Tuesday, May 31, 2011
एक और अफ़्रीकी धुन - जंगली फ़ामाता
अली फ़र्का तूरे के संगीत की सीरीज़ में इस बार की अन्तिम पेशकश. इस रचना को १९९९ में जारी अली के अल्बम "नियाफ़न्के" से लिया गया है.
(तस्वीर: अली फ़र्का तूरे का परिवार.)
अली फ़र्क़ा तूरे और तूमानी दीयाबाते की जुगलबन्दी
अली फ़र्क़ा तूरे ने एक साक्षात्कार में कहा था: "संगीत मेरे लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना चावल. जहां संगीत नहीं होगा आप निश्चित कह सकते हैं कि वहां न अच्छा स्वास्थ्य होगा, न प्रेम, न प्रेरणा न इच्छा." अली के लिए संगीत वह महत्तम मूल्य है जिसकी सान पर किसी भी समाज के आपसी सद्भाव को परखा जा सकता है. इसी वजह से उन्होंने अपने अफ़्रीकी महाद्वीप की धुनों को जहां तक सम्भव था फैलाया.
पश्चिमी अफ़्रीकी मुल्कों में कोरा नामक एक वाद्य यन्त्र प्रचलित है. इक्कीस तारों वाला हार्प परिवार से सम्बन्ध रखने वाले इस यन्त्र को बजाने में महारत रखते हैं माली के ही संगीतकार तूमानी दीयाबाते. इनके साथ मिलकर अली फ़र्क़ा तूरे ने कुल तीन अल्बम रिलीज़ किए.
२००५ के उनके अल्बम "इन द हार्ट ऑफ़ द मून" से सुनिए एक पीस -
गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ का परिवार - 5
और दोस्त! तुम्हारे जीवन में उनकी क्या भूमिका है? तुमने अपनी शुरूआती दोस्तियां अभी तक बचा रखी हैं या नहीं?
मेरे कुछ दोस्त रास्ते में छूट गये पर जो सबसे अहम थे वे तमाम ऊंच-नीच के बावजूद बने रहे. यह कोई दुर्घटना नहीं है. पूरी जि़न्दगी मैंने अपनी दोस्तियों की देखरेख की है. जैसा कि मैंने कई साक्षात्कारों में कहा है - वे मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है. मैं इस बात को कभी नहीं भूला हूं और न भूलूंगा कि मैं आराकाटाका के एक टेलीग्राफ़ आपरेटर के सोलह बच्चों में से एक से अधिक कुछ न तो हूं न होऊंगा. पिछले पंद्रह वर्षों से, जब से ख्याति मुझ पर बिना बुलाए, अनचाही आई है, मेरे लिये सबसे मुश्किल कार्य अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी को बचाए रखना रहा है. हालांकि अब यह अधिक सीमित है और ‘वल्नरेबल’ भी पर मैं इसमें पर्याप्त जगह उस चीज के लिये बनाए रख पाया हूं जो मेरे लिये सबसे बेशकीमती है - मेरे बच्चों और मित्रों का प्यार. मैं बहुत यात्राएं करता हूं और अक्सर यात्राओं का मुख्य कारण मित्रों से मिलना होता है. असली में वे बहुत नहीं है पर मैं ख़ुद मैं तभी हो सकता हूं जब मैं उनके साथ होता हूं. हम हमेशा समूह में मिलते हैं, एक बार में छः से ज्यादा नहीं और बेहतर तब होता है जब हम चार ही हों. सबसे अच्छा तब होता है जब इस समूह को मैं चुनता हूं क्योंकि उन दोस्तों को चुनना मुझे अच्छी तरह आता है जो एक दूसरे के साथ अच्छे से रह पाएंगे ताकि कोई तनावपूर्ण स्थिति पैदा न हो. यह सब करने में बहुत समय लगता है पर मैं हमेशा इसके लिये समय निकाल लेता हूं क्योंकि ऐसा करना जरूरी होता है. जहां तक उन चंद दोस्तों का सवाल है जिन्हें मैंने रास्ते में गंवा दिया, उसके पीछे एक ही कारण रहा हैः उन्होंने यह नहीं समझा कि मेरी स्थिति बहुत मुश्किल है और उसमें गलत समझे जाने का खतरा बना रहता है जो कि अस्थाई तौर पर पुराने दोस्तों को प्रभावित कर सकता है. अगर कोई दोस्त इस बात को नहीं समझता है तो दोस्ती हमेशा के लिए खत्म हो जाती है चाहे उससे मुझे कितना ही कष्ट क्यों न पहुंचे. जो दोस्त समझता ही नहीं वह उतना अच्छा दोस्त नहीं था जैसा मैंने सोचा था. मैं दोस्ती में ज्यादा फ़र्क नहीं करता पर मुझे लगता है कि पुरुषों के बनिस्बत मुझे स्त्रियों के साथ बेहतर लगता है, तो भी मैं ख़ुद को अपने दोस्तों का सबसे अच्छा दोस्त मानता हूं और विश्वास करता हूं उनमें से कोई भी मुझे उतना प्यार नहीं कर सकता जितना मैं उसे करता हूं जिसके लिये मेरे भीतर सबसे कम प्यार है.
तुम्हारे बच्चों के साथ तुम्हारा अद्भुत संबंध है? क्या तुम्हारे पास कोई फ़ार्मूला है?
जैसा तुमने कहा, मेरे बच्चों के साथ मेरा संबंध आश्चर्यजनक रूप से अच्छा है, और उसी कारण दोस्तों के साथ भी. हालांकि ऐसे क्षण आये थे जब मैं थका; निचुड़ा हुआ, चिड़चिड़ा और बाकी चीज़ों में व्यस्त था. शुरूआत से ही अपने बच्चों के लिये मेरे पास हमेशा समय होता था. उनके साथ होने, उनके साथ बातचीत करने का समय. जब से बच्चों ने होश संभाला है हमने घर की समस्याओं पर मिल-जुल कर बात की है. हम चार जन ने हर चीज मिल कर जुटाई है. मैं ऐसा इसलिये नहीं करता कि मैं किसी सिस्टम का अनुसरण कर रहा हूं या इसलिये कि मुझे लगता है यह बेहतर तरीका है, बल्कि इसलिये कि शुरू में ही जब मेरे बच्चे बड़े हो रहे थे मुझे ज्ञान हुआ कि पितृत्व के लिये मेरे भीतर रुचि थी. पिता होने में मुझे आनंद आता हैः अपने दो बच्चों को बड़ा होने में सहायता करना मेरे जीवन का सबसे उत्तेजनापूर्ण अनुभव रहा है और मैं वास्तव में यह समझता हूं कि मेरे बच्चे, न कि मेरी किताबें, मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि हैं. वे हमारे लिये दोस्तों की तरह हैं, पर ऐसे दोस्त जिन्हें हमने खुद पाला-पोसा है.
(समाप्त)
हबीब जालिब का एक नायाब वीडियो
मशहूर शायर स्व. हबीब जालिब का यह नायाब वीडियो आशुतोष उपाध्याय के सौजन्य से मिला है. इस में उन का एक छोटा सा इंटरव्यू है और उन का कवितापाठ भी.
वीडियो में एकाध जगह थोड़ी सी खरखराहट है. लेकिन उस से तंग न होइएगा.
यह वीडियो थोडा लम्बा है. इसी के एक टुकड़े में हबीब साहब अपनी ख्यात नज़्म "मैंने उस से ये कहा" का पाठ करते हैं. उस ख़ास हिस्से के लिए नीचे वाला वीडियो देख सकते हैं. अगर समय कम हो. तो.
आवोगाद्रोज़ नम्बर, बिल ब्राइसन और एक फ़ुटनोट
बिल ब्राइसन की किताब 'अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ नियरली ऐवरी थिंग' का लुत्फ़ किसी चस्के की तरह लूटने में लगा हूँ. आप के वास्ते एक फुट नोट. और एक सलाह कि अगर आपका कोई परिचित/बच्चा विज्ञान से घबराता है तो उसे इस किताब को पढ़ने को अवश्य कहें. -
... The principle led to the much later adoption of Avogadro's number, a basic unit of measure in chemistry, which was named for Avogadro long after his death. It is the number of molecules found in 2.016 grams of hydrogen gas (or an equal volume of any other gas). Its value is placed at 6.0221367 x 1023, which is an enormously large number. Chemistry students have long amused themselves by computing just how large a number it is, so I can report that it is equivalent to the number of popcorn kernels needed to cover the United States to a depth of nine miles, or cupfuls of water in the Pacific Ocean, or soft drink cans that would, evenly stacked, cover the Earth to a depth of 200 miles. An equivalent number of American pennies would be enough to make every person on Earth a dollar trillionaire. It is a big number ...
किताब की पीडीएफ़ फ़्री में यहां से डाउनलोड कर सकते हैं - A Short History of Nearly Everything
गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ का परिवार - ४
(पिछली पोस्ट से आगे)
तुम्हारे सारे दोस्तों को तुम्हारे जीवन में मेरसेदेज़ की भूमिका के बारे में पता है. मुझे बताओ तुम्हारी मुलाकात कहां हुई, तुम्हारी शादी कैसे हुई और ख़ास तौर पर यह कि तुम यह दुर्लभ काम - एक सफल विवाह कैसे कर सके?
मेरसेदेज़ से मेरी मुलाकात सुक्रे में हुई, जो कैरीबियाई तट के बस भीतरी इलाक़े का एक क़स्बा है जहां हम दोनों के परिवारों ने कई साल बिताये थे और जहां हम दोनों अपनी छुट्टियों में जाया करते थे. उसके पिता और मेरे पिता लड़कपन के दोस्त थे. एक दिन, ‘स्टूडेंट्स डांस’ के दौरान, जब वह केवल तेरह की थी, मैंने उससे शादी करने का प्रस्ताव किया. अब मुझे लगता है कि वह प्रस्ताव एक तरह से ऐसा था कि सारे पचड़े खत्म किये जाएं और उस संघर्ष से बचा जाये जो उन दिनों एक गर्लफ्रैंड ढूंढ़ने के लिये करना पड़ता था. उसने उसे ऐसा ही समझा होगा क्योंकि हमारी मुलाकातें कभी-कभार होती थीं और बेहद हल्की-फुल्की, लेकिन मेरे ख़्याल से हम दोनों में से किसी को भी इस बात का संदेह नहीं था कि सब कुछ एक दिन वास्तविकता बन जाएगा. वास्तव में यह कहानी, बिना किसी सगाई वगैरह के, दस वर्ष बाद असलियत बनी. बिना जल्दीबाज़ी और हड़बड़ी के हम सिर्फ दो लोग थे जो अंततः उस निश्चित घटना का इंतज़ार कर रहे थे. हमारे विवाह के पच्चीस साल होने को हैं और हमारा कोई भी गंभीर विवाद नहीं हुआ है. मैं समझता हूं कि इसका रहस्य यह है कि हम चीज़ों को अब भी उसी तरह देखते हैं जैसे शादी से पहले देखा करते थे. विवाह, जीवन की ही तरह अविश्वसनीय रूप से मुश्किल होता है क्योंकि आप को हर रोज़ नये सिरे से शुरूआत करनी होती है और ऐसा जि़न्दगी भर किये जाना होता होता है. यह एक सतत और अक्सर क्लांत कर देने वाला युद्ध होता है, पर अंततः उसके लायक भी. मेरे एक उपन्यास का एक पात्र इस बात को अधिक कच्चे शब्दों में यूं कहता हैः "प्यार एक ऐसी चीज़ है जिसे आप सीखते हैं."
क्या मेरसेदेज़ ने तुम्हारे किसी चरित्र की रचना को प्रेरित किया है?
मेरे किसी भी उपन्यास का कोई भी पात्र मेरसेदेज़ जैसा नहीं है. वह ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑ सॉलीट्यूड’ में अपने ही रूप में अपने ही नाम के साथ एक कैमिस्ट के बतौर दो बार आती है और उसी तरह वह दो दफ़े ‘क्रोनिकल ऑफ़ ए डैथ फ़ोरटोल्ड’ में भी आती है, मैं उसका बहुत अधिक साहित्यिक इस्तेमाल नहीं कर पाया हूं - इसके पीछे एक ऐसा कारण है जो बहुत काल्पनिक लग सकता है पर है नहीं - मैं अब उसे इतनी अच्छी तरह जानता हूं कि मुझे जरा भी गुमान नहीं कि वास्तव में वह कैसी है?
(अगली किस्त में समाप्य)
तुम्हारे सारे दोस्तों को तुम्हारे जीवन में मेरसेदेज़ की भूमिका के बारे में पता है. मुझे बताओ तुम्हारी मुलाकात कहां हुई, तुम्हारी शादी कैसे हुई और ख़ास तौर पर यह कि तुम यह दुर्लभ काम - एक सफल विवाह कैसे कर सके?
मेरसेदेज़ से मेरी मुलाकात सुक्रे में हुई, जो कैरीबियाई तट के बस भीतरी इलाक़े का एक क़स्बा है जहां हम दोनों के परिवारों ने कई साल बिताये थे और जहां हम दोनों अपनी छुट्टियों में जाया करते थे. उसके पिता और मेरे पिता लड़कपन के दोस्त थे. एक दिन, ‘स्टूडेंट्स डांस’ के दौरान, जब वह केवल तेरह की थी, मैंने उससे शादी करने का प्रस्ताव किया. अब मुझे लगता है कि वह प्रस्ताव एक तरह से ऐसा था कि सारे पचड़े खत्म किये जाएं और उस संघर्ष से बचा जाये जो उन दिनों एक गर्लफ्रैंड ढूंढ़ने के लिये करना पड़ता था. उसने उसे ऐसा ही समझा होगा क्योंकि हमारी मुलाकातें कभी-कभार होती थीं और बेहद हल्की-फुल्की, लेकिन मेरे ख़्याल से हम दोनों में से किसी को भी इस बात का संदेह नहीं था कि सब कुछ एक दिन वास्तविकता बन जाएगा. वास्तव में यह कहानी, बिना किसी सगाई वगैरह के, दस वर्ष बाद असलियत बनी. बिना जल्दीबाज़ी और हड़बड़ी के हम सिर्फ दो लोग थे जो अंततः उस निश्चित घटना का इंतज़ार कर रहे थे. हमारे विवाह के पच्चीस साल होने को हैं और हमारा कोई भी गंभीर विवाद नहीं हुआ है. मैं समझता हूं कि इसका रहस्य यह है कि हम चीज़ों को अब भी उसी तरह देखते हैं जैसे शादी से पहले देखा करते थे. विवाह, जीवन की ही तरह अविश्वसनीय रूप से मुश्किल होता है क्योंकि आप को हर रोज़ नये सिरे से शुरूआत करनी होती है और ऐसा जि़न्दगी भर किये जाना होता होता है. यह एक सतत और अक्सर क्लांत कर देने वाला युद्ध होता है, पर अंततः उसके लायक भी. मेरे एक उपन्यास का एक पात्र इस बात को अधिक कच्चे शब्दों में यूं कहता हैः "प्यार एक ऐसी चीज़ है जिसे आप सीखते हैं."
क्या मेरसेदेज़ ने तुम्हारे किसी चरित्र की रचना को प्रेरित किया है?
मेरे किसी भी उपन्यास का कोई भी पात्र मेरसेदेज़ जैसा नहीं है. वह ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑ सॉलीट्यूड’ में अपने ही रूप में अपने ही नाम के साथ एक कैमिस्ट के बतौर दो बार आती है और उसी तरह वह दो दफ़े ‘क्रोनिकल ऑफ़ ए डैथ फ़ोरटोल्ड’ में भी आती है, मैं उसका बहुत अधिक साहित्यिक इस्तेमाल नहीं कर पाया हूं - इसके पीछे एक ऐसा कारण है जो बहुत काल्पनिक लग सकता है पर है नहीं - मैं अब उसे इतनी अच्छी तरह जानता हूं कि मुझे जरा भी गुमान नहीं कि वास्तव में वह कैसी है?
(अगली किस्त में समाप्य)
चित्रकार का संसार अच्छा होता है
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त की कविता
जब ईश्वर ने संसार बनाया
उसने शिकन डाली अपनी भौंहों पर
हिसाब लगाया हिसाब लगाया हिसाब लगाया
यही वजह है कि दुनिया निर्दोष है
और रहने लायक नहीं
इसके बजाय चित्रकार का संसार
अच्छा होता है
ग़लतियों से भरा हुआ
आंख जाती है
एक रंग से दूसरे तक
एक फल से दूसरे तक
बुदबुदाती है आंख
आंख मुस्कराती है
याद रखती है
आंख कहती है इसे सहा जा सकता है
अगर इसके भीतर
जाया जा सकता तो
जहां चित्रकार था
बिना पंखों के
खटारा चप्पलों में
"वर्जिल" के बिना
जेब में धरे बिल्ली
एक दयालु फ़न्तासी
और एक हाथ
जो बिना जाने
सही बनाता है दुनिया को.
जब ईश्वर ने संसार बनाया
उसने शिकन डाली अपनी भौंहों पर
हिसाब लगाया हिसाब लगाया हिसाब लगाया
यही वजह है कि दुनिया निर्दोष है
और रहने लायक नहीं
इसके बजाय चित्रकार का संसार
अच्छा होता है
ग़लतियों से भरा हुआ
आंख जाती है
एक रंग से दूसरे तक
एक फल से दूसरे तक
बुदबुदाती है आंख
आंख मुस्कराती है
याद रखती है
आंख कहती है इसे सहा जा सकता है
अगर इसके भीतर
जाया जा सकता तो
जहां चित्रकार था
बिना पंखों के
खटारा चप्पलों में
"वर्जिल" के बिना
जेब में धरे बिल्ली
एक दयालु फ़न्तासी
और एक हाथ
जो बिना जाने
सही बनाता है दुनिया को.
Monday, May 30, 2011
अली फ़र्का तूरे की रचना टॉकिंग टिम्बकटू
यह रचना १९९५ में ग्रैमी अवार्ड से नवाज़े गए अली फ़र्का तूरे के अल्बम टॉकिंग टिम्बकटू से ली गई है. अमेरिकी ब्लूज़ के उसके मूल स्रोत यानी अफ़्रीकी ब्लूज़ के साथ सम्बन्ध को रेखांकित करती यह रचना अपने समय में बहुत लोकप्रिय हुई थी. अली फ़र्का तूरे की और रचनाएं आपको यहां और सुनने को मिलती रहेंगी -
गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ का परिवार - ३
(पिछली पोस्ट से आगे)
तुम्हारा कौन सा स्त्री-पात्र उन जैसा है?
‘क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फोरटोल्ड’ तक मेरा कोई भी पात्र उन पर आधारित नहीं था. ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलिड्यूड’ की उर्सुला इगुआरान में उनके चरित्र के कुछ हिस्से हैं पर उर्सुला और भी कई स्त्रियों से बनी हैं जिन्हें मैंने जाना है. सच तो यह है कि उर्सुला मेरे लिये इस लिहाज़ से एक आदर्श स्त्री है कि उसमें वे सारी बातें हैं जो मेरे हिसाब से एक स्त्री में होनी चाहिये. आश्चर्य की बात यह है कि इसका बिल्कुल विपरीत सच है. जैसे-जैसे मेरी मां बूढ़ी होती जा रही हैं वे उर्सुला की उस विराट छवि जैसी बनती जा रही हैं और उनका व्यक्तित्व उसी दिशा में बढ़ रहा है. इस कारण ‘क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फोरटोल्ड’ में उनका प्रकट होना उर्सुला के पात्र का दोहराव लग सकता है पर ऐसा नहीं है. यह पात्र मेरी मां की मेरी इमेज का ईमानदार चित्र है और इसीलिये उसका नाम भी वही है. उस पात्र के बारे में उन्होंने एक ही बात कही जब उन्होंने देखा कि मैंने उनका दूसरा नाम, सांटियागा, इस्तेमाल किया है. "हे ईश्वर" वे बोलीं "मैंने पूरी जि़न्दगी इस भयानक नाम को छिपाने की कोशिश में बिताई है और अब यह सारी दुनिया में तमाम भाषाओं में फैल जाएगा."
तुम कभी भी अपने पिता के बारे में बात नहीं करते. उनकी क्या स्मृतियां हैं तुम्हारे पास? अब तुम उन्हें कैसे देखते हो?
जब मैं तैंतीस साल का हुआ तो मुझे अचानक अहसास हुआ कि मेरे पिताजी भी इतने ही सालों के थे जब मैंने उन्हें अपने नाना-नानी के घर में पहली बार देखा था. मुझे यह बात अच्छी तरह याद है क्योंकि उस दिन उनका जन्मदिन था और किसी ने उनसे कहा, "अब तुम्हारे उम्र ईसामसीह जितनी हो गई है." सफ़ेद ड्रिल सूट और स्ट्रा बोटर पहने हुए वे छरहरे, गहरी रंगत वाले एक बुद्धिमान और दोस्ताना व्यक्ति थे. तीस के दशक के एक आदर्श कैरिबियाई ‘जैन्टलमैन’. मजे़ की बात यह है कि हालांकि अब वे अस्सी के हैं और काफी ठीकठाक हालत में हैं, मैं अब भी उन्हें वैसा नहीं देखता जैसे वे अब हैं बल्कि वे हमेशा मुझे वैसे ही दिखते हैं जैसा उन्हें मैंने पहली बार अपने नाना जी के घर में देखा था. हाल ही में उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा था कि मैं सोचता था कि मैं शायद उन मुर्गियों में से था जो बिना किसी भी मुर्गे की मदद से पैदा हो जाती हैं. उन्होंने यह बात मज़ाक में कही थी. उनका परिष्कृत ‘ह्यूमर’ शायद थोड़ी सी उलाहना से भी भरा था क्योंकि मैं हमेशा अपनी मां के साथ अपने संबंधों के बारे में बात करता हूं - उनके साथ कभी-कभार ही. वे सही भी हैं. लेकिन मैं उनके बारे में बात इसलिये नहीं करता क्योंकि असल में मैं उन्हें जानता ही नहीं, कम से कम उतना तो नहीं जानता जितना मां को जानता हूं. ऐसा अब जाकर हुआ है जब हम दोनों करीब-करीब एक ही उम्र के हैं (जैसा मैं कभी-कभी उनसे कहता भी हूं) कि हमारे बीच शांत समझदारी का एक बिंदु आया है. मैं इसके बारे में बता सकता हूं शायद. जब आठ की उम्र में मैं अपने माता-पिता के साथ रहने गया था मेरे भीतर पहले ही से पिता की एक मजबूत छवि बन चुकी थी - मेरे नानाजी की, न सिर्फ़ मेरे पिता मेरे नानाजी जैसे नहीं थे वे उनके बिल्कुल उलटे थे. उनका व्यक्तित्व, अधिकार के बारे में उनके विचार और बच्चों के साथ उनका संबंध - सब कुछ बिल्कुल भिन्न था. यह बिल्कुल मुमकिन है कि उस उम्र में मैं अचानक आये उस परिवर्तन से प्रभावित हुआ होऊं और इसी कारण किशोरावस्था तक मुझे अपना संबंध उनके साथ बहुत मुश्किल लगने लगा हो. मुख्यतः ग़लती मेरी थी. उनके साथ कैसे व्यवहार किया जाये मुझे निश्चित कभी पता नहीं होता था. मुझे नहीं पता था उन्हें ख़ुश कैसे किया जाय और उनके कठोर स्वभाव को मैंने ग़लती से समझदारी की कमी समझ लिया था. इसके बावजूद मेरे विचार से हमने इस संबंध को ठीक-ठाक निभा लिया क्योंकि हमारे बीच कोई गंभीर झगड़ा कभी नहीं हुआ.
