Wednesday, August 31, 2011

कबाड़ख़ाने की दो हज़ारवीं पोस्ट

यह कबाड़ख़ाने की दो हज़ारवीं पोस्ट है. विन्सेन्ट वान गॉग की जीवनी "लस्ट फ़ॉर लाइफ़" का यह टुकड़ा इस ब्लॉग के लिए लगातार एक पथप्रदर्शक का कार्य करता रहा है -

"दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है."

इन शब्दों को याद करता हुआ मैं इस पोस्ट में अतुलनीय चित्रकार और मनुष्य विन्सेन्ट वान गॉग की कुछ महान पेन्टिंग्स साझा कर रहा हूं.
















और विन्सेन्ट की याद में डॉन मैक्लीन का गाया गीत "स्टारी स्टारी नाइट" -



और अन्त में प्रिय कवयित्री अनीता वर्मा की एक कविता -

वान गॉग के अन्तिम आत्मचित्र से बातचीत

अनीता वर्मा

एक पुराने परिचित चेहरे पर
न टूटने की पुरानी चाह थी
आंखें बेधक तनी हुई नाक
छिपने की कोशिश करता था कटा हुआ कान
दूसरा कान सुनता था दुनिया की बेरहमी को
व्यापार की दुनिया में वह आदमी प्यार का इन्तज़ार करता था

मैंने जंगल की आग जैसी उसकी दाढ़ी को छुआ
उसे थोड़ा सा क्या नहीं किया जा सकता था काला
आंखें कुछ कोमल कुछ तरल
तनी हुई एक हरी नस ज़रा सा हिली जैसे कहती हो
जीवन के जलते अनुभवों के बारे में क्या जानती हो तुम
हम वहां चल कर नहीं जा सकते
वहां आंखों को चौंधियाता हुआ यथार्थ है और अन्धेरी हवा है
जन्म लेते हैं सच आत्मा अपने कपड़े उतारती है
और हम गिरते हैं वहीं बेदम

ये आंखें कितनी अलग हैं
इनकी चमक भीतर तक उतरती हुई कहती है
प्यार मांगना मूर्खता है
वह सिर्फ किया जा सकता है
भूख और दुख सिर्फ सहने के लिए हैं
मुझे याद आईं विन्सेन्ट वान गॉग की तस्वीरें
विन्सेन्ट नीले या लाल रंग में विन्सेन्ट बुखार में
विन्सेन्ट बिना सिगार या सिगार के साथ
विन्सेन्ट दुखों के बीच या हरी लपटों वाली आंखों के साथ
या उसका समुद्र का चेहरा

मैंने देखा उसके सोने का कमरा
वहां दो दरवाज़े थे
एक से आता था जीवन
दूसरे से गुज़रता निकल जाता था
वे दोनों कुर्सियां अन्तत: खाली रहीं
एक काली मुस्कान उसकी तितलियों गेहूं के खेतों
तारों भरे आकाश फूलों और चिमनियों पर मंडराती थी
और एक भ्रम जैसी बेचैनी
जो पूरी हो जाती थी और बनी रहती थी
जिसमें कुछ जोड़ा या घटाया नहीं जा सकता था

एक शान्त पागलपन तारों की तरह चमकता रहा कुछ देर
विन्सेन्ट बोला मेरा रास्ता आसान नहीं था
मैं चाहता था उसे जो गहराई और कठिनाई है
जो सचमुच प्यार है अपनी पवित्रता में
इसलिए मैंने खुद को अकेला किया
मुझे यातना देते रहे मेरे अपने रंग
इन लकीरों में अन्याय छिपे हैं
यह सब एक कठिन शान्ति तक पहुंचना था
पनचक्कियां मेरी कमजोरी रहीं
ज़रूरी है कि हवा उन्हें चलाती रहे
मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता
आलू खाने वालों और शराव पीने वालों के लिए भी नहीं
मैंने उन्हें जीवन की तरह चाहा है

अलविदा मैंने हाथ मिलाया उससे
कहो कुछ कुछ हमारे लिए करो
कटे होंठों में भी मुस्कराते विन्सेन्ट बोला
समय तब भी तारों की तरह बिखरा हुआ था
इस नरक में भी नृत्य करती रही मेरी आत्मा
फ़सल काटने वाली मशीन की तरह
मैं काटता रहा दुख की फ़सल
आत्मा भी एक रंग है
एक प्रकाश भूरा नीला
और दुख उसे फैलाता जाता है।

Tuesday, August 30, 2011

मानें या न मानें: अन्ना परिघटना पर कुछ सवाल

व्यवस्था के शस्त्रागार का एक नया हथियार

आनंद स्वरूप वर्मा, संपादक, समकालीन तीसरी दुनिया

जो लोग यह मानते रहे हैं और लोगों को बताते रहे हैं कि पूंजीवादी और साम्राज्यवादी लूट पर टिकी यह व्यवस्था सड़ गल चुकी है और इसे नष्ट किये बिना आम आदमी की बेहतरी संभव नहीं है उनके बरक्स अण्णा हजारे ने एक हद तक सफलतापूर्वक यह दिखाने की कोशिश की कि यह व्यवस्था ही आम आदमी को बदहाली से बचा सकती है बशर्ते इसमें कुछ सुधार कर दिया जाय। व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र से जिन लोगों का मोहभंग हो रहा था उस पर अण्णा ने एक ब्रेक लगाया है। अण्णा ने सत्ताधारी वर्ग के लिए आक्सीजन का काम किया है और उस आक्सीजन सिलेंडर को ढोने के लिए उन्हीं लोगों के कंधें का इस्तेमाल किया है जो सत्ताधारी वर्ग के शोषण के शिकार हैं। उन्हें नहीं पता है कि वे उसी निजाम को बचाने की कवायद में तन-मन-धन से जुट गये जिसने उनकी जिंदगी को बदहाल किया। देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जुझारू संघर्षों की ताप से झुलस रहे सत्ताधारियों को अण्णा ने बहुत बड़ी राहत पहुंचाई है। शासन की बागडोर किसके हाथ में हो इस मुद्दे पर सत्ताधारी वर्ग के विभिन्न गुटों के बीच चलती खींचतान से आम जनता का भ्रमित होना स्वाभाविक है पर जहां तक इस वर्ग के उदधारक् की साख बनाये रखने की बात है, विभिन्न गुटों के बीच अद्भुत एकता है। यह एकता 27 अगस्त को छुट्टी के दिन लोकसभा की विशेष बैठक में देखने को मिली जब कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी और भाजपा की सुषमा स्वराज दोनों के सुर एक हो गये और उससे जो संगीत उपजा उसने रामलीला मैदान में एक नयी लहर पैदा कर दी। सदन में शरद यादव के भाषण से सबक लेते हुए अगले दिन अपना अनशन समाप्त करते समय अण्णा ने बाबा साहेब आंबेडकर को तो याद ही किया, अनशन तोड़ते समय जूस पिलाने के लिए दलित वर्ग और मुस्लिम समुदाय से दो बच्चों को चुना।

अण्णा हजारे का 13 दिनों का यह आंदोलन भारत के इतिहास की एक अभूतपूर्व और युगांतरकारी घटना के रूप में रेखांकित किया जाएगा। इसलिए नहीं कि उसमें लाखों लोगों की भागीदारी रही या टीवी चैनलों ने लगातार रात दिन इसका प्रसारण किया। किसी भी आंदोलन की ताकत या समाज पर पड़ने वाले उसके दूरगामी परिणामों का आकलन मात्र इस बात से नहीं किया जा सकता कि उसमें लाखों लोगों ने शिरकत की। अगर ऐसा होता तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से लेकर रामजन्मभूमि आंदोलन, विश्वनाथ प्रताप सिंह का बोफोर्स को केंद्र में रखते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, मंडल आयोग की रिपोर्ट पर आरक्षण विरोधी आंदोलन जैसे पिछले 30-35 वर्षों के दौरान हुए ऐसे आंदोलनों में लाखों की संख्या में लोगों की हिस्सेदारी रही। किसी भी आंदोलन का समाज को आगे ले जाने या पीछे ढकेलने में सफल/ असफल होना इस बात पर निर्भर करता है कि उस आंदोलन को नेतृत्व देने वाले कौन लोग हैं और उनका ‘विजन’ क्या है? अब तक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी बना कर जनभावनाओं का दोहन किया जाता रहा है। अण्णा के व्यक्तित्व की यह खूबी है कि इस खतरे से लोग निश्चिंत हैं। उन्हें पता है कि रालेगण सिदधी के इस फकीरनुमा आदमी को सत्ता नहीं चाहिए।

अण्णा का आंदोलन अतीत के इन आंदोलनों से गुणात्मक तौर पर भिन्न है क्योंकि आने वाले दिनों में भारतीय समाज में बदलाव के लिए संघर्षरत शक्तियों के बीच यह ध्रुवीकरण का काम करेगा। किसी भी हालत में इस आंदोलन के मुकाबले देश की वामपंथी क्रांतिकारी शक्तियां न तो लोगों को जुटा सकती हैं और न इतने लंबे समय तक टिका सकती हैं जितने लंबे समय तक अण्णा हजारे रामलीला मैदान में टिके रहे। इसकी सीधी वजह यह है कि यह व्यवस्था आंदोलन के मूल चरित्र के अनुसार तय करती है कि उसे उस आंदोलन के प्रति किस तरह का सुलूक करना है। मीडिया भी इसी आधार पर निर्णय लेता है। आप कल्पना करें कि क्या अगर किसी चैनल का मालिक न चाहे तो उसके पत्रकार या कैमरामेन लगातार अण्णा का कवरेज कर सकते थे? क्या कारपोरेट घराने अपनी जड़ खोदने वाले किसी आंदोलन को इस तरह मदद करते या समर्थन का संदेश देते जैसा अण्णा के साथ हुआ? भारत सरकार के गृहमंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन वर्षों में यहां के एनजीओ सेक्टर को 40 हजार करोड़ रुपये मिले हैं- उसी एनजीओ सेक्टर को जिससे टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, किरन बेदी, संदीप पांडे, स्वामी अग्निवेश जैसे लोग घनिष्ठ/ अघनिष्ठ रूप से जुड़े/ बिछड़े रहे हैं। इस सारी जमात को उस व्यवस्था से ही यह लाभ मिल रहा है जिसमें सडांध् फैलती जा रही है, जो मृत्यु का इंतजार कर रही है और जिसे दफनाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उत्पीड़ित जनता संघर्षरत है। आज इस व्यवस्था का एक उदधारक दिखायी दे रहा है। वह भले ही 74 साल का क्यों न हो, नायकविहीन दौर में उसे जिंदा रखना जरूरी है।

क्या इस तथ्य को बार बार रेखांकित करने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार का मूल स्रोत सरकार की नवउदारवादी आर्थिक नीतियां हैं? इन नीतियों ने ही पिछले 20-22 वर्षों में इस देश में एक तरफ तो कुछ लोगों को अरबपति बनाया और दूसरी तरफ बड़ी संख्या में मेहनतकश लोगों को लगातार हाशिये पर ठेल दिया। इन नीतियों ने कारपोरेट घरानों के लिए अपार संभावनाओं का द्वार खोल दिया और जल, जंगल, जमीन पर गुजर बसर करने वालों को अभूतपूर्व पैमाने पर विस्थापित किया और प्रतिरोध् करने पर उनका सफाया कर दिया। इन नीतियों की ही बदौलत आज मीडिया को इतनी ताकत मिल गयी कि वह सत्ता समीकरण का एक मुख्य घटक हो गया। जिन लोगों को इन नीतियों से लगातार लाभ मिल रहा है वे भला क्यों चाहेंगे कि ये नीतियां समाप्त हों। इन नीतियों के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में जो उथल-पुथल चल रही है उससे सत्ताधारी वर्ग के होश उड़े हुए हैं। ऐसे में अगर कोई ऐसा व्यक्ति सामने आता है जिसका जीवन निष्कलंक हो, जिसके अंदर सत्ता का लोभ न दिखायी देता हो और जो ऐसे संघर्ष को नेतृत्व दे रहा हो जिसका मकसद समस्या की जड़ पर प्रहार करना न हो तो उसे यह व्यवस्था हाथों हाथ लेगी क्योंकि उसके लिए इससे बड़ा उदधारक कोई नहीं हो सकता। अण्णा की गिरफ्रतारी, रिहाई, अनशन स्थल को लेकर विवाद आदि राजनीतिक फायदे-नुकसान के आकलन में लगे सत्ताधारी वर्ग के आपसी अंतर्विरोधें की वजह से सामने आते रहे हैं। इनकी वजह से मूल मुद्दे पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

अण्णा के आंदोलन ने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गांधीजी द्वारा चलाये गये सत्याग्रहों और आंदोलनों की उन लोगों को याद दिला दी जिन्होंने तस्वीरों या फील्मों के माध्यम से उस आंदोलन को देखा था। गांधी के समय भी एक दूसरी धारा थी जो गांधी के दर्शन का विरोध् करती थी और जिसका नेतृत्व भगत सिंह करते थे। जहां तक विचारों का सवाल है भगत सिंह के विचार गांधी से काफी आगे थे। भगत सिंह ने 1928-30 में ही कह दिया था कि गांधी के तरीके से हम जो आजादी हासिल करेंगे उसमें गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज सत्ता पर काबिज हो जायेंगे क्योंकि व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होगा। तकरीबन 80 साल बाद रामलीला मैदान से अण्णा हजारे को भी यही बात कहनी पड़ी कि गोरे अंग्रेज चले गये पर काले अंग्रेजों का शासन है। इन सबके बावजूद भगत सिंह के मुकाबले गांधी को उस समय के मीडिया ने और उस समय की व्यवस्था ने जबर्दस्त ‘स्पेस’ दिया। वह तो टीआरपी का जमाना भी नहीं था क्योंकि टेलीविजन का अभी आविष्कार ही नहीं हुआ था। तो भी शहीद सुखदेव ने चंद्रशेखर आजाद को लिखे एक पत्र में इस बात पर दुःख प्रकट किया है कि मीडिया हमारे बयानों को नहीं छापता है और हम अपनी आवाज जनता तक नहीं पहुंचा पाते हैं। जब भी व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने वाली ताकतें सर उठाती हैं तो उन्हें वहीं खामोश करने की कोशिश होती है। अगर आप अंदर के रोग से मरणासन्न व्यवस्था को बचाने की कोई भी कोशिश करते हुए दिखायी देते हैं तो यह व्यवस्था आपके लिए हर सुविधा मुहैया करने को तत्पर मिलेगी।

