Monday, June 30, 2008

हुकुम का इक्का खेल को आगे नहीं बढ़ाता - ख़त्म कर देता है

पाकिस्तान रेडियो, इस्लामाबाद में कार्यरत नसरीन अंजुम भट्टी अपने स्त्रीसंबंधी सरोकारों के लिये जानी जाती हैं और आधुनिक पाकिस्तानी कविता में एक बड़ा नाम हैं. पेश है उनकी कविता

हुकुम का इक्का

कोई दावा न करो कि तारीख़ दावेदारों के साथ नहीं होती
दुख में ताक़त घटती है!
नहीं तो! ये दुख कम है - इससे बड़ा दुख पैदा करो
पहला दुख अपने आप कम हो जाएगा
मैंने अपना आसमान देखा!
मैंने अपनी ज़मीन देखी!
आसमान पर सितारे नहीं थे,
ज़मीन पर फ़सल नहीं
ये मेरी नस्ल नहीं
बन्दूकों की नालियां कैसी नींदें लाती हैं मन्फ़ी मन्फ़ी सी
दिन में चांद निकल भी आए
तो रात में सूरज नहीं निकलेगा
सज़ा-ए-मौत से बड़ा हुक़्म मांगें की ज़िन्दगी है
हुकुम का इक्का खेल को आगे नहीं बढ़ाता - ख़त्म कर देता है
सब दावे ख़त्म कर देता है
तारीख़ ने अपनी आंखें लिखीं, जुगराफ़िया ने अपने हाथ फैलाए
इश्क़ कहां मुक़य्यद है
गन्ने का बूटा, मेरा महबूब, और मेरी पोरें पांव के नाख़ूनों तक
ज़ख़्म, ज़ख़्म,ज़ख़्म,ज़ख़्म
ज़ख़्म घुंघरू, गन्ना गुदाज़, शहद शीरीं

कौन सा हुक्म लगाता है
हुकुम का इक्का

(तारीख़: इतिहास, मन्फ़ी मन्फ़ी: नकारात्मक, मुक़य्यद: कैद, शीरीं: मीठा)

Sunday, June 29, 2008

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के - आबिदा परवीन के स्वर में


और क्या कहा जाय
बस सुनें
आधुनिक हिन्दी कविता के आदि पुरूष अमीर खुसरो की यह रचना और आबिदा परवीन का स्वर !

Saturday, June 28, 2008

ई देखो बिग्यापोन


(कबाड़खाने का दूसरा आधिकारिक विज्ञापन )

अभी रोशन हैं चाहत के दिये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं .
- मुनव्वर राना

Thursday, June 26, 2008

उमड़-घुमड़ घिर आयो रे: मेहदी हसन

मेहदी हसन साहब को ग़ज़लें गाते तो बहुत सुना होगा आपने. आज सुनिये उनके निखालिस शास्त्रीय गायन का एक नमूना: उमड़-घुमड़ घिर आयो रे सजनी बदरा. राग देस में इस पारम्परिक ठुमरी गाते हुए उस्ताद मेहदी हसन के साथ सारंगी पर उस्ताद सुल्तान ख़ान और तबले पर उस्ताद शौकत हुसैन ख़ान हैं. उनके पुत्र कामरान हुसैन हारमोनियम पर संगत कर रहे हैं।

रोज़ अख़बार मैं उलटी तरफ़ से शुरू करता हूं जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अख़बार हो

१८५७ के गदर को समकालीनता के बरअक्स रखकर उसकी गहरी पड़ताल करती असद ज़ैदी की कविता 'सामान की तलाश' आप यहां पहले भी देख चुके हैं. यह कविता 'पहल' समेत कई बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने के बाद अब असद ज़ैदी के नए संग्रह का हिस्सा है. इत्तेफ़ाक़ से इसी कविता का शीर्षक ही किताब का नाम भी है. परिकल्पना प्रकाशन से छपी इस किताब में कवि की १९८९ से २००७ के दौरान की कविताएं संकलित हैं.

अपनी संपूर्णता में यह पुस्तक एक झकझोर देने वाला दस्तावेज़ है. भारतीय इतिहास के पिछले दो महत्वपूर्ण दशकों में उपजीं तमाम विद्रूपताएं और विसंगतियां तो इस पुस्तक की कविताओं की ज़द में आती ही हैं, कविता के सबसे आदिम महास्वरों में यहां-वहां गूंजते प्रेम और दरख़्तों की झलक भी दिख जाती है. मेरे विचार से यह संग्रह पिछले कुछ सालों में हिन्दी में प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ कविता संग्रहों में गिना जा सकता है. आज पढ़िये उसी से एक कविता. आगे कोशिश करूंगा असद ज़ैदी की कुछ और रचनाएं आपको पढ़वा सकूं.



जो देखा नहीं जाता

हैबत के ऐसे दौर से गुज़र है कि
रोज़ अख़बार मैं उलटी तरफ़ से शुरू करता हूं
जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अख़बार हो

खेल समाचारों और वर्ग पहेलियों के पर्दों से
झांकते और जज़्ब हो जाते हैं
बुरे अन्देशे

व्यापार और फ़ैशन के पृष्ठों पर डोलती दिखती है
ख़तरे की झांईं

इसी तरह बढ़ता हुआ खोलता हूं
बीच के सफ़े, सम्पादकीय पृष्ठ
देखूं वो लोग क्या चाहते हैं

पलटता हूं एक और सफ़ा
प्रादेशिक समाचारों से भांप लेता हूं
राष्ट्रीय समाचार

ग़र्ज़ ये कि शाम हो जाती है बाज़ औक़ात
अख़बार का पहला पन्ना देखे बिना.

(पुस्तक प्राप्त करने हेतु सम्पर्क करें: परिकल्पना प्रकाशन, डी-६८, निरालानगर, लखनऊ-२२६ ००६. कीमत: रु. ५०.०० पेपरबैक, रु. १२५ सजिल्द)

Tuesday, June 24, 2008

पाप का पुरस्कार और कला की राजनीति

(उम्मीद है कि कबाड़खाना के कलाप्रेमी पाठकों, दर्शकों श्रोताओं को इस चर्चा से एतराज न होगा। कला के सामाजिक- राजनीतिक पक्ष को लेकर बातचीत के लिए ये मंच सबसे उचित लगा, इसलिए यहां बात हो रही है। - दिलीप मंडल)
सौमित्र बाबू यानी सौमित्र चटर्जी यानी वो कलाकार जिनकी फिल्मों का मैं बचपन से फैन रहा हूं। मैंने जिंदगी में जो पहली फिल्म (सोनार केल्ला) देखी थी, उसके हीरो थे सौमित्र बाबू। उसके बाद हीरक राजार देशे, गणशत्रु, चारुलता से लेकर न जाने कितनी फिल्मों में उनके निभाए रोल अब भी याद आते हैं। अब उन्हीं सौमित्र बाबू को बेस्ट एक्टर का राष्ट्रीय सम्मान मिल रहा है। इस पर हम सबको खुश होना चाहिए!

लेकिन आज सौमित्र चटर्जी की चर्चा करते समय एक ऐसा चेहरा क्यों सामने आ रहा है जो हत्या के पक्ष में खड़ा है। जो अन्याय का समर्थक है। जो नंदीग्राम में हुए उत्पीड़न से दुखी नहीं है। बल्कि नंदीग्राम में खून-खराबे के पक्ष में हुई रैली में शामिल होता है, रैली को लीड करता है और भाषण में कहता है कि "जिन लोगों को (सीपीएम समर्थकों को) गांवों से खदेड़ दिया गया था वो छल-बल और कौशल से अपने घरों को लौट आए हैं। इसमें गलत क्या है?" जिन लोगों ने नंदीग्राम में सीपीएम की भूमिका की निंदा की उन्हें सौमित्रबाबू बुद्धिजीवी की जगह बुद्धुजीवी कहते हैं। देखिए इसकी रिपोर्टिंग। साथ लगी तस्वीर उसी रैली की है। साथ में जो सज्जन बैठे दिख रहे हैं वो संभवत: अजीजुल हक हैं, जो कभी नक्सली रहे और अब सीपीएम के साथ हैं।

सौमित्र बाबू ने 2001 में अपनी फिल्म देखा में भूमिका के लिए दिया गया स्पेशल ज्यूरी एवार्ड लेने से मना कर दिया था। देखा बनाने वासे फिल्मकार गौतम घोष ने भी उस साल बेस्ट फिल्म का अवार्ड नहीं लिया था। उस समय कई फिल्मकारों ने ये आरोप लगाया था कि ज्यूरी का भगवाकरण कर दिया गया है। ये आरोप सही भी था क्योंकि इस ज्यूरी की प्रमुख वैजयंतीमाला बीजेपी में थी और दूसरे सदस्यों में तरुण विजय, शत्रुध्न सिन्हा के पूर्व सचिव पवन कुमार से लेकर बेल्लारी में सुषमा स्वराज के चुनाव प्रचार की प्रभारी निवेदिता प्रधान तक शामिल थीं। ज्यूरी में मैकमोहन उर्फ सांभा भी थे और ये सिर्फ संयोग हो सकता है कि उस साल बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड उनकी भतीजी रवीना टंडन को मिला, जो बीजेपी से करीब भी हैं।

बहरहाल 2008 में अलग किस्म की राजनीति आप नेशनल अवार्ड में देख सकते हैं। सौमित्र बाबू को बेस्ट एक्टर का अवार्ड जिस फिल्म (पदक्षेप) के लिए दिया जा रहा है वो खुद सौमित्र बाबू के मुताबिक उनकी श्रेष्ठ फिल्म नहीं है। उनका सबसे अच्छा दौर बीते 30 साल से ज्यादा समय हो चुका है। ऐसे सौमित्र बाबू को नंदीग्राम में उनके स्टैंड के तुरंत बाद राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना अगर राजनीति नहीं है तो क्या है? सौमित्र बाबू, आप ये पुरस्कार लेंगे या नहीं?

इस हुस्न पे मैं हैरान हुआ


कबाड़खाना के मंच पर आप पहले भी रत्ना बसु को सुन चुके हैं. लीजिए आज एक बार फिर उनकी गायकी एक अंदाज से रू-ब-रू होते हैं-


Monday, June 23, 2008

ज़ुल्फ़ बिखरा के निकले वो घर से

अपने अलबम 'गुलदस्ता' से पहली बार आम श्रोताओं का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने वाले अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन भाइयों ने १९५९ में कुल पांच रुपये के मेहनताने पर आकाशवाणी, जयपुर से अपने कैरियर का आग़ाज़ किया था. उस्ताद अफ़ज़ल हुसैन के इन दो सुयोग्य पुत्रों ने लगातार अपना रियाज़ जारी रखने के साथ साथ अपने संगीत में नये-नये प्रयोग भी किये हैं.

शुरू में अपनी ग़ज़लों के बहुत सीमित संख्याओं वाले अलबम रिलीज़ किये उन्होंने. इधर के क़रीब दो दशकों में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ लगातार ऊपर चढ़ता गया है. वे अब तक करीब साठ ग़ज़ल संग्रह दे चुके हैं.

इन्हीं बन्धुओं की आवाज़ों में पेश है उनके अलबम 'राहत' से बेकल उत्साही की एक ग़ज़ल.

