Wednesday, November 30, 2011
व्हाइ इज़ दिस कोला वेरी
दक्षिण भारत के सुपरस्टार रजनीकान्त के २१ वर्षीय भतीजे अनिरुद्ध रविचन्दर ने ताज़ा तमिल फ़िल्म '3' में गीत कम्पोज़ किया है जो हफ़्ते भर के भीतर लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुंचा है. यह गीत तमिल और अंग्रेज़ी की खिचड़ी टैन्ग्लिश में गाया गया है और तमिल फ़िल्मों में इस तरह की खिचड़ी का प्रयोग कोई नई बात नहीं है. फ़िल्म का निर्देशन एश्वर्या धनुष ने किया है और उन्होंने ही गीत लिखा भी है. फ़िल्म की नायिका मशहूर अभिनेता कमल हासन की बेटी श्रुति हासन हैं.
प्रेम की असफलता की थीम पर रचा गया यह गीत २२ नवम्बर को बीबीसी ने भी प्रसारित किया.
एक बार ज़रूर सुनिये. मज़ा आएगा.
यह गीत मुझे कल रात इत्तेफ़ाक़न मिल गए संगीत के पारखी श्री परमजीत सिंह मारवाह की निस्बत में सुनने को मिला. उन्होंने विश्व संगीत से और भी कई नायाब चीज़ें सुनवाईं. धीरे धीरे आपको सुनवाता हूं. थैंक्यू परमजीत सिंह जी. थैंक्यू विशाल विनायक.
Monday, November 28, 2011
उन्होंने मुझे हज़ार दफ़ा फांसी से लटकाया
शहरयार की तरह
दोस्त
और दुश्मन
मुझ पर इल्ज़ाम लगाते हैं कि मैं शहरयार जैसा हूं.
शहरयार जैसा होने का इल्ज़ाम,
इल्ज़ाम औरतें इकठ्ठा करने का
जैसे वे डाकटिकट हों या दियासलाई की ख़ाली डिबियां,
इल्ज़ाम उन्हें टांगने का
अपने कमरे की दीवारों पर.
वे कहते हैं मैं नारसिसस हूं
ईडिपस हूं, सेडिस्ट हूं ...
वे मुझ पर मढ़ते हैं तमाम ज्ञात विकृतियों के आरोप
ताकि साबित कर सकें ख़ुद को पढ़ा लिखा
और मुझे पथभ्रष्ट.
कोई नहीं सुनेगा मेरी गवाही को
मेरी जान!
पक्षपाती हैं न्यायाधीश
गवाहों को घूस दी जा चुकी.
मुझे मेरी गवाही से पहले ही
अपराधी घोषित कर दिया जाता है.
मेरे बचपन को कोई नहीं समझता
कोई नहीं मेरे प्यार!
क्योंकि मैं एक ऐसे शहर से आया हूं
जिसके पास बच्चों के लिए कोई मोहब्बत नहीं,
मासूमियत को नहीं समझता वो शहर
उसने कभी नहीं ख़रीदा एक ग़ुलाब
या शायरी की कोई किताब,
कड़ियल हाथों वाला वो शहर
रूखी भावनाओं और दिलों वाला
निगले गए कांच और कीलों से चूर-चूर.
मैं बर्फ़ की दीवारों वाले शहर से आया हूं
जिसके बच्चे पाले की वजह से मर गए.
मैं नहीं मांगता कोई माफ़ियां, न किसी वकील
को किराए पर लेने की मेरी मंशा है
या अपना सिर रस्सी से बचाने की.
उन्होंने मुझे हज़ार दफ़ा फांसी से लटकाया
जब तक कि मेरी गरदन को उसकी आदत न पड़ गई
और मेरे शरीर को एम्बुलैन्स की.
