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अभिवादन होते ही मैं उन्हें नईदुनिया (एम.पी.०९-मेंट्रो प्लस) का वह अंक देता हूँ जिसमें उनकी तस्वीर प्रकाशित हुई है. वे बच्ची सी चहक उट्ठी हैं और ध्यान से रपट पढ़ रहीं हैं.किसी हिन्दी अखबार से यह उनकी सर्वथा पहली बातचीत है. संवाद शुरू होता है तो कहती हैं कि परिवार में शास्त्रीय संगीत का खासा माहौल था और पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ सबसे चहेते कलाकार थे. पिता सरकारी मुलाजिम थे सो यहाँ वहाँ स्थांतर होता रहता था. पार्वती नृत्य की ओर आकर्षित थीं सो पिताजी ने पं.किशन महाराज की शिष्य श्रीलेखा मुखर्जी के पास भेजा. बढिया तालीम चलती रही और बाद में शांति निकेतन में पढ़ने का सौभाग्य मिला.वहाँ चित्रकारी सीखी.पार्वती कहतीं हैं मुझे कुछ ऐसा करना था जिसमें सिर्फ़ मनोरंजन न हो;नृत्य हो,गीत-संगीत हो और एक आध्यात्मिकता. मेरे लिये किसी भी काम का संतोष,परिणाम या सफलता महत्वपूर्ण नहीं,लगातार कुछ करते रहना और चलते रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है.सूफियाना रंग में आकंठ डूबी पावती बाऊल का यकीन यात्रा में है उसकी मंजिल में नहीं.वे कहती हैं मंजिल तो वह निराकार – निर्गुण आत्मतत्व है जिसकी तलाश में ये एकतारा गूँज रहा है. वे कहतीं हैं मैं अनहद की उपासक हूँ;सुनाना नहीं चाहती,सुनना चाहती हूँ.
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पार्वती बाऊल ने बताया कि हर बंगाली परिवार को कम से कम एक बाऊल गीत तो याद रहता है.इस विधा की एक सुदीर्घ परम्परा वहाँ पाई जाती है. उलटबासी में कहे गये पदों में नये-नये प्रश्न और जिज्ञासाएँ होईं हैं.जैसे एक पद में कहा गया है कि दिन में उजाला कहाँ;और रात में ये सूरज कैसे निकला है. तो उत्तर है कि दिन में अंधियार है यदि ज्ञान का आसरा नहीं और अंधरा भी निस्तेज है यदि ज्ञान की ज्योत प्रज्ज्वलित है. पार्वती ने बताया कि बाऊल के सैकड़ों गुरू हैं और उनकी सुदीर्घ परम्परा है. ज्यादातर गुरू और पद-रचयिता हैं और असंख्य पद रच चुके हैं. पार्वती बाऊल वैष्णव दरवेश परम्परा से हैं. इसमें पैर एकदूसरे के विपरीत रखा जाता है जो वैष्णव मत का प्रतिनिधित्व करता है और गाते वक्त चक्कर लगाना दरवेश परम्परा का परिचायक. यह युवा गायिका बताती है कि उनके गुरूजनों एक साध्वी बरसों पहले तुर्की जाकर सूफी संगीत सीखी थी और बाद में बंगाल में आकर बाऊल में उसे समाहित किया. बाऊल गाने वाले भिक्षुक नहीं वे तो सर्वशक्तिमान की कृपा के अनुगायक हैं. बाऊल परम्परा में सन्यास अनिवार्य नहीं. बाकयदा परिवार बसाया जा सकता है. भगवा भी इसलिये धारण किया गया है कि हमारे गायक साधक हैं यह संदेश जा सके. क्योंकि बाऊल सिर्फ गाना भी नहीं;नजर नहीं आने वाले लेकिन कण-कण में समाने वाले उस ईश्वर का वंदन है जो निराकार है. बाऊल विरासत में सर्वधर्म की भावधारा है और संप्रदाय से ऊपर जाकर दरवेश,वैष्णव,नाथयोगी सभी समाहित हैं.
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जटाओं का रहस्य:पार्वती बाउल के माथे पर विराट जटाओं का डेरा है. वह कहती हैं कि कोई मान्यता बाऊल संगीत में नहीं है. मेरे भाई भी सन्यासी हैं बस उन्होंने एक दिन कह दिया पार्वती इन्हें बढ़ने दो शायद इनका विस्तार तुम्हें उस परमात्मा का स्मरण करवाते रहे.अब तकरीबन बीस बरस हो गये ये ऐसे के ऐसे ही है.वैष्णव-दरवेश परम्परा में दीक्षित पार्वती जब गाते गात घूमने लगती हैं तो मंच पर फैल जाती उनकी केशराशि एक अलग ही वातावरण की निर्मिति करती है.
(ये साक्षात्कार मैंने नईदुनिया के लिये किया था. मन ने कहा कबाड़ख़ाना पर इस सामग्री के कई मुरीद हैं;सो साझा कर रहा हूँ;छाया:महेश गोयल)