कल आपने नरेश सक्सेना जी की एक कविता पढ़ी थी. नरेश जी के यहां विज्ञान की मूल धारणाएं अद्भुत काव्य-आयाम ग्रहण कर लेती हैं और साधारण से साधारण लगने वाली चीज़ें और प्रक्रियाएं एकबारगी किसी नए अर्थ के साथ हमारे सामने उद्घाटित होती हैं. आज इसी क्रम में पढ़िये उनकी एक तनिक लम्बी लेकिन विचारोत्तेजक कविता.
गिरना
चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं. मनुष्यों के गिरने के
कोई नियम नहीं होते.
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं
बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो
यही सोच कर गिरा भीतर
कि औसत क़द का मैं
साढ़े पाँच फ़ीट से ज्यादा क्या गिरूंगा
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा
चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहाँ, पीसा की टेढ़ी मीनार की आख़री सीढ़ी
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है
इटली के लोगो,
अरस्तू का कथन है कि, भारी चीज़ें तेज़ी से गिरती हैं
और हल्की चीज़ें धीरे-धीरे
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुए देखेंगे, लोहे के भारी गोलों
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और काग़ज़ों और
कपड़ों की कतरनों को
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा,
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया
चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीज़ों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है
और लोग
हर कद और हर वज़न के लोग
खाये पिए और अघाए लोग
हम लोग और तुम लोग
एक साथ
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं
इसीलिए कहता हूँ कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़
चीज़ों का गिरना
और गिरो
गिरो जैसे गिरती है बर्फ़
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ
गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आँसू की एक बूंद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं आता'
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए
गिरो जलप्रपात की तरह
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए
अंधेरे पर रोशनी की तरह गिरो
गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए
लेकिन रुको
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा गया
तो गिरो, उससे छूटे तीर की तरह
बंजर ज़मीन को
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन बनाते हुए
बारिश की तरह गिरो, सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह
धरती को अपने बीज सौंपते हुए
गिरो
गिर गए बाल
दाँत गिर गए
गिर गई नज़र और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे ...
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में मिकदार हीमोग्लोबीन की
खड़े क्या हो बिजूके से नरेश
इससे पहले कि गिर जाये समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त
और गिरो किसी दुश्मन पर
गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूँ
गिरो
(चित्र: आधुनिक चीनी पेन्टर और शिल्पकार कियांग ली लियांग का कांस्य-शिल्प Falling)
Monday, May 31, 2010
Sunday, May 30, 2010
आधा चांद मांगता है पूरी रात
नरेश सक्सेना जी की कविताएं आप यहां पहले भी पढ़ चुके हैं. 'समुद्र पर हो रही है बारिश' उनके संग्रह का नाम है. १६ जनवरी १९३९ को ग्वालियर में जन्मे नरेश जी साहित्य के अलावा फ़िल्मों के क्षेत्र में भी खासा कार्य कर चुके हैं. प्रतिष्ठित पहल सम्मान से नवाज़े जा चुके नरेश जी की एक शानदार कविता प्रस्तुत है.
पूरी रात के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चांद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य
आधे से अधिक
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोग
आधे वस्त्रों से ढांकते हुए पूरा तन
आधी चादर में फैलाते हुए पूरे पांव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताकत
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु
पाते आधी उम्र में.
आधी उम्र, बची आधी उम्र नहीं
बीती आधी उम्र का बचा पूरा भोजन
पूरा स्वाद
पूरी दवा
पूरी नींद
पूरा चैन
पूरा जीवन
पूरे जीवन का पूरा हिसाब हमें चाहिए
हम नहीं समुद्र, नहीं चांद, नहीं सूर्य
हम मनुष्य, हम -
आधे चौथाई या एक बटा आठ
पूरे होने की इच्छा से भरे हम मनुष्य.
पूरी रात के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चांद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य
आधे से अधिक
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोग
आधे वस्त्रों से ढांकते हुए पूरा तन
आधी चादर में फैलाते हुए पूरे पांव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताकत
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु
पाते आधी उम्र में.
आधी उम्र, बची आधी उम्र नहीं
बीती आधी उम्र का बचा पूरा भोजन
पूरा स्वाद
पूरी दवा
पूरी नींद
पूरा चैन
पूरा जीवन
पूरे जीवन का पूरा हिसाब हमें चाहिए
हम नहीं समुद्र, नहीं चांद, नहीं सूर्य
हम मनुष्य, हम -
आधे चौथाई या एक बटा आठ
पूरे होने की इच्छा से भरे हम मनुष्य.
Thursday, May 27, 2010
अरविन्द गुप्ता को जानते हैं आप?
भारत में शिक्षा के प्रसार के तमाम सरकारी दावे हैं पर यह एक सच्चाई है कि लगातार बेहतर बनाए जाते पाठ्यक्रमों के बावजूद बच्चों को विज्ञान, गणित और भाषा में आमतौर पर खासी दिक्कतें पेश आती नज़र आती हैं और कस्बों, शहरों में ट्यूशन बाकायदा एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुका है. एन सी ई आर टी ने स्कूलों के लिए बेहतरीन पाठ्यपुस्तकें तैयार की हैं लेकिन अच्छे शिक्षकों का भीषण अभाव है. ये शिक्षक उस उच्चशिक्षा से लैस होकर आये होते हैं जिसकी आम स्थिति शोचनीय है. आम कहावत बन गई है कि जो कुछ नहीं बन पाता वह मास्टर बन जाता है.
अगर आपका या आपके आसपास का कोई बच्चा विज्ञान से कतराता है और आप उसकी मदद करना चाहते हैं तो आपने श्री अरविन्द गुप्ता के बारे में जानना चाहिये.
आई आई टी कानपुर से इंजीनियरिंग पढ़ चुके अरविन्द गुप्ता पहले टेल्को में कार्यरत थे. पिछले पच्चीस सालों से वे पुणे के इन्टर यूनिवर्सिटी सेन्टर फ़ॉर एस्ट्रोनॉमी एन्ड एस्ट्रोफ़िज़िक्स बच्चों को विज्ञान सिखाने को समर्पित एक अद्वितीय केन्द्र में काम कर रहे हैं. वे अध्यापक हैं, इंजीनियर हैं, खिलौने बनाते हैं, किताबों से प्रेम करते हैं और अनुवादक हैं.
एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया है - "पच्चीस साल पहले मैंने पाया कि अगर बच्चों को कोई वैज्ञानिक नियम किसी खिलौने के भीतर नज़र आता है तो वे उसे बेहतर समझ पाते हैं." इस लीक पर चलते हुए अरविन्द गुप्ता ने विज्ञान सीखने की प्रक्रिया को मनोरंजक बनाने का सतत कार्य किया है.
उनके बारे में जानना हो तो उनकी वैबसाइट पर जाएं. यहां आपको बेशुमार खिलौने और दुर्लभ फ़िल्में देखने पढ़ने को मिलेंगी. और सैकड़ों प्रेरक पुस्तकें. वह भी बिना कोई पैसा दिए.
एक बानगी देखिये:
(यह पोस्ट आशुतोष उपाध्याय से हुई एक टेलीफ़ोन बातचीत के बाद लिखी गई है. आशुतोष हाल ही में श्री अरविन्द गुप्ता से मिल कर आए हैं)
अगर आपका या आपके आसपास का कोई बच्चा विज्ञान से कतराता है और आप उसकी मदद करना चाहते हैं तो आपने श्री अरविन्द गुप्ता के बारे में जानना चाहिये.
आई आई टी कानपुर से इंजीनियरिंग पढ़ चुके अरविन्द गुप्ता पहले टेल्को में कार्यरत थे. पिछले पच्चीस सालों से वे पुणे के इन्टर यूनिवर्सिटी सेन्टर फ़ॉर एस्ट्रोनॉमी एन्ड एस्ट्रोफ़िज़िक्स बच्चों को विज्ञान सिखाने को समर्पित एक अद्वितीय केन्द्र में काम कर रहे हैं. वे अध्यापक हैं, इंजीनियर हैं, खिलौने बनाते हैं, किताबों से प्रेम करते हैं और अनुवादक हैं.
एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया है - "पच्चीस साल पहले मैंने पाया कि अगर बच्चों को कोई वैज्ञानिक नियम किसी खिलौने के भीतर नज़र आता है तो वे उसे बेहतर समझ पाते हैं." इस लीक पर चलते हुए अरविन्द गुप्ता ने विज्ञान सीखने की प्रक्रिया को मनोरंजक बनाने का सतत कार्य किया है.
उनके बारे में जानना हो तो उनकी वैबसाइट पर जाएं. यहां आपको बेशुमार खिलौने और दुर्लभ फ़िल्में देखने पढ़ने को मिलेंगी. और सैकड़ों प्रेरक पुस्तकें. वह भी बिना कोई पैसा दिए.
