Friday, October 31, 2008

पहल का पटाक्षेप !

दोस्तों !

ये एक सूचना है जो मुझे अभी फोन पर कवि वीरेन डंगवाल ने दी। उन्हें ज्ञान जी ने पहले फोन पर बताया और अब इससे सम्बंधित पत्र भी उन तक पहुँच चुका है। ज्ञान जी ने लिखा है पहल ने 35 रचनात्मक वर्ष बिताये और उसे कई जनों का साथ मिला, लेकिन अब उसका पटाक्षेप होने जा रहा है ! पहल का अन्तिम अंक प्रेस में है। ज्ञान जी ने स्पष्ट किया कि पहल के बंद होने के पीछे कोई आर्थिक या रचनात्मक अभाव नहीं है। ज्ञान जी के अनुसार उनके सक्रिय रहने की एक सीमा है और अब वे विवश हैं। वीरेन डंगवाल ने फोन पर पहल से अपने जुडाव को याद करते हुए उसके इस तरह बंद हो जाने पर अफ़सोस व्यक्त किया। ज्ञान जी की किताब से अपने ब्लॉग का नामकरण करने वाला हमारा अगुआ साथी अशोक भी फोन पर इस खबर से काफी हैरान-परेशान दिखा! पहल के पन्नों में उसके किए अनुवादों का एक समूचा इतिहास दर्ज़ है।

मैं भी इस सूचना से हतप्रभ हूँ। पहल - ५८ में छपी कविताओं ने ही मुझे हिन्दी में पहली पहचान दी थी। ख़ुद को और अधिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं पाता !

उम्मीद है ज्ञान जी जल्द ही किसी और रचनात्मक भूमिका में सामने आयेंगे !
पहल को हमारा सलाम !

Thursday, October 30, 2008

पहाड़ पर काव्य (संग्रह) पहेली : एक सामूहिक कविता (प्रयास)

......यदि आप नीचे दी गई (बे-तरतीब) पंक्तियों को कविता या कविता जैस कुछ मानने जा रहे हैं तो इस बाबत यह कहना / बताना जरूरी-सा लगता है कि यह एक सहकारी प्रयास था - एक सामूहिक कविकर्म। वर्ष २००५ की गर्मियों में १८ जून से ९ जुलाई तक एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के सिलसिले में शिमला में रहने का सुयोग बना था। उस दौरान पढ़ने-लिखने, प्रोजेक्ट-प्रेजेंटेशन,परिचर्चा-परीक्षा के साथ /अलावा खूब मजे किए.समरहिल,बालूगंज और शिमला के इस अविस्मरणीय प्रवास में अनौपचारिक रूप से छह कविता प्रेमियों का एक ऐसा ग्रुप बन गया था जिसके सदस्य भारत के अलग अलग हिस्सों से आए थे लेकिन कविता के अदॄष्य तंतुजाल उन्हें एक किए हुए थे.इसी ग्रुप द्वारा समकालीन हिन्दी कविता के कुछ चर्चित हस्ताक्षरों के कविता संगहों को गूंथ - पिरो कर नीचे लिखी कविता (!) तैयार की गई थी और कोर्स के समापन समारोह में 'कविता पहेली' के रूप मे पेश भी की गई थी. आप इसे पढ़ें - देखें ,हो सकता है ठीक लगे.


पहाड़ पर कविता जैसा कुछ.....



हम आए थे पहाड़ पर
'गाँव का बीजगणित' १ पढ़ने
और खो गए
'कागज के प्रदेश में' २
चलो वहां चलें
जहां 'जमीन पक रही है' ३
और जिस जगह
'एक दिन बोलेंगे पेड़' ४
और होगा 'युग परिवर्तन'. ५

कभी हमने देखी थी
'पहाड़ पर लालटेन ६
जो 'अंधेरे में' ७ टिमटिमा रही थी
और आसमान में 'चाँद का मुंह टेढ़ा' ८ था.

कुछ लोग भटक रहे थे
'संसद से सड़क तक' ९
'दूसरे प्रजातंत्र की तलाश में' १०
और कुछ (लोग) अटके थे
'गंगा तट' ११ पर
'साए में धूप' १२ खोजते हुए
'चकमक की चिंगारियों' १३ के साथ
'आज 'निरुपमा दत्त बहुत उदास' १४ थी
हालांकि वह जानती थी
कि 'बीच का कोई रास्ता नहीं होता' १५

सड़क पर घूमता हुआ 'रामदास' १६
'आत्महत्या के विरुद्ध' १७
इस 'अकाल वेला में' १८
खोज रहा था - 'अपनी केवल धार' १९

'बस्स, बहुत हो चुका' २०
'गूंगा नहीं था मैं' २१
'कल सुनना मुझे' २२
'दो पंक्तियों के बीच' २३
'इसी दुनिया में' २४
इसी जगह
जहां 'दुनिया रोज बनती है' २५
_____________

१-कुमार कॄष्ण २-संजय कुंदन ३-केदारनाथ सिंह ४-राजेश जोशी ५-सुदर्शन वशिष्ठ ६-मंगलेश डबराल ७-मुक्तिबोध ८-मुक्तिबोध ९-धूमिल १०-धूमिल ११-ज्ञानेन्द्रपति १२-दुष्यंत कुमार १३- मुक्तिबोध १४-कुमार विकल १५-पाश १६-रघुवीर सहाय १७-रघुवीर सहाय १८-केदारनाथ सिंह १९-अरुण कमल २०-ओमप्रकश बाल्मीकि २१-जयप्रकाश कर्दम २२-धूमिल २३-राजेश जोशी २४-वीरेन डंगवाल २५-आलोक धन्वा
______________

( इस सामूहिक कविता प्रयास से जुड़े जो छह लोग थे उनके नाम हैं - इकरार अहमद (उत्तर प्रदेश) , देवेन्द्र चौबे (दिल्ली) , अनिल धीमान (पंजाब) , नरेश कोहली (मध्य प्रदेश) , गोपीलाल मेहरा (राजस्थान) और सिद्धेश्वर सिंह (उत्तराखंड). साथ लगा चित्र समरहिल रेलवे स्टेशन का है जहां रात के भोजन के बाद सूने प्लेटफार्म पर हमारी महफ़िल जमती थी और रेल की ठंडी पटरियों के साथ किशोर, युवा और बुजुर्ग -बलिष्ठ देवदार वॄक्ष श्रोताओं में शामिल हुआ करते थे )

