Friday, July 31, 2009

हाल ऐसा नहीं के तुमसे कहें

पिछले कुछ महीने वेक्यूम में गुज़रे हैं और अगले कुछ और भी ऐसे ही कटेंगे। मैं सफ़ेद भालू भी नहीं कि जान सकूँ यह एकरसता कब ख़त्म होगी। सन्नाटा इतना भीषण है और उसपर ये बेआवाज़ तिरते बादल, जो बेहया की तरह बिन बरसे चले जाते हैं। न सूरज ही दीखता है न पानी ही बरसता है। उसपर काम; जितना काम उससे ज़्यादा काम की चिंता। आज ही मेरी एक क्लाइंट ने लिखकर भेजा है "I am starting to lose the will to live"। जब उनका ये हाल है तो अपनी क्या बिसात?

दो शेर दो अलग अलग मूड के:

"हो जाऊंगा पल भर में मादूम मुझे देखो
एक डूबती कश्ती हूँ, एक टूटता तारा हूँ"

और

"मर्ग इक मांदगी का वक़्फ़ा है
यानी आगे चलेंगे दम लेकर"

फिलहाल तो पिछले कुछ दिनों से फरीदा आप की शरण हूँ... आगे का आगे देखेंगे क्योंकि हाल ऐसा नहीं कि तुमसे कहें...




हाल ऐसा नहीं के तुमसे कहें
एक झगड़ा नहीं के तुमसे कहें

ज़ेर-ऐ-लब आह भी मुहाल हुई
दर्द इतना नहीं के तुमसे कहें

सब समझते हैं और सब चुप हैं
कोई कहता नहीं के तुमसे कहें

किससे पूछें के वस्ल में क्या है
हिज्र में क्या नहीं के तुमसे कहें

अब खिजां ये भी कह नहीं सकते
तुमने पूछा नहीं के तुमसे कहें

हम और हमारे आसपास प्रेमचंद की मौजूदगी

हम लोग उत्सव - धर्मी लोग हैं हर अवसर को उत्सव और समारोह में बदल देने के अभ्यस्त।

आज प्रेमचन्द जयंती है। आप सुविधा के लिए चाहें तो मुंशी प्रेमचंद ,उपन्यास सम्राट प्रेमचंद या कहानी सम्राट प्रेमचंद भी कह सकते हैं और अपने उत्सव- धर्मी मन को बहलाने के लिए आज के दिन कोई गोष्ठी, कोई मीटिंग , कोई रचना पाठ आदि - इत्यादि का आयोजन कर सकते हैं और जैसी की परंपरा है 'उनके बताए रास्ते पर चलने का संकल्प' लेने की बात कर सकते हैं. जयन्तियों पर शायद / अक्सर ऐसा ही होता है. रास्ते बताए जाते हैं और उन पर चलने के संकल्प लिए जाते हैं. चलना तो अगला कदम है क्या हमें सचमुच पता होता है कि 'उनका ' बताया रास्ता क्या है ? कौन - सा है??

प्रेमचंद का बताया रास्ता क्या है ? कौन - सा है??

आज प्रेमचन्द जयंती है। कल शाम को ऐसा लगा कि कुछ लिखना चाहिए और लिखने के वास्ते जरूरी है कि कुछ पढ़ना चाहिए या पुराने पढ़े को गुनना - बुनना चाहिए. बहुत देर तक अपने निजी कबाड़खाने में किताबें ,पत्रिकायें, फाइलें पलटता रहा. 'कबाड़खाना' पर पिछले साल 'इसी अवसर पर लगाई अपनी पोस्ट का अवलोकन भी किया किया और समझ न सका कि ' प्रेमचन्द जयंती के अवसर पर' क्या लिखा जाय! पहले तो सोचा कि किसी किताब का कोई अंश ब्लाग पर लगा ( चेप !) दिया जाय या ' कहानी / उपन्यास कला के तत्वों के आधार पर' उनकी किसी कहानी / उपन्यास का जिक्र कर दिया जाय. अपन भी तो कुछ लिखते -पढ़ते हैं सो 'इस अवसर पर' अपना ही पहले का लिखा और हिन्दी की 'एक महत्वपूर्ण पत्रिका में प्रकाशित' आलेख / निंबंध / शोधालेख / समीक्षा / टिप्पणी को पुन:प्रकाशित कर दिया जाय ताकि सहृदय पाठकों के लाभ हेतु प्रेमचंद के 'व्यक्तित्व और कृतित्व ' पर कुछ प्रकाश पड़ सके ! 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सदगति' कहानियों पर सत्यजित राय द्वारा बनाई गई दो फिल्मों को याद किया और उनके बारे में लिखने की सोची परन्तु सोचता ही रह गया और खाया - पिया , टीवी देखा और सो गया . अपने तईं प्रेमचंद जयन्ती की पूर्वसंध्या पर अपना निजी समारोह ऐसे ही हो गया !

किताबें कुछ कहना चाहती हैं ।क्या हम सुनने को तैयार हैं ? क्या अवकाश है हमारे पास ??

हिन्दी में प्रेमचन्द के ऊपर / बारे में ( उनके द्वारा लिखे गए साहित्य को छोड़ दें तो ) इतना - इतना लिखा गया है कि क्या बतायें कितना लिखा गया है ! इसमें से ढेर सारा सामान तो विश्वविद्यालयों की एम। फिल , पी-एच. डी. आदि उपाधियों के लिए रचित शोध प्रबंध है , विद्यार्थियोपयोगी कुंजियाँ हैं, विद्वान प्राध्यापकों द्वारा समय - समय पर लिखे गए निबन्धों के संग्रह हैं और कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. कुल मिलाकर हमारे पास प्रेमचंद इफरात में हैं और जब से उनकी रचनायें 'फ्री' हुई हैं तब से हिन्दी का लगभग हर प्रकाशक प्रेमचंद साहित्य को छाप - बेच - वितरित कर रहा है फिर भी आइए 'इस अवसर पर' तलाश / पड़ताल करें कि हमारे पास प्रेमचंद की उपस्थिति कितनी और कैसी है?

हमारे आसपास प्रेमचंद की मौजूदगी की मात्रा और परिमाण का प्रमाण क्या है ? कैसा है ?

स्कूल -कालेज के पाठ्यक्रमों में प्रेमचंद मौजूद हैं यह दीगर बात है उन्हें निकालने - हटाने - बदलने की भी कहानियाँ बनती - बिगड़ती रही हैं और इस मुद्दे पर भी खूब विमर्श , बहस , बतकही और झाँय - झाँय हुई है लेकिन क्या ऐसा नही लगता कि पाठ्यक्रमों में प्रेमचंद की मौजूदगी के कारण ( ही !) नई पीढ़ी में प्रेमचंद की मौजूदगी दिखाई दे रही है? हो सकता है यह बात गलत हो और इस 'मौजूदगी' का बायस केवल पाठ्यक्रम मात्र न हो और उन्हें खूब पढ़ा जा रहा हो क्योंकि जब वे खूब छप रहे हैं तो खूब पढ़े भी जा रहे होंगे !!

अभी कुछ देर पहले अखबार आया है जिसमें अवसरानुकूल प्रेमचंद पर कुछ सामग्री है जिसे पढ़ना फिलहाल मुल्तवी कर यह सब ( शायद प्रलाप / एकालाप / बकवास ) लिखने बैठ गया हूँ। बरसों पहले हमारी हिन्दी की किताब में एक निबंध था 'क्या लिखूँ ?' कल शाम से और आज अभी काम पर जाने से पहले अपनी भी हालत यही है कि 'क्या लिखूँ ?' अखबारों में प्रेमचंद जयंती के अवसर पर जो कुछ छपा है उसे पढ़ना है , नहाना - धोना है , काम पर जाना है और लौटती बेर बाजार से कुछ सामान वगैरह भी लाना है और हाँ, शाम को अगर फुरसत मिली तो दो - चार लिखने- पढ़ने वालों को इकठ्ठा कर गोष्ठी आदि करके प्रेमचंद जयंती भी समारोहपूर्वक मनाना है !

बुकशेल्फ में धरीं प्रेमचंद की / प्रेमचंद पर लिखी किताबें काँच की दीवार को चीरकर कुछ कहना चाहती हैं पर अपन को अभी फुरसत नहीं है। हम लोग उत्सव - धर्मी लोग हैं हर अवसर को उत्सव और समारोह में बदल देने के अभ्यस्त !
किन्तु ? परन्तु ?? लेकिन ??? ...........

Thursday, July 30, 2009

पतंगा: एक साझा कविता

पतंगा

दीये की रोशनी
आकार देती है
तुम्हारे चेहरे को
हौले से चूमती है उसे
असलियत से दूरी का कफ़न पहना देती है उसे

पतंगे की तरह नाबीना
मैं उस पर फड़फड़ाता रहता हूं
खोजता हुआ मेरे अपने सपने के भीतर वह गहरा अमृत
मैं जानता हूं वह वहां नहीं है

तब भी तुम वह हो
जिसे दे दी गई है
एक दूसरी आकृति!

जिस से आज़ाद
हो जाने के बारे में
मैं ख़ाब तक नहीं देख सकता!

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मूल अंग्रेज़ी पाठ यह रहा:

Moth

The lamplight,
figures
your face,
lightly kisses it,

Shrouds it from reality.

Moth-blind
I flutter to it
antennae-searching for the deep nectar of my dream ....

I know is not there

Yet, you're someone
have been transfigured ..
into someone !!

That I can't dream
of letting myself
fly free !!

Wednesday, July 29, 2009

बारिश के बाद : स्वर वर्षा

आज अभी
दो दिनों की बारिश के बाद मन बदराया है
कितनी लम्बी तपन के बाद यह
यह सुशीतल समय समीप आया है .
हर ओर हाजिर है हरापन है भरपूर
सचमुच का हरा और सुंदर

वनस्पतियों ने बुझाई है अपनी प्यास
धुले - नर्म - नीले दिख रहे हैं पहाड़
जिन पर बिखरी है अधमुँदे सूर्य की आभा
चहुँदिस फैला है जादुई उजास
आज का यह दिन विशिष्ट
सचमुच खास
क्या यही है सावन है
कवियों - गवैयों - कलाकारों का प्रिय चौमास ?

