संजय चतुर्वेदी की एक और कविता पेश है -
गरबीले गरीबपरवरों को एक पर्ची
आपके जिस्म पर कमीज़ रही
ये तो इस क़ौम की तमीज़ रही
साकिन-ए-हिन्द जो रिआया है
मोहतरम आपकी कनीज़ रही
ये ज़िनां को मुआफ़ कर देगी
इसमें कमबख़्त यही चीज़ रही ।
Thursday, March 31, 2011
ये शाइरी में हो रिया है क्या वबाल बाउजी
संजय चतुर्वेदी अस्सी-नब्बे के दशक में खूब लिख-छप रहे थे. और उनकी कविताओं में भाषा के साथ एक ख़ास तरह की संजीदा खिलंदड़ी नज़र आती थी. उनकी कविता मुझे बहुत पसंद थी. वे बाकायदा एक चिकित्सक भी थे. उनका एक संग्रह मेरे पास है - प्रकाशवर्ष.
मुझे नहीं पता उन्होंने कवितायेँ लिखना जारी रखा है या नहीं. कुछेक साल पहले समाचार यह भी था की वे नेपाल चले गए हैं. खैर!
पेश हैं उनकी तीन कवितायेँ-
सभी लोग और बाक़ी लोग
सभी लोग बराबर हैं
सभी लोग स्वतंत्र हैं
सभी लोग हैं न्याय के हक़दार
सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ
सभी लोगों को आज़ादी है
दिन में, रात में आगे बढने की
ऐश में रहने की
तैश में आने की
सभी लोग रहते हैं सभी जगह
सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं
सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ
सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं
बाक़ी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ
ये देश सभी लोगों के लिये है
ये दुनिया सभी लोगों के लिये है
हम क्या करें अगर बाक़ी लोग हैं सभी लोगों से ज़्यादा
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ.
बड़ी बड़ी लगे यहाँ सबू की चाल बाउजी
ये शाइरी में हो रिया है क्या वबाल बाउजी
किसू की दाल में गिरा किसू का बाल बाउजी
बिना बड़ा लिखे हुआ बड़ा कमाल बाउजी
बड़ी बड़ी लगे यहाँ सबू की चाल बाउजी
किसू ने कर दिया कहीं जो इक सवाल बाउजी
हया से सुर्ख़ हो गए किसू के गाल बाउजी
जरा कहीं बची रही उसे निकाल बाउजी
किसू के पास है हुनर किसू को माल बाउजी
ये मुर्गियाँ उन्हीं की हैं ये दाल भी उन्हीं की है
उन्हीं के हाथ में छुरी वही दलाल बाउजी
तजल्ली-ए-तज़ाद में अयाँ बला का नूर है
इधर से ये हराम है उधर हलाल बाउजी ।
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा
हिन्दी है एक तगड़ी भाषा
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा
कलाभवन आबाद हुए निष्काषित लोग निकाली भाषा
और वज़ीफ़ाख़ोर कांति के मक्कारों की जाली भाषा
कृतघ्नता के उत्सवधर्मी
अस्ली ग्लोबल कलाकुकर्मी
बुद्धिबाबुओं के विधान में अर्धसत्य की काली भाषा
ऎसे चालू घटाटोप में
स्मृति के व्यापक विलोप में
अन्धकार की कलम तोड़कर
बीच सड़क पर झगड़ी भाषा
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा ।
ऊधौ देय सुपारी
हम नक्काद सबद पटवारी
सरबत सखी निजाम हरामी हम ताके अधिकारी
दाल भात में मूसर मारें और खाएँ तरकारी
बिन बल्ला कौ किरकिट खेलें लम्बी ठोकें पारी
गैल गैल भाजै बनबारी ऊधौ देत सुपारी
मुझे नहीं पता उन्होंने कवितायेँ लिखना जारी रखा है या नहीं. कुछेक साल पहले समाचार यह भी था की वे नेपाल चले गए हैं. खैर!
पेश हैं उनकी तीन कवितायेँ-
सभी लोग और बाक़ी लोग
सभी लोग बराबर हैं
सभी लोग स्वतंत्र हैं
सभी लोग हैं न्याय के हक़दार
सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ
सभी लोगों को आज़ादी है
दिन में, रात में आगे बढने की
ऐश में रहने की
तैश में आने की
सभी लोग रहते हैं सभी जगह
सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं
सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ
सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं
बाक़ी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ
ये देश सभी लोगों के लिये है
ये दुनिया सभी लोगों के लिये है
हम क्या करें अगर बाक़ी लोग हैं सभी लोगों से ज़्यादा
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ.
बड़ी बड़ी लगे यहाँ सबू की चाल बाउजी
ये शाइरी में हो रिया है क्या वबाल बाउजी
किसू की दाल में गिरा किसू का बाल बाउजी
बिना बड़ा लिखे हुआ बड़ा कमाल बाउजी
बड़ी बड़ी लगे यहाँ सबू की चाल बाउजी
किसू ने कर दिया कहीं जो इक सवाल बाउजी
हया से सुर्ख़ हो गए किसू के गाल बाउजी
जरा कहीं बची रही उसे निकाल बाउजी
किसू के पास है हुनर किसू को माल बाउजी
ये मुर्गियाँ उन्हीं की हैं ये दाल भी उन्हीं की है
उन्हीं के हाथ में छुरी वही दलाल बाउजी
तजल्ली-ए-तज़ाद में अयाँ बला का नूर है
इधर से ये हराम है उधर हलाल बाउजी ।
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा
हिन्दी है एक तगड़ी भाषा
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा
कलाभवन आबाद हुए निष्काषित लोग निकाली भाषा
और वज़ीफ़ाख़ोर कांति के मक्कारों की जाली भाषा
कृतघ्नता के उत्सवधर्मी
अस्ली ग्लोबल कलाकुकर्मी
बुद्धिबाबुओं के विधान में अर्धसत्य की काली भाषा
ऎसे चालू घटाटोप में
स्मृति के व्यापक विलोप में
अन्धकार की कलम तोड़कर
बीच सड़क पर झगड़ी भाषा
पिछड़े जन की अगड़ी भाषा ।
ऊधौ देय सुपारी
हम नक्काद सबद पटवारी
सरबत सखी निजाम हरामी हम ताके अधिकारी
दाल भात में मूसर मारें और खाएँ तरकारी
बिन बल्ला कौ किरकिट खेलें लम्बी ठोकें पारी
गैल गैल भाजै बनबारी ऊधौ देत सुपारी
Wednesday, March 30, 2011
इस दश्त में इक शहर था
मोहसिन नक़्वी साहब और की जुगलबन्दी के क्रम को जारी रखते हुए आज सुनिये यह सुप्रसिद्ध ग़ज़ल. ग़ज़ल के शुरू होने से पहले गु़लाम अली, जाहिर है अपनी ट्रेडमार्क शैली में कुछ और भी सुनाते हैं.
ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी
इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी
कल शब मुझे बे-शक्ल सी आवाज़ ने चौँका दिया
मैं ने कहा तू कौन है उस ने कहा आवारगी
ये दर्द की तन्हाइयाँ ये दश्त का वीराँ सफ़र
हम लोग तो उक्ता गये अपनी सुना आवारगी
इक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे ग़म का सबब
सहरा की भीगी रेत पर मैं ने लिखा आवारगी
कल रात तन्हा चाँद को देखा था मैं ने ख़्वाब में
'मोहसिन' मुझे रास आयेगी शायद सदा आवारगी
ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी
इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी
कल शब मुझे बे-शक्ल सी आवाज़ ने चौँका दिया
मैं ने कहा तू कौन है उस ने कहा आवारगी
ये दर्द की तन्हाइयाँ ये दश्त का वीराँ सफ़र
हम लोग तो उक्ता गये अपनी सुना आवारगी
इक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे ग़म का सबब
सहरा की भीगी रेत पर मैं ने लिखा आवारगी
कल रात तन्हा चाँद को देखा था मैं ने ख़्वाब में
'मोहसिन' मुझे रास आयेगी शायद सदा आवारगी
क्योंकि तानाशाह आपके प्राण लेते वक़्त कोई रसीद नहीं देता
ईराकी मूल की कवयित्री दून्या मिख़ाइल की दो और कविताएं प्रस्तुत है. लम्बे समय से युद्ध की विभीषिकाएं झेल रहे अरब समाज, विशेषतः उसकी स्त्रियों का दर्द दून्या की रचनाओं में सतत उपस्थित रहता है. आधुनिक समय के युवा रचनाकारों की सूची में ख़ासा बड़ा नाम मानी जाने वाली दून्या अब निर्वासन में अमेरिका में रहती हैं.
हड्डियों का झोला
क्या तक़दीर है!
उसे मिल गई हैं उसकी हड्डियां.
खोपड़ी भी है झोले में
झोला उस स्त्री के हाथ में
बाक़ी झोलों की तरह
बाक़ी कांपते हाथों की तरह.
उसकी हड्डियां, हज़ारों हड्डियों की तरह
सामूहिक कब्रिस्तान में
उसकी खोपड़ी, दूसरी किसी भी खोपड़ी की तरह नहीं.
दो आंखें या दो गड्ढे
जिनसे कितना सारा देखा था उसने’
दो कान
जिनकी मदद से वह सुनता था उस संगीत को
जो उसकी अपनी कहानी कहता था,
एक नाक
जिसने कभी नहीं जाना साफ़ हवा को
एक मुंह, किसी गर्त की मानिन्द खुला हुआ,
वह तब वैसा नहीं था जब उसने उसे चूमा था
वहां, ख़ामोशी में
इस जगह नहीं
जहां सवालों के साथ खोदी जाती हैं
शोरभरी खोपड़ियां हड्डियां और धूल:
ये सारी मौतें मरने का क्या मतलब है
इस जगह में जहां अन्धेरा खेलता है इस सारी ख़ामोशी के साथ?
अपने प्यारों से अब मिलने का क्या मतलब है
इन तमाम खोखली जगहों पर?
मौत के मौक़े पर
वापस लौटाना अपनी मां को
मुठ्ठीभर हड्डियां
जो उसने दी थीं तुम्हें
जन्म के मौक़े पर?
बिना जन्म या मृत्यु प्रमाणपत्र के निकल जाना
क्योंकि तानाशाह आपके प्राण लेते वक़्त
कोई रसीद नहीं देता?
तानाशाह के पास एक दिल भी है
एक ग़ुब्बारा जो कभी फूलता ही नहीं.
उसकी एक खोपड़ी भी है, ख़ासी विशाल
किसी भी और खोपड़ी से अलहदा.
उसने अपने आप ही हल कर लिया गणित का एक सवाल
जिसने एक मौत को गुणा किया लाखों से
ताकि उत्तर निकले मातृभूमि.
तानाशाह एक बड़ी त्रासदी का निर्देशक है.
उसके श्रोता भी हैं
तालियां पीटने वाले श्रोता,
जब तक कि खड़खड़ाने न लगें हड्डियां -
झोले में हड्डियां,
पूरा झोला आख़िरकार उसके हाथों में है
उसकी निराश पड़ोसन की तरह नहीं
जिसे अभी नहीं मिला है उसका झोला.
सर्वनाम
वह खेलता है ट्रेन-ट्रेन
वह खेलती है सीटी-सीटी
दोनों दूर निकल जाते हैं
वह खेलता है रस्सी-रस्सी
वह खेलती है पेड़-पेड़
दोनों झूला झूलते हैं
वह खेलता है सपना-सपना
वह खेलती है पंख-पंख
दोनों उड़ जाते हैं
वह खेलता है जनरल-जनरल
वह खेलती है जनता-जनता
वे युद्ध की घोषणा कर देते हैं.
हड्डियों का झोला
क्या तक़दीर है!
उसे मिल गई हैं उसकी हड्डियां.
खोपड़ी भी है झोले में
झोला उस स्त्री के हाथ में
बाक़ी झोलों की तरह
बाक़ी कांपते हाथों की तरह.
उसकी हड्डियां, हज़ारों हड्डियों की तरह
सामूहिक कब्रिस्तान में
उसकी खोपड़ी, दूसरी किसी भी खोपड़ी की तरह नहीं.
दो आंखें या दो गड्ढे
जिनसे कितना सारा देखा था उसने’
दो कान
जिनकी मदद से वह सुनता था उस संगीत को
जो उसकी अपनी कहानी कहता था,
एक नाक
जिसने कभी नहीं जाना साफ़ हवा को
एक मुंह, किसी गर्त की मानिन्द खुला हुआ,
वह तब वैसा नहीं था जब उसने उसे चूमा था
वहां, ख़ामोशी में
इस जगह नहीं
जहां सवालों के साथ खोदी जाती हैं
शोरभरी खोपड़ियां हड्डियां और धूल:
ये सारी मौतें मरने का क्या मतलब है
इस जगह में जहां अन्धेरा खेलता है इस सारी ख़ामोशी के साथ?
अपने प्यारों से अब मिलने का क्या मतलब है
इन तमाम खोखली जगहों पर?
मौत के मौक़े पर
वापस लौटाना अपनी मां को
मुठ्ठीभर हड्डियां
जो उसने दी थीं तुम्हें
जन्म के मौक़े पर?
बिना जन्म या मृत्यु प्रमाणपत्र के निकल जाना
क्योंकि तानाशाह आपके प्राण लेते वक़्त
कोई रसीद नहीं देता?
तानाशाह के पास एक दिल भी है
एक ग़ुब्बारा जो कभी फूलता ही नहीं.
उसकी एक खोपड़ी भी है, ख़ासी विशाल
किसी भी और खोपड़ी से अलहदा.
उसने अपने आप ही हल कर लिया गणित का एक सवाल
जिसने एक मौत को गुणा किया लाखों से
ताकि उत्तर निकले मातृभूमि.
तानाशाह एक बड़ी त्रासदी का निर्देशक है.
उसके श्रोता भी हैं
तालियां पीटने वाले श्रोता,
जब तक कि खड़खड़ाने न लगें हड्डियां -
झोले में हड्डियां,
पूरा झोला आख़िरकार उसके हाथों में है
उसकी निराश पड़ोसन की तरह नहीं
जिसे अभी नहीं मिला है उसका झोला.
सर्वनाम
वह खेलता है ट्रेन-ट्रेन
वह खेलती है सीटी-सीटी
दोनों दूर निकल जाते हैं
वह खेलता है रस्सी-रस्सी
वह खेलती है पेड़-पेड़
दोनों झूला झूलते हैं
वह खेलता है सपना-सपना
वह खेलती है पंख-पंख
दोनों उड़ जाते हैं
वह खेलता है जनरल-जनरल
वह खेलती है जनता-जनता
वे युद्ध की घोषणा कर देते हैं.
Tuesday, March 29, 2011
घुमक्कड़ी करने का चीनी नुस्ख़ा
चित्र - क्रिस्टोफ़र ग्रीको की पेन्टिंग रिज रोड
घुमक्कड़ का कोई तय निवास नहीं होता; सड़क ही उसका घर है. उसे ईमानदार और अडिग बने रहना होता है ताकि वह उचित जगहों पर जाए, केवल भले लोगों से मिले. उसके बाद यदि भाग्य उसके साथ हो तो वह अपने रास्ते पर बग़ैर छेड़छाड़ के चलता रह सकता है.
अगर घुमक्कड़ अपने आप को छोटी-मोटी चीज़ों में व्यस्त करने लगता है तो वह बदक़िस्मती को न्यौत रहा होता है. एक आदर्श घुकक्कड़ ने अपने आप को गिराना नहीं चाहिये, न ही रास्ते में मिलने वाली तुच्छ चीज़ों में ख़ुद को लिप्त करना चाहिये. बाहर से वह जितना विनम्र और सुरक्षाहीन लगे, उतना ही उसने अपने भीतरी आत्मसम्मान को बचाए रखना चाहिये. क्योंकि अगर एक अजनबी आदमी चुटकुलों और मसख़रेपन के सहारे दूसरों से दोस्ताना व्यवहार की उम्मीद करता है तो वह ग़लती पर होता है. इसका परिणाम केवल तिरस्कार और अपमानजनक बर्ताव होगा और कुछ नहीं.
(शास्त्रीय जीवनज्ञान की सबसे पुराने चीनी ग्रन्थों में एक आइ चिंग के छप्पनवें हिस्से से)
अपनी कहो अब तुम कैसे हो
आज एक भला काम यह हुआ कि ग़ज़लों से ताल्लुक रखने वाले अपने ब्लॉग सुख़नसाज़ पर कई महीनों बाद एक नई पोस्ट लगाई. एक पोस्ट परसों के लिए शिड्यूल की. ग़ज़लें अपलोड करते हुए ख़याल आया कि कबाड़ख़ाने पर भी बहुत दिनों से कुछ संगीत नहीं आया है. लगे हाथों ग़ुलाम अली की गाई मोहसिन नक़्वी की ग़ज़ल क्यों न आप लोगों के सामने पेश कर दी जावे -
सैयद मोहसिन नक़्वी उर्दू के बड़े शायरों में शुमार किये जाते हैं. पाकिस्तान के डेरा ग़ाज़ी ख़ान के नज़दीक सादात गांव में जन्मे मोहसिन ने गवर्नमेन्ट कॉलेज मुल्तान और पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से पढ़ाई की. मोहसिन का असली नाम ग़ुलाम अब्बास था. लाहौर आने से पहले ही वे मोहसिन नक़्वी के नाम से ख़ासे विख्यात हो चुके थे. उन्हें अहल-ए-बैत का शायर भी कहा जाता था. करबला के बारे में रची उनकी शायरी समूचे पाकिस्तान में गाई जाती है. उनकी शायरी में अलिफ़-लैला के क़िस्सों सरीखी रूमानियत नहीं थी. इस के बरअक्स वे किसी भी अमानवीय शासक की धज्जियां उड़ाने से ग़ुरेज़ नहीं करते थे. इसी वजह से १५ जनवरी १९९६ को लहौर के ही मुख्य बाज़ार में उनका कत्ल कर दिया गया.
इतनी मुद्दत बाद मिले हो
किन सोचों में गुम रहते हो
तेज़ हवा ने मुझ से पूछा
रेत पे क्या लिखते रहते हो
कौन सी बात है तुम में ऐसी
इतने अच्छे क्यों लगते हो
हम से न पूछो हिज्र के क़िस्से
अपनी कहो अब तुम कैसे हो
(कल आपको उनकी एक और मशहूर ग़ज़ल सुनवाता हूं.)
सैयद मोहसिन नक़्वी उर्दू के बड़े शायरों में शुमार किये जाते हैं. पाकिस्तान के डेरा ग़ाज़ी ख़ान के नज़दीक सादात गांव में जन्मे मोहसिन ने गवर्नमेन्ट कॉलेज मुल्तान और पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से पढ़ाई की. मोहसिन का असली नाम ग़ुलाम अब्बास था. लाहौर आने से पहले ही वे मोहसिन नक़्वी के नाम से ख़ासे विख्यात हो चुके थे. उन्हें अहल-ए-बैत का शायर भी कहा जाता था. करबला के बारे में रची उनकी शायरी समूचे पाकिस्तान में गाई जाती है. उनकी शायरी में अलिफ़-लैला के क़िस्सों सरीखी रूमानियत नहीं थी. इस के बरअक्स वे किसी भी अमानवीय शासक की धज्जियां उड़ाने से ग़ुरेज़ नहीं करते थे. इसी वजह से १५ जनवरी १९९६ को लहौर के ही मुख्य बाज़ार में उनका कत्ल कर दिया गया.
इतनी मुद्दत बाद मिले हो
किन सोचों में गुम रहते हो
तेज़ हवा ने मुझ से पूछा
रेत पे क्या लिखते रहते हो
कौन सी बात है तुम में ऐसी
इतने अच्छे क्यों लगते हो
हम से न पूछो हिज्र के क़िस्से
अपनी कहो अब तुम कैसे हो
(कल आपको उनकी एक और मशहूर ग़ज़ल सुनवाता हूं.)
हम भगवान को ई-मेल कर देंगे
ईराकी मूल की कवयित्री दून्या मिख़ाइल का नाम आप लोगों के लिए नया नहीं है. यहां उनकी कुछेक कविताएं आप पढ़ चुके हैं. अंग्रेज़ी और अरबी दोनों भाषाओं में समान अधिकार से लिखने वाली दून्या इधर के दोएक दशकों में अरब संसार में उपजी असाधारण कवियों की जमात में जगह पाने की सच्ची हक़दार हैं. उन्हीं की अनुमति से अभी मैंने उनकी एक पुस्तक का अनुवाद समाप्त किया है. पेश है उनकी एक कविता -
एक ज़रूरी कॉल
यह एक ज़रूरी कॉल है
अमेरिकी सैनिक लिन्डी के लिए
कि वह तुरन्त अपने वतन लौट जाए.
वह दिल में एक खतरनाक वायरस
की बीमारी से ग्रस्त है.
वह गर्भवती है
और धंस रही है गहरे कीचड़ में.
वह धंसती जाती है गहरे और भी गहरे
जब वह सुनती है: "बहुत बढ़िया!"
जल्दी करो, लिन्डी,
अब वापस चली जाओ अमेरिका.
फ़िक्र न करो,
तुम्हारी नौकरी कहीं नहीं जा रही.
क़ैदख़ाने हर जगह हैं
बड़े-बड़े छेदों वाले क़ैदख़ाने
और विराट कांप,
और लगातार-लगातार कौंधें,
और थरथराहटें जो
बिना किसी ज़ुबान के
ब्रह्माण्ड में भेज रहे हैं सन्देश.
फ़िक़्र न करो,
तुम्हें ज़बरन कोई नहीं कहेगा
चिड़ियों को दाना डालने को
जब तुम लादे होगी एक बन्दूक.
जब तुम युद्ध में पहने जाने वाले बूटों में होओगी
कोई भी विवश नहीं करेगा तुम्हें
पर्यावरण के लिए काम करने को.
फ़िक्र मत करो,
हम भगवान को ई-मेल कर देंगे
और उसे बता देंगे
कि बर्बर ही थे
इकलौता समाधान.
फ़िक्र मत करो
बीमारी की छुट्टी ले लो
और आज़ाद करो अपने शिशु को
अपनी देह से,
लेकिन उन हैबतनाक तस्वीरों को
छिपाना मत भूलना,
कीचड़ में तुम्हारे नाचने की तस्वीरें.
उन्हें बच्चे या बच्ची की निगाहों से
दूर ही रखना.
छिपा लेना उन्हें प्लीज़
तुम नहीं चाहोगी कि तुम्हारी सन्तान चिल्ला कर कहे -
क़ैदी नंगे हैं ...
[लिन्डी: लिन्डी इंग्लैण्ड (ऊपर आप उसकी तस्वीर देख सकते हैं), अबू ग़रेब जेल कांड में शामिल सात सैन्य अफ़सरों में एक. तस्वीरों में वह अन्य अमेरिकी सिपाहियों के साथ ईराक़ी क़ैदियों को यातना देती हुई पाई गई थी. यह अब तक साफ़ नहीं हो सका है कि इन लोगों ने पेन्टागन या व्हाइट हाउस के आदेशानुसार यह जघन्य काम किया था या नहीं.]
(*यह सम्भव है कि आपको यहां दून्या मिख़ाइल की कुछ और कविताएं लगातार पढ़ने को मिलती रहें.)
एक ज़रूरी कॉल
यह एक ज़रूरी कॉल है
अमेरिकी सैनिक लिन्डी के लिए
कि वह तुरन्त अपने वतन लौट जाए.
वह दिल में एक खतरनाक वायरस
की बीमारी से ग्रस्त है.
वह गर्भवती है
और धंस रही है गहरे कीचड़ में.
वह धंसती जाती है गहरे और भी गहरे
जब वह सुनती है: "बहुत बढ़िया!"
जल्दी करो, लिन्डी,
अब वापस चली जाओ अमेरिका.
फ़िक्र न करो,
तुम्हारी नौकरी कहीं नहीं जा रही.
क़ैदख़ाने हर जगह हैं
बड़े-बड़े छेदों वाले क़ैदख़ाने
और विराट कांप,
और लगातार-लगातार कौंधें,
और थरथराहटें जो
बिना किसी ज़ुबान के
ब्रह्माण्ड में भेज रहे हैं सन्देश.
फ़िक़्र न करो,
तुम्हें ज़बरन कोई नहीं कहेगा
चिड़ियों को दाना डालने को
जब तुम लादे होगी एक बन्दूक.
जब तुम युद्ध में पहने जाने वाले बूटों में होओगी
कोई भी विवश नहीं करेगा तुम्हें
पर्यावरण के लिए काम करने को.
फ़िक्र मत करो,
हम भगवान को ई-मेल कर देंगे
और उसे बता देंगे
कि बर्बर ही थे
इकलौता समाधान.
फ़िक्र मत करो
बीमारी की छुट्टी ले लो
और आज़ाद करो अपने शिशु को
अपनी देह से,
लेकिन उन हैबतनाक तस्वीरों को
छिपाना मत भूलना,
कीचड़ में तुम्हारे नाचने की तस्वीरें.
उन्हें बच्चे या बच्ची की निगाहों से
दूर ही रखना.
छिपा लेना उन्हें प्लीज़
तुम नहीं चाहोगी कि तुम्हारी सन्तान चिल्ला कर कहे -
क़ैदी नंगे हैं ...
[लिन्डी: लिन्डी इंग्लैण्ड (ऊपर आप उसकी तस्वीर देख सकते हैं), अबू ग़रेब जेल कांड में शामिल सात सैन्य अफ़सरों में एक. तस्वीरों में वह अन्य अमेरिकी सिपाहियों के साथ ईराक़ी क़ैदियों को यातना देती हुई पाई गई थी. यह अब तक साफ़ नहीं हो सका है कि इन लोगों ने पेन्टागन या व्हाइट हाउस के आदेशानुसार यह जघन्य काम किया था या नहीं.]
(*यह सम्भव है कि आपको यहां दून्या मिख़ाइल की कुछ और कविताएं लगातार पढ़ने को मिलती रहें.)
Monday, March 28, 2011
राग दरबारी से एक सर्फ़री हिस्सा
श्रीलाल शुक्ल की क्लासिक राग दरबारी से एक हिस्सा प्रस्तुत कर रहा हूं. आनन्द लीजिये. -
शिवपालगंज गॉंव था, पर वह शहर से नजदीक और सड़क के किनारे था. इसलिए बड़े बड़े नेताओं और अफसरों को वहॉं तक आने में सैद्धान्तिक एतराज नहीं हो सकता था. कुओं के अलावा वहॉं कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाहर से आने वाले बड़े लोग प्यास लगने पर, अपनी जान को खतरे में डाले बिना, वहॉं का पानी पी सकते थे. खाने का भी सुभीता था. वहॉं के छोटे मोटे अफसरों में कोई न कोई ऐसा निकल ही आता था जिसके ठाठ बाट देख कर वहॉं वाले उसे परले सिरे का बेईमान समझते, पर जिसे देख कर ये बाहरी लोग आपस में कहते, कितना तमीजदार है. बहुत बड़े खानदान का लड़का है. देखो न, इसे चीको साहब की लड़की ब्याही है. इसलिए भूख लगने पर अपनी ईमानदारी को खतरे में डाले बिना वे लोग वहॉं खाना भी खा सकते थे. कारण जो भी रहा हो, उस मौसम में शिवपालगंज में जन नायकों और जन सेवकों का आना जाना बड़े जोर से शुरू हुआ था. उन सबको शिवपालगंज के विकास की चिन्ता थी और नतीजा यह होता था कि वे लेक्चर देते थे.
वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्रायः शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गँजंहों के लिए आदर्श परिस्थिति है. फिर भी लेक्चर इतने ज्यादा होते थे कि दिलचस्पी के बावजूद, लोगों को अपच हो सकता था. लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं. पर कुछ लेक्चर देने वाले इतनी गम्भीरता से चलते कि सुनने वाले को कभी-कभी लगता था यह आदमी अपने कथन के प्रति सचमुच ईमानदार है. ऐसा सन्देह होते ही लेक्चर गाढ़ा और फीका बन जाता था और उसका श्रोताओं के हाजमे के बहुत खिलाफ पड़ता है. यह सब देख कर गँजंहों ने अपनी-अपनी तन्दुरुस्ती के अनुसार लेक्चर ग्रहण करने का समय चुन लिया था, कोई सवेरे खाना खाने के पहले लेक्चर लेता था, कोई दोपहर को खाना खाने के बाद. ज्यादातर लोग लेक्चर की सबसे बड़ी मात्रा दिन के तीसरे पहर ऊँघने और शाम को जागने के बीच में लेते थे.
उन दिनों गांव में लेक्चर का मुख्य विषय खेती था. इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पहले कुछ और था. वास्तव में पिछले कुछ कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है. गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मान कर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे. इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूंढकर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है. इसके बाद वे यह बताते थे कि खेती की उन्नति ही देश की उन्नति है. फिर आगे की बात बताने के पहले ही प्रायः दोपहर के खाने का वक्त हो जाता और वह तमीज़दार लड़का, जो बड़े सम्पन्न घराने की औलाद हुआ करता था और जिसको चीको साहब की लड़की ब्याही रहा करती थी, वक्ता की पीठ का कपड़ा खींच-खींचकर इशारे से बताने लगता कि चाचाजी, खाना तैयार है. कभी कभी कुछ वक्तागण आगे की बात भी बता ले जाते थे और तब मालूम होता कि उनकी आगे की और पीछे की बात में कोई फर्क नहीं था, क्योंकि घूम-फिरकर बात यही रहती थी कि भारत एक खेतिहर देश है, तुम खेतिहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चहिए, अधिक अन्न उपजाना चाहिए. प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते.
लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे. मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते. इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाये और उन्हे अच्छी अच्छी तस्वीरें दिखायी जायें. उनके द्वारा उन्हे बताया जाये कि तुम अगर अपने लिये अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिये करो. इसी से जगह जगह पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों से देश के लिये अधिक अन्न पैदा कराना चाहते थे. लेक्चरों और तस्वीरों का मिला जुला असर काश्तकारों पर बड़े जोर से पड़ता था और भोले-से-भोला काश्तकार भी मानने लगता कि हो न हो, इसके पीछे भी कोई चाल है.
शिवपालगंज में उन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खासतौर से मशहूर हो रहा था जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अँगोछा बाँधे, कानों में बालियाँ लटकाये और बदन पर मिर्जई पहने गेहूँ की ऊँची फसल को हँसिये से काट रहा था. एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने-आपसे बहुत खुश, कृषी विभाग के अफसरों वाली हँसी हंस रही थी. नीचे और ऊपर अंग्रेजी और हिन्दी अक्षरों में लिखा थ, "अधिक अन्न उपजाओ." मिर्जई और बालीवाले काश्तकारों में जो अंग्रेजी के विद्वान थे, उन्हे अंग्रेजी इबारत से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हे हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गयी थी; और जो दोनों में से एक भी भाषा नहीं जानते थे, वे भी कम-से-कम आदमी और औरत को तो पहचानते ही थे. उनसे आशा की जाती थी कि आदमी के पीछे हँसती हुई औरत की तस्वीर देखते ही उसकी और पीठ फेर कर दीवानों की तरह अधिक अन्न उपजाना शुरू कर देंगे. यह तस्वीर आजकल कई जगह चर्चा का विषय बनी थी, क्योंकि यहाँ वालों कि निगाह में तस्वीर वाले आदमी की शक्ल कुछ-कुछ बद्री पहलवान से मिलती थी. औरत की शक्ल के बारे में गहरा मतभेद था. वह गाँव की देहाती लड़कियों में से किसकी थी, यह अभी तय नहीं हो पाया था.
वैसे सबसे ज़्यादा जोर-शोर वाले विज्ञापन खेती के लिए नहीं, मलेरिया के बारे में थे. जगह-जगह मकानों की दीवारों पर गेरू से लिखा गया था कि "मलेरिया को खत्म करने में हमरी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो." यहाँ भी यह मान कर चल गया था कि किसान गाय-भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय-परिवर्तन करना पड़ेगा. हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है - इस भारतीय तर्क पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गयी थीं. इसीलिए प्रायः सभी लोगों ने इनको कविता के रूप में नहीं, चित्रकला के रूप में स्वीकार किया था और गेरू से दीवार रंगने वालों को मनमानी अंग्रेजी लिखने की छूट दे दी थी. दीवारें रंगती जाती थीं, मच्छर मरते जाते थे. कुत्ते भूँका करते थे, लोग अपनी राह चलते रहते थे.
एक विज्ञापन भोले-भाले ढंग से बताता था कि हमें पैसा बचाना चहिए. पैसा बचाने की बात गांववालों को उनके पूर्वज मरने के पहले ही बता गये थे और लगभग प्रत्येक आदमी को अच्छी तरह मालूम थी. इसमें सिर्फ़ इतनी नवीनता थी कि यहाँ भी देश का जिक्र था, कहीं-कहीं इशारा किया गया था कि अगर तुम अपने लिए पैसा नहीं बचा सकते तो देश के लिए बचाओ. बात बहुत ठीक थी, क्योंकि सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े ओहदेदार, वकील डाक्टर - ये सब तो अपने लिए पैसा बचा ही रहे थे, इसलिए छोटे-छोटे किसानों को देश के लिए पैसा बचाने में क्या ऐतराज हो सकता था ! सभी इस बात से सिद्धान्तरूप में सहमत थे कि पैसा बचाना चाहिए. पैसा बचाकर किस तरह कहाँ जमा किया जायेगा, ये बातें भी विज्ञापनों और लेक्चरों में साफतौर से बतायी गयी थीं और लोगों को उनसे भी कोई आपत्ति न थी. सिर्फ़ लोगों को यही नहीं बताया गया था कि कुछ बचाने के पहले तुम्हारी मेहनत के एवज़ में तुम्हे कितना पैसा मिलना चाहिए. पैसे की बचत का सवाल आमदनी और खर्च से जुड़ा हुआ है, इस छोटी सी बात को छोड़कर बाकी सभी बातों पर इन विज्ञापनों में विचार कर लिया गया था और लोगों ने इनको इस भाव से स्वीकार कर लिया था कि ये बिचारे दीवार पर चुपचाप चिपके हुए हैं, न दाना माँगते हैं, न चारा, न कुछ लेते हैं न देते हैं. चलो इन तस्वीरों को छेड़ो नहीं.
पर रंगनाथ को जिन विज्ञापनों ने अपनी ओर खींचा, वे पब्लिक सेक्टर के विज्ञापन न थे, प्राइवेट सेक्टर की देन थे. उनसे प्रकट होने वली बातें कुछ इस प्रकार थी: "उस क्षेत्र में सबसे ज्यादा व्यापक रोग दाद है, एक ऐसी दवा है जिसको दाद पर लगाया जाये तो उसे जड़ से आराम पहुँचता है, मुँह से खाया जाये तो खाँसी-जुकाम दूर होता है, बताशे में डालकर पानी से निगल लिया जाये तो हैजे में लाभ पहुँचता है. ऐसी दवा दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती. उसके अविष्कारक अभी तक जिंदा हैं, यह विलायत वालों की शरारत है कि उन्हे आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है".
इस देश में और भी बड़े बड़े डॉक्टर हैं जिनको नोबल पुरस्कार नहीं मिला है. एक कस्बा जहानाबाद में रहते हैं और चूँकि वहाँ बिजली आ चुकी है, इसलिए वे नामर्दी का इलाज बिजली से करते हैं. अब नामर्दों को परेशान होने की जरूरत नहीं है. एक दूसरे डॉक्टर, जो कम-से-कम भारतवर्ष-भर में तो मशहूर हैं ही, बिना ऑपरेशन के अण्ड-वृद्धि का इलाज करते हैं. और यह बात शिवपालगंज में किसी भी दीवार पर तारकोल के हरूफ़ में लिखी हुई पायी जा सकती है. वैसे बहुत से विज्ञापन बच्चों में सूखा रोग, आँखों की बीमारी और पेचिश आदि से भी सम्बद्ध हैं, पर असली रोग संख्या में कुल तीन ही हैं- दाद, अण्डवृद्धि और नामर्दी; और इनके इलाज की तरकीब शिवपालगंज के लड़के अक्षर-ज्ञान पा लेने के बाद ही दीवारों पर अंकित लेखों के सहारे जानना शुरू कर देते हैं.
विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' अपना अलग व्यक्तित्व रखता था. वह दीवारों पर लिखे 'नामर्दी के बिजली से इलाज' जैसे अश्लील लेखों के मुकाबले में नहीं आता था. वह छोटे छोटे नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर - जिनके पास पेशाब करना और जिन पर विज्ञापन चिपकाना मना था - टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल-हरे अक्षरों में प्रकट होता था और सिर्फ इतना कहता था, 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी.
एक दिन रंगनाथ ने देखा, रोगों की चिकित्सा में एक नया आयाम जुड़ रहा है. सवेरे से ही कुछ लोग दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रहे हैं : बवसीर ! शिवपालगंज की उन्नति का लक्षण था. बवासीर के चार आदमकद अक्षर चिल्लाकर कह रहे थे कि यहाँ पेचिश का युग समाप्त हो गया है, मुलायम तबीयत, दफ़्तर की कुर्सी, शिष्टतापूर्ण रहन-सहन, चौबीस घण्टे चलनेवाले खान-पान और हल्के परिश्रम का युग धीरे-धीरे संक्रमण कर रहा है और आधुनिकता के प्रतीक-जैसे बवासीर सर्वव्यापी नामर्दी का मुकाबला करने के लिये मैदान में आ रही है. शाम तक वह दैत्याकार विज्ञापन एक दीवार पर रंग-बिरंगी छाप छोड़ चुका था और दूर दूर तक ऐलान करने लगा था : बवासीर का शर्तिया इलाज !
देखते-देखते चार-छः दिन मे ही सारा जमाना बवासीर और उसके शर्तिया इलाज के नीचे दब गया. हर जगह वही विज्ञापन चमकने लगा. रंगनाथ को सबसे बड़ा अचम्भा तब हुआ जब उसने देखा, वही विज्ञापन एक दैनिक समाचार-पत्र में आ गया है. यह समाचारपत्र रोज़ दस बजे दिन तक शहर से शिवपालगंज आता था और लोगों को बताने में सहायक होता था कि स्कूटर और ट्रक कहाँ भिड़ा, अब्बासी नामक कथित गुण्डे ने इरशाद नामक कथित सब्जी-फरोश पर कथित छुरी से कहाँ कथित रूप से वार किया. रंगनाथ ने देखा कि उस दिन अखबार के पहले पृष्ठ का एक बहुत बड़ा हिस्सा काले रंग में रंगा हुआ है और उस पर बड़े-बड़े सफेद अक्षरों में चमक रहा है : बवासीर ! अक्षरों की बनावट वही है जो यहाँ दीवारों पर लिखे विज्ञापन में है. उन अक्षरों ने बवासीर को एक नया रूप दे दिया था, जिसके कारण आसपास की सभी चीजें बवासीर की मातहती में आ गयी थीं. काली पृष्ठभूमि में अखबार के पन्ने पर चमकता हुआ 'बवासीर' दूर से ही आदमी को अपने में समेट लेता था. यहां तक कि सनीचर, जिसे बड़े-बड़े अक्षर पढ़ने में भी आंतरिक कष्ट होता था, अखबार के पास खिंच आया और उस पर निगाह गड़ाकर बैठ गया. बहुत देर तक गौर करने के बाद वह रंगनाथ से बोला, "वही चीज है."
इसमें अभिमान की खनक थी. मतलब यह था कि शिवपालगंज की दीवारों पर चमकने वले विज्ञापन कोई मामूली चीज़ नहीं हैं. ये बाहर अख़बारों में छपते हैं, और इस तरह जो शिवपालगंज में है, वही बाहर अख़बारों में है.
रंगनाथ तख्त पर बैठा रहा. उसके सामने अख़बार का पन्ना तिरछा होकर पड़ा था. अमरीका ने एक नया उपग्रह छोड़ा था, पाकिस्तान-भारत सीमा पर गोलियां चल रही थीं, गेहूँ की कमी के कारण राज्यों का कोटा कम किया जाने वाला था, सुरक्षा-समिति में दक्षिण अफ्रीका के कुछ मसलों पर बहस हो रही थी, इन सब अबाबीलों को अपने पंजे में किसी दैत्याकार बाज़ की तरह दबाकर वह काला-सफेद विज्ञापन अपने तिरछे हरूफ में चीख रहा था: बवासीर ! बवासीर ! इस विज्ञापन के अखबार में छपते ही बवासीर शिवपालगंज और अन्तर्र्राष्ट्रीय जगत के बीच सम्पर्क का एक सफल माध्यम बन चुकी थी.
डाकुओं का आदेश था कि एक विशेष तिथि को विशेष स्थान पर जाकर रामाधीन की तरफ से रुपये की थैली एकान्त में रख दी जाये. डाका डालने की यह पद्धति आज भी देश के कुछ हिस्सों में काफी लोकप्रिय है. पर वास्तव में है यह मध्यकालीन ही, क्योंकि इसके लिये चांदी या गिलट के रुपये और थैली का होना आवश्यक है, जबकि आजकल रुपया नोटों की शक्ल में दिया जा सकता है और पांच हजार रुपये प्रेम-पत्र की तरह किसी लिफाफे में भी आ सकते हैं. ज़रूरत पड़ने पर चेक से भी रुपयों का भुगतान किया जा सकता है. इन कारणों से परसों रात अमुक टीले पर पांच हजार रुपये की थैली रखकर चुपचाप चले जाओ, यह आदेश मानने में व्यावहारिक कठिनाइयां हो सकती हैं. टीले पर छोड़ा हुआ नोटों का लिफाफा हवा में उड़ सकता है, चेक जाली हो सकता है. संक्षेप में, जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकलीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं.
थे.
जो भी हो, डकैतों ने इन बातों पर विचार नहीं किया था क्योंकि रामाधीन के यहां डाके की चिट्ठी भेजने वाले असली डकैत न थे. उन दिनों गांव-सभा और कॉलेज की राजनीति को लेकर रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी में कुछ तनातनी हो गयी थी. अगर शहर होता और राजनीति ऊँचे दरजे की होती तो ऐसे मौके पर रामाधीन के खिलाफ किसी महिला की तरफ से पुलिस में यह रिपोर्ट आ गयी होती उन्होंने उसका शीलभंग करने की सक्रिय चेष्टा की, पर महिला के सक्रिय विरोध के कारण वे कुछ नहीं कर पाये और वह अपना शील समूचा-का-समूचा लिये हुए सीधे थाने तक आ गयी. पर यह देहात था जहां अभी महिलाओं के शीलभंग को राजनीतिक युद्ध में हैण्डग्रेनेड की मान्यता नहीं मिली थी, इसीलिए वहां कुछ पुरानी तरकीबों का ही प्रयोग किया गया था और बाबू रामाधीन के ऊपर डाकुओं का संकट पैदा करके उन्हें कुछ दिन तिलमिलाने के लिये छोड़ दिया गया था.
पुलिस, रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी का पूरा गिरोह- ये सभी जानते थे कि चिट्ठी फर्जी है. ऐसी चिट्ठियां कई बार कई लोगों के पास आ चुकी थीं. इसलिए रामाधीन पर यह मजबूरी नहीं थी कि वह नीयत तिथि और समय पर रुपये के साथ टीले पर पहुंच जाये. चिट्ठी फर्जी न होती, तब भी रामाधीन शायद चुपचाप रुपया दे देने के मुकाबले घर पर डाका डलवा लेना ज्यादा अच्छा समझते. पर चूंकि रिपोर्ट थाने में दर्ज हो गयी थी, इसलिए पुलिस अपनी ओर से कुछ करने को मजबूर थी.
उस दिन टीले से लेकर गांव तक का स्टेज पुलिस के लिये समर्पित कर दिया गया और उसमें वे डाकू-डाकू का खेल खेलते रहे. टीले पर तो एक थाना-का-थाना ही खुल गया. उन्होंने आसपास के ऊसर, जंगल, खेत-खलिहान सभी कुछ छान डाले, पर डाकुओं का कहीं निशान नहीं मिला. टीले के पास उन्होने पेड़ों की टहनियां हिला कर, लोमड़ियों के बिलों में संगीनें घुसेड़कर और सपाट जगहों को अपनी आंखों से हिप्नोटाइज़ करके इत्मिनान कर लिया कि वहां जो है, वे डाकू नहीं हैं; क्रमशः चिड़ियां, लोमड़ियां और कीड़े मकोड़े हैं. रात को जब बड़े जोर से कुछ प्राणी चिल्लाये तो पता चला कि वे भी डाकू नहीं, सियार हैं और पड़ोस के बाग टीले में जब दूसरे प्राणी बोले तो कुछ देर बाद समझ आ गया कि वे कुछ नहीं, सिर्फ चमगादड़ हैं. उस रात डाकुओं और रामाधीन भीखमखेड़वी के बीच की कुश्ती बराबर पर छूटी, क्योंकि टीले पर न डाकू रुपया लेने के लिये आये और न रामाधीन देने के लिये गये.
थाने के छोटे दरोगा को नौकरी पर आये अभी थोड़े ही दिन हुए थे. टीले पर डाकुओं को पकड़ने का काम उन्हें ही सौंपा गया था, पर सब कुछ करने पर भी वे अपनी माँ को भेजे जाने वाली चिट्ठियों की अगली किश्त में यह लिखने लायक नहीं हुए थे कि माँ, डाकुओं ने मशीनगन तक का इस्तेमाल किया, पर इस भयंकर गोलीकाण्ड में भी तेरे आशीर्वाद से तेरे बेटे का बाल तक बाँका नहीं हुआ. वे रात को लगभग एक बजे टीले से उतरकर मैदान में आये; और चूंकि सर्दी होने लगी थी और अंधेरा था और उन्हे अपनी नगरवासिनी प्रिया की याद आने लगी थी और चूंकि उन्होंने बी. ए. में हिन्दी-साहित्य भी पढ़ा था; इन सब मिले-जुले कारणों से उन्होंने धीरे धीरे कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया और आखिर में गाने लगे, "हाय मेरा दिल ! हाय मेरा दिल !
'तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर' वाली कहावत को चरितार्थ करते उनके आगे भी दो सिपाही थे और पीछे भी. दरोगाजी गाते रहे और सिपही सोचते रहे कि कोई बात नहीं, कुछ दिनों में ठीक हो जायेंगे. मैदान पार करते करते दरोगा जी का गाना कुछ बुलन्दी पर चढ़ गया और साबित करने लगा कि जो बात इतनी बेवकूफी की है कि कही नहीं जा सकती, वह बड़े मजे से गायी जा सकती है.
सड़क पास आ गयी थी. वहीं एक गड्ढे से अचानक आवाज आयी, "कर्फ़ोन है सर्फाला?" दरोगाजी का हाथ अपने रिवाल्वर पर चला गया. सिपहियों ने ठिठक कर राईफलें संभाली; तब तक गड्ढे ने दोबारा आवाज दी "कर्फ़ोन है सर्फाला?"
एक सिपाही ने दरोगाजी के कान में कहा, "गोली चल सकती है. पेड़ के पीछे हो लिया जाये हुजूर!"
पेड़ उनके पास से लगभग पांच गज की दूरी पर था. दरोगाजी ने सिपाही से फुसफुसा कर कहा, "तुम लोग पेड़ के पीछे हो जाओ. मैं देखता हूं."
इतना कहकर उन्होंने कहा, "गड्ढे में कौन है? जो कोई भी हो बाहर आ जाओ." फिर एक सिनेमा में देखे दृश्य को याद करके उन्होंने बात जोड़ी, "तुम लोग घिर गये हो. तुम आघे मिनट में बाहर न आये तो गोली चला दी जायेगी."
गड्ढे में थोड़ी देर खामोशी रही, फिर आवाज आयी, "मर्फ़र गर्फ़ये सर्फ़ाले, गर्फ़ोली चर्फ़लानेवाले."
प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है, भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है. इतनी तरह की बोलियां उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती. पर इस भाषा ने दरोगाजॊ को चौकन्ना बना दिया और वे सोचने लगे कि क्या मामला है ! इतना तो समझ में आता है कि इसमें कोई गाली है, पर यह क्यों नही समझ में आता कि यह कौन सी बोली है ! इसके बाद ही जहां बात समझ से बाहर होती है वहीं गोली चलती है - इस अन्तर्राष्ट्रिय सिद्धान्त का शिवपालगंज में प्रयोग करते हुए दरोगाजी ने रिवाल्वर तान लिया और कड़ककर बोले, "गड्ढे से बाहर आ जाओ, नहीं तो मैं गोली चलाता हूं."
पर गोली चलाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक सिपाही ने पेड़ के पीछे से निकल कर कहा, "गोली मत चलाइए हजूर, यह जोगनथवा है. पीकर गद्ढे में पड़ा है."
सिपाही लोग उत्साह से गद्ढे को घेर कर खड़े हो गए. दरोगाजी ने कहा, " कौन जोगनथवा ?"
एक पुराने सिपाही ने तजुर्बे के साथ कहना शुरू किया, "यह श्री रामनाथ का पुत्र जोगनाथ है. अकेला आदमी है. दारू ज्यादा पीता है."
लोगों ने जोगनाथ को उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया, पर जो खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं होना चाहता उसे दूसरे कहां तक खड़ा करते रहेंगे ! इसलिए वह लड़खड़ा कर एक बार फिर गिरने को हुआ, बीच में रोका गया और अंत में गड्ढे के ऊपर आकर परमहंसों की तरह बैठ गया. बैठकर जब उसने आंखें मिला-मिला कर, हाथ हिलाकर चमगादड़ों और सियारों की कुछ आवाजें गले से निकालकर अपने को मानवीय स्तर पर बात करने लायक बनाया, तो उसके मुंह से फिर वही शब्द निकले, "कर्फ़ोन है सर्फाला?"
दरोगाजी ने पूछा, "यह बोली कौन सी है?"
एक सिपाही ने कहा, "बोली ही से तो हमने पहचाना कि जोगनाथ है. यह सर्फ़री बोली बोलता है. इस वक्त होश में नही है, इसलिए गालॊ बक रहा है."
दरोगाजी शायद गाली देने के प्रति जोगनाथ की इस निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए कि वह बेहोशी की हालत में भी कम से कम इतना तो कर ही रहा है. उन्होने उसकी गरदन जोर से हिलायी और पकड़ कर बोले, "होश में आ!"
पर जोगनाथ ने होश में आने से इन्कार कर दिया. सिर्फ इतना कहा, "सर्फ़ाले!"
सिपाही हंसने लगे. जिसने उसे पहले पहचाना था, उसने जोगनाथ के कान में चिल्ला कर कहा, "जर्फ़ोगनाथ, हर्फ़ोश में अर्फ़ाओ."
इसकी भी जोगनाथ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई; पर दरोगाजी ने एकदम से सर्फ़री बोली सीख ली. उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "यह साला हम लोगों को साला कह रहा है."
उन्होने उसे मारने के लिये अपना हाथ उठाया, पर सिपाही ने रोक लिया. कहा, "जाने भी दें हजूर."
दरोगाजी को सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण कुछ पसन्द नहीं आ रहा था. उन्होंने अपना हाथ तो रोक लिया, पर आदेश देने के ढंग से कहा, "इसे अपने साथ ले जाओ और हवालात में बंद कर दो. दफा 109 जाब्ता फौजदारी लगा देना."
एक सिपाही ने कहा, "यह नहीं हो पायेगा हुजूर ! यह यहीं का रहने वाला है. दीवरों पर इश्तिहार रंगा करता है और बात बात पर सर्फ़री बोली बोलता है. वैसे बदमाश है, पर दिखाने के लिये कुछ काम तो करता ही है."
वे लोग जोगनाथ को उठा कर अपने पैरों पर चलने के लिये मजबूर करते हुए सड़क की और बढ़ने लगे. दरोगाजी ने कहा, " शायद पी कर गाली बक रहा है. किसी न किसी जुर्म की दफा निकल आयेगी. अभी चलकर इसे बन्द कर दो. कल चालान कर दिया जायेगा."
उस सिपाही ने कहा, "हुजूर! बेमतलब झंझट में पड़ने से क्या फायदा? अभी गांव चलकर इसे इसके घर में ढकेल आयेंगे. इसे हवालात कैसे भेजा जा सकता है? वैद्यजी का आदमी है."
दरोगाजी नौकरी में नये थे, पर सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण अब वे एकदम समझ गये. वे कुछ नहीं बोले . सिपहियों से थोड़ा पीछे हटकर वे फिर अंधेरे, हल्की ठण्डक, नगरवासिनी प्रिया और 'हाय मेरा दिल' से सन्तोष खींचने की कोशिश करने लगे.
शिवपालगंज गॉंव था, पर वह शहर से नजदीक और सड़क के किनारे था. इसलिए बड़े बड़े नेताओं और अफसरों को वहॉं तक आने में सैद्धान्तिक एतराज नहीं हो सकता था. कुओं के अलावा वहॉं कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाहर से आने वाले बड़े लोग प्यास लगने पर, अपनी जान को खतरे में डाले बिना, वहॉं का पानी पी सकते थे. खाने का भी सुभीता था. वहॉं के छोटे मोटे अफसरों में कोई न कोई ऐसा निकल ही आता था जिसके ठाठ बाट देख कर वहॉं वाले उसे परले सिरे का बेईमान समझते, पर जिसे देख कर ये बाहरी लोग आपस में कहते, कितना तमीजदार है. बहुत बड़े खानदान का लड़का है. देखो न, इसे चीको साहब की लड़की ब्याही है. इसलिए भूख लगने पर अपनी ईमानदारी को खतरे में डाले बिना वे लोग वहॉं खाना भी खा सकते थे. कारण जो भी रहा हो, उस मौसम में शिवपालगंज में जन नायकों और जन सेवकों का आना जाना बड़े जोर से शुरू हुआ था. उन सबको शिवपालगंज के विकास की चिन्ता थी और नतीजा यह होता था कि वे लेक्चर देते थे.
वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्रायः शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गँजंहों के लिए आदर्श परिस्थिति है. फिर भी लेक्चर इतने ज्यादा होते थे कि दिलचस्पी के बावजूद, लोगों को अपच हो सकता था. लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं. पर कुछ लेक्चर देने वाले इतनी गम्भीरता से चलते कि सुनने वाले को कभी-कभी लगता था यह आदमी अपने कथन के प्रति सचमुच ईमानदार है. ऐसा सन्देह होते ही लेक्चर गाढ़ा और फीका बन जाता था और उसका श्रोताओं के हाजमे के बहुत खिलाफ पड़ता है. यह सब देख कर गँजंहों ने अपनी-अपनी तन्दुरुस्ती के अनुसार लेक्चर ग्रहण करने का समय चुन लिया था, कोई सवेरे खाना खाने के पहले लेक्चर लेता था, कोई दोपहर को खाना खाने के बाद. ज्यादातर लोग लेक्चर की सबसे बड़ी मात्रा दिन के तीसरे पहर ऊँघने और शाम को जागने के बीच में लेते थे.