अण्णा हजारे ने 28 अगस्त को दिन में साढ़े दस बजे अनशन तोड़ने के बाद रामलीला मैदान से जो भाषण दिया उससे आने वाले दिनों के उनके एजेंडा का पता चलता है। एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने उन सारे मुद्दों को भविष्य में उठाने की बात कही है जो सतही तौर पर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई का आभास देंगे लेकिन बुनियादी तौर पर वे लड़ाइयां शासन प्रणाली को और चुस्त-दुरुस्त करके इस व्यवस्था को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा टिकाऊ , दमनकारी और मजबूत बना सकेंगी। अण्णा का आंदोलन 28 अगस्त को समाप्त नहीं हुआ बल्कि उस दिन से ही इसकी शुरुआत हुई है। रामलीला मैदान से गुड़गांव के अस्पताल जाते समय उनकी एंबुलेंस के आगे सुरक्षा में लगी पुलिस और पीछे पल पल की रिपोर्टिंग के लिए बेताब कैमरों से दीवाल पर लिखी इबारत को पढ़ा जा सकता है। व्यवस्था के शस्त्रागार से यह एक नया हथियार सामने आया है जो व्यवस्था बदलने की लड़ाई में लगे लोगों के लिए आने वाले दिनों में एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी करेगा।

उसके भीतर से समुद्र गायब हो गया है शायद

प्रिय कवि चन्द्रकान्त देवताले की एक कविता और -


वह औरत

चन्द्रकान्त देवताले

रेतीले मैदान के बीचोबीच
हमेशा अपनी किसी गुमशुदा चीज़ को
तलाशती हुई आँखों के साथ एक औरत
सफ़ेद चट्टान की तरह खड़ी है

उसके हाथों में ज़रूर टहनियों की
वैसी हरकत है जिसे कोई
बारिश का इन्तज़ार कह सकता है

उसके भीतर से समुद्र गायब हो गया है शायद
और सफ़ेद रोशनी की जगह
एक काला पत्थर रख दिया है किसी ने

अपने अँधेरे को कुछ-कुछ जानकर भी
वह अदृश्य जल-प्रवाह को सुनती है
और उसके होंठों पर नन्हें पक्षियों की तरह
भयभीत शब्द फड़फड़ाते हैं

वह औरत अपने को सहसा
एक पेड़ की तरह
और फिर उससे निकट कर
अंधी उँगलियों से टोहती है एक फूल
उसी पेड़ पर

जो वह ख़ुद अभी थी

लन्दन के हाइड पार्क का एक पुराना फ़ोटो


फ़ीरोज़ दस्तूर की आवाज़ में राग मिश्र काफ़ी


किराना घराने से ताल्लुक रखने वाले फ़ीरोज़ दस्तूर ने अपने करियर का प्रारम्भ बम्बई की फ़िल्म इन्डस्ट्री से किया. उन्होंने वाडिया मूवीटोन और कुछ अन्य बैनरों तले अभिनय भी किया. लेकिन उन्हें ख्याति शास्त्रीय संगीत ने ही दिलाई. वे सवाई गन्धर्व के शिष्य रहे और अस्सी के होने के बाद तक गायन के क्षेत्र में सक्रिय थे. २००९ में ८९ साल की आयु में उनका देहान्त हुआ. आज सुनिए उनसे राग मिश्र काफ़ी-



(फ़ोटो में फ़ीरोज़ दस्तूर पंडित भीमसेन जोशी के साथ)

Monday, August 29, 2011

यह फूल एक तीसरी ही लड़की का नाम था


काली लड़की

चन्द्रकान्त देवताले

वह शीशम के सबसे सुन्दर फूल की तरह
मेरी आँख के भीतर खुप रही थी
अपने बालों में पीले फूलों को खोंसकर
वह शब्दों के लिए ग़ैरहाजिर
पर आँखों के लिए मौज़ूद थी

मैं बोलता जा रहा था
पर शब्द जहाँ से आ रहे थे
वहाँ एक दूसरी ही लड़की एक नदी थी

और यह सामने बैठी हुई लड़की
उस नदी से लेकर
एक बैंजनी फूल मुझे दे रही थी
और यह फूल
एक तीसरी ही लड़की का नाम था

और यह सब करते हुए वह
एक-दो-तीन नहीं
हज़ारों दिनों को तहस-नहस कर रही थी

बोरिस स्मेलोव के फ़ोटोग्राफ़

बोरिस स्मेलोव कुल सैंतालीस साल (१९५१-१९९८) जिये. यह रूसी फ़ोटोग्राफ़र सर्वसम्मति से बीसवीं सदी के यूरोप के दो-तीन चुनिन्दा ख़लीफ़ा फ़ोटो कलाकारों में गिना जाता है. उन का विस्तृत परिचय अगली बार. आज देखिए उनके चार फ़ोटो -


अपोलो इन द समर गार्डन, १९७८


फ़ाख़्ता, १९७५


स्प्रिंग फ़्रॉग हन्ट १९९५


अ मैन विद अ बकेट १९७४

कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल


अहमद हुसैन - मोहम्मद हुसैन बन्धुओं से सुनिए हसरत जयपुरी साहब की यह मीठी रचना-



चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल

हम वहाँ जाये जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल

अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत-ए-ग़ज़ल, चल

पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल

(यहां से डाउनलोड करें - चल मेरे साथ ही चल)

एक युवा कवि को पत्र - 5 - रेनर मारिया रिल्के

(पत्र १, पत्र २, पत्र ३, पत्र-४ से आगे)


रोम
२९ अक्टूबर १९०३

प्रिय मान्यवर,

आपका २९ अगस्त का पत्र मुझे फ़्लोरेन्स में मिल गया था और जवाब लिखने में मुझे ये दो लम्बे महीने लग गए हैं. कृपया मुझे इस लेटलतीफ़ी के लिए माफ़ करें लेकिन मुझे यात्राएं करते समय पत्र लिखना अच्छा नहीं लगता क्योंकि उस के लिए मुझे सबसे ज़रूरी उपकरणों के अलावा भी कुछ चाहिए होता है: थोड़ी सी ख़ामोशी और अकेलापन और बहुत अपरिचित जगह नहीं.

हम कोई छः हफ़्ते पहले रोम पहुंचे, ऐसे समय जब वह ख़ाली, गर्म और प्रत्यक्षतः बुखार में पड़ा हुआ रोम था, और इस परिस्थिति के साथ साथ रहने की जगह खोजने की हमारी कोशिशों ने हमारे आसपास की बेचैनी को इतना बढ़ा दिया जैसे कि वह कभी ख़त्म ही नहीं होगी, और अपरिचितता हम पर बेघर होने के भार की तरह लद गई. इसके अलावा शुरुआती दिनों में रोम (अगर आप उस से परिचित न हुए हों तो) उदासी से आपका दम घोंटा करता है: अपने अन्धेरे संग्रहालयों सरीखे बेजान वातावरण के कारण जिसे यह अपनी सांस में छोड़ता है, इसके बीते समयों की प्रचुरताओं के कारण जिन्हें सामने लाकर सश्रम खड़ा किया जाता है (इन बीते समयों पर एक नन्हा सा वर्तमान ठहरा रहता है), उस भयंकर अति-मूल्यांकन के कारण जिसे विद्वानों और भाषाशास्त्रियों ने बचाकर रखा हुआ है और जिसकी नकल इटली में आए सैलानी किया करते हैं, इन सारी विकृत और क्षयग्रस्त चीज़ों के कारण जो अन्ततः एक दूसरे समय के इत्तफ़ाक़न बच रहे अवशेषों के अलावा कुछ नहीं वे किसी दूसरे जीवन की चीज़ें हैं जो हमारी नहीं होतीं और नहीं होनी चाहिए. आख़िरकार, हफ़्तों के रोजमर्रा प्रतिरोध के बाद आप अपने को थोड़ा बहुत प्रकृतिस्थ पाते हैं अलबत्ता अभी भी कुछ सशंकित, और आप ख़ुद से कहते हैं: नहीं, यहां दूसरी जगहों से अधिक सुन्दरता नहीं है, और ये तमाम चीज़ें जिन्हें देखकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग आश्चर्य करते रहे हैं, जिनकी मरम्मत और रखरखाव कारीगरों ने अपने हाथों से की है, इनका कोई अर्थ नहीं, ये कुछ नहीं हैं, इनके पास न कोई हृदय है न कोई मूल्य; लेकिन यहां इतनी सारी सुन्दरता है क्योंकि हर जगह इतनी सारी सुन्दरता है. जीवन से भरे पानी प्राचीन नहरों से होकर महान नगर में आते हैं और पत्थर के बने जलकुण्डों में तमाम चौराहों पर और फैले हुए विशाल और विस्तीर्ण तालाबों में नृत्य करते हैं, वे दिन के वक़्त कलरव करते रहते हैं और रात को अपनी आवाज़ें बढ़ा देते हैं, रात जो यहां असीम होती है और तारोंभरी और हवाओं से मुलायम. और यहां बाग़ीचे हैं, अविस्मरणीय रास्ते और माइकेलएन्जेलो के डिज़ाइन किए हुए ज़ीने, नीचे की तरफ़ फिसलते पानियों के पैटर्न पर बनाए गए ज़ीने जो उतरते हुए फैलती हुई सीढ़ियों को जन्म देते जाते हैं जैसे कि वह किसी लहर से निकली लहरें हो. ऐसी छवियों से आप अपने आप को सम्हालते हैं, अपने को वापस प्राप्त करते हुए उस सख़्त बहुतायत से जो यहां-वहां बोलती-बड़बड़ करती रहती है (और किस कदर बातूनी), और हौले हौले आप उन कुछ चीज़ों को पहचानना शुरू करते हैं जिनके भीतर कोई अनन्त वस्तु बची रह गई है और जिसे आप प्रेम कर सकते हैं और कोई एकाकी चीज़ जिसमें आप नम्रतापूर्वक हिस्सा ले सकते हैं.

मैं अब भी शहर में रह रहा हूं, कैपिटॉल पर, यह रोमन कला से आई सुन्दरतम अश्वारोही मूर्ति से बहुत दूर नहीं है - मार्कस ऑरेलियस की मूर्ति; लेकिन कुछ ही हफ़्तों में मैं एक शान्त, सादगीभरे कमरे में चला जाऊंगा - एक पुराने समरहाउस में जो शहर, उसके शोर और घटनाओं से छुपा हुआ, एक बड़े से पार्क में कहीं खोया सा हुआ है. वहां मैं पूरी सर्दियों भर रहूंगा और महान शान्ति का आनन्द उठाऊंगा, जिससे मुझे कार्य से भरे कुछ प्रसन्न क्षणों की उम्मीद है ...

वहां से, जहां मैं ज़्यादा अपने घर जैसा महसूस करूंगा, मैं आपको एक लम्बा पत्र लिखूंगा, जिसमें मैं उस बारे में ज़्यादा कहूंगा जिस बाबत आपने लिखा है. आज मैं आप को यह बताना चाहता हूं (और शायद ऐसा पहले न कह पाना मेरी ग़लती रही है) कि जो किताब आपने मुझे भेजी थी (आपने अपने पत्र में ज़िक्र किया था कि उसमें आपका भी कुछ काम था) अब तक नहीं पहुंची है. क्या वह आपको सम्भवतः वोर्पस्वीड से वापस भेज दी गई है? (वे वहां से विदेशों को पार्सल फ़ॉरवर्ड नहीं करते). यही सबसे आशावान सम्भावना है, और मुझे इस बाबत निश्चित जानकर अच्छा लगेगा. मुझे आशा है बन्डल खोया नहीं है - दुर्भाग्यवश जैसी इतालवी डाक-व्यवस्था है, वह कोई असामान्य बात नहीं होगी.

मुझे उस पुस्तक का अपने पास होना भला लगता (जैसा कि आप की तरफ़ से मुझ तक आई हर चीज़ के साथ होता है); और इस दरम्यान जो भी कविताएं उपजी होंगी तो मैं हमेशा (अगर आप उन्हें मुझे सौंपेंगे तो) उन्हें बार-बार पढ़ूंगा और जितना अच्छी तरह से उन्हें महसूस कर सकूंगा करूंगा. शुभकामनाएं.

आपका

रेनर मारिया रिल्के

Sunday, August 28, 2011

एक युवा कवि को पत्र - 4 - रेनर मारिया रिल्के

(पत्र १, पत्र २, पत्र ३ से आगे)



वोर्पस्वीड, ब्रेमेन के नज़दीक
१६ जुलाई, १९०३

कोई दस दिन पहले बेहद थका हुआ और बीमार मैं पेरिस छोड़कर इस महान उत्तरी मैदान में आ गया हूं जिसकी विस्तीर्णता और ख़ामोशी ने मुझे दोबारा से ठीक कर देना चाहिए. लेकिन मैं यहां लम्बी बरसातों के वक़्त आया; ये पहला दिन है जब इस बेचैन उड़ाए जाते हुए लैन्डस्केप को थोड़ी राहत मिली है, और इस क्षण का फ़ायदा उठाते हुए मैं आपको सलाम कर रहा हूं प्रिय मान्यवर.

