वह भगवा वस्त्र पहनतीं हैं,सिर पर विशाल केशराशि वाली जटाएँ है जिसको अभी उन्होंने जुड़ा बनाकर सहेज रखा हे. चककती आँखें हैं और हिन्दी-अंग्रेज़ी में बतियाते हुए कभी हँसतीं,अश्रुजल बहाती तो कभी कहीं शून्य में खो जातीं.देह-भाषा एक मासूम बच्चे सी और भाषा और चिंतन किसी गूढ़-गंभीर विदूषी जैसा.ये उनके आभामण्डल का ही परिणाम है कि एक स्थानीय होटल में बैठा हूँ लेकिन लग रहा है फिलवक्त ये जगह चैतन्य महाप्रभु के आश्रम में तब्दील हो गई है. ये हैं सुप्रसिध्द बाउल गायिका पार्वती बाउल जो कबीर यात्रा में भाग लेने इन्दौर आई हैं.
अभिवादन होते ही मैं उन्हें नईदुनिया (एम.पी.०९-मेंट्रो प्लस) का वह अंक देता हूँ जिसमें उनकी तस्वीर प्रकाशित हुई है. वे बच्ची सी चहक उट्ठी हैं और ध्यान से रपट पढ़ रहीं हैं.किसी हिन्दी अखबार से यह उनकी सर्वथा पहली बातचीत है. संवाद शुरू होता है तो कहती हैं कि परिवार में शास्त्रीय संगीत का खासा माहौल था और पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ सबसे चहेते कलाकार थे. पिता सरकारी मुलाजिम थे सो यहाँ वहाँ स्थांतर होता रहता था. पार्वती नृत्य की ओर आकर्षित थीं सो पिताजी ने पं.किशन महाराज की शिष्य श्रीलेखा मुखर्जी के पास भेजा. बढिया तालीम चलती रही और बाद में शांति निकेतन में पढ़ने का सौभाग्य मिला.वहाँ चित्रकारी सीखी.पार्वती कहतीं हैं मुझे कुछ ऐसा करना था जिसमें सिर्फ़ मनोरंजन न हो;नृत्य हो,गीत-संगीत हो और एक आध्यात्मिकता. मेरे लिये किसी भी काम का संतोष,परिणाम या सफलता महत्वपूर्ण नहीं,लगातार कुछ करते रहना और चलते रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है.सूफियाना रंग में आकंठ डूबी पावती बाऊल का यकीन यात्रा में है उसकी मंजिल में नहीं.वे कहती हैं मंजिल तो वह निराकार – निर्गुण आत्मतत्व है जिसकी तलाश में ये एकतारा गूँज रहा है. वे कहतीं हैं मैं अनहद की उपासक हूँ;सुनाना नहीं चाहती,सुनना चाहती हूँ.
पार्वती बाऊल ने बताया कि हर बंगाली परिवार को कम से कम एक बाऊल गीत तो याद रहता है.इस विधा की एक सुदीर्घ परम्परा वहाँ पाई जाती है. उलटबासी में कहे गये पदों में नये-नये प्रश्न और जिज्ञासाएँ होईं हैं.जैसे एक पद में कहा गया है कि दिन में उजाला कहाँ;और रात में ये सूरज कैसे निकला है. तो उत्तर है कि दिन में अंधियार है यदि ज्ञान का आसरा नहीं और अंधरा भी निस्तेज है यदि ज्ञान की ज्योत प्रज्ज्वलित है. पार्वती ने बताया कि बाऊल के सैकड़ों गुरू हैं और उनकी सुदीर्घ परम्परा है. ज्यादातर गुरू और पद-रचयिता हैं और असंख्य पद रच चुके हैं. पार्वती बाऊल वैष्णव दरवेश परम्परा से हैं. इसमें पैर एकदूसरे के विपरीत रखा जाता है जो वैष्णव मत का प्रतिनिधित्व करता है और गाते वक्त चक्कर लगाना दरवेश परम्परा का परिचायक. यह युवा गायिका बताती है कि उनके गुरूजनों एक साध्वी बरसों पहले तुर्की जाकर सूफी संगीत सीखी थी और बाद में बंगाल में आकर बाऊल में उसे समाहित किया. बाऊल गाने वाले भिक्षुक नहीं वे तो सर्वशक्तिमान की कृपा के अनुगायक हैं. बाऊल परम्परा में सन्यास अनिवार्य नहीं. बाकयदा परिवार बसाया जा सकता है. भगवा भी इसलिये धारण किया गया है कि हमारे गायक साधक हैं यह संदेश जा सके. क्योंकि बाऊल सिर्फ गाना भी नहीं;नजर नहीं आने वाले लेकिन कण-कण में समाने वाले उस ईश्वर का वंदन है जो निराकार है. बाऊल विरासत में सर्वधर्म की भावधारा है और संप्रदाय से ऊपर जाकर दरवेश,वैष्णव,नाथयोगी सभी समाहित हैं.
जीवन के साढ़े तीन दशक देख चुकीं पार्वती बाऊल कुमार गंधर्व को बेहद पसंद करतीं हैं.किशोरी अमोनकर उनकी चहेती गायिका हैं और वे पूरे विश्व में बाऊल संगीत का एक जगमगाता नाम है. पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपानिया की कबीर बानी से प्रभावित पार्वती बाऊल का हाल मुकाम लूनियाखेड़ी(मक्सी) है और मालवा की आबोहवा का भरपूर आनंद ले रहीं है. गातीं हैं,डुग्गी और इकतारा एक साथ बजाती हैं और पैरों में पहने हुए वजनदार कड़ों (जिन्हें वे नूपुर कहतीं हैं) से लय देती जाती हैं.नृत्य,गायन,वादन और भक्ति की यह बेजोड़ तपस्विनी कहती है कि कल जो गाया था वह वहीं रह गया,अब फिर एक नई टेर लगाना है और तलाशता है अपने उस मौला को जिससे मिलने में ही परम सुख है.बाकी तो सब बाहरी है.पार्वती बाऊल की यात्रा भीतरी है और उसके भावभीने स्वर की पुकार और इकतारे की टंकार हमें कहीं अपने भीतर झाँकने को विवश करती है.