मैं कोई माफ़ियां नहीं मांगता, मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं
किसी भी इन्सान से
बेक़ुसूर ठहराए जाने की,
लेकिन एक सार्वजनिक मुकद्दमे में
मैं सिर्फ़ तुम्हें बतलाऊंगा
मुझ पर इल्ज़ाम लगाने वालों सामने
जिन्होंने मुझ पर इस वजह से मुकद्दमा चलाया कि मेरे पास एक से ज़्यादा औरतें थीं
कि मेरे पास भंडार थे ख़ुशबुओं, अंगूठियों, कंघियों
और उन तमाम चीज़ों के जिन पर युद्धकाल में राशन लगाया जाता है -
मैं सिर्फ़ तुमसे मोहब्बत करता हूं
मैं चिपटा रहता हूं तुम से
जैसे अनार से उसका छिलका,
जैसे आंख से आंसू
जैसे ज़ख़्म से शमशीर.
मैं कहना चाहता हूं
चाहे फ़क़त सिर्फ़ इस दफ़ा
कि मैंने कभी शहरयार का रास्ता नहीं अपनाया
हत्यारा नहीं मैं
मैंने कभी नहीं गलाईं तेज़ाब में औरतें,
मगर मैं एक कवि हूं,
जो लिखता है ऊंची आवाज़ के साथ
जो मोहब्बत करता है ऊंची आवाज़ के साथ
मैं हरी आंखों वाला एक बच्चा हूं
बग़ैर बच्चों वाले शहर के दरवाज़े पर फांसी से लटकाया हुआ.
शहरयार - मशहूर क्लैसिक "अरेबियन नाइट्स" का एक काल्पनिक फ़ारसी सम्राट. कहानी में शहरयार को उसकी पत्नी दग़ा देती है जिसकी वजह से वह पगला जाता है और मानने लगता कि आख़िरकार हरेक औरत उसे दग़ा दी देगी. सो अगले तीन सालों तक हर रात वह एक नया ब्याह रचाता है जिसे अगली सुबह फांसी पर लटका दिया जाता है जब तक कि वह अपने वज़ीर की ख़ूबसूरत बेटी शहरज़ादी से शादी नहीं कर लेता. अगली १००१ रातों तक शहरज़ादी उसे हर रात भोर होने तक एक नई कहानी सुनाती है, हर दफ़ा कहानी बेहद दिलचस्प मरहले पर अधूरी छूट जाया करती ताकि वह अगली उस कहानी को आगे बढ़ा पाने की मोहलत पा सके.
Sunday, November 27, 2011
मान रक्खो मेरे मौन का
निज़ार क़ब्बानी की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
०१- नि:शब्द
मृत हो गए
शब्दकोशों चिठ्ठियों और आख्यानों में
प्रयुक्त किए जाने वाले सारे शब्द।
मैं अन्वेषण करना चाहता हूँ
तुम्हें प्रेम करने का एक अलग मार्ग
जहाँ नहीं होती
शब्दों की कोई दरकार।
०२- मौन
प्लीज
मान रक्खो मेरे मौन का
यह मौन ही है
मेरा सबसे कारगर औज़ार।
क्या तुमने महसूस किया है
मेरे शब्दों को
जब मैं हो जाता हूँ मौन?
क्या तुमने महसूस किया है
उस कथ्य का सौन्दर्य
जब मैं हो जाता हूँ मौन।
Wednesday, November 23, 2011
कल के लिए का नया अंक..