Monday, October 27, 2008

शुभ दीपावली - बरास्ता हरिशंकर परसाई


पोथी में लिखा है - जिस दिन राम रावण को परास्त करके अयोध्या आए, सारा नगर दीपों से जगमगा उठा। यह दीपावली पर्व अनन्तकाल तक मनाया जाएगा। पर इसी पर्व पर व्यापारी बही-खाता बदलते हैं और खाता-बही लाल कपड़े में बांधी जाती है।
प्रश्न है - राम के अयोध्या आगमन से खाता-बही बदलने का क्या सम्बन्ध? और खाता-बही लाल कपड़े में ही क्यों बांधी जाती है?
बात यह हुई कि जब राम के आने का समाचार आया तो व्यापारी वर्ग में खलबली मच गई। वे कहने लगे `` सेठ जी, अब बड़ी आफत है। भरत के राज में तो पोल चल गई। पर राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे टैक्स की चोरी बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे अपने खाता-बही जांच करेंगे। और अपने को सजा होगी।´´
एक व्यापारी ने कहा ``भैया, अपना तो नम्बर दो का मामला भी पकड़ लिया जाएगा।´´
अयोध्या पहुंचने के पहले ही राम को मालूम हो गयार कि उधर बड़ी पोल है। उन्होंने हनुमान को बुलाकर कहा `` सुनो पवनसुत, युद्ध तो हम जीत गए लंका में, पर अयोध्या में हमें रावण से भी बड़े शत्रु का सामना करना पड़ेगा, वह है- व्यापारी वर्ग का भ्रष्टाचार। बड़े-बड़े वीर व्यापारी के सामने परास्त हो जाते हैं। तुम अतुलित बल-बुद्धि -निधान हो। तुम्हें मैं इनफोर्समेंट ब्रांच का डाइरेक्टर नियुक्त करता हूं। तुम अयोध्या पहुंचकर व्यापारियों के खाते-बहियों की जांच करो और झूठे हिसाब पकड़ो। सख्त से सख्त सज़ा दो।´´
इधर व्यापारियों में हड़कम्प मच गया। कहने लगे -`` अरे भैया, अब तो मरे। हनुमान जी इनफोर्समेंट ब्रांच में डाइरेक्टर नियुक्त हो गए। बड़े कठोर आदमी हैं। शादी-ब्याह नहीं किया। न बाल-बच्चे। घूस भी नहीं चलेगी।´´
व्यापारियों के कानूनी सलाहकार बैठकर विचार करने लगे। उन्होंने तय किया कि खाता-बही बदल देनी चाहिए। सारे राज्य में `चेम्बर ऑफ कामर्स´ की तरफ़ से आदेश चलाया गया कि दीपोत्सव पर खाता-बही बदल दिए जाएं।
फिर भी व्यापारी वर्ग निश्चिन्त नहीं हुआ। हनुमान को धोखा देना आसान बात नहीं थी। वे अलौकिक बुद्धि संपन्न थे। उन्हें खुश कैसे किया जाए। चर्चा चल पड़ी -
- कुछ मुट्ठी गरम करने से नहीं चलेगा।
- वे एक पैसा नहीं लेते
- वे न लें, पर मेम साब?
- उनकी मेम साब ही नहीं हैं। साहब ने मैरिज नहीं की। जवानी लड़ाई में काट दी।
- कुछ और तो शौक होंगे? दारू बौर बाक़ी सबकुछ?
- वे बालब्रह्मचारी हैं। कालगर्ल को मारकर भगा देंगें। कोई नशा नहीं करते। संयमी आदमी हैं !
- तो क्या करें?
- तुम्हीं बताओ!
किसी सयाने वकील ने सलाह दी - जो जितना बड़ा होता है उतनी ही चापलूसी पसन्द करता है। हनुमान की कोई माया नहीं है। वे सिंदूर शरीर पर लपेटते हैं तथा लाल लंगोट शरीर पर पहनते हैं। उन्हें खुश करना आसान है। व्यापारी खाता-बही लाल कपड़े में बांधकर रखें।
रातों-रात खाता-बही बदल गए तथा उन्हें लाल कपड़े में लपेट दिया गया।
दूसरे दिन हनुमान कुछ दरोगाओं को लेकर अयोध्या के बाज़ार में निकल पड़े
पहले व्यापारी के पास गए। बोले - ``खाता-बही निकालो जांच होगी।´´ व्यापारी ने लाल बस्ता निकाल कर आगे रख दिया। हनुमान ने देखा, लंगोट और खाते का कपड़ा एक है। खुश हुए। बोल - ``मेरे लंगोट के कपड़े में खाता-बही बांधते हो?´´
व्यापारी ने कहा -`` हां, बल-बुद्धि निधान, हम आपके भक्त हैं। आपके निशान मानते हैं। आपकी पूजा करते हैं।´
हनुमान गदगद हो गए।
व्यापारी ने कहा - ``बस्ता खोलूं, जांच कर लीजिए!´´
हनुमान ने कहा -``रहने दो, मेरा भक्त बेईमान नहीं हो सकता।´´
हनुमान जहां भी जाते, लाल लंगोट के कपड़े में बंधे खाता-बही देखते। वे बहुत खुश हुए। उन्होंने कहीं हिसाब की जांच नहीं की। रामचन्द्र को रिपोर्ट दी कि अयोध्या के व्यापारी बड़े ईमानदार हैं। उनके हिसाब बिलकुल ठीक हैं।
हनुमान विश्व के प्रथम साम्यवादी थे। सर्वहारा के नेता थे। उन्हीं का लाल रंग आज के साम्यवादियों ने लिया है।
पर सर्वहारा के नेता को सावधान रहना चाहिए कि उनके लंगोट से बुर्जुआ खाता-बही न बांध ले।
शुभ दीपावली!

Sunday, October 26, 2008

और रेहड़ घाटी में उतर चुके हैं

हेरमान हेस्से की कविताएँ जबसे हाथ लगीं हैं तबसे छुटपुट अंतराल में उन्ही में उलझा हुआ हूँ और गोते लगाने की प्रक्रिया से बाहर निकलना मुझे फ़िलहाल संभव नहीं दीख रहा। हेस्से की तीन कविताएँ पहले अनुवाद की थीं और कल दो कविताएँ और अनुवाद कर डालीं। 1914-15 में लिखीं ये दो कविताएँ युद्ध से बाहर निकलने की छटपटाहट को ज़ाहिर करती हैं:


पतझड़

सीमांत चुप हो जाता है कुछ देर के लिये
पहाड़ नीले हो उठते हैं
और चमकने लगते हैं नवंबर की सीली हवा में
सफ़ेद गहनों की तरह
नंगी चोटियाँ खड़ी रहती हैं
वैसे ही जैसे मैं उन्हें
हर्ष से देखता था अच्छे दिनों में
और उनके नीचे अभी ताजी बर्फ़ पड़ी ही थी
दूर तक कोई आदमी नहीं
और रेहड़ घाटी में उतर चुके हैं
खाली पड़े चारागाह जकड़े हैं अनाभूषित सर्दी में

शांत दृष्टि से सुस्ताते हुए ठंड में
मैं आंकता हूँ दूरी और देखता हूँ शाम का नीलापन
पहाड़ के पीछे निकले पहले तारे को भांपता हूँ
और सूँघता हूँ नज़दीक आते हुए पाले और ओस को
शाम की कंपकंपी के बीच लौट आती है याद
और पीड़ा और क्रोध और विलाप
आह! मेरा भ्रमण सुख

और फिर मेरा ध्यान डगमगाते हुए
जा पहुँचता है दूर चल रहे संघर्ष तक
निगलते हुए गैंग्रीन, युद्ध की दुर्गंध
कांपते हुए हज़ारों ज़ख़्मियों, मरने वालों और बीमारों के पास
और मैं ढूँढता हूँ अनिश्चित भावनाओं के बीच
प्यारे भाईयों को युद्ध के धमाकों और मारकाट में
और माँओं के हाथों में झूलते बच्चों की तरह
अपनी पितृभूमि के लिये दर्द से भरा हुआ और कृतज्ञ