प्रिय जनाब काप्पूस: मैंने एक लम्बे समय से आपके लिखे एक पत्र को अनुत्तरित छोड़ा हुआ है; ऐसा नहीं कि मैं इस बाबत भूल गया होऊं - इसके उलट यह पत्र उस तरह का है जिसे आप दूसरे पत्रों के साथ देखने पर दोबारा से पढ़ते हैं, और मैं इसमें आपको इस तरह पहचानता हूं जैसे कि आप बेहद नज़दीक कहीं हों. यह आपका दो मई का लिखा ख़त है और मैं निश्चित हूं कि आपको इसकी याद है. इन विराट दूरियों की महान शान्ति में इसे पढ़ते हुए, जीवन को लेकर आपकी सुन्दर चिन्ता ने मुझे स्पर्श किया है, उस से कहीं ज़्यादा जब मैं पेरिस में था, जहां हरेक चीज़ अलग तरह से गूंजती है और धुंधली पड़ जाती है क्योंकि वहां शोर की अधिकता वस्तुओं को थर्राहट से भर देती है. यहां, जहां मैं एक विपुल लैन्डस्केप से घिरा हुआ हूं, जिसे समुद्र से आने पर हवाएं अपने साथ उड़ा ले जाती हैं, यहां मुझे महसूस होता है कि कहीं भी कोई नहीं है जो आपके लिए उन भावनाओं और प्रश्नों का उत्तर दे सके, जिनका अपनी गहराइयों में अपना जीवन है; क्योंकि सबसे सुस्पष्ट लोग भी सहायता करने में अक्षम होते हैं, चूंकि शब्द जिस तरफ़ इशारा कर रहे हैं वह इस कदर नाज़ुक है, तकरीबन अकथनीय. लेकिन तब भी मैं समझता हूं कि आपको समाधान के बग़ैर ही नहीं रहना पड़ेगा अगर आप उन चीज़ों पर यक़ीन करते हैं जिन पर फ़िलहाल मेरी निगाहें ठहरी हुई हैं. अगर आप कुदरत पर ऐतबार करते हैं, उस पर ऐतबार करते हैं जो कुदरत के भीतर साधारण है, उन छोटी चीज़ों पर जिन्हें बमुश्किल कोई देखता है और जो अचानक विशाल और अगाध बन सकती हैं; अगर आप के भीतर उस के लिए प्रेम है जो विनम्र है और आप साधारण सी कोशिश कर सकें उसकी तरह जो सिर्फ़ सेवा करता है, उसका विश्वास जीत सकें जो बेचारा लगता है: तब आप के लिए सब कुछ आसान हो जाएगा, ज़्यादा संगत और एक तरह से ज़्यादा स्वीकार्य समाधान, सम्भवतः आपके चेतन मस्तिष्क में नहीं, जो आश्चर्यचकित होकर पीछे ठहरा रहता है, बल्कि आपकी अन्तरतम चेतना, जागृति और ज्ञान के भीतर. आप इतने युवा हैं, सारी शुरुआत से पहले इतना सारा, और प्रिय मान्यवर मैं आपसे माफ़ी चाहते हुए जहां तक मुझसे सम्भव होगा आपके हृदय के भीतर जो कुछ भी अनिर्णीत है उसके साथ धीरज धरूंगा और आपके प्रश्नों को प्रेम करने की कोशिश करूंगा जैसे कि वे बन्द कमरे हों या किसी बेहद विदेशी भाषा में लिखी गई किताबें. उत्तरों की खोज मत कीजिए, वे आपको अभी नहीं दिए जा सकते क्योंकि आप उनके साथ रह नहीं सकेंगे. और मसला है हरेक चीज़ को जीने का. अपने प्रश्नों को अभी जीइए. सम्भवतः तब, भविष्य में, हौले-हौले, किसी सुदूर दिन, बिना जाने हुए आप उत्तर तक ले जाने वाले रास्ते को जिएंगे. शायद आपके भीतर रचने और आकार बना सकने की सम्भावना है, जीने के एक अतिविशेष भाग्यवान और शुद्ध तरीक़े के तौर पर; अपने को उसके लिए प्रशिक्षित कीजिए लेकिन जो कुछ सामने पड़ता उसे एक महान विश्वास के साथ थामिए, और जब तक वह आपकी इच्छाशक्ति से बाहर नहीं आता, आपके अन्तरतम स्व की किसी ज़रूरत से, तब तक हरेक चीज़ से भिड़िए और किसी भी चीज़ से नफ़रत मत कीजिए. सैक्स मुश्किल होता है, हां. लेकिन जिन कामों का ज़िम्मा हमें सौंपा गया है वे मुश्किल होते हैं; तक़रीबन हरेक संजीदा चीज़ मुश्किल होती है; और हरेक चीज़ संजीदा होती है. अगर आप बस इस बात को समझ जाएं और अपने आप से, अपनी प्रकृति और प्रतिभा की मदद से, अपने अनुभव, बचपन और ताक़त की मदद से यह उपाय कर सकें कि सैक्स को लेकर आपके पास एक नितान्त वैयक्तिक सम्बन्ध हो (वह नहीं जो परम्पराओं से प्रभावित होता है), तब आपको अपने आप को खोने अपनी सबसे बेशकीमती चीज़ के अयोग्य पाने का भय नहीं रहेगा.

शारीरिक आनन्द एक संवेदनात्मक अनुभव होता है, निखालिस देखने और महसूस करने से ज़रा भी अलग नहीं, जिससे एक सुन्दर फूल आपकी जीभ को भर देता है; हमें दिया गया यह एक महान और अनन्त ज्ञान है, संसार का एक ज्ञान, सारे ज्ञान का भरापूरापन और उसका वैभव. और ऐसा नहीं कि इस बात को हमारा अस्वीकार करना ग़लत है; ग़लत यह है कि ज़्यादातर लोग इस ज्ञान का दुरुपयोग करते हैं और उसे यूं ही ख़र्च कर देते हैं और अपने जीवन के थकी हुई जगहों में उसका इस्तेमाल किसी उत्तेजक की तरह मनबहलाव के लिए करते हैं बजाए अपने महानतम क्षणों के लिए अपने आप को इकठ्ठा करने के. लोगों ने तो खाने को भी कुछ और बना दिया है: एक तरफ़ वह आवश्यकता है, दूसरी तरफ़ अति; लोगों ने इस आवश्यकता की स्पष्टता को गन्दला कर दिया है, और तमाम गूढ़ और साधारण ज़रूरतें, जिनमें जीवन अपने को नया बनाता है, वे भी उतनी ही मटमैली हो गई हैं. लेकिन व्यक्ति उन्हें साफ़ कर सकता है और सफ़ाई के साथ उन्हें जी सकता है (यहां एकाकी व्यक्ति की बात है न कि किसी पर आश्रित की). वह याद कर सकता है कि पशुओं और पौधों की सारी सुन्दरता, प्रेम और करुणा की स्थाई आकृति होती है, और वह पशु को देख सकता है, जैसे वह ख़ुशी-ख़ुशी और धैर्यपूर्वक पौधों को जुड़ते, गुणित होते और बढ़ते देखता है और ऐसा किसी शारीरिक आनन्द के लिए नहीं, किसी शारीरिक पीड़ा के लिए नहीं बल्कि उन आवश्यकताओं के समक्ष झुकते हुए जो आनन्द और पीड़ा से महत्तर होती हैं और इच्छाशक्ति से अधिक ताकतवर और पायेदार. बजाए इसे हल्के में लेने के अगर मानवजाति इतना भर कर पाती कि इस रहस्य को अधिक विनम्रता के साथ ग्रहण करती जिस से संसार अटा पड़ा है, जो उसकी क्षुद्रतम वस्तु में भी है, अगर वह इसे ढो पाती, दृढ़तापूर्वक इसका सामना कर पाती, महसूस कर पाती कि यह किस कदर भारी है. अगर वह अपने उस उपजाऊपन की रक्षा करने के लिए अधिक नम्र होती जो कि मूलतः एक ही है, चाहे वह मानसिक रूप से परिलक्षित हो या शारीरिक; क्योंकि मानसिक रचना भी शरीर से ही उपजती है और उसकी प्रकृति वैसी ही होती है अलबत्ता वह शारीरिक आनन्द का एक अधिक सौम्य, अधिक भावपूर्ण और अधिक अनन्त दोहराव होता है. "एक सर्जक बनने का, जन्म और आकार देने का विचार" संसार में उस की सतत महान सुनिश्चितता और अभिव्यक्ति के बग़ैर कुछ नहीं है, वस्तुओं और पशुओं में दिखने वाले हज़ार-तहों वाले स्वीकार के बग़ैर कुछ नहीं है - और इस से हमें मिलने वाला आनन्द अवर्णनीय तरीके से सुन्दर और भरपूर महज़ इसलिए होता है कि वह लाखों-लाख के जन्म ले चुकने की उत्तराधिकार में मिली स्मृतियों से ठसाठस होता है. एक रचनात्मक क्षण में प्रेम की एक हज़ार विस्मृत रातें अपनी शान और गरिमा के साथ पुनर्जीवित हो जाती हैं. और वे जो रातों को इकठ्ठा हो कर एक डोलते हुए आनन्द में गुंथे होते हैं दर असल एक महान कार्य कर रहे होते हैं और भाविष्य के किसी कवि के गीत के वास्ते मिठास, गहराई और ताक़त इकठ्ठा कर रहे होते हैं, जो अकथनीय आनन्दातिरेकों को कहने के लिए प्रकट होगा. और वे भविष्य को पुकारते हैं; और अगर उन्होंने कोई ग़लती की भी है और वे अन्धे होकर एक दूसरे का आलिंगन कर रहे होते हैं, भविष्य तो तब भी आएगा, एक नया मानव प्रकट जीव होगा और जो दुर्घटना यहां घट चुकी दिखती है उसकी बुनियाद पर वह नियम जागृत होता है जिसकी मदद से एक मज़बूत, दृढ़निश्चयी बीज अपना रास्ता स्पष्टतः उसकी तरफ़ आगे बढ़ती अण्ड-कोशिका तक बनाता है. सतहों को लेकर सशंकित मत होइए; गहराइयों में हरेक चीज़ नियम बन जाती है. और वे जो रहस्य को झूठे और ग़लत तरीक़े से जीते हैं (और ऐसे ढेर सारे हैं) वे उसे अपने वास्ते गंवा देते हैं और उसे बिना जाने किसी बन्द चिठ्ठी की तरह आगे जाने देते हैं. और इस बात से परेशान मत होइए कि कितने सारे नाम हैं और जीवन किस कदर जटिल लगता है. सम्भवतः एक सामुदायिक उत्कंठा की आकृति में उन सब के ऊपर एक महान मातृत्व होता है. किसी लड़की का सौन्दर्य, वह व्यक्ति जिसने (जैसे कि आप इतनी खूबसूरती से कहते हैं) "अभी तक कोई उपलब्धि हासिल नहीं की है" एक मातृत्व है जिसे अपने बारे में एक पूर्वाभास है और जो तैयार होना शुरू कर देता है, चिन्तित होता है और इच्छाएं करता है. और माता का सौन्दर्य वह मातृत्व है जो सेवा करता है, और पुरानी स्त्री के भीतर महान स्मृतियां होती हैं. और मुझे ऐसा लगता है कि पुरुष के भीतर भी शारीरिक और मानसिक मातृत्व होता है; उसका जन्म देना जन्म लेना भी है, और यह जन्म लेना है जब वह अपने अन्तरतम भरपूरपन से रचता है. और शायद स्त्री-पुरुष उससे ज़्यादा समान होते हैं जितना लोग सोचते हैं, और संसार के महान नवीनीकरण में सम्भवतः एक अद्भुत घटना घटेगी: कि स्त्री और पुरुष, सभी ग़लतफ़हमियों और द्वेष से मुक्त होकर एक दूसरे को अपना विलोम नहीं बल्कि भाई-बहन जैसा समझेंगे, और मानवों की तरह मिल जाएंगे, ताकि अपने ऊपर थोपे गए उस भारी सैक्स को सादगी और ईमानदारी से साझा कर सकें.

लेकिन हरेक चीज़ जो किसी दिन कई लोगों के लिए सम्भव हो, एकाकी आदमी उसे अभी तैयार और निर्मित कर सकता है अपने हाथों से, जो कम ग़लतियां करते हैं. इसलिए प्रिय मान्यवर, अपने एकाकीपन से प्रेम कीजिए और उस दुःख के साथ गाने की कोशिश कीजिए जो इसकी वजह से आप को पहुंचता है. आप लिखते हैं कि आप उन लोगों के लिए बहुत दूर हैं जो आपके नज़दीक हैं, और यह दिखाता है कि आपके आसपास का स्थान विशाल होता जा रहा है. और अगर आपके नज़दीक की चीज़ें सुदूर हैं तो आपकी विशालता अभी से सितारों के बीच है और बहुत महान है; अपने विकास को लेकर प्रसन्न होइए, जिसमें निस्संदेह आप किसी को भी अपने साथ नहीं ले जा सकते, और जो पीछे रह गए हैं उनके साथ उदार होइए; उनके सामने निडर और शान्त रहिए और उन्हें अपनी शंकाओं से यातना मत दीजिए, न ही उन्हें अपने यक़ीन और आनन्द से डराइए, वे उसे समझ ही नहीं सकेंगे. उनके साथ जो भी सादा और सच्ची भावनाएं आप साझा कर सकते हैं उन्हें खोजिए, जिन्होंने ज़रूरी नहीं कि आपके लगातार बदलते जाने के साथ बदलना ही हो; और जब आप उनसे मिलें जीवन को एक ऐसे आकार में प्रेम कीजिए जो अभी आपका नहीं है और जो बूढ़े हो रए हैं उनके साथ दयालु बनिए, जिन्हें उस अकेलेपन से डर लगता है जिस पर आप यक़ीन करते हैं. उस नाटक के लिए सामग्री मुहैया कराने से बचिए, जो मां-बाप और बच्चों के दराम्यान सदैव खिंचा रहता है; उसकी वजह से बच्चों की ज़्यादातर ताक़त ख़र्च हो जाती है और बड़ों का प्रेम बरबाद जाता है, जो न समझने के बावजूद काम करता है और ऊष्ण रखता है. उनसे किसी भी तरह की सलाह मत मांगिए और अपने समझे जाने की उम्मीद भी मत रखिए; लेकिन एक ऐसे प्रेम में विश्वास रखिए जो आपके लिए किसी उत्तराधिकार की तरह इकठ्ठा किया जा रहा है और यक़ीन कीजिए कि इस प्रेम के भीतर इतनी शक्ति और आशीष है कि आप इस से बाहर निकले बिना भी जितनी दूर तक जाना चाहें जा सकते हैं.

यह अच्छा है कि जल्द ही आप एक ऐसे पेशे में होंगे जो आपको स्वतन्त्र बनाएगा और आप हर तरह से अपने स्वामी होंगे. धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कीजिए और देखिए कि क्या इस पेशे की वजह से आपका आन्तरिक जीवन सीमित तो नहीं हो रहा है. ख़ुद मुझे यह बेहद मुश्किल और सख़्त लगता है, चूंकि इस पर विपुल परम्पराएं लदी हुई हैं और इसके कर्तव्यों के व्यक्तिगत स्पष्टीकरण के लिए बहुत कम गुंजाइश बचती है. लेकिन आपका एकान्त आपके लिए शक्ति और घर का काम करेगा, चाहे आप बेहद अपरिचित परिस्थितियों से दो-चार हों, और उस से आप अपने सारे रास्ते खोज लेंगे. मेरी तमाम सदेच्छाएं आपका साथ देने को तत्पर हैं और मेरा विश्वास आपके साथ है.

आपका,

रेनर मारिया रिल्के

एक युवा कवि को पत्र - ३ - रेनर मारिया रिल्के

(पत्र १, पत्र २ से आगे)


वीयारेजिओ, पीसा के नज़दीक (इटली)
२३ अप्रैल, १९०३

ईस्टर वाले अपने पत्र से आपने मुझे बहुत ख़ुशी दी प्रिय श्रीमान, क्योंकि वह आपके समाचार ले कर तो आया ही जिस तरह से आपने जैकबसन की महान और प्रिय कला के बारे में लिखा है उसने मुझे दिखाया कि मैं जीवन और उसके प्रचुर प्रश्नों को लेकर आपका मार्गदर्शन करने में ग़लत नहीं था.