मैं क्या जानूँ
मुझे क्या पता
मेरे सामने बरसते हुए बादल हैं
और इर्दगिर्द शब्द - स्वर - सौन्दर्य की रसधार !



जा बैरी जा बदरा / ठुमरी मिश्र भैरवी
स्वर : शोभा गुर्टू
अलबम :पापी जिया नहीं माने
तबला :उस्ताद निजामुदीन खान
सारंगी : लियाक़त अली खान
हारमोनियम :पी. वलवलकर

Tuesday, July 28, 2009

लक्षणाओं का लाक्षागृह ...



लक्षणाओं का लाक्षागृह...

(शमशेरियत पे कुछ ग़ैर-सिलसिलेवार नोट्स)


एक निहायत सब्‍लाइम पोएट- गो के कई बुझे हुए ज़मानों ने कभी तसव्‍वुर किया हो, और जो तामीर हुआ, तो दोआबों के दरमियान उसकी आवाज़ हमारी अस्थियों के मौन में डूबी-सी लगी हो...

जिसे शमशेर बुलाते रहे फिर हम ज़मानों तलक ... ज़मानों बाद.

और उसकी संभले क़द वाली वो कविताएं, जो कहीं से भी तुर्श नहीं, तल्‍ख़ नहीं, सब्‍ज़ नहीं ... न कोई कच्‍चा-कसैलापन ... बस, एक बेतरह-सी ढलाई, दरियाओं-सी रवानी, मोम सरीखी छुअन, तांबई रंगतें ... औ' 'दाह का आलोक' ... फ़क़त!

...

हिंदी में शमशेर सरीखा आस्‍वाद का आत्‍मविश्‍वस्‍त और आत्‍मसंयत उद्यम शायद ही किसी ने किया होगा. लेकिन तब भी, वे 'सुख का एकालाप' रचने वाले कवि नहीं हैं. उनकी कविताओं का वो भवन फिर चाहे कितना ही आलीशान, बेमिसाल और अगम्‍य लगे, शमशेर कभी भी बहोत दूर नहीं होते. वे शामिल हैं. वे क़रीबतरीन हैं. इतने पास अपने ... जैसे के स्‍वप्‍न, या सिकता, या फिर सांसों का सूत.

...

शमशेर मिजाज़ी शा'इर हैं ... निखा़लिस मूड के पोएट. ये भी सच है के वो जां'फ़िशानी से ज्‍़यादह लुत्‍फ़ के शा'इर हैं ... एक मुसव्विर ... एक इंप्रेशनिस्‍ट आर्टिस्‍ट. फिर वे ऐंद्रिकता और संयम को एक साथ लेकर आते हैं ... जैसे सुक़ून के साथ आंच को ढाल रहे हों ... जैसे शीशा उतार रहे हों. उनकी कविता अक्‍सर पिघले मोम और पिघले शीशे की कविता लगती है. ढला हुआ रूपाकार और साथ ही संभलता-ठिठकता हुआ. ऐसी आइनेदारी और नज़रदारी (अशोक वाजपेयी के मुताबिक़ 'दृष्टिवत्‍ता') हमने पहले कहीं नहीं देखी. शमशेर जितना हाथ आते हैं, उससे ज्‍़यादा बाहर छूट जाते हैं और यही चीज़ उन्‍हें हमारे लिए और दिलक़श बनाती है. वे बेठोस हैं ... उनके यहां रंग से ज्‍़यादा 'रंगतें' हैं, उजालों से ज्‍़यादा 'उजास'. आहटें, अनुगूंजें हैं ... 'विलंबित-विपर्यस्‍त' ... प्रत्‍यक्ष या प्रत्‍यभिज्ञा से ज्‍़यादा आभासों का आभालोक ...

और रचना की गंभीर प्रयत्‍नसाध्‍य पवित्रता ऐसी के लगता है जैसे वो लक्षणाओं का कोई लाक्षागृह हो...यहां से वहां तक केवल कुंदन ही कुंदन. शायद, इसीलिए मुक्तिबोध को कहना पड़ा था- शमशेर की कविताओं के इस भवन में प्रवेश करते हुए डर लगता है.

लफ़्ज़ उनके यहां 'गौहर' हैं... मोती सरीखी नूर की बूंद. एक-एक लफ़्ज़- अपनी ख़ुदमुख्‍़तारी, अपने सुघड़ विन्‍यास में- अद्वितीय. और तमाम गेप्‍स और पॉज़ेस... अवकाश और अंतराल... उनके स्‍पर्शभर से स्‍पंदित होते, नई रोशनी में निथरते हैं. ऐसा सूक्ष्‍म और 'सजेस्टिव' पोएट हिंदी ने फिर नहीं देखा... ऐसा ज़बानों के दोआब को दिशा और परिष्‍कार बख्‍़शता कवि... जो, अगरचे देखा जाए तो, (और कुछ-कुछ असद ज़ैदी की कहन के मुहावरे में) फ़ैज़ से ज्‍़यादह फ़िराक़ की मेहफ़िल में नज़र आता है, कविता को ख़ामोशी और ख़ामोश-कहनी की तमीज़ सिखाता है, ख़लाओं तक के बारीक़ धागों को रंग और रोशनी बख्‍़शता है और इसके साथ ही जिंदगी और ख्‍़याल में अपनी पोज़ि‍शन साफ़ करने से नहीं कतराता... हिंदी कविता के इतने आग्रहों और आग्रहों के अतिचारों के बीच शमशेर ने जो सर्वमान्‍यता हासिल की है, वो भी कम महत्‍वपूर्ण नहीं है.

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मूल्‍यांकन में मुक्तिबोध उनके सबसे क़रीब पहुंचे हैं... और उनके अलावा, काफ़ी हद मलयज उनकी नब्‍ज़ पर हाथ रख पाने में क़ामियाब हो पाते हैं.

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लेकिन बलवे पे आमादा प्रोग्रेसिव पोएट शमशेर कभी नहीं रहे. उनमें एक ज़हानत है और एक समझ की परदेदारी भी. उनमें संकोच है. हिंदी के प्रगति रथ ने उन्‍हें अपने तीन मूर्धन्‍यों (नागार्जुन और त्रिलोचन समेत) में शुमार किया, फिर भी, कम से कम दो दफ़े ('प्‍लाट का मोर्चा' और 'चुका भी हूं मैं नहीं' की भूमिकाएं) में वे अपनी और अपनी रचना की 'प्रगतिशीलता' पर संकोच जता जाते हैं. ऐसा नहीं है के शमशेर शामिल नहीं हैं, लेकिन वे शोरगुल नहीं मचाते, दूसरे 'सम्‍बद्ध हूं, प्रतिबद्ध हूं' लिखकर बताने की भी ज़रूरत उन्‍हें महसूस नहीं होती. 'समय-साम्‍यवादी' के इस कवि ने अपनी कविता नारों के नुक्‍़ते जोड़कर नहीं बनाई. एक भरोसा रक्‍खा हमेशा अपने भीतर, एक ख़ुदगर्जी और एक पशेमानी. ज्‍़यादह तमगों की दरक़ार उन्‍हें न थी, सो टांगे नहीं. और तोहमतें? ख़ैर...वो हिंदी में किसके हिस्‍से नहीं आई हैं?

पोएटिक नज़रिया और क्रिटिकल रवैया कमोबेश यक़सी चीज़ें ही हुआ करती हैं, ये भी शमशेर ने बड़ी ख़ामोशी से साबित करके दिखा दिया. शमशेर को हिंदी में महत्‍वपूर्ण आलोचक कौन मानेगा, लेकिन क्‍या ये भी सच नहीं कि सप्‍तकों के बाद की हिंदी कविता पर सबसे ऑब्‍जेक्टिव कमेंट अगर किसी का मिलता है, तो वो शमशेर का है (राधाकृष्‍ण से शाया 'कुछ और गद्य रचनाएं' में संकलित). 'चांद का मुंह टेढ़ा है' की भूमिका क्‍या कभी भूली जा सकती है, जिसने मुक्तिबोध की बेचैनी और उनकी अंतरात्‍मा के आयतनों को हमारे सामने उघाड़ दिया था- ऐन चौंसठ के ही साल में. बाख़ के संगीत, पिकासोई कला और अरागां की अवांगार्द सोच वे हमारे सामने लेकर आते रहे. और हिंदी में जिस तासीर के स्‍केच (डायरी नहीं, स्‍केच) शमशेर ने लिक्‍खे हैं, वैसे शायद और कोई नहीं लिख पाया. जहां वे नज़ारे टांकते नहीं हैं, ख़ुद नज़र बन जाते हैं.

...

शमशेर के यहां एक दीर्घ समतल मौन है. सुदूरपन है लयगति. बहुत-बहुत दूर और बहुत-बहुत क़रीब की कोई बात. और फिर, एक अनन्‍य प्रत्‍यक्ष ऐंद्रिक बोध. संवेगों का एक पूरे का पूरा समंदर. रंगों को आंच, दिशाओं को दर्पण और चांदनी को बेठोस वे ही कह सकते थे. 'कवि घंघोल देता है व्‍यक्तियों के जल' वाला ख़याल भी उन्‍हें ही हो सकता था. त्रिलोचन की कविताओं में सरलता का अवकाश और 'नींद ही इच्‍छाएं' सरीखी चीज़ भी उन्‍होंने ही देखी और बयान की. फिर, 'तुम मुझे खोते गए हो/ यही अर्थ है/ समय की चाल का/ बस' और 'हम मिल नहीं सकते/ मिले कि खोए गए' जैसा औपनिषदिक निर्वेद (वैसे... कभी-कभी हिंदी वाले एक मीठी-सी दिल्‍लगी से उन्‍हें 'संत' भी कह लिया करते हैं!) भी वे ही हासिल कर सकते थे, जो के एक ख़ूब पहुंचा हुआ क़ाएनाती इल्‍मो-इलहाम है.

...

वो शमशेर हैं...उदास रंगीनियों और मुबारिक सायों के एक बेमिसाल शा'इर... हमेशा-हमेशा फ़तेहयाब... यक़ीनन!

...

उन्‍होंने हमें और गूंगा बना दिया है!