रफ़ीकों और उस्तादों का मानना है कि बरसातों का मौसम इसे सुनने का सबसे उपयुक्त समय है:

Sunday, June 22, 2008

'लुक छिप बदरा में चमके जइसे चनवां' सुना, अब इसे देख लें

गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' के एक गीत-'लुक छिप बदरा में चमके जइसे चनवां' का आडियो अपलोड करने बाद विचार बना कि यदि इसका वीडियो भी अपलोड कर दिया जाय तो ठीक रहेगा लेकिन यह कैसे करते हैं पता तो है नहीं सो 'लर्निंग बाई डूइंग' के मंत्र का सहारा लेकर कोशिश कर रहा हूं .यदि यह सफल हो जाय तो बल्ले-बल्ले नहीं तो 'हमका माफी दई दो'

इस गीत का नृत्य निर्देशन बद्री प्रसाद ने किया है।यह आम भाषा में एक मुजरा है जो पुरानी भोजपुरी फिल्मों का एक जरूरी हिस्सा हुआ करता इस नृत्य-गीत में कुमकुम का अप्रतिम सौंदर्य अगर आप को बांध सके तो क्या कहेंगे.

और क्या कहू? आप तो इसे सुनें-देखें और मैं तो बस चुप ही रहूं-

भोजपुरी की पहली फिल्म का एक गीत-'लुक छिप बदरा में चमके जइसे चनवां'


परसों रात में जब झमाझम बारिश हो रही थी और छत से पानी का संगीत बरस कर कानों के रास्ते हृदय तक पहुंच रहा था तब अपने आशियाने में सुरक्षित बैठकर हम भोजपुरी की पहली फिल्म देख रहे थे। विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी द्वारा निर्मल पिक्चर्स के बैनर तले निर्मित और कुन्दन कुमार द्वारा निर्देशित 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' १९६१ में रिलीज हुई. भोजपुरी सिनेमा का आगाज करने वाली यह फिल्म श्वेत श्याम है लेकिन भोजपुरी माटी का रंग इसके हर फ्रेम में विद्यमान है. आज भोजपुरी सिनेमा की जो दुर्गति है वह 'इसी' या 'उसी' रंग के गायब होने या गायब कर दिए जाने के कारण है जो रंग इस फिल्म में दिखाई देता है. आज भोजपुरी फिल्मों का बाजार भाव बहुत ऊंचा है,वे धड़ाधड़ बन-बिक रही हैं लेकिन उनमें और जो कुछ भी हो सो सो हो परंतु 'भोजपुरी' शायद ही कहीं है. यहं पर मैं बोली या भाषा की बात नहीं कर रहा हूं. मैं तो उस 'एसेंस' की बात कर रहा हूं जो 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' में और उस दौर की 'लागी नाहीं छूटे राम', 'हमार संसार' जैसी फिल्मों में है और काफी बाद तक 'बलम परदेसिया' जैसी फिल्मों में दिखाई देती है.


'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' में कई कथायें एक साथ हैं। एक स्त्री के जीवन की कारुणिक कथा होने के साथ ही छोटे किसान व्यथा,नशाखोरी नफा- नुकसान, सूदखोरी का चक्र-कुचक्र, स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता, जाति विहीन समाज का निर्माण,ग्रामोत्थान में युवकों की सक्रिय भागीदारी जैसे कई कोण इस फिल्म में दिखाई देते हैं.और हां प्रेम- प्यार का कोण तो है ही. दरअसल उस दौर में हिन्दी सिनेमा के ये प्रिय और प्रासंगिक कोण हुआ करते थे. उस समय तक भले ही साहित्य-समाज में मोहभंग व्याप गया था और व्यक्त भी हो रहा था लेकिन सिनेमा में 'नवनिर्माण' का रोमानी दौर चरम पर था. यह फिल्म भी उसी धारा को लेकर चलने वाली है.


'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो'में मुख्य भूमिकायें नजीर हुसैन,कुमकुम, असीम कुमार, तिवारी,पद्मा खन्ना ,लीला मिश्रा,हेलन आदि हैं.इसकी कथा-पटकथा नजीर हुसैन ने लिखी है, संगीत चित्रगुप्त का है और गीत शैलेन्द्र ने लिखे हैं. अगर आपने यह फिल्म नहीं देखी है तो जरूर देखें और अगर पहले कभी देखी है तो एक बार फिर देखें आज और कुछ नहीं तो कम से कम इसका एक गीत लता जी के स्वर में सुन ही लेते हैं-

कोई श्याम मनोहर ले लो

पंडित छन्नूलाल मिश्र जी एक बार फिर. इस दफ़ा मीराबाई का एक भजन:



छन्नूलाल जी को कबाड़ख़ाने पर सुनने के लिये यहां भी जाएं:

अब ना बजाओ श्याम बांसुरिया
झूला धीरे से झुलाओ बनवारी
बन्देताम परमेश्वरिम भगवतिम
मोरे पिछवरवा

Saturday, June 21, 2008

टॉमस ट्रांसट्रॉमर



विश्वकविता में अपना एक विशिष्ट स्थान रखने वाले स्वीडिश कवि टॉमस ट्रांसट्रॉमर का जन्म 15 अप्रैल 1931 को हुआ। उनका बचपन अपनी के मां के साथ एक श्रमिक बस्ती में बीता। एक विद्यार्थी के रूप में उन्होंने मनोविज्ञानी की उपाधि प्राप्त की और संगीत से भी उन्हें बेहद लगाव रहा। इन सब बातों का प्रभाव उनकी कविता पर पड़ा, जहाँ मौजूद भीतरी और बाहरी संसार पाठकों को बरबस ही अपनी ओर खींचता है। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायेँ

शोकगीत

उसने पेन नीचे रख दिया
वहां वह रखा है बिना किसी हलचल के
ढेर सारी खाली जगह में
चुपचाप

उसने पेन नीचे रख दिया
बहुत कुछ ऐसा है
जिसे न तो लिखा ही जा सकता है
और न ही
रखा जा सकता है अपने भीतर

उसका शरीर अकड़ गया है
बहुत दूर घट रही किसी घटना के कारण
हालांकि
रात अब भी फड़फड़ाती है
एक दिल की तरह

बाहर बसन्त का अखीर है
पत्तों के झुरमुटों से आती हुई सीटियों की-सी आवाज़- लोगों की है
या चिडियों की?

भरपूर खिले हुए चेरी के पेड़
थपथपाते हैं
घर लौटते हुए भारी-भरकम ट्रकों की पीठ

हफ्तों बीत जाते हैं
यों ही
बहुत धीरे से आती है रात
और खिड़की के कांच पर इकट्ठा हो जाता है
पतंगों का हुजूम -

दुनिया भर से आए हुए
वे छोटे-छोटे पीले टेलीग्राम!


चिट्ठियों के जवाब

अपनी मेज़ की
अंतिम दराज़ से मैं निकलता हूँ
एक चिट्ठी
छब्बीस साल हुए
जब ये पहुँची थी पहली बार
मेरे पास

दहशत में लिखी गई एक चिट्ठी
अब भी साँस ले रही है यह
जबकि
मिली है दूसरी बार मुझे

मेरे घर में मानो पाँच खिड़कियाँ हैं
चार खिड़कियों में से दिन चमकता है
साफ़-सुथरा और शान्त
लेकिन पांचवी खुलती है एक काले आकाश में
आंधी और तूफ़ान के बीच
मैं इसी खिड़की के आगे खड़ा हूँ -- इस चिट्ठी के आगे

कभी-कभी
एक अथाह-अगम खाई खुल जाती है
दो लगातार दिनों के बीच भी
लेकिन
एक पल में गुज़र सकते हैं
छब्बीस साल!

समय कोई सीधी रेखा नहीं है
यदि आप दीवार को ठीक जगह टटोलें तो सुन सकते हैं
तेज़ कदमों की आहटें
आप सुन सकते हैं
खुद को ही अतीत में चलते हुए
दीवार के उस तरफ

क्या कभी
इस चिट्ठी का कोई जवाब दिया गया?
मुझे कुछ याद नहीं
यह बहुत पहले की बात है
तब से समन्दर की अनगिन लहरें
आती रहीं
जाती रहीं
दिल उछलता रहा
अगस्त की रातों में भीगी हुई घास पर उछलते
मेंढकों की तरह

इकट्ठी हो चली हैं ऐसी कई
लाजवाब चिट्ठियां
बादलों के उस जमावड़े की तरह
जो बुरे मौसम का संकेत देता है
सूरज को तेजहीन बनाता हुआ

एक दिन मैं जवाब दूंगा -
उस दिन जब एकाग्र हो जाऊँगा
मुत्यु में ही सही
या फिर उस दिन
जब यहाँ से बहुत दूर कहीं खोज पाऊंगा
खुद को दोबारा

जबकि
मैं चल रहा हूँ किसी आगन्तुक-सा
एक बड़े शहर में
एक सौ पच्चीसवीं सड़क पर
कूड़े से उठती
बदबू भरी हवा के बीच

मैं -इस अंतहीन पाठ में एक बड़ा-सा टी - T
जो लोगों के बीच आवारा भटकना
और उन्हीं में
घुलमिल जाना पसन्द करता है!

जब बारिश हो रही हो तो किसी से कुछ नहीं मांगना चाहिए

कल आपने अफ़ज़ाल अहमद की कविता 'शायरी मैंने ईजाद की' पढ़ी थी. उसी क्रम में आज पढ़िए अफ़ज़ाल की एक और नायाब कविता:

अगर कोई पूछे

अगर कोई पूछे कि दरख़्त अच्छे होते हैं या छतरियां
तो बताना कि दरख़्त
जब हम धूप में उनके नीचे खड़े हों
और छतरियां जब हम धूप में चल रहे हों
और चलना अच्छा होता है उन मंज़िलों के लिए
जहां जाने के लिए कई सवारियां और इरादे बदलने पड़ते हैं
हालांकि सफ़र तो उंगली में टूट जाने वाली सुई की नोंक का भी होता है
और उसका भी जो उसे दिल में जाते हुए देखती है

अगर कोई पूछे कि दरवाज़े अच्छे होते हैं या खिड़कियां
तो बताना कि दरवाज़े दिन के वक़्त
और खिड़कियां शामों को
और शामें उनकी अच्छी होती हैं
जो एक इन्तज़ार से दूसरे इन्तज़ार में सफ़र करते हैं
हालांकि सफ़र तो उस आग का नाम है
जो दरख़्तों से ज़मीन पर कभी नहीं उतरी

मांगने वाले को अगर कच्ची रोटियां एक दरवाज़े से मिल जाएं तो उसे
दियासलाई अगले दरवाज़े से मांगनी चाहिए
और जब बारिश हो रही हो तो किसी से कुछ नहीं मांगना चाहिए
न बारिश रुकने की दुआएं
दुआ मांगने के लिए आदमी के पास एक ख़ुदा का होना बहुत ज़रूरी है
जो लोग दूसरों के ख़ुदाओं से अपनी दुआएं क़ुबूल करवाना चाहते हैं
वो अपनी दाईं एड़ी में गड़ने वाली सुई की चुभन
बाईं में महसूस नहीं कर सकते

बाज़ लोगों को खुदा विरसे में मिलता है
बाज़ को तोहफ़े में, बाज़ अपनी मेहनत से हासिल कर लेते हैं
बाज़ चुरा लाते हैं
बाज़ फ़र्ज़ कर लेते हैं
मैंने ख़ुदा क़िस्तों में ख़रीदा था
क़िस्तों में ख़रीदे हुए ख़ुदा उस वक़्त तक दुआएं पूरी नहीं करते
जब तक सारी क़िस्तें अदा न हो जाएं
एक बार मैं ख़ुदा की क़िस्त वक़्त पर अदा न कर सका
ख़ुदा को मेरे पास से उठा ले जाया गया
और जो लोग मुझे जानते थे
उन्हें पता लग गया
कि अब मेरे पास न ख़ुदा है, न क़ुबूल होने वाली दुआएं
और मेरे लिए एक ख़ुदा फ़र्ज़ कर लेने का मौका भी जाता रहा.