दूसरी तरफ़, साहित्य के प्रति मेरी रुचि के लिए मैं बहुत सीमा तक उनका आभारी हूं. अपनी युवावस्था में वे कविताएं लिखा करते थे, और हमेशा छुप कर नहीं; और जब आराकाटाका में टेलीग्राफ़ आपरेटर थे वे वायलिन बजाया करते थे. उन्हें साहित्य सदा पसंद आया है और वे बढि़या पाठक हैं. जब हम उनके घर जाते हैं हमें कभी नहीं पूछना होता कि वे कहां होंगे क्योंकि हमें पता होता है कि वे अपने शयनकक्ष में कोई किताब पढ़ रहे होंगे. उस पागल घर में वही इकलौती शांत जगह है. आपको कभी पक्का पता नहीं होता कि खाने पर कितने लोग होंगे क्योंकि वहां अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त असंख्य बच्चों, पोते-पोतियों, भतीजे-भतीजियों की बढ़ती-घटती जनसंख्या का आवागमन लगा रहता है. पिताजी को जो मिलता है, उसे पढ़ते हैं - श्रेष्ठ साहित्य, अख़बार-पत्रिकाएं, विज्ञापनों के हैण्डआउट, रेफ़्रीजरेटर की मैनुअल - कुछ भी. मुझे और कोई नहीं मिला जिसे साहित्य के कीड़े ने इस कदर काटा हो. बाक़ी की बातों के हिसाब से देखें तो उन्होंने अल्कोहल की एक बूंद नहीं पी, न सिगरेट पी लेकिन उनके सोलह वैध बच्चे हुए और भगवान जाने कितने और. आज भी वे मेरी जानकारी में सबसे फु़र्तीले और स्वस्थ अस्सी वर्षीय व्यक्ति हैं और ऐसा लगता नहीं कि उनका तौर-तरीक़ा बदलेगा - बल्कि ठीक उल्टा ही सच है.
(जारी)
तुम्हारा कौन सा स्त्री-पात्र उन जैसा है?
‘क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फोरटोल्ड’ तक मेरा कोई भी पात्र उन पर आधारित नहीं था. ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलिड्यूड’ की उर्सुला इगुआरान में उनके चरित्र के कुछ हिस्से हैं पर उर्सुला और भी कई स्त्रियों से बनी हैं जिन्हें मैंने जाना है. सच तो यह है कि उर्सुला मेरे लिये इस लिहाज़ से एक आदर्श स्त्री है कि उसमें वे सारी बातें हैं जो मेरे हिसाब से एक स्त्री में होनी चाहिये. आश्चर्य की बात यह है कि इसका बिल्कुल विपरीत सच है. जैसे-जैसे मेरी मां बूढ़ी होती जा रही हैं वे उर्सुला की उस विराट छवि जैसी बनती जा रही हैं और उनका व्यक्तित्व उसी दिशा में बढ़ रहा है. इस कारण ‘क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फोरटोल्ड’ में उनका प्रकट होना उर्सुला के पात्र का दोहराव लग सकता है पर ऐसा नहीं है. यह पात्र मेरी मां की मेरी इमेज का ईमानदार चित्र है और इसीलिये उसका नाम भी वही है. उस पात्र के बारे में उन्होंने एक ही बात कही जब उन्होंने देखा कि मैंने उनका दूसरा नाम, सांटियागा, इस्तेमाल किया है. "हे ईश्वर" वे बोलीं "मैंने पूरी जि़न्दगी इस भयानक नाम को छिपाने की कोशिश में बिताई है और अब यह सारी दुनिया में तमाम भाषाओं में फैल जाएगा."
तुम कभी भी अपने पिता के बारे में बात नहीं करते. उनकी क्या स्मृतियां हैं तुम्हारे पास? अब तुम उन्हें कैसे देखते हो?
जब मैं तैंतीस साल का हुआ तो मुझे अचानक अहसास हुआ कि मेरे पिताजी भी इतने ही सालों के थे जब मैंने उन्हें अपने नाना-नानी के घर में पहली बार देखा था. मुझे यह बात अच्छी तरह याद है क्योंकि उस दिन उनका जन्मदिन था और किसी ने उनसे कहा, "अब तुम्हारे उम्र ईसामसीह जितनी हो गई है." सफ़ेद ड्रिल सूट और स्ट्रा बोटर पहने हुए वे छरहरे, गहरी रंगत वाले एक बुद्धिमान और दोस्ताना व्यक्ति थे. तीस के दशक के एक आदर्श कैरिबियाई ‘जैन्टलमैन’. मजे़ की बात यह है कि हालांकि अब वे अस्सी के हैं और काफी ठीकठाक हालत में हैं, मैं अब भी उन्हें वैसा नहीं देखता जैसे वे अब हैं बल्कि वे हमेशा मुझे वैसे ही दिखते हैं जैसा उन्हें मैंने पहली बार अपने नाना जी के घर में देखा था. हाल ही में उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा था कि मैं सोचता था कि मैं शायद उन मुर्गियों में से था जो बिना किसी भी मुर्गे की मदद से पैदा हो जाती हैं. उन्होंने यह बात मज़ाक में कही थी. उनका परिष्कृत ‘ह्यूमर’ शायद थोड़ी सी उलाहना से भी भरा था क्योंकि मैं हमेशा अपनी मां के साथ अपने संबंधों के बारे में बात करता हूं - उनके साथ कभी-कभार ही. वे सही भी हैं. लेकिन मैं उनके बारे में बात इसलिये नहीं करता क्योंकि असल में मैं उन्हें जानता ही नहीं, कम से कम उतना तो नहीं जानता जितना मां को जानता हूं. ऐसा अब जाकर हुआ है जब हम दोनों करीब-करीब एक ही उम्र के हैं (जैसा मैं कभी-कभी उनसे कहता भी हूं) कि हमारे बीच शांत समझदारी का एक बिंदु आया है. मैं इसके बारे में बता सकता हूं शायद. जब आठ की उम्र में मैं अपने माता-पिता के साथ रहने गया था मेरे भीतर पहले ही से पिता की एक मजबूत छवि बन चुकी थी - मेरे नानाजी की, न सिर्फ़ मेरे पिता मेरे नानाजी जैसे नहीं थे वे उनके बिल्कुल उलटे थे. उनका व्यक्तित्व, अधिकार के बारे में उनके विचार और बच्चों के साथ उनका संबंध - सब कुछ बिल्कुल भिन्न था. यह बिल्कुल मुमकिन है कि उस उम्र में मैं अचानक आये उस परिवर्तन से प्रभावित हुआ होऊं और इसी कारण किशोरावस्था तक मुझे अपना संबंध उनके साथ बहुत मुश्किल लगने लगा हो. मुख्यतः ग़लती मेरी थी. उनके साथ कैसे व्यवहार किया जाये मुझे निश्चित कभी पता नहीं होता था. मुझे नहीं पता था उन्हें ख़ुश कैसे किया जाय और उनके कठोर स्वभाव को मैंने ग़लती से समझदारी की कमी समझ लिया था. इसके बावजूद मेरे विचार से हमने इस संबंध को ठीक-ठाक निभा लिया क्योंकि हमारे बीच कोई गंभीर झगड़ा कभी नहीं हुआ.
दूसरी तरफ़, साहित्य के प्रति मेरी रुचि के लिए मैं बहुत सीमा तक उनका आभारी हूं. अपनी युवावस्था में वे कविताएं लिखा करते थे, और हमेशा छुप कर नहीं; और जब आराकाटाका में टेलीग्राफ़ आपरेटर थे वे वायलिन बजाया करते थे. उन्हें साहित्य सदा पसंद आया है और वे बढि़या पाठक हैं. जब हम उनके घर जाते हैं हमें कभी नहीं पूछना होता कि वे कहां होंगे क्योंकि हमें पता होता है कि वे अपने शयनकक्ष में कोई किताब पढ़ रहे होंगे. उस पागल घर में वही इकलौती शांत जगह है. आपको कभी पक्का पता नहीं होता कि खाने पर कितने लोग होंगे क्योंकि वहां अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त असंख्य बच्चों, पोते-पोतियों, भतीजे-भतीजियों की बढ़ती-घटती जनसंख्या का आवागमन लगा रहता है. पिताजी को जो मिलता है, उसे पढ़ते हैं - श्रेष्ठ साहित्य, अख़बार-पत्रिकाएं, विज्ञापनों के हैण्डआउट, रेफ़्रीजरेटर की मैनुअल - कुछ भी. मुझे और कोई नहीं मिला जिसे साहित्य के कीड़े ने इस कदर काटा हो. बाक़ी की बातों के हिसाब से देखें तो उन्होंने अल्कोहल की एक बूंद नहीं पी, न सिगरेट पी लेकिन उनके सोलह वैध बच्चे हुए और भगवान जाने कितने और. आज भी वे मेरी जानकारी में सबसे फु़र्तीले और स्वस्थ अस्सी वर्षीय व्यक्ति हैं और ऐसा लगता नहीं कि उनका तौर-तरीक़ा बदलेगा - बल्कि ठीक उल्टा ही सच है.
(जारी)
कंकड़
कंकड़
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त
एक दोषरहित जीव होता है
अपने ही जितना
अपनी सीमाओं को जानने वाला
उसकी गन्ध किसी भी चीज़ की याद नहीं दिलाती
वह डराता नहीं न इच्छा को जन्म देता है
उसकी ललक और ठण्डापन
न्यायसंगत और गरिमापूरित होते हैं
जब मैं उसे थामता हूं अपने हाथ में
मुझे महसूस होता है एक भारी पछतावा
और उसकी शरीफ़ देह
व्यापती है झूठी ऊष्मा से
-पालतू नहीं बनाए जा सकते कंकड़
आख़िर में वे देखेंगे हमें
एक स्थिर और बेहद साफ़ निगाह के साथ.
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त
एक दोषरहित जीव होता है
अपने ही जितना
अपनी सीमाओं को जानने वाला
उसकी गन्ध किसी भी चीज़ की याद नहीं दिलाती
वह डराता नहीं न इच्छा को जन्म देता है
उसकी ललक और ठण्डापन
न्यायसंगत और गरिमापूरित होते हैं
जब मैं उसे थामता हूं अपने हाथ में
मुझे महसूस होता है एक भारी पछतावा
और उसकी शरीफ़ देह
व्यापती है झूठी ऊष्मा से
-पालतू नहीं बनाए जा सकते कंकड़
आख़िर में वे देखेंगे हमें
एक स्थिर और बेहद साफ़ निगाह के साथ.
Sunday, May 29, 2011
गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ का परिवार - २
(पिछली पोस्ट से आगे)
मैं हमेशा सोचता था कि कर्नल ऑरेलियानो बुएनदीया तुम्हारे नानाजी से मेल खाता होगा....
नहीं, कर्नल ऑरेलियानो बुएनदिया मेरे नाना की मेरी इमेज से बिल्कुल उलट है. मेरे नाना गठीले थे, उनकी रंगत दमकभरी थी और मेरी याददाश्त में वे सबसे बड़े भोजनभट्ट थे. इसके अलावा, जैसा मुझे बाद में ज्ञात हुआ, वे एक भीषण स्त्रीगामी थे. दूसरी तरफ़ कर्नल ऑरेलियानो बुएनदिया देखने में जनरल राफ़ाएल उरिबे उरिबे जैसा है और उन्हीं का जैसा सादगीपूर्ण जीवन का हिमायती भी. मैंने उरिबे उरिबे को कभी नहीं देखा पर नानी बताती थीं कि वे एक दफ़े आराकाटाका आये थे और उन्होंने अपने दफ्तर में मेरे नाना और अन्य पूर्व-सैनिकों के साथ कुछ बीयर की बोतलें पी थीं. उनकी जो छवि मेरी नानी की मन में थी वह ‘लीफ़ स्टॉर्म’ में उस फ्रांसीसी डाक्टर के वर्णन से मेल खाती है जो कर्नल की पत्नी आदेलाइदा के मन में हैः वह कहती है कि जब वह उसे पहली बार देखती है उसे वह एक सिपाही जैसा नजर आता है. गहरे भीतर मुझे पता है कि उसे वह जनरल उरिबे उरिबे जैसा नजर आता था.
अपनी मां के साथ अपने सम्बंधों को तुम किस तरह देखते हो?
मेरी मां के साथ मेरे संबंधों की सबसे बड़ी ख़ासियत बचपन से ही उसकी गंभीरता रही है. संभवतः वह मेरे जीवन का सबसे गंभीर संबंध है. मुझे यक़ीन है कि एक भी ऐसी बात नहीं है जो हम एक दूसरे को न बता पाएं और ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर हम बात न कर सकें लेकिन हमारे दरम्यान हमेशा एक पेशेवर औपचारिकता जैसी रही है न कि अंतरंगता. इस बारे में बता पाना मुश्किल है पर यह ऐसा ही है. शायद ऐसा इस कारण भी था कि जब मैं नाना जी की मृत्यु के बाद अपने माता-पिता के साथ रहने गया तो मैं अपने बारे में सोच सकने लायक बड़ा हो चुका था. उनके लिये मेरे आने का मतलब यह रहा होगा कि उनके अनेक बच्चों के साथ (बाकी सारी मुझसे छोटे थे) एक बच्चा और आ गया है जिससे वह असल में बात कर सकती थीं और जो घरेलू समस्याओं का समाधान करने में उनकी सहायता करता. उनका जीवन कठोर और पुरुस्कारहीन था - कई दफ़े वे भीषण गरीबी में रही थीं. इसके अलावा हम बहुत लंबे समय तक एक छत के नीचे नहीं रहे क्योंकि कुछ साल बाद जब मैं बारह का था, पढ़ने के लिये मैं पहले बारान्कीया और फिर जि़पाकीरा चला गया. तब से हमारी मुलाकातें बहुत संक्षिप्त रही हैं, शुरू में स्कूल की छुट्टियों के वक्त और बाद में जब भी मैं कार्तागेना जाता हूं - वह भी साल भर में एक बार से ज़्यादा कभी नहीं होता और कभी भी दो सप्ताह से ऊपर नहीं. इसके कारण हमारा संबंध दूरीभरा हो गया है. इसने एक विशेष औपचारिकता का निर्माण भी किया है जिसके कारण हम एक दूसरे के साथ तभी खुल पाते हैं जब गंभीर होते हैं. हालांकि, पिछले बारह-एक सालों से, जब से मेरे पास साधन हैं, हर इतवार को एक ही समय पर मैं उन्हें टेलीफोन करता हूं, चाहे संसार के किसी भी हिस्से में होऊं. बहुत कम दफ़े जब मैं ऐसा नहीं कर पाया हूं, वह तकनीकी दिक्कतों के कारण हुआ है. ऐसा नहीं है कि मैं ‘अच्छा बेटा’ हूं जैसा कहा जाता है. मैं औरों से बेहतर नहीं हूं पर मैं ऐसा इसलिये करता हूं कि मैंने हमेशा सोचा है कि इतवार को टेलीफ़ोन करना हमारे संबंधों की गंभीरता है हिस्सा है.
क्या यह सच है कि तुम्हारे उपन्यासों की चाभी उन्हें आसानी से मिल जाती है?
हां, मेरे तमाम पाठकों में सबसे अधिक ‘इंन्स्टिंक्ट’ और निश्चय ही सबसे अधिक सूचनाएं उन्हीं के पास होती हैं और वे मेरी किताबों के चरित्रों के पीछे के वास्तविक लोगों को पहचान लेती हैं. यह आसान नहीं है क्योंकि मेरे तकरीबन सारे पात्र कई अलग-अलग लोगों और थोड़ा बहुत ख़ुद मेरे हिस्से की बनी पहेलियों जैसे होते हैं. इस बाबत मेरी मां की विशेष प्रतिभा इस बात में वैसी ही है जैसे किसी पुराशास्त्री को उत्खनन के दौरान पाई गई चन्द हड्डियों की मदद से किसी प्रागैतिहासिक जीव का पुनर्निर्माण करना होता है. जब वे मेरी किताबें पढ़ती हैं तो स्वतः ही उन सारे हिस्सों को मिटा देती हैं जो मैंने जोड़े होते हैं और वे उस मुख्य हड्डी को, उस केंद्रबिंदु को पहचान लेती हैं, जिसके इर्द-गिर्द मैंने अपने पात्र का सृजन किया होता है. कभी-कभी जब वे पढ़ रही होती हैं आप उन्हें कहते हुए सुन सकते हैं, "ओह बेचारा मेरा कोम्पाद्रे , तुमने उसे एक वास्तविक पैंज़ी के फूल में बदल दिया है", मैं उन्हें कहता हूं कि वह पात्र उनके कोम्पाद्रे जैसा नहीं है, लेकिन ऐसा मैं यूं ही कहने के लिये कह देता हूं क्योंकि वे जानती हैं कि मैं जानता हूं कि वे जानती हैं.
(जारी)
मैं हमेशा सोचता था कि कर्नल ऑरेलियानो बुएनदीया तुम्हारे नानाजी से मेल खाता होगा....
नहीं, कर्नल ऑरेलियानो बुएनदिया मेरे नाना की मेरी इमेज से बिल्कुल उलट है. मेरे नाना गठीले थे, उनकी रंगत दमकभरी थी और मेरी याददाश्त में वे सबसे बड़े भोजनभट्ट थे. इसके अलावा, जैसा मुझे बाद में ज्ञात हुआ, वे एक भीषण स्त्रीगामी थे. दूसरी तरफ़ कर्नल ऑरेलियानो बुएनदिया देखने में जनरल राफ़ाएल उरिबे उरिबे जैसा है और उन्हीं का जैसा सादगीपूर्ण जीवन का हिमायती भी. मैंने उरिबे उरिबे को कभी नहीं देखा पर नानी बताती थीं कि वे एक दफ़े आराकाटाका आये थे और उन्होंने अपने दफ्तर में मेरे नाना और अन्य पूर्व-सैनिकों के साथ कुछ बीयर की बोतलें पी थीं. उनकी जो छवि मेरी नानी की मन में थी वह ‘लीफ़ स्टॉर्म’ में उस फ्रांसीसी डाक्टर के वर्णन से मेल खाती है जो कर्नल की पत्नी आदेलाइदा के मन में हैः वह कहती है कि जब वह उसे पहली बार देखती है उसे वह एक सिपाही जैसा नजर आता है. गहरे भीतर मुझे पता है कि उसे वह जनरल उरिबे उरिबे जैसा नजर आता था.
अपनी मां के साथ अपने सम्बंधों को तुम किस तरह देखते हो?
मेरी मां के साथ मेरे संबंधों की सबसे बड़ी ख़ासियत बचपन से ही उसकी गंभीरता रही है. संभवतः वह मेरे जीवन का सबसे गंभीर संबंध है. मुझे यक़ीन है कि एक भी ऐसी बात नहीं है जो हम एक दूसरे को न बता पाएं और ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर हम बात न कर सकें लेकिन हमारे दरम्यान हमेशा एक पेशेवर औपचारिकता जैसी रही है न कि अंतरंगता. इस बारे में बता पाना मुश्किल है पर यह ऐसा ही है. शायद ऐसा इस कारण भी था कि जब मैं नाना जी की मृत्यु के बाद अपने माता-पिता के साथ रहने गया तो मैं अपने बारे में सोच सकने लायक बड़ा हो चुका था. उनके लिये मेरे आने का मतलब यह रहा होगा कि उनके अनेक बच्चों के साथ (बाकी सारी मुझसे छोटे थे) एक बच्चा और आ गया है जिससे वह असल में बात कर सकती थीं और जो घरेलू समस्याओं का समाधान करने में उनकी सहायता करता. उनका जीवन कठोर और पुरुस्कारहीन था - कई दफ़े वे भीषण गरीबी में रही थीं. इसके अलावा हम बहुत लंबे समय तक एक छत के नीचे नहीं रहे क्योंकि कुछ साल बाद जब मैं बारह का था, पढ़ने के लिये मैं पहले बारान्कीया और फिर जि़पाकीरा चला गया. तब से हमारी मुलाकातें बहुत संक्षिप्त रही हैं, शुरू में स्कूल की छुट्टियों के वक्त और बाद में जब भी मैं कार्तागेना जाता हूं - वह भी साल भर में एक बार से ज़्यादा कभी नहीं होता और कभी भी दो सप्ताह से ऊपर नहीं. इसके कारण हमारा संबंध दूरीभरा हो गया है. इसने एक विशेष औपचारिकता का निर्माण भी किया है जिसके कारण हम एक दूसरे के साथ तभी खुल पाते हैं जब गंभीर होते हैं. हालांकि, पिछले बारह-एक सालों से, जब से मेरे पास साधन हैं, हर इतवार को एक ही समय पर मैं उन्हें टेलीफोन करता हूं, चाहे संसार के किसी भी हिस्से में होऊं. बहुत कम दफ़े जब मैं ऐसा नहीं कर पाया हूं, वह तकनीकी दिक्कतों के कारण हुआ है. ऐसा नहीं है कि मैं ‘अच्छा बेटा’ हूं जैसा कहा जाता है. मैं औरों से बेहतर नहीं हूं पर मैं ऐसा इसलिये करता हूं कि मैंने हमेशा सोचा है कि इतवार को टेलीफ़ोन करना हमारे संबंधों की गंभीरता है हिस्सा है.
क्या यह सच है कि तुम्हारे उपन्यासों की चाभी उन्हें आसानी से मिल जाती है?
हां, मेरे तमाम पाठकों में सबसे अधिक ‘इंन्स्टिंक्ट’ और निश्चय ही सबसे अधिक सूचनाएं उन्हीं के पास होती हैं और वे मेरी किताबों के चरित्रों के पीछे के वास्तविक लोगों को पहचान लेती हैं. यह आसान नहीं है क्योंकि मेरे तकरीबन सारे पात्र कई अलग-अलग लोगों और थोड़ा बहुत ख़ुद मेरे हिस्से की बनी पहेलियों जैसे होते हैं. इस बाबत मेरी मां की विशेष प्रतिभा इस बात में वैसी ही है जैसे किसी पुराशास्त्री को उत्खनन के दौरान पाई गई चन्द हड्डियों की मदद से किसी प्रागैतिहासिक जीव का पुनर्निर्माण करना होता है. जब वे मेरी किताबें पढ़ती हैं तो स्वतः ही उन सारे हिस्सों को मिटा देती हैं जो मैंने जोड़े होते हैं और वे उस मुख्य हड्डी को, उस केंद्रबिंदु को पहचान लेती हैं, जिसके इर्द-गिर्द मैंने अपने पात्र का सृजन किया होता है. कभी-कभी जब वे पढ़ रही होती हैं आप उन्हें कहते हुए सुन सकते हैं, "ओह बेचारा मेरा कोम्पाद्रे , तुमने उसे एक वास्तविक पैंज़ी के फूल में बदल दिया है", मैं उन्हें कहता हूं कि वह पात्र उनके कोम्पाद्रे जैसा नहीं है, लेकिन ऐसा मैं यूं ही कहने के लिये कह देता हूं क्योंकि वे जानती हैं कि मैं जानता हूं कि वे जानती हैं.
(जारी)
एक गीत ताकि नष्ट न हों हम
एक गीत ताकि नष्ट न हों हम
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त
वे जो समुद्री यात्रा पर निकले भोर के वक्त
लेकिन जो लौटेंगे नहीं कभी
वे छोड़ गए अपने निशान एक लहर पर -
एक सीप गिरी समुद्र के तल में
पत्थर में बदल गए होंठों जैसी सुन्दर
वे जो चले एक रेतीली सड़क पर
लेकिन नहीं पहुंच सके किवाड़दार खिड़कियों तक
अलबत्ता उन्होंने तब तक देख लिया था छत को -
उन्हें शरण मिल चुकी है हवा की एक घंटी के भीतर
लेकिन वे जो अपने पीछे छोड़ जाते हैं फ़कत
चन्द किताबों से ठण्डा पड़ गया एक कमरा
एक खाली दवात और सफ़ेद काग़ज़
वास्तव में वे पूरी तरह नहीं मरे हैं
उनकी फुसफुसाहट सफ़र करती है वॉलपेपर के झुरमुट के पार
उनका ऊंचा सिर अब भी रहता है छत पर
हवा से बना हुआ था उनका स्वर्ग
और पानी चूने और मिट्टी से, हवा का एक फ़रिश्ता
अपने हाथों चूरचूर करेगा शरीर को
उन लोगों को
ले जाया जाएगा इस संसार के चरागाहों से ऊपर से.