(चित्र सौजन्‍य : चंद्रकांत देवताले)

प्रचण्ड और भारतीय अख़बारों का सुर

मुद्दा थोड़ा पुराना ज़रूर है मगर अप्रासंगिक नहीं. इसीलिए कबाड़ख़ाने के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है. नेपाल में जिन परिस्थितियों में कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहाल 'प्रचण्ड' ने इस्तीफ़ा दिया उससे एक बड़ी बहस शुरू हुई. यहाँ आनंद स्वरूप वर्मा नेपाल में माओवादियों की सफलता या असफलता की बजाए आपका ध्यान दिल्ली के हिंदी अख़बार और उनके संपादकों की विद्वता की ओर खींचना चाह रहे हैं. पढ़ा जाए.

नेपाल की घटनाओं पर भारतीय मीडिया का रुख अत्यंत शर्मनाक और हास्यास्पद रहा. अखबारों और खास तौर पर हिन्दी अखबारों की संपादकीय टिप्पणियों को देखकर हैरानी होती है और विश्वास नहीं होता कि इतने साहस के साथ कोई कैसे अपनी अज्ञानता को जनता तक पहुंचाता है. आम तौर पर इन टिप्पणियों में यह कहा गया कि प्रचण्ड अपनी जनमुक्ति सेना के ‘लड़ाकुओं’ को नेपाली सेना में भर्ती कराना चाहते थे जिसे कटवाल ने मना किया और फिर प्रचण्ड ने उन्हें बर्खास्त कर दिया.

जाहिर है कि अगर किसी पाठक को यह बात बतायी जा रही हो तो वह कटवाल के पक्ष में खड़ा होगा और प्रचण्ड की इस बात के लिए भर्त्सना करेगा. उसे राष्ट्रपति द्वारा उठाया गया कदम भी अत्यंत तर्कसंगत और न्यायोचित लगेगा. इन संपादकों ने यह बताने की जरूरत नहीं महसूस की कि जनमुक्ति सेना के सैनिकों को राष्ट्रीय सेना में शामिल किए जाने का मामला प्रचण्ड अथवा उनकी पार्टी नेकपा (माओवादी) का मामला नहीं है बल्कि यह नवंबर 2006 में सम्पन्न उस विस्तृत शांति समझौते का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसके आधार पर राजनीतिक घटनाक्रमों का क्रमश: विकास होता गया.

कहने का अर्थ यह कि शांति प्रक्रिया का यह एक महत्वपूर्ण अवयव है. इन संपादकों ने यह भी बताने की जरूरत नहीं महसूस की कि माओवादियों और सरकार के बीच हुए इस शांति समझौते में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि न तो माओवादी और न सरकार तब तक अपनी सेनाओं में कोई नयी भर्ती नहीं करेंगे, जब तक दोनों सेनाओं का एकीकरण नहीं हो जाता. इसका उल्लंघन करते हुए कटवाल ने नेपाली सेना में 3000 लोगों की भर्ती की. दोनों सेनाओं की मॉनिटरिंग करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘अनमिन’ (यूनाइटेड नेशन्स मिशन इन नेपाल) ने प्रधानमंत्री को लिखा कि सेना में नयी भर्तियों को वह रोकें. प्रधानमंत्री ने अपने रक्षामंत्री के माध्यम से कटवाल को इस आशय का निर्देश दिया जिसे मानने से उसने साफ तौर पर मना कर दिया. इस तरह की 5-6 घटनाएं हुई जहां कटवाल ने सरकारी आदेशों की अवहेलना की.

सबसे मूर्खतापूर्ण संपादकीय ‘जनसत्ता’ में देखने को मिला. इसमें बताया गया था कि चूंकि प्रचंड अपने ‘हथियारबंद दस्ते के लोगों’को सेना में शामिल नहीं करा सके इसलिए उन्होंने कटवाल को बर्खास्त कर दिया. इसमें आगे कहा गया है कि “सेना का स्वरूप अपनी मर्जी के मुताबिक ढालने की उनकी जिद को स्वीकार नहीं किया जा सकता था. वरना कल वे यह भी कहते कि वे जो ‘जन अदालतें’ चलाते थे उनके‘न्यायाधीशों’को न्यायपालिका में जगह मिले. राज्यतंत्र के अपने उसूल, नियम और तकाजे होते हैं. कोई पार्टी या सरकार जब इनकी अनदेखी करती है तो निरंकुशता का खतरा पैदा होता है.”

‘दैनिक हिन्दुस्तान’ ने 5 मई 2009 को इस घटना पर जो संपादकीय लिखा उसका शीर्षक था– ‘प्रचंड अराजकता’. इसमें उसने लिखा – “... इस घटनाक्रम ने यह जता दिया है कि गुरिल्ला लड़ाई के लिए अपनाये गये ‘प्रचंड’ उपनाम छोड़कर सौम्य जननायक बनने की उनकी कोशिश दिखावटी थी और चीन व माओवादी दबावों के चलते वे नेपाल को सही नेतृत्व दे पाने में नाकाम रहे हैं. हिंसा और अधकचरी राजनीतिक शिक्षा के साथ महज 20 साल में माओवादी क्रान्ति की महत्वपूर्ण मंजिल पा लेने का भ्रम उन्हें अपने देश और अड़ोस पड़ोस की जमीनी हकीकत समझने नहीं दे रहा था. वे हर कीमत पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सदस्यों को सेना में भर्ती करने पर आमादा थे.” संपादकीय में यह तो स्वीकार किया गया है कि युद्ध विराम समझौते में दोनों सेनाओं का एकीकरण शामिल था और सेनाध्यक्ष इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं थे. बावजूद इसके सेनाध्यक्ष की बर्खास्तगी को संपादक ने प्रचंड की ‘अराजकता’ घोषित किया.

नेपाल के संदर्भ में काफी विचार विमर्श के बाद वहां की सरकार ने और सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर माओवादियों के साथ यह समझौता किया कि दोनों सेनाओं का एकीकरण किया जाएगा.


‘दैनिक जागरण’ ने लिखा कि “कोई भी सेनाध्यक्ष यह स्वीकार नहीं करेगा कि कल तक हिंसा और उपद्रव का खेल खेल रहे लोग सेना का अंग बन जायं.”

‘दैनिक भास्कर’ ने भी माना है कि “सेनाध्यक्ष ने इसका ठीक ही विरोध किया क्योंकि यह सेना के राजनीतिकरण की निकृष्ट कोशिश थी.”

जाहिर है कि इस संपादक को भी जानकारी नहीं है कि सेनाध्यक्ष जिस बात को मानने से इनकार कर रहे थे वह एक राजनैतिक फैसला था और शांति समझौते का महत्वपूर्ण हिस्सा था. ‘राष्ट्रीय सहारा’ का मानना है कि सेना में जनमुक्ति सेना के जवानों को समायोजित कराने के जरिये प्रचंड “अपना राजनीतिक लक्ष्य साध्ने” की उम्मीद कर रहे थे. इसके बाद संपादक ने एक चेतावनी दी है-“प्रचंड सहित सभी माओवादियों को यह समझना चाहिए कि लोकशाही में और वह भी मिली जुली सरकार में अपनी इच्छा लादना संभव नहीं और यह लोकशाही के सिद्धांतों के भी विपरीत है”.

5 मई को ही ‘आज समाज’ के संपादक मधुकर उपाध्याय का ‘नेपाल फिर बेहाल’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने लिखा कि- “... सत्तारूढ़ गठबंधन के घटक दलों के विरोध के बावजूद दहाल ने अपनी पार्टी के कहने पर सेनाध्यक्ष के नाम यह आदेश जारी कर दिया कि पूर्व माओवादी लड़ाकों को सेना में भर्ती दी जाय. सेनाध्यक्ष ने, जाहिर है, इससे इनकार कर दिया और उसकी प्रतिक्रिया में दहाल ने उन्हें पद से हटा दिया...”. इसके आगे मधुकर जी ने बताया है कि किस तरह दुनिया में कहीं भी लड़ाई खत्म होने के बाद लड़ाकुओं को सेना में नहीं लिया जाता है. उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज का भी उदाहरण दिया, जिसके सैनिकों को भारतीय सेना में नहीं शामिल किया गया. अब लेखक से कोई यह पूछे कि आपको इतना रिसर्च करने की जरूरत क्यों पड़ रही है. नेपाल के संदर्भ में काफी विचार विमर्श के बाद वहां की सरकार ने और सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर माओवादियों के साथ यह समझौता किया कि दोनों सेनाओं का एकीकरण किया जाएगा. जाहिर है कि लेखक को न तो इन समझौतों की जानकारी है और न नेपाल में दो सेनाओं के अस्तित्व की संवेदनशीलता से वह वाकिफ हैं.

‘नवभारत टाइम्स’ में संपादकीय टिप्पणी लिखने वाले को यह तो जानकारी थी कि शांति समझौते के तहत विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस शर्त को मान लिया था. इसमें यह भी लिखा गया है कि कटवाल पहले की तरह अपने लिए ‘विशिष्ट अधिकार’ चाहते थे और 'इसके लिए उन्होंने सरकार से टकराव लेने में भी गुरेज नहीं किया. यह एकमात्र ऐसा संपादकीय है जिसमें स्वीकार किया गया है कि “ कटवाल की आड़ में राष्ट्रपति और सारे राजनीतिक दलों ने माओवादियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.”

अधिकांश लापरवाह संपादकों के मुकाबले कुछ ने समस्या को गंभीरता से देखने और उसकी पृष्ठभूमि के अधययन का प्रयास किया है. ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के 5 मई 2009 के संपादकीय के इस अंश को देखें-“...हालांकि माओवादियों को इस बात के लिए दोष दिया जा सकता है कि उन्होंने जल्दबाजी में और एकतरफा ढंग से काम किया लेकिन जनरल कटवाल ने आम तौर पर नागरिक नियंत्रण तथा खास तौर पर शांति प्रक्रिया के संदर्भ में जिस गैर जनतांत्रिक रवैये का प्रदर्शन किया, वह रवैया इस संकट की जड़ में है... जिस समय राजा ज्ञानेन्द्र के खिलाफ संघर्ष अपने चरम पर था सभी राजनीतिक दलों ने सैद्धांतिक तौर पर यह स्वीकार किया कि जनमुक्ति सेना को एक सुधारी और जनतांत्रिक बनायी गयी राष्ट्रीय सेना में मिला दिया जाए. लेकिन अब, जबकि गणराज्य की स्थापना हो चुकी है और नेपाल के संविधान के बनाए जाने का काम आगे बढ़ रहा है, नेपाली कांग्रेस और यहां तक कि नेकपा (एमाले) इस मुद्दे पर पीछे हटने लगी हैं. लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान जनरल कटवाल के रुख से हुआ है.”