Friday, June 20, 2008

शायरी मैंने ईजाद की


१९४६ में गाज़ीपुर में जन्मे अफ़ज़ाल अहमद सय्यद के माता-पिता बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे. फ़िलहाल कराची में रहकर पत्रकारिता करने वाले अफ़ज़ाल को हिन्दी पाठकों के सम्मुख लाने का बड़ा काम ज्ञानरंजन जी द्वारा संपादित पत्रिका 'पहल' ने किया था. 'पहल' का वह पूरा का पूरा अंक अफ़ज़ाल अहमद की कविताओं का चयन ही था. 'छीनी हुई तारीख़', 'दो ज़बानों में सज़ा-ए-मौत' और 'खेमः-ए-सियाह' उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं. अफ़ज़ाल ने गज़लें भी काफ़ी लिखी हैं पर पाकिस्तान के बाहर उनकी ख्याति उनकी नज़्मों की वजह से फैली.

अफ़ज़ाल ने बड़े पैमाने पर अनुवाद का काम किया है. उन्होंने मिरोस्लाव होलुब, येहूदा आमीखाई, दुन्या मिखाइल, ताद्यूश रूज़ेविच, ज़्बिगिन्यू हेर्बेर्त, यान प्रोकोप, ताद्यूश बोरोव्स्की, विस्वावा शिम्बोर्स्का, अलैक्सांद्र वाट, मैरिन सोरेस्क्यू, ओसिप मैन्डेल्स्ताम और ओरहान वेली जैसे कवियों के उर्दू में तर्ज़ुमे किये हैं. अनुवादों की उनकी फ़ेहरिस्त में ज्यां जेने और गोरान श्तेफ़ानोव्स्की के नाटक भी हैं और गाब्रीएल गार्सिया मारकेज़ का उपन्यास 'क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फ़ोरटोल्ड' भी.

भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायरों में शुमार किए जाने वाले अफ़ज़ाल अहमद ने बहुत पुरातन छवियों और विम्बों को बेहद आधुनिक शैली के साथ जोड़ कर अपना एक अलग अन्दाज़-ए-बयां ईजाद किया. आज प्रस्तुत है उनकी एक कविता:


शायरी मैंने ईजाद की

काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया
हुरूफ़ फ़ोनेशियनों ने
शायरी मैंने ईजाद की

कब्र खोदने वालों ने तन्दूर ईजाद किया
तन्दूर पर कब्ज़ा करने वालों ने रोटी की परची बनाई
रोटी लेने वालों ने क़तार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा

रोटी की क़तार में जब चींटियां भी आकर खड़ी हो गईं
तो फ़ाक़ा ईजाद हुआ

शहवत बेचने वाले ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिये लिबास बनाए
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महलसरा ईजाद की
जहां जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया

फ़ासले ने घोड़े के चार पांव ईजाद किए
तेज़ रफ़्तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ़्तार रथ के नीचे लिटा दिया गया
मगर उस वक़्त तक शायरी मुहब्बत की ईजाद कर चुकी थी

मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने खे़मा और कश्तियां बनाईं
और दूर दराज़ के मुक़ामात तय किए
ख़्वाज़ासरा ने मछली का कांटा ईजाद किया
और सोए हुए दिल में चुभो कर भाग गया

दिल में चुभे हुए कांटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद हुई
और ज़ब्र ने आख़िरी बोली ईजाद की

मैंने शायरी बेचकर आग ख़रीदी
और ज़ब्र का हाथ जला दिया

(ईजाद करना: आविष्कार करना, मराकश: मोरक्को, हुरूफ़: शब्द का बहुवचन, फ़ोनेशिया: भूमध्यसागर और लेबनान के बीच एक स्थान, फ़ाक़ा: भूख, शहवत: काम वासना, मलबूस: कपड़े धारण किए हुए, महलसरा: अंतःपुर, ख़्वाज़ासरा: हिजड़ा, ज़ब्र: दमन और अत्याचार)

* कल आपको अफ़ज़ाल की एक और कविता पढ़ने को मिलेगी.

Thursday, June 19, 2008

अक्सर शब-ए-तन्हाई में, कुछ देर पहले नींद से

रेशमा से ज़्यादातर भारतीयों का परिचय १९८३ में फ़िल्म 'हीरो' में गाये उनके अविस्मरणीय गीत 'लम्बी जुदाई' से हुआ था. उसके क़रीब बीस साल बाद उन्होंने भारतीय फ़िल्मों में दुबारा गाना शुरू किया. उसके पहले उन्होंने कुछेक अल्बम भी यहां रिलीज़ किये थे. बहुत थोड़े समय तक बाज़ार में रही 'वेस्टन' कम्पनी ने उनके दो शानदार अल्बम निकाले थे. एक का नाम था 'दर्द'. इसमें उन्होंने कुछ उम्दा ग़ज़लें गाई थीं जैसे - 'लो, दिल की बात आप भी हम से छुपा गए'. दूसरा वाला पंजाबी लोकगीतों का था. 'साड्डा चिड़ियां दा चम्बा वे' मुझे उस से ज़्यादा मीठा किसी और आवाज़ में सुन चुके होने की स्मृति नहीं है. दुर्भाग्यवश ये दोनों अब मेरे पास नहीं हैं.

ख़ैर. जब रेशमा जी पांचेक साल पहले भारत आई थीं तो उनसे एक पत्रकार ने पूछा:

"क्या आप हमें अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बता सकेंगी ... ख़ास कर के अपने संगीत की जड़ों के बारे में?"

रेशमा जी का जवाब था:

"मेरा जन्म बीकानेर, राजस्थान के एक बंजारा परिवार में हुआ था. जब मैं छोटी ही थी, हमारा परिवार पाकिस्तान चला गया. मुझे संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली. लिखना-पढ़ना मुझे अब भी नहीं आता. चाहे लोकगीत हो. ग़ज़ल हो या फ़िल्मी गाना, मैं उसे अपने दिल से गाती हूं. लेकिन संगीतकारों को मेरे साथ बहुत मशक्कत करनी पड़ती है - मेरे अनपढ़ होने की वजह से मुझे बोल रटाने में उन बिचारों का बहुत समय लगता है.

... हर सुबह की नमाज़ ही मेरा रियाज़ होती है. अल्लाह ने मुझे यह आवाज़ देकर मेहरबानी की है."

डोगरी भाषा की बड़ी लेखिका पद्मा सचदेव ने रेशमा जी पर एक सुन्दर संस्मरणात्मक लेख लिखा है. कभी मौका निकाल कर पढ़वाऊंगा आपको.

इस आवाज़ की कशिश और लरज़ का मैं दीवाना हूं. लुत्फ़ लीजिये

Wednesday, June 18, 2008

मेंहदी से लिख दो री हाथ पे सखियो मेरे संवरिया का नाम


अपनी अद्वितीय आवाज़ और अलग क़िस्म की अदायगी के लिए विख्यात ताहिरा सय्यद को आप कबाड़ख़ाने पर पहले भी सुन चुके हैं. बेग़म मल्लिका पुखराज की इस योग्य सुपुत्री से एक मीठा सा मंगल गीत



और हफ़ीज़ जालन्धरी साहब एक ग़ज़ल:



बेज़बानी ज़बां न हो जाए
राज़-ए-उल्फ़त अयां न हो जाए

इस क़दर प्यार से न देख मुझे
फिर तमन्ना जवां न हो जाए

लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में
वो कहीं मेहरबां न हो जाए

ज़िक्र उनका ज़बान पर आया
ये कहीं दास्तां न हो जाए

ख़ामोशी है ज़बान-ए-इश्क़ 'हफ़ीज़'
हुस्न अगर बदगुमां न हो जाए

Monday, June 16, 2008

हम मरते थे और पैदा होते जाते थे



सुन्दर ठाकुर की कविता - श्रृंखला 'एक बेरोज़गार की कविताएं' को कबाड़ख़ाने पर बहुत पसन्द किया गया था. भीतर तक हिलाकर रख देने वाली इन कविताओं पर एक दिलचस्प टिप्पणी आई थी. शशि भूषण ने लिखा था: "कृपया इस कविता के पहले लिख दीजिये कि ये कविताएं आपको विचलित कर सकती हैं जैसे न्यूज़ चैनल्स प्रोग्राम के पहले दिखाते हैं..." किसी भी कवि को ऐसी दाद मिलना बहुत मायने रखता है और इससे उसे अपने आगामी लेखन में और ज़्यादा ज़िम्मेदारी बरतने का अहसास होता है. सुन्दर का नया संग्रह शीघ्र छपकर आने को है. अभी के लिये फ़िलहाल आपको पढ़ाता हूं सुन्दर के संग्रह 'किसी रंग की छाया' से एक और कविता:


हमारी दुनिया

चिड़िया हमारे लिये तुम कविता थीं
उनके लिये छटांक भर गोश्त
इसीलिये बची रह गयी
वे शेरों के शिकार पर निकले
इसीलिये छूट गये कुछ हिरण
उनकी तोपों के मुख इस ओर नहीं थे
बचे हुए हैं ज्सीलिये खेत-खलिहान घरबार हमारे
वे जितना छोड़ते जाते थे
उतने में ही बसाते रहे हम अपना संसार

हमने झेले युद्ध, अकाल और भयानक भुखमरी
महामारियों की अंधेरी गुफाओं से रेंगते हुए पार निकले
अपने जर्जर कन्धों पर युगों-युगों से
हमने ही ढोया एक स्वप्नहीन जीवन
क़ायम की परम्पराएं रचीं हमीं ने सभ्यताएं
आलीशान महलों, भव्य किलों की नींव रखी
उनके शौर्य-स्तम्भों पर नक़्क़ाशी करने वाले हम ही थे वे शिल्पकार
इतिहास में शामिल हैं हमारी कलाओं के अनगिन ध्वंसावशेष
हमारी चीख़-पुकार में निमग्न है हमारे सीनों का विप्लव

उनकी नफ़रत हममें भरती रही और अधिक प्रेम
क्रूरता से जनमे हमारे भीतर मनुष्यता के संस्कार
उन्होंने यन्त्रणाएं दीं जिन्हें सूली पर लटकाया
हमारी लोककथाओं में अमर हुए वे सारे प्रेमी
उनके एक मसले हुए फूल से खिले अनगिन फूल
एक विचार की हत्या से पैदा हुए कई-कई विचार
एक क्रान्ति के कुचले सिर से निकलीं हज़ारों क्रान्तियां
हमने अपने घरों को सजाया-संवारा
खेतों में नई फ़सल के गीत गाए
हिरणों की सुन्दरता पर मुग्ध हुए हम

हम मरते थे और पैदा होते जाते थे

Sunday, June 15, 2008

क्रिकेट का एक गीत: ही वॉज़ मोर दैन जस्ट अ बैट्समैन



डॉन ब्रैडमैन की क्रिकेट के बारे में उतना ही लिखा जा चुका है जितना शेक्सपीयर के नाटक 'हैमलेट' के बारे में. जीते जी एक दन्तकथा बन चुके थे वे. साहित्य, संगीत और कविता में सर डॉन पर जितना लिखा गया, वह बड़े बड़े बादशाहों को रश्क से भर देने को पर्याप्त है. मिसाल के तौर पर १४ फ़रवरी १९३३ को उनकी शान में ब्रिटेन की एक पत्रिका में छपी एक आस्ट्रेलियाई कवि की इस कविता में ब्रैडमैन के अस्तित्व भर को सारे आर्थिक और राजनैतिक संकटों से पार पाने का साधन बताया गया है:

Our Harbour which art in Heaven
Sydney is thy name
The Bridge be done
If not in 1932 then in 1933
Give us this day a crown –
For Bradman’s head
And forgive us our swelled heads
And forgive those blighters in Melbourne
Who trespass against us
Lead us out of financial depression
And deliver us from all rotten Government
For ours is the Harbour, the Bridge and Bradman
For ever and ever
Amen

और अब सुनिये जाने माने गायक-गीतकार पॉल कैली की आवाज़ में इस मिथकीय खिलाड़ी की कथा :



Sydney, 1926, this is the story of a man
Just a kid in from the sticks, just a kid with a plan
St George took a gamble, played him in first grade
Pretty soon that young man showed them how to flash the blade
And at the age of nineteen he was playing for the State
From Adelaide to Brisbane the runs did not abate
He hit 'em hard, he hit 'em straight

He was more than just a batsman
He was something like a tide
He was more than just one man
He could take on any side
They always came for Bradman 'cause fortune used to hide in the palm of his hand

A team came out from England
Wally Hammond wore his felt hat like a chief
All through the summer of '28, '29 they gave the greencaps no relief
Some reputations came to grief
They say the darkest hour is right before the dawn
And in the hour of greatest slaughter the great avenger is being born
But who then could have seen the shape of things to come
In Bradman's first test he went for eighteen and for one
They dropped him like a gun
Now big Maurice Tate was the trickiest of them all
And a man with a wisecracking habit
But there's one crack that won't stop ringing in his ears
"Hey Whitey, that's my rabbit"
Bradman never forgot it

He was more than just a batsman
He was something like a tide
He was more than just one man
He could take on any side
They always came for Bradman 'cause fortune used to hide in the palm of his hand

England 1930 and the seed burst into flower
All of Jackson's grace failed him, it was Bradman was the power
He murdered them in Yorkshire,he danced for them in Kent
He laughed at them in Leicestershire, Leeds was an event
Three hundred runs he took and rewrote all the books
That really knocked those gents
The critics could not comprehend this nonchalant phenomenon
"Why this man is a machine," they said. "Even his friends say he isn't human"
Even friends have to cut something
He was more than just a batsman
He was something like a tide
He was more than just one man
He could take on any side
They always came for Bradman 'cause fortune used to hide in the palm of his hand

Summer 1932 and Captain Douglas had a plan
When Larwood bowled to Bradman it was more than man to man
And staid Adelaide nearly boiled over as rage ruled over sense
When Oldfield hit the ground they nearly jumped the fence
Now Bill Woodill was as fine a man as ever went to wicket
And the bruises on his body that day showed that he could stick it
But to this day he's still quoted and only he could wear it
"There's two sides out there today and only one of them's playing cricket."

He was longer than a memory, bigger than a town
He feet they used to sparkle and he always kept them on the ground
Fathers took their sons who never lost the sound of the roar of the grandstand

Now shadows they grow longer and there's so mush more yet to be told
But we're not getting any younger, so let the part tell the whole
Now the players all wear colours, the circus is in town
I can no longer go down there, down to that sacred ground

He was more than just a batsman
He was something like a tide
He was more than just one man
He could take on any side
They always came for Bradman 'cause fortune used to hide in the palm of his hand

Saturday, June 14, 2008

क्या है गीत चतुर्वेदी की "वैतागवाड़ी"



गीत चतुर्वेदी का ब्लॉग है "वैतागवाड़ी". ज़्यादा पुराना नहीं है. करीब चार महीनों से गीत की उपस्थिति हिन्दी ब्लॉगजगत में बाक़ायदा नोटिस की जाती रही है. ज़ीशान साहिल, अख़्तर-उल ईमान से लेकर एडम ज़गायेव्स्की और विष्णु खरे तक बड़े कविगण उनके इस ब्लॉग पर बेहतरीन कमेन्ट्रियों के साथ मौजूद हैं. इधर उन्होंने फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' साहब की आवाज़ में कुछ कालजयी रचनाएं सुनवाई हैं.

गीत चतुर्वेदी को मैं उनके काम से व्यक्तिगत रूप से कई सालों से जानता हूं. एक अच्छे पुरुस्कृत कवि और अनुवादक के रूप में वे बहुत कम आयु में अपने आप को स्थापित कर चुके हैं. 'संवाद प्रकाशन' से उनकी लिखी चार्ली चैप्लिन की जीवनी छप चुकी है. हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में गीत काफ़ी लम्बे समय तक काम करते रहेंगे ऐसा मेरा मानना है.

और ज़्यादा तारीफ़ नहीं करूंगा वरना भाई लोग भाले-हथियार लेकर निकल आएंगे.

'वैतागवाड़ी' शब्द जब मैंने पहली बार सुना तो वीतराग जैसा कुछ सुनाई पड़ा. विराग जैसा भी. फिर लगा हो सकता है यह गीत चतुर्वेदी के पैतृक गांव का नाम हो. किसी से पूछने की हिम्मत इस लिये नहीं हुई कि मेरा नैसर्गिक हिन्दीभाषी 'ईगो' मुझे रोके हुए था. "क्या यार, इतना भी नहीं मालूम तुम्हें?" - सुनने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी.

इधर कुछ ऐसा क्रम बना कि एक दो रोज़ पहले स्वयं गीत चतुर्वेदी का फ़ोन आ गया. हमारे बीच वह पहला फ़ोन था लेकिन शुरुआती झेंप के बाद मैंने वैतागवाड़ी का अर्थ पूछ ही लिया. गीत भाई ने अर्थ भी बताया और एक मराठी लेखक के बारे में भी.

भाऊ पाध्ये (१९२६-१९९६) बीसवीं सदी की मराठी साहित्य परम्परा के एक बड़े नाम थे. आधुनिक बम्बई के सामाजिक यथार्थ के तानेबाने को अपने रचनाकर्म का हिस्सा बनाने वाले भाऊ ने जो कुछ लिखा उस पर हमारे समय के बड़े कवि दिलीप चित्रे का कहना है: अब से कुछ सहस्त्राब्दियों बाद अगर बम्बई का कोई निशान नहीं बचेगा, तो पाध्ये की किताबों के माध्यम से पाठक बम्बई का चित्र अपनी आंखों के सामने देख पाएंगे. उपन्यास, कहानियां और पत्रकारिता में उल्लेखनीय कार्य कर चुके स्वर्गीय भाऊ पाध्ये का एक उपन्यास 'वैतागवाड़ी' गीत चतुर्वेदी के पसंदीदा उपन्यासों में है.

इस उपन्यास में बम्बई में रह पाने की जगह खोजने की भरसक कोशिश करते एक शख़्स का चरित्र-चित्रण है. और एक त्रासद विस्फोटक अन्त से पहले उसकी सारी कोशिशें हमेशा असफल होती जाती हैं.

मराठी शब्द 'वैतागवाड़ी' का शाब्दिक अर्थ इस लिहाज़ से हुआ आजिज़ी, ऊब और हताशा की मिलीजुली भावनाओं का अतिरेक. अंग्रेज़ी-अनुवाद में इस के लिये गीत ने एक शब्द बताया: EXASPERATION.

फ़िलहाल मुझे इस से एक बार और यह सीख मिली कि जिस चीज़ का अर्थ पता न हो, उसका अर्थ तुरन्त जानने की कोशिश की जानी चाहिये. वैसे तो "अज्ञान में परमानन्द है" वाला फ़लसफ़ा हिन्दीभाषी भारत में सबसे मुफ़ीद माना गया है पर कभी कभी थोड़ा नया जान लेने में क्या हरज़ा है. क्या कहते हैं भाईलोग?

(भाऊ पाध्ये पर अधिक जानकारी हेतु यहां जाएं. यह लिंक भी गीत चतुर्वेदी के सौजन्य से.)

Thursday, June 12, 2008

परवीन शाकिर की ग़ज़ल, राग दरबारी, मेहदी हसन साहब की गायकी

कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की

कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की

तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की

वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की

उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की



और ये लीजिये यही ग़ज़ल सुनाते हुए देखिये परवीन शाकिर को यूट्यूब पर:

उजास की आभा :अलविदा प्रोफेसर डी.डी. पंत

प्रोफेसर डी.डी. पंत नहीं रहे.हलद्वानी में ११ जून की दोपहर मे लगभग नब्बे साल की आयु में उन्होंने अपना चोला त्याग दिया.दीपक तो बुझ गया लेकिन उसके मन,वचन और कर्म द्वारा उद्भूत-उर्जस्वित उजास बाकी है और रहेगी. जलते दीपक को तो एक न एक दिन बुझना ही होता है किंतु बात तो तब है जब कि वह अपने पीछे दृष्टि,दीप्ति और दर्शन की एक शानदार अनमिट लकीर उकेर जाय ;वह भी इस क्रूर,कुटिल,कुचाली समय में चुपचाप,शान्तिपूर्वक,सलीके से।

कौन प्रोफेसर डी.डी. पंत?

रात दस बजे के आसपास अशोक पांडे का फोन आया तो पता चला कि आज दोपहर में प्रोफेसर डी.डी. पंत नहीं रहे.हलद्वानी की उसी कालोनी में अशोक का घर भी है लेकिन उन्हें यह खबर शाम को मिली पाई.हमने फोन पर उनके बारे में बात की,अपने कालेज के दिनों में उनकी गरिमामयी उपस्थिति को याद किया.फोन रखने के बाद मैंने अपनी अलबम निकाली और ग्रुप फोटो में उनकी तस्वीर को छुआ..अलविदा प्रोफेसर डी.डी. पंत.

अशोक ने कहा है आज मैं उनपर कुछ लिखूं. क्या लिखूं? मैं तो कभी उनका छात्र नहीं रहा.वे ठहरे फिजिक्स के एमिरिटस प्रोफेसर और मैं हिन्दी का एक अदना-सा विद्यार्थी.मेरे ज्यादतर दोस्त फिजिक्स वाले थे और मैं अक्सर वहीं पाया जाता था.अपनी थीसिस लिखने के अलावा सारे काम जरूरी लगते थे.नाटक ,गोष्ठी,सभा-संगत आदि-इत्यादि में बुलाने पर प्रोफेसर पंत आते जरूर थे. उन्हें बोलते हुए सुनने पर पता चलता था कि एक विद्वान बोल रहा है.बदमाश-बिगड़ैल छात्र भी उनके सामने सभ्य श्रोता बन जाया करते थे.

अशोक ने फोन पर ही मेरी एक कहानी के प्लाट की याद दिलाई जिसमे कुछ लिक्खाड़ टाइप के लोग एक एक मशहूर मरणासन्न साहित्यकार पर संस्मरण-लेख आदि तैयार किये बैठे हैं और वह वृद्ध साहित्यकार निरंतर जिए चला जा रहा है और छपासु भाई लोग मरे जा रहे हैं कि वह चलें तो यह छपे. पंत जी पर भी बहुत कुछ लिखा जाएगा (शायद लिख भी लिया गया होगा) और छपेगा भी किन्तु डी.एस.बी.कालेज (अब कुमाऊं विश्वविद्यालय का नैनीताल कैंपस)के स्वर्ण काल और उसकी तलछट के दिनों में वहां पढ़े-पढ़ाए लोग प्रोफेसर डी.डी. पंत को भूल नहीं पायेंगे.