एक बानगी देखिये:
(यह पोस्ट आशुतोष उपाध्याय से हुई एक टेलीफ़ोन बातचीत के बाद लिखी गई है. आशुतोष हाल ही में श्री अरविन्द गुप्ता से मिल कर आए हैं)
Saturday, May 22, 2010
ग्रामोफोनीय रेकोर्ड के कबाड़खाने से कुछ रचनाएँ
बात बहुत पुरानी है, इतिहास में झांकियेगा तब पता चल ही जाएगा... समझिये ग्रामोफ़ोन भारत में आया ही था, उस ज़माने में कितनों के पास ग्रामोफ़ोन रहा होगा ? सन १९०० के आस पास की बात है, उस ज़माने में महिलाओं का घर से बाहर निकलाना कितना मुश्किल होता होगा, उस समय और शहरों की तो नहीं जानता पर इलाहाबाद, बनारस, आगरा, लखनऊ की तवायफ़ें ही बड़े नवाब और धन पशुओं और संगीत के मुरीदों का मनबहलाव करती थीं, ग्रामोफ़ोन जब भारत में आया तो उसकी रिकार्डिग तब कलकत्ते में हुआ करती थी, १९०२ के आस पास की कुछ रिकार्डिग तो आज भी महफ़ूज़ हैं और १९०६ के आस पास जानकी बाई और दूसरी गायिकाओं भी आज मौजूद है, हाँ स्तरीयता की दृष्टि से तो कुछ कह नहीं सकते पर ऐतिहासिक दृष्टि से उनको सुनना महत्वपूर्ण है,जानकी बाई, गौहर जान, मलका जान ऐसी बहुत सी गायिकाएं थी जिनकी रिकार्डिंग उस समय हुई थी, जानकी बाई (1875-1934)के चाहने वाले उन्हें "बुलबुल" उर्फ "छप्पन छुरी" भी बुलाते थे, कहते हैं एक चाहने वाले ने जानकी बाई पर 56 बार चाकू से हमला कर घायल कर दिया था तभी से उनको लोग "छप्पन छुरी" के नाम से पुकारते थे, जानकी बाई के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है बस इतना कि १९०० के आस पास जानकी बाई अपनी गा़यकी की वजह से बहुत प्रसिद्ध हो चुकी थी, दादरा, ठुमरी, गजल, भजन ही नहीं बल्कि बल्कि एक शास्त्रीय गायिक़ा के रूप में उस ज़माने में प्रसिद्धि मिल चुकी थी, १९०२से १९०८ के आस पास की रिकार्डिंग जो मिलती है उनमें जानकी बाई का नाम आता है और कहते हैं उनके क्रेडिट में लगभग 150 रिकॉर्ड है.उस ज़माने में एक दिन की रिकार्डिंग का जानकी बाई ३००० रुपये लेती थीं,इससे ही ये अंदाज़ा लगता है कि जानकी बाई की शख्सियत कैसी रही होगी, आज उन्ही ग्रामोफोन रिकार्ड के कबाड़खाने से कुछ
रचनाएं आपको समर्पित हैं | कुछ गलती हो गई हो तो क्षमा करेंगे |
रचनाएं आपको समर्पित हैं | कुछ गलती हो गई हो तो क्षमा करेंगे |
रसीली तोरी अंखियाँ........ जानकी बाई की आवाज़
जानकी बाई की आवाज़ में इस रचना कों भी सुनें
मलका जान की आवाज़ में ये रचना
Friday, May 21, 2010
देहरादूनः कायापलट के पहाड़ों से घिरी घाटी
जर्मन रेडियो डॉयचे वेले में कुछ साल बिता चुकने के बाद लेखक-पत्रकार शिवप्रसाद जोशी वापस भारत में हैं. उनके शानदार गद्य की एकाधिक बानगियां हिन्दी की बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में पहले भी देखी जा चुकी है. पहल में मारकेज़ पर लिखा उनका बेहतरीन पीस अब भी मेरे जेहन में ताज़ा है.
आज एक सुखद अचरज हुआ जब उन्होंने मेल कर के मुझे बदलते हुए देहरादून को केन्द्र में रखकर लिखा अपना उम्दा आलेख कबाड़ख़ाने में पोस्ट करने के लिए भेजा. उनका धन्यवाद.
देहरादूनः कायापलट के पहाड़ों से घिरी घाटी
-शिवप्रसाद जोशी
मोहंड की चढ़ाई शुरू होने से पहले और छुटमलपुर के छूटते जाने के साथ पूरब की तरफ़ का आकाश क्षितिज के पास एक हरे मटमैले रंग से सराबोर रहता है. चोटियां दिखने लगती हैं. ये शिवालिक की पहाड़ी है. और ऐसे लगता है कि सड़क सीधा पहाड़ के उन तिकोनों और उन गोलाइयों पर जाकर ही ख़त्म होगी.
देहरादून इस रास्ते से एक पहाड़ दिखता है. और जब आप और अंदर दाख़िल होते रहते हैं तब आप पाते हैं कि पहाड़ तो इसकी दीवारें हैं. और पहाड़ों के बीच एक फैलाव है. ग्रीक समाज के स्टेडियमों की तरह.
मोहंड से ही राजाजी नेशनल पार्क शुरू होता है. राजमार्ग पर बंदरों की आमद से भी अब आप ये जान सकते हैं. दूर दूर तक फैला हुआ जंगल, कुछ झोपड़ियां, गुर्जरों के दस्ते और जंगल को चीरती हुई एक लकीर जो एक नदी है सूखी हुई, पत्थरों और रेत से भरी हुई.
देहरादून अपनी शुरुआत में एक रोमान जगाता है. कुछ इस तरह से कि शहर में कुछ ख़ास है और जंगल के इस सन्नाटे की पढ़ाई में देहरादून झिलमिलाता रहता है. लेकिन एक सुरंग पार करने के बाद और एक वन चौकी के बाद देहरादून में दाख़िल होते ही आप एक विशाल बाज़ार में आने लगते हैं. जिसकी शुरुआत में आलीशान कारों के शोरूम और वर्कशॉप हैं. ये नया देहरादून है. जब तक आप देहरादून में नहीं दाख़िल हुए, पुराना देहरादून महसूस होता रहा और शहर में आते ही आप एक बदला हुआ शहर देखते हैं.
ये अब महात्माओं और मज़दूरों और फक्कड़ों का डेरा नहीं ये एक रौनकदार डेरा है, बाज़ार से घिरी हुई एक घाटी जहां आपको कार से लेकर कारतूस तक सब मिल सकता है. 2010 में देहरादून आख़िर अपनी किस छवि के साथ हमारे सामने हैं.
वह एक शहर कम एक ट्रेनिंग कैंपस ज़्यादा लगता है. एक विशाल फ़ैक्ट्री का कैंपस. उपभोक्तावाद की एक प्रयोगशाला, दूसरी ऐसी प्रयोगशालाओं से इस माने में अलग कि एक घाटी का रोमान एक पहाड़ की गंध यहां से निकली नहीं है.
देहरादून का मसूरी को जाता रास्ता एक कुदरती ऊंचाई की ओर धीरे धीरे चढ़ता हुआ सफ़र था. अब ये ऊंचाई अट्टालिकाओं और नई रौनकों और बेशकीमती मॉल्स और उनमें रखे सामान की है. इस ऊंचाई से जा चिपकने से इंकार करती हुई, छिटकी हुई कुछ चीज़ें, दूकानें, मैदान, पार्क और लोग हैं जो गनीमत है दिख जाते हैं और देहरादून की इस तरक्की के उदास कोनों की तरह वहीं जमा हैं.
एक इमारत एक साथ इतनी सारी दूकानों और लोगों और सामान का बोझ उठाए हुए धूप और बारिश और ठंड झेल रही है न जाने कब से कि ढह पड़ेगी. लेकिन वह गिरती नहीं है. एक दूकान छोटी सी है और उसमें इतनी चीज़ें ठूंस दी गई हैं कि ऐसा लगता है कि सब कुछ भरभराकर गिर जाएगा, लेकिन नहीं गिरता. एक दूकान किताब की है और उसकी भव्यताएं बढ़ गई हैं. एक जगह किताब के आगे कॉफ़ी आ गई है. एक दूकान कपड़ों की है वो कई दूकानों में बदल चुकी है. एक खाली मैदान अब खचाखच भरा मॉल है. खादी ग्रामोद्योग के साथ फ़ैब इंडिया आ गया है और पल्टन बाज़ार के साथ एक नए बाज़ार की श्रृंखला आ गई है, लेकिन एक पुरानी मज़बूत लड़ी की तरह पल्टन बाज़ार दमकता रहता है. पेड़ों से ज़्यादा होर्डिंग दिखते हैं और बैनर. दस साल की अस्थायी राजधानी देहरादून के कायापलट का ये एक दशक समझने लायक है.
देहरादून में एक साथ इतना कुछ पुराना और एक साथ इतना कुछ नया इकट्ठा है कि आप लाख नाक भौं सिकोड़ लें फिर भी नहीं सकते कि देहरादून अब वो नहीं रहा जो था.
एक शहर की इससे बड़ी करामात क्या हो सकती है कि वो अपना पुराना जादू आपके ज़ेहन से टूटने बिसरने नहीं देता. इमारतों, हूटरों, होर्डिगों और वाहनों के बीच से आप देहरादून की किसी सड़क पर हैं और चाय की एक छोटी सी दूकान की तलाश कर रहे हैं.
चाय की तलब उस दूकान की तलाश और दूकान पर चाय पीने का रोमांच नहीं टूटा है.
