Saturday, November 30, 2013
Tuesday, November 19, 2013
बुरे दिन कविता के लिए अच्छे दिन होते हैं
बुरे वक़्त
की गवाही
- असद ज़ैदी
हिन्दुस्तानी अवाम के लिए
बुरा वक़्त आने वाला है,
और उसके बहुत से हिस्सों के लिए तो आ भी चुका है. इसकी अलामतें चारों तरफ़ दिखाई देने लगी हैं.
एक अचूक लक्षण हैं वह भयानक ख़ामोशी जो संस्कृति और साहित्य की दुनिया में उतर आई
है. जब कोई भी आसन्न ख़तरे का या विपत्ति का ज़िक्र न करे तो समझिये वह ख़तरा या
विपत्ति बिल्कुल सर पर है. भारतीय फ़ासिज़्म की गहरी होती शाम में हमारा कलाकार,
लेखक और चिंतक — जो मध्यवर्गीय नागरिक भी है — अब निजी सुरक्षा और समझौते के
रास्तों की तलाश में है. वह बर्बरों से संवाद और समझौते की जगह बना रहा है,
अपने लिए ऐसी तजवीज़
निकालना चाहता है जिसमें उसका सम्मान बना
रहे और सुविधा भी. लिहाज़ा वह चाहे-अनचाहे भाषा को, बहस की
शब्दावली को, विमर्श की शर्तों को भी बदलने में लगा है.
उसके भीतर एक कशमकश है
जिसमें वह अकेला,
खुद अपने से छिपकर, अपने ज़मीर से, अब तक की नैतिक उपलब्धि से लड़ रहा
है. उसे यह बोध हो गया है कि अन्यायकारी तंत्र अब एक नये युग में प्रवेश कर रहा है,
और उसे इस युग से डील करना है — तालमेल बिठाना
है. वह आईना देखना बंद कर देता है. जब वह इस तहख़ाने से निकलकर आता है तो वह उसे
खुद पता नहीं होता वह कितना नया है और कितना पुराना. अपने नागरिक पतन को वह कभी अतिशय श्रृंगार के
तो कभी अराजक हाहाकार के पर्दे में छुपाने लगता है. दरअस्ल अपने से रूठा, अपने से नफ़रत करता यह कलाकार आज
के इस संक्रमणकाल की ख़ास पहचान है. जिस
फ़ासिज़्म ने उसे अकेला किया है उसी की बाहों में वह शरण ढूँढ़ता है.
मुक्तिबोध की कविता अंधेरे
में को लिखे आधी सदी बीत गई है. यह कुछ इस तरह बीती है कि बहुत से जाने
पहचाने चेहरे,
जो हमराही से लगते थे, आज अंधेरे में
के उस भयानक जुलूस में शामिल हैं. उन्हें
पता है कि उसके कंधों पर एक विशेष तरह का ऐतिहासिक, अत्यंत
घृणित कार्यभार है. माहिर जल्लाद की तरह उन्हें इस कार्यभार को अंजाम देना है.
क़ायदे से यही समय कलाकारों, खासकर लिखने वाले लोगों के लिए, असली इम्तिहान और
सचमुच की उपलब्धियों का समय होना चाहिए. साहित्य की सार्थकता बुरे वक़्तों ही में सामने आती है. बुरे दिन कविता के लिए अच्छे दिन
होते हैं. पूरी बीसवीं सदी के अनुभव ने
हमें यही सिखाया था. पर लगता है हम किसी ऐतिहासिक दरार में गिर गए हैं,
पूरी एक पीढ़ी खोए जा रही है. शायद उससे अगली भी. हो सकता है आगे
जाकर इसे साहित्य और कला में ख़ाली समय की तरह ही देखा जाए.
ज़रा गुजरात पर एक नज़र डालें. समकालीन गुजराती साहित्य और उसके
ज़्यादातर कर्णधार क्या अपने सूबे को और अपने देशवासियों को फ़ासिज़्म के नरक में
धकेले जाने की परियोजना का हिस्सा नहीं बन गए हैं ? उनमें से
कितने ख़ुद को शर्मसार महसूस करते हैं?
