बहरहाल जिन्हें बेनी हिल पसंद आये या पहले से पसंद हों तो विकिपीडिया तो है ही , एक बढ़िया लिंक ये भी है
Friday, December 30, 2011
बेनी हिल और घटिया दर्जे का ह्यूमर
बहरहाल जिन्हें बेनी हिल पसंद आये या पहले से पसंद हों तो विकिपीडिया तो है ही , एक बढ़िया लिंक ये भी है
एक कहानी जो मैं कहना नहीं चाहता
ऐसी कहानी सुनाने के बाद जो मुझे बुरा महसूस कराती हो, मुझे जारी रहना चाहिए और उस बारे में लिखना चाहिए जो मैं दुबारा नहीं देखना चाहूँगा | यह मेरे भाई की मृत्यु से सम्बंधित है | इसके बारे में लिखना मेरे लिए बेहद पीड़ादायी है , लेकिन अगर मैं इस बारे में चर्चा नहीं करूँगा, तो मैं आगे जारी नहीं रख पाऊंगा | जिंदगी के स्याह पहलुओं की एक झलक देखने के बाद, मुझे अचानक अपने माता-पिता के घर जाने की जरूरत महसूस होने लगी | अब यह साफ़ हो गया था कि आगे से अब सारी विदेशी फ़िल्में बोलने वाली फिल्में होंगी , और उन्हें दिखाने वाले सिनेमाघरों ने एक सार्वभौमिक सा नियम बनाया कि उन्हें अब दृश्य का वर्णन करने वालों की कोई जरुरत नहीं रही | बड़ी संख्या में वर्णनकर्ता निकाले जाने लगे, और, इसे सुनकर, वे लोग हड़ताल पर चले गए | मेरा भाई, जो हड़तालियों का अगुआ बना था, काफी बुरे दौर से गुजर रहा था | मेरे लिए यह सही नहीं था कि लगातार अपने आप को उस पर थोपता रहूँ | मैं घर चला गया | मेरे माता-पिता , जो मेरी पिछली कुछ सालों की मेरी जिंदगी के बारे में कुछ नहीं जानते थे , उन्होंने मेरा स्वागत किया ऐसा जैसे मैं रेखाचित्रों के अध्ययन के लिए दूर गया था | मेरे पिता जैसे सब कुछ जानना चाहते थे कि मैं किस तरह की चित्रकला का अध्ययन कर रहा था , तो मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था इसके अलावा कि मैं सच के बारे में चुप ही रहूँ और जहाँ तक हो सके झूठ बोलूं | मेरे पिता की उम्मीदें मुझे एक कलाकार के रूप में देखना, यह देखकर मैंने दुबारा चित्रकार बनने की सोची | मैं दुबारा से रेखाचित्र बनाने लगा, मैं तैलचित्र बनाना चाहता था | लेकिन घर का खर्चा मेरी बड़ी बहन उठा रही थी, जिसने मोरिमुरा गकुएँ के एक अध्यापक से विवाह किया था | मैं उनसे रंग और कैनवस नहीं मांग सकता था | इसलिए मैंने रेखाचित्र बनाये |
इन सबके बीच, एक दिन हमने मेरे भाई के आत्महत्या की कोशिश के बारे में सुना | मुझे यकीन था कि इसकी वजह उसकी हडताली वर्णनकर्ताओं के मुखिया बनने की दर्दनाक स्थिति थी, जो असफल रही थी | मेरे भाई ने यह सोचकर इस्तीफा दे दिया था कि जब फिल्म तकनीक इतनी विकसित हो चुकी है कि अब फिल्मों में आवाज भी शामिल की जाने लगी है, तो वर्णनकर्ताओं की जरूरत नहीं रह जायेगी | जबकि वह जानता था कि वह हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है, उसके लिए उनका अगुआ बनना बयान करने की हद से भी तकलीफदेह रहा होगा | मेरे भाई की अपनी जिंदगी की पीड़ा को एक बार में खत्म कर देने की कोशिश ने पूरे घर पर फिर से दुःख का ग्रहण ला दिया | मैं किसी भी तरह से कोई खुशी का बहाना ढूँढना चाहता था जिससे एकबारगी सबका ध्यान कहीं और जाए | तो मुझे एक विचार आया कि अपने भाई की शादी उस औरत से करवा दूँ जिसके साथ वह रह रहा था | मैं लगभग एक साल तक उसके जासूसी सा करता रहा, और उसके चरित्र में कुछ संदेहास्पद मुझे नहीं मिला , बल्कि मैं उससे ऐसे व्यवहार करने लगा जैसे वह वास्तव में मेरी भाभी ही हो | मुझे लगने लगा जैसे उनके रिश्ते को एक औपचारिक जामा पहनाने का काम मेरा नैसर्गिक भूमिका हो जो मुझे अदा करनी ही है | माँ, पिता तथा बड़ी बहन को इसमें कोई ऐतराज नहीं था | लेकिन अजीब बात यह थी कि मुझे अपने भाई से कोई सीधा सीधा जवाब नहीं मिला | मैंने उसके मौन को यह सोचकर स्वीकार कर लिया कि वह आजकल बेरोजगार है | तब एक दिन माँ ने मुझसे पूछा, "क्या हेइगो पूरी तरह से ठीक है |" "आपका क्या मतलब है ?" मैंने पूछा | तब उन्होंने अपना डर बताया "क्या हेइगो हमेशा नहीं कहता था कि वह तीस साल पूरे करने से पहले ही मर जाएगा ?" जो भी उन्होंने कहा वह सच था | भाई हमेशा कहता था | वह दृढतापूर्वक कहता था कि जब लोग तीस साल पार कर लेते हैं , वे जो भी करते है वह बदसूरत और मतलबी होता है, इसलिए उसका वो सब करने का कोई इरादा नहीं है | वह रशियन साहित्य का बड़ा उपासक था, और मिखाइल आर्त्सीबशेव के दी लास्ट लाइन को दुनिया की सबसे बेहतरीन किताब का दर्जा देता था , और उसकी एक प्रति हमेशा अपने हाथो में रखता था | लेकिन नायक नौमोव के अजीब मृत्यु के धर्म के प्रति मेरे भाई का लगाव मुझे हमेशा भावनाओं के अतिरेकता से ज्यादा कुछ नहीं लगता था | और यह बेशक उसकी अपनी मौत की इच्छा नहीं है | इसलिए जब मेरी माँ ने अपनी चिंता व्यक्त की तो मैंने इसे हंसकर उड़ा दिया, यह कहकर, "जो लोग मरने के बारे में बात करते है , नहीं मरते |" मैंने अपने भाई के शब्दों को हल्का कर दिया , लेकिन कुछ ही महीने बाद , मैंने माँ की आशंका को अपनी आखों के सामने घटते हुए देखा, मेरा भाई मर चुका था | और जैसा उसने वादा किया था , वह तीस साल पूरे होने से पहले ही मर गया था | सताईस साल की उम्र