सुबह के वक्त आप घंटाघर से राजपुर की तरफ़ ड्राइव करते जाएं तो आप असली देहरादून को महसूस कर लेंगे. वो किसी दुर्लभ परिंदे की तरह है वहीं लेकिन दिखता नहीं. और कुछ ख़ास मौक़ों पर ही देखा जा सकता है. आप रात में उसे देख सकते हैं जब होटलो पबों और दफ़्तरों में पूरी बहक बह जाती है और तमाम षडयंत्रों की सांसें फूल जाती है और वे ध्वस्त हो जाते हैं, फ़ाइलों की धूल उड़कर सिस्टम पर बैठ जाती है, साइरन हूटर और समस्त सत्ता गड़गड़ाहटें, खर्राटों में बदल जाती हैं, तब देहरादून रात की हवाओं में पतंग की तरह उड़ता सरसराता हुआ आता है. आप बचे खुचे पेड़ों मकानों और दुमंज़िला इमारतों और पार्कों और चारदीवारियों में उसे महसूस कर सकते हैं.
देहरादून अपने ही कायापलट के पहाड़ के नीचे एक सांस है, विकास की हर दिन ऊंचा उठती महानताओं से घिरी हुई एक छोटी सी इच्छा, वो बेशक एक घाटी है लेकिन उसके इर्दगिर्द लहराते पहाड़ के पर्दे जगह जगह से फट रहे हैं. देहरादून अब संपन्न विविधताओं और चमकती विचित्रताओं से भरी हुई एक खाली घाटी है जिसमें आप स्मृतियों की तलाश में निकलते हैं.
कभी बीटल्स ग्रुप के जॉर्ज हैरीसन ने देहरादून पर गीत रचा और गिटार पर गाया था.
उस दून गीत को दुनिया ने कबाड़खाना के ज़रिए सुना. देहरादून को जानने की एक खिड़की उसी गीत से खुलती है. कबाड़खाना में आप उसे फिर से खोल सकते हैं.
आज एक सुखद अचरज हुआ जब उन्होंने मेल कर के मुझे बदलते हुए देहरादून को केन्द्र में रखकर लिखा अपना उम्दा आलेख कबाड़ख़ाने में पोस्ट करने के लिए भेजा. उनका धन्यवाद.
देहरादूनः कायापलट के पहाड़ों से घिरी घाटी
-शिवप्रसाद जोशी
मोहंड की चढ़ाई शुरू होने से पहले और छुटमलपुर के छूटते जाने के साथ पूरब की तरफ़ का आकाश क्षितिज के पास एक हरे मटमैले रंग से सराबोर रहता है. चोटियां दिखने लगती हैं. ये शिवालिक की पहाड़ी है. और ऐसे लगता है कि सड़क सीधा पहाड़ के उन तिकोनों और उन गोलाइयों पर जाकर ही ख़त्म होगी.
देहरादून इस रास्ते से एक पहाड़ दिखता है. और जब आप और अंदर दाख़िल होते रहते हैं तब आप पाते हैं कि पहाड़ तो इसकी दीवारें हैं. और पहाड़ों के बीच एक फैलाव है. ग्रीक समाज के स्टेडियमों की तरह.
मोहंड से ही राजाजी नेशनल पार्क शुरू होता है. राजमार्ग पर बंदरों की आमद से भी अब आप ये जान सकते हैं. दूर दूर तक फैला हुआ जंगल, कुछ झोपड़ियां, गुर्जरों के दस्ते और जंगल को चीरती हुई एक लकीर जो एक नदी है सूखी हुई, पत्थरों और रेत से भरी हुई.
देहरादून अपनी शुरुआत में एक रोमान जगाता है. कुछ इस तरह से कि शहर में कुछ ख़ास है और जंगल के इस सन्नाटे की पढ़ाई में देहरादून झिलमिलाता रहता है. लेकिन एक सुरंग पार करने के बाद और एक वन चौकी के बाद देहरादून में दाख़िल होते ही आप एक विशाल बाज़ार में आने लगते हैं. जिसकी शुरुआत में आलीशान कारों के शोरूम और वर्कशॉप हैं. ये नया देहरादून है. जब तक आप देहरादून में नहीं दाख़िल हुए, पुराना देहरादून महसूस होता रहा और शहर में आते ही आप एक बदला हुआ शहर देखते हैं.
ये अब महात्माओं और मज़दूरों और फक्कड़ों का डेरा नहीं ये एक रौनकदार डेरा है, बाज़ार से घिरी हुई एक घाटी जहां आपको कार से लेकर कारतूस तक सब मिल सकता है. 2010 में देहरादून आख़िर अपनी किस छवि के साथ हमारे सामने हैं.
वह एक शहर कम एक ट्रेनिंग कैंपस ज़्यादा लगता है. एक विशाल फ़ैक्ट्री का कैंपस. उपभोक्तावाद की एक प्रयोगशाला, दूसरी ऐसी प्रयोगशालाओं से इस माने में अलग कि एक घाटी का रोमान एक पहाड़ की गंध यहां से निकली नहीं है.
देहरादून का मसूरी को जाता रास्ता एक कुदरती ऊंचाई की ओर धीरे धीरे चढ़ता हुआ सफ़र था. अब ये ऊंचाई अट्टालिकाओं और नई रौनकों और बेशकीमती मॉल्स और उनमें रखे सामान की है. इस ऊंचाई से जा चिपकने से इंकार करती हुई, छिटकी हुई कुछ चीज़ें, दूकानें, मैदान, पार्क और लोग हैं जो गनीमत है दिख जाते हैं और देहरादून की इस तरक्की के उदास कोनों की तरह वहीं जमा हैं.
एक इमारत एक साथ इतनी सारी दूकानों और लोगों और सामान का बोझ उठाए हुए धूप और बारिश और ठंड झेल रही है न जाने कब से कि ढह पड़ेगी. लेकिन वह गिरती नहीं है. एक दूकान छोटी सी है और उसमें इतनी चीज़ें ठूंस दी गई हैं कि ऐसा लगता है कि सब कुछ भरभराकर गिर जाएगा, लेकिन नहीं गिरता. एक दूकान किताब की है और उसकी भव्यताएं बढ़ गई हैं. एक जगह किताब के आगे कॉफ़ी आ गई है. एक दूकान कपड़ों की है वो कई दूकानों में बदल चुकी है. एक खाली मैदान अब खचाखच भरा मॉल है. खादी ग्रामोद्योग के साथ फ़ैब इंडिया आ गया है और पल्टन बाज़ार के साथ एक नए बाज़ार की श्रृंखला आ गई है, लेकिन एक पुरानी मज़बूत लड़ी की तरह पल्टन बाज़ार दमकता रहता है. पेड़ों से ज़्यादा होर्डिंग दिखते हैं और बैनर. दस साल की अस्थायी राजधानी देहरादून के कायापलट का ये एक दशक समझने लायक है.
देहरादून में एक साथ इतना कुछ पुराना और एक साथ इतना कुछ नया इकट्ठा है कि आप लाख नाक भौं सिकोड़ लें फिर भी नहीं सकते कि देहरादून अब वो नहीं रहा जो था.
एक शहर की इससे बड़ी करामात क्या हो सकती है कि वो अपना पुराना जादू आपके ज़ेहन से टूटने बिसरने नहीं देता. इमारतों, हूटरों, होर्डिगों और वाहनों के बीच से आप देहरादून की किसी सड़क पर हैं और चाय की एक छोटी सी दूकान की तलाश कर रहे हैं.
चाय की तलब उस दूकान की तलाश और दूकान पर चाय पीने का रोमांच नहीं टूटा है.
सुबह के वक्त आप घंटाघर से राजपुर की तरफ़ ड्राइव करते जाएं तो आप असली देहरादून को महसूस कर लेंगे. वो किसी दुर्लभ परिंदे की तरह है वहीं लेकिन दिखता नहीं. और कुछ ख़ास मौक़ों पर ही देखा जा सकता है. आप रात में उसे देख सकते हैं जब होटलो पबों और दफ़्तरों में पूरी बहक बह जाती है और तमाम षडयंत्रों की सांसें फूल जाती है और वे ध्वस्त हो जाते हैं, फ़ाइलों की धूल उड़कर सिस्टम पर बैठ जाती है, साइरन हूटर और समस्त सत्ता गड़गड़ाहटें, खर्राटों में बदल जाती हैं, तब देहरादून रात की हवाओं में पतंग की तरह उड़ता सरसराता हुआ आता है. आप बचे खुचे पेड़ों मकानों और दुमंज़िला इमारतों और पार्कों और चारदीवारियों में उसे महसूस कर सकते हैं.
देहरादून अपने ही कायापलट के पहाड़ के नीचे एक सांस है, विकास की हर दिन ऊंचा उठती महानताओं से घिरी हुई एक छोटी सी इच्छा, वो बेशक एक घाटी है लेकिन उसके इर्दगिर्द लहराते पहाड़ के पर्दे जगह जगह से फट रहे हैं. देहरादून अब संपन्न विविधताओं और चमकती विचित्रताओं से भरी हुई एक खाली घाटी है जिसमें आप स्मृतियों की तलाश में निकलते हैं.
कभी बीटल्स ग्रुप के जॉर्ज हैरीसन ने देहरादून पर गीत रचा और गिटार पर गाया था.
उस दून गीत को दुनिया ने कबाड़खाना के ज़रिए सुना. देहरादून को जानने की एक खिड़की उसी गीत से खुलती है. कबाड़खाना में आप उसे फिर से खोल सकते हैं.
