Thursday, May 31, 2012

फैज़ की कहानी फैज़ की जुबानी - २


(पिछली कड़ी से आगे)

एक और याद ताज़ा हुई. हमारे घर से मिली हुई एक दुकान थी, जहां किताबें किराये पर मिलती थीं. एक किताब का किराया दो पैसे होता. वहां एक साहब हुआ करते थे जिन्हें सब ‘भाई साहब’ कहते थे. भाई साहब की दुकान में उर्दू साहित्य का बहुत बड़ा भंडार था. हमारी छठी-सातवीं जमात के विद्यार्थी-युग में जिन किताबों का रिवाज था, वह आजकल क़रीब-क़रीब नापैद हो चुकी हैं, जैसे तिलिस्मे-होशरुबा, फ़सानए-आज़ाद, अब्दुल हलीम शरर के नॉवेल, वग़ैरह. ये सब किताबें पढ़ डालीं इसके बाद शायरों का कलाम पढ़ना शुरू किया. दाग़ का कलाम पढ़ा. मीर का कलाम पढ़ा. ग़ालिब तो उस वक़्त बहुत ज़ियादा हमारी समझ में नहीं आया. दूसरों का कलाम भी आधा समझ में आता था, और आधा नहीं आता था. लेकिन उनका दिल पर असर कुछ अजब क़िस्म का होता था. यों, शेर से लगाव पैदा हुआ, और साहित्य में दिलचस्पी होने लगी.

हमारे अब्बा के मुंशी घर के एक तरह के मैनेजर भी थे. हमारा उनसे किसी बात पर मतभेद हो गया तो उन्होंने कहा ‘अच्छा, आज हम तुम्हारी शिकायत करेंगे कि तुम नॉवेल पढ़ते हो; स्कूल की किताबें पढ़ने की बजाय छुपकर अंट-शंट किताबें पढ़ते हो.’ हमें इस बात से बहुत डर लगा, और हमने उनकी बहुत मिन्नत की कि शिकायत न करें; मगर वह न माने और अब्बा से शिकायत कर ही दी. अब्बा ने हमें बुलाया और कहा ‘मैंने सुना है, तुम नॉवेल पढ़ते हो.’ मैंने कहा ‘जी हां.’ कहने लगे ‘नॉवेल ही पढ़ना है तो अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ो, उर्दू के नॉवेल अच्छे नहीं होते. शहर के क़िले में जो लायब्रेरी है, वहां से नॉवेल लाकर पढ़ा करो.’

हमने अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ना शुरू किये. डिकेंस, हार्डी, और न जाने क्या-क्या पढ़ डाला. वह भी आधा समझ में आता था और आधा पल्ले न पड़ता था. मगर इस पढ़ने की वजह से हमारी अंग्रेज़ी बेहतर हो गयी. दसवीं जमात में पहुंचने तक महसूस हुआ कि बाज़ उस्ताद पढ़ाने में ग़लतियां कर जाते हैं. हम उनकी अंग्रेज़ी दुरुस्त करने लगे. इस पर हमारी पिटाई तो न हुई; अलबत्ता वो उस्ताद कभी ख़फ़ा हो जाते और कहते ‘अगर तुम्हें हमसे अच्छी अंग्रेज़ी आती है तो फिर तुम ही पढ़ाया करो, हमसे क्यों पढ़ते हो!’

उस ज़माने में कभी-कभी मुझ पर एक ख़ास क़िस्म का भाव छा जाता था. जैसे, यकायक आस्मान का रंग बदल गया है बाज़ चीज़ें कहीं दूर चली गयी हैं.... धूप का रंग अचानक मेंहदी का-सा हो गया है... पहले जो देखने में आता था, उसकी सूरत बिल्कुल बदल गयी है. दुनिया एक तरह की पर्दए-तस्वीर के क़िस्म की चीज़ महसूस होने लगती थी. इस कैफ़ीयत (भावना) का बाद में भी कभी-कभी एहसास हुआ है, मगर अब नहीं होता.

मुशायरे भी हुआ करते थे. हमारे घर से मिली हुई एक हवेली थी जहां सर्दियों के ज़माने में मुशायरे किये जाते थे.

सियालकोट में पंडित राजनारायन ‘अरमान’ हुआ करते थे, जो इन मुशायरों के इंतिज़ामात किया करते थे. एक बुज़ुर्ग मुंशी सिराजदीन मरहूम थे अल्लामा इक़बाल के दोस्त, श्रीनगर में महाराजा कश्मीर के मीर मुंशी, वह सदारत किया करते थे. जब दसवीं जमात में पहुंचे तो हमने भी तुकबंदी शुरू कर दी, और एक-दो मुशायरों में शेर पढ़ दिये. मुंशी सिराजदीन ने हमसे कहा ‘मियां, ठीक है, तुम बहुत तलाश से (परिश्रम से) शेर कहते हो, मगर यह काम छोड़ दो. अभी तो तुम पढ़ो-लिखो, और जब तुम्हारे दिलो-दिमाग़ में पुख़्तगी आ जाये तब यह काम करना. इस वक़्त यह महज़ वक़्त की बर्बादी है.’ हमने शेर कहना बंद कर दिया.

(जारी)

Wednesday, May 30, 2012

तो क्या हम मान लें कि कत्ल करना मजेदार काम है?


मसला
-वीरेन डंगवाल

बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?

कातिल मजे में हैं
तो क्या हम मान लें कि कत्ल करना मजेदार काम है?

मसला मनुष्य का है
इसलिए हम तो हरगिज नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही
बना है मनुष्य.

फैज़ की कहानी फैज़ की जुबानी - १



फैज़ अहमद फैज़ की आपबीती का एक हिस्सा आप कुछ दिन पहले पढ़ चुके हैं. उस के आगे फैज़ साहब की इस दास्ताँ का उर्दू से लिप्यान्तरण शमशेर बहादुर सिंह का किया हुआ है.  ये पोस्टें अपने प्रिय गिर्दा की स्मृति को समर्पित हैं जिन्हें फैज़ की शायरी से बेपनाह मोहब्बत थी.


हमारे शायरों को हमेशा यह शिकायत रही है कि ज़माने ने उनकी क़द्र नहीं की। ... हमें इससे उलट शिकायत यह है कि हम पे लुत्फ़ो-इनायात की इस क़दर बारिश रही है; अपने दोस्तों की तरफ़ से, अपने मिलनेवालों की तरफ़ से और उनकी जानिब से भी जिनको हम जानते भी नहीं कि अक्सर दिल में हिचक महसूस होती है कि इतनी तारीफ़ और वाहवाही पाने का हक़दार होने के लिए जो थोड़ा-बहुत काम हमने किया है, उससे बहुत ज़ियादा हमें करना चाहिए था। यह कोई आज की बात नहीं है। बचपन ही से इस क़िस्म का असर औरों पर रहा है। जब हम बहुत छोटे थे, स्कूल में पढ़ते थे, तो स्कूल के लड़कों के साथ भी कुछ इसी क़िस्म के तअल्लुक़ात क़ायम हो गये थे। ख़ाहमख़ाह उन्होंने हमें अपना लीडर मान लिया था, हालांकि लीडरी के गुन हमें नहीं थे। या तो आदमी बहुत लट्ठबाज़ हो कि दूसरे उनका रौब मानें, या वह सबसे बड़ा विद्वान हो। हम पढ़ने-लिखने में ठीक थे, खेल भी लेते थे, लेकिन पढ़ाई में हमने कोई ऐसा कमाल पैदा नहीं किया था कि लोग हमारी तरफ़ ज़रूर ध्यान दें।

बचपन का मैं सोचता हूं तो एक यह बात ख़ास तौर से याद आती है कि हमारे घर में औरतों का एक हुजूम था। हम जो तीन भाई थे उनमें हमारे छोटे भाई (इनायत) और बड़े भाई (तुफ़ैल) घर की औरतों से बाग़ी होकर खेलकूद में जुट रहते थे। हम अकेले उन ख़वातीन के हाथ आ गये। इसका कुछ नुक़सान भी हुआ और कुछ फ़ायदा भी। फ़ायदा तो यह हुआ कि उन महिलाओं ने हमको इंतिहाई शरीफ़ाना ज़िंदगी बसर करने पर मजबूर किया; जिसकी वजह से कोई असभ्य या उजड्ड क़िस्म की बात उस ज़माने में हमारे मुंह से नहीं निकलती थी। अब भी नहीं निकलती। नुक़सान यह हुआ, जिसका मुझे अक्सर यह अफ़सोस होता है, कि बचपन के खिलंदड़ेपन या एक तरह की मौजी ज़िंदगी गुज़ारने से हम कटे रहे। मसलन यह कि गली में कोई पतंग उड़ा रहा है, कोई गोलियां खेल रहा है, कोई लट्टू चला रहा है; हम सब खेलकूद देखते रहे थे, अकेले बैठकर। ‘होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे’ वाला मामला। हम उन तमाशों के सिर्फ़ तमाशाई बने रहते, और उनमें शरीक होने की हिम्मत इसलिए नहीं होती थी कि उसे शरीफ़ाना शग़ूल या शरीफ़ाना काम नहीं समझते थे।

उस्ताद भी हम पर मेहरबान रहे। आजकल की मैं नहीं जानता, हमारे ज़माने में तो स्कूल में सख़्त ¹ फ़ैज़ के काव्य-संग्रह ‘शामे-शहरे यारां’ का आरंभिक गद्य-भाग। संपादक पिटाई होती थी। हमारे वक़्तों के उस्ताद तो निहायत ही जल्लाद क़िस्म के लोग थे। सिर्फ़ यही नहीं कि उनमें से किसी ने हमको हाथ नहीं लगाया बल्कि हर क्लास में मॉनिटर बनाते थे: बल्कि (साथी लड़कों को) सज़ा देने का मंसब भी हमारे हवाले करते थे, यानी-फ़लां को चांटा लगाओ, फ़लां को थप्पड़ मारो। इस काम से हमें बहुत-कोफ़्त होती थी, और हम कोशिश करते थे कि जिस क़दर भी मुमकिन हो यों सज़ा दें कि हमारे शिकार को वह सज़ा महसूस न हो। तमाचे की बजाय गाल थपथपा दिया, या कान आहिस्ता से खींचा, वगै़रह। कभी हम पकड़े जाते तो उस्ताद कहते ‘यह क्या कर रहे हो! ज़ोर से चांटा मारो!’

इसके दो प्रभाव बहुत गहरे पड़े। एक तो यह कि बच्चों की जो दिलचस्पियां होती हैं उनसे वंचित रहे। दूसरे यह कि अपने दोस्तों, क्लासवालों और उस्तादों से हमें बेहद स्नेह आशीष, खुलापन और अपनाव मिला; जो बाद के ज़माने के दोस्तों और समकालीनों से मिला, और आज भी मिल रहा है।

सुबह हम अपने अब्बा के साथ फ़ज्र की नमाज़ पढ़ने मस्जिद जाया करते थे। मामूल (नियम) यह था कि अज़ान के साथ हम उठ बैठे, अब्बा के साथ मस्जिद गये, नमाज़ अदा की; और घंटा-डेढ़ घंटा मौलवी इब्राहीम मीर सियालकोटी से, जो अपने वक़्त के बड़े फ़ाजिल (विद्वान) थे, क़ुरान-शरीफ़ का पाठ पढ़ा-समझा; अब्बा के साथ डेढ़-दो घंटों की सैर के लिये गये; फिर स्कूल। रात को अब्बा बुला लिया करते, ख़त लिखने के लिए। उस ज़माने में उन्हें ख़त लिखने में कुछ दिक़्क़त होती थी। हम उनके सेक्रेटरी का काम अंजाम देते थे। उन्हें अख़बार भी पढ़कर सुनाते थे। इन कई कामों में लगे रहने की वजह से हमें बचपन में बहुत फ़ायदा हुआ। उर्दू-अंग्रेज़ी अख़बारात पढ़ने और ख़त लिखने की वजह से हमारी जानकारी काफ़ी बढ़ी।

(जारी)

Tuesday, May 29, 2012

लाइव आर्ट जैसे शहर में वान गॉग का बिंब


लाइव आर्ट जैसे शहर में वान गॉग का बिंब


-शिवप्रसाद जोशी

आम्सटर्डम. नीदरलैंड्स की राजधानी . रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते हुए सबसे पहले जो चीज़ें दिखाईदेती हैं वे हैं साइकिलें और नहर और नावें. आम्सटर्डम साइकिल का शहर या फिर नहरों का. यूं येविनसेंट वान(फ़ान) गॉग का शहर भी है. यूं ये सेक्स सिटी भी है. पूरा शहर समुद्र के बैक वॉटर्स से इकट्ठा कर बनाई गई झील से घिरा और फिर उससे निकाली गई नहरें. और नहर पर नावें. नहरें पूरे शहर को इस तरह से काटते हुए बहती हैं कि लगता है आप उन्हीं पर चल रहे हैं. सड़क भी नहर की है.

आम्सटर्डम में साइकिलों की विशाल चार मंज़िला पार्किंग. किराए पर दी जाती हैं. आम्सटर्डम जैसे एक लाइव आर्ट है. आपके सामने रखा हुआ. एक ऐसी पेंटिंग जिसमें आप दाखिल हो जाएं और फिर उस कैनवस से बाहर निकल आएं. विरोधाभासों का शहर. पानी, साइकिल, कला और सेक्स. रहता है सुंदरियों के साथ और नया होता रहता है अपनी कला में पानी के साथ. स्कूल, रेस्तरां, गलियों, इमारतों, सड़कों, दुकानों, कॉलेज से होते हुए एक विशाल पार्क में पहुंचे और वहां से वान गॉग के संग्रहालय के लिए निकले. स्मृति के इतने नज़दीकी नज़ारे शायद ही कहीं मिलेंगे. गॉग के नाम पर अब पन्ने डायरी कलम से लेकर टीशर्ट किताब छाते छल्ले सब बिकते हैं. पेंटिंग्स तो जो हैं सो हैं. कैमरे की मनाही है.

गॉग के कला जीवन की व्यवस्थित सुरुचिपूर्वक और तरतीब से लगाई झांकी है ये. उस जीवन की जो कितना इररेगुलर इरैटिक क़िस्म का था. उसके जीवन के उत्पात वो अटपटापन वे ऊबड़खाबड़ वीरानियां और हाहाकार जैसे यहां क्रमपूर्वक लगे हैं. कैनवस को तहसनहस करने वाले रंग उकेरने वाला वो दीवाना पेंटर. वो सोचने वाला शख़्स. जो सिर्फ़ कला और प्रेम के बारे में सोचता था. उस उत्पात को देखने का हौसला तो चाहिए ही. वे सूरजमुखी वे आइरिस के फूल. लगता है कैनवस मिट्टी है और वहीं से वे उग उठें हैं और छलक कर हमारे सामने लहरा रहे हैं. अपनी उद्दाम उदासियों और रंगतों में. आलू खाता परिवार जैसे हमारे सामने एक घर है और हम उस उदास रोशनी में दाखिल हो गए हैं. बिन बुलाए मेहमान की तरह.

अपने कलाकार को सम्मानपूर्वक याद करने का ये अनुपम उदाहरण है. संग्रहालय की कमर्शियल वैल्यू भले ही हो लेकिन उसे डिज़ाइन बड़े कलात्मक ढंग से किया गया है. बहुत लंबी और थकान भरी लेकिन ये देखना जैसे एक यात्रा है. इंटेंस अविस्मरणीय यात्रा. गॉग के जैसे किसी लैंडस्केप पर बेचैनी और उत्सुकता और हलकी ख़ुशी में टहलना. और आख़िर में जैसे कांपते हुए आप उन दो कब्रों के पास से गुज़रते हैं. वे दो अद्भुत प्रेम में पगे भाई. थियो और विनसेंट. वहां रखने के लिए आपके पास दो फूल तक नहीं हैं. गीली आंखे एक हिचकी जैसी और स्तब्ध. आप यकायक भावुकता और बेचैनी में पहले उस लैंडस्केप से निकल आना चाहते हैं. संग्रहालय के उस फ़्लोर की सीढ़ी उतरते हैं. जल्द ही ये सब ख़त्म हो जाएगा. चमकता बाज़ार आपका इंतज़ार कर रहा है. वान गॉग वहां भी हैं. नाना उत्पादों में. आप ख़ुद को रिफ़्रेश कीजिए.

धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे


अकेला तू अभी 

वीरेन डंगवाल

तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे

धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरूं-गूं कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के हृदय का पानी है

तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीड़ा की कठिन अर्गला को तोड़ें कैसे!

Monday, May 28, 2012

समय कठिन आंखें मत फेर


प्राण-सखा

-वीरेन डंगवाल


समय कठिन
प्राण सखा आंखें मत फेर

टोक-टोक जितना भी जी चाहे टोक पर आंखे मत फेर !

इन दुबले पांवों को
हाथों को
पकड़-जकड़
चढ़ी चली आती है अकड़ भरी
लालच की बेल
शुरू हुआ
इस नासपीटे वसन्‍ता का
सर्व अधिक कठिन खेल

आच्‍छादित हो जाएंगे खिड़की-दरवाजे
जहरीले नीले चित्‍ताकर्षक फूलों से
फूटेंगी दीवारें
सोच नहीं इससे क्‍या होना-जाना है
समय अभी
हेर-हेर-टेर
मुझे टेर
प्राण सखा !

हम जहां पहुंचे कामयाब आये - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – ५




(पिछली कड़ी से आगे)

कैंप डेविड समझौते के बाद अरब के लोगों का यह अनुरोध था कि उसका दफ़्तर काहिरा से कहीं और स्थानांतरित कर दिया जाये. लोटस का मुख्य संपादक जो संगठन का सचिव भी था, उसकी साइप्रस में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी. अब लोटस का संपादन करने वाला कोई नहीं था. इस समय एफ्ऱो-एशियाई साहित्यकार संगठन का दफ़्तर कहीं नहीं था. इस पत्रिका के संपादन के लिए मुझे आमंत्रित किया गया और यह भी फैसला हुआ कि संगठन का दफ़्तर बैरूत में स्थानांतरित कर दिया जाये. मैं अफ्ऱीकी एशियाई साहित्यकारों के संगठन और उसकी पत्रिका लोटस से चार साल तक जुड़ा रहा और फिर हमें इससे फ़ुर्सत मिल गयी.

बैरूत पर आक्रमण के एक महीने बाद मैं किसी-न-किसी तरह वहां से निकलने में सफल हो गया और पाकिस्तान पहुंच गया. यहां आते ही मैं एक बार फिर बीमार हो गया. अब जो यह एलिस के बारे में आप लोग पूछ रहे हैं तो मैं बताऊं. जब मैं कॉलेज में पढ़ाने लगा था तो जैसा मैंने बताया, मेरे कुछ साथी आक्सफ़ोर्ड से वापस लौटे तो वे मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक थे. उसी में एक साथी जो मार्क्सिस्ट था उसकी पत्नी जो अंग्रेज़ थी वह भी मार्क्सिस्ट थी. एक दिन उसने मुझसे पूछा, तुम उदास और निराश क्यों रहते हो, फिर स्वयं ही बोली, तुम्हें इश्क़ हो गया है क्या? तुम बीमार लगते हो. उसने कुछ किताबें मुझे दीं और कहा कि उन्हें पढ़ूं उसने स्पष्ट किया, तुम्हारा दुख बहुत कुछ व्यक्तिगत ढंग का है. ज़रा पूरे हिंदुस्तान पर नज़र डालो, अनगिनत लोग भूख और बीमारी के शिकार हैं. तुम्हारा दुख तो उनकी तुलना में कुछ भी नहीं है.

और तब प्रेम के विषय से मेरा ध्यान हट गया और मैंने व्यापक संदर्भों में सोचना आरंभ कर दिया. मेरी नज़्म ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग’ इसी बदलते हुए सोच का परिणाम थी. मेरे मित्र जिनकी पत्नी का उल्लेख मैंने किया वह एक अच्छे साहित्यकार थे और एक कॉलेज के प्रिंसिपल भी थे. उनके साथ शिक्षण के कार्य में व्यस्त हो गया. कोई तीन चार साल बाद मेरे मित्रा की अंग्रेज़ पत्नी की एक बहन उन लोगों से मिलने अमृतसर आयी, जहां मैं पढ़ा रहा था. मेरी उस महिला से जब मुलाक़ात हुई तो हम मित्र बन गये लेकिन उन्हीं दिनों युद्ध छिड़ गया और वह महिला अपने देश वापस न लौट सकी. मैं भी कैंब्रिज जाने वाला था मगर न जा सका और इस तरह हमारी मित्राता गहरी होती गयी और एक दिन हमने शादी कर ली. वह महिला एलिस थी.

जहां तक बैरूत में मेरे प्रवास का संबंध है तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं फ़िलिस्तीनियों का समर्थक था जिन्हें एक षड्यंत्र द्वारा अपने देश से निकाल दिया गया था. यह अजीब बात थी कि इज़राइली जिन्हें नाज़ियों के हाथों कठोर यातना झेलनी पड़ी थी, वे भी अब फ़िलिस्तीनियों को इसी प्रकार कष्ट देने के लिए उतारू थे, जबकि फ़िलिस्तीनियों ने इज़राइलियों का कुछ नहीं बिगाड़ा था. लेकिन शायद इज़राइलियों के अत्याचारी व्यवहार के पीछे हिंसक मनोग्रंथि काम कर रही थी. शक्तिशाली का साथ तो सब देते ही हैं क्योंकि उसमें कोई हानि नहीं होती. कमज़ोर का साथ देने वाले कम होते हैं और उसमें केवल हानि ही हिस्से में आती है. मैंने बैरूत प्रवास के दिनों में कमज़ोर का साथ देने को अपना रचनात्मक धर्म स्वीकार किया था.

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मुझसे पहली मुहब्बत मेरी महबूब न मांग 
मैनें समझा कि तू तो दरख्शां है हयात  
तेरा गम है तो गमे - दहर का झगडा क्या है 
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात 
तेरी आँखों के सिवा दुनियां में रखा क्या हैं ?

       तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं  हो जाये 
        यूँ न था , मैने फकत चाहा था यूँ हो जाये 

और भी दुःख है जमाने में मुहब्बत के सिवा 
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 
अनगिनत सदियों के तारीक  बहीमाना  तिलिस्म 
रेशमो - अतलसो - कम ख्वाब में बुनवाये हुए 
जा - ब - जा बिकते कूचा - ओ - बाज़ार में जिस्म 
खाक  में लिथड़े हुए खून में नहलाये हुए 
        
       लौट  जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 
       अब भी दिलकश है तेरा हुस्न , मगर क्या कीजे 

और भी दुख है जमाने में मुहोब्बत के सिवा 
राहतें और भी है वस्ल कि राहत के सिवा 
मुझसे पहली से मुहब्बत मेरे महबूब न मांग 

             
(दरख्शां - रौशन, हयात - जीवन, गमे दहर - जमाने का दुःख, आलम - दुनियां, सबात - ठहराव, निगूं होना- बदल जाना,  वस्ल की राहत - मिलन का आनंद, तारीक - अँधेरा, बहीमाना - पशुवत,  रेशमो - अतलसो - कमख्वाब - रेशम, अलतस और मलमल, जा - ब - जा  - जगह - जगह.)

Sunday, May 27, 2012

हम जहां पहुंचे कामयाब आये - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – ४




(पिछली कड़ी से आगे)

मैं मास्को के बाद लंदन चला गया और लंदन में दो वर्ष तक रहा. मैं लंदन से लाहौर आने के बजाय कराची लौट आया. कराची में मैं मिस्टर महमूद हारून के निवास स्थान पर ठहरा. उनकी बहन जो डाक्टर थीं और मेरी मित्रा थीं, उन्होंने मुझे लिखा कि श्रीमाती हारून बीमार हैं और आपको देखना और मिलना चाहती हैं. मेरे आने पर श्रीमती हारून ने मुझे बताया कि उनका जो फ़लाही फ़ाउंडेशन है उसके अधीन स्कूल, अस्पताल और अनाथालय चल रहा है. उनके लड़के के पास फ़ाउंडेशन चलाने के लिए समय नहीं है क्योंकि वह व्यापार तथा राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहे हैं. अच्छा होगा कि फ़ाउंडेशन की व्यवस्था मैं संभाल लूं. मैंने फ़ाउंडेशन के स्थान पर उसकी गतिविधियों का निरीक्षण किया तो देखा कि वह गंदी बस्ती का इलाक़ा था, जहां मछुआरे, ऊंट वाले, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति रहा करते थे. मुझे यह इलाक़ा अच्छा लगा, और हमने इस क्षेत्र में अपनी गतिविधि तेज़ कर दी. स्कूल को कॉलेज में परिवर्तित कर दिया, एक तकनीकी संस्थान भी स्थापित किया और अनाथालय की भी व्यवस्था की. इस प्रकार कोई आठ साल तक मैं शैक्षणिक और प्रशासनिक गतिविधियों से जुड़ा रहा. इस बीच 65 और 71 के युद्ध भी हुए. इन दोनों युद्धों के दौरान मैं अत्यधिक मानसिक तनाव से प्रभावित रहा. उसका कारण यह था कि मुझसे बार-बार देशभक्ति के गीत लिखने की फ़रमाइश की जा रही थी. मेरे इनकार पर यह ज़ोर दिया जाता कि देशभक्ति और मातृभूमि की मांग यही है कि मैं युद्ध के या देशभक्ति के गीत लिखूं. लेकिन मेरा तर्क यह था कि युद्ध अनगिनत व्यक्तियों के लिए मृत्यु का कारण बनेगा और दूसरे पाकिस्तान को इस युद्ध से कुछ नहीं मिलने वाला है. इसलिए मैं युद्ध के लिए कोई गीत नहीं लिखूंगा. लेकिन मैंने 65 और 71 के युद्धों के विषय में नज़्में लिखीं, 65 के युद्ध से संबंधित मेरी दो नज़्में हैं....

बांग्लादेश युद्ध के ज़माने में मैंने तीन-चार नज़्में लिखीं. लेकिन उन नज़्मों की रचना में युद्ध-गीतों का आग्रह करने वालों को मुझसे और भी निराशा हुई. परिणामस्वरूप मुझे सिंध में भूमिगत हो जाना पड़ा. युद्ध समाप्त हुआ तो पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके थे.

चुनाव के बाद फ़ौजी सरकार समाप्त हो गयी थी और भुट्टो के नेतृत्व में पीपुल्स पार्टी की सरकार स्थापित हो चुकी थी. उनसे मेरे अच्छे संबंध थे उस ज़माने में जब वह विदेश मंत्राी थे और उस समय भी जब वह विपक्षी पार्टी के नेता थे. उन्होंने मुझे अपने साथ काम करने के लिए आमंत्रित किया. मैंने पूछा मेरा काम क्या होगा, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि मैं पहले से ही सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदार रह चुका हूं. क्यों न उसी क्षेत्रा में राष्ट्रीय स्तर पर कुछ काम करूं. मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और नेशनल कौंसिल ऑफ़ आर्ट्स (राष्ट्रीय कला परिषद्) की स्थापना की. इसके अतिरिक्त मैंने ‘फ़ोक आर्टस’ जो अब ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ोक हेरिटेज’ है, की स्थापना की. मैं इन परिषदों की देख-रेख में चार साल तक व्यस्त रहा कि सरकार फिर से बदल गयी. इस अवधि में मेरा गद्य और पद्य लिखने का क्रम लगातार जारी रहा. इसी अवधि में मेरी शायरी का अंग्रेज़ी, फ्ऱांसीसी, रूसी तथा अन्य दूसरी भाषाओं में अनुवाद होता रहा. ज़ियाउल हक़ के शासन काल में मेरे प्रभाव को नकार दिया गया. वैसे भी इस सरकार में संस्कृति का महत्व पहले जैसा नहीं रहा था, मैंने सोचा मुझे कुछ और करना चाहिए .

मैं एशियाई और अफ़्रीकी साहित्यकार संगठन के लिए कुछ-न-कुछ करता ही रहता था. उनकी गोष्ठियों में भी भागीदारी होती रहती थी. उस संगठन का दफ़्तर काहिरा में था जहां से उस संगठन की पत्रिका लोटस (Lotus) का प्रकाशन होता था.

(अगली किस्त में समाप्य)

Saturday, May 26, 2012

टूट मेरे मन टूट



टूट मेरे मन टूट

-शिवप्रसाद जोशी

गेहूं पिसाने के लिए चक्की के पास खड़ा था और वहीं पर वो दंपत्ति था. गद्दे की सिलाई करता हुआ. पहले औरत थी. दो बच्चे थे. बड़ा एक कॉपी पर कुछ लिखता जाता था. उसने वन लिखा. आड़ी तिरछी डंडियां. छोटा बच्चा. शायद दो साल का. वह रो रहा था. उसे बुखार था. मां ने सिलाई का काम छोड़ा और उसे देखने लगी. पुरुष आया. उसके सिर पर रुई बिखरी हुई थी. रुई धुनकर वो लौटा था और अब अपनी पत्नी की मदद कर रहा था. ये दिहाड़ी पर काम करने वाला दंपत्ति था. वे गन्ने का जूस निकालने की मशीन लगाते थे. बादल थे आसमान में इसलिए उस दिन मशीन नहीं चलाई. उस दिन रजाई गद्दे की दुकान में काम किया.

कमज़ोर काया के लोग और मेहनत से भरे हुए. इस इलाक़े में नगरपालिका वाले मशीन नहीं लगाने देते. बहुत पैसे मांगते हैं. 2000 रुपए. 1000 हज़ार रुपए पुलिस वाले. इतनी कमाई कहां है. जायज़ मांगें तो दें. मुझे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का ख़्याल आया. सब एक जगह आ गए हैं. एक जगह जाते हुए दिख रहे हैं. समाजसेवी, कॉरपोरेट, गैरसरकारी संस्था, बंबइया फ़िल्मों के लोग, नेता और समर्थक और भीड़ और मीडिया. लड़ाइयां किस तरह की हो गई हैं. विश्व कप की जीत के जुनून और भ्रष्टाचार को मिटा डालने के अभियान में क्या कोई समानता है.

वे लोग क्या सड़क किनारे गन्ने का रस निकालने की मशीन लगाने से जुड़ी इस विकटता को समझ पाएंगें. क्या ऐसा होगा कि ये दंपत्ति चैन से अपना ये मासूम सा कारोबार कर सके. इस सड़क पर जहां ज़्यादातर बड़ी गाड़ियां और सरकारी गाड़ियां आती जाती हैं. रुकने वाले कम हैं. पैदल चलने वाले भी कम हैं. मज़दूर छात्र बेरोज़गार महिलाएं बच्चे कुछ मनचले अक्सर घूमते आते हैं. ये एक बहुत साधारण सा बिजनेस मॉड्युल है. खुले आसमान के नीचे. एक मशीन. बर्फ़ की सिल्लियां, नींबू नमक गन्ने के कुछ मुड़ेतुड़े गट्ठर स्टील का एक जग पास में एक बाल्टी एक मग. कुछ गिलास.

अभी उस मशीन पर कपड़ा पड़ा है. आज वो नहीं चली. मुझे केयर्न, वेदांता, पोस्को याद आए. सिंगुर में टाटा का बंद कारखाना. गुजरात के बड़े अभूतपूर्व निवेश. देश का सकल घरेलू उत्पाद और आकर्षक विकास दर याद आई. सुपर पावर बनने की राह कहां से खुली, मैं खोजता रहा. मुझे ओबामा का कथन याद आया कि चीन और भारत उन्हें सबसे अच्छे लगते हैं.