में उसने ख़ुदकुशी कर ली | ख़ुदकुशी से तीन दिन पहले उसने मुझे अपने साथ रात्रिभोज करने के लिए बुलाया था | लेकिन, काफी अजीब, मैं कितनी भी कोशिश करूँ, मुझे याद नहीं कहाँ | शायद उसकी मौत ने मुझपर गहरा सदमा छोड़ा था , हालाँकि मैं हमारे आखिरी बातचीत के एक एक वाक्य को पूरी स्पष्टता से याद करता हूँ , मुझे बिलकुल याद नहीं आता कि उसके पहले और उसके बाद क्या हुआ | हमने शिन ओकुबो स्टेशन पर एक दुसरे से विदा ली | हम एक टेक्सी में थे | जैसे मेरा भाई उतरा और ट्रेन स्टेशन की सीढियां चढ़ने लगा , उसने मुझसे कहा कि मैं घर तक के लिए गाडी ले लूँ | लेकिन जैसे ही गाडी दुबारा शुरू हुई, वह सीढ़ियों से वापस आया और उसने ड्राईवर को रुकने का इशारा किया | मैं गाडी से उतरा , उसकी तरफ बढ़ा और , कहा , "क्या बात है ?" उसने एक पल के लिए बहुत मुश्किल से मुझे देखा और तब कहा , "कुछ नहीं, तुम अब जाओ |" वह मुड़ा और सीढ़ियों से फिर ऊपर चढ़ने लगा | अगली बार जब मैंने उसे देखा तो वह खून सनी चादर से ढका हुआ था | इजू प्रायद्वीप के एक गर्म पानी के झरने के पास एक सराय के तनहा कमरे में उसने अपनी जान ले ली | कमरे के दरवाजे पर खड़ा मैंने अपने आप को हिलने में असमर्थ पाया | एक रिश्तेदार, जो शव की सुपुर्दगी के लिए मेरे और पिता के साथ आया था , ने मुझे गुस्से से घूरा और पूछा , "अकिरा, तुम वहाँ क्या कर रहे हो ?" मैं क्या कर रहा था ? मैं अपने मृत भाई को देख रहा था | मैं अपने मृत भाई के शव को देख रहा था , जिसके रगों में भी वही खून था जो मेरी रगों में है , और जिसने उसे अपने शरीर से बाहर बह जाने दिया था , और जिसे मैं सबसे ज्यादा मान देता था , और जिसकी जगह मेरी दुनिया में कोई नहीं ले सकता था | वह मर चुका था | मैं क्या कर रहा था ? लानत है मेरे ऊपर !
"अकिरा, जरा मेरी मदद करो ," मेरे पिता ने बहुत कोमलता से कहा | और तब, काफी मशक्कत के साथ, वह मेरे भाई के शव को एक चादर में लपेटने लगे | मेरे पिता के सांस फूलने और तनाव के दृश्य ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया , और किसी तरह से मैं कमरे में प्रवेश करने का हौसला जुटा सका | जब हमने मेरे भाई के शव को कार में रखा जिसे हम टोक्यो से हमारे साथ लाये थे , शव ने एक गहरी कराह ली | उसके पैर जो उसकी छाती से सट गए थे , जिसकी वजह से हवा उसके मुंह के रास्ते बाहर निकल आई थी | कार के ड्राईवर की कंपकंपी छूट गयी थी, लेकिन किसी तरह से वह शव को शमशान ले जा सका और उसे राख में बदल सका | वह पागलों की तरह वापस टोक्यो के लिए गाडी चलाता रहा , और बहुत सारे अजीब रास्तों से ले गया | मेरी बहादुर माँ ने मेरे भाई की ख़ुदकुशी के पूरे घटना को पूरे मौन के साथ, बिना एक आंसू बहाए सहन किया | जबकि मैं जानता था कि उसके दिल में मेरे लिए बिलकुल भी द्वेष नहीं है , मैं अपने आप को उसकी मौन यातना का जिम्मेदार मानने लगा | जब वह मेरे पास आई तो मैंने उससे अपने भाई के शब्दों को काफी हलके में लेने के लिए माफ़ी मांगनी चाही | लेकिन उसने इतना ही कहा , "अकिरा, तुम क्या कहना चाहते हो ?" वह रिश्तेदार जिसने मुझसे पूछा था , "अकिरा, तुम वहाँ क्या कर रहे हो?" जब मैं अपने भाई के शव को देखकर स्तब्ध हो गया था, भी मुझे उतना नहीं डरा सका था, लेकिन मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाया जो कुछ भी मैंने अपनी माँ से कहा था | और इसका अंजाम मेरे भाई के लिए कितना खतरनाक हुआ था | मैं कितना बेवकूफ हूँ !
Wednesday, December 28, 2011
सब गोकुल के प्राण जीवन धन, बैरिन के उर साल
.... उपजि पर्यो यह कूंखि भाग्य बल, समुद्र सीप जैसे लाल
सब गोकुल के प्राण जीवन धन, बैरिन के उर साल
सूर कितो जिय सुख पावत हैं, निरखत श्याम तमाल
रज आरज लागो मेरी अंखियन, रोग दोष जंजाल
Monday, December 26, 2011
माँ, हर्पीज़ और आदिम चाँदनी
कुछ लोग एक झाड़ की ओट में भारी धारदार खाण्डों से दुर्बल मृगशावकों के गले रेत रहे हैं
और कुछ अन्य गुपचुप पड़ोसी कबीले पर हमले की योजनाएं बना रहे हैं. उन्हों ने बड़े-बड़े कद्दावर ऊंट और घोडे़ और कुत्ते पाल रखे हैं. अपने पालतुओं के जैसे ही वहशी दरिन्दे हैं वे -
तगड़े, खूंखार, युद्धातुर! अपने निश्चयों में प्रतिबद्ध ,अपने प्रारब्ध के प्रति निश्चिन्त . जाने कब से उनके आस-पास विचर रहा हूँ मैं - बलवान शिकारियों के उच्छिष्ठ पर पलने वाला लकड़बग्घा!
हहराते अलाव पर भूने जा रहे लाल गोश्त की आदिम गंध पर आसक्त मेरे अपने चाँद की प्रतीक्षा में । मुझे भी नीन्द नहीं आती आधी-आधी रात तक ।
मैं भी उतना ही उत्कट ,उतना ही आश्वस्त, वैसे ही आँखें बिछाए,उतना ही क्रूर,उतना ही धूर्त . अपने निजी चेतनाकाश के फर्जी़ नक्षत्रों का कालचक्र तय करने, अपना ही एक छद्म पंचांग निर्धारित करने की फिराक में .......अपना मनपसन्द अखबार ओढ़ (जिस में मेरे प्रिय कवि के मौत की खबर छपी है) अपनी ही गुनगुनी चाँदनी में सराबोर होने की कल्पना में उतना ही रोमांचित . महकती फूल सी गुलाबी रक्कासा पेश ही करने वाली है मदिरा की बूंदे . कि कैसी भीनी-भीनी खुश्बू आई है अचानक अखबार के भीगने की !