उन दिनों गांव में लेक्चर का मुख्य विषय खेती था. इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पहले कुछ और था. वास्तव में पिछले कुछ कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है. गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मान कर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे. इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूंढकर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है. इसके बाद वे यह बताते थे कि खेती की उन्नति ही देश की उन्नति है. फिर आगे की बात बताने के पहले ही प्रायः दोपहर के खाने का वक्त हो जाता और वह तमीज़दार लड़का, जो बड़े सम्पन्न घराने की औलाद हुआ करता था और जिसको चीको साहब की लड़की ब्याही रहा करती थी, वक्ता की पीठ का कपड़ा खींच-खींचकर इशारे से बताने लगता कि चाचाजी, खाना तैयार है. कभी कभी कुछ वक्तागण आगे की बात भी बता ले जाते थे और तब मालूम होता कि उनकी आगे की और पीछे की बात में कोई फर्क नहीं था, क्योंकि घूम-फिरकर बात यही रहती थी कि भारत एक खेतिहर देश है, तुम खेतिहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चहिए, अधिक अन्न उपजाना चाहिए. प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते.
लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे. मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते. इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाये और उन्हे अच्छी अच्छी तस्वीरें दिखायी जायें. उनके द्वारा उन्हे बताया जाये कि तुम अगर अपने लिये अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिये करो. इसी से जगह जगह पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों से देश के लिये अधिक अन्न पैदा कराना चाहते थे. लेक्चरों और तस्वीरों का मिला जुला असर काश्तकारों पर बड़े जोर से पड़ता था और भोले-से-भोला काश्तकार भी मानने लगता कि हो न हो, इसके पीछे भी कोई चाल है.
शिवपालगंज में उन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खासतौर से मशहूर हो रहा था जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अँगोछा बाँधे, कानों में बालियाँ लटकाये और बदन पर मिर्जई पहने गेहूँ की ऊँची फसल को हँसिये से काट रहा था. एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने-आपसे बहुत खुश, कृषी विभाग के अफसरों वाली हँसी हंस रही थी. नीचे और ऊपर अंग्रेजी और हिन्दी अक्षरों में लिखा थ, "अधिक अन्न उपजाओ." मिर्जई और बालीवाले काश्तकारों में जो अंग्रेजी के विद्वान थे, उन्हे अंग्रेजी इबारत से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हे हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गयी थी; और जो दोनों में से एक भी भाषा नहीं जानते थे, वे भी कम-से-कम आदमी और औरत को तो पहचानते ही थे. उनसे आशा की जाती थी कि आदमी के पीछे हँसती हुई औरत की तस्वीर देखते ही उसकी और पीठ फेर कर दीवानों की तरह अधिक अन्न उपजाना शुरू कर देंगे. यह तस्वीर आजकल कई जगह चर्चा का विषय बनी थी, क्योंकि यहाँ वालों कि निगाह में तस्वीर वाले आदमी की शक्ल कुछ-कुछ बद्री पहलवान से मिलती थी. औरत की शक्ल के बारे में गहरा मतभेद था. वह गाँव की देहाती लड़कियों में से किसकी थी, यह अभी तय नहीं हो पाया था.
वैसे सबसे ज़्यादा जोर-शोर वाले विज्ञापन खेती के लिए नहीं, मलेरिया के बारे में थे. जगह-जगह मकानों की दीवारों पर गेरू से लिखा गया था कि "मलेरिया को खत्म करने में हमरी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो." यहाँ भी यह मान कर चल गया था कि किसान गाय-भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय-परिवर्तन करना पड़ेगा. हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है - इस भारतीय तर्क पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गयी थीं. इसीलिए प्रायः सभी लोगों ने इनको कविता के रूप में नहीं, चित्रकला के रूप में स्वीकार किया था और गेरू से दीवार रंगने वालों को मनमानी अंग्रेजी लिखने की छूट दे दी थी. दीवारें रंगती जाती थीं, मच्छर मरते जाते थे. कुत्ते भूँका करते थे, लोग अपनी राह चलते रहते थे.
एक विज्ञापन भोले-भाले ढंग से बताता था कि हमें पैसा बचाना चहिए. पैसा बचाने की बात गांववालों को उनके पूर्वज मरने के पहले ही बता गये थे और लगभग प्रत्येक आदमी को अच्छी तरह मालूम थी. इसमें सिर्फ़ इतनी नवीनता थी कि यहाँ भी देश का जिक्र था, कहीं-कहीं इशारा किया गया था कि अगर तुम अपने लिए पैसा नहीं बचा सकते तो देश के लिए बचाओ. बात बहुत ठीक थी, क्योंकि सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े ओहदेदार, वकील डाक्टर - ये सब तो अपने लिए पैसा बचा ही रहे थे, इसलिए छोटे-छोटे किसानों को देश के लिए पैसा बचाने में क्या ऐतराज हो सकता था ! सभी इस बात से सिद्धान्तरूप में सहमत थे कि पैसा बचाना चाहिए. पैसा बचाकर किस तरह कहाँ जमा किया जायेगा, ये बातें भी विज्ञापनों और लेक्चरों में साफतौर से बतायी गयी थीं और लोगों को उनसे भी कोई आपत्ति न थी. सिर्फ़ लोगों को यही नहीं बताया गया था कि कुछ बचाने के पहले तुम्हारी मेहनत के एवज़ में तुम्हे कितना पैसा मिलना चाहिए. पैसे की बचत का सवाल आमदनी और खर्च से जुड़ा हुआ है, इस छोटी सी बात को छोड़कर बाकी सभी बातों पर इन विज्ञापनों में विचार कर लिया गया था और लोगों ने इनको इस भाव से स्वीकार कर लिया था कि ये बिचारे दीवार पर चुपचाप चिपके हुए हैं, न दाना माँगते हैं, न चारा, न कुछ लेते हैं न देते हैं. चलो इन तस्वीरों को छेड़ो नहीं.
पर रंगनाथ को जिन विज्ञापनों ने अपनी ओर खींचा, वे पब्लिक सेक्टर के विज्ञापन न थे, प्राइवेट सेक्टर की देन थे. उनसे प्रकट होने वली बातें कुछ इस प्रकार थी: "उस क्षेत्र में सबसे ज्यादा व्यापक रोग दाद है, एक ऐसी दवा है जिसको दाद पर लगाया जाये तो उसे जड़ से आराम पहुँचता है, मुँह से खाया जाये तो खाँसी-जुकाम दूर होता है, बताशे में डालकर पानी से निगल लिया जाये तो हैजे में लाभ पहुँचता है. ऐसी दवा दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती. उसके अविष्कारक अभी तक जिंदा हैं, यह विलायत वालों की शरारत है कि उन्हे आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है".
इस देश में और भी बड़े बड़े डॉक्टर हैं जिनको नोबल पुरस्कार नहीं मिला है. एक कस्बा जहानाबाद में रहते हैं और चूँकि वहाँ बिजली आ चुकी है, इसलिए वे नामर्दी का इलाज बिजली से करते हैं. अब नामर्दों को परेशान होने की जरूरत नहीं है. एक दूसरे डॉक्टर, जो कम-से-कम भारतवर्ष-भर में तो मशहूर हैं ही, बिना ऑपरेशन के अण्ड-वृद्धि का इलाज करते हैं. और यह बात शिवपालगंज में किसी भी दीवार पर तारकोल के हरूफ़ में लिखी हुई पायी जा सकती है. वैसे बहुत से विज्ञापन बच्चों में सूखा रोग, आँखों की बीमारी और पेचिश आदि से भी सम्बद्ध हैं, पर असली रोग संख्या में कुल तीन ही हैं- दाद, अण्डवृद्धि और नामर्दी; और इनके इलाज की तरकीब शिवपालगंज के लड़के अक्षर-ज्ञान पा लेने के बाद ही दीवारों पर अंकित लेखों के सहारे जानना शुरू कर देते हैं.
विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' अपना अलग व्यक्तित्व रखता था. वह दीवारों पर लिखे 'नामर्दी के बिजली से इलाज' जैसे अश्लील लेखों के मुकाबले में नहीं आता था. वह छोटे छोटे नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर - जिनके पास पेशाब करना और जिन पर विज्ञापन चिपकाना मना था - टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल-हरे अक्षरों में प्रकट होता था और सिर्फ इतना कहता था, 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी.
एक दिन रंगनाथ ने देखा, रोगों की चिकित्सा में एक नया आयाम जुड़ रहा है. सवेरे से ही कुछ लोग दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रहे हैं : बवसीर ! शिवपालगंज की उन्नति का लक्षण था. बवासीर के चार आदमकद अक्षर चिल्लाकर कह रहे थे कि यहाँ पेचिश का युग समाप्त हो गया है, मुलायम तबीयत, दफ़्तर की कुर्सी, शिष्टतापूर्ण रहन-सहन, चौबीस घण्टे चलनेवाले खान-पान और हल्के परिश्रम का युग धीरे-धीरे संक्रमण कर रहा है और आधुनिकता के प्रतीक-जैसे बवासीर सर्वव्यापी नामर्दी का मुकाबला करने के लिये मैदान में आ रही है. शाम तक वह दैत्याकार विज्ञापन एक दीवार पर रंग-बिरंगी छाप छोड़ चुका था और दूर दूर तक ऐलान करने लगा था : बवासीर का शर्तिया इलाज !
देखते-देखते चार-छः दिन मे ही सारा जमाना बवासीर और उसके शर्तिया इलाज के नीचे दब गया. हर जगह वही विज्ञापन चमकने लगा. रंगनाथ को सबसे बड़ा अचम्भा तब हुआ जब उसने देखा, वही विज्ञापन एक दैनिक समाचार-पत्र में आ गया है. यह समाचारपत्र रोज़ दस बजे दिन तक शहर से शिवपालगंज आता था और लोगों को बताने में सहायक होता था कि स्कूटर और ट्रक कहाँ भिड़ा, अब्बासी नामक कथित गुण्डे ने इरशाद नामक कथित सब्जी-फरोश पर कथित छुरी से कहाँ कथित रूप से वार किया. रंगनाथ ने देखा कि उस दिन अखबार के पहले पृष्ठ का एक बहुत बड़ा हिस्सा काले रंग में रंगा हुआ है और उस पर बड़े-बड़े सफेद अक्षरों में चमक रहा है : बवासीर ! अक्षरों की बनावट वही है जो यहाँ दीवारों पर लिखे विज्ञापन में है. उन अक्षरों ने बवासीर को एक नया रूप दे दिया था, जिसके कारण आसपास की सभी चीजें बवासीर की मातहती में आ गयी थीं. काली पृष्ठभूमि में अखबार के पन्ने पर चमकता हुआ 'बवासीर' दूर से ही आदमी को अपने में समेट लेता था. यहां तक कि सनीचर, जिसे बड़े-बड़े अक्षर पढ़ने में भी आंतरिक कष्ट होता था, अखबार के पास खिंच आया और उस पर निगाह गड़ाकर बैठ गया. बहुत देर तक गौर करने के बाद वह रंगनाथ से बोला, "वही चीज है."
इसमें अभिमान की खनक थी. मतलब यह था कि शिवपालगंज की दीवारों पर चमकने वले विज्ञापन कोई मामूली चीज़ नहीं हैं. ये बाहर अख़बारों में छपते हैं, और इस तरह जो शिवपालगंज में है, वही बाहर अख़बारों में है.
रंगनाथ तख्त पर बैठा रहा. उसके सामने अख़बार का पन्ना तिरछा होकर पड़ा था. अमरीका ने एक नया उपग्रह छोड़ा था, पाकिस्तान-भारत सीमा पर गोलियां चल रही थीं, गेहूँ की कमी के कारण राज्यों का कोटा कम किया जाने वाला था, सुरक्षा-समिति में दक्षिण अफ्रीका के कुछ मसलों पर बहस हो रही थी, इन सब अबाबीलों को अपने पंजे में किसी दैत्याकार बाज़ की तरह दबाकर वह काला-सफेद विज्ञापन अपने तिरछे हरूफ में चीख रहा था: बवासीर ! बवासीर ! इस विज्ञापन के अखबार में छपते ही बवासीर शिवपालगंज और अन्तर्र्राष्ट्रीय जगत के बीच सम्पर्क का एक सफल माध्यम बन चुकी थी.
डाकुओं का आदेश था कि एक विशेष तिथि को विशेष स्थान पर जाकर रामाधीन की तरफ से रुपये की थैली एकान्त में रख दी जाये. डाका डालने की यह पद्धति आज भी देश के कुछ हिस्सों में काफी लोकप्रिय है. पर वास्तव में है यह मध्यकालीन ही, क्योंकि इसके लिये चांदी या गिलट के रुपये और थैली का होना आवश्यक है, जबकि आजकल रुपया नोटों की शक्ल में दिया जा सकता है और पांच हजार रुपये प्रेम-पत्र की तरह किसी लिफाफे में भी आ सकते हैं. ज़रूरत पड़ने पर चेक से भी रुपयों का भुगतान किया जा सकता है. इन कारणों से परसों रात अमुक टीले पर पांच हजार रुपये की थैली रखकर चुपचाप चले जाओ, यह आदेश मानने में व्यावहारिक कठिनाइयां हो सकती हैं. टीले पर छोड़ा हुआ नोटों का लिफाफा हवा में उड़ सकता है, चेक जाली हो सकता है. संक्षेप में, जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकलीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं.
थे.
जो भी हो, डकैतों ने इन बातों पर विचार नहीं किया था क्योंकि रामाधीन के यहां डाके की चिट्ठी भेजने वाले असली डकैत न थे. उन दिनों गांव-सभा और कॉलेज की राजनीति को लेकर रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी में कुछ तनातनी हो गयी थी. अगर शहर होता और राजनीति ऊँचे दरजे की होती तो ऐसे मौके पर रामाधीन के खिलाफ किसी महिला की तरफ से पुलिस में यह रिपोर्ट आ गयी होती उन्होंने उसका शीलभंग करने की सक्रिय चेष्टा की, पर महिला के सक्रिय विरोध के कारण वे कुछ नहीं कर पाये और वह अपना शील समूचा-का-समूचा लिये हुए सीधे थाने तक आ गयी. पर यह देहात था जहां अभी महिलाओं के शीलभंग को राजनीतिक युद्ध में हैण्डग्रेनेड की मान्यता नहीं मिली थी, इसीलिए वहां कुछ पुरानी तरकीबों का ही प्रयोग किया गया था और बाबू रामाधीन के ऊपर डाकुओं का संकट पैदा करके उन्हें कुछ दिन तिलमिलाने के लिये छोड़ दिया गया था.
पुलिस, रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी का पूरा गिरोह- ये सभी जानते थे कि चिट्ठी फर्जी है. ऐसी चिट्ठियां कई बार कई लोगों के पास आ चुकी थीं. इसलिए रामाधीन पर यह मजबूरी नहीं थी कि वह नीयत तिथि और समय पर रुपये के साथ टीले पर पहुंच जाये. चिट्ठी फर्जी न होती, तब भी रामाधीन शायद चुपचाप रुपया दे देने के मुकाबले घर पर डाका डलवा लेना ज्यादा अच्छा समझते. पर चूंकि रिपोर्ट थाने में दर्ज हो गयी थी, इसलिए पुलिस अपनी ओर से कुछ करने को मजबूर थी.
उस दिन टीले से लेकर गांव तक का स्टेज पुलिस के लिये समर्पित कर दिया गया और उसमें वे डाकू-डाकू का खेल खेलते रहे. टीले पर तो एक थाना-का-थाना ही खुल गया. उन्होंने आसपास के ऊसर, जंगल, खेत-खलिहान सभी कुछ छान डाले, पर डाकुओं का कहीं निशान नहीं मिला. टीले के पास उन्होने पेड़ों की टहनियां हिला कर, लोमड़ियों के बिलों में संगीनें घुसेड़कर और सपाट जगहों को अपनी आंखों से हिप्नोटाइज़ करके इत्मिनान कर लिया कि वहां जो है, वे डाकू नहीं हैं; क्रमशः चिड़ियां, लोमड़ियां और कीड़े मकोड़े हैं. रात को जब बड़े जोर से कुछ प्राणी चिल्लाये तो पता चला कि वे भी डाकू नहीं, सियार हैं और पड़ोस के बाग टीले में जब दूसरे प्राणी बोले तो कुछ देर बाद समझ आ गया कि वे कुछ नहीं, सिर्फ चमगादड़ हैं. उस रात डाकुओं और रामाधीन भीखमखेड़वी के बीच की कुश्ती बराबर पर छूटी, क्योंकि टीले पर न डाकू रुपया लेने के लिये आये और न रामाधीन देने के लिये गये.
थाने के छोटे दरोगा को नौकरी पर आये अभी थोड़े ही दिन हुए थे. टीले पर डाकुओं को पकड़ने का काम उन्हें ही सौंपा गया था, पर सब कुछ करने पर भी वे अपनी माँ को भेजे जाने वाली चिट्ठियों की अगली किश्त में यह लिखने लायक नहीं हुए थे कि माँ, डाकुओं ने मशीनगन तक का इस्तेमाल किया, पर इस भयंकर गोलीकाण्ड में भी तेरे आशीर्वाद से तेरे बेटे का बाल तक बाँका नहीं हुआ. वे रात को लगभग एक बजे टीले से उतरकर मैदान में आये; और चूंकि सर्दी होने लगी थी और अंधेरा था और उन्हे अपनी नगरवासिनी प्रिया की याद आने लगी थी और चूंकि उन्होंने बी. ए. में हिन्दी-साहित्य भी पढ़ा था; इन सब मिले-जुले कारणों से उन्होंने धीरे धीरे कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया और आखिर में गाने लगे, "हाय मेरा दिल ! हाय मेरा दिल !
'तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर' वाली कहावत को चरितार्थ करते उनके आगे भी दो सिपाही थे और पीछे भी. दरोगाजी गाते रहे और सिपही सोचते रहे कि कोई बात नहीं, कुछ दिनों में ठीक हो जायेंगे. मैदान पार करते करते दरोगा जी का गाना कुछ बुलन्दी पर चढ़ गया और साबित करने लगा कि जो बात इतनी बेवकूफी की है कि कही नहीं जा सकती, वह बड़े मजे से गायी जा सकती है.
सड़क पास आ गयी थी. वहीं एक गड्ढे से अचानक आवाज आयी, "कर्फ़ोन है सर्फाला?" दरोगाजी का हाथ अपने रिवाल्वर पर चला गया. सिपहियों ने ठिठक कर राईफलें संभाली; तब तक गड्ढे ने दोबारा आवाज दी "कर्फ़ोन है सर्फाला?"
एक सिपाही ने दरोगाजी के कान में कहा, "गोली चल सकती है. पेड़ के पीछे हो लिया जाये हुजूर!"
पेड़ उनके पास से लगभग पांच गज की दूरी पर था. दरोगाजी ने सिपाही से फुसफुसा कर कहा, "तुम लोग पेड़ के पीछे हो जाओ. मैं देखता हूं."
इतना कहकर उन्होंने कहा, "गड्ढे में कौन है? जो कोई भी हो बाहर आ जाओ." फिर एक सिनेमा में देखे दृश्य को याद करके उन्होंने बात जोड़ी, "तुम लोग घिर गये हो. तुम आघे मिनट में बाहर न आये तो गोली चला दी जायेगी."
गड्ढे में थोड़ी देर खामोशी रही, फिर आवाज आयी, "मर्फ़र गर्फ़ये सर्फ़ाले, गर्फ़ोली चर्फ़लानेवाले."
प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है, भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है. इतनी तरह की बोलियां उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती. पर इस भाषा ने दरोगाजॊ को चौकन्ना बना दिया और वे सोचने लगे कि क्या मामला है ! इतना तो समझ में आता है कि इसमें कोई गाली है, पर यह क्यों नही समझ में आता कि यह कौन सी बोली है ! इसके बाद ही जहां बात समझ से बाहर होती है वहीं गोली चलती है - इस अन्तर्राष्ट्रिय सिद्धान्त का शिवपालगंज में प्रयोग करते हुए दरोगाजी ने रिवाल्वर तान लिया और कड़ककर बोले, "गड्ढे से बाहर आ जाओ, नहीं तो मैं गोली चलाता हूं."
पर गोली चलाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक सिपाही ने पेड़ के पीछे से निकल कर कहा, "गोली मत चलाइए हजूर, यह जोगनथवा है. पीकर गद्ढे में पड़ा है."
सिपाही लोग उत्साह से गद्ढे को घेर कर खड़े हो गए. दरोगाजी ने कहा, " कौन जोगनथवा ?"
एक पुराने सिपाही ने तजुर्बे के साथ कहना शुरू किया, "यह श्री रामनाथ का पुत्र जोगनाथ है. अकेला आदमी है. दारू ज्यादा पीता है."
लोगों ने जोगनाथ को उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया, पर जो खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं होना चाहता उसे दूसरे कहां तक खड़ा करते रहेंगे ! इसलिए वह लड़खड़ा कर एक बार फिर गिरने को हुआ, बीच में रोका गया और अंत में गड्ढे के ऊपर आकर परमहंसों की तरह बैठ गया. बैठकर जब उसने आंखें मिला-मिला कर, हाथ हिलाकर चमगादड़ों और सियारों की कुछ आवाजें गले से निकालकर अपने को मानवीय स्तर पर बात करने लायक बनाया, तो उसके मुंह से फिर वही शब्द निकले, "कर्फ़ोन है सर्फाला?"
दरोगाजी ने पूछा, "यह बोली कौन सी है?"
एक सिपाही ने कहा, "बोली ही से तो हमने पहचाना कि जोगनाथ है. यह सर्फ़री बोली बोलता है. इस वक्त होश में नही है, इसलिए गालॊ बक रहा है."
दरोगाजी शायद गाली देने के प्रति जोगनाथ की इस निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए कि वह बेहोशी की हालत में भी कम से कम इतना तो कर ही रहा है. उन्होने उसकी गरदन जोर से हिलायी और पकड़ कर बोले, "होश में आ!"
पर जोगनाथ ने होश में आने से इन्कार कर दिया. सिर्फ इतना कहा, "सर्फ़ाले!"
सिपाही हंसने लगे. जिसने उसे पहले पहचाना था, उसने जोगनाथ के कान में चिल्ला कर कहा, "जर्फ़ोगनाथ, हर्फ़ोश में अर्फ़ाओ."
इसकी भी जोगनाथ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई; पर दरोगाजी ने एकदम से सर्फ़री बोली सीख ली. उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "यह साला हम लोगों को साला कह रहा है."
उन्होने उसे मारने के लिये अपना हाथ उठाया, पर सिपाही ने रोक लिया. कहा, "जाने भी दें हजूर."
दरोगाजी को सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण कुछ पसन्द नहीं आ रहा था. उन्होंने अपना हाथ तो रोक लिया, पर आदेश देने के ढंग से कहा, "इसे अपने साथ ले जाओ और हवालात में बंद कर दो. दफा 109 जाब्ता फौजदारी लगा देना."
एक सिपाही ने कहा, "यह नहीं हो पायेगा हुजूर ! यह यहीं का रहने वाला है. दीवरों पर इश्तिहार रंगा करता है और बात बात पर सर्फ़री बोली बोलता है. वैसे बदमाश है, पर दिखाने के लिये कुछ काम तो करता ही है."
वे लोग जोगनाथ को उठा कर अपने पैरों पर चलने के लिये मजबूर करते हुए सड़क की और बढ़ने लगे. दरोगाजी ने कहा, " शायद पी कर गाली बक रहा है. किसी न किसी जुर्म की दफा निकल आयेगी. अभी चलकर इसे बन्द कर दो. कल चालान कर दिया जायेगा."
उस सिपाही ने कहा, "हुजूर! बेमतलब झंझट में पड़ने से क्या फायदा? अभी गांव चलकर इसे इसके घर में ढकेल आयेंगे. इसे हवालात कैसे भेजा जा सकता है? वैद्यजी का आदमी है."
दरोगाजी नौकरी में नये थे, पर सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण अब वे एकदम समझ गये. वे कुछ नहीं बोले . सिपहियों से थोड़ा पीछे हटकर वे फिर अंधेरे, हल्की ठण्डक, नगरवासिनी प्रिया और 'हाय मेरा दिल' से सन्तोष खींचने की कोशिश करने लगे.
द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क - 3
गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ के साक्षात्कारों की किताब अमरूद की ख़ुशबू के नवें अध्याय द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क के दो हिस्से आपने कल पढ़े थे. आज पढ़िये उस अध्याय का आख़िरी हिस्सा -
कुछ लोगों का मानना है कि तुम्हारा तानाशाह दो अलग-अलग ऐतिहासिक चरित्रों से बना है. एक तो ग्रामीण परिवेश का ‘काउदीयो’ है - गोमेज़ की तरह जो स्वातंत्र्योत्तर गृहयुद्धों की अराजकता और अव्यवस्था से निकल कर आया है और उस विशेष ऐतिहासिक समय में व्यवस्था और राष्ट्रीय एकता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है. फिर सोमोज़ा और त्रूहीयो समूह का तानाशाह है - अनजाना, फौज का छोटा-मोटा अफसर जिसमें कोई ‘करिश्मा’ नहीं और जो अमरीकी नौसेना द्वारा थोपा गया होता है. इस सिद्धान्त के बारे में तुम क्या सोचते हो?
आलोचकों के सिद्धान्तों से ज्यादा दिलचस्प्प बात मेरे दोस्त जनरल ओमार तोर्रोहियोस ने अपने मरने के अडतालीस घंटे पहले मुझसे कही थी, हालांकि मैं उससे हक्का-बक्का हो गया था (और खुश भी)- "द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क - तुम्हारी सबसे अच्छी किताब है" - उन्होंने कहा था - "हम सब वैसे ही होते हैं जैसा तुम बयान करते हो."
यह विचित्र संयोग है कि ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ के प्रकाशन के समय इसी विषय पर कई लातीन अमरीकी लेखकों के उपन्यास छप कर आए. मैं क्यूबाई लेखक आलहो कारपेन्तीयर के ‘रीज़न्स ऑफ स्टेट’, पारागुए के आउगस्ता रोआ बास्तोस के ‘द सुप्रीमो’ और वेनेजुएला क आरतूरो उसलार पीएती के ‘ऑफिस फ़ॉर द डैड’ के बारे में सोच रहा हूँ. लातीन अमरीकी लेखकों में अचानक आई दिलचस्पी को तुम कैसे समझाओगे?
मैं नहीं समझता यह दिलचस्पी अचानक आई थी. बिल्कुल शुरू से ही यह लातीन अमरीकी साहित्य की विषयवस्तु रहा है और मैं समझता हूँ आगे भी रहेगा. यह बिल्कुल समझने की बात है क्योंकि तानाशाह ही इकलौता मिथक है जिसे लातीन अमरीका ने पैदा किया है और उसका इतिहास-चक्र खत्म होने से अभी बहुत दूर है. सामन्ती तानाशाह के पारंपरिक चरित्र में मेरी दिलचस्पी कम थी बनिस्बत सत्ता की प्रवृति के, मेरी सारी किताबों में यह विषयवस्तु देखी जा सकती है.
हाँ, बेशक ‘इन इविल आवर’ और ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ में इसे पहले ही दिखाया जा चुका है. मुझे तुमसे पूछना होगा - इस विषय में तुम्हारी इतनी अधिक दिलचस्पी क्यों है?
क्योंकि मैंने हमेशा माना है कि सम्पूर्ण सत्ता मानव की उच्चतम और जटिलतम उपलब्धि है और, इसलिये यह मनुष्य की उदारता और उसके अपकर्ष का सत्व .जैसा कि लॉर्ड एक्टन ने कहा है, "हरेक सत्ता भ्रष्ट होती है और सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण भ्रष्ट होती है" किसी भी लेखक के लिए इसे एक उत्तेजक विषयवस्तु होना ही चाहिए.
मैं समझता हूँ सत्ता के साथ तुम्हारा पहला सामना विशुद्ध साहित्यिक रहा. क्या किसी खास लेखक या पुस्तक ने तुम्हें इस बाबत कुछ सिखाया है?
‘ईडियस रेक्स’ ने मुझे कुछ सिखाया. प्लूटार्क और सुएटोनियस और जूलियस सीज़र के जीवनी-लेखकों से मैंने थोड़ा बहुत सीखा.
उसका चरित्र तुम्हें बहुत आकर्षित करता है?