कहीं यह शर्म दर्ज हुई है? फ़ासिज़्म तो है,
उससे आँखें मिलाता साहित्य कहाँ है? वह किस
चीज़ का गवाह है? उसका अंतःकरण कहाँ है? साहित्य ही कहाँ है? क्या पिछले दस-ग्यारह साल में
जो रचा गया उसे वे साहित्य कहते हैं?
समकालीन हिन्दी साहित्य और
संस्कृति का हाल इतना बुरा न हो पर अच्छा भी नहीं है. चर्चा और पुरस्कारों को लेकर
जितनी तत्परता और तेज़ी से साहित्य और संस्कृति के लोग, जिनमें युवा लोगों की तादाद भी कम नहीं है, बहस में
कूद पड़ते हैं और भद्दे ढंग से झगड़ने लगते हैं कि हैरानी होती है. जैसे कि यही
उनकी दुनिया हो! इसका दसवाँ हिस्सा दिलचस्पी भी वे देश की सामाजिक - राजनीतिक
दुर्गति, बढ़ती असमानता, साम्प्रदायिक
नरसंहार, कारपोरेट लूट, भूख, बेरोज़गारी, आसन्न फ़ासिज़्म के ख़तरे, हिन्दुत्ववादी ताक़तों के घृणा अभियान, राजकीय आतंकवाद,
सार्वजनिक नियंत्रण के अवसान, कृषि व्यवस्था के विनाश या
राजनीति के अपराधीकरण और नागरिक अधिकारों के हरण पर नहीं दिखाते. उन्हें न अपने
हमवतनों की आम तकलीफ़ों से कोई मतलब है, न उनकी आँखों के आगे
होते लोकतंत्र के क्षरण की चिंता. ऐसा क्यों है, इसका जवाब वही
दे सकते हैं.
कुछ लेखकों का आधा जीवन ही
पुरस्कार,
सम्मान, स्वीकृति, मंच
पर बुलावे की तलाश में गुज़र जाता है और कुछ तो हर तरह की सीमाएँ लाँघ जाते हैं.
अपना अंतःकरण, अपना आत्मसम्मान और अपना अतीत गिरवी रखने के बाद उनके पास बेहयाई
के सिवा कोई मूल्य नहीं बचता और न चरित्र-हनन के सिवा कोई हथियार. वे
ईर्ष्या-द्वेष, हिर्सो-हवस से इतना भरे रहते हैं कि उनसे
किसी तरह की संजीदा बातचीत या न्यूनतम मानवीय स्पर्श तक की उम्मीद नहीं की जा सकती.
जो जितना लालची है उतना ही अपने को वंचित बताता है.
ऐसे लोगों की तादाद में पिछले
सालों में ख़तरनाक ढंग से इज़ाफ़ा हुआ है. उनकी फुसफुसाहटें, सिसकियाँ, दहाड़-चिंघाड़ और चीत्कार-फूत्कार
सुन-सुनकर जी बेज़ार हो जाता है. नव-उदारवादी पूँजीवाद की छत्रछाया में सम्पन्न
होते इस 'नये हिंदी नवजागरण' के
हाहाकार और इस हंगामी दौर के बेचैन बौपारियों से कहीं भी निजात नहीं. अब कहाँ मुँह
ढँककर जा पड़ें! मोमिन ख़ाँ वाली हालत है — "कल
जो मस्जिद में जा फँसे 'मोमिन' / रात
काटी ख़ुदा ख़ुदा करके ."
हर व्यवस्था अपने लेखकों, कलाकारों और अख़बारनवीसों को जानती है. इस तरह की फ़ज़ीहत और अंतर्कलह इस
बात का संकेत हैं कि ये बिरादरियाँ ख़ुद को सिस्टम का अंग मानती हैं और उसमें अपनी
जगह के लिए लड़ रही हैं — यानी वे व्यवस्था से छिटककर दूर
नहीं जा रहीं, उसी में अच्छी तरह समा जाने को व्याकुल हैं.
किसी भी निज़ाम के लिए इससे आश्वस्तिकारी चीज़ और क्या हो सकती है! राजनीतिज्ञ,
अफ़सर और सांस्कृतिक अहलकार हमेशा लालच की चीख़ और सच्चे प्रतिरोध
का फ़र्क जानते हैं. ये लोग विशेषज्ञ हैं. उन्हें मालूम होता है चुनौती कहाँ से है
और कहाँ से नहीं. उन्हें निगाहें ही सब कुछ बता देती हैं.
