Wednesday, July 31, 2013

रफ़ी साहब, मोहम्मद अली और दो चार दिलचस्प बातें


...अच्छी घड़ियां पहनने और गाड़ियों के भी वे बेहद शौकीन थे. लंदन में सत्तर के दशक में गाड़ियों के रंग बहुत गहरे और चमकीले होते थे. जैसे तोतई हरा, चमकीला नीला, लाल,गहरा हरा, पीला, नारंगी वगैरा. अब्बा को वो इतने पसंद आते कि वो अपनी फिएट कार के लिए भी पसंद कर लेते. इसके अलावा, अपनी कार के लिए रीयर व्यू मिरर, व्हील कैप, साइड मिरर, हार्न, कार फ्रेशनर, स्टीयरिंग व्हील कवर भी लाते. बेटे जब उनसे कहते कि “अब्बा, ये रंग मुंबई के लिए ठीक नहीं है, ये तो सिर्फ यहीं पर अच्छे लगते हैं” तो उनका जवाब होता, “यार, गाड़ी जरा धांसू लगनी चाहिए.” बहरहाल, उन्होंने अपनी फिएट कार को अपनी मर्जी मुताबिक तोतई हरा, पीला, नारंगी और चमकीला नीला तक रंगवाया. सारी मुंबई में उनकी फिएट अलग ही नजर आती थी.

अपनी जिंदगी में वो तालीम की कमी को बहुत महसूस करते थे. लंदन, अमेरिका, भारत, कहीं पर भी हों, वो लाइव इंटरव्यू और सवाल-जवाब पूछे जाने से बहुत घबराते थे. उनकी कोशिश यही होती थी कि कोई बहाना बना कर टाल दें, कहते, “अपन को बड़ी-बड़ी बातें घुमा-फिराकर करना नहीं आता. ये तो बोलने और लिखने वालों का काम है. अपन को तो सिर्फ गाने से मतलब है. अपना काम ही अपनी पहचान है.”

सही मायनों में तो वो ठीक से बात भी नहीं कर पाते थे. बोलते-बोलते बीच में घबरा कर गड़बड़ा जाते. मुझे तो समझ में नहीं आता था कि वो गाने कैसे गाते हैं.

एक दिन काफी दिनों तक बात न होने पर मेरी अम्मी ने फोन पर उनसे शिकायत करते हुए कहा, साहब, आप तो हमें कभी याद ही नहीं करते. फिर हंस कर बोलीं, “आपका ही एक गाना है - मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं...” (फिल्म अमानत, 1977). सुनकर अब्बा शरमा गए, फिर इतना हंसे कि उनकी आंखों में आंसू आ गए. कहने लगे, “नहीं, बीजी, ऐसी कोई बात नहीं है. डाली आपको बताएगी”, कहकर फोन मेरे हाथ में दे दिया.


खेलों में क्रिकेट के अलावा अब्बा को कुश्ती और बाक्सिंग देखना भी बहुत पसंद था. मुहम्मद अली के वो जबरदस्त फैन थे. ये सन 1977 की बात है. अब्बा एक शो करने शिकागो गए हुए थे. जब शो के आयोजक को पता लगा कि मुहम्मद अली से मिलना रफ़ी साहब की दिली तमन्ना है तो उन्होंने मुलाकात करवाने की कोशिश की.

मुहम्मद अली से मिलना कोई आसान काम तो था नहीं, लेकिन जब उन्हें बताया गया कि जिस तरह आप बाक्सिंग के लिए सारी दुनिया में जाने जाते हैं, उसी तरह मुहम्मद रफ़ी अपनी गायकी के लिए सारी दुनिया में मशहूर हैं तो वो इस मुलाकात के लिए खुशी से तैयार हो गए.



(रफ़ी साहब की पुत्रवधू यासमीन ख़ालिद रफ़ी की किताब ‘मुहम्मद रफ़ी: हमारे अब्बा-कुछ यादें’ से एक टुकड़ा)

पोर्ट्रेट ऑफ़ द डाइरेक्टर - बिमल रॉय


महान भारतीय फ़िल्म निर्देशकों पर दूरदर्शन द्वारा बनाई गयी फिल्मों की सीरीज में आज देखिये बिमल रॉय पर बनी डॉक्यूमेंटरी. दो बीघा ज़मीन, परिणीता, बिराज बहू, मधुमती, सुजाता और बंदिनी जैसी अविस्मरणीय कृतियाँ रच चुके बिमल रॉय का योगदान हिन्दी फिल्मों के इतिहास में अमर हो चुका है.

इस फ़िल्म का निर्देशन रमेश शर्मा ने किया था जबकि इसे लिखा था ख़ालिद मोहम्मद ने. 


समर्पण समारोह - शेखर जोशी का संग्रह 'न रोको उन्हे शुभा’

संगोष्ठी‍ में आशुतोष कुमार, शेखर जोशी और राजेन्द्र कुमार

इलाहाबाद के साहित्यिक बिरादरी के सबसे खास पुरनिये शेखर जोशी पर जन संस्कृति मंच (कविता समूह) और परिवेश द्वारा बहुत दिन बाद इलाहाबाद वापस आने पर 20 जुलाई 2013 को संगोष्ठी का आयोजन किया गया. पर नई कहानी के चर्चित कहानीकार शेखर जोशी के बजाय चर्चा के केन्द्र में था शेखर जोशी का कवि रूप जो उनके कहानीकार रूप में विकास का एक हद तक साक्षी भी था. यह बात उनके प्रथम कविता संग्रह न रोको उन्हे शुभाकी चर्चा पर प्रायः सभी वक्ताओं द्वारा संज्ञान में ली गई. संग्रह की भूमिका कवि वीरेन डंगवाल द्वारा लिखी गई है और लेखक द्वारा उसका समर्पण कवि हरीशचन्द्र पांडेय के लिए किया गया है. अस्सी पार शेखर जी को अपने बीच पाकर जहाँ शहर का साहित्यिक समाज गदद था वहीं इलाहाबाद के छूटने का दर्द कई बार शेखर जी की आँखों से बाहर आने को आतुर दिखा.

संगोष्ठी में प्रथम वक्ता के रूप में शहर इलाहाबाद के मशहूर कवि हरीशचन्द्र पांडेय को सुनना बेहद महत्त्वपूर्ण रहा. अपने सधे हुए वक्तव्य में उन्होंने रेखाँकित किया कि शेखर जोशी की कविता में सिर्फ पहाड़ का सौन्दर्य ही नहीं, श्रम का सौन्दर्य भी शामिल है. यथार्थ की जटिलताओं से टकराती उनकी कविताओं में कलात्मक सन्धान के साथ कथ्य भी है. वस्तुतः वह जिस यथार्थ के अनुभव से रूबरू होते हैं, उसकी जटिलताएं कविता में संकेत के रूप में सामने आती हैं और कहानियों में इन्हें विस्तार मिलता है. वह अगर कविता भी लिखते तो उतने ही बड़े कवि होते है जितने बड़े कहानीकार हैं. दिल्ली से आए जन संस्कृति मंच, कविता समूह के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. आशुतोष कुमार ने शेखर जोशी को श्रम के सौन्दर्य के साथ-साथ श्रम की विडंबना के कवि के रूप में याद किया और कहा कि उनकी कविताओं में कई ऐसे सूत्र मिलाते हैं जिनसे नई कहानी के संघर्ष को भी समझा जा सकता है.