यह बारिश ही होगी .............चाँदनी में भीगे अक्षरों के पार. मैं प्रयास करता हूं बादलों की नीयत पढ़ने का . रह-रह कर उभरते हैं मेरे प्रिय कवि के गाढे़ अक्षर. बारिश में घुलमिल कर लुप्त हो जाते हैं. मैं पलकें झपकाता रह जाता हूं - निपट अनपढ़ . युगों से किसी और की कविता नहीं पढ़ी ! किसी और का दर्द नहीं समझा!! और भीतर का टीस गहराता ही गया है........
मेरी बीमार बूढ़ी मां ने दबे पांव कमरे में प्रवेश किया है . मैं अखबारों के नीचे उसके टखनों का घाव देख सकता हूं. मेरी जांघों में असहनीय जलन हो आई है . जहां मां के जैसे फफोले उग आए हैं . चाँदनी रात का चलता जादू रूक गया है. बन्जारों का डेरा तिरोहित हो गया है . मृग शावकों के ताज़ा लहू की गंध कायम है. गीले अखबार से भुने गोश्त की महक अभी उठ रही है
और माँ की तप्त आकांक्षाओं से छनते हुए आ रहे हैं सिहरे-सहमे से शब्द -
“बेटा जिस्म ठण्डा रहा है ,यह ऊनी शाल ओढ़ा देना , जुराबों का यह जोड़ा भी ....... और तुम यह सोचते क्या रहते हो यहां लेटे-लेटे कुछ करते क्यों नहीं बाहर जाकर ..”
मुझे लगता है , मुझे अपनी चाँदनी से बाहर हो कर भी जीना है !
Sunday, December 25, 2011
सोना लेने म्हारे पी गए, अरी मोरा सूना कर गए देस
भाई इकबाल अभिमन्यु ने कुछ दिन पहले आपको मशहूर पाकिस्तानी क़व्वाल फरीद अयाज़ की आवाज़ में कबीरदास जी की शानदार पेशकश सुनवाई थी. उन्हीं फरीद आवाज़ साहेब से आज सुनिए अतिविख्यात रचना पधारो म्हारे देस
Monday, December 19, 2011
Sunday, December 18, 2011
'इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए' : अलविदा अदम गोंडवी
अदम गोंडवी
(२२ अक्तूबर १९४७ - १८ दिसंबर २०११)
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से।
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से।
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से।
अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से।
बहारे - बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से।
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से।
कैर-सांगरी चिंतन
सिर्फ इतना ही हरापन
कि पौंछा जा सकता है जिसे
ऊँगली के पोर से.
त्याग देतें हैं पेड़ इसे भी
थोड़े और बुरे मौसम में
बची रहती है हरीतिमा फिर
उनकी स्मृतियों में ही.
गर्मियों में
झाड़ियाँ सहेजती हैं सिर्फ
शूल की नोक भर आर्द्रता
और आत्मा में
पानी का एकाध अणु
इस धूसर विस्तार में
सब कुछ सूखा सूखा
और भुरभुरा है
बावजूद इसके यहाँ
हमेशा के लिए खत्म नहीं होता
सब कुछ
ये एक लंबी ग्रीष्म निद्रा सा है
जिसमें अगर जागने की संभावना न मानें
तो भी
फिर से ज़िंदा होने की तो
बची ही रहती है.
सब कुछ पानी में भी
जीवित नहीं रह पाता
और न मर पता है
उसके बिना भी.
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सांगरी रेगिस्तान के जीवट का मूर्त रूप है.ये खेजड़ी के पेड़ पर लगने वाली फलियाँ हैं, जिन्हें सुखा कर लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है.और कभी भी सब्ज़ी के तौर पर खाया जा सकता है. पर अगर खेजड़ी पास में है तो इन्हें पेड़ से तोड़कर उसी वक्त भी सब्ज़ी बना कर खाया जा सकता है,जाता रहा है.पर शर्त ये है कि ये कच्ची हों तभी सब्ज़ी में काम आ सकती है. पकी हुई तो खैर सीधे ही खाई जा सकती है,पर वो अलग मामला है.
बचपन में घर के पास खेजड़ी का पेड़ था. समाज के सामुदायिक भवन परिसर में उगा हुआ ख़ूब बड़ा और लदा फदा.वक्त आने पर उसमें ख़ूब फल आते और पक कर गिरते.जिन्हें हम बटोर कर खाते. ये तब की बात है जब घर महल्लों में इस तरह के पेड़ पौधो को बड़े लाड प्यार से बर्दाश्त किया जाता था.
तो खैर,कच्ची सांगरी के लिए इन्हें पेड़ पर थोड़ा चढ़कर तोड़ना होता था क्योंकि एक तो उस पेड़ ने खासी ऊँचाई पकड़ रखी थी दूसरे उसकी डालियाँ नीचे से पहुँच में नहीं थीं.मैं कोई आठेक साल का ही था और पड़ौस से किसीने कहा कि रोज़ इस पेड़ के आसपास ही दिखते हो तो कुछ कच्ची सान्गरियाँ तोड़ लाओ.मैं मना नहीं कर पाया पर जानता था कि पेड़ पर चढ़ने का अभ्यास नहीं हैं.जैसे तैसे चढ़ने लगा और मेरे लिहाज से कुछ ज्यादा ही ऊपर तक पहुच गया. पेड़ के रूखे वल्क की असंख्य दरारों से मकोड़े हाथ और पाँव पर चढ़ने लगे. त्वचा पर उनकी सूक्ष्म हरकत से आत्मा तक में सरसराहट महसूस होने लगी.नीचे उतरना ही एकदम उचित था,पर जब ऊपर से धरती पर नज़र डाली तो इतनी ऊँचाई से चक्कर आने लग गए.वो चरम अकेलेपन के क्षण थे,जब ईश्वर भी नदारद था.
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कम से कम मारवाड़ के शहरों और कस्बों में इन दिनों सुखाई हुई कैर-सांगरी की सब्ज़ी अवसर विशेष पर या शीतला सप्तमी के दिन जिस दिन ठंडा खाने की प्रथा है को ही बनाई जाती है.
ये सब्ज़ी मंडी में कम किराणा स्टोर्स पर सूखे रूप में पैकेट्स में बहुतायत से और महंगे दामों में मिलती है, पर इसकी शेल्फ लाइफ अच्छी खासी होती है.
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कैर सांगरी कूमटिया की सब्ज़ी बनाने की विधि- (पत्नी के बताए अनुसार)
सामग्री-
कैर(रेगिस्तान की जंगली झाडी से प्राप्त बेरी का प्रकार)- १०० ग्राम
सांगरी—५० ग्राम
कुमटिया(कूमट के पेड़ से प्राप्त छोटे छोटे चपटे आकार में)- ५० ग्राम
सूखे अमचूर के टुकड़े- २-३
किशमिश-१०० ग्राम
मसाले( स्वाद अनुसार)-
लाल मिर्च पाउडर, नमक, हल्दी पाउडर, धनिया पाउडर
तड़का- तेल,राइ,ज़ीरा,सौंफ,तेज पत्ता, हींग.