प्रोफेसर डी.डी. पंत पर कुछ लिख पाने में स्वयं को सर्वथा अयोग्य और अक्षम मानता हूं.उनके योग्य शिष्य और इन पंक्तियों के लेखक को बहस और बकवास में फर्क करने की तमीज सिखाने वाले प्यारे दोस्त आशुतोष उपाध्याय ने ७ सितंबर २००७ को अपने ब्लाग बुग्याल पर पंत सर के बारे में जो कुछ लिखा था उससे प्रासंगिक और कुछ फिलहाल संभव नहीं है सो उसे ही साभार यथावत प्रस्तुत कर रहा हूं-


डाक्टर डी.डी.पंत: आप रौशनी हैं हमारे लिए

यह वाकया उस जमाने का है, जब देश को आजादी मिली ही थी। हिमालय के दूर-दराज गांव के अत्यंत विपन्न परिवार का एक छात्र नोबेल विजेता और महान भौतिकविद सर सी.वी. रमन की प्रयोगशाला (रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट, बेंगलूर) में अपना शोधकार्य समेट रहा था। घर की माली हालत बेहद खराब थी। रमन साहब ने उसे भारतीय मौसम विभाग की शानदार नौकरी कर लेने का सुझाव दिया। गांधी को अपना आदर्श मानने वाले छात्र को निर्देशक का प्रस्ताव कुछ जंचा नहीं- मैं आपकी तरह शिक्षक बनना चाहता हूं। रमन साहब हंस पड़े, बोले- तब तुम जीवन भर गरीब और उपेक्षित ही रहोगे.

रमन साहब की बात सचमुच सही साबित हुई। हजारों छात्रों के लिए सफलता की राह तैयार करने वाले प्रो. देवी दत्त पन्त अपने जीवन की संध्या में आज भी लगभग गुमनाम और उपेक्षित हैं। बीती सदी के पांचवें दशक में जब नैनीताल में डीएसबी कालेज की स्थापना हुई तो प्रो. पन्त भौतिकविज्ञान विभाग का अध्यक्ष पद संभालने आगरा कालेज से यहां पहुंचे। वह स्पेक्ट्रोस्कोपी के आदमी थे और उन्होंने यहां फोटोफिजिक्स लैब की बुनियाद डाली। जाने-माने भौतिकशास्त्री और इप्टा (इंडियन फिजिक्स टीचर्स ऐसोसिएशन) के संस्थापक डी.पी. खण्डेलवाल उनके पहले शोधछात्र बने। उस जमाने में शोध को आर्थिक मदद देने वाली संस्थाएं नहीं थीं। दूसरे विश्वयुद्ध के टूटे-फूटे उपकरण कबाडि़यों के पास मिल जाया करते थे और पन्त साहब अपने मतलब के पुर्जे वहां जाकर जुटा लेते थे। कबाड़ के जुगाड़ से लैब का पहला टाइम डोमेन स्पेक्ट्रोमीटर तैयार हुआ। इस उपकरण की मदद से पन्त और खण्डेलवाल की जोड़ी ने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण शोधकार्य किया। यूरेनियम के लवणों की स्पेक्ट्रोस्कोपी पर हुए इस शोध ने देश-विदेश में धूम मचाई। इस विषय पर लिखी गई अब तक की सबसे चर्चित पुस्तक (फोटोकैमिस्ट्री ऑफ यूरेनाइल कंपाउंड्स, ले. राबिनोविच एवं बैडफोर्ड) में पन्त और खण्डेलवाल के काम का दर्जनों बार उल्लेख हुआ है। शोध की चर्चा अफवाहों की शक्ल में वैज्ञानिक बिरादरी से बाहर पहुंची। आज भी जिक्र छिड़ने पर पुराने लोग बताते हैं- प्रो. पन्त ने तब एक नई किरण की खोज की थी, जिसे `पन्त रे´ नाम दिया गया। इस मान्यता को युरेनियम लवणों पर उनके शोध का लोकfप्रय तर्जुमा कहना ठीक होगा।कुछ समय बाद प्रो. पन्त डीएसबी कालेज के प्रिंसिपल बना दिए गए। उनके कार्यकाल को डीएसबी का स्वर्णयुग माना जाता है। न केवल कालेज के पठन-पाठन का स्तर नई ऊंचाइयों तक पहुंचा बल्कि प्रो. पन्त की पहल पर छात्रों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अलग से कक्षाएं लगने लगीं। एक बेहद पिछड़े पहाड़ी इलाके के लिए इस पहल का खास अर्थ था। उस जमाने में शहरों में पहुंचने वाले किसी पहाड़ी नौजवान की पहली छवि अमूमन ईमानदार घरेलू नौकर की होती थी। पहाड़ की जवानी मैदान के ढाबों में बर्तन धोते या फिर सीमा पर पहरेदारी करते बीतती थी। ऊंची नौकरियों में इक्का-दुक्का भाग्यशाली ही पहुंच पाते थे। प्रो। पन्त के बनाए माहौल ने गरीब घरों के सैकड़ों छात्रों को देश-विदेश में नाम कमाने लायक बनाया। उस जमाने के जाने कितने छात्र आज भी अपनी सफलता का श्रेय देते हुए उन्हें श्रद्धापूर्वक याद करते हैं।

बाद में प्रो. पन्त उत्तर प्रदेश के शिक्षा निदेशक और कुमाऊं विश्वविद्यालय की स्थापना होने पर इसके पहले वाइस चांसलर बने। इस विश्वविद्यालय के साथ उनके सपने जुड़े थे। कुमाऊं व गढ़वाल विश्वविद्यालयों की स्थापना भारी राजनीतिक दबाव में एक साथ की गई थी। राज्य सरकार ने इन्हें खोलने की घोषणा तो कर दी लेकिन संसाधनों के नाम पर ठेंगा दिखा दिया। प्रो. पन्त इसे नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों की कतार में लाना चाहते थे। इसलिए जब-जब कोई अपनी हैसियत की आड़ में विश्वविद्यालय को समेटने की कोशिश करता, वह पूरी ताकत से प्रतिरोध करते। तत्कालीन गवर्नर (और कुलाधिपति) एम. चेन्ना रेड्डी से प्रो. पन्त की ऐतिहासिक भिड़ंत को कौन भुला सकता है! एम् चेन्ना रेड्डी अपने किसी खासमखास ज्योतिषी को मानद डाक्टरेट दिलवाना चाहते थे। प्रो. पन्त के कुलपति रहते यह कैसे संभव था! वह अड़े और अंतत: जब बात बनती नजर नहीं आयी तो इस्तीफा देकर बाहर निकल आए। प्रो. पन्त के इस्तीफे की भारी प्रतिक्रिया हुई। लोग सड़कों पर उतर आए और अंतत: गवर्नर को झुकना पड़ा। पन्त साहब ने वापस वीसी की कुर्सी संभाली। प्रशासनिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद प्रो. पन्त अपनी लैब में वापस लौट आए और रिसर्च में जुट गए। दूसरी प्रयोगशालाओं और शोध निर्देशकों से कई मायनों में प्रो. पन्त बिलकुल अलग थे। लैब की नियमित बातचीत में नए शोधछात्रों के बचकाने तर्कों को भी वह बड़ी गंभीरता से सुनते और उनकी कमजोरियों को दूर करते। उनकी मेज के सामने लगे बोर्ड पर छात्र बारी-बारी से अपनी प्रॉब्लम पर चर्चा करते और अंत में प्रो. पन्त खुद उठकर बोर्ड के सामने पहुंच जाते। वैज्ञानिक दृष्टि के बुनियादी मूल्य भाषणों के बजाय उनके व्यवहार से छात्रों को मिलते थे। एक बार अपने एक प्रतिभाशाली छात्र (डा. प्रेम बल्लभ बिष्ट, जो अब आईआईटी मद्रास में प्रोफेसर हैं) के शोधपत्र में दिए गए विश्लेषण से वह संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे। बिष्ट भी अपने तर्कों से समझौता करने को तैयार नहीं थे। अंत में प्रो. पन्त ने बेहद विनम्रता से कहा- तुम्हारी बात में दम है, हालांकि मैं इससे सहमत नहीं हूं। अब ऐसा करो, मेरा नाम लेखकों में शामिल करने के बजाय एकनॉलेजमेंट्स में डालकर पेपर छपने भेज दो। खोखली प्रोफेसरी के वजन से छात्रों को दबाए रखने वाले और ठीकपने की व्याधि से ग्रस्त विश्वविद्यालयी प्राध्यापकों की भीड़ में प्रो. पन्त अलग चमकते थे। उन्होंने माइकल कासा और हर्त्ज्बर्ग जैसे दिग्गज नोबेल विजेताओं के साथ काम किया था। ये दोनों वैज्ञानिक प्रो. पन्त की प्रतिभा के कायल थे और कई वर्षों तक उन्हें अमेरिका आकर काम करने के लिए उकसाते रहे। कासा से उनकी गहरी दोस्ती थी। वह हर साल क्रिसमस के आसपास उनका पत्र प्रो. पन्त की टेबल पर रखा मिलता.

अब तक अलग उत्तराखंड राज्य की मांग उठने लगी थी। प्रो. पन्त `स्मॉल इज ब्यूटीफुल´ के जबर्दस्त मुरीद थे। बड़े प्रदेश की सरकार के साथ उनके अनुभवों ने भी उन्हें छोटे राज्य की अहमियत से वाकिफ कराया और वह उत्तराखण्ड राज्य की मांग के मुखर समर्थक बन गए। इसलिए, जब अलग राज्य के लिए उत्तराखण्ड क्रांति दल का गठन हुआ तो नेतृत्व के लिए प्रो. पन्त के नाम पर भला किसको आपत्ति होती। और इस तरह विज्ञान की सीधी-सच्ची राह से वह राजनीतिक की भूल-भुलैया में निकल आए। उन्होंने यूकेडी के टिकट पर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ सीट से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा और जमानत जब्त करवाई। शायद पेशेवर घुन्ने नेताओं के सामने लोगों को सीधा-सरल वैज्ञानिक हजम नहीं हुआ। बाद में यूकेडी की अंदरूनी खींचतान और इसके नेताओं की बौनी महत्वाकांक्षाओं से उकता कर प्रो. पन्त ने राजनीति से किनारा कर लिया और एक बार फिर अपनी प्रयोगशाला में लौट आए।बचपन प्रो. पन्त का जन्म 1919 में आज के पिथौरागढ़ जिले के एक दूरस्थ गांव देवराड़ी में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई। पिता अम्बा दत्त वैद्यकी से गुजर-बसर करते थे। बालक देवी की कुशाग्र बुfद्ध गांव में चर्चा का विषय बनी तो पिता के सपनों को भी पंख लगे लगे। किसी तरह पैसे का इंतजाम कर उन्होंने बेटे को कांडा के जूनियर हाईस्कूल और बाद में इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा भेजा। आजादी की लड़ाई की आंच अल्मोड़ा भी पहुंच चुकी थी। देवी दत्त को नई आबोहवा से और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। घर के माली हालात आगे पढ़ने की इजाजत नहीं देते थे। तभी पिता के एक मित्र बैतड़ी (सीमापार पश्चिमी नेपाल का एक जिला) के एक संपन्न परिवार की लड़की का रिश्ता लेकर आए। पिता-पुत्र दोनों को लगा कि शायद यह रिश्ता आगे की पढ़ाई का रास्ता खोल दे। इस तरह इंटरमीडिएट के परीक्षाफल का इंतजार कर रहे देवीदत्त पढ़ाई जारी रखने की आस में दांपत्य जीवन में बंध गए। इंटरमीडिएट के बाद देवी दत्त ने बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी में दाखिला लिया। यहां उन्होंने भौतिकविज्ञान में मास्टर्स डिग्री पाई। ख्यातिनाम विभागाध्यक्ष प्रो. आसुंदी को इस प्रतिभाशाली छात्र से बेहद स्नेह था। देवी उन्हीं के निर्देशन में पीएच डी करना चाहते थे। प्रो. आसुंदी ने वजीफे के लिए तत्कालीन वाइस चांसलर डा. राधाकृष्णन से मिलने का सुझाव दिया। पन्त अर्जी लेकर राधाकृष्णन के पास पहुंचे। राधाकृष्णन स्पांडिलाइटिस के कारण आरामकुर्सी पर लेटकर काम करते थे। पन्त की अर्जी देख उनका जायका बिगड़ गया। बोले- आसुंदी आखिर कितने छात्रों को स्कॉलरशिप दिलाना चाहते हैं। हमारे पास अब पैसा नहीं है। निराश देवी दत्त वापस लौट आए। आसुंदी ने उन्हें ढाढ़स बंधाया और बेंगलूर में रमन साहब के पास जाकर रिसर्च करने को कहा। इस तरह देवराड़ी का देवी दत्त महान वैज्ञानिक सर सी.वी. रमन का शिष्य बन गया।