न सिर्फ वह मुझे आकर्षित करता है, पूरे साहित्य में वह एक पात्र है जिसे मैं रचना चाहता था चूँकि ऐसा नहीं हो सकता था, मुझे अपने तमाम लातीन अमरीकी तानाशाहों से मिलाकर एक तानाशाह का निर्माण कर के काम चलाना पड़ा.
तुमने ‘द ऑटम...’ के बारे में कई विरोधी बातें कही हैं सबसे पहले तो यह कि यह तुम्हारी सभी किताबों में यह सबसे क्षेत्रीय हैं जबकि तथ्य यह है कि भाषाई दृष्टिकोण से यह सबसे अधिक शहरी और शायद सबसे मुश्किल...
नहीं, इसे कैरिबियन भर की लोकप्रिय कहावतों और मुहावरों का प्रयोग किया गया है. तमाम अनुवादक उन वाक्यों का अनुवाद करने के चक्कर में पगला जाते हैं जिन्हें बारान्कीया का कोई भी टैक्सी ड्राइवर समझ जाएगा और तुरन्त मुस्कराने लगेगा. कोलम्बियाई तट की महक लिये एक भरपूर कैरिबियाई किताब है यह-यह एक ऐसी सुविधा थी जिसे ‘वन हंड्रेड...’ का लेखक कर सकता था. जब उसने वह लिखने की ठानी जो वह चाहता था.
तुम यह भी एक आत्मस्वीकृति में कहते हो कि यह किताब व्यक्तिगत अनुभवों से भरी हुई है. कूटभाषा में लिखी आत्मकथा - एक दफ़ा तुमने कहा था.
यह एक आत्मस्वीकृति है. यह इकलौती किताब है जिसे मैं लिखना चाहता था पर कभी नहीं लिख पाया.
यह अजीब लग सकता है कि आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों का प्रयोग किसी तानाशाह की जीवनी के पुनर्निर्माण में करें. किसी भी मनोचिकित्सक के कान यह सुनकर खड़े हो जाएँगे. तुमने एक बार कहा था कि सत्ता का अकेलापन लेखक के अकेलेपन जैसा होता है. क्या तुम संभवतः प्रसिद्धि के अकेलेपन की बात कर रहे थे? क्या तुम समझते हो कि प्रसिद्धि प्राप्त करने और उसके साथ रहने ने तुम्हें गुप्त रूप से तानाशाह के साथ सहानुभूति करना शुरू कर दिया है?
मैंने कभी नहीं कहा कि सत्ता का अकेलापन लेखक के अकेलेपन जैसा होता है. मैंने यह कहा था कि एक तरफ प्रसिद्धि का अकेलापन काफी कुछ सत्ता के अकेलेपन जैसा होता है और दूसरी तरफ ये कि लिखने में अकेला और कोई पेशा नहीं हो सकता-यानी जब आप लिख रहे होते हैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता- न ही कोई यह जान सकता है कि आप करना क्या चाह रहे हैं. आप नितान्त अकेले हों, पूरी तरह कटे हुए, आपके सामने एक खाली पन्ने.
जहाँ तक सत्ता के अकेलेपन और प्रसिद्धि के अकेलेपन का सवाल है यह निश्चित है कि सत्ता में बने रहने की नीति और खुद को प्रसिद्धि से बचाने की नीति काफी कुछ एक सी होती है. शायद दोनों मामलों में अकेलेपन का यही कारण होता है मगर इसके अलावा भी बहुत कुछ है. प्रसिद्धि और सत्ता में सम्पर्क की मूलभूत कभी इस समस्या को आर गहरा देती है. अन्ततः इस नतीजे पर पहुँच सकती है कि सूचना की समस्या ही दोनों - सत्ताशीन और प्रसिद्धि - को दुनिया की बदलती हुई और क्षणित वास्तविकता से दूर कर देती है. सत्ता और प्रसिद्धि एक बड़ा सवाल खड़ा करते हैं - "आप किस पर एतबार करेंगे?" इसके आश्चर्यजनक निष्कर्ष तक पहुँच जाय तो यह अंतिम सवाल लेकर आता है-"आखिर मैं हूँ कौन?" इस खतरे की पहचान, जिसे मैं प्रसिद्ध लेखक न होने की स्थिति में समझ भी नहीं सकता है, ने मुझे एक ऐसा तानाशाह बनाने में सहायता की जो किसी भी चीज को लेकर निश्चित नहीं है, शायद अपने नाम को लेकर भी नहीं, आगे और पीछे - लेने और देने के इस खेल में लेखक के लिए यह असंभव है कि उस अपने पात्र से सहानुभूति न हो, वह कितना ही घृणित क्यों न दीखता हो-चाहे ऐसा केवल सहानुभूति के कारण ही क्यों न हो.
कुछ लोगों का मानना है कि तुम्हारा तानाशाह दो अलग-अलग ऐतिहासिक चरित्रों से बना है. एक तो ग्रामीण परिवेश का ‘काउदीयो’ है - गोमेज़ की तरह जो स्वातंत्र्योत्तर गृहयुद्धों की अराजकता और अव्यवस्था से निकल कर आया है और उस विशेष ऐतिहासिक समय में व्यवस्था और राष्ट्रीय एकता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है. फिर सोमोज़ा और त्रूहीयो समूह का तानाशाह है - अनजाना, फौज का छोटा-मोटा अफसर जिसमें कोई ‘करिश्मा’ नहीं और जो अमरीकी नौसेना द्वारा थोपा गया होता है. इस सिद्धान्त के बारे में तुम क्या सोचते हो?
आलोचकों के सिद्धान्तों से ज्यादा दिलचस्प्प बात मेरे दोस्त जनरल ओमार तोर्रोहियोस ने अपने मरने के अडतालीस घंटे पहले मुझसे कही थी, हालांकि मैं उससे हक्का-बक्का हो गया था (और खुश भी)- "द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क - तुम्हारी सबसे अच्छी किताब है" - उन्होंने कहा था - "हम सब वैसे ही होते हैं जैसा तुम बयान करते हो."
यह विचित्र संयोग है कि ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ के प्रकाशन के समय इसी विषय पर कई लातीन अमरीकी लेखकों के उपन्यास छप कर आए. मैं क्यूबाई लेखक आलहो कारपेन्तीयर के ‘रीज़न्स ऑफ स्टेट’, पारागुए के आउगस्ता रोआ बास्तोस के ‘द सुप्रीमो’ और वेनेजुएला क आरतूरो उसलार पीएती के ‘ऑफिस फ़ॉर द डैड’ के बारे में सोच रहा हूँ. लातीन अमरीकी लेखकों में अचानक आई दिलचस्पी को तुम कैसे समझाओगे?
मैं नहीं समझता यह दिलचस्पी अचानक आई थी. बिल्कुल शुरू से ही यह लातीन अमरीकी साहित्य की विषयवस्तु रहा है और मैं समझता हूँ आगे भी रहेगा. यह बिल्कुल समझने की बात है क्योंकि तानाशाह ही इकलौता मिथक है जिसे लातीन अमरीका ने पैदा किया है और उसका इतिहास-चक्र खत्म होने से अभी बहुत दूर है. सामन्ती तानाशाह के पारंपरिक चरित्र में मेरी दिलचस्पी कम थी बनिस्बत सत्ता की प्रवृति के, मेरी सारी किताबों में यह विषयवस्तु देखी जा सकती है.
हाँ, बेशक ‘इन इविल आवर’ और ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ में इसे पहले ही दिखाया जा चुका है. मुझे तुमसे पूछना होगा - इस विषय में तुम्हारी इतनी अधिक दिलचस्पी क्यों है?
क्योंकि मैंने हमेशा माना है कि सम्पूर्ण सत्ता मानव की उच्चतम और जटिलतम उपलब्धि है और, इसलिये यह मनुष्य की उदारता और उसके अपकर्ष का सत्व .जैसा कि लॉर्ड एक्टन ने कहा है, "हरेक सत्ता भ्रष्ट होती है और सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण भ्रष्ट होती है" किसी भी लेखक के लिए इसे एक उत्तेजक विषयवस्तु होना ही चाहिए.
मैं समझता हूँ सत्ता के साथ तुम्हारा पहला सामना विशुद्ध साहित्यिक रहा. क्या किसी खास लेखक या पुस्तक ने तुम्हें इस बाबत कुछ सिखाया है?
‘ईडियस रेक्स’ ने मुझे कुछ सिखाया. प्लूटार्क और सुएटोनियस और जूलियस सीज़र के जीवनी-लेखकों से मैंने थोड़ा बहुत सीखा.
उसका चरित्र तुम्हें बहुत आकर्षित करता है?
न सिर्फ वह मुझे आकर्षित करता है, पूरे साहित्य में वह एक पात्र है जिसे मैं रचना चाहता था चूँकि ऐसा नहीं हो सकता था, मुझे अपने तमाम लातीन अमरीकी तानाशाहों से मिलाकर एक तानाशाह का निर्माण कर के काम चलाना पड़ा.
तुमने ‘द ऑटम...’ के बारे में कई विरोधी बातें कही हैं सबसे पहले तो यह कि यह तुम्हारी सभी किताबों में यह सबसे क्षेत्रीय हैं जबकि तथ्य यह है कि भाषाई दृष्टिकोण से यह सबसे अधिक शहरी और शायद सबसे मुश्किल...
नहीं, इसे कैरिबियन भर की लोकप्रिय कहावतों और मुहावरों का प्रयोग किया गया है. तमाम अनुवादक उन वाक्यों का अनुवाद करने के चक्कर में पगला जाते हैं जिन्हें बारान्कीया का कोई भी टैक्सी ड्राइवर समझ जाएगा और तुरन्त मुस्कराने लगेगा. कोलम्बियाई तट की महक लिये एक भरपूर कैरिबियाई किताब है यह-यह एक ऐसी सुविधा थी जिसे ‘वन हंड्रेड...’ का लेखक कर सकता था. जब उसने वह लिखने की ठानी जो वह चाहता था.
तुम यह भी एक आत्मस्वीकृति में कहते हो कि यह किताब व्यक्तिगत अनुभवों से भरी हुई है. कूटभाषा में लिखी आत्मकथा - एक दफ़ा तुमने कहा था.
यह एक आत्मस्वीकृति है. यह इकलौती किताब है जिसे मैं लिखना चाहता था पर कभी नहीं लिख पाया.
यह अजीब लग सकता है कि आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों का प्रयोग किसी तानाशाह की जीवनी के पुनर्निर्माण में करें. किसी भी मनोचिकित्सक के कान यह सुनकर खड़े हो जाएँगे. तुमने एक बार कहा था कि सत्ता का अकेलापन लेखक के अकेलेपन जैसा होता है. क्या तुम संभवतः प्रसिद्धि के अकेलेपन की बात कर रहे थे? क्या तुम समझते हो कि प्रसिद्धि प्राप्त करने और उसके साथ रहने ने तुम्हें गुप्त रूप से तानाशाह के साथ सहानुभूति करना शुरू कर दिया है?
मैंने कभी नहीं कहा कि सत्ता का अकेलापन लेखक के अकेलेपन जैसा होता है. मैंने यह कहा था कि एक तरफ प्रसिद्धि का अकेलापन काफी कुछ सत्ता के अकेलेपन जैसा होता है और दूसरी तरफ ये कि लिखने में अकेला और कोई पेशा नहीं हो सकता-यानी जब आप लिख रहे होते हैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता- न ही कोई यह जान सकता है कि आप करना क्या चाह रहे हैं. आप नितान्त अकेले हों, पूरी तरह कटे हुए, आपके सामने एक खाली पन्ने.
जहाँ तक सत्ता के अकेलेपन और प्रसिद्धि के अकेलेपन का सवाल है यह निश्चित है कि सत्ता में बने रहने की नीति और खुद को प्रसिद्धि से बचाने की नीति काफी कुछ एक सी होती है. शायद दोनों मामलों में अकेलेपन का यही कारण होता है मगर इसके अलावा भी बहुत कुछ है. प्रसिद्धि और सत्ता में सम्पर्क की मूलभूत कभी इस समस्या को आर गहरा देती है. अन्ततः इस नतीजे पर पहुँच सकती है कि सूचना की समस्या ही दोनों - सत्ताशीन और प्रसिद्धि - को दुनिया की बदलती हुई और क्षणित वास्तविकता से दूर कर देती है. सत्ता और प्रसिद्धि एक बड़ा सवाल खड़ा करते हैं - "आप किस पर एतबार करेंगे?" इसके आश्चर्यजनक निष्कर्ष तक पहुँच जाय तो यह अंतिम सवाल लेकर आता है-"आखिर मैं हूँ कौन?" इस खतरे की पहचान, जिसे मैं प्रसिद्ध लेखक न होने की स्थिति में समझ भी नहीं सकता है, ने मुझे एक ऐसा तानाशाह बनाने में सहायता की जो किसी भी चीज को लेकर निश्चित नहीं है, शायद अपने नाम को लेकर भी नहीं, आगे और पीछे - लेने और देने के इस खेल में लेखक के लिए यह असंभव है कि उस अपने पात्र से सहानुभूति न हो, वह कितना ही घृणित क्यों न दीखता हो-चाहे ऐसा केवल सहानुभूति के कारण ही क्यों न हो.
Sunday, March 27, 2011
द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क -२
(पिछली किस्त से आगे)
(अपनी पत्नी मेरसेदेज़ और बेटों के साथ गाबो, १९६० का दशक)
क्या यह पारागुए का डॉक्टर फ्रांसिया नहीं था जिसने बीस साल के ऊपर के हर आदमी को शादी करने का आदेश जारी किया था?
हां, उसने पूरे देश को चारों ओर से वैसे ही बंद कर दिया था जैसे आप अपने घर को बंद करते हैं सिवाय एक खिड़की के जहां के रास्ते डाक भीतर आ सके. वह इतना विख्यात दार्शनिक था कि कार्लाइल के ख्याल से वह अध्ययन किये जाने लायक था.
क्या वह थियोसोफिस्ट था?
नहीं, एल साल्वाडोर का माक्सीमिलियानो हेर्नोन्देज मार्टीनेज था थियोफिस्ट. उसने एक बार महामारी से लड़ने के लिये देश भर की स्ट्रीट लाइटों को लाल कागज से ढंकवा दिया था. हेर्नोन्देज मार्तीनेज ने एक पेण्डुलम का आविष्कार किया था जिसे वह अपने भोजन के ऊपर लटका कर यह पता करता था कि खाने में जहर तो नहीं मिलाया गया.
और गोमेज़-वेनेज़ुएला का हुआन विसेन्टे गोमेज़?
गोमेज के पास असाधारण इंट्यूशन थी.
वह तुम्हारी किताब के तानाशाह की तरह अपनी मृत्यु की घोषणा करवाता था और फिर जीवित प्रकट हो जाया करता था. खैर, जब मैंने ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ को पढ़ा था, मेरे भीतर हुआन विसेन्टे गोमेज़ के व्यक्तित्व और नाक-नक्श की छवि बनी थी. क्या यह सिर्फ मेरा सोचना है या किताब लिखते हुए तुम भी गोमेज़ के बारे में सोच रहे थे?
मेरी पहली मंशा सारे लातीन अमरीकी तानाशाहों, खासतौर पर कैरिबियाई तानाशाहों की एक सिंथेसिस तैयार करना थी. लेकिन गोमेज़ का व्यक्तित्व बहुत मजबूत था और मैं उसके प्रति बहुत आकृष्ट था, इसलिये मेरी किताब के तानाशाह में औरों से कहीं ज्यादा उसी के तत्व पाये जाते हैं. वैसे भी दोनों की मेरे मन में जो वास्तविक छवि है वह एक ही है. इसका यह मतलब नहीं कि वह किताब का पात्र है-यह उसकी छवि भर है.
उतनी किताबें पढ़ने के बाद तुमने पाया कि तानाशाहों में कई समानताएं होती हैं. उदाहरण के लिए क्या यह एक तथ्य नहीं है कि वे सारे विधवाओं के बेटे थे? इस बात को तुम कैसे समझाओगे?
मेरे ख्याल से शुरू से ही मैंने इस बात को पाया कि उनकी जिंदगियों में उनकी माताओं का प्रभाव सबसे गहरा था और एक मायने में वे सारे शुरूआत से ही पितृहीन थे. निश्चय ही मैं सबसे महत्वपूर्ण तानाशाहों की बात कर रहा हूं-उनकी नहीं जिनके लिये सब कुछ पहले से ही तैयार था और सत्ता उन्हें उत्तराधिकार में मिली थी. वे बिल्कुल फर्क थे-वे बहुत कम संख्या में थे और साहित्यिक दृष्टिकोण से वे किसी काम के नहीं थे.
तुमने कहा है कि तुम्हारी सारी किताबों का प्रस्थान बिन्दु एक विजुअल इमेज होता है. ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ में यह कौन सी इमेज है?
गायों से भरे एक महल में अकल्पनीय रूप से बूढ़े एक नितान्त अकेले तानाशाह की इमेज.
तुमने मुझे कभी बतलाया था या शायद चिट्ठी में लिखा था कि किताब की शुरूआत तुम एक बूढ़े तानाशाह से करोगे, जिस के ऊपर एक स्टेडियम में मुकदमा चल रहा हो. मेरे विचार से यह इमेज बातिस्ता के जनरलों में से एक सोसा ब्लान्को के मुकदमे से प्रेरित थी जिसे क्रान्ति की सफलता के बाद हम दोनों ने हवाना में देखा था. मेरे ख्याल से तुमने किताब को दो दफे शुरू किया और छोड़ दिया. क्या हुआ था?
जैसा मेरी सारी किताबों के साथ है-संरचना एक बड़ी समस्या होती है. लम्बे समय तक, जब तक मैं उसे सुलझा नहीं लेता मैं किताब शुरू नहीं करता. हवाना की उस रात सोसा ब्लान्को के मुकदमे के दौरान मुझे ख्याल आया कि इस किताब की सर्वश्रेष्ठ संरचना के लिए मौत की सजा पाए एक बूढ़े तानाशाह का एकालाप (मोनोलॉग) उचित रहेगा. पर बाद में मैंने ऐसा न करने का फैसला किया. सबसे पहले तो यह कि इतिहास में ऐसा नहीं हुआ था. वे तानाशाह या तो अपने पलंगों पर बूढ़े होकर मरे या उन्हें मार डाल दिया या वे देश छोड़कर भाग गए. उनमें से किसी ने भी मुकदमे का सामना नहीं किया. दूसरी बात यह थी कि मोनोलॉग के कारण किताब एक ही दृष्टिकोण और एक ही भाषा पर सीमित रह जाती - तानाशाह के.
मैं जानता हूँ कि तुम काफी समय से ‘ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ पर काम करते रहे थे जब तुमने ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ लिखने के लिए उसे किनारे रख दिया था. तुमने ऐसा क्यों किया? एक किताब को छोड़कर दूसरी शुरू करना असामान्य है.
मैंने उसे किनारे इसलिए रखा कि मैं बिना यह जाने उस पर काम कर रहा था कि मैं कर क्या रहा हूँ - परिणामतः मैं उस पर काबू नहीं कर पा रहा था. ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ एक कहीं अधिक पुराना और अकसर छोड़ दिया गया प्रोजेक्ट था जो अचानक एक विस्फोट की तरह प्रकट हुआ जब मैंने उसकी पहेली का खोया हुआ सूत्र खोज लिया- सही स्वर. इसके अलावा, ऐसा पहली बार नहीं हुआ था सन 1955 में पेरिस में मैंने ‘इन इविल आवर’ को छोड़ कर ‘नो बडी राइट्स टु द कर्नल’ लिखना शुरू किया था, जो एक बिल्कुल दूसरे तरह की किताब थी और जो मेरे भीतर इतना गहरे धँस गई थी कि मुझसे आगे नहीं बढ़ा जा रहा था. लेखक के रूप में मैं उन्हीं मापदण्डों को ध्यान में रखता हूँ जैसे एक पाठक के रूप में जब किसी किताब से मेरी रूचि खत्म हो जाती है मैं उसे परे रख देता हूँ. दोनों ही मामलों में एक उचित क्षण होता है जब आप उस से फिर रू-ब-रू हो पाते हैं.
अगर तुमसे अपनी किताब को एक वाक्य में परिभाषित करने को कहा जाय तो वह परिभाषा क्या होगी?
ताकत के एकाकीपन के बारे में एक कविता.
इसे लिखने में इतना वक्त क्यों लगा?
क्योंकि मैंने इसे एक कविता की तरह लिखा - शब्द-शब्द कर के, शुरूआत में मुझे कुछ पंक्तियाँ लिखने में हफ्ते लग जाते थे.
तुमने इस किताब में तमाम स्वतंत्रता ली है. शब्द-संयोजन के साथ, समय के साथ, भूगोल के साथ और जैसा लोग कहते हैं इतिहास के भी साथ. पहले शब्द-संयोजन के बारे में बताओ. बड़े-बड़े पैराग्राफ हैं बिना पूर्ण विराम के या अर्ध विराम के, जिनमें तमाम दृष्टिकोण बुने गए हैं. चूँकि तुम्हारी किताबों में कोई भी चीज़ अकारणनहीं होती. इस तरह की भाषा इस्तेमाल करने का क्या उद्देश्य था?
कोशिश करो इस किताब को एकरेखीय संरचना में देखने की. यह लगातार और ज्यादा उबाऊ होती चली जाएगी -जितनी अभी है उससे भी. लेकिन इसकी चक्करदार संरचना से मुझे समय को सघन करने की छूट मिलती है और साथ ही कहानी के कई आयामों को सूक्ष्म रूप में शामिल करने की भी, वहीं जो मल्टिपल एकालाप हैं वह कई गैर शिनाख्तशुदा आवाजों को भी आने देते हैं, जैसा वास्तविक इतिहास में होता है. उदाहरण के लिए उन विराट कैरिबियाई षड्यंत्रों के बारे में सोचो जिनके अन्तहीन रहस्य हर किसी को मालूम हैं. खैर, यह मेरी किताबों में सबसे प्रयोगधर्मी किताब है और काव्यात्मक जोखिम के तौर पर यह आज भी मेरे भीतर दिलचस्पी पैदा करती है.
तुम समय के साथ भी स्वतंत्रताएँ लेते हो.
हाँ, बहुत. तुम्हें याद है, एक दिन सुबह जागने पर तानाशाह देखता है कि हर किसी ने लाल रंग के बोनेट पहने हुए हैं वे उसे बताते है कुछ बेहद अजनबी लोग...
चीड़ के गुलामों की पोशाक पहने हुए
चीड़ के गुलाम की पोशाक पहने हुए....लाल बोनेटों के बदले सब कुछ दे रहे हैं (इगुआना के अंडे, मगरमच्छ की खालें, तम्बाकू और चॉकलेट). तानाशाह अपनी खिड़की खोल कर बाहर देखता है - क्रिस्टोफर कोलम्बस के तीन जहाज, नाविकों द्वारा छोड़े गए युद्धपोत के बगल में खड़े हैं. तुम देख सकते हो कि ये दो ऐतिहासिक तथ्य (कोलम्बस का पहुँचना और नाविकों का उतरना) किसी भी कालक्रम का अनुसरण नहीं .मैंने जानबूझ कर इस तरह की स्वतंत्रताएँ ली हैं समय के साथ.
और भूगोल के साथ
हाँ, भूगोल के साथ भी. निस्संदेह जो तानाशाह है वह एक कैरेबियाई देश का है लेकिन वह अंग्रेजी भाषी कैरिबियन और स्पानी कैरिबियन का मिश्रण है. तुम जानते हो मैंने द्वीप दर द्वीप, शहर कैरिबियन को देखा है - वही सारा मैंने इस किताब में डाल दिया है. सबसे पहले मैंने अपने कैरिबियन को रखा है. वह रण्डीखाना जहाँ मैं बारान्कीया में रहा था; मेरे छात्र जीवन का कार्तागेना; बंदरगाह से लगे शराबखाने जहाँ मैं चार बजे सुबह अखबार का काम खत्म कर के खाना खाया करता था, यहाँ तक कि भोर के समय वैश्याओं से लदे, कुरासाओं और अरूबा की तरफ जाते जहाज. गलियाँ है जो पनामा की काइये देल कोमेरसियो से मिलती-जुलती हैं. पुराने हवाना के नुक्कड़ हैं या सान हुआन या ला गुआइरा के लेकिन ऐसी जगहें भी हैं जो इंडियनों, डचों और चीनियों वाले ब्रिटिश कैरिबियन की याद दिलाती हैं.
(जारी)
(अपनी पत्नी मेरसेदेज़ और बेटों के साथ गाबो, १९६० का दशक)
क्या यह पारागुए का डॉक्टर फ्रांसिया नहीं था जिसने बीस साल के ऊपर के हर आदमी को शादी करने का आदेश जारी किया था?
हां, उसने पूरे देश को चारों ओर से वैसे ही बंद कर दिया था जैसे आप अपने घर को बंद करते हैं सिवाय एक खिड़की के जहां के रास्ते डाक भीतर आ सके. वह इतना विख्यात दार्शनिक था कि कार्लाइल के ख्याल से वह अध्ययन किये जाने लायक था.
क्या वह थियोसोफिस्ट था?
नहीं, एल साल्वाडोर का माक्सीमिलियानो हेर्नोन्देज मार्टीनेज था थियोफिस्ट. उसने एक बार महामारी से लड़ने के लिये देश भर की स्ट्रीट लाइटों को लाल कागज से ढंकवा दिया था. हेर्नोन्देज मार्तीनेज ने एक पेण्डुलम का आविष्कार किया था जिसे वह अपने भोजन के ऊपर लटका कर यह पता करता था कि खाने में जहर तो नहीं मिलाया गया.
और गोमेज़-वेनेज़ुएला का हुआन विसेन्टे गोमेज़?
गोमेज के पास असाधारण इंट्यूशन थी.
वह तुम्हारी किताब के तानाशाह की तरह अपनी मृत्यु की घोषणा करवाता था और फिर जीवित प्रकट हो जाया करता था. खैर, जब मैंने ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ को पढ़ा था, मेरे भीतर हुआन विसेन्टे गोमेज़ के व्यक्तित्व और नाक-नक्श की छवि बनी थी. क्या यह सिर्फ मेरा सोचना है या किताब लिखते हुए तुम भी गोमेज़ के बारे में सोच रहे थे?
मेरी पहली मंशा सारे लातीन अमरीकी तानाशाहों, खासतौर पर कैरिबियाई तानाशाहों की एक सिंथेसिस तैयार करना थी. लेकिन गोमेज़ का व्यक्तित्व बहुत मजबूत था और मैं उसके प्रति बहुत आकृष्ट था, इसलिये मेरी किताब के तानाशाह में औरों से कहीं ज्यादा उसी के तत्व पाये जाते हैं. वैसे भी दोनों की मेरे मन में जो वास्तविक छवि है वह एक ही है. इसका यह मतलब नहीं कि वह किताब का पात्र है-यह उसकी छवि भर है.
उतनी किताबें पढ़ने के बाद तुमने पाया कि तानाशाहों में कई समानताएं होती हैं. उदाहरण के लिए क्या यह एक तथ्य नहीं है कि वे सारे विधवाओं के बेटे थे? इस बात को तुम कैसे समझाओगे?
मेरे ख्याल से शुरू से ही मैंने इस बात को पाया कि उनकी जिंदगियों में उनकी माताओं का प्रभाव सबसे गहरा था और एक मायने में वे सारे शुरूआत से ही पितृहीन थे. निश्चय ही मैं सबसे महत्वपूर्ण तानाशाहों की बात कर रहा हूं-उनकी नहीं जिनके लिये सब कुछ पहले से ही तैयार था और सत्ता उन्हें उत्तराधिकार में मिली थी. वे बिल्कुल फर्क थे-वे बहुत कम संख्या में थे और साहित्यिक दृष्टिकोण से वे किसी काम के नहीं थे.