Monday, November 21, 2011
मैं ले आया हूँ बैंगनी पाल वाले जलयान
निज़ार क़ब्बानी की चार कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
०१- ज्यामिति
मेरे जुनून की चौहद्दियों के बाहर
नहीं है
तुम्हारा कोई वास्तविक समय।
मैं हूँ तुम्हारा समय
मेरी बाँहों के दिशासूचक यंत्र के बाहर
नहीं हैं तुम्हारे स्पष्ट आयाम।
मैं हूँ तुम्हारे सकल आयाम
तुम्हारे कोण
तुम्हारे वृत्त
तुम्हारी ढलानें
और तुम्हारी सरल रेखायें।
०२- पुरुष - प्रकृति
किसी स्त्री को प्यार करने के लिए
एक पुरुष को चहिए होता है
एक मिनट
और
उसे भूल जाने के लिए
शताब्दियाँ।
०३- कप और गुलाब
कॉफीहाउस में गया
यह सोचकर
कि भुला दूँगा अपना प्यार
और दफ़्न कर दूँगा सारे दु:ख।
किन्तु
तुम उभर आईं
मेरी कॉफी कप के तल से
एक सफेद गुलाब बनकर।
०४- बालपन के साथ
आज की रात
मैं नहीं रहूँगा तुम्हारे साथ
मैं नहीं रहूँगा किसी भी स्थान पर।
मैं ले आया हूँ बैंगनी पाल वाले जलयान
और ऐसी रेलगाड़ियाँ
जिनका ठहराव
नियत है केवल तुम्हारी आँखों के स्टेशनों पर।
मैंने तैयार किए हैं
कागज के जहाज
जो उड़ान भरते हैं प्यार की ऊर्जा से।
मैं ले आया हूँ
कागज और मोमिया रंग
और तय किया है
कि व्यतीत करूँगा संपूर्ण रात्रि
अपने बालपन के साथ।
--
( चित्रकृति : जूलिया हाइन्स )
Tuesday, November 15, 2011
फाइनल काउंटडाउन चैलो एंड ऑर्केस्ट्रा
और अब पॉपर रेक्वीम फॉर थ्री चैलोज़ एंड पियानो
पाकिस्तान में कबीर का अनहद नाद
Saturday, November 12, 2011
मेरी कलम कितनी छोटी है !
Saturday, November 12, 2011
प्रायः केलंग में सर्दियों का सप्ताहांत बड़ा लम्बा और बोरिंग होता है . खास कर के जब दूसरा शनिवार आता है. (हिमाचल मे हर माह दूसरे शनिवार को सरकारी काम काज नही होता ) लेकिन हमेशा नहीं . जैसे कि आज की छुट्टी काफी रोमाँचक रही. कुछ बेंकों में निजी काम निपटा कर मैं दोपहर तक पूरी तरह से फ्री हो गया. बेंक मे भी आज आधा दिन ही काम होता है. सो , बेंकर दोस्त मुकेश वैद्या के साथ मिल कर प्लान बनाया कि कहीं घूमने जाया जाए. कहाँ ? अचानक् खयाल आया कि सिस्सू के एक मित्र संजीव ठाकुर ने ( वो एफ कॉन मे काम करते हैं ) रोहताँग टनल विज़िट् करने का आग्रह किया था। वहाँ मुझे कुछ विभागीय काम भी था.
फिर क्या था, मुकेश तो एक दम तय्यार थे. गाड़ी स्टार्ट की , और एक अन्य मित्र अमर लाल के साथ ठीक तीन बजे हम इस बहुचर्चित टनल के नॉर्थ पोर्टल पर खड़े थे। हमारे मार्ग दर्शक थे प्रोजेक्ट के टनल मेनेजर थॉमस रीडेल . बहुत ही विनम्र और भले आदमी , हम जानने के लिए इतने उत्सुक नहीं थे जितना कि वे बताने के लिए........
उफ्फ !!
मेरे कवि को अपनी पिछली कविता याद आती है ............ “पहाड, क्या तुम छिद जाओगे ??”
Friday, November 11, 2011
मक्खियों के भगवान - मार्को देनेवी
मार्को देनेवी (1922-1998) एक अर्जेंटीनी साहित्यकार एवं पत्रकार थे, नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों के हक़ में लिखने वाले प्रतिबद्ध उपन्यासकार-लेखक के रूप में उनकी प्रसिद्धि है. रियलिटी को नए, अनदेखे और कई बार जादुई परिवेश में ले जाना उनकी खासियत है. मैं खुद उनके काम से परिचित नहीं हूँ.. यह छोटी सी रचना मेरी पाठ्यपुस्तक में है, सीधे स्पैनिश से अनुवाद कर यहाँ रख रहा हूँ..
