Sunday, November 30, 2008

भाड़ में जाओ भगवान !

हे अखिल ब्रह्मांड के स्वामी, हे परमपिता परमेश्वर, हे करुणा के सागर, हे दयानिधान परमात्मा, कहां हो...कहां हो भगवान! जल में, नभ में, धरा पर, पाताल में, किस लोक में, किस जगह लगाए बैठे हो समाधि? सो रहे हो किस शैया पर...तोड़ो निद्रा, बाहर निकलो, देखो! देखो खून की नदी, देखो मांस के लोथड़ों में तब्दील हो गए बच्चे, बूढ़े, जवान, किशोरियां, युवतियां, स्त्रियां, देखो कैसा होता है भुना हुआ इंसानी गोश्त! देखो इसका रंग, महसूस करो गंध, आओ...आते क्यों नहीं...?.
इतने कठोर कैसे हो गए तुम । आतंकियों के निशाना बने हर शख्स ने सिर्फ तुम्हें पुकारा, मरने के पहले सिर्फ तुम्हारा नाम उनके ओंठ पर था। पर तुम नहीं आए। क्या गुनाह था उनका ?..यही न कि वे एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां इंसानी जिंदगी की कोई कीमत नहीं। यही न, कि वे ऐसे नेताओं का जयकारा लगाने को अभिशप्त हैं जो इंसान कहलाने के लायक नहीं। यही न कि उनकी सुरक्षा घूसखोरों के हवाले है। पर इसकी इतनी बड़ी सजा ?
कहां हैं तुम्हारे भेजे बाबा, साधु साध्वियां। कहां हैं पीर, औलिया कहां हैं, कहां हैं सेंट पीटर, एस्टीफेंस, सारे...। अरे, तुम्हारी इच्छा के बगैर पत्ता तक नहीं फड़कता। फिर बंदूकें कैसे चल जाती हैं? बेगुनाह की जान कैसे जाती है? देखते-देखते एक नौजवान आतंकवादी कैसे बन जाता है? तुमने क्यों नहीं किया चमत्कार..? .तुम चाहते तो ए.के.47 से निकलते फूल, तम चाहते तो समंदर में रास्ता भूल जाती आतंकियों की बोट, तुम चाहते तो कोई न बिछड़ता अपनी मां से, पिता से, बहन से, भाई से...दोस्तों से कोई न बिछड़ता। क्यों नहीं किया तुमने ऐसा? किसी मंदिर से, मस्जिद से, गिरजे से...कहीं से नहीं निकली कोई रोशनी। नहीं गिरी बिजली आतंकियों पर। क्यों, क्यों, क्यों.?..
अरे, तुम चाहो तो अब भी जी उठें मुर्दा, भर जाएं घायलों के जख्म, दुनिया हो जाए थोड़ी बेहतर, पर नहीं चाहते तुम कुछ भी ऐसा। या फिर तुम चमत्कार कर ही नहीं सकते। तुम्हे लेकर किए जाने वाले सारे दावे फर्जी हैं, किताबी हैं। वही किताबें, जिनकी वजह से इंसान बन जाता है इंसान का दुश्मन। जिनके पहले सफे पर लिखा होता है “प्रेम” और आखिरी पर “घृणा”। जिन्हें पढ़ने के बाद आदमी एक दर्जा ऊपर उठ जाता है और फिर मारने लगता है उन्हें, जो एक दर्जा नीचे नजर आते हैं।
या तुम भी डरते हो आतंकियों से। तुम्हारे पास उनका मुकाबला करने का ताब ही नहीं। या ये सारे भस्मासुर तुम्हारे पैदा किए हुए हैं। हां..हां, हां... इन्होंने सारा कहर तुम्हारे नाम पर बरपाया है। तुम्हारे ही एजेंट हैं ये।
क्या कहा?..... माया है सब, तुम्हारा ही खेल?....लीला है?... ये खून, ये चीखें, ये जलती लाशें, सच्चाई नहीं सपना हैं! मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की मां का विलाप, हेमंत करकरे के बेटे के आंसू, गजेंद्र सिंह के बच्चों का दर्द सब भ्रम है! क्या इलियास, मकसूद, फिरोज के परिजनों की चीखें झूठी हैं। बस भी करो! बहुत हो गया... झूठे ही नहीं साक्षात झूठ हो तुम। तुम नहीं हो करुणानिधान, नहीं हो जगत के स्वामी। तुम हो नीरो! चंगेज खां! हिटलर..!
या फिर तुम खुद ही हो माया! हमारी कमजोरियों की उपज! जो भी हो, भाड़ में जाओ!

मेरे प्रेम भी नापे जाते हैं युद्धों से

येहूदा आमीखाई ने युद्ध और आतंकवाद के विद्रूप और उसकी त्रासदियों को अपनी कविता का ज़रूरी और महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया. उनकी कविता मनुष्यता की कविता है. अच्छाई और उम्मीद की कविता. उन्हें आप जितना पढ़ते जाते हैं आप पाते हैं कि यह कवि इज़राइल भर की बात नहीं कर रहा, उसका सरोकार दुनिया भर में हो रहे युद्धों और आम जन के दुःखों से है. उनकी कविता श्रृंखला 'देशभक्ति के गीत' से एक छोटा अंश प्रस्तुत है:

मेरे प्रेम भी नापे जाते हैं युद्धों से
मैं कह रहा हूं यह गुज़रा दूसरे विश्वयुद्ध के बाद
हम मिले थे छह दिनी युद्ध के एक दिन पहले
मैं कभी नहीं कहूंगा '४५-'४८ की शान्ति के पहले
या '५६-'५७ की शान्ति के दौरान

लेकिन शान्ति के बारे में जानकारी
एक देश से दूसरे देश पहुंचती है
बच्चों के खेलों की तरह
जो लगभग एक से होते हैं हर जगह.

Saturday, November 29, 2008

जाना विश्वनाथ प्रताप सिंह का



बम्बई में तबाही ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही.मेरे बहुत से सम्पन्न मित्र जो राजनीति को 'डर्टी पीपल्स गेम' कह कर समय के बड़े-बड़े सवालों से अपने को अलग कर लिया करते थे, भी बहुत संजीदा होकर पूछने लगे हैं : "अब क्या होगा?"

पूरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट हो चुके हमारे लोकतन्त्र और शासन की कलई जब तब उतरती रहती है पर वह बेशर्मी की सारी हदें पार कर चुका है और अगली वारदात का इन्तज़ार करता रहता है.

... ख़ैर, इस पर बहुत ज़्यादा लिखा जा चुका है. पिछले दसेक दिनों से लगातार अस्पताल के चक्कर काटने के क्रम में अख़बार वगैरह पर निगाह डालने तक की फ़ुरसत नहीं मिली. अब आज सुबह जा कर पिछले दिनों के अख़बार सामने रखे. वही क्रिकेट और आतंक की मारी हमारी सतत भ्रमित जनता की जद्दोजहद भरी ज़िन्दगानियों की छोटी-बड़ी दास्तानें. उसके बाद बम्बई, बम्बई और बम्बई ...

'वी पी नो मोर' एक अख़बार की यह हैडिंग पढ़ने के बाद से मेरे दिल के भीतर कुछ तिड़क सा गया है. राजा साहब के राजनीतिक जीवन का उरूज था जब मैं स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था. १९८४ में इन्दिरा गांधी की हत्या, उसके बाद राजीव गांधी का प्रधानमन्त्री बनना, राजीव गांधी की कॉमेडी सरीखी 'हम हमारे देश में' और 'हम देखेंगे' स्टाइल मूर्ख-वक्तृता, सैम पित्रोदा, कलर टीवी, कम्प्यूटर, धीरूभाई अम्बानी ... यानी यह सब और ढेर सारा ऐसा ही कुछ. इस गर्द-ओ-ग़ुबार में राजा साहब की शालीन भाषा, और उससे ऊपर उनकी बेहद ईमानदार आंखें बहुत उम्मीद बंधाती थीं. यह मेरे कॉलेज जीवन के बिल्कुल शुरुआती साल थे ...

फिर राजीव गांधी द्वारा उन्हें बोफ़ोर्स मामले के उठने पर शर्मसार किए जाने के बाद उनका सत्ता में लौटना और प्रधानमन्त्री बन जाना उम्मीद बढ़ाने वाली मेरी सबसे पुरानी और बड़ी स्मृति है (यह अलग बात है कि वे साल भर भी पी एम नहीं रह पाए - देवीलाल और चन्द्रशेखर जैसे महापुरुषों को साथ ले कर चलना कोई आसान थोड़े ही था). मंडल कमीशन जैसे मसले को उठाकर उन्होंने "अनेकता में एकता" और "सामाजिक समभाव" के कांग्रेसी नारों की पोल खोल कर रख दी थी. उन्हें कुर्सी का लालच रहा होता तो वे क्या-क्या नहीं कर सकते थे.

ज़रा याद कीजिए इधर हाल के सालों में इस पाए का कोई भी और नेता आपको झुग्गीवालों के साथ धरने पर बैठा दिखाई दिया है! हमारा राजनैतिक तन्त्र इस महापुरुष की पूरी मेधा के इस्तेमाल से वंचित रह जाने को अभिशप्त रहा. अब वे नहीं हैं.