इस अवसर पर बोलते हुए शेखर जोशी ने कविता के सौन्दर्य के बजाए इनकी रचना प्रक्रिया को खोलना महत्त्वपूर्ण समझा. कई कविताओं के पाठ और इनके लिखे जाने की स्थितियों पर प्रकाश डाला. उनका कहना था कि विचलित करने वाली स्थितियों में बनने वाले रचनात्मक दबाव से ही यह कविताएं लिखी जा सकी है. इनका समय करीब 55 से 60 साल के लम्बे अंतराल में फैला हुआ है. मैं नही जानता कि इन कविताओं के पसन्द किए जाने के पीछे इनकी गुणवत्ता है या मेरे प्रति प्यार, लेकिन इनके सृजन के लिए मेरा परिवेश ही मुझे जब-तब प्रेरित करता रहा है. इस अवसर पर उन्होंने सिख विरोधी दंगों के समय लिखी गई लम्बी कविता अखबार की सुर्खियों में चला गया करतारके साथ- साथ पाखी के लिए’, ‘अस्पतल डायरी’, आदि कई कविताएं सुनाकर श्रोताओं को अभिभूत कर दिया.

अध्यक्षीय संबोधन में वरिष्ठ आलोचक राजेन्द्र कुमार ने कहा कि शेखर जी की कविता में परिवेश और उसकी स्मृति-विस्मृति को फिर से जी लेने की इच्छा व्यक्त हुई है. उनकी कविता जीवन का रीटेक है. गोष्ठी के आखिर में दोनो वक्ताओं ने अपनी पसन्द की दो- दो कविताएं सुनाई. शुरुआत में वरिष्ठ कवि शिवकुटी लाल वर्मा, शायर ख्वाज़ा जावेद अख्तर और महान स्त्रीवादी चिंतक शर्मिला रेगे को श्रद्धांजलि दी गई. संयोजन दुर्गाप्रसाद सिंह ने किया जबकि संचालन रामायण राम ने किया. कार्यक्रम में जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण, रामजी राय, जी.पी. मिश्र, कहानीकार अनिता गोपेश, नीलम शंकर, कवि संतोष चतुर्वेदी, विवेक निराला, अरुण आदित्य, प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव अविनाश मिश्र सहित बड़ी संख्या में छात्र नौजवान शामिल थे.
प्रस्तुति‍ : प्रेम शंकर, राष्ट्रीय सचिव, जन संस्कृति मंच


एक है ज़ोहरा – १


ज़ोहरा सहगल को कौन नहीं जानता. अठानवे साल की आयु में २०१० में उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘क्लोज़ अप’ प्रकाशित की. हिन्दी के पाठकों के लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि इस पुस्तक का अनुवाद हमारी कबाड़न दीपा पाठक के किया है और ‘क़रीब से’ शीर्षक अनुवाद के रूप में इसे राजकमल प्रकाशन द्वारा छाप भी दिया गया है.

इस किताब के चंद शुरुआती हिस्से दीपा की मेहरबानी से यहाँ पेश किये जा रहे हैं.


ज़ोहरा सहगल-उर्फ मुमताज़ के खानदान का लेखाजोखा
नवाब नजीब-उद-दौला (1708-1770) के खानदानी

नजीबाबाद के आखिरी हुक्मरान नवाब जलालुद्दीन खान 1857 की बग़ावत के दौरान अंग्रेज़ों की गोली से मारे गए  थे. उनकी विधवा बेगम, दो जवान बेटे और दो कमउम्र बेटियां बैलगाड़ी में छुप कर मुरादाबाद पहुंचे, जहां बेगम के भाई फौज में कमांडर थे.

बाद में बड़ा बेटा अज़िमुद्दीन खान रामपुर के जवान नवाब के रीजेंट के साथ-साथ वहां की फौज के जनरल बन गए. कई सालों बाद उनकी पोती असकरी बेगम की शादी रामपुर नवाब के वारिस राज़ा अली खान से हुई और उन्हें राफत ज़ामानी बेगम की पदवी दी गई.

छोटा बेटा, साहेबज़ादा हमिद्दुज़ार खान को देश की कई रियासतों का रीजेंट बनाया गया. उनकी छोटी बहन जाफरी बेगम की शादी रामपुर के एक इज़्जतदार और अमीर आदमी अताउल्लाह खान से हुई. उनके सबसे छोटे बेटे मुमताज़ुल्लाह खान ने अपनी रिश्ते की बहन साहेबज़ादा हमिद्दुज़फर खान की बेटी नातिका बेगम से शादी की. उनके सात बच्चे हुए जिनमें से ज़ोहरा सहगल तीसरे नंबर की संतान थीं.

जलालुद्दीन खान की सबसे बड़ी बेटी ज़ुबैदा बेगम (?) की शादी लोहारू के नवाब से हुई, जिनकी बहुत सारी बेटियां पैदा हुई, जिनकी बाद में अलग-अलग नवाबों से शादियां हुईं जैसे मालेर कोटला, पटौदी और फखरुद्दीन अली अहमद का रंगून खानदान.
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1919 -1929
बचपन और लाहौर

जीवनः खुद के साथ अंतहीन बातचीत; होश के आलम में चुप और पागलपन में सुनाई देने वाली

कोई अपने बारे में किताब क्यों लिखता है? सबसे बड़ी वजह तो यह कि इंसान मरने के बाद जीवन से अपनी पकड़ छूटने की कल्पना से डरता है . ऐसे में आत्मकथा उसे मरने के बाद भी अपने होने के भ्रम को बनाए रखने का जरिया लगता है. मुझे लगता है कि यह एक तरह की आत्ममुग्धता है, भला किसे परवाह है तुम्हारी भावनाओं की, तुम्हारे संघर्ष की, तुम्हारे सुख या दुख की? हां, शायद तुम्हारे बच्चों के लिए उनकी कुछ अहमियत हो. हालांकि वो भी दिल से तुम्हें प्यार करने और तुम्हारी देखभाल करने के बावजूद कभी-कभी ऐसा अहसास दिलाते हैं जैसे तुम उनकी जिंदगी से जुड़ा एक फालतू हिस्सा हो और तुम्हारे हटने से उन्हें राहत मिलेगी...पता नहीं पर मुझे ऐसा लगता है!

मेरे लिए इस किताब को लिखने की खास वजह एक ऐसा काम हाथ में लेना था जिसमें मैं खुद को डुबा सकूं, साथ ही मैं अपनी जिंदगी जो कुछ हुआ उन सब बातों को पूरी तरह से भूल जाने से पहले ही लिख डालना चाहती थी. इसमें से बहुत सारी बातें बहुत पुरानी हैं, ऐसा लगता है वो सब किसी और जन्म में घटा था, इसके बावजूद कुछ यादें इतनी जीवंत हैं जैसे लगता है कल ही की बात हो.