Saturday, May 28, 2011
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त की सलाहें
१. जब दिमाग़ आपको दग़ा देने लगे, अपना हौसला बनाए रखो. आख़िर में सिर्फ़ यही महत्वपूर्ण होता है.
२. एक शिल्पी ने क्रूरता की गहराई तक जा कर जांच करनी चाहिए.
३. जंगलों में आग लगी हो तो आपको ग़ुलाबों के लिए अफ़सोस नहीं करना चाहिए.
कुरजां का स्वागत कीजिए....
जयपुर से निकली कुरजां पिछले दिनों ग्वालियर तक आ पहुंची और खबर है कि अब वह राजस्थान से पूरे हिंदुस्तान में फैल रही है...सात समंदर पार की यह पंक्षी प्रेमचंद गांधी ने ठेठ हिन्दुस्तानी ठाठ के साथ भेजी है, शताब्दी वर्ष का होना खडी बोली हिन्दी और हिन्दुस्तानी की विरासत के धीरे-धीरे प्रौढ़ होते जाने की सूचना दे रहा है और साथ में उन चिंताओं और चुनौतियों की ओर भी संकेत कर रहा है जो अपने लगभग एक सदी के इतिहास में इसके सामने आ खडी हुई हैं.
अगर एक पंक्ति में कहूँ तो कुरजां की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह सेलीब्रेटेड त्रयियों या चतुष्टयों से आगे जाकर उनको भी भरपूर सम्मान देती है जो इस आयोजन काल में भी अलक्षित रह गए. इसीलिए इसमें शमशेर, नागार्जुन, अज्ञेय, केदार, के साथ-साथ उपेन्द्र नाथ अश्क, गोपाल सिंह नेपाली, भुवनेश्वर, भगवत शरण उपाध्याय,राधाकृष्ण हैं तो उर्दू के फैज़, असरार उल हक मजाज, नून मीम राशिद, अंग्रेजी के अहमद अली, राजस्थानी के कन्हैया लाल सहल, गुजराती के उमा शंकर जोशी, कृष्ण लाल श्रीधरणी, भोगी लाल गांधी, तेलगु के श्री श्री के साथ रविन्द्र नाथ टैगोर को उनके प्रसिद्द उपन्यास 'गोरा' के सौ साल पूरे होने के बहाने आत्मीयता से याद किया गया है. 'दुसरे गोलार्द्ध' से जेस्लो मिलोज को भी याद किया गया है तो संगीत के महान उस्तादों विष्णु नारायण भातखंडे, मल्लिकार्जुन मंसूर और उस्ताद अब्दुल रशीद खान के साथ फिल्मों की दुनिया से हमारे अपने दादामुनि अशोक कुमार और जापान के युग प्रवर्तक फिल्मकार अकीरा कुरासोवा को भी शिद्दत से याद किया गया है.
अंग्रेजी से एक कहावत उधार लूं तो Last but not the least है महिला दिवस पर लिखा मनीषा कुलश्रेष्ठ का आलेख. मनीषा ने लीक से हटकर एक बेहद विचारोत्तेजक लेख लिखा है जो पत्रिका के आगामी अंको के तेवर की ओर संकेत करता है.
अब फकत २८१ पन्नों में इतना कुछ समेटना आसान कतई नहीं लेकिन फिर भी यह पत्रिका आम के साथ-साथ 'खास' पाठकों के लिए भी भरपूर सामग्री उपलब्ध कराती है. अज्ञेय पर एक लंबे साक्षात्कार को छोड़ दें तो आमतौर पर विगलित भक्तिभाव नहीं दिखता. प्रियंकर पालीवाल का वि ना भातखंडे पर लिखा आलेख और केदार पर हिमांशु पंड्या का आलेख मुझे अंक की उपलब्धि लगे. फैज़ पर कुछ पाकिस्तानी लेखकों/पत्रकारों द्वारा जुटाई गयी सामग्री अंक को और समृद्ध करती है.
बहरहाल, विस्तार से फिर कभी...अभी तो कुरजां की टीम को बधाई और आप सबसे इस पत्रिका को पढ़ने की गुजारिश....
पत्रिका की कीमत है १०० रुपये और इसे भाई प्रेमचंद गांधी से 09829190626 पर फोन या prempoet@gmail.com पर मेल करके मंगाया जा सकता है. अगर ग्वालियर के आसपास हों तो मुझसे ले लें.
गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ का परिवार - १
प्लीनीयो आपूलेयो मेन्दोज़ा की पुस्तक "अमरूद की ख़ुशबू" से गाबो के परिवार के बारे में जानिए -
मेरे भीतर सबसे स्पष्ट और निरंतर स्मृति लोगों की बनिस्बत उस मकान की है आराकाटाका में जिसके भीतर मैं अपने नाना-नानी के साथ रहा था. यह लगातार आने वाला एक स्वप्न है जिसे मैं आज भी देखता हूं. और अपने पूरे जीवन में हर दिन में जब भी जागता हूं मुझे अनुभूति होती है, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, कि मैंने सपने में देखा है कि मैं सपने में उस घर के भीतर था. ऐसा नहीं है कि मैं वापस वहां गया होऊं; किसी भी उम्र में, या बिना किसी विशेष वजह के - पर मैं तो वहीं हूं - जैसे मैंने उसे कभी छोड़ा ही नहीं था. आज भी मेरे सपनों में रात समय का वह निषेध बनी हुई है जिसने मेरे पूरे बचपन को घेरा हुआ था. यह एक बेकाबू झुरझुरी थी जो हर शाम जल्दी शुरू होकर मेरे नींद को कोंचती रही थी जब तक कि मैं दरवाजे़ की दरार से भोर का होना नहीं देख लेता था. मैं बहुत ठीक-ठाक इसके बारे में नहीं बता सकता पर मेरे ख़्याल से वह निषेध इस तथ्य में निहित था कि रात के समय मेरी नानी के सारे प्रेत और आत्माएं साकार हो जाया करते थे. कुछ उस तरह का हमारा सम्बंध था. एक तरह का अदृश्य धागा जो हमें परामानवीय संसार से बांधे रखता था. दिन के समय मेरी नानी का जादुई संसार मुझे सम्मोहित किये रखता था - मैं उसमें डूबा रहता था, वह मेरा संसार था. लेकिन रात को वह मुझे भयभीत करता था. आज भी, जब मैं दुनिया के किसी हिस्से के किसी अजनबी होटल में अकेला सोया होता हूं, मैं अक्सर डरा हुआ जागता हूं, अंधेरे में अकेला होने के भय से हिला हुआ, और शांत होकर वापस सो जाने में हमेशा मुझे कुछ मिनट लगते हैं. वहीं मेरे नानाजी, नानी के अनिश्चितता भरे संसार में संपूर्ण सुरक्षा का प्रतिनिधित्व किया करते थे. उनके होने पर मेरी सारी चिंताएं गायब हो जाती थीं. मुझे दोबारा वास्तविक संसार के ठोस धरातल पर खड़े होने का बोध होता था. अजीब बात यह थी कि मैं अपने नाना जैसा होना चाहता था - यथार्थवादी, बहादुर, सुरक्षित - लेकिन नानी के संसार में झांकने का निरंतर लालच मुझे वहीं ले जाया करता था.
अपने नाना के बारे में मुझे बतलाओ. कौन थे वो? उनके साथ तुम्हारा कैसा रिश्ता था?
कर्नल निकोलास रिकार्दो मारकेज़ मेहीया - यह उनका पूरा नाम था - एक ऐसे शख़्स थे जिनके साथ संभवतः मेरी सबसे बढि़या बनती थी और जिनके साथ मेरी आपसी समझदारी सबसे ज़्यादा थी. लेकिन करीब पचास साल बाद पलटकर देखता हूं तो लगता है कि उन्होंने संभवतः कभी भी इस बात का अहसास नहीं किया. पता नहीं क्यों पर इस अहसास ने, जो पहली बार मुझे किशोरावस्था में हुआ था, मुझे बहुत खिन्न किया है. यह बहुत कुंठित करने वाला होता है क्योंकि यह एक लगातार बनी रहने वाली कचोट के साथ जीने जैसा है जिसे साफ़-सपाट कर लिया जाना चाहिए था पर वह अब नहीं हो सकेगा क्योंकि मेरे नाना की मौत तब हो चुकी थी जब मैं आठ साल का था. मैंने उन्हें मरते हुए नहीं देखा क्योंकि उस वक्त मैं आराकाटाका से बहुत दूर था, और मुझे यह समाचार नहीं दिया गया हालांकि जहां मैं रह रहा था उस घर के लोगों को मैंने इस बाबत बात करते हुए सुना. जहां तक मुझे याद पड़ता है, मुझ पर इस समाचार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तो भी एक वयस्क के तौर पर जब भी मेरे साथ कुछ भी विशेषतः अच्छी घटना होती है तो मुझे अपनी प्रसन्नता सम्पूर्ण नहीं लगती क्योंकि मैं चाहता हूं कि मेरे नाना उसे जान पाते. इस तरह से एक वयस्क के तौर पर मेरी तमाम ख़ुशियों पर इस एक कुंठा का कीड़ा लगा रहता है, और ऐसा हमेशा होता रहेगा.
क्या तुम्हारी किसी किताब का कोई चरित्र उनके जैसा है?
‘लीफ़ स्टॉर्म’ का बेनाम कर्नल एकमात्र चरित्र है जो मेरे नानाजी से मिलता-जुलता है. असल में वह पात्र उनके व्यक्तित्व और आकृति की बारीक प्रतिलिपि है. हालांकि यह एक व्यक्तिगत सोच है क्योंकि उपन्यास में कर्नल का बहुत वर्णन नहीं है और संभवतः पाठकों के मन में बनने वाली छवि मेरी सोच से फ़र्क हो सकती है. मेरे नानाजी के एक आंख गंवाने की घटना किसी उपन्यास का हिस्सा बनने के लिहाज से अतिनाटकीय हैः वे अपने दफ्तर की खिड़की से एक सफेद घोड़े को देख रहे थे जब उन्हें अपनी बांई आंख में कुछ महसूस हुआ; उन्होंने अपना हाथ उस पर रखा और बिना किसी दर्द के उनकी बांई आंख की रोशनी चली गई. मुझे इस घटना की याद नहीं है पर बचपन में मैंने इसके बारे में बातें सुनी थीं और हर दफ़े आखिर में मेरी नानी कहा करती थीं, "उनके हाथ में आंसुओं के अलावा कुछ नहीं बचा." ‘लीफ़ स्टॉर्म’ के कर्नल में यह शारीरिक कमी बदल दी गई है - वह लंगड़ा है. मुझे पता नहीं मैंने उपन्यास में यह लिखा है या नहीं पर एक बात मेरे दिमाग़ में हमेशा थी कि उसका लंगड़ापन एक युद्ध की चोट का परिणाम था. इस शताब्दी के शुरूआती वर्षों में कोलंबिया में हुए ‘हज़ार दिनी युद्ध’ के दौरान क्रांतिकारी सेना में मेरे नाना ने कर्नल की पदवी हासिल की थी. उनकी सबसे स्पष्ट स्मृति मेरे लिए इसी तथ्य से सम्बंधित है. उनके मरने से ठीक पहले उनके बिस्तर पर उनका निरीक्षण करते हुए एक डॉक्टर ने (मुझे पता नहीं क्यों) उनके पेड़ू के पास एक घाव का निशान देखा था. "वो एक गोली थी" मेरे नाना बोले. उन्होंने मेरे साथ गृहयुद्ध के बारे में अक्सर बातचीत की थी और उन्हीं के कारण उस इतिहास-काल में मेरी दिलचस्पी पैदा हुई जो मेरी सारी किताबों में आता है लेकिन उन्होंने मुझे कभी नहीं बताया था कि वह घाव एक गोली का परिणाम था. जब उन्होंने डॉक्टर को यह बात बताई, मेरे लिये वह एक महान गाथा के प्रकट होने जैसा था.
(जारी)
मेरे भीतर सबसे स्पष्ट और निरंतर स्मृति लोगों की बनिस्बत उस मकान की है आराकाटाका में जिसके भीतर मैं अपने नाना-नानी के साथ रहा था. यह लगातार आने वाला एक स्वप्न है जिसे मैं आज भी देखता हूं. और अपने पूरे जीवन में हर दिन में जब भी जागता हूं मुझे अनुभूति होती है, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, कि मैंने सपने में देखा है कि मैं सपने में उस घर के भीतर था. ऐसा नहीं है कि मैं वापस वहां गया होऊं; किसी भी उम्र में, या बिना किसी विशेष वजह के - पर मैं तो वहीं हूं - जैसे मैंने उसे कभी छोड़ा ही नहीं था. आज भी मेरे सपनों में रात समय का वह निषेध बनी हुई है जिसने मेरे पूरे बचपन को घेरा हुआ था. यह एक बेकाबू झुरझुरी थी जो हर शाम जल्दी शुरू होकर मेरे नींद को कोंचती रही थी जब तक कि मैं दरवाजे़ की दरार से भोर का होना नहीं देख लेता था. मैं बहुत ठीक-ठाक इसके बारे में नहीं बता सकता पर मेरे ख़्याल से वह निषेध इस तथ्य में निहित था कि रात के समय मेरी नानी के सारे प्रेत और आत्माएं साकार हो जाया करते थे. कुछ उस तरह का हमारा सम्बंध था. एक तरह का अदृश्य धागा जो हमें परामानवीय संसार से बांधे रखता था. दिन के समय मेरी नानी का जादुई संसार मुझे सम्मोहित किये रखता था - मैं उसमें डूबा रहता था, वह मेरा संसार था. लेकिन रात को वह मुझे भयभीत करता था. आज भी, जब मैं दुनिया के किसी हिस्से के किसी अजनबी होटल में अकेला सोया होता हूं, मैं अक्सर डरा हुआ जागता हूं, अंधेरे में अकेला होने के भय से हिला हुआ, और शांत होकर वापस सो जाने में हमेशा मुझे कुछ मिनट लगते हैं. वहीं मेरे नानाजी, नानी के अनिश्चितता भरे संसार में संपूर्ण सुरक्षा का प्रतिनिधित्व किया करते थे. उनके होने पर मेरी सारी चिंताएं गायब हो जाती थीं. मुझे दोबारा वास्तविक संसार के ठोस धरातल पर खड़े होने का बोध होता था. अजीब बात यह थी कि मैं अपने नाना जैसा होना चाहता था - यथार्थवादी, बहादुर, सुरक्षित - लेकिन नानी के संसार में झांकने का निरंतर लालच मुझे वहीं ले जाया करता था.
अपने नाना के बारे में मुझे बतलाओ. कौन थे वो? उनके साथ तुम्हारा कैसा रिश्ता था?
कर्नल निकोलास रिकार्दो मारकेज़ मेहीया - यह उनका पूरा नाम था - एक ऐसे शख़्स थे जिनके साथ संभवतः मेरी सबसे बढि़या बनती थी और जिनके साथ मेरी आपसी समझदारी सबसे ज़्यादा थी. लेकिन करीब पचास साल बाद पलटकर देखता हूं तो लगता है कि उन्होंने संभवतः कभी भी इस बात का अहसास नहीं किया. पता नहीं क्यों पर इस अहसास ने, जो पहली बार मुझे किशोरावस्था में हुआ था, मुझे बहुत खिन्न किया है. यह बहुत कुंठित करने वाला होता है क्योंकि यह एक लगातार बनी रहने वाली कचोट के साथ जीने जैसा है जिसे साफ़-सपाट कर लिया जाना चाहिए था पर वह अब नहीं हो सकेगा क्योंकि मेरे नाना की मौत तब हो चुकी थी जब मैं आठ साल का था. मैंने उन्हें मरते हुए नहीं देखा क्योंकि उस वक्त मैं आराकाटाका से बहुत दूर था, और मुझे यह समाचार नहीं दिया गया हालांकि जहां मैं रह रहा था उस घर के लोगों को मैंने इस बाबत बात करते हुए सुना. जहां तक मुझे याद पड़ता है, मुझ पर इस समाचार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तो भी एक वयस्क के तौर पर जब भी मेरे साथ कुछ भी विशेषतः अच्छी घटना होती है तो मुझे अपनी प्रसन्नता सम्पूर्ण नहीं लगती क्योंकि मैं चाहता हूं कि मेरे नाना उसे जान पाते. इस तरह से एक वयस्क के तौर पर मेरी तमाम ख़ुशियों पर इस एक कुंठा का कीड़ा लगा रहता है, और ऐसा हमेशा होता रहेगा.
क्या तुम्हारी किसी किताब का कोई चरित्र उनके जैसा है?
‘लीफ़ स्टॉर्म’ का बेनाम कर्नल एकमात्र चरित्र है जो मेरे नानाजी से मिलता-जुलता है. असल में वह पात्र उनके व्यक्तित्व और आकृति की बारीक प्रतिलिपि है. हालांकि यह एक व्यक्तिगत सोच है क्योंकि उपन्यास में कर्नल का बहुत वर्णन नहीं है और संभवतः पाठकों के मन में बनने वाली छवि मेरी सोच से फ़र्क हो सकती है. मेरे नानाजी के एक आंख गंवाने की घटना किसी उपन्यास का हिस्सा बनने के लिहाज से अतिनाटकीय हैः वे अपने दफ्तर की खिड़की से एक सफेद घोड़े को देख रहे थे जब उन्हें अपनी बांई आंख में कुछ महसूस हुआ; उन्होंने अपना हाथ उस पर रखा और बिना किसी दर्द के उनकी बांई आंख की रोशनी चली गई. मुझे इस घटना की याद नहीं है पर बचपन में मैंने इसके बारे में बातें सुनी थीं और हर दफ़े आखिर में मेरी नानी कहा करती थीं, "उनके हाथ में आंसुओं के अलावा कुछ नहीं बचा." ‘लीफ़ स्टॉर्म’ के कर्नल में यह शारीरिक कमी बदल दी गई है - वह लंगड़ा है. मुझे पता नहीं मैंने उपन्यास में यह लिखा है या नहीं पर एक बात मेरे दिमाग़ में हमेशा थी कि उसका लंगड़ापन एक युद्ध की चोट का परिणाम था. इस शताब्दी के शुरूआती वर्षों में कोलंबिया में हुए ‘हज़ार दिनी युद्ध’ के दौरान क्रांतिकारी सेना में मेरे नाना ने कर्नल की पदवी हासिल की थी. उनकी सबसे स्पष्ट स्मृति मेरे लिए इसी तथ्य से सम्बंधित है. उनके मरने से ठीक पहले उनके बिस्तर पर उनका निरीक्षण करते हुए एक डॉक्टर ने (मुझे पता नहीं क्यों) उनके पेड़ू के पास एक घाव का निशान देखा था. "वो एक गोली थी" मेरे नाना बोले. उन्होंने मेरे साथ गृहयुद्ध के बारे में अक्सर बातचीत की थी और उन्हीं के कारण उस इतिहास-काल में मेरी दिलचस्पी पैदा हुई जो मेरी सारी किताबों में आता है लेकिन उन्होंने मुझे कभी नहीं बताया था कि वह घाव एक गोली का परिणाम था. जब उन्होंने डॉक्टर को यह बात बताई, मेरे लिये वह एक महान गाथा के प्रकट होने जैसा था.
(जारी)
सचमुच किसी भी और देश से बेहतर है जीना स्वर्ग में
स्वर्ग से रपट
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त
स्वर्ग में हफ़्ते में तीस घन्टे नियत हैं काम के
तन्ख़्वाहें ऊंची हैं कीमतें लगातार घटती जाती हैं
शारीरिक श्रम थकाता नहीं (कम गुरुत्व के कारण)
लकड़ी फाड़ने में टाइप करने से ज़्यादा मेहनत नहीं लगती
सामाजिक पद्धति सुस्थिर है और बुद्धिमान हैं शासक
सचमुच किसी भी और देश से बेहतर है जीना स्वर्ग में
शुरू में इसे फ़र्क होना था
चमकीले आभामण्डल और अमूर्तन के स्तर
लेकिन वे ठीकठीक अलग नहीं कर सके
आत्मा को उसके शरीर से सो वह यहां पहुंची
चर्बी की एक बूंद और मांसपेशी के एक धागे के साथ
ज़रूरी था इसके परिणामों से रू-ब-रू होना
परम के एक कण में मिलाना मिट्टी का एक कण
सिद्धान्त से एक और प्रस्थान, आख़िरी प्रस्थान
जिसे सिर्फ़ जॉन ने पहले देख लिया था - देह में ही होगा तुम्हारा मोक्ष
बहुत कम लोग ईश्वर को देख पाते हैं
वह उन लोगों के लिए है जिनमें १०० फ़ीसदी आत्मा होती है
बाकी लोग सुनते हैं चमत्कारों और बाढ़ों के बारे में विज्ञप्तियों को
किसी दिन हर कोई देखेगा ईश्वर को
ऐसा कब होगा कोई नहीं जानता
फ़िलहाल हर शनिवार दोपहर को
मिठास के साथ बजते हैं साइरन
और फ़ैक्ट्रियों से पहुंचते हैं दिव्य श्रमिकों तक
अपनी बांहों के नीचे अटपटे ढंग से दबाए वे लादे चलते हैं अपने पंख वायोलिनों की तरह.
Friday, May 27, 2011
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त की दो और कविताएं
१. पागल औरत
उसकी जलती निगाह मुझे किसी आलिंगन की तरह बांधे रहती है.
वह सपनों में मिलाए हुए शब्द बड़बड़ा रही है.
वह मुझे पास बुलाती है.
तुम ख़ुश होओगे अगर तुम यक़ीन करोगे
और हांक ले जाओगे अपनी गाड़ी को एक सितारे तलक.
बादलों को अपना दूध पिलाते समय वह भली होती है;
लेकिन जब शान्ति उसे छोड़कर चली जाती है,
वह समुन्दर किनारे भागा करती है
और हवा में लहराती है अपनी बांहें.
उसकी आंखों में प्रतिविम्बित होते मुझे दिखाई पड़ते हैं दो फ़रिश्ते -
उड़ी रंगत वाला, अनिष्टकारी फ़रिश्ता विडम्बना का,
प्रेम करने वाला स्कित्ज़ोफ्रेनिया का फ़रिश्ता.
२. नन्हा क़स्बा
दिन के वक़्त फल होते हैं और समुन्दर,
रात के वक़्त सितारे और समुन्दर.
दि फ़ियोरी स्ट्रीट चेरी के रंगों का एक शंकु है.
दोपहर.
हरी छायादार जगहों पर अपनी सफ़ेद छड़ी पटकता है सूरज.
सदाबहार के एक बग़ीचे में बैल गाते हैं छायाओं के लिए एक गीत. उ
स पल मैंने फ़ैसला किया था अपने प्यार का इज़हार करने का.
समुन्दर थामे रहता है अपनी शान्ति
और नन्हा क़स्बा फूलता जाता है अंजीर बेच रही लड़की की छाती की तरह.
अली "फ़र्का" तूरे का संगीत
अली इब्राहीम "फ़र्का" तूरे (अक्टूबर 31, 1939 – मार्च 7, 2006) माली देश के रहने वाले गायक और गिटारिस्ट थे. अफ़्रीकी महाद्वीप से निकले सबसे विख्यात संगीतकारों में शुमार होने वाले अली पारम्परिक माली संगीत और अमेरिकी ब्लूज़ के बड़े फ़नकार थे. प्रख्यात फ़िल्मकार मार्टिन स्कोरसेसे ने अली फ़र्का तूरे की संगीत परम्परा को "ब्लूज़ का डी.एन.ए." कहा था. रोलिंग स्टोन्स की सौ सर्वकालीन महानतम गिटारिस्टों की सूची में भी इस बड़े संगीतकार को जगह मिली थी.