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
चन्द्रकान्त देवताले जी को आप कबाड़ख़ाने पर पहले भी कई बार पढ़ चुके हैं. उनकी प्रमुख कृतियों में लकड़बग्घा हँस रहा है (१९७०), हड्डियों में छिपा ज्वर(१९७३), दीवारों पर ख़ून से (१९७५), रोशनी के मैदान की तरफ़ (१९८२), भूखण्ड तप रहा है (१९८२), आग हर चीज में बताई गई थी (१९८७) और पत्थर की बैंच (१९९६) शामिल हैं. देवताले जी हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकारों में गिने जाते हैं. आज गुनिये उनकी एक कविता :
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोये हैं उनकी नींद हराम हो जाये
हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर
खून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोये हैं उनकी नींद हराम हो जाये
हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर
खून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ
Thursday, May 20, 2010
Tuesday, May 18, 2010
लोनली प्लेनेट से कुछ शानदार छवियां
चाहे कहीं भी यात्रा कर रहा होऊं, लोनली प्लेनेट मेरी प्रिय रेफ़रेन्स गाइड रहती है. कोई पैंतीस साल पहले टोनी और मॉरीन व्हीलर द्वारा शुरू की गई यह गाइडबुक अब दुनिया भर के पर्यटकों के लिए किसी बाइबिल का सा काम करती है. वास्तविक यात्रियों द्वारा की गई वास्तविक यात्राओं पर आधारित जानकारियों के आधार पर तैयार की जाने वाली लोनली प्लेनेट में आप किसी भी देश के अधिकतर घूमने लायक जगहों के बारे में सभी ज़रूरी बातें जान सकते हैं और आम तौर पर उन पर आंख मूंद कर भरोसा किया जा सकता है.
अभी कुछ दिन पहले लोनली प्लेनेट ने अपने वैब संस्करण में पिछले साल की सबसे नायाब पन्द्रह तस्वीरें प्रस्तुत की थीं. आप भी देखें -
वेनिस की ग्रान्ड कैनाल, फ़ोटो - नाइजेल एबरहार्ड
राजस्थान, फ़ोटो - एम्बर हॉर्सबर्ग
इथियोपिया की एक हमार स्त्री, फ़ोटो - सबरीना इमेज़ियो
म्यानमार, फ़ोटो - साइ विन नाइंग
क्योटो, जापान में एक गीशा का इन्तज़ार करती टैक्सी, फ़ोटो - मिगेल मचान
नामीबिया में एक प्यासा जिराफ़, फ़ोटो - रेनी कूलेन
पंजाब, फ़ोटो - साशा कैरी
रोमानिया, फ़ोटो - स्टीफ़न बाडेलेस्क्यू
इज़राइल में परिन्दा, फ़ोटो - जेन स्पेक्टर
यूनान का एक समुद्री तट, फ़ोटो - जेन स्पेक्टर
पेरू में अपने शिशु लामा के साथ एक बच्ची, फ़ोटो - मेलानी रसेल
मंगोलिया के स्टेपीज़, फ़ोटो - दमित्री मुन्डोर्फ़
सर्दी में एक लिथुवानियाई लैन्डस्केप, फ़ोटो - मातास जुरास
वियतनाम, फ़ोटो - एम्मानुएल नॉर्डीनी
इन्डोनेशियाई समुन्दर, फ़ोटो - एटन डेनियल्स
अभी कुछ दिन पहले लोनली प्लेनेट ने अपने वैब संस्करण में पिछले साल की सबसे नायाब पन्द्रह तस्वीरें प्रस्तुत की थीं. आप भी देखें -
Monday, May 17, 2010
Sunday, May 16, 2010
एक अकर्मण्य दिवस का उजाला झरता जाता है धीरे - धीरे
वेरा पावलोवा छोटे कलेवर की बड़ी कविताओं के लिए जानी जाती हैं। उनके पन्द्रह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। संसार की बहुत सी भाषाओं में उनके कविता कर्म का अनुवाद हो चुका है जिनमें से स्टेवेन सेम्योर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स' की ख्याति सबसे अधिक है। यही संकलन हमारी - उनकी जान - पहचान का माध्यम भी है। स्टेवेन, वेरा के पति हैं और उनकी कविताओं के ( वेरा के ही शब्दों में कहें तो ) 'सबसे सच्चे पाठक' भी। १९६३ में जन्मी वेरा पावलोवा आधुनिक रूसी कविता का एक ख्यातिलब्ध और सम्मानित नाम है। वह संगीत की विद्यार्थी रही हैं। इस क्षेत्र में उनकी सक्रियता भी है किन्तु बाहर की दुनिया के लिए वह एक कवि हैं - 'स्त्री कविता' की एक सशक्त हस्ताक्षर। लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायें -
वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
०१-
'हाँ' कहना
क्यों इतना छोटा है 'हाँ' शब्द
इसे होना चाहिए
सबसे लम्बा
सबसे कठिन
ताकि तत्क्षण निर्णय न लिया जा सके
इसके उच्चारण का।
ताकि बन्द न हो परावर्तन का पथ
और मन करे तो
बीच में रुका जा सके इसे कहते - कहते।
०२-
निरर्थकता का अर्थ
हम धनवान हैं
हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने को
हम पुराने हो चले
हमारे पास दौड़ कर जाने को नहीं बचा है कोई ठौर
हम अतीत के नर्म गुदाज तकिए में फूँक मार रहे हैं
और आने वाले दिनों की सुराख से ताकाझाँकी करने में व्यस्त हैं।
हम बतियाते हैं
उन चीजों के बारे में जो भाती हैं सबसे अधिक
और एक अकर्मण्य दिवस का उजाला
झरता जाता है धीरे - धीरे
हम औंधे पड़े हुए हैं निश्चेष्ट - मृतप्राय
चलो - तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें।
------------
नोट : वेरा पावलोवा की कुछ कवितायें और परिचय 'कर्मनाशा' के इस पन्ने पर है। दोनों कविताओं के शीर्षक अनुवादक द्वारा।
एक सिरफिरे बूढ़े का बयान
हरीशचन्द्र पाण्डे की कविताओं पर एक पोस्ट दो एक साल पहले कबाड़ख़ाने पर लगाई गई थी. 'एक बुरूँश कहीं खिलता है' और 'भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं' उनके दो कविता संग्रहों के नाम हैं. प्रसिद्धि और साहित्य की उठापटक से दूर रहने वाले हरीशचन्द्र पाण्डे जी लगातार अच्छी कविताएं लिखते रहे हैं. आज उनकी एक कविता प्रस्तुत है:
एक सिरफिरे बूढ़े का बयान
उसने कहा-
जाऊंगा
इस उम्र में भी जाऊंगा सिनेमा
सीटी बजाऊंगा गानों पर उछालूंगा पैसा
'बिग बाज़ार' जाऊंगा माउन्ट आबू जांऊंगा
नैनीताल जाऊंगा
जब तक सामर्थ्य है
देखूंगा दुनिया की सारी चहल-पहल
इस उम्र में जब ज़्यादा ही भजने लगते हैं लोग ईश्वर को
बार-बार जाते हैं मन्दिर मस्जिद गिरजे
जाऊंगा... मैं जाऊंगा... ज़रूर जाऊंगा
पूजा अर्चना के लिए नहीं
जाऊंगा इसलिए कि देखूंगा
कैसे बनाए गए हैं ये गर्भगृह
कैसे ढले हैं कंगूरे, मीनारें और कलश
और ये मकबरें
परलोक जाने के पहले ज़रूर देखूंगा एक बार
उनकी भय बनावटें
वहाँ कहाँ दिखेंगे
मनुष्य के श्रम से बने
ऐसे स्थापत्य...
(चित्र: पाब्लो पिकासो की पेन्टिंग ओल्ड गिटारिस्ट)
एक सिरफिरे बूढ़े का बयान
उसने कहा-
जाऊंगा
इस उम्र में भी जाऊंगा सिनेमा
सीटी बजाऊंगा गानों पर उछालूंगा पैसा
'बिग बाज़ार' जाऊंगा माउन्ट आबू जांऊंगा
नैनीताल जाऊंगा
जब तक सामर्थ्य है
देखूंगा दुनिया की सारी चहल-पहल
इस उम्र में जब ज़्यादा ही भजने लगते हैं लोग ईश्वर को
बार-बार जाते हैं मन्दिर मस्जिद गिरजे
जाऊंगा... मैं जाऊंगा... ज़रूर जाऊंगा
पूजा अर्चना के लिए नहीं
जाऊंगा इसलिए कि देखूंगा
कैसे बनाए गए हैं ये गर्भगृह
कैसे ढले हैं कंगूरे, मीनारें और कलश
और ये मकबरें
परलोक जाने के पहले ज़रूर देखूंगा एक बार
उनकी भय बनावटें
वहाँ कहाँ दिखेंगे
मनुष्य के श्रम से बने
ऐसे स्थापत्य...
(चित्र: पाब्लो पिकासो की पेन्टिंग ओल्ड गिटारिस्ट)
Saturday, May 15, 2010
ब्लॉगिंग करने वाले मुर्गे से मिलिये
कनाडाई मूल के कार्टूनिस्ट डगलस सैवेज एक कॉमिक वैबसाइट चलाते हैं सैवेज चिकन्स यानी जंगली मुर्गियां. पीले कागज़ पर बनाए जाने वाले इन सिंगल पैनल कार्टूनों का ह्यूमर समकालीन और शानदार है. डगलस शनिवार और इतवार को छोड़ सप्ताह के हर रोज़ पिछले तीन से ज़्यादा सालों से एक एक कार्टून प्रस्तुत करते हैं.