मैं 27 अप्रैल, 1912 में संयुक्त भारतीय प्रांत, जो अब उत्तर प्रदेश कहलाता है, में सहारनपुर में पैदा हुई. मेरे पिता एक पठान सरदार, मौलवी गुलाम जिलानी खान साहेब के वंशज थे. मौलवी साहेब  की नस्लीय जड़ें अफगानिस्तान के अब्दुल राशिद नाम के एक यहूदी से जुड़ी थीं, जिन्होंने 631 ईसवीं सन् में मुस्लिम धर्म अपना लिया. 1760 में गुलाम जिलानी, जो एक विद्वान और प्रसिद्ध योद्धा थे, दिल्ली में अहमद शाह के दरबार में आए जहां उन्हें बहुत सम्मान दिया गया. बाद में वे अन्य रोहिला सेनापतियों के साथ सेना में शामिल हुए. उन्हें नवाब फैजुल्लाह खान की सेना की कमान सौंप दी गई. नवाब साहब के साथ वे कोसी नदी के किनारे बसे 'रामपुरा' नाम के एक गांव में पहुंचे. इस तरह से रामपुर शहर और राज्य के रूप में विकसित हुआ. गुलाम जिलानी और बाकी ग्यारह रिसालदारों को यहां जमीन आवंटित की गई. मेरी मां के दादा जी नवाब जलालुद्दीन खान थे, जो नवाब ज़ेब्ते खान के पोते थे. नवाब ज़ेब्ते खान नजीबाबाद के संस्थापक और नवाब नजीबुद्दौला के बेटे और उत्तराधिकारी थे. मुझे अचरज होता है यह सोच कर कि हमारे पूर्वजों के जीवन का हम पर कितना प्रभाव पड़ता है, कभी सोचती हूं कि मेरे पूर्वज के व्यक्तित्व में जुड़े विद्वता और साहसिक  गुणों का का मेरे जीवन के अलग-अलग पड़ाव पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है.

मेरे पिता ने युवावस्था में ही रामपुर छोड़ दिया. मेरी पैदाइश के दौरान वह ब्रिटिश प्रोविंसियल सर्विस में कनिष्ठ अधिकारी थे. (एक बहुत हास्यास्पद सी बात यह थी कि बाद के वर्षों में अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें नौकरी में अच्छे प्रदर्शन के लिए खान साहेब का दर्ज़ा दिया, जबकि नवाबी खानदान से जुड़े होने के चलते यह तमगा तो जन्म के साथ ही उनके नाम से जुड़ा था.)

मैं अपने परिवार में तीसरे नंबर की संतान थी, अब क्योंकि भारतीय किसी भी और देश के मुकाबले सबसे ज्यादा रंगभेदी होते हैं,  मैं घरवालों की काफी चहेती थी सिर्फ इस वजह से कि मेरा रंग मेरे बड़े भाई और बहन के मुकाबले थोड़ा गोरा था. हालांकि मुझे लगता है कि मुझसे छोटे दो भाई-बहन के आने के साथ ही मेरी कद्र कम हो गई क्योंकि दोनों का रंग एंग्लो-इंडियन की तरह गोरा था. मेरी छोटी बहन की तो बचपन में घुंघराली सुनहरी लटें भी थी, जैसे अक्सर पठानों में होती हैं.

मेरी सबसे पुरानी याद अपने ऊपर छाए नीले आसमान की है, हांफने की आवाज के साथ-साथ बहुत धीमी गति के साथ आसमान के इस टुकड़े का फ्रेम बदलता जा रहा था. साथ में थी पसीने की गंध और मेरी पीठ किसी कठोर सतह पर टिकी थी. मैंने अपने पिता से जब यह बात की तो उन्होंने अंदाज़ा लगाया कि शायद यह 1914  में नैनीताल जाते समय की बात होगी, जब मुझे एक कुली कंधे पर बंधी बेंत की टोकरी में ले गया. उन दिनों बसें नहीं चला करती थी. आपको पहले तांगे या घोड़ा गाड़ी पर चढ़ाई करनी पड़ती थी, यात्रा का अंतिम हिस्सा घोड़े की पीठ पर करना होता था. बच्चे बेंत की टोकरियों पर बैठा कर ले जाए जाते थे.


(जारी)

टूटे तार सप्तक


टूटे तार सप्तक
इकतारा रहे शील जी

-संजय चतुर्वेदी

जीवन उपेक्षा से भरा था, और पूरा था
दु:खी हुए, लेकिन कृपा को नहीं तरसे

बौने महानंद कलाकंद कलाकार हुए
आप वाबस्ता रहे अपनी डगर से

काव्य में फिरंगी अदा का पाखण्ड तोड़
सादा सच्चाई लिखी देशी नज़र से

कविकुलाभिजात्य के कुचाली अमात्य बोले
कहाँ शील कवि है, निकालो इसे घर से   

Tuesday, July 30, 2013

पोर्ट्रेट ऑफ़ द डाइरेक्टर – ऋत्विक घटक




दूरदर्शन द्वारा बनाई गयी इस श्रृंखला की पहली पेशकश - महान निर्देशक ऋत्विक घटक पर बनी यह शानदार फ़िल्म. सामाजिक यथार्थ को परदे पर उतारने में कड़ी मशक्कत करने वाले ऋत्विक ने समानांतर सिनेमा को अकल्पनीय ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. उनकी अतिचर्चित ‘मेघे ढाका तारा’ विश्व सिनेमा की धरोहरों में शुमार होती है.

इस फ़िल्म का निर्देशन रमेश शर्मा ने किया था जबकि इसे लिखा था ख़ालिद मोहम्मद ने.

हद है यार, तुम अब तक उसी यूनीफॉर्म में हो!


"1960 के दशक में हॉलीवुड के बड़े कास्टिंग डाइरेक्टर हार्वे वुड बंबई आये और एक फ़िल्म में पुलिस इन्स्पेक्टर के रोल के लिए उन्होंने मेरा चयन कर लिया. हालांकि मैं उसके पहले हीरो और विलेन के कुछ रोल कर चुका था पता नहीं क्या हुआ कि मुझे पुलिस इन्स्पेक्टर के रूप में ही प्रसिद्धि हासिल हुई. मुझे तमाम फिल्मों में पुलिस इन्स्पेक्टर का किरदार निभाने को मिला. बीस साल बाद अचानक हार्वे वुड से दोबारा मुलाक़ात हुई तो वे कह उठे 'हद है यार, तुम अब तक उसी यूनीफॉर्म में हो!' उन्होंने मुझ से कहा कि मैं तब तक अपने निभाये किरदारों की लिस्ट उन्हें भेजूं. बाद में उनके प्रयासों से गिनीज़ बुक वाले अपनी टीम लेकर बंबई आये और मेरा नाम अपनी किताब में दर्ज़ कर लिया" 

-एक इंटरव्यू में जगदीश राज

 १४४ फिल्मों में पुलिस अफ़सर का किरदार निभा चुके जगदीश राज का परसों निधन हो गया. पुरानी फिल्मों में इस तरह के रोल निभाने का काम या तो इफ्तेखार करते थे या जगदीश राज. सरगोधा (अब पाकिस्तान में) में जन्मे जगदीश राज खुराना ने १९६० में अपने करियर का आग़ाज़ किया था जबकि २००४ में आई ‘मेरी बीवी का जवाब नहीं’ उनकी अंतिम फ़िल्म थी.