उपरोक्त सूखी सब्ज़ियों को ४-५ घंटों तक भिगो कर रखें.किशमिश को अलग बर्तन में भिगोएँ.फिर इन्हें साफ़ पानी से दो बार धो लें और कुकर में थोड़े पानी के साथ इन्हें(किशमिश को छोड़कर)डालकर दो सीटी लगाएं.ठंडा होने पर पानी से इन्हें निकाल लें. सभी बताए गए मसालों का थोड़े पानी में गाढा घोल बना कर रखिये. अब एक पैन में तेल गरम रखिये.राइ ज़ीरा हींग सौंफ और तेजपत्ता डालिए.उसके बाद मसालों का घोल तडके में डालिए और अच्छी तरह तब तक हिलाइये जब तक तेल ऊपर आ जाए.अब पहले उबली सब्जियां पानी पूरी तरह निकाल कर डाल दीजिए फिर किशमिश को पानी हटा कर डालिए.थोड़ी देर कुडछी चलाइए. ऊपर से थोड़ी शक्कर मिलाइए.
गरमा गरम सब्ज़ी तैयार है.
Wednesday, December 14, 2011
काटजू को सागरिका और राजदीप क्यों नहीं दिखते?
काटजू के करतब
सितंबर महीने में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर होने के बाद अक्टूबर महीने में ही काटजू की नियुक्ति भारतीय प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष के तौर पर हो गई थी. काटजू ने कुछ ही दिन बाद सीएनएन-आईबीएन में करन थापर के प्रोग्राम डेविल्स एडवोकेट में इंटरव्यू देकर कॉरपोरेट किरदारों की नींद उड़ा दी. इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू ने भी काटजू के विचारों को प्रकाशित कर इस मुद्दे को और हवा दी. काटजू का कहना था कि आज का मीडिया ज़रूरी मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए फालतू किस्म के विषयों को ज़्यादा अहमियत दे रहा है. उन्होंने मीडिया मालिकों की तरफ़ से प्रचारित किए जा रहे स्वनियमन की अवधारणा को पूरी तरह से नकार दिया था. काटजू ने अपने विचारों में मीडिया के नियमन की वकालत की थी. इसके अलावा काटजू ने अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति मीडिया के पूर्वाग्रह को उठाकर एक तरह से मीडिया में न्यूज़रूप डायवर्सिटी न होने का मुद्दा भी उठाया था. उन्होंने ये हक़ीक़त भी बयान कर डाली कि आज के ज़्यादातर पत्रकार कम समझदार हैं. नए दौर में मीडिया सही काम करे इसके लिए उन्होंने प्रेष परिषद के दायरे में प्रिंट के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी लाने की वकालत कर डाली.
काटजू की बातें मीडिया मालिकों और उनके मुखौटाधारी पत्रकारों को नागवार गुज़री और उन्होंने काटजू के बयानों को इस तरह पेश किया जैसे वे मीडिया के सरकारी नियंत्रण की बात कर रहे हों. मीडिया के नियमन की बात को सरकारी नियंत्रण बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहस के तौर पर पेश किया गया. कई टेलीवीजन चैनलों और अख़बारों ने इस विषय पर प्रायोजित बहस चलाई. जिसमें ज़्यादातर कॉरपोरेट मीडिया के एजेंडा के हिसाब से बात करने वाले चुने हुए बुद्धिजीवियों को ही बुलाया गया. आख़िरकार काटजू पर बनाया गया दबाव काम आया और काटजू बचाव की मुद्रा में नज़र आने लगे. उन्हें द हिंदू में एक लेख लिखकर सफ़ाई देनी पड़ी कि वे मीडिया के ख़िलाफ़ नहीं है (जैसे कॉरपोरेट मीडिया और जन पक्षीय मीडिया में कोई फ़र्क ही न हो). उनके बयानों को तोड-मरोड़ कर पेश किया गया वगैरह-बगैरह. हद तो तब हो गई जब कॉरपोरेट मीडिया के पक्ष में कदमताल करते हुए उन्होंने देश में मीडिया नैतिकता को ठेंगा दिखाने वाले टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप और ब्रिटिश उपनिशवाद के प्रतीक रॉयटर्स के साझा चैनल पर कोर्ट की तरफ़ से लगाए गए सौ करोड़ के जुर्माने को ग़लत करार दे दिया. प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस पीबी सावंत ने टाइम्स नाव पर मानहानि का मुकदमा किया था. चैनल ने बिना जांच-पड़ताल किए गाजियाबाद पीएफ़ स्कैम में आरोपी जज सामंत के बदले पीबी सावंत का फोटो प्रसारित करता रहा. उनके शिकायत करने पर भी चैनल ने उनकी फ़ोटो नहीं हटाई. लिखित शिकायत करने पर भी चैनल ने पांच दिन तक माफ़ी नहीं मांगी आख़िरकार सावंत को कानूनी कार्रवाई का फ़ैसला लेना पड़ा. आख़िरकार मुंबई हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी जस्टिस सावंत के हक़ में फ़ैसला दिया.
काटजू की डैमेज कंट्रोल की कोशिशों के बावजूद भी मीडिया मालिकों के संगठन उन्हें सबक सिखाना चाहते हैं. फिलहाल मीडिया मालिकों और काटजू के बीच चुहे-बिल्ली का खेल जारी है. प्रेस काउसिंल की पहली बैठक में इंडियन न्यूज़पेरस सोसायटी (आईएनएस) के चार प्रतिनिधियों ने काटजू के बयान से नाराज़ बैठक का बहिष्कार किया. बड़े अख़बार मालिकों के प्रभाव वाली संस्था आईएनएस ने बड़ी चालाकी से काटजू के बाक़ी मुद्दों को किनारे करते हुए उनसे इस बात पर माफ़ी मांगने के लिए जोर दिया है कि वो अपनी इस बात के लिए माफ़ी मांगें कि भारतीय मीडिया में ज़्यादातर पत्रकार कम समझदार हैं. आईएनएस चाहता है कि काटजू इस मुद्दे पर माफ़ी मांग लें तो उनकी बाक़ी सभी स्थापनाओं पर भी अपने आप प्रश्न चिन्ह लग जाएगा. काटजू पर दबाव का ही नतीज़ा है कि पहले उन्होंने प्रेस परिषद के कागजी शेर वाली भूमिका पर भी सवाल उठाए थे. उन्होंने घोषणा की थी कि वे प्रधानमंत्री से इस मामले में हस्तक्षेप कर काउंसिल को दंडात्मक अधिकार दिए जाने की बात करेंगे. लेकिन काटजू अब अपनी इस बात से भी पीछे हट गए हैं.
