घर में कई बरस पहले लगातार सुने-गुने जाने वाले एक कैसेट राम श्याम गुन ज्ञान को सुबह मां यह कहकर मुझे थमा गई कि हो सके तो उसकी सीडी बनवा दूं उसके लिए.
पण्डित भीमसेन जोशी और लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ों से बना यह अल्बम तुरन्त इन्टरनैट से डाउनलोड कर सुना गया और उस ख़ज़ाने से एक भजन आप के सामने परोसा जाता है
Thursday, October 28, 2010
Wednesday, October 27, 2010
एक बार की बात, चंद्रमा बोला अपनी माँ से
एक बार की बात, चंद्रमा बोला अपनी माँ से।
कुर्ता एक नाप का मेरी, माँ मुझको सिलवा दे।
नंगे तन बारहों मास मैं, यों ही घूमा करता।
गरमी, वर्षा, जाड़ा हरदम बड़े कष्ट से सहता।
माँ हँसकर बोली सिर पर रख हाथ चूमकर मुखड़ा।
बेटा, खूब समझती हूँ मैं तेरा सारा दुखड़ा।
लेकिन तू तो एक नाप में कभी नहीं रहता है।
पूरा कभी, कभी आधा बिल्कुल न कभी दिखता है।
आहा माँ, फिर तो हर दिन की मेरी नाप लिवा दे।
एक नहीं, पूरे पंद्रह तू कुरते मुझे सिला दे।
उठो लाल अब आँखें खोलो
उठो लाल अब आँखें खोलो
पानी लायी हूँ, मुँह धो लो
बीती रात कमल-दल फूले
उनके ऊपर भँवरे झूले
चिड़िया चहक उठीं पेड़ों पर
बहने लगी हवा अति सुन्दर
नभ में न्यारी लाली छाई
धरती ने प्यारी छवि पाई
भोर हुई सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया
ऐसा सुन्दर समय ना खोओ
मेरे प्यारे अब मत सोओ
पानी लायी हूँ, मुँह धो लो
बीती रात कमल-दल फूले
उनके ऊपर भँवरे झूले
चिड़िया चहक उठीं पेड़ों पर
बहने लगी हवा अति सुन्दर
नभ में न्यारी लाली छाई
धरती ने प्यारी छवि पाई
भोर हुई सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया
ऐसा सुन्दर समय ना खोओ
मेरे प्यारे अब मत सोओ
Monday, October 25, 2010
हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला
हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाडे में मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाडे का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाडे का
बच्चे की सुन बात कहा माता ने अरे सलोने
कुशल करे भगवान लगे मत तुझको जादू टोने
जाडे की तो बात ठीक है पर मै तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौडा कभी एक फुट मोटा
बडा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा
घटता बढता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पडता है
अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें?
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आयें?
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाडे में मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाडे का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाडे का
बच्चे की सुन बात कहा माता ने अरे सलोने
कुशल करे भगवान लगे मत तुझको जादू टोने
जाडे की तो बात ठीक है पर मै तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौडा कभी एक फुट मोटा
बडा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा
घटता बढता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पडता है
अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें?
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आयें?
Saturday, October 23, 2010
ओरहान वेली की कविता : मुफ्त की चीजों के लिए
तुर्की कवि ओरहान वेली (१९१४ - १९५०) की कुछ कविताओं के अनुवाद 'कबाड़ख़ाना' और 'कर्मनाशा' पर आप पहले भी पढ़ चुके हैं। ओरहान वेली एक ऐसा कवि जिसने मात्र ३६ वर्षों का लघु जीवन जिया ,एकाधिक बार बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुआ , कोमा में रहा और जब तक जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया , के काव्य संसार में उसकी एक कविता के जरिए एक बार और प्रविष्ट हुआ जाय। तो आइए देखते पढ़ते हैं यह कविता :
ओरहान वेली की कविता
मुफ्त की चीजों के लिए
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
हम जीते हैं
मुफ्त की चीजों के लिए-
हवा मुफ्त में मिल जाती है।
बादल भी मिल जाते हैं मुफ्त।
पहाड़ और खड्ड भी उपलब्ध हैं फोकट में
बारिश और कीचड़ मुफ्त
कार के बाहर की दुनिया मुफ्त
सिनेमाघरों के प्रवेशद्वार मुफ्त
दुकानों की खिड़कियाँ मुफ्त में झाँकने के वास्ते।
ऐसा नहीं है कि ब्रेड और पनीर मिल जाता है मुफ्त
लेकिन खारा पानी तो मिल ही जाता है मुफ्त में।
आजादी की कीमत होती है आपका जीवन
लेकिन गुलामी मिल जाती है मुफ्त में।
हम मुफ्त की चीजों के लिए
जिए जा रहे हैं
मुफ्त में।
Friday, October 22, 2010
बिलासपुर की दुर्गापूजा : मोबाइल से कुछ छवियाँ
इस बार की अष्टमी - नवमी बिलासपुर , छत्तीसगढ़ में बीती।दुर्गापूजा और झाँकियों को देखते - निहारते , खाते - पीते खूब मौज हुई और मोबाइल से खूब तस्वीरें खींची गईं।आइए कुछ देखते हैं :
मध्यनगरी चौक पर यम के दरबार की झाँकी..
दुर्गे - दुर्गति -नाशिनी
सी० एम०डी० कालेज परिसर में चाईनीज स्टाइल
या देवी..
तारबाहर नाका पर कंस्ट्रक्शन कालोनी का पूजा पंडाल
Tuesday, October 19, 2010
नाना ड्रिंकिंन व्हाइट रम एन नानी ड्रिंकिंन वाइन
चटनी संगीत का उद्भव दक्षिणी कैरिबियाई इलाक़े में हुआ था - सबसे पहले त्रिनिडाड एन्ड टोबैगो में १९वीं सदी में नौकरों और गुलामों के तौर बसाए गए भारतीय मजदूरों की सन्ततियों ने इसे विकसिन किया. पारम्परिक भोजपुरी लोकगितों और लोकप्रिय भारतीय फ़िल्मी गीतों से अपने लिए आवश्यक तत्व जुटाने वाले इस संगीत की शुरुआत का श्रेय सुन्दर पोपो को जाता है जिन्हें द किंग ऑफ़ चटनी के नाम से ख्याति प्राप्त है.
आधुनिक चटनी संगीतकारों की रचनाओं की लिरिक्स हिन्दी, भोजपुरी और अंग्रेज़ी में होती हैं जिन्हें ढोलक की भारतीय और कैरिबियाई सोका यानी सोल कैलिप्सो संगीत की तेज़ लयों पर सैट किया जाता है.
.
पहले चटनी संगीत ज़्यादातर महिलाएं गाया करती थीं और ये गीत धार्मिक विषयवस्तु पर आधारित हुआ करते थे. इधर के वर्षों में कई पुरुष गायकों ने इस विधा को अपनाया है.
आज के लोकप्रिय चटनी गायकों में रिक्की जय, रिचर्ड अली, राकेश यनकरण, देवानन्द गट्टू, निशा बेन्जामिन, हीरालाल रामपरताप और निस्संदेह सैम बूडराम हैं.
चटनी संगीत के बादशाह माने जाने वाले सुन्दर पोपो (४ नवम्बर १९४३-२ मई २०००) यानी सुनीलाल पोपो बहोरा ने १९७० में नाना एन्ड नानी शीर्षक गीत से इस विधा की बाक़ायदा शुरुआत की. आज सुनिए इसी क्लासिक को: नाना चले आगे आगे नानी गोइन बिहांइड ...
आधुनिक चटनी संगीतकारों की रचनाओं की लिरिक्स हिन्दी, भोजपुरी और अंग्रेज़ी में होती हैं जिन्हें ढोलक की भारतीय और कैरिबियाई सोका यानी सोल कैलिप्सो संगीत की तेज़ लयों पर सैट किया जाता है.
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पहले चटनी संगीत ज़्यादातर महिलाएं गाया करती थीं और ये गीत धार्मिक विषयवस्तु पर आधारित हुआ करते थे. इधर के वर्षों में कई पुरुष गायकों ने इस विधा को अपनाया है.
आज के लोकप्रिय चटनी गायकों में रिक्की जय, रिचर्ड अली, राकेश यनकरण, देवानन्द गट्टू, निशा बेन्जामिन, हीरालाल रामपरताप और निस्संदेह सैम बूडराम हैं.
चटनी संगीत के बादशाह माने जाने वाले सुन्दर पोपो (४ नवम्बर १९४३-२ मई २०००) यानी सुनीलाल पोपो बहोरा ने १९७० में नाना एन्ड नानी शीर्षक गीत से इस विधा की बाक़ायदा शुरुआत की. आज सुनिए इसी क्लासिक को: नाना चले आगे आगे नानी गोइन बिहांइड ...
Monday, October 18, 2010
सुनार तेरी सोना पे मेरी बिस्वास है
कैरेबियाई चटनी संगीत से और इस विधा के डॉयन माने जाने वाले सैम बूडराम से परिचय भाई विमल वर्मा के सौजन्य से हुआ था. उनके ब्लॉग ठुमरी पर इन साहब को पहली बार सुना तो मन खिल गया था. उसके बाद विमल भाई ने कबाड़ख़ाने पर भी उन्हें सुनवाया था. प्लेयर के चलना बन्द कर देने के बाद अब उन से सम्बन्धित पोस्ट्स पर उन्हें सुना नहीं जा सकता.
क्यों न सैम बूडराम के कुछ गाने लगातार यहां ट्यूब की मेहरबानी से पेश किए जाएं.
आज उनका गाया सुनार तेरी सोना पे मेरी बिस्वास है सुनिए.
इस गायन विधा पर रोज़ आपको कुछ दिलचस्प जानकारियां दूंगा.
यूट्यूब पर चल रहे तनिक बचकाने से ग्राफ़िक्स पर मत जाइएगा. मौज की ग्रान्टी.
क्यों न सैम बूडराम के कुछ गाने लगातार यहां ट्यूब की मेहरबानी से पेश किए जाएं.
आज उनका गाया सुनार तेरी सोना पे मेरी बिस्वास है सुनिए.
इस गायन विधा पर रोज़ आपको कुछ दिलचस्प जानकारियां दूंगा.
यूट्यूब पर चल रहे तनिक बचकाने से ग्राफ़िक्स पर मत जाइएगा. मौज की ग्रान्टी.
Sunday, October 17, 2010
दाल राइस भाजी का गाना
समकालीन कैरिबियन चटनी संगीत के प्रमुखतम नामों में एक देवानन्द गट्टू भौजाई से भोजन देने की अनुनय कर रहे हैं इस गीत में
(साभार यूट्यूब)
(साभार यूट्यूब)
Saturday, October 16, 2010
नदियों पार रांझण दा ठाणा, कीत्ते कौल ज़रूरी जाणा
Friday, October 15, 2010
किसे पड़ी है जो जा सुनाएं प्यारे पी को हमारी बतियां
अमीर ख़ुसरो की यह रचना मैंने अर्सा पहले छाया गांगुली की मख़मल आवाज़ में कभी कबाड़ख़ाना के सुनने-पढ़ने वालों के लिए प्रस्तुत की थी. आज उसी रचना को सुनिए उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान से. रचना के मूल पाठ के कई संस्करण उपलब्ध हैं. नीचे लिखे संस्करण को सबसे ज़्यादा प्रामाणिक माना जाता है. भावानुवाद ख़ाकसार ने किया है सो उसमें आई किसी भी तरह की त्रुटि के लिए मैं ज़िम्मेदार. नुसरत बाबा ने अपनी अद्वितीय शैली में रचना के बीच बीच में यहां-वहां से सूफ़ी साहित्य के जवाहरात जोड़े हैं:
ज़ेहाल-ए-मिस्किन मकुन तग़ाफ़ुल, दुराये नैना बनाए बतियां
कि ताब-ए-हिज्रां नदारम अय जां, न लेहो काहे लगाए छतियां
शबान-ए-हिज्रां दराज़ चो ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लस चो उम्र कोताह
सखी़ पिया को जो मैं ना देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां
चो शाम-ए-सोज़ां चो ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियां ब इश्क़ आं माह
ना नींद नैनां ना अंग चैना ना आप ही आवें ना भेजें पतियां
यकायक अज़ दिल बज़िद परेबम बबुर्द-ए-चश्मश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाएं प्यारे पी को हमारी बतियां
बहक़-ए-रोज़-ए-विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा फ़रेब खुसरो
सपेत मन के वराए राखो जो जाए पाऊं पिया की छतियां
(आंखें फ़ेरकर और कहानियां बना कर यूं मेरे दर्द की अनदेखी न कर
अब बरदाश्त की ताब नहीं रही मेरी जान! क्यों मुझे सीने से नहीं लगा लेता
विरह की रात ज़ुल्फ़ की तरह लम्बी, और मिलन का दिन जीवन की तरह छोटा
मैं अपने प्यारे को न देख पाऊं तो कैसे कटे यह रात
मोमबत्ती की फड़फड़ाती लौ की तरह मैं इश्क़ की आग में हैरान-परेशान फ़िरता हूं
न मेरी आंखों में नींद है, न देह को आराम, न तू आता है न कोई तेरा पैगाम
अचानक हज़ारों तरकीबें सूझ गईं मेरी आंखों को और मेरे दिल का क़रार जाता रहा
किसे पड़ी है जो जा कर मेरे पिया को मेरी बातें सुना आये
अपने प्रिय से मिलन के दिन के सम्मान में, जिसने मुझे इतने दिनों तक बांधे रखा है ए ख़ुसरो
जब भी मुझे उसके करीब आने का फिर मौक़ा मिलेगा मैं अपने दिल को नियन्त्रण में रखे रहूंगा)
Thursday, October 14, 2010
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
वीरेन डंगवाल की एक और कविता उनके दूसरे संग्रह दुष्चक्र में सृष्टा से:
तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरूं-गूं कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के हृदय का पानी है
तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीड़ा की कठिन अर्गला को तोड़ें कैसे!
तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरूं-गूं कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के हृदय का पानी है
तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीड़ा की कठिन अर्गला को तोड़ें कैसे!
कुछ कविता-टविता लिख दी तो हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
वीरेन डंगवाल की यह कविता, हो सकता है कबाड़ख़ाने पर पहले भी लगी हो. एक बार और सही:
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
वीरेन डंगवाल
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दी तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जीं हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफ़ोन की बग़ल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ
जो न होना था वही सब हुवाँ-हुवाँ
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ
तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं
हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :
" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी "
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन द्यो मज्जा परेसानी क्या है "
अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
वीरेन डंगवाल
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दी तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जीं हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफ़ोन की बग़ल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ
जो न होना था वही सब हुवाँ-हुवाँ
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ
तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं
हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :
" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी "
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन द्यो मज्जा परेसानी क्या है "
अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।
Tuesday, October 12, 2010
Monday, October 11, 2010
तस्वीर बोलेगी
तमाशा मेरे आगे
एक : नकली बत्तख असली पानी
नया जमाना नई कहानी
दो : बहुत दिनों तक चूल्हा रोया
तब जाकर कुछ ऐसा होया
तीन : तनी हुई रस्सी पर बचपन
आप क्या सोच रहे हैं श्रीमन?
आप क्या सोच रहे हैं श्रीमन?
चार : हरीतिमा के ऊपर सप्तरंग
किन्तु जीवन का दूसरा ढंग!
किन्तु जीवन का दूसरा ढंग!
Sunday, October 10, 2010
सच ही कहा है किसी 'कबी' ने
* आज एक बस के पीछे यह 'सायरी' लिखी देखी:
एक हाथ में बंदूक द्सरे में तमंचा देशी है।
चलो अब मार दो गोली यह तो परदेशी है।
इससे पहले कि उसकी फोटो ले पाता बस रानी तो बस दौड़ती चली गई और अपन गुबार देखते रह गए।
सच ही कहा है किसी 'कबी' ने :
परदेशियों से ना अँखियाँ मिलाना।
परदेशियों को है एक दिन जाना।
अजी आप कहाँ चले?
Saturday, October 9, 2010
Friday, October 8, 2010
लालटेन की तरह जलना
कबाड़ख़ाने के लिये यह एक्सक्लूसिव आलेख ताज़ातरीन कबाड़ी जनाब शिवप्रसाद जोशी ने लिख कर भेजा है. असद ज़ैदी के सम्पादन में निकले ’जलसा’ के पहले अंक में वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल के काव्यकर्म को लेकर छपी कृष्ण कल्पित की लंबी टिप्पणी पर आधारित इस ज़रूरी आलेख के लिए शिवप्रसाद जोशी का धन्यवाद.
संदर्भः मंगलेश डबराल की कविता और जीवन पर कृष्ण कल्पित
- शिवप्रसाद जोशी
महत्त्वपूर्ण रचनाकार पर लिखने का आखिर क्या तरीक़ा हो. वे औजार कौन से होंगे जिनसे एक रचनाकर्मी के व्यक्तित्व और कृतित्व की घुली मिली छानबीन की जा सके और उसमें ऐसी पारदर्शिता हो कि व्यक्तित्व अलग चमकता दिखे और कृतित्व की रोशनियां अलग झिलमिलाती रहें. इस तरह का गुंथा हुआ विश्लेषण जिसमें आकलनकर्ता की अपनी नज़दीकियां भी शामिल हो जाएं तो क्या कहने.
जलसा पत्रिका के पहले अंक में हिंदी कवि मंगलेश डबराल पर कृष्ण कल्पित की लंबी टिप्पणी इन संभावनाओं का परीक्षण करती है. कवि लेखक के बारे में लिखते हुए जो रुटीनी रवैया है वो उसकी कृतियों और रचनाओं को एक पांडित्यपूर्ण अंदाज़ में जांचने से शुरू होती है और कुछ भारी भरकम तुलनात्मक अध्ययनों के साथ पूरी हो जाती है. कृष्ण कल्पित ने आलोचना के क़िले में सेंध लगाई है. फिर किले की दीवारें खुरची हैं फिर ज़रा तोड़फोड़ मचाई है. लेखक के अध्ययन के उनके औजार ज़रा अटपटे और अभूतपूर्व हैं. आलोचना वहां सजी संवरी बनी ठनी नहीं है और कुछ भी सुनियोजित नहीं है. लेखक का जैसा जीवन वैसा उसका चित्रण.
आपको ध्यान होगा कुछ साल पहले कोलंबिया के महान उपन्यासकार ग्राबिएल गार्सिया मार्केज़ ने वहीं की पॉप स्टार शकीरा पर एक अद्भुत लेख गार्जियन के लिए लिखा था. हिंदी की दुनिया में इसका अनुवाद युवा कवि अनुवादक और कबाड़ख़ाना ब्लॉग के निर्माता अशोक पांडे ने पेश किया था. कल्पित ने लिखा है कि मंगलेश की कविता को समझने और उसकी तुलना के लिए विद्वान लोग लातिन कविता तक चले जाते हैं और कुछ कंकाल हड्डियां वहां ढूंढते हैं. लेकिन कृष्ण कल्पित के मंगलेश डबराल पर लिखे आलेख में मार्केज़ के जादू की कुछ छवियां दिख जाएं तो हैरानी की बात नहीं.
एक अनुशासन बरतना अलग बात है और खुद को वर्जनाओं से मुक्त कर लिखना दूसरी बात. ये दोनों साधने पड़ते हैं. शकीरा पर मार्केज़ के विवरण बहाव भरे रोमानी और शकीरा के व्यक्तित्व को बारीकी से समझने में मदद करने वाले हैं.
वहां एक बड़ा लेखक एक प्रसिद्ध पॉप स्टार पर लिख रहा है. यहां एक वरिष्ठ कवि के रचना जीवन के किनारे किनारे चल रहा बनता हुआ कवि है, उसे टुकुरटुकुर सावधानी से नोट करता हुआ. उसे कवि पर भी नज़र रखनी है और अपने रास्ते पर भी. वरना वो लड़खड़ा कर गिर सकता है.
कृष्ण कल्पित ने बड़ी ख़ूबी से ये संतुलन साधा है. वे खुद तो दौड़ते भागते चपल फ़ुर्तीले रहे हैं और उनके लेख में आए विवरणों में भी वही ऊर्जा और प्रवाह है और ऐसी रोमानी गतिशीलता है जैसे आप कोई संस्मरण या कोई आलोचनापरक लेख नहीं बल्कि किसी उपन्यास का एक प्रमुख अंश पढ़ रहे हैं. और काश कि वो ख़त्म न होता.
यहां कुछ ग्लानि है कुछ धिक्कार हैं कुछ याचना और कुछ लोभ हैं. उसमें सुंदर सजीले वाक्य और घटनाएं नहीं है. वो
बहुत ठेठ है एकदम सीधी बात. वहां तुलनाएं भी जैसे दबी छिपी नहीं रहतीं. कृष्ण कल्पित मंगलेश को रघुबीर सहाय के समांतर परखते हैं, श्रीकांत वर्मा के बरक्स, मुक्तिबोध, शमशेर के बरक्स. और भी कई कवि कल्पित के लेखन की कसौटी में मंगलेश के साथ परखे जाते हैं. फिर कल्पित अपन निर्णय करते हैं.
मज़े की बात है कि अपने निर्णयों और अपनी स्थापनाओं में कल्पित इतने विश्वस्त और मज़बूत हैं कि आप उनसे असहमत होने के लिए अगर किसी तर्क का सहारा लेंगे तो वो शायद कमतर ही ठहरेगा. ऐसा प्रामाणिक आकलन है ये. क्योंकि कृष्ण कल्पित ने लेखन और विचार की ऐसी प्रामाणिकता विकसित की है कि कोई गुंजायश ही नहीं छोड़ी है. वो कवि की कवि के साथ कोई संगत बैठा रहे होते हैं लेकिन इससे पहले वो कवि के जीवन की एक घटना का ब्यौरा ले आते हैं. फिर उस संगत को दोबारा देखते हैं. इस तरह मंगलेश डबराल एक एक कर अपने अग्रजों और अपने समकालीनों से अलग जा खड़े होते हैं.
कृष्ण कल्पित का ये टच एंड गो बड़े काम का है. आप घटना के आगे मूल्यांकन फिर मूल्यांकन के आगे घटना रखते जाते हैं और ऐसे दिलचस्प हतप्रभ करने वाले नतीजे निकलते रहते हैं कि आपको हैरानी होती है कि अरे इस कवि को भला इस ढंग से पहले क्यों नहीं देखा गया.
लेकिन ये निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि ऐसा लिखने के लिए कवि से आत्मीयता का कोई पड़ाव लेखक के पास हो. कृष्ण कल्पित के पास मंगलेश डबराल के बारे में लिखने की विश्वस्त सूचनाएं हैं. इसलिए भी उनके काम में चमक है. इसी से जुड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसा लिखना के लिए इन्हीं शर्तों पर खरा उतरना ज़रूरी है.
क्या कृष्ण कल्पित मिसाल के लिए मार्केज़ पर लिखेंगे तो वो ऐसा जीवंत आलेख नहीं होगा. ऐसा मानने की वजह इसलिए नहीं दिखती क्योंकि कृष्ण कल्पित भले ही मंगलेश को नज़दीक से जानते देखते रहे होंगे लेकिन उस देखे जाने को इस तरह अभिव्यक्त करने के लिए पैनी लेखन निगाह भी चाहिए. न सिर्फ़ पैनी, वो गहरी, संवेदनापूर्ण, विस्तारयुक्त खुली और शोधयुक्त भी होगी.
कृष्ण कल्पित का लेखन हिंदी गद्य में लालटेन की ठीक वैसी ही उपस्थिति के साथ प्रकट हुई है जैसा कि ख़ुद कल्पित ने अपने लेख में मंगलेश डबराल की कविता पहाड़ पर लालटेन के संदर्भ में एक जगह लिखा है.
मज़े की बात ये है कि ये लालटेन वहीं थी. हिंदी रचना संसार के बीहड़ों और घुमावदार चढ़ाइयों में जिन्हें गढ़वाल में उकाल कहा जाता है. उन उकालों की नोक पर ये लालटेन जलती रहती आई थी. हमेशा दीप्त. अपना ईंधन जुटाती हुई चुपचाप. उसका कांच नहीं चटखा. वो काला नहीं पड़ा बत्ती भस्म नहीं हुई और तेल भरा रहा. लौ कांपती डगमगाती रही और हिंदी में ऐसी लौ का क्या दिखना क्या न दिखना.
संस्मरणों का जो पुरानापन कृष्ण कल्पित लेकर आए हैं उनकी भाषा में और उनकी स्मृतियों और उनके नटखट अंदाज़ों में जो
कांपता लहराता आवेग है चंचलता है और ख़ुशी और मुश्किलें हैं वो उनके लेखन की लौ की तरह हैं.
वो मुश्किल वक़्तों में कवि बन रहे थे. लेखन और समझ की दीक्षा लेने की ज़िद में भटक रहे थे और ये इस संस्मरण की ख़ूबी है कि इसमें वो सरलता ईमानदारी और बेलागपन छूटा नहीं है. कृष्ण कल्पित ने मनमौजी तबीयत के साथ इसे लिखा है ऐसा जान पड़ता है लेकिन जैसा कि शुरू में कहा जा चुका है इसमें एक लालटेन की कांपती हुई लौ का धैर्य और हिम्मत और कष्ट भी हैं. इसमें वो रोशनी है और रिसता हुआ ख़ून भी है जो संस्मरण के चुटीले प्रसंगो से होता हुआ सफ़दर हाशमी की हत्या तक भी आता गुज़रता रहा है. ऐसा लेखन करने के लिए कृष्ण कल्पित को मुहावरे में ही कहें तो ख़ून की कीमत चुकानी पड़ी होगी.
वैसी सच्चाई और वैसा दृश्य और वैसी बेचैनियां अन्यथा नहीं आते. नहीं आ सकते.
अगर मार्केज़ के लेखन में अमरूदों की गंध है और मंगलेश के लेखन में सिगरेट की गंध बसी है तो कृष्ण कल्पित के मंगलेश संस्मरण में मिली जुली गंध हैं. सिगरेट अमरूद शराब पसीना अचार खिचड़ी की गंध.
कृष्ण कल्पित के इस लेख की ख़ूबी ये है कि इसी के भीतर वे भागते दौड़ते सांस फुलाते दम साधते रहते हैं वहीं उनका चश्मा गिर जाता है वहीं वो उसे उठाए फिर से भागने लगते हैं देखते रहते हैं देखते रहते हैं. ये एक विलक्षण करामात है कि एक कवि के सान्निध्य में कोई व्यक्ति उसे ऐसी बारीक़ी से नोट कर रहा है जो उसे नहीं मालूम की अगली सदी के एक दशक के आखिरी दिनों में एक किताब दिल्ली के पास एक कोने से निकलने वाली है और उसमें वो स्मृतियां जाने वाली हैं और हिंदी की दुनिया में लेखन की दुनिया में और लेखकों की दुनिया में एक ऐसी निराली खलबली आने वाली है जिसमें सब गोल गोल घूम रहे हैं और बस मज़ा आ रहा है. मज़ा भी कैसा विडंबना वाला है. एक साथ हंसिए एक साथ रोइए. चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों जैसा अनुभव. ये कल्पित की क़ामयाबी है. उन्होंने लगता है चैप्लिन के सिनेमाई मुहावरे को अपना एक प्रमुख औजार बनाया होगा इस संस्मरण पर काम शुरू करने से पहले.