बच्चों से

तुम्हें समय के बारे में कुछ पता नहीं
तुम जानते हो सिर्फ़ इतना कि दूर कहीं
एक युद्ध लड़ा जा रहा है
तुम ढालते हो लकड़ी को तलवारों में, ढालों और बरछियों में
और मस्ती में खेलते हो बगीचे में अपना खेल
तानते हो तंबू
सफेद पट्टियों पर लाल क्रास लगाते हो
अगर मेरी प्रार्थना में कोई शक्ति है
तो युद्ध तुम्हारे लिये
सिर्फ़ धुंधली गाथा ही रहेगा
और कभी नहीं मरोगे
और आग में झुलसते-ढहते घरों से नहीं भागना पड़ेगा तुम्हें बदहवास

तो भी एक दिन तुम योद्धा बनोगे
और एक दिन जानोगे
कि इस जीवन की मीठी सांस
कि धड़कते दिल का अमूल्य अधिकार
सिर्फ़ एक ॠण है और
तुम्हारे खून में बह रहा है
अतीत और विरासत जिसके लिये तुमने इंतज़ार किया
और दूर खड़ा भविष्य
और तुम्हारे जिस्म के एक-एक बाल के लिये
एक संघर्ष, एक पीड़ा, एक मृत्यु झेली गई

और तुम्हें जानना चाहिये कि भले आदमी की आत्मा भी
एक योद्धा होती है
जबकि उसने कभी उठाए नहीं होते हथियार
कि हर दिन दुश्मन
कि हर दिन संघर्ष और किस्मत करते हैं इंतज़ार
यह मत भूलना
तुम्हारा भविष्य जिसपर बन रहा है
उस खून, उस लड़ाई, विनाश के बारे में सोचना
और कैसे मृत्यु और बलिदान पर
छोटा सा सुख अपने को और भी परिष्कृत करता है

तब धधकेगा जीवन तुम्हारे भीतर
और तुम मृत्यु को भी अपनी बाहों में ले लोगे एक दिन।

Friday, October 24, 2008

हान नदी के लिए



दिलीप झवेरी की कविता
हल्के से तिरते किसी कोमल नीले हंस की तरह
बहती है यह खामोश और गहरी हान,
निश्चित ही, उसके भीतर कहीं कहीं लाल रंग है
वास्तविक और विकल, खून का दहकता लाल रंग,
जो कभी कभी फूट पड़ता है
हवाई अड्डे पर।


या किसी फलदार हृदय में बोए किसी इस्पात के बीज के आसपास
जवान गुस्साई आंखों...या उमगते ज्वार में
जो दूसरे किनारे पर खड़ी किसी मां की आवाज से दूर हैं।
लेकिन तब वहां गहरे जल का नीलापन भी है
जो प्रतिबिंबित करता है अव्याख्य आकाश
एक खामोश गूंज।


और फिर सभी तरफ
अलक्षित भीड़ है वाचाल उत्सवी उजालों के नीचे
जहां गहरे रास्ते अोढ़ते हैं नारंगी और पीली और हरी लालटेनें,
और यहां तक कि चांद भी खो जाता है
(मेले में पुलकित बच्चे की तरह
आतिशबाजियों के दौरान, चिंतित परिजनों और पुराने दुःखों से अजाना)
जो कोमलता से थाम लिया जाता है छत पर
पतले और पनपते कैमिलिया फूल जैसी
किसी लड़की की मुस्कराहट में।


हां, विलो से ढंकी रातें चंचल हैं।
हां, आग ठंडी हो गई हैं छोटे मोतिया मग्गों में
सोजू को पीकर- जो कभी शहद था
पंजों के लौ देते खोल
जो सदियों से चूमे जाते रहे हैं, नीली हान द्वारा

हान, प्यारी हान
सर्दियों में तुम अपने पंख गिरा देती हो
और जन्मती हो बार-बार अपने भीतर से
अनेक मेहराबों वाले पुल की इस्पाती कोखें।
क्या तुम्हारा हृदय तुम्हारे दोनों पंखों को नहीं जोड़ेगा
और उड़ जाएगा?
शायद खोया हुआ बच्चा, तुम्हारी उड़ान को खोजता
वसंत में अपने माता-पिता तक लौट आए
जब अनकहे उल्लास चमक रहे होंगे उसकी आंखों में
मिलने को, मां-बाप की भीगे सपनों भरी आंखों से।


और खून, खुशी-खुशी प्या की लाल शराब में गाढ़ा हो जाएगा।
हान,
नीली हान!
लाल हान!
अोढ़ती धनक।
खेलती बर्फों पर
एक दिवा-सपन?
या एक दृश्य, सहसा पहचाना!



(दिलीप झवेरी गुजराती के उल्लेखनीय कवि हैं। उन पर कुछ समय पहले एक मोनोग्राफ प्रकाशित हुआ था। इस मोनोग्राफ में उन्होंने अपनी ही कविताअों का अंग्रेजी अनुवाद दिया था। इनमें से कुछ का अंग्रेजी से सुशोभित सक्तावत ने अनुवाद किया है। सुशोभित युवतम कवि-अनुवादक हैं और उज्जैन में रहते हैं।)
(पेंटिंग- रवींद्र व्यास )

Thursday, October 23, 2008

सुमित्रानंदन पंत की कविताः विजय

कौसानी (बागेश्वर, अल्मोड़ा) में जन्में सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता था, उनका वास्तविक नाम गौंसाई दत्त था जिसे बाद में पसंद ना आने के कारण उन्होंने बदल कर सुमित्रानंदन रख लिया। उन्ही की लिखी है ये कविता विजय।

मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में,
मैं भक्ति हृदय में भर लाई,
वह प्रीति बनी उर परिणय में।

जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं।

प्राणों की तृष्णा हुई लीन
स्वप्नों के गोपन संचय में,
संशय भय मोह विषाद हीन
लज्जा करुणा में निर्भय मैं।

लज्जा जाने कब बनी मान,
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान,
कैसे, कब? करती विस्मय मैं।

उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं,
पापों अभिशापों की थी घर,
वरदान बनी मंगलमय मैं।

बाधा-विरोध अनुकूल बन
अंतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहँस मृदु फूल बने,
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में।

Wednesday, October 22, 2008

वांटेड - डैड और अलाइव



(Image: Activists from the Lok Jan Shakti Party shout slogans against Maharashtra Navnirman Sena leader, Raj Thackeray during a protest against the attack on north Indians by the MNS, in New Delhi on October 21, 2008. फोटो साभार: सिफी.कॉम)

शर्म है!

यह सूअर अब तक ज़िंदा है!

इसके पाले कुत्तों द्वारा मारे गए भाईयों की याद में एक बार मौन रखें!

आई हेट टीयर्स पुष्पा! आई हेट टीयर्स!

(यह पूरी पोस्ट प्यारे दोस्त मुनीश के लिए, इस पोस्ट की हैडिंग जिसके ब्लॉग की बाईलाइन है)

'अमर प्रेम' की याद है ना!