अब "Niels Lyhne" आपके सामने वैभवों और गहराइयों की एक पुस्तक को उद्घाटित करेगी; आप जितनी बार इसे पढ़ते हैं जीवन की सर्वाधिक अबूझ सुगधियों से लेकर इसके सबसे भारी फलों के सम्पूर्ण और विशाल स्वाद तक उतनी ही ज़्यादा चीज़ें इसके भीतर समाई हुई लगती हैं. इसके भीतर ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसे स्मृति की हिचकिचाहटभरी गूंज में समझा न गया हो, थामा, जिया और जाना न गया हो; कोई भी अनुभव बहुत महत्वहीन नहीं है और सूक्षमतम घटना किसी नियति की तरह प्रकट होती है और स्वयं नियति एक ऐसे अचरजकारी चौड़े वस्त्र सरीखी है जिसमें हरेक धागा किसी अतीव मुलायम हाथ द्वारा निर्देशित होता है और किसी दूसरे धागे की बग़ल में धर दिया जाता है और सैकड़ों और धागे उसे थामे हुए सहारा देते हैं. इस किताब को पहली दफ़ा पढ़ते हुए आप को महान प्रसन्नता का अनुभव होगा और आप इस के असंख्य आश्चर्यों से होते हुए गुज़रेंगे जैसे कि आप किसी नए स्वप्न के भीतर हों. लेकिन मैं आपको बता सकता हूं कि बाद में भी जब आप बार-बार उसी आश्चर्य के साथ इन किताबों से होकर गुज़रते हैं वे अपनी अचरजकारी ताकत ज़रा भी नहीं खोतीं न ही वह ज़बरदस्त जादू कभी ख़त्म होता है जिसका अनुभव आप को पहली दफ़ा पढ़ते वक़्त हुआ था. समय के साथ साथ आप उनका और और अधिक आनन्द उठाने लगते हैं, और अधिक कृतज्ञ महसूस करते हैं और अपनी निगाह में किंचित बेहतर और सादा, जीवन के प्रति अधिक गहरे विश्वास से भरे हुए और अपने जीवन में अधिक प्रसन्न और महत्तर.

और बाद में आपको मैरी ग्रुब्बे की नियति और उसकी इच्छाओं की वह शानदार किताब पढ़नी होगी, और जैकबसन की चिठ्ठियां और रोज़नामचे और टुकड़े, और अन्ततः उसकी कविताएं (हालांकि उनका अनुवाद बस ठीकठाक ही हुआ है) जो अनन्त ध्वनि में रहती हैं. (इसी कारण मैं आपको, जब भी आप ऐसा कर सकें, जैकबसन के सम्पूर्ण कृतित्व का बेहतरीन संस्करण खरीद लेने की सलाह दूंगा, जिसमें यह सब शामिल है. यह तीन खण्डों में है, बढ़िया अनूदित हुआ है और लाइपज़िग में यूजेन डाइड्राइख़्स से छपा है और मेरे ख़्याल से हरेक खंड की कीमत पांच या छः मार्क है.)

"ग़ुलाबों ने यहां होना चाहिए था ..." (अद्वितीय मुलायमियत और प्रारूप वाली वह रचना) से सम्बन्धित अपने विचारों में आप निस्संदेह, निस्संदेह निर्विवाद रूप से सही हैं, उस व्यक्ति के बरख़िलाफ़ जिसने प्रस्तावना लिखी है. लेकिन इसी पल मुझे यह निवेदन कर लेने दीजिए: साहित्यिक आलोचना का जितना कम से कम सम्भव हो, उतना ही पढ़ें. ऐसी चीज़ें या तो पक्षपातपूर्ण विचार होते हैं, जो पत्थर बन चुके हैं, अर्थहीन हैं, कड़ियल पड़ चुके हैं और जीवन से रहित या वे चालाक शाब्दिक खेल होती हैं जिसमें एक दृष्टिकोण जीतता है, और कल बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण जीत सकता है. कलाकृतियां अनन्त एकाकीपन से उपजती हैं और उन तक पहुंचने का कोई भी साधन आलोचना जैसा निरर्थक नहीं हो सकता. उनके साथ न्यायपूर्ण होने के लिए और उन्हें स्पर्श करने और थामने में केवल प्रेम सक्षम है. हमेशा अपने आप को और अपनी संवेदना पर विश्वास कीजिए, बजाए बहस मुबाहिसों और ऐसी चीज़ों के, अगर यह सामने आता है कि आप ग़लत हैं तो आपकी अन्दरूनी ज़िन्दगी का नैसर्गिक विकास आपको दूसरे किस्म की परखों तक ले जाएगा. अपने फ़ैसलों को उनका निशब्द निर्बाध विकास करने दीजिए, किसी भी तरह का विकास भीतर की गहराइयों से आता है, उसे ज़बरन थोपा नहीं जा सकता या उसकी गति नहीं बढ़ाई जा सकती. सारा कुछ गर्भावस्था है और उसके बाद जन्म देना. हर प्रभाव और हर संवेदना के भ्रूण को उसकी सिर्फ़ उसी के भीतर, अन्धेरे में, अकथनीय में, अचेतन में, अपनी ख़ुद की समझ से परे सम्पूर्णता तक पहुंचाना, और गहरी विनम्रता और धैर्य के साथ उस पल का इन्तज़ार करना जब एक नई स्पष्टता जन्म लेती है: एक कलाकार के तौर पर जीना सिर्फ़ यही है: समझने में और रचने में.

इस में समय के साथ कोई नापतौल नहीं हो सकती, एक साल का कोई मायना नहीं होता, और दस साल कुछ नहीं होते. कलाकार होने का मतलब है: गिनती न करना, बल्कि किसी पेड़ की तरह पकना, जो अपने सार के साथ ज़बरदस्ती नहीं करता और वसन्त के तूफ़ानों के सामने आत्मविश्वास से खड़ा रहता है, वह आसन्न गर्मियों से भयभीत नहीं होता. गर्मियां आती हैं. लेकिन वे उन्हीं के लिए आती हैं जो धैर्यवान होते हैं, जो वहां इस तरह उपस्थित रहते हैं मानो अनन्तता उनके सामने पसरी हुई हो, इस कदर चिन्ताहीन, खामोश और विशाल. मैं अपने जीवन के हर दिन इस बात को सीखता हूं, दर्द के साथ सीखता हूं जिसके लिए मैं कृतज्ञ हूं: धैर्य ही सब कुछ है!

रिचर्ड देमेल: उसकी किताबों (और साथ ही स्वयं उस के साथ जिसे मैं इत्तफ़ाक़न थोड़ा बहुत जानता हूं) के साथ मेरा अनुभव यह रहा है कि जब भी मुझे उसका कोई ख़ूबसूरत पन्ना मिलता है, मैं हमेशा भयभीत हो जाता हूं कि अगला पन्ना समूचे प्रभाव को नष्ट कर देगा और जो प्रशंसनीय है उसे अयोग्य बना देगा. आपने उसे "गर्मी में रहने और लिखने वाला" कह कर उसका बढ़िया चरित्रचित्रण किया है. और असल में कलाकार का अनुभव इतने अविश्वसनीय तरीक़े से सैक्सुअलिटी के नज़दीक है, उसके दर्द और उल्लास के, कि दोनों तथ्य दर असल एक ही इच्छा और आनन्द के अलग-अलग रूप हैं. और अगर "गर्मी" के स्थान पर आप "सैक्स" कह सकते - चर्च द्वारा उसके साथ सम्बद्ध किए गए पाप के बिना अपने विशुद्ध शाब्दिक अर्थ में सैक्स - तब उसकी कला बेहद महान और अनन्त महत्वपूर्ण हो जाएगी. उसकी काव्यात्मक शक्तियां महान हैं और आदिम सहजज्ञान जैसी मज़बूत; उसके पास अपनी एक क्रूर लय है जो उसके भीतर से किसी ज्वालामुखी की तरह विस्फोटित होती है.

लेकिन यह ताक़त हमेशा पूरी तरह खरी और मुद्राहीन नहीं लगती. (लेकिन सर्जक के लिए यह सबसे मुश्किल इम्तहान होता है, उसे हमेशा अचेत रहना होता है, अपने सर्वश्रेष्ठ गुणों से बेख़बर, अगर वह उनसे उनकी स्पष्टवादिता और मासूमियत छीनना नहीं चाहता!) और जब उसके अस्तित्व में गरजती हुई चीज़ें सैक्सुअलिटी पर आती हैं, उनका सामना एक ऐसे आदमी से होता है जो वांछनीय रूप से उतना शुद्ध नहीं है. सैक्सुअलिटी के एक सम्पूर्ण और शुद्ध संसार के स्थान पर उसे एक ऐसा संसार मिलता है जो पर्याप्त रूप से मानवीय नहीं, जो सिर्फ़ नर है, गर्मी है और तूफ़ान है और बेचैनी और जिस पर वह पुरातन पूर्वाग्रह और अराजकता लदे हुए हैं जिस की मदद से पुरुष ने प्रेम को कुरूप और बोझिल बनाया है. चूंकि वह सिर्फ़ एक पुरुष की तरह प्रेम करता है. किसी मनुष्य की तरह नहीं, उसकी सैक्सुअल भावना में कोई संकरी चीज़ होती है, कोई चीज़ जो जंगली, विद्वेषपूर्ण, समयबद्ध, अनन्तहीन है और जो उसकी कला को धुंधला करती है और उसे अस्पष्ट और संदिग्ध बनाती है. वह बेदाग नहीं होती, उस पर समय और वासना के निशान होते हैं और उसका थोड़ा सा हिस्सा ही बचा रहेगा. (लेकिन ज़्यादातर कला ऐसी ही होती है!) तो भी, उसके भीतर जो कुछ महान है आप उसका गहन आनन्द उठा सकते हैं, अलबत्ता आपने उसमें खोना नहीं चाहिए और न ही देमेल के संसार से बंधा रहना जो बेहद भयभीत और व्याभिचार और संशय से भरा हुआ है, और वास्तविक नियतियों से कहीं दूर है, जिनमें आपको समयबद्ध दुखों से ज़्यादा यातना भोगनी होती है, और जो महानता के लिए आपको अधिक मौक़े और अनन्तता के लिए अधिक साहस मुहैया कराती हैं.

अन्ततः जहां तक मेरी किताबों का सवाल है, मैं चाहता हूं कि उनमें से आपको कुछ भेज सकूं जो आपको प्रसन्नता दें. लेकिन मैं बहुत निर्धन हूं और मेरी किताबें छपने के साथ ही मेरी नहीं रह जातीं. मैं ख़ुद उन्हें नहीं ख़रीद पाता और जैसा मैं अक्सर करता हूं, उन्हें उन लोगों को दे देता हूं जो उनके साथ दयालुता बरतते हैं.

सो मैं कागज़ की एक अलग स्लिप पर अपनी हालिया किताबों के शीर्षक (और उनके प्रकाशकों के नाम) लिख कर भेज रहा हूं (सबसे ताज़ा- कुल मिलाकर मैंने सम्भवतः १२ या १३ प्रकाशित की हैं) प्रिय मान्यवर मैं यह आप पर छोड़ता हूं कि आप जब ऐसा कर सकें उनमें से एक या दो ख़रीदे लें.

मैं खुश हूं कि मेरी किताबें आपके हाथों में होंगी.

शुभकामनाओं समेत

आपका
रेनर मारिया रिल्के

Saturday, August 27, 2011

एक युवा कवि को पत्र - २ - रेनर मारिया रिल्के

(पत्र-१ से जारी)


वीयारेजिओ, पीसा के नज़दीक (इटली)
५ अप्रैल, १९०३

२४ फ़रवरी के आपके पत्र को कृतज्ञतापूर्वक याद करने के लिए आज तक प्रतीक्षा करने लिए आपने मुझे माफ़ करना चाहिए, प्रिय श्रीमान. इस पूरे समय मैं ठीक नहीं था, बीमार नहीं कह सकते पर मैं इन्फ़्लूएन्ज़ा जैसी अशक्तता से पीड़ित हूं, जिसकी वजह से मैं कुछ भी नहीं कर पाता. और अन्ततः, चूंकि यह ठीक होना ही नहीं चाहती मैं यहां दक्षिणी समुद्र की तरफ़ चला आया जिसकी दानशीलता ने एक बार पहले मेरी मदद की थी. लेकिन मैं अब भी ठीक नहीं हूं, लिखना मुश्किल होता है इसलिए आपको उस पत्र के बदले इन चन्द पंक्तियों को ही स्वीकार करना होगा, जिसे मैं भेजना चाहता था.


निस्संदेह आपको जानना चाहिए कि आपका हर पत्र मुझे आनन्द देता है और उत्तर को लेकर आपको अनुग्रहशील होना होगा, हो सकता है अक्सर आप खाली हाथ रह जाएं; क्योंकि अन्ततः और स्पष्टतः सबसे गहन और सबसे महत्वपूर्ण मामलों में हम अकथनीय रूप से अकेले होते हैं; और अगर एक मनुष्य ने दूसरे को सफलतापूर्वक सलाह देनी है तो कई सारी चीज़ों ने घटना होगा, कई चीज़ों ने सही होना होगा और घटनाओं का एक पुंज पूरा किया जाना होगा.

आज मैं आप को सिर्फ़ दो और बातें बताना चाहूंगा:

विडम्बना: अपने आप को इस से नियन्त्रित मत होने दीजिए, ख़ासतौर पर अरचनात्मक क्षणों में. जब आप पूरी तरह रचनाशील हों तो जीवन को थामने के एक और प्रयास के तौर पर इसका इस्तेमाल करें. शुद्धता से इस्तेमाल की जाए तो यह भी शुद्ध होती है, और आपको इसे लेकर शर्मिन्दा होने की ज़रूरत नहीं, लेकिन अगर आप को लगता है कि आप इस से ज़रूरत से ज़्यादा परिचित हो रहे हैं, अगर आपको इस बढ़ते परिचय से भय लगता है, तो अपना ध्यान महान और गम्भीर चीज़ों की तरफ़ मोड़िए, जिनके सामने यह क्षुद्र और असहाय हो जाती है. चीज़ों की गहराई में जा कर खोजिए: विडम्बना कभी नीचे नहीं उतरती और जब आप महानता के छोर पर पहुंचें, खोजने की कोशिश कीजिए कि क्या संसार को समझने का यह तरीका आपके अस्तित्व की एक आवश्यकता से उभरा है. गम्भीर चीज़ों के प्रभाव के सम्मुख या तो यह आपसे परे छिटक जाएगी (अगर यह आकस्मिक है) या (अगर यह स्वाभाविक है और आपकी है) शक्तिशाली हो कर एक गम्भीर उपकरण बन जाएगी और उन उपकर्णों के साथ अपनी जगह बना लेगी जिनकी मदद से आप अपनी कला को आकार देते हैं.