नैनाताल परिसर की फोटोफिजिक्स लैब प्रो. के नाम से देश की विज्ञान बिरादरी में जानी जाती है। इस लैब से उन्हें बेहद प्यार था। अपनी आधी-अधूरी आत्मकथा की भूमिका में एक जगह उन्होंने लिखा है कि वह मृत्युपर्यंत लैब के अपने कमरे से जुड़े रहना चाहेंगे। लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था। रहस्यमय परिस्थितियों में एक दिन फिजिक्स डिपार्टमेंट का पूरा भवन आग की भेंट चढ़ गया। संभवत: यह फोटोफिजिक्स लैब के अवसान की भी शुरुआत थी। कई वर्षों तक अस्थाई भवन में लैब का अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश की गई। बाद में फिजिक्स डिपार्टमेंट के भवन का पुनर्निर्माण हुआ तो फोटोफिजिक्स लैब को भी अपनी पुरानी जगह मिली। लेकिन अब इसका निश्चेत शरीर ही बाकी था, आत्मा तो शायद आग के साथ भस्मीभूत हो गई। प्रो. पन्त का स्वास्थ्य भी अब पहले जैसा नहीं रहा। वह नैनीताल छोड़ हल्द्वानी रहने लगे। इस लैब ने कई ख्यातनाम वैज्ञानिक दिए और कुमाऊं जैसे गुमनाम विश्वविद्यालय की इस साधनहीन प्रयोगशाला ने फोटोफिजिक्स के दिग्गजों के बीच अपनी खास जगह बनाई। जिस किसी को प्रो. पन्त के साथ काम करने का सौभाग्य मिला, वह उनकी बच्चों जैसी निश्छलता, उनकी बुfद्धमत्ता, ईमानदारी से सनी उनकी खुद्दारी और प्रेम का मुरीद हुए बिना नहीं रहा। निराशा जैसे उनके स्वभाव में है ही नहीं। चाहे वह रिसर्च का काम हो या फिर कोई सामाजिक सरोकार, प्रो. पन्त पहल लेने को उतावले हो जाते। अपने छात्रों को वह अक्सर चुप बैठे रहने पर लताड़ते और आवाज उठाने को कहते। गांधी के विचारों को उनकी जुबान ही नहीं, जीवन में भी पैठे हुए देखा जा सकता है। जो कहते वही करते और ढोंग के लिए कहीं जगह नहीं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि अगर आप अपने विचारों पर दृढ़ रहें तो हताशा, निराशा और दु:ख मुश्किल से मुश्किल हालात में भी आपको नहीं घेरेंगे। बीते 14 अगस्त को प्रो. पन्त 88 वर्ष के हो गए। सेहत ने उन्हें अपने घर तक जरूर बांध दिया है लेकिन आज भी उनमें जिजीविषा की पहले जैसी ज्वाला धधकती है। हमारा समाज उनका रिणी है। गांधी के रास्ते पर चलने वाले प्रो. पन्त का पारिस्थिकी में गहरा विश्वास है। वह अक्सर कहते हैं कि कुदरत मुफ़्त में कुछ नहीं देती और हर सुविधा की कीमत चुकानी पड़ती है। अपने जीवन में उन्होंने बहुत कम सुविधाएं इस्तेमाल कीं लेकिन बदले में उनकी जरूरत से ज्यादा कीमत चुकाई.

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !



बहुत कम आयु में इस दुनिया से चली गईं परवीन शाकिर. एक कार हादसे में मौत के वक़्त वे अपने कैरियर के उरूज पर थीं और उनकी उम्र थी मात्र बयालीस साल. पाकिस्तान की नई पीढ़ी के कवयित्रियों की अग्रणी पांत में शुमार की जाने वाली परवीन ने मोहब्बत में दग़ा पाई स्त्री को अपने सुख़न का हिस्सा बनाया. उसके यहां यह स्त्री कोई विरहिणी नायिका नहीं होती; वह तो टूट जाने के बावजूद आत्मसम्मान से भरपूर है.

कैशोर्य से भरपूर नैसर्गिक रोमांटिसिज़्म और सेन्सुअलिटी से महकती परवीन की शायरी पूरी तरह से इस दुनिया की शायरी है. यह मानवीय कमज़ोरियों और फ़तह की शायरी है. एक शेर देखिये:

"वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की "

बारिश और पानी परवीन की पसंदीदा थीम्स हैं. इन्हीं पर प्रस्तुत हैं परवीन शाकिर की तीन बहुत छोटी छोटी नज़्में:

मौसम

चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है

फ़ोन

मैं क्यों उसको फ़ोन करूं
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी

बारिश

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे ।

Wednesday, June 11, 2008

पं. गोकुलोत्सव महाराज की आवाज़ में राग मेघ



पिछले कुछ दिनों से ख़ूब बारिश हो रही है. अपने संजय भाई ने बारिश के सुन्दर गीत सुनवाए और बारिश के कई आयामों के बारे में बताया. प्रस्तुत है पंडित गोकुलोत्सव महाराज की लहरदार आवाज़ में राग मेघ की एक द्रुत कम्पोज़ीशन:

कविता के बाद कविता पोस्टर

अशोक ने अतुल शर्मा का परिचय और कविताओं से परिचय कराया तो मुझे उनके उस जनगीत की याद आ गई जो उत्तराखंड आंदोलन के वक्त बेहद लोकप्रिय हुआ था। एक तरह से यह उस आंदोलन का घोषणापत्र जैसा कुछ बन गया था। अतुल दा हम सबके आदरणीय हैं उन्हें याद करते हुए यह कविता पोस्टर...
अशोक पांडे ने एक जमाने में खूब-खूब कविता पोस्टर बनाए थे। उन दिनों की याद दिलाते हुए आग्रह है कि भाई साब अपने चाहने वालों को उनके भी दर्शन कराओ ।

Tuesday, June 10, 2008

राजधानियां नहीं होतीं पानी की



बहुत साल पहले अपने एक शानदार संगीतकार मित्र जगमोहन जोशी उर्फ़ मन्टू से एक गीत सुना था:

"नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूं.
मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही ही रुबाई हूं."

धुन बहुत कर्णप्रिय थी और शब्द बढ़िया. गीत में आगे नदी समुन्दर से कहती है कि वह उसकी चाहत में ऊंचाइयों का अकेलापन छोड़ कर आई है सो उसने उसे तमाम गहनों से सजाना चाहिये. नये गहनों की फ़ेहरिस्त में नदी अन्त में जोड़ती है:

"लहर की चूड़ियां पहना, मैं पानी की कलाई हूं."

पानी की कलाई को लहर की चूड़ियां पहनाने की बात करने वाला यह प्यारा इन्सान मेरा अज़ीज़ दोस्त अतुल शर्मा है. देहरादून में रहता है और स्वाभाविक रूप से कवि है. 'जवाबदावा' नाम से उसका एक उपन्यास कुछ साल पहले शाया हुआ था. टिहरी बांध, मालपा त्रासदी, उत्तराखण्ड आन्दोलन और तमाम सामयिक विषय उसके गीतों के विषय बनते हैं और ये गीत जुलूसों, फ़ैक्ट्रियों के बाहर, आन्दोलनों और जनता के बीच लगातार गाये जाते हैं. संक्षेप में कहूं तो अतुल संभवतः इस समय हिन्दी के अग्रणी गीतकारों में है. जगमोहन जोशी उर्फ़ मन्टू, जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है, अतुल के गीतों को लम्बे समय से धुनों में ढाल रहे हैं और दो अलबम भी निकाल चुके हैं.

गीतकार अतुल असल में बढ़िया कवि भी है और ख़ूब कविताएं लिखता है. आज आपको अतुल शर्मा की दो कविताओं से परिचित करवाता हूं. उनकी कुछ और कविताएं आपको बाद में भी पढ़वाऊंगा:

कुर्सियां

ख़ाली कुर्सियां
आराम से बैठी हैं कमरे में

कमरे
उनके लिये कुर्सियां हैं

कुर्सियां
किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं

लोग बैठते हैं
कुर्सियों की गोद में

कुछ उन पर सो जाते हैं

एक पाया टूटने से पहले तक
कुर्सियां कुर्सियां रहती हैं
उसके बाद वे सरकार हो जाती हैं

पेड़ की डाल पर
कुर्सी की तरह बैठो बच्चो
यह कुर्सी सबसे ठीक है
-इसकी जड़ें हैं.

छोटा सा गांव खाड़ी, छोटी सी नदी ह्यूंल

समुद्र में देखा मैंने ह्यूंल का पानी
आंखों की खाड़ी में भी दिखा पानी
राजधानियां नहीं होतीं पानी की
पानी की होती हैं खाड़ियां

खाड़ी के कटोरे में पानी
ह्यूंल का पानी
अरण्यों के बीच से शिखरों की बांहों में
जो कुछ पलता है
वो समुद्र में दिखा
आग उसी ह्यूंल की वजह से है.

(खाड़ी: टिहरी के नज़दीक एक गांव, ह्यूंल: इसी गांव के बगल में बहने वाली छोटी सी नदी)

Sunday, June 8, 2008

यू नेवर काउन्ट योर मनी व्हैन यू आर सिटिंग एट द टेबल



१९३८ में जन्मे अमरीकी लोकगायक-गीतकार-फ़ोटोग्राफ़र-प्रोड्यूसर और अभिनेता केनी रोजर्स एक लोकप्रिय नाम है. एक गायक के रूप में केनी बहुत सफल रहे हैं और कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त कर चुके हैं. बीबीसी रेडियो के स्टीव राइट को एक बार साक्षात्कार देते हुए उन्होंने 'द गैम्बलर' को अपना सर्वप्रिय गीत बताया था.

आज कबाड़ख़ाने पर वही गीत सुनिये. गीत में एक अनुभवी बूढ़ा जुआरी युवा केनी को जुआ खेलने के सम्बन्ध में बहुत गहरे रह्स्यों से रूबरू कराता चलता है.