जटाओं का रहस्य:पार्वती बाउल के माथे पर विराट जटाओं का डेरा है. वह कहती हैं कि कोई मान्यता बाऊल संगीत में नहीं है. मेरे भाई भी सन्यासी हैं बस उन्होंने एक दिन कह दिया पार्वती इन्हें बढ़ने दो शायद इनका विस्तार तुम्हें उस परमात्मा का स्मरण करवाते रहे.अब तकरीबन बीस बरस हो गये ये ऐसे के ऐसे ही है.वैष्णव-दरवेश परम्परा में दीक्षित पार्वती जब गाते गात घूमने लगती हैं तो मंच पर फैल जाती उनकी केशराशि एक अलग ही वातावरण की निर्मिति करती है.
(ये साक्षात्कार मैंने नईदुनिया के लिये किया था. मन ने कहा कबाड़ख़ाना पर इस सामग्री के कई मुरीद हैं;सो साझा कर रहा हूँ;छाया:महेश गोयल)
Wednesday, March 28, 2012
Wednesday, March 21, 2012
कविता के उर्वर प्रदेश में
हि्न्दी की साहित्यिक बिरादरी बी० मोहन नेगी के रेखांकन और उनके बनाए कविता पोस्टरों से परिचित है। वे चित्रकार व कविता के सजग पाठक हैं। उनके नाम और काम से बहुत लंबे समय से परिचय था किन्तु प्रत्यक्ष भेंट अभी तीन चार दिन पहले गंगोलीहाट (जिला - पिथौरागढ़ , उत्तराखंड) में 'भाषा' और 'पहाड़' द्वारा आयोजित उत्तराखंड भाषा संगोष्ठी में हुई। मैंने अपने कैमरे से उनके कई चित्र उतारे , उनके द्वारा लगाई गई पोस्टर प्रदर्शनी के भी..प्रस्तुत हैं कुछ चित्र..
ग्राम उपराड़ा- एक घर का गवाक्ष
झाँकता - मुस्काता अपना चित्रकार
सुंदर कविता का सुंदर - सा पोस्टर
शब्दों ने पहुँचाया ऊँचे पहाड़ पर
बोलते हैं रंग बोलती रेखायें
नए नए अर्थ खुद दे जायें
कवि गुमानी का जर्जर यह घर
Sunday, March 11, 2012
फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना - अन्तिम हिस्सा
(पिछली किस्त से आगे)
दर्शकों द्वारा फिल्म पर छींटाकशी का भी रिवाज़ था. मिसाल के तौर पर विलेन की स्वाभाविक इच्छा है कि वह हीरोइन के साथ थोडा सा बलात्कार कर ले.पर हीरोइन है कि बात को समझ नहीं पाती. कोई भगवाधारी समझाए इसे कि भई आस्था का प्रश्न है. तो साहब काफी देर बाद भी जब विलेन हीरोइन का पल्लू तक नहीं हटा पाता था तो दर्शकों में से कोई मदद की पेशकश करेगा- अबे मैं आऊँ क्या! या हीरोइन को एक दिन वॉश बेसिन के आगे खड़े होकर इलहाम होता है कि वह जो दो-चार बार हीरो के साथ नाची-गाई थी उसी वजह से उसे गर्भ रह गया. और उधर हीरो गायब! वह कश्मीर के मोर्चे पर गया था जहां उसने शुरू में तो दुश्मनों के साथ नींबू सानकर खाया और शत्रुओं के दांत खट्टे कर दिए. मगर अब सरकार कहती है कि वह लापता है. हाय राम, अब क्या होगा? ऐसे में हीरोइन किसी मूर्ती के आगे जाकर कहेगी - हे भगवान, मेरे चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा है ... मूर्ति चुप रहेगी, कोई दर्शक राय देगा - मोमबत्ती जला, मोमबत्ती और भविष्य के लिए संतति निरोध का कोई साधन भी बता देगा.
पिक्चर हॉल में कई बार ऐसी दुर्घटनाएं भी हो जाया करती थीं कि अगली सीट पर बैठे जिन भाईसाहब से आपने माचिस माँगी थी, इंटरवल में जब बत्तियाँ जलीं तो वे आपके सगे बाप साबित हुए.
यह सारा किस्सा तब तक अधूरा और अलोना है जब तक कि एक सज्जन का ज़िक्र न कर लिया जाए. यादों की बरात का दूल्हा सचमुच वही हैं. वे सज्जन काफी उम्रदराज़ थे और उस उम्र में भी मेहनत मशक्कत का काम किया करते थे. दरमियाना कद, दुबली काया पर कुरता-पायजामा-वास्कट, सर पर टोपी और आँखों में मोटा सा चश्मा. उनकी आँखें बेहद कमज़ोर थीं. एक बार मैंने उन्हें दीवार से चिपका इश्तहार पढते देखा. वे इश्तहार से चेहरा यूं सटाए थे गोया इश्तहार को चाट रहे हों. उन जैसा पिक्चर प्रेमी देखने में नहीं आया. यह संस्मरण मैं उन्हीं अनाम बुजुर्गवार को समर्पित करता हूँ.