मुझे मालूम है कि लेखन के
अपने समय से संबंध को कुछ सरल सूत्रों में नहीं समेटा जा सकता. पर कुछ चीज़ें
अपरिवर्तनीय होती हैं. मसलन एक बात यह कि ज़्यादातर लेखन मिटाई जा रही या भुलाई जा
सकने वाली चीज़ों के बारे में होता है और तमाम बातें इसी फ़िक्र में दर्ज की जाती हैं
कि किसी शक्ल में कुछ बचा रहे, कि शायद इसमें कुछ काम का हो. और कुछ नहीं तो प्रतिरोध या लड़ाई की याद ही बची
रहे. दूसरी यह कि स्मृति के सारे कारोबार वर्तमान ही से निकलते हैं और उसी में अटके
रहते हैं. निवर्तमान यथार्थ और रचना के रिश्ते
की बुनियादी तासीर ये है कि जिस वाक़ये का बयान किया जाता है वह लिखते ही घट चुका होता
है. यह वर्तमान को अतीत की तरह देखने और बनाने की कोशिश है. बक़ौल कलीम आजिज़,
वो जो शाइरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब
हुआ / मैं ग़ज़ल सुनाऊँ हूँ इसलिए, कि ज़माना उसको भुला न दे. और तीसरी बात यह कि यहीं पर, इसी जगह साहित्य और हाशिये
के रिश्ते का राज़ छिपा है.
दरअसल यह एक ही बात है जिसके
ये तीन पहलू थे. वो बात यह है कि साहित्य अपना एक हाशिया बनाता है. इसे हाशिया न कहें
तो प्रति-संसार कह लें. बिना इस प्रति-संसार की रचना किए साहित्य दुनिया-जहान के मामलात
में प्रभावी ढंग से दख़ल नहीं दे सकता. सामाजिक हस्तक्षेप की यह शर्त है. वह इसी अर्थ
में पत्रकारिता से भिन्न है. हालाँकि इस भिन्नता पर बहुत ज़ोर देना भी ठीक नहीं है. मुझे वो लोग
बहुत बोर मालूम होते हैं जो अपने कारोबार की विशिष्टता पर, अपने पेशे के ख़ास हुनर पर, ख़ुद अपनी महारत पर बल
देते रहते हैं. यह दुर्गुण उनमें आलोचकों और प्राध्यापकों की संगत से और उनके व्यावसायिक
शोरोग़ुल को सुनते रहने से आया है.
बहरहाल, जब बड़ी-बड़ी घटनाएँ घट रही होती हैं — जिन्हें देखने
और दिखाने में ज्ञान, संचार और अख़बार के राजकीय और ग़ैर-राजकीय
तंत्र लगे रहते हैं — तो एक कवि अक्सर और बातों पर भी ध्यान लगाए होता है, उसके कान कुछ और भी सुनते हैं. उसकी ओ बी वैन एक उजाड़ में किसी कीड़े की तरह
रेंगती या एक बदरंग चिंदी की तरह पड़ी दिखाई देती है. कलाकार को, लेखक को अपने
हाशिए या प्रतिसंसार से बोलना और लड़ना आना चाहिए. क्योंकि अंत में मुक्तिबोध और सआदत
हसन मन्टो की बात और गवाही बच रहती है, टाइम्ज़ ऑफ़
इंडिया का सम्पादकीय या लाल क़िले की फ़सील से बोले
गये झूठ बचें या न बचें.
(नवभारत टाइम्स से साभार)
Monday, November 18, 2013
ओमप्रकाश वाल्मीकि पर असद ज़ैदी
ओमप्रकाश वाल्मीकि से मेरी कभी मुलाक़ात न हो पाई, लेकिन उनसे वास्ता रहा. उनके चले जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है.
पिछले बीसेक साल में ऐसा मौक़ा कई बार आया — गिनूँ तो शायद पंद्रह बीस दफ़े — जब मुझे मित्रों के इस सवाल का जवाब देना पड़ा कि आख़िर ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन में ऐसा क्या है कि जिसे महत्वपूर्ण या ज़रूरी कहा जाए? मैंने कभी सकारात्मक तरीक़े से तो कभी रक्षात्मक होकर उनकी कृतियों के (ख़ासकर ‘जूठन’ के) हवाले से, प्रायः धैर्य के साथ, अपनी बात रखने की कोशिश की होगी, पर मुझे याद नहीं आता कि भूले से भी एक बार बहस किसी तसल्लीबख़्श जगह पर जाकर ठहरी हो. दरअसल हिन्दी के बौद्धिक विमर्श में लोग अपनी भीतरी सामाजिक चिन्ताओं को साहित्यिक मानदंडों की चिन्ता में बदल देते हैं — दर्द कहीं होता है, दवा किसी और चीज़ की माँगते हैं.