मक्खियों के भगवान
मक्खियों ने अपने भगवान की कल्पना की. वे भी मक्खी थे. मक्खियों के भगवान एक मक्खी थे, कभी हरी, कभी काली-सुनहरी, कभी गुलाबी, कभी सफ़ेद, कभी बैंगनी... एक अनोखी, अभूतपूर्व मक्खी, एक बेहद खूबसूरत मक्खी, एक विशालकाय मक्खी, एक भयावह मक्खी, एक दयालु मक्खी, एक क्रुद्ध मक्खी, एक न्यायशील मक्खी, एक जवां मक्खी, एक बूढ़ी मक्खी, मगर हमेशा एक मक्खी होते थे.
कुछ उनका आकार एक बैल जितना विशाल बताते थे, कुछ उन्हें इतना सूक्ष्म बताते थे कि वे अदृश्य थे. कुछ धर्मों में उनके पंख नहीं होते थे (वे उड़ते एवं हवा में रहते थे लेकिन भला उन्हें पंखों की जरूरत क्यों हो?), जबकि अन्य धर्मों में उनके असीम पंख होते थे. कहीं उनके श्रृंग सींग-नुमा होते थे, कहीं उनकी आँखें पूरे चेहरे में फैली होती थीं. कुछ लोगों के अनुसार वे लगातार भिनभिनाते थे, वहीं दूसरों का कहना था कि वे चुप रहते हैं लेकिन अन्तर्यामी हैं, बिना कहे भक्तों तक बात पहुंचा देते हैं. और सभी के अनुसार जब मक्खियाँ मरती थीं, उन्हें एक तीव्र विमान में स्वर्ग ले जाया जाता था. स्वर्ग ! सड़ते हुए मांस का एक ढेर था, सड़ता और बदबू मारता हुआ, जिसे मरी हुई मक्खियाँ अनंतकाल तक खाती रहती थीं किन्तु वह ख़त्म नहीं होता था, वह स्वर्गीय अवशिष्ट नित पुनर्निर्मित होता रहता था, मक्खियों के झुण्ड के नीचे वह नित नए रूप धरता था.. मगर यह पुण्यवान मक्खियों का झुण्ड था. क्योंकि पापी मक्खियाँ भी थीं, और उनके लिए एक नर्क था.. पापी मक्खियों का नर्क एक बिना कचरे की जगह थी, जहां अपशिष्ट नहीं थे, कूड़ा नहीं था, बदबू भी नहीं थी..जहां कुछ भी नहीं था, एक साफ़-सुथरी चमकती हुई जगह, और तुर्रा यह कि वहां हमेशा खूब उजाला रहता था. याने एक डरावनी घृणास्पद जगह....
Tuesday, November 8, 2011
पथ रोके खड़ा कठिन पत्थर
गोपाल सिंह नेपाली की कविता
सरिता
यह लघु सरिता का बहता जल।
कितना शीतल, कितना निर्मल॥
हिमगिरि के हिम से निकल-निकल,
यह विमल दूध-सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल, छल-छल
बहता आता नीचे पल पल
तन का चंचल मन का विह्वल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।
निर्मल जल की यह तेज़ धार
करके कितनी श्रृंखला पार
बहती रहती है लगातार
गिरती उठती है बार-बार
रखता है तन में उतना बल
यह लघु सरिता का बहता जल।।
एकांत प्रांत निर्जन निर्जन
यह वसुधा के हिमगिरि का वन
रहता मंजुल मुखरित क्षण-क्षण
लगता जैसे नंदन कानन
करता है जंगल में मंगल
यह लघु सरिता का बहता जल।।
ऊँचे शिखरों से उतर-उतर,
गिर-गिर गिरि की चट्टानों पर,
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर,
दिन-भर, रजनी-भर, जीवन-भर,
धोता वसुधा का अंतस्तल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।
मिलता है उसको जब पथ पर
पथ रोके खड़ा कठिन पत्थर
आकुल आतुर दुख से कातर
सिर पटक पटक कर रो-रो कर
करता है कितना कोलाहल
यह लघु सरिता का बहता जल।।
हिम के पत्थर वे पिघल-पिघल,
बन गए धरा का वारि विमल,
सुख पाता जिससे पथिक विकल,
पी-पीकर अंजलि भर मृदु जल,
नित जल कर भी कितना शीतल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।
कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे! जननी का वह अंतस्तल,
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल,
गंगा, यमुना, सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल।।
Monday, November 7, 2011
थम गया है ब्रह्मपुत्र का सुरीला निनाद
...ये शायर कितनी आसानी से आवाम के दिलों की आहट सुन लेता है । ये रात जो लोगों के दर्द की रात है, आवाम के ग़म की रात है, जब उसके सीने में गूंजती है, तो वो तलाश करने लगता है, ये आवाज़ कहां से आ रही है । इंकलाब किस रास्ते से आ रहा है और दर्द किस रास्तेी से आगे बढ़ रहा है । वो कान लगाए सुन रहा है और
मुझसे पूछ रहा है ये किसकी सदा है ....