वे सज्जन एक अनुवादक के सहारे पिक्चे देखते थे. एक कमसिन बच्चा उनकी बगल की सीट पर बैठा उनके लिए पिक्चर की रनिंग कमेंट्री किया करता था - हाँ अब गाना हो रहा है, ना कोठे में नहीं, घर में नाच रही है. नाम पता नहीं कोई नई है. न ज्यादा मोटी, न दुबली जैसी हीरोइन होती है. हीरो जीतेन्दर है. गद्दार अभी नहीं आया पर मैंने पोस्टर में देख लिया था. प्रेम चोपड़ा है. हाँ वही शीशे से पत्थर तोड़ने वाला. हीरोइन नहा रही है. परदे के पीछे है. अल्ला कसम कुछ नहीं दिख रहा. गद्दार और हीरो में मारपीट हो रही है. हीरो रस्से से लटक कर बदमाशों को मार रहा है. ये पडी एक के लात - शीशा तोड़ते हुए बाहर छतक गया. हीरो क्यों हारेगा. हीरोइन को परेशान करता था न. हाँ ... अच्छा गद्दार अगर फूल को जूते से मसल दे तो हीरोइन की इज्ज़त लुट जाएगी? कैसे पता? तजुर्बा क्या होता है? हीरो इज्जत क्यों नहीं लूटता? कोई भी आदमी फूल पे पाँव रख के इज्जत लूट सकता है? इज्जत क्या होती है? सलवार-कमीज़ में तो हीरोइन की इज्जत एक भी पिक्चर में नहीं लुटी ... क्यों ... चुप हो जाऊँगा तो कहोगे कि ठीक से बताया नहीं, मज़ा नहीं आया ... हाँ चलो हाफ टाइम हो गया. चाय पी लो, मैं पकौड़ा खाऊंगा.
इति फ्लैशबैक स्टोरी.
Saturday, March 10, 2012
फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना - ६
(पिछली किस्त से आगे)
दक्षिण भारतीय फिल्मों का अलग किस्सा है. इनका निर्माण लोगों की यौन कुंठाओं को दुहने के लिए किया जाता था. यह पिक्चरें अमूमन जाड़ों में लगा करती थीं. पिक्चे क्योंकि वर्जित विषय पर होती इसलिए ६ से ९ वाला शो सबकी सहूलियत का होता. पर्याप्त अँधेरे के कारण किसी परिचित द्वारा देखे जाने की आशंका कम रहती. अब यह बात अलग है कि परिचित या तो पहले हॉल में बैठा होगा या आपसे ज्यादा शातिर हुआ तो फिल्म शुरू होने के कुछ पल बाद हॉल में घुसेगा, जब बत्तियाँ गुल कर दी जाएँगी.
इन फिल्मों को जिस चीज़ के लिए देखा जाता वह मूल तत्व पिक्चर में उतना ही होता जितना होटल के पालक-पनीर में पनीर मिलता है. फिल्म में एकाध मिनट का एक सीन जोड़ दिया जाता जिसका फिल्म की बेसिरपैर की कहानी से कोई सम्बन्ध नहीं होता था. उस दृश्य में एक जोड़ा स्त्री-पुरुष प्राकृतिक अवस्था में वही शारीरिक क्रिया बड़े मनोयोग से संपादित कर रहे होते जिसे आदिकाल से एकांत में करते आए हैं और वेंटिलेटर की मदद से जीवन जब एक्सटेंशन में चल रहा होता है तब भी करने की तमन्ना रखते हैं. ऐसा दूसरा सीन हाफ टाइम के लगभग तुरंत बाद आता था. इसके बाद हॉल में नौसिखिए रह जाते या वो जिनका "जब तक सांस है तब तक आस है" पर अटल विशवास होता. अनुभ्वीजन हॉल को यूं छोड़ देते जैसे लम्पटों की सभा का त्याग सत्पुरुष के देते हैं.
आसपास के दुकानदारों को हॉल के स्टाफ से मालूम पड़ जाता कि पहला सीन कितने बजे है और दूसरा कितने बजे. वे लोग ठीक समय पर दरवाजा खोलकर भीतर घुसते, वहीं खड़े-खड़े दर्शन कर फिर दूकान में जा बैठते. सार-सार को गहि रहे, थोथा देहि उडाय.
ऐसी पिक्चरों के टिकट कुछ इज्ज़तदार लोग दूसरों से मंगवाते थे. ऐसे ही लोग शराब और कंडोम भी औरों से मंगवाते हैं. बड़े-बड़े महारथी नज़र आ जाया करते थे हॉल में, टोपी,मफलर और काले चश्मे की ओट लिए.
(अगली किस्त में समाप्य)
Friday, March 9, 2012
खेलें मसाने में होरी दिगंबर
पंडित छन्नूलाल मिश्र सुना रहे हैं अपनी विख्यात रचना. आप सब को होली की शुभकामनाएं -
फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना - ५
(पिछली किस्त से आगे)
और नजीर हुसैन हमेशा न जाने कैसे कोई एक बेहद अमीर आदमी होता है. उसकी बीवी नहीं होती. संतान केनाम पर एक मात्र लड़की होती है - जवान और खूबसूरत. वह फिल्म के शुरू में बी.ए. के साथ पार्ट टाइम इश्क भी करती है. दो-एक गानों के बाद इश्क में होल-टाइमर हो जाती है, कॉलेज पार्ट टाइम जाती है. इस इश्क में कोई पच्चर फंसा होता है. समझ लीजिए कि लड़के के बाप का पता ही नहीं या हो सकता है कि लड़के की माँ के बारे में समाज जब फुर्सत में जुगाली करता है तो कुछ ऐसी-वैसी बातें करता है. यह बात सिर्फ नजीर हुसैन जानता है. कई बार लड़की भी जानती है तो वह बाप से ज़बान लड़ाती है - लेकिन डैडी मैं पूछती हूँ कि इसमें अशोक का क्या दोष है. नजीर हुसैन दीवार में टंगी दिवंगत पत्नी की तस्वीर के पास जा खड़ा होता है - पार्वती अच्छा हुआ तुम चली गईं. मैं अभागा रह गया यह दिन देखने के लिए. इस लड़की के कारण ज़माना आज मुझ पर थूक रहा है. मेरी परवरिश में ही शायद कोई कमी रह गयी होगी. टीम होतीं तो शायद ये दिन न देखना पड़ता ... अब क्योंकि फिल्म की एक-दो ही रीलें बची हैं इसलिए ग्रहदशा एकाएक अनुकूल होने लगती है. लड़के का बाप प्रकट हो जाता है और वह कोई रायबहादुर/ खानबहादुर से कम नहीं निकलता. और अगर लड़के की माँ के बारे में कोई चर्चा है तो वह भी साफ हो जाता है कि दर असल वह उस रात सेठ दीनानाथ की हवेली में उन्हें राखी बाँधने गयी थी जिस से समाज को भूलवश गलतफहमी हो गयी. वरना कौन नहीं जानता कि वो बुढिया तो इतनी शरीफ है कि आज तक अपने पति का मुंह भी उसने नज़र भर कर नहीं देखा. देखा बहन मैं न कहती थी कि सुमित्रा बहन जैसी भली मांस इस जहान में ढूंढें से न मिलेगी. आग लगे इस समाज के मुंह में जो जी में आया बक दिया. ललिता पवार जैसी सास कोई लड़की नहीं चाहेगी और निरुपमा रॉय जैसी सास हर लड़की को मिले. इफ्तखार अगर पुलिस अफसर नहीं है तो वह इफ्तखार किस काम का. ऐसे ही कई और भी अनगिनत सनातन सत्य है हिन्दी सिनेमा के - हवा-पानी की तरह.