उनकी सबसे हिट फिल्मों में ‘जॉनी मेरा नाम’. ‘दीवार’, ‘शक्ति’, ‘डॉन’ और ‘सिलसिला’ को गिना जा सकता है. उल्लेखनीय है कि उनकी पुत्री अनीता राज भी एक ज़माने में हिन्दी फिल्मों में खासा नाम कमाने में सफल रही थीं.

हिन्दी फ़िल्म संसार के नौस्टेलजिया को मज़बूती से अपने भीतर क़ायम बनाए रखने वाले भारतीयों की एकाधिक पीढ़ियाँ जगदीश राज को सदा याद रखेंगी.

कबाड़खाने की श्रद्धांजली.

प्रेमचंद की आत्मकथा’ का एक अंश-

कथासम्राट प्रेमचंद के जन्मदिवस के अवसर पर पहले पढ़िए मदन गोपाल द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद की आत्मकथा’ का एक छोटा सा अंश-


मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है; जिसमें कहीं-कहीं गढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है. जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें यहाँ निराशा ही होगी.

जब मेरी उम्र कोई तेरह साल की रही होगी, मैं हिंदी न जानता था. उर्दू के उपन्यास पढ़ने का उन्माद था. मौलाना शरर, पं
. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसबा, मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे. इनकी रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था.

मेरा विवाह करने के साल बाद ही मेरे पिता परलोक सिधारे. उस समय मैं नौवें दर्जें में पढ़ता था. घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थीं, उसके दो बालक थे और आमदनी एक पैसे की नहीं थी. घर में जो कुछ लेई
-पूजीं थीं वह पिताजी की छह महीने की बीमारी और क्रिया-कर्म में खर्च हो चुकी थी और मुझे अरमान था वकील बनने का और एम.. पास करने का. नौकरी उस जमाने में इतनी ही दुष्प्राप्य थी जितनी अब है. दौड़-धूप करके शायद दस-बारह की कोई जगह पा जाता; पर यहाँ तो आगे पढ़ने की धुन थी. गाँव में लोहे की अष्टधातु की वहीं बेड़ियाँ थी और मैं चढ़ना चाहता था पहाड़ पर.

मेरे हर उपन्यास में एक आदर्श चरित्र है, जिसमें मानव दुर्बलताएँ भी हैं और गुण भी; परंतु वह मूलतया आदर्शवादी है.
प्रेमाश्रममें ज्ञानशंकर है, ‘रंगभूमिमें सूरदास, ‘कायाकल्पमें चक्रधर...मेरी राय है, मेरी कृतियों में सबसे अच्छी रंगभूमिहै.....अधिकांश चरित्र वास्तविक जीवन से लिए गए हैं, गो उन्हें काफी अच्छी तरह परदे में ढक दिया गया है.

सेवासदनकी फिल्म बनी. उस पर मुझे सात सौ पचास रुपये मिले. अगर इस तंगी में वह रुपए नहीं मिल जाते तो न जाने क्या दशा होती.
.....फिर बंबई की एक फिल्म कंपनी ने बुलाया. वेतन पर नहीं, कॉण्ट्रैक्ट पर आठ हजार रुपए साल. मैं उस अवस्था में पहुँच गया था जब मेरे लिए हाँकरने के सिवा और कोई उपाय नहीं रह गया था.....बंबई गया अजंता सिनेटोन में. यहाँ दुनियाँ दूसरी है; यहाँ की कसौटी दूसरी है.....मैं इस लाइन में यह सोचकर आया था कि मुझे आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होने का मौका मिलेगा; मैं धोखे में था. 

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पुस्तक की भूमिका में मदन गोपाल लिखते हैं -

यह पुस्तक मुंशी प्रेमचंद के जीवन, उनके लेखन तथा उनके युग की कहानी है. यह कहानी उन्हीं के अपने शब्दों में है. उनकी आत्मकथा है. इसका मूल आधार तो उनका आत्मकथांक जीवन-सारहै, जो फरवरी 1932 में हंसमें प्रकाशित हुआ था. परंतु यह उनके जीवन के पचास वर्षों का विवरण था. इसके पूर्व पाँच-छह वर्षों में प्रेमचंद ने कजाकी’, ‘चोरी’, ‘रामलीला’ ‘गुल्ली-डंडा’ ‘लॉटरीइत्यादि कहानियाँ लिखी थीं; जिसके वे स्वयं नायक हैं. इस तथ्य की पुष्टि उनकी शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक प्रेमचंद : घर मेंकी है. 

प्रेमचंद के परम मित्र जैनेंद्र कुमार जैन ने लिखा है कि स्वयं प्रेमचंदजी ने एक बड़ी दिलचस्प आपबीती सुनाई. एक निरंकुश युवक ने किस प्रकार उन्हें ठगा और किस सहजभाव से वह उसकी ठगाई में आते रहे.....उस चालाक युवक ने प्रेमचंद जी को ऐसा मूँड़ा किकहने की बात नहीं. सीधे-सादे रहनेवाले प्रेमचंदजी के पैसे के बल पर उन्हीं की आँखों के नीचे उस जवान ने ऐसे ऐश किए कि प्रेमचंदजी आँख खुलने पर स्वयं विश्वास न कर सकते थे. प्रेमचंद जी से उसने अपना विवाह करवाया, बहू के लिए जेवर बनवाए-और प्रेमचंद जी सीधे तौर पर सबकुछ करते गए. कहते थे-भई जैनेंद्र सर्राफा को अभी पैसे देने बाकी हैं. उसने जो सोने की चूड़ियाँ बहू के लिए दिलाई थीं उनका पता तो मेरी धर्म पत्नी को भी नहीं है. अब पता देकर अपनी शामत ही बुलाना है. पर देखों न, जैनेंद्र, वह सब फरेब था. वह लड़का ठग निकला. अब ऊपर-ही-ऊपर जो एक दो कहानियों के रुपए पाता हूँ, उससे सर्राफा का देना चुकता करता जाता हूँ. देखना, कहीं घर में कह देना. मुफ्त की आफत मोल लेनी होगी. बेवकूफ बने तो बेवकूफी का दंड भी हमें भरना है.

प्रेमचंद की यह आत्मकथासाहित्य में एक नए प्रकार का प्रयास है. इसकी पृष्ठभूमि के संबंध में कुछ निवेदन आवश्यक है. 

छप्पन वर्ष पूर्व प्रेमचंद के जीवन तथा लेखन पर अंग्रेजी में मेरी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी. यह किसी भी भाषा में इस विषय पर सर्वप्रथम पुस्तक थी. एक सौ बीस पन्ने की यह पुस्तक प्रेमचंद के निधन के सात साल बाद छपी थी. पुस्तक किसी भी भारतीय भाषाई साहित्यकार पर किसी भारतीय द्वारा अंग्रेजी में लिखी सर्वप्रथम थी. इस पुस्तक की बड़ी चर्चा हुई. अहिंदी क्षेत्रों में ही नहीं, विदेशों में भी साहित्यकार प्रेमचंद को मान्यता मिलने में सहायता मिली. 