इसी संपादकीय में उन घटनाओं का जिक्र है जब जनरल कटवाल ने लगातार सरकारी आदेशों का उल्लंघन किया. संपादकीय ने लिखा कि “कोई भी जनतांत्रिक व्यवस्था सेना प्रमुख की इस अनुशासनहीनता को बर्दाश्त नहीं कर सकती.” इसमें इस खतरे की तरफ भी इशारा किया गया कि शांति प्रक्रिया धवस्त हो सकती है. संपादकीय ने आगे लिखा- “...एमाले और नेपाली कांग्रेस के नेता माओवादियों का विरोध करने के नाम पर इतने अंधे हो गए हैं कि उन्होंने राष्ट्रपति यादव के कृत्य की प्रशंसा की जिसने नेपाल के नवजात जनतंत्र में नागरिक-सैनिक संबंधों के लिए एक खतरनाक नजीर की शुरुआत की है.”

‘दि एशियन एज’ भी अपनी अज्ञानता का परिचय देते हुए वही राग अलापता हुआ नजर आता है जो अधिकांश हिंदी अखबारों के संपादक अलापते रहे हैं. इसने राष्ट्रपति के कदम की इसलिए सराहना की है “ क्योंकि एक सिद्धांत में मजे 20 हजार माओवादियों के सेना में प्रवेश से इस संस्था के अस्थिर होने का खतरा था.”

Monday, July 27, 2009

चलिये रायते पर रायता फ़ैलाया जाए


विभिन्न प्रकार के साधनों की सहायता से टुन्न होने का सत्कर्म करने वालों को रायते का महात्म्य भली भांति मालूम है।

'शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ' लिखने वाले मरहूम शायर मजाज़ साहब पैरोडियां बनाने में एक्सपर्ट की हैसियत रखते थे। एक दावत में उन्होंने रायते पर कई शेर कहे थे। अलग अलग शायरों की स्टाइल में कहे गए थे ये शेर। फैज़ साहब की ज़मीन पर शेर देखें:

"तेरी अन्गुश्त-ऐ-हिनाई में अगर रायता आए
अनगिनत जायके यल्गार करें मिस्ल-ऐ-रकीब"


(यानी अगर तेरी मेंहदी लगी उँगलियों पर रायता लग जाए तो तमाम स्वाद शत्रुओं की तरह आपस में आक्रमण करने लगें।)

ख़ुद अपने एक शेर को मजाज़ साहब ने इस तरह रायतामय बनाया:

"बिन्नत-ऐ-शब-ऐ-देग-ऐ-जुनून रायता की जाई हो
मेरी मगमूम जवानी की तवानाई हो"


फिराक साब की ज़मीन पर फकत एक मिसरा है। साब लोग उसे पूरा कर सकते हैं:

"टपक रहा है धुंधलकों से रायता कम कम ..."

Sunday, July 26, 2009

यह एक राजा की कहानी है...

प्रस्तुत कहानी हिन्दी के ख्यात कवि-गीतकार बालकवि बैरागी ने आज से करीब तीन दशक पहले लिखी थी। हाल ही में हमारे मित्र शिवकुमार विवेक के सौजन्य से इसे पढ़ने का मौका मिला। विवेकजी ने इसे मालवांचल के किसी स्कूल की वार्षिक पत्रिका के पन्नो में तलाशा। हमें लगता है कि इस कहानी को कबाड़खाना की सम्पत्ति बनना चाहिए, सो इसे यहां लगा रहे हैं। भैया बैरागी का सानिध्य कई बार मिला है। उनकी क़िस्सागोई की शैली इस कहानी में साफ देखी सकती है। कहानी की छायाप्रति यहां लगा रहा हूं। पढ़ने में असुविधा हो तो बड़े आकार के लिए तस्वीर पर क्लिक करे। [-अजित वडनेरकर]

Saturday, July 25, 2009

गरजत घन दमकत दामिनी


पंडित गोकुलोत्सव महाराज के स्वर में राग मेघ की यह प्रस्तुति पिछले साल ११ जून को कबाड़ख़ाने में लगाई गई थी. शिकायत आई थी कि अब वह प्लेयर काम नहीं कर रहा. मौसम भी है और दस्तूर भी. इसलिए दुबारा सुनवा रहा हूं.

इस पोस्ट पर भाई संजय पटेल ने यह टिप्पणी कर हमारा ज्ञानवर्धन किया था:

"पूज्यपाद गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज जनवरी में पद्मश्री से नवाज़े गए हैं और विक्रम विश्व-विद्यालय ने उन्हें मानद डॉक्टरेट भी दी है. वे अमीरख़ानी गायकी के सबसे सिध्दहस्त और निकटतम गायकी के गुण-गायक हैं.वे पुष्टीमार्गीय वैष्णव परम्परा मे वरिष्ठ आचार्य हैं.ज़्योतिष, यूनानी,आर्युर्वेदिक चिकित्सा पद्धति और अरबी, फ़ारसी के गूढ़ जानकार हैं. चूँकि पुष्टीमार्ग (श्रीनाथद्वारा परम्परा जहाँ से उपजा है हवेली संगीत) के परम आचार्य हैं अत: बहुत मर्यादित रूप से गायक के रूप में सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरक़त करते हैं. वे मूलत: पखावज वादक रहे हैं और आकाशवाणी के सुनहरे समय में आकाशवाणी संगीत प्रतियोगिता का स्वर्ण-पदक पा चुके हैं.

उस्ताद अमीर ख़ा साहब उसी मंदिर बतौर सारंगी वादक मुलाज़िम थे जहाँ गोकुलोत्सवजी आज आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं उन्होने कभी भी ख़ाँ साहब को प्रत्यक्ष नहीं सुना न दीदार किये. बस युवावस्था में पख़ावज और ध्रुपद गायकी से जुड़ने के बाद अनायास उन्हें मंदिर परिसर में चूड़ीवाले बाजे पर अमीर ख़ाँ साहब मरहूम की ध्वनि-मुद्रिकाएँ को सुनने को मिलीं. बस वे कुछ ऐसे मुत्तासिर हुए इस करिश्माई गायकी को अपनी खरजपूर्ण आवाज़ में अभिव्यक्त करना शुरू दिया . मधुरपिया तख़ल्लुस से वे हज़ार से ज़्याद बंदिशे रच चुके हैं . ये जो रचना आपने सुनवाई है वह भी महाराजश्री की रची हुई है (ध्यान से सुनियेगा आख़िर में उपनाम मधुरपिया आया है) और तराना ख़ुद अमीर साह्ब की बहुचर्चित बंदिश का हिस्स है. ख़ाँ साहब मरहूम ने तराने में कई फ़ारसी रचनाओं का शुमार किया था जिसका रंग आपके द्वारा रचना में है.

ज़िन्दगी अब इन महान साधकों से ही तसल्ली पाती है अशोक भाई. ये बात अलग है अमीर ख़ाँ साहब की तरह हम इन्दौर वाले गोस्वामी गोकुलोत्सवजी का क़द भी पहचान नहीं पाए हैं. न जाने क्या तासीर है इस शहर की कि इन्दौर से बाहर जाने के बाद ही अपने हीरों की चमक का अहसास करता है (अमीर ख़ाँ साहब भी इन्दौर छोड़कर कोलकाता चले गये थे.) अल्लाताला जो करते हैं ठीक ही करते हैं."

यह इत्तेफ़ाक है कि कल ही इन्दौर ही में रहने वाले सुशोभित सक्तावत ने उस्ताद अमीर ख़ान साहेब पर एक अविस्मरणीय आलेख लिखा था. इस पोस्ट में कलकत्ता से प्रियंकर पालीवाल जी ने अपने कमेन्ट में यूट्यूब पर उस्ताद अमीर ख़ां साहेब की जीवनी पर आधारित फ़िल्म्स डिवीज़न की बनाई एक डॉक्यूमेन्ट्री का लिंक दिया था. बेहतरीन फ़िल्म बनी है - अविस्मरणीय! इस डॉक्यूमेन्ट्री की शुरुआत में उस्ताद अमीर ख़ान ख़ां भी इसी राग मेघ की ठीक वही कम्पोज़ीशन गा रहे हैं.

एक दूसरा सुखद इत्तेफ़ाक यह भी माना जाना चाहिये कि कुछ ही दिन पहले भाई संजय पटेल ही ने एक पोस्ट सुरपेटी पर लगाई थी जिसका शीर्षक था: 'यह उस्ताद अमीर ख़ां नहीं गोस्वामी गोकुलोत्सव जी हैं'. इस पोस्ट पर भी ज़रूर जाएं.