कॉमिक में मुर्गे-मुर्गी के अलावा दो दिलचस्प चरित्र अक्सर मौजूद होते हैं - टिमी नाम का एक स्वादहीन टोफ़ू का टुकड़ा जो अक्सर अश्लील विचारों से ग्रस्त रहता है, दूसरा आत्मरति का शिकार PROD3000 नाम का एक टिपिकल बॉस.
सैवेज चिकन्स को अच्छी खासी ख्याति मिली है. आज आप के लिए इस वैबकॉमिक सीरीज़ से ब्लॉगिंग और कम्प्यूटर के बारे में चार कार्टून.
कॉमिक में मुर्गे-मुर्गी के अलावा दो दिलचस्प चरित्र अक्सर मौजूद होते हैं - टिमी नाम का एक स्वादहीन टोफ़ू का टुकड़ा जो अक्सर अश्लील विचारों से ग्रस्त रहता है, दूसरा आत्मरति का शिकार PROD3000 नाम का एक टिपिकल बॉस.
सैवेज चिकन्स को अच्छी खासी ख्याति मिली है. आज आप के लिए इस वैबकॉमिक सीरीज़ से ब्लॉगिंग और कम्प्यूटर के बारे में चार कार्टून.
Friday, May 14, 2010
यह आपकी ग़लत मांग है कवि से
वेणु गोपाल की एक कविता आपने कल पढ़ी थी. उसी क्रम में आज प्रस्तुत है उनकी एक और रचना:
यह
आपकी ग़लत मांग है
कवि से
कि वह ख़रीदकर
शराब पिए
ज़िन्दगी के बारे में
कुछ कहने से पहले
ज़िन्दगी जिए
वरना चुपचाप रहे
होंठ सिए
आख़िर कवि है वह
और कसूर आपका है
कि आप ही ने बता रखा है उसे
कि वह वहाँ पहुँच सकता है
जहाँ रवि नहीं पहुँच सकता।
(चित्र: पाब्लो पिकासो की १९१० की रचना द पोयट)
यह
आपकी ग़लत मांग है
कवि से
कि वह ख़रीदकर
शराब पिए
ज़िन्दगी के बारे में
कुछ कहने से पहले
ज़िन्दगी जिए
वरना चुपचाप रहे
होंठ सिए
आख़िर कवि है वह
और कसूर आपका है
कि आप ही ने बता रखा है उसे
कि वह वहाँ पहुँच सकता है
जहाँ रवि नहीं पहुँच सकता।
(चित्र: पाब्लो पिकासो की १९१० की रचना द पोयट)
Thursday, May 13, 2010
कि जंगल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है
वेणु गोपाल (२२ अक्तूबर १९४२ - १ सितम्बर २००८) के निधन के बाद हमने वीरेन डंगवाल का एक मार्मिक संस्मरण यहां लगाया था. वेणुगोपाल बड़े कवि थे - आदमी की पक्षधरता और सतत उम्मीद उनकी कविताओं की ख़ासियत हैं. उनकी एक कविता प्रस्तुत है:
काले भेडि़ए के ख़िलाफ़
देखो
कि जंगल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है। अपने
आशावान हरेपन के साथ
बरसात में झूमता हुआ। उस
काले भेड़िए के बावजूद
जो
शिकार की टोह में
झाड़ियों से निकल कर खुले में आ गया है।
ख़रगोशों और चिड़ियों और पौधों की दूधिया
वत्सल निगाहों से
जंगल को देख भर लेना
दरअसल
उस काले भेड़िए के ख़िलाफ़ खड़े हो जाना है जो
सिर्फ़
अपने भेड़िए होने की वज़ह से
जंगल की ख़ूबसूरती का दावेदार है
भेड़िए
हमेशा हमें उस कहानी तक पहुँचाते हैं
जिसे
वसंत से पहले
कभी न कभी तो शुरू होना ही होता है और
यह भी बहुत मुमकिन है
कि ऎसी और भी कई कहानियाँ
कथावाचक के कंठ में
अभी भी
सुरक्षित हों। जानना इतना भर ज़रूरी है
कि हर कहानी का एक अंत होता है। और
यह जानते ही
भविष्य तुम्हारी ओर मुस्करा कर देखेगा। तब
इतना भर करना
कि पास खड़े आदमी को इशारा कर देना
ताकि वह भी
भेड़िए के डर से काँपना छोड़
जंगल की सनातन ख़ूबसूरती को
देखने लग जाए।
काले भेडि़ए के ख़िलाफ़
देखो
कि जंगल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है। अपने
आशावान हरेपन के साथ
बरसात में झूमता हुआ। उस
काले भेड़िए के बावजूद
जो
शिकार की टोह में
झाड़ियों से निकल कर खुले में आ गया है।
ख़रगोशों और चिड़ियों और पौधों की दूधिया
वत्सल निगाहों से
जंगल को देख भर लेना
दरअसल
उस काले भेड़िए के ख़िलाफ़ खड़े हो जाना है जो
सिर्फ़
अपने भेड़िए होने की वज़ह से
जंगल की ख़ूबसूरती का दावेदार है
भेड़िए
हमेशा हमें उस कहानी तक पहुँचाते हैं
जिसे
वसंत से पहले
कभी न कभी तो शुरू होना ही होता है और
यह भी बहुत मुमकिन है
कि ऎसी और भी कई कहानियाँ
कथावाचक के कंठ में
अभी भी
सुरक्षित हों। जानना इतना भर ज़रूरी है
कि हर कहानी का एक अंत होता है। और
यह जानते ही
भविष्य तुम्हारी ओर मुस्करा कर देखेगा। तब
इतना भर करना
कि पास खड़े आदमी को इशारा कर देना
ताकि वह भी
भेड़िए के डर से काँपना छोड़
जंगल की सनातन ख़ूबसूरती को
देखने लग जाए।
Wednesday, May 12, 2010
जो न आई हंसी तो उसका नाम बॉम्बर वेल्स नहीं
बहुत समय नहीं हुआ जब क्रिकेट अपने महान खिलाड़ियों के अलावा कुछ ऐसे नामों के कारण भी बहुत लोकप्रिय था जो अपने जीते जी दूसरे कारणों से गाथाओं में बदल जाया करते थे। ऐसे ही एक खिलाड़ी थे ब्रायन डगलस वेल्स। इंग्लैंड की ग्लोस्टरशायर और नटिंघमशायर काउंटी की ओर से खेलने वाले वेल्स को उनके डीलडौल के कारण बॉम्बर वेल्स भी कहा जाता था।
उन्होंने कभी क्रिकेट को पेशे के तौर पर नहीं लिया। वे उसका लुत्फ उठाए जाने के हामी थे। वरिष्ठ क्रिकेट आलोचक माइकल पार्किन्सन के शब्दों में, 'उनके चेहरे पर हमेशा वसंत खिला होता था और आत्मा के भीतर ठहाका।' वे ऑफ ब्रेक गेंदबाजी करते थे और खासे सफल भी रहे। 1951 से 1965 के दौरान उन्होंने तीन सौ से ऊपर फर्स्ट क्लास मैच खेले और 998 विकेट लिए।
ग्लोस्टर में ब्लैकलिस्ट किए गए ट्रेड यूनियन लीडर के घर पैदा हुए इस खिलाड़ी को उनकी गेंदबाजी ने उतनी ख्याति नहीं दिलाई जितनी घटिया बल्लेबाजी और फील्डिंग ने। विकेट के बीच दौड़ने के दौरान उनसे संबंधित कहानियों की कोई गिनती नहीं है।
ग्लोस्टर काउंटी की ऑफिशल वेबसाइट पर उनके बारे में स्टीफन चॉक लिखते हैं, 'बल्लेबाज के तौर पर उन्हें केवल एक शॉट खेलना आता था। वे हर गेंद को घास काटने वाली शैली से मिडविकेट के ऊपर मारने की कोशिश करते थे। कभी उनका बल्ला सही लग जाता था, जो छक्का ही पड़ता था।' 423 पारियों में करीब ढाई हजार रन बना चुके बॉम्बर के तीस फीसदी से ज्यादा रन छक्कों से आए थे।
फील्ड में वे अक्सर बाउंड्री पर खड़ा रहना पसंद करते थे और दर्शकों से बातचीत का लुत्फ उठाते थे। एक बार किसी दर्शक ने उन्हें फील्ड करते समय चाय का प्याला थमा दिया। तभी बल्लेबाज ने गेंद उन्हीं की दिशा में उठाकर मारी। एक हाथ से चाय का प्याला संभालने की और दूसरे से कैच पकड़ने की कोशिश में संजीदगी से मुब्तिला बॉम्बर वेल्स की कहानियां आज भी चाव से सुनाई जाती हैं।
उनसे संबंधित सबसे मशहूर किस्सा अंपायर डिकी बर्ड ने 'फ्रॉम द पविलियन एन्ड' नामक किताब में लिखा है। वे बताते हैं कि बॉम्बर वेल्स ग्यारहवें नंबर पर बैटिंग करने आते थे क्योंकि उसके नीचे कोई जगह नहीं होती। डेनिस कॉम्पटन ने वेल्स की रनिंग बिटवीन द विकेट्स का कुछ इस तरह वर्णन किया था, 'जब वह यस कहते तो समझिए वह आगामी बातचीत की भूमिका भर बांध रहे हैं।' यह बात दीगर है कि स्वयं कॉम्पटन भी बदनाम रनर थे और उनके बारे में कहा जाता था कि 'यस' कहने के बाद सामने वाले खिलाड़ी से 'ऑल द बेस्ट' कहना नहीं भूलते थे।
एक बार यही दोनों विकेट पर थे। दोनों घायल हो गए। दोनों ने रनर मंगा लिए। स्ट्राइक बॉम्बर के पास था और शॉट मारने के बाद वे रनर को भूल गए। यही बात कॉम्पटन के साथ हुई। जाहिर है दोनों रनर्स भी दौड़ रहे थे। पहला रन जैसे-तैसे बन गया तो दूसरे की पुकार लगी।
'यस' 'नो' की चीख पुकार के बीच जब अंतत: पिच पर पागलपन समाप्त हुआ, चारों खिलाड़ी एक ही एन्ड पर थे। सारा दर्शक समूह हंसी से दोहरा हो गया था और यही हाल फील्डर्स का भी था। ऐसे में एक युवा फील्डर ने दूसरे एन्ड पर विकेट उखाड़ दिए। एलेक स्केल्डिंग मैच में अंपायरिंग कर रहे थे। वे चारों के पास पहुंचे और बोले, 'तुम कम्बख्तों में से एक आउट है, कौन आउट है मुझे पता नहीं। खुद ही फैसला कर लो और जाकर अभागे स्कोरर्स को बता आओ!'