१९८३ में वे नैनीताल में मेरे स्कूल बिड़ला विद्यामन्दिर के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि बन कर आए थे. हर साल देश का कोई न कोई बड़ा आदमी मुख्य अतिथि बन कर आया करता था पर वी पी सिंह बिल्कुल फ़र्क थे. उन्होंने क़रीब घन्टे भर तक उपस्थित बच्चों और मेहमानों से बेहद अनौपचारिक बातचीत की. पिछले सालों में मुख्य अतिथि "प्यारे बच्चो" टाइप कोई उबाऊ स्पीच दिया करते थे और हम उसका अन्त हो चुकने के बाद इन की भाषण-शैली की पैरोडी बनाते. नारायण दत्त तिवारी की स्पीच की पैरोडी तो आज अट्ठाईस साल बाद भी मेरा एक सहपाठी बना लेता है. लेकिन वी पी वाक़ई फ़र्क़ थे.

नेहरू हाउस का हाउस कैप्टन होने के नाते मुझे उनसे स्वागतद्वार पर हाथ मिलाने का मौका मिला था. फिर एक ईनाम भी उन्होंने दिया. साइंस एक्ज़ीबीशन में मैंने तमाम डायोड-ट्रायोड जोड़जाड़कर कुछ झांय मॉडल बनाया था. वी पी बहुत देर मेरे पास खड़े रहे और ढेरों सवाल पूछते रहे. उनकी पत्नी अपने बड़े से पर्स में टॉफ़ियां लिए थीं. एक मुझे भी मिली जिसे जाहिर है और बच्चों की तरह मैंने भी नहीं खाया. वीरेन डंगवाल से पंक्तियां उधार लूं तो इस पूरे समय मेरा सीना कबूतर की मानिन्द तना रहा था.

वी पी नो मोर! लॉंग लिव वी पी!!

Thursday, November 27, 2008

बिना ईश्वर

येहूदा आमीखाई के नाम से कबाड़ख़ाने के पाठक परिचित हैं.

बम्बई में कल रात घटे पागलपन के बीच अपनी जान गंवा बैठे लोगों के प्रति भीतर तक दर्द महसूस करता हुआ मैं फ़िलहाल आमीखाई की इस कविता को आप तक पहुंचा पाने के अलावा और क्या कर सकता हूं:


बम का व्यास

तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.

Wednesday, November 26, 2008

इटारसी-भुसावल पैसिंजर : तालबेहट स्टेशन - मध्य रेल्वे

( यह कविता पिछली पोस्ट वाले सिद्धेश्वर सिंह यानी जवाहिर चा के नाम )

अभी रेल आएंगी एक के बाद एक
गुंजाती हुई आसपास की हरेक चीज़ को अपनी रफ़्तार के शोर से
आएंगी लेकिन रुकेंगी नहीं
इस जगह को बेमतलब बनाती हुई पटरियों को झंझोड़ती
चली जाएंगी
भारतीय रेल्वे की समय-सारणी तक में
अपना अस्तित्व न बचा पाने वाले इस छोटे से स्टेशन पर
किसी भी रेल का रुकना एक घटना की तरह होगा

मुल्क की कुछ सबसे तेज़ गाड़ियां गुज़रती हैं यहाँ
उन सबको राह देती
हर जगह रुकती
पिटती
थम-थमकर आएगी
झांसी से आती
वाया इटारसी भुसावल को जाती
अपने-अपने छोटे-छोटे ग़रीब पड़ावों के बीच
कोशिश भर रफ़्तार पकड़ती
हर लाल-पीले सिगनल को शीश नवाती
पाँच पुराने खंखड़ डिब्बों वाली
पैसिंजर गाड़ी

लोग भी होंगे चढ़ने-उतरने वाले
कंधों पर पेटी-बक्सा गट्ठर-बिस्तर लादे
आदमी-औरतें, बूढे़ और बच्चे
मेहनतकश
उन्हीं को डपटेगा जी.आर.पी. का अतुलित बलशाली
आत्ममुग्ध सिपाही
पकड़ेगा टी.सी. भी
अपने गुदड़ों में जब कोई टिकट ढूं¡ढता रह जाएगा
˜˜˜
उन्हें बहुत दूर नहीं जाना होता जो चलते हैं पैसिंजर से
बस इस गाँव से उस गाँव
या फिर कोई निकट का पड़ोसी शहर

उन्हे नहीं पता कि हमारे इस मुल्क में
कहाँ से आती हैं पटरियां
कहाँ तक जाती हैं?
गहरे नीले मैले -चीकट कपड़ों में उन्हें खटखटाते क्या ढून्ढते हैं
रेल्वे के कुछेक बेहद कर्त्तव्यशील कर्मचारी
वे नहीं जानते
पर देखते उन्हें कुछ भय और उत्सुकता से
अकसर वे उनसे प्रभावित होते हैं
˜˜˜
राजधानी के फर्स्ट ए0सी0 में बैठा बैंगलोर जाता यात्री
कभी नहीं जान पाएगा
कि वह जो खड़ी थी रुक कर राह देती उसकी रेल को
एक नामालूम स्टेशन पर
लोगों से भरी एक छोटी सी गाड़ी
उसमें बैठे लोग भी यात्री ही थे
दरअसल
उन्होंने ही करनी थीं जीवन की असली यात्राएं
बहुत दूर न जाते हुए भी

कोई मजूरी करने जाता था शहर को
कोई पास गाँव से बिटिया विदा कराने
कोई जाता था बहन-बहनोई का झगड़ा निबटाने
बच्चे चूंकि बिना टिकट जा सकते थे इसलिए जाते थे
हर कहीं
उनमें से अधिकांश की अपने स्कूल से
जीवन भर की छुट्टी थी
˜˜˜
यह आज सुबह चली है
कल सुबह पहुँचेगी
बीच में मिलेगी वापस लौट रही अपनी बहन से
राह में ही कहीं रात भी होगी
लोग बदल जाएंगे
भाषा भी बदल जाएगी
थोड़ा-बहुत भूगोल भी बदलेगा
चाय के लिए पुकारती आवाज़ें वैसी ही रहेंगी
वैसा ही रह-रहकर स्टेशन-स्टेशन शीश नवाना
ख़ुद रुक कर
तेज़ भागती दुनिया को राह दिखाना
डिब्बे और भी जर्जर होते जाएंगे इसके
मुसाफि़र कुछ और ग़रीब
दुनिया आती जाएगी क़रीब
और क़रीब
पर बढ़ते जाएंगे कुछ फासले
बहुत आसपास एक दूसरे चिपक कर बैठे होंगे लोग
लेकिन अकसर रह जाएंगे बिना मिले

रोशनी नीले कांच से छनकर
और हवा पाइपों से होकर आएगी
या फिर हर जगह
ऐसी ही खूब खुली
दिन में धूप और रात में तारों की टिमक से भरी
हवादार खिड़की होगी

अभी फैसला होना बाक़ी है यह
दुनिया
आख़िर कैसी होगी?
किसकी होगी?
_______________________
अगस्त 2005 के वागर्थ में प्रकाशित

Tuesday, November 25, 2008

कल्पना के घोड़े पर सवारी करवाने वाली करिश्माई किताब


पढ़ने का क्या है - कुछ भी पढ़ा जा सकता है , शर्त बस यह है कि पढ़ने की फुरसत हो और मन हो. अखबारों के अलावा घर में ढ़ेर सारी किताबें -पत्रिकायें आती रहती हैं , आखिर कब और कितना पढ़ा जाय ? और भी हैं ग़म है रोजगार के या कि और भी दुख (सुख) हैं जमाने में पढ़ने के सिवा. इसलिए अक्सर कुछ डिफरेंट पढ़ने का मन करता है. अब तो सारी चीजें इतनी कामन हो गई हैं कि डिफरेंट के नाम पर मेरे पास रेलवे टाइम टेबल के अलावा कुछ दीखता ही नहीं.मेरा तो यह मानना है कि इससे बढ़िया कोई चीज नहीं. सस्ती भी है कोई मंहगी नहीं. हर छमाही छपती है. जब नई मिल जाय तो पुरानी रद्दी में बिक जाती है - किलो के भाव से.टाइम टेबल का तो यह है कि रजाई में घुसकर पढ़ते - देखते जाइये कि कि कौन सी गाड़ी कहाँ से कहाँ तक जाती है , विभिन्न स्टेशनों पर उसके आगमन और प्रस्थान का समय क्या है. किस स्टेशन पर बुक स्टाल , विश्रामालय , अल्पाहार सुविधा आदि -इत्यादि है अथवा नहीं. और तो और बिना टिकट -भाड़ा - रिजर्वेशन के किसी भी क्लास में , किसी भी कूपे में सफर कर आइए.लो साहब ये रही राजा की मंडी और वो रहा दीमापुर ! अभी कालका में हैं और अभी पलक झपकते ही दौंद तक की दौड़ लगा ली ! मन की तेज रफ्तार का मुकाबला करने वाली कोई सवारी नहीं बनी आज तक ! खयालों में ही लखनऊ का रेवड़ी , आगरे का पेठा , संडीला के लड्डू , कटनी की भजिया ,शहडोल के दही - बड़े , सतना की जलेबी , कटिहार की रोटी -सब्जी, औड़िहार की पकौड़ी, इलाहाबाद का आलूदम, रतलाम का श्रीखंड , न्यू बोगाईंगाँव का आमलेट , अनंतपुर की इडली , न्यू अलीपुरदुआर की झालमूड़ी, धर्मावरम के दोसे आदि नाना प्रकार के व्यंजन जो हमारी रसोई और पाकशात्र की पोथियों में बताए जाते हैं - वे सब फिरी - फोकट में.ऊपर बताये गये व्यंजनादि तो मेरी अपनी पसंद के हैं. आप को पूरी छूट है कि आप क्या खायें - क्या पीयें.खुद ही मेन्यू बनाइये, खुद ही आर्डर दीजिये और खुद ही सर्व कीजिये. कुल मिलाकर मौजा ही मौजा !

