पसीना चू रहा था .
राजा
सादिक राज्य के लोगों ने विद्रोह की आवाज उठाते हुए अपने राजा का महल घेर लिया | और वह अपने एक हाथ में अपना ताज और दूसरे हाथ में अपना राजदंड लेकर महल की सीढ़ियों से नीचे उतरा | उसकी प्रभावी मौजूदगी ने भीड़ को ख़ामोश कर दिया, और वह उनके सामने खड़ा हुआ और कहा, "साथियों, जो अब मेरी प्रजा नहीं रही, मैं अपना ताज और राजदंड आपको सौंपता हूँ | मैं अब आप लोगों में से एक बनकर रहूँगा | मैं भी एक आम आदमी हूँ, लेकिन एक आम आदमी की तरह मैं तुम्हारे साथ मिलकर काम करूँगा ताकि हमारी ये जमीन शायद और अच्छी बन जाए | राजा की कोई जरुरत नहीं है | आओ खेतों और अंगूर के बागों की तरफ चलें और मिलजुलकर काम करें | बस आप लोग मुझे बताएं कि किस खेत या किस बाग़ में मुझे जाना चाहिए | अब आप सब राजा हैं |"
और सारे लोग अचंभित हो गए, और मौन छा गया, क्योंकि वो राजा जिसे वे अपने असंतोष के लिए जिम्मेदार मानते थे अपना ताज और अपना राजदंड उन्हें सौंप रहा है और एक आम आदमी बन गया है |
तब हर एक अपने रास्ते चला गया, राजा किसी के साथ एक खेत की ओर चला गया |
लेकिन सादिक का राज्य बिना राजा के अच्छी तरक्की नहीं कर पाया, और असंतोष के बादल फिर से उनकी जमीन के ऊपर मंडराने लगे | लोग बाजारों में अक्सर ये कहकर अपना दुखड़ा रोया करते कि उनके पास एक राजा है राज्य करने के लिए | और बड़े बूढ़े और जवान सबने एक सुर में कहा , "हम अपना राजा बनायेंगे |"
और वे राजा को ढूँढने लगे और उसे एक खेत में मेहनत करते हुए पाया, और उन्होंने उसे उसकी गद्दी पर बिठाया, उसका ताज और उसका राजदंड उसे सौंप दिया | और उन्होंने कहा, "अब शक्ति और न्याय के साथ इस राज्य को चलाओ |"
और उसने कहा, "मैं वास्तव में पूरी शक्ति के साथ राज्य करूँगा, और स्वर्ग और दुनिया के भगवान् मुझे आशीर्वाद दें ताकि मैं न्याय के साथ राज्य कर सकूँ |"
अब, उसके सामने कुछ आदमी और औरतें आयीं और उन्होंने उससे एक व्यापारी की शिकायत की जिसने उनसे दुर्व्यवहार किया, और जिसके लिए वे महज एक ग़ुलाम थे |
और राजा ने तत्काल उस व्यापारी को अपने सामने बुलाया और कहा, "भगवान् के तराजू में एक आदमी की जिंदगी उतनी ही वजनदार है जितनी कि दूसरे की | और क्योंकि तुम उनकी जिंदगी का वजन नहीं जानते जो लोग तुम्हारे खेतों या तुम्हारे अंगूर के बागों में काम करते हैं, तुम इस राज्य से निकाले जाते हो, और तुम्हे हमेशा हमेशा के लिए ये राज्य छोड़ना होगा |"
अगले ही दिन और लोग राजा के पास आये और उसे पहाड़ों के दूसरी ओर रहने वाली एक जमींदार की निर्दयता के बारे में बताया, और कैसे उसने उन्हें उनके दुर्दिनों में ला पटका | उसी समय जमींदार को दरबार में लाया गया, और राजा ने उसे भी देशनिकाला दे दिया, कहा, "वो लोग जो हमारे खेतों को जोतते हैं और हमारे अंगूर के बागों की रक्षा करते हैं हम जोकि सिर्फ उनका अन्न खाते हैं, और उनके शराबखाने की वाइन पीते हैं से कहीं ज्यादा कुलीन हैं | और क्योंकि तुम यह नहीं जानते हो, तुम्हें यह भूमि छोडनी होगी और इस राज्य से कहीं दूर रहना होगा |"