ये वक्तव्य है गुलज़ार साहब का जो उन्होंने भूपेन हज़ारिका के एक एलबम में दिया है. ब्रह्मपुत्र बह रही है,आसाम के बीहड़ वनों में पत्तों पर सरसराहट जारी है लेकिन शायद उसका वह खरज खो गया है जिसे ज़माना भूपेन हज़ारिका के नाम से जानता था. हिन्दुस्तान ने भूपेन दा के रूप में एक ऐसा कलावंत खोया है जिसे सच्चे अर्थों में संस्कृतिकर्मी कहा जा सकता है. रंगकर्मी,कवि,संगीतकार,गायक,फ़िल्मकार क्या नहीं थे भूपेन दा. सबकुछ होते हुए वे अपनी असमिया पृष्ठभूमि को भूले नहीं और उसी का आसरा लेते हुए सांस्कृतिक अलख जगाते रहे . इस शिनाख़्त से उन्हें ख़ासी मुहब्बत थी और अपनी असमिया टोपी और बण्डी को उन्होंने ताज़िन्दगी अपनी पहचान बनाए रखा. ओ गंगा बहती हो क्यूं,डोला हो डोला,एक कली दो पत्तियाँ और दिल हूम हूम करे जैसे गीतों के ज़रिये हम हिन्दी-भाषी लोगों ने भूपेन हज़ारिका को जाना इसलिये हमारे लिये भूपेन दा का निधन महज़ एक आवाज़ का चला जाना है लेकिन हक़ीक़त यह है कि देश ने एक ऐसे आईकॉन को खो दिया है जिसकी शख्सियत में वसुधैव कुटुम्बकं की परिकल्पना प्रतिध्वनित होती थी. पहले भूपेन हज़ारिका ने एक बाल-प्रतिभा के रूप में चौंकाया और बाद में कोलम्बिया विश्व विद्यालय में पॉल रॉवसन की रचनाओं को गाकर पश्चिम को बता दिया यह भारतीय प्रतिभा किस बलन की है. सही देखा जाए तो गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टेगौर और महान नृत्यगुरू उदयशंकर के बाद भूपेन हज़ारिका ही वह हस्ती थे जिसके विचार और कर्म में संस्कृति जैसा शब्द हदें तोड़ता नज़र आता था. वे बाज़ मौक़ो पर साबित करते रहे कि तहज़ीब का ताल्लुक किसी देश,मज़हब,प्रांत और ज़ुबान विशेष से नहीं होता है.सन २०००-२००१ का लता अलंकरण लेने भूपेन हज़ारिका जब इन्दौर तशरीफ़ लाए तो उनसे नईदुनिया के लिये बातचीत करने का मौक़ा मिला,इसी शाम मुझे अलंकरण समारोह भी एंकर करना था. बातचीत ख़त्म होते होते दादा से कुछ ऐसा अपनापा हो गया कि उन्होंने कहा कि तुम ही आप मेरे कंसर्ट को भी शुरू करना. मैंने भूपेन दा से कहा कि आप क्या क्या गाने वाले हैं तो उन्होंने कहा वहीं देख लेंगे.वाक़ई ऐसा ही हुआ .वे बिना किसी भूमिका के बतियाते हुए गीत सुनाते गये और मालवा की उस रात को अपनी पाताल में से उभर कर आने वाली आवाज़ से महका दिया. वे प्रगतिशील विचाधारा से भी जुड़े रहे और इप्टा के समर्थ कलाकर्मियों में आदरणीय बने रहे. इंटरव्यू के दौरान उनसे फ़िल्मों पर बात तो होती ही रही लेकिन मैं महसूस करता रहा कि उनकी शख़्सियत में एक संगीतकार कभी भी अनुपस्थित नहीं होता. वे होटल की टेबल पर ही हाथ से ताल देते हुए मुझे ’ हम होंगे क़ामयाब ’ सुनाने लग गये. जब मैंने भी गुनगुनाना शुरू तो उन्होंने कहा ज़ोर से गाओ,ऐसे