कृष्ण कल्पित ने मंगलेश पर लिखते हुए अपने बनने के सवाल पर भी लिखा है. संगतकार तो वो रहे ही लेकिन संगतों की ऐसी असाधारण स्मृतियों का इस अंदाज़ में पुनर्प्रस्तुतिकरण तो विकट है. इस धैर्य के लिए इस श्रम के लिए इस निगाह के लिए तो कृष्ण कल्पित का भी अध्ययन होना चाहिए.
हिंदी में विवादप्रियता के माहौल के बीच क्या ये जोखिम नहीं है कि कृष्ण कल्पित ने इसी राइटिंग का सहारा लिया है और समकालीन हिंदी के संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कवि और हिंदी कविता की अंतरराष्ट्रीयता की शिखर पहचान वाले व्यक्तित्व पर लिख डाला है.
और विश्लेषण. कृष्ण कल्पित ने बेबाकी से बताया है कि मंगलेश डबराल की कविता में आख़िर ऐसी कौनसी चीज़ है जो उन्हें सबसे अलग करती है. अपने समकालीनों से भी अपने अग्रजों से भी और दुनिया के राइटरों से भी. उनके लेखन का ऐसा महत्त्व पहली बार बताया गया है और उसमें पूजा पाठ और यज्ञ अनुष्ठानी भाव नहीं है.
इस संस्मरण को एक ढोल की तरह देखें और उन नौबतों को देखें जो कृष्ण कल्पित ने अपनी स्मृतियों से रची हैं और फिर इस ढोल का बजना देखे. क्या किसी संस्मरण की किसी स्मृति की ऐसी गूंज आपने सुनी है.
कृष्ण कल्पित ने एक नई विधा इजाद कर दी है. अब इसे तोड़कर ही आगे बढ़ा जा सकता है. यानी इतनी तोड़फोड़ के बाद कृष्ण कल्पित ने नया यूं तो कुछ नहीं छोड़ा है लेकिन कौन जानता है आने वाले वक़्तों में कोई और किसी और नायाब तरीके से टूटे और चमके. ब्रह्मांड तो ये लगातार फैलता ही जाता है और कभी पकड़ में नहीं आता है.
संदर्भः मंगलेश डबराल की कविता और जीवन पर कृष्ण कल्पित
- शिवप्रसाद जोशी
महत्त्वपूर्ण रचनाकार पर लिखने का आखिर क्या तरीक़ा हो. वे औजार कौन से होंगे जिनसे एक रचनाकर्मी के व्यक्तित्व और कृतित्व की घुली मिली छानबीन की जा सके और उसमें ऐसी पारदर्शिता हो कि व्यक्तित्व अलग चमकता दिखे और कृतित्व की रोशनियां अलग झिलमिलाती रहें. इस तरह का गुंथा हुआ विश्लेषण जिसमें आकलनकर्ता की अपनी नज़दीकियां भी शामिल हो जाएं तो क्या कहने.
जलसा पत्रिका के पहले अंक में हिंदी कवि मंगलेश डबराल पर कृष्ण कल्पित की लंबी टिप्पणी इन संभावनाओं का परीक्षण करती है. कवि लेखक के बारे में लिखते हुए जो रुटीनी रवैया है वो उसकी कृतियों और रचनाओं को एक पांडित्यपूर्ण अंदाज़ में जांचने से शुरू होती है और कुछ भारी भरकम तुलनात्मक अध्ययनों के साथ पूरी हो जाती है. कृष्ण कल्पित ने आलोचना के क़िले में सेंध लगाई है. फिर किले की दीवारें खुरची हैं फिर ज़रा तोड़फोड़ मचाई है. लेखक के अध्ययन के उनके औजार ज़रा अटपटे और अभूतपूर्व हैं. आलोचना वहां सजी संवरी बनी ठनी नहीं है और कुछ भी सुनियोजित नहीं है. लेखक का जैसा जीवन वैसा उसका चित्रण.
आपको ध्यान होगा कुछ साल पहले कोलंबिया के महान उपन्यासकार ग्राबिएल गार्सिया मार्केज़ ने वहीं की पॉप स्टार शकीरा पर एक अद्भुत लेख गार्जियन के लिए लिखा था. हिंदी की दुनिया में इसका अनुवाद युवा कवि अनुवादक और कबाड़ख़ाना ब्लॉग के निर्माता अशोक पांडे ने पेश किया था. कल्पित ने लिखा है कि मंगलेश की कविता को समझने और उसकी तुलना के लिए विद्वान लोग लातिन कविता तक चले जाते हैं और कुछ कंकाल हड्डियां वहां ढूंढते हैं. लेकिन कृष्ण कल्पित के मंगलेश डबराल पर लिखे आलेख में मार्केज़ के जादू की कुछ छवियां दिख जाएं तो हैरानी की बात नहीं.
एक अनुशासन बरतना अलग बात है और खुद को वर्जनाओं से मुक्त कर लिखना दूसरी बात. ये दोनों साधने पड़ते हैं. शकीरा पर मार्केज़ के विवरण बहाव भरे रोमानी और शकीरा के व्यक्तित्व को बारीकी से समझने में मदद करने वाले हैं.
वहां एक बड़ा लेखक एक प्रसिद्ध पॉप स्टार पर लिख रहा है. यहां एक वरिष्ठ कवि के रचना जीवन के किनारे किनारे चल रहा बनता हुआ कवि है, उसे टुकुरटुकुर सावधानी से नोट करता हुआ. उसे कवि पर भी नज़र रखनी है और अपने रास्ते पर भी. वरना वो लड़खड़ा कर गिर सकता है.
कृष्ण कल्पित ने बड़ी ख़ूबी से ये संतुलन साधा है. वे खुद तो दौड़ते भागते चपल फ़ुर्तीले रहे हैं और उनके लेख में आए विवरणों में भी वही ऊर्जा और प्रवाह है और ऐसी रोमानी गतिशीलता है जैसे आप कोई संस्मरण या कोई आलोचनापरक लेख नहीं बल्कि किसी उपन्यास का एक प्रमुख अंश पढ़ रहे हैं. और काश कि वो ख़त्म न होता.
यहां कुछ ग्लानि है कुछ धिक्कार हैं कुछ याचना और कुछ लोभ हैं. उसमें सुंदर सजीले वाक्य और घटनाएं नहीं है. वो
बहुत ठेठ है एकदम सीधी बात. वहां तुलनाएं भी जैसे दबी छिपी नहीं रहतीं. कृष्ण कल्पित मंगलेश को रघुबीर सहाय के समांतर परखते हैं, श्रीकांत वर्मा के बरक्स, मुक्तिबोध, शमशेर के बरक्स. और भी कई कवि कल्पित के लेखन की कसौटी में मंगलेश के साथ परखे जाते हैं. फिर कल्पित अपन निर्णय करते हैं.
मज़े की बात है कि अपने निर्णयों और अपनी स्थापनाओं में कल्पित इतने विश्वस्त और मज़बूत हैं कि आप उनसे असहमत होने के लिए अगर किसी तर्क का सहारा लेंगे तो वो शायद कमतर ही ठहरेगा. ऐसा प्रामाणिक आकलन है ये. क्योंकि कृष्ण कल्पित ने लेखन और विचार की ऐसी प्रामाणिकता विकसित की है कि कोई गुंजायश ही नहीं छोड़ी है. वो कवि की कवि के साथ कोई संगत बैठा रहे होते हैं लेकिन इससे पहले वो कवि के जीवन की एक घटना का ब्यौरा ले आते हैं. फिर उस संगत को दोबारा देखते हैं. इस तरह मंगलेश डबराल एक एक कर अपने अग्रजों और अपने समकालीनों से अलग जा खड़े होते हैं.
कृष्ण कल्पित का ये टच एंड गो बड़े काम का है. आप घटना के आगे मूल्यांकन फिर मूल्यांकन के आगे घटना रखते जाते हैं और ऐसे दिलचस्प हतप्रभ करने वाले नतीजे निकलते रहते हैं कि आपको हैरानी होती है कि अरे इस कवि को भला इस ढंग से पहले क्यों नहीं देखा गया.
लेकिन ये निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि ऐसा लिखने के लिए कवि से आत्मीयता का कोई पड़ाव लेखक के पास हो. कृष्ण कल्पित के पास मंगलेश डबराल के बारे में लिखने की विश्वस्त सूचनाएं हैं. इसलिए भी उनके काम में चमक है. इसी से जुड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसा लिखना के लिए इन्हीं शर्तों पर खरा उतरना ज़रूरी है.
क्या कृष्ण कल्पित मिसाल के लिए मार्केज़ पर लिखेंगे तो वो ऐसा जीवंत आलेख नहीं होगा. ऐसा मानने की वजह इसलिए नहीं दिखती क्योंकि कृष्ण कल्पित भले ही मंगलेश को नज़दीक से जानते देखते रहे होंगे लेकिन उस देखे जाने को इस तरह अभिव्यक्त करने के लिए पैनी लेखन निगाह भी चाहिए. न सिर्फ़ पैनी, वो गहरी, संवेदनापूर्ण, विस्तारयुक्त खुली और शोधयुक्त भी होगी.
कृष्ण कल्पित का लेखन हिंदी गद्य में लालटेन की ठीक वैसी ही उपस्थिति के साथ प्रकट हुई है जैसा कि ख़ुद कल्पित ने अपने लेख में मंगलेश डबराल की कविता पहाड़ पर लालटेन के संदर्भ में एक जगह लिखा है.
मज़े की बात ये है कि ये लालटेन वहीं थी. हिंदी रचना संसार के बीहड़ों और घुमावदार चढ़ाइयों में जिन्हें गढ़वाल में उकाल कहा जाता है. उन उकालों की नोक पर ये लालटेन जलती रहती आई थी. हमेशा दीप्त. अपना ईंधन जुटाती हुई चुपचाप. उसका कांच नहीं चटखा. वो काला नहीं पड़ा बत्ती भस्म नहीं हुई और तेल भरा रहा. लौ कांपती डगमगाती रही और हिंदी में ऐसी लौ का क्या दिखना क्या न दिखना.
संस्मरणों का जो पुरानापन कृष्ण कल्पित लेकर आए हैं उनकी भाषा में और उनकी स्मृतियों और उनके नटखट अंदाज़ों में जो
कांपता लहराता आवेग है चंचलता है और ख़ुशी और मुश्किलें हैं वो उनके लेखन की लौ की तरह हैं.
वो मुश्किल वक़्तों में कवि बन रहे थे. लेखन और समझ की दीक्षा लेने की ज़िद में भटक रहे थे और ये इस संस्मरण की ख़ूबी है कि इसमें वो सरलता ईमानदारी और बेलागपन छूटा नहीं है. कृष्ण कल्पित ने मनमौजी तबीयत के साथ इसे लिखा है ऐसा जान पड़ता है लेकिन जैसा कि शुरू में कहा जा चुका है इसमें एक लालटेन की कांपती हुई लौ का धैर्य और हिम्मत और कष्ट भी हैं. इसमें वो रोशनी है और रिसता हुआ ख़ून भी है जो संस्मरण के चुटीले प्रसंगो से होता हुआ सफ़दर हाशमी की हत्या तक भी आता गुज़रता रहा है. ऐसा लेखन करने के लिए कृष्ण कल्पित को मुहावरे में ही कहें तो ख़ून की कीमत चुकानी पड़ी होगी.
वैसी सच्चाई और वैसा दृश्य और वैसी बेचैनियां अन्यथा नहीं आते. नहीं आ सकते.
अगर मार्केज़ के लेखन में अमरूदों की गंध है और मंगलेश के लेखन में सिगरेट की गंध बसी है तो कृष्ण कल्पित के मंगलेश संस्मरण में मिली जुली गंध हैं. सिगरेट अमरूद शराब पसीना अचार खिचड़ी की गंध.
कृष्ण कल्पित के इस लेख की ख़ूबी ये है कि इसी के भीतर वे भागते दौड़ते सांस फुलाते दम साधते रहते हैं वहीं उनका चश्मा गिर जाता है वहीं वो उसे उठाए फिर से भागने लगते हैं देखते रहते हैं देखते रहते हैं. ये एक विलक्षण करामात है कि एक कवि के सान्निध्य में कोई व्यक्ति उसे ऐसी बारीक़ी से नोट कर रहा है जो उसे नहीं मालूम की अगली सदी के एक दशक के आखिरी दिनों में एक किताब दिल्ली के पास एक कोने से निकलने वाली है और उसमें वो स्मृतियां जाने वाली हैं और हिंदी की दुनिया में लेखन की दुनिया में और लेखकों की दुनिया में एक ऐसी निराली खलबली आने वाली है जिसमें सब गोल गोल घूम रहे हैं और बस मज़ा आ रहा है. मज़ा भी कैसा विडंबना वाला है. एक साथ हंसिए एक साथ रोइए. चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों जैसा अनुभव. ये कल्पित की क़ामयाबी है. उन्होंने लगता है चैप्लिन के सिनेमाई मुहावरे को अपना एक प्रमुख औजार बनाया होगा इस संस्मरण पर काम शुरू करने से पहले.