जी हां, वही शर्मिला टैगोर, राजेश खन्ना, ... वो नाव ... वो दोना ...

... और वो बड़ा नटखट बच्चा जो बड़ा होकर विनोद मेहरा बनता है ...

लीजिए चन्द तस्वीरें और गीत उसी अमर फ़िल्म के




























Tuesday, October 21, 2008

अधपके भारतीय की आत्मकथा: 'द व्हाइट टाइगर' का एक अंश

हमारे कबाड़ी भाई अनिल यादव ने कल रात 'द व्हाइट टाइगर' नाम की इस किताब के एक हिस्से का अनुवाद भेजा है. यह अनुवाद उन्हें हमारी एक कबाड़िन दीपा पाठक ने एक पत्रिका हेतु प्रेषित किया था. यानी अनुवाद दीपा का है. दीगर है कि अरविन्द अडिगा (किंवा अदिगा) को इस किताब के लिए इस साल का बुकर दिया गया है.



एक दिन जब मैं अपने पूर्व मालिक मिस्टर अशोक और पिंकी मैडम को उनकी होंडा सिटी में घुमा रहा था तो मिस्टर अशोक ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, जरा गाड़ी को किनारे पर रोक लो। यह कहते हुए वह आगे झुकते हुए मेरे इतने नजदीक आ गए कि मैं उनके आफ्टरशेव की खुशबू सूंघ सकता था- वह फलों की जैसी बहुत अच्छी खुशबू थी। उन्होंने हमेशा की तरह ही मुझसे प्यार से कहा, बलराम, मैं तुमसे कुछ सवाल करना चाहता हूं, ठीक है?

जी, सर, मैंने कहा।

बलराम, मिस्टर अशोक ने पूछा, आसमान में कितने ग्रह हैं?

इसका जितना अच्छा से अच्छा जवाब मैं दे सकता था मैंने दिया।

बलराम, भारत का पहला प्रधानमंत्री कौन था?

और फिर, बलराम, हिंदु और मुसलमान में क्या अंतर है?

उसके बाद, हमारे महाद्वीप का नाम क्या है?

मिस्टर अशोक पीछे की ओर झुके और पिंकी मैडम से पूछा, तुमने सुने इसके जवाब?

क्या वह मजाक कर रहा था, उन्होंने पूछा और मेरी धङकने बढ गई जो कि हमेशा बढ जाती थीं जब भी वह कुछ बोलती।
नहीं, उसने वही कहा जो उसे लगता है कि सही जवाब हैं।

यह सुन कर पिंकी मैडम हंसने लगी, लेकिन मैंने रियरव्यू में देखा कि मिस्टर अशोक का चेहरा बिल्कुल संजीदा था।
दरअसल बात यह है कि यह शायद.. दो या तीन साल ही स्कूल गया होगा। यह पढ और लिख सकता है लेकिन वह जो पढता है उसे समझता नहीं। यह आधा पका हुआ है। मैं कह सकता हूं कि यह देश इस तरह के अधपके लोगों से भरा हुआ है. और हमने अपने गौरवशाली संसदीय लोकतंत्र को, उन्होंने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा, ऐसे लोगों के भरोसे छोङा हुआ है। हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है। उन्होंने ठंडी आह भरी।

ठीक है बलराम, गाड़ी स्टार्ट करो।

उस रात, मैं मच्छरदानी के अंदर घुस कर अपने बिस्तर पर लेटा उनकी कही बात के बारे में सोच रहा था। उन्होंने ठीक कहा, सर। हालांकि उन्होंने मेरे बारे में जिस तरह से बोला वो मुझे अच्छा नहीं लगा लेकिन उनकी बात सही थी। "एक अधपके भारतीय की आत्मकथा", मुझे अपनी जिंदगी की कहानी को यही नाम देना चाहिए। मैं, और देश में मेरे जैसे हजारों और लोग अधपके इंसान हैं, क्योंकि हमें हमारी स्कूल की पढाई पूरी नहीं करने दी गई। हमारी खोपड़ी को खोल कर पेनलाइट जला कर देखा जाए तो तुम्हें वहां विचारों का एक अजीबोगरीब अजायबघर मिलेगा। इतिहास से जुङे कुछ वाक्य, स्कूल की पाठ्य पुस्तक से याद की हुई गणित (यह बात मैं दावे से कह सकता हूं कि स्कूल को उस बच्चे से ज्यादा अच्छी तरह से कोई याद नहीं रख सकता, जिसे पढाई पूरी होने से पहले ही स्कूल छो्ड़ना पङा हो), किसी के आफिस आने के इंतजार के दौरान अखबार में राजनीति के बारे में पढे हुए कुछ वाक्य, रेखागणित की पुरानी पाठ्य पुस्तक के फटे पन्नों पर, जिन्हें देश भर की चाय की दुकानों में नाश्ते का सामान लपेटने में इस्तेमाल होता है, देखे त्रिकोण और पिरेमिड, आल इंडिया रेडियो के समाचारों का कुछ हिस्सा, चीजें जो छत से टपकी छिपकली की तरह सोने से आधे घंटे पहले दिमाग में गिरती है-- ये सब, आधी बनी हुई, आधीसमझी हुई आधी सही बातें दिमाग के ऐसे ही दूसरे आधे-अधूरे विचारों के साथ मिलती हैं। और मुझे लगता है कि ये आधे बने हुए विचार एक-दूसरे से जुङ कर और अधपके विचारों को पैदा करते हैं और यही तुम्हारे विचार बनते हैं जिन पर तुम अमल करते हो, जिनके साथ तुम जीते हो। मेरे बड़े होने की कहानी बताती है कि एक अधपका आदमी कैसे तैयार होता है।

लेकिन माननीय, मेरी बात पर गौर कीजिएगा! एक पूरी तरह से बना हुआ आदमी १२ साल की स्कूली पढाई और तीन साल विश्वविद्यालय में बिताने के बाद बढिया सूट पहनता है, कंपनियों में नौकरी करता है और अपनी बाकी की पूरी जिंदगी
दूसरों से आदेश लेते हुए बिताता है।

उद्यमी आधी पकी हुई मिट्टी से बनते हैं।

(*कुछ ग़लतफ़हमी के कारण अब तक यह पोस्ट ठीक नहीं थी. अब दुरुस्त कर दी गई है. अनिल और दीपा से माफ़ी!)

Monday, October 20, 2008

सारी दुनिया मेरे ख्वाबों की तरह हो जाए



आज से लगभग बीसेक बरस पहले ( १९८६ में ) इंटीग्रेटेड फ़िल्म्स के बैनर तले एक बेहद खूबसूरत उर्दू फिल्म आई थी जिसका नाम था - 'अंजुमन'. १४० मिनट की यह फिल्म लखनऊ की दस्तकारी और उससे जुड़ी दुनिया के रूप-रंग को लेकर बुनी गई थी. तब तक समांतर सिनेमा का दौर खत्म नहीं हुआ था . हमारे फिल्मकारों को तब तक नएपन के अन्वेषण से इतना गुरेज भी नहीं था. मुजफ्फर अली निर्देशित इस 'अंजुमन' में एक खास तरह का नयापन था जिसे सराहा गया. मुजफ्फर अली और शोभा डॊक्टर द्वारा निर्मित 'अंजुमन' में संगीत दिया था खैयाम साहब ने . इसी फिल्म की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है जिसे लिखा है नामचीन शायर शहरयार ने और स्वर है समर्थ अभिनेत्री ( और गायिका भी ) शबाना आजमी का. तो आइए सुनते हैं यह ग़ज़ल -

तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको .
तेरे मिलने से मिली दर्द की दौलत मुझको .