मैं गेहूं पिसवा रहा हूं. आटा चक्की वाला एक शांत निर्विकारता के साथ चक्की के पास है. औरत तन्मयता से सुई में धागा पिरो रही है और रजाई को सिल रही है. उसने रोते हुए बच्चे को एक किसी डॉट पेन की घिसी हुई कैप दे दी है बहलाने के लिए. क्या वे अपने बच्चे को डॉक्टर के पास नहीं ले जाएंगें. मैं सोचता हूं. सोचता हूं कि उनसे कह दूं. नहीं कहता. काम ख़त्म कर ही तो जाएंगें. वरना दिहाड़ी जाएगी. बच्चा रोते रोते चुप हो गया. उसे यह सीखते रहना होगा. मां उठी. उसने अपने पति से कहा बाक़ी आप टांको, मैं इसे देखती हूं. उसने अपनी गोद में बिठा लिया बच्चे को. उसके सिर पर हाथ रखा. आदमी अपने काम पर लग गया. कितनी गरिमा है इस उखड़े हुए परिवार में.

बड़े बच्चे ने कॉपी फेंक कर दी. उसका ढंग स्वाभाविक था. उसमें कॉपी के सम्मान अपमान की बात नहीं थी. बालसुलभता जैसी होती ही है. मां मैंने लिखा, देखो. मां ने डांटा, ऐसे फेंकते हैं. गंदी बात. बच्चे की समझ में नहीं आया. वह अपनी निस्पृह उदासी में फिर से कॉपी लेकर बैठ गया. नए गद्दों पर, सोफ़े में बैठते हैं जैसे. कितना आराम था. पिता ने डांटा नहीं बैठ उन पर, अंकल डाटेंगे. चक्की वाले की दुकान थी रजाई गद्दों की. उसने कुछ नहीं कहा. शहतूत का पेड़ था वहां पर, उसकी छाया में दूकान थी और हम लोग थे. बच्चों ने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा. उनका ध्यान दुकान में टंगे चिप्स कुरकरों के पैकेटों की ओर भी कभी नहीं गया. वे न जाने कौनसी अपनी धुन में ही रमे हुए थे. उन्हें सड़क पर आते जाते लोग गाड़ियां बस टैम्पू से भी मतलब न था. एक लिखता जाता था और एक रोता जाता था. और जैसे यही उनका खेल था अपने को बहलाने के लिए.

जीवन इतनी छोटी सी जगह में अपने ढंग से घटित हो रहा था, जहां कोई शोर नहीं था, चिल्लाहटें और मक्कारियां नहीं थीं. हम सब एक जैसे उदास थे. अपनी अपनी चुप्पियों में. इस जीवन में श्रम था. एक थकान थी और एक कंपन. एक भरापूरा प्यार था. और सब आपस में जुड़े हुए थे जैसे सब एक दूसरे का दुख जानते थे. मैंने उस दंपत्ति से एक ज़िद ग्रहण की. लड़ते रहना चाहिए. लड़ना ही होगा. ये भी एक लड़ाई है.

हम कुछ देर बात करते रहे. जीवन की वस्तुनिष्ठता के इस हिस्से में हम लोग अपने ढंग से सुखी थे अपने ढंग से दुखी. ये एक ऐसी तल्लीनता थी जिसमें अवसाद हिलता रहता था, गुस्सा था एक ऊब और एक टूट थी. गेंहु पिसवा कर रवाना होने लगा, तो मुझे जीवन-संघर्ष की असाधारणता की अनुभूति हुई.

हम जहां पहुंचे कामयाब आये - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – ३



(पिछली किस्त से आगे)

उस समय मेरे सामने दो रास्ते थे या तो विदेश सेवा से संबंद्ध हो जाता या फिर सिविल सेवा से. लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया. यह वह ज़माना था जब पाकिस्तान के लिए आंदोलन और भारतीय कांग्रेस का स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था. मेरे एक पुराने मित्रा जो एक बड़े ज़मींदार भी थे और जो पंजाब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहने के बाद मुस्लिम लीग में आ गये थे मुझसे कहने लगे कि मैं सिविल सेवा में जाने की इच्छा समाप्त कर दूं क्योंकि वह लाहौर से एक अंग्रेज़ी दैनिक निकालने की योजना बना रहे थे. उन्होंने उस अख़बार का संपादन करने का प्रस्ताव दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया और मैंने जनवरी 1947 में लाहौर आकर पाकिस्तान टाइम्स का संपादन संभाल लिया. मैं चार साल पाकिस्तान टाइम्स का संपादक रहा. इसी अवधि में पाकिस्तान टेªड यूनियन का उपाध्यक्ष भी मुझे बना दिया गया. 1948 में नागासाकी और हिरोशिमा पर होने वाली बमबारी के बाद कोरियाई युद्ध भी छिड़ गया. इस बीच स्काटहोम से यह अपील आयी कि हम शांति-स्थापना के लिए आंदोलन चलायें. उस अपील के समर्थन में अमन कमेटी की स्थापना हुई और मुझे उसका संचालक बना दिया गया. अब मैं ट्रेड यूनियन, अमन कमेटी और पाकिस्तान टाइम्स तीनों मोर्चे पर सक्रिय था और सक्रियता तथा कार्यशैली के लिहाज़ से यह बहुत व्यस्त समय था. उसी ज़माने में आई.एल.ओ की एक मीटिंग में भाग लेने के लिए पहली बार देश से बाहर जाने का अवसर मिला. मैंने सन फ्ऱांसिस्को के अतिरिक्त जेनेवा में भी दो अधिवेशनों में भाग लिया और इस तरह अमेरिका और यूरोप से मैं पहली बार परिचित हुआ.

1950 में मेरी मुलाक़ात अपने एक पुराने मित्रा से हुई. यह जनरल अकबर ख़ान थे जो उस वक़्त फ़ौज में चीफ़ आफ़ जनरल स्टाफ़ नियुक्त हुए थे. जनरल अकबर ने बर्मा और कश्मीर के मोर्चे पर होने वाले युद्धों में बड़ा नाम कमाया था. मैं इस साल मरी में छुट्टियां बिताने गया हुआ था. वहीं उनसे भेंट हुई. बातों के दौरान उन्होंने कहा कि हम लोग फ़ौज में हैं. उन्होंने यह भी बताया कि जिन्होंने कश्मीर में हुई मोर्चेबंदी का सामना किया है वे देश की वर्तमान परिस्थिति से असंतुष्ट हैं और यह मानते हैं कि देश का नेतृत्व कायरों के हाथों में है. हम अभी तक अपना कोई संविधान नहीं बना पाये. चारों ओर अव्यवस्था और वंशवाद का चलन है. चुनाव की कोई संभावना नहीं, हम लोग कुछ करना चाहते हैं. मैंने पूछा क्या करना चाहते हो? उनका जवाब था हम सरकार का तख़्ता पलटना चाहते हैं और एक विपक्षी सरकार बनाना चाहते हैं. मैंने कहा यह तो ठीक है लेकिन उन्होंने मेरी राय भी मांगी. मैंने कहा यह तो सब फ़ौजी क़दम है. इसमें मैं क्या राय दे सकता हूं. इस पर जनरल अकबर ख़ान ने मुझे अपनी गोष्ठियों में आने और उनकी योजनाओं के बारे में जानकारी लेने की बात कही. मैं अपने दो ग़ैर-फ़ौजी दोस्तों के साथ उनकी गोष्ठी में गया और उनकी योजनाओं से अवगत हुआ. उनकी योजना यह थी कि राष्ट्रपति भवन, रेडियो स्टेशन वगै़रह पर क़ब्ज़ा कर लिया जाये और फिर राष्ट्रपति से यह घोषणा करवा दी जाये कि सरकार का तख़्ता पलट दिया गया है और एक विपक्षी सरकार सत्ता में आ गयी है. छह महीने के भीतर चुनाव कराये जायेंगे और देश का संविधान निर्मित किया जायेगा. इसके अतिरिक्त अनगिनत सुधार किये जायेंगे. इस पर पांच छः घंटे तक बहस होती रही और अंततः यह तय हुआ कि अभी कुछ न किया जाये क्योंकि अभी देश किसी भी ऐसी स्थिति से नहीं जूझ रहा है कि जिसके आधार
पर जनता को आंदोलित किया जाये. दूसरे, इस तरह की योजनाओं के क्रियान्वयन में ख़तरों का सामना करना पड़ता है. उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान थे. किसी तरह इस योजना की ख़बर सरकार के कानों तक पहुंच गयी.

मैं तो इस अवधि में उन सभी घटनाओं को भूल चुका था कि अचानक सुबह चार बजे मेरे घर को फ़ौजियों ने घेर लिया और मुझसे कहा गया कि मैं उनके साथ चलूं. मैंने कारण पूछा तो मुझे जवाब मिला कि मुझे गवर्नर जनरल के आदेश से गिरफ़्तार किया जा रहा है. चार महीने तक मुझे कै़द रखा गया और फिर मुझे मालूम हुआ कि मुझे क्यों क़ैद किया गया.

संवधिान सभा ने एक विशेष अधिनियम को पारित किया और उसे रावलपिंडी षड्यंत्र अधिनियम का नाम दिया गया. उस अधिनियम के तहत हम पर गुप्त मुक़द्दमा चलाया गया. अंग्रेज़ों के ज़माने से ही षड्यंत्र संबंधी क़ानून बड़े ख़राब थे. आप कुछ कर नहीं सकते थे. अगर यह सिद्ध हो जाये कि दो व्यक्तियों ने मिलकर क़ानून तोड़ने की योजना बनायी है तो उसे षड्यंत्र का नाम दे दिया जाता था और अगर कोई तीसरा व्यक्ति इसकी गवाही दे दे तो फिर अपराध सिद्ध मान लिया जाता था. सरकार ने अधिनियम बनाकर बचाव करने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था. बनाये जाने वाले अधिनियम के तहत तो केवल सज़ा ही मिल सकती थी, भागने का कोई रास्ता भी नहीं था. यह मुक़द्दमा डेढ़ साल तक चलता रहा और हममें से हर एक के लिए उसके पद के अनुसार भिन्न-भिन्न दंड निश्चित किये गये. जनरल को दस साल, ब्रिगेडियर को सात साल, कर्नल को छः साल और हम सब असैनिकों को उससे कम यानी चार साल की क़ैद की सज़ा सुनायी गयी.

मेरी हिरासत का यही वह समय था जो रचनात्मक रूप से मेरे लिए बहुत उर्वर सिद्ध हुआ. मेरे पास लिखने-पढ़ने के लिए वक़्त ही वक़्त था, फिर मुझमें शासकों के विरुद्ध बहुत आक्रोश और क्रोध था, क्योंकि मैं निर्दोष था. इसी अवधि में मेरी शायरी के दो संग्रह, काल कोठरी के उस दौर में तैयार हो गये. एक तो हिरासत के दिनों में ही प्रकाशित हो गया था और दूसरा मेरी रिहाई के बाद प्रकाशित हुआ. जब आप को चार साल के क़रीब जेल में रखा गया हो और बंदी होने का दुख भी आपके हिस्से में आया हो, तो निश्चित रूप से बाहर की दुनिया में आपका मूल्य बढ़ जाता है. जब मैं जेल से बाहर आया तो मुझे अनुभव हुआ कि मैं पहले की तुलना में अधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो गया हूं. मैं दोबारा पाकिस्तान टाइम्स से जुड़ गया और मैंने अमन कमेटी तथा ट्रेड यूनियन से अपने संबंध फिर से स्थापित कर लिये. यह तीन चार साल का समय ऐसी ही गहमागहमी में गुज़र गया. पाकिस्तान में वामपंथी आंदोलनों पर पाबंदी लगा दी गयी. यही स्थिति तीन चार साल तक जारी थी कि देश में पहला मार्शल लॉ लागू हो गया और पहली सैनिक सरकार स्थापित हो गयी, जिसका अर्थ था कि किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अपराध के गिरफ़्तार किया जा सकता है.

उस समय के मार्शल लॉ ने एक अत्याचार यह भी किया कि हर उस व्यक्ति को पकड़ना शुरू कर दिया गया जिसका नाम 1920 के बाद की पुलिस रिपोर्टों में दर्ज़ मिला था. इस तरह जेल में हमें नब्बे साल और अस्सी साल के बूढ़े मिले, कुछ की तपेदिक तथा अन्य बीमारियों के कारण जेल में ही मृत्यु हो गयी. मैंने लाहौर क़िला में डेढ़ महीने गुज़ारा और फिर चार पांच महीने के बाद मुझे रिहा कर दिया गया. मैंने फिर पाकिस्तान टाइम्स के दफ़्तर की ओर रुख़ किया और तब मैंने देखा कि उसका दफ़्तर पुलिस के घेरे में था. मेरे पूछने पर पता चला कि पाकिस्तान टाइम्स पर फ़ौजी सरकार ने क़ब्जा कर लिया है और इस तरह मेरी पत्राकारिता का अंत हो गया. मैं ऊहापोह में था कि क्या करूं. उन दिनों एक अमीर वर्ग जो मेरी शायरी को पसंद करता था, मेरी चिंता से अवगत था. उन लोगों ने पूछा आप क्या करना चाहते हैं? मैंने कहा मुझे नहीं मालूम तो किसी ने सुझाव दिया, क्यों न संस्कृति से संबंधित कोई गतिविधि आरंभ की जाये. मैंने कहा यह अच्छा विचार है और इस
प्रकार हमने लाहौर में ‘आर्ट कौंसिल’ की स्थापना की. कौंसिल एक पुराने और टूटे-फूटे घर में थी जो आज के आलीशान भवन जैसा आकर्षक नहीं था. कौंसिल का आरंभ हुआ और उसके भवन में प्रदर्शनियों, नाटकों और आयोजनों का तांता लगा रहता था. तीन चार साल तक यह गतिविधि चलती रही और मैं इसी अवधि में बीमार पड़ गया. पहली बार दिल का दौरा पड़ा.

और इसी बीच मुझे लेनिन विश्व शांति पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई. किसी ने मुझे फोन पर ख़बर सुनायी तो मुझे विश्वास नहीं हुआ, मैंने जवाब में कहा बकवास मत करो, मैं पहले ही बीमार हूं. मेरे साथ ऐसा मज़ाक न करो. उसने उत्तर में कहा, मैंने टेलीप्रिंटर पर यह ख़बर ख़ुद देखी है, तुम्हारे साथ पुरस्कार पाने वालों में पिकासो और दूसरे भी हैं. जब मैं स्वस्थ हो गया तो मुझे पुरस्कार ग्रहण करने और मास्को आने के लिए आमंत्रित किया गया.

(जारी)

Friday, May 25, 2012

कवि श्री भगवत रावत का निधन



हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्री भगवत रावत का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. कबाड़खाने की उन्हें श्रद्धांजलि. उनकी ही एक कविता प्रस्तुत है -

जब कहीं चोट लगती है

जब कहीं चोट लगती है, मरहम की तरह
दूर छूट गए पुराने दोस्त याद आते हैं.

पुराने दोस्त वे होते हैं जो रहे आते हैं, वहीं के वहीं
सिर्फ़ हम उन्हें छोड़कर निकल आते हैं उनसे बाहर.

जब चुभते हैं हमें अपनी गुलाब बाड़ी के काँटे
तब हमें दूर छूट गया कोई पुराना
कनेर का पेड़ याद आता है.

देह और आत्मा में जब लगने लगती है दीमक
तो एक दिन दूर छूट गया पुराना खुला आंगन याद आता है
मीठे पानी वाला पुराना कुआँ याद आता है
बचपन के नीम के पेड़ की छाँव याद आती है.

हम उनके पास जाते हैं, वे हमें गले से लगा लेते हैं
हम उनके कन्धे पर सिर रखकर रोना चाहते हैं
वे हमें रोने नहीं देते.