गरमियों की एक शाम 'कहीं नहीं' की तरफ़ जा रही एक ट्रेन में थके हुए केनी को एक थका हुआ जुआरी मिलता है. काफ़ी कोशिशों के बाद भी नींद नहीं आती और ऊब से आजिज़ आकर जुआरी केनी से बोलना शुरू करता है. गो उसके पास बताने को बहुत कुछ है पर जुआरी मंजा हुआ है और केनी को फ़ोकट में कतई राय देने के मूड में नहीं है. राय देने से पहले वह केनी की बोतल की बची हुई व्हिस्की खत्म करता है. सिगरेट सुलगाने के लिये माचिस मांगता है और अपने चेहरे को भावहीन बना चुकने के बाद केनी से कहता है: बच्चे, मैं देख रहा हूं कि खेलते वक़्त तुम्हारे पास इक्कों की हमेशा कमी रहती है. अगर जुआ खेलना ही हो तो सही से खेलना आना चाहिये. इसके बाद वह जुए के मूलभूत नियम गिनाना शुरू करता है:

-आपको पता होना चाहिये पत्तों को कब थामा जाय
-आपको पता होना चाहिये पत्तों को कब मोड़ा जाय
-आपको पता होना चाहिये कब खेल से उठ जाना चाहिए
-आपको पता होना चाहिये कब खेल से भाग खड़े होने का वक़्त आ गया है
-आपने जुआ खेलते हुए अपनी रकम कभी नहीं गिननी चाहिये (उसके लिये बाद में, बाज़ी निबट चुकने पर पर्याप्त समय होगा)

... मेरी बकबक अब खत्म. केनी रोजर्स को सुनिये



On a warm summers evenin on a train bound for nowhere,
I met up with the gambler; we were both too tired to sleep.
So we took turns a starin out the window at the darkness
til boredom overtook us, and he began to speak.

He said, son, Ive made a life out of readin people's faces,
And knowin what their cards were by the way they held their eyes.
So if you dont mind my sayin, I can see you're out of aces.
For a taste of your whiskey I'll give you some advice.

So I handed him my bottle and he drank down my last swallow.
Then he bummed a cigarette and asked me for a light.
And the night got deathly quiet, and his face lost all expression.
Said, if you're gonna play the game, boy, ya gotta learn to play it right.

You got to know when to hold em, know when to fold em,
Know when to walk away and know when to run.
You never count your money when you're sittin at the table.
There'll be time enough for countin when the deal is done.

Now evry gambler knows that the secret to surviving
Is knowing what to throw away and knowing what to keep.
'cause evry hands a winner and every hands a loser,
And the best that you can hope for is to die in your sleep.

So when hed finished speaking, he turned back towards the window,
Crushed out his cigarette and faded off to sleep.
And somewhere in the darkness, the gambler, he broke even.
But in his final words I found an ace that I could keep.

You got to know when to hold em, know when to fold em,
Know when to walk away and know when to run.
You never count your money when youre sittin at the table.
Therell be time enough for countin when the dealins done.

You got to know when to hold em, know when to fold em,
Know when to walk away and know when to run.
You never count your money when youre sitting at the table.
Therell be time enough for counting when the dealins done.

Saturday, June 7, 2008

प्रेम की माला जपते-जपते आप बनी मैं श्याम

कुछ दिनों पहले मैंने आपको नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब की यह बेहतरीन क़व्वाली सुनवाने की दो दफ़ा कोशिश की थी लेकिन तकनीकी कारणों से पूरी कभी नहीं सुनवा सका.

फ़ितरत में ज़िद की मात्रा थोड़ा ज़्यादा होने के कारण मैं अपने कबाड़ी टोटके आजमाता रहा और आख़िरकार इसे पूरी तरह अपलोड कर सका.

विमल भाई, संजय भाई और उदय प्रकाश जी और आप सभों के वास्ते की जा रही एक ख़ास पेशकश. आनन्द लीजिये.


boomp3.com

(अवधि: आधे घन्टे के आसपास)

Thursday, June 5, 2008

विजयशंकर चतुर्वेदी की कविता



विजयशंकर चतुर्वेदी आज़ाद लब नाम से एक लोकप्रिय ब्लॉग का संचालन करते हैं, बम्बई में रहते हैं और मीडिया से जुड़े हुए हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक कविता 'एलबम'.

घर-घर में पाए जाने वाले एलबम और तसवीरें बीसवीं सदी की कविता के विषय बनने शुरू हुए: विश्व कविता के और भारतीय कविता के भी. शिम्बोर्स्का, रूज़ेविच, वास्को पोपा से लेकर असद ज़ैदी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, बशीर बद्र और तमाम हिदी कवियों ने एलबमों और फ़ोटोग्राफ़ों पर कविताएं रची हैं.

विजयशंकर की यह कविता जिस तरह अपनी मन्द चाल में चलते-चलते अचानक एक आशातीत उड़ान भर लेती है, उसने मुझे एकबारगी हकबका दिया था. यहां यह समझ लेना जल्दबाज़ी होगी कि विजयशंकर एक महाकवि का नाम लेकर 'नेमड्रॉपिंग' जैसा कुछ कर रहे हैं. असल में जो उन्होंने किया है वह बताता है कि कविता अब भी क्या-क्या कर सकती है. और सबसे बड़ी बात यह है जैसा कि सारी अच्छी कविताओं के साथ होता है, असल कविता को पाने और समझने के लिये कविता से परे जाना होता है.


एलबम

यह अचकचाई हुई-सी तस्वीर है मेरे माता-पिता की
क़िस्सा है कि इसे देख दादा बिगड़े थे बहुत.

यह रही झुर्रीदार नानी मुझे गोद में लिए हुए
खेल रहा हूँ मैं नानी के चेहरे की परतों से
फौज़ी वर्दी में यह नाना हैं मेरे

इनके पास खड़ी यह बच्ची माँ है मेरी
फिर मैं हूँ स्कूल जाता थामे माँ की उँगली.

एक धुंधली तस्वीर है बचपन के साथी की
साँप के काटने से जब मरा बहुत छोटा-सा था.

इस फ़ोटो में यह दुबली लड़की बहन है मेरी
दिखती है खिड़की से जाने किसकी राह देखती
यह मैं हूँ और पत्नी उदास घूंघट में
ठीक बाद में यह है उसका बढ़ा हुआ पेट
फिर तीन-चार तस्वीरें हैं हमारे बाल-बच्चों की.

कुछ तस्वीरें ऐसी भी हैं इस एलबम में
जिन्हें देखने की दिलचस्पी अब किसी में नहीं बची
ये सब साथ-साथ पढ़ने-लिखने वाले लड़के थे.

आख़िर में तस्वीर लगी है एक बहुत बूढे बाबा की
कान के पीछे हाथ लगाए आहट लेने की मुद्रा में
यह बाबा नागार्जुन है.



(बाबा नागार्जुन का फ़ोटो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 'नागार्जुन रचनावली' से साभार)

Wednesday, June 4, 2008

आज के दैनिक हिन्दुस्तान में कबाड़ख़ाना

आज के दैनिक हिन्दुस्तान में कबाड़ख़ाने पर रवीश कुमार का आलेख छपा है. देखिये:



(इमेज पर क्लिक करने से वह अपने वास्तविक साइज़ में नज़र आने लगेगी)

वैसे यह रहा लेख:


ज़िन्दगी के कबाड़ की कीमत

पेप्पोर रद्दी पेप्पोर चिल्लाते-चिल्लाते अशोक पांडे का यह ब्लॉग कबाड़वाद फैला रहा है. इस ब्लॉग पर जो भी आता है, उसका कबाड़ीवाला कहकर स्वागत किया जाता है. वीरेन डंगवाल हों या उदय प्रकाश, ये सब कबाड़ीवाले हैं

कबाड़ीवाले के शोर के बीच जब इस ब्लॉग पर पंडित छन्नूलाल मिश्र की राग यमन में गाई गंगा स्तुति सुनाई पड़ती है, तब लगता है कि कहीं आ गए हैं. कबाड़ीवाले के ठेले के पीछे चलते-चलते किसी खजाने का दरवाज़ा खुलने लगता है. इस ब्लॉग का पहले तो पता जान लीजिए - http//:kabaadkhaana.blogspot.com . इससे पहले कि आप कबाड़खाने में पंडित जसराज और पंडित छन्नूलाल मिश्र की तान से बेसुध हो जाएं एक और कबाड़ी सुन्दर चन्द ठाकुर की बेरोज़गारी पर लिखी कविता गूंजने लगती है. बेरोज़गारी पर अब न तो फ़िल्में बनती हैं न कोई कविता लिखी जाती है. एक बार एनडीटीवी इंडिया के एक इंटरव्यू में मनोज वाजपेयी से जब यह पूछा गया कि आप किस तरह के किरदार करना चाहेंगे, तो जवाब था - बेरोज़गारी, जिसे सबने भुला दिया है. मनोज वाजपेयी को एक बेरोज़गार की आत्मकथा बनती सुन्दर चंद ठाकुर की कविता पढ़नी चाहिये. जहां एक बेरोज़गार कह रहा है-

मैं क्यों चाहूंगा इस तरह मरना
राष्ट्रपति की रैली में सरेआम ज़हर पी कर
राष्ट्रपति मेरे पिता नहीं
राष्ट्रपति मेरी मां नहीं
ये बचाने नहीं आएंगे.

दर असल, यही मुश्किल और खूबी है कबाड़खाना की. आप जब कबाड़खाना की बात करेंगे तो बात कवियों, किताबों, गायकों, छायाकारों और उभरते लेखकों जिनकी रचनाएं छपने से पहले कबाड़ बनती रहती हैं, इन सब की करेंगे. कबाड़खाने का एक कोना है किताबों पर. पर्वतारोहण पर रेने दॉमाल की लिखी एक किताब 'माउन्ट एनालॉग' की चर्चा हो रही है तो कहीं जिम कॉर्बेट की 'माई इन्डिया' का पहला पन्ना परोस दिया गया है. लगता है कबाड़ीवाला अशोक पांडे अपने भीतर के पहाड़ों में उत्तराखण्ड की चोटियों से झांकने की कोशिश करते रहते हैं. जब भी पहाड़ से उतरते हैं कबाड़वाद का झंडा उठा लेते हैं. कबाड़वाद का बाकायदा एक संविधान है. कहते हैं दुनिया के सबसे खादू और बर्बादू देश अमेरिका की कोख में जन्मा है कबाड़वाद (फ़्रिगानिज़्म). कबाड़ीवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था में उत्पादित चीज़ों को कम से कम लेना चाहते हैं. फ़र्स्ट हैंड तो बिल्कुल नहीं. ये लोग प्राकृतिक संसाधनों सी उतना भर लेना चाहते हैं जितना कुदरत ने उनके लिये तय किया है. अब आप जान गए होंगे कि अशोक पांडे का कबाड़वाद सिर्फ़ 'पेप्पोर, रद्दी पेप्पोर' की आवाज़ के पीछे नहीं जाता है. इसीलिये वे एक आधिकारिक विज्ञापन भी छापते हैं. राही मासूम रज़ा की एक पंक्ति से -

हम ख़ून-ए-जिगर लेकर बाज़ार में आये हैं
क्या दाम लगाएंगे लफ़्ज़ों की दुकां वाले

महंगाई के मारे हम भारत के उपभोक्ता लोगों को दूसरे तरह से आईना दिखाने का नाम है कबाड़वाद. भारत में फ़्रिगानिज़्म यानी कबाड़वाद आधिकारिक तौर पर भले ही न फैला हो, लेकिन करोड़ों भारतीय आज भी किसी के छोड़े हुए कपड़े, जूते और बक्से का इस्तेमाल करते हैं. घरों में बड़े भाई की कमीज़ छोटा भाई पहनता है. पुरानी दिल्ली के चोर बाज़ार में हमने कई लोगों को हवाई जहाज़ की कटलरी खरीदते देखा है. चोर बाज़ार ही तो कबाड़वाद है. प्रकृति को उत्पादन और उपभोग की मार से बचाने का एक वाद. कबाड़ख़ाना को देखकर लगता है कि हिन्दी में अभी कितना कुछ किया जा सकता है. आईडिया की तलाश में मर रहे कवियों, संपादकों, प्रकाशकों और न्यूज़ चैनल के रिपोर्टरों को यहां आकर घूमना चाहिये. कबाड़ीवाले के पास बहुत कुछ है. हिन्दी के कबाड़ियों की दुकान नहीं है यह ब्लॉग. यहां आपको मैक्सिको की एक आवाज़ भी सुनाई देती है. आना गाब्रीएल की आवाज़. दुनिया भर में घूमने वाले अशोक पांडे आना का एक मशहूर गाना पेश करते हैं - लूना. इसी के साथ यह भी बताते हैं कि जिस तरह हिन्दी फ़िल्मों में एक खास तरह की रूमानियत बरकरार है, उसी तरह लातीनी गानों में भी प्रेम, वफ़ा और ज़फ़ा आदि बने रहते हैं. अशोक हिन्दी के ब्लॉग पाठकों का परिचय पॉप जगत के कुछ बेहतरीन गीतों और गायकों से भी कराते हैं. गानों के अनुवाद करते हैं. गायक का परिचय देते हैं. हम सब मशहूर पॉप गायक हूलियो इगलेसियास को नहीं जानते होंगे. सिर्फ़ इतना जानते हैं कि पॉप संगीत को बिना सुने-समझे भी गरियाया जाता है.