कृष्ण कल्पित ने मंगलेश पर लिखते हुए अपने बनने के सवाल पर भी लिखा है. संगतकार तो वो रहे ही लेकिन संगतों की ऐसी असाधारण स्मृतियों का इस अंदाज़ में पुनर्प्रस्तुतिकरण तो विकट है. इस धैर्य के लिए इस श्रम के लिए इस निगाह के लिए तो कृष्ण कल्पित का भी अध्ययन होना चाहिए.
हिंदी में विवादप्रियता के माहौल के बीच क्या ये जोखिम नहीं है कि कृष्ण कल्पित ने इसी राइटिंग का सहारा लिया है और समकालीन हिंदी के संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कवि और हिंदी कविता की अंतरराष्ट्रीयता की शिखर पहचान वाले व्यक्तित्व पर लिख डाला है.
और विश्लेषण. कृष्ण कल्पित ने बेबाकी से बताया है कि मंगलेश डबराल की कविता में आख़िर ऐसी कौनसी चीज़ है जो उन्हें सबसे अलग करती है. अपने समकालीनों से भी अपने अग्रजों से भी और दुनिया के राइटरों से भी. उनके लेखन का ऐसा महत्त्व पहली बार बताया गया है और उसमें पूजा पाठ और यज्ञ अनुष्ठानी भाव नहीं है.
इस संस्मरण को एक ढोल की तरह देखें और उन नौबतों को देखें जो कृष्ण कल्पित ने अपनी स्मृतियों से रची हैं और फिर इस ढोल का बजना देखे. क्या किसी संस्मरण की किसी स्मृति की ऐसी गूंज आपने सुनी है.
कृष्ण कल्पित ने एक नई विधा इजाद कर दी है. अब इसे तोड़कर ही आगे बढ़ा जा सकता है. यानी इतनी तोड़फोड़ के बाद कृष्ण कल्पित ने नया यूं तो कुछ नहीं छोड़ा है लेकिन कौन जानता है आने वाले वक़्तों में कोई और किसी और नायाब तरीके से टूटे और चमके. ब्रह्मांड तो ये लगातार फैलता ही जाता है और कभी पकड़ में नहीं आता है.
नैहरवा हमका न भावै
पिछले लम्बे समय से आप ने पण्डित कुमार गन्धर्व की कई रचनाएं सुनीं हैं.
आज पुनः उन्हीं का गाया कबीरदास जी एक और भजन:
आज पुनः उन्हीं का गाया कबीरदास जी एक और भजन:
Thursday, October 7, 2010
जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
'ख़ातिर' ग़ज़नवी (1925 - 2008) बड़े शायरों में गिने जाते हैं. एक शायर होने अलावा वे शोधार्थी, कॉलमनिस्ट, शिक्षाविद भी थे. 'ख़ातिर' ग़ज़नवी प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसियेशन इन पाकिस्तान के उपाध्यक्ष भी रहे.
पचास से भी ऊपर किताबें लिख चुके 'ख़ातिर' ग़ज़नवी ने ऑल इन्डिया रेडियो और बाद में रेडियो पाकिस्तान में बतौर प्रोड्यूसर भी बहुत नाम कमाया. ख़ातिर साहब का असली नाम इब्राहीम था और वे चीनी, अंग्रेज़ी, उर्दू और मलय भाषाओं के गहरे जानकार माने जाते थे. यह बात अलहदा है कि उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति बतौर शायर ही मिली.
भारत में ग़ज़ल सुनने-सुनाने वालों को ग़ुलाम अली की गाई उनकी "कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में, बन्दे भी हो गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में" अच्छे से याद होगी.
गज़ल के बादशाह ख़ान साहेब मेहदी हसन सुना रहे हैं उन्हीं की एक छोटी बहर की गज़ल. उस्ताद बेतरह बीमार हैं और ग़ुरबत में भी. हम सिर्फ़ उनकी कुशल की कामना भर कर सकते हैं.
जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
ढलते ढलते रात ढली
उन आंखों ने लूट के भी
अपने ऊपर बात न ली
शम्अ का अन्जाम न पूछ
परवानों के साथ जली
अब भी वो दूर रहे
अब के भी बरसात चली
'ख़ातिर' ये है बाज़ी-ए-दिल
इसमें जीत से मात भली
*डाउनलोड यहां से करें: जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली है
बगल का फूल तोड़े जाने के बाद पत्ते-सा श्रीहीन...
कल आपने हरिश्चन्द्र पाण्डे जी की एक कविता पढ़ी थी. उसी क्रम में आज पढ़िये एक और मर्मस्पर्शी कविता:
भाई-बहन
भाई की शादी में ये फुर्र-फुर्र नाचती बहनें
जैसे सारी कायनात फूलों से लद गई हो
हवा में तैर रही हैं हँसी की अनगिनत लड़ियाँ
केशर की क्यारियाँ महक रही हैं
याद आ गई वह बहन
जो होती तो सारी दिशाओं को नचाती अपने साथ
जिसका पता नहीं चला
गंगा समेत सारी गहराईयाँ छानने के बाद भी...
और बहन की शादी में यह भाई
भीतर-भीतर पुलकता
मगर मेंड़ पर संभलता, चलता-सा भी
कुछ-कुछ निर्भार
मगर बगल का फूल तोड़े जाने के बाद पत्ते-सा
श्रीहीन...
भाई-बहन
भाई की शादी में ये फुर्र-फुर्र नाचती बहनें
जैसे सारी कायनात फूलों से लद गई हो
हवा में तैर रही हैं हँसी की अनगिनत लड़ियाँ
केशर की क्यारियाँ महक रही हैं
याद आ गई वह बहन
जो होती तो सारी दिशाओं को नचाती अपने साथ
जिसका पता नहीं चला
गंगा समेत सारी गहराईयाँ छानने के बाद भी...
और बहन की शादी में यह भाई
भीतर-भीतर पुलकता
मगर मेंड़ पर संभलता, चलता-सा भी
कुछ-कुछ निर्भार
मगर बगल का फूल तोड़े जाने के बाद पत्ते-सा
श्रीहीन...
Wednesday, October 6, 2010
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
कई वजहों से यह कविता मुझे अब भी बहुत बहुत प्रिय है. इसे ख़ुद बाबा त्रिलोचन के मुंह से नैनीताल में सुना था कोई अट्ठारह साल पहले. यहां कबाड़ख़ाने में लगाने की इच्छा हुई.
चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
– त्रिलोचन
चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं.
चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करेती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ – अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है
उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ुंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ुंगी
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो , देखा ,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दुंगी
कलकत्ता पर बजर गिरे।
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना और दुर्नीति को नीति
कवि हरिश्चन्द्र पाण्डे जी से कबाड़ख़ाना के पाठक भली भांति परिचित हैं. उनकी एक कविता प्रस्तुत है :
किसान और आत्महत्या
उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।
(फ़ोटो http://thewordforworldisforest.wordpress.com/ से साभार)
किसान और आत्महत्या
उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।
(फ़ोटो http://thewordforworldisforest.wordpress.com/ से साभार)
Tuesday, October 5, 2010
चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊँगा तुम्हारे लिए
एक और कविता चन्द्रकान्त देवताले जी की
मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए
मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने भर के करिश्मे से
कुछ तो है तुम्हारे भीतर
जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम सितार सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में
अपने असंभव आकाश में
तुम आजाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज की परछाई के साथ
जो लगभग गूंगा है
और मैं कविता के बन्दरगाह पर खड़ा
आँखे खोल रहा हूँ गहरी धुंध में
लगता है काल्पनिक खुशी का भी
अन्त हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहाँ दुःख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटे मार रहा हूँ
हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद
जो भी हो
मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए
और वसन्त के पूरे समय
वसन्त को रूई की तरह धुनकता रहूँगा
तुम्हारे लिए
(चित्र: समकालीन अमेरिकी चित्रकार डार्लीन कीफ़ की पेन्टिंग: गिटार)
मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए
मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने भर के करिश्मे से
कुछ तो है तुम्हारे भीतर
जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम सितार सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में
अपने असंभव आकाश में
तुम आजाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज की परछाई के साथ
जो लगभग गूंगा है
और मैं कविता के बन्दरगाह पर खड़ा
आँखे खोल रहा हूँ गहरी धुंध में
लगता है काल्पनिक खुशी का भी
अन्त हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहाँ दुःख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटे मार रहा हूँ
हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद
जो भी हो
मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए
और वसन्त के पूरे समय
वसन्त को रूई की तरह धुनकता रहूँगा
तुम्हारे लिए
(चित्र: समकालीन अमेरिकी चित्रकार डार्लीन कीफ़ की पेन्टिंग: गिटार)
Monday, October 4, 2010
झीनी रंग झीनी
वसुन्धरा कोमकली जी को कुमार गन्धर्व जी की अर्द्धांगिनी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. सम्भवतः वे कुमार जी की सबसे बड़ी प्रेरणा थीं. स्वयं एक सिद्ध गायिका होने के बावजूद वे हमेशा पार्श्व में रहीं.
शुद्ध देस में उनकी गाई एक रचना प्रस्तुत है - झीनी रंग झीनी.
(फ़ोटो : वसुन्धरा जी अपनी पुत्री कलापिनी कोमकली के साथ. कलापिनी भी सिद्धहस्त गायिका हैं.जल्द ही आप को यहीं सुनवाता हूं उनकी गायकी)
यदि मुझे औरतों के बारे में कुछ कहना हो तो मैं तुम्हें ही पाऊँगा अपने भीतर
आज प्रिय कवि चन्द्रकान्त देवताले जी की एक कविता:
तुम वहाँ भी होगी
अगर मुझे औरतों के बारे में
कुछ पूछना हो तो मैं तुम्हें ही चुनूंगा
तहकीकात के लिए
यदि मुझे औरतों के बारे में
कुछ कहना हो तो मैं तुम्हें ही पाऊँगा अपने भीतर
जिसे कहता रहूँगा बाहर शब्दों में
जो अपर्याप्त साबित होंगे हमेशा
यदि मुझे किसी औरत का कत्ल करने की
सजा दी जाएगी तो तुम ही होगी यह सजा देने वाली
और मैं खुद की गरदन काट कर रख दूँगा तुम्हारे सामने
और यह भी मुमकिन है
कि मुझे खन्दक या खाई में कूदने को कहा जाए
मरने के लिए
तब तुम ही होंगी जिसमें कूद कर
निकल जाऊँगा सुरक्षित दूसरी दुनिया में
और तुम वहाँ भी होंगी विहँसते हुए
मुझे क्षमा करने के लिए
(चित्र वान गॉग का)
तुम वहाँ भी होगी
अगर मुझे औरतों के बारे में
कुछ पूछना हो तो मैं तुम्हें ही चुनूंगा
तहकीकात के लिए
यदि मुझे औरतों के बारे में
कुछ कहना हो तो मैं तुम्हें ही पाऊँगा अपने भीतर
जिसे कहता रहूँगा बाहर शब्दों में
जो अपर्याप्त साबित होंगे हमेशा
यदि मुझे किसी औरत का कत्ल करने की
सजा दी जाएगी तो तुम ही होगी यह सजा देने वाली
और मैं खुद की गरदन काट कर रख दूँगा तुम्हारे सामने
और यह भी मुमकिन है
कि मुझे खन्दक या खाई में कूदने को कहा जाए
मरने के लिए
तब तुम ही होंगी जिसमें कूद कर
निकल जाऊँगा सुरक्षित दूसरी दुनिया में
और तुम वहाँ भी होंगी विहँसते हुए
मुझे क्षमा करने के लिए
(चित्र वान गॉग का)
Sunday, October 3, 2010
बोर्हेस ने कहा
"जीवन अपने आप में स्वयं एक उद्धरण है" कहने वाले अर्जेन्टीनी कवि-निबन्धकार-चिन्तक होर्हे लुईस बोर्हेस (२४ अगस्त १८९९ – १४ जून १९८६) अपने सम्मोहक जुमलों के लिए ख़ासे विख्यात हैं.
अफ़सोस उनकी लिखी मेरी एक प्रिय किताब "डॉक्टर ब्रॉडी’ज़ क्लीनिक" इधर दो एक महीना भर पहले कोई मेरे घर से पार कर ले गया, वरना आपको "याहू" से मिलवाता.
उनके दो-तीन उद्धरण पेश हैं:
१. "लोकतन्त्र माने आंकड़ों का दुरुपयोग."
२. "मैंने हमेशा कल्पना की है कि स्वर्ग एक तरह का पुस्तकालय होना चाहिये."
३. "आम तौर पर हर मुल्क़ के पास वही भाषा होती है जिसका वह हक़दार होता है."
Saturday, October 2, 2010
रख लो मेरा पासपोर्ट !
महमूद दरवेश की एक और कविता पेश है
पासपोर्ट
उन्होंने नहीं पहचाना मुझे मेरी परछाइयों में
जो चूस लेती हैं इस पासपोर्ट से मेरा रंग
और उनके लिए मेरा घाव प्रदर्शनी में धरी एक चीज़ था
फ़ोटोग्राफ़ इकठ्ठा करने के शौकीन एक पर्यटक की तरह
उन्होंने मुझे नहीं पहचाना,
आह ... यहां से जाओ नहीं
बिना सूरज की मेरी हथेली
क्योंकि पेड़ मुझे पहचानते हैं
मुझे यूं ज़र्द चन्द्रमा की तरह छोड़ कर मत जाओ!