अक्सर ऐसे सवाल के पीछे एक और बड़ा ‘सवर्ण’ सवाल हुआ करता है जो लोग पहले कई तरह से पूछा करते थे, अब नहीं पूछते : क्या साहित्य में दलित लेखन जैसी श्रेणी संभव है? क्या दलित अनुभव ऐसा रहस्य है जिसे सिर्फ़ दलित ही समझ सकते हैं? हिन्दी के कैनन में दलित लेखन ने क्या जोड़ा है? क्या यह उल्टा जातिवाद नहीं है? इत्यादि. ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन और कृतित्व में इन सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए थे. वाल्मीकि जी दलित अभिव्यक्ति को साहित्य-विमर्श के केन्द्र में लाने वाली हस्ती थे. आज हिन्दी दलित लेखन के रास्ते में पहले से कम काँटे हैं तो उन काँटों को हटाने में वाल्मीकि जी की भूमिका शायद सबसे ज़्यादा है.
पिछले बीसेक साल में ऐसा मौक़ा कई बार आया — गिनूँ तो शायद पंद्रह बीस दफ़े — जब मुझे मित्रों के इस सवाल का जवाब देना पड़ा कि आख़िर ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन में ऐसा क्या है कि जिसे महत्वपूर्ण या ज़रूरी कहा जाए? मैंने कभी सकारात्मक तरीक़े से तो कभी रक्षात्मक होकर उनकी कृतियों के (ख़ासकर ‘जूठन’ के) हवाले से, प्रायः धैर्य के साथ, अपनी बात रखने की कोशिश की होगी, पर मुझे याद नहीं आता कि भूले से भी एक बार बहस किसी तसल्लीबख़्श जगह पर जाकर ठहरी हो. दरअसल हिन्दी के बौद्धिक विमर्श में लोग अपनी भीतरी सामाजिक चिन्ताओं को साहित्यिक मानदंडों की चिन्ता में बदल देते हैं — दर्द कहीं होता है, दवा किसी और चीज़ की माँगते हैं.
अक्सर ऐसे सवाल के पीछे एक और बड़ा ‘सवर्ण’ सवाल हुआ करता है जो लोग पहले कई तरह से पूछा करते थे, अब नहीं पूछते : क्या साहित्य में दलित लेखन जैसी श्रेणी संभव है? क्या दलित अनुभव ऐसा रहस्य है जिसे सिर्फ़ दलित ही समझ सकते हैं? हिन्दी के कैनन में दलित लेखन ने क्या जोड़ा है? क्या यह उल्टा जातिवाद नहीं है? इत्यादि. ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन और कृतित्व में इन सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए थे. वाल्मीकि जी दलित अभिव्यक्ति को साहित्य-विमर्श के केन्द्र में लाने वाली हस्ती थे. आज हिन्दी दलित लेखन के रास्ते में पहले से कम काँटे हैं तो उन काँटों को हटाने में वाल्मीकि जी की भूमिका शायद सबसे ज़्यादा है.
(श्री असद ज़ैदी की फ़ेसबुक वॉल से साभार)
श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि
हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार, क्रांतिकारी चिन्तक और ‘जूठन’ जैसी विश्वप्रसिद्ध आत्मकथा के लेखक ओमप्रकाश
वाल्मीकि नहीं रहे. उनका इस तरह असमय चले जाना लोकतान्त्रिक
मूल्यों और सामाजिक बदलाव के प्रति प्रतिबद्ध भारतीय साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति
है. उनका जन्म 30 जून 1950 को मुजफ्फरनगर जिला उत्तर प्रदेश)के बरला में हुआ था. वे कुछ वर्षों से कैंसर से
संघर्ष कर रहे थे. उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बेहद कमजोर
हो गयी थी. उनके गुर्दे में स्टैंड पड़ी हुई थी जिसको छः महीने बाद निकाल
देना होता है. चिकित्सकों का कहना था कि प्रतिरोधक क्षमता
कम होने के कारण अभी आपरेशन नहीं किया जा सकता है. दिल्ली में इलाज के बाद भी स्थिति ठीक
न होने पर उनके परिजन उन्हें देहरादून के मैक्स हस्पताल ले आए। जहाँ आज दिनांक 17 नवम्बर 2013 को सुबह अस्पताल में ही उनका
निधन हो गया. जूठन के अलावा सलाम, घुसपैठिये, अब और नहीं, सफाई देवता, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र और दलित
साहित्य : अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ, 'सदियों का संताप' और 'बस बहुत हो चुका' उनकी मानीखेज किताबें है.