और दूसरी बात जो मैं आपको बताना चाहता हूं, ये रही:

मेरी सारी किताबों में से कुछ ही मुझे अनिवार्य लगती हैं, और उनमें से दो हमेशा मेरी साथ रहती हैं, चाहे मैं कहीं भी होऊं. वे हमेशा मेरी बग़ल में रहती हैं: बाइबिल और महान डेनिश कवि जेन्स पीटर जैकबसन की किताबें. क्या आप उस के काम से वाक़िफ़ हैं? उसकी किताबें खोजना आसान है क्योंकि उनमें से कुछ के काफ़ी अच्छे अनुवाद रिकाम यूनीवर्सल लाइब्रेरी ने छापे हैं. जे. पी. जैकबसन की छः कहानियों वाली नन्ही किताब और उसका उपन्यास Niels Lyhne खरीद लीजिए और पहली किताब की पहली कहानी "मोजेन्स" से शुरू कीजिए. एक समूचा संसार, ख़ुशी, सम्पन्नता और एक संसार का कल्पनातीत फैलाव
आपको अपनी आग़ोश में ले लेगा. इन किताबों के साथ कुछ दिन रहिए, उनसे वह सीखिए जो आपको लगता है सीखे जाने योग्य है लेकिन सबसे ज़रूरी बात यह कि उनसे प्यार कीजिए. यह प्रेम आपको हज़ारों हज़ार गुना बढ़कर वापस मिलेगा; आपके जीवन का जो भी बने, मैं निश्चित हूं कि यह आपके अस्तित्व के ताने-बाने में अनुभवों, खुशियों और निराशाओं के धागों बीच सबसे महत्वपूर्ण धागों में एक बनेगा.

अगर मुझे कहना होता कि रचनात्मकता के मूलतत्व, उसकी गहराई और अमरता का महानतम अनुभव मुझे किसने दिया तो मैं सिर्फ़ दो नामों का ज़िक्र करूंगा: महान, महान कवि जैकबसन और शिल्पकार अगस्त रोदां, जो आज जीवित सभी कलाकारों में श्रेष्ठतम है.

आप को सफलता मिले.

आपका

रेनर मारिया रिल्के

(फ़ोटो - मशहूर चित्रकार बैलाडीन क्लोसोव्स्का के साथ रिल्के. रिल्के और बैलाडीन की पहली मुलाक़ात १९१९ में हुई थी. इस मुलाक़ात के बाद दोनों में एक विकट क़िस्म का प्रेम-सम्बन्ध शुरू हुआ जो १९२६ में रिल्के की मृत्यु के साथ ही समाप्त हुआ. अपने पत्र-व्यवहार में रिल्के बैलाडीन को "मरलीन" नाम से सम्बोधित किया करता था. ये पत्र किताब की सूरत में रिल्के के मरने के बाद छपे. इस मुतल्लिक फिर कभी)

जंतरमंतर से रामलीला मैदान तक एक आंदोलन

अण्णा हज़ारे के "आन्दोलन" को लेकर यह आलेख हमारे कबाड़ी साथी शिवप्रसाद जोशी ने दोएक दिन पहले भेजा था. कुछ तकनीकी परेशानियों के चलते मैं इसे आज लगा पा रहा हूं.


जंतरमंतर से रामलीला मैदान तक एक आंदोलन


-शिवप्रसाद जोशी


अण्णा हज़ारे और उनके सहयोगियों के आंदोलन की गूंज से देश का समूचा मध्यवर्ग थरथरा उठा. न जाने ऐसा क्या हो गया है कि क्रांति और दूसरी आज़ादी और एक विलक्षण कायापलट की संभावनाएं एकाएक प्रकट हो गई हैं. महानगर और राज्यों की राजधानियां और क़स्बे इस संभावना पर लोटपोट हो रहे हैं. लोटपोट कुछ ऐसे ढंग से हो रहा है कि लोगों को लग रहा है कि भ्रष्टाचार ये मिटा वो मिटा. ये जैसे समाज और आंदोलन में क्रिकेट हो गया है. ये खुमारी जैसी है. ये बड़ी विकट किस्म की खुमारी है.

इसका संबंध ज़ाहिर है एक बहुत लंबे समय की फ़जीहतों के समय से है. ये समय 1947 से भी पहले 1857 से शुरू होता है. या शायद उससे पहले आप तारीख ले जाएं वहां जहां विरोध के बुलबुले फूटते ही थे.

16 अगस्त को गांधी से जोड़ने की और उनके साथ साथ भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों से जोड़ने की सुविधा का आंदोलन भी ये बना. ये एक ऐसे शत्रु के ख़िलाफ़ सुविधा शांति निश्चिंतता से भरा आंदोलन हो गया जहां पराजय का संकट नहीं हैं उसकी ग्लानि और उसका दंश नहीं है और किसी भी क़िस्म का कोई भय नहीं है. सब आ रहे हैं. चलो एक उत्सव है. कुछ के लिए एक अपनी बुनियादी भूमिका से बंक करने का वक़्त हो गया है. ये उदारवाद के युग की एक आसान और नाटकीय क्रांति है. यहां धूप और मिट्टी और धूल में रगड़ नहीं खानी है. यहां ख़ून की उछाड़ पछाड़ नहीं है. ये एक भोलीभाली एक्सरसाइज़ सहज प्राप्य संतोष और सदइच्छा का एक लंबे समय से दमित और अचानक प्रस्फुटित गुबार है. मैदान से लेकर मुर्दाबाद तक सबकुछ मुहैया कराया गया है. मैं भी अण्णा हम भी अण्णा भ्रष्टाचार और सत्ता राजनीति से त्रस्त रहे और अभयस्त हो चुके विशाल मध्यवर्ग के लिए राहत की संभावना की एक ठोस मज़बूत नली है. वे सोच रहे हैं कि लोकपाल आ जाएगा तो रिश्वत मांगने की जुर्रत न करेगा कोई सरकारी मशीनरी में.

एक बहुत निराला क़िस्म का विक्षोभ मध्यवर्ग में आ रहा है और वो अब ज़रा भ्रष्टाचार से निजात चाहता है. गोकि भ्रष्टाचार भी कोई स्याही है जिसे मिटाया जाना मुमकिन है. निजी कंपनियां, एनजीओ, नेता, दल, व्यापारी, दुकानदार, कर्मचारी, रिटायर्ड बिरादरी, थोक और फुटकर विक्रेता सब आ जा रहे हैं. छात्र भी ज़्यादा हैं. वे इसे युवा शक्ति कह रहे हैं.

एक पूरा ज़ोर लगाया जा रहा है कि कुछ गिर जाए. क्या गिराना चाहते हैं वे. क्या ये अपनी ही नैतिकता पर लंबे समय से रखा बोझ होगा. वे कौन है जो इस आंदोलन के पार्श्व में हैं और वहां से उसे फुला रहे हैं. और जब ये भीड़ न होगी जब लोग थक कर घरों को लौट जाएंगे जब एक टाइमिंग पूरी हो चुकी होगी तब क्या होगा. या दूसरा दृश्य सोचें कि लोकपाल बिल वैसा आ जाएगा जैसा मांगा जा रहा है जल्द ही पास हो जाएगा कानून बन जाएगा. या जिसकी ज़्यादा संभावना है कि अण्णा बिरादरी का ड्राफ़्ट भी रहे सरकार का भी रहे मिला जुलाकर बहुत सारे राय मशविरे के बाद एक बिल आ जाए, चर्चा हो जाए ढेर सारी और एक क़ानून बन जाए. उसके बाद. उसके बाद क्या करेंगे. लोकपाल की नियुक्ति उसका अमला तामझाम उसकी मशीनरी उसका दीन कौन होगा वहां.
मशहूर समाजशास्त्री आंद्रे बेते को इस आंदोलन पर संदेह है. उनका कहना है कि सही है कि लोगों को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बोलने का मौक़ा मिला है लेकिन वो फिर भी इसका सर्मथन नहीं करते क्योंकि पहले से ही जर्जर अस्थिर राज्य को इस जैसे आंदोलन और कमज़ोर करेंगे. बेते जैसे विद्वानों को इस आंदोलन को नागरिक बिरादरी का आंदोलन कहे जाने पर भी एतराज़ है.

बहरहाल उत्तरआधुनिकता वालों के लिए ये महायज्ञ जैसा हो गया है. जिसकी अभूतपूर्व टीवी कवरेज हो रही है. मीडिया का एक मालिक जो अपने स्ट्रिंगर अपने संवाददाता से कहता है कि बिजनेस लाओ जैसे जैसे भी वो अब लोकपाल लाओ की मुहिम को गर्वीलेपन से दिखाता है. सब अचानक कायांतरित होकर आत्मिक वैचारिक और भौतिक तौर पर धवल हो चुके हैं. ये देश में छा गई नव धवलता है.

हो क्या रहा है. ये गाना बजाना ये शोरोगुल ये हुंकार ये भगतसिंह ये गांधी ये क्रांति ये नाच ये जुलूस ये मोमबत्तियां ये स्टिकर ये टोपियां ये मुखौटे ये कटआउट इतने ज़्यादा क्यों हो गए. अण्णा आंदोलन की तो ये मंशा नहीं थी शायद. नागरिक बिरादरी के सक्रिय लोग इस “उत्सव” की तो मंशा नहीं कर रहे होंगे कि यही मुराद है. रामलीला मैदान ही देश क्यों बताया जा रहा है. लोकपाल क्या मध्यवर्ग की सुविधा के लिए लाया जाने वाला बिल है.

क्या इस देश की अधिसंख्य आबादी इस लोकपाल से मुक्ति की सांस ले पाएगी. क्या असंगठित क्षेत्र का तबका जो दायरे में ज़रा ज़्यादा ही ठहरता है वो अपनी रोटी और रोज़गार के नियंता ठेकेदार मालिक से एक नई मुक्ति की अपेक्षा कर सकेगा. ऐसी मुक्ति कि उसे रोज़गार ठोस मिले और जो मिले उसका मानदेय भरपूर न्यायसंगत मिले. क्या इस आंदोलन में दूसरे ज़मीनी आंदोलनों को सपोर्ट देने की ताब है. क्या मध्यवर्ग के इस मार्च में ठेकेदार बाहर रहे हैं या वे भी मैं अण्णा हूं कि टोपी पहने हैं.

एक सोई हुई सरकार को जगाने के लिए क्या फिर से कभी रामलीला मैदान जाना होगा. क्या हमारे समय की लड़ाइयां इतनी आसान हो जाएंगी. क्या रामलीला मैदान या तिहाड़ के दृश्यों से कमतर वे दृश्य हैं जो पोस्को के ख़िलाफ़ उड़ीसा के बच्चों के ज़मीनों पर लेटे हुए हमने कुछ देखे हैं. जैसे वे आसमान से गिरकर आए हुए कोई फूल हैं और ज़मीन पर बिछ गए हैं कि उन्हें फिर से उगने की चाहत है.

टीवी वहां क्यों नहीं गया. क्यों नहीं पोस्को या वेदांत को जाने के लिए कह दिया जाता. वे हमारे उन खनिज और पानी और जीवन भरे पहाड़ों-पठारों के पास फिर न फटकते और विकास की दुहाई के लिए ये नवउदारवादी सेनाएं वहां बारबार किसी न किसी ढंग से लौटती हुई न आ जातीं.

आज कांग्रेस उसकी मुखिया उसके सिपहसलार उसकी सरकार के नुमायंदे उसके मुखिया बहुत सारे राजनैतिक दल दुविधा और अज़ोबोग़रीब खीझ से भरे हुए क्यों हैं. इसलिए कि उन्होंने देश की नब्ज़ नहीं देखी कि ठीक कहां धड़क रही है. राहुल गांधी एक संभावना बनकर कांग्रेस के भीतर एक नए ताप के प्रतीक बनते दिखे. उन्होंने उड़ीसा के लोगों से कहा मैं दिल्ली में आपका सिपाही हूं. सिपाही के पास न बंदूक थी न विचार न साहस न प्रेरणा.

सिपाही गुम हो गया. लोगों को ज़मीन पर लेटकर ज़मीन बचाने के लिए आंदोलन करना पड़ा. लेकिन सरकारें क़ानून को बुलडोज़र बना देती हैं. वे निरीह ग़रीब पर गर्वीले दुस्साहसी जन कब तक अपनी धरतियों से चिपके रहेंगे. वे कब जीवन जिएंगे. उनके बच्चे कब उठेंगे कब स्कूल जाएंगे. अण्णा देश के समूचे मध्यवर्ग को लेकर वहां चले जाएं. सारे टीवी कैमरे सारे विश्लेषक वहां चले जाएं. सारे रणनीतिकार सारे चाटुकार सारे सिपहसालार वहां चले जाएं. खनिज संपदा और देश की आर्थिक तरक्की का विदेशी निवेश को रिझाने का अपनी सामर्थ्य बढ़ाने का का वो एक अभूतपूर्व केंद्र है. और वो एक पूरा गलियारा है. जो बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश तक ज़्यादा है. ये एक पूरी की पूरी पट्टी है जहां टोपीविहीन आंदोलन की तपिश है. जनमानस दिल्ली और आसपास और टीवी और उसके आसपास से बनता होगा पर यहां जो बन रहा है उसे क्या कहेंगे.

अण्णा कहते हैं 65 फ़ीसदी भ्रष्टाचार मिट जाएगा अगर लोकपाल आ जाए. जन लोकपाल. वो 35 फ़ीसदी हिस्सा कौन सा होगा जिसके न मिट पाने की हिचकिचाहट अण्णा को है.