जिस इंटर कॉलेज में आठवीं से आगे की पढाई के लिए दाखिला लिया उसका रास्ता पिक्चर हॉल से होकर गुजरता था. नवीन दसवीं में जो फीस पड़ती थी उसे हम बाप की पे-स्लिप दिखाकर पूरी या आधी माफ करा लिया करते थे. फीस पूरी माफ हुई तो घर में आधी बताई, आधी माफ हुई तो घर में कहा इस बार माफ नहीं हुई पूरी पड़ेगी. फीस-डे मतलब पिक्चर-डे.
मैं और मेरा वही पव्वा-चप्पल चोर दोस्त अक्सर बस्ते में जूट का एक कट्टा रख ले जाते. कट्टा कैंटीन में रख देते. इंटरवल में भागकर वहाँ पहुँचते जहां आज अल्मोड़ा की लॉ फैकल्टी है. वहाँ उन दिनों लाल मिट्टी की खान थी. हम एक कट्टा मिट्टी भरते, मैं अपने दोस्त के फटे जूते और बस्ता उठाता वह मिट्टी भरा कट्टा. लिपाई पुताई के काम आने वाली यह मिट्टी चार रूपये में बिकती थी. अब एक अठन्नी की दरकार होती. पिक्चर पक्की.
(जारी)
Thursday, March 8, 2012
अष्टभुजा शुक्ल का जीवन वृत्तांत
अष्टभुजा शुक्ल की एक और कविता पढ़िए -
जीवन वृत्तांत
उठाया ही था पहला कौर
कि पगहा तुड़ाकर भैंस भागी कहीं और
पहुंचा ही था खेत में पानी
कि छप्पर में आग लगी,बिटिया चिल्लानी
आरंभ ही किया था गीत का बोल
कि ढोलकिया के अनुसार फूट गया ढोल
घी का था बर्तन और गोबर की घानी
चाय जैसा पानी पिया, चाय जैसा पानी
मित्रों ने मेहनत से बनाई ऐसी छवि
चटक और दबावदार कविता का कवि
एक हाथ जोड़ा तो टूट गया डेढ़ हाथ
यही सारा जीवन वृत्तांत रहा दीनानाथ
जीवन वृत्तांत
उठाया ही था पहला कौर
कि पगहा तुड़ाकर भैंस भागी कहीं और
पहुंचा ही था खेत में पानी
कि छप्पर में आग लगी,बिटिया चिल्लानी
आरंभ ही किया था गीत का बोल
कि ढोलकिया के अनुसार फूट गया ढोल
घी का था बर्तन और गोबर की घानी
चाय जैसा पानी पिया, चाय जैसा पानी
मित्रों ने मेहनत से बनाई ऐसी छवि
चटक और दबावदार कविता का कवि
एक हाथ जोड़ा तो टूट गया डेढ़ हाथ
यही सारा जीवन वृत्तांत रहा दीनानाथ
होली के कुछ पुराने फोटो
हमारे कबाड़ी फोटूकार रोहित उमराव ने २००८ की होली पर अपने पैतृक गाँव अस्धना से कुछ फोटू पोस्ट किये थे. आज उनमें से कुछ को फिर लगाने का मन हुआ -
फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना - ४
(पिछली किस्त से आगे)
फिल्मों में कई बार धोखे भी हो जाया करते थे. खासतौर पर महिलाओं को. मान लीजिए फिल्म का नाम है - शंकर महादेव. महिलाएं शिव महिमा देखने की उम्मीद में टिकट लेकर बैठ गईं बिना देखे भाले. पिक्चर शुरू हुई तो पता लगा कि यह तो शंकर और महादेव नाम के दो डाकुओं की कहानी है. डाकू अगर शरीफ हुआ तो भी गनीमत है, वह अमीरों को लूटकर गरीबों में बांटने का सत्कर्म करेगा और जो कहीं डकैत हरामी निकला तो आंटीजी दो-एक बलात्कार तो आपको देखने ही पड़ेंगे. अब आ ही गयी हैं तो छी-छी करते देख ही लीजिए पैसे तो खर्च हो ही गए हैं. अंत बुरे का बुरा. आखिर में तो हीरो ने आकर इसकी गर्दन उतार ही लेनी है. डकैतों की फिल्म देखने से पता लगता है कि अधिकाँश डाकू भाई लोग काली के उपासक होते हैं. यही उनकी कुल देवी होती है नाम चाहे उनके शंकर हों या महादेव.