और जो रुलाई उन्हें छूट रही होती है
उसे हम कभी देख नहीं पाते.

हम जहां पहुंचे कामयाब आये - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – २



(पिछली किस्त से जारी)

मेरी उम्र 17-18 साल के आस-पास थी और जैसा कि होता है मैं बचपन से ही साथ खेलने वाली एक अफ़ग़ान लड़की की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया. वह बचपन में तो सियालकोट में थी लेकिन बाद में उसका ख़ानदान आज के फैसलाबाद के समीप एक गांव में आबाद हो गया था. मेरी एक बहन की उसी गांव में शादी हुई थी. जब मैं अपनी बहन के पास गया तो उसके घर भी गया, वह लड़की तब पर्दा करने लगी थी. एक सुबह मैंने उसे तोते को कुछ खिलाते हुए देखा. वह बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी. हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और एक दूसरे की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गये. हम छुप-छुप के मिलते रहे और एक दिन जैसा कि होता है उसकी कहीं शादी हो गयी और जुदाई का यह अनुभव छः-सात बरस तक मुझे उदास करता रहा. इस अवधि में मेरी शिक्षा भी जारी रही और शायरी भी. स्थानीय मुशायरे में तीसरी बार जब मुझे भाग लेने का अवसर मिला तो मेरी शायरी को काफ़ी सराहा गया और इस तरह लाहौर जैसे शहर की बड़ी साहित्यिक हस्तियां मेरी शायरी से परिचित हुईं और सबने मुझे अपना आशीर्वाद देना चाहा. मैं अब अच्छा ख़ासा शायर बन चुका था.

यही वह दौर था जब उपमहाद्वीप में उग्रपंथ के पहले आंदोलन का आरंभ हुआ. उस आंदोलन के प्रभाव हमारे कॉलेज के अंदर भी पहुंच रहे थे और मेरा एक अभिन्न मित्रा जिसे बाद में एक प्रसिद्ध संगीतकार ख़्वाजा ख़ुर्शीद अनवर के रूप में जाना गया, उस आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्त्ता था. वह बम बनाने के लिए कॉलेज की प्रयोगशाला से तेज़ाब चुराने के अपराध में गिरफ़्तार कर लिया गया. उसे तीन साल की सज़ा भी सुनायी गयी. वह कुछ समय तक ज़रूर जेल में रहा था लेकिन बाद में वह अपने प्रभावशाली पिता के रसूख के कारण छूट गया. मेरी बहुत सी जानकारियों का माध्यम वही था. वह अक्सर अपने आंदोलन का साहित्य मेरे कमरे में छोड़ जाता और जब कभी मैं उसे पढ़ता तो मेरे ऊपर जुनून सा छा जाता था, क्योंकि मेरे पिता अंग्रेज़ों के वफ़ादार और उपाधि प्राप्त थे लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं उग्रपंथियों के आंदोलन और उसके बहुत से राजनीतिक समूहों से परिचित हो गया. मेरे ऊपर उसका कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन वह सब कुछ मेर लिए महत्वहीन नहीं था.

तीन चार साल बाद मैंने पहले अंग्रेज़ी में और फिर अरबी में एम०ए० कर लिया और फिर मैंने शिक्षण का कार्य अपना लिया. उससे मुझे काफ़ी सहारा मिला और खानदान को आर्थिक संकटों से उबारने में सहायता भी . इस अवधि में मेरे कॉलेज के ज़माने के दो साथी आक्सफ़ोर्ड से मार्क्सिस्ट होकर लौटे थे . उनके अलावा उच्च घरानों के कुछ और लड़के भी इंग्लैंड की यूनवर्सिर्टियों से कम्युनिस्ट विचार लेकर लौटे थे. उनमें से कुछ तो राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यस्त हो गये, कुछ ने नौकरी के चक्कर में इस तरह के विचार को छोड़ दिया. लेकिन इसी टोली के नेतृत्व में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन का आंरभ हुआ. यह साहित्यिक आंदोलन, कम्युनिस्ट या मार्क्सिस्ट आंदोलन नहीं था. वैसे उसमें सक्रिय भाग लेने वालों में कुछ कम्युनिस्ट भी थे और मार्क्सिस्ट भी. असल में प्रगतिशील आंदोलन साहित्य में सामाजिक यथार्थ को बढ़ावा देने से संबंध रखता था और रूढ़िबद्ध होकर कविता करने को बुरा समझता था. भाषा की कलाबाज़ी भी इस आंदोलन के लिए व्यर्थ थी. इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप यथार्थवादी और राजनीतिक गीतों के चलन को बढ़ावा मिला. इस प्रकार का साहित्यिक चलन यूरोप और अमेरिका में भी फ़ासीवाद विरोधी साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में उभरा, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक सरोकार वाले साहित्य का जन्म हुआ .

1932-35 के मध्य का यही वह समय था जब उस साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलन से मेरा जुड़ाव शुरू हुआ. मज़दूरों, श्रमजीवियों और किसानों के आंदोलनधर्मी गीत और राजनीतिक अभिव्यक्ति और नई-पुरानी काव्य-पद्धति के मिश्रण को लोगों ने सराहा और उन्हें पसंद भी किया. जब 1941 में मेरा पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो वह तेज़ी से बिक गया. फिर द्वितीय विश्व युद्ध की लहर आई लेकिन हम लोगों ने उसका ज़्यादा नोटिस नहीं लिया. हमारे विचार में उस युद्ध से ब्रिटेन और जर्मनी का सरोकार था मगर 1941 में जापान भी उस युद्ध में शामिल हो गया तो हमें कुछ आभास हुआ. क्योंकि उस समय अगर एक ओर जापानी भारत की सीमा तक आ गए थे तो दूसरी ओर नाज़ियों और फासिस्टों के क़द़म मास्को और लेनिनग्राद तक पहुंच गये थे और तभी हमने महसूस किया कि युद्ध से हमारा संबद्ध होना आवश्यक है. इसलिए हम फ़ौज में शामिल हो गये. मुझे याद है पहले दिन जनसंपर्क विभाग के निरीक्षक एक ब्रिगेडियर के सामने मेरी पेशी हुई. वह आपैचारिक रूप से फ़ौजी नहीं था, वह बहुत ज़िंदादिल आइरिश था और लंदन टाइम्स से संबंध रखने वाला एक पत्राकार था. मुझे देखकर उसने कहा तुम्हारे बारे में पुलिस की खुफ़िया रिपोर्ट कहती है कि तुम एक पक्के कम्युनिस्ट हो, बताओ हो या नहीं. मैंने कहा मुझे नहीं पता कि पक्का कम्युनिस्ट कौन होता है. मेरा यह उत्तर सुनकर उसने कहा मुझे इससे कोई मतलब नहीं, चाहे तुम फ़ासीवादी विचार ही क्यों न रखते हो, जब तक तुम हमें कोई धोखा नहीं देते; मैं समझता हूं तुम धोखा नहीं दोगे. मैंने समर्थन में सिर हिला दिया.

यही वह ज़माना था जब ब्रिटेन और मित्रा देशों के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं थे. उधर महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ कर दिया था, जो पूरे देश में आग की तरह फैल गया था. ब्रिटेन के सामने दो संकट थे. एक तो फ़ौज़ में लोगों की भर्ती और दूसरे सरकार के विरुद्ध ज़ोर पकड़ता हुआ जन आंदोलन. ब्रिटेन की फ़ौज के ब्रिगेडियर ने मुझसे इस आंदोलन के विषय में विचार-विमर्श करते हुए पूछा तो मैंने कहा कि ब्रिटेन अपने अस्तित्व के लिए भाग ले रहा है, जापान ब्रिटेन के लिए एक बड़ा ख़तरा है और अगर जापान तथा जर्मनी विजयी होते हैं तो ब्रिटेन को सौ-दो सौ साल तक गु़लाम  रहने का दंश झेलना होगा, और इसका मतलब यह है कि हमें अपने देश को इस कष्ट से सुरक्षित रखने के लिए ब्रिटेन की फ़ौज का हिस्सा बनकर लड़ना चाहिए. अंग्रेज़ अपने लिए नहीं लड़ रहा है वह भारत के लिए लड़ रहा है. मेरे इस तर्क को सुनकर उसने कहा तुम जो कुछ कह रहे हो ये तो सब राजनीति है मगर इस तर्क को फ़ौज के लिए स्वीकार्य कैसे बनाया जाये? मैंने कहा कि इस विचार को फ़ौज के लिए स्वीकार्य बनाने का तरीक़ा वही होना चाहिए जो कम्युनिस्टों का है. उसने चौंककर पूछा क्या मतलब? मेरा जवाब था, हम कम्युनिस्ट एक छोटी टोली बनाते हैं. फ़ौज के हर यूनिट में इस तरह की एक विशेष टोली बनाने के बाद हम अफ़सरों को यह बताते हैं कि फ़ासिज़्म क्या है और उन्हें यह भी समझाते हैं कि जापान और इटली वालों के इरादे क्या हैं. इसके बाद उन अफ़सरों से कहा जाता है कि वे उक्त टोली में बतायी जाने वाली बातों को अपने यूनिटों के सिपाहियों को जाकर समझायें और बतायें.

इस तरह हम इस रणनीति के तहत पहले फ़ौजी अफ़सरों को मानसिक रूप से सुदृढ़ करते थे और फिर उनके माध्यम से आशिक्षित सिपाहियों को भी एक दिशा देते थे. इस पद्धति का विरोध भी बहुत हुआ. बात वायसराय, कमांडर-इन-चीफ़ और फिर इंडिया आफ़िस तक पहुंची. मुझसे कहा गया कि मैं अपनी योजना को लिखित रूप में प्रस्तुत करूं. अंततः इस योजना को मंज़ूरी मिल गयी और हमने फिर ‘जोश ग्रुप’ बनाये जो बहुत सफल रहा और इसके परिणामस्वरूप मैं ब्रिटेन द्वारा सम्मानित किया गया और तीन सालों में कर्नल बना दिया गया. उस ज़माने में ब्रितानी फ़ौज में एक भारतीय के लिए इससे ऊंचा फ़ौजी पद कोई और नहीं था. उस ज़माने में मुझे फ़ौज की कार्य पद्धति और ब्रितानी सरकार को जानने का अवसर मिला. मुझे पत्राकारिता का अनुभव भी उसी ज़माने में हुआ, क्योंकि सभी मोर्चे पर भारतीय फ़ौज के प्रचार का काम मेरे ही जिम्मे था और मैं बहुत हद तक भारतीय फ़ौज के लिए राजनीतिक अधिकारी (पॉलीटिकल कमिश्नर) का काम करने लगा. युद्ध की समाप्ति पर मैं फ़ौज से अलग हो गया.

(जारी)

Thursday, May 24, 2012

हम जहां पहुंचे कामयाब आये - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – १



फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – १

मेरा जन्म उन्नीसवीं सदी के एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति के घर में हुआ था जिसकी ज़िंदगी मुझसे कहीं ज़्यादा रंगीन अंदाज़ में गुज़री. मेरे पिता सियालकोट के एक छोटे से गाँव में एक भूमिहीन किसान के घर पैदा हुए, यह बात मेरे पिता ने बताई थी और इसकी तस्दीक गाँव के दूसरे लोगों द्वारा भी हुई थी . मेरे दादा के पास चूँकि कोई ज़मीन नहीं थी इसलिए मेरे पिता गाँव के उन किसानों के पशुओं को चराने का काम करते थे जिनकी अपनी ज़मीन थी. मेरे पिता कहा करते थे कि पशुओं को चराने गाँव के बाहर ले जाते थे जहाँ एक स्कूल था . वह पशुओं को चरने के लिए छोड़ देते और स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते, इस तरह उन्होंने प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी की . चूँकि गांव में इससे आगे की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, वह गाँव से भाग कर लाहौर पहुँच गए. उन्होंने लाहौर की एक मस्जिद में शरण ली . मेरे पिता कहते थे कि वह शाम को रेलवे स्टेशन चले जाया करते थे और वहाँ कुली के रूप में काम करते थे . उस ज़माने में ग़रीब और अक्षम छात्र मस्जिदों में रहते थे और मस्जिद के इमाम से या आस-पास के मदरसों में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे . इलाक़े के लोग उन छात्रों को भोजन उपलब्ध कराते थे .

जब मेरे पिता मस्जिद में रहा करते थे तो उस ज़माने में एक अफ़गानी नागरिक जो पंजाब सरकार का मेयर था, मस्जिद में नमाज़ पढ़ने आया करता था. उसने मेरे पिता से पूछा कि क्या वह अफ़ग़ानिस्तान में अँग्रेज़ी अनुवादक के तौर पर काम करना पसंद करेंगे, तो मेरे पिता ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए अफ़ग़ानिस्तान जाने का इरादा कर लिया. यह वह समय था जब अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में आए दिन परिवर्तन होता रहता था . अफ़ग़ानिस्तान और इंग्लैंड के बीच डूरंड संधि की आवश्यकता का अनुभव भी उसी समय में हुआ और इसीलिए अफ़ग़ानिस्तान के राजा ने मेरे पिता को अँग्रेज़ों के साथ बात-चीत करने में सहायता करने के उद्देश्य से दरबार से अनुबंधित कर लिया. इसके बाद वह मुख्य सचिव और फिर मंत्री भी नियुक्त हुए. उनके ज़माने में विभिन्न क़बीलों का दमन किया गया जिसके परिणामस्वरूप हारने वाले क़बाइल (क़बीले का बहुवचन) की ख़ास औरतों को राजमहल के कारिंदों में वितरित कर दिया जाता था. ये औरतें मेरे पिता के हिस्से में भी आईं, मुझे नहीं मालूम कि उनकी संख्या तीन थी या चार .

बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में पंद्रह साल सेवा करने के बाद वह तंग आ गए और उनका ऊब जाना स्वाभाविक भी था क्योंकि राजा के अफ़ग़ानी मूल के कर्मचारियों को एक विदेशी का दरबार में प्रभावी होना खटकता था. मेरे पिता को प्रायः ब्रितानी एजेंट घोषित किया जाता और जब उस अपराध के फलस्वरूप उन्हें मृत्युदंड दिए जाने की घोषणा होती तो नियत समय पर यह सिद्ध हो जाता के वह निर्दोष हैं और उन्हें आगे पदोन्नति दे दी जाती . लेकिन एक दिन उन्होंने फ़कीर का भेस बदला और अफ़गानिस्तान के राजमहल से फ़रार हो गए और लाहौर वापस आ गए . लेकिन यहाँ वापस आते ही उन्हें अफ़ग़ानी जासूस होने के आरोप में पकड़ लिया गया . मेरे पिता की तरह फक्कड़ाना स्वभाव रखने वाली एक अँग्रेज़ महिला भी उस ज़माने में डाक्टर के रूप में दरबार से जुड़ी थी. उसका नाम हैमिल्टन था. उससे मेरे पिता की मित्रता हो गई थी .


अफ़ग़ानिस्तान के राजा से उसे जो भी पुरस्कार मिला था उसे उसने लंदन में सुरक्षित कर रखा था . इस प्रकार जब मेरे पिता अफ़ग़ानिस्तान से निकल भागे तो उसने उन्हें लिखा ‘तुम लंदन आ जाओ’. इस आमंत्रण पर मेरे पिता लंदन पहुँच गए और जब ब्रिटेन की सरकार को उनके लंदन आगमन की सूचना मिली तो मेरे पिता को यह संदेश मिला कि चूँकि अब तुम लंदन में हो तो मेरे दूत क्यों नहीं बन जाते ? मेरे पिता ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. और साथ ही उन्होंने कैंब्रिज में अपनी आगे की शिक्षा का क्रम भी जारी रखा . वहीं उन्होंने क़ानून की डिग्री भी प्राप्त की. मेरे पिता का नाम सुल्तान था इसलिए मैं फ़ारसी का यह मुहावरा तो अपने लिए दुहरा ही सकता हूं कि ‘पिदरम सुल्तान बूद’ (मेरे पिता राजा थे).