तरह तरह का टाइम टेबल छपता है अपने यहाँ - 'ट्रेन्स ऐट ए ग्लान्स' से लेकर 'न्यूमैन्स इंडियन ब्रॊडशा' तक , अलग - अलग भाषाओं में. कुछ सादे - कुछ रंगीन , कुछ क्षेत्रीय - कुछ आल इंडिया लेवल के लेकिन सबके केन्द्र में वही है अपनी प्यारी छुक छुक करती रेलगाड़ी - हिन्दुस्तानी जनसमूह को इस विशाल -बहुरंगी देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक का सफर कराने वाली जिसको लेकर पता नहीं कितनी कवितायें और कहानियां गढ़ी जाती रही हैं. टाइम टेबल में किराये की सूची के साथ, गाड़ियों के नाम और नंबर , स्टेशनों के बीच की दूरी , अप ट्रेन्स - डाउन ट्रेन्स का विवरण , टिकट वापसी के नियम आदि -इत्यदि को पढ़ना एक नए अनुभव से गुजरना होता है. विगत में की गई यात्राओं की स्मॄतियाँ मानस पटल पर उतरने लगती हैं और आगे की जाने वाली यात्राओं का आकलन आकार लेने लगता है.अब धीरे -धीरे सब कुछ तकनीक के हवाले होता जा रहा है. अब तो रेलगाड़ी का टिकट लेने के लिए भी स्टेशन पर जाने की जरूरत नहीं है -नेट पर मौजूद है यह् सुविधा. नेट पर तो रेलवे का विस्तॄत टाइम टेबल भी मौजूद है. बस क्लिक करते जाइये और ये रही गाड़ी - ये रहा किराया. प्रिंटर के पेट से निकल आता है ई / आई टिकट. यह सबकुछ कितना आसान हो गया है - कितना मशीनी. अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन हर्ष -विषाद , प्रेम -घॄणा जैसी भावनायें भी भी नेट पर ही मिला करेंगी. तो साहब , अपन तो ठहरे पुराने किस्म के आदमी, पुरानी चीजों के रसिया , कबाड़ के कारोबारी. भले ही ही नेट की अतल तलहटी में रेलवे टाइम टेबल जैसी नामालूम सी चीज भी मौजूद है फिर भी कागज पर किताब की शक्ल में छपा टाइम टेबल बहुत प्रिय है मुझे ! इसका कारण यह है कि यह सस्ता है , टिकाऊ है , कबाड़ बन जाने के बाद भी काम आता है और यदि अखबारों -पत्रिकाओं की रोजाना की वही -वही उबाऊ -उदास खबरों को पढ़ने से अगर आप बचना चाहते हैं तो यह करिश्माई किताब कल्पना के घोड़े पर सवारी करवाने का भरपूर मौका देने से कभी नहीं चूकती.

तो बताइये , क्या आप के पास यह करिश्माई किताब है ? अगर है, तो अपने घोड़े पर जीन कसें और उड़ चलें और अगर नहीं है , तो अपने आसपास तलाशें. अगर न मिले तो निराश न हों 'कबाड़खाना' को आर्डर करें.अपनी तो पालिसी ही है - क्विक डिलीवरी , वह भी फिरी फोकट.

तो साब ! आपके नाम पै कित्ता माल लिख दूँ ?

विचारों का उदात्तीकरण, मात्र उनका उद्दीपन नहीं



कुंवर नारायण
कविता आज सिर्फ बुनियादी आवगों (प्राइमरी पैशंस) की कविता नहीं रह गई है। इस माने में वह कम से कम एक तह और ज्यादा गहरी तो हुई ही है वह बुनियादी आवेगों के प्रति सचेत और सतर्क है। यह शिकायत कि आज की कविता अतिबौद्धिक है और सहज बोधगम्य नहीं एक हद तक जायज होते हुए भी उतनी जायज नहीं जितनी यह शिकायत की आज बहुत-सी सहज ही बोधगम्य कविता प्रासंगिक नहीं। आज कविता के लिए महसूस करना काफी नहीं, महसूस किए हुए को और महसूस करते हुए को सोचना-समझना भी जरूरी है।
विचारशीलता आधुनिक सम्वेदना का अनिवार्य हिस्सा है और एक जरूरी यकीन भी है कि अगर अक्ल आदमी की दुश्मन नहीं तो अक्ल कविता की भी दुश्मन नहीं हो सकती। इन सदी के प्रमुख विचारक और चिंतक मार्क्स्, फ्रायड, आइन्स्टाइन, सार्त्र आदि अमानव नहीं थे, न ही उनका लेखन और चिंतन कविदृष्टि-विहीन है। आज अधिकांश जो कुछ भयानक और अनचाहा हमारे जीवन में हो जाता है उसकी जड़ में बौद्धिकता नहीं, मूर्खता होती है-मूर्खतापूर्ण उत्तेजनाएं और अपने तत्काल स्वार्थ से आगे न सोच पाने की बौद्धिक असमर्थताएं। विचार-सम्पन्नता अकाव्यात्मक नहीं-उस कवित्व का आधार है जो हम उपनिषदों, गीता, कबीर, गालिब आदि में पाते हैं। मैं यहां छद्-बौद्धिकता या अति-बौद्धिकता की बात नहीं कर रहा। एख कविता में विचारों और भावना्अों की आपेक्षिक स्थितियां, उनके सही या गलत या कमजोर अर्थ विन्यास पर गुणात्मक असर डालती है। अगर एक कवि के स्वभाव में यह आवश्यक संतुलन नहीं है कि वह कविता में विचारों के दबावों और आग्रहों को किस तरह उभारे और सुरक्षित रखे तो ज्यादा संभावना यही है कि वह उन्हें अपने उद्गारों या भावनाअों द्वारा ऊपर से चमका-दमका (ग्लैमराइज) करके रह जाएगा, हमें उनके भीतरी तर्क की शक्ति और अनुभूति तक नहीं पहुंचा पाएगा। जो कवि इस अोर पूरी तरह सचेत हैं कि विचारशीलता और भावनाएं आदमी को दो भिन्न प्रकार की (विरोधी प्रकार की नहीं) क्षमताएं हैं, उसकी कविताअों में हम एक खास तरह का विचारों का उदात्तीकरण पाएंगे, मात्र उनका उद्दीपन नहीं।
(कवि द्वारा लिखे गए निबंध अमानवीयकरण के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया से साभार)

Saturday, November 22, 2008

भजन चलता रहे


कभी किसी समय इस गायक चतुष्टय ने हिन्दुस्तानी संगीत प्रेमियों को अद्भुत तरीके से आनंदित और आहलादित किया था .आपको याद तो होगा ही - 'सूरज की गर्मी से तपते हुए तन को मिल जाए तरुवर की छाया..' .अब आजकल जबकि सर्दियों की आमद हो गई है फिर भी मन के किसी कोने में यह अहसास अवश्य बना रहता है कि हमारे चारों ओर मुसलसल बेहिसाब गर्मी और तपन है.ऐसे में पसंदीदा संगीत कुछ सुकून , कुछ राहत जरूर दे जाता है. शर्मा बंधु ( गोपाल, सुखदेव, कौशलेन्द्र और राघवेन्द्र शर्मा ) के स्वर में गाया यह भजन मुझे बहुत प्रिय है. यह रचना इस उम्मीद के साथ पेश है कि आपको पसंद आएगी. तो सुनते हैं -' भजन चलता रहे॥'


Thursday, November 20, 2008

फ़ैमिली डॉक्टर की ज़रूरत है

मेरे जेहन में फ़ैमिली डॉक्टर की इमेज हिन्दी की पुरानी फ़िल्मों से बनी है. ब्लैक एन्ड व्हाइट फ़िल्मों से. शाम को एक बड़े ड्रॉइंगरूम से अन्दर एक लम्बे गलियारे के बाद साफ़ सफ़ेद दीवारों वाले कमरे के बीचोबीच साफ़ रज़ाइयों से ढंके बीमार पड़े मनमोहन कृष्ण टाइप के कोई बुज़ुर्ग होते थे या नूतन टाइप कोई विरहज्वरग्रस्त नायिका. अक्सर बल्कि हमेशा ही ये रोगी अमीर हुआ करते थे - ख़ासे अमीर. अशोक कुमार या दिलीप कुमार सरीखे नायक बिल्कुल राइट टाइम पहुंचे नासिर हुसैन टाइप डाक्साब को दरवाज़े पर रिसीव करते ही उनकी अटैची या बैग थाम कर उनके पीछे पीछे चलने को उद्यत रहते थे.

फ़ैमिली डॉक्टर के जादुई बैग में दुनिया भर की बीमारियों के इलाज होते थे और अक्सर रोगी बच जाता था और दो चार सीन के बाद किसी गाने का हिस्सा हुआ करता.

इस पूरे साल मैं अपने बीमार पिताजी के साथ अपने नगर हल्द्वानी और आसपास के तमाम शहरों में अनगिनत डॉक्टरों के पास गया हूं. उनमें से कुछ अब मित्र बन चुके हैं, कुछ की शक्लें भी याद नहीं.