जब प्रेमचंद के प्रिय शिष्य जनार्दन प्रसाद झा द्विजने अपनी प्रेमचंद की उपन्यास कलानामक पुस्तक की पहली प्रति उन्हें भेंट की तो वे प्रसन्न हुए और कहा कि मेरे इस संसार से चले जाने के बाद तुम मुझ पर पाँच सौ पृष्ठों की किताब लिखना.’ ‘द्विजके बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है; परंतु बीस-पच्चीस वर्ष बाद यह काम मैंने और अमृतराय ने किया हमारी प्रेमचंद : कलम का मजदूरऔर कलम का सिपाहीदोनों को ही प्रामाणित जीवनी की मान्यता प्राप्त है. 

मेरी कलम का मजदूरए लिटरेरी बायग्राफीऔर अमृतराय की कलम का सिपाही’-इन तीनों पुस्तकों में प्रेमचंद के उन पत्रों का भरपूर प्रयोग किया गया है, जो मैंने बीस-पच्चीस वर्षों में इकट्ठे किए थे. इन पात्रों में प्रेमचंद के जीवन पर बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है; क्योंकि प्रेमचंद के बारे में, अपने ही शब्दों में (उत्तम पुरुष में) हैं. इनके उद्धरणों का मैंने प्रेमचंद के जीवन से संबंधित कहानियों को जोड़ने के लिए प्रयोग किया है. 

प्रेमचंद की जन्मी-शती के अवसर पर मुझे ध्यान आया था, क्यों न प्रेमचंद के जीवन, लेखन, आदर्शों तथा युग पर एक ऐसा ही प्रयास किया जाए. प्रस्तुत पुस्तक में प्रेमचंद की पंद्रह-सोलह कहानियाँ और उनके पत्रों के विभिन्न उद्धरणों का चयन कर उन्हें एक लड़ी के रूप में प्रस्तुत किया गया है. उद्धरणों के चयन के अलावा मेरा योगदान केवल वे थोड़ी सी पंक्तियाँ हैं, जिन्हें भिन्न टाइप (इटेलिक्स) में दिया गया है. वास्तव मेरा काम मालाकार का है, इससे अधिक कुछ नहीं. बाकी सब प्रेमचंद हैं. 
आशा करता हूँ कि पाठकों को इस पुस्तक पढ़ने में प्रेमचंद की आत्मकथा का रस मिलेगा.

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पुस्तक के शुरुआती अंश ये रहे -

एक

मेरा जन्म संवत 1937 में हुआ. नाम दिया गया धनपत राय. बाप का नाम था मुंशी अजायब लाल. काशी के उत्तर की ओर पांडेपुर के निकट लमही ग्राम का निवासी हूँ. पिता डाकखाने में क्लर्क थे. तबादला भी होता रहता था. बचपन की याद नहीं भूलती. वह कच्चा-टूटा घर, वह पुआल का बिछौना; वह नंगे बदन, नंगे पाँव खेतों में घूमना, आम, के पेड़ों पर चढ़ना-सारी बातें आँखों के सामने फिर रही हैं. चमरौधे जूते पहन कर उस वक्त कितनी खुशी होती थी, ‘फ्लेक्सके बूटों में भी नहीं होती. गरम पनुए रस में जो मजा था वह अब अंगूर, खीर और सोहन हलुआ में भी नहीं मिलता.

मेरी बाल-स्मृतियों में कजाकीएक न मिटने वाला व्यक्ति है. आज चालीस साल गुजर गए, कजाकी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है. मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आजमगढ़ की एक तहसील में था. कजाकी जाति का पासी था; बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही साहसी, बड़ा ही जिंदादिल ! वह रोज शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात भर रहता और सबेरे डाक लेकर चला जाता. शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता. मैं दिन भर एक उद्विग्न दशा में उसकी राह देखा करता ज्यों ही चार बजते, व्याकुल सड़क पर आकर खड़ा हो जाता और थोड़ी देर में कजाकी कंधे पर बल्लम रखे, उसकी झुनझुनी बजाता, दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलाई देता. वह साँवले रंग का गठीला, लंबा जवान था.

शरीर साँचे में ऐसा ढला हुआ कि चतुर मूर्तिकार भी उसमें कोई कोई दोष न निकाल सकता. उसकी छोटी-छोटी मूँछें उसके सुडोल चेहरे पर बहुत ही अच्छी मालूम होती थीं. मुझे देखकर वह और तेज दौड़ने लगता. उसकी झुनझुनी और तेजी से बजने लगती और मेरे हृदय में और जोर से खुशी की धड़कन होने लगती. हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता और एक क्षण में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता. वह स्थान मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग था.

स्वर्ग के निवासियों को भी शायद वह आंदोलित आनंद न मिलता होगा जो मुझे कजाकी के विशाल कंधों पर मिलता था. संसार मेरी आँखों में तुच्छ हो जाता और जब कजाकी मुझे कंधे पर लिए हुए दौड़ने लगता तब तो ऐसा मालूम होता मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूँ. 

कजाकी डाकखाने में पहुँचता तो पसीने से तर रहता; लेकिन आराम करने की आदत न थी. थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता. कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे, गाकर सुनाता और कभी कहानियाँ सुनाता. उसे चोरी और डाके, मारपीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियाँ याद थीं. मैं वे कहानियाँ सुनकर विस्मय आनंद मे मग्न हो जाता. उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूटकर दीन-दुखियों का पालन करते थे. मुझे उनपर घृणा के बदले श्रद्धा होती थी.

एक दिन कजाकी को डाक का थैला लेकर आने में देर हो गई. सूर्यास्त हो गया और वह दिखलाई न दिया. मैं खोया हुआ सा सड़क पर दूर तक आँखें फाड़-फाड़कर देखता था; पर वह परिचित रेखा न दिखलाई पड़ती थी. कान लगाकर सुनता था, ‘झुनझुनकी वह आमोदमय ध्वनि न सुनाई देती थी. प्रकाश के साथ मेरी आशा भी मलिन होती जा रही थी. उधर से किसी को आते देखता तो पूछता-कजाकी आता है ? पर या तो कोई सुनता ही न था या केवल सिर हिला देता था.

सहसा झुनझुन की आवाज कानों में आई. मुझे अँधेरे में चारों ओर भूत ही दिखलाई देते थे; यहाँ तक कि माताजी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई भी अँधेरा हो जाने के बाद मेरे लिए त्याज्य हो जाती थी. लेकिन वह आवाज सुनते ही मैं उसकी तरफ जोर से दौड़ा. हाँ, वह कजाकी ही था. उसे देखते ही मेरी विकलता क्रोध में बदल गई. मैं उसे मारने लगा, फिर रूठकर अलग खड़ा हो गया.

कजाकी ने हँसकर कहा, ‘‘मारोगे तो मैं एक चीज लाया हूँ, वह नहीं दूँगा.’’

मैंने साहस करके कहा, ‘‘जाओ, मत देना. मैं लूँगा ही नहीं.’’ 