तमाम परिन्दे जिन्होंने पीछा किया मेरी हथेली का
सुदूर हवाई अड्डे के दरवाज़े पर
गेहूं के सारे खेत
सारी कारागारें
सारे सफ़ेद मकबरे
कांटेदार बाड़ वाली सारी सरहदें
लहराए जाते सारे रूमाल
सारी आंखें
सारे के सारे मेरे साथ थे,
लेकिन वे अलग हो गए मेरे पासपोर्ट से.
छिन गया मेरा नाम और मेरी पहचान?
उस धरती पर जिसे मैंने अपने हाथों से पोसा था?
हवा को भरता
आज जॉब चिल्लाकर बोला:
अब से मुझे किसी मिसाल की तरह मत बनाना !
अरे भले लोगो, फ़रिश्तो.
पेड़ों से उनका नाम न पूछो
घाटियों से मत पूछो उनकी मां कौन है
मेरे माथे से फट पड़ता है रोशनी का एक चरागाह
और मेरे हाथ से निकलता है एक नदी का जल
दुनिया के सारे लोगों का हृदय है मेरी पहचान
सो रख लो मेरा पासपोर्ट !
* जॉब: हिब्रू गाथाओं के मुताबिक जॉब उज़ नामक स्थान का निवासी था. दुर्भाग्यवश शैतान ने जॉब से ऐसे प्रश्न पूछे जिन्होंने आगे जाकर पाप शब्द की व्याख्या में समाहित हो जाना था.
पासपोर्ट
उन्होंने नहीं पहचाना मुझे मेरी परछाइयों में
जो चूस लेती हैं इस पासपोर्ट से मेरा रंग
और उनके लिए मेरा घाव प्रदर्शनी में धरी एक चीज़ था
फ़ोटोग्राफ़ इकठ्ठा करने के शौकीन एक पर्यटक की तरह
उन्होंने मुझे नहीं पहचाना,
आह ... यहां से जाओ नहीं
बिना सूरज की मेरी हथेली
क्योंकि पेड़ मुझे पहचानते हैं
मुझे यूं ज़र्द चन्द्रमा की तरह छोड़ कर मत जाओ!
तमाम परिन्दे जिन्होंने पीछा किया मेरी हथेली का
सुदूर हवाई अड्डे के दरवाज़े पर
गेहूं के सारे खेत
सारी कारागारें
सारे सफ़ेद मकबरे
कांटेदार बाड़ वाली सारी सरहदें
लहराए जाते सारे रूमाल
सारी आंखें
सारे के सारे मेरे साथ थे,
लेकिन वे अलग हो गए मेरे पासपोर्ट से.
छिन गया मेरा नाम और मेरी पहचान?
उस धरती पर जिसे मैंने अपने हाथों से पोसा था?
हवा को भरता
आज जॉब चिल्लाकर बोला:
अब से मुझे किसी मिसाल की तरह मत बनाना !
अरे भले लोगो, फ़रिश्तो.
पेड़ों से उनका नाम न पूछो
घाटियों से मत पूछो उनकी मां कौन है
मेरे माथे से फट पड़ता है रोशनी का एक चरागाह
और मेरे हाथ से निकलता है एक नदी का जल
दुनिया के सारे लोगों का हृदय है मेरी पहचान
सो रख लो मेरा पासपोर्ट !
* जॉब: हिब्रू गाथाओं के मुताबिक जॉब उज़ नामक स्थान का निवासी था. दुर्भाग्यवश शैतान ने जॉब से ऐसे प्रश्न पूछे जिन्होंने आगे जाकर पाप शब्द की व्याख्या में समाहित हो जाना था.
Friday, October 1, 2010
महमूद दरवेश से डालिया कार्पेल की बातचीत - 4
एक "विनम्र कवि" की वापसी - 4
* क्या एक ऐसी स्थिति आ सकती है कि आप स्वयं को राजनीति से सम्बद्ध कर लें. जैसा मिसाल के लिए वाक्लाव हैवेल ने किया था?
" हैवेल एक अच्छे राष्ट्रपति ज़रूर हो सकते हैं लेकिन उन्हें एक असाधारण लेखक नहीं माना जाता. मैं राजनीति करने से कहीं बेहतर लेखन करता हूं."
* क्या आप हमारे साथ यह साझा करना चाहेंगे कि आप कवितापाठ कार्यक्रम के दौरान क्या कहने का इरादा रखते हैं?
" मैं इस बारे में बात करना चाहता हूं कि मैं कारमेल से किस तरह नीचे उतरा और कैसे मैं ऊपर जा रहा हूं और मैं अपने आप से पूछता हूं कि मैं उतरा ही क्यों?"
* क्या आप को १९७० में छोड़कर चले जाने का पछतावा नहीं होता जब आप कम्यूनिस्ट युवा प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य बनकर मिश्र गए और कभी लौटे नहीं?
"कभी कभी समय बुद्धिमत्ता पैदा कर देता है. मुझे विडम्बना शब्द के अर्थ में इतिहास सिखाया गया था. मैं यह सवाल हमेशा पूछता हूं: क्या मुझे १९७० में छोड़ कर चले जाना का पछतावा है? मैं इस नतीज़े पर पहुंचा हूं कि इसका उत्तर महत्वपूर्ण नहीं है. हो सकता है कि यह सवाल ज़्यादा महत्वपूर्ण हो कि मैं माउन्ट कारमेल से नीचे क्यों उतरा.
* आप नीचे उतरे ही क्यों?
" ताकि मैं सैंतीस साल बाद वापस लौट सकूं. यह ऐसा कहना है कि मैं १९७० में कारमेल से नीचे नहीं उतरा था और २००७ में वापस नहीं लौटा. यह सब एक उपमा है. अगर इस पल मैं रामल्ला में हूं और अगले हफ़्ते कारमेल में और याद करूं कि मैं पिछले करीब चालीस सालों से वहां नहीं रहा हूं, चक्र पूरा हो चुका होता है और इतने सालों की यात्रा एक उपमा भर रह जाएगी. चलिए पाठकों को डराना बन्द किया जाए. मैं वापसी के अधिकार की अनुभूति करने का इरादा नहीं रखता.
* और अगर एक तारामण्डल होता जो आपको गैलिली, और हाइफ़ा और अपने परिवार तक वापस लौटने में समर्थ बना सके तो?
" आप लोग उन शक्तिशाली भावनाओं के गवाह रह चुके हैं जब छब्बीस सालों की अनुपस्थिति के बाद, १९९६ में मैं पहली बार लौटा था, और मुझे एमिली हबीबी (अब मृत हाइफ़ा-निवासी लेखक) के जीवन के बारे में बन रही एक फ़िल्म के एक हिस्से के सिलसिले में उनसे मिलना था. मैं बहुत भावुक हो गया था, मैं रोया भी और मैं इज़राइल में ही रहना चाहता था. लेकिन आप आज पूछ रहे हैं, जब मैं अपने इज़राइली आइडैटिटी कार्ड को इज़राइली कार्ड से बदलना नहीं चाहता. इस से मुझे बहुत शर्म आएगी. आज प्रासंगिक बात यह है कि इन सालों में मैंने क्या किया. मैंने बेहतर लिखा, मैं विकसित हुआ, मैंने तरक्की की और साहित्यिक दृष्टिकोण से मैंने अपने देश को लाभ पहुंचाया.
* कुछ लोग इस टाइमिंग की आलोचना कर रहे हैं जब इस माह आपने अपना कवितापाठ करने का फ़ैसला लिया ख़ासतौर पर राजनैतिक स्थिति और हालिया आज़मी बिशरा मामले को देखते हुए.
" हम जीवित थे और मुझे नहीं मालूम क्या सही है और क्या नहीं. हमारा समय और हमारी टाइमिंग दो अलग-अलग चीज़ें हैं. यहां मैं पहली बार नहीं आ रहा हूं. मैं १९९६ में यहां आया था जब मैंने हबीबी के अन्तिम संस्कार के समय एक क़सीदा पढ़ा था, मैं २००० में भी यहां था जब मैंने नाज़रेथ में अपनी कविताएं पढ़ी थीं, और मैंने एक स्कूली कार्यक्रम में और फिर कफ़्र यासिफ़ में भी हिस्सा लिया था. मैं राजनैतिक दलों के आपसी संघर्षों में हिस्सा नहीं ले सकता. मैं इज़राइल में समूची अरब जनता का मेहमान हूं और इस्लामिक आन्दोलन या हदश या बलाद में फ़र्क़ नहीं करता. मैं उन सब का कवि हूं. मुझे यह भी नहीं भूलना चाहुये कि बहुत सारे कविगण हैं तो मुझ से नफ़रत करते हैं और उन लोगों के भी नफ़रत विराजमान है जो अपने को कवि कहा करते हैं. ईर्ष्या एक मानवीय भावना है, लेकिन जब वह नफ़रत में बदल जाती है तो वह कोई और ही चीज़ हो जाती है. ऐसे लोग हैं जो मुझे एक साहित्यिक समस्या के तौर पर देखते हैं, लेकिन मैं उन्हें उन बच्चों की तरह देखता हूं जो अपने आध्यात्मिक पिता के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दिया करते हैं. उनके पास मेरी हत्या करने का अधिकार है, लेकिन उन्होंने मेरी हत्या एक ऊंचे स्तर पर करना चाहिये - लिखित शब्द में."
* क्या आपके यहूदी-इज़राइली बुद्धिजीवियों के साथ सम्बन्ध हैं?
" मैं कवि यित्ज़ाक लाओर और इतिहासविद अमनोन राज-क्राकोत्ज़िन के सम्पर्क में हूं. मैंने पिछल्र बीस बरसों में कम हिब्रू पढ़ी है, लेकिन मैं कई सारे इज़राइली लेखकों में दिलचस्पी रखता हूं."
* क्या आप को इस बात से झेंप मिश्रित ख़ुशी नहीं होती कि सात साल पहले योस्सी सरीद ने, जो तत्कालीन शिक्षा मन्त्री थे, आपकी कविताओं को पाठ्यक्रमों में शामिल करने की कोशिश की थी जिसका परिणाम यह हुआ था कि कुछ दक्षिणपन्थियों ने गठबन्धन को तोड़ देने की धमकी दी थी.
"मुझे इस बात में कतई दिलचस्पी नहीं कि मेरी कविताएं साहित्यिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाई जाएं. जब सरकार में अविश्वास प्रस्ताव आया था, मख़ौल बनाते हुए मैंने पूछा था कि इज़राइली गौरव कहां है - आप किसी सरकार को किसी फ़िलिस्तीनी कवि की वजह से कैसे गिरा सकते हैं, जब कि ऐसा करने के लिए आप के पास बाकी कारण मौजूद हैं? मेरी यह भी दिलचस्पी नहीं कि मेरी कविताएं अरब स्कूलों में पढ़ाई जाएं. मैं दर असल पाठ्यक्रमों में अपने होने को पसन्द नहीं करता, क्योंकि आमतौर पर विद्यार्थी उस साहित्य से नफ़रत करते हैं जिसे उन पर थोपा जाता है.
* आपका घर कहां है?
"मेरा कोई घर नहीं है. मैं इतनी बार घर बदल चुका हूं कि उस गहरे अर्थ में मेरा कोई घर नहीं. घर वहां होता है जहां मैं सोता, पढ़ता और लिखता हूं, और वह कहीं भी हो सकता है. मैं अब तक बीस घरों में रह चुका हूं, और मैंने हर बार अपनी दवाइयां, कपड़े और किताबें पिछले घरों में छोड़ दीं. मैं भाग जाया करता हूं.
* सिहाम दाऊद के आर्काइव में पाण्डुलिपियां, कविताएं और चिठ्ठियां हैं जिन्हें आप १९७० में छोड़ गए थे.
" मुझे नहीं पता था कि मैं नहीं लौटूंगा. मैंने सोचा था कि मैं न लौटने की कोशिश करूंगा. ऐसा नहीं है कि मैंने स्वतन्त्रतापूर्वक अपना डायास्पोरा चुना हो. दस सालों तक मुझ पर हाइफ़ा से बाहर निकलने पर पाबन्दी थी, और तीन सालों के लिए मैं नज़रबन्द रहा. मुझे किसी एक ख़ास घर के लिए ऐसी उत्कंठा नहीं है. आख़िर घर केवल इकठ्ठा की हुई चीज़ें भर नहीं होता. घर एक जगह होती है - एक वातावरण. मेरा कोई घर नहीं है.
" सभी कुछ एक सा दिखाई पड़ता है: रामल्ला अम्मान जैसा है और पेरिस जैसा भी. सम्भवतः ऐसा इसलिए है कि मुझे इच्छाओं से साथ पाला-पोसा गया था, और अब इच्छाएं करना मुझ पर जंचता नहीं, और हो सकता है मेरी भावनाएं बासी पड़ चुकी हों. सम्हव है कि तर्क ने भावनाओं को फ़तह कर लिया हो और विडम्बना सघन बन गई हो. मैं वही व्यक्ति नहीं रहा हूं."
* क्या यही वजह है कि आपने कभी एक परिवार नहीं बनाया?
"मेरे दोस्त मुझे याद दिलाया करते हैं कि मैंने दो दफ़ा विवाह किया था, लेकिन गहरे अर्थों में मुझे उसकी याद नहीं है. मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं कि मेरा कोई बच्चा नहीं है. हो सकता है वह भला न निकलता, अटपटा सा होता. मुझे पता नहीं क्यों लेकिन इस बात का डर लगता है कि वह ठीकठाक नहीं निकलता. लेकिन इतना मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मुझे इस बात का कोई अफ़सोस नहीं है."