पहले परची बनती है. रूटीन सवालात होते हैं और कई सारे टेस्ट्स की फ़ेहरिस्त थमा दी जाती है. पैथोलॉजी लैब हर बार अलग तय किया जाता है. हर डॉक्टर का अपना पैथॉलॉजिस्ट होता है. कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि कल कराए गए उसी टेस्ट को दूसरा डॉक्टर ख़ारिज कर देता है और दूसरी लैब में उसे कराए जाने की ज़रूरत बताता है. दोनों ही बार परिणाम समान आते हैं. दवा के नाम पर इधर हर परचे में एक एन्टासिड और एक एन्टी डिप्रेसेन्ट लिखने का चलन शुरू है. ये दवाएं अलग अलग डॉक्टरों द्वारा हर बार अलग अलग कम्पनियों के नाम से लिखी जाती हैं. कोई मेरे पड़ोस के फ़ार्मेसिस्ट के यहां मिल जाती है कोई नहीं मिलती. पिताजी कहते हैं वही दवा लाओ जो परचे में लिखी है. उनकी आयु अच्छी ख़ासी है इसलिए उन्हें दवा के साल्ट एक होने जैसे कोई भी बात किसी भी तरह से नहीं समझाई जा सकती. वे नाराज़ हो जाते हैं या खीझने लगते हैं.

इस साल उनके दो ऑपरेशन हो चुके हैं. लेकिन खराब समय टलने का नाम नहीं ले रहा. परसों वे घर में फ़िसले और उनकी कूल्हे की हड्डी टूट गई. मैंने कई मित्र डॉक्टरों को फ़ोन किया. कोई बोला एक्स रे कराने ले आओ, कोई बोला ऑपरेशन होगा, कोई बोला शुगर तो नहीं है ...

एम्बुलैन्स बुलाई गई. अभी मैं प्राइवेट वार्ड में बैठा हूं. खून की रिपोर्ट आ गई है. कुछ और टेस्ट्स की रपटों का इन्तज़ार है. सब ठीक रहा तो शनिवार को टाइटेनियम की प्लेट फ़िट कर के ह्ड्डी को दुरुस्त किए जाने का ऑपरेशन होगा. पिताजी सुबह उठते ही एक एन्टासिड खा रहे हैं और रात को सोने से पहले ०.५ एम जी की नींद की गोली.

मैं अमीर नहीं हूं. न मेरे घर का ड्राइंग रूम उतना बड़ा है. लेकिन मुझे एक फ़ैमिली डॉक्टर की सख़्त ज़रूरत है, जिसकी बताई दवा बरेली-दिल्ली से न मंगानी पड़े. और जो हंसता हो.

ऊपर की पंक्ति को विज्ञापन भी समझा जा सकता है.

Wednesday, November 19, 2008

पिया तो मानत नाहीं



कुछ नहीं
कुछ भी नहीं कहना है
बस्स....
सुनना है !
सुनना है !!
सुनना है !!!
इस आवाज के
महीन , मद्धम ,मादक रेशे से
खास अपने निज के एकान्त के वास्ते
सदियों से सँभाल कर सहेजे गए करघे पर
एक अदॄश्य चादर बुनना है !


कुछ नहीं
कुछ भी नहीं कहना है !!!





Tuesday, November 18, 2008

चड्डी पहन के फूल खिला है

अगर आपके अपने बच्चे या पास-पड़ोस, रिश्तेदार-मित्रों के बच्चे कार्टून नैटवर्क से ग्रस्त हैं और उनकी भाषा हर दिन आपके लिए अजनबी और खीझभरी होती जा रही है तो समय है आप उनके वास्ते कहीं से भी 'जंगल बुक' की व्यवस्था करें. इसके वीडियो बाज़ार में थोड़ी बहुत मशक्कत से खोजे जा सकते हैं.

जापानी टीवी द्वारा रूडयार्ड किपलिंग की अमर रचना के एनीमेशन को १९८९ में दूरदर्शन ने हिन्दी में ब्रॉडकास्ट किया था. विशाल भारद्वाज ने संगीत रचना की थी और गुलज़ार ने थीम सॉन्ग लिखा था. शेर ख़ान की आवाज़ में नाना पाटेकर ने ज़बरदस्त अविस्मरणीय डबिंग की थी.

आपके लिए प्रस्तुत है इस सीरियल की थीम का वीडियो:



थीम का ऑडियो यह रहा:



ऑडियो का डाउनलोड लिंक है: http://www.divshare.com/download/5848659-10e

हो सके तो बच्चों को ज़रूर दिखाइए एक एपिसोड का यह हिस्सा जिसमें शेर ख़ान और मोगली आमने सामने हैं:



यूट्यूब पर हिस्सों-हिस्सों में इसे तकरीबन पूरा का पूरा पाया जा सकता है.

आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आए


उन्नीस सौ अस्सी का साल था. मेरी उम्र थी कुल चौदह बरस और हॉस्टल में सीनियर्स की डॉर्मेट्री में रखे और उन्हीं के अधिकारक्षेत्र में आने वाले रेकॉर्ड प्लेयर पर बहुत ही मुलायम आवाज़ में लगातार एक गीत बजा करने लगा था. इस डॉर्मेट्री से कभी तो बोनी एम या फ़ंकी टाउन जैसे गीतों की आवाज़ आया करती थी या सदाबहार मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार, पर इधर "आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आए" ने बाक़ी सारे संगीत को हाशिये में डाल दिया था.

लन्दन में रहने वाले संगीत निर्देशक बिद्दू ने यह गीत जब रेकॉर्ड किया था, नाज़िया हसन पन्द्रह साल की थीं. बाद में यह फ़ीरोज़ ख़ान की फ़िल्म 'क़ुर्बानी' के सुपरहिट होने की वजह बना. लता-किशोर-रफ़ी-मुकेश के एकाधिकार में जैसे अचानक इस किशोरी ने सेंध लगाई और समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के पॉप संगीत परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया.

इस गीत की सफलता से उत्साहित होकर बिद्दू ने नाज़िया के भाई ज़ोहेब हसन के साथ 'डिस्को दीवाने' अल्बम निकाला. इस अल्बम ने तो नाज़िया हसन को रातोंरात बहुत बड़ा स्टार बना दिया. भारत-पाकिस्तान में तो इस रेकॉर्ड की ज़बरदस्त बिक्री हुई ही, लैटिन अमरीकी देशो ख़ास तौर पर ब्राज़ील में यह अल्बम पहले नम्बर तक भी पहुंचा. डेविड सोल से लेकर ज़िया मोहिउद्दीन जैसे लोगों ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए ज़ोहेब-नाज़िया के इन्टरव्यू लिये.

भारत में बिनाका गीतमाला में चौदह हफ़्ते टॉप पर रहने के बाद "आप जैसा कोई" अन्ततः चौथे नम्बर पर रहा.

नाज़िया अगले कई सालों तक संगीत की दुनिया के अलावा ग़रीब बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में लम्बे समय काम करती रहीं अलबत्ता इस बारे में बहुत ज़्यादा सूचनाएं हमारे यहां नहीं पहुंचीं. पाकिस्तान में रहते हुए नाज़िया हसन ने राजस्थान के ग़रीब बच्चों के लिए धन जुटाने में मशक्कत की. संगीत नाज़िया का शौक भर था. लोकप्रियता के क्षेत्र में झण्डा गाड़ चुकने के बाद उसने इंग्लैंड से कानून की पढ़ाई समाप्त की और संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए काम किया.

३० मार्च १९९५ को नाज़िया का विवाह मिर्ज़ा इश्तियाक़ बेग से हुआ. यह एक त्रासकारी संबंध था और ३ अगस्त २००० को कानूनी तौर पर घोषित तलाक के साथ समाप्त हुआ. दस दिन बाद यानी १३ अगस्त को फेफड़े के कैंसर के कारण उसकी मृत्यु हो गई.

पति और बच्चे के साथ

हो सकता है संगीत के मर्मज्ञ इसे बचकाना कहें पर मेरा ठोस यक़ीन है कि नाज़िया हसन के बाद भारतीय फ़िल्म और पॉप संगीत का चेहरा पूरी तरह बदल गया था. आज के लोकप्रिय संगीत की सतह को ध्यान से खुरचा जाए को आप पाएंगे कि नाक से गाने वाली इस सुन्दर, दुबली-पतली किशोरी ने साल - दो साल में जो कुछ किया उसने आने वाले समय में अलीशा चिनॉय, लकी अली, इंडियन ओशन जैसे अनगिन नामों के लिए मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी. प्रस्तुत है नाज़िया हसन का गाया वही विख्यात गीत:

Monday, November 17, 2008

गुलज़ार की नज़्म लैण्डस्केप और मेरी पेंटिंग



लैण्डस्केप


गुलज़ार
दूर सुनसान से साहिल के क़रीब
इक जवां पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए, वक़्त का मटियाला दुशाला अोढ़े
बूढ़ा - सा पॉम का इक पेड़ खड़ा है कब से
सैकड़ों सालों की तन्हाई के बाद
झुकके कहता है जवां पेड़ से ः 'यार
सर्द सन्नाटा है तन्हाई है,
कुछ बात करो'

नया ज़माना, नए सुबह-ओ-शाम पैदा कर



नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब से सुनिये यह क़व्वाली:

अघिल सीटा चान-चकोरा, पिछाड़ सीटा जोशि



पंत-मटियानी स्मृति समारोह में भाग लेने जाते हुए गाड़ी में श्री वीरेन डंगवाल के अलावा लखनऊ से पधारे श्री नवीन जोशी भी थे. जोशी जी बड़े पत्रकार हैं. दैनिक 'हिन्दुस्तान' के लखनऊ संस्करण के सम्पादक और 'दावानल' नामक चर्चित उपन्यास के लेखक भी. पहले अल्मोड़ा पहुंचे वहां से कोसी. कोसी में कुछ देर रुकने के बाद कत्यूर-बोरारौ घाटी में प्रवेश करते ही जैसे उनके भीतर सारा बचपन जाग गया - उन्होंने बहुत संघर्षपूर्ण जीवन बिताया है. छः साल की आयु में बागेश्वर जैसे बीहड़ नगर से लखनऊ की पहली यात्रा के बाद की तमाम कहानियां उन्हें याद हैं.