तुमने कहा है कि तुम्हारी सारी किताबों का प्रस्थान बिन्दु एक विजुअल इमेज होता है. ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ में यह कौन सी इमेज है?
गायों से भरे एक महल में अकल्पनीय रूप से बूढ़े एक नितान्त अकेले तानाशाह की इमेज.
तुमने मुझे कभी बतलाया था या शायद चिट्ठी में लिखा था कि किताब की शुरूआत तुम एक बूढ़े तानाशाह से करोगे, जिस के ऊपर एक स्टेडियम में मुकदमा चल रहा हो. मेरे विचार से यह इमेज बातिस्ता के जनरलों में से एक सोसा ब्लान्को के मुकदमे से प्रेरित थी जिसे क्रान्ति की सफलता के बाद हम दोनों ने हवाना में देखा था. मेरे ख्याल से तुमने किताब को दो दफे शुरू किया और छोड़ दिया. क्या हुआ था?
जैसा मेरी सारी किताबों के साथ है-संरचना एक बड़ी समस्या होती है. लम्बे समय तक, जब तक मैं उसे सुलझा नहीं लेता मैं किताब शुरू नहीं करता. हवाना की उस रात सोसा ब्लान्को के मुकदमे के दौरान मुझे ख्याल आया कि इस किताब की सर्वश्रेष्ठ संरचना के लिए मौत की सजा पाए एक बूढ़े तानाशाह का एकालाप (मोनोलॉग) उचित रहेगा. पर बाद में मैंने ऐसा न करने का फैसला किया. सबसे पहले तो यह कि इतिहास में ऐसा नहीं हुआ था. वे तानाशाह या तो अपने पलंगों पर बूढ़े होकर मरे या उन्हें मार डाल दिया या वे देश छोड़कर भाग गए. उनमें से किसी ने भी मुकदमे का सामना नहीं किया. दूसरी बात यह थी कि मोनोलॉग के कारण किताब एक ही दृष्टिकोण और एक ही भाषा पर सीमित रह जाती - तानाशाह के.
मैं जानता हूँ कि तुम काफी समय से ‘ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ पर काम करते रहे थे जब तुमने ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ लिखने के लिए उसे किनारे रख दिया था. तुमने ऐसा क्यों किया? एक किताब को छोड़कर दूसरी शुरू करना असामान्य है.
मैंने उसे किनारे इसलिए रखा कि मैं बिना यह जाने उस पर काम कर रहा था कि मैं कर क्या रहा हूँ - परिणामतः मैं उस पर काबू नहीं कर पा रहा था. ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ एक कहीं अधिक पुराना और अकसर छोड़ दिया गया प्रोजेक्ट था जो अचानक एक विस्फोट की तरह प्रकट हुआ जब मैंने उसकी पहेली का खोया हुआ सूत्र खोज लिया- सही स्वर. इसके अलावा, ऐसा पहली बार नहीं हुआ था सन 1955 में पेरिस में मैंने ‘इन इविल आवर’ को छोड़ कर ‘नो बडी राइट्स टु द कर्नल’ लिखना शुरू किया था, जो एक बिल्कुल दूसरे तरह की किताब थी और जो मेरे भीतर इतना गहरे धँस गई थी कि मुझसे आगे नहीं बढ़ा जा रहा था. लेखक के रूप में मैं उन्हीं मापदण्डों को ध्यान में रखता हूँ जैसे एक पाठक के रूप में जब किसी किताब से मेरी रूचि खत्म हो जाती है मैं उसे परे रख देता हूँ. दोनों ही मामलों में एक उचित क्षण होता है जब आप उस से फिर रू-ब-रू हो पाते हैं.
अगर तुमसे अपनी किताब को एक वाक्य में परिभाषित करने को कहा जाय तो वह परिभाषा क्या होगी?
ताकत के एकाकीपन के बारे में एक कविता.
इसे लिखने में इतना वक्त क्यों लगा?
क्योंकि मैंने इसे एक कविता की तरह लिखा - शब्द-शब्द कर के, शुरूआत में मुझे कुछ पंक्तियाँ लिखने में हफ्ते लग जाते थे.
तुमने इस किताब में तमाम स्वतंत्रता ली है. शब्द-संयोजन के साथ, समय के साथ, भूगोल के साथ और जैसा लोग कहते हैं इतिहास के भी साथ. पहले शब्द-संयोजन के बारे में बताओ. बड़े-बड़े पैराग्राफ हैं बिना पूर्ण विराम के या अर्ध विराम के, जिनमें तमाम दृष्टिकोण बुने गए हैं. चूँकि तुम्हारी किताबों में कोई भी चीज़ अकारणनहीं होती. इस तरह की भाषा इस्तेमाल करने का क्या उद्देश्य था?
कोशिश करो इस किताब को एकरेखीय संरचना में देखने की. यह लगातार और ज्यादा उबाऊ होती चली जाएगी -जितनी अभी है उससे भी. लेकिन इसकी चक्करदार संरचना से मुझे समय को सघन करने की छूट मिलती है और साथ ही कहानी के कई आयामों को सूक्ष्म रूप में शामिल करने की भी, वहीं जो मल्टिपल एकालाप हैं वह कई गैर शिनाख्तशुदा आवाजों को भी आने देते हैं, जैसा वास्तविक इतिहास में होता है. उदाहरण के लिए उन विराट कैरिबियाई षड्यंत्रों के बारे में सोचो जिनके अन्तहीन रहस्य हर किसी को मालूम हैं. खैर, यह मेरी किताबों में सबसे प्रयोगधर्मी किताब है और काव्यात्मक जोखिम के तौर पर यह आज भी मेरे भीतर दिलचस्पी पैदा करती है.
तुम समय के साथ भी स्वतंत्रताएँ लेते हो.
हाँ, बहुत. तुम्हें याद है, एक दिन सुबह जागने पर तानाशाह देखता है कि हर किसी ने लाल रंग के बोनेट पहने हुए हैं वे उसे बताते है कुछ बेहद अजनबी लोग...
चीड़ के गुलामों की पोशाक पहने हुए
चीड़ के गुलाम की पोशाक पहने हुए....लाल बोनेटों के बदले सब कुछ दे रहे हैं (इगुआना के अंडे, मगरमच्छ की खालें, तम्बाकू और चॉकलेट). तानाशाह अपनी खिड़की खोल कर बाहर देखता है - क्रिस्टोफर कोलम्बस के तीन जहाज, नाविकों द्वारा छोड़े गए युद्धपोत के बगल में खड़े हैं. तुम देख सकते हो कि ये दो ऐतिहासिक तथ्य (कोलम्बस का पहुँचना और नाविकों का उतरना) किसी भी कालक्रम का अनुसरण नहीं .मैंने जानबूझ कर इस तरह की स्वतंत्रताएँ ली हैं समय के साथ.
और भूगोल के साथ
हाँ, भूगोल के साथ भी. निस्संदेह जो तानाशाह है वह एक कैरेबियाई देश का है लेकिन वह अंग्रेजी भाषी कैरिबियन और स्पानी कैरिबियन का मिश्रण है. तुम जानते हो मैंने द्वीप दर द्वीप, शहर कैरिबियन को देखा है - वही सारा मैंने इस किताब में डाल दिया है. सबसे पहले मैंने अपने कैरिबियन को रखा है. वह रण्डीखाना जहाँ मैं बारान्कीया में रहा था; मेरे छात्र जीवन का कार्तागेना; बंदरगाह से लगे शराबखाने जहाँ मैं चार बजे सुबह अखबार का काम खत्म कर के खाना खाया करता था, यहाँ तक कि भोर के समय वैश्याओं से लदे, कुरासाओं और अरूबा की तरफ जाते जहाज. गलियाँ है जो पनामा की काइये देल कोमेरसियो से मिलती-जुलती हैं. पुराने हवाना के नुक्कड़ हैं या सान हुआन या ला गुआइरा के लेकिन ऐसी जगहें भी हैं जो इंडियनों, डचों और चीनियों वाले ब्रिटिश कैरिबियन की याद दिलाती हैं.
(जारी)
द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क -1
गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ के साक्षात्कारों की पुस्तक अमरूद की ख़ुशबू ने अब तक छप कर आ जाना चाहिये था. हिन्दी के एक स्वनामधन्य महात्मा प्रकाशक के पास इसकी पाण्डुलिपि कोई पांच-छः सालों से पड़ी अण्डे दे-से रही है. लेकिन इधर अब मुझे अपने लिखे-अनूदित किए को छपाने की मेहनत काम करने की मेहनत से ज़्यादा तकलीफ़देह लगने लगी है और फ़िलहाल मैंने तय किया है कि काम करता जाऊंगा और जब-तब उसमें से कुछ हिस्से इस अड्डे पर पेश करता जाऊंगा. बाक़ी मेरे कबाड़ख़ाने में पड़ा रहेगा.
मेरा ग़ुस्सा यहीं समाप्त होता है.
अमरूद की ख़ुशबू में एक पूरा अध्याय मारकेज़ के उपन्यास द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क को लेकर है. बाक़ी महानुभावों का जो भी कहना हो मुझे तो वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड और लव इन द टाइम्स ऑफ़ कॉलरा से ज़्यादा यही किताब भाई है. प्लीनियो आपूलेयो मेन्दोज़ा, जो मारकेज़ के अन्तरंग साथी रहे हैं, ने समय समय पर मारकेज़ से उनके काम और जीवन को लेकर तमाम बार साक्षात्कार लिए थे. अमरूद की ख़ुशबू नाम से इन साक्षात्कारों को किताब की सूरत दी गई. आप इस के एकाधिक अंश यहां पढ़ चुके हैं. आज से शुरू करता हूं द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क नाम का अध्याय -
क्या तुम्हें उस हवाई जहाज की याद है?
किस हवाई जहाज की?
जिसे हमने 23 जनवरी 1958 की सुबह दो बजे काराकास के ऊपर उड़ते सुना था. हम दोनों सान बेर्नार्दीनो के उस फ्लैट में थे शायद, और हमने उसे बालकनी से देखा था: काले आसमान में उड़ती हुई वे दो लाल रोशनियां, कर्फ्यू से खाली पर जगे हुए काराकास के ऊपर, तानाशाह की हार की खबर की हर क्षण प्रतीक्षा करते हुए.
वो जहाज जिसमें बैठ कर पेरेज़ हिमनेज़ भागा था.
वही जहाज जिसने वेनेजुएला में आठ साल की तानाशाही का अन्त किया था. हमने पाठकों को उस खास क्षण के बारे में कुछ बताना चाहिये। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि तब तुम्हें तानाशाही पर उपन्यास लिखने का विचार आया था जो सत्रह वर्षों और दो परित्यक्त संस्करणों के बाद ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ बनकर सामने आया.
जहाज के भीतर तानाशाह, उसकी पत्नी, बच्चियां, उसके मंत्री और उसके नजदीकी दोस्त थे। उसके चेहरे पर न्यूरेल्जिया का प्रभाव था. वह अपने सेक्रेटरी पर आग-बबूला था जो जहाज चढ़ने की सीढ़ी पर वह सूटकेस छोड़ आया था जिसके भीतर ग्यारह मिलियन डॉलर भरे हुए थे.
जैसे-जैसे जहाज उठता गया और दूर कैबिरबियन की तरफ उड़ा, रेडियो उद्घोषक ने शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम रोककर तानाशाह के पतन की सूचना दी थी. क्रिसमस के पेड़ की मोमबत्तियों की तरह काराकास की खिड़कियां एक-एक करके रोशन होना शुरू हुईं. भोर की ठण्डी हवा और धुंध के बीच उत्सव का वातावरण था-हार्न बन रहे थे, लोग चीख रहे थे, फैक्ट्रियों के सायरन तेज आवाज में बज रहे थे, कारों और लॉरियों से झण्डे लहरा रहे थे. एक भीड़ ने राजनीतिक बंदियों को कन्धों पर नेशनल सिक्युरिटी बिल्डिंग से बाहर ला कर उसे आग के हवाले कर दिया था.
यह पहली बार हुआ था जब हमने लातीनी अमरीका में किसी तानाशाह का पतन देखा था. एक साप्ताहिक पत्रिका के पत्रकारों के तौर पर गार्सीया मारकेज और मैंने इन सघन क्षणों को भरपूर जिया. हमने सत्ता के सारे केन्द्रों का भ्रमण किया-रक्षा मंत्रालय, जो एक किले जैसा था जिसके गलियारों में बोर्डों पर लिखा था-‘यहां से जाने पर यहां देखी-सुनी चीजों को भूल जाओ’, और मीराफ्लोरेस-राष्ट्रपति का निवास-एक पुराना औपनिवेशिक महल जिसके बरामदे के बीच एक फव्वारा था और हर तरफ फूलों की टोकरियां। वहां गार्सीया मारकेज की मुलाकात एक परिचारक से हुई जिसने महल में उस पुराने तानाशाह हुआन विसेन्ते गोमेज के समय से काम किया था. ग्रामीण मूल का तानाशाह गोमेज जिसकी आंखें और मूंछें तार्तारों जैसी थीं, तीस साल तक अपनी कठोर तानाशाही के बाद अपने बिस्तर पर शान्तिपूर्वक मरा था. परिचारक को जनरल, उसके दोपहर सोने का हैमक और सबसे प्रिय मुर्गे की याद थी. क्या उससे बात करने के बाद तुम्हें उपन्यास लिखने का विचार आया था?
नहीं, यह उस दिन हुआ था जब पेरेज़्ा हिमेनेज के पतन के बाद सत्ताधारी पार्टी उसी मीराफ्लोरेस के महल में इकट्ठा हुई थी. तुम्हें याद है? कुछ महत्वपूर्ण चीज चल रही थी. सारे पत्रकार और फोटोग्राफर राष्ट्रपति के दफ्तर के एन्टी-रूम में इंतजार कर रहे थे. करीब सुबह का चार बजा था जब दरवाजा खुला और युद्ध की वर्दी पहने एक अफसर, हाथ में मशीनगन लिये, कीचड़ भरे बूटों में उल्टा चलता हुआ बाहर निकला, वह प्रतीक्षारत प्रेस के पास से गुजरा.
अब भी उल्टा चलता हुआ?
उल्टा चलता हुआ, अपनी मशीनगन थामे. गलीचे पर अपने बूटों का कीचड़ छोड़ता हुआ. वह सीढ़ियों से उतर कर एक कार में बैठा जो उसे एयरपोर्ट और आगामी निष्कासन की तरफ उड़ा ले गई.
यह तब हुआ था जब उस कमरे से सिपाही बाहर निकला जहां वे लोग नई सरकार के निर्माण पर चर्चा कर रहे थे, तब मुझे अचानक सत्ता के रहस्य समझ में आये.
कुछ दिनों बाद जब हम उस पत्रिका के दफ्तर की तरफ जा रहे थे जहां हम काम करते थे, तुमने कहा था कि लातीन अमरीकी तानाशाहों का उपन्यास अभी लिखा जाना बाकी है. हम दोनों इस बात पर सहमत हुए थे कि एस्तूरियास का उपन्यास ‘द प्रेजीडेन्ट’ जो हमारे ख्याल से भयानक था, वह उपन्यास नहीं था.
हां, यह भयानक है.
मुझे याद आता है कि तुमने तानाशाहों की जीवनियां पढ़ना शुरू कर दिया था. तुम हैरत में पड़ गये थे. सारे लातीन अमरीकी तानाशाह पूरे पागल होते हैं. हर रात डिनर के समय तुम हम लोगों को उन किताबों की कहानियां सुनाया करते थे. वो कौन सा तानाशाह का जिसने सारे काले कुत्तों को मरवा दिया था?
डुआलियर, हाइती का डॉक्टर डुवालियर: ‘पापा डाक’. उसने सारे देश के काले कुत्तों को मरवा दिया था क्योंकि उसके एक दुश्मन ने, कैद किये जाने और मरवा दिये जाने के भय से अपने आप को एक कुत्ते में, एक काले कुत्ते में बदल लिया था.
(जारी)
मेरा ग़ुस्सा यहीं समाप्त होता है.
अमरूद की ख़ुशबू में एक पूरा अध्याय मारकेज़ के उपन्यास द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क को लेकर है. बाक़ी महानुभावों का जो भी कहना हो मुझे तो वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड और लव इन द टाइम्स ऑफ़ कॉलरा से ज़्यादा यही किताब भाई है. प्लीनियो आपूलेयो मेन्दोज़ा, जो मारकेज़ के अन्तरंग साथी रहे हैं, ने समय समय पर मारकेज़ से उनके काम और जीवन को लेकर तमाम बार साक्षात्कार लिए थे. अमरूद की ख़ुशबू नाम से इन साक्षात्कारों को किताब की सूरत दी गई. आप इस के एकाधिक अंश यहां पढ़ चुके हैं. आज से शुरू करता हूं द ऑटम ऑफ़ द पेट्रियार्क नाम का अध्याय -
क्या तुम्हें उस हवाई जहाज की याद है?
किस हवाई जहाज की?
जिसे हमने 23 जनवरी 1958 की सुबह दो बजे काराकास के ऊपर उड़ते सुना था. हम दोनों सान बेर्नार्दीनो के उस फ्लैट में थे शायद, और हमने उसे बालकनी से देखा था: काले आसमान में उड़ती हुई वे दो लाल रोशनियां, कर्फ्यू से खाली पर जगे हुए काराकास के ऊपर, तानाशाह की हार की खबर की हर क्षण प्रतीक्षा करते हुए.
वो जहाज जिसमें बैठ कर पेरेज़ हिमनेज़ भागा था.
वही जहाज जिसने वेनेजुएला में आठ साल की तानाशाही का अन्त किया था. हमने पाठकों को उस खास क्षण के बारे में कुछ बताना चाहिये। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि तब तुम्हें तानाशाही पर उपन्यास लिखने का विचार आया था जो सत्रह वर्षों और दो परित्यक्त संस्करणों के बाद ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ बनकर सामने आया.
जहाज के भीतर तानाशाह, उसकी पत्नी, बच्चियां, उसके मंत्री और उसके नजदीकी दोस्त थे। उसके चेहरे पर न्यूरेल्जिया का प्रभाव था. वह अपने सेक्रेटरी पर आग-बबूला था जो जहाज चढ़ने की सीढ़ी पर वह सूटकेस छोड़ आया था जिसके भीतर ग्यारह मिलियन डॉलर भरे हुए थे.
जैसे-जैसे जहाज उठता गया और दूर कैबिरबियन की तरफ उड़ा, रेडियो उद्घोषक ने शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम रोककर तानाशाह के पतन की सूचना दी थी. क्रिसमस के पेड़ की मोमबत्तियों की तरह काराकास की खिड़कियां एक-एक करके रोशन होना शुरू हुईं. भोर की ठण्डी हवा और धुंध के बीच उत्सव का वातावरण था-हार्न बन रहे थे, लोग चीख रहे थे, फैक्ट्रियों के सायरन तेज आवाज में बज रहे थे, कारों और लॉरियों से झण्डे लहरा रहे थे. एक भीड़ ने राजनीतिक बंदियों को कन्धों पर नेशनल सिक्युरिटी बिल्डिंग से बाहर ला कर उसे आग के हवाले कर दिया था.
यह पहली बार हुआ था जब हमने लातीनी अमरीका में किसी तानाशाह का पतन देखा था. एक साप्ताहिक पत्रिका के पत्रकारों के तौर पर गार्सीया मारकेज और मैंने इन सघन क्षणों को भरपूर जिया. हमने सत्ता के सारे केन्द्रों का भ्रमण किया-रक्षा मंत्रालय, जो एक किले जैसा था जिसके गलियारों में बोर्डों पर लिखा था-‘यहां से जाने पर यहां देखी-सुनी चीजों को भूल जाओ’, और मीराफ्लोरेस-राष्ट्रपति का निवास-एक पुराना औपनिवेशिक महल जिसके बरामदे के बीच एक फव्वारा था और हर तरफ फूलों की टोकरियां। वहां गार्सीया मारकेज की मुलाकात एक परिचारक से हुई जिसने महल में उस पुराने तानाशाह हुआन विसेन्ते गोमेज के समय से काम किया था. ग्रामीण मूल का तानाशाह गोमेज जिसकी आंखें और मूंछें तार्तारों जैसी थीं, तीस साल तक अपनी कठोर तानाशाही के बाद अपने बिस्तर पर शान्तिपूर्वक मरा था. परिचारक को जनरल, उसके दोपहर सोने का हैमक और सबसे प्रिय मुर्गे की याद थी. क्या उससे बात करने के बाद तुम्हें उपन्यास लिखने का विचार आया था?
नहीं, यह उस दिन हुआ था जब पेरेज़्ा हिमेनेज के पतन के बाद सत्ताधारी पार्टी उसी मीराफ्लोरेस के महल में इकट्ठा हुई थी. तुम्हें याद है? कुछ महत्वपूर्ण चीज चल रही थी. सारे पत्रकार और फोटोग्राफर राष्ट्रपति के दफ्तर के एन्टी-रूम में इंतजार कर रहे थे. करीब सुबह का चार बजा था जब दरवाजा खुला और युद्ध की वर्दी पहने एक अफसर, हाथ में मशीनगन लिये, कीचड़ भरे बूटों में उल्टा चलता हुआ बाहर निकला, वह प्रतीक्षारत प्रेस के पास से गुजरा.
अब भी उल्टा चलता हुआ?
उल्टा चलता हुआ, अपनी मशीनगन थामे. गलीचे पर अपने बूटों का कीचड़ छोड़ता हुआ. वह सीढ़ियों से उतर कर एक कार में बैठा जो उसे एयरपोर्ट और आगामी निष्कासन की तरफ उड़ा ले गई.
यह तब हुआ था जब उस कमरे से सिपाही बाहर निकला जहां वे लोग नई सरकार के निर्माण पर चर्चा कर रहे थे, तब मुझे अचानक सत्ता के रहस्य समझ में आये.
कुछ दिनों बाद जब हम उस पत्रिका के दफ्तर की तरफ जा रहे थे जहां हम काम करते थे, तुमने कहा था कि लातीन अमरीकी तानाशाहों का उपन्यास अभी लिखा जाना बाकी है. हम दोनों इस बात पर सहमत हुए थे कि एस्तूरियास का उपन्यास ‘द प्रेजीडेन्ट’ जो हमारे ख्याल से भयानक था, वह उपन्यास नहीं था.
हां, यह भयानक है.
मुझे याद आता है कि तुमने तानाशाहों की जीवनियां पढ़ना शुरू कर दिया था. तुम हैरत में पड़ गये थे. सारे लातीन अमरीकी तानाशाह पूरे पागल होते हैं. हर रात डिनर के समय तुम हम लोगों को उन किताबों की कहानियां सुनाया करते थे. वो कौन सा तानाशाह का जिसने सारे काले कुत्तों को मरवा दिया था?
डुआलियर, हाइती का डॉक्टर डुवालियर: ‘पापा डाक’. उसने सारे देश के काले कुत्तों को मरवा दिया था क्योंकि उसके एक दुश्मन ने, कैद किये जाने और मरवा दिये जाने के भय से अपने आप को एक कुत्ते में, एक काले कुत्ते में बदल लिया था.
(जारी)
मयाड़ घाटी -- 16
ब्यूँस की टहनियाँ
तोमलिङ नाले से आगे जा कर एक जगह जुनिपर और चट्टानो से भरा एक मनोरम स्थल है. धूप काफी तेज़ हो रही है, जब कि नाले की बर्फानी हवा भी बेहद तीखी है. हम ने यहीं विश्राम करने का फैसला लिया है. उन औरतों ने अपने किल्टों से बक्पिणि निकाला है और पुग भी. पुग जौ के भुने हुए दाने हैं . लाहुल की स्त्रियाँ अपनी कतर की जेबों में भरे रखतीं हैं. काम काज या सफर के बीच मुट्ठी भर निकाल कर सब को बाँटती हैं और खुद भी खा लेतीं हैं. यह अल्पाहार बाँटते हुए पहली बार मेरा ध्यान इन औरतों की हथेलियों पर गया है . बीच में बेतरह घिसी हुईं और लाल. किनारे से खुरदुरी, बिवाईयों वाली, काली बेढब, गाँठ दार टेढ़ी मेढ़ी उंगलियाँ. जिन मे पुराने घावों के अनेक निशान दिख रहे हैं.
फिर उस छोटी लड़की की नाज़ुक उंगलियों को देखता हूँ. भीतर कुछ पिघलने लगा है.
ऐसा स्वच्छ मन, मधुर कंठ, उन्मुक्त ठहाके......... लेकिन हाथों की यह दुर्दशा कुछ और ही कहानी कह रही है. आदिवासी स्त्रियाँ अपना दर्द गीतों और ठहाकों में उडेल देती हैं. मुझे ब्यूँस की टहनियाँ याद आईं है ........
जैसा चाहो लचकाओ दबाओ
झुकती , लहराती रहेंगी
जब तक हम में लोच है
सूख जाने पर लेकिन
कड़क कर टूट जाएंगी
हम् ब्यूँस की टहनियाँ हैं
अचानक इन खिलते हुए चेहरों के पीछे छिपी हुई गहरी व्यथा की झलक मिल गई है मुझे. बेचैन हो उठता हूँ. दराटी से झाड़ झंखाड़ साफ करती माँ सामने आ गई हैं. उस की हथेलियों में काँटे चुभे हुए हैं और मैं एक ज़ंग लगी सूई से उन्हे निकालने की कोशिश कर रहा हूँ. पर काँटे हैं कि खत्म ही नहीं होते. एक निकालता हूँ तो दूसरा दिख जाता.....
यह सरकारी काम निपटा कर के दो दिन घर में माँ के पास रहूँगा. उस के हाथों से तमाम काँटे निकाल फैकूँगा......!
उस आदमी ने अरक की बोतल से दो घूँट गटक लिए हैं फिर बोतल आगे पास कर के उदासीन भाव से पुग चाबने लगा है.... कुटुर..कुटुर....कुटुर... मुझे ज़ोर की भूख लगी है. कभी कभी कुछ ध्वनियाँ भी एपिटाईज़र का काम करतीं हैं . औरतों से थोड़ी और बक्पिणि माँग कर खाने लगा हूँ. .......चौहान जी को अरक तो पसन्द है, लेकिन पुग अच्छा सेलेड नहीं है. फिर भी आज भाई जी प्रसन्न हैं... और खूब पी रहे हैं. फटी पेंट की परवाह किए बिना.
............... चाँगुट कितनी दूर है?
(जारी)
तोमलिङ नाले से आगे जा कर एक जगह जुनिपर और चट्टानो से भरा एक मनोरम स्थल है. धूप काफी तेज़ हो रही है, जब कि नाले की बर्फानी हवा भी बेहद तीखी है. हम ने यहीं विश्राम करने का फैसला लिया है. उन औरतों ने अपने किल्टों से बक्पिणि निकाला है और पुग भी. पुग जौ के भुने हुए दाने हैं . लाहुल की स्त्रियाँ अपनी कतर की जेबों में भरे रखतीं हैं. काम काज या सफर के बीच मुट्ठी भर निकाल कर सब को बाँटती हैं और खुद भी खा लेतीं हैं. यह अल्पाहार बाँटते हुए पहली बार मेरा ध्यान इन औरतों की हथेलियों पर गया है . बीच में बेतरह घिसी हुईं और लाल. किनारे से खुरदुरी, बिवाईयों वाली, काली बेढब, गाँठ दार टेढ़ी मेढ़ी उंगलियाँ. जिन मे पुराने घावों के अनेक निशान दिख रहे हैं.
फिर उस छोटी लड़की की नाज़ुक उंगलियों को देखता हूँ. भीतर कुछ पिघलने लगा है.
ऐसा स्वच्छ मन, मधुर कंठ, उन्मुक्त ठहाके......... लेकिन हाथों की यह दुर्दशा कुछ और ही कहानी कह रही है. आदिवासी स्त्रियाँ अपना दर्द गीतों और ठहाकों में उडेल देती हैं. मुझे ब्यूँस की टहनियाँ याद आईं है ........