* तब आप को किस बात का अफ़सोस होता है??
" कि मैंने छोटी उम्र में कविताएं छपवाईं, औत्र ख़राब कविताएं. मुझे शब्दों को नुकसान पहुंचाने का अफ़सोस होता है जब कभी मैंने किसी से तीखे या असभ्य शब्दों में बात की हो. सम्भवतः मैं कुछ स्मृतियों के प्रति वफ़ादार नहीं था. लेकिन मैंने कोई अपराध नहीं किया.
* क्या आपको अपना एकाकीपन पसन्द आता है?
" काफ़ी. जब मुझे किसी डिनर पर जाना होता है तो मुझे अहसास होता है कि मुझे सज़ा दी जा रही है. हाल के सालों में मुझे अकेला रहना पसन्द आने लगा है. मुझे लोग तब चाहिये होते हैं जब मुझे उनकी ज़रूरत होती है. आप मुझे बताइये, शायद यह स्वार्थीपन हो लेकि मेरे पांच या छः दोस्त हैं, जो बहुत सारे माने जाने चाहिये. मेरी हज़ारों लोगों से पहचान है लेकिन वह कुछ मदद नहीं करती.
* बचपन की अपनी पुरानी कविताओं में से जिनके पास लौटना आज आपको मुश्किल लगता है, क्या आप मां की कॉफ़ी के बारे में लिखी कविता को भी शामिल करते हैं?
" वह कविता मैंने म’असियाहू की जेल में लिखी थी. मुझे येरूशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में काव्यपाठ के लिए बुलाया गया था और मैं हाइफ़ा में रह रहा था और मैंने सहमति दे दी [यानी यात्रा करने की सहमति; यह समय था जब इज़राइल की अरब जनसंख्या को मार्शल लॉ का सामना करना पड़ रहा था.], लेकिन मुझे वहां से कोई उत्तर नहीं मिला. मैं रेल से गया - क्या वह रेल अब भी चलती है? अगले दिन मुझे नाज़रेथ के पुलिस स्टेशन में बुलाया गया और मुझे चार माह की निलम्बित सज़ा सुनाई गई - और दो महीने की अतिरिक्त सज़ा म’असियाहू की जेल में, और वहां एस्कॉट सिगरेट के एक पीले डिब्बे पर, जिस पर एक ऊंट की तस्वीर हुआ करती थी, मैंने वह कविता लिखी जिसे लेबनानी संगीतकार मार्सेल ख़लीफ़े ने एक गीत में ढाला. इसे मेरी सबसे सुन्दर कविता माना जाता है और मैं हाइफ़ा में इसे पढ़ने जा रहा हूं."
* क्या आप बिरवा भी जाएंगे, उस गांव में जहां आपका जन्म हुआ था?
" नहीं. आज इसे यासूर कहा जाता है (एक सामूहिक बस्ती). मैं उन्हीं स्मृतियों को बचाए रखना चाहूंगा जो आज भी खुली जगहों, तरबूज़ों, जैतून और बादाम के पेड़ों में बसती हैं. मुझे उस घोड़े की याद है जिसे एक बरामदे में शहतूत के पेड़ पर बांधा गया था. मैं उस पर चढा और उसने मुझे नीचे फेंक दिया - मेरी मां ने मेरी पिटाई की थी. वह मुझे हमेशा पीटा करती थी, क्योंकि उसे लगता था कि मैं एक वाक़ई बदमाश लड़का हूं. असल में मुझे उतना शरारती होने की याद नहीं है."
" मुझे तितलियों की याद है और यह भी कि सब कुछ खुला खुला था. गांव एक पहाड़ी पर था और बाकी सारा नीचे पसरा रहता था. एक दिन मुझे जगाकर बताया गया कि हमें भागना है. युद्ध या ख़तरे की बाबत किसी ने कुछ नहीं कहा. हम लोग लेबनान पैदल चले, मैं और मेरे तीन भाई-बहन, सबसे छोटा अभी शिशु ही था और वह रास्ते भर रोता रहा था."
* क्या आपका लेखन एक कर्तव्यात्मक नियमित अनुष्ठान है आप बीते वर्षों के साथ आप में लचीलापन आया है?
" कोई स्थितियां तो नहीं हैं. हां आदतें हैं. मुझे सुबह दस से बारह के दौरान लिखने की आदत पड़ चुकी है. मैं हाथ से ही लिखता हूं. मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है और मैं केवल घर में लिखता हूं और चाहे मैं अपार्टमेन्ट में अकेला भी होऊं मैं दरवाज़े पर ताला लगा देता हूं. मैं टेलीफ़ोनों को डिसकनेक्ट नहीं करता. मैं हर रोज़ नहीं लिखता, लेकिन मैं ख़ुद को डेस्क पर हर रोज़ जबरन बिठाता हूं. कभी प्रेरणा होती है कभी नहीं होती, मुझे नहीं मालूम. मैं प्रेरणा पर उतना ज़्यादा यक़ीन नहीं करता, लेकिन अगर वह है तो उसने इन्तज़ार करना चाहिये जब तक कि मैं उपलब्ध हो सकूं. कभी कभी सबसे अच्छे विचार ऐसी जगहों पर आते हैं जो उतनी अच्छी नहीं होतीं. बाथरूम में, या जहाज़ में, कभी रेलगाड़ी में. हम अरबी में कहा करते हैं: "फ़लां की क़लम से ..." लेकिन मैं समझता हूं कि आप हाथ से नहीं लिखते. प्रतिभा इस के तल में हुआ करती है. आपको बैठने का सलीक़ा आना चाहिये. अगर आप को बैठना नहीं आता तो आप नहीं लिख सकते. इसके लिए अनुशासन की ज़रूरत होती है."
* मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आप अच्छे से नहीं सोया करते?
"मैं रात में नौ घन्टे सोता हूं और मुझे अनिद्रा की कभी शिकायत नहीं हुई. मैं जब चाहूं सो सकता हूं. लोग कहते हैं मैं बिगड़ा हुआ हूं. ऐसा कहां कहा था उन्होंने? ... हां हिब्रू प्रेस में. आप कहेंगे कि मुझे किसी किस्म का शाहज़ादा माना जाता है. शहज़ादे आम लोगों से ऊपर उठाए गए होते हैं. ऐसा नहीं है. सच यह भी नहीं है कि मैं किसी का संरक्षण कर रहा हूं. मैं शर्मीला हूं, और कुछ लोग उसे इस तरह देखते हैं मानो मैं किसी का संरक्षण कर रहा हूं."
* क्या यह तथ्य कि आप कम-अज-कम एक दफ़ा मृत्यु को छू कर आ चुके हैं, क्या आपको बुढ़ापे और शरीर द्वारा दिए जाने वाले धोख़े से डर लगता है?
"मौत का सामना मैंने दो बार किया, एक बार १९८४ में और एक बार १९९८ में, जब मुझे चिकित्स्कीय तौर पर मृत घोषित कर दिया गया था और मेरे दफ़्न की तैयारी होने लगी थी. १९८४ में, मुझे विएना में दिल का दौरा पड़ा. वह एक साफ़ आसमान में सफ़ेद बादल पर एक गहरी और आसान नींद था. मुझे नहीं लगता वह मौत थी. मैं तैरता रहा जब तक कि मुझे असह्य दर्द नहीं हुआ, और वह दर्द यह संकेत था कि मैं वापस जीवन में लौट आया था.
"१९८८ में मृत्यु आक्रामक और हिंस्र थी. वह कोई सुविधाजनक नींद नहीं थी. मुझे भयानक दुःस्वप्न आते रहे. वह मृत्यु नहीं, एक दर्दनाक युद्ध था. मृत्यु ख़ुद आपको दर्द नहीं करती."
* मृत्यु को लेकर अब आपका क्या मानना है?
" मैं उसके लिए तैयार हूं. मैं उसका इन्तज़ार नहीं कर रहा. किसी की प्रतीक्षा करने के कारण होने वाली यातना के बारे में मेरी एक प्रेम कविता है. प्रेमिका को देर हो जाती है और वह नहीं आती. मैंने कहा कि शायद वह उस जगह चली गई जहां सूरज है. शायद वह शॉपिंग पर निकल गई. शायद उसने ख़ुद को आईने में देखा और उसे अपने साथ प्रेम हो गया और उसने कहा हो कि कितनी खराब बात होगी कि कोई मुझे छुए. मैं तो खुद अपनी हूं. शायद उसकी दुर्घटना हो गई हो और वह हस्पताल में हो. शायद उसने सुबह टेलीफ़ोन किया हो जब मैं फूल और वाइन की बोतल ख़रीदने बाहर गया हुआ था. शायद वह मर गई हो क्योंकि मृत्यु मुझ जैसी है, जिसे इन्तज़ार करना पसन्द नहीं. मुझे इन्तज़ार करना पसन्द नहीं. मृत्यु भी किसी का इन्तज़ार करना पसन्द नहीं करती.
" मैंने मृत्यु के साथ एक समझौता किया और यह स्पष्ट कर दिया कि ठीक तुरन्त उपलब्ध नहीं हूं, मुझे अभी और लिखना है, काम करने को हैं. बहुत सारा काम है और हर जगह युद्ध हैं, और मृत्यु, तुम्हें उस कविता से कुछ नहीं करना जिसे मैं लिखता हूं. यह तुम्हारे मतलब की चीज़ नहीं है. लेकिन तय की जाए एक मुलाक़ात. मुझे समय से पहले बता देना. मैं तैयारी कर लूंगा. मैं बढ़िया कपड़े पहनूंगा और हम समुद्र किनारे एक कहवाघर में मिलेंगे, एक गिलास वाइन का पिएंगे और तब तुम मुझे ले जाना."
* और जीवन में?
"मैं भयभीत नहीं हूं और न ही मृत्यु के विचारों से व्यस्त रहा करता हूं. वह जब भी आएगी, मैं उसे स्वीकार करने को तैयार हूं, लेकिन उसे बहादुर होना चाहिये, और हम सारा कुछ एक झटके से ख़त्म कर लेंगे. कैंसर या दिल की बीमारी या ऐड्स जैसी विधियों से नहीं. उसे एक चोर की तरह आने दिया जाए. उसे मुझे एक लपक में ले जाने दिया जाए."
* आपको कौन सी चीज़ थोड़ा सा ख़ुश करती है?
"फ़्रैन्च में एक कहावत है कि अगर आप पचास की उम्र के बाद किसी जगह पर दर्द की अनुभूति के बिना जागते हैं तो आप मर चुके हैं, मैं हर सुबह प्रसन्न जगता हूं. बड़े अर्थ में मैं यह मानता हूं कि प्रसन्नता उतना अधिक वास्तविक आविष्कार नहीं है. प्रसन्नता एक क्षण होती है. प्रसन्नता एक तितली होती है. मैं किसी काम को समाप्त करने पर प्रसन्न होता हूं."
* मुझे ऐसा महसूस हो रहा है आप पहले से पहले से कहीं ज़्यादा समझौतावादी हो गए हैं.
" यह बात रूखी लग सकती है लेकिन उदासी का एक सौन्दर्यबोध होता है. मुझे कोई भ्रम नहीं हैं. मैं बहुत सारी चीज़ों की उम्मीद नहीं करता. अगर कोई चीज़ ठीकठाक हो जाती है तो वह महान प्रसन्नता होती है. उदासी के साथ एक ह्यूमर भी होता है. मैं एक "आशावादी" हूं [यहां एमिल हबीबी के इसी शीर्षक वाले एक नाटक को सन्दर्भित किया गया है]"
* क्या आप को हबीबी की कमी महसूस होती है?
“यह जगह थोड़ा और भरी-भरी होती अगर एमिल हबीबी उपस्थित होते. वे प्रकृति की एक ताक़त थे. उनके पास ठहाके थे और एक विशिष्ट ह्यूमर और मैं समझता हूं उन्होंने ह्यूमर की मदद से हताशा से युद्ध किया. अन्त में वे पराजित हो गए. हम सब पराजित हो जाएंगे, विजेता भी. आप को यह आना चाहिये कि विजय के क्षण किस तरह का व्यवहार करना चाहिये और पराजय के क्षण किस तरह का. पराजय को न जानने वाला समाज कभी परिपक्व नहीं हो सकता."
* बहुत दिन नहीं हुए आपने एक नई किताब समाप्त की है, एक व्यक्तिगत जर्नल, गद्य और पद्य का एक समागम. क्या आप असल में ख़ुद को पसन्द करते हैं?
" कतई नहीं. जब भी युवा कवि मेरे पास आते हैं और यदि उस समय मैं उन्हें सलाह दे सकने की स्थिति में होता हूं, मैं उन्हें बताता हूं: "एक कवि जो लिखने बैठता है और अपने आप को पूरी तरह शून्य नहीं समझता, न तो विकसित होगा न ख्याति पाएगा." मुझे लगता है कि मैंने कुछ भी नहीं किया. यही वह चीज़ है मुझे अपने लेखन अपनी शैली और अपने विम्बविधान को बेहतर करने की तरफ़ बढ़ाती है. मुझे लगता है कि मैं एक शून्य हूं और इसका मतलब हुआ कि मैं अपने आप को बहुत प्यर करता हूं. मेरा एक दोस्त है जो मुझे टेलीविज़न पर देखना बरदाश्त नहीं कर सकता. वह मुझ से कहता है कि यह रिवर्स नारसिसिज़्म है. उस हरामज़ादे ने मुझे यह बतलाया."
(समाप्त)
* क्या एक ऐसी स्थिति आ सकती है कि आप स्वयं को राजनीति से सम्बद्ध कर लें. जैसा मिसाल के लिए वाक्लाव हैवेल ने किया था?