जिन्दगी के भी कई कर्ज हैं बाकी मुझ पर ,
ये भी अच्छा है न रास आई मुहब्बत मुझको .

तेरी यादों के घने साए से रुखसत चाहूं ,
फिर बुलाती है कहीं धूप की शिद्दत मुझको .

सारी दुनिया मेरे ख्वाबों की तरह हो जाए ,
अब तो ले दे के यही एक है हसरत मुझको .

Sunday, October 19, 2008

सिमो द बुवा के लिए एक अपील


सिमो द बुवा की 'द सेकेंड सेक्‍स' का हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद क्‍या पूरी तरह सही है? मैंने तो इस पर कभी सोचा भी नहीं था. वह किताब तो प्रभा खेतान के हिंदी अनुवाद 'स्‍त्री: उपेक्षिता' में पढ़ी थी. पिछले दिनों एक नई बहस का पता चला. सौजन्‍य, जेएनयू के प्रोफ़ेसर सत्‍यपाल गौतम. उन्‍होंने जो बताया, उसका सार-संक्षेप यह कि जून 1949 में जब यह किताब छपी और फ्रेंचभाषी दुनिया में इसकी ख़ूब चर्चा हुई, तो प्रकाशन संस्‍थान रैंडम हाउस ने अंग्रेज़ी में बिक्री की संभावनाओं को देखते हुए तुरत-फुरत इसका अंग्रेज़ी अनुवाद कराया. इसके अंग्रेज़ी अनुवादक हावर्ड पार्शले बायलॉजी के विद्वान थे और दर्शन से उनका कोई ख़ास लेना-देना नहीं था. सो, अनुवाद के दौरान उन्‍होंने गोले मार दिए. स्‍त्री-अस्तित्‍व के प्रश्‍नों से जुड़े कई पैराग्राफ़्स को उन्‍होंने छोड़ दिया, जो कि उनकी समझ में नहीं आए थे. दर्शन के कई ठेठ शब्‍दों का ग़लत अनुवाद कर दिया. अंग्रेज़ी के ज़रिए किताब दुनिया के एक बड़े हिस्‍से में पहुंची, लेकिन फ्रेंच संस्‍करण से उसे कभी मिलाकर नहीं देखा गया. ऐसा मिलान कुछ बरसों पहले ही हुआ है और अंग्रेज़ी अनुवाद में यह भयंकर गड़बड़ पाई गई है. रैंडम हाउस से बार-बार मांग की जा रही है कि वह उसका सही अनुवाद प्रकाशित करे, लेकिन प्रकाशक इस पर राज़ी नहीं. न ही वह ग़लती मान रहा है.

तोरिल मोई जैसी विद्वानों का मानना है कि यूरोप में सिमो पर होने वाले विवादों का प्रमुख कारण यह ग़लत अनुवाद ही है, जिसके कारण उसकी कई स्‍थापनाएं पाठकों को पूरी तरह समझ में नहीं आ पातीं. अगर फ्रेंच में पढ़ा जाए, तो हर बात साफ़ हो जाती है. निश्चित ही, ऐसी किताब, जिसका हर पैराग्राफ़ सदियों से चली आ रही मान्‍यताओं के खि़लाफ़ आपको उकसाता हो, झिंझोड़ता हो, उसके दस पैराग्राफ़ भी ग़ायब हों, तो लेखक की बात तो अधूरी रह ही जाएगी.

इसे क्‍या कहा जाए, बौद्धिक जालसाज़ी ही न. लेखक और पाठक दोनों के साथ बेईमानी? यह अनुवाद की सीमा है या अंतरराष्‍ट्रीय प्रकाशकों द्वारा आनन-फानन माल कबाड़ने की नीयत का एक और अध्‍याय? क्‍या सिमो इसका कोई अपवाद हैं या अंतिम आखेट? क्‍या सारे अनुवाद ऐसे अंदाज़गोलों से भरे होते हैं? बीसवीं सदी की सबसे बड़ी किताबों में से एक किताब, जिस पर दुनिया-भर का स्‍त्री विमर्श, मुक्ति-आंदोलन कुहनी टेक कर खड़ा होता है, उसे हमने आधा-अधूरा और ग़लत-शलत पढ़ा है, समझे कितना हैं, यह अभी कैसे तय हो जाए? हम बहुत सारा साहित्‍य अनुवाद के ज़रिए पढ़ते हैं और लॉस्‍ट इन ट्रांसलेशन वाली आशंका हमेशा रहती है, लेकिन यह क्‍या, कि कई-कई पन्‍ने ही ग़ायब हो जाएं, क्‍योंकि वे अनुवादक को समझ में नहीं आए थे. अहा. कैसा उछलता-फलांगता-कुलांचता, अनुवादक का हिरणावतार है! यानी 'इस युग में हर चीज़ को संदेह की नज़र से देखो' की सूक्ति को लैमिनेट कराके दीवार पर टांग लिया जाए? सोचिए.

इस किताब का सही अनुवाद कराके दुबारा मुद्रित-प्रकाशित कराने की मांग को लेकर इंटरनेट पर एक हस्‍ताक्षर अभियान चल रहा है. अब तक 598 हस्‍ताक्षर हुए हैं. 596वें नंबर पर मैंने किए थे. पेटीशन का लिंक इसी लाइन में छुपा है. एक बार जाइए. दस लाइनें पढि़ए, और साइन कर दीजिए. शुक्रिया मैं नहीं, सिमो की आत्‍मा बोलेगी.

Saturday, October 18, 2008

यह पिस्तौल ताने तुम किसे खोज रहे हो

यह पिस्तौल ताने तुम किसे खोज रहे हो

यह पिस्तौल ताने तुम किसे खोज रहे हो
हमें पता नहीं था कि यहां
हर चीज़ साथ लानी पड़ती है
बैठने की जगह,प्याले, बिस्तर, दर्पन, समुद्र,
शराब और आसमान भी
अब हमसे कहा जा रहा है
कि कोई भीड़ नहीं बनी हमारे लिए
यह सम्भव नहीं है तो
हमें इस पर विश्वास नहीं दिला सकते
कि जब हम इस जहाज़ पर आए थे
अन्धकार था तब हम सब नंगे थे
हम सब एक ही स्थान से आए थे
हम सब, स्त्रियों-पुरुषों से उत्पन्न हुए थे
हम सब ने भूख पहचानी थी
और फिर दांत उगे थे
हमने हाथों को हरकत दी थी
मेहनत करने के लिए
और आंखें खोली थीं
जो है, यह सब पाने के लिए
तुम यह नहीं कह सकते हो कि
हमें यह अधिकार नहीं है
जहाज़ में अब ज़्यादा जगह नहीं है
तुम हमसे नमस्कार करना नहीं चाहते
तुम हमारे साथ खेलना नहीं चाहते
तुम हमसे बोलना नहीं चाहते
तुम्हारे लिए इतनी सुविधाएं कैसे हैं
जन्म से पहले की?
यह चांदी की चम्मच तुम्हें किसने दी है