नाइजर नदी के किनारे उत्तर-पूर्वी माली के टिम्बकटू इलाके के एक गांव कनाऊ में जन्मे अली अपनी माता के दसवें बेटे थे. बाकी नौ अपना शैशव भी पूरा नहीं कर सके थे. इस बाबत एक साक्षात्कार में अली ने कहा था "मुझे अली इब्राहीम नाम दिया गया था पर अफ़्रीका में यह परम्परा है कि अगर परिवार में बच्चे असमय मर जा रहे हों तो अगेल शिशु को बेहद अटपटा सा नाम दे दिया जाता है." तो उनके माता-पिता द्वारा छांटे गए नाम "फ़र्का" का मतलब होता था - गधा. मज़ाकिया लहज़े में अली आगे कहते हैं - "मैं एक बात साफ़ कर दूं. मैं वो गधा हूं जिसकी कोई सवारी नहीं कर सकता."
आज सुनिए उनका एक बेहद प्रसिद्ध गीत. इस गीत को अंग्रेज़ी फ़िल्म "अनफ़ेथफ़ुल" में भी इस्तेमाल किया गया है. मेरे पास इधर अली "फ़र्का" तूरे का काफ़ी संगीत इकठ्ठा हुआ है. यह उनके संगीत की पहली प्रस्तुति है.
मृग के मरने की भी सबकी अलग--अलग कथाएं थीं
कबाड़ी चन्द्रभूषण ने अपनी यह कविता अपने ब्लॉग पहलू में लगाई थी. बाद में अनिल यादव ने इसे अपने हारमोनियम पर सजाया था. आज मैं इस उम्दा कविता को चन्दू भाई से इजाज़त लिए बिना आपके वास्ते प्रस्तुत कर रहा हूं -
मायामृग
हर किसी के पास अपनी--अपनी कहानियां थीं
सौंदर्य की, आकर्षण की, लगाव की, वासना की, स्खलन की
प्रणय की, संवाद की, टकराव की, संघर्ष की, युद्ध की
लेकिन तत्व उनका कमोबेश एक सा था
कान तक प्रत्यंचा ताने जब वे वन में घुसे
तो उनके सामने लहर सी डोलती एक सुनहरी छाया थी
और उनकी आंखें अपने तीर की नोक और लक्ष्य के बीच
बनने वाली निरंतर गतिशील रेखा पर थरथरा रही थीं
लक्ष्य चूकने का कोई भय नहीं था
वह तो जैसे खुद ही हजार सुरों में बोल रहा था-
मुझे मारो, मेरा संधान करो, वध करो मेरा
चाहे जैसे भी मुझे स्थिर करो, अपने घर ले जाओ वीर
उत्तेजना का दौर खत्म हुआ, वे सभी विजेता निकले
किसी ने व्हार्टन मारा, किसी ने कैंब्रिज का संधान किया
कोई जापान की तरफ निकला, मरीन बायलॉजिस्ट बनकर लौटा
तो कोई पुलिस कमिश्नर बना, वर्दी पर टांचे वही सुनहरापन
मृग के मरने की भी सबकी अलग--अलग कथाएं थीं
सभी का मानना था कि मरने से पहले वह कुछ बोला था
शायद ‘मां’, शायद ‘पापा’, शायद- 'अरे ओ मेरी प्रियतमा'
या शायद 'समथिंग ब्रोकेन, समथिंग रॉटन'
शाम ढले दरबार उठा, विरुदावली पूरी हुई
तो कोई भी उनमें ऐसा न था
जिसके पास भीषण दुख की कोई कथा नहीं थी
एक अदद बंद कोठरी जो हमेशा बंद ही रह गई
और खुली भी तो ऐसे समय
जब उसकी अंतर्कथा जानने के लिए
पुरानी परिचित बंद कोठरियां ही सामने रह गई थीं
मायामृग की सुनहरी झाईं एक बार फिर उनके सामने थी
क्षितिज पर रात की सियाही उसे अपने घेरे में ले रही थी
मायामृग
हर किसी के पास अपनी--अपनी कहानियां थीं
सौंदर्य की, आकर्षण की, लगाव की, वासना की, स्खलन की
प्रणय की, संवाद की, टकराव की, संघर्ष की, युद्ध की
लेकिन तत्व उनका कमोबेश एक सा था
कान तक प्रत्यंचा ताने जब वे वन में घुसे
तो उनके सामने लहर सी डोलती एक सुनहरी छाया थी
और उनकी आंखें अपने तीर की नोक और लक्ष्य के बीच
बनने वाली निरंतर गतिशील रेखा पर थरथरा रही थीं
लक्ष्य चूकने का कोई भय नहीं था
वह तो जैसे खुद ही हजार सुरों में बोल रहा था-
मुझे मारो, मेरा संधान करो, वध करो मेरा
चाहे जैसे भी मुझे स्थिर करो, अपने घर ले जाओ वीर
उत्तेजना का दौर खत्म हुआ, वे सभी विजेता निकले
किसी ने व्हार्टन मारा, किसी ने कैंब्रिज का संधान किया
कोई जापान की तरफ निकला, मरीन बायलॉजिस्ट बनकर लौटा
तो कोई पुलिस कमिश्नर बना, वर्दी पर टांचे वही सुनहरापन
मृग के मरने की भी सबकी अलग--अलग कथाएं थीं
सभी का मानना था कि मरने से पहले वह कुछ बोला था
शायद ‘मां’, शायद ‘पापा’, शायद- 'अरे ओ मेरी प्रियतमा'
या शायद 'समथिंग ब्रोकेन, समथिंग रॉटन'
शाम ढले दरबार उठा, विरुदावली पूरी हुई
तो कोई भी उनमें ऐसा न था
जिसके पास भीषण दुख की कोई कथा नहीं थी
एक अदद बंद कोठरी जो हमेशा बंद ही रह गई
और खुली भी तो ऐसे समय
जब उसकी अंतर्कथा जानने के लिए
पुरानी परिचित बंद कोठरियां ही सामने रह गई थीं
मायामृग की सुनहरी झाईं एक बार फिर उनके सामने थी
क्षितिज पर रात की सियाही उसे अपने घेरे में ले रही थी
ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त की कविता
पोलिश कवि ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त (29 अक्टूबर 1924 – 28 जुलाई 1998) एक पिछली सदी के बड़े कवि, निबन्धकार और नाटककार थे. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सबसे ज़्यादा अनूदित किए गए ज़्बिग्न्यू हेर्बेर्त की औपचारिक शिक्षा अर्थशास्त्र और कानून में हुई थी. १९८६ में वे पेरिस चले गए जहां उन्होंने एक पत्रिका के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया. वे १९९२ में वापस पोलैण्ड आए. उनकी मृत्यु के दस साल बाद पोलिश सरकार ने निर्णय लिया कि सन २००८ को ज़्बिग्न्यू हेर्बेर्त के वर्ष के तौर पर मनाया जाएगा. उनकी एक कविता -
वास्तुशिल्प
एक कोमल मेहराब के ऊपर -
पत्थर की एक भौंह -
एक दीवार के
सुस्थिर माथे पर
प्रसन्न खुली खिड़कियों में
जहां जिरेनियम के बदले चेहरे हैं
जहां सख़्त आयत
सपना देखते दृष्टिकोण की सरहद तक पहुंचते है
जहां सतहों के एक शान्त खेत पर बहती है
एक आभूषण की वजह से जगी एक धारा
गति मिलती है स्थिरता से एक रेखा मिलती है एक पुकार से
कांपती अनिश्चितता सादगीभरी स्पष्टता
तुम हो वहां
वास्तुशिल्प
पत्थर और फ़न्तासी का कारनामा
तुम वहां निवास करते हो सौन्दर्य
एक मेहराब के ऊपर
एक आह जितने हल्के
एक दीवार पर
ऊंचाई के कारण ज़र्द
और एक खिड़की
कांच के एक चौखट के साथ आंसूभरे
स्पष्ट आकृतियों से आए एक भगौड़े
मैं तारीफ़ करता हूं तुम्हारे गतिहीन नृत्य की
वास्तुशिल्प
एक कोमल मेहराब के ऊपर -
पत्थर की एक भौंह -
एक दीवार के
सुस्थिर माथे पर
प्रसन्न खुली खिड़कियों में
जहां जिरेनियम के बदले चेहरे हैं
जहां सख़्त आयत
सपना देखते दृष्टिकोण की सरहद तक पहुंचते है
जहां सतहों के एक शान्त खेत पर बहती है
एक आभूषण की वजह से जगी एक धारा
गति मिलती है स्थिरता से एक रेखा मिलती है एक पुकार से
कांपती अनिश्चितता सादगीभरी स्पष्टता
तुम हो वहां
वास्तुशिल्प
पत्थर और फ़न्तासी का कारनामा
तुम वहां निवास करते हो सौन्दर्य
एक मेहराब के ऊपर
एक आह जितने हल्के
एक दीवार पर
ऊंचाई के कारण ज़र्द
और एक खिड़की
कांच के एक चौखट के साथ आंसूभरे
स्पष्ट आकृतियों से आए एक भगौड़े
मैं तारीफ़ करता हूं तुम्हारे गतिहीन नृत्य की
धरती के मौसमो, युवा रहो सदा
चेस्वाव मीवोश की एक कविता:
खिड़की
भोर के वक़्त मैंने खिड़की से बाहर निगाह डाली और सेब का एक युवा पेड़ देखा
अपनी चमक में पारदर्शी.
और जब मैंने दोबारा बाहर निगाह डाली भोर पर, फलों से लदा सेब का एक पेड़
वहां खड़ा था.
शायद कई साल बीते होंगे पर मुझे ज़रा भी याद नहीं
क्या घटा था मेरी नींद में.
सर्दियां.
कलिफ़ोर्निया की सर्दियों की तीखी गन्धें,
सलेटीपन और ग़ुलाबीपन, एक तकरीबन पारदर्शी पूरा चन्द्रमा.
मैं आग में लकड़ियां डालता हूं, मैं पीता हूं और सोचता हूं.
"इवावा में" एक समाचार बताता है "सत्तर की आयु में
कवि अलेक्सान्दर रिम्कीएविक्ज़ की मृत्यु."
वह सबसे युवा था हमारे समूह में. मैंने उसे थोड़ा संरक्षण दिया था
ठीक जिस तरह मैं दूसरों को दिया करता था उनके लघुतर मस्तिष्कों के कारण.
अलबत्ता उनमें कई सदगुण थे जिन्हें मैं छू तक नहीं सकता था.
और अब मैं यहां हूं, शताब्दी के और अपने
अन्त तक पहुंचता हुआ. अपनी शक्ति पर गर्वित
अलबत्ता दृश्य की प्रांजलता से तनिक शर्मिन्दा.
रक्त में मिले हुए अवां-गार्द.
कल्पनातीत कलाओं की राख़.
कोलाहलों का एक संकलन.
मैंने इस पर अपना फैसला तय किया. अलबत्ता जांचा अपने आप को भी.
यह सदाचारी और भले लोगों का समय नहीं रहा है.
मैं जानता हूं कैसा होता है दैत्यों को जन्म देना
और उनमें पहचानना अपने आप को.
तुम, चन्द्रमा. तुम, अलेक्सान्दर, देवदार के लठ्ठों की आग.
पानी घेर रहे हैं हमें, एक नाम की मियाद होती है बस एक पल.
यह महत्वपूर्ण नहीं कि पीढ़ियां हमें अपनी स्मृति में धारण करेंगी या नहीं.
दुनिया के अप्राप्य अर्थ की खोज में शिकारी कुत्तों के साथ
बढ़िया था वह पीछा करना.
और अब मैं तैयार हूं भागते रहने को
जब सूरज उगेगा मृत्यु की सरहदों के उस पार.
मैं अभी से देख पा रहा हूं एक दिव्य वन में पर्वतश्रृंखलाएं
जहां, हर तत्व के परे, प्रतीक्षा करता है एक नया तत्व.
तुम, मेरे बाद के वर्षों के संगीत, मुझे
बुला रहे हैं एक आवाज़ और एक रंग जो और भी ज़्यादा सम्पूर्ण.
बुझो मत, आग. मेरे सपनों में चले आओ, प्रेम.
धरती के मौसमो, युवा रहो सदा.
खिड़की
भोर के वक़्त मैंने खिड़की से बाहर निगाह डाली और सेब का एक युवा पेड़ देखा
अपनी चमक में पारदर्शी.
और जब मैंने दोबारा बाहर निगाह डाली भोर पर, फलों से लदा सेब का एक पेड़
वहां खड़ा था.
शायद कई साल बीते होंगे पर मुझे ज़रा भी याद नहीं
क्या घटा था मेरी नींद में.
सर्दियां.
कलिफ़ोर्निया की सर्दियों की तीखी गन्धें,
सलेटीपन और ग़ुलाबीपन, एक तकरीबन पारदर्शी पूरा चन्द्रमा.
मैं आग में लकड़ियां डालता हूं, मैं पीता हूं और सोचता हूं.
"इवावा में" एक समाचार बताता है "सत्तर की आयु में
कवि अलेक्सान्दर रिम्कीएविक्ज़ की मृत्यु."
वह सबसे युवा था हमारे समूह में. मैंने उसे थोड़ा संरक्षण दिया था
ठीक जिस तरह मैं दूसरों को दिया करता था उनके लघुतर मस्तिष्कों के कारण.
अलबत्ता उनमें कई सदगुण थे जिन्हें मैं छू तक नहीं सकता था.
और अब मैं यहां हूं, शताब्दी के और अपने
अन्त तक पहुंचता हुआ. अपनी शक्ति पर गर्वित
अलबत्ता दृश्य की प्रांजलता से तनिक शर्मिन्दा.
रक्त में मिले हुए अवां-गार्द.
कल्पनातीत कलाओं की राख़.
कोलाहलों का एक संकलन.
मैंने इस पर अपना फैसला तय किया. अलबत्ता जांचा अपने आप को भी.
यह सदाचारी और भले लोगों का समय नहीं रहा है.
मैं जानता हूं कैसा होता है दैत्यों को जन्म देना
और उनमें पहचानना अपने आप को.
तुम, चन्द्रमा. तुम, अलेक्सान्दर, देवदार के लठ्ठों की आग.
पानी घेर रहे हैं हमें, एक नाम की मियाद होती है बस एक पल.
यह महत्वपूर्ण नहीं कि पीढ़ियां हमें अपनी स्मृति में धारण करेंगी या नहीं.
दुनिया के अप्राप्य अर्थ की खोज में शिकारी कुत्तों के साथ
बढ़िया था वह पीछा करना.
और अब मैं तैयार हूं भागते रहने को
जब सूरज उगेगा मृत्यु की सरहदों के उस पार.
मैं अभी से देख पा रहा हूं एक दिव्य वन में पर्वतश्रृंखलाएं
जहां, हर तत्व के परे, प्रतीक्षा करता है एक नया तत्व.
तुम, मेरे बाद के वर्षों के संगीत, मुझे
बुला रहे हैं एक आवाज़ और एक रंग जो और भी ज़्यादा सम्पूर्ण.
बुझो मत, आग. मेरे सपनों में चले आओ, प्रेम.
धरती के मौसमो, युवा रहो सदा.
Thursday, May 26, 2011
शताब्दी के अन्त के लिए कविता
शताब्दी के अन्त के लिए कविता
चेस्वाव मीवोश
जब सब कुछ भला था
और गायब हो चुकी थी पाप की अवधारणा
और बिना सम्प्रदायों और कल्पनालोकों के
एक सार्वभौम शान्ति में
धरती तैयार थी
चीज़ों का इस्तेमाल करने और प्रसन्न होने के लिए.
अज्ञात कारणों से
मैं घिरा हुआ था
फ़रिश्तों और धर्मशास्त्रियों
दार्शनिकों और कवियों की किताबों से
और किसी उत्तर को खोजता था,
त्यौरियां चढ़ाए, मुंह बनाता हुआ
रातों को जगता, भोर में बड़बड़ाता.
मुझे जिस चीज़ ने इस कदर सताया
वह थोड़ी शर्मनाक थी.
उसका नाम लेने में
न तो चालाकी नज़र आएगी न समझदारी.
वह मनुष्यता के स्वास्थ्य के खिलाफ़
उपद्रव तक लग सकता है.
आह, मेरी स्मृति
मुझे छोड़ना ही नहीं चाहती
और उसके भीतर लोग रहते हैं
हरेक के पास अपना दर्द
हरेक के पास अपना मरना,
इसकी अपनी थरथराहट.
तो स्वर्ग सरीखे समुद्रतटों पर
निष्कपटता क्यों,
स्वास्थ्य के गिरजाघर के ऊपर
एक त्रुटिहीन आसमान?
क्या ऐसा इसलिए है कि
वह बहुत पुरानी बात है?
एक अरबी कथा के मुताबिक
एक सन्त पुरुष से
तनिक दुर्भावना के साथ ईश्वर ने कहा
"अगर मैंने लोगों के बता दिया होता
तुम कितने बड़े पापी हो
तो वे तुम्हारी प्रशंसा न करते."
"और अगर" सन्त ने जवाब दिया
"मैंने उन्हें बता दिया होता
कि आप कितने दयालु हैं
तो वे आपकी परवाह तक न करते."
दुनिया की संरचना के भीतर
दर्द और अपराधबोध
के उस काले मसले के साथ
किसका मुंह तकूं मैं,
या तो यहां नीचे
या उधर ऊपर
कोई भी ताकत
कारण और परिणाम को नष्ट नहीं कर सकती?
मत सोचो, मत करो याद
सलीब पर मौत को,
अलबत्ता वह मरता है हर रोज़,
वह इकलौता, सब को प्रेम करने वाला
जिसने बिना किसी ज़रूरत के
सहमति दी और
यातना देने वाली कीलों समेत
हरेक चीज़ को बने रहने की इजाज़त दी.
पूरी तरह गूढ़.
असम्भव जटिल.
बेहतर है वाणी पर रोक लगा दी जाए.
लोगों के लिए नहीं है यह भाषा.
प्रसन्नता को आशीष मिले.
अंगूर और फ़सल.
चाहे हर किसी को न मिले
शान्ति.
मैं कसम खाता हूं, मेरे भीतर शब्दों की कोई जादूगरी नहीं
पोलिश भाषा के बड़े कवि चेस्वाव मीवोश की दो और कविताएं
समर्पण
सुनो, तुम
जिन्हें मैं बचा न सका.
इस सादा बयान को समझने की कोशिश करो क्योंकि किसी और से मुझे शर्मिन्दगी होगी.
मैं कसम खाता हूं, मेरे भीतर शब्दों की कोई जादूगरी नहीं.
मैं तुमसे बात करता हूं जैसे कोई बादल या पेड़ करेगा ख़ामोशी से.
वही घातक था तुम्हारे लिए जिसने ताकत दी मुझे.
तुमने एक युग की विदाई को लिपझा दिया एक नए युग की शुरुआत से,
घृणा की प्रेरणा को काव्यात्मक सौन्दर्य से,
अन्धी ताकत को सम्पादित आकार से.
ये रही उथली पोलिश नदियों की घाटी. और एक विशालकाय पुल
सफ़ेद कोहरे में जाता हुआ. ये रहा एक टूटा शहर
और हवा फेंक रही है मूर्खों की चीखें तुम्हारी कब्र पर
जब मैं तुम से बात कर रहा हूं.
क्या है कविता जो
देशों और लोगों को न बचाए?
आधिकारिक झूठों के साथ एक सांठगांठ
नशेड़ियों का एक गीत, जिनके गले एक पल में काट डाले जाएंगे,
कॉलेज जाने वाली लड़कियों के लिए पाठ.
कि मुझे बग़ैर जाने अच्छी कविता चाहिए थी,
कि मैंने देर से उस के अकेले उद्देश्य को पाया,
इसमें और सिर्फ़ इसी में है मेरी मुक्ति.
लोग उड़ेला करते थे कब्रों पर मोटा अन्न या पोस्त के बीज
मृतकों को भोजन देने को जिन्होंने चिड़ियों का भेस धर कर आना था.
मैं यह किताब रख रहा हूं यहां तुम्हारे लिए, तुम जो एक बार जिए थे
ताकि अब तुम हमें मिलने आगे से न आया करो.
लोहार की दुकान
मुझे पसन्द आईं रस्सी से चलाई जाने वाली धौंकनियां
हाथ या पैर वाला एक पैडल - मुझे याद नहीं कौन सा था.
लेकिन वह फूंका जाना, और आग की लपट!
और आग में लोहे का एक टुकड़ा, चिमटियों से थामा हुआ,
लाल,
पीटा जाता हुआ हथौड़े से, मोड़ा गया घोड़े की नाल में,
फेंका गया पानी की बाल्टी में, छन्न-छन्न, भाप.
नालें पहनाने को बांधे गए घोड़े,
अपनी अयालें हिलाते हुए; और नदी किनारे घास
मरम्मत किए जाने की प्रतीक्षा में हलों की फालें, हथगाड़ियां, कुदालियां
प्रवेश पर, मिट्टी के फ़र्श पर मेरे नंगे पैर
यहां, गर्मी के थपेड़े; मेरे पीछे सफ़ेद बादल.
मैं देखता जाता हूं देखता जाता हूं. ऐसा लगता है मुझे इसी के लिए बुलाया गया था:
चीज़ों का गरिमागान करने को सिर्फ़ इसलिए कि वे हैं.
समर्पण
सुनो, तुम
जिन्हें मैं बचा न सका.
इस सादा बयान को समझने की कोशिश करो क्योंकि किसी और से मुझे शर्मिन्दगी होगी.
मैं कसम खाता हूं, मेरे भीतर शब्दों की कोई जादूगरी नहीं.
मैं तुमसे बात करता हूं जैसे कोई बादल या पेड़ करेगा ख़ामोशी से.
वही घातक था तुम्हारे लिए जिसने ताकत दी मुझे.
तुमने एक युग की विदाई को लिपझा दिया एक नए युग की शुरुआत से,
घृणा की प्रेरणा को काव्यात्मक सौन्दर्य से,
अन्धी ताकत को सम्पादित आकार से.
ये रही उथली पोलिश नदियों की घाटी. और एक विशालकाय पुल
सफ़ेद कोहरे में जाता हुआ. ये रहा एक टूटा शहर
और हवा फेंक रही है मूर्खों की चीखें तुम्हारी कब्र पर
जब मैं तुम से बात कर रहा हूं.
क्या है कविता जो
देशों और लोगों को न बचाए?
आधिकारिक झूठों के साथ एक सांठगांठ
नशेड़ियों का एक गीत, जिनके गले एक पल में काट डाले जाएंगे,
कॉलेज जाने वाली लड़कियों के लिए पाठ.
कि मुझे बग़ैर जाने अच्छी कविता चाहिए थी,
कि मैंने देर से उस के अकेले उद्देश्य को पाया,
इसमें और सिर्फ़ इसी में है मेरी मुक्ति.
लोग उड़ेला करते थे कब्रों पर मोटा अन्न या पोस्त के बीज
मृतकों को भोजन देने को जिन्होंने चिड़ियों का भेस धर कर आना था.
मैं यह किताब रख रहा हूं यहां तुम्हारे लिए, तुम जो एक बार जिए थे
ताकि अब तुम हमें मिलने आगे से न आया करो.
लोहार की दुकान
मुझे पसन्द आईं रस्सी से चलाई जाने वाली धौंकनियां
हाथ या पैर वाला एक पैडल - मुझे याद नहीं कौन सा था.
लेकिन वह फूंका जाना, और आग की लपट!