फ़िलहाल पंडितजी के स्वर में मेघ सुनिये:



और अमीर ख़ां साहब पर बनी डॉक्यूमेन्ट्री का पहला भाग देखिये:

बस एक ही बार इशारा कर देना मेरी आँखों के फैल गये काजल की ओर


एक शख़्स है जिसकी गहरी और कदाचित तीख़ी टिप्पणियों की भाषा मुझे अपने प्रिय मरहूम शायर हरजीत के एक शेर की याद दिला जाती है:

कुछ तो तुर्शी बयान में रखिये
एक लज़्ज़त ज़बान में रखिए


उनके बारे में और जानने की उत्सुकता हुई तो उनसे सम्पर्क किया. जनाब कहते हैं कि अगर मेरे बारे में कुछ बताना ही लोगों को चाहें अपरिहार्य रूप से इस शेर का ज़िक्र किया जाए:

अपने गुनाहों की सज़ा ढूँढ़ता हूँ
दुनिया में अपना पता ढूँढ़ता हूँ


यह जानकर अच्छा लगा कि साहब कविताएं भी लिखते हैं. और बढ़िया कविताएं. इनकी दो कविताओं पर ज़रा ग़ौर करें. मुझे तो पसन्द आईं.:

इस जनम में सुहाग

हे कंत!
इस जनम में एक बार,
मुझे कोई शि़कायत कोई पछतावा नहीं
पिछले कई जनमों का,
पर इस जनम में एक बार, एक क्षण के लिए, क्षण के सौवें हिस्से के लिए
मुझे अपने पथ पर लिए चलना अपने साथ
एक बार टोकना मुझे कि मेरे वस्त्र अस्त-व्यस्त हैं
बस एक ही बार मेरे सुहाग की बिंदिया को ललाट के ठीक बीचों-बीच कर देना
मेरे हाथों से ग्रहण करते हुए अपने साजो-सामान
एक बार देख लेना मेरी ओर
बस एक ही बार इशारा कर देना मेरी आँखों के फैल गये काजल की ओर
इस जनम में तो झिड़क देना मुझे मेरी लापरवाही के लिए

हे कंत!
इस जनम में तो दिखाना एक झलक
अपनी प्यारी सूरत की
पिछले कई जनमों का तो कोई पछतावा नहीं
पर इस जनम में एक बार, एक क्षण के लिए, एक क्षण के सौवें हिस्से के लिए
मुझे सुहाग देना।


पत्नी से विदा

जनम-जनम से मैंने तुम्हें कराया है इंतज़ार
तुमने ख़ामोशी से देखा-सुना है मेरा कारबार

अब एक उपकार और करो
मेरे क़रीब आओ और मेरे सीने से लगकर
मुझे एक बार और विदा करदो
मुझे चूमने दो अपनी पेशानी कि मेरी शक्ति क्षीण हो गई है
मुझे थोड़ी शक्ति और उठा लेने दो अपनी आँखो से
मुझे अभी और रहना है तुमसे दूर

शायद मेरा यह भटकाव भी आखिरी नहीं हो
अपनी आत्मा का आखिरी हीरा भी मुझे ही देदो तुम
मैं बढ़ रहा हूँ दुःलंघ्य पर्वत श्रृंगों की ओर
मैं गिरने जा रहा हूँ अनन्त में
अपनी झपकियाँ भी मेरे साथ करदो
कुछ मत रखो अपने पास
तुम खुद ही रख दो सब कुछ मेरे सामने
मुझे डर है
शायद मैं फिर तुमसे कुछ माँगने न आ सकूं
मेरे और करीब आ जाओ
मैं जा रहा हूँ हमेशा के लिए, अभी कभी नहीं लौटूँगा
लेकिन इसी उम्मीद के साथ जा रहा हूँ
कि तुम मेरा इंतज़ार करोगी और पलक तक नहीं झपकाओगी
मैं इसी विश्वास से भरा हुआ जा रहा हूँ
कि तुमने सब कुछ दे दिया है मुझे और कुछ नहीं बचा रखा है अपने पास
ओह! मेरे आगोश में समाओ पहली और आखिरी बार
तुम्हारे बालों को सहलाऊँ, देखो छूट ही रहा था अधरों में कुछ रस
इसे भी दे दो, अब तो मुझे तुम्हारी याद भी नहीं आयेगी

ना, अभी कुछ मत कहो
मुझे अभी वक्त नहीं है तुम्हारी बात सुनने को
किसी और के विषय में भी नहीं, तुम खुद ही सम्भालो सब

लो शीघ्रता करो, मुझे तिलक दो
बहुत विलम्ब हो रहा है तुमसे विदा लेने में
अभी मुझे यह भी तय करना है कि जाना कहाँ है!
अभी तो लेनी है तुमसे विदा
और तुमसे विदा लेने में भी इतना विलम्ब कि उफ्फ!....?

ये रचनाएं जयपुर में रहने वाले प्रीतीश बारहठ की हैं. अपने को "राजस्थान सरकार का एक छोटा सा कर्मचारी" बतलाते हैं और "अनपढ़ता की हद तक कम पढ़ा-लिखा". उन्हीं के शब्दों में: " साहित्य के प्रति झुकाव बचपन से ही है, लेकिन बहुत पढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता है। ग़ज़ल के प्रति अधिक झुकाव है। अपने खर्चे पर अपनी एक पुस्तक "सयानी बातें " ग़ज़ल संग्रह के रूप में छपवाई थी, लेकिन उसे देखने वाला मैं या मेरे एक-दो मित्र ही हैं। जयपुर से प्रकाशित लघु पत्रिका "समय माजरा" के किसी अंक में बहुत पहले एक कहानी "रणखेत" प्रकाशित हुई है। बस !

मेरी डायरियों में बहुत सी कवितायें ऐसी भी हैं जो आपत्तिजनक भी हो सकती हैं।

स्कूल, कॉलेज के दिनों में अभिनय भी किया करता था। आज भी यही समझता हूँ कि मैं कविता या कहानी के बजाय अभिनय अच्छा कर सकता हूँ।"

उम्मीद करनी चाहिये कि प्रीतीश अपनी रचनाओं को डायरियों की कैद से शीघ्र मुक्ति दिलाएंगे. और अपनी ग़ज़लें भी लोगों तक पहुंचाएंगे. उनकी अभिनय की आकांक्षा भी शीघ्र पूरी हो, हम कामना करते हैं.

(ऊपर लगी पेन्टिंग मार्गरेट फ़ेन की कृति 'फ़ेयरवैल')

Friday, July 24, 2009

'दिल्ली शहर तें पिशौर नुं जांदिए' उर्फ 'लुच्चों का गीत'



हिन्दी पढ़ने - पढ़ाने वालों की एक अलग दुनिया है जो इसी दुनिया में होते हुए भी अलग - सी है - बहुत कुछ एक बंद दुनिया की तरह . यहाँ संकेत हिन्दी रचनाकार और पाठक वर्ग से नहीं अपितु एक विषय के रूप में हिन्दी अध्ययन - अध्यापन की दुनिया से है जिस पर नामी गिरामी लेखक - संपादक - आलोचक अक्सर साहित्य विरोधी होने का आरोप लगाते रहते हैं और कालेजों - विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों को हिन्दी साहित्य का कब्रगाह करार देने पर आमादा दिखाई देते हैं. इस मुद्दे पर बहुत लम्बी-लम्बी बहसे हो चुकी हैं और बिना किसी नतीजे के स्थगित हो गई दीखती हैं फिर भी इस बात से इनकर नहीं किया जा सकता है कि हिन्दी का जो भी छोटा -सा साहित्यिक संसार है उसमें उतर कर अतीत में झांकने पर कई दिलचस्प बातें मिल जाती हैं ( और इसमें हिन्दी विभागों की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है ) मसलन - 'उसने कहा था' का लुच्चों का गीत संबंधी विवाद .. आइए इस पर थोड़ा गौर करते हैं...

'उसने कहा था' चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ( ७ जुलाई १८८३ - १२ सिसंबर १९२२) जिनके बारे में मशहूर है कि वे केवल तीन कहानियाँ - 'उसने कहा था', 'बुद्धू का काँटा' और 'सुखमय जीवन' लिखकर अमर हो गए, की एक कालजयी कहानी है जो महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका 'सरस्वती' के दिसंबर १९१५ के अंक में प्रकाशित हुई थी और तबसे विश्वविद्यालय स्तर के स्नातक और स्नातकोतार पाठ्यक्रमों में लगभग अनिवार्यत: जगह पाती रही है. यह कहानी कई कारणॊं से उल्लेखनीय है. पहली तो यह कि यह युद्ध की पॄष्ठभूमि पर लिखी गई पहली हिन्दी कहानी है. दूसरी यह कि हिन्दी कहानी के इतिहास में यह मील का पत्थर है ( कथाकार और नए 'हंस' के संपादक राजेन्द्र यादव इससे ही हिन्दी कहानी का विधिवत आरंभ मानते हैं) तीसरी बात यह कि इसमें टेकनीक के लिहाज से नयापन पहली बार सामने आया. पूर्वदीप्ति या फ्लैशबैक टेकनीक का ऐसा प्रयोग हिन्दी में पहली बार आया और अब तक ऐसा प्रयोग लगभग दुर्लभ ही है और चौथी बात यह की यह हिन्दी की पहली कहानी है जिस पर अश्लीलता का आरोप मढ़कर विद्वान प्राध्यापकों ने पाठ्यक्रम से बाहर का रास्ता दिखाने का सद्प्रयास (!) किया और यदि शामिल किया भी तो 'लुच्चॊं का गीत' को बाहर करने के बाद यह सदाशयता अपनाते हुए कि विद्यार्थी चरित्रवान बने रहे और प्रोफेसरान को बगलें न झाँकना पड़े. आइए देखते हैं उस गीत को जो विवाद का विषय बना रहा और एक ही कहानी अलग - अलग जगहों पर पाठान्तर के साथ पढ़ाई जाती रही और प्रतिनिधि संकलनों में शामिल होती रही -

दिल्ली शहर तें पिशौर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।

कद्दू बण्या वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।

( दिल्ली शहर से पिशौर / पेशावर को जाने वाली लौंगों का / लहँगों का व्यापार कर ले और नाड़े का सौदा कर ले. गोरिए , कद्दू बड़ा मजेदार बना है , चटखारे लेने का मन हो रहा है )

हिन्दी के बहुत से विद्वान प्राध्यापकों की नजर मे यह यह एक अश्लील और द्विअर्थी गीत था जिसे 'बच्चों' (!) को नहीं पढना चाहिए था और इसी बिरादरी का एक खेमा इसे यथावत पढ़ने- पढ़ाने के पक्ष में था और इसी उठापटक में इस कहानी के कई पाठ आज भी प्रचलित हैं यहाँ तक की गीत में भी कुछ पंक्तियों में हेरफेर की गई है.साथ ही बहुत से ऐसे संकलन भी है जिनमें यह गीत और गीत से पहले और बाद का पूरा प्रसंग यथावत विद्यमान है-
मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा - “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”
*****
कौन जानता था कि दाढ़्यों वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!
असल बात तो यह है कि इस गीत को लेकर श्लील - अश्लील विवाद में न तो पहले कोई दम था और ही आज है यह हिन्दी की अकादमिक बिरादरी के एक बड़े हिस्से की उस मानसिकता को दर्शाता है जो शुद्धता और शुचिता की आड़ लेकर किसी रचना को अपने तरीके से तोड़ - मरोड़कर पेश करने में कोई गुरेज नहीं करती और स्वयं को रचना / रचनाकार से बड़ा मानने की जिद पर अड़ी दिखाई देती है. किसी रचना की एतिहासिकता और मूल पाठ से खिलवाड़ करना भी उसे बुरा नहीं लगता.