गीत गुनगुनाए नहीं चिल्ला कर गाए जाते हैं और कुछ देर के लिये मैं उनकी समवेत गान की उक्लास का विद्यार्थी हो गया. उनके स्वर में मेलोडी से ज़्यादा वह खुरदुरापन था जो हमारे जनपदीय परिवेश की जान होता है. उनके किसी भी गीत को सुनिये तो आपको लगेगा कि चाँदनी रात में एक भील खुले आसमान के तले गुनगुनाता चला जा रहा है. उनके स्वर में समाई आदिम छुअन बहुत कुदरती थी और सुनने वाले के दिल में उतर जाती थी.यही वजह है कि दिल हूम हूम करे का हज़ारिका संस्करण , मंगेशकर संस्करण से ज़्यादा करिश्माई लगता है. भूपेन हज़ारिका हमारे बीच से चले गये हैं लेकिन अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गये हैं जिसमें मिट्टी की सौंधी महक और विश्व-संगीत का सच्चापन हमेशा गूँजता रहेगा.
(चित्र में ख़ाकसार भूपेन दा के साथ खड़ा है. यह तस्वीर सन २००१ की है जब भूपेन हज़ारिका लता अलंकरण से इन्दौर में नवाज़े गये थे)
उन्माद की सीमा
सूरज डूबने वाला था. सीमा पर राष्ट्रवाद अपने चरम पर था. दोनों तरफ़ से लाउड स्पीकर पर देशभक्ति के गाने चल रहे थे. देशभक्ति में अपने देश के गुणगान से ज़्यादा दूसरे देश को मटियामेट करने की धमकी साफ़ महसूस की जा सकती थी. इन गानों को सुनकर दोनों तरफ़ की जनता में और भी जोश भर रहा था. सस्ते किस्म के फिल्मी गानों में देशभक्ति की लड़ाई जारी थी. दोनों देशों के सिपाहियों में होड़ लगी थी, दूसरी तरफ़ से कोई भड़काऊ गाना चलता तो वे ईंट का ज़वाब पत्थर से दे रहे थे. इस तरफ़ से हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे लग रहे थे तो उस तरफ़ से पाकिस्तान ज़िंदाबाद के. साथ में बंदे मातरम और भारत माता की जय के नारों से भी आसमान गूंज रहा था. वहां से इस्माली नारे उछल रहे थे तो यहां से हिंदू. एक तरफ़ कुरान की आयतें थीं तो दूसरी तरफ़ संस्कृत के श्लोक.
सीमा पूरी तरह सैनिकों के हवाले थी. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता किस चिड़िया का नाम है, उन्हें इस बात से कुछ लेना-देना नहीं था. माना कि पाकिस्तान तो घोषित तौर पर इस्लामिक राष्ट्र है लेकिन इस पार भारत या इंडिया का एक तीसरा नाम हिंदुस्तान कहां से आया, ये असहज सवाल मन में उठने लगा. यहां हिंदुस्तान ज़िंदाबाद का नारा उसके ऐतिहासिक अर्थों में नहीं बल्कि हिंदुओं की भूमि के रूप में उछल रहा था. सैनिक हिंदू प्रतीकों और संस्कृत के श्लोकों को इस्मालिक राष्ट्र के ख़िलाफ़ हिंदू प्रतिवाद के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे, जैसे कि भारत कोई हिंदू राष्ट्र हो. सबकुछ इतना असंगत था कि साथ में गए कुछ विदेशी पत्रकार मुझसे ऐसे सवाल करने लगे जैसे इस भूभाग में पैदा होने की वजह से मैं भी इस नाटक के लिए ज़िम्मेदार हूं.