" हैवेल एक अच्छे राष्ट्रपति ज़रूर हो सकते हैं लेकिन उन्हें एक असाधारण लेखक नहीं माना जाता. मैं राजनीति करने से कहीं बेहतर लेखन करता हूं."
* क्या आप हमारे साथ यह साझा करना चाहेंगे कि आप कवितापाठ कार्यक्रम के दौरान क्या कहने का इरादा रखते हैं?
" मैं इस बारे में बात करना चाहता हूं कि मैं कारमेल से किस तरह नीचे उतरा और कैसे मैं ऊपर जा रहा हूं और मैं अपने आप से पूछता हूं कि मैं उतरा ही क्यों?"
* क्या आप को १९७० में छोड़कर चले जाने का पछतावा नहीं होता जब आप कम्यूनिस्ट युवा प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य बनकर मिश्र गए और कभी लौटे नहीं?
"कभी कभी समय बुद्धिमत्ता पैदा कर देता है. मुझे विडम्बना शब्द के अर्थ में इतिहास सिखाया गया था. मैं यह सवाल हमेशा पूछता हूं: क्या मुझे १९७० में छोड़ कर चले जाना का पछतावा है? मैं इस नतीज़े पर पहुंचा हूं कि इसका उत्तर महत्वपूर्ण नहीं है. हो सकता है कि यह सवाल ज़्यादा महत्वपूर्ण हो कि मैं माउन्ट कारमेल से नीचे क्यों उतरा.
* आप नीचे उतरे ही क्यों?
" ताकि मैं सैंतीस साल बाद वापस लौट सकूं. यह ऐसा कहना है कि मैं १९७० में कारमेल से नीचे नहीं उतरा था और २००७ में वापस नहीं लौटा. यह सब एक उपमा है. अगर इस पल मैं रामल्ला में हूं और अगले हफ़्ते कारमेल में और याद करूं कि मैं पिछले करीब चालीस सालों से वहां नहीं रहा हूं, चक्र पूरा हो चुका होता है और इतने सालों की यात्रा एक उपमा भर रह जाएगी. चलिए पाठकों को डराना बन्द किया जाए. मैं वापसी के अधिकार की अनुभूति करने का इरादा नहीं रखता.
* और अगर एक तारामण्डल होता जो आपको गैलिली, और हाइफ़ा और अपने परिवार तक वापस लौटने में समर्थ बना सके तो?
" आप लोग उन शक्तिशाली भावनाओं के गवाह रह चुके हैं जब छब्बीस सालों की अनुपस्थिति के बाद, १९९६ में मैं पहली बार लौटा था, और मुझे एमिली हबीबी (अब मृत हाइफ़ा-निवासी लेखक) के जीवन के बारे में बन रही एक फ़िल्म के एक हिस्से के सिलसिले में उनसे मिलना था. मैं बहुत भावुक हो गया था, मैं रोया भी और मैं इज़राइल में ही रहना चाहता था. लेकिन आप आज पूछ रहे हैं, जब मैं अपने इज़राइली आइडैटिटी कार्ड को इज़राइली कार्ड से बदलना नहीं चाहता. इस से मुझे बहुत शर्म आएगी. आज प्रासंगिक बात यह है कि इन सालों में मैंने क्या किया. मैंने बेहतर लिखा, मैं विकसित हुआ, मैंने तरक्की की और साहित्यिक दृष्टिकोण से मैंने अपने देश को लाभ पहुंचाया.
* कुछ लोग इस टाइमिंग की आलोचना कर रहे हैं जब इस माह आपने अपना कवितापाठ करने का फ़ैसला लिया ख़ासतौर पर राजनैतिक स्थिति और हालिया आज़मी बिशरा मामले को देखते हुए.
" हम जीवित थे और मुझे नहीं मालूम क्या सही है और क्या नहीं. हमारा समय और हमारी टाइमिंग दो अलग-अलग चीज़ें हैं. यहां मैं पहली बार नहीं आ रहा हूं. मैं १९९६ में यहां आया था जब मैंने हबीबी के अन्तिम संस्कार के समय एक क़सीदा पढ़ा था, मैं २००० में भी यहां था जब मैंने नाज़रेथ में अपनी कविताएं पढ़ी थीं, और मैंने एक स्कूली कार्यक्रम में और फिर कफ़्र यासिफ़ में भी हिस्सा लिया था. मैं राजनैतिक दलों के आपसी संघर्षों में हिस्सा नहीं ले सकता. मैं इज़राइल में समूची अरब जनता का मेहमान हूं और इस्लामिक आन्दोलन या हदश या बलाद में फ़र्क़ नहीं करता. मैं उन सब का कवि हूं. मुझे यह भी नहीं भूलना चाहुये कि बहुत सारे कविगण हैं तो मुझ से नफ़रत करते हैं और उन लोगों के भी नफ़रत विराजमान है जो अपने को कवि कहा करते हैं. ईर्ष्या एक मानवीय भावना है, लेकिन जब वह नफ़रत में बदल जाती है तो वह कोई और ही चीज़ हो जाती है. ऐसे लोग हैं जो मुझे एक साहित्यिक समस्या के तौर पर देखते हैं, लेकिन मैं उन्हें उन बच्चों की तरह देखता हूं जो अपने आध्यात्मिक पिता के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दिया करते हैं. उनके पास मेरी हत्या करने का अधिकार है, लेकिन उन्होंने मेरी हत्या एक ऊंचे स्तर पर करना चाहिये - लिखित शब्द में."
* क्या आपके यहूदी-इज़राइली बुद्धिजीवियों के साथ सम्बन्ध हैं?
" मैं कवि यित्ज़ाक लाओर और इतिहासविद अमनोन राज-क्राकोत्ज़िन के सम्पर्क में हूं. मैंने पिछल्र बीस बरसों में कम हिब्रू पढ़ी है, लेकिन मैं कई सारे इज़राइली लेखकों में दिलचस्पी रखता हूं."
* क्या आप को इस बात से झेंप मिश्रित ख़ुशी नहीं होती कि सात साल पहले योस्सी सरीद ने, जो तत्कालीन शिक्षा मन्त्री थे, आपकी कविताओं को पाठ्यक्रमों में शामिल करने की कोशिश की थी जिसका परिणाम यह हुआ था कि कुछ दक्षिणपन्थियों ने गठबन्धन को तोड़ देने की धमकी दी थी.
"मुझे इस बात में कतई दिलचस्पी नहीं कि मेरी कविताएं साहित्यिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाई जाएं. जब सरकार में अविश्वास प्रस्ताव आया था, मख़ौल बनाते हुए मैंने पूछा था कि इज़राइली गौरव कहां है - आप किसी सरकार को किसी फ़िलिस्तीनी कवि की वजह से कैसे गिरा सकते हैं, जब कि ऐसा करने के लिए आप के पास बाकी कारण मौजूद हैं? मेरी यह भी दिलचस्पी नहीं कि मेरी कविताएं अरब स्कूलों में पढ़ाई जाएं. मैं दर असल पाठ्यक्रमों में अपने होने को पसन्द नहीं करता, क्योंकि आमतौर पर विद्यार्थी उस साहित्य से नफ़रत करते हैं जिसे उन पर थोपा जाता है.
* आपका घर कहां है?
"मेरा कोई घर नहीं है. मैं इतनी बार घर बदल चुका हूं कि उस गहरे अर्थ में मेरा कोई घर नहीं. घर वहां होता है जहां मैं सोता, पढ़ता और लिखता हूं, और वह कहीं भी हो सकता है. मैं अब तक बीस घरों में रह चुका हूं, और मैंने हर बार अपनी दवाइयां, कपड़े और किताबें पिछले घरों में छोड़ दीं. मैं भाग जाया करता हूं.
* सिहाम दाऊद के आर्काइव में पाण्डुलिपियां, कविताएं और चिठ्ठियां हैं जिन्हें आप १९७० में छोड़ गए थे.
" मुझे नहीं पता था कि मैं नहीं लौटूंगा. मैंने सोचा था कि मैं न लौटने की कोशिश करूंगा. ऐसा नहीं है कि मैंने स्वतन्त्रतापूर्वक अपना डायास्पोरा चुना हो. दस सालों तक मुझ पर हाइफ़ा से बाहर निकलने पर पाबन्दी थी, और तीन सालों के लिए मैं नज़रबन्द रहा. मुझे किसी एक ख़ास घर के लिए ऐसी उत्कंठा नहीं है. आख़िर घर केवल इकठ्ठा की हुई चीज़ें भर नहीं होता. घर एक जगह होती है - एक वातावरण. मेरा कोई घर नहीं है.
" सभी कुछ एक सा दिखाई पड़ता है: रामल्ला अम्मान जैसा है और पेरिस जैसा भी. सम्भवतः ऐसा इसलिए है कि मुझे इच्छाओं से साथ पाला-पोसा गया था, और अब इच्छाएं करना मुझ पर जंचता नहीं, और हो सकता है मेरी भावनाएं बासी पड़ चुकी हों. सम्हव है कि तर्क ने भावनाओं को फ़तह कर लिया हो और विडम्बना सघन बन गई हो. मैं वही व्यक्ति नहीं रहा हूं."
* क्या यही वजह है कि आपने कभी एक परिवार नहीं बनाया?
"मेरे दोस्त मुझे याद दिलाया करते हैं कि मैंने दो दफ़ा विवाह किया था, लेकिन गहरे अर्थों में मुझे उसकी याद नहीं है. मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं कि मेरा कोई बच्चा नहीं है. हो सकता है वह भला न निकलता, अटपटा सा होता. मुझे पता नहीं क्यों लेकिन इस बात का डर लगता है कि वह ठीकठाक नहीं निकलता. लेकिन इतना मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मुझे इस बात का कोई अफ़सोस नहीं है."
* तब आप को किस बात का अफ़सोस होता है??
" कि मैंने छोटी उम्र में कविताएं छपवाईं, औत्र ख़राब कविताएं. मुझे शब्दों को नुकसान पहुंचाने का अफ़सोस होता है जब कभी मैंने किसी से तीखे या असभ्य शब्दों में बात की हो. सम्भवतः मैं कुछ स्मृतियों के प्रति वफ़ादार नहीं था. लेकिन मैंने कोई अपराध नहीं किया.
* क्या आपको अपना एकाकीपन पसन्द आता है?
" काफ़ी. जब मुझे किसी डिनर पर जाना होता है तो मुझे अहसास होता है कि मुझे सज़ा दी जा रही है. हाल के सालों में मुझे अकेला रहना पसन्द आने लगा है. मुझे लोग तब चाहिये होते हैं जब मुझे उनकी ज़रूरत होती है. आप मुझे बताइये, शायद यह स्वार्थीपन हो लेकि मेरे पांच या छः दोस्त हैं, जो बहुत सारे माने जाने चाहिये. मेरी हज़ारों लोगों से पहचान है लेकिन वह कुछ मदद नहीं करती.
* बचपन की अपनी पुरानी कविताओं में से जिनके पास लौटना आज आपको मुश्किल लगता है, क्या आप मां की कॉफ़ी के बारे में लिखी कविता को भी शामिल करते हैं?
" वह कविता मैंने म’असियाहू की जेल में लिखी थी. मुझे येरूशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में काव्यपाठ के लिए बुलाया गया था और मैं हाइफ़ा में रह रहा था और मैंने सहमति दे दी [यानी यात्रा करने की सहमति; यह समय था जब इज़राइल की अरब जनसंख्या को मार्शल लॉ का सामना करना पड़ रहा था.], लेकिन मुझे वहां से कोई उत्तर नहीं मिला. मैं रेल से गया - क्या वह रेल अब भी चलती है? अगले दिन मुझे नाज़रेथ के पुलिस स्टेशन में बुलाया गया और मुझे चार माह की निलम्बित सज़ा सुनाई गई - और दो महीने की अतिरिक्त सज़ा म’असियाहू की जेल में, और वहां एस्कॉट सिगरेट के एक पीले डिब्बे पर, जिस पर एक ऊंट की तस्वीर हुआ करती थी, मैंने वह कविता लिखी जिसे लेबनानी संगीतकार मार्सेल ख़लीफ़े ने एक गीत में ढाला. इसे मेरी सबसे सुन्दर कविता माना जाता है और मैं हाइफ़ा में इसे पढ़ने जा रहा हूं."
* क्या आप बिरवा भी जाएंगे, उस गांव में जहां आपका जन्म हुआ था?
" नहीं. आज इसे यासूर कहा जाता है (एक सामूहिक बस्ती). मैं उन्हीं स्मृतियों को बचाए रखना चाहूंगा जो आज भी खुली जगहों, तरबूज़ों, जैतून और बादाम के पेड़ों में बसती हैं. मुझे उस घोड़े की याद है जिसे एक बरामदे में शहतूत के पेड़ पर बांधा गया था. मैं उस पर चढा और उसने मुझे नीचे फेंक दिया - मेरी मां ने मेरी पिटाई की थी. वह मुझे हमेशा पीटा करती थी, क्योंकि उसे लगता था कि मैं एक वाक़ई बदमाश लड़का हूं. असल में मुझे उतना शरारती होने की याद नहीं है."
" मुझे तितलियों की याद है और यह भी कि सब कुछ खुला खुला था. गांव एक पहाड़ी पर था और बाकी सारा नीचे पसरा रहता था. एक दिन मुझे जगाकर बताया गया कि हमें भागना है. युद्ध या ख़तरे की बाबत किसी ने कुछ नहीं कहा. हम लोग लेबनान पैदल चले, मैं और मेरे तीन भाई-बहन, सबसे छोटा अभी शिशु ही था और वह रास्ते भर रोता रहा था."