कजाकी-‘‘अभी दिखा दूँ तो दौड़कर गोद में उठा लोगे.’’ 

मैंने पिघलकर कहा, ‘‘अच्छा, दिखा दो.’’ 

कजाकी-‘‘तो आकर मेरे कंधे पर बैठ जाओ, भाग चलूँ. आज बहुत देर हो गई है बाबूजी बिगड़ रहे होंगे.”

मैंने अकड़ कर कहा, ‘‘पहले दिखा.’’

मेरी विजय हुई. अगर कजाकी को देर का डर न होता और वह एक मिनट भी रुक सकता तो मेरा पासा पलट जाता. उसने कोई चीज दिखलाई जिसे वह एक हाथ से छाती से चिपटाए हुए था. लंबा मुँह था दो आँखें चमक रही थीं. 

मैंने उसे दौड़कर कजाकी की गोद से ले लिया वह हिरन का बच्चा था.

आह ! मेरी उस खुशी का कौन अनुमान करेगा ? तब से कठिन परीक्षाएँ पास कीं, अच्छा पद भी पाया; वह खुशी फिर न हासिल हुई. मैं उसे गोद में लिये, उसके कोमल स्पर्श का आनंद उठाता घर की ओर दौड़ा. कजाकी को आने में क्यों इतनी देर हुई, इसका खयाल ही न रहा. 

मैंने पूछा, ‘‘यह कहाँ मिला कजाकी ?’’

कजाकी-‘‘भैया, यहाँ से थोड़ी दूर पर एक जंगल है. उसमे बहुत से हिरन हैं. मेरा बहुत जी चाहता था कोई बच्चा मिल जाय तो तुम्हें दूँ. आज यह बच्चा हिरनों के झुंड के साथ दिखलाई दिया मैं झुंड की ओर दौड़ा तो सबके सब भागे. यह बच्चा भी भागा. लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा. और हिरन तो बहुत दूर निकल गए, यही पीछे रह गया. मैंने इसे पक़ड़ लिया. इसी से इतनी देर हुई.’’ 

यों बाते करते हम दोनों डाकखाने पहुँचे. 

बाबूजी ने मुझे न देखा, हिरन के बच्चे को भी न देखा, कजाकी पर ही उसकी निगाह पड़ी. बिगड़कर बोले, ‘‘आज इतनी देर कहाँ लगाई ? अब थैला लेकर आया है, उसे क्या करूँ ? डाक तो चली गई. बता तूने इतनी देर कहाँ लगाई ?’’ 

कजाकी के मुँह से आवाज निकली. 

बाबूजी ने कहा, ‘‘तुझे शायद अब नौकरी नहीं करनी है. नीच है न, पेट भरा तो मोटा हो गया. जब भूखों मरने लगेगा तो आँखें खुलेंगी.’’ 

कजाकी चुपचाप खड़ा हो रहा. 

बाबूजी का क्रोध और बढ़ा. बोले, ‘‘अच्छा, थैला दे और अपने घर की राह ले. सूअर, अब डाक लेके आया है तेरा क्या बिगड़ेगा ! जहाँ चाहेगा, मजदूरी कर लेगा. माथे तो मेरे जाएगी, जवाब तो मुझसे तलब होगा.’’ 

कजाकी ने रुआसे होकर कहा, ‘‘सरकार अब कभी देर न होगी.’’ 

बाबूजी- ‘‘आज क्यों देर की, इसका जवाब दे ?’’

कजाकी के पास इसका कोई जवाब न था. आश्चर्य तो यह था कि मेरी जवान बंद हो गई. बाबूजी बड़े गुस्सावर थे. उन्हें काम करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झुँझला पड़ते थे. मैं तो उनके सामने कभी जाता ही न था. वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे. घर में केवल दो बार घंटे-घंटे भर के लिए भोजन करने आते थे, बाकी सारे दिन दफ्तर में लिखा-पढ़ी करते थे. उन्होंने बार-बार एक सहकारी को लिए अफसरों से विनय की थी; कुछ असर न हुआ था.

यहाँ तक कि तातील (अवकाश) के दिन भी बाबूजी दफ्तर में ही रहते थे. केवल माताजी उनका क्रोध शान्त करना जानती थीं; पर वह दफ्तर में कैसे आतीं. बेचारा कजाकी उसी वक्त मेरे देखते-देखते निकाल दिया गया. उसका बल्लम, चपरास व साफा छीन लिया गया और उसे डाकखाने से निकल जाने की नादिरी हुक्म सुना दिया गया. आह ! उस वक्त मेरा ऐसा जी चाहता था कि मेरे पास सोने की लंका होती तो कजाकी को दे देता और बाबूजी को दिखा देता कि आपके निकाल देने से कजाकी का बाल भी बाँका नहीं हुआ. किसी योद्धा को अपनी तलवार पर जितना घमंड होता है

उतना ही घंमड कजाकी को अपनी चपरास पर था. जब वह चपरास खोलने लगा तो उसके हाथ काँप रहे थे और आँखों से आँसू बह रहे थे. और इस सारे उपद्रव की जड़ वह कोमल वस्तु थी, जो मेरी गोद में मुँह छिपाए ऐसे चैन से बैठी थी कि मानो माता की गोद में हो. 

जब कजाकी चला गया तो मैं धीरे-धीरे उसके पीछे चला.

मेरे घर के द्वार पर आकर कजाकी ने कहा, ‘‘भैया, अब घर जाओ; साँझ हो गई.’’ मैं चुपचाप खड़ा अपने आँसुओं के वेग को सारी शक्ति से दबा रहा था. कजाकी फिर बोला, ‘‘भैया, मैं कहीं बाहर थोड़े ही जा रहा हूँ फिर आऊँगा. फिर और तुम्हें कंधे पर बैठाकर कुदाऊँगा. बाबूजी ने नौकरी ले ली है तो क्या इतना न करने देगे. तुमको छोड़कर मैं कहीं न जाऊँगा, भैया ! जाकर अम्मा से कह दो, कजाकी जाता है. इसका कहा-सुना माफ करें.’’ 


मैं दौड़ा-दौ़ड़ा घर गया; लेकिन अम्माँजी से कुछ कहने के बदले बिलख-बिलखकर रोने लगा.
अम्माँजी रसोई से बाहर निकल कर पूछने लगीं, ‘‘क्या हुआ बेटा ? किसने मारा ? बाबूजी ने कुछ कहा है ? अच्छा, रह तो जाओ. आज घर आते हैं, पूछती हूँ. जब देखो, मेरे लड़के को मारा करते हैं. चुप रहो, बेटा, अब तुम उनके पास कभी मत जाना.’’ 

मैंने बड़ी मुश्किल से आवाज सँभालकर कहा, ‘‘कजाकी...’’ 

अम्मा ने समझा कजाकी ने मारा है. बोली, ‘‘अच्छा आने दो कजाकी को. देखो, खड़े-ख़ड़े निकलवा देती हूँ. हरकारा होकर मेरे राजा बेटा को मारे ! आज ही तो साफा, बल्लम-सब छिनवा लेती हूँ. वाह !’’
मैंने जल्दी से कहा, ‘‘नहीं, कजाकी ने नहीं मारा. बाबूजी ने उसे निकाल दिया उसका साफा, बल्लम छीन लिया; चपरास भी ले ली.’’ 