कुमाऊं की ऐतिहासिक और अति उर्वर बोरारौ घाटी की सांस्कृतिक सम्पन्नता भी निर्विवाद रही है. भारत की आज़ादी के समर में कुमाऊं की तरफ़ से पहली हलचलें इसी घाटी में हुईं. सोमेश्वर, गरुड़, मनान और बागेश्वर इस घाटी की प्रमुख बसासतें हैं. और बागेश्वर तो अब ज़िला बन चुका है

सीधा-सादा जीवन बिताने वाले पर्वतीय जनों की बीते ज़माने की कहानियां याद करते हुए नवीन जोशी जी को एक क़िस्सा याद आया. धान की रोपाई के दिनों में बहुत देर रात तक लोगों को खेतों में काम करना पड़ता था. कुमाऊं में इस अवसर पर अभी हाल ही के सालों तक खेतों में बाकायदा लाइव-संगीत की व्यवस्था हुआ करती थी. हुड़के की धमक पर लोकगायक पुरानी लोकगाथाएं सुनाया करते थे. लोकगायन की इस परम्परा को 'हुड़किया बौल' कहा जाता है.

कभी कभार आधी रात तक चलने वाले इन धान-रोपाई कार्यक्रमों का अन्त आते न आते अपरिहार्य रूप से एकाध सद्यःप्रस्फुटित प्रेमप्रकरण लोगों की ज़ुबान पर आ ही जाया करते थे. बाद में उत्तरायणी के अवसर पर बागेश्वर में लगने वाले मेले में इन कथाओं को गीतों का विषय बनाया जाता था.

इसी क्रम में कभी किन्हीं जोशी जी को, जो संभवतः बाहर से आये कोई शिक्षक या कर्मचारी रहे होंगे, किसी स्थानीय कन्या से प्रीत हुई तो निम्न पंक्तियों का सृजन हुआ. ज़रा देखिये इस में कितनी सफ़ाई से सम्बन्धित कन्या की पहचान छिपाते हुए एक निश्छल किस्म की चुहल की गई है.

गरुड़ा बटि चलि मोटरा, रुकि मोटरा कोशि
अघिल सीटा चान-चकोरा, पिछाड़ सीटा जोशि


(अर्थात गरूड़ नामक स्थान से एक मोटर चली. यह मोटर आगे कोसी पहुंचकर रुकी. सुधीजनो! अगली सीट पर एक चांद-चकोरा था, जबकि पिछली सीट पर विराजमान थे कोई जोशी जी.)

* इसमें फ़ुटनोट के तौर पर मैं जोड़ना चाहूंगा कि इस छन्द को सुनने के बाद वीरेन डंगवाल साहब ने अपने मौला अन्दाज़ में नवीन जोशी जी से तस्दीक की कि उक्त कविता के नायक किंवा खलनायक कहीं वे ही तो नहीं थे.

Saturday, November 15, 2008

नायक की पैदाइश के घर में

विस्वावा शिम्बोर्स्का में एक तटस्थ दार्शनिक की क्रूर निगाह है जो बहुत ही आम दिख रहे दृश्यों, अनुभवों को न सिर्फ़ बारीकी से उधेड़ती है, मानव जीवन की क्षुद्रता और महानता दोनों को एक ही आंख से देख-परख पाने का माद्दा भी रखती है. इस महान पोलिश कवयित्री की कुछेक कविताएं आप इस ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं आज प्रस्तुत है उनकी कविता 'पीएता'.(पीएता: ईसामसीह की मृत देह पर विलाप करती वर्जिन मैरी का प्रतिनिधित्व करती एक स्त्री को दी जाने वाली उपमा)

पीएता


नायक की पैदाइश के घर में आप
स्मारक पर निगाहें गड़ा सकते हैं, उसके आकार पर हैरत कर सकते हैं
खाली संग्रहाल की सीढ़ियों से भगा सकते हैं दो मुर्गियों को
उसकी माता का पता पूछ सकते हैं
खटखटा सकते हैं, धक्का देकर खोल सकते हैं चरमराते दरवाज़ों को
आप सीधे खड़े हैं आदर में, उसके बाल कढ़े हुए हैं और उसकी निगाह स्पष्ट
आप उसे बता सकते हैं कि आप बस अभी अभी पोलैण्ड से आए हैं
आप उसे नमस्ते कह सकते हैं. अपने सवाल साफ़ और ऊंची आवाज़ में पूछें

हां, वह उसको बहुत प्यार करती थी. हां जी वह इसी तरह पैदा हुआ था.
हां, वह जेल की दीवार से लगकर खड़ी थी उस दिन
हां उसने सुनी गोलियां चलने की आवाज़
आपको अफ़सोस हो रहा है आप कैमरा नहीं लाए
और टेपरिकॉर्डर. हां वह इसी तरह की चीज़ें देख चुकी है.
उसके आख़िरी पत्र को उसी ने सुनाया था रेडियो पर
एक बार तो उसने उसकी प्रिय लोरियां भी गाई थी टीवी पर
और एक बार एक फ़िल्म में भी काम किया
चमकीली रोशनियों के कारण उसकी आंखों में आंसू आ गए थे. हां, स्मृतियां
अब भी उसे विह्वल बना देती हैं. हां, अब वह थोड़ा थक गई है ...
हां यह क्षण भी बीत ही जाएगा.
आप खड़े हो सकते हैं. उसे शुक्रिया कह सकते हैं
विदा कह सकते हैं
हॉल में आ रहे नवागंतुकों की बग़ल से हो कर बाहर जा सकते हैं

Thursday, November 13, 2008

कौसानी में सुमित्रानन्दन पन्त और शैलेश मटियानी की याद में साहित्यिकों का जमावड़ा






१४, १५ और १६ नवम्बर २००८ को सुमित्रानन्दन पन्त की जन्मस्थली कौसानी (बागेश्वर, उत्तराखण्ड) में पन्त जी और महान उपन्यासकार-कहानीकार-विचारक शैलेश मटियानी जी की स्मॄति में एक बड़ा आयोजन किया जा रहा है. महादेवी वर्मा सृजन पीठ, कुमाऊं विश्वविद्यालय द्वारा संस्कृति विभाग, उत्तराखण्ड के सहयोग से आयोजित किये जा रहे इस कार्यक्रम में प्रोफ़ेसर दूधनाथ सिंह का बीज व्याख्यान होना है. इसके उपरान्त 'हिन्दीतर प्रान्तों में हिन्दी साहित्य और उत्तराखण्ड' विषय पर चर्चा में प्रो. ए. अरविन्दाक्षन (मलयालम), प्रो. एम. शेषन (तमिल), प्रो. मणिक्वंबा तथा प्रो. एस. लीलावती (तेलुगू), प्रो. रंजना अरगड़े तथा डॉ. नयना डेलीवाला(मराठी, गुजराती), प्रो. सुमंगला मुम्मिगट्टी (कन्नड़). डॉ. शशिबाला महापात्र व डॉ. दासरथी भुइयां (उड़िया) और प्रो.प्रणव बन्दोपाध्याय (बांग्ला) हिस्सा लेंगे.

लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल, नीलाभ, वीरेन डंगवाल, सुन्दर चन्द ठाकुर, हेमन्त कुकरेती, हरिश्चन्द्र पांडे, सिद्धेश्वर सिंह और शिरीष मौर्य का काव्यपाठ है.

पंकज बिष्ट, देवेन्द्र मेवाड़ी, प्रदीप पन्त और तमाम अन्य कवि-लेखक साहित्यकार शिरकत कर रहे हैं, स्थानीय विद्वानों की भी बड़ई संख्या में उपस्थिति रहेगी. ... दर असल इतने सारे नाम हैं कि यहां लिखना संभव तो है, पर जायदे हो जाएगा.

कार्यक्रम का एक अनूठा भाग गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी और शौका कविता के सरोकारों पर केन्द्रित रहेगा.

इस पूरे आयोजन के मुखिया हैं प्रसिद्ध कहानीकार और हमारे गुरुजी श्री बटरोही जी.

न्यौते का काग़ज़ देख कर तो लग रहा है कि १६ नवम्बर २००८ की शाम तक हमारी हिन्दी भतेरी आगे तक पहुंच जाएगी.

कौसानी से रिपोर्टिंग जारी रहे, ऐसा प्रयास करता हूं.

मटियानी जी को नमन!

भीमसेन जोशी और कम्यूनिस्ट भाषा का सपना



शहर हल्द्वानी में रहने वाले विपिन बिहारी शुक्ला मेरे अच्छे मित्रों में हैं. वे मेरे सबसे अच्छे कम्यूनिस्ट मित्र हैं. उनके भीतर एक ऐसा गुण है जो नए-पुराने वामपंथियों में दुर्लभतम है - उनसे बहुत सामान्य विषयों पर बढ़िया वार्तालाप हो सकता है. आमतौर पर ख़लीफ़ा की सीट पर विराजमान, चे और मार्क्स से नीचे न उतरने पर आमादा, खग्गाड़ कम्यूनिस्ट महापुरोधाओं की संगत में मैं भीषण चटा हूं - साहब लोग सुनते ही नहीं.

आज बहुत दिनों बाद मेलबॉक्स खोला तो विपिन भाई का मेल था. मेल में उनकी नई आई डी की सूचना थी और एक छोटा सा अटैचमैन्ट.