और आग में लोहे का एक टुकड़ा, चिमटियों से थामा हुआ,
लाल,
पीटा जाता हुआ हथौड़े से, मोड़ा गया घोड़े की नाल में,
फेंका गया पानी की बाल्टी में, छन्न-छन्न, भाप.
नालें पहनाने को बांधे गए घोड़े,
अपनी अयालें हिलाते हुए; और नदी किनारे घास
मरम्मत किए जाने की प्रतीक्षा में हलों की फालें, हथगाड़ियां, कुदालियां
प्रवेश पर, मिट्टी के फ़र्श पर मेरे नंगे पैर
यहां, गर्मी के थपेड़े; मेरे पीछे सफ़ेद बादल.
मैं देखता जाता हूं देखता जाता हूं. ऐसा लगता है मुझे इसी के लिए बुलाया गया था:
चीज़ों का गरिमागान करने को सिर्फ़ इसलिए कि वे हैं.
लिफ्टमैनों को सलाम
कथाकार सूरज प्रकाश ने ख़ास कबाड़ख़ाने के वास्ते यह रचना भेजी है. लुत्फ़ उठाइए:
ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर चालीस बरस
पिछले दिनों पुणे में एक होटल में ठहरना हुआ. होटल एक मॉल की पांचवीं और छठी मंजि़ल पर था. पहली मंजि़ल से तीसरी मंजिल पर खाना-पीना, कुछ दुकानें और सिनेमाघर. इनके लिए लोग लिफ्ट का इस्तेमाल कम ही करते. चौथी मंजि़ल पर सिनेमाघरों के स्क्रीन के कारण लिफ्ट रुकती नहीं थी.
तो मैं होटल में आने-जाने के लिए जब भी लिफ्ट में गया, चाहे सुबह 6 बजे सैर पर जाने के लिए या देर रात कहीं से वापिस आने के लिए, लिफ्ट का बटन दबाते ही दरवाजा खुलता और मुझे उसके भीतर लिफ्टमैन खड़ा नज़र आता. दो-चार बार के बाद ही उसे पता चल गया था कि मैं होटल में रुका हूं तो वह बिना पूछे ही पांचवीं मंजिल का बटन दबा देता. उसे लिफ्ट के भीतर देखते ही मैं हर बार चौंक जाता और सोचने लगता – कितनी मुश्किल नौकरी है बेचारे की. होटल में कुल तीस कमरे हैं और दो लिफ्ट. ये तय है कि होटल में आने-जाने का समय आम तौर पर सुबह नौ-दस बजे और होटल के चैक-इन और चैक-आउट के समय ही ज्यादा होता होगा. ऐसे में जब लिफ्ट नहीं चल रही होती तो वह बेचारा किसी न किसी के द्वारा बटन दबाये जाने का इंतजार करता रहता होगा. खड़े-खड़े, क्योंकि लिफ्ट में स्टूल नहीं है. ये इंतज़ार कई-कई बार घंटों का भी रहता होगा. अगर वह लिफ्ट के बाहर भी खड़ा हो कर इंतज़ार करे तो एक तरफ होटल की लॉबी और दूसरी तरफ रिसेप्शन. वहां भी भला उससे बात करने वाला कौन होगा! वैसे भी लिफ्टमैन बेचारा सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के अलावा बोलता ही कहां है. सुनने के नाम पर उसके हिस्से में लिफ्ट में कुछ पलों के लिए आये मुसाफिरों के आधे अधूरे वाक्य ही तो आते हैं जो हर मुसाफिर के जाने के बाद हमेशा के लिए आधे ही रह जाते हैं. लिफ्टमैन की पूरी जिंदगी ये आधे अधूरे वाक्य सुनते ही गुज़र जाती है. दुनिया भर के लिफ्टमैन आधा-अधूरा सुनने और सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के लिए अभिशप्त हैं.
पूछा था मैंने उस लिफ्टमैन से कि कितने घंटे की नौकरी है और कि क्या अजीब नहीं लगता बंद लिफ्ट में इस तरह से लगातार खड़े रहना और इंतज़ार करना कि कोई बटन दबाये तो लिफ्ट ऊपर या नीचे हो. वह झेंपी हुई हँसी हँसा था - साब, नौकरी यही है तो किससे शिकायत. दस घंटे की ड्यूटी होती है और बीच-बीच में रिलीवर आ जाता है. तब मैंने हिसाब लगाया था - यही लिफ्टमैन अकेला तो नहीं है जो लिफ्ट, यानी ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह के भीतर खड़ा है. हमेशा बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में. खुद बटन दबाये भी क्या हो जाने वाला है. अपनी मर्जी से लिफ्ट को कहीं और ले जा भी नहीं सकता. सिर्फ ऊपर या सिर्फ नीचे.
पुणे में ऐसे पचीसों इमारतें होंगी, महाराष्ट्र में सैकड़ों, पूरे देश में हजारों और पूरी दुनिया में लाखों जहां ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर एक न एक लिफ्टमैन खड़ा किसी न किसी के द्वारा बाहर से बटन दबाये जाने का इंतज़ार कर रहा होगा और ये इंतज़ार वह ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर तब तक करता रहेगा जब तक वह इस काम से रिटायर न हो जाये या उसे कोई बेहतर काम न मिल जाये. तब उसकी जगह कोई और वर्दीधारी, टाई लगाये दूसरा लिफ्टमैन आ जायेगा. अपनी उम्र के चालीस बरस वहां गुजारने के लिए. ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह में. बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में. आधे अधूरे संवाद सुनने के लिए अभिशप्त.
इससे पहले कि लिफ्टमैन मुझे सलाम करे और मेरा फ्लोर नम्बर पूछे, मैं दुनिया भर के ऐसे सारे लिफ्टमैनों को सलाम करता हूं.
ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर चालीस बरस
पिछले दिनों पुणे में एक होटल में ठहरना हुआ. होटल एक मॉल की पांचवीं और छठी मंजि़ल पर था. पहली मंजि़ल से तीसरी मंजिल पर खाना-पीना, कुछ दुकानें और सिनेमाघर. इनके लिए लोग लिफ्ट का इस्तेमाल कम ही करते. चौथी मंजि़ल पर सिनेमाघरों के स्क्रीन के कारण लिफ्ट रुकती नहीं थी.
तो मैं होटल में आने-जाने के लिए जब भी लिफ्ट में गया, चाहे सुबह 6 बजे सैर पर जाने के लिए या देर रात कहीं से वापिस आने के लिए, लिफ्ट का बटन दबाते ही दरवाजा खुलता और मुझे उसके भीतर लिफ्टमैन खड़ा नज़र आता. दो-चार बार के बाद ही उसे पता चल गया था कि मैं होटल में रुका हूं तो वह बिना पूछे ही पांचवीं मंजिल का बटन दबा देता. उसे लिफ्ट के भीतर देखते ही मैं हर बार चौंक जाता और सोचने लगता – कितनी मुश्किल नौकरी है बेचारे की. होटल में कुल तीस कमरे हैं और दो लिफ्ट. ये तय है कि होटल में आने-जाने का समय आम तौर पर सुबह नौ-दस बजे और होटल के चैक-इन और चैक-आउट के समय ही ज्यादा होता होगा. ऐसे में जब लिफ्ट नहीं चल रही होती तो वह बेचारा किसी न किसी के द्वारा बटन दबाये जाने का इंतजार करता रहता होगा. खड़े-खड़े, क्योंकि लिफ्ट में स्टूल नहीं है. ये इंतज़ार कई-कई बार घंटों का भी रहता होगा. अगर वह लिफ्ट के बाहर भी खड़ा हो कर इंतज़ार करे तो एक तरफ होटल की लॉबी और दूसरी तरफ रिसेप्शन. वहां भी भला उससे बात करने वाला कौन होगा! वैसे भी लिफ्टमैन बेचारा सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के अलावा बोलता ही कहां है. सुनने के नाम पर उसके हिस्से में लिफ्ट में कुछ पलों के लिए आये मुसाफिरों के आधे अधूरे वाक्य ही तो आते हैं जो हर मुसाफिर के जाने के बाद हमेशा के लिए आधे ही रह जाते हैं. लिफ्टमैन की पूरी जिंदगी ये आधे अधूरे वाक्य सुनते ही गुज़र जाती है. दुनिया भर के लिफ्टमैन आधा-अधूरा सुनने और सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के लिए अभिशप्त हैं.
पूछा था मैंने उस लिफ्टमैन से कि कितने घंटे की नौकरी है और कि क्या अजीब नहीं लगता बंद लिफ्ट में इस तरह से लगातार खड़े रहना और इंतज़ार करना कि कोई बटन दबाये तो लिफ्ट ऊपर या नीचे हो. वह झेंपी हुई हँसी हँसा था - साब, नौकरी यही है तो किससे शिकायत. दस घंटे की ड्यूटी होती है और बीच-बीच में रिलीवर आ जाता है. तब मैंने हिसाब लगाया था - यही लिफ्टमैन अकेला तो नहीं है जो लिफ्ट, यानी ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह के भीतर खड़ा है. हमेशा बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में. खुद बटन दबाये भी क्या हो जाने वाला है. अपनी मर्जी से लिफ्ट को कहीं और ले जा भी नहीं सकता. सिर्फ ऊपर या सिर्फ नीचे.
पुणे में ऐसे पचीसों इमारतें होंगी, महाराष्ट्र में सैकड़ों, पूरे देश में हजारों और पूरी दुनिया में लाखों जहां ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर एक न एक लिफ्टमैन खड़ा किसी न किसी के द्वारा बाहर से बटन दबाये जाने का इंतज़ार कर रहा होगा और ये इंतज़ार वह ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर तब तक करता रहेगा जब तक वह इस काम से रिटायर न हो जाये या उसे कोई बेहतर काम न मिल जाये. तब उसकी जगह कोई और वर्दीधारी, टाई लगाये दूसरा लिफ्टमैन आ जायेगा. अपनी उम्र के चालीस बरस वहां गुजारने के लिए. ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह में. बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में. आधे अधूरे संवाद सुनने के लिए अभिशप्त.
इससे पहले कि लिफ्टमैन मुझे सलाम करे और मेरा फ्लोर नम्बर पूछे, मैं दुनिया भर के ऐसे सारे लिफ्टमैनों को सलाम करता हूं.
Wednesday, May 25, 2011
दंगा भेजियो मौला
आमतौर पर मैं इस ब्लॉग पर कहानियां पोस्ट करने का हिमायती नहीं हूं, लेकिन जब आज मैंने सुबह अनिल यादव के पहले कहानी-संग्रह "नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं" के प्रकाशन की सूचना के साथ यह भी कहा था कि आज उनके संग्रह से कुछ अंश यहां प्रस्तुत करूंगा तो मैंने पाया कि अनिल की एक कहानी दंगा भेजियो मौला अपने अपेक्षाकृत छोटे आकार के चलते पूरी की पूरी भी पोस्ट की जा सकती है. इस से आपको अनिल की भाषा और विषय के चुनाव में लिए जाने वाले सायास ज़ोख़िम की बानगी नज़र आएगी. प्रस्तुत है कहानी दंगा भेजियो मौला-
धूप इतनी तेज थी कि पानी से उठती भाप झुलसा रही थी. कीचड़ के बीच कूड़े के ऊंचे ढेर पर एक कतार में छह एकदम नये, छोटे-छोटे ताबूत रखे हुए थे. सामने जहां तक मोमिनपुरा की हद थी, सीवर के पानी की बजबजाती झील हिलोरें मार रही थी, कई बिल्लियों और एक गधे की फूली लाशें उतरा रही थीं.
हवा के साथ फिरते जलकुंभी और कचरे के रेलों के आगे काफी दूरी पर एक नाव पानी में हिल रही थी जिसकी एक तरफ अनाड़ी लिखावट में सफेद पेंट से लिखा था "दंगे में आएंगे" और नाव की नोंक पर जरी के चमकदार कपड़े का एक छोटा सा झंडा फड़फड़ा रहा था.
बदबू के मारे नाक फटी जा रही थी, बच्चों के सिवा सबने अपने मुंह गमछों और काफियों से लपेट रखे थे. पीछे बुरके और सलूके घुटनों तक खोंसे औरतों का झुंड था जिसमें रह-रह हिचकियां फूट रही. कभी-कभार रुलाई की महीन, कंपकंपाती कोई भटकी हुई तरंग और हवा उसे उड़ा ले जाती.
ये सभी बस्ती के उस पार कब्रिस्तान जाने के लिए नाव का इंतजार कर रहे थे. हवा में इठलाते झंडे वाली नाव थी कि जैसे चिढ़ा रही थी कि दंगा होगा तब इस पार आएगी वरना उसे यकीन नहीं है कि ताबूतों में लाशें या लाशों के नाम पर कुछ और.
तैर कर थक जाने के बाद, एक नंग-धड़ंग किशोर नाव में अकेला बैठा, मुंह बाए इस भीड़ को ताक रहा था. छह ताबूत मुंह बांधे कोई पचास लोगों की भीड़, चौंधियाता सूरज और पानी पर सांय-सांय करती बरसात की दोपहर. बस्ती के आधे डूबे मकानों में से किसी छत पर रेडियो से गाना आ रहा था.
अचानक लोग झल्लाकर नाव और लड़के को गालियां देने लगे. लड़का अदृश्य भाप से छन कर आती भुनभुनाहट को कान लगाये लगाये सुनने की कोशिश करता रहा लेकिन भीड़ थप्पड़, मुक्के लहराने लगी तो वह हड़बड़ा कर नाव से कूद पड़ा और फिर तैरने लगा. भीड़ फिर खामोश होकर धूप में लड़के की कौंधती पीठ ताकते हुए इंतजार करने लगी.
बड़ी देर बाद तीन लड़के यासीन, जुएब और लड्डन नाव लेकर इस पार आये और कई फेरे कर ताबूतों को उस पार के कब्रिस्तान में ले गये. नाव दिन भर बस्ती के असहनीय दुख ढोती रही.
शाम होते ही किनारों पर बसी कालोनियों की बत्तियां जलीं और सीवर की झील झिलमिल रोशनियों से सज गयी. लगता था कि यह कोई खूबसूरत सा शांत द्वीप है. रात गये लोग उन छह बच्चों को मिट्टी देकर मुंह बांधे प्रेतों के काफिले की तरह इस पार वापस लौटे.
ये चार लड़के और दो लड़कियां आज सुबह तक पानी में डूबे एक घर की छत पर खेल रहे थे. डेढ़ महीने से पानी में आधा डूबा मिट्टी के गारे का मकान अचानक भरभरा कर बैठ गया और वे डूब कर मर गये. थोड़ी ही देर में उनकी कोमल लाशें बिल्लियों की तरह फूलकर बहने लगीं. मकान की साबुत खड़ी रह गयी एक मुंडेर पर उनका खाना जस का तस धरा रह गया और जो राम जी के सुग्गे (ड्रैगनफ्लाई) उन्होंने पकड़ कर करघे के रेशमी धागों से बांधे थे वे अब भी वहीं उड़ रहे थे.
इन रंग-बिरंगी रेशमी पूंछ वाले पतंगों के पंखों की सरसराहट जितना जीवन वे छोड़ गये थे, वही इस सड़ती काली झील के ऊपर नाच रहा था. बाकी बस्ती सुन्न थी. पानी में डूबे घरों में उन बच्चों की मांओं की सिसकियों की तरह कुप्पियां भभक रही थीं.
नदी के किनारे बसे शहर के बाहरी निचले हिस्से में आबाद मोमिनपुरा का हर साल यही हाल होता था. बरसात आते ही पानी के साथ शहर भर का कूड़ा-कचरा मोमिनपुरा की तरफ बहने लगता और जुलाहे ताना-बाना, करघे समेट कर भागने लगते. इसी समय मस्जिद के आगे जुमे के रोज लालटेनें, नीम का तेल, प्लास्टिक के जूते और बांस की सीढ़ियां बेचने वाले अपना बाजार लगा लेते थे.
सबसे पहले मकानों के तहखानों में करघों की खड्डियों में पानी भरता और गलियों में अनवरत गूंजने वाला खड़क-खट-खड़क-खट-खड़क का रोटी की मिठास जैसा संगीत घुटने भर पानी में डूब कर दम तोड़ जाता. लोग बरतन-बकरियां, मुर्गियां, बुने अधबुने कपड़ों के थान और बच्चों को समेट कर शहर में ऊपर के ठिकानों की तरफ जाने लगते फिर भी एक बड़ी आबादी का कहीं ठौर नहीं था. वे मकानों की ऊपर की मंजिलों में चले जाते. एक मंजिला घरों की छतों पर सिरकियां, छोलदारियां लग जातीं.
इसी समय मोमिनपुरा की बिजली काट दी जाती क्योंकि पानी में करंट उतरने से पूरी बस्ती के कब्रिस्तान बन जाने का खतरा था. पावरलूम की मशीनें खामोश होकर डूबने लगतीं क्योंकि उन्हें इतनी जल्दी खोदकर कहीं और ले जाना संभव नहीं था. तभी दूसरे छोर पर बढियाई नदी के दबाव से पूरे शहर की सीवर लाइनें उफन कर उल्टी दिशा में बहने लगतीं. मैनहोलों पर लगे ढक्कन उछलने लगते और बीस लाख आबादी का मल-मूत्र बरसाती रेलों के साथ हहराता हुआ मोमिनपुरा में जमा होने लगता.
चतुर्मास में जब साधु-संतों के प्रवचन शुरू होते, मंदिरों में देवताओं के श्रृंगार उत्सव होते, कंजरी के दंगल आयोजित होते और हरितालिका तीज पर मारवाड़िनों के भव्य जुलूस निकलते तभी यह बस्ती इस पवित्र शहर का कमोड बन जाती थी. मोमिनपुरा को पानी सप्लाई करने वाले पंपिंग स्टेशन पर कर्मचारी ताला डालकर छुट्टी पर चले जाते क्योंकि कटी-फटी पाइप लाइनों के कारण मोमिनपुरा पूरे शहर में महामारी फैला सकता था.
मोमिनपुरा वाले चंदा लगाकर मल्लाहों से दस-बारह नावें किराए पर ले आते और वहां का जीवन अचानक शहर की बुनकर बस्ती की खड़कताल से बिदक कर बाढ़ में डूबे, अंधियारी कछारी गांव की चाल चलने लगता. मल्लाह नावें तो दे देते थे लेकिन यहां आकर चलाने के लिए राजी नहीं होते थे. थोड़ी ज्यादा आमदनी पर गू-मूत में नाव खेने से उन्हें एतराज नहीं था, डर था कि कई एकड़ की झील में अगर मुसलमान काट कर फेंक देंगे तो किसी को पता भी नहीं चलेगा.
हर घर की छत तक, कीचड़ में धंसा कर बांस की एक सीढ़ी लगा दी जाती. राशन, सौदा-सुल्फा लोग पास के बाजारों से ले आते. एक नाव दिन रात पास के मोहल्लों से पीने के पानी की फेरी करती रहती थी. लोग कपड़ों की फेरी करने नाव से पास के गांवों, शहरों में जाते, बच्चे दिन भर पानी में छपाका मारते या खामखां मछली पकड़ने की बन्सियां डालकर बैठे रहते. छतों पर टंगे लोग हर शाम सड़ते पैरों और जानलेवा खुजली वाले हिस्सों पर नीम का तेल पोतते. लुंगी, टोपी, बधना हर चीज में मौजूद झुंड की झुंड चीटियों से जूझते और पानी जल्दी उतरने की मन्नतें करते. महीना-पचीस दिन में काली झील सिकुड़ने लगती और बस्ती पर बीमारियां टूट पड़तीं. हैजा, गैस्ट्रो, डायरिया से सैकड़ो लोग मरते जिनमें ज्यादातर बच्चे होते. उन्हें दफनाने के कई महीने बाद कहीं जाकर रोटी के मिठास वाला संगीत फिर सुनाई देने लगता और जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट आती.
इस साल डेढ़ महीना गया पानी नहीं उतरा. दानवाकार काली झील का दायरा फैलता ही जा रहा था. छतों पर टंगे लोग हैरत और भय से पानी को घूरते रहते. …एक दिन अचानक बढ़ता पानी बोलने लगा.
बस्ती की जिंदगी और इस पानी का रंग, रूप, नियति एक ही जैसे थे. आचमन करने और हाथ में जल लेकर गंगा-जमुनी तहजीब का हवाला देने के दिन कब के लद चुके थे. यह शहर अब इस पानी और बस्ती दोनों से छुटकारा पाना चाहता था. इस बार पानी कुछ कह रहा था… डभ्भक-डभ्भाक… डभ्भक-डभ्भाक… बस्ती के लोग सुनते थे लेकिन समझ नहीं पा रहे थे.
भोर के नीम अंधेरे में जब मोमिनपुरा के लोग एक दूसरे से नजरें चुराते हुए, कौओं की तरह पंजों से मुंडेरों को पकड़े शौच कर रहे होते ठीक उसी वक्त आगे मोटर साइकिलों, पीछे कारों पर सवार लोगों की प्रभात फेरी शहर से निकलती. शंख-घंटे-तुरहियां बजाते कई झुंड बस्ती से सटकर गुजरते हाई-वे की पुलिया पर रुकते, गगनभेदी नारों के बीच वे टार्चों की रोशनियां छतों पर टंगे जुलाहों पर मारते और कहकहे लगाते. फिर बूढ़े, जवान और किशोर एक साथ किलक कर गले बैठ जाने तक चिल्लाते रहते -
"पाकिस्तान में ईद मनायी जा रही है"
"डल झील में आतिशबाजी हो रही है" सुबह सूरज निकलने तक घंटे-घड़ियाल बजते रहते.
झील का पानी बोलता रहा. इस साल कई और नये अपशकुन हुए. मल्लाहों ने नावें देने से मना कर दिया, उनका कहना था कि जिस नाव से भगवान राम को पार उतारा था उसे भला गू-मूत में कैसे चला सकते हैं. म्यूनिसिपैलिटी ने इस साल पानी निकासी के लिए एक पंप नहीं लगाया, अफसरों ने लिख कर दे दिया सारे पंप खराब हैं, मरम्मत के लिए पैसा नहीं है, सरकार पैसा भेजेगी तो पानी निकाला जाएगा. लोक निर्माण विभाग ने घोषित कर दिया कि हाईवे की पुलिया से हर साल की तरह अगर पानी की निकासी की गयी तो जर्जर सड़क टूट सकती है और शहर का संपर्क बाकी जगहों से कट सकता है. आपदा राहत विभाग ने ऐलान कर दिया कि यह बाढ़ नहीं मामूली जलभराव है, इसलिए कुछ करने प्रश्न ही नहीं पैदा होता.
अस्पतालों ने मोमिनपुरा के मरीजों को भर्ती करने से मन कर दिया कि जगह नहीं है और संक्रमण से पूरे शहर में महामारी का खतरा है. पावरलूम की मशीनें और मकानों का मलवा खरीदने के लिए कबाड़ी फेरे लगाने लगे. पानी में डूबे मकानों का तय-तोड़ होने लगा. रियल इस्टेट के दलाल समझा रहे थे कि हर साल तबाही लाने वाली जमीन से मुसलमान औने-पौने में जितनी जल्दी पिन्ड छुड़ा लें उतना अच्छा है. यासीन की खाला ने अपने दूल्हा भाई को संदेश भेजा था कि मोमिनपुरा में अबकी न घर बचेगा न रोजगार बचेगा, इसलिए फिजूल की चौकीदारी करने बजाए जल्दी से कुनबे समेत यहां चले आएं, उनके बसने और रोटी का इंतजाम हो जाएगा. परवेज और इफ्फन के पूरे खानदान को उनके मामू जबरन अपने साथ घसीट ले गये थे.