जैसा चाहो लचकाओ दबाओ
झुकती , लहराती रहेंगी
जब तक हम में लोच है
सूख जाने पर लेकिन
कड़क कर टूट जाएंगी
हम् ब्यूँस की टहनियाँ हैं
अचानक इन खिलते हुए चेहरों के पीछे छिपी हुई गहरी व्यथा की झलक मिल गई है मुझे. बेचैन हो उठता हूँ. दराटी से झाड़ झंखाड़ साफ करती माँ सामने आ गई हैं. उस की हथेलियों में काँटे चुभे हुए हैं और मैं एक ज़ंग लगी सूई से उन्हे निकालने की कोशिश कर रहा हूँ. पर काँटे हैं कि खत्म ही नहीं होते. एक निकालता हूँ तो दूसरा दिख जाता.....
यह सरकारी काम निपटा कर के दो दिन घर में माँ के पास रहूँगा. उस के हाथों से तमाम काँटे निकाल फैकूँगा......!
उस आदमी ने अरक की बोतल से दो घूँट गटक लिए हैं फिर बोतल आगे पास कर के उदासीन भाव से पुग चाबने लगा है.... कुटुर..कुटुर....कुटुर... मुझे ज़ोर की भूख लगी है. कभी कभी कुछ ध्वनियाँ भी एपिटाईज़र का काम करतीं हैं . औरतों से थोड़ी और बक्पिणि माँग कर खाने लगा हूँ. .......चौहान जी को अरक तो पसन्द है, लेकिन पुग अच्छा सेलेड नहीं है. फिर भी आज भाई जी प्रसन्न हैं... और खूब पी रहे हैं. फटी पेंट की परवाह किए बिना.
............... चाँगुट कितनी दूर है?
(जारी)
Saturday, March 26, 2011
खाये-अघाये लोगों के देश में जीवन संग्राम
हिन्दुस्तान लखनऊ संस्करण के सम्पादक नवीन जोशी उर्फ़ नवीन दा के उपन्यास दावानल के कुछेक अंश आप कबाड़ख़ाने पर पढ़ चुके हैं. हाल ही में नवीन दा ऑस्ट्रेलिया के भ्रमण से लौटे हैं, मेरे इसरार पर उन्होंने यह आलेख विशेषतः कबाड़ख़ाने के लिए भेजा है. उनका धन्यवाद.
विशाल समृद्ध भू-भाग और सीमित आबादी, अच्छी कमाई, घर-घर में न्यूनतम दो महँगी कारें और ऐशो-आराम का पूरा लुत्फ उठाते लोग। यूं देखने पर आस्ट्रेलिया खाये-अघाये लोगों लोगों का मुल्क लगता है। है भी, लेकिन इस समृद्धि-लोक में जीवन की जंग लड़ रहे लोग भी हैं। यह अलग बात है कि उनका चेहरा दयनीय या रुलंटा नहीं बल्कि तमाशे या मनोरंजन की वस्तु के रूप में हँसता-खिलखिलाता ही सामने आता है।
सबसे पहले मूल आस्ट्रेलियाई आदिवासी हैं, जिन्हें यहां ‘एबोरिजनल्स’ के नाम से जानते-पुकारते हैं। आज के आस्ट्रेलिया में सत्ता और समृद्धि के समस्त संसाधनों पर यूरोपीय मूल के लोगों का कब्जा है और ‘एबोरिजनल्स’ वंचित समुदा्य हैं। सन् 1770 में कैप्टन कुक की आस्ट्रेलिया की खोज के बाद से आस्ट्रेलिया ब्रिटिश उपनिवेश बना और कम से कम 40 हजार साल से वहाँ रह रहे मूल आस्ट्रेलियावासियों को मारा-खदेड़ा जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त होने तक मूल आस्ट्रेलियाई निवासियों की संख्या बहुत कम हो गई थी। आज भी मूल आस्ट्रेलियाईयों की आबादी आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या की दो-ढाई प्रतिशत ही है। आज भी वे उपेक्षित-वंचित हैं, उनके संगठन बने हैं और यदा-कदा आंदोलन-प्रदर्शन-सेमिनार भी वे अपने हक के लिए करते रहते हैं।
तो, आज के समृद्ध आस्ट्रेलिया में एक सतत संघर्ष इन मूल निवासियों का है जो मुख्य धारा से दूर धकेल दिए गए थे. आज उनमें से कई अच्छी निजी व सरकारी सेवाओं में भी हैं, मगर ‘वन ऑफ देम’ (उनमें से एक) कह कर इंगित किए जाते हैं। कई मूल निवासी परिवार जो ज़्यादा पढ़-लिख नहीं पाए हैं, अपनी पुरातन कला-संस्कृति का जगह-जगह प्रदर्शन करके रोजी-रोटी कमाते हैं। हमने उन्हें सिडनी हार्बर जैसी लोकप्रिय और व्यस्त जगह पर खुले में बैठे ‘डिजेरिडू’ (लकड़ी का भ्वांकरा जैसा) बजाते, बूमरैंग और लकड़ी के भाले फेंकने का प्रदर्शन और अन्य करतब करते देखा। लोग उनके सामने रखे बक्से में डॉलर डाल रहे थे। ज़्यादातर पर्यटन स्थलों पर इस तरह के प्रदर्शन खुद सरकारी स्तर पर भी कराए जाते हैं। सिडनी के म्यूज़ियम में ‘एबोरिजनल्स’ की समृद्ध लोक कला-संस्कृति की बड़ी दीर्घा है। हमने कैर्न्स के ‘रेनफॉरस्टेशन नेचर पार्क’ में भी उनके ऐसे ही कला-प्रदर्शन देखे जहॉ पर्यटक बाकायदा टिकट लेकर जाते हैं। आस्ट्रेलियाई सरकार के तमाम दावों के बावजूद आस्ट्रेलिया के मूल निवासी अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए एक कमजोर सी लड़ाई लड़े जा रहे हैं। सिडनी के रॉयल बॉटेनिक गार्डन में हमें उनका एक बड़ा-सा पोस्टर दिखाई दिया, जिसमें लिखा था- ‘‘आप नए आस्ट्रेलियाई हैं, लेकिन हम पुराने आस्ट्रेलियाई हैं। हम सिर्फ न्याय, शालीन व्यवहार और निष्पक्षता की माँग कर रहे हैं। क्या यह माँग बहुत ज़्यादा है?’’
सिडनी हार्बर पर ही हम शनिवार-रविवार को, जब वहाँ खूब भीड़ जुटती है, तरह-तरह के शारीरिक करतब करती टीमों को देखते हैं। उन्हें देखकर भारतीय सड़कों के किनारे रस्सी पर चलते युवक या लोहे के नन्हे छल्ले से अपना शरीर पार करती लड़की, जैसे विविध करतब दिखाकर रोजी-रोटी कमाते लोगों की याद आती है। यानी वंचितों का रोटी का संघर्ष सब जगह एक जैसा है। एक युवक को तो हमने पूरे साढ़े पाँच फुट की लचीली, खूबसूरत गुड़िया के साथ बॉल-डांस करते देखा। वह डांस का पद-संचालन ही नहीं सिखा रहा था, बल्कि भड़काऊ संगीत पर कुशल नर्तक जोड़ी के ताली-पीटू कौशल भी दिखा रहा था। उस पर भी डॉलर और सीलिंग न्यौछावर हो रहे थे।
और सिडनी हार्बर के पीछे की एक व्यस्त सड़क के फुटपाथ पर अपनी टोपी धरे, सिर झुकाए एक व्यक्ति को दो-दिन लगातार देखने के बाद हमने जिज्ञासा की तो पता चला कि वह भीख मांगता है और अक्सर इसी तरह बैठा मिलता है। हमने सोचा था, आस्ट्रेलिया जैसे समृद्ध देश में कोई भीख नहीं मांगता होगा!
रात को थके-मांदे जब हम होटल लौटे तो लेटते-लेटते सुबह के ‘सिडनी मार्निंग हेरल्ड’ पर नजर डाली। उस दिन की लीड थी -
‘सिडनी के अस्पतालों में ऑपरशन टलने से सैकड़ों मरीज परेशान।’ दूसरी लीड थी-‘सिडनी पुलिस नशीले पदार्थों का व्यापार करने वाले बड़े लोगों पर तो हाथ डाल नहीं पाती, शरीफ नागरिकों को जरूर खूब तंग करती है।’
आस्ट्रेलिया की समृद्धि और मस्ती का आतंक हमारे दिल-दिमाग से उतरने लगा और फिर हम सुकून से सो पाए।
(सिडनी म्यूज़ियम में एबोरिजिनल कला दीर्घा)
(सिडनी बोटैनिक गार्डन में लगा एबओरिजिनीज़ का पोस्टर - हमें न्याय चाहिये)
(सिडनी टावर पर जोशी जी)
(पैसा फेंको, तमाशा देखो - सिडनी हार्बर पर तमाशा)
(एबोरोजिनल्स, हार्बर किनारे, पापी पेट के वास्ते)
(आदमकद गुड़िया के साथ बॉल डान्स - चन्द डॉलर का सवाल है जी)
विशाल समृद्ध भू-भाग और सीमित आबादी, अच्छी कमाई, घर-घर में न्यूनतम दो महँगी कारें और ऐशो-आराम का पूरा लुत्फ उठाते लोग। यूं देखने पर आस्ट्रेलिया खाये-अघाये लोगों लोगों का मुल्क लगता है। है भी, लेकिन इस समृद्धि-लोक में जीवन की जंग लड़ रहे लोग भी हैं। यह अलग बात है कि उनका चेहरा दयनीय या रुलंटा नहीं बल्कि तमाशे या मनोरंजन की वस्तु के रूप में हँसता-खिलखिलाता ही सामने आता है।
सबसे पहले मूल आस्ट्रेलियाई आदिवासी हैं, जिन्हें यहां ‘एबोरिजनल्स’ के नाम से जानते-पुकारते हैं। आज के आस्ट्रेलिया में सत्ता और समृद्धि के समस्त संसाधनों पर यूरोपीय मूल के लोगों का कब्जा है और ‘एबोरिजनल्स’ वंचित समुदा्य हैं। सन् 1770 में कैप्टन कुक की आस्ट्रेलिया की खोज के बाद से आस्ट्रेलिया ब्रिटिश उपनिवेश बना और कम से कम 40 हजार साल से वहाँ रह रहे मूल आस्ट्रेलियावासियों को मारा-खदेड़ा जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त होने तक मूल आस्ट्रेलियाई निवासियों की संख्या बहुत कम हो गई थी। आज भी मूल आस्ट्रेलियाईयों की आबादी आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या की दो-ढाई प्रतिशत ही है। आज भी वे उपेक्षित-वंचित हैं, उनके संगठन बने हैं और यदा-कदा आंदोलन-प्रदर्शन-सेमिनार भी वे अपने हक के लिए करते रहते हैं।
तो, आज के समृद्ध आस्ट्रेलिया में एक सतत संघर्ष इन मूल निवासियों का है जो मुख्य धारा से दूर धकेल दिए गए थे. आज उनमें से कई अच्छी निजी व सरकारी सेवाओं में भी हैं, मगर ‘वन ऑफ देम’ (उनमें से एक) कह कर इंगित किए जाते हैं। कई मूल निवासी परिवार जो ज़्यादा पढ़-लिख नहीं पाए हैं, अपनी पुरातन कला-संस्कृति का जगह-जगह प्रदर्शन करके रोजी-रोटी कमाते हैं। हमने उन्हें सिडनी हार्बर जैसी लोकप्रिय और व्यस्त जगह पर खुले में बैठे ‘डिजेरिडू’ (लकड़ी का भ्वांकरा जैसा) बजाते, बूमरैंग और लकड़ी के भाले फेंकने का प्रदर्शन और अन्य करतब करते देखा। लोग उनके सामने रखे बक्से में डॉलर डाल रहे थे। ज़्यादातर पर्यटन स्थलों पर इस तरह के प्रदर्शन खुद सरकारी स्तर पर भी कराए जाते हैं। सिडनी के म्यूज़ियम में ‘एबोरिजनल्स’ की समृद्ध लोक कला-संस्कृति की बड़ी दीर्घा है। हमने कैर्न्स के ‘रेनफॉरस्टेशन नेचर पार्क’ में भी उनके ऐसे ही कला-प्रदर्शन देखे जहॉ पर्यटक बाकायदा टिकट लेकर जाते हैं। आस्ट्रेलियाई सरकार के तमाम दावों के बावजूद आस्ट्रेलिया के मूल निवासी अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए एक कमजोर सी लड़ाई लड़े जा रहे हैं। सिडनी के रॉयल बॉटेनिक गार्डन में हमें उनका एक बड़ा-सा पोस्टर दिखाई दिया, जिसमें लिखा था- ‘‘आप नए आस्ट्रेलियाई हैं, लेकिन हम पुराने आस्ट्रेलियाई हैं। हम सिर्फ न्याय, शालीन व्यवहार और निष्पक्षता की माँग कर रहे हैं। क्या यह माँग बहुत ज़्यादा है?’’
सिडनी हार्बर पर ही हम शनिवार-रविवार को, जब वहाँ खूब भीड़ जुटती है, तरह-तरह के शारीरिक करतब करती टीमों को देखते हैं। उन्हें देखकर भारतीय सड़कों के किनारे रस्सी पर चलते युवक या लोहे के नन्हे छल्ले से अपना शरीर पार करती लड़की, जैसे विविध करतब दिखाकर रोजी-रोटी कमाते लोगों की याद आती है। यानी वंचितों का रोटी का संघर्ष सब जगह एक जैसा है। एक युवक को तो हमने पूरे साढ़े पाँच फुट की लचीली, खूबसूरत गुड़िया के साथ बॉल-डांस करते देखा। वह डांस का पद-संचालन ही नहीं सिखा रहा था, बल्कि भड़काऊ संगीत पर कुशल नर्तक जोड़ी के ताली-पीटू कौशल भी दिखा रहा था। उस पर भी डॉलर और सीलिंग न्यौछावर हो रहे थे।
और सिडनी हार्बर के पीछे की एक व्यस्त सड़क के फुटपाथ पर अपनी टोपी धरे, सिर झुकाए एक व्यक्ति को दो-दिन लगातार देखने के बाद हमने जिज्ञासा की तो पता चला कि वह भीख मांगता है और अक्सर इसी तरह बैठा मिलता है। हमने सोचा था, आस्ट्रेलिया जैसे समृद्ध देश में कोई भीख नहीं मांगता होगा!
रात को थके-मांदे जब हम होटल लौटे तो लेटते-लेटते सुबह के ‘सिडनी मार्निंग हेरल्ड’ पर नजर डाली। उस दिन की लीड थी -
‘सिडनी के अस्पतालों में ऑपरशन टलने से सैकड़ों मरीज परेशान।’ दूसरी लीड थी-‘सिडनी पुलिस नशीले पदार्थों का व्यापार करने वाले बड़े लोगों पर तो हाथ डाल नहीं पाती, शरीफ नागरिकों को जरूर खूब तंग करती है।’
आस्ट्रेलिया की समृद्धि और मस्ती का आतंक हमारे दिल-दिमाग से उतरने लगा और फिर हम सुकून से सो पाए।
(सिडनी म्यूज़ियम में एबोरिजिनल कला दीर्घा)
(सिडनी बोटैनिक गार्डन में लगा एबओरिजिनीज़ का पोस्टर - हमें न्याय चाहिये)
(सिडनी टावर पर जोशी जी)
(पैसा फेंको, तमाशा देखो - सिडनी हार्बर पर तमाशा)
(एबोरोजिनल्स, हार्बर किनारे, पापी पेट के वास्ते)
(आदमकद गुड़िया के साथ बॉल डान्स - चन्द डॉलर का सवाल है जी)
ह्यूमर के बारे में कुछ बिखरी बातें
मार्क ट्वेन एक जगह कहते हैं - "मानव से सम्बन्धित हरेक चीज़ दयनीय होती है. ह्यूमर का गुप्त स्रोत ख़ुशी में नहीं बल्कि उदासी में छिपा होता है. स्वर्ग में कोई ह्यूमर नहीं होता."
कई दफ़ा मेरे हाथ कोई ऐसी किताब लगती है जिसकी विषयवस्तु मेरी कल्पना से परे होती है.
स्टुअर्ट हैम्पल की की लिखी नॉन बीइंग एन्ड समथिंगनैस ऐसी ही किताब थी. यह किताब मशहूर अभिनेता कॉमिक-स्ट्रिप इनसाइड वूडी एलेन को डीकोड करने के लिए अपनी स्मृति के सहारे अध्यात्म को समझने की कोशिश है. एक अध्याय में लेखक डायटिंग की समस्या पर ध्यान केन्द्रित करते हैं. लेखक कहता है - "ऐसा नहीं है कि डायटिंग करने वाले किसी आध्यात्मिक समस्या से नहीं जूझ रहे होते. समस्या यह है कि वे आध्यात्मिक समाधान खोजने लगते हैं. मिसाल के तौर पर आपने वह मुहावरा सुना होगा कि लाफ़्टर इज़ द बेस्ट मेडिसिन. मुहावरा बनाने वाले ने यह नहीं कहा कि ह्यूमर इज़ द बेस्ट मेडिसिन. ह्यूमर एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है जबकि हंसना एक सक्रिय शारीरिक गतिविधि. सारे समाधान इसी बात में छिपे हुए हैं."
कई दफ़ा मेरे हाथ कोई ऐसी किताब लगती है जिसकी विषयवस्तु मेरी कल्पना से परे होती है.
स्टुअर्ट हैम्पल की की लिखी नॉन बीइंग एन्ड समथिंगनैस ऐसी ही किताब थी. यह किताब मशहूर अभिनेता कॉमिक-स्ट्रिप इनसाइड वूडी एलेन को डीकोड करने के लिए अपनी स्मृति के सहारे अध्यात्म को समझने की कोशिश है. एक अध्याय में लेखक डायटिंग की समस्या पर ध्यान केन्द्रित करते हैं. लेखक कहता है - "ऐसा नहीं है कि डायटिंग करने वाले किसी आध्यात्मिक समस्या से नहीं जूझ रहे होते. समस्या यह है कि वे आध्यात्मिक समाधान खोजने लगते हैं. मिसाल के तौर पर आपने वह मुहावरा सुना होगा कि लाफ़्टर इज़ द बेस्ट मेडिसिन. मुहावरा बनाने वाले ने यह नहीं कहा कि ह्यूमर इज़ द बेस्ट मेडिसिन. ह्यूमर एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है जबकि हंसना एक सक्रिय शारीरिक गतिविधि. सारे समाधान इसी बात में छिपे हुए हैं."
Friday, March 25, 2011
प्रो. कमला प्रसाद का निधन
वसुधा के संपादक प्रो. कमला प्रसाद का आज देहांत हो गया. कबाडखाना उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि देते हुए जन संस्कृति मंच के महासचिव श्री प्रणय कृष्ण का वक्तव्य आपके सामने रख रहा है.
आज सुबह ही हम सब प्रो. कमला प्रसाद के असामयिक निधन का समाचार सुन अवसन्न रह गए. रक्त कैंसर यों तो भयानक मर्ज़ है, लेकिन फिर भी आज की तारीख में वह लाइलाज नहीं रह गया है. ऐसे में यह उम्मीद तो बिलकुल ही नहीं थी कि कमला जी को इतनी जल्दी खो देंगे. उन्हें चाहने वाले, मित्र, परिजन और सबसे बढ़कर प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की यह भारी क्षति है. इतने लम्बे समय तक उस प्रगतिशील आंदोलन का बतौर महासचिव नेतृत्व करना जिसकी नींव सज्जाद ज़हीर, प्रेमचंद, मुल्कराज आनंद , फैज़ सरीखे अदीबों ने डाली थी, अपन आप में उनकी प्रतिबद्धता और संगठन क्षमता के बारे में बहुत कुछ बयान करता है.
१४ फरवरी,१९३८ को सतना में जन्में कमला प्रसाद ने ७० के दशक में ज्ञानरंजन के साथ मिलकर 'पहल' का सम्पादन किया, फिर ९० के दशक से वे 'प्रगतिशील वसुधा' के मृत्युपर्यंत सम्पादक रहे. दोनों ही पत्रिकाओं के कई अनमोल अंकों का श्रेय उन्हें जाता है. कमला प्रसाद जी ने पिछली सदी के उस अंतिम दशक में भी प्रलेस का सजग नेतृत्व किया जब सोवियत विघटन हो चुका था और समाजवाद को पूरी दुनिया में अप्रासंगिक करार देने की मुहिम चली हुई थी. उन दिनों दुनिया भर में कई तपे तपाए अदीब भी मार्क्सवाद का खेमा छोड़ अपनी राह ले रहे थे. ऐसे कठिन समय में प्रगतिशील आन्दोलन की मशाल थामें रहनेवाले कमला प्रसाद को आज अपने बीच न पाकर एक शून्य महसूस हो रहा है. कमला जी की अपनी मुख्य कार्यस्थली मध्य प्रदेश थी. मध्य प्रदेष कभी भी वाम आन्दोलन का मुख्य केंद्र नहीं रहा. ऐसी जगह नीचे से एक प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठन को खडा करना कोइ मामूली बात न थी. ये कमला जी की सलाहियत थी कि ये काम भी अंजाम पा सका. निस्संदेह हरिशंकर परसाई जैसे अग्रजों का प्रोत्साहन और मुक्तिबोध जैसों की विरासत ने उनका रास्ता प्रशस्त किया, लेकिन यह आसान फिर भी न रहा होगा.
कमला जी को सबसे काम लेना आता था, अनावश्यक आरोपों का जवाब देते उन्हें शायद ही कभी देखा गया हो. जन संस्कृति मंच के पिछले दो सम्मेलनों में उनके विस्तृत सन्देश पढ़े गए और दोनों बार प्रलेस के प्रतिनिधियों को हमारे आग्रह पर सम्मेलन संबोधित करने के लिए उन्होनें भेजा. वे प्रगतिशील लेखक संघ , जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के बीच साझा कार्रवाइयों की संभावना तलाशने के प्रति सदैव खुलापन प्रदर्शित करते रहे और अनेक बार इस सिलसिले में हमारी उनसे बातें हुईं. इस वर्ष कई कार्यक्रमों के बारे में मोटी रूपरेखा पर भी उनसे विचार विमर्ष हुआ था जो उनके अचानक बीमार पड़ने से बाधित हुआ. संगठनकर्ता के सम्मुख उन्होंने अपनी आलोचकीय और वैदुषिक क्षमता, अकादमिक प्रशासन में अपनी दक्षता को उतनी तरजीह नहीं दी. लेकिन इन रूपों में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश कला परिषद् और केन्द्रीय हिंदी संस्थान जैसे शासकीय निकायों में काम करते हुए भी वे लगातार प्रलेस के अपने सांगठनिक दायित्व को ही प्राथमिकता में रखते रहे. उनका स्नेहिल स्वभाव, सहज व्यवहार सभी को आकर्षित करता था. उनका जाना सिर्फा प्रलेस , उनके परिजनों और मित्रों के लिए ही नहीं , बल्कि समूचे वाम- लोकतांत्रिक सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए भारी झटका है. जन संस्कृति मंच .प्रो. कमला प्रसाद को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है . हम चाहेंगे कि वाम आन्दोलन की सर्वोत्तम परम्पराओं को विकसित करनेवाले संस्कृतिकर्मी इस शोक को शक्ति में बदलेंगे और उन तमाम कामों को मंजिल तक पहुचाएँगे जिनके लिए कमला जी ने जीवन पर्यंत कर्मठतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह किया.
आज सुबह ही हम सब प्रो. कमला प्रसाद के असामयिक निधन का समाचार सुन अवसन्न रह गए. रक्त कैंसर यों तो भयानक मर्ज़ है, लेकिन फिर भी आज की तारीख में वह लाइलाज नहीं रह गया है. ऐसे में यह उम्मीद तो बिलकुल ही नहीं थी कि कमला जी को इतनी जल्दी खो देंगे. उन्हें चाहने वाले, मित्र, परिजन और सबसे बढ़कर प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की यह भारी क्षति है. इतने लम्बे समय तक उस प्रगतिशील आंदोलन का बतौर महासचिव नेतृत्व करना जिसकी नींव सज्जाद ज़हीर, प्रेमचंद, मुल्कराज आनंद , फैज़ सरीखे अदीबों ने डाली थी, अपन आप में उनकी प्रतिबद्धता और संगठन क्षमता के बारे में बहुत कुछ बयान करता है.
१४ फरवरी,१९३८ को सतना में जन्में कमला प्रसाद ने ७० के दशक में ज्ञानरंजन के साथ मिलकर 'पहल' का सम्पादन किया, फिर ९० के दशक से वे 'प्रगतिशील वसुधा' के मृत्युपर्यंत सम्पादक रहे. दोनों ही पत्रिकाओं के कई अनमोल अंकों का श्रेय उन्हें जाता है. कमला प्रसाद जी ने पिछली सदी के उस अंतिम दशक में भी प्रलेस का सजग नेतृत्व किया जब सोवियत विघटन हो चुका था और समाजवाद को पूरी दुनिया में अप्रासंगिक करार देने की मुहिम चली हुई थी. उन दिनों दुनिया भर में कई तपे तपाए अदीब भी मार्क्सवाद का खेमा छोड़ अपनी राह ले रहे थे. ऐसे कठिन समय में प्रगतिशील आन्दोलन की मशाल थामें रहनेवाले कमला प्रसाद को आज अपने बीच न पाकर एक शून्य महसूस हो रहा है. कमला जी की अपनी मुख्य कार्यस्थली मध्य प्रदेश थी. मध्य प्रदेष कभी भी वाम आन्दोलन का मुख्य केंद्र नहीं रहा. ऐसी जगह नीचे से एक प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठन को खडा करना कोइ मामूली बात न थी. ये कमला जी की सलाहियत थी कि ये काम भी अंजाम पा सका. निस्संदेह हरिशंकर परसाई जैसे अग्रजों का प्रोत्साहन और मुक्तिबोध जैसों की विरासत ने उनका रास्ता प्रशस्त किया, लेकिन यह आसान फिर भी न रहा होगा.
कमला जी को सबसे काम लेना आता था, अनावश्यक आरोपों का जवाब देते उन्हें शायद ही कभी देखा गया हो. जन संस्कृति मंच के पिछले दो सम्मेलनों में उनके विस्तृत सन्देश पढ़े गए और दोनों बार प्रलेस के प्रतिनिधियों को हमारे आग्रह पर सम्मेलन संबोधित करने के लिए उन्होनें भेजा. वे प्रगतिशील लेखक संघ , जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के बीच साझा कार्रवाइयों की संभावना तलाशने के प्रति सदैव खुलापन प्रदर्शित करते रहे और अनेक बार इस सिलसिले में हमारी उनसे बातें हुईं. इस वर्ष कई कार्यक्रमों के बारे में मोटी रूपरेखा पर भी उनसे विचार विमर्ष हुआ था जो उनके अचानक बीमार पड़ने से बाधित हुआ. संगठनकर्ता के सम्मुख उन्होंने अपनी आलोचकीय और वैदुषिक क्षमता, अकादमिक प्रशासन में अपनी दक्षता को उतनी तरजीह नहीं दी. लेकिन इन रूपों में भी उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश कला परिषद् और केन्द्रीय हिंदी संस्थान जैसे शासकीय निकायों में काम करते हुए भी वे लगातार प्रलेस के अपने सांगठनिक दायित्व को ही प्राथमिकता में रखते रहे. उनका स्नेहिल स्वभाव, सहज व्यवहार सभी को आकर्षित करता था. उनका जाना सिर्फा प्रलेस , उनके परिजनों और मित्रों के लिए ही नहीं , बल्कि समूचे वाम- लोकतांत्रिक सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए भारी झटका है. जन संस्कृति मंच .प्रो. कमला प्रसाद को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है . हम चाहेंगे कि वाम आन्दोलन की सर्वोत्तम परम्पराओं को विकसित करनेवाले संस्कृतिकर्मी इस शोक को शक्ति में बदलेंगे और उन तमाम कामों को मंजिल तक पहुचाएँगे जिनके लिए कमला जी ने जीवन पर्यंत कर्मठतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह किया.