ज़्यादातर डाकू मूलतः एक ज़माने के शरीफ आदमी हुआ करते हैं जो कि साहूकार के अत्याचार सहते-सहते पले-बढे. एक साधारण से वकील को अंग्रेजों ने रेल के डिब्बे से बाहर धकेल कर महात्मा गांधी बना दिया. कुछ इसी तरह की घटना उनके जीवन में भी एक दिन घटित होती है. क्या होता है कि साहूकार उसकी बेटी या बहन पर हाथ डाल देता है. उस दिन उसका खून खौल-खौलकर आधे से ज्यादा भगौने से बह जाता है. वे जंगल की तरफ भाग जाते हैं. कुछ देर भागने के बाद हम देखते हैं कि वे घोड़े पर सवार हैं और हाथ में दुनाली है. उनके साथ पचासेक लोग आ जुटते हैं. सबके पास घोड़ा और दुनाली बन्दूक है. यकीन करिये ये सब फिल्म के अंत तक साहूकार की हवेली की ईंट से ईंट बजाकर समर्पण कर देंगे और बैकग्राउंड से घोषणा होगी - अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है. हैरानी की बात है कि सरकार ऐसी फिल्मों को माओवादी पिक्चर कहकर प्रतिबंधित नहीं करती. जबकि अगर कोई कह दे के हमारे मोहल्ले में तीन दिन से पानी नहीं आया, क्या व्यवस्था है तो वह माओवादी हो सकता है. इस आधार पर कोई अगर चाहे ओ कह सकता है सरकार डाकुओं के साथ है.
फिल्मों में मिथुन चक्रवर्ती का बाप नहीं होता और नजीर हुसैन की बीवी. मिथुन की विधवा माँ होती है और एक अदद जवान बहन जिसका अमूमन बलात्कार हो जाता है. मिथुन बलात्कारियों को चुन-चुनकर अपने हाथों मारता है. वह अक्सर मोटर मकेनिक जैसा रफ-टफ काम करता है. कभी-कभी पुलिस और मिलिट्री वाला भी होता है. एक अमीरजादी हाथ धोकर छोडिये नहा-धोकर उसके पीछे पड़ जाती है. मिथुन शुरू में हाथ नहीं धरने देता. फिर धीरे-धीरे नरम पड़ने लगता है और अंत तक लार टपकाने लगता है. बलात्कारियों को ठिकाने लगाने और मोटर रिपेयरिंग के कामों से फुर्सत निकालकर मिथुन उस अमीरजादी के साथ नाच-गा भी लेता है. मिथुन हमेशा गरीब और मजलूम के साथ है. वह मिलावटखोर बनिए की पोल सरेबाजार यूं खोलता है - ये क्या सेठ घी के डब्बे में डालडा! मिथुन जब तक ज़िंदा है कोई साला किसी के साथ अत्याचार तो करके दिखाए. मिथुन उसे चौराहे पर कुत्ते की मौत न मारे तो कुत्ता कह देना.
(जारी)
Wednesday, March 7, 2012
और हम ज़मीन हैं
हम ज़मीन हैं
अष्टभुजा शुक्ल
हमारे ऊपर
हमारे ऊपर
है एक मोटरसाइकिल
उसके ऊपर एक मारूति कार
उसके ऊपर वायुयान
और हम पदाति हैं
हमारे ऊपर
है एक चौकीदार
उसके ऊपर सिपाही
उसके ऊपर दरोगा
उसके ऊपर कप्तान
उसके ऊपर गृहमंत्री
और हम अपराधी हैं
हमारे ऊपर
है ग्राम प्रधान
उसके ऊपर विधायक
उसके ऊपर मंत्री
और हम नागरिक हैं
हमारे ऊपर
हैं बीज
उसके ऊपर पौधे
उसके ऊपर बालियाँ
उसके ऊपर भक्षक
और हम ज़मीन हैं
माजून, शराबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुल्फ़ा, कक्कड़ हो
रचना बाबा नज़ीर अकबराबादी की है और कबाड़खाने में पहले भी लगाई जा चुकी है. आज एक बार फिर एक अज़ीज़ दोस्त की फरमाइश पर. आवाज़ छाया गांगुली की. -
नज़्म खासी लंबी है और छाया जी ने इसके चुनिन्दा हिस्सों को गाया है. पूरी नज़्म ये रही -
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की,
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की.
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की,
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की.
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की.
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे,
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे.
दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे,
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे.
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों, तब देख बहारें होली की.
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो,
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो.
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो,
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो.
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की॥
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवौयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत भिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के.
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के.
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की.
यह धूम मची हो होली की, और ऐश मज़े का झक्कड़ हो,
उस खींचा खींचा घसीटी पर, भड़ुए रंडी का फक़्कड़ हो.
माजून, शराबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुल्फ़ा, कक्कड़ हो,
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो.
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की.
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की.
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की,
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की.
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की.
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे,
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे.
दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे,
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे.
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों, तब देख बहारें होली की.
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो,
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो.
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो,
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो.
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की॥
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवौयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत भिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के.
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के.
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की.
यह धूम मची हो होली की, और ऐश मज़े का झक्कड़ हो,
उस खींचा खींचा घसीटी पर, भड़ुए रंडी का फक़्कड़ हो.
माजून, शराबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुल्फ़ा, कक्कड़ हो,
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो.
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की.
फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना - 3
(पिछली किस्त से आगे)
सिनेमा की टिकटों के लिए खिड़की खुलने से काफी पहले ही लम्बी क़तार लग जाया करती थी. टिकट क्लर्क सरकारी बाबुओं की तरह कुछ देर से आकर आसन ग्रहण करता और बड़े इत्मीनान से टिकटों की गड्डियों पर तीन जगह मोहर लगाता था. उस वक़्त हम पर उसका बड़ा रुआब पड़ता था. वह भी खुद को किसी तहसीलदार से कम क्या ही समझता होगा. टिकट खिड़की के छोटे से छेद से टिकटार्थियों की तीन-चार कलाइयां अंदर घुसी रहतीं. टिकट के लिए अक्सर मारपीट हो जाया करती थी. बुकिंग क्लर्क से अगर आपकी सेटिंग है तो वह आपको ऐसी जगह टिकट दे सकता था जहां बगल में लडकियां बैठी हों. टिकटों की कालाबाजारी भी हुआ करती. तब के कई टिकट ब्लैक करने वाले आज कहाँ के कहाँ हैं. सब धंधे हैं. तब उनका धंधा टिकटों की कालाबाजारी था आज जो है वह मान्यताप्राप्त है, जिसमें पैसा और इज्ज़त है.