शुक्र है कि हिन्दी के अध्ययन - अध्यापन की आज की दुनिया थोड़ी व्यस्क हो गई है और इस तरह के विवाद बस 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' जैसी किताबों में ही रह गए हैं शायद ! इतिहास भी क्या गजब चीज है !

( 'उसने कहा था' और गुलेरी जी पर एकाध पोस्ट और जल्द ही )

गाता हुआ पहाड़



हम इंदौर शहर में नहीं, इंदौर घराने में हैं ...

उस्‍ताद अमीर ख़ां साहब के बारे में सोचते हुए मुझे और कुछ नहीं सूझता सिवाय इसके कि उन्‍हें एक गाता हुआ पहाड़ कहूं. मेरू पहाड़. आज उनके वक्‍़त से 35 बरस बाद टेप-कैसेट पर उनकी आवाज़ सुनकर हम बस अंदाज़ा ही लगा सकते हैं उन्‍हें सामने बैठकर सुनना कैसा लगता होगा.

इसी इंदौर शहर में उस्‍ताद अमीर ख़ां रहे थे. यहां हम आज भी उनके अंतिम राग के अंतिम षड्ज की अनुगूंज छूकर देख सकते हैं... हमारे लिए इंदौर एक शहर नहीं, एक घराना है.

मुझे नहीं मालूम उत्‍तरप्रदेश के कैराना और इंदौर के बीच की दूरी कितनी है. शायद सैकड़ों किलोमीटर होगी, लेकिन संगीत की सरहद में सांसें लेने वालों के लिए इन दो शहरों की दूरी तानपूरे के दो तारों जितनीभर है- षड्ज और पंचम-कुल जमा इतनी ही. जैसे स्‍पेस की छाती में अंकित दो वादी और सम्‍वादी सुर. कैराना गाँव में ही उस्‍ताद अब्‍दुल करीम ख़ां और उस्‍ताद अब्‍दुल वहीद ख़ां (बेहरे ख़ां) जन्‍मे और जवान हुए. उन्‍हीं के साथ परवान चढ़ा गायकी का वह अंदाज़, जिसे किराना घराने की गायकी कहा जाता है. कोमल स्‍वराघात और धीमी बढ़त वाला शरीफ़ ख्‍़याल गायन. इन दोनों उस्‍तादों के बाद इस घराने में सवाई गंधर्व, गंगूबाई हंगल, पं. भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदेकर जैसे गाने वाले हुए. उस्‍ताद अमीर ख़ां देवास वाले उस्‍ताद रज्‍जब अली ख़ां साहब की परंपरा से इंदौर घराने में आते हैं, लेकिन सच तो यह है किराना घराने वाले उन्‍हें अपना सगा मानते हैं. आप बात शुरू करें और कोई भी किराना घराने वाला कह देगा- ग़ौर से सुनिए, क्‍या गायकी की यह ख़रज और गढ़न हूबहू हमारे बेहरे ख़ां साहब जैसी नहीं है.

उस्‍ताद को पहले-पहल नौशाद साहब के मार्फत सुना था. बैजू बावरा में पलुस्‍कर के साथ. ये भी नौशाद साहब ही थे, जिन्‍होंने 'मुग़ले-आज़म' में उस्‍ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां साहब से शायद दरबारी कानड़ा में) वो कमाल की चीज़ गवाई थी- 'प्रेम जोगन बन के'. लेकिन लड़कपन के उन दिनों में 'पक्‍का गाना' सुनने और समझने की कोई तासीर न रही थी. गो सुगम गाने और पक्‍के गाने के बीच में लकीरें खेंचना कोई वाजिब चीज़ फिर भी नहीं है (इसकी ताईद करने के लिए कुमार गंधर्व का लता मंगेशकर पर लिखा लेख पढ़ लेना काफ़ी होगा.), तब भी इतना तो है ही कि ये दोनों मौसिक़ी के दो अलग-अलग मौसम हैं. दो अलग-अलग मूड. सुगम में हल्‍के और पारदर्शी रंग हैं, पक्‍के गाने में ख़ूब गाढ़ापन है. जैसे वो दूध, तो ये खीर.

बचपन के बाद फिर बहुत से रोज़ गुज़र गए.

तक़रीबन तीन बरस पहले एक नितांत संयोग के तहत उस्‍ताद का एक ऑडियो टेप हाथ लगा. इसमें रिकॉर्ड था आध घंटे का राग यमन बड़ा और छोटा ख्‍़याल. आध घंटे से थोड़ा कम राग तोड़ी बड़ा और छोटा ख्‍़याल. और कोई दसेक मिनट का राग शाहना मध्‍यलय. आज मैं बयान नहीं कर सकता उस नादमय पाताली आवाज़ का उन दिनों मुझ पर क्‍या असर हुआ था. दर्जनों दफ़े ये ऑडियो मैंने सुना है. एक दौर ऐसा भी आया कि अमीर ख़ां का तोड़ी या सितार पर विलायत ख़ां का सांझ सरवली सुने बिना सूरज नहीं बुझता था. उसके बाद उस्‍ताद का मालकौंस, दरबारी और अभोगी कानड़ा ढूंढ-ढूंढकर सुने... कर्नाटकी संगीत वाला वही अभोगी कानड़ा, जिसे उस्‍ताद की आवाज़ में सुनकर पं. निखिल बनर्जी ठिठक गए थे और फिर छोड़ी हुई सभा में लौट आए थे, जैसे सितार की गत झाला से आलाप पर लौट रही हो.

जब हम हिंदुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत के एस्‍थेटिक्‍स और उसके स्‍थापत्‍य की बात करते हैं तो ज़ाहिराना तौर पर हम यह भी साफ़ कर लेना चाहेंगे कि इस कला में ऐसी क्‍या ख़ूबी है जो दुनियाभर के बाशिंदों के कानों में यह सदियों से पिघला सोना ढालती रही है और इसके फ़न की सफ़ाई हासिल करने के लिए सैकड़ों उस्‍तादों ने अपनी पूरी की पूरी जिंदगी बिता दी है. दरअस्‍ल, अगर इस तरह कहा जा सके तो, हिंदुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत उस आदिम संसार से उठकर आता है, जो कंठ की कंदराओं में बसता है और जहाँ आज भी अर्थध्‍वनियों की दख़ल नहीं हो सकी है. यह बात मैं यह जानने-बूझने के बावजूद कह रहा हूं कि भारतीय शास्‍त्रीय संगीत पूर्णत: पद्धति आधारित संरचना है और इसके हर चरण, हर मात्रा का मुक़म्‍मल हिसाब उस्‍तादों के पास हुआ करता है. तब भी- बाय टेम्‍परामेंट- मुझे ये एहसास है कि वो एक अछूती और अंधेरी खोह से आता है. वह अनहद का आलाप है. समूचे अस्तित्‍व के मंद्रसप्‍तक से उठता हुआ एक आलाप... जिस मंद्र में आलम के तमाम रास्‍ते रुके हुए हैं.

हिंदुस्‍तानी संगीत के दो हिस्‍से मेरे लिए हमेशा ही सबसे ज्‍़यादा रोमांचक रहे हैं और उस्‍ताद अमीर ख़ां की गायकी में ये दोनों हिस्‍से अपनी पूरी धज के साथ मौजूद रहते हैं. इनमें पहला है सम पर आमद और दूसरा है षड्ज पर विराम. मुझे सम पर हर आमद घर वापसी जैसी लगती है. लगता है दुनिया में केवल एक ही घर है और वो है सम. षड्ज के विराम को मैं निर्वाण से कम कुछ नहीं मान सकता. अंत के बाद फिर-फिर... जैसे दिया बुझ जाए और हम घुप्‍प निर्वात में अनुगूंज के वलय देखते रहें.

लेकिन सबसे बड़ी चीज़ है वह पुकार, वह आह्लाद, वह बेचैनी और वह अधूरापन, जो संगीत की बड़ी से बड़ी सभा के बाद पीछे छूट जाता है. न जाने क्‍यों, मैं यह मानने को मजबूर हूं कि महानतम कला वही है, जो हमें हमारे उस अपूर्ण आह्लाद पर स्‍थानांतरित कर दे. बोर्खेस के लफ़्ज़ों में 'साक्षात की तात्‍कालिक संभावना'... एक अजब-सी सुसाइडल और ट्रांसेंडेंटल शै, जो सदियों से इंसानी रूह को रूई की मानिंद धुनती रही है. मैं लिखकर बता नहीं सकता अमीर ख़ां के तोड़ी में 'काजो रे मोहम्‍मद शाह' पर पड़ने वाली पहली सम क्‍या बला है और मालकौंस के पुकारते हुए आलाप के हमारी जिंदगी और हमारे वजूद के लिए क्‍या मायने हैं.