काटजू ने जो भी बातें कही हैं उनको नकारा नहीं जा सकता, लेकिन वे सिर्फ़ मीडिया की सामग्री के नियमन पर ही ज़्यादा ज़ोर देते हैं. वे सिर्फ़ बुरे परिणामों की तरफ़ इशारा कर रहे हैं. उनकी वजहों पर बात करने से साफ़-साफ़ बच रहे हैं. जिस प्रेस परिषद के वे फिलहाल अध्यक्ष हैं, उसकी संरचना पर ही नज़र डाली जाए तो वो प्रकाशकों और सरकार के पक्ष में ज़्यादा झुकी हुई हैं. प्रेस परिषद के अध्यक्ष का चयन भी सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ नहीं हो सकता. इसलिए काटजू भी सरकार की उन नीतियों पर बिल्कुल भी बात नहीं करते जिस वजह से हमारे मीडिया की आज ये हालत है. वे मीडिया में उदारीकरण की नीतियों से पैदा हुई एकाधिकार, मीडियानेट और प्राइवेटी ट्रीटी जैसी बीमारियों पर भी बात नहीं करते. ऐसा होने पर स्वाभाविक तौर सरकार के राजनीतिक-आर्थिक फ़ैसलों पर भी सवाल उठेंगे. इसलिए काटजू मीडिया मालिकों की मुनाफ़ा कमाने की होड़ पर भी सवाल नहीं उठाते. इस तरह देखा जाए तो सरकार और मीडिया मालिकों के बीच मीडिया नियमन के नाम पर जिस तरह नकली युद्ध चल रहा है. काटजू भी उसी की पैदावार हैं. सरकारी नीतियों के वजह से ही विशालकाय कॉरपोरेट मीडिया का उदय हुआ है. मीडिया और राजनीतिज्ञों के रिश्ते भी जग ज़ाहिर हो चुके हैं. राडिया टेप कांड और पेड न्यूज़ जैसे मामले इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण हैं. टेलीकम्युनिकेशन से संबंधित टूजी स्पेक्ट्रम की नीलामी को अगर देखें तो इससे पता चलता है कि उदारवादी आर्थिक नीतियों के तार किस तरह मीडिया, कॉरपोरेट और राजनीति से जुड़े हैं. काटजू से ज़्यादा समझदार तो प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस सावंत थे जिन्होंने कॉरपोरेट मीडिया के बजाय को-ऑपरेटिव मीडिया स्थापित करने पर ज़ोर दिया था.
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों ने हमारे मीडिया का चरित्र बदलकर रख दिया है. आम पत्रकारों को इसमें कोई अधिकार नहीं हैं. पत्रकार संगठनों को गैरजरूरी बना दिया गया है. इसलिए संपूर्ण पत्रकार विरादरी की तरफ़ से कुछ सेलिब्रिटी किस्म के मालिकों के एजेंट पत्रकार जगह-जगह बोलते दिखाई देते हैं. ठेके पर काम करने की वजह से आम पत्रकारों के ऊपर हर वक़्त नौकरी जाने के ख़तरा बना रहता है, तो वे कैसे पत्रकारिता के आदर्शों को सुरक्षित रख पाएंगे. मजबूरी में उन्हें वो सबकुछ करना पड़ता है जो मालिक, प्रबंधन और उनका पिछलग्गू संपादक चाहता है. आज ज़रूरत इस बात की है कि कूड़ेदान में पड़े वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को मजबूती से लागू करवाया जाए. काटजू बहुसंख्यक पत्रकारों की इस हालत की तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते.
सागरिका घोष और राजदीप सरदेसाई होने का मतलब
सीएनएन-आईबीएन ने चैनल पर फेस द नेशन कार्यक्रम के तहत उत्तर प्रदेश प्रदेश की राजनीति को लेकर एक बहस आयोजित की थी. बहस के दौरान बाक़ी वक़्ता आपस में सीधे बातचीत रहे थे लेकिन धार्मिक नेता श्रीश्री रविशंकर वहां मौज़ूद नहीं थे. सागरिका घोष दर्शकों को ऐसे दिखाती रही कि जैसे रविशंकर चैनल से लाइव बात कर रहे हों, जबकि उनकी रिकॉर्डिंग काफ़ी पहले की जा चुकी थी. इस तरह कार्यक्रम देख रहे दर्शकों के साथ यह सीधे-सीधे छल था. मीडिया में स्वनियमन की माला जपने वाले संस्थान में इस तरह का फ़रेब स्वनियमन के सारे दावों की पोल खोल देता है. इससे पहले इसी चैनल के मालिक-संपादक और सागरिका घोष के पति राजदीप सरदेसाई भी इसी से मिलती-जुलती एक हरकत को अंजाम दे चुके हैं.
राडिया टेप सामने आ चुके थे. बरखा दत्त, वीर सांघवी, प्रभु चावला समेत राजदीप सरदेसाई की आवाज़ भी उन टेप में मौज़ूद थी. सेलिब्रिटी पत्रकारों का दलाल और लिजलिजा चेहरा पहली बार जनता के सामने आ रहा था. राजदीप सरदेसाई उस दौरान मालिकों की मुखौटा संस्था एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष भी हुआ करते थे. जब देश में कॉरपोरेट लॉबीइस्ट नीरा राडिया के ऊपर चारों तरफ़ थू-थू हो रही थी. तभी राजदीप अपने चैनल में इंडिया एट नाइन कार्यक्रम के तहत ये बहस आयोजित करवाई कि भारत में लॉबीइंग को कानूनी क्यों नहीं किया जाना चाहिए? एजेंडा को सेट करते हुए राजदीप ने अपने पसंद के वक़्ताओं को शो में बुलाया और यह स्टैंड लेते रहे कि लॉबीइंग यानी दलाली के धंधे में कुछ बुराई नहीं है. इसी बीच चैनल ने कुछ दर्शकों की तरफ़ से लॉबीइंग को कानूनी करने के संबंध में ट्वीटर के संदेशों को प्रसारित किया. एक सचेत दर्शक की कोशिशों की वजह से बाद में पता चला कि ये सारे मैसेज फ़र्जी थे और उन्हें चैनल वालों ने ही खुद डाला था. इस बात का पर्दाफ़ाश होने के बाद चैनल की काफ़ी फ़जीहत हुई थी और राजदीप को माफ़ी भी मांगनी पड़ी.
सीएऩएन-आईबीएन, सागरिका घोष और राजदीप सरदेसाई की उपरोक्त करतूतों को जानने बाद यह जानना भी ज़रूरी है कि ये भारतीय पत्रकारिता के चरित्र को किस तरह प्रदूषित कर रहे हैं. सागरिका और राजदीप आपस में पति-पत्नी भी हैं. सागरिका दूरदर्शन के पूर्व निदेशक भास्कर घोष की बेटी हैं तो राजदीप पूर्व क्रिकेटर दिलीप सरदेसाई के बेटे हैं. वे पत्रकार ही नही बल्कि अपने चैनल के मालिक भी हैं. इस लिहाज़ से देखा जाए तो उनके चैनल में मालिक के व्यवसायिक हितों और पत्रकारीय हितों में सीधा टकराव है. (यह बात कम पूंजी से निकलने वाले नो प्रोफिट-नो लॉस वाले माध्यमों पर लागू नहीं होती) लेकिन फिर भी वे दोनों पद संभाले हुए हैं. सागरिका भी कमोबेश इसी भूमिका मे चैनल के साथ जुड़ी हैं. चैनल का मुख्य मकसद भारतीय बाज़ार में मुनाफ़ा कमाना है. जन सरोकार उनके लिए बहुत बाद की चीज़ है. हां, सरोकारों का दिखावा करना उनके लिए ज़रूरी है. जिसके लिए सरकार की तरफ़ से उन्हें पद्मश्री मिल चुका है. इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आख़िर एक पत्रकार, मालिक बनने की होड़ में कैसे शामिल हो जाता है.