मयाड़ घाटी --14
लोक गीतों मे पाडर –पाँगी
हम मयाड़ नदी के दक्षिण तट पर चल रहे हैं. इस तरफ मुख्य रूप से जुनिपर के पेड़ है . उस पार वाम तट पर घारी, चिमरट, षेळिंग , बलगोट आदि गाँवों के मनोहारी दयार के जंगल देखते हुए अभी अभी हम तमलू से आगे हुए हैं. मयाड़ घाटी की जो भौगोलिक छवि मेरी कल्पना मे बनी हुई थी, धीरे धीरे ध्वस्त होती जा रही है. यह रोमाँचक तो है, लेकिन उस तरह से क़तई नहीं जो मैंने सोच रखा था. असल में यह लाहुल की अर्द्ध मरुभूमि वाले टेरैन से अलग ही एक दुनिया है. बीहड़ किंतु हरा भरा. यहाँ के नदी नाले बहुत सक्रिय हैं. भीषण गर्जना करते नालों के मुहानों पर भीमकाय बोल्डरों के ढेर बने हुए हैं. उन ढेरों में गौर से देखें तो सैंकड़ों हरे हरे कोमल सिब्लिंग्स पत्थरों की कठोरता को चुनौती देते हुए वहाँ उग रहें हैं. मैंने नोटिस किया कि ज़्यादातर गाँव भी इन मुहानों पर ही बसे हैं. बाढ़ के मलबों के ठीक ऊपर. और साफ दिखता है कि इन नालों को सक्रिय हुए बहुत अरसा नहीं हुआ है अभी. मतलब यह कि यहाँ का आदमी भी प्रकृति के विनाशकारी तत्वों से बहुत ज़्यादा नहीं डरता. सृजन और विनाश का प्राकृतिक संघर्ष यहाँ अपने चरम रूप मे दिखता है . सच कहूँ तो ऐसे रोमाँच की कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने.
वह स्थानीय आदमी बहुत ज़्यादा बातूनी नहीं है. वह तब तक कोई सूचना शेयर नही करता जब तक कि उसे ज़रूरी न लगे . या पूछ ही न लिया जाए. लेकिन वे स्त्रियाँ कम्युनिकेट करने के लिए बहुत उत्सुक जान पड़तीं हैं. मुझे उन की खिचड़ी भाषा बड़ी आत्मीय लग रही है. और उस में बहुत ताक़त है . छोटी लड़की उन की बातों पर बार बार हँस पड़ती है. कभी कभी एकदम असहज हो जाती है. उसे लगता है कि वे लोग ज़्याद ही भदेस हो रहीं हैं. लेकिन उन स्त्रियो को कोई परवाह नही है कि स्कूल जाने वाली लड़की क्या सोच रही है. सहगल जी बीच बीच मे किसी लोकगीत का मुखड़ा गुनगुना देते तो वे स्त्रियाँ झट से उसे पूरा कर देतीं. मर्द भी सहज भाव से साथ साथ गाने लगता...
“ देशो ता भलिये मायाड़ी देशा....”
“खबुला , हेरि शुणि जाणा खबुला....”
“सोना पोति नेड़े क दूर ए , लाल रंगा है”
“पाडेरी मुलुका बुरा ए , ज़िन्दा पड़ेर ज़िन्दा ना ए”
टेक खत्म होने पर सभी ठहाका मार कर हँस पड़ते हैं.. लडकी इस गायन मे भाग लेने से झिझक रही है. लेकिन अंतिम हँसी मे वह भी शामिल हो जा रही है.........
ये लोग अपनी संस्कृति पर सचमुच गर्व करते हैं. कम से कम गायन में उन का आत्मविश्वास देख कर मुझे यही लगा है. इन गीतों पर पाडरी, पंगवाली और गद्दी भाषा और शैली का असर है. पहाड़ी-हिन्दी के शब्द भी सहज ही शामिल हो गए हैं. बोलचाल की भाषा भोटी(मयाड़ी) और आदिम पटनी होते हुए भी लोकगीतों में आर्यभाषाओं का प्रयोग क्यों हुआ है? फिर ध्यान आता है कि हमारे पटन में भी प्राचीन गाथाओं मे इसी खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है. सहगल जी से पूछता हूँ, कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है.
हम मयाड़ नदी के दक्षिण तट पर चल रहे हैं. इस तरफ मुख्य रूप से जुनिपर के पेड़ है . उस पार वाम तट पर घारी, चिमरट, षेळिंग , बलगोट आदि गाँवों के मनोहारी दयार के जंगल देखते हुए अभी अभी हम तमलू से आगे हुए हैं. मयाड़ घाटी की जो भौगोलिक छवि मेरी कल्पना मे बनी हुई थी, धीरे धीरे ध्वस्त होती जा रही है. यह रोमाँचक तो है, लेकिन उस तरह से क़तई नहीं जो मैंने सोच रखा था. असल में यह लाहुल की अर्द्ध मरुभूमि वाले टेरैन से अलग ही एक दुनिया है. बीहड़ किंतु हरा भरा. यहाँ के नदी नाले बहुत सक्रिय हैं. भीषण गर्जना करते नालों के मुहानों पर भीमकाय बोल्डरों के ढेर बने हुए हैं. उन ढेरों में गौर से देखें तो सैंकड़ों हरे हरे कोमल सिब्लिंग्स पत्थरों की कठोरता को चुनौती देते हुए वहाँ उग रहें हैं. मैंने नोटिस किया कि ज़्यादातर गाँव भी इन मुहानों पर ही बसे हैं. बाढ़ के मलबों के ठीक ऊपर. और साफ दिखता है कि इन नालों को सक्रिय हुए बहुत अरसा नहीं हुआ है अभी. मतलब यह कि यहाँ का आदमी भी प्रकृति के विनाशकारी तत्वों से बहुत ज़्यादा नहीं डरता. सृजन और विनाश का प्राकृतिक संघर्ष यहाँ अपने चरम रूप मे दिखता है . सच कहूँ तो ऐसे रोमाँच की कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने.
वह स्थानीय आदमी बहुत ज़्यादा बातूनी नहीं है. वह तब तक कोई सूचना शेयर नही करता जब तक कि उसे ज़रूरी न लगे . या पूछ ही न लिया जाए. लेकिन वे स्त्रियाँ कम्युनिकेट करने के लिए बहुत उत्सुक जान पड़तीं हैं. मुझे उन की खिचड़ी भाषा बड़ी आत्मीय लग रही है. और उस में बहुत ताक़त है . छोटी लड़की उन की बातों पर बार बार हँस पड़ती है. कभी कभी एकदम असहज हो जाती है. उसे लगता है कि वे लोग ज़्याद ही भदेस हो रहीं हैं. लेकिन उन स्त्रियो को कोई परवाह नही है कि स्कूल जाने वाली लड़की क्या सोच रही है. सहगल जी बीच बीच मे किसी लोकगीत का मुखड़ा गुनगुना देते तो वे स्त्रियाँ झट से उसे पूरा कर देतीं. मर्द भी सहज भाव से साथ साथ गाने लगता...
“ देशो ता भलिये मायाड़ी देशा....”
“खबुला , हेरि शुणि जाणा खबुला....”
“सोना पोति नेड़े क दूर ए , लाल रंगा है”
“पाडेरी मुलुका बुरा ए , ज़िन्दा पड़ेर ज़िन्दा ना ए”
टेक खत्म होने पर सभी ठहाका मार कर हँस पड़ते हैं.. लडकी इस गायन मे भाग लेने से झिझक रही है. लेकिन अंतिम हँसी मे वह भी शामिल हो जा रही है.........
ये लोग अपनी संस्कृति पर सचमुच गर्व करते हैं. कम से कम गायन में उन का आत्मविश्वास देख कर मुझे यही लगा है. इन गीतों पर पाडरी, पंगवाली और गद्दी भाषा और शैली का असर है. पहाड़ी-हिन्दी के शब्द भी सहज ही शामिल हो गए हैं. बोलचाल की भाषा भोटी(मयाड़ी) और आदिम पटनी होते हुए भी लोकगीतों में आर्यभाषाओं का प्रयोग क्यों हुआ है? फिर ध्यान आता है कि हमारे पटन में भी प्राचीन गाथाओं मे इसी खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है. सहगल जी से पूछता हूँ, कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है.
Thursday, March 24, 2011
नहीं रही क्लिओपेट्रा
हॉलीवुड फ़िल्मों की अभिनेत्रियों की पिछली पीढ़ी की सबसे नामचीन्ह और ग्लैमरस अदाकारा ख़ूबसूरत एलिज़ाबेथ टेलर का कल निधन हो गया. व्यक्तिगत रूप से मुझे क्लियोपेट्रा, हू इज़ अफ़्रेड ऑफ़ वर्जीनिया वूल्फ़, द टेमिंग ऑफ़ द श्रू और डॉक्टर फ़ॉस्टस जैसी क्लासिक्स में उनका काम अब तक याद है. अपने समय की बेहद चर्चित और विवादास्पद शख़्सियतों में शुमार लिज़ टेलर ने नौ शादियां कीं. इनमें से सिर्फ़ माइकेल टॉड के साथ हुआ उनका विवाह ऐसा इकलौता था जिसका अन्त तलाक में नहीं हुआ. माइकेल टॉड की असमय मृत्यु हो गई थी. अपने जीवन के आख़िरी साल लिज़ ने समाजसेवा में बिताए और उन्होंने अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को सार्वजनिक करने में कभी गुरेज़ नहीं किया. तीन ऑस्कर जीत चुकीं लिज़ ने मार्च २००३ में हुए पिचहत्तरवें एकेडमी अवार्ड समारोह का बहिष्कार इस लिए किया कि वे जॉर्ज बुश द्वारा सद्दाम हुसैन पर किए जा रहे हमलों का विरोध करती थीं और उन्हें खौ़फ़ था कि इस से दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ़ धकेला जा रहा है.
एलिज़ाबेथ टेलर के बारे में और जानना हो तो नैट खंगालिए, उनकी फ़िल्में देखिए और जानिये कि क्यों उनके समय को हॉलीवुड का गोल्डन पीरियड कहा जाता है.
(अपने तीसरे पति माइकेल टॉड और अपनी बच्ची के साथ लिज़)
एलिज़ाबेथ टेलर के बारे में और जानना हो तो नैट खंगालिए, उनकी फ़िल्में देखिए और जानिये कि क्यों उनके समय को हॉलीवुड का गोल्डन पीरियड कहा जाता है.
(अपने तीसरे पति माइकेल टॉड और अपनी बच्ची के साथ लिज़)
अलविदा बॉब
बीती बीस मार्च को बॉब क्रिस्टो का देहावसान हुआ. क्या इसे महज़ इत्तेफ़ाक़ मानूं कि इसी महीने ६-१२ मार्च वाले इन्डियन एक्सप्रेस के साप्ताहिक सप्लीमेन्ट आई में बॉब पर एक दिलचस्प स्टोरी छपी थी. ऑस्ट्रेलियाई मूल के बॉब हिन्दी की फ़ॉर्मूला फ़िल्मों के अंग्रेज़ विलेन के पर्याय थे. सिडनी में बतौर सिविल इन्जीनियर काम करते हुए बॉब पुराने मकानों को पुनर्जीवन देने का काम किया करते थे.
बॉब के हिन्दी फ़िल्मों से जुड़ने की कहानी ख़ासी दिलचस्प है. १९७६ में वे एक सैन्य प्रोजेक्ट के सिलसिले में दाक्षिण अफ़्रीका में थे जहां उनके होटल के बिस्तर पर कोई शख़्स एक पत्रिका भूल गया था. पत्रिका के आवरण पर परवीन बाबी थी. परवीन के बारे कें जानने के बाद पत्रिका को अपने सूटकेस में धर कर बॉब ने तय किया वे किसी तरह बम्बई जाकर इस ख़ूबसूरत स्त्री से एक दफ़ा मिलेंगे ज़रूर.
इस के बाद उनके करियर में कई तब्दीलियां आईं जिनके चलते वे जर्मनी, अमेरिका, ज़िम्बाब्वे, सेशेल्स और वियतनाम होते हुए उन्होंने अपने को जुहू में पाया. क़िस्मत से उनकी मुलाक़ात एक ऐसे शख़्स से हुई जो उन्हें संजय ख़ान से मिलाने वाला था. संजय ख़ान से मिलने के बाद उन्होंने अपने विलेन-करियर का आग़ाज़ किया और उस के बाद कोई २०० फ़िल्मों में काम किया. परवीन बाबी से मिलने का उनका ख़्वाब द बर्निंग ट्रेन के साथ पूरा हुआ.
बम्बई आने से पहले मशहूर दिग्दर्शक फ़्रान्सिस फ़ोर्ड कोपोला की फ़िल्म एपोकैलिप्स नाव में बॉब को एक भूमिका प्रस्तुत की गई थी लेकिन जब कास्टिंग डायरेक्टर ने जाना कि बॉब सिविल इन्जीनियर हैं तो उन्हें फ़िलीपीन्स में सैट की गई इस फ़िल्म के लिए कम्बोडियाई शैली के मन्दिर बनाने का ज़िम्मा सौंप दिया गया.
२० मार्च २०११ को जब रॉबर्ट जॉन उर्फ़ बॉब क्रिस्टो ने बंगलौर में अपनी अन्तिम सांसें लीं तो वे एक खासी दिलचस्प और भरपूर ज़िन्दगी जी चुके थे. दर असल एक्सप्रेस में छपे उस आलेख को पढ़ने के बाद से में कबाड़ख़ाने पर उनके बारे में एक पोस्ट लगाना चाहता था पर कई कारणों से ऐसा नहीं कर सका. अब जब यह पोस्ट लग रही है तो उनको बतौर श्रद्धांजलि. ख़ैर.
जून के महीने में पेंग्विन से उनकी आत्मकथा छप कर आ रही है - फ़्लैशबैक: माइ लाइफ़ एन्ड टाइम्स इन बॉलीवुड एन्ड बेयोन्ड. मैं इन्तज़ार में हूं. अभी के लिए अलविदा बॉब.
मयाड् घाटी -- 13
पहला गाँव
शकोली मयाड़ घाटी का पहला गाँव है. कुल सात घरों का यह गाँव दयार के जंगल के बीच बसा है. सातों घर ठाकुरों के हैं. ये स्वाङ्ला परिवार हैं. मुझे बताया गया कि मयाड़ में चाण जाति के लोग नहीं हैं. हाँ , एक जगह लोहारों के चार घर हैं. यहाँ सभी बोद नही हैं. करपट गाँव तक स्वाङ्ला लोग अधिक संख्या में बसे हुए हैं. इन की रिश्तेदारी भी पटन और मयाड़ घाटी के स्वङ्ला समुदाय मे है. आपस में ये पटनी भाषा मे बात करते हैं. लेकिन मयाड़ के बोद समुदाय के लोगों के साथ ये त्रुटिहीन मयाड़ी भाषा बोल लेते हैं जो कि भोट भाषा के निकट है.
ये लोग अपनी भाषा मे बतियाए हैं , हमे चाय नाश्ते का निमंत्रण भी मिला है. मेरी बड़ी इच्छा है कि किसी घर में जा कर एक कप कड़क चाय पिऊँ, इन का रहन सहन देखूँ. लेकिन सहगल जी मना कर देते हैं . उन का विचार है कि यदि भीतर गए तो औपचारिकताओं मे समय बरबाद हो जाएगा और हमें देरी हो जाएगी.
हम ने यहाँ नल से पानी पी कर अरक (दारू) की बोतल ली है. एक खाली बोतल मांग कर उस मे पानी मिलाया है. इन्होंने पैसे नहीं लिए. हाँ, वापसी पर खाली बोतल ज़रूर लौटा जाने को कहा है . ढक्कन वाली बोतल की यहाँ बड़ी वेल्यू है. पहले मिट्टी के बतिक (छोटी सुराही) में दारू रखा जाता था. अब बोतलों का ही प्रयोग होता है. यहाँ से सहगल जी ने मेंतोसा के दर्शन कराए हैं . जिस रोमाँच के साथ पर्यटक इस का नाम लेते थे, उतना चित्ताकर्षक नही है यह. बाद मे उस स्थानीय व्यक्ति ने पुष्ट किया कि मेंतोसा का सर्वोच्च शिखर तो ओगोलुङ नाले के पश्चिम में बहुत भीतर जा कर ही दिखता है. यह उस की कोई शाखा है.
(जारी)
Wednesday, March 23, 2011
नाम में कितना कुछ रखा है
विलियम शेक्सपीयर और जूलियस सीज़र ने क्रिकेट खेली थी- इस बाबत दो पोस्ट्स मैं पिछले दो दिनों में लगा चुका हूं. मामला लम्बा न खिंच जाए इसलिए बस कुछेक और नामों का ज़िक्र भर करूंगा जिन्होंने क्रिकेट खेलने के अलावा कुछ प्रख्यात हस्तियों का नाम साझा किया था.
चार्ल्स डिकेन्स ने दक्षिण अफ़्रीका के ग्रिकालैण्ड के लिए प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेला था. एक दफ़ा ऑरेन्ज फ़्री स्टेट के ख़िलाफ़ खेलते हुए उन्हें जॉन कीट्स नामक गेंदबाज़ ने आउट किया था.
टॉमस मोर ने माइनर काउन्टी क्रिकेट खेलते हुए विकेटकीपिंग की थी.
बाएं हाथ के स्पिनर जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने १९५१ से १९५५ के बीव ग्लेमॉर्गन के लिए खेला था.
ब्रायन एल्ड्रिज, रॉबर्ट कैनेडी के अलावा आर्थर कॉनन डॉयल और शर्लॉक होम्स ने भी क्रिकेट खेली थी.
इस लिस्ट में हाल ही में पाकिस्तान की तरफ़ से टेस्ट क्रिकेट खेले यासर अराफ़ात का ज़िक्र भी किया जा सकता है. और चेन्नई की तरफ़ से खेल रहे नेपोलियन आइन्स्टाइन का भी.
सबसे दिलचस्प मामला सरे की तरफ़ से खेले महान क्रिकेटर भाइयों अलेक और एरिक बेडसर का है. ये दोनों जुड़वां थे. दक्षिण अफ़्रीका में १९४८ में दो जुड़वां भाइयों का जन्म हुआ. इनके माता-पिता ने इनका नाम भी अलेक और एरिक बेडसर रखा. अलेक बाकायदा प्रथम श्रेणी क्रिकेटर थे और अपने हमनाम महान अंग्रेज़ गेंदबाज़ की तर्ज़ पर तेज़ गेंदबाज़ी किया करते थे. एरिक बेडसर क्लब स्तर पर अच्छे खिलाड़ी रहे.
सो अब कोई आपसे कहे कि नाम में क्या रखा है तो आप उसे इन तीन पोस्ट्स को पढ़ने को कह सकते हैं.
दूसरे दिन प्रभुदयाल आए
राजेश शर्मा की कविताएं आप दो दिन से यहां पढ़ रहे हैं. उसी क्रम को जारी रखते हुए आज एक और कविता भोपाल त्रासदी को लेकर
प्रभुदयाल से एक और मुलाक़ात
एक. भोपाल की एक लड़की का बयान
उस दिन टमाटर की सब्ज़ी
पक रही थी
बापू दरवाज़े पर हुक्का
गुड़गुड़ा रहे थे.
एकाएक कलेजे में आग उतरने लगी
आंखों में जलते लावे समा गए
छोटा भाई चीखा
एक निचाट चीख़
अकड़ा-औंधाया और
ख़त्म हो गया.
बापू पहले हकबकाए फिर
जैसे किसी सनसनाते घोड़े से उछलकर
भैया के पास आए
उन्होंने मुठ्ठियां हवा में चलाईं और
वहीं लुढ़क गए.
मां अस्पताल में जाकर
ख़त्म हुई.
क्या था वह दिन
कलेजे की आग और
आंख के लावे के बीच
कोई अहसास नहीं था
था एक वहशी सन्नाटा
देखते देखते आदमी
पेड़ों में बदल गया और
पेड़ ज़ख़्मी प्रेत की तरह
हाहाकार करने लगे
हां! अंगीठी पर आलू-टमाटर पक रहा था
दूसरे दिन प्रभुदयाल आए
दो. इंतज़ार का गणित
प्रभुदयाल ने मुकदमा दायर कर दिया है
दुनिया की बड़ी तिज़ोरी पर
मुस्तैद बहस की है
कि श्मशान का हिसाब किसे देना है
प्रभुदयाल मुआवज़ा मांगता है
मुआवज़ा देता है
लोग इंतज़ार करते हैं!
प्रभुदयाल से एक और मुलाक़ात
एक. भोपाल की एक लड़की का बयान
उस दिन टमाटर की सब्ज़ी
पक रही थी
बापू दरवाज़े पर हुक्का
गुड़गुड़ा रहे थे.
एकाएक कलेजे में आग उतरने लगी
आंखों में जलते लावे समा गए
छोटा भाई चीखा
एक निचाट चीख़
अकड़ा-औंधाया और
ख़त्म हो गया.
बापू पहले हकबकाए फिर
जैसे किसी सनसनाते घोड़े से उछलकर
भैया के पास आए
उन्होंने मुठ्ठियां हवा में चलाईं और
वहीं लुढ़क गए.
मां अस्पताल में जाकर
ख़त्म हुई.
क्या था वह दिन
कलेजे की आग और
आंख के लावे के बीच
कोई अहसास नहीं था
था एक वहशी सन्नाटा
देखते देखते आदमी
पेड़ों में बदल गया और
पेड़ ज़ख़्मी प्रेत की तरह
हाहाकार करने लगे
हां! अंगीठी पर आलू-टमाटर पक रहा था
दूसरे दिन प्रभुदयाल आए
दो. इंतज़ार का गणित
प्रभुदयाल ने मुकदमा दायर कर दिया है
दुनिया की बड़ी तिज़ोरी पर
मुस्तैद बहस की है
कि श्मशान का हिसाब किसे देना है
प्रभुदयाल मुआवज़ा मांगता है
मुआवज़ा देता है
लोग इंतज़ार करते हैं!
मेरे साथ मयाड़ घाटी चलेंगे ? -- 12
अखरोट, कुकुम और ठ्रुङ :
लगभग पौन घण्टा चलने के बाद घाटी ““V” आकार में खुलने लगी है. अब सर पर आकाश भी थोड़ा बड़ा लग रहा है. चौहान जी की आँखें भी उसी अनुपात में चौड़ी होती जा रही हैं.एक छोटी सी समतल जगह पर हमने विश्राम किया है. सड़क के नीचे अखरोट का एक पेड़् और कुछ अन्य प्रजाति के झाड़ उगे हुए हैं. पूछने पर उन्हो ने बताया कि यह ठ्रुङ हैं. ठ्रुङ एक महत्वपूर्ण भैषजीय वनस्पति है. इस की लकड़ी बहुत मज़बूत होती है. हल का पत्तर (आधार भाग) इसी लकड़ी का बनता है. मुझे याद आता है, मेरे नाना जी इस की छाल के छोटे छोटे बण्डल मँगाते थे. इन्हे उबाल कर वे जोड़ों के दर्द के लिए काढ़ू तय्यार करते थे. हमारे उस सहयात्री मयाड़ वासी को भी जड़ी बूटियों की खासी जानकारी है. आस पास जो भी वनस्पति नज़र आती है उन के नाम और भैषजीय गुण उसे मालूम है . स्मृतियो और सूचनाओं की इस अलग ही क़िस्म के खज़ाने पर फिदा हो रहा हूँ मैं . ये अशिक्षित लोग हैं . और ये बेशक़ीमती जानकारियाँ इन की स्मृतियों मे पीढ़ी दर पीढ़ी दर्ज हुई हैं. क्या आधुनिक शिक्षा स्मृतियों की इस आदिम धारा को बाधित नहीं कर देगी ? थोड़ा मायूस और आशंकित मन से उस छोटी लड़की की ओर देखता हूँ जिस की आँखों मे शिक्षित होने का अभिमान है और सभ्य संसार के सपने तैर रहे हैं. उस ने मुझे सड़क के ऊपर खाली जगह दिखाई है जहाँ पर बरफ नही है और सुन्दर पीले फूल खिल रहे हैं. उस ने बताया कि ये कुकुम के फूल हैं. लाहुल के लोक गीतों मे इस फूल का ज़िक़्र बाज़दफा आता है. इसी फूल के नाम पर तो उदय पुर के निकट एक स्थान का नाम कुकुम सेरि पड़ा है, जहाँ जल्द ही सरकारी कॉलेज खुलने वाला है. लाहुल का पहला कॉलेज. पास जा कर उन फूलों की महक सूँघने का प्रयास करता हूँ. मेरा अनुमान था कि इस का फ्लेवर केसर सा होगा ; जो कि गलत निकला.
लगभग पौन घण्टा चलने के बाद घाटी ““V” आकार में खुलने लगी है. अब सर पर आकाश भी थोड़ा बड़ा लग रहा है. चौहान जी की आँखें भी उसी अनुपात में चौड़ी होती जा रही हैं.एक छोटी सी समतल जगह पर हमने विश्राम किया है. सड़क के नीचे अखरोट का एक पेड़् और कुछ अन्य प्रजाति के झाड़ उगे हुए हैं. पूछने पर उन्हो ने बताया कि यह ठ्रुङ हैं. ठ्रुङ एक महत्वपूर्ण भैषजीय वनस्पति है. इस की लकड़ी बहुत मज़बूत होती है. हल का पत्तर (आधार भाग) इसी लकड़ी का बनता है. मुझे याद आता है, मेरे नाना जी इस की छाल के छोटे छोटे बण्डल मँगाते थे. इन्हे उबाल कर वे जोड़ों के दर्द के लिए काढ़ू तय्यार करते थे. हमारे उस सहयात्री मयाड़ वासी को भी जड़ी बूटियों की खासी जानकारी है. आस पास जो भी वनस्पति नज़र आती है उन के नाम और भैषजीय गुण उसे मालूम है . स्मृतियो और सूचनाओं की इस अलग ही क़िस्म के खज़ाने पर फिदा हो रहा हूँ मैं . ये अशिक्षित लोग हैं . और ये बेशक़ीमती जानकारियाँ इन की स्मृतियों मे पीढ़ी दर पीढ़ी दर्ज हुई हैं. क्या आधुनिक शिक्षा स्मृतियों की इस आदिम धारा को बाधित नहीं कर देगी ? थोड़ा मायूस और आशंकित मन से उस छोटी लड़की की ओर देखता हूँ जिस की आँखों मे शिक्षित होने का अभिमान है और सभ्य संसार के सपने तैर रहे हैं. उस ने मुझे सड़क के ऊपर खाली जगह दिखाई है जहाँ पर बरफ नही है और सुन्दर पीले फूल खिल रहे हैं. उस ने बताया कि ये कुकुम के फूल हैं. लाहुल के लोक गीतों मे इस फूल का ज़िक़्र बाज़दफा आता है. इसी फूल के नाम पर तो उदय पुर के निकट एक स्थान का नाम कुकुम सेरि पड़ा है, जहाँ जल्द ही सरकारी कॉलेज खुलने वाला है. लाहुल का पहला कॉलेज. पास जा कर उन फूलों की महक सूँघने का प्रयास करता हूँ. मेरा अनुमान था कि इस का फ्लेवर केसर सा होगा ; जो कि गलत निकला.
Tuesday, March 22, 2011
जूलियस सीज़र का उच्चतम स्कोर जानते हैं आप?