कभी कभार सरकार को लगता कि यार यह फिल्म तो समाज को कोई सन्देश भी दे रही है, मनोरंजन के साथ साथ दुर्घटनावश ही सही. तो वह फिल्म करमुक्त कर दी जाती. मतलब कि टिकट का दाम कुछ कम. सबसे अगली क्लास का टिकट डेढ़-पौने दो रुपये का. ऐसे में हम काफी खुश होते. मशक्कत कम करनी पड़ती थी. कई बार तो सेकेण्ड क्लास का टिकट भी हमारी पहुँच में आ जाता था. उमराव जान, दूल्हा बिकता है और गांधी जैसी फ़िल्में टैक्स फ्री थीं. यूँ तो बच्चों का पिक्चर देखना बुरा माना जाता है लेकिन कभी-कभी शिक्षा विभाग के अधिकारियों और अध्यापकों को लगता था कि यह पिक्चर बच्चों को भी देखनी चाहिए. अध्यापक सर्वज्ञाता होता है और शिक्षा विभाग का अधिकारी तो त्रिकालदर्शी होता है. तो उनको जो लगता होगा ठीक ही लगता होगा. तो जब उन्हें ऐसा लगता तो वे बच्चों को सूचित कर देते. बच्चे घर से पैसे मांग लाते टिकट के मूल दाम से शायद कुछ कम. अध्यापकों के नेतृत्व में बच्चों का जुलूस सिनेमा हॉल जा पहुँचता. बच्चे अगली कतारों में बिठा दिए जाते. मास्टर लोग काफी पीछे बालकनी में. बुद्धू बच्चे जिस तरह सबसे पीछे यानी बालकनी में बैठते हैं.
कम ही लोगों को पता होगा कि पैसे अगर कम हों तो "डबलिंग" पद्धति से भी पिक्चर देखी जाती थी. आविष्कार की पैदाइश का आरोप आवश्यकता पर लगता आया है इसलिए डबलिंग की खोज हुई. डबलिंग मतलब कि एक सीट पर बैठकर दो लोग फिल्म देखते. एक के पास टिकट के पूरे पैसे दूसरे के पास लगभग आधे. एक टिकट लिया जाता, आधे पैसे गेटकीपर को बतौर सुविधाशुल्क दिए जाते कि माई-बाप हमें डबलिंग कर लेने दे. तू हमारी सीट पर एक ही आदमी को देखना. डबलिंग के लिए लाजिमी था कि दोनों दोस्त हों. अनजान आदमी के साथ यह पद्धति कारगर नहीं हो सकती थी और यह सब फटीचर क्लास में ही हो सकता था, बालकनी वगैरह में नहीं. डबलिंग के लिए अगर पैसे न हों तो खुजली मिटाने का एक और तरीका था. हॉल के बाहर दरवाज़े से कान सटाकर भीतर चल रही पिक्चर की आवाजें सुन्ना. जैसे भूखा आदमी दूर से खाना तो देखे पर खा न पाए. यह तरीका अपने को कभी पसंद नहीं आया. क्योंकि एक तो किसी भी चीज़ के लिए अपने को एक हद से नीचे गिराना ठीक नहीं, दूसरे फिल्म देखने की चीज़ है सुनने की नहीं.
(जारी)
सिनेमा की टिकटों के लिए खिड़की खुलने से काफी पहले ही लम्बी क़तार लग जाया करती थी. टिकट क्लर्क सरकारी बाबुओं की तरह कुछ देर से आकर आसन ग्रहण करता और बड़े इत्मीनान से टिकटों की गड्डियों पर तीन जगह मोहर लगाता था. उस वक़्त हम पर उसका बड़ा रुआब पड़ता था. वह भी खुद को किसी तहसीलदार से कम क्या ही समझता होगा. टिकट खिड़की के छोटे से छेद से टिकटार्थियों की तीन-चार कलाइयां अंदर घुसी रहतीं. टिकट के लिए अक्सर मारपीट हो जाया करती थी. बुकिंग क्लर्क से अगर आपकी सेटिंग है तो वह आपको ऐसी जगह टिकट दे सकता था जहां बगल में लडकियां बैठी हों. टिकटों की कालाबाजारी भी हुआ करती. तब के कई टिकट ब्लैक करने वाले आज कहाँ के कहाँ हैं. सब धंधे हैं. तब उनका धंधा टिकटों की कालाबाजारी था आज जो है वह मान्यताप्राप्त है, जिसमें पैसा और इज्ज़त है.
कभी कभार सरकार को लगता कि यार यह फिल्म तो समाज को कोई सन्देश भी दे रही है, मनोरंजन के साथ साथ दुर्घटनावश ही सही. तो वह फिल्म करमुक्त कर दी जाती. मतलब कि टिकट का दाम कुछ कम. सबसे अगली क्लास का टिकट डेढ़-पौने दो रुपये का. ऐसे में हम काफी खुश होते. मशक्कत कम करनी पड़ती थी. कई बार तो सेकेण्ड क्लास का टिकट भी हमारी पहुँच में आ जाता था. उमराव जान, दूल्हा बिकता है और गांधी जैसी फ़िल्में टैक्स फ्री थीं. यूँ तो बच्चों का पिक्चर देखना बुरा माना जाता है लेकिन कभी-कभी शिक्षा विभाग के अधिकारियों और अध्यापकों को लगता था कि यह पिक्चर बच्चों को भी देखनी चाहिए. अध्यापक सर्वज्ञाता होता है और शिक्षा विभाग का अधिकारी तो त्रिकालदर्शी होता है. तो उनको जो लगता होगा ठीक ही लगता होगा. तो जब उन्हें ऐसा लगता तो वे बच्चों को सूचित कर देते. बच्चे घर से पैसे मांग लाते टिकट के मूल दाम से शायद कुछ कम. अध्यापकों के नेतृत्व में बच्चों का जुलूस सिनेमा हॉल जा पहुँचता. बच्चे अगली कतारों में बिठा दिए जाते. मास्टर लोग काफी पीछे बालकनी में. बुद्धू बच्चे जिस तरह सबसे पीछे यानी बालकनी में बैठते हैं.