सामाजिक भेदभाव, उत्पीडन और आर्थिक
विषमता के खिलाफ संघर्षरत साहित्यिक-सांस्कृतिक धाराओं और सामाजिक-राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने
एक सच्चे साथी को खो दिया है. दलित जीवन का जो ह्रदयविदारक और बेचैन कर देने वाला यथार्थ उनके
लेखन के जरिए हिंदी साहित्य में आया, उसके बगैर हिंदी ही
नहीं, किसी भी भारतीय भाषा का साहित्य प्रगतिशील-जनवादी नहीं हो सकता. ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचना, आलोचना और चिंतन का न केवल हिंदी साहित्य, बल्कि तमाम
भारतीय भाषाओं के साहित्य के लिए स्थाई महत्त्व है. उन्होंने भारतीय साहित्य को लोकतान्त्रिक, जनपक्षधर, यथार्थवादी और समाजोन्मुख बनाने में महत्वपूर्ण
योगदान दिया. वे ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद और लैंगिक विभेद के खिलाफ थे और मानव
मुक्ति के लिए संघर्षरत थे.
वाल्मीकि जी ने दलित साहित्य
की जरूरत, उसकी शक्ति और उसके अंतर्विरोधों को भी उजागर किया. वर्ण व्यवस्था, सामंतवाद और पूंजीवाद जिन भी तौर तरीकों से मनुष्य और मनुष्य के बीच भेदभाव
और शोषण-उत्पीडन की प्रवृतियों को बरक़रार रखने
की कोशिश करता है, उनका विरोध करते हुए कमजोरों, मजलूमों,
दलित-वंचितों की एकता बनाने के प्रति वे हमेशा चिंतित रहे. उनकी आत्मकथा 'जूठन' में जहाँ स्कूली छात्र ओमप्रकाश जानवर के खाल की
गठरी लेकर सिर से पांव तक गंदगी और कपड़ों पर खून के धब्बे लिए पहुंचता है तो मां रो
पड़ती हैं. और बड़ी भाभी कहती हैं कि ‘‘इनसे ये न कराओ ...भूखे रह लेंगे ....इन्हें इस गंदगी में ना घसीटो !’’ अपनी आत्मकथा
में वे लिखते हैं कि 'मैं उस गंदगी से बाहर निकल आया हूँ,
लेकिन लाखों लोग आज भी उस घिनौनी जिंदगी को जी रहे हैं।' जूठन ही नहीं, बल्कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की तमाम रचनाएँ
अमानवीय सामाजिक-आर्थिक माहौल में जीवन जी रहे लोगों की मुक्ति की फ़िक्र से जुडी हुई हैं और जिस
दलित सौंदर्यशास्त्र की वे मांग करते हैं, उसका भी मकसद उसी से
संबद्ध है. जन संस्कृति मंच दलित-वंचित तबकों की मुक्ति के उनके सपनों और
संघर्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए उन्हीं के शब्दों को याद करते हुए
उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि देता है-
‘मेरी पीढ़ी ने अपने सीने पर
खोद लिया है संघर्ष
जहां आंसुओं का सैलाब नहीं
विद्रोह की चिंगारी फूटेगी
जलती झोपड़ी से उठते धुंवे में
तनी मुट्ठियाँ
नया इतिहास रचेंगी।‘
खोद लिया है संघर्ष
जहां आंसुओं का सैलाब नहीं
विद्रोह की चिंगारी फूटेगी
जलती झोपड़ी से उठते धुंवे में
तनी मुट्ठियाँ
नया इतिहास रचेंगी।‘
जन संस्कृति मंच की ओर
सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सहसचिव द्वारा जारी
Tuesday, November 12, 2013
मेरे लिये हर आदमी एक जोड़ी जूता है
मोचीराम
-धूमिल
राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है.