Tuesday, May 11, 2010
अरे ओ सांभा
मैकमोहन को लोग उनके असली नाम से कम सांभा के नाम से ज़्यादा जाना करते हैं. और उनका असली नाम तो मैकमोहन भी नहीं था. मैकमोहन कल नहीं रहे. कैंसर से लड़ते हुए उन्होंने बम्बई के एक अस्पताल में अपने प्राण त्याग दिए. कुल इकहत्तर साल के मैकमोहन का फ़िल्मी कैरियर छियालीस साल तक चला. १९६४ में आई फ़िल्म हक़ीक़त से अपने कैरियर के आग़ाज़ के बाद उन्होंने कोई पौने दो सौ फ़िल्मों में अभिनय किया.
आज जब फ़िल्मों में नायक-खलनायक अजीबोग़रीब गेटअप्स के साथ आने लगे हैं, मैकमोहन ने काली-सफ़ेद दाढ़ी वाले अपने नैसर्गिक गेटअप के साथ कोई प्रयोग नहीं किये और सालों तक डटे रहे.
मैकमोहन को करीब से जानने वालों के मुताबिक वे एक परफ़ैक्ट जैन्टलमैन थे और एक ज़िंदादिल इन्सान. जीवन के आखिरी सालों में वे बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों को प्रशिक्षित करने हेतु एक संस्थान बनवाना चाहते थे.
एक पूरी पीढ़ी के बचपन, कैशोर्य और युवावस्था पर छाई रही फ़िल्म शोले के सांभा का जाना किसी नॉस्टैल्जिया के तिड़क जाने जैसा है. यह दिलचस्प और अचरजकारी बात है कि पूरी फ़िल्म में मैकमोहन को कुल तीन शब्द बोलने को मिले - "पूरे पचास हज़ार". इस के अलावा कुछ नहीं. लेकिन गब्बर फ़िल्म में सांभा का नाम इतनी दफ़ा लेता है कि अब गब्बर को सांभा से अलग कर के सोचने की कल्पना तक नहीं की जा सकती.
कबाड़ख़ाने की मैकमोहन को श्रद्धांजलि. बाई द वे, उनका असली नाम मोहन माखीजानी था.
फ़िलहाल शोले से एक क्लिप देखिये:
Monday, May 10, 2010
तुम मुझे क्षमा करो
हिन्दी और मैथिली में समान अधिकार के साथ लिख चुके राजकमल चौधरी (१९२९-१९६७) के गद्य को विशिष्ट पहचान हासिल है. आज पढ़िये मछली मरी हुई और देहगाथा जैसे उपन्यासों के लिए विख्यात इस बड़े कवि-उपन्यासकार-कथाकार की एक कविता:
तुम मुझे क्षमा करो
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ.
मुस्कुराहटें मेरी विवश
किसी भी चंद्रमा के चतुर्दिक
उगा नहीं पाई आकाश-गंगा
लगातार फूल-
चंद्रमुखी!
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ.
मुस्कुराहटें मेरी विकल
नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह.
मेरे प्रति तुम्हारी राग-अस्थिरता,
अपराध-आकांक्षा ने
विस्मय ने-जिन्हें,
काल के सीमाहीन मरुथल पर
सजाया था अकारण, उस दिन
अनाधार.
मेरी प्रार्थनाएँ तुम्हारे लिए
नहीं बन सकीं
गान,
मुझे क्षमा करो.
मैं एक सच्चाई थी
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया.
उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले
हमने पाँवों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले
तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे
उगाते रहे फफोले
मैं नदी डरती रही हर रात!
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा.
वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे
गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे
हमारी आवाज़ से चमन तो क्या
काँपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी!
तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया
मैं लिपटी हुई सोई रही.
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया
क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी,
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा
क्योंकि हमारी ज़िन्दगी से बेहतर कोई संगीत न था,
(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!)
मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी!
Sunday, May 9, 2010
भूल मत जाओ अपने मस्तिष्क में छिद्र बनाना
*** कविता के बारे में ( गद्य और पद्य में ) बहुत कुछ कहा गया है। काव्यशास्त्र की तमाम पोथियाँ 'कविता क्या है ?' के प्रश्नोत्तरों से भरी पड़ी हैं फिर भी कवि , आचार्य , पाठक और भावक के पास इस सिलसिले को लेकर सवाल कम नहीं हुए हैं ( और शायद होंगे भी नहीं )। इसी के साथ निरन्तर यह भॊ पूछा जाता रहा है कि कवि / कवियों को क्या करना चाहिए , उन्हें कैसा होना चाहिए और वास्तव में वे हैं कैसे..आदि इत्यादि। सवाल कम नहीं हैं , जवाब भी कम नहीं खोजे , बनाए , गढ़े गए हैं। कविता है और रहेगी , सवाल हैं और रहेंगे। जवाब आयेंगे और नए जवाबों की संभावना हमेशा बनी रहेगी। आज आचार्यों और उस्तादों की बड़ी - बड़ी , गुरु - गंभीर परिभाषाओं में न उलझकर अमरीकी कवि , कथाकार और 'पोएट लौरिएट' के सम्मान से नवाजे जा चुके अल यंग की एक बहुचर्चित कविता के माध्यम से कवियों को दी जाने वाली नसीहतें या कवि होने की हिदायतों पर एक निगाह डालने की कोशिश इस कविता के माध्यम से करते हैं ....
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
किन्तु भूमिगत मत रहो लम्बी अवधि तक
बदल मत जाओ बास मारती छछूंदर में
न ही बनो -
कोई कीड़ा
कोई जड़
अथवा शिलाखंड।
धूप में थोड़ा बाहर निकलो
पेड़ों के भीतर साँस बन कर बहो
पर्वतों पर ठोकरें मारो
साँपों से गपशप करो प्यार से
और पक्षियों के बीच हासिल करो नायकत्व ।
भूल मत जाओ अपने मस्तिष्क में छिद्र बनाना
न ही पलकें झपकाना
सोचो, सोचते रहो
घूमते रहो चहुँ ओर
तैराकी करो धारा के विपरीत।
और...
कतई मत भूलो अपनी उड़ान।
Thursday, May 6, 2010
प्रेम की सुन्दरता का निषेध करने वाले इसी तट आते हैं हाथ - पैर धोने
अख़बार , टीवी , इंटरनेट से गुजरते हुए पिछले कुछ दिनों से वीरेन जी की यह छोटी - सी कविता बार - बार याद रही है.....याद क्या आ रही है परेशान -सी किए हुए है...आइए देखते - पढ़ते हैं....
विद्वेष / वीरेन डंगवाल
यह बूचड़खाने की नाली है
इसी से होकर आते हैं नदी के जल में
खून चरबी रोयें और लोथड़े.
प्रेम की सुन्दरता का निषेध करने वाले
इसी तट आते हैं हाथ - पैर धोने.
-----------------
चित्र : विन्सेन्ट वान गॉग
Wednesday, May 5, 2010
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !
चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।
*****
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा।
आज अपने सहकर्मियों के बीच फुरसत के चंद पलों में यूँ ही बातचीत के दौरान जब दुष्यन्त कुमार( १९३३- १९७५ ) के ( ऊपर लिखे ) दो शेर जब सुनाये तो एक सज्जन ने कहा कि 'हाँ इनका कुछ और भी सुना है, विद्यार्थी जीवन में इनकी कोई किताब भी देखी थी - शायरी की किताब थी शायद'. मैं समझ गया कि वे 'साये में धूप' की बात कर रहे हैं. यह उन किताबों में से है जो मैंने कई बार खरीदी और कई बार गायब हो गई. इस वक्त भी यह मेरे संग्रह में नहीं मिल रही है. कहीं होगी किसी काव्यप्रेमी के पास जो उसे कभी कभार देख - निरख कर अपने विद्यार्थी जीवन के कुछ आग , पानी , राख , धुआँ वाले पलों को याद कर लेता होगा. 'साये में धूप' हिन्दी की बेस्टसेलर्स में से एक है. यह हिन्दी कविता का चेहरा बदलने वाली और 'हिन्दी ग़ज़ल' को स्थापित करने वाली किताबों में से भी एक है. दूसरी ओर यह किताब दुष्यन्त कुमार की प्रतिनिधि रचना भी मानी जाती है. किन्तु हिन्दी साहित्य के गंभीर पाठकों के लिए दुष्यन्त कुमार मात्र 'साये में धूप' के रचनाकार भर नहीं हैं. वे 'नई कहानी' को एक कथा आन्दोलन के रूप में रेखांकित करने वाले शुरुआती लेखकों में से रहे हैं , उन्होंने 'आंगन में एक वृक्ष' जैसा उपन्यास लिखा है .'सूर्य का स्वागत' तथा 'आवाजों के घेरे' जैसा विलक्षण काव्य संग्रह भी हिन्दी को दिया है. आइए 'आवाजों के घेरे' संग्रह में संकलित उनकी एक कविता साझा करते हैं और देखते हैं कि हिन्दी ग़ज़ल का यह सशक्त हस्ताक्षर लय और तुक के परे कैसा दिखता है और क्या लिखता है...