कम ही लोगों को पता होगा कि पैसे अगर कम हों तो "डबलिंग" पद्धति से भी पिक्चर देखी जाती थी. आविष्कार की पैदाइश का आरोप आवश्यकता पर लगता आया है इसलिए डबलिंग की खोज हुई. डबलिंग मतलब कि एक सीट पर बैठकर दो लोग फिल्म देखते. एक के पास टिकट के पूरे पैसे दूसरे के पास लगभग आधे. एक टिकट लिया जाता, आधे पैसे गेटकीपर को बतौर सुविधाशुल्क दिए जाते कि माई-बाप हमें डबलिंग कर लेने दे. तू हमारी सीट पर एक ही आदमी को देखना. डबलिंग के लिए लाजिमी था कि दोनों दोस्त हों. अनजान आदमी के साथ यह पद्धति कारगर नहीं हो सकती थी और यह सब फटीचर क्लास में ही हो सकता था, बालकनी वगैरह में नहीं. डबलिंग के लिए अगर पैसे न हों तो खुजली मिटाने का एक और तरीका था. हॉल के बाहर दरवाज़े से कान सटाकर भीतर चल रही पिक्चर की आवाजें सुन्ना. जैसे भूखा आदमी दूर से खाना तो देखे पर खा न पाए. यह तरीका अपने को कभी पसंद नहीं आया. क्योंकि एक तो किसी भी चीज़ के लिए अपने को एक हद से नीचे गिराना ठीक नहीं, दूसरे फिल्म देखने की चीज़ है सुनने की नहीं.
(जारी)
Tuesday, March 6, 2012
कविजन खोज रहे अमराई
अष्टभुजा शुक्ल के चंद पद प्रस्तुत हैं -
कविजन खोज रहे अमराई।
जनता मरे, मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई ॥
शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते।
और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते॥
सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी।
गेहूं के पौधे मुरझाते, हैं अधबीच जवानी॥
बचा-खुचा भी चर लेते हैं, नीलगाय के झुंड।
ऊपर से हगनी-मुतनी में, खेत बन रहे कुंड॥
कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू।
कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू॥
बाली सरक रही सपने में, है बंहोर के नीचे।
लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे॥
जागो तो सिर धुन पछताओ, हाय-हाय कर चीखो।
अष्टभुजा पद क्यों करते हो कविता करना सीखो॥
कविजन खोज रहे अमराई।
जनता मरे, मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई ॥
शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते।
और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते॥
सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी।
गेहूं के पौधे मुरझाते, हैं अधबीच जवानी॥
बचा-खुचा भी चर लेते हैं, नीलगाय के झुंड।
ऊपर से हगनी-मुतनी में, खेत बन रहे कुंड॥
कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू।
कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू॥
बाली सरक रही सपने में, है बंहोर के नीचे।
लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे॥
जागो तो सिर धुन पछताओ, हाय-हाय कर चीखो।
अष्टभुजा पद क्यों करते हो कविता करना सीखो॥
रहना नहिं देस बिराना है - पंडित जितेन्द्र अभिषेकी
पंडित जितेन्द्र अभिषेकी सुना रहे हैं कबीरदास जी का विख्यात भजन –
भाग १ -
भाग २
भाग २
फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना - २
(पिछली किस्त से जारी)
घर से भेजा जाता कि पांच लीटर मिट्टी का तेल ले आओ. तेल साढ़े चार ही लीटर लाया जाता. ढाई रूपये की बचत - पिक्चर का जुगाड. सबसे सस्ती क्लास का टिकट और मध्यांतर में चार आने की चीज़. उन्हीं दिनों एक तथाकथित अनुभवी ने बताया कि पिक्चर दूर से अच्छी दिखती है और रामलीला नज़दीक से. पर दूर यानी बालकनी से देखते कैसे? वह तो हमारे लिए दिल्ली से भी ज्यादा दूर थी. छुटभय्ये राजनेता के लिए जिस तरह विधानसभा संसद होती है वैसी ही हमारे लिए बालकनी और सेकेण्ड क्लास थे. यह दूर-नज़दीक वाली तो उसकी बात खैर ठीक थी, मगर इसके साथ ही उसने एक बड़ी जोर की गप्प हांकी जो उस वक़्त हमारी कनपटियों में खून बजा देने के लिए काफी थी. गप सुनिए - बाथरूम में मुसलमान औरतें नंगी होकर नहाती हैं. उस वक़्त दिमाग ने नंगी शब्द के अलावा कुछ नहीं सोचा.
एक बार पिताजी ने किएसी बात पर नाराज़ होकर पहले तो मुझे पीटा फिर मेरी कापी-किताबें और लत्ते-कपडे आंगन में फेंक दी कि जा निकल जा घर से. उस सामान में मेरा मिट्टी का गुल्लक भी था, जिसने आँगन को सिक्कों से पाट दिया. प्राथमिकता के आधार पर मैंने सिक्के बीने. सिक्कों ने मुठ्ठियाँ तानकर बावाज-ए-बुलंद कहा - हम एक हैं और कुल जमा छः रुपए हैं. उस समय इतने हीरे-जवाहरात. मैं किस मुगल वली अहद से कम था? निकल गया घर से. जाकर एक दूकान में फुल प्लेट छोले के साथ दो बन खाकर चाय पी. फटीचर क्लास का टिकट लेकर पिक्चर देखी और हाफ टाइम में भी कुछ खाया. मौजां ही मौजां.