तब कुछ आदमी और औरतें आयीं जिन्होंने कहा कि बिशप ने उनसे पत्थर उठवाए और उन्होंने बड़े गिरजाघर के लिए पत्थर ढोये, तब भी उसने उन्हें कुछ नहीं दिया, हालांकि वे जानते थे कि बिशप का संदूक सोने चांदी से भरा हुआ है, जिस समय वे खुद भूख से खाली थे |
और तब राजा ने बिशप को पेश होने को कहा, और जब बिशप आया, तो राजा ने उससे कहा, "जो सलीब तुम अपने सीने पे पहनते हो इसका मतलब दूसरों को जिंदगी देना होना चाहिए | लेकिन तुम उनकी जिंदगी ले रहे हो और उन्हें कुछ नहीं दे रहे हो | इसलिए तुम्हें इस राज्य को छोड़ना होगा और कभी वापस नहीं आना |"
इस तरह से हर दिन आदमी और औरतों का झुण्ड राजा के पास अपनी समस्या बताने आता था | और हर दिन कुछ अत्याचारियों को उस भूमि से बेदखल किया जाता |
और सादिक के लोग आश्चर्यचकित हुए, और उन्हें दिल में बेहद ख़ुशी हुई |
और एक दिन बड़े बूढ़े और जवान आये और उन्होंने राजा का महल घेर लिया और उसे पुकारने लगे | और वह नीचे उतरा हाथ में ताज और दूसरे हाथ में अपना राजदंड लेकर |
और वह उनसे बोला, अब, आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं ? रुको, मैं तुम्हें वह वापस कर दूँ, जो तुमने मुझे सौंपा था |"
लेकिन वे लोग चिल्लाये, "नहीं, नहीं, आप ही हमारे यथोचित राजा हैं | आपने इस धरती को साँपों से खाली किया, और आपने ही सब भेड़ियों को खत्म किया | और हम यहाँ पर आपका स्वागत करते हैं तथा गीतों के जरिये आपका धन्यवाद करना चाहते हैं | आपका राजदंड हमेशा यश पाए, और आपका ताज़ हमेशा बना रहे |"
तब राजा ने कहा, "नहीं, मैं नहीं, आप लोग खुद ही राजा हैं | जब आप लोगों ने मुझे कमजोर और बुरा शासक समझा, तब आप लोग खुद ही कमजोर थे और बुरा शासन कर रहे थे | और अब क्योंकि तुम ऐसा चाह रहे हो इसलिए राज्य तरक्की कर रहा है | मैं सिर्फ आप लोगों के मन का एक विचार हूँ, और मेरा अस्तित्व आपके कर्म में निहित है | शासक जैसी कोई चीज नहीं होती | केवल शासित ही मौजूद होते हैं अपने आप पर शासन करने के लिए |"
और राजा अपने ताज और अपने राजदंड के साथ दुबारा महल के अन्दर चला गया | और सभी बड़े बूढ़े और जवान अपने अपने रास्ते चले गए और वे सभी संतुष्ट थे |
और हर एक ने अपने आप को राजा महसूस किया जिसके एक हाथ में उसका ताज़ है और दूसरे हाथ में राजदंड |
Saturday, June 4, 2011
तुर्की का सूफ़ी संगीत - १
कारवांसराय नाम से तुर्की सूफ़ी संगीत का सात अल्बम का एक संग्रह हाथ लगा है. सुनिये उससे एक कम्पोज़ीशन-
Wednesday, June 1, 2011
दूर दक्षिण से एक ताज़ातरीन गीत
कुछ समय पहले उरुमी नाम से एक मलयालम फ़िल्म बनी थी. खूब चर्चा में भी रही; सिर्फ केरल में ही नहीं बाहर भी. एक कारण तो यह कि अब तक की यह दूसरी सबसे महँगी मलयालम फ़िल्म थी और दूसरा यह कि इस फ़िल्म की कहानी एक प्रसिद्ध योद्धा पर आधारित है. हालाँकि केलु नामक इस नायक के बारे में ऐतिहासिक तथ्य मौजूद नहीं हैं किन्तु उसके अस्तित्व को नाकारा भी नहीं जा सकता. माना जाता रहा है कि केलु नयनार को अमरीका जैसी आफ़त खोजने वाले वास्को ड गामा की हत्या का काम सौंपा गया था. हत्या का कारण निश्चित ही अमरीका की खोज नहीं था. सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में वास्को ड गामा पुर्तगाल की ओर से पुर्तगाली आधिपत्य वाले भारतीय भूभाग के वायसराय थे.