क़ानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद मेरे पिता सियालकोट लौट आए. मेरी आरंभिक शिक्षा मुहल्ले की एक मस्जिद में हुई. शहर में दो स्कूल थे एक स्कॉच मिशन की और दूसरा अमरीकी मिशन की निगरानी में चलता था. मैंने स्कॉच मिशन के स्कूल में प्रवेश ले लिया . यह हमारे घर से नज़दीक था . यह ज़माना ज़बरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल का था . प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था और भारत में कई राष्ट्रीय आंदोलन आकर्षण का केंद्र बन रहे थे . कांग्रेस के आंदोलन में हिंदू और मुसलमान दोनों ही क़ौमें हिस्सा ले रही थीं लेकिन इस आंदोलन में हिंदुओं की बहुलता थी . दूसरी ओर मुसलमानों की तरफ़ से चलाया जाने वाला खि़लाफ़त आंदोलन था .

प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर परिदृश्य यह था कि तुर्क क़ौम ब्रितानी और यूनानी आक्रांताओं के विरुद्ध पंक्तिबद्ध थी परंतु उस्मान वंशीय खि़लाफ़त को बचाया नहीं जा सका और तुर्की अंततः कमाल अतातुर्क के क्रांतिकारी विचारों के प्रभाव में आ गया जिन्हें आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है . एक तीसरा आंदोलन सिक्खों का अकाली आंदोलन था जो सिक्खों के सभी गुरुद्वारों को अपने अधीन लेने के लिए आंदोलनरत था . इस प्रकार लगभग छह-सात साल तक हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख तीनों ही अंग्रेज़ के विरुद्ध एक साझे एजेंडे के तहत आंदोलन चलाते रहे .

हमारे छोटे से शहर सियालकोट में जब भी महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और सिक्खों के नेता आते थे तो पूरा शहर सजाया जाता, बड़े-बड़े स्वागत द्वार फूलों से बनाए जाते थे और पूरा शहर उन नेताओं के स्वागत में उमड़ पड़ता था. राजनीतिक गहमागहमी का यह दौर हमारे मन पर अपने प्रभाव छोड़ने का कारण बना .

इसी दौरान रूस में अक्टूबर क्रांति घटित हो चुकी थी और उसका समाचार सियालकोट तक भी पहुँच रहा था. मैंने लोगों को कहते हुए सुना कि रूस में लेनिन नाम के एक व्यक्ति ने वहाँ के बादशाह का तख़्ता उलट दिया है और सारी संपत्ति श्रमजीवियों में बांट दी है .

स्कूल की पढ़ाई का यही वह ज़माना था जब शायरी में मेरी रुचि उत्पन्न हुई. इसके पीछे दो कारण थे. हमारे घर के पास एक नौजवान किताबें किराए पर पढ़ने के लिए दिया करता था. मैंने उससे किराए पर किताबें लेनी शुरू कर दीं और धीरे-धीरे मैंने उसकी ऐसी सभी किताबें पढ़ डालीं जो क्लासिक साहित्य से संबंधित थीं. मेरा सारा जेब ख़र्च भी किताबें किराए पर लेने में खर्च हो जाता था. उस ज़माने में सियालकोट का एक प्रसिद्ध साहित्यिक व्यक्तित्व अल्लामा इक़बाल का था जिनकी नज़्मों को बड़े शौक से सभाओं में गाया और पढ़ा जाता था. वहाँ एक प्राथमिक विद्यालय भी था जिसमें मैं पढ़ता था. वहाँ मुशायरे भी होते थे, यह मेरे स्कूल की शिक्षा के अंतिम दिन थे. हमारे हेडमास्टर ने हमसे एक दिन कहा कि मैं तुम्हें एक मिसरा देता हूँ, तुम इस पर आधारित पाँच छः शेर लिखो, हम तुम्हारे क़लाम (ग़ज़ल) को शायर इक़बाल के उस्ताद के पास भेजेंगे और वह जिस क़लाम को पुरस्कार का अधिकारी घोषित करेंगे उसे ही पुरस्कार मिलेगा . इस तरह मैंने शायरी के उस पहले मुक़ाबले में पुरस्कार के रूप में एक रुपया प्राप्त किया था, जो उस ज़माने में बहुत समझा जाता था . सियालकोट में दो साल गुज़ारने के बाद मैंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश ले लिया. सियालकोट से लाहौर आना रोमांच से भरपूर था. यूँ लगा जैसे कोई गाँव छोड़ के किसी अजनबी शहर में आ गए हों . उसकी वजह यह भी थी कि उस ज़माने में सियालकोट में न बिजली थी और न पानी के नल थे . भिश्ती पानी भरते थे या फिर कुओं से पानी भरा जाता था. कुछ बड़े घरों में पीने के पानी के कुएँ उपलब्ध थे . हम सब ही उस ज़माने में मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेनों की रौशनी में पढ़ते थे. यह लालटेन बड़ी ख़ूबसूरत हुआ करती थी. सियालकोट में मोटर कभी नहीं देखी . वहाँ के सभी अधिकारी बग्घियों में आते जाते थे. मेरे पिता के पास दो घोड़ों वाली बग्घी थी . जब मैं लाहौर आया तो हैरान रह गया . यहाँ मोटरें थीं, औरतें बिना बुर्क़े के नज़र आ रही थीं . और लोग अजनबी पहनावे अपने बदन पर पहने हुए थे . हमारे कॉलेज में आधे से अधिक शिक्षक अँग्रेज़ थे. हमारे अँग्रेज़ी के शिक्षक लैंघम (Langhom) थे, जो बहुत कड़े स्वभाव के थे, लेकिन शिक्षक बहुत अच्छे थे . मैंने अँग्रेज़ी के पर्चे में 150 में से 63 नंबर लिए तो सब दंग रह गए. कॉलेज में मेरा क़द बढ़ गया. और मुझे यह सलाह दी जाने लगी कि मैं इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करूं . मैंने निश्चय कर लिया कि मैं परीक्षा में बैठूँगा लेकिन मैं इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करने के बजाय धीरे-धीरे शायरी करने लगा. इस परिस्थति के लिए कई कारण ज़िम्मेदार थे. एक यह कि डिग्री प्राप्त करने से पहले ही मेरे पिता का निधन हो गया और हमें यह पता चला कि वह जो कुछ संपत्ति छोड़ गए हैं उससे कहीं अधिक कर्ज़ चुकाने के लिए छोड़ गए थे और इस तरह शहर का एक खाता-पीता ख़ानदान हालात के झटके में ग़रीब और असहाय हो गया .

दूसरा जो मेरे और मेरे ख़ानदान की परेशानियों का कारण बना वह व्यापक आर्थिक संकट और मंदी था जिसके प्रभाव से उस ज़माने में कोई भी व्यक्ति सुरक्षित न रह सका . मुसलमानों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ा, चूँकि उनमें बहुतायत खेतिहर लोगों की थी . मंदी का प्रभाव कृषि पर अधिक पड़ा था . नतीजा यह हुआ कि गाँव से शहर की ओर पलायन आरंभ हो गया क्योंकि छोटी जगहों में रोज़गार उपलब्ध कराने वाले संसाधन नहीं थे और ऐसे संसाधन पर प्रायः हिंदुओं का क़ब्ज़ा था . सरकारी नौकरी भी एक रास्ता था लेकिन चूँकि मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी पिछडे़ हुए थे इसलिए यहाँ भी उनके लिए अधिक अवसर नहीं थे . मेरे और मेरे ख़ानदान के लिए यह ज़माना राजनीतिक और वैयक्तिक कारणों से परीक्षा और परेशानियों का था . इस तनाव और सोच-विचार को अभिव्यक्ति के माध्यम की आवश्यकता थी सो यह शायरी ने पूरी कर दी.

(जारी. उर्दू से लिप्यान्तरण और अनुवाद - मोहम्मद ज़फर इकबाल)

Friday, May 18, 2012

बाबा के साथ जुड़ा रहा., आज भी जुड़ा हूं




बाबा नागार्जुन का एक और संस्मरण देहरादून में रहने वाले मेरे प्रिय मित्र और कवि-उपन्यासकार अतुल शर्मा के हवाले से –

प्रतिष्ठित जनकवि बाबा नागार्जुन उम्र की जिस दहलीज पर मिले, उस समय स्वाभाविक थकान घेरे रहती है. लेकिन बाबा नागार्जुन इसके अपवाद रहे. मैंने पहली मुलाकात में ही मस्ती, घुमक्कड़ी फक्कड़पन और ठहाकों से घुली मिली अद्भुत गहरी जि‍जि‍वि‍षा अनुभव की.

डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून का यूनियन वीक. एक तरफ चुटकुलेबाजों का तथाकथित कवि सम्मेलनीय मंच और दूसरी तरफ युवाओं से भरे हॉल में बाबा नागार्जुन का इंतजार. यह जनपक्षीय संदेश देने के लिए किया गया कार्यक्रम था. साहित्य का जनसंघर्षों के साथ भीतरी रिश्ता नागार्जुन जैसे प्रतीक को लेकर किया गया आयोजन था.

बाबा देहरादून पहुंचे. कुछ समय बाद उन्हें एक बड़े होटल में ठहरा दिया गया. मोटा खादी का कुर्ता, ऊंचा पजामा, खि‍चड़ी दाढ़ी, सिर से गले तक मफलर और मफलर के ऊपर टोपी. मोटा खादी का कोट, हाथ में छड़ी. एक दरी में छोटा सा बिस्तर रस्सी से बंधा था. एक झोला था जिसमें किताबें व दवाई की बोतलें थीं. सहज देहाती युगपुरुष बाबा नागार्जुन भव्य होटल के रंगीन पर्दों, दीवारों, खिड़कियों और फर्नीचरों के बीच चल रहे थे. पीछे युवाओं की उत्साही भीड़ थी. एक सुविधाजनक सोफे में बैठकर उन्होंने अपनी सांसों को संयत करने के लिए पानी मांगा. एक नजर युवाओं की तरफ डाली और मुस्कुफराये. फिर पैर सोफे पर चढ़ा कर बैठ गए. छात्र संघ अध्यक्ष जो उन्हें सादतपुर से गाड़ी में लाए थे, उन्हें इशारे से बुलाया और कहा, ‘‘अतुल को बुला सकते हो?’’

मेरे पास फोन आया- ‘बाबा देहरादून पहुंच गए हैं. आपको याद कर रहे हैं.’ कुछ ही देर बाद मैं बाबा के सामने था. वह मेरा हाथ पकड़कर बैठ गए. हंसे और कुछ बातें कीं. फिर धीरे-धीरे उठे, अपना छोटा सा रस्सी बंधा बि‍स्तर सामने रखवाया, झोला कंधे पर टांगा और छड़ी ढूंढने लगे. न मैं कुछ समझ पाया और न कोई और.

‘‘अतुल के घर जाऊंगा.’’ विनम्रता और दृढ़ता के साथ बाबा ने कहा. सब चौंके. उन्होंनें मेरा हाथ पकड़ा. सब बाहर की तरफ चलने लगे. न कोई विवाद न कोई संवाद. मेरी क्या हिम्मत मैं कुछ कहूँ.मेरे लिए तो यह अप्रत्याशित सौभाग्य था.

‘‘वहीं रहूंगा.’’ बाबा ने निर्णायात्मक स्वर में कहा. बाहर निकल छात्रसंघ अध्यक्ष ने मुझे अलग बुलकर कहा, ‘‘एक- डेढ़ घंटे बाद कार्यक्रम है. बाबा को वहां भी पहुंचना है.’’

‘‘मुझे बताओ मैं क्या कर सकता हूं ?’’ मैंने कहा.

‘‘मैं आपके साथ चलता हूं और साथ ही कॉलेज ले आयेंगे.’’ छात्रसंघ अध्यक्ष ने कहा. गाड़ी में बाबा बहुत खुश थे.

हम जहां पहले रहते थे, उसके सामने बजरी बिछा एक लॉन था. और उसके आसपास पिताजी के लगाए बावन तरह के गुलाब, कैक्टस, बोगेनवैलिया, कुछ सब्जियां और अन्य पौधे लगे थे. जाफरी वाला मकान, टीन की छत, नींबू के पेड़ से सटा हुआ एक कमरा. वहां रखी चारपाई और दो कुर्सियां. बाबा वहीं बैठे, फिर लेट गए. मैंने परिवार में अम्मा जी, रीता, रेखा और रंजना को मिलवाया. वह उठकर बैठ गए. एकदम बोले, ‘‘अतुल, मुझे तो मेरा परि‍वार मि‍ल गया.’’ अम्मा जी से कहा, ‘‘थोड़ी सी खिचड़ी खाऊंगा.’’ हमें बहुत अच्छा लग रहा था, पर छात्रसंघ पदाधिकारियों की धड़कनें बहुत बढ़ रही थीं.

बाबा मेरा हाथ पकड़कर बाहर आये. और क्यारियों में घूमने लगे. अपनी छड़ी से इशारा करते हुए बोले, ‘‘यह तो सर्पगंधा है. रक्तचाप की अचूक औषधि. यह कैलनडूला एन्टीबायटिक.’’ ऐसे कई पौधे उन्होंने गिना दिये. वह कहने लगे, ‘‘लगता है बहुत जानकार आदमी थे शर्मा जी.’’ (शर्मा जी यानी स्वतंत्रता सेनानी कवि श्रीराम शर्मा प्रेम). काफी देर गुलाब को देखते रहे. और फिर कमरे की ओर जाने लगे. इतनी देर में खिचड़ी बन चुकी थी. उन्होंने बहुत थोड़ी-सी खिचड़ी और सब्जी खाई. और फिर मुझसे पूछा, ‘‘कितनी देर में है आयोजन?’’ मैंने कहा, ‘‘शुरू ही होने वाला होगा.’’ ‘‘तो फिर चलते हैं वहीं पर, सामान यहीं रहेगा. मैं भी यहीं रहूंगा.’’ मैंने न जाने क्यों पूछ लिया, ‘‘यहां कोई असुविधा तो नहीं होगी?’’ इस पर वह नाराज हो गए. उन्होंने कहा, ‘‘खबरदार जो मेरे घर को असुविधाजनक कहा.’’

डी.ए.वी. कॉलेज हॉल- बाबा के आने से खलबली मच गई. राहुल सांकृत्यायन के साथ तिब्बत यात्रा और निराला के समकालीन आपातकाल में सक्रिय काव्यमय विद्रोह करने वाले मैथिली साहित्य में साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त हिंदी के वरिष्ठतम कवि, गद्यकार व आन्दोलनकारी बाबा नागार्जुन बार-बार मंच से यही कहते रहे कि- जन से होते हुए जन तक पहुंचना ही लक्ष्य है. दिल्ली से उनके साथ आये महेश दर्पण और देहरादून के कवियों के साथ उन्होंने काव्यपाठ किया. ‘मंत्र’ कविता सुनाई. छात्र-छात्राओं के साथ घंटों बैठे रहे. रिश्ते जोड़ लिये. सबको हमारे घर का पता देते रहे. और अद्भुत निरन्तरता के संवाद बाबा नागार्जुन से मिलने दो दिन तक हमारे यहां मेला लगा रहा. चाय का बड़ा भगोना रेखा ने चढ़ा दिया था. युवा और वृद्ध, साहित्यकार और रंगकर्मी अलग-अलग सोच के राजनीतिक लोगों से हमारा घर भरा रहा. बाबा क्या आये जश्न हो गया. तभी तो वे जनकवि हुए.