एक दिन क्लास के कुछ लड़के हेड मास्साब से इसलिए पिट रहे थे कि वे पिछले दिन स्कूल न आकर पिक्चर चले गए थे. बात न जाने कैसे लीक हो गयी. लड़कों ने हालांकि काफी बचाव किया. किसी ने कहा कि मास्साब मेरे घर में पूजा थी इसलिए नहीं आया. दूसरे ने कहा - मैं जीजाजी के साथ चितई गया था. एक ने कहा - मेरी ईजा को छूत हो गयी थी मुझे खाना पकाने में देर हो गयी थी. मास्साब पर कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने सुताई जारी रखी - सालो घर से आते हो स्कूल और जाते हो पिक्चर. पिक्चर देख के बनेगा तेरा भविष्य? अच्छा बताओ कौन सी पिक्चर देखी? बता रे तू बता? एक ने बक दिया - जी, सुहागन. बगल में ही प्राइमरी स्कूक की अध्यापिकाएं थीं. मास्साब उनमें से ज़्यादातर से खार खाए रहते थे. एक अध्यापिका से खासकर जो उम्र हो जाने के बावजूद अविवाहित थी. मास्साब के मुताबिक उनके चिडचिडेपन का कारण अविवाहित होना था. अच्छा मौका था उदगार व्यक्त करने का. आए-हाए सुहागन. किसे कहते हैं सुहागन जानते हो, किसी होती है? ऐसे ही हो जाते हैं सुहागन, इतनी अकड के साथ. शादी बाप नहीं करता, गुस्सा और नखरा हमसे. टांग तोड़ दूंगा सालो जो फिर स्कूल से भाग कर पिक्चर गए तो.
(जारी)
Monday, March 5, 2012
दास मलूका बने बिजूका, मन-ही-मन मुस्कावें
राग बिलावल गाओ
दिनेश कुमार शुक्ल
गोदा-गादी, चील-बिलउवा
लिखो और मुस्काओ
सीधी-सीधी बातों में भी
अरथ अबूझ बताओ
बड़े गुनीजन बनो खेलावन
मार झपट्टा लाओ
जिसे किसी ने कभी न गाया
राग बिलावल गाओ
पकनी फुटनी काया लेकर
धरा धाम पर आये
जब देखी सुन्दर अमराई
मन-ही-मन गदराये
काचे-पाके झोरि गिराये
सुग्गा एक न पाये
बुरा न मानो रामखेलावन
करनी के फल खाओ
बात पित्त में कफ में सानी
बानी ज्ञानी गाओ
राग बिलावल गाओ
दास मलूका बने बिजूका
मन-ही-मन मुस्कावें
चिड़िया चुनगुन आवें जावें
दाना चुग्गा पावें
कौन मलूका की ये खेती
जो वो हाँकें कउवा
तुम्हें पड़ी हो तो तुम जाओ
अपनी फसल बचाओ
राग बिलावल गाओ
लाँघो अपनी देहरी दुनिया
लाँघो सात समुन्दर
अपने चप्पू आप चलाओ बूड़ो या तर जाओ
कविता के भौफन्द फँसे हो
उलझी को सुलझाओ
झिटिक फिटिक कर जाल तोड़कर
गगन सात मँडलाओ
राग बिलावल गाओ
वो थोड़ा-सा मुस्का देती
तो भादौं आ जाता
ये कीचड़ वाला पोखर भी
ऊपर तक भर जाता
लहर-लहर लहराता पानी
सबकी प्यास बुझाता
लेकिन थूथन हिला हिला कर
भैंस खड़ी पगुराये
ज्ञानी से अच्छा अज्ञानी
फिर भी बीन बजाये
बना पोटली सत्तू धनियाँ
काँधे में लटकाओ
बूढ़ बसन्त तरुन भये धावल
(छिमा करो हे विद्यापति कवि)
राग बिलावल गाओ
लिखो और मुस्काओ
सीधी-सीधी बातों में भी
अरथ अबूझ बताओ
बड़े गुनीजन बनो खेलावन
मार झपट्टा लाओ
जिसे किसी ने कभी न गाया
राग बिलावल गाओ
पकनी फुटनी काया लेकर
धरा धाम पर आये
जब देखी सुन्दर अमराई
मन-ही-मन गदराये
काचे-पाके झोरि गिराये
सुग्गा एक न पाये
बुरा न मानो रामखेलावन
करनी के फल खाओ
बात पित्त में कफ में सानी
बानी ज्ञानी गाओ
राग बिलावल गाओ
दास मलूका बने बिजूका
मन-ही-मन मुस्कावें
चिड़िया चुनगुन आवें जावें
दाना चुग्गा पावें
कौन मलूका की ये खेती
जो वो हाँकें कउवा
तुम्हें पड़ी हो तो तुम जाओ
अपनी फसल बचाओ
राग बिलावल गाओ
लाँघो अपनी देहरी दुनिया
लाँघो सात समुन्दर
अपने चप्पू आप चलाओ बूड़ो या तर जाओ
कविता के भौफन्द फँसे हो
उलझी को सुलझाओ
झिटिक फिटिक कर जाल तोड़कर
गगन सात मँडलाओ
राग बिलावल गाओ
वो थोड़ा-सा मुस्का देती
तो भादौं आ जाता
ये कीचड़ वाला पोखर भी
ऊपर तक भर जाता
लहर-लहर लहराता पानी
सबकी प्यास बुझाता
लेकिन थूथन हिला हिला कर
भैंस खड़ी पगुराये
ज्ञानी से अच्छा अज्ञानी
फिर भी बीन बजाये
बना पोटली सत्तू धनियाँ
काँधे में लटकाओ
बूढ़ बसन्त तरुन भये धावल
(छिमा करो हे विद्यापति कवि)
राग बिलावल गाओ
अमरीका में कबीर - प्रहलादसिंह टिपाणिया
अमरीकी मूल की लिंडा हेस पिछले कई सालों से देश-विदेश में कबीरदास जी की अमर वाणी के प्रचार-प्रसार में जिस उत्साह से लगी हुई हैं, उसे देख कर कई बार प्रसन्नता-मिश्रित ईर्ष्या होती है. कुछ साल पहले मालवा के पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपाणिया जी उनके साथ अमरीका गए थे. उस यात्रा में कई शहरों में टिपाणिया जी ने अपनी प्रस्तुतियाँ दी थीं. उन्हीं में से एक आज आप के वास्ते –
Subscribe to:
Posts (Atom)