जस का तस आप के लिए लगाए दे रहा हूं:


आज मैंने भीमसेन जोशी पर मंगलेश डबराल का एक लेख पढा। मैंने उन्हें सुना तो है लेकिन वैसे ही जैसे कि कोई शास्त्रीय संगीत सुनता है, मुग्ध होता है और दूसरे कामों में लग जाता है। मैं उनके संगीत के बारे में कोई विश्लेषण खुद नहीं कर सकता।

मंगलेश जी ने उनके बारे में सुन्दर तरीके से लिखा है और मेरे सामने उनकी बातें मोटे तौर पर न मानने का कोई कारण नहीं है। उन्होंने जोशी जी के संगीत के बारे में लिखा है कि उसमें एक साथ विनम्रता और स्वाभिमान मौजूद है। और खुद जोशी जी के शब्दों में वे दुनिया के सबसे बडे चोर हैं। दूसरे कलाकारों से उन्होंने इतना कुछ लिया है। लेकिन खास बात यह है कि सुनने वाले नहीं बल्कि खुद वे ही बता सकते हैं कि उन्होंने दूसरों से क्या और कहां लिया है।

देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े मुझे भी कुछ समय हो गया है। भीड़ भाड़ में एक कार्यकर्ता के बतौर तो कभी एकांत और कभी त्रासद अकेलेपन के माहौल के बीच। लेकिन मेरी हमेशा एक ख्वाहिश रही है। कम्युनिस्टों के विचारों को उस रूप में सुनने की जहां एक साथ स्वाभिमान और विनम्रता मौजूद हों। जहां सारे मार्क्सवादियो से लिया गया हो लेकिन यह बात सुनने वाले से ज्यादा सुनाने वाले को पता हो। जहां वह मुग्ध करे और उसका आकर्षण सुनने वालों को आग़ोश में ले लेता हो।

हमारे दौर में कम्युनिस्ट प्रचार और विचारों में मुझे यह सब न देखकर दुख होता है। लेकिन मैं नौजवान कम्युनिस्टों को जब भी देखता हूं तो मेरी आशा जोर मारने लगती है। मै उनकी आंखों से अपना यह सपना देखने की कोशिश करने लगता हूं।

(यह लेख अमर उजाला में कल आया था. और हां, राजेश जोशी वाली पोस्ट में 'सेलिंग बाई' लगा दिया है.)

Wednesday, November 12, 2008

विश्व-कविताएं पीयूष के ज़रिये

हिन्दी में विश्व-साहित्य को लाने की जितनी तात्कालिक ज़रूरत है, शायद उतनी किसी और चीज़ की नहीं। पिछले शनिवार जब श्रीराम सेंटर, दिल्ली की बुक शाप में किताबें खंगाल रहा था तो बहुत सारी अनुवादित कृतियां मिलीं। वहां जाने का उद्देश्य ही अनुवादित कृतियां उठाना था। यह सिलसिला शुरु हुआ था पीयूष दईया जी की एक मेल से। अनुनाद पर हेरमान हेस्से के अनुवाद पोस्ट किये थे, उनपर पीयूष दईया की मेल शिरिष भाई ने मुझे प्रेषित की। तत्काल पीयूष जी को मेरी ओर से एक मेल गई और हेरमान हेस्से और कविता से आगे बढ़ते हुए बातें परिचय तक पहुँचीं। पीयूष भाई को विश्व-साहित्य में गहरी रुचि है और वे मंजे हुए अनुवादक भी हैं। उन्होनें मेरे आग्रह पर कुछ अनुवाद भेजे थे जिनमें से कुछ मैं यहां दे रहा हूँ। पीयूष भाई को अनेकानेक धन्यवाद और ऐसे उत्कृष्ट काम के लिये हज़ारों सेल्यूट।

आत्म-खोज

मंदिर के पास घास का गठ्ठर बना रही थी वह
केंकड़ों और जल-झींगी को पकड़ती
तब, सिर अपनी जपमालाओं पर झुकाय उसने
ऊपर देखा, झलक मिली उसे
उसकी झुकी हुई भीगी देह की।

हो! वाह! सन्न-शून्य रह गया उसका पावन मन।
प्रार्थना बन गयी एक हकलाते अगड़म-बगड़म में
और उसके पवित्र धर्मग्रंथ डूब गये,
छितरा गये हवाओं पर, नष्ट होने
दलदली कमल-कुंड में।

मालाएं एक-झूलना/लटकना, चीवर एक-फड़फड़ाना,
आते-जाते और उस ओर वह मंडराता फिरा
उस लड़की को पाने लेकिन नहीं जानते हुए तो भी
कि उसका पता लग गया अगर तो क्या करेगा।

क्या मज़ाक! क्या हंसाई है! देखना एक स्कॉलर को
मूढ़मति एक विक्षोभ में
झुके हुए नितंबों की एक झलक चलते
और छोरी का एक कद-बुत अवलोकने भर से;
घबराया हुआ कहां उसका सबसे सिरफिरा नौसिखिया
जानता है मार्ग और इस पर चलता है।

अज्ञात जापानी कवि, चौदहवीं शताब्दी

लोरी

मधुमक्खी जो बनाती है शहद प्यार करती है फूलों को
मछली जो तैरती है प्यार करती है पानी को
पंछी जो गाता है प्यार करता है आकाश को
इंसान जो जीना चाहता है, हे मेरे बच्चे,
उसे ज़रूर करना चाहिये अपने साथी लोगों और अपने भाइयों से प्यार

एक तारा आकाश को जगमग नहीं कर सकता
एक ढेरी पके चावल पूरी फसल नहीं बना सकते
एक आदमी हर हाल में दुनिया नहीं है
एक बुझते अंगार से ज़्यादा नहीं

पहाड़ पृथ्वी पर बना है
अगर यह धरती की दीनता को ठुकरा दे, कहां बैठेगा यह?
गहरा समुद्र पी जाता है हर नदी-सोता
अगर यह ठुकरा दे छोटे नदी-सोतो को, वहां पानी नहीं बचेगा

बूढा बांस प्यार करता है कोंपल को
कोमलता से दिनोंदिन
जब तुम सयाने हो बड़े ज़्यादा पिता से
तुम लोगे गोल धरती अपनी बाहों में

तो हू, वियतनामी कवि, 1920-

Sunday, November 9, 2008

वो सर्द शामें और वो तन्हा धुन !

लंदन में सर्दी दस्तक देने लगी है. कई बार जाड़ों की ठिठुरती रातों में मफ़लर से मुँह कान ढँके, ठिठुरते हुए देर से घर लौटना और फिर घर के अंदर सेंट्रल हीटिंग की गर्माहट को महसूस करते हुए बिस्तर पर निढाल गिर जाना अच्छा लगता है. ऐसे में मुझे मालूम होता है कि आधी रात के वक़्त बीबीसी रेडियो फ़ोर पर सेलिंग बाइ की धुन सुनाई पड़ेगी. हाथ बढ़ा कर रेडियो खोलता हूँ.

पता नहीं कितने बरसों से रात के ठीक पौन बजे रेडियो फ़ोर के किसी अनुभवी और ठहरे हुए उदघोषक की गुरु-गंभीर आवाज़ बताती है कि शिपिंग फ़ोरकास्ट का प्रसारण होने वाला है लेकिन उससे पहले रॉनल्ड बिंज की कंपोज़ की गई धुन सेलिंग बाई.

सेलिंग बाई की इस धुन को मैं कई बार आँखें बंद करके सुनता हूँ. महसूस होता है जैसे आप किसी पाल वाली नाव में बैठे हों. दूर कहीं आकाश में चाँद चमकता सा दिखता है. समुद्र और आसमान का गहरा नीला रंग सियाह सा पड़ता हुआ लगता है और आप नहीं जानते कि हिलोरें लेते हुए अगाध समुद्र में वो दिशाहारा नाव पता नहीं आपको कहाँ ले जाएगी. आप आँखें बंद किए निश्चेष्ट पड़े रहते हैं.

जब शिपिंग फ़ोरकास्ट शुरू होता है तो तंद्रा टूटती है और आप को हठात याद आता है कि आप जिस मुल्क में रहते हैं वो दरअसर एक टापू है जिसके चारों ओर फैले विशाल समंदर में अँधेरे की छाती चीरते जहाज़ अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते जाते हैं और बिगड़ैल हवाओं का रुख़ भाँपने के लिए उन जहाज़ों के मल्लाह इसी शिपिंग फ़ोरकास्ट को सुनते हैं.

रेडियो सुनना एक तरह से इस मुल्क की संस्कृति का हिस्सा है. टेलीविज़न की अपनी जगह है और अख़बार पढ़ने वाले अपनी जगह. लेकिन मकान बनाने वाले मिस्त्री, पाइप और नल ठीक करने वाले प्लंबर एक रेडियो हमेशा अपने साथ रखते हैं और काम करते हुए अपने पसंद के प्रसारण सुनते हैं. पारंपरिक अँगरेज़ घरों में रेडियो रसोई घर में रखा रहता है जहाँ वो खाना बनाने वाले को बाहरी दुनिया से जोड़े रखता है.

रेडियो यहाँ सिर्फ़ गाना सुनने या पहेलियाँ हल करने वाले प्रोग्राम सुनने का ज़रिया ही नहीं है. राजनीति, समाज, इतिहास और साहित्य की गंभीर बहसें रेडियो पर होती हैं और लोग उनमें हिस्सा लेते हैं, अपनी राय और अपना ग़ुस्सा रेडियो पर ज़ाहिर करते हैं. पेंशन पाने वाले रिटायर्ड लोग परेशान है कि जाड़े कैसे कटेंगे क्योंकि बिजली और गैस के बिल सुरसा के मुँह की तरह फैलते जा रहे हैं. पर आमदनी उस अनुपात में नहीं बढ़ रही. आर्थिक संकट के जिस दौर से पश्चिमी देश इन दिनों गुज़र रहे हैं उसकी डरावनी झलक रेडियो में मिलती है.