सीएऩएऩ-आईबीएऩ, दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में से एक टाइम एंड वॉर्नर की सहयोगी कंपनी है. इसका मुख्य चैनल सीएऩएऩ अमेरिका से प्रसारित होता है. इसकी मुख्य कंपनी ने दुनियाभर के मीडिया बाज़ार पर कब्ज़ा कर उन देशों की संस्कृति और वहां की स्वतंत्र संस्थाओं को बर्बाद कर दिया है. अब यही काम सीएनएन-आईबीएन के माध्यम से भारत में भी हो रहा है. नब्बे के बाद जिस तरह से सरकार ने बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए भारतीय बाज़ार खोल दिया गया. हर संस्था की तरह मीडिया में भी उनका हस्तक्षेप उसी अनुपात में बढ़ा है. मीडिया के माध्यम से मुनाफ़ा कमाने की होड़ को भी इसी संदर्भ में समझा जा सकता है.
सागरिका घोष और राजदीप सरदेसाई होने का मतलब कॉरपोरेट मीडिया की लूट में शामिल होना है.
न्यायविद जस्टिस काटजू कॉरपोरेट लूट की इस होड़ पर क्यों चुप हैं ?
(समयांतर के दिसंबर अंक में प्रकाशित)
Monday, December 12, 2011
Sunday, December 11, 2011
अपनों के बीच अपने कपड़ो और जूतो से पहचाने जाओगे : संध्या गुप्ता को श्रद्धांजलि
कोई नहीं था कभी यहां
इस सृष्टि में
सिर्फ
मैं...
तुम....और
कविता थी!
चुप नहीं रह सकता आदमी
जब तक हैं शब्द
आदमी बोलेंगे
और आदमी भले ही छोड़ दे लेकिन
शब्द आदमी का साथ कभी छोड़ेंगे नहीं
अब यह आदमी पर है कि वह
बोले ...चीखे या फुसफुसाये
फुसफुसाना एक बड़ी तादाद के लोगों की
फितरत है!
बहुत कम लोग बोलते हैं यहाँ और...
चीखता तो कोई नहीं के बराबर ...
शब्द खुद नहीं चीख सकते
उन्हें आदमी की जरूरत होती है
और ये आदमी ही है जो बार-बार
शब्दों को मृत घोषित करने का
षड्यंत्र रचता रहता है!
उस स्त्री के बारे में
करवट बदल कर सो गई
उस स्त्री के बारे में तुम्हे कुछ नहीं कहना!
जिसके बारे में तुमने कहा था
उसकी त्वचा का रंग सूर्य की पहली किरण से
मिलता है
उसके खू़न में
पूर्वजों के बनाये सबसे पुराने कुएँ का जल है
और जिसके भीतर
इस धरती के सबसे बड़े जंगल की
निर्जनता है
जिसकी आँखों में तुम्हें एक पुरानी इमारत का
अकेलापन दिखा था
और....जिसे तुम बाँटना चाहते थे
जो... एक लम्बे गलियारे वाले
सूने घर के दरवाजे पर खड़ी
तुम्हारी राह तकती थी!
एक गैर दुनियादार शख्स की मृत्यु पर एक संक्षिप्त विवरण़
एक विडम्बना ही है और इसे गैर दुनियादारी ही कहा जाना चाहिये
जब शहर में हत्याओं का दौर था.....उसके चेहरे पर शिकन नहीं थी
रातें हिंसक हो गयी थीं और वह चैन से सोता देखा गया
यह वह समय था जब किसी भी दुकान का शटर
उठाया जा रहा था आधी रात को और हाथ
असहाय मालूम पड़ते थे
सबसे महत्वपूर्ण पक्ष उसके जीवन का यह है कि वह
बोलता हुआ कम देखा गया था
“ दुनिया में किसी की उपस्थिति का कोई ख़ास
महत्व नहीं ”-
एक दिन चैराहे पर
कुछ भिन्नाई हुई मनोदशा में बकता पाया गया था
उसकी दिनचर्या अपनी रहस्यमयता की वजह से अबूझ
किस्म की थी लेकिन वह पिछले दिनों अपनी
खराब हो गई बिजली और कई रोज़ से खराब पड़े
सामने के हैण्डपम्प के लिये चिन्तित देखा गया था
उसे पुलिस की गाड़ी में बजने वाले सायरनों का ख़ौफ़
नहीं था...मदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने में भी उसकी
दिलचस्पी कभी देखी नहीं गई
राजनीति पर चर्चा वह कामचोरों का शगल मानता था
यहां तक कि इन्दिरा गांधी के बेटे की हुई मृत्यु को वह
विमान दुघर्टना की वजह में बदल कर नही देखता था
अपनी मौत मरेंगे सब!!!
उस अकेले और गैर दुनियादार शख़्स की राय थी
जब एक दिन तेज़ बारिश हो रही थी
बच्चे, जवान शहर से कुछ बाहर एक उलट गई बस को
देखने के लिये छतरी लिये भाग रहे थे
वह अकेला और
जिसे गैर दुनियादार कहा गया था,
शख़्स इसी बीच रात के तीसरे पहर को मर गया
तीन दिन पहले उसकी बिजली ठीक हो गई थी
और जैसा कि निश्चित ही था कि घर के सामने वाले
हैण्डपम्प को दो या तीन दिनों के भीतर
विभागवाले ठीक कर जाते
उस अकेले और गैर दुनियादार शख़्स का भी
मन्तव्य था कि मृत्यु किसी का इन्तज़ार नहीं करती
पर जो निश्चित जैसा था और इस पर मुहल्लेवालों की
बात भी सच निकली
उसका शव बहुत कठिन तरीके से
और मोड़ कर उसके दरवाजे़ के बाद की
सँकरी गली से निकला!
Thursday, December 8, 2011
दिल में तड़पता है अँधेरे का अन्दाज़
(गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में ' का एक अंश)
सूनी है राह, अजीब है फैलाव
कमज़ोर घुटनों को बार-बार मसल,
उठता हूँ दरवाज़ा खोलने,
चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे
पोंछता हूँ हाथ से,
अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर
बढ़ता हूँ आगे,
पैरों से महसूस करता हूँ धरती का फैलाव,
हाथों से महसूस करता हूँ दुनिया,
मस्तक अनुभव करता है, आकाश
दिल में तड़पता है अँधेरे का अन्दाज़,
आँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं,
केवल शक्ति है स्पर्श की गहरी।
आत्मा में, भीषण
सत्-चित्-वेदना जल उठी, दहकी।
विचार हो गए विचरण-सहचर।
बढ़ता हूँ आगे,
चलता हूँ सँभल-सँभलकर,
द्वार टटोलता,
ज़ंग खायी, जमी हुई जबरन
सिटकनी हिलाकर
ज़ोर लगा, दरवाज़ा खोलता
झाँकता हूँ बाहर....