उस्‍ताद अमीर ख़ां की शालीन और ज़हीन शख्सियत के कई किस्‍से हैं. और ये भी कि सालोंसाल रियाज़ करने के बाद पहली दफ़े जब वे सार्वजनिक रूप से गाना सुनाने आए, तो उन्‍हें शुरुआत में ही अज़ीम उस्‍ताद क़बूल लिया गया. लेकिन बंबई के भिंडी बाज़ार में उस्‍ताद अमान अली ख़ां साहब के घर की सीढियों पर खड़े होकर गाना सुनने-सीखने वाले अमीर ख़ां ने अपनी आवाज़ और अपने संगीत को किस तरह धीमे-धीमे ढाला, इसके अफ़साने ज्‍़यादा नहीं मिलेंगे क्‍योंकि उन्‍होंने इन्‍हें ज़ाहिर करने की कभी इजाज़त नहीं दी. अपने एक संस्‍मरण में अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि वे हमेशा गुम-गुम से रहने वाले शख्‍़स थे. जब गाते थे, तब भी लगता था, कुछ सोचते हुए गा रहे हैं. चैनदारी के साथ. कुछ वही, जिसे फिराक़ ने 'सोचता हुआ बदन' लिखा है. लेकिन उसी शख्सियत का एक दूसरा पहलू ये भी है कि उज्‍जैन में पं. नृसिंहदास महंत के बाड़े में पंडितजी के बच्‍चों को अलसुबह चिडियों की आवाज़ निकालकर भी उन्‍होंने सुनाई थी- एक ख़ास पंचम स्‍वर में. पं. ललित महंत आज भी उस आवाज़ को पुलक के साथ याद करते हैं. उस्‍ताद ने ठुमरियां भी गाई हैं, लेकिन न कभी उसे मंच पर लेकर आए और न कभी उन्‍हें कैसेट में नुमायां होने दिया- वजह, ठुमरी गाने में सिद्धहस्‍त उस्‍ताद बड़े ख़ां साहब के होते हुए उनके सामने वे ठुमरियां पेश करना नहीं चाहते थे. उनका इलाक़ा ख्‍़याल का इलाक़ा था. उस्‍ताद की गाई हुईं दुर्लभ ठुमरियों के रिकॉर्ड इंदौर के गोस्‍वामी गोकुलोत्‍सवजी महाराज के पास अब भी सुरक्षित हैं.

उस्‍ताद को सुनते हुए मैं अक्‍सर सोचा करता था कि क्‍या इस शख्‍़स के सामने वक्‍़त जैसी कोई दीवार खड़ी है या नहीं. टाइम और स्‍पेस आदमियत के दु:ख के दो छोर हैं- ऐसा मैंने हमेशा माना है- और उस्‍ताद को सुनते हुए हमेशा मैंने हैरानी के साथ ये महसूस किया है कि ज़मानों और इलाक़ों के परे चले जाना क्‍या होता है... जहाँ मौत एक मामूली-सा मज़ाक़ बनकर रह जाती है. उस्‍ताद की भरावेदार आवाज़ ने कई स्‍तरों पर हमारी जिंदगी को एक कभी न ख़त्‍म होने वाली सभा बना दिया है.

और तब मैं एक फ़ंतासी में दाखि़ल हो जाता हूं, जहाँ झूमरा ताल की बेहद धीमी लय सरकती रहती है... तानपूरे की नदी 'सा' और 'पा' के अपने दोनों किनारे तोड़ रही होती है... लय द्रुत होती चली जाती है और मात्राएँ तबले से फिसलकर गिरने लगती हैं... सन् 74 का साल आता है और कलकत्‍ते के क़रीब एक मोटरकार दुर्घटनाग्रस्‍त होकर चकनाचूर हो जाती है... कार में से एक लहीम-शहीम मुर्दा देह ज़ब्‍त होती है, लेकिन बैकग्राउंड में बड़े ख्‍़याल की गायकी बंद नहीं होती...वह आवाज़ बुलंद से बुलंदतर होती चली जाती है और तमाम मर्सियों के कंधों पर चढ़कर गहरी-अंधेरी खोहों के भीतर सबसे ऊँचे पहाड़ झाँकते रहते हैं...गाते हुए पहाड़, धीरे-धीरे पिघलते-से... जैसे वजूद की बर्फ गल रही हो.

उस्‍ताद को याद करते ये शहर एक घराना है... उस्‍ताद को सुनते ये सुबह एक नींद.

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प्रस्तुत है उस्ताद का गाया राग रामदासी मल्हार:

Amir KHAN - Amir KHAN, Ramdasi Malhar
Found at bee mp3 search engine


और राग बहार 'द ग्रेट वॉइसेज़ ऑफ़ इन्डिया' अल्बम से:

Tuesday, July 21, 2009

यह यथार्थ का जादू है कि मैं योगी के साथ खड़ा हूं

मित्रों के आग्रह पर मैं आखिरी पोस्ट लिख रहा हूं। मेरी तरफ से यह विवाद खत्म। सदा के लिए पटाक्षेप। जिस "चीज" पर भरोसा करके मैने ... के हिंदू वाहिनी के नेता योगी से सम्मान लेने पर सवाल उठाया था, उस चीज की जगह शून्य है। खोखल, निर्वात। शर्मिंदा हूं कि गलत जगह, एक अश्लील सवाल उठाया था। खोखल के भीतर क्या है, अब नहीं सोचना चाहता।

क्यों?

यह यथार्थ का जादू है।



नाटक से भी नाटकीय। सस्वर कपट हंसी और रुलाई के लंबे अलाप से बांधी गई लोककथाओं से भी दिलफरेब।

यह जीवन है।

सारी दुनिया के लेखकों ने इसकी चाल की फोटो उतारने की हर हद से आगे जाकर जानलेवा कोशिशें की हैं। उनकी अनुभूति का कैमरा 'रामकै' हो गया और वे खुद सिजोफ्रेनिक 'कखले' हो गए लेकिन वे उसकी कानी उंगली की जुंबिश भी नहीं पकड़ पाए।

सपने में भी नहीं सोचा था, ऐसा भी दिन आएगा कि ... ... के बजाय योगी की दिल से प्रशंसा करनी पड़ेगी।

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मुझे मालूम है कि हम ऐसे धुंधले, जालसाज समय में जी रहे हैं जब देश के सवा सौ शासक खानदान एक साझा मकसद के लिए धार्मिक कट्टरपंथियों (सांप्रदायिकों) और सेकुलरों के बीच का फर्क लगभग मिटा चुके हैं। ये दोनों जैसे एक ही धड़ पर उगे दो चेहरे बन गए हैं। राजनीतिक सत्ता की मलाई सामने होती है तो सारे सेकुलर सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के 'पवित्र' उद्देश्य से सरकार में शामिल हो जाते हैं। जब सांप्रदायिक शक्तियों के साथ मलाई काटनी होती है तो वे देश को एक और चुनाव के बोझ से बचाने का अहसान कर डालते हैं।

खुद सांप्रदायिक जब सत्ता में आते में हैं तो चिरकाल तक राज करने की लालसा में पिघल कर पंथनिरपेक्ष होने लगते हैं सत्ता से बाहर होते ही फिर कीर्तन मंडलियां सजतीं हैं और चिमटे बजाता उग्र हिंदुत्व का जगराता प्रारंभ हो जाता है। तथाकथित सेकुलर भी महीन ढंग से चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए मुस्लिम, ईसाई या हिंदू कार्ड खेलने से परहेज नहीं करते। जाति का खुला कार्ड तो खैर सनातन है। चुनावी राजनीति की चंद्रकांता संतति में ये दोनों ऐयारों की तरह बाना बदल कर मतदाता को छलते रहते हैं।

सेकुलर को चुनाव में टिकट नहीं मिला ... खटाक ... मंदिर बनाने लगा। सांप्रदायिक को मंत्री नहीं बनाया ... खटाक ... गंगा-जमुनी तहजीब बचाने लगा। मंत्री था, हटा दिया तो साइकिल पर सवार होकर लालटेन की रोशनी में हाथी का खरहरा करने लगा।

यूं भी कह सकते हैं कि सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष दो सोशियोलाइट, बिंदास यार हैं। हर शाम, सज-धज कर किसी न किसी पार्टी में जाते हैं। एक दूसरे के टैटू, मसल्स और चाल की तारीफ करते हैं। छक कर माल उड़ाते हैं, मौज करते हैं। नशे में बहकते, लौटते हुए सड़क पर लड़ने लगते हैं। लैंपपोस्ट के नीचे नेलपालिश वाले नाखून चमकते हैं, "कैसा सांस्कृतिक राष्ट्रवादी है तू अपना क्लब छोड़कर सेकुलरों की गे-पार्टी में गया था।"

"आय-हाय..कैसा सेकुलर है तू। अपनी उजड़ी लिपस्टिक देख। तू भी तो कट्टरपंथियों के क्वियर-कार्निवाल से लौट रहा है।" (यह दृश्य उपलब्ध कराने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट का शुक्रिया)

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राजनीति के इस विद्रूप तमाशे से कई प्रकाश वर्ष दूर भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता की प्रबल अंतर्धारा बहती है जिसके कारण ही तमाम नस्लों, धर्मों, भाषाओं और परस्परविरोधी स्वार्थों की टकराहटों के बावजूद इस देश में लोग एक साथ रहते हैं। हिम्मत के साथ हर विपदा से हर बार उबर आते है। घृणा हर बार दांत पीसती, सिर धुनती रह जाती है और जीवन मुस्काराता आगे बढ़ चलता है। इस सहिष्णुता का उत्स बिल्कुल साधारण, आम लोगों की करूणा में है। इसी करूणा की झिलमिल ... ... की रचनाओं में मुझे दिखती थी। इसी जगह खड़े होकर मैने सवाल उठाया था कि ... ... ने हिंदू वाहिनी के नेता, भाजपा सांसद योगी के हाथों सम्मान क्यों लिया?

जनसाधारण की इस करूणा को कायरता (जिस हिंदू का खून न खौला खून नहीं वह पानी है) बताकर कर योगी की पार्टी भाजपा अयोध्या से गुजरात तक उसके चिथड़े उड़ाते हुए घसीट रही थी। हर सूबे लेकर दिल्ली तक खून की लकीरें और घसीट के निशान अभी मिटे नहीं हैं। आजकल भ्रम और कलह का काल है। कल क्या होगा पता नहीं। लेकिन योगी के उग्र, रौद्र हिंदुत्व के आगे भाजपा भी हर चुनाव से पहले पनाह मांग जाती है। पूर्वांचल में वही होता है जो वे चाहते हैं।

... ... का पछतावानामा आयाः"मैं सच्चे मन से अपने उन पाठकों और प्रशंसकों से क्षमा मांगता हूं, जिन्हें मेरे इस पारिवारिक आयोजन के राजनीतिक संदर्भॊं को समझ पाने में मुझसे हुई भूल के कारण ठेस पहुंची है।"

लेकिन खुद योगी ने ... ... को "राजनीतिक संदर्भ" समझाने की कोशिश की थीः
यहां मैं तमाम वैचारिक विरोध के बावजूद योगी की सदाशयता, साफगोई, दूरदर्शिता और ... ... की खास लेखकीय इमेज की गहरी समझ की प्रशंसा करता हूं। उसे बचाने की फिक्र की तो और भी ज्यादा।

"इस समारोह में जाने से पहले मैने खुद आगाह किया था कि ... ... जी को कठिनाई हो सकती है लेकिन एक निजी (संदर्भ किसी परिवार का नहीं, गोरखनाथ पीठ के अपने कालेज का) समारोह मानकर चला गया था।"

यानि आप तब भी नहीं समझ पाए। ...(?)