क्या ये उस “क्रांति” की अगली कड़ी है जो हमने कुछ साल पहले एक हिंदी फ़िल्म के ज़रिए समाज में घटित होते देखी थी जब गुलाबों और नाना पुष्पगुच्छों की बिक्री यकायक बढ़ गई थी. गांधी टोपियां उस समय हर जगह दिखने लगी थीं जैसे किसी जादूगर ने छड़ी घुमाकर सबके सिरों पर उसे स्थापित कर दिया हो. उसे गांधीगिरी कहा जा रहा था. इस बार अन्नागिरी कह रहे हैं. कैसे सब प्रभावित और आप्लावित होते जा रहे हैं. अब ये ऐसी अजीब क़िस्म की ज़िद और उद्वेग और ललकार का आंदोलन हो गया है कि इसका विरोध करने वाले या इस पर आलोचना की निगाह रखने वाले क़रीब क़रीब देशद्रोही कहे जाने लगे हैं. जैसे उस समय उन्हें यही कहा गया था जो दूसरे एटमी विस्फोट की ख़ुशी के उत्पात में शामिल नहीं थे. जो कारगिल की शहादतों को जुलूस बनाने वालों के साथ नहीं थे. जो मुंबई हमलों पर एक अतिरेकी और पड़ोसी देश को नेस्तनाबूद करने के फ़िराक़ ओ जुनून से बाहर थे. जो कश्मीर में मानवाधिकार का मामला उठाते थे जो आदिवासी इलाक़ो की लड़ाइयों में औचित्य देखते थे. जो क्रिकेट की जीतों में अपने भीतर सनसनी और बुखार का हमला न होने देते थे. जो जैसे थे वैसे ही रहते आते थे.

चोटी के कई मीडिया टिप्पणीकार भी इसमें नई आज़ादी का आंदोलन पा चुके हैं. यहां तक कि वाम तबके के एक धड़े को भी अन्ना की आंधी में भ्रष्ट निज़ाम पूरा का पूरा उखड़ता दिख रहा है. केंद्र सरकार की मज़म्मत की ये एक सुनहरी और अखिल भारतीय घड़ी आ गई है. एक ऐसी फटकार से पूरा देश गूंजता हुआ सा टीवी पर दिख रहा है जैसे इसकी कभी किन्हीं और वक़्तों में कोई ज़रूरत ही न रही होगी जैसे कोई और मुद्दा कभी समाज में न आया होगा जैसे इस एक मुद्दे के अलावा समाज और सरकार स्वच्छ सुंदर होगी. जैसे बलात्कारी यहां न होते होंगे. शोषक अत्याचारी गुंडे हुड़दंगी और सांप्रदायिक न होते होंगे. जैसे खनन माफिया और ज़मीन माफ़िया यहां न पनपता होगा जैसे किसी की ज़मीन न हड़पी गई होगी जैसे विस्थापन यहां कोई अवश्यंभावी नियति न हो गई होगी. जैसे भट्टा पारसौल राहुल दौरे से पहले न होता होगा जैसे रामदेव मामले पर वृंदा करात और मज़दूरों का आंदोलन एक राजनैतिक ग़लती रही होगी जैसे टिहरी और 125 गांवों के डूबने से उत्तर भारत रोशनी और पानी से नहा चुका होगा जैसे नर्मदा से विस्थापन की लड़ाई नकली और विदेशी इशारों पर होती होगी जैसे भोपाल से कोई गैस ही न कभी लीक हुई होगी जैसे राजनैतिक दल औऱ नेता बारी बारी से आकर अपनी जनता का पैसा न बरबाद करते होंगे जैसे केरल में भूमिगत पानी कोल्ड ड्रिंक कंपनी के कारखाने ने चूस न लिया होगा जैसे खेत खाली ही न रहते आए होंगे जैसे बीज सड़ ही न रहे होंगे जैसे किसान ख़ुशी से जान दे रहे होंगे जैसे ग़रीबी बुहारकर एक कोने कर दी गई होगी और देश और समाज का नक्शा यूं चमकदार और साफ़ होगा.

और सिर्फ़ फटकार होगी तो इसलिए कि एक लोकपाल क्यों नहीं लाते, भ्रष्टाचार क्यों नहीं मिटाते.

जैसे लोकपाल 20 रुपए हर रोज़ कमाने वाले हिंदुस्तानी की तक़लीफ़ को ख़त्म कर देगा. जैसे वो उसे अचानक एक उस रेखा से खींचकर वहां रख देगा जहां चमचमाता शोरोगुल और प्रदर्शन और नारा और रामलीला मैदान है.

मुख्यधारा की राजनीति घबराई हुई सी इस आंदोलन को देख रही है. नेता टुकुर टुकुर ताक रहे हैं. जनता कुछ ज़्यादा ही विराट जनार्दन नज़र आ रही है. अण्णा टीम और टीवी की ये क़ामयाबी है कि एक आंधी सुनियोजित ढंग से उड़ाई जा रही है. नेताओं के कुर्ते और अधिकारियों के कॉलर फड़फड़ा रहे हैं.

पर क्या उनकी आत्मा तक ये फड़फड़ाहट जाएगी. क्या ये सनसनाहट ही रह जाएगी. क्या ये आंधी उस पूरे सिस्टम से आरपार हो सकती है और उसकी सफ़ाई कर सकती है जो नीचे तक भ्रष्टाचार से भरा हुआ है. या ये उस सिस्टम को और धूल गुबार उलझन और नई चालाकी से भर देगी.

क्या इस आंदोलन का स्वरूप ज़्यादा गहरा गंभीर ज़्यादा स्पष्ट ज़्यादा प्रचार मुक्त ज़्यादा विरागी नहीं हो सकता था. क्या दिल्ली ही इस आंदोलन का केंद्र हो सकता था. क्या लोकपाल की लड़ाई नीचे से उठती हुई न आती. एकदम निचले दर्जे से वहां से जहां रोटी रोज़ी और ज़िंदगी एक दूसरे से टकराती रहती हैं लहुलूहान होती रहती हैं और चीखें हरतरफ़ फैली रहती हैं. क्या वहां से लोकपाल की स्थापना का ये महान आंदोलन न उठना चाहिए था जो हमारे गांव हैं जो पंचायती राज के नाम पर एक भयावह नरक से बावस्ता हैं. जहां जघन्य भ्रष्टाचार किया जा रहा है. वे हमारे गांव वे हमारे नगर वे हमारे ज़िले वे हमारे राज्य और वो हमारी राजधानी वो हमारी अदालत वो हमारी संसद वो हमारा संविधान.

संविधान की बहुत मोटी जिल्द पर चिपकने से क्या फ़ायदा, उसके उन विकट दुरूह पन्नों पर जाते और वहां पलट पलट कर सब कुछ टटोलते. वहां जहां निपट अंधकार है सुनसान है और एक अजीब क़िस्म का जंगल है. उस जंगल में जाकर कुछ करते, दिल्ली में जो करें वो तो सब मंगल है.

Friday, August 26, 2011

तितलियों का रंग वहीं बनता है






बाबुषा कोहली


चौथा आदमी

वहाँ चार आदमी थे;
पहला- शब्दों से भरा हुआ था
उसके मुँह से ही नहीं,
नाक, कान और आँखों से भी शब्द टपकते थे !
शब्दों के ढेर पर खड़ा
उसे गीता कण्ठस्थ थी ;
परंतु उसे कृष्ण का पता न था !

दूसरा- अर्थों से भरा हुआ था !
वह हर समय परिभाषाएं गढ़ता
मौसम –खगोल- रहस्य- आकाश –पाताल -
भूगोल – राजनीति- कला –प्रेम की व्याख्या करता
अर्थों को खोजती उसकी नज़रें
मेरे उभारों और गोलाईयों की विवेचना करती थीं !

तीसरा- मौन से भरा हुआ था
उस के माथे पर चन्दन चमकता
उस के मौन के चारों ओर अपार भीड़ थी
उसे पूजा जाता था
उसका तना हुआ चेहरा देख लगता था
उस ने अपनी ज़ुबान का गला दबा रखा हो
उस की ज़ुबान को छोड़ कर
बाक़ी सब कुछ बोलता था
उस के मौन मे बहुत शोर था !

चौथा आदमी – वह
खालीपन से भरा हुआ था !
घुटनो के बल बैठा आकाश को निहारता
उसकी खाली आँखें भरी हुई थीं
खींचती थीं जैसे
ल्यूनेटिक्स को खींचता है चाँद
और मैं खिंच गई थी !
उसके खालीपन में मैंने छलाँग लगा दी !
हम एक के भीतर एक थे , पर दो थे !

हमारी सटी हुई त्वचाएं जल्द ही
ऐसी महीन रेशमी चादर मे बदल गई
कि हवाएं उस के आर पार जाती थीं !

बौछारें वहाँ मुकाम बना टिक जातीं थीं
हम दोनों की सटी हुई त्वचाओं के बीच भी
हमने खाली ही छोड़ी थी वह खाली जगह

अब- उस खाली जगह में
गिलहरियाँ फुदकती हैं , पपीहे गीत गाते हैं ;
तितलियों का रंग वहीं बनता है
चाँद की कलाएं बदलने के बाद
वहीं आ कर रहतीं हैं
वहीं बहती रहती है शराब
झरने वहीं से फूटते हैं और एक दरवेश ;
एक हाथ से आकाश थामे ;
दूसरे से धरती सम्भाले –
अपनी ही धुरी पर
घूमता रहता है गोल गोल !

( स्केच - ईशिता आर गिरीश )

Monday, August 22, 2011

जिप्सी किंग्स - रीपोस्ट


यह गीत आज से कोई तीन साल पहले कबाड़ख़ाने में लगाया गया था. आज उस पोस्ट पर एक कमेन्ट आया है जिसके अनुसार गीत अब नहीं बज रहा यानी उसका प्लेयर काम नहीं कर रहा. जिप्सी किंग्स मेरे सर्वकालीन फ़ेवरेट हैं सो उन्हें दोबारा लगाने में क्या हर्ज़ है. लीजिए पोस्ट जस की तस पेश है ... और गाना भी.

'जिप्सी किंग्स' फ़्रांस के एक मशहूर शहर आर्लेस से ताल्लुक रखते हैं. ये वही आर्लेस है जो विन्सेंट वान गॉग के जीवन का भी हिस्सा रहा था. स्पानी गृह युद्ध के समय इन लोगों के मां-बाप स्पेन से भाग कर यहां आए थे. मूलतः ये लोग रोमा संगीतकार हैं और दुनिया भर में फ़्लेमेंको के नाम से जाने जाने वाले संगीत के लोकप्रिय संस्करण रुम्बा कातालेना को लोगों के सामने लाने के लिए विख्यात हैं. साल्सा और रुम्बा जैसे पारम्परिक नृत्यों में बजाया जाने वाला संगीत भी उनकी ख़ूबी है.

मुझे ख़ुद ऐसा लगता है कि इस ग्रुप को चलाने वाले ये भाई काफ़ी कुछ अपन जैसे हैं. सुनिये उन्हीं का एक गीत : "कामीनान्दो पोर ला कायेस ज़ो ते वी" माने रास्ते पर चलते हुए मैंने तुझे देखा. यहां इस बात को बताया ही जाना चाहिए कि हमारे महान देश के महान संगीतकार अन्नू मलिक इस धुन को 'तुझे देने को मेरे पास कुछ नहीं' (हो सकता है मैं शब्दों में गड़बड़ा रहा हूं) नामक दो कौड़ी के गाने में अपना बना कर पेश कर चुके हैं.



यहां से डाउनलोड करें -
http://www.divshare.com/download/15571875-0dd

Sunday, August 21, 2011

एक युवा कवि को पत्र -1 - रेनर मारिया रिल्के


"एक युवा कवि को पत्र" रेनर मारिया रिल्के के लिखे दस ख़तों का संग्रह है. ये ख़त जर्मन सेना में भर्ती होने का विचार कर रहे फ़्रान्ज़ काप्पूस नामक एक युवा को सम्बोधित हैं. काप्पूस १९ का था जबकि रिल्के २७ का जब यह पत्रव्यवहार शुरू हुआ. काप्पूस ने अपनी कविताएं रिल्के को भेजीं और उनसे साहित्य और करियर की बाबत चन्द सवालात पूछे. यह पत्रव्यवहार १९०२ से १९०८ तक चला.

१९२९ में रिल्के की मौत के बाद काप्पूस ने इन पत्रों को एक किताब की सूरत में छपाया. ये पत्र अब विश्व साहित्य की सबसे चुनिन्दा धरोहरों में शुमार होते हैं.

पढ़िए इस श्रृंखला का पहला पत्र -


पेरिस
१७ फ़रवरी १९०३

प्रिय श्रीमान,

आपकी चिठ्ठी कुछ ही दिन पहले पहुंची. आपने मुझ में जो आत्मविश्वास जताया है उसके लिए मैं आपको धन्यवाद कहना चाहता हूं. मैं इतना ही कर सकता हूं. मैं आपकी कविताओं पर बहस नहीं कर सकता; क्योंकि ऐसा कोई भी प्रयास मेरे लिए अजनबी होगा. कोई भी चीज़ किसी कलाकृति को उतना कम स्पर्श नहीं कर सकती जितना आलोचना के शब्द: उनकी वजह से आमतौर पर हमेशा भाग्यशाली ग़लतफ़हमियां हुआ करती हैं. चीज़ें इतनी मूर्त और कथनीय नहीं हुआ करतीं जितना लोग हमसे यक़ीन करने को कहते हैं; ज़्यादातर अनुभव अकथनीय होते हैं, वे एक ऐसे शून्य में घटते हैं जहां कोई भी शब्द कभी भी प्रविष्ट नहीं हुआ होता, और बाक़ी सारी चीज़ों से ज़्यादा अकथनीय होती हैं कलाकृतियां, वे रहस्यमय अस्तित्व जिनका जीवन हमारे क्षुद्र और नाशवान जीवन से परे बना रहता है.

प्रस्तावना के तौर पर इस नोट के साथ, क्या मैं आपको बता सकता हूं कि आपकी कविताओं की कोई अपनी शैली नहीं है, अलबत्ता उनमें किसी व्यक्तिगत चीज़ की ख़ामोश और प्रच्छन्न शुरुआतें अवश्य हैं. मैं अन्तिम कविता, "मेरी आत्मा" में इसे सब से अधिक स्पष्टता के साथ महसूस करता हूं. यहां, आपकी कोई अपनी चीज़ शब्द और लय बनने की कोशिश कर रही है. और उस प्यारी सी कविता "लेओपार्डी के लिए" में उस महान, एकाकी आकृति के साथ एक तरह का सम्बन्ध शायद उभरता है. जो भी हो, ये कविताएं अभी अपने आप में कुछ भी नहीं हैं, कोई भी स्वतन्त्र चीज़, अन्तिम वाली और लेओपार्डी वाली भी. आपके उदार पत्र ने जो इनके साथ था, आपकी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे उनमें विविध दोषों को स्पष्ट करने में सहायता की, अलबत्ता मैं उन्हें ख़ास तौर पर चिह्नित करने में असमर्थ हूं.