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है.
और असल बात
तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है.
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है.
यहाँ
तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है.
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है.
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो.’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ.
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो.’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ.
एक जूता और
है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है.
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है.
मगर इसका
मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं.
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं.
(फ़ोटो http://www.123rf.com से साभार)
Monday, November 11, 2013
एक घेरा बिना अन्त और बिना ईश्वर का
येहूदा आमीखाई की कुछ कविताओं के अनुवाद आप इन दिनों
लगातार पढ़ रहे हैं. इस क्रम में में आज में उनकी एक कविता रीपोस्ट कर रहा हूँ.
बम का व्यास
- येहूदा
आमीखाई
तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में
और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.
बिज्जी की एक याद यह भी –
बोरूंदा में वो एक किसान सा जीवन बिताते
थे...उनसे वहां हुई कई मुलाक़ातों में से वो मुलाक़ात याद रहती है जब वो मुझे बस
स्टेशन तक छोड़ने आए और बस में मुझे जब तक बैठने की सीट नहीं मिल गयी, चिंतित रहे. इसी मुलाक़ात में उन्होंने कहा था- "ये निर्मल वर्मा क्या
चीज़ है भाई! ... मुझे
तो लगता है कि ये जब मरेगा तो दो चार ऐसे ज़रूर निकल आएंगे जो आत्महत्या कर लेंगे."
एक गम्भीर कुत्ते ने देखा था आदमियों को हंसते
बहुत दिन हुए जब किसी ने पूछा था
-येहूदा आमीखाई
बहुत दिन हुए जब किसी ने पूछा था
कौन रहता था इन मकानों में, और कौन
बोला था यहाँ आख़िरी बार; कौन
भूल गया था अपना ओवरकोट इन मकानों
में
और कौन यहीं रह गया था. (क्यों
नहीं गया वह यहाँ से?)
कोंपलों वाले पेड़ों के बीच एक मरा हुआ
पेड़ खड़ा है,
मरा हुआ एक पेड़.
यह एक पुरानी गलती है, जिसे कभी
समझा नहीं गया,
और मुल्क के एक छोर पर; किसी और के
समय की
शुरुआत. एक नन्ही खामोशी.
और देह और नर्क का पागलपन.
और एक अंत का अंत जो फुसफुसाहटों
में टहला करता है,
हवा गुजरी थी इस जगह से होकर
और एक गम्भीर कुत्ते ने देखा था आदमियों
को हंसते.
दुनिया की सबसे अजीब किताब
१९७० के दशक के अंतिम सालों में इतालवी वास्तुशिल्पी और इंडस्ट्रियल डिज़ाईनर लुईजी सेराफ़िनी ने एक किताब का निर्माण किया – किताब को अज्ञात, समानांतर संसार का इनसाइक्लोपीडिया कहा गया. करीब ३८० पन्नों की यह किताब एक अज्ञात भाषा की अज्ञात लिपि में लिखी गयी है. इस मास्टरपीस को रचने में उन्हें ढाई साल लगे और इसे “दुनिया की सबसे अजीब किताब” माना गया. कोडेक्स सेराफ़िनीयनस शीर्षक इस किताब में ग्यारह अध्याय हैं और इसे मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है – एक हिस्सा प्रकृति को लेकर है तो दूसरा लोगों के बारे में.
अलबत्ता कोई पांच सौ साल पहले भी ऐसी ही एक किताब आई थी – वॉयनिख मैन्यूस्क्रिप्ट.
Sunday, November 10, 2013
वे न होंगे तब भी हम उन्हें पढ़ेंगे – बिज्जी की बातें
कबाड़न मनीषा पाण्डेय ने इस साल मई में बिज्जी से ‘इण्डिया टुडे’ के लिए एक
बातचीत की थी. प्रस्तुत है.