हम यहां ख़ुश नहीं हैं
सज्जनो! चीज़ें इस तरह ठीक नहीं चल सकतीं
हमें इस तरह यात्रा करना पसन्द नहीं है
अंधेरे कोनों में छुप कर दुख पाना
उदास खाली आंखें
और भूख से सूखे मुंह
आने वाली सर्दी के लिए कपड़ों का अभाव
और अपनी सर्दी के लिए उस से भी कम
बिना जूतों के हम
कैसे घूम सकते हैं, इस दुनिया में
जहां सड़कों पर इतने ज़्यादा पत्थर हैं
बिना मेज़
हम खाना कहां खाएंगे
कुर्सियों के बिना हम कहां बैठेंगे
भले आदमियो!
यदि यह एक मज़ाक है, विनोदरहित
तो इसे जल्दी बन्द कर दीजिये.
गम्भीरता से बात करने के लिए
क्योंकि इस से आगे
समुद्र बहुत ख़तरनाक है
और, जहां ख़ून की वर्षा होती है.

-पाब्लो नेरूदा

(यह पोस्ट ज्ञानरंजन जी के वास्ते बहुत आदर के साथ)

Friday, October 17, 2008

यह कहानी अपने नए पाठ की दरकार तो जरूर करती है.

......आज करवा चौथ है.

आज सुबह- सुबह कई दफा फिल्म 'उमराव जान' ( नई वाली) का गीत सुना गया-


...अब जो किए हो दाता अइसा न कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो...

.......यह गीत सुनकर मन भारी हो गया था. सुबह के उल्लास में उदासी का रंग घुल गया था जो दोपहर बाद बमुश्किल दूर हुआ. बाजार में पिछले कई दिनों से रौनक जारी थी. अब गली - गली मनिहार -चूड़ीहार फेरा नहीं लगाते सो चूड़ी -कंगन की दुकानें गुलजार थीं. शाम को फिल्म 'बाजार' का गाना सुना गया -

...चले आओ सैयां रंगीले मैं वारी रे
सजन मोहे तुम बिन भाये ना गजरा
जी भाये ना गजरा
ना मोतिया चमेली ना जूही ना मोगरा...

.......अभी कुछ देर पहले ही चाँद निकला है. अपनी छत से चाँद का दीदार कर अभी कमरे में आया हूं.इब्ने इंशा की नज्म 'उस आँगन का चाँद' की याद आ रही है-

....चाँद किसी का हो नहिं सकता , चाँद किसी का होता है;
चाँद की खातिर जिद नहीं करते ऐ मेरे प्यारे इंशा चाँद...

'प्रतिनिधि कवितायें' (इब्ने इंशा) खोज रहा हूँ , मिल नहीं रही है।अभी कल तक यहीं तो धरी थी. सचमुच कुछ चीजें हमारे निकट , हमारे आसपास ही होती हैं और हम परेशान - हलकान होकर उनकी तलाश में जुटे रहते हैं किन्तु वे कहीं , किसी कोने-आंतर में ऐसी बिलाई रहती हैं कि उनका होना अनुभवजगत के निकट प्राय: आ ही नहीं पाता. और यदि कभी अचानक वे संवेदना की सतह पर उतरा - सी जाती हैं तो लगता है कि यह किसी चमत्कार से कतई कम नहीं !

आज करवा चौथ पर बहुत सी बातें ,किस्से, कवितायें याद आ रही हैं लेकिन हिन्दी साहित्य के अनमोल खजाने से जो कहानी याद आ रही है, वह है - 'करवे का व्रत'. हिन्दी की प्रगतिशील / प्रगतिवादी कथाधारा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर यशपाल ( १९०३ - १९७६ ) की इस कहानी के पाठ पर कोई टिप्पणी न करते हुए यह कम पाठकों के जिम्मे, मगर एक बात- यह कहना जरूर है कि आज से आधी शताब्दी से अधिक समय पहले लिखी गई यह कहानी नए देश, काल ,वातावरण में अपने नए पाठ की दरकार तो जरूर करती है।
करवे का व्रत / यशपाल
कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया-' कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले ' अच्छा!' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।

कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार नहीं हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।

निःश्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।

लाजवन्ती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नयी ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाये, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।

कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।

मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिये उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।

क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपये आ गए थे। कन्हैया अपनी चिठ्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'

करवे के रुपये आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'

और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीजें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। वह लाजो का बताया सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।

लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।

तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियाँ लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।

लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरघी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'

लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्ही के लिये व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।

लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उसपर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।

लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरखा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिये बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकव रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आया और कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किये-किये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।

लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवाचौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।

कन्हैयालाल के लिये उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।

कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अन्धकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।

कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'

लाजो के दुखे हुये दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।

कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हाँफते हुये लात उठाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'

लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिये तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम-जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल...!'

कन्हैयालाल का लात मारने के लिये उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।

लाजो पर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उड़काकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैने क्या किया था जो मारने लगे।

किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोंछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैठ गया।

कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गये और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'

कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिये।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिये न कहकर नल की ओर चला गया।

लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'

लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था।

लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किये देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिये दूध ले आता हूँ।'

लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'

उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुस्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हे नींद तो नहीं आ रही ? '

साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवाचौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीआर्डर करवे के लिये न पहुँचा था। करवाचौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'

कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। डाकखाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबियत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आयेंगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? सब ढकोसले हैं।'

'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।

सन्ध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।

अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।

' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।

' यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।

लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?'

'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'

लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।
( चित्र 'अमर उजाला' से और यशपाल जी की कहानी 'गद्य कोश' से साभार)

सेर पर सवासेर !

(वजन तैं तो मरैगा)





पंडा: करोति पांडित्यम्
ज्ञानर्बघारिते ब्लगम्
अनेषां पिण्ड किं लाभम्
जब ख्वर पर पड़ें सड़े अण्डे.

संस्कृत का एक सेर

(ना समझे वो अनाड़ी है ...)

आन दो बखत:

काकः कृष्णः पिकः कृष्णः
कः भेद पिककाकयो
वसन्त समये प्राप्ते
काकः काकः पिकः पिकः


रिपीट:

(ना समझे वो अनाड़ी है ...)

Thursday, October 16, 2008

सर्दियां:विवाल्दी

ऐन्तिनियो विवाल्दी की मौसम सीरीज़ का अन्तिम भाग:




To tremble from cold in the icy snow,
In the harsh breath of a horrid wind;
To run, stamping one's feet every moment,
Our teeth chattering in the extreme cold

Before the fire to pass peaceful,
Contented days while the rain outside pours down.