संतोष सिवान का नाम हिंदी सिनेमावालों के लिए नया नहीं है. असोका जैसी बेवकूफ़ाना फ़िल्म बनाने वाले सिवान ने कुछ बेहतरीन फ़िल्में भी बनायीं हैं जैसे तहान. उरुमी भी उन्ही की फ़िल्म है और फ़िल्म के कुछ दृश्य देखने के बाद मैं कह सकता हूँ कि सिनेमाटोग्राफी के कमाल को नाकारा नहीं जा सकता. संतोष पेशे से सिनेमाटोग्राफर हैं और इस फ़िल्म में सिनेमाटोग्राफी भी उन्हीं की है.
जानता हूँ बात खिंचती जा रही है फिर भी एक बात और जोड़ना ज़रूरी लग रहा है. कुछ अरसा पहले मेरे एक मलयालम मित्र ने मुझसे पूछा कि हिंदी फ़िल्मों में पश्चिमी वाद्यों का इस्तेमाल इतना ज़्यादा क्यों होता है? उसके सवाल पूछने की वजह मुझे मालूम थी इसलिए मैं उसकी जिज्ञासा शांत कर सका. ऐसा नहीं कि दक्षिण भारतीय फिल्मों में पश्चिमी वाद्यों का इस्तेमाल नहीं होता, मगर मलयालम सिनेमा मलयाली लोगों की ही तरह बाकी के दक्षिण भारतीय सिनेमा से कुछ हद तक अलग है. किसी भी वाद्य का इस्तेमाल हो मगर गीत सुनने में भारतीय ही लगता है. उरुमी फ़िल्म के कुछ गीत कर्णप्रिय हैं और मेरे ख़याल से ऐसा इसलिए है क्योंकि संतोष ने संगीतकार दीपक देव को पश्चिमी वाद्यों के इस्तेमाल से दूर रहने की हिदायत दी थी. इसका असर गानों में दीखता है और आपको लगेगा की आप वाकई सोलहवीं शताब्दी में बैठे ये गाने सुन रहे हैं. फ़िल्म के बाकी गीतों की बनिस्पत चिम्मी चिम्मी गीत ज़्यादा प्रसिद्ध हुआ है. इस फ़िल्म के संगीत की प्रसिद्धी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बंगलौर में जहाँ वैसे मलयाली गाने नहीं सुनाई देते, वहां भी चिम्मी चिम्मी यदा कदा सुनाई दे जाता है.
नीचे गीत का वीडियो लगा रहा हूँ जिससे सिनेमाटोग्राफी की भी थोड़ी झलक मिल जाये. साथ ही गीत के बोल भी. हिंदी तर्जुमे की उम्मीद इस ग़रीब के साथ ज्यादती होगी क्योंकि मलयालम को मैं भारत की सबसे ज़्यादा विदेशी भाषा मानता हूँ. मेरे आधे से ज़्यादा सहकर्मी मलयाली हैं मगर कोई भी इस गीत का तर्जुमा करने को तैयार नहीं हुआ. ज़्यादातर लोग इस बारे में ही निश्चित नहीं थे कि गीत में चिम्मी चिम्मी कहा गया है या चिन्नी चिन्नी.
Chimmi chimmi minni thilangana
vaaroli kannanukk
poovarash pootha kanakkane
anjunna chelanakk..
nada nada annanada kanda theyyam mudiyazhakum
nokk vellikinnam thulli thulumbunna chele..
(chimmi chimmi)
kolathiri vazhunna nattile valiyakarenne
kandu kothikum
illatholloramba kore neram kandu kaliyakum
samothiri kolothe anunga
mullapoo vasana ettumayangum
valittenne kannezhuthikkan varmukilodivarum
poorampodi paariyittum poorakaliyaditum
nokkiyilla nee ennitum neeyenthe
(chimmi chimmi)
poovambante ola chuvachoru
karimpuvillathe padathalava
vaaleduth veeshalle njanath murikin poovakkum..hmm
allimalar kulakadavile ayaluthi pennunga kandupidikum
nattunadappothavar nammale kettunadappakum
enthellam paditum mindathe mindittum
mindiyilla nee ennitum neeyenthe
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