अगले दिन मेरे आग्रह पर महादेवी पीजी कॉलेज के हिन्दी विभाग में भी उन्होंने शिरकत की. रात को सोते समय कहने लगे, ‘‘आज मेरी पांच हजार से ऊपर फोटो खिंची होंगी. ये सोच रहे हैं कि मैं इतनी जल्दी चला जाऊंगा. इन्हें पता नहीं कि अभी बहुत दिन जियूंगा.’’ वह ठहाका मार कर हंसे. मैंने मन ही मन सोचा, बाबा नागार्जुन कभी समाप्त हो ही नहीं सकते. वह हमारे यहां कई दिन तक रहे.

जयहरि‍खाल, पौड़ी गढ़वाल- बाबा का पिचतरवां जन्मदिवस. वाचस्पति के यहां आकर वह हर साल रहते थे. उसका फोन आया कि ‘‘बाबा का पिचतरवां जन्मदिवस है. तुम्हें आना है.’’ मैं यह अवसर कैसे चूकता. लैंसडाउन के पास छोटी-सी बस्ती जयहरिखाल पहुंच गया. वहां वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित बाबा नागार्जुन की काव्यपुस्तक ‘ऐसा क्या कह दिया मैंने’ का विमोचन हुआ. शेखर पाठक, गिर्दा आदि मौजूद थे.काव्यगोष्ठी हुई. बाबा ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘अकाल’ सुनाई. और लोगों ने भी काव्य पाठ किया. मैंने दो जनगीत सुनाए.  उसकी एक पंक्ति पर बाबा काफी देर तक बोले. यह मेरे लिये उत्साहजनक था. पहली पंक्ति थी-

‘ये जो अपनी  रक्त शिरायें हैं सारी पगडंडियां गांव की हैं’

और दूसरी कविता की पंक्ति थी- ‘जिस घर में चूल्हा नहीं जलता, उसके यहां मशाल जलती है.' मेरी इन दोनों पंक्तियों पर काफी देर तक चर्चा की. जयहरिखाल को केन्द्र मान कर कई कविताएं लिखी थीं जो गढ़वाल विश्वविद्यालय के कोर्स में पढ़ाई जाती हैं.

नैनीताल- नागार्जुन, गिर्दा और मैं नुक्कड़ कवि सम्मेलन में काव्यपाठ कर रहे थे. बाबा ने एक पंक्ति सुनाई- ‘एक पूत भारत माता का. कंधे पर है झंडा. पुलिस पकड़ कर जेल ले गई. बाकी रह गया अंडा.’ यह सबको बहुत पसंद आई. साहित्य समझ भी आये और परिवर्तन की दिशा में कार्य भी करे. यह मकसद ठीक लगा. उन्होंने चलते समय अपनी घड़ी देते हुए कहा, ‘‘अतुल, यह लो मैं तुम्हें समय देता हूं.’’ यह कहकर वह खुद ही ताली बजाकर बच्चों की तरह खिलखिलाये और बाबाओं की तरह चले गये मुड़कर नहीं देखा.

ये दृश्य कभी भूलता नहीं. ऐसे बहुत से संस्मरण मेरे पास हैं जो नैनीताल, हल्द्वानी, कौसानी, पौड़ी, अल्मोड़ा, देहरादून ही नहीं, बल्कि दिल्ली तक फैले हुए हैं. बहुत लोगों में बाबा इस तरह से जीवित हैं.

दिल्ली विश्वपुस्तक मेला. एक स्टॉल पर बाबा बैठे हैं. वह किसी पुस्तक का विमोचन करने को तैयार हैं. उनसे मिले बहुत वर्ष हो गये थे. सोचा कि पहचान भी पायेंगे कि नहीं. उनके पास गया और प्रणाम किया. वह किसी और से बात करने लगे. मैं चलने लगा. उन्होंने लपक कर मेरा हाथ पकड़ा, ‘‘अरे, इतनी जल्दी क्या है? देहरादून जाना है क्या?’’ वह फिर चिरपचित हंसी के साथ मिले. अच्छा लगा कि भीड़ भरी दुनिया में अभी कुछ लोग ऐसे हैं जो मन से जुड़ते हैं. उन्होंने गढ़वाल की कई बातें पूछीं. एकएक दिल्ली के नामवर लोगों ने उन्हें घेर लिया. भीड़ के पीछे खड़ा मैं भी बाबा के साथ जुड़ा रहा. आज भी जुड़ा हूं.

Thursday, May 17, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण – ६


(पिछली किस्त से आगे)

तंबाकू का पत्ता खोंट-खोंटकर बालचंद ने फिर उसमें चूना मिलाया. पलंग के नीचे से स्टूल खींचकर बैठ गया और सुरती मसलने लगा .

मैं अपने इस खेतिहर हीरो से इन दिनों बहुत घबराता हूँ . वह चालीस से ऊपर का हो चुका है . एक बार गाँव का सरपंच भी चुना गया था . सात-सात बेटों का बाप है अब हमारा बलचनमा . बेचारी सुगनी जाने कब से तरस रही है कि घर-आँगन में एक बिटिया भी डोलती नज़र आए !

काका, कहाँ-कहाँ भागते फिरोगे ? मैं छोडूँगा नहीं तुमको, हाँ ! मुझको पिटवाकर कहाँ डाल रखा है ?

बेदर्द निर्मोही कहीं के ! शरम नहीं आती है, एक पोथी अधूरी छोड़ के अंट-शंट लिखे जा रहे हो ! जब तक मेरीवाली पोथी ख़त्म नहीं करोगे लिखकर, तब तक इसी तरह बिलल्ला बने भटकते रहोगे मिसिर जी महाराज!

मैं आपको पकड़ के वापस ले जाऊँगा. क़ैद करके अक्कड़-लक्कड़वाली पिछवाड़े की अपनी उसी कुठरिया में बंद कर दूँगा...

मैं आपकी मिट्टी पलीत करूँगा...

मैं आपको कहीं का न रखूँगा...

आप मेरी कहानी कब तक पूरी कर रहे हो ? चलो, साल-भर की मुहलत देता हूँ. इस अरसे में अगर मेरी कहानी को लेकर आपने चार-पाँच सौ पन्नों की एक और पाथी नहीं लिख डाली तो बस...

क्या कर लेगा?

जान से मार डालेगा क्या ?

नहीं, शायद हाथ काट डालेगा !

अरे, बड़ा गुस्सैल है बलचनमा...पीछे पड़ जाता है, तो फिर तबाह कर देता है...

मैं उसे मना लूँगा...

हाँ, वह मान जाएगा...

वह मेरा मानस पुत्र ठहरा न ?

जी हाँ, पिताजी !

यह तो दूसरा स्वर है... किसका स्वर है ?

इतनी जल्दी भूल गए मुझे ? ओ वंचक पिता ! लो, तुम्हारा एक मानस पुत्र तुम्हें प्रणाम करता है, दुखमोचन की कैसी रेड़ मारी तुमने ? आपके लाभ लोभ का शिकार वही दुखमोचन आपको अपनी प्रणतियाँ निवेदित कर रहा है, आर्य !

वत्स, घबरा क्यों गए ? मैं तुम्हें भूला नहीं हूँ . शीघ्र ही तुम्हारा यथार्थ रूप पाठकों के समक्ष उपस्थित करूँगा. पिछली भूल अब और नहीं दुहराई जाएगी. आकाशवाणी-केंद्रों की दुहरी-तिहरी बोरियत का तुम्हें शिकार होना पड़ा, तुम्हारी लपसी बन गई, इसके लिए मैं तुमसे माफी चाहता हूँ बेटा !

आईनेवाला मुखड़ा मुसकरा रहा है . मैं सब समझता हूँ.... वह कहेगा, देखो नागा बाबा, तुम न तो अपनी औरत, अपनी संतानों के प्रति ईमानदार हो, न मानस संतानों के प्रति ही !

बिलकुल ठीक कहेगा, मैं अपना यह पाप कबूल कर लूँगा. बिना अगर-मगर के, बिना न-नु-न-च के स्वीकार कर लूँगा अपना अपराध...

ज़िंदगी में पहली बार ऐसा हुआ है कि मुझे किसी आईने के सामने इतनी अधिक देर तक अपने को हाज़िर रखना पड़ा .

मुझे बार-बार राकेश की खाम-ख़याली पर हँसी आई है, खीजा हूँ बार-बार राकेश के इस दुराग्रह पर. मेरे मालिक (पाठक-पाठिका वृंद), आपको मैं अब क्या बताऊँ कि आईने में अपना मुखड़ा देखना कितना आवश्यक है! इस झमेले से छुटकारा पाने का आसान तरीक़ा मुझे बचपन में ही मालूम हो गया था.... महीने-महीने साबित माथा छिलवा लेना! अपराजिता को मेरी इस सनक से सख़्त नफ़रत रही है .

वह जाने कितनी दफ़े मुझ पर रंज हुई होगी, महज़ बालों के सवाल पर ! पिता के इस हठ का बच्चे भी मखौल उड़ाते हैं...

पिछले जीवन पर गौर करता हूँ, तो याद आता है, अठारह वर्ष की आयु तक शायद अठारह बार भी मैंने शीशे में अपना मुँह नहीं देखा होगा . पीछे शादी हुई, तो ससुराल के उस केलि-कुंज में अपराजिता की सहेलियों ने मुझे फैशन का क-ख-ग सिखलाया ! सुगंधित तेल की शीशी, कंघी और आईना मेरे बनारसवाले छात्र-जीवन में तब तक साथ रहे, जब तक कि गांधीजी की आत्मकथा का पारायण नहीं किया .

अब महसूस करता हूं कि आईना मुझे नित्य देखना चाहिए . अपने आलोचकों को यों हम दस-बीस गालियाँ दे ही लेते हैं, किंतु प्रतिरूप देखते वक़्त हमारा निज का ही विवेक अपनी मीमांसा कर डालता है-- निश्छल और संतुलित ! उसके सामने हमारे बाज़ारू हथियार धरे ही रह जाते हैं .

आईने, तेरी जय हो ?

आईने, अब आज से तू मेरा साथी हुआ !

अब मैं रोज़ तुझसे दस-पंद्रह मिनट बातें किया करूँगा. लेकिन नहीं, यह तो अपना आईना नहीं .

राकेश, ले जाओ अपना जादुई शीशा...! इसने तो मेरा माथा ही ख़राब कर दिया ! जाने क्या-क्या बकवा लिया है !...

नहीं भाई, मुझे नहीं चाहिए आईना-फाईना !

किसी को अपना बेड़ा गर्क़ करना हो, तो राकेश की ओर रुख़ करे.... श्रीयुत मोहन राकेश, हाल मुक़ाम चर्चगेट, बंबई, पोस्ट जोन नंबर 1; क्यों भैयाजी, आपके निवास-स्थान का पूरा पता बतला दूँ संसार को ?

संसार यानी विश्व . विश्व यानी दुनिया-भर के सभी राष्ट्र . सभी राष्ट्र यानी सभी राष्ट्रों के झंडे...

क्यों साहब, झंडे क्या राष्ट्र के ही हुआ करते हैं ?

काशी-प्रयाग के हर पंडे का अपना अलग-अलग झंडा होता है . आपका भी अपना अलग झंडा हो सकता था .

था नहीं, है ! है, साहब है ! मेरा भी अपना झंडा...!

अच्छा ! वही झंडा ! पार्टीवाला ? हँसिया और हथौड़ा ?

राम कहिए. फिलहाल लगी है मुझे कसके भूख, इसी से और कोई झंडा सूझ नहीं रहा है. बस, अपना तो वही एक प्यारा झंडा है... मैथिल ब्राह्मणशाही का पीला झंडा ! देखिये भाई, हँसिये नहीं . मेरे झंडे पर बड़ी मछली का निशान है . कितना प्यारा निशान है, मछली....मछली...!

सिर चकरा रहा है ?

भूख बहुत लगी है ?

जाओ न, चेंबूर जाकर मछली-भात डटा आओ . अपना मैथिल मित्र है न तुम्हारा वहाँ ?

नहीं, अभी यहीं बिजली के चूल्हे पर खिचड़ी तैयार करता हूँ-- सुरेश भाई चौपाटी वाले अपने रूम में इतना तो इंतजाम कर ही गए हैं .

मगर यह आईना भी तो अपना पिंड छोड़े न !

अब आख़िरी झाँकी है...

सामने अपनी परछाईं के इर्द-गिर्द एक-एक दो-दो करके कई चेहरे आगे-पीछे दिखाई दे रहे हैं--

क : तुमने मुझे पिटवाया था, मैंने तुम्हें दो वर्ष की जेल की सजा कटवायी थी. तुम्हारी जटा तीस हाथ लंबी थी, गोरखपुर के उस पारसी मजिस्ट्रेट ने तुम्हारी गिरफ़्तारी के बाद पहला काम यही किया था कि जटा मुंड़वा दी... इलाक़े में तुम्हारे ढोंग की तूती बोलती थी... नागा बाबा ने बुलहवा के बाबा की माया को पंक्चर कर दिया ! गवाहों ने अदालत में कहा था-- यह व्यक्ति मूलतः तमकुही का रहनेवाला मुसलमान है और भागकर नेपाल चला गया . वहाँ से साधु बनकर लौटा-- काले चेहरे की लाल आँखें बार-बार मुझे घूर रही हैं !

ख : एक अधेड़ औरत . रात को सोते समय कंबल के अंदर घुस आई थी. तिब्बत की घटना है, अपरिचित जगह, अनजाने लोग . शंका और आतंक से मेरी नींद उड़ गई . अगले रोज़ मालूम हुआ, वह इसलिए साथ सोने आऊई थी कि मैं ठंड के मारे सिकुड़कर कहीं दम न तोड़ दूँ !

ग : अमृतसर का एक लाल ! हम पति-पत्नी (1941 में) को यह निरा भोंदू मान बैठा था . अपराजिता को रिझाने की बेचारे ने कोशिश की, सैकड़ों रुपए खर्च कर डाले . उसे आशा थी कि अपने गँवार पति को छोड़कर यह युवती उसकी जीवन-संगिनी बनना स्वीकार कर लेगी . बरेली, मुरादाबाद, हरिद्वार, सहारनपुर जाने कितने दिनों तक यह पंजाबी युवक हमारे साथ चिपका रहा !

घ : उत्तर प्रदेश का एक प्रकाशक . कई हज़ार रुपए बरबाद हुए उसके . इसमें 40 प्रतिशत कसूर उसका अपना भी था .

च : वयोवृद्ध पत्रकार . आपको मैंने अपनी पैनी क़लम चुभो दी थी . बड़ा दर्द हुआ बेचारे को...

छ : काठमांडू का एक सैनिक अधिकारी . उन्होंने तीन राष्ट्रों की महंगी शराब को आचमन करने का सुअवसर प्रदान किया .

बस, बंद करो अपनी बकवास...!

हाँ, सचमुच बड़ी कतार है उन चेहरों की जिनकी निगाहों में मेरे लिए उलाहना भरा है.... बाक़ी चेहरे कुछ ऐसे भी मित्रों के हैं, जिनकी प्रशस्ति में मैंने निर्लिप्तता का परिचय दिया .

भाई, यह तोड़-जोड़ की दुनिया है . इस हाथ दो, उस हाथ लो ! वरना जहन्नुम में जाओ...!

अलविदा, प्यारे आईने ! अलविदा !