परवेज और इफ्फन, ये दोनों भाई मोमिनपुरा के मशहूर स्पिनर थे. यासीन उस निराली टीम का कप्तान था जिसका कोई नाम नहीं था. इसके ज्यादातर खिलाड़ी ढरकी और तानी भरने की उम्र पार कर चुके थे. अब वे बिनकारी, डिजाइनिंग और फेरी के वक्त ग्राहकों से ढाई गुना दाम बताकर आधे पर तय-तोड़ करना सीख रहे थे. लेकिन यह सब वे अब्बुओं और फूफियों से काफी फटकारे-धिक्कारे जाने के बाद ही करते थे.
ज्यादातर समय वे तानों के रंग-बिरंगे धागों से घिरे मैदान में खपच्चियां गाड़ कर क्रिकेट की प्रैक्टिस किया करते थे. किट थी लुंगी, ढाका से आयी रबड़ की सस्ती चप्पलें और गोल नमाजी टोपी. गिजा थी बड़े का गोश्त और आलू का सालन. रियाज था तीन दिन में पचास गांवों की साइकिल से फेरी और कोच था टेलीविजन. शुएब अख्तर, सनत जयसूर्या, सचिन तेन्दुलकर, जोन्टी रोडस, डेरेल टफी, शेन वार्न सभी दिन में उनकी नसों में बिजली की तरह फिरते थे और रातों को सपने में आकर उनकी पसंद की लड़कियों और प्रेमिकाओं को हथिया ले जाते थे.
मोमिनपुरा की लड़कियां भी कैसी बेहया थीं जो छतों से छुप-छुप कर इशारे उन्हें करती थीं, तालियां उनके खेल पर बजातीं थीं लेकिन हरजाई हंसी हंसते हुए उन चिकनों की लंबी-लंबी गाड़ियों में बैठ कर फुर्र हो जाती थीं.
अब ये ब्लास्टर, स्विंगर और गुगलीबाज छतों पर गुमसुम लेटे आसमान में मंडराती चीलों को ताकते थे, भीतर कहीं घुमड़ती मस्जिद की अजान सुनते थे और नीचे बजबजाते पानी से बतियाते रहते थे.
खबर आयी कि बढ़ियाई नदी में पंप लगाये जा रहे हैं जिनका पानी भी इधर ही फेंका जाएगा. एक दिन हवा के थपेड़ों से पगलाये पानी ने यासीन से पूछा, "तुम्हारे अल्ला मियां कहां है? क्या अब भी…” यासीन ने कुढ़कर सोचा, अब यहां का गंधाता पानी निकालने के लिए भी क्या अल्ला मियां को ही आना होगा.
मल्लाहों के नाव देने से मना कर देने के बाद बस्ती के जैसे हाथ-पांव ही कट गये थे. ऐसे में पता नहीं कहां से पैसे इकट्ठा कर यासीन और उसके निठल्ले दोस्त एक पुरानी नाव खरीद लाये. टीम काम पर लग गयी. लड़कों ने पुरानी नाव को रंग-रोगन किया, जरी के एक टुकड़े पर एमसीसी लिख कर डंडे से टांग दिया. इस तरह उस गुमनाम टीम का मोमिनपुरा स्पोर्टिंग क्लब पड़ गया और दो चप्पुओं से बस्ती की जिंदगी सीवर के पानी में चलने लगी. फिर टीम मदद मांगने बाहर निकली.
पहले वे उन नेताओं, समाज सेवियों और अखबार वालों के पास गये जो दो बरस पहले हुए दंगे के दौरान बस्ती में आये थे और उन्होंने उनके बुजुर्गों को पुरसा दिया था. वे सभी गरदनें हिलाते रहे लेकिन झांकने नहीं आए. फिर वे सभी पार्टियों के नेताजियों, अफसरों-हाकिमों, स्वयंसेवी संगठनों के भाईजियों और मीडिया के भाईजानों पास गये.
हर जगह टीम के ग्यारह मुंह एक साथ खुलते, "जनाब, खुदा के वास्ते बस एक बार चल कर देख लीजिए हम लोग किस हाल में जी रहे हैं. पानी ऐसे ही बढ़ता रहा तो सारे लोग मर जाएंगे"
किसी ने सीधे मुंह बात नहीं की. पता चलते ही कि मोमिनपुरा वाले हैं उन्हें बाहर से टरका दिया जाता था. वे गू-मूत में लिथड़ी महामारी थे जिनसे हर कोई बचना चाहता था. फलां के पास जाओ, पहले कागज लाओ, देखते हैं… देख रहे हैं… देखेंगे… ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं… सुनते-सुनते वे बेजार हो गये.
देर रात गये जब वे अपनी साईकिलें नाव पर लाद कर वे जब घरों की ओर लौटते, अंधेरी छतों से आवाजें आतीं, "क्या यासीन मियां वे लोग कब आएंगे?”
अंधेरे में लड़के एक दूसरे को लाचारी से ताकते रहते और नाव चुपचाप आगे बढ़ती रहती. टीम के लड़के दौड़ते रहे, लोग टरकाते रहे और बस्ती पूछती रही. एक रात बढ़ियाते पानी ने घर लौटते लड़कों से, "बेटा, अब वे लोग नहीं आएंगे"
"काहे?" यासीन ने पूछा.
तजुरबे की बात है उस दुनिया के लोग यहां सिर्फ दो बखत आते हैं या दंगे में या इलेक्शन में. गलतफहमी में न रहना कि वे यहां आकर तुम्हारे बदन से गू-मूत पोंछ कर तुम लोगों को दूल्हा बना देंगे. अगले ही दिन यासीन ने दांत भींचकर हर रात, सैकड़ो आवाजों में पूछे जाने वाले उस एक ही सवाल का जवाब नाव पर सफेद पेंट से लिख दिया – "दंगे में आएंगे" ताकि हर बार जवाब देना न पड़े.
काला पानी कब से लोगों से यही बात कह रहा था लेकिन वे जाने किससे और क्यों मदद की उम्मीद लगाये हुए थे. भोर की प्रभात फेरी में पाकिस्तानियों को ईद की मुबारकबाद देने वालों की तादाद बढ़ती जा रही थी. घंटे-घड़ियाल और शंख की ध्वनियां नियम और अनुशासन के साथ हर सुबह और गगनभेदी होती जा रही थीं.
छह बच्चों के दफनाने के बाद एमसीसी के लड़कों ने घर जाना बंद कर दिया था. तीन-चार लोग नाव पर रहते थे, बाकी एक ऊंचे मकान पर चौकसी करते थे. दो महीने से पानी में डूबे रहने के बाद अब मकान आये दिन गिर रहे थे. रात में गिरने वाले मकानों में फंसे लोगों की जान बचाने के लिए यह इंतजाम सोचा गया था.
दिन बीतने के साथ बदबूदार हवा के झोकों से नाव झील में डोलती रही, तीन तरफ से बस्ती को घेरे कालोनियों की रोशनियां काले पानी पर नाचती रहीं, हर रात बढ़ते पानी के साथ बादलों से झांकते तारों समेत आसमान और करीब आता रहा. सावन बीता, भादों की फुहार में भींगते शहर से घिरे दंड-द्वीप पर अकेली नाव में रहते काफी दिन बीत गये और तब लड़कों के आगे रहस्य खुलने लगे.
पानी, हवा, घंटे-घड़ियाल, मर कर उतराते जानवर, गिरते मकान, रोशनियों का नाच, सितारे और चींटियों के झुंड सभी कुछ न कुछ कह रहे थे. एक रात जब पूरी टीम बादलों भरे आसमान में आंखें गड़ाए प्रभात-फेरी का इंतजार कर रही थी, पानी बहुत धीमें से बुदबुदाया, "दंगा तो हो ही रहा है"
"कहां हो रहा है बे", यासीन के साथ पूरी टीम हड़बड़ा कर उठ बैठी.
रूंधी हुई मद्धिम आवाज में पानी ने कहा, "ये दंगा नहीं तो और क्या है. सरकार ने अफसरों को इधर आने से मना कर दिया है. डाक्टरों ने इलाज से मुंह फेर लिया है. जो पंप यहां लगने चाहिए उन्हें नदी में लगाकर पानी इधर फेंका जा रहा है. करघे सड़ चुके, घर ढह रहे हैं, बच्चे चूहों की तरह डूब कर मर रहे हैं. सबको इसी तरह बिना एक भी गोली-छुरा चलाये मार डाला जाएगा. जो बेघर-बेरोजगार बचेंगे, वे बीमार हो कर लाइलाज मरेंगे"
नाव की पीठ पर सिर पटकते हुए पानी रो रहा था.
टीम में सबसे छोटे गुगलीबाज मुराद ने सहम कर पूछा, "यासीन भाई हम सबको क्यों मार डाला जाएगा"
"क्योंकि हम लोग मुसलमान हैं बे. इतना भी नहीं जानते" यासीन तमतमा गया.
"हम लोग जिनके पास गये थे, क्या वे लोग भी हमें नहीं बचाने आएंगे?"
"आएंगे, आएंगे जब आमने सामने वाला दंगा होगा तब आएंगे"
उस रात के बाद पानी से टीम की एक साथ कोई बात नहीं हुई. सब अलग-अलग लहरों को घूरते और बतियाते रहे.
अगले जुमे को एमसीसी की टीम के सभी ग्यारह खिलाड़ियों ने फजर की नमाज के वक्त नाव में सिजदा कर एक ही दुआ मांगी, "दंगा भेजियो मोरे मौला, वरना हम सब इस नर्क में सड़ कर मर जाएंगे. गू-मूत में लिथड़ कर मरने की जिल्लत से बेहतर है कि खून में डूब कर मरें"
दो दिन बाद मोमिनपुरा में भरते पानी के दबाव से हाई-वे की पुलिया टूट गयी. काली झील कई जगहों से सड़क तोड़ कर उफनाती हुई पास के मोहल्लों और गांवों के खेतों में बह चली. घंटे-घड़ियाल-शंखों का समवेत शोर बर्दाश्त के बाहर हो गया.
प्रभात फेरी करने वालों की अगुवाई में शहर और गांवों से निकले जत्थे मोमिनपुरा पर चढ़ दौड़े. सीवर के बजबजाते पानी में हिंदू और मुसलमान गुत्थमगुत्था हो गये. अल्लाह ने हताश लड़कों की दुआ कबूल कर ली थी.
धूप इतनी तेज थी कि पानी से उठती भाप झुलसा रही थी. कीचड़ के बीच कूड़े के ऊंचे ढेर पर एक कतार में छह एकदम नये, छोटे-छोटे ताबूत रखे हुए थे. सामने जहां तक मोमिनपुरा की हद थी, सीवर के पानी की बजबजाती झील हिलोरें मार रही थी, कई बिल्लियों और एक गधे की फूली लाशें उतरा रही थीं.
हवा के साथ फिरते जलकुंभी और कचरे के रेलों के आगे काफी दूरी पर एक नाव पानी में हिल रही थी जिसकी एक तरफ अनाड़ी लिखावट में सफेद पेंट से लिखा था "दंगे में आएंगे" और नाव की नोंक पर जरी के चमकदार कपड़े का एक छोटा सा झंडा फड़फड़ा रहा था.
बदबू के मारे नाक फटी जा रही थी, बच्चों के सिवा सबने अपने मुंह गमछों और काफियों से लपेट रखे थे. पीछे बुरके और सलूके घुटनों तक खोंसे औरतों का झुंड था जिसमें रह-रह हिचकियां फूट रही. कभी-कभार रुलाई की महीन, कंपकंपाती कोई भटकी हुई तरंग और हवा उसे उड़ा ले जाती.
ये सभी बस्ती के उस पार कब्रिस्तान जाने के लिए नाव का इंतजार कर रहे थे. हवा में इठलाते झंडे वाली नाव थी कि जैसे चिढ़ा रही थी कि दंगा होगा तब इस पार आएगी वरना उसे यकीन नहीं है कि ताबूतों में लाशें या लाशों के नाम पर कुछ और.
तैर कर थक जाने के बाद, एक नंग-धड़ंग किशोर नाव में अकेला बैठा, मुंह बाए इस भीड़ को ताक रहा था. छह ताबूत मुंह बांधे कोई पचास लोगों की भीड़, चौंधियाता सूरज और पानी पर सांय-सांय करती बरसात की दोपहर. बस्ती के आधे डूबे मकानों में से किसी छत पर रेडियो से गाना आ रहा था.
अचानक लोग झल्लाकर नाव और लड़के को गालियां देने लगे. लड़का अदृश्य भाप से छन कर आती भुनभुनाहट को कान लगाये लगाये सुनने की कोशिश करता रहा लेकिन भीड़ थप्पड़, मुक्के लहराने लगी तो वह हड़बड़ा कर नाव से कूद पड़ा और फिर तैरने लगा. भीड़ फिर खामोश होकर धूप में लड़के की कौंधती पीठ ताकते हुए इंतजार करने लगी.
बड़ी देर बाद तीन लड़के यासीन, जुएब और लड्डन नाव लेकर इस पार आये और कई फेरे कर ताबूतों को उस पार के कब्रिस्तान में ले गये. नाव दिन भर बस्ती के असहनीय दुख ढोती रही.
शाम होते ही किनारों पर बसी कालोनियों की बत्तियां जलीं और सीवर की झील झिलमिल रोशनियों से सज गयी. लगता था कि यह कोई खूबसूरत सा शांत द्वीप है. रात गये लोग उन छह बच्चों को मिट्टी देकर मुंह बांधे प्रेतों के काफिले की तरह इस पार वापस लौटे.
ये चार लड़के और दो लड़कियां आज सुबह तक पानी में डूबे एक घर की छत पर खेल रहे थे. डेढ़ महीने से पानी में आधा डूबा मिट्टी के गारे का मकान अचानक भरभरा कर बैठ गया और वे डूब कर मर गये. थोड़ी ही देर में उनकी कोमल लाशें बिल्लियों की तरह फूलकर बहने लगीं. मकान की साबुत खड़ी रह गयी एक मुंडेर पर उनका खाना जस का तस धरा रह गया और जो राम जी के सुग्गे (ड्रैगनफ्लाई) उन्होंने पकड़ कर करघे के रेशमी धागों से बांधे थे वे अब भी वहीं उड़ रहे थे.
इन रंग-बिरंगी रेशमी पूंछ वाले पतंगों के पंखों की सरसराहट जितना जीवन वे छोड़ गये थे, वही इस सड़ती काली झील के ऊपर नाच रहा था. बाकी बस्ती सुन्न थी. पानी में डूबे घरों में उन बच्चों की मांओं की सिसकियों की तरह कुप्पियां भभक रही थीं.
नदी के किनारे बसे शहर के बाहरी निचले हिस्से में आबाद मोमिनपुरा का हर साल यही हाल होता था. बरसात आते ही पानी के साथ शहर भर का कूड़ा-कचरा मोमिनपुरा की तरफ बहने लगता और जुलाहे ताना-बाना, करघे समेट कर भागने लगते. इसी समय मस्जिद के आगे जुमे के रोज लालटेनें, नीम का तेल, प्लास्टिक के जूते और बांस की सीढ़ियां बेचने वाले अपना बाजार लगा लेते थे.
सबसे पहले मकानों के तहखानों में करघों की खड्डियों में पानी भरता और गलियों में अनवरत गूंजने वाला खड़क-खट-खड़क-खट-खड़क का रोटी की मिठास जैसा संगीत घुटने भर पानी में डूब कर दम तोड़ जाता. लोग बरतन-बकरियां, मुर्गियां, बुने अधबुने कपड़ों के थान और बच्चों को समेट कर शहर में ऊपर के ठिकानों की तरफ जाने लगते फिर भी एक बड़ी आबादी का कहीं ठौर नहीं था. वे मकानों की ऊपर की मंजिलों में चले जाते. एक मंजिला घरों की छतों पर सिरकियां, छोलदारियां लग जातीं.
इसी समय मोमिनपुरा की बिजली काट दी जाती क्योंकि पानी में करंट उतरने से पूरी बस्ती के कब्रिस्तान बन जाने का खतरा था. पावरलूम की मशीनें खामोश होकर डूबने लगतीं क्योंकि उन्हें इतनी जल्दी खोदकर कहीं और ले जाना संभव नहीं था. तभी दूसरे छोर पर बढियाई नदी के दबाव से पूरे शहर की सीवर लाइनें उफन कर उल्टी दिशा में बहने लगतीं. मैनहोलों पर लगे ढक्कन उछलने लगते और बीस लाख आबादी का मल-मूत्र बरसाती रेलों के साथ हहराता हुआ मोमिनपुरा में जमा होने लगता.
चतुर्मास में जब साधु-संतों के प्रवचन शुरू होते, मंदिरों में देवताओं के श्रृंगार उत्सव होते, कंजरी के दंगल आयोजित होते और हरितालिका तीज पर मारवाड़िनों के भव्य जुलूस निकलते तभी यह बस्ती इस पवित्र शहर का कमोड बन जाती थी. मोमिनपुरा को पानी सप्लाई करने वाले पंपिंग स्टेशन पर कर्मचारी ताला डालकर छुट्टी पर चले जाते क्योंकि कटी-फटी पाइप लाइनों के कारण मोमिनपुरा पूरे शहर में महामारी फैला सकता था.
मोमिनपुरा वाले चंदा लगाकर मल्लाहों से दस-बारह नावें किराए पर ले आते और वहां का जीवन अचानक शहर की बुनकर बस्ती की खड़कताल से बिदक कर बाढ़ में डूबे, अंधियारी कछारी गांव की चाल चलने लगता. मल्लाह नावें तो दे देते थे लेकिन यहां आकर चलाने के लिए राजी नहीं होते थे. थोड़ी ज्यादा आमदनी पर गू-मूत में नाव खेने से उन्हें एतराज नहीं था, डर था कि कई एकड़ की झील में अगर मुसलमान काट कर फेंक देंगे तो किसी को पता भी नहीं चलेगा.
हर घर की छत तक, कीचड़ में धंसा कर बांस की एक सीढ़ी लगा दी जाती. राशन, सौदा-सुल्फा लोग पास के बाजारों से ले आते. एक नाव दिन रात पास के मोहल्लों से पीने के पानी की फेरी करती रहती थी. लोग कपड़ों की फेरी करने नाव से पास के गांवों, शहरों में जाते, बच्चे दिन भर पानी में छपाका मारते या खामखां मछली पकड़ने की बन्सियां डालकर बैठे रहते. छतों पर टंगे लोग हर शाम सड़ते पैरों और जानलेवा खुजली वाले हिस्सों पर नीम का तेल पोतते. लुंगी, टोपी, बधना हर चीज में मौजूद झुंड की झुंड चीटियों से जूझते और पानी जल्दी उतरने की मन्नतें करते. महीना-पचीस दिन में काली झील सिकुड़ने लगती और बस्ती पर बीमारियां टूट पड़तीं. हैजा, गैस्ट्रो, डायरिया से सैकड़ो लोग मरते जिनमें ज्यादातर बच्चे होते. उन्हें दफनाने के कई महीने बाद कहीं जाकर रोटी के मिठास वाला संगीत फिर सुनाई देने लगता और जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट आती.
इस साल डेढ़ महीना गया पानी नहीं उतरा. दानवाकार काली झील का दायरा फैलता ही जा रहा था. छतों पर टंगे लोग हैरत और भय से पानी को घूरते रहते. …एक दिन अचानक बढ़ता पानी बोलने लगा.
बस्ती की जिंदगी और इस पानी का रंग, रूप, नियति एक ही जैसे थे. आचमन करने और हाथ में जल लेकर गंगा-जमुनी तहजीब का हवाला देने के दिन कब के लद चुके थे. यह शहर अब इस पानी और बस्ती दोनों से छुटकारा पाना चाहता था. इस बार पानी कुछ कह रहा था… डभ्भक-डभ्भाक… डभ्भक-डभ्भाक… बस्ती के लोग सुनते थे लेकिन समझ नहीं पा रहे थे.
भोर के नीम अंधेरे में जब मोमिनपुरा के लोग एक दूसरे से नजरें चुराते हुए, कौओं की तरह पंजों से मुंडेरों को पकड़े शौच कर रहे होते ठीक उसी वक्त आगे मोटर साइकिलों, पीछे कारों पर सवार लोगों की प्रभात फेरी शहर से निकलती. शंख-घंटे-तुरहियां बजाते कई झुंड बस्ती से सटकर गुजरते हाई-वे की पुलिया पर रुकते, गगनभेदी नारों के बीच वे टार्चों की रोशनियां छतों पर टंगे जुलाहों पर मारते और कहकहे लगाते. फिर बूढ़े, जवान और किशोर एक साथ किलक कर गले बैठ जाने तक चिल्लाते रहते -
"पाकिस्तान में ईद मनायी जा रही है"
"डल झील में आतिशबाजी हो रही है" सुबह सूरज निकलने तक घंटे-घड़ियाल बजते रहते.
झील का पानी बोलता रहा. इस साल कई और नये अपशकुन हुए. मल्लाहों ने नावें देने से मना कर दिया, उनका कहना था कि जिस नाव से भगवान राम को पार उतारा था उसे भला गू-मूत में कैसे चला सकते हैं. म्यूनिसिपैलिटी ने इस साल पानी निकासी के लिए एक पंप नहीं लगाया, अफसरों ने लिख कर दे दिया सारे पंप खराब हैं, मरम्मत के लिए पैसा नहीं है, सरकार पैसा भेजेगी तो पानी निकाला जाएगा. लोक निर्माण विभाग ने घोषित कर दिया कि हाईवे की पुलिया से हर साल की तरह अगर पानी की निकासी की गयी तो जर्जर सड़क टूट सकती है और शहर का संपर्क बाकी जगहों से कट सकता है. आपदा राहत विभाग ने ऐलान कर दिया कि यह बाढ़ नहीं मामूली जलभराव है, इसलिए कुछ करने प्रश्न ही नहीं पैदा होता.
अस्पतालों ने मोमिनपुरा के मरीजों को भर्ती करने से मन कर दिया कि जगह नहीं है और संक्रमण से पूरे शहर में महामारी का खतरा है. पावरलूम की मशीनें और मकानों का मलवा खरीदने के लिए कबाड़ी फेरे लगाने लगे. पानी में डूबे मकानों का तय-तोड़ होने लगा. रियल इस्टेट के दलाल समझा रहे थे कि हर साल तबाही लाने वाली जमीन से मुसलमान औने-पौने में जितनी जल्दी पिन्ड छुड़ा लें उतना अच्छा है. यासीन की खाला ने अपने दूल्हा भाई को संदेश भेजा था कि मोमिनपुरा में अबकी न घर बचेगा न रोजगार बचेगा, इसलिए फिजूल की चौकीदारी करने बजाए जल्दी से कुनबे समेत यहां चले आएं, उनके बसने और रोटी का इंतजाम हो जाएगा. परवेज और इफ्फन के पूरे खानदान को उनके मामू जबरन अपने साथ घसीट ले गये थे.
परवेज और इफ्फन, ये दोनों भाई मोमिनपुरा के मशहूर स्पिनर थे. यासीन उस निराली टीम का कप्तान था जिसका कोई नाम नहीं था. इसके ज्यादातर खिलाड़ी ढरकी और तानी भरने की उम्र पार कर चुके थे. अब वे बिनकारी, डिजाइनिंग और फेरी के वक्त ग्राहकों से ढाई गुना दाम बताकर आधे पर तय-तोड़ करना सीख रहे थे. लेकिन यह सब वे अब्बुओं और फूफियों से काफी फटकारे-धिक्कारे जाने के बाद ही करते थे.
ज्यादातर समय वे तानों के रंग-बिरंगे धागों से घिरे मैदान में खपच्चियां गाड़ कर क्रिकेट की प्रैक्टिस किया करते थे. किट थी लुंगी, ढाका से आयी रबड़ की सस्ती चप्पलें और गोल नमाजी टोपी. गिजा थी बड़े का गोश्त और आलू का सालन. रियाज था तीन दिन में पचास गांवों की साइकिल से फेरी और कोच था टेलीविजन. शुएब अख्तर, सनत जयसूर्या, सचिन तेन्दुलकर, जोन्टी रोडस, डेरेल टफी, शेन वार्न सभी दिन में उनकी नसों में बिजली की तरह फिरते थे और रातों को सपने में आकर उनकी पसंद की लड़कियों और प्रेमिकाओं को हथिया ले जाते थे.