कौन-सा पथ
तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन-सा पथ कठिन है...?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा।
कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है
कहो, बढ़कर उसे पी लूँ
या अधर पर शंख-सा रख फूँक दूँ
तुम्हारे विश्वास का जय-घोष
मेरे साहसिक स्वर में मुखर है।
तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !
हिमालय में प्लूटोनियम - सी आई ए का एक और अपराध -2
(पिछली किस्त से जारी)
दर असल सी आई ए के पस्त पड़ जाने का मुख्य कारण कुछ और थी - आर टी जी के भीतर धरे प्लूटोनियम की नैसर्गिक ऊष्मा के कारण आर टी जी सीधे सीधे बर्फ़ को गलाता हुआ किसी ग्लेशियर के बीचोबीच पहुंच चुका था.
इस पूरे किस्से के दो पहलू हैं. अच्छा तो यह होगा कि आर टी जी किसी चट्टान पर जा कर टिक गया हो. लेकिन इसका बुरा पहलू यह है कि बर्फ़ और चट्टान के किसी पिण्ड ने आर टी जी की कठोर परत को तोड़ दिया हो और प्लूटोनियम बहता हुआ गंगा में न पहुंच गया हो.
१९७८ में जब आउटसाइड पत्रिका में हावर्ड कोन नामक पत्रकार ने द नन्दा देवी केपर शीर्षक अपने लेख में इस बात का पर्दाफ़ाश किया तो जाकर भारत की सरकार चेती.
भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने देश को आश्वस्त किया कि सब कुछ ठीकठाक था और इसे लेकर मामला रफ़ादफ़ा करने वाले कुछ सरकारी दस्तावेज़ पेश किये. जब मैंने खुद इस मिशन से सम्बन्धित अमरीकी अधिकारियों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि ताकेदा की किताब को साइन्स फ़िक्शन से अधिक कुछ नहीं माना जाना चाहिये. अमरीकी सरकार के किसी दफ़्तर में इस अभियान को अधिकृत रूप से रेकॉर्ड नहीं किया गया है.
जैसा कि भारत सरकार की रिपोर्ट ने संकेत किया था आर टी जी से यदि प्लूटोनियम निकला भी होगा तो आबादी वाले हिस्सों तक पहुंचने से पहले ही वह गंगा के किनारे रेत-कंकड़ में धंस गया होगा. और यदि वह मैदानी इलाके में प्रवेश कर भी गया होगा तो उसकी शक्ति नदी के अपार जल के कारण बेहद क्षीण हो गई होगी और उस के कारण किसी भी किस्म का स्वास्थ्य संकट नहीं हो सकता.
तो सिद्धान्ततः कोई बड़ी दिक्कत नहीं थी. लेकिन प्लूटोनियम को लेकर वास्तविकता में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता - खास तौर पर १९६० के दशक में आर टी जी में बतौर ईंधन इस्तेमाल किये जाने वाले प्लूटोनियम को लेकर. १९४१ में ग्लेन सीबोर्ग और उसकी टीम द्वारा बनाए गए प्लूटोनियम के बारे में कहा जाता है कि यह इस पृथ्वी को बिलॉन्ग नहीं करता और उसका व्यवहार ऐसा होता है जैसे उसे यहां रहना कतई नापसन्द है.
परमाणु विज्ञान के हिसाब से देखा जाए तो प्लूटोनियम अपने करीब बीस आइसोटोप्स के ऐसे उबलते लौंदे की तरह अस्तित्वमान रहता है जो लगातार टूटते और बनते रहते हैं और लगातार रेडियेशन छोड़ते रहते हैं.
भौतिकविज्ञान और रसायनविज्ञान की दृष्टि से भी यह तत्व बेहद खतरनाक माना जाता है - खासतौर पर मानव जीवन के लिए. इसका एक माइक्रोग्राम मनुष्य के लिये जानलेवा हो सकता है.
१९६० के दशक में अमरीकी सरकार द्वारा जारी किये गए दिशानिर्देशों के अनुसार किसी एक जगह पर अधिक से अधिक चार पाउन्ड प्लूटोनियम का भण्डारण किया जा सकता था. नन्दा देवी में इतना ही प्लूटोनियम रखा गया था.
अमरीका इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुआ. अगले ही साल एक और आर टी जी को नन्दा देवी के समीप २२,५०० फ़ीट ऊंची एक और चोटी नन्दा कोट पर सफलतापूर्वक इन्स्टॉल कर दिया गया. कुछ महीनों बाद उस से सिग्नल आना बन्द हो गए. बर्फ़ की वजह से मशीन ने काम करना बन्द कर दिया था. अच्छी बात यह थी कि आर टी जी को वापस लाया जा सकता था. अक्टूबर १९६७ में यह काम किया गया. इन तीनों अभियानों में काम करने वाले शेरपाओं को रेडियेशन से बचाने के कोई उपाय नहीं किये गए थे. फ़ौजियों और पर्वतारोहियों को भी जो एन्टी-रेडियेशन बैज दिए गए थे उनकी गुणवत्ता पर किसी तरह का यकीन नहीं किया जा सकता था.
हम शायद कभी नहीं जान पाएंगे कि असल में वहां हुआ क्या था.
Tuesday, May 4, 2010
हिमालय में प्लूटोनियम - सी आई ए का एक और अपराध
इधर दिल्ली में हुए कोबाल्ट रेडियेशन की बहुत चर्चा है और यह खासी चिन्ता का विषय भी है. लेकिन आज से करीब चालीस साल पहले अमरीका ने हिमालय की पवित्र चोटियों पर ऐसा पाप किया था जिसके परिणाम क्या हुए या क्या हो रहे हैं या क्या होंगे, कोई नहीं जानता. पीटर ली के एक लम्बे और महत्वपूर्ण लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं
शीतयुद्ध के दौरान सी आई ए ने कुछ कामों को हर सूरत में सरंजाम देना ही था - कम्यूनिज़्म को रोकने के लिए कैसी भी कीमत चुकाई जा सकती थी और किसी भी तरह की तकनीकी बाधा को पराजित किया जा सकता था. और चीन के मिसाइल कार्यक्रमों की ख़ुफ़िया सूचना प्राप्त करने के लिए कोई भी पहाड़ फ़तह किया जा सकता था.
लोप नोर में चीन द्वारा किये जा रहे मिसाइल परीक्षणों की जासूसी करने के लिए सी आई ए ने एक हैबतनाक ऑपरेशन किया था - दुनिया के चुनिन्दा पर्वतारोहियों की मदद से नन्दा देवी और नन्दा कोट की चोटियों पर परमाणु ऊर्जा से चलने वाली लिसनिंग डिवाइसेज़ स्थापित करने का प्रयास. लेकिन इस हिमालयी अभियान में सी आई ए ने लिसनिंग डिवाइसेज़ के लिए इस्तेमाल होने वाले प्लूटोनियम नामक तत्व के चलते होने वाले दुष्परिणामों को पूरी तरह नज़र अन्दाज़ कर दिया था जिसका खतरा उस मिशन में शामिल लोग आज तक महसूस करते हैं.
१९६६ में चार पाउन्ड प्लूटोनियम नन्दादेवी में खो गया था और आज तक कोई नहीं जानता कि उसका क्या हुआ या उन शेरपाओं और पर्वतारोहियों का जो इस अभियान में शामिल थे. मालूम तो यह भी नहीं कि जिस चोटी की बर्फ़ पिघल कर गंगा नदी में जाती है, उस गंगा के किनारे बसने वाले लोगों के साथ क्या क्या हो चुका है और होने वाला है.
न्यू यॉर्क की थंडर्स माउथ प्रेस द्वारा २००६ में प्रकाशित पीट ताकेदा की लिखी पुस्तक एन आई ऑन टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड में इस ख़ौफ़नाक अभियान के विस्तृत विवरण पढ़ने को मिलते हैं.
यह बहुत सीधा सा मिशन था. यह सैटेलाइट और डिजिटल उपकरणों से पहले का समय था जब सामान्य रेडियो उपकरण लगी हुई मिसाइलें सन्देश भेजा करती थीं जिन्हें कोई भी अपने रेडियो रिसीवर पर प्राप्त कर सकता था.
अपने सिग्नल्स को दुश्मनों से दूर रखने की नीयत से चीन ने अपनी मिसाइलों का परीक्षण लोप नोर में किया. बाहरी संसार का कोई भी व्यक्ति इन सिग्नल्स को सिर्फ़ और सिर्फ़ हिमालय की चोटी से ही सुन सकता था. सो सी आई ए ने निर्णय लिया कि वह २५००० फ़ीट की ऊंचाई पर नन्दा देवी कॊ चोटी पर अपना रिसीवर स्थापित करेगी.