(समाप्त)

Wednesday, May 16, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण – ५



(पिछली किस्त से आगे)

आदमी हो तो आदमी की तरह रहो न ! यह क्या धज बना रखी है तुमने अपनी ! छोटे-छोटे बाल उगाए रखते तो चंचल माथे पे. नुची मूँछों का ठूँठ आलम तुम्हारे मुखमंडल को प्राकृत और अपभ्रंश के संयुक्त व्याकरण-जैसा सजा रहा है ! कपड़ों का यह हाल कि भदेसपन और कंजूसी का सनातन इश्तिहार बने घूमते हो ! चर्चगेट हो या चौरंगी, कनॉट प्लेस हो या हजरतगंज, सर्वत्र तुम्हारी यही भूमिका रहती है . आधुनिकता या माडर्निटी को अँगूठा दिखाने में तुम्हारी आत्मा को जाने कौन-सी परितृप्ति मिलती है ! ओ आंचलिक कथाकार, तुम्हारी आँखें सचमुच फूटी हुई हैं क्या ? अपने अन्य आंचलिक अनुजों से इतना तो तुम्हें सीख ही लेना था कि रहन सहन का अल्ट्रामॉडर्न सलीका भला क्या होता है . ओह, तुम मास्को-पीकिङ नहीं पहुँच सके हो अब तक ?... ओफ्फोह माई डियर नागा बाबा! व्हाट ए पिक्यूलियर टाइप ऑफ पुअर फेलो यू आर!... प्राग ही देख आए होते! प्राइम मिनिस्टर की कोठी के सामने, तीन मूर्ति के क़रीब एकाध बार हंगर-स्ट्राइक मार दी होती, तो फिर बुडापेस्ट देखने का तुम्हारा भी चांस श्योर था...और अब तो ससुर तुमने अपने आपको डुबो ही लिया है. पीकिङवालों को इस क़दर गालियाँ देने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी! देख लेना, कल या परसों फिर से ‘भाई-भाई’ के वही नारे मुखरित होंगे और चुगद की तरह फीकी-डूबी निगाहों से चीनी-गणतंत्र के दूतावास की बाहरी प्रकाश-मालाओं को तुम देखा करोगे ! ओ अछूत-औघड़ अदूरदर्शी साहित्यकार, तुम सचमुच ही भारी बेवकूफ हो ! तुमने माओ-त्से-तुङ्, लिउ-शाओ-चि और चाऊ-एन-लाई को बुर्जुआज़ी से उधार ली हुई गालियाँ दी हैं; कोई ‘सच्चा’ कम्युनिस्ट तुम्हें माफ़ नहीं करेगा. बंगाल के तरुण कम्युनिस्टों को यदि तुम्हारी ये कविताएँ अनूदित करके कोई सुना दे, तो वे निश्चय ही तुम्हारे लिए नफ़रत में डूबे हुए दो शब्द कहेंगे. बस दो ही शब्द...
जी हाँ, दो ही शब्द कहेंगे !

बतलाओ तो भला क्या कहेंगे?

--प्रतिक्रियावादी कुत्ता !

आईना घूम गया है यह सुनकर... वह चक्कर खा रहा है... चक्कर-पर-चक्कर... और एक चक्कर .. और एक चक्कर !

अरे, कब तक चक्कर काटेगा आईना ?

ओ भाई आईने, यह तुझे क्या हो गया !

इत्ते-से काम नहीं चलेगा. अभी और कुछ देर तक अपन आमने-सामने बैठेंगे. भई, तू घबरा क्यों उठा? किसी ने तुझे कुत्ता कह दिया? प्रतिक्रियावादी कह दिया किसी ने?...तो, क्या हुआ? आखिर मैंने भी तो उनके इष्टदेव को गालियाँ दी हैं न? तू घूँसे लगायेगा, तो दूसरा चुप बैठा रहेगा क्या?

वाह रे घूंसेबाज!

आईना एक बार और घूम गया है. अबकी, शायद परिहास की भंगिमा में...

-- अपनी शक्ल तो देखो !

-- क्यों, क्या हुआ है मेरी शक्ल को ?

-- पास-पड़ोस में किसी के यहाँ अगर आदमकद बड़ा आईना हो, तो कभी-कभी वहाँ पहुँचकर अपने शरीर की पूरी परछाईं देख आया करो न !

-- हट, भाग यहाँ से ! बदतमीज़ कहीं का !

-- भारी पहलवान हो न, घूँसे का ख़याल तभी तो आया है...!

मन-ही-मन गोरेगांव पहुँच गया हूँ क्षण-भर के लिए . डॉ. शुक्ला के क्वार्टर में आदमक़द आईना है .

अभी उतना भुलक्कड़ नहीं हुआ हूँ...

अरे, मैं तो धनुष की तरह बिलकुल ही झुक जाऊँगा कुछ वर्षों में ! हाय, मैं तो बुढ़ापे का गेट-पास पाने का हक़दार हो चुका हूँ... सिर के बाल खिचड़ी दिखते हैं . मूँछों का भी यही हाल है . हथेलियाँ उलटाओ, तो पतली नीली नसों के जाल स्पंदित नज़र आते हैं . सीने के ऊपर गले के दोनों छोर पर नीचे की तरफ़ गड्ढे किसी की भी हमदर्द निगाहों को अपनी ओर खींच लाएँगे...

केशवदास जी ने अपना ऐसा ही ढांचा देखकर स्वगत कहा होगा--

केसव, केसन अस करी जस अरिहू न कराहिं.
चंद्र बदनि मृगलोचनी ‘बाबा’ कहि-कहि जाहिं..

मगर क़सम ईमान की, शपथ जनता-जनार्दन की, मुझे तो अपना यह ‘बाबा’ संबोधन बेहद प्रिय है . किशोरी हो चाहे युवती, कोई भी चंद्रबदना मृगनयनी अपने राम को ‘बाबा’ कहती है, तो वात्सल्य के मारे इन आंखों के कोर गीले हो जाते हैं. अपनी प्रथम पुत्री जीवित रहती तो सत्रह साल की होती...

शादी करने के बाद घर से भागा न होता, तो हमारी यह चंद्रवदनी-मृगलोचनी तीस-बत्तीस वर्ष की होती .

पके बालोंवाले आचार्य केशवदास का धर्म-संकट कुछ और ही प्रकार का रहा होगा. बुढ़ापे में भी छिछोरपन जिनका पिंड नहीं छोड़ता, हमारे यह बुजुर्ग निःसंदेह उसी कोटि के थे. हाँ, यह भी हो सकता है कि केशवदास को बदनाम करने के लिए किसी अन्य ईर्ष्यालु कवि ने उनके नाम पर यह दोहा लिख मारा हो... फिलहाल आचार्य केशवदास तो महाकाल की अतल गोद में से बाहर आने से रहे, उनकी ओर से शायद कोई अन्य आधुनिक आचार्य मुझे बतलाएँगे, उक्त दोहा क्षेपक है. प्रतीक्षा में रहूगा.
मगर अपनी टेढ़ी कमर का क्या होगा?

आत्मा को सबल बनाओ, नागा बाबा, देह की फ़िक्र क्यों करते हो, प्यारे ! ‘नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः’ गीता का एक भी श्लोक याद न रहा?

तो राकेशवाला आईना ठीक ही कहता है, मैं बूढ़ा हो गया हूं. जवाबी हमला अपनी तरफ़ से अब शब्दों तक ही सीमित रहेगा?

कोई परवाह नहीं! शब्द को अपने पूर्वजों ने वज्र से भी बढ़कर शक्तिशाली माना है...

हूं... खैर, ‘हारे को हरिनाम’ ही सही.

शब्दों की गोलाबारी ज़िंदाबाद! शब्द-ब्रह्म की यह बारूद हमारे राष्ट्र की अपनी वस्तु है... एटम बम या मेगाटन कोई भी अक्षर शक्ति का सामना नहीं कर सकता !

अक्षर शक्ति के द्रष्टा, शब्द ब्रह्म के उद्गाता...हम भारतीय साहित्यकार सप्तर्षियों के वंशधर हैं . सुन ले रे अलादीन के आईने ! जो भी हमारा मखौल उड़ाएगा; उसकी कलेजियाँ टूक-टूक हो जाएँगी !

ख़बरदार ! हमें ताने न मारना, अहमक...

मुझे तूने डरपोक समझ रखा है?

माफ़ कीजिये, बाबा, आप क्या किसी से नहीं डरते हैं ?

वाह, डरता क्यों नहीं ! दरअसल डरना भी उतनी ही स्वाभाविक क्रिया होती है, जितनी कि डींग मारना !

तो आप किससे डरते हैं ?

अपने पाठकों से डरता हूँ . बलचनमा से डरता हूँ, वरुण के बेटों से डरता हूँ, दुखमोचन और रतिनाथ और वाचस्पति और पद्मानंद और मोहन माँझी से डरता हूँ . कंपाउंडर और उस बहादुर बीबी का ख़याल आते ही माथा दर्द करने लगता है कि बेचारी के प्रति मुझसे भारी अन्याय हो गया है . रात को जब लोग सो जाते हैं, तब अक्सर मेरा बालचंद आकर सिरहाने खड़ा हो जाता है . अभी उस रात चौपाटीवाले उस कमरे के अंदर बलचनमा फलाँगकर चला आया, तो पैरों के धमाके से मेरी नींद उचट गई.

सुरती फाँकेंगे, काका ? आपके लिए ख़ास तंबाकू लाया हूँ जटमलपुर के मेले से. वही सरइसावाला बड़ा पत्ता है.  सूंघकर देखिये न ?

आप तो हमें भूल गए हो काका ! नहीं ? मैं झूठ कहता हँ ?

आप चुप क्यों हो, काका ?

नहीं खोलोगे ज़बान अपनी ?

अच्छा, न खोलो...

(जारी)

Tuesday, May 15, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण – ४


(पिछली किस्त से आगे)

हर साहित्यकार गप्पी होता है.... अहदी भी होता है और दांभिक भी. यह अहदीपन और दंभ उसे ऊँचा उठाते हैं. ढेर-की-ढेर कपास ओटना मोटा काम हुआ. महीन सूतों का लच्छा अगर छटांक-भर की अपनी तकली से आपने निकाल लिया तो ‘पद्मभूषण’ के लिए इतना ही पर्याप्त है, बंधु !

आईने के अंदर जो नागाजी झाँक रहा था, अभी-अभी उसने भभाकर हँस दिया... बाहरवाला नागाजी इस पर डाँट रहा है-- मैं तेरा गला घोंट दूँगा. पाजी कहीं का ! भिलाई या राऊरकेला या दुर्गापुर, कहीं किसी ठेकेदार का मुंशी ही हो जाता भला ! वह धंधा भी बेहतर था, बच्चू !

आईनेवाली आकृति के होंठ हिल रहे हैं . मुद्रा से लगता है, कुछ गुनगुना रहा है...समझे ? कह रहा है... क़लम ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के !

अब आगे मैं तुझे अपने कंधों पर नहीं ढोऊँगा, अदना-सी कोई नौकरी कर लूँगा. बिलकुल असाहित्यिक!

मैं ऊब गया हूँ इस अतिरिक्त यश से. जी करता है कभी-कभी कि कोई ऐसा तगड़ा कुकर्म करूँ जिससे पिछली सारी शोहरत धुल-पुँछ जाए साहित्यकारों की !

अपने ही एक सहृदय बंधु ने एक बार ‘कुकर्म’ का बड़ा अच्छा अवसर प्रदान किया था, तब क्यों तुम भागे थे? वह शायद ही कभी तुम्हें क्षमा करे !

मैंने लेकिन उसको माफ कर दिया है .

अरे पिनकूराम, तुम क्या किसी को यों ही भूलनेवाले हो ?

क्या कहा ? प्रतिशोध की मेरी भट्ठी कभी ठंडी नहीं होगी ?

नहीं, कभी नहीं. बात यह हुई कि तुम्हारा सारा बचपन घुटन और कुंठा में कटा . ग़रीबी, कुसंस्कार और रूढ़िग्रस्त पंडिताऊ परिवेश तुम्हें लील नहीं पाए, यह कितने आश्चर्य की बात है ! पहले तुम भी वही चुटन्ना और जनेऊवाले पंडित जी थे न ? न पुरानी परिधि से बाहर निकलते, न आँखें खुलतीं, न इस तरह युग का साथ दे पाते...

नहीं दे पाते युग का साथ! वाह भई, वाह !

यह किसने ठहाके लगाए ?

मैं ? कौन हूँ मैं ? दंभ हूँ, आरोपित ‘इगो’ हूँ-- तुम्हारा अपना ही स्फीतस्फुरित अहंकार! व्यक्तित्व का आटोप... किस मुग़ालते में पड़े हो, बाबा? क्या अकेले तुम्हीं ने युग का साथ दिया? बाक़ी और किसी ने ज़माने की धड़कन नहीं सुनी ? अलस्सुबह, बु्रश से दाँत माँजते वक़्त ऐस्प्रो की टिकिया का सुकंठ विज्ञापन, मीरा के भजन की लता-वितानवाली लहरियाँ, अपराह्न के अवकाश को गुदगुदानेवाली अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैच की कमेंट्री, संकट के क्षणोंवाले उदास-अनुतप्त अनाउंसमेंट... यह सारा-का-सारा युगीन स्पंदन क्या तुम्हारे कानों तक पहुँचता रहा है ?

बतलाओ, बतलाओ न! चुप क्यों हो गए ?

गतिशीलता का सारा श्रेय तुम्हीं लूट लोगे ?

गति नहीं, प्रगति ! अरे हाँ, तुम तो प्रगतिशील हो न ! बड़बोला प्रगतिवादी !

ज़रा देर के लिए अपनी ‘प्रगति’ के रंगीन और गुनगुने झागों को अलग हटा दो न ! नागा बाबा, प्लीज...!

आचार्य शिवपूजन सहाय चल बसे!

जी हां, वर्षों से शिवपूजन बाबू का हेल्थ जर्जर चला आ रहा था .

...जी, बिलकुल ठीक फ़रमाया आपने . सहायजी का आविर्भाव न होता, तो बहुतों की कृतियाँ, ‘असूर्यम्पश्या’ चिरकुमारियों की तरह घुटकर रह जातीं. यह सहायजी का ही तप था कि तीन-तीन पीढ़ियों की पांडुलिपियों का उद्धार हुआ.

जी, आपको भी तो यदा-कदा ‘आचार्य नागार्जुन’ के तौर पर याद किया जाता है !

वाह जी, वाह, हद कर दी आपने तो ! अपने कानों को इस फुरती से क्यों छू लिया है आपने ?

ना बाबा, ना! आचार्यत्व का वह लबादा भला मुझसे ढोया जाएगा ? अपन तो सीधे-सादे गऊ-सरीखे प्राणी ठहरे...

माफ कीजिये नागार्जुन जी, आप उतने सीधे-सादे नहीं हैं...

हाँ...हाँ, रुक क्यों गए ? कह जाओ पूरा वाक्य. बीच में ही मेरा रुख़ क्यों नापने लगे ?
लो, अब देखो तमाशा! आईने के अंदरवाला चेहरा तमतमा उठा है, और बाहर वाला चेहरा तो पतझर की फीकी उदासी को भी मात देने जा रहा है ! सचाई की सारी खटास किस तरह कलई खोती है . तथाकथित व्यक्तित्व की!...देखा आपने ?

ठीक तो है, मैं उतना सीधा-सादा नहीं हूँ जितना दिखता हूँ. यह सिधाई-- यह सादगी तो बल्कि दुहरा-तिहरा ढोंग हो सकती है!

(जारी)

Monday, May 14, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण – ३



(पिछली किस्त से आगे)

अपनी उच्छृंखलता और मस्ती की ढेर-सी बातें बता चुकने के बाद मैंने अपराजिता से पूछा-- तुम तो सुनती ही रही हो, कुछ अपनी भी बतलाओ न ! 

देर तक मुसकराते रहीं देवीजी . कोंचने पर बोलीं-- ले-देकर एक ही तो देवर है अपना, हफ़्ते में एकाधबार मौक़ा मिलता है . बस, बातों का गिल्ली-डंडा खेल लेते हैं. घर बैठकर दो छोटे बच्चों को संभालते, तो तुम्हारा भी विद्यापति टैं बोल जाता !

बचपन के दिनोंवाले कई चेहरे सामने आ रहे हैं. सारे के सारे लड़के हैं-- दो-तीन बड़ी उम्रवाले, बाक़ी हमउम्र और छोटे. एक लड़की भी झाँक रही है.