मोमिनपुरा की लड़कियां भी कैसी बेहया थीं जो छतों से छुप-छुप कर इशारे उन्हें करती थीं, तालियां उनके खेल पर बजातीं थीं लेकिन हरजाई हंसी हंसते हुए उन चिकनों की लंबी-लंबी गाड़ियों में बैठ कर फुर्र हो जाती थीं.
अब ये ब्लास्टर, स्विंगर और गुगलीबाज छतों पर गुमसुम लेटे आसमान में मंडराती चीलों को ताकते थे, भीतर कहीं घुमड़ती मस्जिद की अजान सुनते थे और नीचे बजबजाते पानी से बतियाते रहते थे.
खबर आयी कि बढ़ियाई नदी में पंप लगाये जा रहे हैं जिनका पानी भी इधर ही फेंका जाएगा. एक दिन हवा के थपेड़ों से पगलाये पानी ने यासीन से पूछा, "तुम्हारे अल्ला मियां कहां है? क्या अब भी…” यासीन ने कुढ़कर सोचा, अब यहां का गंधाता पानी निकालने के लिए भी क्या अल्ला मियां को ही आना होगा.
मल्लाहों के नाव देने से मना कर देने के बाद बस्ती के जैसे हाथ-पांव ही कट गये थे. ऐसे में पता नहीं कहां से पैसे इकट्ठा कर यासीन और उसके निठल्ले दोस्त एक पुरानी नाव खरीद लाये. टीम काम पर लग गयी. लड़कों ने पुरानी नाव को रंग-रोगन किया, जरी के एक टुकड़े पर एमसीसी लिख कर डंडे से टांग दिया. इस तरह उस गुमनाम टीम का मोमिनपुरा स्पोर्टिंग क्लब पड़ गया और दो चप्पुओं से बस्ती की जिंदगी सीवर के पानी में चलने लगी. फिर टीम मदद मांगने बाहर निकली.
पहले वे उन नेताओं, समाज सेवियों और अखबार वालों के पास गये जो दो बरस पहले हुए दंगे के दौरान बस्ती में आये थे और उन्होंने उनके बुजुर्गों को पुरसा दिया था. वे सभी गरदनें हिलाते रहे लेकिन झांकने नहीं आए. फिर वे सभी पार्टियों के नेताजियों, अफसरों-हाकिमों, स्वयंसेवी संगठनों के भाईजियों और मीडिया के भाईजानों पास गये.
हर जगह टीम के ग्यारह मुंह एक साथ खुलते, "जनाब, खुदा के वास्ते बस एक बार चल कर देख लीजिए हम लोग किस हाल में जी रहे हैं. पानी ऐसे ही बढ़ता रहा तो सारे लोग मर जाएंगे"
किसी ने सीधे मुंह बात नहीं की. पता चलते ही कि मोमिनपुरा वाले हैं उन्हें बाहर से टरका दिया जाता था. वे गू-मूत में लिथड़ी महामारी थे जिनसे हर कोई बचना चाहता था. फलां के पास जाओ, पहले कागज लाओ, देखते हैं… देख रहे हैं… देखेंगे… ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं… सुनते-सुनते वे बेजार हो गये.
देर रात गये जब वे अपनी साईकिलें नाव पर लाद कर वे जब घरों की ओर लौटते, अंधेरी छतों से आवाजें आतीं, "क्या यासीन मियां वे लोग कब आएंगे?”
अंधेरे में लड़के एक दूसरे को लाचारी से ताकते रहते और नाव चुपचाप आगे बढ़ती रहती. टीम के लड़के दौड़ते रहे, लोग टरकाते रहे और बस्ती पूछती रही. एक रात बढ़ियाते पानी ने घर लौटते लड़कों से, "बेटा, अब वे लोग नहीं आएंगे"
"काहे?" यासीन ने पूछा.
तजुरबे की बात है उस दुनिया के लोग यहां सिर्फ दो बखत आते हैं या दंगे में या इलेक्शन में. गलतफहमी में न रहना कि वे यहां आकर तुम्हारे बदन से गू-मूत पोंछ कर तुम लोगों को दूल्हा बना देंगे. अगले ही दिन यासीन ने दांत भींचकर हर रात, सैकड़ो आवाजों में पूछे जाने वाले उस एक ही सवाल का जवाब नाव पर सफेद पेंट से लिख दिया – "दंगे में आएंगे" ताकि हर बार जवाब देना न पड़े.
काला पानी कब से लोगों से यही बात कह रहा था लेकिन वे जाने किससे और क्यों मदद की उम्मीद लगाये हुए थे. भोर की प्रभात फेरी में पाकिस्तानियों को ईद की मुबारकबाद देने वालों की तादाद बढ़ती जा रही थी. घंटे-घड़ियाल और शंख की ध्वनियां नियम और अनुशासन के साथ हर सुबह और गगनभेदी होती जा रही थीं.
छह बच्चों के दफनाने के बाद एमसीसी के लड़कों ने घर जाना बंद कर दिया था. तीन-चार लोग नाव पर रहते थे, बाकी एक ऊंचे मकान पर चौकसी करते थे. दो महीने से पानी में डूबे रहने के बाद अब मकान आये दिन गिर रहे थे. रात में गिरने वाले मकानों में फंसे लोगों की जान बचाने के लिए यह इंतजाम सोचा गया था.
दिन बीतने के साथ बदबूदार हवा के झोकों से नाव झील में डोलती रही, तीन तरफ से बस्ती को घेरे कालोनियों की रोशनियां काले पानी पर नाचती रहीं, हर रात बढ़ते पानी के साथ बादलों से झांकते तारों समेत आसमान और करीब आता रहा. सावन बीता, भादों की फुहार में भींगते शहर से घिरे दंड-द्वीप पर अकेली नाव में रहते काफी दिन बीत गये और तब लड़कों के आगे रहस्य खुलने लगे.
पानी, हवा, घंटे-घड़ियाल, मर कर उतराते जानवर, गिरते मकान, रोशनियों का नाच, सितारे और चींटियों के झुंड सभी कुछ न कुछ कह रहे थे. एक रात जब पूरी टीम बादलों भरे आसमान में आंखें गड़ाए प्रभात-फेरी का इंतजार कर रही थी, पानी बहुत धीमें से बुदबुदाया, "दंगा तो हो ही रहा है"
"कहां हो रहा है बे", यासीन के साथ पूरी टीम हड़बड़ा कर उठ बैठी.
रूंधी हुई मद्धिम आवाज में पानी ने कहा, "ये दंगा नहीं तो और क्या है. सरकार ने अफसरों को इधर आने से मना कर दिया है. डाक्टरों ने इलाज से मुंह फेर लिया है. जो पंप यहां लगने चाहिए उन्हें नदी में लगाकर पानी इधर फेंका जा रहा है. करघे सड़ चुके, घर ढह रहे हैं, बच्चे चूहों की तरह डूब कर मर रहे हैं. सबको इसी तरह बिना एक भी गोली-छुरा चलाये मार डाला जाएगा. जो बेघर-बेरोजगार बचेंगे, वे बीमार हो कर लाइलाज मरेंगे"
नाव की पीठ पर सिर पटकते हुए पानी रो रहा था.
टीम में सबसे छोटे गुगलीबाज मुराद ने सहम कर पूछा, "यासीन भाई हम सबको क्यों मार डाला जाएगा"
"क्योंकि हम लोग मुसलमान हैं बे. इतना भी नहीं जानते" यासीन तमतमा गया.
"हम लोग जिनके पास गये थे, क्या वे लोग भी हमें नहीं बचाने आएंगे?"
"आएंगे, आएंगे जब आमने सामने वाला दंगा होगा तब आएंगे"
उस रात के बाद पानी से टीम की एक साथ कोई बात नहीं हुई. सब अलग-अलग लहरों को घूरते और बतियाते रहे.
अगले जुमे को एमसीसी की टीम के सभी ग्यारह खिलाड़ियों ने फजर की नमाज के वक्त नाव में सिजदा कर एक ही दुआ मांगी, "दंगा भेजियो मोरे मौला, वरना हम सब इस नर्क में सड़ कर मर जाएंगे. गू-मूत में लिथड़ कर मरने की जिल्लत से बेहतर है कि खून में डूब कर मरें"
दो दिन बाद मोमिनपुरा में भरते पानी के दबाव से हाई-वे की पुलिया टूट गयी. काली झील कई जगहों से सड़क तोड़ कर उफनाती हुई पास के मोहल्लों और गांवों के खेतों में बह चली. घंटे-घड़ियाल-शंखों का समवेत शोर बर्दाश्त के बाहर हो गया.
प्रभात फेरी करने वालों की अगुवाई में शहर और गांवों से निकले जत्थे मोमिनपुरा पर चढ़ दौड़े. सीवर के बजबजाते पानी में हिंदू और मुसलमान गुत्थमगुत्था हो गये. अल्लाह ने हताश लड़कों की दुआ कबूल कर ली थी.
"नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं" का प्रकाशन
श्रेष्ठ कबाड़ी अनिल यादव का पहला कहानी संग्रह "नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं" आज प्रेस से छप कर आ गया है. अंतिका प्रकाशन से छपे इस संग्रह का ब्लर्ब अग्रणी कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने लिखा है जबकि हमारे समय के बड़े चित्रकार अशोक भौमिक ने पुस्तक का मनमोहक आवरण तैयार किया है. अनिल को बधाई.
प्रस्तुत है पुस्तक का ब्लर्ब:
हिंदी में कहानी की दुनिया में इस वक्त एक खलबली, एक उत्तेजना, एक बेचैनी है । एक जद्दोजहद, जो शायद अभूतपूर्व है, जारी है कहानियों के लिये एक नया स्वरूप, नयी संरचना, नया शिल्प पाने की । इस जददोजहद का हिस्सा अनिल यादव की कहानियां भी हैं । इस समय जबकि संकल्पनायें टूट रही हैं, प्राथमिकतायें बदल रही हैं, हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में नयी सत्तायें और गठजोड़ उभर रहे हैं, जो निरंतर व्याख्या की मांग करते है, आर्थिक संबंध तेजी से बदल रहे हैं और उसके नतीजे में सामाजिक ढ़ांचा और यथार्थ जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैं - स्वाभाविक है कि उन्हें व्यक्त करने की कोशिश में कहानी का स्वरूप वही न रहे, उसका पारंपरिक रूपाकार भग्न हो जाये । लेकिन अपने समकालीनों से अनिल यादव की समानता यहीं तक है, इतनी ही - और उनकी कहानियों का वैशिष्ट्य इसमें नहीं है ।
अनिल पूरी तरह सचेत हैं कि नये शिल्प के माने यह नहीं कि कहानी शिल्पाक्रान्त हो जाये या भाशिक करतब को ही कहानी मान लिया जाये । ऐसी रचना जिसमें चिंता न हो, विचार न हो, कोई प्क्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो, वह महज लफ्जों का एक खेल होती है, कहानी नहीं । अनिल का सचेत चुनाव है, शायद मुश्किल और कष्टपूर्ण भी, कि वे कहानी की दुनिया में चल रहे इस फैशनेबल, आत्महीन खेल से बाहर रहेंगे । ऐसी कहानियां उनका लक्ष्य नहीं जो केवल क्लासिकी गद्य या वाक्यों की भंगिमाओं और हरकतों से लिख ली जाती हैं, जिनमें सिर्फ वाचा के स्वाद की गारंटी होती है, किसी तरह की समझ का वादा नहीं । वे कहानियों के लिये किसी ऐसे समयहीन वीरान में जाने से इंकार करते हैं जहां न परंपरा की गांठें हों, न इतिहास की उलझनें । वे अपने ही मुश्किल, अजाने रास्ते पर जाते हैं । तलघर, भग्न गलियों, मलिन बस्तियों, कब्रिस्तान, कीचड़, कचरे और थाने जैसी जगहों से वे कहानियां बरामद कर लाते हैं । तभी लिखी जाती हैं ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ और ‘दंगा भेजियो मौला’ जैसी अद्वितीय ‘डार्क’ कहानियां, इस पुरानी बात को फिर याद दिलाती हुई कि एक संपूर्ण और प्राणवान रचना न केवल अनुभवों, विवरणों या सूचनाओं से बनती है, न केवल भव्य और आकर्षक शिल्प से । वह बनती है तकलीफ और त्रासदी के संदर्भों को मनु्ष्य की न्यायकामना के सातत्य में रख पाने से, यह याद दिला पाने से कि कुछ भी पूरी तरह व्यक्तिगत या तात्कालिक नहीं होता, हर अकस्मात के आगे और पीछे अदृश्य धागे होते हैं, हर शख्स के, हर घटना के पीछे एक पूरा इतिहास सक्रिय होता है । इसी तरह ‘लोक कवि का बिरहा’ और ‘लिबास का जादू’ में, अन्य कहानियों में भी, हम देखते हैं कहन का एक नया अंदाज, दृश्यों का अपूर्व रचाव, नैसर्गिक ताना बाना और संतुलित और सधा हुआ शिल्प, लेकिन अंततः उन्हें जो कहानी बनाता है वह है जीवन की एक मर्मी आलोचना । इन कहानियों का अनुभवजगत बहुत विस्तृत है, लेकिन उतना ही गझिन और गहरा भी । आज के कथा परिदृश्य में ‘लोक कवि का बिरहा’ जैसी कहानी का, जो एक ग्राम्य अंचल में एक लोकगायक के जीवन का, उसकी दहशतों, अपमान, अवसाद और संघर्श का मार्मिक आख्यान है, समकक्ष उदाहरण तलाश पाना मुश्किल होगा, और ऐसी कहानी शायद आगे असंभव होगी ।
इस वक्त हिंदी की दुनिया में हर जानी पहचानी चीज के अर्थो में तोड़ फोड़ की जा रही है । जहां अस्प्ष्टता को एक गुण मान लिया जाये वहां अर्थों की स्पष्टता भी एक अवगुण हो सकती है । इन कहानियों में न अस्प्ष्टता है, न चमकदार मुहावरे, न एकांत आत्मा का नाटक, न अनंत दूरी पर स्थित किसी सत्य को पाने की कोशिश या आकांक्षा, न आत्मालाप, न आत्मा पर जमी गर्द को मिटाने की कोशिश । लेकिन इनमें दर्द से भरे चेहरे बेशुमार हैं जिन्हें आप स्पर्श कर सकते हैं ।
पुस्तक मिलने का पता:
अंतिका प्रकाशन
सी-५६/यूजीएफ़-४
शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II
ग़ाज़ियाबाद-२०१००५ (उ.प्र.)
(पुस्तक के कुछ अंश आज ही ज़रा देर में.)
प्रस्तुत है पुस्तक का ब्लर्ब:
हिंदी में कहानी की दुनिया में इस वक्त एक खलबली, एक उत्तेजना, एक बेचैनी है । एक जद्दोजहद, जो शायद अभूतपूर्व है, जारी है कहानियों के लिये एक नया स्वरूप, नयी संरचना, नया शिल्प पाने की । इस जददोजहद का हिस्सा अनिल यादव की कहानियां भी हैं । इस समय जबकि संकल्पनायें टूट रही हैं, प्राथमिकतायें बदल रही हैं, हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में नयी सत्तायें और गठजोड़ उभर रहे हैं, जो निरंतर व्याख्या की मांग करते है, आर्थिक संबंध तेजी से बदल रहे हैं और उसके नतीजे में सामाजिक ढ़ांचा और यथार्थ जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैं - स्वाभाविक है कि उन्हें व्यक्त करने की कोशिश में कहानी का स्वरूप वही न रहे, उसका पारंपरिक रूपाकार भग्न हो जाये । लेकिन अपने समकालीनों से अनिल यादव की समानता यहीं तक है, इतनी ही - और उनकी कहानियों का वैशिष्ट्य इसमें नहीं है ।
अनिल पूरी तरह सचेत हैं कि नये शिल्प के माने यह नहीं कि कहानी शिल्पाक्रान्त हो जाये या भाशिक करतब को ही कहानी मान लिया जाये । ऐसी रचना जिसमें चिंता न हो, विचार न हो, कोई प्क्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो, वह महज लफ्जों का एक खेल होती है, कहानी नहीं । अनिल का सचेत चुनाव है, शायद मुश्किल और कष्टपूर्ण भी, कि वे कहानी की दुनिया में चल रहे इस फैशनेबल, आत्महीन खेल से बाहर रहेंगे । ऐसी कहानियां उनका लक्ष्य नहीं जो केवल क्लासिकी गद्य या वाक्यों की भंगिमाओं और हरकतों से लिख ली जाती हैं, जिनमें सिर्फ वाचा के स्वाद की गारंटी होती है, किसी तरह की समझ का वादा नहीं । वे कहानियों के लिये किसी ऐसे समयहीन वीरान में जाने से इंकार करते हैं जहां न परंपरा की गांठें हों, न इतिहास की उलझनें । वे अपने ही मुश्किल, अजाने रास्ते पर जाते हैं । तलघर, भग्न गलियों, मलिन बस्तियों, कब्रिस्तान, कीचड़, कचरे और थाने जैसी जगहों से वे कहानियां बरामद कर लाते हैं । तभी लिखी जाती हैं ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ और ‘दंगा भेजियो मौला’ जैसी अद्वितीय ‘डार्क’ कहानियां, इस पुरानी बात को फिर याद दिलाती हुई कि एक संपूर्ण और प्राणवान रचना न केवल अनुभवों, विवरणों या सूचनाओं से बनती है, न केवल भव्य और आकर्षक शिल्प से । वह बनती है तकलीफ और त्रासदी के संदर्भों को मनु्ष्य की न्यायकामना के सातत्य में रख पाने से, यह याद दिला पाने से कि कुछ भी पूरी तरह व्यक्तिगत या तात्कालिक नहीं होता, हर अकस्मात के आगे और पीछे अदृश्य धागे होते हैं, हर शख्स के, हर घटना के पीछे एक पूरा इतिहास सक्रिय होता है । इसी तरह ‘लोक कवि का बिरहा’ और ‘लिबास का जादू’ में, अन्य कहानियों में भी, हम देखते हैं कहन का एक नया अंदाज, दृश्यों का अपूर्व रचाव, नैसर्गिक ताना बाना और संतुलित और सधा हुआ शिल्प, लेकिन अंततः उन्हें जो कहानी बनाता है वह है जीवन की एक मर्मी आलोचना । इन कहानियों का अनुभवजगत बहुत विस्तृत है, लेकिन उतना ही गझिन और गहरा भी । आज के कथा परिदृश्य में ‘लोक कवि का बिरहा’ जैसी कहानी का, जो एक ग्राम्य अंचल में एक लोकगायक के जीवन का, उसकी दहशतों, अपमान, अवसाद और संघर्श का मार्मिक आख्यान है, समकक्ष उदाहरण तलाश पाना मुश्किल होगा, और ऐसी कहानी शायद आगे असंभव होगी ।
इस वक्त हिंदी की दुनिया में हर जानी पहचानी चीज के अर्थो में तोड़ फोड़ की जा रही है । जहां अस्प्ष्टता को एक गुण मान लिया जाये वहां अर्थों की स्पष्टता भी एक अवगुण हो सकती है । इन कहानियों में न अस्प्ष्टता है, न चमकदार मुहावरे, न एकांत आत्मा का नाटक, न अनंत दूरी पर स्थित किसी सत्य को पाने की कोशिश या आकांक्षा, न आत्मालाप, न आत्मा पर जमी गर्द को मिटाने की कोशिश । लेकिन इनमें दर्द से भरे चेहरे बेशुमार हैं जिन्हें आप स्पर्श कर सकते हैं ।
पुस्तक मिलने का पता:
अंतिका प्रकाशन
सी-५६/यूजीएफ़-४
शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II
ग़ाज़ियाबाद-२०१००५ (उ.प्र.)
(पुस्तक के कुछ अंश आज ही ज़रा देर में.)
Tuesday, May 24, 2011
तुम चलते हो उस धरती पर जिसे तुम भूल रहे हो
लिथुआनियाई मूल के चेस्वाव मीवोश (जून ३० १९११-अगस्त १४ २००४) पोलिश भाषा के जाने-माने कवि और अनुवादक थे. १९८० में मीवोश साहित्य के नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित हुए.
चेस्वाव मीवोश की दो कविताएं. अभी आगे भी आप उनकी कई कविताएं पढ़ेंगे -
इतना थोड़ा
इतना थोड़ा कहा मैंने.
छोटे थे दिन.
छोटे दिन.
छोटी रातें.
छोटे साल.
मैंने इतना थोड़ा कहा.
मैं कर ही नहीं सका.
मेरा दिल थक गया
ख़ुशी से
दुःख से
ललक से
उम्मीद से.
समुद्री दानव के जबड़े
मुझ पर कस रहे थे.
विवस्त्र पड़ा हुआ हुआ था मैं
रेगिस्तानी द्वीपों में.
संसार की सफ़ेद व्हेल ने
घसीट कर फेंका मुझे अपने गड्ढे में.
और अब मैं नहीं जानता
उस सब में यथार्थ क्या था.
भूल जाओ
भूल जाओ यातना
जो तुमने औरों को दी.
भूल जाओ यातना
जो तुम्हें मिली औरों से.
पानी भागता ही जाता है
चमकते हैं झरने और सूख जाते हैं
तुम चलते हो उस धरती पर जिसे तुम भूल रहे हो.
कभी-कभी तुम्हें सुनाई देती है किसी गीत की सुदूर टेक
इसका क्या मतलब है, तुम पूछते हो, कौन गा रहा ह?
बच्चों सरीखा गरमाता है सूरज
एक पोते और एक परपोते का जन्म होता है.
एक बार फिर तुम्हारा हाथ थाम कर तुम्हें रास्ता दिखाया जाता है.
नदियों के नाम रह जाते हैं तुम्हारे साथ,
कितनी अनन्त लगती हैं वे नदियां!
बंजर पड़े हैं तुम्हारे खेत,
शहर की मीनारें वैसी नहीं हैं जैसी हुआ करती थीं.
तुम खड़े रहते हो देहरी पर मौन.
कविता पर चेस्वाव मीवोश के विचार
पोलैण्ड के महाकवि चेस्वाव मीवोश (सही उच्चारण सुनने के लिए यहां जाएं)पिछली शताब्दी के बड़े कवियों में शुमार लिए जाते हैं. एक जगह उन्होंने कहा है: " ऐसा नहीं है कि मैं ईश्वर या कोई महानयक होना चाहता हूं. बस एक पेड़ में बदलने की चाहत है, पीढ़ियों तक बड़ा होते जाने की, बिना किसी को कोई नुकसान पहुंचाए."
देखिए कविता के बारे में कितनी आसानी से वे अपनी बात कहते हैं:
"कविता का उद्देश्य हमें यह याद दिलाना होता है कि एक ही व्यक्ति बने रहना कितना मुश्किल होता है, क्योंकि हमारा घर खुला हुआ है, दरवाज़ों में कोई ताले नहीं हैं और अदृश्य मेहमान अपनी इच्छा के मुताबिक उनमें से आ-जा सकते हैं."
मेरे अकेलेपन ने पूरी कर ली है अपनी पढ़ाई
एवा लिप्स्का की दो और कविताएं -
कोई नहीं
मैं इस लैण्डस्केप से सहमत हूं
जो है ही नहीं.
पिता थामे हुए एक वायोलिन
बच्चे उसकी ध्वनि को चाटते हुए.
एक झोंका
ग़ुलाब की पंखुड़ियों को सहलाता है.
फिर युद्ध. हम एक दूसरे की निगाह से दूर हो जाते हैं.
पूरे वाक्यों में ठुंसे शब्द छिपाए हुए हैं अपने को.