उस दिन सुबह बिज्जी इंटरव्यू के नाम से ऐसे घबरा रहे थे, जैसे मां की गोद से
उतरकर पहले दिन स्कूल जा रहा कोई बच्चा. साथ रहने वाले राजस्थानी लेखक मालचंद तिवाड़ी
से वे बोले, ‘‘एक काम कर, तू ही विजयदान
देथा बनकर बैठ जा और इंटरव्यू दे दे.’’ लेकिन फिर जब सफेद धोती, कुर्ता और जैकेट पहनकर तैयार हो गए तो पूछते हैं, ‘‘क्यो,
लग रहा हूं न दूल्हे जैसा?’’
बच्चों जैसी निश्छलता और हास्य बोध से भरे ये शख्स हैं राजस्थानी के प्रसिद्घ लेखक
विजयदान देथा. जोधपुर से तकरीबन 100 किमी दूर एक कस्बेनुमा छोटे-से गांव बोरूंदा में
उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी. उन्हें लोग प्यार से बिज्जी कहते हैं. चार साल
की उम्र में पिता को खो देने वाले बिज्जी ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा. ताउम्र
राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया. दो जोड़ी कपड़ों में
संतोषी जीवन जिया. बहुत चाह भी नहीं थी. बोरूंदा के रास्ते में साइकिल की दुकान पर
पंचर बनाने वाले से लेकर गायों को हंकाकर ले जा रहा किसान तक बिज्जी के घर का पता जानते
हैं. जो पढ़ भी नहीं सकता, उसने उनकी कहानियां सुनी हैं. राजस्थान
के गांवों में घर-घर में लोग बिज्जी की कहानियां सुनते-सुनाते हैं. राजस्थान की लोककथाओं
को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने
कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है.
बिज्जी बड़े ही दिल से वह किस्सा सुनाते हैं, जब मैक्सिको के एक लेखक ने दूर अर्जेंटीना
के एक गांव में कुछ मछुआरों को एक गीत गाते सुना. वे जाल डालते और गीत गाते जाते थे.
आश्चर्य से भरकर लेखक ने मछुआरों से पूछा, ‘‘तुम्हें पता है यह
गीत किसका है? क्या तुम पाब्लो नेरुदा को जानते हो?’’ अनपढ़ मछुआरे बोले, ‘‘कौन नेरुदा? हम तो बस इस गीत को जानते हैं.’’
बिज्जी धीरे से अपनी आंखों के कोर पोंछते हैं, ‘‘कितना महान था वह कवि कि जिसके गीत
दूर देश के मछुआरे गाते थे.’’ ऐसी ही हैं बिज्जी की कहानियां. उनकी पहचान से भी बड़ी
हो गईं. हवाओं में घुली हुईं, खेतों में समाई हुईं.
उनका तकरीबन पूरा साहित्य हिंदी में अनूदित हो चुका है. उनकी कहानियों पर दुविधा
और परिणति जैसी फिल्में बनीं. हबीब तनवीर का प्रसिद्घ नाटक चरणदास चोर उन्हीं की कहानी पर आधारित है. दुविधा कहानी पर 2005 में अमोल पालेकर ने शाहरुख खान-रानी
मुखर्जी को लेकर पहेली फिल्म बनाई थी. कहानियों
के इतने अकूत खजाने में से बिज्जी की कहानी पर ही फिल्म क्यों बनाई? यह सवाल पूछने पर अमोल
पालेकर कहते हैं, ‘‘मुझे कोई दूसरी कहानी बताइए, जिसमें इतना रहस्य, रोमांच और रोमांस हो और साथ ही वह
इतनी देशज भी हो.’’ इस फिल्म को फाइनेंस करने के अपने फैसले के बारे में शाहरुख खान
कहते हैं, ‘‘मैं कहानी के जादू में बंध गया था.’’ बिज्जी को रानी
मुखर्जी पसंद हैं. सचमुच किसी जवान दूल्हे जैसे मुस्कराते हुए वे कहते हैं,
‘‘गले लगाकर रानी ने कहा था, ‘थैंक यू सो मच.’’