इस समाज में अभी हाल तक बाज़ार ही सबका मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारा और गिरजाघर बन गया था, जहाँ सिर्फ़ एक मंत्र सुनाई पड़ता था कि ख़रीदो-ख़रीदो, ज़रूरत न भी हो फिर भी ख़रीदो. एक ख़रीदो- दो मुफ़्त ले जाओ. जेब में पैसा नहीं है तो उधार ले जाओ. मकान नहीं है तो बैंक कर्ज़ देगा, कार नहीं है तो बैंक कर्ज़ देगा. जितना चाहिए उतना मिलेगा.

लेकिन अब सरकार और सरकार के मंत्री कहते हैं कि ये नीति ही ग़लत है. पत्रिकाओं में लेख छप रहे हैं जिसमें महिलाओं से कहा जा रहा है कि उतने की कपड़े ख़रीदें, जितनी ज़रूरत हो. दूसरों को क़र्ज़ देने वाले बैंक अब ख़ुद मोहताज़ हो रहे हैं. जिस तरह अमरीका से लेकर ब्रिटेन तक की सरकारें अपने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर रही हैं उसे देखकर सिर्फ़ सत्तर के दशक के उन दिनों को याद किया जा सकता है जब भारत में इंदिरा गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था और सबने मान लिया कि भारत भी समाजवादी देशों की श्रेणी में आ गया है.

अर्थशास्त्री और विश्लेषक 1930 के दशक को याद कर रहे हैं – जिसे तीसा की महान मंदी भी कहा जाता है. कहते हैं उस ज़माने में करेंसी नोट बेकार हो गए थे. उनकी कोई क़ीमत ही नहीं बची थी. जर्मनी में लोग जाड़ों में पानी गरम करने के लिए नोटों के बंडल के बंडल जलाने लगे थे क्योंकि उतने पैसों से आग जलाने के लिए ईंधन तक नहीं ख़रीदा जा सकता था.

कितनी दिसचस्प बात है कि अब खुले बाज़ार और पूँजीवादी अमरीका के आम लोग कार्ल मार्क्स को याद करने लगे हैं. वो कहते हैं कि कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में कहा था कि एक दौर आता है जब पूँजीवाद पूरी तरह विकसित होकर समाजवाद में बदल जाता है. अमरीका में यही हो रहा है – ये समाजवाद ही तो है.

खुले बाज़ार, चमकते-दमकते मॉल्स, बड़ी बड़ी महँगी कारों और आलीशान बंगलों का इंद्रधनुषी सपना आज इतना बदरंग, इतना भूरा-सलेटी सा क्यों दिख रहा है? खुले बाज़ार के पुजारी आज अपने ही देवताओं पर फूल की जगह पत्थर क्यों बरसाने लगे हैं? आज फिर से बाज़ार के पंडितों को राज्य और राज्य के नियम क़ानूनों क्यों याद आ रहे हैं? ऐसा लगता है कि इन सवालों का पूरा जवाब किसी के पास नहीं है.

हो सकता है कि जिसे विश्लेषक पूँजीवाद का संकट बता रहे हों, वो कुछ महीनों में एक बुरे सपने की तरह भुला दिया जाए. लेकिन फ़िलहाल तो लंदन की सड़कों के किनारे कतार से खड़े चिनार के पेड़ पतझड़ की आशंका से घिरे हुए हैं. कुछ ही दिन में उनके पत्ते पीले पड़ेंगे और फिर टूट टूट कर गिरने लगेंगे. कुछ ही दिनों में लोग अपने गरम कपड़े निकाल लेंगे – दस्ताने, ओवरकोट, ऊनी टोपियाँ और मफ़लर.

कहते हैं कि इस बार ब्रिटेन की सर्दियाँ ज़्यादा कष्टकारी हो सकती हैं. और ऐसी कष्टकारी सर्दियों में रात गए घर लौटने पर सेलिंग बाइ की धुन कुछ तो सुकून पहुँचाएगी.

(सेलिंग बाइ की धुन इस पोस्ट पर लगाने की ज़िम्मेदारी अशोक पांडे की.)

चलो कि मंजिल दूर नहीं ..



अभी कुछ ही दिन हुए जब 'कबाड़खाना' पर एक समूहगान 'जागो रे , जागो रे , जागो रे ' प्रस्तुत किया था जो कि नैनीताल की प्रतिष्ठित नाट्यसंस्था 'युगमंच' और 'जसम' द्वारा जारी कैसेट 'कदम मिला के चल' से लिया गया था. इस कैसेट के साथ ही 'जसम' नैनीताल ने उत्तराखंड आन्दोलन से उपजी कविताओं की एक पुस्तिका 'चलो मंजिल दूर नहीं' भी जारी की थी. आज उत्तराखंड राज्य गठन की आठवीं वर्षगाँठ के अवसर पर इस कैसेट और इस कविता पुस्तिका को याद करना तमाम संगी - साथियों को स्मॄति के गलियारे में विचरण का एक अवसर जरूर देगा और संगीत प्रेमियों को यह गान भला लगेगा ऐसी उम्मीद तो है ही. तो आइये सुनते हैं यह समूहगान -

चलो कि मंजिल दूर नहीं , चलो कि मंजिल दूर नहीं
आगे बढ़कर पीछे हटना वीरों का दस्तूर नहीं
चलो कि मंजिल दूर नहीं ...

चिड़ियों की चूं -चूं को देखो जीवन संगीत सुनाती
कलकल करती नदिया धारा चलने का अंदाज बताती
जिस्म तरोताजा हैं अपने कोई थकन से चूर नहीं
चलो कि मंजिल दूर नहीं ..

बनते - बनते बात बनेगी बूंद - बूंद सागर होगा
रोटी कपड़ा सब पायेंगे सबका सुंदर घर होगा
आशाओं का जख्मी चेहरा इतना भी बेनूर नहीं
चलो कि मंजिल दूर नहीं....

हक मांगेंगे लड़ कर लेंगे मिल जाएगा उत्तराखंड
पहले यह भी सोचना होगा कैसा होगा उत्तराखंड
हर सीने में आग दबी है चेहरा भी मजबूर नहीं
चलो कि मंजिल दूर नहीं ..

पथरीली राहें हैं साथी संभल - संभल चलना होगा
काली रात ढलेगी एक दिन सूरज को उगना होगा
राहें कहती हैं राही से आ जा मंजिल दूर नहीं
चलो कि मंजिल दूर नहीं .. चलो कि मंजिल दूर नहीं




शब्द - बल्ली सिंह चीमा
संगीत रचना - विजय कॄष्ण
कोरस - जगमोहन 'मंटू' , मॄदुला , संजय भारती , डिम्पल ,मंजूर , सुषमा ,मोहन , रीता , गोपाल , शैलजा , तनवीर, माधव , सुभाष , अनिल , सुनीता , विभास , दिनेश , त्रिभुवन एवं ज़हूर.
संगीत सहयोग - संतोष (तबला) , रवि (नाल) , प्रमोद (गिटार) ,अजय (तबला)

Saturday, November 8, 2008

हरेराम नेमा 'समीप ' की कविता-भर जमीन

आप हरेराम नेमा 'समीप ' को नहीं जानते। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के मेख गाँव के हरेराम चर्चित सीरियल नक्षत्रस्वामी की पटकथा और गीत लिखा है। फिलहाल तीनमूर्ति भवन स्थित जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि में लेखाधिकारी हैं और फरीदाबाद में रहते है। गाँव-परिवार में विपन्नता, दमन और जिल्लत में जिए प्रारंभिक अठारह-बीस साल के दारूण अहसास और विभिन्न महानगरों में बाद के तीस-पैंतीस सालों के संघर्षपूर्ण जीवन ने उनके पूरे लेखन को संचालित किया है। कई ग़ज़ल संग्रहों, कहानी संग्रह, दोहा संग्रह सहित कई पत्रिकाओं का संपादन करने वाले हरेराम समीप की कविता संग्रह 'मैं अयोध्या...' मेरा सामने है आज।

उनकी रचनाओं के सकारात्मक या नकारात्मक पक्षों को लेकर की-बोर्ड पर बिना उंगली चलाये एक कविता 'कविता- भर जमीन ' आपके सामने पेश कर रहा हूँ ...विनीत उत्पल

कविता-भर जमीन

इस समय तुम

कविता की हिफाज़त करो

क्योंकि हर तरफ़ से

असहाय होते मनुष्य के पास

हाथ टेकने के लिए

अन्ततः रह जायेगी

बस यही

कविता-भर जमीन

कविता-भर ज़मीन

जितनी किसी टापू की

फुनगी पर

मिल जाती है गौरैया को

इत्मीनान से सुस्ताने की जगह

कविता-भर ज़मीन

जहाँ बचा रहेगा

अन्तिम समय में

आत्मरक्षा के लिए

छुपाया गया अन्तिम अस्त्र

कविता-भर जमीन

जितनी मनुष्यता के ध्वज को

फहराने के लिए ज़रूरी है

इसलिए

कविता की हिफाज़त करो

क्योंकि कविता

आत्मा की धड़कन है।

Friday, November 7, 2008

आज चंद्रकांत देवताले का जन्म दिन है


पानी की रोशनी के थरथराते पुल पर
चंद्रकांत देवताले

पुकारो मत,

बस दे दो अपनी चुप्‍पी में थोड़ी-सी जगह

और सुला लो मुझे नींद में अपनी


देखो! परिंदों की चहचहाहट से घिरा

चल रहा है स्‍मृतियों का काफ़िला

हमारे आगे-पीछे

संगम है यह प्रारंभ और अंत का

हम खड़े हैं पानी की रोशनी के

थरथराते पुल पर

पतझर के नीले पड़ते उजाले में

तुम परछाईं हों वसंत की

मैं धुंध के प्रपात में गिरती इच्‍छा की तरह

सपने में मोहलत नहीं चाहता

कानाफूसी की तरह निहारना परस्‍पर

बहुत हो चुका


अब शामिल कर लो मेरी आँखों को

अपने देखने में

सचमुच, बहुत सुंदर हो गई है यह शाम

यहीं अधूरी छोड़कर अपनी बात

सूर्यास्‍त की चिनगारियों में

हम देख लें अंतिम आतिशबाज़ी!