आपने पूछा है कि क्या आपकी कविताएं किसी भी लायक हैं. आप ने मुझ से पूछा है. आप पहले भी दूसरों से यह बात पूछ चुके हैं. आप उन्हें पत्रिकाओं में भेजा करते हैं. आप उनकी तुलना दूसरी कविताओं से करते हैं और जब कोई सम्पादकगण आपके काम को अस्वीकार कर देते हैं तो आप परेशान हो जाते हैं. अब (चूंकि आपने कहा है कि आप को मेरी सलाह चाहिए) मैं आपसे भीख मांगता हूं कि इस तरह का काम करना बन्द कर दें. आप चीज़ों को बाहर से देख रहे हैं और इस वक़्त आपने ठीक यही करने से बचना चाहिए. कोई भी आपको सलाह नहीं दे सकता न आपकी मदद कर सकता है - कोई भी नहीं. आपने सिर्फ़ एक काम करना चाहिए. अपने भीतर जाइए. उस कारण को खोजिए जो आपको लिखने का आदेश देता है; ढूंढिए कि क्या उसने अपनी जड़ें आपके दिल की गहराइयों तक फैला ली हैं या नहीं; अपने आप से स्वीकार कीजिए कि अगर आपको लिखना निषिद्ध कर दिया जाए तो क्या आपको मर जाना होगा. और सबसे ज़रूरी; अपनी रात के सबसे शान्त क्षणों में अपने आप से पूछिए - क्या मुझे लिखना चाहिए? एक गहन उत्तर के लिए अपने आप को खोदिए. और अगर यह उत्तर सहमति में गूंजता है, अगर इस गम्भीर प्रश्न का सामना एक मज़बूत और साधारण "हां" से होता है तो अपने जीवन का निर्माण इस आवश्यकता के अनुसार कीजिए, अपने सम्पूर्ण जीवन का, आपके सबसे विनम्र और बेपरवाह क्षणों ने भी इस आवेग का संकेत और उसका गवाह बनना चाहिए. उस के बाद प्रकृति के नज़दीक जाइए. उसके बाद, जैसे किसी ने भी पहले कोशिश न की हो, उसे कहने की कोशिश कीजिए जो आपको दिखता है, जिसे आप महसूस करते हैं और प्रेम करते हैं और खो देते हैं. प्रेम कविताएं मत लिखिए; उस तरह के प्रारूपों से बचिए क्योंकि वे बहुत सहज और साधारण होते हैं; उनके साथ काम करना सबसे मुश्किल होता है और उसके लिए एक महान पूर्णतः विकसित शक्ति चाहिए होती है ताकि कुछ ऐसा व्यक्तिगत रचा जा सके जिसमें अच्छी और यहां तक कि शानदार परम्पराओं का प्रचुर अस्तित्व होता है. सो अपने आप को इन आम विषयवस्तुओं से बचाइए और उस बारे में लिखिए जो रोज़मर्रा का जीवन आपके सामने प्रस्तुत करता है; अपने दुःखों और इच्छाओं का वर्णन कीजिए, अपने मस्तिष्क से हो कर गुज़रने वाले विचारों और किसी क़िस्म के सौन्दर्य पर अपने विश्वास का वर्णन कीजिए. दिल से महसूस की गई ख़ामोश और विनम्र ईमानदारी के साथ इन सब का वर्णन कीजिए, और जब आप अपने को अभिव्यक्त कर रहे हों, अपने आसपास की चीज़ों, अपने स्वप्नों की छवियों और याद रह गई वस्तुओं का इस्तेमाल कीजिए. अगर आपकी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी दीनहीन लगती है तो उस पर दोष मत मढ़िए; दोष ख़ुद पर मढ़िए, स्वीकार कीजिए कि आप पर्याप्त रूप से कवि नहीं हैं कि जीवन की दौलत का आह्वान कर सकें; क्योंकि सर्जक के लिए न ग़रीबी होती है न कोई दीनहीन, मामूली जगह. और अगर आप अपने आप को किसी कारागार में पाते हैं जिसकी दीवारों से दुनिया का एक शब्द भी भीतर नहीं आ सकता - क्या तब भी आप के पास अपना बचपन नहीं होगा, किसी भी क़ीमत से परे वह नगीना, स्मृतियों का वह खज़ाना? अपना ध्यान उस तरफ़ मोड़िए. कोशिश कीजिए इस विशाल भूतकाल की कुछ डूब चुकी भावनाओं को जगाने की, आपका व्यक्तित्व और भी मज़बूत होता जाएगा, आपका एकान्त फैलता जाएगा और एक ऐसी जगह बन जाएगा जहां आप गोधूलि में रह सकते हैं, जहां सुदूर कहीं दूसरे लोगों की ध्वनियां गुज़रती हैं. और अपने भीतर मुड़ने औए अपने ख़ुद के संसार में डूबने से कविताएं बाहर निकलती हैं तो आपको किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं होगी कि वे अच्छी हैं या नहीं. न ही आप पत्रिकाओं में इन कृतियों के प्रति दिलचस्पी पैदा करने की कोशिश करेंगे : क्योंकि आप उन्हें अपनी प्रिय नैसर्गिक सम्पत्ति के रूप में देखेंगे, आपके जीवन का एक हिस्सा, उस से निकली एक आवाज़. कोई भी कलाकृति अच्छी होती है अगर उसकी रचना किसी आवश्यकता के कारण हुई हो. उस पर किसी भी तरह का निर्णय लेने का यही इकलौता तरीक़ा है. सो, प्रिय मान्यवर, मैं इस के सिवा आप को कोई सलाह नहीं दे सकता - अपने भीतर जाइए और देखिए वह जगह कितनी गहरी है जहां से आपका जीवन प्रवाहित होता है; उस के मुहाने पर आपको इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा कि आपने रचना करनी चाहिए या नहीं. उस उत्तर को स्वीकार कीजिए, जैसा वह आपको दिया जाए, बग़ैर उसकी व्याख्या करने की कोशिश किए हुए. शायद आप पाएंगे कि आप को एक कलाकार बनने का आदेश दिया जाए. तब उस नियति को धारण कीजिए और उसके बोझ और उसकी महानता को ढोइए, बिना एक बार भी यह पूछे कि बाहर से आपको क्या पुरुस्कार मिल सकता है. क्योंकि सर्जक को अपने लिए अपना पूरा संसार होना चाहिए और उसने हरेक चीज़ ख़ुद में खोजनी चाहिए या प्रकृति में, जिसके लिए उसका पूरा जीवन समर्पित होता है

लेकिन अपने भीतर और अपने एकान्त में उतरने के बाद शायद आपको कवि बनने का विचार त्याग देना होगा (अगर, जैसा मैंने कहा है, आपको लगता है कि आप लिखे बग़ैर रह सकते हैं, तो आपने क़तई नहीं लिखना चाहिए). अलबत्ता इस आत्म-अन्वेषण से जो मैं आपसे करने को कह रहा हूं, ऐसा नहीं कि आपको कुछ भी नहीं मिलेगा. वहां से आपका अन्तर तब भी अपने रास्ते खोज लेगा जो अच्छे, सम्पन्न और चौड़े हो सकते हैं जैसा कि मैं आपके लिए आपके लिए कामना करता हूं

और मैं आपको क्या बता सकता हूं? मुझे ऐसा लगता है कि हर चीज़ का एक यथायोग्य प्रभाव होता है; और अन्त में मैं एक छोटी सी सलाह देना चाहूंगा - आप खामोशी से और ईमानदारी से अपना विकास करते रहें, अपने सम्पूर्ण विकास से, जिसे आप अधिक हिंसात्मक तरीके से बाधित नहीं कर सकते बजाए बाहर की तरफ़ देखने और उन प्रश्नों के बाहर से आने वाले उत्तरों की प्रतीक्षा करने के, जिन्हें सम्भवतः आपके सबसे शान्त पलों में केवल आपकी अन्तरतम भावना दे सकती है.

आपके पत्र में प्रेफ़ेसर होरासेक का नाम देखना मेरे लिए सुखद था. उस उदार, पढ़े-लिखे व्यक्ति के लिए मेरे भीतर बड़ी श्रद्धा है और एक कृतज्ञता जो वर्षों से बनी हुई है. क्या आप उन्हें मेरी भावनाएं बता पाएंगे; मेरे बारे में उनका अब भी सोचना बहुत अच्छा है और मैं इस बात की कद्र करता हूं

जो कविता आपने मुझे सौंपी थी, मैं वापस आपको लौटा रहा हूं. और मैं आपके प्रश्नों और सच्चे विश्वास के लिए धन्यवाद कहता हूं, जिसके लिए, हरसम्भव ईमानदारी से उत्तर देकर, एक अजनबी के तौर पर मैंने अपने को उस से थोड़ा और क़ाबिल बना लिया है जैसा मैं वास्तव में हूं.

आपका

रेनर मारिया रिल्के

Monday, August 15, 2011

चाहे कोई मुझे ...


शम्मी कपूर नहीं रहे.

रामनगर शहर में अपने बचपन की एक याद लगातार आती रहती है. अमूमन बरसात के इन्हीं दिनों एक साइकिल चलाने वाला सात य दस या बारह दिन बिना रुके, बिना साइकिल से उतरे एक गोल में घूम घूम करता जाता था. उसके पास एक रेकॉर्ड प्लेयर और लाउडस्पीकर था जिस पर वह सिर्फ़ और सिर्फ़ शम्मी कपूर की फ़िल्मों के गीत बजाया करता था - "याहू" शब्द तभी से रामनगर के छोकरों में ख़ासा लोकप्रिय जुमला बन गया था.

मुझे उन की फ़िल्म राजकुमार की अच्छे से याद है - पहली फ़िल्म जिसके टिकट मैंने ब्लैक में ख़रीदे थे.

और कश्मीर की कली ...

और रानीखेत में एक संक्षिप्त रू-ब-रू मुलाक़ात ....

एक अच्छी पोस्ट लिखना चाहता हूं उन पर फ़ुरसत में ...

अभी उन्हें श्रद्धांजलि और आप के वास्ते उन का एक इन्टरव्यू -


Friday, August 12, 2011

वी शैल ओवरकम


यह गाना किसी परिचय का मोहताज नहीं है. प्रतिरोध का यह गीत १९५५-१९६८ के एफ़्रो-अमेरिकन सिविल राइट्स मूवमेन्ट का प्रतिनिधि गीत था. चार्ल्स अल्बर्ट टिन्डले के लिखे एक गॉस्पल सॉंग से प्रेरित इस गीत को पीट सीगर के अलावा फ़्रैन्क हैमिल्टन, जो ग्लेज़र, जोन बाएज़, डायना रॉस इत्यादि बड़े गायकों ने भी रेकॉर्ड कराया था.

सुनिए पीट सीगर की आवाज़ में -


Thursday, August 11, 2011

व्हट डिड यू लर्न इन स्कूल टुडे


अमेरिकी लोकगायक पीट सीगर अपने जीवनकाल में ही एक किंवदन्ती बन चुके हैं. ३ मई १९१९ को जन्मे पीट ने एक से एक शानदार लोकपरक गीत गाए और संगीत के सारे उच्चतम ईनामात हासिल किए. आज से मैं उनके संगीत पर एक सीरीज़ शुरू कर रहा हूं.

पीट सीगर प्लेटो के इस वक्तव्य को अपने लिए ब्रह्मवाक्य मानते थे कि "किसी भी देश में ग़लत संगीत को अनुमति देना बेहद ख़तरनाक होता है." संगीत से इस कदर गहरे जुड़े पीट अब भी खासे सक्रिय हैं और इक्यानवे की आयु में पिछले साल उन्होंने एक कन्सर्ट में हिस्सा लिया था.

उनके जीवन के बारे में कुछ दिलचस्प तथ्य आपको अगली पोस्ट्स में बताऊंगा. आज पेश है उनका गाया गीत "व्हट डिड यू लर्न इन स्कूल टुडे". गीत टॉम पैक्सटन का लिखा हुआ है. ये रहे उसके बोल -

What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
I learned that Washington never told a lie.
I learned that soldiers seldom die.
I learned that everybody's free.
And that's what the teacher said to me.
That's what I learned in school today.
That's what I learned in school.

What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
I learned that policemen are my friends.
I learned that justice never ends.
I learned that murderers die for their crimes.
Even if we make a mistake sometimes.
That's what I learned in school today.
That's what I learned in school.

What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
I learned our government must be strong.
It's always right and never wrong.
Our leaders are the finest men.
And we elect them again and again.
That's what I learned in school today.
That's what I learned in school.

What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
What did you learn in school today,
Dear little boy of mine?
I learned that war is not so bad.
I learned of the great ones we have had.
We fought in Germany and in France.
And some day I might get my chance.
That's what I learned in school today.
That's what I learned in school.

एक सखी सतगुरु पै थूकै एक बनी संचालक

संजय चतुर्वेदी की कुछ छोटी छोटी कविताएं -


अलपकाल बिद्या सब आई

ऐसी परगति निज कुल घालक
काले धन के मार बजीफा हम कल्चर के पालक
एक सखी सतगुरु पै थूकै एक बनी संचालक
अलपकाल बिद्या सब आई बीर भए सब बालक.

कलासूरमा सदायश: प्रार्थी

कातिक के कूकुर थोरे थोरे गुर्रात

थोरे थोरे घिघियात फँसे आदिम बिधान में.
थोरे हुसियार थोरे थोरे लाचार

थोरे थोरे चिड़िमार सैन मारत जहान में.
कोऊ भए बागी कोऊ कोऊ अनुरागी

कोऊ घायल बैरागी करामाती खैंचतान में
जैसी महान टुच्ची बासना के मैया बाप

सोई गुन आत भए अगली सन्तान में.

कालियनाग जमुनजल भोगै

आलोचक हैं अति कुटैम के खेंचत तार महीन
कबिता रोय पाठ बिनसै साहित्य भए स्रीहीन
चिट फंडन के मार बजीफा करें क्रान्ति रंगीन
कालियनाग जमुनजल भोगै खुदई बजाबै बीन.

ऊधौ देय सुपारी

हम नक्काद सबद पटवारी

सरबत सखी निजाम हरामी हम ताके अधिकारी
दाल भात में मूसर मारें और खाएँ तरकारी
बिन बल्ला कौ किरकिट खेलें लम्बी ठोकें पारी
गैल गैल भाजै बनबारी ऊधौ देत सुपारी.