अम्माँ-‘‘यह तुम्हारे बाबूजी ने बहुत बुरा किया. वह बेचारा अपने काम में इतना चौकस रहता है. फिर भी उसे निकाला ?’’

मैंने कहा, ‘‘आज उसे देर हो गई थी.’’ 

यह कहकर मैंने हिरन के बच्चे को गोद से उतार दिया. घर में उसके भाग जाने का भय नहीं था. अब तक अम्माँजी की निगाह उस पर न पड़ी थी. उसे फुदकते देखकर वह सहसा चौंक पड़ीं और लपककर मेरा हाथ पकड़ लिया कि कहीं यह भयंकर जीव मुझे काट न खाए. मैं कहाँ तो फूटफूटकर रो रहा था और कहाँ अम्माँ की घबराहट देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ा.

अम्माँ- ‘‘अरे, यह तो हिरन का बच्चा है. कहाँ मिला ?’’ 

मैंने हिरन के बच्चे का सारा इतिहास और उसका परिणाम आदि से अंत तक कह सुनाया-‘‘अम्माँ, यह इतना तेज भागता था कि दूसरा होता तो पकड़ ही न सकता. सन-सन हवा की तरह उड़ता चला जाता था. कजाकी पाँच-छह घंटे तक इसके पीछे दौड़ता रहा, तब कहीं जाकर यह बच्चा मिला. अम्माजी कजाकी की तरह कोई दुनियाँ भर में नहीं दौड़ सकता. इसीसे तो देर हो गई. इसलिए बाबूजी ने बेचारे को निकाल दिया. चपरास, साफा, बल्लम-सब छीन लिया. अब बेचारा क्या करेगा ? भूखों मर जाएगा.’’

अम्माँ ने पूछा, ‘‘कहाँ है कजाकी ? जरा उसे बुला तो लाओ.’’ 

मैंने कहा, ‘‘बाहर तो खड़ा है. कहता था, अम्माँजी से मेरा कहा-सुना माफ करवा देना.’’ 

अब तक अम्माँजी मेरे वृत्तांत को दिल्लगी समझ रही थीं. शायद वह समझती थीं कि बाबूजी ने कजाकी को डाँटा होगा; लेकिन मेरा अंतिम वाक्य सुनकर संशय हुआ कि सचमुच तो कजाकी बरखास्त नहीं कर दिया गया. बाहर आकर कजाकीपुकारने लगीं. कजाकी का कही पता न था. मैंने बार-बार पुकारा लेकिन कजाकी वहाँ न था.

खाना तो मैंने खा लिया-बच्चे शोक में खाना नहीं छोड़ते, खासकर जब रबड़ी भी सामने हो-मगर बड़ी रात तक पड़े-पड़े सोचता रहा, मेरे पास रुपये होते तो एक लाख कजाकी को देता और कहता बाबूजी से कभी मत बोलना. बेचारा भूखों मर जाएगा. देखूँ, कल आता है कि नहीं. अब क्या करेगा आकर ? मगर आने को तो कह गया है. मैं उसे कल अपने साथ खाना खिलाऊँगा. 

यही हवाई किले बनाते-बनाते मुझे नींद आ गई.

(http://pustak.org से साभार)



जीवन से अधिक निष्प्राणता

माया

-संजय चतुर्वेदी

गाढ़े लेपों और प्राचीन मसालों की गंध में
वह मिस्र के शाही ख़ानदान की
ताज़ा ममी जैसी दिखाई दी
उसकी गतियों में भी
जीवन से अधिक निष्प्राणता की उपस्थिति थी
निर्जीव जगत की विराटता
उसे एक विराट सच्चाई देती थी
जीवन तुच्छ था और दहशत से भरा हुआ था
चमक और महक के निर्जीव आतंक में
रक्त, लार और विचार जैसे जीवदृव्य झूठ थे. 

Monday, July 29, 2013

वाकई ये शर्म का पर्दा है या डर का

क्या ज़मीर ही मार गिराया
   
-शिवप्रसाद जोशी

बटला हाउस एनकाउंटर फ़र्ज़ी नहीं था. दिल्ली की एक अदालत ने कह दिया है. उसके बाद हिंदी बेल्ट के अखबारों ने समवेत गर्जना के साथ हमें बता दिया है कि देखो कुछ भी फ़र्ज़ी  नहीं था.

किसने कहा फ़र्ज़ी था सब कुछ. मौतें तो वास्तविक थीं. पकड़े भी वास्तविक लोग ही गए, साबुत जीते जागते इंसान. यातनाएं वास्तविक थीं और अब जो क्षोभ भय, सन्नाटे और आशंका के साथ जामियानगर और लोगों के ज़ेहन में है वो भी वास्तविक है. क्या वे सब लोग जो घटना के दूसरे पहलू के बारे में सोच रहे हैं और ये मानने को तैयार नहीं हो पा रहे हैं कि बटला का सच आ चुका, क्या वे सब झूठे और फ़र्ज़ी और देश और क़ौम के गद्दार हैं.   

दाद देनी होगी जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के उन अध्यापकों की जिन्होंने एक आंदोलन की शक्ल देते हुए इस कांड से जुड़े कई सवाल खड़े किए और बताया कि पकड़े गए नौजवान क्यों बेक़सूर हैं. मनीषा सेठी इस आंदोलन को लीड कर रही हैं. जामिया के शिक्षक एकजुट हैं. और देरसबेर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में वर्षों की नाइंसाफ़ी का कोई जवाब मिल ही जाना है. क्या अभूतपूर्व आंदोलन है. लेकिन मीडिया को न जाने ये अनयूज़्अल स्टोरीज़ क्यों नहीं दिखती. उसका काम शायद सतह की हरकतों से चल जाता है. अंडर करेंट्स हमेशा से कितनी तीव्र बहती रही हैं.

उस धैर्य और उस इंतज़ार और उस हौसले की दाद देनी चाहिए जो कोर्टों से जेनुइन फ़ैसला आने की राह देखता है. उस समय तक क़ायम रहता है. जर्जर हो जाता है लेकिन धूल में नहीं मिल जाता. वो न जाने किस मिट्टी की किस क़िस्म की बुलंदी में हिलता रहता है. गिरता नहीं. हालांकि ये भी क्या कम बड़ा दर्द नहीं कि कोर्ट की एक बहुत लंबी और जटिल प्रक्रिया में धकेल दिया जाना हो ही रहा है. कई बार तो वो मौक़ा भी नहीं आता.  

दाद लखनऊ के रिहाई मंच के उस आंदोलन की भी देनी होगी जो अनथक संघर्ष और लगभग साधना की तरह बेगुनाहों के लिए डटा हुआ है और जिसे अब मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्ल और सोशल शूरवीरों का समर्थन भी मिल रहा है.