एक पुराने अपार्टमेन्ट हाउस में
गोधूलि में खड़ा
एक ख़ाली कमरा.
"कृपया सन्देश छोड़ जाएं"
कहता है कोई नहीं.
मेरा अकेलापन
मेरे अकेलेपन ने पूरी कर ली है अपनी पढ़ाई
वह समय का पाबन्द था और उसने बहुत मेहनत की.
उसे दिए गए तमाम तमग़े और इनामात.
लोकप्रिय है पाठ्यक्रम.
हज़ारों पाठक इस से गुज़रते हैं
चीज़ें लिखते हुए.
उन्हें मिटाते हुए.
वह शासन करने से आजिज़ आ चुका है
फ़्रेडरिक महान की तरह.
उसके अभी से कुछ शिष्य बन चुके हैं
डरे हुए और चापलूस.
सार्वजनिक है मेरा अकेलापन
वह बैठा है अपने पिंजरे में
कतर दिए जा चुके खा़मोशी के उसके पंख.
कोई नहीं
मैं इस लैण्डस्केप से सहमत हूं
जो है ही नहीं.
पिता थामे हुए एक वायोलिन
बच्चे उसकी ध्वनि को चाटते हुए.
एक झोंका
ग़ुलाब की पंखुड़ियों को सहलाता है.
फिर युद्ध. हम एक दूसरे की निगाह से दूर हो जाते हैं.
पूरे वाक्यों में ठुंसे शब्द छिपाए हुए हैं अपने को.
एक पुराने अपार्टमेन्ट हाउस में
गोधूलि में खड़ा
एक ख़ाली कमरा.
"कृपया सन्देश छोड़ जाएं"
कहता है कोई नहीं.
मेरा अकेलापन
मेरे अकेलेपन ने पूरी कर ली है अपनी पढ़ाई
वह समय का पाबन्द था और उसने बहुत मेहनत की.
उसे दिए गए तमाम तमग़े और इनामात.
लोकप्रिय है पाठ्यक्रम.
हज़ारों पाठक इस से गुज़रते हैं
चीज़ें लिखते हुए.
उन्हें मिटाते हुए.
वह शासन करने से आजिज़ आ चुका है
फ़्रेडरिक महान की तरह.
उसके अभी से कुछ शिष्य बन चुके हैं
डरे हुए और चापलूस.
सार्वजनिक है मेरा अकेलापन
वह बैठा है अपने पिंजरे में
कतर दिए जा चुके खा़मोशी के उसके पंख.
Monday, May 23, 2011
एवा लिप्स्का की एक कविता
८ अक्टूबर १९४५ को पोलैण्ड के क्राकोव में जन्मीं एवा लिप्स्का को पोलैण्ड के "न्यू वेव" कविता-आन्दोलन से जोड़ कर देखा जाता है. उनकी कविताओं के अनुवाद विश्व की तमाम भाषाओं में हुए हैं. समकालीन समाज में मनुष्य के रू-ब-रू अस्तित्ववादी परिस्थितियां उनकी कविता के केन्द्र में रहती हैं. आज उनकी एक कविता -
कविता-पाठ के वक़्त कुछ सवालात
आपका पसन्दीदा रंग कौन सा है?
सबसे खुशी का दिन?
क्या कोई कविता आपकी कल्पना से आगे निकली?
आपको कोई उम्मीद है?
आप डरा रही रही हैं हमें.
काला क्यों है आसमान?
समय को किसने गिरा दिया गोली मार कर?
समुद्र के ऊपर उड़ता वह एक ख़ाली हाथ था
या कोई हैट?
शादी की पोशाक के साथ
ग़मी का गुलदस्ता क्यों?
जंगली रास्तों के बजाय
अस्पतालों के गलियारे क्यों?
बीता समय क्यों, भविष्य क्यों नहीं?
आप ईश्वर में यकीन करती हैं? या नहीं?
आप डरा रही रही हैं हमें.
हम उड़ कर जा रहे हैं आप से दूर.
मैं कोशिश करती हूं उन्हें रोकने की
सीधे आग के भीतर उड़ जाने से.
धीरे धीरे तेरे प्यार में खोने लगे हम साजना
ग़ुलाम अली और आशा भोंसले के अल्बम "जेनेरेशन्स" से अब सुनिए एक और रचना. स्वर दे रहे हैं ग़ुलाम अली और आशा भोंसले
नैना रे नैना तो से लागे
१९८० के दशक में ग़ुलाम अली और आशा भोंसले ने मेराज़-ए-ग़ज़ल शीर्षक अल्बम में कुछ बेहतरीन ग़ज़लें पेश की थीं. उनमें से कुछ यहां पहले पोस्ट की जा चुकी हैं. कोई पच्चीस साल बाद यह जुगलबन्दी दोबारा सुनने को मिली. अहमद अनीस की रचनाओं को इस अल्बम में ग़ुलाम अली के सुपुत्र आमिर अली ने कम्पोज़ किया है
अल्बम की लॉन्च के समय ग़ुलाम अली ने कहा "मुझे नहीं मालूम था कि आमिर कम्पोज़ कर रहे हैं. मुझे बहुत हैरत हुई जब उन्होंने मुझसे इस बाबत बात की. मैंने यथासम्भव उनकी मदद की" गौरतलब है कि इस अल्बम पर कोई पांच साल की मेहनत लगी. आज इस अल्बम से पहले सुनिये आशा भोंसले को
एक ज़हनी दुनिया मे खर्च हो जाने से बचने के लिए
देहात के साधारण काम काजी लोगों की परस्पर बातचीत मुझे बहुत आकर्षित करतीं हैं। इन चर्चाओं मे गज़ब की सोच , एक अलग दृष्टिकोण, लय और आस्वाद घुले होते हैं. सीधी बहस न हो कर वहाँ असहमति के अद्भुत इशारे होते हैं........ एकदम कविता सुनने जैसा ! अभी कुछ माह पूर्व मैं कुल्लू मे एक टीस्टाल पर यह नायाब संवाद रेकार्ड कर गया. मैं इस की कविता बनाना चाहता हूँ. संवाद यहाँ बोल्ड फोंट्स मे दिए गए हैं . बाक़ी हिसा मेरी अपनी टिप्पणी है:
ऐसे बेखटके शामिल हो जाने का मन था
उस बात चीत में जहाँ एक घोड़े वाला
और कुछ संगतराश थे ढाबे के चबूतरों पर
ऐसे कि किसी को अहसास ही न हो
वहाँ बात हो रही थी
कैसे कोई कौम किसी दूसरे कौम से अच्छा हो सकता है
और कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क से
कि कैसे जो अंगरेज थे
उन से अच्छे थे मुसलमान
और कैसे दोनो ही बेहतर थे हमसे
कि क्या अस्सल एका था बाहर के कौमों में
मतलब ये जो मुसल्ले बगैरे होते हैं
कि हम तो देखने को ही एक जैसे थे ऊपर से
और अन्दर खाते फटे हुए
सही गलत तो पता नहीं हो भाई,
हम अनपढ़ आदमी, क्या पता ?
पर देखाई देता है साफ साफ
कि वो ताक़तवर है अभी भी
अभी भी जैसे राज चलता है हम पे
उनका ही— एह !
कौन गिनता है हमें
और कहाँ कितना गिनता है
डंगर की तरह जुते हुए हैं उन्ही की चाकरी में – एह !
तो केलङ से बरलचा के रास्ते में
जीह के ओर्ले तर्फ एक ज़रोङ मिलता है आप को – एह !
पेले तो क्या घर क्या पेड़ कुच्छ नहीं था
खाली ही तो था – एह !
अब रुळिङ्बोर केते कोई दो चार घर बना लिए हैं
नाले के सिरे पे जो भी लाल पत्थर है
लाल भी क्या होणा अन्दर तो सुफेदै है
सब बाढ़ ने लाया है
एक दम बेकार
फाड़ मारो , बिखर जाएगा
कुबद का खान ऊपर ढाँक पर है
पहाड़ से सटा हुआ एक दम काला पत्थर
लक्कड़ जैसा मुलायम और साफ
काम करने को सौखा – एह !
बल्ती लोग थे तो मुसलमान
पर काम बड़ा पक्का किया
सब पानी का कुहुल
सारी पत्थर की घड़ाई
लौह्ल का सारा घर मे कुबद इन लोग बनाया
अस्सल जिम्दारी लौह्ल मे इन के बाद आया
बड़ा बड़ा से:रि इनो ही कोता --- एह !
और बेशक धरम तब्दील नही किया
जिस आलू की बात आज वो फकर से करते हैं
पता है, मिशन वाले ने उगाया
पैले क्या था ?
और हमारा आदमी असान फरमोश
गदर हुआ तो नालो के अन्दर भेड़ बकरी की तरह काट दिया
औरत का ज़ेबर छीना
बच्चा मार दिया
ए भगवान
कितना तो भगा दिया बोला जोत लंघा के
देबी सींग ने
हमारा ताऊ ने
मुंशी साजा राम ने
सब रेम् दिल भलमाणस थे --- एह !
और बंगाली पंजाबी साब भादर लोगों ने क्या किया
अंग्रेज से मिल कर
सब कीम्ती कीम्ती आईटम अम्रीका और लन्दन पुचाया
अजाबघ्रर बनाने के लिए – एह !
ये सब तेज़ खोपड़ी
ताक़त पास मे हो तो दमाग और भी तेज़ घूमता
बहुत तेज़ी से और एकदम उलटा
फिर हो गया पूरा कौम बदनाम एकाध आदमी करके
एक मछली ,
सारा तलाप खन – खराप , एह !
और पत्थरों के बारे में जो बातें थीं
वो भी लगभग वैसी ही थीं
कि उन मे से कुछ दर्ज वाले होते हैं
और कुछ बिना दर्ज वाले होते हैं
कि परतें कैसे बैठी रहतीं हैं
एक पर एक चिपकी हुईं
कि कहाँ कैसी कितनी चोट पड़ने पर
दर्ज दिखने लग जाते हैं साफ – साफ
जैसा मर्ज़ी पत्थर ले आईए आप
और जहाँ तक घड़ाई की बात है
चाहे एक अलग् थलग दीवार चिननी हो
या नया घर ही बनाना हो
या कुछ भी
दर्ज वाले पत्थर तो बिल्कुल कामयाब नहीं हैं
आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा
वह एक बिना दर्ज वाला पत्थर ही हो सकता है
जो गढ़ा जा सकता है मन मुआफिक़
कितने चाहे क्यूब काट लो उस के
और लम्बे में , मोटे में
कैसे भी डंडे निकाल लो
बस पहला फाड़ ठीक पड़ना चाहिए
और
बशर्ते कि मिस्त्री काँगड़े का हो – एह !
मिस्तरी तो कनौरिये भी ठीक हैं
कामरू का क़िला देखा है
बीर भद्दर वाला ?
अजी वो कनौरियों ने थोड़े बणाया
वो तो सराहणी रामपुरिए होणे
रेण देओ माहराज, काय के रामपुरिए
यहीं बल्हड़ थे सारे के सारे
सब साँगला में बस गए भले बकत में
रोज़गार तो था नहीं कोई
जाँह राजा ठाकर ले गया , चले गए – एह !
बुशैर का लाका है तो बसणे लायक , वाक़ई......
धूड़ बसणे लायक !
पूह तक तो बुरा ही हाल है
ढाँक ही ढाँक
नीचे सतलज – एह !
आगे आया चाँग- नको का एरिया
याँह नही बोलता कनौरी में , कोई नहीं
सारे के सारे भोट आ कर बस गए ऊपर से – एह !
बाँह की धरती भी उपजाऊ और घास भी मीठी
ञीरू से ले के ञुर्चा तक सब पैदावार
और पहाड़ के ऊपर रतनजोत – एह !
नीचे तो कुछ पैदा नहीं होता
और घास में टट्टी का मुश्क
हे भगवान .... घोड़े को भी पूरा नहीं होता
पेड़ पर फकत चुल्ली और न्यूज़ा – एह !
कनौर वाला नही खाता अनाज , कोई नहीं
तब तो भाषा भी अजीब है
न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही
पर भाई जी
सेब ने उनो को चमका दिया है – एह !
हिमाचल मे जिस एरिया ने सेब खाया
देख लो
रंग ढंग तो चलो मान लिया
ज़बान ही अलग हो गई है !
सेब हमारे यहाँ था तो पहले से ही
पर जो बेचने वाला फल था
वह एक इसाई ले के आया था
ऐसा नही कि कुल्लू को सेब ने ही उठाया था
क्या क्या धन्दे थे कैसे कैसे
किस को मालूम नहीं ?
वो तो कोई गोकल राम था
जो पंडत नेहरू के ठारा बार पुकारने पे भी
तबेले में छिपा रहा था
पनारसा के निचली तरफ
और ठारा दिन उस की मशीन रुकी रही
पानी से चलती थी भले बकत में
लाहौर की बी ए थी अगले की
पर शरम के मारे बाहर नहीं आया
तो क़िस्मत भी बचारे की तबेले में बन्द हो गई
बेद राम था तेज़ आदमी
पैर पकड़ के ज़मीने कराई अपने नाम
सोसाटी बणा के – एह !
आज मालिक बना हुआ है
पलाट काट के बेच रहा है
कलोनी खड़ी कर दी अगले ने
कौण पूछ सकता है ?
मैं केता हूँ कि लग्गे रेणा पड़्ता है
क्या पता कब दरवाज़ा खुल जाए – एह !
आखीर मे जब वहाँ से चलने को हुआ चुपचाप
तो तय था कि बातों की जो परतें थीं
वे तो हू ब हू वैसी ही थीं
जैसी समुदायों , मुल्कों , पत्थरों, घोड़ों और तमाम
ऐसी चीज़ों के होने व बने रहने की शर्तें थीं
एक के भीतर से खुलती हुई दूसरी थी
कोई तीसरी भी
कहीं कहीं नज़र आ जाती
बारीकियों में छिपी हुईं
जहाँ कोई जाना नही चाहता था
सच बात तो यह है कि
बात कहने के लिए आप को आवाज़ नहीं होना होता
जब कि परतों को सुनने के लिए आप को पूरा एक कान
और देख पाने के लिए आँख हो जाना होता था
मुझे लगा कि यही समय था
बात चीत के बारे बात करने का
कि एक ज़हनी दुनिया मे खर्च हो जाने से बचने के लिए
कितनी बड़ी नैमत है बातचीत ?
बेवजह भारी हुए बिना और बेमतलब अकड़े बिना
कड़क चा सुड़कते हुए,
अभी से तुम कहते रह सकते हो अपनी बातें
क्यों कि एक दिन तुम चुप हो जाने वाले हो
इत्ता बड़ा सत्त
वैसे भी इस धम्मड़ धूस दुनिया में एक गप्प
ही तो है ,
और अंतिम वाक्य जिसे छोड़ कर चले जाने का
क़तई मन नहीं था --
कि न भी हो अगर गप्प
तो उपयोग इस सत्त का क्या है
जेह बताओ तुम – एह ?
कुल्लू – 25.3.2011
ऐसे बेखटके शामिल हो जाने का मन था
उस बात चीत में जहाँ एक घोड़े वाला
और कुछ संगतराश थे ढाबे के चबूतरों पर
ऐसे कि किसी को अहसास ही न हो
वहाँ बात हो रही थी
कैसे कोई कौम किसी दूसरे कौम से अच्छा हो सकता है
और कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क से
कि कैसे जो अंगरेज थे
उन से अच्छे थे मुसलमान
और कैसे दोनो ही बेहतर थे हमसे
कि क्या अस्सल एका था बाहर के कौमों में
मतलब ये जो मुसल्ले बगैरे होते हैं
कि हम तो देखने को ही एक जैसे थे ऊपर से
और अन्दर खाते फटे हुए
सही गलत तो पता नहीं हो भाई,
हम अनपढ़ आदमी, क्या पता ?
पर देखाई देता है साफ साफ
कि वो ताक़तवर है अभी भी
अभी भी जैसे राज चलता है हम पे
उनका ही— एह !
कौन गिनता है हमें
और कहाँ कितना गिनता है
डंगर की तरह जुते हुए हैं उन्ही की चाकरी में – एह !
तो केलङ से बरलचा के रास्ते में
जीह के ओर्ले तर्फ एक ज़रोङ मिलता है आप को – एह !
पेले तो क्या घर क्या पेड़ कुच्छ नहीं था
खाली ही तो था – एह !
अब रुळिङ्बोर केते कोई दो चार घर बना लिए हैं
नाले के सिरे पे जो भी लाल पत्थर है
लाल भी क्या होणा अन्दर तो सुफेदै है
सब बाढ़ ने लाया है
एक दम बेकार
फाड़ मारो , बिखर जाएगा
कुबद का खान ऊपर ढाँक पर है
पहाड़ से सटा हुआ एक दम काला पत्थर
लक्कड़ जैसा मुलायम और साफ
काम करने को सौखा – एह !
बल्ती लोग थे तो मुसलमान
पर काम बड़ा पक्का किया
सब पानी का कुहुल
सारी पत्थर की घड़ाई
लौह्ल का सारा घर मे कुबद इन लोग बनाया
अस्सल जिम्दारी लौह्ल मे इन के बाद आया
बड़ा बड़ा से:रि इनो ही कोता --- एह !
और बेशक धरम तब्दील नही किया
जिस आलू की बात आज वो फकर से करते हैं
पता है, मिशन वाले ने उगाया
पैले क्या था ?
और हमारा आदमी असान फरमोश
गदर हुआ तो नालो के अन्दर भेड़ बकरी की तरह काट दिया
औरत का ज़ेबर छीना
बच्चा मार दिया
ए भगवान
कितना तो भगा दिया बोला जोत लंघा के
देबी सींग ने
हमारा ताऊ ने
मुंशी साजा राम ने
सब रेम् दिल भलमाणस थे --- एह !
और बंगाली पंजाबी साब भादर लोगों ने क्या किया
अंग्रेज से मिल कर
सब कीम्ती कीम्ती आईटम अम्रीका और लन्दन पुचाया
अजाबघ्रर बनाने के लिए – एह !
ये सब तेज़ खोपड़ी
ताक़त पास मे हो तो दमाग और भी तेज़ घूमता
बहुत तेज़ी से और एकदम उलटा
फिर हो गया पूरा कौम बदनाम एकाध आदमी करके
एक मछली ,
सारा तलाप खन – खराप , एह !
और पत्थरों के बारे में जो बातें थीं
वो भी लगभग वैसी ही थीं
कि उन मे से कुछ दर्ज वाले होते हैं
और कुछ बिना दर्ज वाले होते हैं
कि परतें कैसे बैठी रहतीं हैं
एक पर एक चिपकी हुईं
कि कहाँ कैसी कितनी चोट पड़ने पर
दर्ज दिखने लग जाते हैं साफ – साफ
जैसा मर्ज़ी पत्थर ले आईए आप
और जहाँ तक घड़ाई की बात है
चाहे एक अलग् थलग दीवार चिननी हो
या नया घर ही बनाना हो
या कुछ भी
दर्ज वाले पत्थर तो बिल्कुल कामयाब नहीं हैं
आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा
वह एक बिना दर्ज वाला पत्थर ही हो सकता है
जो गढ़ा जा सकता है मन मुआफिक़
कितने चाहे क्यूब काट लो उस के
और लम्बे में , मोटे में
कैसे भी डंडे निकाल लो
बस पहला फाड़ ठीक पड़ना चाहिए
और
बशर्ते कि मिस्त्री काँगड़े का हो – एह !
मिस्तरी तो कनौरिये भी ठीक हैं
कामरू का क़िला देखा है
बीर भद्दर वाला ?
अजी वो कनौरियों ने थोड़े बणाया
वो तो सराहणी रामपुरिए होणे
रेण देओ माहराज, काय के रामपुरिए
यहीं बल्हड़ थे सारे के सारे
सब साँगला में बस गए भले बकत में
रोज़गार तो था नहीं कोई
जाँह राजा ठाकर ले गया , चले गए – एह !
बुशैर का लाका है तो बसणे लायक , वाक़ई......
धूड़ बसणे लायक !
पूह तक तो बुरा ही हाल है
ढाँक ही ढाँक
नीचे सतलज – एह !
आगे आया चाँग- नको का एरिया
याँह नही बोलता कनौरी में , कोई नहीं
सारे के सारे भोट आ कर बस गए ऊपर से – एह !
बाँह की धरती भी उपजाऊ और घास भी मीठी
ञीरू से ले के ञुर्चा तक सब पैदावार
और पहाड़ के ऊपर रतनजोत – एह !
नीचे तो कुछ पैदा नहीं होता
और घास में टट्टी का मुश्क
हे भगवान .... घोड़े को भी पूरा नहीं होता
पेड़ पर फकत चुल्ली और न्यूज़ा – एह !
कनौर वाला नही खाता अनाज , कोई नहीं
तब तो भाषा भी अजीब है
न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही
पर भाई जी
सेब ने उनो को चमका दिया है – एह !
हिमाचल मे जिस एरिया ने सेब खाया
देख लो
रंग ढंग तो चलो मान लिया
ज़बान ही अलग हो गई है !
सेब हमारे यहाँ था तो पहले से ही
पर जो बेचने वाला फल था
वह एक इसाई ले के आया था
ऐसा नही कि कुल्लू को सेब ने ही उठाया था
क्या क्या धन्दे थे कैसे कैसे
किस को मालूम नहीं ?
वो तो कोई गोकल राम था
जो पंडत नेहरू के ठारा बार पुकारने पे भी
तबेले में छिपा रहा था
पनारसा के निचली तरफ
और ठारा दिन उस की मशीन रुकी रही
पानी से चलती थी भले बकत में
लाहौर की बी ए थी अगले की
पर शरम के मारे बाहर नहीं आया
तो क़िस्मत भी बचारे की तबेले में बन्द हो गई
बेद राम था तेज़ आदमी
पैर पकड़ के ज़मीने कराई अपने नाम
सोसाटी बणा के – एह !
आज मालिक बना हुआ है
पलाट काट के बेच रहा है
कलोनी खड़ी कर दी अगले ने
कौण पूछ सकता है ?
मैं केता हूँ कि लग्गे रेणा पड़्ता है
क्या पता कब दरवाज़ा खुल जाए – एह !
आखीर मे जब वहाँ से चलने को हुआ चुपचाप
तो तय था कि बातों की जो परतें थीं
वे तो हू ब हू वैसी ही थीं
जैसी समुदायों , मुल्कों , पत्थरों, घोड़ों और तमाम
ऐसी चीज़ों के होने व बने रहने की शर्तें थीं
एक के भीतर से खुलती हुई दूसरी थी
कोई तीसरी भी
कहीं कहीं नज़र आ जाती
बारीकियों में छिपी हुईं
जहाँ कोई जाना नही चाहता था
सच बात तो यह है कि
बात कहने के लिए आप को आवाज़ नहीं होना होता
जब कि परतों को सुनने के लिए आप को पूरा एक कान
और देख पाने के लिए आँख हो जाना होता था
मुझे लगा कि यही समय था
बात चीत के बारे बात करने का
कि एक ज़हनी दुनिया मे खर्च हो जाने से बचने के लिए
कितनी बड़ी नैमत है बातचीत ?
बेवजह भारी हुए बिना और बेमतलब अकड़े बिना
कड़क चा सुड़कते हुए,
अभी से तुम कहते रह सकते हो अपनी बातें
क्यों कि एक दिन तुम चुप हो जाने वाले हो
इत्ता बड़ा सत्त
वैसे भी इस धम्मड़ धूस दुनिया में एक गप्प
ही तो है ,
और अंतिम वाक्य जिसे छोड़ कर चले जाने का
क़तई मन नहीं था --
कि न भी हो अगर गप्प
तो उपयोग इस सत्त का क्या है
जेह बताओ तुम – एह ?
कुल्लू – 25.3.2011
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