Tuesday, August 9, 2011

गुलशन, गुलशन, गुलशन नन्दा

एक ज़माने में कल्ट बन चुके गुलशन नन्दा पर यह पोस्ट श्री राजकुमार केसवानी की लिखी हुई है और उन्हीं की अनुमति से यहां प्रस्तुत की जा रही है -


एक थे गुलशन नंदा. हिन्दी में पल्प फिक्शन उर्फ लुगदी साहित्य के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखक. अपने दौर, 60 से लेकर 80 के दशक तक, की दर्जनों सिल्वर जुबिली, गोल्डन जुबिली फिल्मों के लेखक. हिन्दी साहित्यकारों के बीच एक घृणित नाम और उस दौर की युवा पीढ़ी के आराध्य देव.

यह वह दौर था जब एक तरफ फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’(1960) की हीरोइन अनारकली सीना ठोक कर ज़माने के सामने ‘जब प्यार किया तो डरना क्या’ गाकर अपनी मोहब्बत का इज़हार अकेले में आशिक के सामने करती थी और किसी दिन गुलशन नंदा के किसी उपन्यास की हीरोइन की तरह चुपके से उसके साथ भाग भी जाती थी. उस वक़्त के अखबार ऐसी कहानियों से भरे रहते थे. ऐसी ही एक स्टोरी मुझे अब तक याद है. इस खबर में कहा गया था कि जाते समय उसके तेवर थे ‘प्यार किया तो डरना क्या’ और अब लौटकर गा रही है – ‘मोह्ब्बत की झूठी कहाने पे रोये’. दोनो ही गीत फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के हैं.

खैर साहब, किस्सा कोत्ताह यह कि नाचीज़ ने भी अपने लड़कपन में गुलशन नंदा की कम से कम दो-एक किताबें तो ज़रूर पढ़ी हैं. इतनी कम इसलिए नहीं कि मुझे उसी उम्र में अच्छे-बुरे की तमीज़ आ गई और सिर्फ महान लेखकों को ही पढ़ता था बल्कि इसलिए कि मुझे इस नाम से ही खुन्नस थी. उस वक़्त किताबें खरीदकर पढ़ने की हैसियत न थी सो गली-मोहल्ले की छोटी-छोटी लाइब्रेरी से किराये पर लेकर पढ़ते थे. इन लाइब्रेरियों में जिसे देखो गुलशन नंदा की किताब मांगता था. बस इसी बात पर खुन्नस थी. मेरे पसंदीदा लेखक 60 के उस शुरूआती दौर में मुंशी प्रेमचन्द, आचार्य चतुरसेन, गुरुदत्त, कृश्न चंदर, कुश्वाहा कांत, इब्ने सफी बी.ए., वेदप्रकाश काम्बोज वग़ैरह हुआ करते थे. 1967 में हिन्द पाकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना और पत्रिका ‘सारिका’ ने इस धारा को पलट दिया. देश-विदेश के महान लेखकों से परिचय हुआ और थोड़ा सा मानसिक विकास भी हुआ. मगर मेरे इस तथाकथित विकास से गुलशन नंदा की सेहत पर ज़रा भी असर न पड़ा. उसकी किताबें पहले से भी ज़्यादा बिक रही थीं. बल्कि इसी वक़्त इन उपन्यासों पर फिल्में भी बनना शुरू हो गई और किताबों की ही तरह हिट भी होने लगी थीं.

आप इन फिल्मों की सूची पर नज़र डालिये. ‘काजल’ (1965), सावन की घटा’ (1966), ‘पत्थर के सनम’(1967), ‘नील कमल’ (1968), ‘खिलोना’ (1970), ‘कटी पतंग’ (1970), ‘शर्मीली’ (1970), ‘नया ज़माना’ (1971), ‘दाग़’ (1973), ‘झील के उस पार’ (1973), ‘जुगनू’ (1973), ‘जोशीला’ (1973), ‘अजनबी’ (1974), ‘भंवर’ (1976), ‘महबूबा’ (1976) वगैरह-वग़ैरह. 1987 में रिलीज़ हुई राजेश खन्ना, श्री देवी की फिल्म ‘नज़राना’ शायद उनकी अखिरी फिल्म थी. 16 नवम्बर 1985 को गुलशन नंदा की मृत्यु हो चुकी थी.

वो भी इक दौर था

एक लम्बे समय तक देश भक्ति की प्रबल भावनाओं से ओत-प्रोत स्वतंत्रता संग्राम में जुटे भारतीय समाज को 1947 में आज़ादी नसीब हुई. यह एक ऐसी भावुकता का दौर था जो आज़ादी के बाद भी एक लम्बे अरसे तक कायम रहा. बल्कि कहा जाए तो 1991 में शुरू हुई उदारीकरण के दौर तक यह कायम रहा. 1991 के बाद से भावुकता घोषित रूप से मूर्खता है. बाज़ार द्वारा स्थापित व्यवहारिकता ‘आर्डर आफ द डे’ बन गया है.

ख़ैर, मैं यह बता रहा था कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान और आज़ादी के कोई 40-45 साल तक समाज के अधिकांश संस्कार भावुकता से भरे थे. इसी दौर में मद्रास के जेमिनी, ए.वी.एम., प्रसाद प्रोडक्शंस, जैसे फिल्म निर्माण कम्पनियों ने इस देश के लोगों को सिनेमा घरो में रुला-रुला कर इतना पैसा कमाया है कि यह अन्दाज़ लगाना मुश्किल है कि हर आंसू की कीमत क्या थी.

इसी दौर में हिन्दी के कुछ लेखक सामने आए जिन्होने जमकर आंसुओं का कारोबार किया. इन लेखकों में दत्त भारती, प्रेमशंकर बाजपेयी, कुशवाहा कांत, राजवंश, रानू के नाम याद किये जाते हैं लेकिन इन सबका सरताज था गुलशन नंदा. यह लेखक बकौल उसके पढ़ने वालों के ‘बहुत रुलाता था’. मगर मुझे लगता है कि उनके पास पूरा ‘मसाला फार्मूला’ था जिसमें बहुत ही सरल भाषा में संयमित सेक्स वार्ता, संस्कार की दुहाई, अमीरी-ग़रीबी, न्याय-अन्याय और प्रेम की सर्वोच्चता का भाव समिलित था.

अब मिसाल के तौर पर उनकी एक पुस्ताक ‘जलत्ती चट्टान’ का यह अंश देखिये, जिसे पुस्तक बेचने को प्रकाशक ने विज्ञापित किया है - "नदी के शीतल जल में दोनो बेसुध खड़े एक-दूसरे के दिल की धड़कने सुन रहे थे. पार्वती का शरीर आग के समान तप रहा था. ज्यों-ज्यों नदी की लहरें शरीर से टकरातीं भीगी साड़ी उसके शरीर से और भी लिपटती जाती, राजन को इन लहरों पर क्रोध आ रहा था."

अब ज़रा एक और मिसाल देखिये. इस बार पुस्तक का नाम है ‘नीलकंठ’ -

"संध्या और बेला दोनों रायसाहब की बेटियां…संध्या शांत स्वभाव वाली, जबकि बेला शोख, रंगीन मिजाज। बेला बम्बई में पढ़कर वापस लौटती है तो पाती है कि संध्या और आनन्द एक दूसरे से प्यार करते हैं। लेकिन बेला भी आनन्द को चाहती है। एक दिन बेला को पता चलता है कि संध्या राय साहब की गोद ली हुई पुत्री है तो वह क्रोधित हो यह सब संध्या को बता देती है। संध्या को जब अपनी माँ का पता चलता है तो वह उनसे मिलने गांव पहुँचती है जो कि गरीबों की बस्ती है और संध्या की मां उस गांव में चायखाना चलाती है। इस बीच धोखे से, अपने मोहजाल में फंसाकर बेला आनन्द से विवाह कर बंबई चली जाती है। बंबई में बेला को फिल्मों में काम करने का मौका मिलता है लेकिन आनन्द को यह सब पसन्द नहीं और उसकी हालत पागलों जैसी हो जाती है।
क्या आनन्द का पागलपन दूर हुआ ? क्या बेला एक फिल्म अभिनेत्री के रूप में सफल हो सकी ? क्या संध्या के जीवन में कोई और पुरुष आया ? इन सब जिज्ञासा भरे प्रश्नों का उत्तर आप इस उपन्यास में पा सकते हैं जो कि कलम के जादूगर गुलशन नंदा द्वारा लिखा गया है।"


तो साहब ऐसे थे गुलशन नंदा. उनकी पैदाइश की सही तारीख तो मालूम नहीं पर तीस के दशक में उनकी पैदाइश मानी जाती है. 60 के दशक में बतौर लेखक दिल्ली के प्रकाशक एन.डी.सहगल एण्ड संस के ज़रिये सामने आए. कहते हैं उस समय उन्हें एक पुस्तक के मात्र 100-200 रुपए ही मिलते थे. मगर उनकी पुस्तकों की कामयाबी के साथ-साथ उनकी कीमत भी बड़ती गई. एक दौर ऐसा आया कि उनके प्रकाशक उनको मुंहमांगे पैसे पेशगी देने लगे.

सहगल के बाद इनका सम्बंध बना स्टार पाकेट बुक्स के अमरनाथ वर्मा से और उनकी 1 रुपए और 2 रुपए वाली पाकेट बूक्स ने धूम मचा दी. प्रकाशक और लेखक दोनो खुश. 6.5 प्रतिशत की दर से बनने वाली हज़ार की रायल्टी लाखों में जा पहुंची. रिश्ते को एक ठोस आधार देने अमरनाथ जी ने गुलशन नंदा से उनकी बेटी का हाथ अपने बेटे के लिए मांग लिया. दोनो समधी हो गए और रिश्ता सदा के लिए पक्का हो गया.

यह गुलशन नंदा का युग था. फिल्म वालों ने भी उन्हें हाथों-हाथ लिया. राम माहेश्वरी और पन्नालाल माहेश्वरी की फिल्म ‘काजल’ से हिट फिल्मों का ऐसा सिलसिला चला कि रुकता ही न था. गुलशन नंदा का नाम फिल्म की हिट होने की ज़मानत बन गया. 20 साल तक चले इस रिश्ते में फिल्मी दुनिया के सारे दिगज निर्माता-निदेशकों ने इनकी कहानियों और पटकथाओं पर सफल फिल्में बनाईं. इनमें शामिल हैं यश चौपड़ा, शक्ति सामंत, प्रमोद चक्रवर्ती, एल.वी.प्रसाद, रामानन्द सागर.

इस सबके बावजूद गुलशन नंदा के मन में एक टीस थी. वह थी हिन्दी साहित्य में अस्वीकृति की. तमाम सामाजिक स्वीकृति के बावजूद वहां उन्हें स्वीकार नहीं किया गया. और तो और हिन्दी की प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था हिन्द पाकेट बुक्स ने उन्हे अपने स्तरीय प्रकाशनो के बीच स्थान देने से इंकार की पालिसी बना रखी थी.

70 के दशक में आखिर यह दीवार भी टूटी. हिन्द पाकेट बुक्स ने अपनी हार मानते हुए पाठकों के फैसले का समान करते हुए गुलशन नंदा से प्रकाशन के लिए पुस्तक मांगी. इस बार गुलशन नंदा ने प्रसताव अपनी शर्तों पर ही स्वीकार किया. मुंहमागी अग्रिम राशि ली. पुस्तक के प्रचार की शर्ते मनवाईं. मतलब उनकी हर चीज़ मानी और ‘झील के उस पार’ नामक उपन्यास प्रकाशित किया. इसी पुस्तक पर लगभग पुस्तक के रिलीज़ के आसपास ही 1973 में भप्पी सोनी निदेशित, धर्मेन्द्र-मुमताज़ और योगिता बाली के साथ इसी नाम की फिल्म भी रिलीज़ हुई.

हिन्दी पुस्तक प्रकाशन के इतिहास शायद ही इससे पहले या फिर इसके बाद में इस तरह का प्रोमोशन किसी किताब का हुआ हो. देश भर के अखबारों, पत्रिकाओं, रेडियो पर प्रचार के अलावा होटल, पान की दुकान से लेकर सिनेमाघरों तक बड़े-बड़े प्रचार पोस्टर और खास तौर डिज़ाईन किए गए टांगने वाले बाक्स लगाए गए. इन सब में इस बात पर ज़ोर था कि पहली बार हिन्दी में किसी पुस्तक का पहला एडीशन ही 5 लाख रिपीट पांच लाख कापी का छापा गया है.

अब इस सचाई को तो लेखक और प्रकाशक जाने कि सच में कितनी छपीं मगर इतना ज़रूर सच है कि इस प्रचार के नतीजे में यह पुस्तक जिस क़दर बिकी, उसके बाद शायद ही कोई दूसरी हिन्दी किताब बिकी हो. यह गुलशन नंदा की जीवन का शिखर काल था.

यही वह समय था जब उनकी पुस्तकें अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद होकर उसी धड़ल्ले से बिक रहीं थी. अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में धूम मच गई थी. ‘कटी पतंग’ के चीनी भाषा के अनुवाद ने तो वहां बिक्री के रिकार्ड ही कायम कर दिए.

अछा एक और मज़े की बात बताता हूं. गुलशन नंदा को हमेशा हिन्दी का लेखक कहा और माना जाता है लेकिन सचाई यह है कि नंदा साहब को हिन्दी आती ही नहीं थी. वे तो लिखते ही उर्दू में थे. उनके लिखे को हिन्दी में उनके बहनोई बृजेन्द्र स्याल बदलते थे.

और…

और आखिरी बात यह कि दिल्ली में एक चाय बेचने वाला गुलशन नंदा की प्रेरणा से ही खुद भी लेखक बन गया. अब तक उसकी एक दर्जन से ज़्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और बाकयदा बिकी हैं. इस लेखक का नाम है – लक्ष्मण राव.

मूलत अमरावती रहने वाला 55 वर्षीय लक्ष्मण राव मराठी भाषी है. काम की तलाश में दिल्ली पहुंचा और अब भी दिल्ली में आई.टी.ओ के पास चाय बेचता है. गुलशन नंदा के लेखन से बहुत प्रभावित रहा और 1979 में खुद भी लेखक बन गया. नदी पर नहाने गए एक बचे की डूब जाने से हुई मौत से विचलित इस व्यक्ति ने लेखन को अपनी अभिव्यक्ति का ज़रिया बनाया. जब सारे प्रकाशकों ने पुस्तक छापने से इंकार कर दिया तो खुद ही अपनी प्रकाशन संस्था भारतीय साहित्य कला प्रकाशन के नाम से स्थापित की. अपनी पुस्तकें बेचने वह स्कूल-कालेज में जाता है और उसकी किताबें लोग खरीदते और पढ़ते भी हैं. सो बस लगातार लिखे जा रहा है. इस जज़्बे को सलाम.

(साभार - द भोपाल पोस्ट)