सर्द अँधेरा।
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे।
हर बार सोच और हर बार अफ़सोस
हर बार फ़िक्र
के कारण बढे हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ
अँधियारा पीपल देता है पहरा।
हवाओं की निःसंग लहरों में काँपती
कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज़,
टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से।
काँपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फ़ासले
(बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर)
Monday, December 5, 2011
मशहूरियत किसी को नहीं बख्शती
अन्ना अख़्मातोवा की कविता
और तुम , मेरे दोस्तो
Sunday, December 4, 2011
अड़चन थी वहां जिसने बनावट बदल दी
मशहूर यूनानी कवि कॉन्स्टैन्टिन कवाफ़ी (अप्रैल 29, 1863 – अप्रैल 29, 1933) की कविताओं के अनुवाद की छोटी सी एक किताब मुझे हाल ही में डाक से मिली है. अनुवादक हैं पीय़ूष दईया. फ़िलहाल इस किताब से एक कविता पेश है. पीय़ूष के किए कुछ अन्य अनुवाद जल्द ही कबाड़ख़ाने में देखिये.
ख़ुफ़िया चीज़ें
किसी को यह बरामद करने की कोशिश मत करने दो
कि मैं कौन था
उस सब से जो मैंने कहा और किया.
अड़चन थी वहां जिसने बनावट बदल दी
मेरे जीवन के लहज़े और करनी की.
अक्सर वहां अटकाव था एक
रोक लेने को मुझे जब मैं बस बोलने बोलने को था.
मेरी नितान्त अलक्षित करनी
मेरे ख़ुफ़िया लेखन से -
मैं समझा जाऊंगा केवल इन सबसे.
लेकिन शायद यह इस जानलेवा छानबीन के लायक नहीं है
खोज लेने के लिए कि असल में कौन हूं मैं.
बाद में. एक ज़्यादा मंजे-खिले समाज में
बिल्कुल मेरे जैसा बना कोई और
दिखाई देगा ही फिरता छुट्टा.
Friday, December 2, 2011
और जो हंसने से पहले जाने किससे इजाजत मांगते हैं
आर. चेतनक्रांति
उससे कहा गया कि सबसे पहले तुम्हें खुद को बचाना है उसके बाद दुनिया को
अगर समय रहा तो , पूरी ट्रेनिंग का सार बस यही था
कि जब जरुरत हो प्रेम दिखाना मुकर जाना अगर कोई याद दिलाये
कि तुम अपनेपन से मुस्कराये थे जब बेचने आये थे
मॉल बिकने के बाद तुम सिर्फ कम्पनी के हो कम्पनी के मॉल की तरह
और इसी तरह तुम्हें दिखना है, इसे जीवन शैली समझो
यह सिर्फ ड्यूटी कि बात नहीं है
और फिर हम उन्हें देखते हैं , नये बाजारों में
टीवी के परदों पर सड़कों के सिरहानों पर सजे चमकपटों पर
मूर्तियों सी शांत सुसज्जित लड़कियां
जिनकी त्वचा उनसे बेगानी कर दी गई
मुँह खोलने से पहले जो
हथेलिओं से थामतीं हैं कृत्रिम रासायनिक सौंदर्य को
जो दरअसल सम्पत्ति है पे मास्टर की
बुतों कि तरह ठस खड़े जोधा लड़के
जिनके बदन की मचलियाँ बींध दी गयीं हैं भव्य आतंक से
और जो हंसने से पहले जाने किससे इजाजत मांगते हैं
शायद दीवार में कोई आंख हो
शायद परदे के पीछे कोई डोरियां फंसाये बैठा हो ...
Thursday, December 1, 2011
अन्ना के खंडूरी
जब से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी ने राज्य में लोकपाल विधेयक पास किया है वे अऩ्ना हज़ारे और उनके समर्थकों के दुलारे बने हुए हैं. इससे राज्य में भ्रष्टाचार के आरोपों से गले-गले तक डूबी भारतीय जनता पार्टी अन्ना के सहारे आगामी विधानसभा चुनाव में फिर से जीतने का सपना देखने लगी है. खंडूरी का कहना है कि वे जल्द ही राज्य में एक बड़ी रैली करने जा रहे हैं जिसमें अन्ना ने भी शिरकत करने की सहमति दी है. लेकिन जिस लोकपाल के लिए अन्ना के सिपहसालार फूले नहीं समा रहे हैं शायद उसकी स्थापनाओं को उन्होंने अभी अच्छी तरह पढ़ा नहीं है या वे जानबूझकर बीजेपी के पक्ष में माहौल बना रहे हैं.
अन्ना हज़ारे और इंडिया अगेंस्ट करप्शन को इस बात का श्रेय ज़रूर दिया जाना चाहिए कि उन्होंने पूरे देश में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक माहौल बनाया है लेकिन उनकी ज़िद और एकांगी सोच की वजह से वे इस मर्ज की असली वजह पर कुछ भी सोचने के लिए तैयार नहीं हैं. यही वजह है कि 1 नवम्बर को उत्तराखंड की खंडूरी सरकार ने जैसे ही विधानसभा में उत्तराखंड लोकायुक्त विधेयक-2011 पास किया तो अऩ्ना को बीजेपी शासित उत्तराखंड एक आदर्श राज्य नज़र आने लगा और उसके नेता आदर्श जनप्रतिनिधि. जनता की भ्रष्टाचार विरोधी अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए किसी भी पार्टी ने इस विधेयक का विरोध करने की हिम्मत नहीं की. लेकिन सवाल उठाया जाना चाहिए कि जो अन्ना समूह केंद्र की कांग्रेस सरकार से प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में लाने पर आसमान सर पर उठाए हुए है. उत्तराखंड वाले अधिनियम में उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को जांच के दायरे में लाने के लिए ऐसे क्या प्रावधान हैं कि वे बिना किसी झिझक के उसका समर्थन कर रहे हैं.
अधिनियम के अनुसार लोकपाल और उसके पांच सदस्यों की नियुक्ति सरकार की चयन समिति के सुझावों के बाद राज्यपाल करेगा. हमारे लोकतंत्र में कोई भी संस्था सत्ता के प्रभाव से कितनी अछूती रहती है यह बात जग ज़ाहिर है. इसलिए पूरा अधिनियम बहुत ही चालाकी से बनाया गया है. पहली नज़र में ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायक भी इसके दायरे में है. लेकिन अधिनियम के अध्याय छह में साफ़ लिखा गया है कि लोकपाल के सभी सदस्यों और अध्यक्ष की आम सहमति के बिना इन उच्च पदस्थ लोगों पर कोई जांच और कार्रवाई नही की जा सकती. इसे आसानी से समझा जा सकता है कि लोकायुक्त और उसके सभी सहयोगियों का किसी मुद्दे पर एकमत होना कितना मुश्किल है, वो तब, जब सत्ताधारियों के ख़िलाफ़ आरोप हों.