रोमन सम्राट जूलियस सीज़र का नाम किसने नहीं सुना होगा?
आज आपको बतलाता हूं इंग्लैण्ड में जन्मे दाएं हाथ के एक और बल्लेबाज़ जूलियस सीज़र के बारे में. सरे काउन्टी के लिए खेलने वाले जूलियस सीज़र ने लम्बा प्रथम श्रेणी करियर गुज़ारा और लगभग दो सौ मैच खेले. ससेक्स के ख़िलाफ़ १३२ नॉट आउट के सर्वश्रेष्ठ स्कोर के साथ उन्होंने तीन शतक बनाए. उन्होंने तेरह विकेट भी लिए थे. वे अपने क्रिकेट करियर के ग्राफ़ से बहुत सन्तुष्ट नहीं थे और १८७८ में ४७ साल की आयु में उन्होंने ट्रेन के आगे कूदकर अपनी जान दे दी थी.
१८६३ में प्रकाशित लिलीव्हाइट क्रिकेट स्कोर्स एन्ड बायोग्राफ़ीज़ ऑफ़ सेलीब्रेटेड क्रिकेटर्स के खण्ड चार में जूलियस सीज़र के बारे में यह प्रविष्टि दर्ज़ है-
जूलियस सीज़र का जन्म गॉडाल्मिंग सरे में २५ मार्च १८३० को हुआ. ५ फ़ुट ७१/२ इंच लम्बाई और बारह स्टोन छः पाउन्ड भार वाले सीज़र अपने आकार के हिसाब से खासे ताकतवर हैं और उन्होंने आत्मरक्षा की बाकायदा ट्रेनिंग प्राप्त की है. बल्लेबाज़ के तौर पर वे एक उम्दा हिटर हैं - ख़ासतौर पर लैग साइड में. अपनी काउन्टी के लिए १८६१ के साल उन्होंने कई बढ़िया पारियां खेली हैं. वे कहीं भी अच्छी फ़ील्डिंग कर लेते हैं पर अक्सर पॉइन्ट पर खड़े रहते हं जहां उन्होंने कई शानदार कैच पकड़े हैं. वे ठीकठाक गेंदबाज़ी भी कर लेते हैं पर उनके इस कौशल का ज़्यादा इस्तेमाल उनके कप्तानों ने नहीं किया है. यहां इस बात का उल्लेख करना अनावश्यक नहीं होगा कि जूलियस सीज़र एक असली नाम है न कि काल्पनिक जैसा कि कई लोग माना करते हैं. वे एक बढ़ई हैं और अपने गृहनगर गॉडाल्मिंग में रहते हैं.
आज आपको बतलाता हूं इंग्लैण्ड में जन्मे दाएं हाथ के एक और बल्लेबाज़ जूलियस सीज़र के बारे में. सरे काउन्टी के लिए खेलने वाले जूलियस सीज़र ने लम्बा प्रथम श्रेणी करियर गुज़ारा और लगभग दो सौ मैच खेले. ससेक्स के ख़िलाफ़ १३२ नॉट आउट के सर्वश्रेष्ठ स्कोर के साथ उन्होंने तीन शतक बनाए. उन्होंने तेरह विकेट भी लिए थे. वे अपने क्रिकेट करियर के ग्राफ़ से बहुत सन्तुष्ट नहीं थे और १८७८ में ४७ साल की आयु में उन्होंने ट्रेन के आगे कूदकर अपनी जान दे दी थी.
१८६३ में प्रकाशित लिलीव्हाइट क्रिकेट स्कोर्स एन्ड बायोग्राफ़ीज़ ऑफ़ सेलीब्रेटेड क्रिकेटर्स के खण्ड चार में जूलियस सीज़र के बारे में यह प्रविष्टि दर्ज़ है-
जूलियस सीज़र का जन्म गॉडाल्मिंग सरे में २५ मार्च १८३० को हुआ. ५ फ़ुट ७१/२ इंच लम्बाई और बारह स्टोन छः पाउन्ड भार वाले सीज़र अपने आकार के हिसाब से खासे ताकतवर हैं और उन्होंने आत्मरक्षा की बाकायदा ट्रेनिंग प्राप्त की है. बल्लेबाज़ के तौर पर वे एक उम्दा हिटर हैं - ख़ासतौर पर लैग साइड में. अपनी काउन्टी के लिए १८६१ के साल उन्होंने कई बढ़िया पारियां खेली हैं. वे कहीं भी अच्छी फ़ील्डिंग कर लेते हैं पर अक्सर पॉइन्ट पर खड़े रहते हं जहां उन्होंने कई शानदार कैच पकड़े हैं. वे ठीकठाक गेंदबाज़ी भी कर लेते हैं पर उनके इस कौशल का ज़्यादा इस्तेमाल उनके कप्तानों ने नहीं किया है. यहां इस बात का उल्लेख करना अनावश्यक नहीं होगा कि जूलियस सीज़र एक असली नाम है न कि काल्पनिक जैसा कि कई लोग माना करते हैं. वे एक बढ़ई हैं और अपने गृहनगर गॉडाल्मिंग में रहते हैं.
हम, प्रभुदयाल और हंसती हुई औरत
कल आपको राजेश शर्मा की कविता से परिचित करवाया था. आज उनकी एक और कविता. प्रभुदयाल की छवि को लेकर लिखी उनकी एक और कविता कल पढ़िये.
हम, प्रभुदयाल और हंसती हुई औरत
एक.
उसकी हंसी
उस हद के बाद शुरू होती है
जहां साबुत कुछ भी नहीं था
तिनका-तिनका राख़ था
जैसे प्रभुदयाल जमाता है
गोदाम में गेहूं की बोरियां
वसे ही फूंस पर फूंस की जमी
हज़ारों झोपड़ियों का ख़ाक था
साबुत वहां कुछ भी नहीं था
तिपाई पर रखे दादा के
बूढ़े चश्मे का एक शीशा
उसे मिल गया था
चारपाई के पीछे टंगी गणेश के
चित्र की सूंड़ अवश्य ही
उस चितकबरी हवा में
छटपटा रही थी
लेकिन उसकी लाल-हरी धोती ने
चरम दृश्य में रंग भरे थे
और चूल्हे के पास रक्खी
दाल की पोटली
उस महाभंडारण के काम आ गयी थी
वहां साबुत कुछ भी न था
आग के बाद वहां साबुत
कुछ भी न था
उसकी हंसी
उस हद के बाद शुरू होती है.
दो.
वह हंस रही थी
उसकी गोद में एक बच्चा था जो
सिर्फ़ इसलिए रो रहा था कि
उसे मां का दूध नहीं मिला था
पर वह हंस रही थी
मां हंस रही थी
सारी की सारी झोपड़पट्टी राख
हो चुकी थी
उसने हंसते-हंसते दाईं ओर
हाथ फैअलाया
उसके हाथेक हांडी लगी
आग में पकी करैत हांडी
अपनी ग्यारहवीं मंज़िल से उतरकर
तब प्रभुदयाल जी आए
उसका हाल पूछने
पुलिस थी
फ़ौज थी
फाटा था
वह हंस रही थी
और उसकी गोद का बच्चा
रो रहा था
भैया आप कहां रहते हो?
ग्यारह बन के कुंएं में!
ग्यारह कोस दूर!
ग्यारह मंज़िल पर!
यह क्या होता है
अब प्रभुदयाल जी हंसे-बोले
औरत! यह जो तुम्हारी हांडी है
इसके ऊपर दो हज़ार हांडी जमा जाओ
फिर गर्दन उलटकर देखो
ऊपर मैं ही दिखाई पड़ूंगा.
तीन.
मैंने एक हज़ार मीटर ज़मीन
अभी खरीदी है
मैं उठाऊंगा अपने वर्चस्व को
ऊंचा उस पर
मेरा दोस्त अपने दाहिने दुनिया के
दुखों को देखने के लिए
अपना स्टडीरूम बनवा रहा है
यहीं कहीं बूढ़े-उदास कांपते घुतने हैं
हवा से तेज़ भागती बच्चों की हंसी
और देर रात की सिसकियां हैं
अपनी आराम्कुर्सियों पर पसरे इन्हें
हम किताबों में खोज रहे हैं
यहीं अपनी करैत हांडी को
एक हाथ और बच्चे को दूसरे हाथ
पर लिए
राख के बिस्तरे से वह औरत
उठ खड़ी हुई थी
कोई बताए!
आगे कहीं ज़मीन होगी
कोस, दो कोस, दस कोस दूर
जहां ईंट न हो
गारा न हो
चूना न हो
जहां मेरी दो हज़ार हांडियों से
नीचे उतरता प्रभुदयाल न हो
प्रभुदयाल न हो
सिर्फ़ ज़मीन हो ...
हम, प्रभुदयाल और हंसती हुई औरत
एक.
उसकी हंसी
उस हद के बाद शुरू होती है
जहां साबुत कुछ भी नहीं था
तिनका-तिनका राख़ था
जैसे प्रभुदयाल जमाता है
गोदाम में गेहूं की बोरियां
वसे ही फूंस पर फूंस की जमी
हज़ारों झोपड़ियों का ख़ाक था
साबुत वहां कुछ भी नहीं था
तिपाई पर रखे दादा के
बूढ़े चश्मे का एक शीशा
उसे मिल गया था
चारपाई के पीछे टंगी गणेश के
चित्र की सूंड़ अवश्य ही
उस चितकबरी हवा में
छटपटा रही थी
लेकिन उसकी लाल-हरी धोती ने
चरम दृश्य में रंग भरे थे
और चूल्हे के पास रक्खी
दाल की पोटली
उस महाभंडारण के काम आ गयी थी
वहां साबुत कुछ भी न था
आग के बाद वहां साबुत
कुछ भी न था
उसकी हंसी
उस हद के बाद शुरू होती है.
दो.
वह हंस रही थी
उसकी गोद में एक बच्चा था जो
सिर्फ़ इसलिए रो रहा था कि
उसे मां का दूध नहीं मिला था
पर वह हंस रही थी
मां हंस रही थी
सारी की सारी झोपड़पट्टी राख
हो चुकी थी
उसने हंसते-हंसते दाईं ओर
हाथ फैअलाया
उसके हाथेक हांडी लगी
आग में पकी करैत हांडी
अपनी ग्यारहवीं मंज़िल से उतरकर
तब प्रभुदयाल जी आए
उसका हाल पूछने
पुलिस थी
फ़ौज थी
फाटा था
वह हंस रही थी
और उसकी गोद का बच्चा
रो रहा था
भैया आप कहां रहते हो?
ग्यारह बन के कुंएं में!
ग्यारह कोस दूर!
ग्यारह मंज़िल पर!
यह क्या होता है
अब प्रभुदयाल जी हंसे-बोले
औरत! यह जो तुम्हारी हांडी है
इसके ऊपर दो हज़ार हांडी जमा जाओ
फिर गर्दन उलटकर देखो
ऊपर मैं ही दिखाई पड़ूंगा.
तीन.
मैंने एक हज़ार मीटर ज़मीन
अभी खरीदी है
मैं उठाऊंगा अपने वर्चस्व को
ऊंचा उस पर
मेरा दोस्त अपने दाहिने दुनिया के
दुखों को देखने के लिए
अपना स्टडीरूम बनवा रहा है
यहीं कहीं बूढ़े-उदास कांपते घुतने हैं
हवा से तेज़ भागती बच्चों की हंसी
और देर रात की सिसकियां हैं
अपनी आराम्कुर्सियों पर पसरे इन्हें
हम किताबों में खोज रहे हैं
यहीं अपनी करैत हांडी को
एक हाथ और बच्चे को दूसरे हाथ
पर लिए
राख के बिस्तरे से वह औरत
उठ खड़ी हुई थी
कोई बताए!
आगे कहीं ज़मीन होगी
कोस, दो कोस, दस कोस दूर
जहां ईंट न हो
गारा न हो
चूना न हो
जहां मेरी दो हज़ार हांडियों से
नीचे उतरता प्रभुदयाल न हो
प्रभुदयाल न हो
सिर्फ़ ज़मीन हो ...
Monday, March 21, 2011
विलियम शेक्सपीयर ६७ नॉट आउट
ख़ुद जनाब विलियम शेक्सपीयर कह गए थे कि नाम में क्या धरा है. कि ग़ुलाब को चाहे जिस नाम से पुकारो रहना तो उसने ग़ुलाब ही है. मग़र आज मैं आपको मिलवाने जा रहा हूं विलियम शेक्सपीयर से और कहता हूं कि साहब नाम में बहुत कुछ धरा है.
नाम विलियम हैरल्ड नेल्सन शेक्सपीयर. काम ब्रिटिश वायुसेना में नौकरी. शौक क्रिकेट का. २४ अगस्त १८९३ को वॉरसेस्टर में जन्मे दाएं हाथ के बल्लेबाज़ विलियम शेक्सपीयर ने १९२० के दशक में वॉरसेस्टर काउन्टी के लिए बाकायदा क्रिकेट खेली थी. छब्बीस मैचों के अपने प्रथम श्रेणी क्रिकेट करियर में उन्होंने चार दफ़ा पचास से ज़्यादा रन बनाए. ६७ नॉट आउट उनका सर्वश्रेष्ठ स्कोर था. ब्रिटिश वायुसेना में विंग कमान्डर रहे विलियम शेक्सपीयर कालान्तर में वॉरसेस्टर्शायर काउन्टी के अध्यक्ष भी बने.
दस जुलाई १९७६ को उनकी दुनिया से रुख़सती हुई.
उनके आंकड़े ये रहे:
छब्बीस मैच, चवालीस पारियां, चार बार नॉट आउट, सात सौ नवासी रन, अधिकतम स्कोर ६७ नॉट आउट, औसत १९.७२, चार अर्धशतक, ग्यारह कैच
नाम में ही सब धरा है को चरितार्थ करते कुछ और ऐसे ही क्रिकेटर्स के बारे में आगे बतलाता रहूंगा.
नाम विलियम हैरल्ड नेल्सन शेक्सपीयर. काम ब्रिटिश वायुसेना में नौकरी. शौक क्रिकेट का. २४ अगस्त १८९३ को वॉरसेस्टर में जन्मे दाएं हाथ के बल्लेबाज़ विलियम शेक्सपीयर ने १९२० के दशक में वॉरसेस्टर काउन्टी के लिए बाकायदा क्रिकेट खेली थी. छब्बीस मैचों के अपने प्रथम श्रेणी क्रिकेट करियर में उन्होंने चार दफ़ा पचास से ज़्यादा रन बनाए. ६७ नॉट आउट उनका सर्वश्रेष्ठ स्कोर था. ब्रिटिश वायुसेना में विंग कमान्डर रहे विलियम शेक्सपीयर कालान्तर में वॉरसेस्टर्शायर काउन्टी के अध्यक्ष भी बने.
दस जुलाई १९७६ को उनकी दुनिया से रुख़सती हुई.
उनके आंकड़े ये रहे:
छब्बीस मैच, चवालीस पारियां, चार बार नॉट आउट, सात सौ नवासी रन, अधिकतम स्कोर ६७ नॉट आउट, औसत १९.७२, चार अर्धशतक, ग्यारह कैच
नाम में ही सब धरा है को चरितार्थ करते कुछ और ऐसे ही क्रिकेटर्स के बारे में आगे बतलाता रहूंगा.
जो सुनना तो कहना ज़रूर
सत्तर की दहाई में उभरी कवि-रचनाकारों की बेहद सचेत पीढ़ी में राजेश शर्मा एक लोकप्रिय नाम हुआ करता था. मेरी उनसे फ़क़त एक मुलाक़ात थी - साल याद नहीं - शायद १९९२ - शाहजहांपुर. मौक़ा वरिष्ठ कहानीकार हृदयेश जी को पहल सम्मान दिए जाने का था. कार्यक्रम के उपरान्त राग दरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल जी की मौजूदगी में किसी बात पर अंग्रेज़ी साहित्य का ज़िक्र हुआ तो प्रयोगवादिता का थोड़ा मखौल सा बनाते हुए शुक्ल जी ने एज़रा पाउन्ड की कविता द टेबल की ऐसी-तैसी की. राजेश जी मेरी बग़ल में बैठे थे. मैं पच्चीस-छब्बीस साल का दब्बू पर अड़ियल लौंडा भर था. मैंने दबी ज़ुबान में शुक्ल जी से असहमत होते हुए अपने ही से कुछ कहा तो राजेश जी ने अपना हाथ मेरे कन्धे पर धरा और बाहर चलने का संकेत किया. बाहर उन्होंने मुझसे मांगकर बाकायदा मेरी सिगरेट पी और हिन्दी-अंग्रेज़ी और दुनिया भर के साहित्य पर बात करते हुए काफ़ी समय बिताया. टी. एस. ईलियट का ज़िक्र आते ही उन्होंने मेरा हाथ बहुत कस कर थाम लिया और बोले - "आइ हैव मेज़र्ड आउट माई लाइफ़ विद कॉफ़ी स्पून्स ..."
मुझे लगता था इस नफ़ासत भरे शख़्स से मेरी लम्बी निभेगी मग़र बहुत समय नहीं बीता था जब मार्च सत्तनवे के एक दिन लखनऊ आकाशवाणी दफ़्तर से लगी हुई बहुमंज़िला ओ.सी.आर. बिल्डिंग से कूदकर उन्होंने अपनी जान दे दी. मुझे आज तक समझ नहीं आता ऐसा सुरीला, सुसंस्कृत शानदार आदमी आत्मघात कैसे कर सकता था. उनका सम्भवतः इकलौता कविता-संग्रह जो सुनना तो कहना ज़रूर मेरे पास आज भी धरा हुआ है. आज उसी से आपके सम्मुख पेश कर रहा हूं शीर्षक कविता और एक कविता के कुछ टुकड़े. राजेश जी की कुछ और कविताएं कल भी पढ़िये -
अजनबी शहर में
|| एक ||
सीधे चलते हुए दाएँ मुड़ना
फिर सीधे
फिर बाएँ
उस ने ठहर कर बताया
हम ने शुक्रिया अदा किया
ध्यान आया
अपने पुराने शहर में
वर्षों हो गए थे
किसी को शुक्रिया अदा किए
वर्षों हो गए थे किसी को
सहारे की आँखों से देखे
|| दो ||
कितनी अपनी थी वहाँ अजनबीयत भी
कंधे कितने हल्के थे
एतराज और सवाल नहीं थे
सूने पार्कों की औंधती बेंचों
और फुटपाथ की आप-धापी में
कोई चेहरा अपना नहीं था
लेकिन ग़ौर से देखो
तो सभी चेहरे अपने लगने को होते थे
लगभग....लगभग....
अपने शहर में
लगातार अपने ही बारे में सोचते हुए
हम हज़ार-हज़ार मुखौंटों में बँट चुके थे
एक मुखौटा दूसरे को धिक्कारता था
दूसरा तीसरे को
धिक्कार था जीवन अपने पुराने शहर में
अक्सर....अक्सर....
|| तीन ||
लगातार सोचते थे हम
दूसरों के बारे में
अजनबी शहर में
हमारे बारे में कोई नहीं सोचता था
सरकते थे चुपचाप पुराने दिन
शीशे की तरह
बहुत पीछे छूटा कोई दिन तो
हमें छू कर ही गुज़रता था
आंखों पर अक्स डालता हुआ
|| चार ||
बेपहचान के अँधेरे में
रहते थे हम दिन-रात
चलते थे किधर भी
दूर तक चलते थे
चुप रह सकते थे देर तक
अजनबी शहर में हम
न स्याह होते थे न सफ़ेद
न पक्षधर न विद्रोही
चुन सकते थे रास्ता कोई नया
उम्मीद की पहली ईंट रख सकते थे
ख़ालिस मनुष्य बन कर
शुरू कर सकते थे ज़िन्दगी
बिल्कुल शुरू से
|| पाँच ||
हमें मालूम था यह निरर्थक है
हम जानते थे छोटी-सी हँसी
और अधूरी आवाज़
दूर तक नहीं जाती
लेकिन हम उस शहर से आए थे
जहाँ लंबी हँसी और पूरी आवाज़ भी
काम नहीं आई थी
कभी-कभी तो रोकती थी
वह लंबी हँसी
वर्षों से सहेज कर रक्खे
रिश्ते को टोकती थी
|| छह ||
शायद हमें पता था
अधिक रुकना ख़तरनाक होता है
अधिक रुकना पहचान से
आगे बढ़ कर
भरोसे में बदलता है
भरोसा कभी बहुत तकलीफ़ देता है
अधिक रुकना पतली पहचान
और छोटी-सी हँसी का
अतिक्रमण है
अधिक रुकना ख़तरनाक है
क्योंकि तब अजनबी शहर
अजनबी नहीं रहता |
जो सुनना तो कहना ज़रूर
देखो भाई!
जो सुनना तो कहना ज़रूर
एक शब्द सुनना तो एक शब्द कहना
सुनते-सुनते बीत गई ज़िन्दगी
कितनी-कितनी ज़िन्दगी हिसाब है
हिसाब है कोई?
शताब्दियों पहले कहा था
जो चुप हैं उन्हें अलग ख़ानों में डालो
फिर कहा गया जो चुप हैं
उन्हें चुप ही रहना है
आज कहते हैं जो चुप हैं
उन्के लिए कुछ करेंगे
कोई नहीं कहता जो चुप हैं
उनकी आवाज़ होनी चाहिए
ईंट पर ईंट और गारे पर गारा
होना चाहिए
इसलिए चुप्पी नहीं भाषा होनी चाहिए
भाषा वह जो कहती हो
एक-एक
शब्द वह जो करता हो
ईंट-ईंट स्तब्ध!
मुझे लगता था इस नफ़ासत भरे शख़्स से मेरी लम्बी निभेगी मग़र बहुत समय नहीं बीता था जब मार्च सत्तनवे के एक दिन लखनऊ आकाशवाणी दफ़्तर से लगी हुई बहुमंज़िला ओ.सी.आर. बिल्डिंग से कूदकर उन्होंने अपनी जान दे दी. मुझे आज तक समझ नहीं आता ऐसा सुरीला, सुसंस्कृत शानदार आदमी आत्मघात कैसे कर सकता था. उनका सम्भवतः इकलौता कविता-संग्रह जो सुनना तो कहना ज़रूर मेरे पास आज भी धरा हुआ है. आज उसी से आपके सम्मुख पेश कर रहा हूं शीर्षक कविता और एक कविता के कुछ टुकड़े. राजेश जी की कुछ और कविताएं कल भी पढ़िये -
अजनबी शहर में
|| एक ||
सीधे चलते हुए दाएँ मुड़ना
फिर सीधे
फिर बाएँ
उस ने ठहर कर बताया
हम ने शुक्रिया अदा किया
ध्यान आया
अपने पुराने शहर में
वर्षों हो गए थे
किसी को शुक्रिया अदा किए
वर्षों हो गए थे किसी को
सहारे की आँखों से देखे
|| दो ||
कितनी अपनी थी वहाँ अजनबीयत भी
कंधे कितने हल्के थे
एतराज और सवाल नहीं थे
सूने पार्कों की औंधती बेंचों
और फुटपाथ की आप-धापी में
कोई चेहरा अपना नहीं था
लेकिन ग़ौर से देखो
तो सभी चेहरे अपने लगने को होते थे
लगभग....लगभग....
अपने शहर में
लगातार अपने ही बारे में सोचते हुए
हम हज़ार-हज़ार मुखौंटों में बँट चुके थे
एक मुखौटा दूसरे को धिक्कारता था
दूसरा तीसरे को
धिक्कार था जीवन अपने पुराने शहर में
अक्सर....अक्सर....
|| तीन ||
लगातार सोचते थे हम
दूसरों के बारे में
अजनबी शहर में
हमारे बारे में कोई नहीं सोचता था
सरकते थे चुपचाप पुराने दिन
शीशे की तरह
बहुत पीछे छूटा कोई दिन तो
हमें छू कर ही गुज़रता था
आंखों पर अक्स डालता हुआ
|| चार ||
बेपहचान के अँधेरे में
रहते थे हम दिन-रात
चलते थे किधर भी
दूर तक चलते थे
चुप रह सकते थे देर तक
अजनबी शहर में हम
न स्याह होते थे न सफ़ेद
न पक्षधर न विद्रोही
चुन सकते थे रास्ता कोई नया
उम्मीद की पहली ईंट रख सकते थे
ख़ालिस मनुष्य बन कर
शुरू कर सकते थे ज़िन्दगी
बिल्कुल शुरू से
|| पाँच ||
हमें मालूम था यह निरर्थक है
हम जानते थे छोटी-सी हँसी
और अधूरी आवाज़
दूर तक नहीं जाती
लेकिन हम उस शहर से आए थे
जहाँ लंबी हँसी और पूरी आवाज़ भी
काम नहीं आई थी
कभी-कभी तो रोकती थी
वह लंबी हँसी
वर्षों से सहेज कर रक्खे
रिश्ते को टोकती थी
|| छह ||
शायद हमें पता था
अधिक रुकना ख़तरनाक होता है
अधिक रुकना पहचान से
आगे बढ़ कर
भरोसे में बदलता है
भरोसा कभी बहुत तकलीफ़ देता है
अधिक रुकना पतली पहचान
और छोटी-सी हँसी का
अतिक्रमण है
अधिक रुकना ख़तरनाक है
क्योंकि तब अजनबी शहर
अजनबी नहीं रहता |
जो सुनना तो कहना ज़रूर
देखो भाई!
जो सुनना तो कहना ज़रूर
एक शब्द सुनना तो एक शब्द कहना
सुनते-सुनते बीत गई ज़िन्दगी
कितनी-कितनी ज़िन्दगी हिसाब है
हिसाब है कोई?
शताब्दियों पहले कहा था
जो चुप हैं उन्हें अलग ख़ानों में डालो
फिर कहा गया जो चुप हैं
उन्हें चुप ही रहना है
आज कहते हैं जो चुप हैं
उन्के लिए कुछ करेंगे
कोई नहीं कहता जो चुप हैं
उनकी आवाज़ होनी चाहिए
ईंट पर ईंट और गारे पर गारा
होना चाहिए
इसलिए चुप्पी नहीं भाषा होनी चाहिए
भाषा वह जो कहती हो
एक-एक
शब्द वह जो करता हो
ईंट-ईंट स्तब्ध!
Sunday, March 20, 2011
लहर लहर कबीर
९ अप्रैल २०११ को ऋषिकेश के शत्रुघ्न घाट पर संत कबीरदास को समर्पित एक आलीशान संध्या का आयोजन किया जा रहा है. लहर लहर कबीर नाम से आयोजित की जा रही इस संगीतमय संध्या में सुनने वालों को देश के अग्रणी संगीतकारों की रचनाओं से रू-ब-रू होने का अवसर मिलेगा. पंडित छन्नूलाल मिश्र, श्रीमती वसुंधरा कोमकली और पद्मश्री श्री प्रहलाद सिंह तिपनिया के गायन के साथ साथ एक अभूतपूर्व जुगलबंदी भी देखने-सुनने को मिलेगी - शुभा मुद्गल के गायन के साथ आधुनिक नृत्य के खलीफा अस्तद देबू की यह जुगलबंदी एक अविस्मरणीय प्रस्तुति होने जा रही है.
गंगा नदी पर तैरते हुए स्टेज पर होने वाला यह कार्यक्रम ९ अप्रैल २०११ को सायं ६ बजे शुरू होगा. कार्यक्रम के आयोजकों की योजना भविष्य में इस अनूठे प्रयास को देश की अन्य महान नदियों के तटों पर आयोजित करने की है. कार्यक्रम के मुख्य आयोजकों में योगी अरविन्द, वरिष्ठ पत्रकार दिबांग, श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल, टीवी से जुडी नगमा सहर और आयशा थापर.
सभी आमंत्रित.
किसी भी तरह की पूछताछ eventts@yogiiarrwiind.org पर मेल से की जा सकती है.
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