एक टीवी चैनल में डे प्लैन बनाने वालों को इधर एक प्रस्तावित रिपोर्ट का विचार कुछ यूं आया कि एक मुसलमान नेता आईएम को 2002 के दंगों से जोड़ता है. दूसरा मुसलमान नेता कहता है आईएम है भी या नहीं कोई नहीं जानता, तीसरा मुसलमान नेता कहता है आईएम आईबी की सामरिक उपज है, उसी की रणनीति का हिस्सा है. इस पर ख़बर करनी चाहिए कि आख़िर आईएम का रहस्य क्या है.

बिल्कुल करनी चाहिए. लेकिन ख़बर के लिए ये बात आप मुसलमान नेताओं से क्यों कहलवा रहे हैं. वे ही क्यों बोल रहे हैं. बाकी लोग कहां गए. ख़बर ये भी करनी चाहिए. ख़बर, तहलका में 2008 में हुई वरिष्ठ पत्रकार अजीत शाही की रिपोर्टिंग को आगे बढ़ाती हुई बेशक की जानी चाहिए. पर कितनों को याद हैं वे थरथरा देने वाली रिपोर्टें. अब सिमी के बदले आईएम क्यों हैं. अजीत शाही ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो सोशल एक्टिविस्ट नहीं है, उनका काम है सच को सामने लाना. छानबीन करना. वही उन्होंने किया. कितने टीवी और अखबारी रिपोर्टर ये कर पा रहे हैं. उन्हें किसने रोका है. वे रुके ही क्यों हैं. 

अब जबकि दूसरी कई मुठभेड़ों की सच्चाइयां सामने आने लगी हैं. अचानक एक उजाला फूट गया है और जांच एजेंसी को अपनी धूल झाड़ने की याद हो आई है, जिस भी वजह से जैसे भी, लेकिन जिन्हें नहीं पता था वे हैरत और अफ़सोस और सवाल के साथ देख तो पा रहे हैं. चिंहुक कर उठ बैठे भी कई लोग हैं. निर्दोषों के लिए लड़ने और संदिग्ध गिरफ़्तारियों और आरोपों के बारे में अलग पक्ष रखने का जोखिम उठाने का काम रिहाई मंच, पीयूसीएल, कुछेक जनवादी संगठन तो भरसक करते ही आ रहे हैं, ये काम अब ज़रा हिंदी बेल्ट की अलग अलग बौद्धिक हरीतिमाओं में सक्रिय प्रगतिशीलों को भी करना पड़ेगा. वे इस बात से डरना बंद करें कि आलोचना ज़रा घर तक पहुंच जाएं तब करते हैं. देन एंड देयर की घड़ी है. आज नहीं आई है. वहीं थी. उसकी टिकटिक को अनसुना कर आना जाना कर रहे थे, बस. सेक्युलरिज़्म के लिए ये एक बहुत नाज़ुक और अलार्मिंग वक़्त है. उसे कथित बहसों और विवादों में घसीटने की कोशिश की जा रही है. उसका मखौल उड़ाया जाता है. उसे ऐसे चिंहित किया जाता है जैसे वो देशद्रोहनुमा हरकत हो या कोई आधुनिक फ़ैशन तरतीब. इस तरह मनुष्यता के लिए जगह कम की जा रही है. नाना ढंग से ये काम किया जा रहा है. घोषित अघोषित हिंसाओं से लेकर भाषणों, कविता कहानियों और फ़िल्मों तक. मुख्यधारा को क़ातिल रौंद रहे हैं. और हमारे प्रगतिशील किनारे किनारे बाट लगे हैं. उन पर वाकई ये शर्म का पर्दा है या डर का. या इसे नियति मान लिया गया है.


Friday, July 26, 2013

मनोहारी सिंह का साक्षात्कार – ६

(पिछली क़िस्त से आगे)


क्या आपने कभी हेमंत कुमार के साथ भी काम किया?

हां, मुझे उनके कुछ गानों में बांसुरी और मैन्डोलिन बजा चुके होने की याद है. दरअसल उनके एक बांग्ला गीत में मैंने क्लैरिनेट बजाया था.

आपने शंकर-जयकिशन के साथ कई बार काम किया. उनका अल्बम ‘जैज़ रागा’ किस बारे में था?

मेरा ख़याल है एच.एम.वी. ने जयकिशन से एक जैज़ अल्बम कम्पोज़ करने को कहा था. उन्होंने रईस खान, सुमंत राज, दिलीप नायक और मुझे इस अल्न्बम के लिए साथ काम करने को बुलावा भेजा.

उषा खन्ना, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे कम्पोज़र्स के साथ अपने समय को आप कैसे याद रखना चाहेंगे?

हां, मैंने इन सभी के साथ काम किया. इन प्रतिभावान लोगों के साथ काम करना शानदार था. मैंने रविन्द्र जैन के साथ भी काम किया और उनकी फ़िल्म ‘चोर मचाये शोर’ के लिए म्यूजिक अरेंजर का काम किया. हालांकि मैं उनके साथ काफ़ी काम नहीं कर पाया ... मैं और चीज़ों में व्यस्त हो गया था और रविन्द्र जैन का संगीत समय के साथ बदल गया था ...

आपने अपने एक पुराने इंटरव्यू में कहा था कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के कम्पोज़ किये ‘अमीर गरीब’ के गाने “मैं आया हूँ” का सैक्सोफोन पीस बजाना आपके लिए सबसे बड़ी चुनौती था...

हां, मैं इस बात को कहना चाहूँगा कि उस शानदार कम्पोजीशन में उस सैक्सोफोन पीस को बजा पाना बेहद संतुष्ट करनेवाला था. वह मेरे दिल के बेहद करीब हमेशा एक अमर कृति रहेगी.

बाद के कम्पोज़रों जैसे बप्पी लाहिरी, राजेश रोशन, हेमंत भोसले और राम-लक्ष्मण के बारे में कुछ बताइये.

मुझे इन सब के साथ काम करने में मज़ा आया है. सच बात तो यह है कि बप्पी लाहिरी के संगीत के लिए हम शुरुआती अरेंजर थे.

‘सदमा’ के लिए दक्षिण भारतीय उस्ताद इलियाराजा ने आर.डी. बर्मन के संगीतकारों को लिया था ...

मैंने उनके साथ भी काम किया – न सिर्फ़ ‘सदमा’ में बल्कि कुछेक तमिल फिल्मों में भी. मेरे लिए वे एक सम्पूर्ण संगीत निर्देशक रहे हैं जिन्हें हर साज़ की रेंज मालूम रहती है और उन साजों के लिए नोटेशंस लिखना भी उन्हें आता है. सचमुच वे एक महान संगीतकार हैं.

अपने समय के किन साथी संगीतकारों के लिए आपके मन में आदर का भाव है?

हमारे समय में एक से एक संगीतकार थे. उन सब के लिए मेरे भीतर बहुत आदर है – ट्रम्पेट पर जॉर्ज, गिटार पर भूपिंदर, और अकॉर्डियन पर केसरी लार्ड का नाम सबसे पहले जेहन में आ रहा है.

क्या आपके बच्चों में से किसी ने संगीत को चुना?

मेरा सबसे बड़ा बेटा वायोलिन बजाया करता था. छोटा वाला कीबोर्ड बजाता है. लेकिन वे हिन्दी फ़िल्म संगीत में कहीं नहीं पहुँच पाए.