We tread the icy path slowly and cautiously, for fear of tripping and falling.
Then turn abruptly, slip, crash on the ground and, rising, hasten on across the ice lest it cracks up.
We feel the chill north winds course through the home despite the locked and bolted doors...
this is winter, which nonetheless brings its own delights.

आशीष सांकृत्यायन की आवाज़ में ध्रुपद गायकी


ध्रुपद का नाम लेते ही डागर परिवार का नाम मन में आता है. इस विशिष्ट गायन शैली के एक अनूठे कलाकार से आपका परिचय करा रहा हूं.

यूनीवर्सिटी ऑफ़ बॉम्बे में गणित और भौतिकविज्ञान की पढ़ाई कर रहे आशीष सांकृत्यायन ने जब पहली बार उस्ताद फ़हीमुद्दीन डागर की राग दरबारी की एक कम्पोज़ीशन सुनी तो उन्होंने ठान लिया कि अब जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ ध्रुपद गायकी बन के रह जाना है. बीस सालों तक तमाम उस्तादों से प्रशिक्षण ले चुकने के बाद जब सन २००० में उन्होंने अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति दी तो उन्हें हाथोंहाथ लिया गया. संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें २००३ में राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ैलोशिप से सम्मानित किया.

अब वे दुनिया भर में अपने गायन का लोहा मनवा चुके हैं.

ज़्यादा भूमिका न बांधते हुए आपको उनकी विलक्षण आवाज़ सुनवाता हूं:

Wednesday, October 15, 2008

शरद:विवाल्दी



ऐन्तिनियो विवाल्दी की मौसम सीरीज़ का भाग तीन:



Celebrates the peasant, with songs and dances,
The pleasure of a bountiful harvest.
And fired up by Bacchus' liquor, many end their revelry in sleep.

Everyone is made to forget their cares and to sing and dance
By the air which is tempered with pleasure
And (by) the season that invites so many, many
Out of their sweetest slumber to fine enjoyment

The hunters emerge at the new dawn,
And with horns and dogs and guns depart upon their hunting
The beast flees and they follow its trail;
Terrified and tired of the great noise
Of guns and dogs, the beast, wounded, threatens
Languidly to flee, but harried, dies.

(चित्र: डच मूल के लिम्बर्ग भाइयों की बारह महीनों की पेन्टिंग सीरीज़ से 'सितम्बर')

Tuesday, October 14, 2008

अल्मोड़ा का दशहरा तस्वीरों में

अल्मोड़ा का दशहरा बहुत विख्यात है. उस दिन यहां रावण के अलावा मेघनाद, अहिरावण, ताड़िका इत्यादि के पुतलों का दहन होता है. एक परम्परा यह है कि इन जीवन्त पुतलों को बनाने में कई हफ़्तों तक स्थानीय कलाकार मेहनत करते हैं. दशहरे के दिन दहन से पूर्व इन की झांकी पूरे अल्मोड़ा शहर में निकाली जाती है.

प्रस्तुत हैं इस साल के दशहरे के कुछ फ़ोटो.






















गर्मियां:ऐन्तिनियो विवाल्दी की मौसम सीरीज़ का भाग दो

इन कम्पोज़ीशन्स का निर्माण १७१७-१७२० के दौरान विवाल्दी द्वारा मानतूआ में बिताए दोएक सालों की वजह से सम्भव हो पाया था. मानतूआ में राजकुमार फ़िलिप ने विवाल्दी को बतौर संगीत निर्देशक अपने दरबार में काम करने को बुलावा भेजा था.

मानतूआ के आसपास का ग्राम्य जीवन विवाल्दी की इन कालजयी रचनाओं की प्रेरणा बना. बहती धाराएं, अलग-अलग तरह से गाती चिड़ियां, भौंकते कुत्ते, भिनभिनाते मच्छर, रोते हुए चरवाहे, धुत्त नाचनेवाले, शिकार-पार्टियां, बर्फ़ में जमे लैंडस्केप, आइस-स्केटिंग करते बच्चे और अलाव - ये सब विवाल्दी के लिए संगीत के अजस्र स्रोत थे. इन चारों कॉन्चियेर्तोज़ के मूल में छिपी प्राकृतिक-दृश्यावली को समझाने के उद्देश्य से उन्होंने बाक़ायदा कविताएं भी लिखीं.



बहुत मुश्किल मौसम है, सूरज का तपाया हुआ
एक आदमी काम से थक कर चूर, भेड़ें त्रस्त और जलते हैं चीड़
हमें सुनाई देती है कोयल; फिर बाक़ी चिड़ियों का कलरव.
मुलायम झोंका हल्के से हिलाता है हवा को ... लेकिन डराती हुई उत्तरी हवा अचानक उन्हें उड़ा ले जाती है.
कांपता है चरवाहा, डरता हुआ कि उसके भाग्य में बस चिंघाड़ते तूफ़ान ही हैं.

बिजली और तूफ़ान का खौफ़
छीन लेता है उसके थके तन का सुकून
और पतंगे-मक्खियों की भिनभिन चालू.

आह! उसका डर सही था
आसमानी बिजलियां और तूफ़ान का भीषण शोर
गेहूं की बालियों को बरबाद कर देता है

आपकी फ़ेवरेट कॉमिक स्ट्रिप कौन सी है?




गैरी लार्सन के 'द फ़ार साइड' कार्टून मुझे सबसे ज़्यादा आकृष्ट करते हैं.

कॉमिक्स में एस्ट्रिक्स.

लेकिन कॉमिक स्ट्रिप्स की बात आती है तो मैं असमंजस में पड़ जाता हूं. मेरी बेटी के मुताबिक गारफ़ील्ड को ही मेरी सबसे प्रिय कॉमिक स्ट्रिप होने का अधिकार है (क्योंकि ख़ुद वह गारफ़ील्ड की दीवानी है चार-पांच साल की उम्र से). एक भीषण कार्टूनप्रेमी दोस्त के मुताबिक यह स्थान बो-पीप के लिए सुरक्षित है. पीनट्स के बारे में क्या ख़्याल है? ... और माफ़ाल्दा ...

इधर कुछ दिन पहले घर की सफ़ाई करते हुए मुझे मेरे पुराने बक्सों में जो ख़ज़ाना मिला, उसके बाद इस टेढ़े सवाल का जवाब देना थोड़ा आसान हो गया. क़रीब पन्द्रह साल पहले मेरे एक जन्मदिन पर एक दोस्त ने इन स्ट्रिप्स के बारह सैट उपहार में दिए थे. पिछले कुछ दिन इन्हीं के आनन्द में डूबते-लहराते मेरा यक़ीन अब ठोस हो चुका है कि मेरी फ़ेवरेट कॉमिक स्ट्रिप कैल्विन एन्ड हॉब्स है. और कोई इस के आसपास ठहर भी नहीं पातीं.

बिल वाटरसन ने १९८५ से १९९५ के दरम्यान इन्हें रचा. एक समय ऐसा था जब ये दुनिया के ढाई हज़ार अख़बारों में छप रही थीं. सोलहवीं सदी के फ़्रांसीसी दार्शनिक जॉन कैल्विन और सत्रहवीं सदी के ब्रिटिश सामाजिक विचारक टॉमस हॉब्स के नाम पर इस सीरीज़ का नामकरण किया गया था.