यह लड़की तेरह वर्ष पार करके चौदहवें में प्रवेश कर चुकी है. मैं संस्कृत की व्याकरण मध्यमा का छात्र हूँ और इंदुकला के पिता शशिनाथ जी मेरे अन्नदाता हैं (उन दिनों मिथिला में ग़रीब छात्रों को परिवार का सदस्य बनाकर अध्ययन में वर्षों तक सहायता करने की प्रथा थी). इंदु मुझसे कहानियाँ सुनती है, विद्यापति के पद सुनती है, कौड़ियों का खेल खेलती है मेरे साथ... इसके पहले मुझे कहाँ मालूम था कि लड़की क्या होती है !

अठारह वर्ष का हुआ, शादी हुई . तब अपराजिता और उसकी दसियों सहेलियों के दर्शन हुए . यह एकदम नई बात थी मेरे लिए . इसके पहले पाँच-सात साल उसी माहौल में गुज़रे थे जहाँ छात्रों और अध्यापकों के दरमियान समलिंगी व्यभिचार के आतंक की अशुभ छाया व्याप्त थी . लोग अपने लड़कों को छात्रावासों में भेजने से हिचकते थे . 1930-32 के महान स्वाधीनता-संग्राम के चलते एक-एक कैंप-जेल में दस-दस हज़ार सत्याग्रही रखे गए थे . उनमें सभी उम्र के लोग थे . वहाँ भी अप्राकृतिक सेक्स-संपर्क ने अपना रंग दिखलाया था .

यह दुर्भाग्य है कि स्त्रियों और पुरुषों को वर्षों अलग-अलग रहना पड़े. हमारा हिंदी-भाषी क्षेत्र सामाजिक सहजीवन की दृष्टि से पड़ोसी प्रदेशों की अपेक्षा अधिक पिछड़ा हुआ है. हमारी यह लालसा तो रहती है कि फ़िल्मों में नए-नए चेहरे दिखाई पड़ें, किंतु अपनी पुत्री या पुत्रवधू को हम ‘मर्यादा’ की तिहरी परिधियों के अंदर छेके रहेंगे! लड़की के लिए इंजीनियरिंग या डाक्टरी की पढ़ाई करनेवाला युवक हासिल करना है तो दस हज़ार से लेकर पचास हज़ार रुपए खर्च करेंगे, मगर उसको उसकी रुचिवाला जीवन-साथी चुनने का अवसर कदापि नहीं देंगे और न उसे काम करने की छूट देना चाहेंगे . बेकारी और सामाजिक घुटन की ज़हरीली भाप बेचारी के तन-मन को पंगु बनाती जाएगी और हम-- ठहरिये, महाशय जी !

कौन हो, भाई?

इस तरह तो काम नहीं चलने का...

आप आईने की तरफ़ नहीं देख रहे हैं न ? किसने कहा था कि जनाब मन की झील के अंदर गोते लगा गए! मैं इस दर्पण की आत्मा हूँ . रूप-कथाओं वाला बैताल मेरे डर से थर-थर काँपता है... तो मैं भी तुम से डरूँ ?

नहीं, नागा बाबा, तुम काहे को मुझसे डरने लगे ! हाँ, इतना ज़रूर है कि लापरवाही करोगे, तो उत्पात मचा दूँगा. बैठने नहीं दूँगा चैन से, समझे ?

लो भई, फिर से एडजस्ट करो इसे... शाबाश! कितना बढ़िया आईना है...!

कंधों के पीछे से दो छोटी-पतली बांहें इधर लटक आईं .

कौन ? उर्मि, तुम हो ?

जी, पिताजी !

पगली, सामने तो आ !

उंहूं, नहीं आऊँगी सामने . आपकी पीठ के पीछे छिपी रहूँगी . क्या होगा सामने आकर ?

तो, रंज है तू ?

अब वे छोटी-पतली बाँहें दिखाई नहीं पड़ रही हैं . उर्मिला थी न अपनी ? दस साल की हो गई . क़ायदे से पढ़ती-लिखती होती, तो छठवीं श्रेणी की छात्रा होती किसी स्कूल की... लेकिन उसकी पढ़ाई का सिलसिला छूट गया है न? उर्मिला अपने बाप पर बेहद रंज है.

उर्मिला चूँकि लड़की है, बहुत कुछ समझने लगी है .

शोभाकांत ने पटना से कई बार लिखा है-- आपने, पिताजी, उर्मिला के बारे में शायद तय कर लिया है कि उसे मूर्ख ही रखेंगे.
नहीं, बेटा तुम ग़लत समझ रहे हो. मैं भला अपनी पुत्री को मैट्रिक भी नहीं करवाना चाहूँगा !

तो यों ही मैट्रिक हो जायेगी उर्मिला?

मैट्रिक में फर्स्ट डिवीजन लाया है. पटना कॉलेज में प्रि-युनिवर्सिटी क्लासेज़ का छात्रा है. बचपन में वर्षो तक बोन टी०बी० से आक्रांत था. एक टाँग शक्ति-शून्य है, इसी से लंगड़ाकर चलता है... उन्नीस साल का यह तरुण अपने बाप की रग-रग पहचानता है. उसे भली-भाँति पता है, पिताजी बातें बहुत करते हैं, काम नहीं करते ! समूचा परिवार पटना या इलाहाबाद कहीं जमकर रहता, तो उर्मिला भी पढ़ जाती और मंजू भी...

हाँ, बेटा! मैं गप्पी हूँ... अहदी भी हूँ और दांभिक भी .

(जारी)

क्‍या पता कि रात है कि आसमान काला है

उलटबाँसी

वीरेन डंगवाल

जैसे ही बटन दबाता हूं
गंगा के पानी का बना रोशनी का एक जाल
छपाक से मुझे ले लेता है
अपने पारदर्शी रस्‍सड़ गीले लपेटे में

क्‍या पता कि रात है
कि आसमान काला है
कि मूंगफली के बीज में जो कि
दरअसल जड़ भी है और फल भी
तेल कब पड़ना शुरू होता है
जिसमें छानी जाती हैं उम्‍दा सिकीं पूडियां

क्‍या पता कि वे सिर्फ गेंदे हैं रबड़ की
जो इस कदर नींदें हराम किए रहती है
उन लड़कों की
और वह भी फितुर फकत
सपनों में ठूंस वे सारे छक्‍के चउए
और आखिर यह इलहाम भी कब जाकर हुआ

दिल के टसकते हुए फोड़े पर
कच्‍ची हल्‍दी
या पकी पुलटिस बंधवाने के बजाय
नश्‍तर लगवा लो
जिनकी
कोई कमी नहीं

Sunday, May 13, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण - २


(पिछली किस्त से  आगे)

सच कहता हूं, राकेश, कल बाहर नहीं निकला. आज भी नहीं निकलूंगा. आईने का पिशाच सामने मुस्तैद खड़ा है... बीच-बीच में भौंहें तानकर, होंठ भींचकर वह मुझे धमका भी रहा है-- ख़बरदार ! आत्मकथावाली घिसी-पिटी स्टाइल में कुछ का कुछ लिखकर पन्ने काले करोगे, तो तुम्हारे भी हाथ-पैर सुन्न हो जाएँगे! जीभ अकड़ जाएगी और दिल-दिमाग़ किसी काम के न रहेंगे!

तो फिर?

तो फिर, जय हो आईने के इस बैताल की!

नमस्तेऽस्तु पिशाचाय,
वैतालाय नमो नमः
नमो बुद्धाय मार्क्साय
फ्रायडाय च ते नमः.
अथ नाग-लीला--

बाहर से जैसा कुछ दिखाई देता हूं, वैसा ही नहीं हूँ न?

जीवन के अनेक-अनेक पहलुओं की सम-विषम प्रतिच्छवियाँ इस आईने में उभर रही हैं. स्टूडियो का टेकनीशियन फ़िल्म की बेतरतीब रीलों के टुकड़े क्या यों ही सेंसर बोर्ड के समक्ष पेश कर देता होगा ?

नहीं जी, वह उन्हें कतर-ब्योंत करके एक ख़ास क्रम में सजाता होगा.

मेरा जीवन सपाट मैदान है-- प्रेमचंद अपने बारे में कह गए हैं... मगर मेरा जी नहीं मानता कि किसी भी साहित्यकार का जीवन सचमुच ‘सपाट’ होता होगा. दरअसल, यह भी एक फैशन है व्यक्तित्व की छाप छोड़ने का कि हम अपनी सादगी, सिधाई, भोलापन, विनम्रता आदि का लेखा-जोखा आहिस्ता से औरों तक पहुँचा दिया करें! प्रकृति ख़ुद ही चमत्कारमयी है, वह सपाट नहीं हुआ करती. तो फिर हमारी और आपकी ज़िंदगी ही कैसे सपाट होगी, साहब?

अरे वाह! यह देखिए, सामने नागा जी का शिशु चेहरा...पीछे एक अधेड़ पुरुष की प्रौढ़ मुखाकृति. .. अगले ही क्षण चेहरे पर क्रोध का तनाव...होंठ काँप रहे हैं .

(मैं तेरा हाथ काट लूँगा ! क्यों अंट-संट लिख मारा है तूने ? बाप की बुराई कौन करता है ?)

-- शैतान. मगर मैंने झूठ थोड़े लिखा है. मेरी चाची से आपका क्या रिश्ता था ?

उस रोज, दुपहर की उमस में अंदर लेटी हुई मेरी मां का गला कुल्हाड़ी से किसने काटना चाहा था ?

समाज की दसियों औरतों से आपके लगाव थे . कोई बात नहीं . लेकिन मेरी माँ और मेरे पाँच भाई-बहनों को किसकी उपेक्षा का शिकार होकर दम तोड़ना पड़ा था ?

(चोप्! जीभ खींच लूंगा... जानता नहीं, मैं कितनों की पसलियां तोड़ चुका हूँ ? रौब के मारे गाँव के युवक मुझे ‘गुरू’ कहकर पुकारते हैं !...)

-- और पिताजी, आपकी वह गुरुअई कैसे गल गई थी मामूली काग़ज़ की तरह, जबकि मेरी विधवा चाची के गर्भ रह गया था और भ्रूण की निकासी के लिए पड़ोस वाले गाँव की उस बुढ़िया चमाइन को सौ रुपए देने पड़े थे!

अजी वाह, आप रो रहे हो? मेरा वश चलता तो उस अधेड़ उम्र में भी आप दोनों की नई शादी वैदिक विधि से करवा देता! पर मैं तो उन दिनों दस-ग्यारह साल का छोटा-सा बालक था-- मातृहीन, रोगी और डरपोक !

अब सोचता हूँ, तो आईने के अंदर अपने होंठों को उस बाल-सुलभ खीज पर मुसकराते देखकर तसल्ली होती है . क्या कसूर था बेचारों का ? सहज नेह-छोहवाले सीधे-सादे देहाती लोग थे... मगर पिता को अंत तक खुली क्षमा कहाँ दे पाया ! आज शायद इसीलिए पिता के प्रति विगलित हूं कि स्वयं छः बच्चों का पिता हूँ. पितृ-सुलभ वात्सल्य के आवेग ही शायद अपने पिता-पितामह के प्रति हमें उदार बनाते हैं. 1943 के सितंबर में काशी की गंगा के किनारे मणिकार्णिका घाट पर उनका प्राणांत हुआ. मैं तिब्बत के पश्चिमी प्रदेशों की यात्रा पर निकल गया था. कहते हैं, अंतिम क्षणों में किसी ने मेरी याद दिलाई, तो सूखे होंठों को सिकोड़कर बोले थे-- उस आवारा का नाम ही मत लो .

न लो नाम, अपना क्या बिगड़ेगा ? मैं भी तुम्हारी चर्चा किसी के आगे न करूँगा . मेरी माँ को जिसने इतना अधिक परेशान रखा, उस व्यक्ति को खुले दिल से ‘पिता’ कहने की इच्छा भला कैसे होगी ?...

देखो भई, यह तो हिलने लगा ? ज़रूर कोई गड़बड़ हुई है, वरना आईना हिलता क्यों ?

अपू ? अपराजिता ? आओ, आओ ! अच्छा हुआ कि शीशे में तुम दिखाई पड़ीं. कमज़ोर लग रही हो, बीमार हो क्या ? मैं भी बीमार रहा इधर तो. गनीमत है कि बंबई की समुद्री आबोहवा ने अबके दमा को मेरे गिर्द फटकने तक न दिया. हाँ, सर्दी-खाँसी ने बीस-पचीस दिनों तक बेहद परेशान किया.

सोचती हूँ, पिछले कुछेक वर्षों में तुम मुझसे दूर-दूर सरकते चले गए हो. पहले कितनी चिट्ठियाँ लिखा करते थे! अब शायद मैं तुमको अच्छी नहीं लगती हूँ. है न यही बात ?

क्या बात करती हो, अपू ! तुम तो तेरी सहधर्मिणी हो-- ठेठ सनातन अर्धांगिनी श्रीमती अपराजिता देवी, 45 . हमारी अपनी देहाती जायदाद और घर-आँगन की मालकिन ! तुम तो नाहक उदास हो, रानी ! क्यों सुस्त हो? क्या बात है ?

वह चुड़ैल सपने में मुझसे झगड़ रही थी...

कौन भई, कौन ?

वही, जो उस दफ़े गर्मियों में छत पर तुम्हारे लिए इत्र के फ़ाहे फेंका करती थी...

उसके बारे में तो मैंने ख़ुद ही तुम को बतला दिया था. जो नहीं कहना चाहिए, वह बात भी कह दी थी. नहीं कही थी ?

सो तो सब कुछ बतला दिया था तुमने... मगर वह रांड सपने में मुझसे झगड़ रही थी कि अब इस उम्र में सिंदूर क्यों लगाती हूँ ! कह रही थी, ‘ऐसा कौन-सा शहर है जहाँ मेरी सौत न हो’... सो, देखना, मेरी लाज रखना !

क्या सोच रही हो, इस बुढ़ौती में कहीं दो-एक ब्याह मैं और भी रचा लूँगा ?

क्या ठिकाना है तुम लोगों का! मैं क्या पटना-इलाहाबाद नहीं रही हूँ ? जरा-मरा आन-पहचान बढ़ी, तनी-मनी नेह-छोह बढ़ा कि चट्ट शादी पर ही उतर आते हैं...

अच्छा ऽ ऽ ऽ! ! ! तो यह बात है !

मुझे ज़ोरों की हँसी आ गई और अपराजिता का चेहरा दबी-दबाई हँसी के मारे प्रफुल्ल हो उठा है . .. ओफ्फोह, महिलाएँ कितनी चतुर होती हैं ! पुरुषों को छूट भी देंगी और अपना हक़ भी नहीं छोड़ेंगी .

एक बार ऐसा हुआ कि हम आठ-दस महीने के बाद मिले थे . मैं साठ घंटे बाहर नहीं निकला . उन दिनों बच्चे दो ही थे और छोटे थे. उस प्रसंग की एक बात बतला ही दूँ...

(जारी)

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी, आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी


पंडित छन्नूलाल मिश्र से सुनें गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य 'रामचरितमानस' के अयोध्या कांड से राम-केवट संवाद. महफ़िल जमाने के हिसाब से पंडिज्जी मूलपाठ से कभी थोड़ा इधर-उधर भी निकल पड़ते है.  -

 

माँगी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।



छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।।


तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।


एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू।।


जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।


                         
                         पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।

                         मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।



                         बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।


                         तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।


सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।।


कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई।।


वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू।।


जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।


सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।


पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी।।


केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा।।


अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा।।


बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं।।


पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।




उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता।।


केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा।।


पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी।।


कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।


नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।।


बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी।।


अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।।


फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।।


बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ।।



(चित्र- राजा रवि वर्मा की कृति.)