बीजेपी हमेशा भुवन चंद्र खंडूरी की छवि को ऐसे पेश करती है जैसे वे दूध के धुले हों. लेकिन उत्तराखंड की अधिकांश जनता उन्हें बीजेपी हाईकमान की तरफ़ से उन पर थोपा गया नेता मानती रही है. ज़िंदगी भर फ़ौज में अफ़सर रहे खंडूरी, दो हज़ार सात में बिना विधानसभा का चुनाव जीते ही उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनाए गए थे. तब बीजेपी हाई कमान ने पद के दूसरे महत्वपूर्ण दावेदार भगत सिंह कोश्यारी को किनारे लगा दिया था. राज्य की जनता और बीजेपी कार्यकर्ता इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाए. मुख्यमंत्री बनने के बाद खंडूरी अपनी फ़ौजी अनुशासन की छवि को भुनाने में कामयाब रहे. कांग्रेस की नारायण दत्त तिवारी की अराजक सरकार के बाद खंडूरी राज्य के एक तबके में लोकप्रिय भी हुए लेकिन भीतरी और बाहरी असंषोष की वजह से दो हज़ार नौ में उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी. बहाना लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड से बीजेपी का सफ़ाया बना. खंडूरी काल में उनके चहेते आईएएस अफ़सर सारंगी पर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोप लगे लेकिन खंडूरी लगातार उन्हें बचाते रहे. यहां तक की बाबा रामदेव ने भी खंडूरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. इस सब से तंग आकर बीजेपी हाई कमान ने रमेश पोखरियाल निशंक को उत्तराखंड का नया मुख्यमंत्री बना दिया. उनके शासन काल में उत्तराखंड भ्रष्टाचारियों का अड्डा बन गया. निशंक पर भ्रष्टाचार के अनगिनत आरोप लगे, जिस वजह से बीजेपी को भी लगा कि उनके नेतृत्व में अगला विधानसभा चुनाव लड़ा तो बीजेपी चंद सीटों में सिमट सकती है, इसीलिए चुनाव से ठीक पहले खंडूरी को मुख्यमंत्री बना दिया गया. इस सारी पृष्ठभूमि की अनदेखी करने वाले अन्नावादियों को लग रहा है कि खंड़ूरी उनकी मंशा का लोकपाल बनाने वाले पहले और स्वाभाविक नायक हैं.
गौरतलब है कि उत्तराखंड में भ्रष्टाचार का पर्याय माने जाने वाले निशंक भी अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समर्थक रहे हैं. खंडूरी पर निशंक के ख़िलाफ़ कई घोटालों में सीबीआई जांच की सिफ़ारिश करने का दबाव है लेकिन वे लगातार इस बात को टालते जा रहे हैं. देश की जनता के लिए हैरान करने वाली बात यह है कि अऩ्ना के आदमी निशंक बचाने में लगातार जुटे रहे. उनके एक बेहद क़रीबी वकील शांतिभूषण, निशंक को बचाने एक विशेष विमान से नैनीताल हाईकोर्ट पहुंचे थे. निशंक स्टर्डिया भूमि घोटाले में बुरी तरफ फंसे हुए थे. तब शांति भूषण ने ही उन्हें मुसीबत से बचाया था. आख़िरकार कोर्ट ने निशंक को स्टर्डिया घोटाले में बरी कर दिया और सारा ठीकरा राज्य की नौकरशाही पर फोड़ दिया. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ सख्त कानून की बात करने वाले अऩ्ना के सिपहसालार ही जब इस तरह भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे एक मुख्यमंत्री को बचाने पहुंचते हैं तो इससे उनकी लड़ाई का खोखलापन भी ज़ाहिर होता है.
अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए बीजेपी को उम्मीद है कि अन्ना आंदोलन उसके लिए एक मजबूत हथियार साबित हो सकता है. बीजेपी की राजनीति को समझने के बाद भी अन्ना समूह उसकी मंशा को पूरा करने में जुटा है. इसीलिए वो पांचों राज्यों में बीजेपी के समर्थन का माहौल बना रहा है. जन लोकपाल को भ्रष्टाचार मिटाने का जादुई हथियार मानने वाले ये लोग न सिर्फ़ भ्रष्टाचार की असली जड़ों की अनदेखी कर रहे हैं बल्कि वे इससे जुड़े नैतिक पहलुओं की भी अनदेखी कर रहे हैं. यही वजह है कि लोकलुभावन नारों के सहारे आंदोलन चला रहे इंडिया अंगेस्ट करप्शन के कर्ता-धर्ता सिर्फ़ कांग्रेस को ही भ्रष्टाचार के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. संस्थागत हो चुके भ्रष्टाचार की जड़ें उन्हें दिखाई नहीं देती हैं. फिलहाल भ्रष्टाचार के ख़िलाफ बोलना एक फ़ैशन बन गया है. अन्ना हज़ारे इस फ़ैशन के प्रतीक पुरुष हैं. इसे आगे बढ़ाने वाले भुवन चंद्र खंडूरी ख़ुद को मसीहा मान रहे हैं. कुल मिलाकर इस राजनीति में बीजेपी के हाथों में ही लड्डू दिखाई दे रहे हैं, जबकि वर्तमान हालात के लिए बीजेपी, कांग्रेस से किसी भी मामले में कम ज़िम्मेदार नहीं हैं. अगर अऩ्नावादी बीजेपी को चुनाव जिताने में किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करते हैं तो इससे कांग्रेस का यह आरोप भी सही साबित होगा कि वे बीजेपी के हाथ की कठपुतली मात्र हैं.
(कुछ अख़बारों के संपादकीय विभाग में काम करने वाले दोस्तों ने इसे न छाप पाने की मजबूरी दिखाई. उन्हें लगा कि नौकरी ख़तरे में पड़ जाएगी.)
(चित्र - विश्व के महानतम कार्टूनिस्ट माने जाने वाले गैरी लार्सन का कार्टून. लार्सन के कई कार्टून आप कबाड़खाने पर देख चुके हैं.)
लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़
खाना बनाती स्त्रियां
जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हीरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ़ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूंधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर रस मिलाया
लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़
आपने उन्हें सुन्दर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिए बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ़ एक आलू एक प्याज़ से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से
दुखती कमर में, चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफ़ान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमग कर खाना बनाया
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आंखें दिखाकर
कई बार लात लगा कर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे - उफ़, इतना नमक
और भूल गए उन आंसुओं को
जो ज़मीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में
कभी उनका पूरा सप्ताह इस ख़ुशी में गुज़र गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ़ की
वे क्लर्क हुईं, अफ़सर हुईं
उन्होंने फ़र्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियां
उनके गले से, पीठ से
उनके अन्धेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुवों में जमा हो गया है ख़ून
झुकने लगी हैं रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालांकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है.
(चित्र- अज्ञात भारतीय चित्रकार की रचना. १८४० में रची गई यह कृति लन्दन की एक कलादीर्घा में "इन्डियन वूमन कुकिंग" के नाम से प्रदर्शित है.)