कैल्विन छः साल का अविश्वसनीय रूप से बुद्धिमान बच्चा है. हॉब्स नाम का एक चीता उसका सबसे पक्का दोस्त है. दोनों एक ही घर में रहते हैं और एक ही बिस्तर पर सोते हैं. घर कैल्विन के माता-पिता का है. कैल्विन को स्कूल और किताबों से सख़्त परहेज़ है.

हॉब्स जीवन को बहुत हल्के फ़ुल्के देखने का हामी है और जब-तब कैल्विन की सनकभरी बौद्धिकता पर वह कोई ऐसा कमेन्ट कर देता है कि कैल्विन अवाक रह जाता है. कैल्विन की शब्दावली बेहद जटिल और विकट रूप से वयस्क है और उस के लिए हर चीज़ का कोई न कोई दूसरा-तीसरा मतलब होता है. हॉब्स बहुत छोटे वाक्य बोलता है और उसकी भाषा सादा है.







(मूल आकार में देखने को स्ट्रिप्स पर क्लिक करें)

Monday, October 13, 2008

फूलों को खिलता हुआ सुनिये!



ऐन्तिनियो विवाल्दी (१६८०-१७४१) इटली के मशहूर कम्पोज़र और वायलिनवादक हुआ करते थे. हालांकि उन्होंने जीते-जी सन्तभाव से कभी किसी गिरजे का मुंह नहीं देखा, १७०३ में मिले एक पवित्र सम्मान के कारण उन्हें 'लाल बालों वाला पादरी' का उपनाम हासिल हुआ. १७१३ से १७४० तक वे वेनिस के एक स्कूल में संगीत सिखाते रहे. पाश्चात्य संगीत के तीर्थ विएना में अगले बरस उन्होंने आख़िरी सांस ली.

विवाल्दी ने चालीस से ज़्यादा सिम्फ़नी रचीं पर मशहूर वे अपनी वॉयलिन कॉन्चियेर्तोज़ के कारण हुए. मौसमों पर आधारित चार कम्पोज़ीशनों की एक सीरीज़ अब उनकी पहचान बन चुकी है.

आज विवाल्दी के बारे में इतना ही. अब कल से अगले तीन रोज़ इसी वक़्त आप इस सीरीज़ की बाक़ी कम्पोज़ीशन्स सुन सकते हैं. धीरे-धीरे इस संगीतकार के बारे में कुछ और दिलचस्प चीज़ें आपको बताने का प्रयास करूंगा.

पहली वाली का नाम है "वसन्त".

फूलों को खिलता हुआ सुनिये!



वसन्त आ रहा है हम पर
परिन्दे अपने ख़ुशीभरे गीतों के साथ मना रहे हैं उसकी वापसी का जश्न
और गुनगुनाती धाराओं को हौले से सहलाती है हवा
वसन्त के हरकारे तूफ़ान गरजते हुए अपना काला लबादा फैला देते हैं स्वर्ग पर
फिर वे ख़ामोश हो जाते हैं और परिन्दे एक बार फिर शुरू करते हैं अपना गीत

फूलों से भरे एक चरागाह पर, सोता है एक चरवाहा
उसके ऊपर झूलती पेड़ों की डालियां और उसका वफ़ादार कुत्ता बग़ल में

गांव की मशकबीनें बुला लेती हैं युवतियों को
और चरवाहे उनके साथ नाचते हैं धीरे-धीरे, वसन्त की चमकीली छतरी के नीचे.

कबाड़ के धन्धे में फ़ायदा ही फ़ायदा

एक दिलचस्प मेल फ़ॉरवर्ड की है मित्र पारितोष पन्त ने. मुझे नहीं मालूम इस में कितने तथ्य सच हैं पर बाज़ार की सतत नोज़डाइव्ज़ के बीच सुनाई ठीकठाक दे रहे हैं.

आप तय कीजिये आप क्या करते अपनी रोकड़ का, जो अमरीका में होते तो - कबाड़ का धन्धा करेंगे या बीयर पीएंगे या दोनों!

मेल का अनुवाद पेश है:


अगर आपने एक साल पहले डेल्टा एयरलाइन्स के एक हज़ार डॉलर के स्टॉक ख़रीदे होते, तो आपको आज वापस मिलते ४९ डॉलर. Fannie Mae के इतने ही के शेयर आपको आज दिलाते ढाई डॉलर. AIG में लगाए हज़ार डॉलर्स के बदले पन्द्रह से कम वापस मिलते.

अगर आपने एक साल पहले एक हज़ार डॉलर के बीयर कैन्स ख़रीदे होते और उनमें भरी सारी बीयर पी ली होती और उसके बाद किसी कबाड़ी को ख़ाली कैन्स रिसाइक्लिंग के वास्ते बेचे होते तो अपको नकद २१४ डॉलर वापस मिलते.

ये कहां तुम ग़ायब हुए? ये मैं कब बन गई ऐसी गई-बीती?

पतन

(लेन्स के दूसरी तरफ़ से)

याद है
वह हंसी जो खोल कर धर देती थी
एक स्फटिक-साफ़ दिन को?

वह चांद - पूरा
ढुलका आता हुआ झील में

वह ख़ुशी, चूमना वह
और सितारों से ढंकी हमारी देहें!

बस एक बार
चख सकती तुम्हारी जीती-जागती आकृति को बस एक बार और ...

तुम्हारे 'सैवेज' आफ़्टरशेव
की झीनी स्मृति को पहने

मैं चमकाती हूं अपने होंठों को
सुर्ख सुर्ख़तर लाल में:
ठीक कर देती हूं आईने की आख़िरी सिलवट को:
चिप्पियां लगा कर दुरुस्त करती हूं उस चेहरे को
तुम्हारे बाक़ी चेहरों का सामना करने को.

ये कहां तुम ग़ायब हुए?

ये मैं कब बन गई ऐसी गई-बीती?

---

अनुवाद के लिए अशोक भाई का शुक्रगुजार हूँ. मूल कविता अंग्रेज़ी में इस प्रकार थी:

THE FALL

(From the other side of the lens)


Remember
the laughter that broke open the lid
of a crystal-clear day?

The moon - full
and spilling onto the lake

The joy, the kiss
and our bodies covered with stars!

If only
I could taste your living outline again ....

Wearing the thin memory of your -
once Savage aftershave

I gloss my lips
a bright, brighter red;
smooth that last wrinkle out of the mirror;
patch that face to meet all your other faces.

Where did you disappear?

When did I turn commonplace?

"MEET"

Sunday, October 12, 2008

कहां है आतंक का गढ़ - 'जनमत' का पोस्टर

आज़मगढ़ में १९ अक्टूबर २००८ को होने वाले लोकतंत्र और जनाधिकार के लिए जन सम्मेलन के अवसर पर प्रतिबद्ध राजनैतिक मूल्यों की पत्रिका 'जनमत' द्वारा निम्न पोस्टर जारी किया जा रहा है.



(पूरे आकार में देखने हेतु पोस्टर की इमेज पर क्लिक करें.आभार: के.के. पाण्डेय, जनमत)