* क्या आपका लेखन एक कर्तव्यात्मक नियमित अनुष्ठान है आप बीते वर्षों के साथ आप में लचीलापन आया है?
" कोई स्थितियां तो नहीं हैं. हां आदतें हैं. मुझे सुबह दस से बारह के दौरान लिखने की आदत पड़ चुकी है. मैं हाथ से ही लिखता हूं. मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है और मैं केवल घर में लिखता हूं और चाहे मैं अपार्टमेन्ट में अकेला भी होऊं मैं दरवाज़े पर ताला लगा देता हूं. मैं टेलीफ़ोनों को डिसकनेक्ट नहीं करता. मैं हर रोज़ नहीं लिखता, लेकिन मैं ख़ुद को डेस्क पर हर रोज़ जबरन बिठाता हूं. कभी प्रेरणा होती है कभी नहीं होती, मुझे नहीं मालूम. मैं प्रेरणा पर उतना ज़्यादा यक़ीन नहीं करता, लेकिन अगर वह है तो उसने इन्तज़ार करना चाहिये जब तक कि मैं उपलब्ध हो सकूं. कभी कभी सबसे अच्छे विचार ऐसी जगहों पर आते हैं जो उतनी अच्छी नहीं होतीं. बाथरूम में, या जहाज़ में, कभी रेलगाड़ी में. हम अरबी में कहा करते हैं: "फ़लां की क़लम से ..." लेकिन मैं समझता हूं कि आप हाथ से नहीं लिखते. प्रतिभा इस के तल में हुआ करती है. आपको बैठने का सलीक़ा आना चाहिये. अगर आप को बैठना नहीं आता तो आप नहीं लिख सकते. इसके लिए अनुशासन की ज़रूरत होती है."
* मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आप अच्छे से नहीं सोया करते?
"मैं रात में नौ घन्टे सोता हूं और मुझे अनिद्रा की कभी शिकायत नहीं हुई. मैं जब चाहूं सो सकता हूं. लोग कहते हैं मैं बिगड़ा हुआ हूं. ऐसा कहां कहा था उन्होंने? ... हां हिब्रू प्रेस में. आप कहेंगे कि मुझे किसी किस्म का शाहज़ादा माना जाता है. शहज़ादे आम लोगों से ऊपर उठाए गए होते हैं. ऐसा नहीं है. सच यह भी नहीं है कि मैं किसी का संरक्षण कर रहा हूं. मैं शर्मीला हूं, और कुछ लोग उसे इस तरह देखते हैं मानो मैं किसी का संरक्षण कर रहा हूं."
* क्या यह तथ्य कि आप कम-अज-कम एक दफ़ा मृत्यु को छू कर आ चुके हैं, क्या आपको बुढ़ापे और शरीर द्वारा दिए जाने वाले धोख़े से डर लगता है?
"मौत का सामना मैंने दो बार किया, एक बार १९८४ में और एक बार १९९८ में, जब मुझे चिकित्स्कीय तौर पर मृत घोषित कर दिया गया था और मेरे दफ़्न की तैयारी होने लगी थी. १९८४ में, मुझे विएना में दिल का दौरा पड़ा. वह एक साफ़ आसमान में सफ़ेद बादल पर एक गहरी और आसान नींद था. मुझे नहीं लगता वह मौत थी. मैं तैरता रहा जब तक कि मुझे असह्य दर्द नहीं हुआ, और वह दर्द यह संकेत था कि मैं वापस जीवन में लौट आया था.
"१९८८ में मृत्यु आक्रामक और हिंस्र थी. वह कोई सुविधाजनक नींद नहीं थी. मुझे भयानक दुःस्वप्न आते रहे. वह मृत्यु नहीं, एक दर्दनाक युद्ध था. मृत्यु ख़ुद आपको दर्द नहीं करती."
* मृत्यु को लेकर अब आपका क्या मानना है?
" मैं उसके लिए तैयार हूं. मैं उसका इन्तज़ार नहीं कर रहा. किसी की प्रतीक्षा करने के कारण होने वाली यातना के बारे में मेरी एक प्रेम कविता है. प्रेमिका को देर हो जाती है और वह नहीं आती. मैंने कहा कि शायद वह उस जगह चली गई जहां सूरज है. शायद वह शॉपिंग पर निकल गई. शायद उसने ख़ुद को आईने में देखा और उसे अपने साथ प्रेम हो गया और उसने कहा हो कि कितनी खराब बात होगी कि कोई मुझे छुए. मैं तो खुद अपनी हूं. शायद उसकी दुर्घटना हो गई हो और वह हस्पताल में हो. शायद उसने सुबह टेलीफ़ोन किया हो जब मैं फूल और वाइन की बोतल ख़रीदने बाहर गया हुआ था. शायद वह मर गई हो क्योंकि मृत्यु मुझ जैसी है, जिसे इन्तज़ार करना पसन्द नहीं. मुझे इन्तज़ार करना पसन्द नहीं. मृत्यु भी किसी का इन्तज़ार करना पसन्द नहीं करती.
" मैंने मृत्यु के साथ एक समझौता किया और यह स्पष्ट कर दिया कि ठीक तुरन्त उपलब्ध नहीं हूं, मुझे अभी और लिखना है, काम करने को हैं. बहुत सारा काम है और हर जगह युद्ध हैं, और मृत्यु, तुम्हें उस कविता से कुछ नहीं करना जिसे मैं लिखता हूं. यह तुम्हारे मतलब की चीज़ नहीं है. लेकिन तय की जाए एक मुलाक़ात. मुझे समय से पहले बता देना. मैं तैयारी कर लूंगा. मैं बढ़िया कपड़े पहनूंगा और हम समुद्र किनारे एक कहवाघर में मिलेंगे, एक गिलास वाइन का पिएंगे और तब तुम मुझे ले जाना."
* और जीवन में?
"मैं भयभीत नहीं हूं और न ही मृत्यु के विचारों से व्यस्त रहा करता हूं. वह जब भी आएगी, मैं उसे स्वीकार करने को तैयार हूं, लेकिन उसे बहादुर होना चाहिये, और हम सारा कुछ एक झटके से ख़त्म कर लेंगे. कैंसर या दिल की बीमारी या ऐड्स जैसी विधियों से नहीं. उसे एक चोर की तरह आने दिया जाए. उसे मुझे एक लपक में ले जाने दिया जाए."
* आपको कौन सी चीज़ थोड़ा सा ख़ुश करती है?
"फ़्रैन्च में एक कहावत है कि अगर आप पचास की उम्र के बाद किसी जगह पर दर्द की अनुभूति के बिना जागते हैं तो आप मर चुके हैं, मैं हर सुबह प्रसन्न जगता हूं. बड़े अर्थ में मैं यह मानता हूं कि प्रसन्नता उतना अधिक वास्तविक आविष्कार नहीं है. प्रसन्नता एक क्षण होती है. प्रसन्नता एक तितली होती है. मैं किसी काम को समाप्त करने पर प्रसन्न होता हूं."
* मुझे ऐसा महसूस हो रहा है आप पहले से पहले से कहीं ज़्यादा समझौतावादी हो गए हैं.
" यह बात रूखी लग सकती है लेकिन उदासी का एक सौन्दर्यबोध होता है. मुझे कोई भ्रम नहीं हैं. मैं बहुत सारी चीज़ों की उम्मीद नहीं करता. अगर कोई चीज़ ठीकठाक हो जाती है तो वह महान प्रसन्नता होती है. उदासी के साथ एक ह्यूमर भी होता है. मैं एक "आशावादी" हूं [यहां एमिल हबीबी के इसी शीर्षक वाले एक नाटक को सन्दर्भित किया गया है]"
* क्या आप को हबीबी की कमी महसूस होती है?
“यह जगह थोड़ा और भरी-भरी होती अगर एमिल हबीबी उपस्थित होते. वे प्रकृति की एक ताक़त थे. उनके पास ठहाके थे और एक विशिष्ट ह्यूमर और मैं समझता हूं उन्होंने ह्यूमर की मदद से हताशा से युद्ध किया. अन्त में वे पराजित हो गए. हम सब पराजित हो जाएंगे, विजेता भी. आप को यह आना चाहिये कि विजय के क्षण किस तरह का व्यवहार करना चाहिये और पराजय के क्षण किस तरह का. पराजय को न जानने वाला समाज कभी परिपक्व नहीं हो सकता."
* बहुत दिन नहीं हुए आपने एक नई किताब समाप्त की है, एक व्यक्तिगत जर्नल, गद्य और पद्य का एक समागम. क्या आप असल में ख़ुद को पसन्द करते हैं?
" कतई नहीं. जब भी युवा कवि मेरे पास आते हैं और यदि उस समय मैं उन्हें सलाह दे सकने की स्थिति में होता हूं, मैं उन्हें बताता हूं: "एक कवि जो लिखने बैठता है और अपने आप को पूरी तरह शून्य नहीं समझता, न तो विकसित होगा न ख्याति पाएगा." मुझे लगता है कि मैंने कुछ भी नहीं किया. यही वह चीज़ है मुझे अपने लेखन अपनी शैली और अपने विम्बविधान को बेहतर करने की तरफ़ बढ़ाती है. मुझे लगता है कि मैं एक शून्य हूं और इसका मतलब हुआ कि मैं अपने आप को बहुत प्यर करता हूं. मेरा एक दोस्त है जो मुझे टेलीविज़न पर देखना बरदाश्त नहीं कर सकता. वह मुझ से कहता है कि यह रिवर्स नारसिसिज़्म है. उस हरामज़ादे ने मुझे यह बतलाया."
(समाप्त)
पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वर में राग यमन
इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से
ख़ान साहेब मेहदी हसन ने अपना शागिर्द-ए-अव्वल माना था परवेज़ मेहदी को.
अगस्त २००५ को इस गायक का इन्तकाल हो गया फ़कत अठ्ठावन की उम्र में. उनके वालिद जनाब बशीर हुसैन ख़ुद एक अच्छे क्लासिकल वोकलिस्ट थे और बचपन से ही उन्होंने परवेज़ को संगीत सिखाया. बाद में लम्बे अर्से तक मेहदी हसन साहेब की शागिर्दी में उन्होंने ग़ज़ल गायन की बारीकियां सीखीं. परवेज़ मेहदी नाम भी मेहदी हसन ख़ान साहेब का दिया हुआ था. इन का असली नाम परवेज़ अख़्तर था. उस्ताद अहमद क़ुरैशी से इन्होंने सितार की भी तालीम ली थी.
परवेज़ मेहदी सुना रहे हैं मुनीर नियाज़ी साहब की ग़ज़ल. इसे अर्सा पहले ग़ुलाम अली ने भी गाया था.
आज़ादी के बाद की पाकिस्तानी उर्दू शायरी में मुनीर नियाज़ी (१९२८-२००७) को फैज़ अहमद फैज़ और नून मीम राशिद के बाद का सबसे बड़ा शायर माना जाता है. यह शायर ताज़िन्दगी अपनी तनहाई से ऑबसेस्ड रहा और एक जगह कहता है:
इतनी आसाँ ज़िंदगी को इतना मुश्किल कर लिया
जो उठा सकते न थे वह ग़म भी शामिल कर लिया
फ़िलहाल ग़ज़ल सुनिये.
बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना
एक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना
छलकाए हुए रखना ख़ुशबू-लब-ए-लाली की
इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना
इस हुस्न का शेवा है, जब इश्क नज़र आए
परदे में चले जाना, शर्माए हुए रहना
इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से
इक चांद सा आंखों में चमकाए हुए रहना
आदत ही बना ली है, तुमने तो मुनीर अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
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अगस्त २००५ को इस गायक का इन्तकाल हो गया फ़कत अठ्ठावन की उम्र में. उनके वालिद जनाब बशीर हुसैन ख़ुद एक अच्छे क्लासिकल वोकलिस्ट थे और बचपन से ही उन्होंने परवेज़ को संगीत सिखाया. बाद में लम्बे अर्से तक मेहदी हसन साहेब की शागिर्दी में उन्होंने ग़ज़ल गायन की बारीकियां सीखीं. परवेज़ मेहदी नाम भी मेहदी हसन ख़ान साहेब का दिया हुआ था. इन का असली नाम परवेज़ अख़्तर था. उस्ताद अहमद क़ुरैशी से इन्होंने सितार की भी तालीम ली थी.
परवेज़ मेहदी सुना रहे हैं मुनीर नियाज़ी साहब की ग़ज़ल. इसे अर्सा पहले ग़ुलाम अली ने भी गाया था.
आज़ादी के बाद की पाकिस्तानी उर्दू शायरी में मुनीर नियाज़ी (१९२८-२००७) को फैज़ अहमद फैज़ और नून मीम राशिद के बाद का सबसे बड़ा शायर माना जाता है. यह शायर ताज़िन्दगी अपनी तनहाई से ऑबसेस्ड रहा और एक जगह कहता है:
इतनी आसाँ ज़िंदगी को इतना मुश्किल कर लिया
जो उठा सकते न थे वह ग़म भी शामिल कर लिया
फ़िलहाल ग़ज़ल सुनिये.
बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना
एक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना
छलकाए हुए रखना ख़ुशबू-लब-ए-लाली की
इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना
इस हुस्न का शेवा है, जब इश्क नज़र आए
परदे में चले जाना, शर्माए हुए रहना
इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से
इक चांद सा आंखों में चमकाए हुए रहना
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