हिमालय की कठिन परिस्थितियों के कारण यह असम्भव था कि इस रिसीवर की देखभाल कोई मानव कर पाता. चूंकि रिसीवर की बैटरियां लगातार बदली जानी होती थीं, सी आई ए ने इसका समाधान खोज निकाला. अमरीकी अन्तरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल होने वाले रेडियोसोटोपिक थर्मल जेनेरेटर यानी आर टी जी के इस्तेमाल का निर्णय ले लिया गया.
१९६५ में एवरेस्ट फ़तेह करने वाले पहले भारतीय कैप्टेन एम एस कोहली को फ़्रिज के आकार के इस उपकरण को नन्दादेवी की चोटी पर पहुंचाने के अभियान हेतु सारी तैयारियां करने का ज़िम्मा सौंपा गया.
कोहली ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं. विवरणों में कुछ अन्तर होने के बावजूद दोनों का नैरेटिव करीब करीब एक सा है.
१९६५ के पतझड़ में एक भारतीय-अमरीकी दल नन्दादेवी के बेस कैम्प तक पहुंचा. इकत्तीस लोगों के इस दल को बेस कैम्प में हैलीकॉप्टर द्वारा उक्त रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम २३८ की सात छड़ें मुहैय्या कराई गईं जिन्हें चोटी तक पहुंचाने में तीन सप्ताह लगे.
जब ये लोग चोटी पर पहुंचने ही वाले थे, मौसम बेतहाशा ख़राब हो गया. पर्वतारोहण का सीज़न समाप्त हो चुका था और रिसीवर स्थापित करने का कोई भी प्रयास अब अगले साल से पहले सम्भव न था. बजाय इस तमाम उपकरणों को वापस नीचे लाने की जेहमत उठाने के, यह तय किया गया कि उन्हें एक चट्टान से बांध कर वहीं छोड़ कर अगले साल आ कर काम को अंजाम दिया जाय.
अगले साल वसन्त में जब ये पर्वतारोही वापस उस जगह पहुंचे तो यह देख कर उनके होश उड़ गए कि वह पूरी की पूरी चट्टान बर्फ़ अपने साथ नीचे कहीं बहा ले गई थी.
रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम की छड़ें सम्भवतः हज़ारों फ़ीट नीचे किसी ग्लेशियर में दफ़न थे. इन्हीं ग्लेशियरों से उत्तर भारत के मैदानी इलाकों को पानी मिलता है. बेतहाशा प्रयास किये गए कि इन चीज़ों को वापस खोज लिया जाए पर ऐसा हो न सका और आखिरकार सी आई ए ने अपने हाथ खड़े कर दिये
फ़ोटो: ऊपर नन्दादेवी में बर्फ़ीला तूफ़ान, नीचे हिमस्खलन के बाद बाहर निकलते पीट ताकेदा
(जारी)
शीतयुद्ध के दौरान सी आई ए ने कुछ कामों को हर सूरत में सरंजाम देना ही था - कम्यूनिज़्म को रोकने के लिए कैसी भी कीमत चुकाई जा सकती थी और किसी भी तरह की तकनीकी बाधा को पराजित किया जा सकता था. और चीन के मिसाइल कार्यक्रमों की ख़ुफ़िया सूचना प्राप्त करने के लिए कोई भी पहाड़ फ़तह किया जा सकता था.
लोप नोर में चीन द्वारा किये जा रहे मिसाइल परीक्षणों की जासूसी करने के लिए सी आई ए ने एक हैबतनाक ऑपरेशन किया था - दुनिया के चुनिन्दा पर्वतारोहियों की मदद से नन्दा देवी और नन्दा कोट की चोटियों पर परमाणु ऊर्जा से चलने वाली लिसनिंग डिवाइसेज़ स्थापित करने का प्रयास. लेकिन इस हिमालयी अभियान में सी आई ए ने लिसनिंग डिवाइसेज़ के लिए इस्तेमाल होने वाले प्लूटोनियम नामक तत्व के चलते होने वाले दुष्परिणामों को पूरी तरह नज़र अन्दाज़ कर दिया था जिसका खतरा उस मिशन में शामिल लोग आज तक महसूस करते हैं.
१९६६ में चार पाउन्ड प्लूटोनियम नन्दादेवी में खो गया था और आज तक कोई नहीं जानता कि उसका क्या हुआ या उन शेरपाओं और पर्वतारोहियों का जो इस अभियान में शामिल थे. मालूम तो यह भी नहीं कि जिस चोटी की बर्फ़ पिघल कर गंगा नदी में जाती है, उस गंगा के किनारे बसने वाले लोगों के साथ क्या क्या हो चुका है और होने वाला है.
न्यू यॉर्क की थंडर्स माउथ प्रेस द्वारा २००६ में प्रकाशित पीट ताकेदा की लिखी पुस्तक एन आई ऑन टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड में इस ख़ौफ़नाक अभियान के विस्तृत विवरण पढ़ने को मिलते हैं.
यह बहुत सीधा सा मिशन था. यह सैटेलाइट और डिजिटल उपकरणों से पहले का समय था जब सामान्य रेडियो उपकरण लगी हुई मिसाइलें सन्देश भेजा करती थीं जिन्हें कोई भी अपने रेडियो रिसीवर पर प्राप्त कर सकता था.
अपने सिग्नल्स को दुश्मनों से दूर रखने की नीयत से चीन ने अपनी मिसाइलों का परीक्षण लोप नोर में किया. बाहरी संसार का कोई भी व्यक्ति इन सिग्नल्स को सिर्फ़ और सिर्फ़ हिमालय की चोटी से ही सुन सकता था. सो सी आई ए ने निर्णय लिया कि वह २५००० फ़ीट की ऊंचाई पर नन्दा देवी कॊ चोटी पर अपना रिसीवर स्थापित करेगी.
हिमालय की कठिन परिस्थितियों के कारण यह असम्भव था कि इस रिसीवर की देखभाल कोई मानव कर पाता. चूंकि रिसीवर की बैटरियां लगातार बदली जानी होती थीं, सी आई ए ने इसका समाधान खोज निकाला. अमरीकी अन्तरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल होने वाले रेडियोसोटोपिक थर्मल जेनेरेटर यानी आर टी जी के इस्तेमाल का निर्णय ले लिया गया.
१९६५ में एवरेस्ट फ़तेह करने वाले पहले भारतीय कैप्टेन एम एस कोहली को फ़्रिज के आकार के इस उपकरण को नन्दादेवी की चोटी पर पहुंचाने के अभियान हेतु सारी तैयारियां करने का ज़िम्मा सौंपा गया.
कोहली ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं. विवरणों में कुछ अन्तर होने के बावजूद दोनों का नैरेटिव करीब करीब एक सा है.
१९६५ के पतझड़ में एक भारतीय-अमरीकी दल नन्दादेवी के बेस कैम्प तक पहुंचा. इकत्तीस लोगों के इस दल को बेस कैम्प में हैलीकॉप्टर द्वारा उक्त रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम २३८ की सात छड़ें मुहैय्या कराई गईं जिन्हें चोटी तक पहुंचाने में तीन सप्ताह लगे.
जब ये लोग चोटी पर पहुंचने ही वाले थे, मौसम बेतहाशा ख़राब हो गया. पर्वतारोहण का सीज़न समाप्त हो चुका था और रिसीवर स्थापित करने का कोई भी प्रयास अब अगले साल से पहले सम्भव न था. बजाय इस तमाम उपकरणों को वापस नीचे लाने की जेहमत उठाने के, यह तय किया गया कि उन्हें एक चट्टान से बांध कर वहीं छोड़ कर अगले साल आ कर काम को अंजाम दिया जाय.
अगले साल वसन्त में जब ये पर्वतारोही वापस उस जगह पहुंचे तो यह देख कर उनके होश उड़ गए कि वह पूरी की पूरी चट्टान बर्फ़ अपने साथ नीचे कहीं बहा ले गई थी.
रिसीवर, आर टी जी और प्लूटोनियम की छड़ें सम्भवतः हज़ारों फ़ीट नीचे किसी ग्लेशियर में दफ़न थे. इन्हीं ग्लेशियरों से उत्तर भारत के मैदानी इलाकों को पानी मिलता है. बेतहाशा प्रयास किये गए कि इन चीज़ों को वापस खोज लिया जाए पर ऐसा हो न सका और आखिरकार सी आई ए ने अपने हाथ खड़े कर दिये
फ़ोटो: ऊपर नन्दादेवी में बर्फ़ीला तूफ़ान, नीचे हिमस्खलन के बाद बाहर निकलते पीट ताकेदा
(जारी)
Monday, May 3, 2010
दूर से अपना घर देखना चाहिये
वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की यह विख्यात कविता मुझे अभी अभी सुन्दर ठाकुर ने फ़ोन पर सुनाई. मुझे लगा कि इसे यहां आप के साथ बांटा जाना चाहिये.
दूर से अपना घर देखना चाहिए
विनोद कुमार शुक्ल
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुन्दर पार चले जाना चाहिए.
जाते जाते पलटकर देखना चाहिये
दूसरे देश से अपना देश
अन्तरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा.
घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ
Saturday, May 1, 2010
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