डूबते हुए सूरज के साथ दोनों तरफ़ से कुछ वक़्त के लिए सीमा का दरवाजा खुलना था. यही तमाशे का चरम था. दोनों तरफ़ से सैनिक आक्रामक मुद्रा में झटके से दरवाजा खोलते हैं. हाथ मिलाने आमने-सामने पहुंचते हैं. उनकी निगाहों से ऐसी हिंसा टपक रही होती है जैसे वे एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएंगे. हज़ारों की भीड़ इस मंजर को सांसें रोके देखती है. वो तुलना करती है कि किस तरफ़ का जवान ज़्यादा दमदार है. किसकी आंखों से ज़्यादा नफ़रत और राष्ट्रीय श्रेष्ठता टपक रही है. यहां आपस में मिलने वाले हाथ दोस्ती के नहीं, नफ़रत के थे. बाद में पता चला कि विभाजन के बाद से ही बीच के कुछ वर्षों को छोड़कर ये आयोजन चलता आ रहा है. इस बीच यहां हज़ारों नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी आ चुके होंगे. हमारे सभ्य और धर्मनिरपेक्ष नीति निर्माताओं की नज़र में ये सब नहीं आया हो, ऐसा भी नहीं हो सकता. फिर भी धार्मिक कट्टरता में लिथड़े राष्ट्रवाद का तमाशा यहां जारी है. दिन भर दोनों ओर के सैनिक इस तमाशे के लिए अभ्यास करते हैं. मैं सोचता रहा कि हमारी सभ्यता नफ़रत के ऐसे अभ्यास की कैसे इजाज़त दे सकती है?
सूरज डूब चुका था. दोंनों देशों के सैनिक अपने इलाक़े में लौटकर अपना-अपना झंडा समेट रहे थे. एक तरह से उन्माद और उत्तेजना का अंत हो चुका था. भीड़ छंटने लगी. उस जगह महानता के मानसिक युद्ध के बाद बचे हुए दृश्य थे. मुझे लगा कि लोग राष्ट्रवाद के नशे में चूर नफ़रत के ऐसे ही किसी और आयोजन का प्रशिक्षण लेकर लौट रहे हैं.
(जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे कॉलम में प्रकाशित लेख)
Saturday, November 5, 2011
भूपेन दा को नमन !
कहने दीजिये उन्हें कि कुछ नहीं होता सच्चे प्यार जैसा
सच्चा प्यार.
क्या ये सामान्य है?
क्या ये संजीदा है?
क्या ये व्यावहारिक है?
दुनिया को क्या मिलता है
उन दो लोगों से जो
रहते है सिर्फ अपनी ही
बनाई दुनियां में?
अकारण ही खड़े किये हुए
उसी पायदान पर
चुने गए लाखों में से
निरुद्देश्य ही
पर मान बैठे हैं कि
ये तो होना ही था
पर किस खुशी में?
बस यूं ही.
रोशनी कहीं से नहीं उतरती
फिर भी सिर्फ इन्हीं दो पर क्यों
और बाकी पर क्यों नहीं?
क्या ये न्याय का घोर अपमान नहीं?
हां है तो
क्या ये हमारे उन मूल्यों को नहीं तोड़ता
जिन्हें खड़ा किया गया है परिश्रम से?
और क्या ये नैतिकता को गिराता नहीं
पूरी ऊँचाई से?
दोनो पर मैं कहूंगी हां.
देखिये इस युगल की खुशी को
क्या वे इसे थोड़ा छुपा नहीं सकते
अपने दोस्तों के लिये ही सही
चेहरे पर झूठी उदासी नहीं ला सकते?