फिर बचा क्या।

किसी से भी कोई शिकायत नहीं बची। गालियों, धमकियों का क्या, वे तो पहले भी इफरात में मिलती रहतीं थीं। अब मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरे लिए यह विवाद सदा के लिए खत्म हो चुका है। कुछ जानने की इच्छा ही नहीं बची।

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(इस बहस में ... ... की सादगी और सरलता से विचलित होकर कूदे उनके तमाम मुखर समर्थकों (जो स्वाभाविक ही था) और ऐसा हंगामाखेज मौका पाते ही अपनी कुंठाओं को पंख बनाकर उन्मादी उड़ान भरने वाले मौसमी फतिंगों से जरूर पूछना चाहता हूं कि जब योगी आपके प्रिय लेखक को को आसन्न कठिनाई से आगाह कर रहे थे तब विरोध पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले तथाकथित ईर्ष्याग्रस्त "रंगे सियार", तथाकथित सामूहिक "पाखाने" के निवासी धूर्त कबाड़ी, वह जातिवादी नेक्सस का हवस का मारा तथाकथित सरगना, उनकी कीर्ति के सुनहरे घेरे में घुस कर थोड़ी देर के लिए हुस्यारी से खुद को चमकाने की दयनीय हरकत करने वाला यह तथाकथित "जातिवादी" कर्मचारी... और इनके गुमराह करने पर आपके प्रिय लेखक के भविष्य को जीने के लायक नहीं रहने देने का षडयंत्र करने वाले मेरे देखे-अनदेखे दोस्त लोग सब कहां थे?

काश, पांच जुलाई को उस निर्णायक क्षण वे गोरखपुर में होते तो वे सभी योगी की 'चिंता' से सहमत होते और हिंदी के 'कानटूटे प्याले' में यह तूफान न खड़ा न होने पाता।
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(कबाड़ी साथियों से माफ़ीनामे के साथ सरगना का निवेदन: भाई अनिल यादव की यह एक महत्वपूर्ण पोस्ट है - मैं दोबारा कह रहा हूं बहुत ज़रूरी पोस्ट - इस ख़ौफ़नाक प्रकरण पर हमारी तरफ़ से अब अन्तिम! . कृपया इसे कल पूरे दिन भर लगे रहने दें. कष्ट के लिए क्षमा साथियो! - अशोक पाण्डे.

पुनश्च हाहाहाहा: नीचे लगी तस्वीर मैं लगा रहा हूं अनिल नहीं. पढ़ने के लिए क्लिपिंग पर क्लिक करें)



(साभार : अमर उजाला, २० जुलाई २००९)

Monday, July 20, 2009

एक आतंकवादी से हैंडशेक

दस क़दम की दूरी पर वो लहीम-शहीम इंसान खड़ा था, कोट-पैंट-टाइ और चमकते जूते पहने हुए. तनिक आगे को झुका सा दिखता था -- शायद अपनी लंबाई के कारण.

मैंने अब तक सिर्फ़ उसकी तस्वीर अख़बारों में देखी थी या फिर टेलीविज़न पर. जनसत्ता अख़बार के दफ़्तर में उन दिनों आनंद स्वरूप वर्मा ने उसके युवा दिनों की तस्वीर वाला एक पोस्टर लगा दिया था: नेल्सन मंडेला को रिहा करो.

वही नेल्सल मंडेला मुझसे कोई दस क़दम की दूरी पर खड़े थे. मैंने देखा रंगभेदी शासकों की जेल में सत्ताईस साल काटने के बाद जनसत्ता के पोस्टर वाली छवि पर उम्र की रेखाएँ उभर आई थीं. काले बालों में सफ़ेदी चुकी थी लेकिन सफ़ेद चमकते दाँत वैसे ही थे. सधी हुई चाल बरक़रार थी.

अमरीका और ब्रिटेन सहित कई पश्चिमी सरकारें और राजनेता इस आदमी को ख़तरनाक मानते आए थे. मार्गरेट थैचर की कंज़र्वेटिव सरकार के लिए मंडेला और अफ़्रीकन नेशनल काँग्रेस आतंकवादी थे. बाद में इन देशों ने नए आतंकवादी गढ़ लिए.

एमनेस्टी इंटरनेशनल ने ख़ालिस्तान के एक नेता को प्रिज़नर आफ़ कांशेंस घोषित किया था लेकिन मंडेला को नहीं क्योंकि उन्होंने पश्चिमी प्रभुओं की सरपरस्ती में चलने वाले श्वेत-दमनचक्र के ख़िलाफ़ बंदूक़ उठाई थी. अमरीका की सरकारी लिस्ट में मंडेला अभी तक आतंकवादी ही रहे, अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने वालों कई और लोगों की तरह.

मैंने कस कर मुट्ठी बाँधी और दूर से ही चिल्लाया: कामरेड मंडेला !! वहाँ मौजूद तमाम लोगों की निगाह मेरी ओर उठ गई. नेल्सन मंडेला ने भी मेरी ओर देखा और लंबे लंबे डग भर कर मेरी ओर बढ़े. उन्होंने अपना मज़बूत और बड़ा सा हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया.

मैं बीसवीं शताब्दी के एक जननायक से हाथ मिला रहा था. तीसरी दुनिया का जननायक मगर अमरीका-ब्रिटेन के लिए आतंकवादी.

उन्नीस सौ तिरानवे की उस शांत सुबह मंडेला के लिए सुरक्षा का इंतज़ाम तो था लेकिन इतना नहीं कि गला ही घुट जाए. हम तीस जनवरी मार्ग पर बिड़ला भवन में खड़े थे. यहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे नाथूराम गोडसे ने गाँधी को गोली मारी थी. रंगभेदियों की क़ैद से छूटने के बाद मंडेला एक निजी यात्रा में हिंदुस्तान आए थे और गाँधी से जुड़ी जगहों पर जाना उनके लिए तीर्थयात्रा सा रहा होगा. तब वो दक्षिण अफ़्रीक़ा के राष्ट्रपति नहीं बने थे. अगर वो बुश के वार आन टेरर का ज़माना होता तो टेलीविज़न और अख़बार पता नहीं कैसे कैसे विश्लेषण, कैसे कैसे एक्सक्लूसिव आइटम पेश करते.

मैं नेल्सन मंडेला के साथ साथ उसी प्रार्थना स्थल की ओर चलने लगा जहाँ गाँधी को गोली मारी गई थी. अपने कमरे से निकल कर गाँधी जिस रास्ते प्रार्थना स्थल की ओर 30 जनवरी 1948 को अंतिम बार गए थे, वहाँ उनके क़दमों की पथरीली आकृतियाँ बना दी गई हैं. दिल्ली में उस गुनगुनी सुबह उन्हीं आकृतियों को देखते नेल्सन मंडेला भी प्रार्थना स्थल की ओर गए. मैं उनके साथ साथ चलता रहा था. साथ में कुछ और लोग भी थे -- कुछ गाँधी के लोग, कुछ सरकारी अधिकारी और एक मेरे जैसा रिपोर्टेर और.

प्रार्थना स्थल के बाहर की मुंडेर पर बैठकर मंडेला ने अपने जूते खोले. एक भद्र घरेलू महिला मुस्कुराते हुए आगे बढ़ीं. उन्हें देखकर ही लगता था कि वो विनी मंडेला के बारे में ही पूछने वाली हैं. मैं भीतर ही भीतर तनावग्रस्त होता रहा और वही हुआ. महिला ने पूरी उत्तर भारतीय पारिवारिक शैली में मंडेला से पूछ ही डाला -- "विनी नहीं आईं?"

"विनी के कुछ और कार्यक्रम थे, इसलिए नहीं सकीं", मंडेला ने बेहद संक्षिप्त जवाब दिया. विनी मंडेला और उनके बीच तनाव की ख़बरें छप चुकी थीं और कुछ ही बरस बाद दोनों का तलाक़ भी हो गया. लेकिन शायद मंडेला को भारत यात्रा से पहले बता दिया गया होगा कि परिवार के बारे में सवाल किए जाएँगे, बुरा मत मानना.

गाँधी के प्राण पखेरु जहाँ उड़े, वहाँ मंडेला कुछ देर ख़ामोश खड़े देखते रहे. फिर हम लोग मुख्य भवन की ओर लौटे, उन्हीं पत्थर के गाँधी-चरणों से होते हुए जिन्हें गाँधी के मरने के बाद गाँधी वालों ने वहाँ स्थापित करवाया और फिर हर साल 30 जनवरी को उन्हीं पर चलकर धन्य धन्य हुए. गाँधी की राह पर पहले औद्योगीकरण की घासपात उगी, फिर वो एक छोटी पगडंडी में बदल गई और आगे चलकर विचारशून्यता के बियावान में कहीं बिला गई.

इमारत के पिछले दरवाज़े पर सरकारी इंतज़ाम करने वालों ने शायद किसी टेंट हाउस से डोर मैट किराए पर लेकर रख दिया था. डोर मैट पर अँग्रेज़ी में लिखा था कुमार. मंडेला ने उसे पढ़ते हुए मुझसे पूछा कि कुमार का अर्थ क्या हुआ. मैंने बताया कि ये किसी का नाम भी हो सकता है लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ कुँआरा है. मंडेला हलके से मुस्कुराए. तब वो पचहत्तर साल के थे.

वो सुबह मुझे इस शनिवार को फिर से याद आई जब मंडेला ने इक्यानवे वर्ष पूरे किए. शहर लंदन में संसद और वेस्टमिन्स्टर एबी के पास कुछ समय पहले नेल्सन मंडेला की मूर्ति लगा दी गई है. विन्स्टन चर्चिल का बुत भी वहीं है लेकिन उसे नेल्सन मंडेला की मूरत से कई गुना विशाल बनाया गया है.

और अभी मार्गरेट थैचर भी जीवित हैं.