कबाड़ीवाले का यह ठेला पता नहीं कहां-कहां से माल लेकर आ गया है. ऐसा रेंज वाकई कबाड़ी के ठेले में ही मिलेगा. कप के टूटे टुकड़े से लेकर आधी बची चॉकलेट और वो खिलौना भी, जिससे अब भी खेला जा सकता है.

Tuesday, June 3, 2008

हुकुम सदर की फन्टश फूं

बीसेक साल पुरानी बात होगी. नैनीताल में पढ़ते हुए जब भी मौका मिलता था हम दो - चार दोस्त अक्सर रानीखेत की तरफ़ निकल जाया करते थे. रानीखेत से हम दोस्तों का अपनापा नैनीताल में पढ़ने वाले अपने दीप भाई की वजह से पैदा हुआ था और अब भी क़ायम है. दीप भाई रानीखेत के एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखते हैं.

ख़ैर उन दिनों नैनीताल में पढ़ाई करते हुए, हमारी आवारागर्दी में शराब नामक तत्व की नई नई घुसपैठ हुई थी और झूठ क्यों कहूं उसमें काफ़ी मज़ा आने लगा था. शराब महंगी होती थी और पैसे नहीं होते थे. जैसे तैसे महीने में एकाध बार 'मिलौचा' करके चार-पांच यार लोग अद्धा खरीद लाते थे. उसी में बाका़यदा पार्टी हो जाया करती थी. तलब अलबत्ता हमेशा अधूरी ही संतुष्ट हो पाती थी.

इन विषम परिस्थितियों में दीप भाई रानीखेत में मिलने वाली इफ़रात दारू का आईना झलकाते झलकाते हमें जब तब वहां ले जाया करते थे. रानीखेत में कुमाऊं रेजीमेन्ट का मुख्यालय है और रानीखेत शहर देश के बचे-खुचे कैन्टोनमेन्टों में है. जाहिर है फ़ौजी भाइयों की मेहरबानी से सस्ती दारू की सप्लाई वहां सदैव ज़ोरों पर रहती है. यह शराब सस्ती होने के साथ साथ बिना मिलावट की भी होती थी. सुधीजन 'आर्मी की है' जुमले का महात्म्य समझते होंगे.

रानीखेत क्लब में हर बृहस्पतिवार को सिविलियनों के लिये चार बोतलें ऑफ़ीसर्स मैस से आती थीं. क्लब में एकाध साल पहले आग लगी थी और वह बिल्कुल उजड़ा हुआ रहा करता था. सन १९३२ से वहां काम कर रहे बहादुरदा (जो नब्बे से ऊपर के हो चुकने के बावजूद आज भी कार्यरत हैं) नाप नाप कर चार रुपये प्रति पैग के नियत रेट पर तबीयत हरी करने का सत्कर्म किया करते थे. चूंकि क्लब वीरान रहा करता था सो ज़्यादातर लोग वहां आग लगने के बाद से आना बन्द कर चुके थे और बृहस्पतिवार के इस कार्यक्रम की ख़बर बहुत गोपनीय तरीके से कुछ ही लोगों को मालूम थी. इस ख़बर को जानने वाले भाग्यशालियों में दीप भाई के कारण हम भी शामिल थे.

अक्सर बृहस्पतिवारों को हम लोग किसी न किसी बहाने से रानीखेत निकल जाया करते थे. बृहस्पतिवार की आधी रात को क्लब से मीठी नीमबेहोशी में बाहर निकलना रूटीन में शुमार हो गया था. हम लोग अक्सर वापस दीप भाई के घर की तरफ़ पैदल जाते हुए आर्मी स्कूल और एम ई एस कॉलोनी के आगे से गुज़रते थे. पहरेदार गश्त लगाया करते थे और हमें दूर से आता देख कर पहले सीटी बजाते थे, फिर ज़ोर से कुछ शब्द कहते थे और हमें नज़दीक से देख लेने के बाद उनका व्यवहार सामान्य हो जाता था. उनके बोले गये शब्द शुरू में मेरे ज़रा भी पल्ले नहीं पड़ा करते थे. असल में जानने की न ताब होती थी न इच्छा.

बाद में ध्यान देने पर अस्पष्ट तरीके से 'हुकुम सदर की फन्टश फूं' जैसा कुछ लगातार सुनाई देने लगा. अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण यह काफ़ी आकर्षक लगने लगा.

एक बार मैं इस बात का ज़िक्र कई साल बाद अपने एक कर्नल दोस्त से कर बैठा. वह सुनकर हंसते हंसते दोहरा हो गया. सामान्य हो चुकने के बाद उसने जो बताया उसका सार कुछ यूं था:

इंग्लैण्ड में युद्ध के समय, रात को अपनी छावनियों की पहरेदारी कर रहे सैनिक को जब भी किसी तरह की मानवीय आहट सुनाई देती थी तो वह पूछा करता था : "Who comes there? Friend or foe?" इस की प्रतिक्रिया में दूसरी तरफ़ से मिलने वाले के उत्तर पर ही पहरेदार की अगली कार्रवाई निर्भर किया करती थी.

"Who comes there? Friend or foe?" ही इस पोस्ट के शीर्षक का ध्वन्यानुवाद है.

हू इज़ अफ्रेड ऑफ़ सचिन तेन्दुलकर




सुर्ख़ियों में बने रहना दिएगो मारादोना की फ़ितरत का हिस्सा रहा है. चाहे १९८६ के फ़ुटबॉल विश्वकप के क्वार्टर फ़ाइनल में इंग्लैण्ड के खिलाफ़ 'हैण्ड ऑफ़ गॉड' वाला गोल हो, चाहे पेले को लेकर की गईं खराब टिप्पणियां हों या रिटायरमेन्ट के बाद ड्र्ग्स और नशे में गहरे उतर जाना हो, मारादोना चाहे-अनचाहे दुनिया भर के समाचारों पर छाये रहे हैं. वे निस्संदेह पिछली सदी के महानतम फ़ुटबॉलरों में थे. जो भी हो, उनके खेल का मैं बड़ा प्रशंसक हूं.

मेरे एक मित्र हैं हरमन. विएना में रहते हैं, फ़ुटबॉल के दीवाने हैं और मारादोना को भगवान मानते हैं. हरमन ने मुझे ऑस्ट्रिया से अभी एक फ़िल्म भेजी है. मारादोना पर बनी सर्बिया के लोकप्रिय फ़िल्मकार एमीर कुस्तुरिका की यह डॉक्यूमेन्ट्री अभी अभी समाप्त हुए कान फ़िल्म समारोह में दिखाई गई. डेढ़ घन्टे की इस फ़िल्म ने माराडोना की मेरी अपनी बनाई छवि को ध्वस्त करते हुए कई नई बातें बताईं.

अपने देश अर्जेन्टीना में मारादोना एक 'कल्ट' का नाम है, उनके चाहनेवालों ने उनके चर्च बना रखे हैं और खास तरह की प्रार्थनाएं भी. इन चाहनेवालों के कुछ हंसोड़ दृश्य फ़िल्म के शुरुआती हिस्से में हैं.

मारादोना के ड्र्ग्स के इस्तेमाल करने और उस जाल से सफलतापूर्वक बाहर आने की लम्बी जद्दोजहद की दास्तान भी इस में है. इसके अलावा वे एक प्यारभरे पिता भी हैं: उनकी दो पुत्रियों के साथ उनके संबंधों की ईमानदारी बहुत मार्मिक तरीके से फ़िल्म में देखने को मिलती है.

फ़िल्म के एक दृश्य में मारादोना फ़िदेल कास्त्रो का अपना टैटू दिखाते हैं और बहुत संजीदगी से कहते हैं कि वे प्रिन्स चार्ल्स से कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और यह भी कि वे जॉर्ज बुश से बेपनाह नफ़रत करते हैं. अपनी बेबाकी के लिये 'बदनाम' मारादोना अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को "मानव कूड़े का हिस्सा" कहने में भी नहीं हिचकते. यह हिस्सा देखने के बाद मुझे अहसास हुआ कि दिएगो मारादोना असल में एक अलग मिजाज़ का चैम्पियन खिलाड़ी है जो इतनी शोहरत पा चुकने के बावजूद अपने विचारों को प्रकट करने में नहीं हिचकता. जाहिर है इस तरह के व्यक्तित्वों से आज का अमरीकी बाज़ारवाद डरता भी है और उनके बारे में कुप्रचार करने में बिल्कुल देरी नहीं करता.

मुझे यक़ीन है इस फ़िल्म के बाद सारे संसार में मारादोना को उनके विवादों की ही वजह से नहीं बल्कि राजनैतिक सजगता के लिये भी जाना जाने लगेगा और उनके प्रशंसकों की तादाद और भी बढ़ती चली जाएगी.

कान फ़िल्म समारोह में जब पत्रकारों ने उनसे बुश वाले दृश्य को लेकर सवालात किये तो मारादोना ने साफ़ साफ़ उत्तर दिया: "जब आपको दुनिया जानने लगती है तो आपको बुश या अमरीका के बारे में कुछ भी कहने की अनुमति नहीं होती. ऐसे और भी बहुत से निषिद्ध विषय होते हैं. जब यह फ़िल्म बन रही थी तो निर्देशक एमीर कुस्तुरिका ने मुझे सिखाया कि किसे कितनी इज़्ज़त दी जानी चाहिये. आप चाहे कितने ही मशहूर फ़ुटबॉलर या और कोई खिलाड़ी क्यों न हों, आपको एक हत्यारे व्यक्ति के बारे में अपने विचार व्यक्त करने का पूरा अधिकार है."



पुनश्च: इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मेरे पास दो हितैषियों के फ़ोन आ गये हैं कि शीर्षक और कथ्य में ज़रा भी साम्य नहीं है और शायद मुझ से कोई भूलचूक हो गई है. तो साहेबान! कहीं कोई भूलचूक नहीं हुई है. अमरीकी नाटककार एडवर्ड एल्बी के मशहूर नाट्क 'हू इज़ अफ़्रेड ऑफ़ वर्जीनिया वूल्फ़' के शीर्षक से प्रेरित है मेरी पोस्ट का शीर्षक. अब 'हू इज़ अफ़्रेड ऑफ़ वर्जीनिया वूल्फ़' क्या है, मत पूछियेगा प्लीज़.

Sunday, June 1, 2008

और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं



बेग़म अख़्तर की आवाज़ में फ़िराक़ गोरखपुरी की एक मशहूर ग़ज़ल.



सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क़-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

यूं तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़
मगर ऐ दोस्त, कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

मुदते गुज़रीं तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं

मुंह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़'
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

(सौदा:पागलपन /सनक, तर्क़-ए-मोहब्बत: प्रेम का त्याग