उनके ठहाकों को सुनिये
ये एक गाली ही है
भाषा जो वे इस्तेमाल करते है
दबी ज़बान में किन्तु स्पष्ट
और उनके बात बेबात के समारोह,अनुष्ठान और
एक दूसरे के लिए
रोज़ाना के क्रिया कलाप
साफ तौर पर ये
समूची मानव जाति की पीठ पीछे
रचा गया षडयंत्र है
मुश्किल है अंदाज़ लगाना कि
कहां तक जायेगा ये सब
अगर लोग चलने लग जाएँ
उनके ही नक़्शे कदम पर
धर्म और कविता
क्या भरोसा कर सकतें हैं?
क्या याद रखा जायेगा?
और क्या छोड़ा?
कौन रहना चाहेगा फिर सीमाओं में?
सच्चा प्यार.
क्या ये सच में
ज़रूरी है?
युक्ति और सहज बोध तो कहते है
दरकिनार करें इसे चुपचाप
जैसे शिखर पर बैठे
करतें हैं एक बदनाम कारनामा.
बिना इसकी मदद के भी
जन्म लेते हैं एकदम श्रेष्ठ बच्चे
ये इतना कम दिखता है कि
लाखों सालों में भी
पृथ्वी को नहीं कर सकता आबाद
कहने दीजिये उन्हें
कि कुछ नहीं होता सच्चे प्यार जैसा
जिन्हें नहीं मिला कभी सच्चा प्यार
उनका ये विश्वास ही उन्हें
आसानी से मरने और
ज़िंदा रहने देगा.
Wednesday, November 2, 2011
घटनाओं की किताब हमेशा अधबीच से ही खुली होती है
पहली नज़र का प्यार- विस्वावा शिम्बोर्स्का
उन दोनों को विश्वास है कि
एक सहसा भावावेग ने ही
जोड़ा हैं उन्हें
परस्पर
खूबसूरत लगती है ऐसी अवश्यंभाविता
पर
इसमें सम्भाव्यता
और भी सुंदर है.
अब चूँकि वे पहले कभी नहीं मिले
तो वे मानतें हैं तयशुदा तौर पर
कि उनके बीच कभी कुछ नहीं था
पर क्या कहेंगे वो -
वे गलियां, सीढ़ीयां और गलियारे
जहां से वे
गुज़रे होंगे
अनगिन बार.
मैं उनसे पूछना चाहती हूँ
कि क्या उन्हें याद है
किसी घूमते दरवाज़े पर क्षण भर हुआ सामना?
भीड़ के बीच शायद बुदबुदाया गया 'सॉरी'?
फोन के रिसीवर में सुना गया 'रौंग नंबर'?
पर मैं जानती हूँ उत्तर
कि
नहीं, उन्हें कुछ भी याद नहीं.
उन्हें जानकार आश्चर्य होगा कि
अरसे से
अवसर उनके साथ खेल रहा है
जबकि तैयार नहीं वो
कि बदल सके उनके भाग्य में,
वो उन्हें नज़दीक लाया
दूर ले गया
रास्ते में आया
रोकते हंसी को बमुश्किल
दूर कूद गया
बहुत से निशान और इशारे थे
भले ही जिन्हें वे पढ़ न सके अब तक
शायद तीन साल पहले या
पिछले मंगलवार ही
कोई एक पत्ता उड़ा था
एक से
दूसरे के कंधे तक?
कोई चीज जो गिरी
और फिर उठा ली गई
कौन जानता है
शायद वो गेंद ही
जो गुम गई थी
उनके बचपन के झुरमुट में?
दरवाजे की घुन्डियाँ और घंटियाँ थीं
जहां एक का स्पर्श ढकता था
दूसरे के स्पर्श को
लगेज रूम में
सूटकेस की जांच के वक्त
खड़े एक दूसरे के पास
एक रात. शायद
देखा गया एक ही सपना
जो सुबह तक धुंधला गया.
हर शुरूआत
आखिरकार
किसी का अगला भाग ही होती है
और घटनाओं की किताब
हमेशा
अधबीच से ही
खुली होती है.