बिज्जी की पूरी मौजूदगी अथाह प्रेम से भरी है. लेकिन जिस प्रेम को वे आज तक भुला
नहीं पाए, वह हैं उनकी पत्नी
सायर कंवर. वे कहते हैं, ‘‘हमेशा मुझसे लड़ती रहती थी. मैं लिखने
में लगा रहता और उसकी तो बस एक ही रट, ‘‘खाना खा लो, खाना खा लो.’’ पता नहीं यह बुढ़ापे की कमजोरी है या कुछ और. सचमुच सायर का जिक्र
करते ही बिज्जी की आंखें भर आई हैं. वे चुपके से आंखों के कोर पोंछते हैं. उनके बेटे
ने शानदार घर बनवाया है. हर ओर समृद्घि की चमक है. मोजैक की फर्श, सागौन के दरवाजे, शीशम का फर्नीचर, खूबसूरत रंग-रोगन. लेकिन बिज्जी आज भी घर के पिछवाड़े लोहे की सांकल,
लकड़ी की खिड़की और दीवार में बने आले वाले उसी मामूली-से कमरे में रहते
हैं, जिसमें अपनी पत्नी के साथ उन्होंने जिंदगी के 47 बरस गुजारे.
कहते हैं, ‘‘कैसे भूल जाऊं, उसने किन तकलीफों
में मेरा साथ दिया? धूप, गर्मी,
बारिश और ठिठुरन में पास रही. और अब वह नहीं तो मैं अकेले सुंदर घर का
सुख भोगूं? ये कैसे होगा?’’ बिज्जी तो उस
दुनिया के वासी हैं, जहां जंगल में आग लगने पर हंस पेड़ों से कहते
हैं, ‘‘हम तुम्हें छोड़कर क्यों उड़ जाएं? तुम्हारी छांह में हमने सुख पाया, फल खाया, जीवन पाया और अब जब संकट आया तो तुम्हें अकेला छोड़कर उड़ जाएं? ये न होगा.’’
एक बार बिज्जी की कहानियों से गुजरिए, फिर उनके व्यक्तित्व से. मामूली-सी फांस
भी नहीं दिखती. राजा-रानी, राजकुमार, घोड़ा,
चिडिय़ा, पेड़ उनकी कहानियों के पात्र हैं. उन्होंने
14 भागों में राजस्थानी लोककथाओं को संकलित किया है. लेकिन कहते हैं, ‘‘यह तो उस समुद्र की एक बूंद भी नहीं है.’’ चर्चित कथाकार राजेंद्र यादव बिज्जी
के बारे में कहते हैं, ‘‘उनकी कहानियां हिंदी साहित्य की अमूल्य
निधि हैं. वे आजीवन शोरगुल से दूर किसी साधक की तरह सृजन के काम में लगे रहे. बिज्जी
जैसा कोई दूसरा नहीं.’’ टैगोर के बाद बिज्जी ही भारतीय उपमहाद्वीप के एकमात्र ऐसे लेखक
हैं, जिनका नाम 2011 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित
हुआ.
86 साल के बिज्जी बूढ़े और कमजोर हो गए हैं, मुश्किल से बोल पाते हैं. पढ़ भी नहीं
सकते. किताबों को घंटों हाथ में लिए उसके अक्षरों पर उंगलियां फिराते रहते हैं. दुख
में कहते हैं, ‘‘बिना इनके क्या जीवन?’’
मालचंद तिवाड़ी इन दिनों बिज्जी के साथ रहकर 14 भागों में फैली उनकी किताब बातां री
फुलवारी का हिंदी में अनुवाद कर रहे हैं और उनकी रोजमर्रा की बातों को एक डायरी में
दर्ज भी कर रहे हैं. उनकी डायरी में लिखा है, ‘‘एक दिन अचानक
बिज्जी बोले, ‘‘मृत्यु तो जीवन का शृंगार है. ये न हो तो कैसे
काम चले? सोच, मेरे सारे पुरखे आज जिंदा
होते तो क्या होता?’’ एक दिन बीकानेर के हरीश भादानी की मृत्यु
पर तिवाड़ी की लिखी श्रद्घांजलि पढ़कर बोल उठे, ‘‘मुझ पर भी लिखकर
पढ़ा दे मुझे. मरने के बाद तो दूसरे ही पढ़ेंगे, मैं कैसे पढूंगा?’’
ऐसे हैं बिज्जी. वे न होंगे तब भी हम उन्हें पढ़ेंगे. दुनिया उन्हें पढ़ेगी. अपनी
बातों की फुलवारी में बिज्जी हमेशा रहेंगे.
(फ़ोटो - सेनीदान सिंह चारण उदरासर की फेसबुक वॉल से)
Subscribe to:
Posts (Atom)