(पेंटिंग ः रवींद्र व्यास )



(यह कविता उपलब्ध कराने के लिए श्री सुशोभित सक्तावत के प्रति आभार)


जागो रे जागो रे जागो रे !

आज से कई साल पहले नैनीताल की प्रतिष्ठित नाट्यसंस्था 'युगमंच' और 'जसम' ने मिलकर एक कैसेट निकाली थी -'कदम मिला के चल' . इसका संगीत संयोजन विजय कॄष्ण तथा जगमोहन 'मंटू' ने किया था.यह कैसेट उत्तराखंड आंदोलन के दौरान गूँजने वाले जनगीतों को स्वरबद्ध कर तैयार की गई थी. आशुतोष और चन्द्रभूषण के लिखे परिचय आलेख को स्वर दिया था इरफ़ान ने . यह कैसेट उस दौर के हमारे कई साथियों के पास जरूर होगी.आज इस टीम से जुड़े कई साथी ब्लाग की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं. उन सभी की स्मॄति के कबाड़खाने को कुरेदने के वास्ते आज इसी अलबम से एक समूहगान प्रस्तुत है - 'जागो रे'.......

जागो रे जागो रे जागो रे !
जागो रे भइया जागो रे , जागो रे भइया जागो रे !
ओ भइया रात गई , जागो रे भइया भोर भई
जागो रे जागो रे जागो रे !

पूरब में उगती है किरनो की खेती
सोते हुओं को जो देती चुनौती
सोया सो खोया रे जागा सो पाया रे
जीता वही दांव जिसने लगाया रे !
ओ भइया रात गई , जागो रे भइया भोर भई
जागो रे जागो रे जागो रे !

जीवन की गंगा में लहरें मचलतीं
मन में उम्मीदों की झंकायें चलतीं
पाया है जिसने तन मन गंवाया रे
मेहनत से जिसने सोना उगाया रे !
ओ भैया रात गई , जागो रे भैया भोर भई
जागो रे जागो रे जागो रे !




शब्द - अज्ञात
संगीत रचना - दिनेश कॄष्ण
कोरस - जगमोहन 'मंटू' , मॄदुला , संजय भारती , डिम्पल ,मंजूर , सुषमा ,मोहन , रीता , गोपाल , शैलजा , तनवीर, माधव , सुभाष , अनिल , सुनीता , विभास , दिनेश , त्रिभुवन एवं ज़हूर.
संगीत सहयोग - संतोष (तबला) , रवि (नाल) , प्रमोद (गिटार) ,अजय (तबला)

Wednesday, November 5, 2008

पं.भीमसेन जोशी नहीं ; भारतरत्न पं.भीमसेन जोशी कहिये !


यह पहली बार हुआ है जब किसी उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य गायक को देश के सर्वोच्च अलंकरण से नवाज़ा गया है . जी हम सारे संगीतप्रेमियों के लिये ये सबसे सुरीली भोर है. अब पं.भीमसेन जोशी नहीं भारतरत्न पं.भीमसेन जोशी कहिये हुज़ूर.देश के इस शीर्षस्थ स्वर के लिये जब यह अलंकरण आया है तब वह लगभग ख़ामोश सा है.
जिस तपस्या से पंडितजी ने इस स्थान को छुआ है वह किसी करिश्मे से कम नहीं.कर्नाटक के धारवाड़ ज़िले से अपनी स्वर-यात्रा प्रारंभ करने वाली यह आवाज़ दुनिया की सबसे चमत्कारिक आवाज़ों में से एक कही जानी चाहिये. जिस समय ये अलंकरण भीमसेन जी को मिला है तब वे घोर शारीरिक पीड़ा से घिरे हुए हैं.मालूम नहीं भारत सरकार की इस नवाज़िश से वे कितना आनंदित हो पाएंगे. बल्कि मुझे लगता है कि पूरा जोशी परिवार इस पहल से निश्चित ही अचंभित होगा. ये दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि हमारे देश में नागरिक अलंकरण तब झोली में आते हैं जब कलाकार या क़लमकार अपनी पूरी पारी खेल चुका होता है और शारीरिक रूप से इतना चैतन्य भी नहीं रहता कि वह इन सम्मानों का सुख सुदीर्घ समय तक ले सके.

बहरहाल यह हिन्दुस्तानी क्लासिकल मूसीकी के लिये जश्न मनाने का समय है. भीमसेन जी भारतरत्न हो गए. अपनी धीर-गंभीर और पहाड़ी आवाज़ से जादुई समाँ रचने वाले इस सर्वकालिक महान गान-तपस्वी को कबाड़खाना की अनेक बधाईयाँ.

यदि आप भोर बेला में कबाड़खाना पर तशरीफ़ लाए हैं तो सुनिये राग ललित भटियार.

देश भर में चल रही तमाम विसंगतियों के बीच पं.भीमसेन जोशी को भारतरत्न से नवाज़े जाने की ख़बर लगभग बीत रहे 2008 की सबसे सुकूनभरी और सुरीली ख़बर कही जानी चाहिये.चित्र में वे इन्दौर के विश्व विख्यात शनि मंदिर में पूजा अर्चना कर रहे हैं , साथ में हैं उनकी दिवंगत जीवन सखी श्रीमती वत्सला जोशी.छाया मेरे शहर के जानेमाने फ़ोटोग्राफ़र श्री ओम तिवारी की है.

Monday, November 3, 2008

पी-एच०डी० से मुश्किल 'डिगरी' कौन -सी होती है ?



सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह ,निकाली नहर
एक ज़रा-से क़िस्से को अब देते क्यों हो तूल मियाँ.

इब्ने इंशा को बार-बार पढ़ने का मन संभवत: इसलिए करता है उनकी शायरी से खुद को आईडेंटीफाई करने में सहूलियत होती है और सुकून होता है कि लगभग हर हर्फ में अपना -सा ही क़िस्सा बयान किया गया है. इंशा जी ने 'मीर' के साथ खुद को आईडेंटीफाई करते हुए फरमाया है -

अल्लाह करे 'मीर' का जन्नत में मकाँ हो,
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयाँ की.

आज मैं बाबा मीर और इंशा जी की बात न करके उस उस कमबख़्त शै के बारे में बात करना चाहता हूँ जिसे इश्क कहते हैं. यह शब्द उर्दू शायरी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया शब्द है. मेरा खयाल तो यह है दुनिया की सभी भाषाओं में इसका समानर्थी शब्द जो भी होता है वह उस खास भाषा में सबसे अधिक प्रयुक्त हुआ होगा और आगे भी होता रहेगा. हर संदर्भ और प्रसंग में इश्क की अलग - अलग छवियाँ हैं -कुछ बेहद सादी , कुछ उलझी , कुछ गुरु - गंभीर और कुछ हलकी- फुल्की.

खेलने दें उन्हें इश्क की बाज़ी,खेलेंगे तो सीखेंगे
क़ैस की ,या फ़रहाद की ख़ातिर ,खोलें क्या स्कूल मियाँ.

आज आपको 'इश्क -स्कूल' का गाना सुनवाने का मन कर रहा है. इसे किसने लिखा है मुझे नहीं मालूम. इसमे कहा गया है कि 'इश्क -स्कूल' में पढ़ने वाले नसीबों वाले होते हैं और आशिक हर पेपर में फेल होते हैं. बाप रे ! यह गाना है कि प्रेम की पाठशाला का पाठ्यक्रम - विभाजन कि किस सबक में क्या - कैसे पढ़ाया जाएगा और प्रश्न कैसे - कितने पूछे जायेंगे. यह भी बताया गया है कि इस स्कूल में एडमिट होने की अर्हता क्या है और कौन - कौन नामचीन हस्तियाँ यहाँ की स्टूडेंट रह चुकी हैं. इब्ने इंशा साहब ने तो इस तरह के स्कूल की कल्पना भर की थी लेकिन सराइकी (सरायकी) भाषा के मशहूर गायक जनाब साजिद मुल्तानी तो बता रहे हैं कि 'इश्क - स्कूल' कबका खुल चुका है ,कई -कई बैच पासआउट कर चुके हैं और नये बैच की भर्ती के वास्ते मुनादी लगातार जारी है. आप सुन तो रहे हैं न ?

Saturday, November 1, 2008

'पहल' की यात्रा जारी रहे -जारी रहेगी

नग्मा तेरा नफ़स - नफ़स, जलवा तेरा नज़र - नजर,
फिर भी ऐ शाहिदे हयात , और जरा करीबतर .

'पहल' का पटाक्षेप ‍! पढ़ने के बाद से मन खिन्न हो गया था.

'इस महादेश के वैज्ञानिक विकास के लिए प्रस्तुत प्रगतिशील रचनाओं की अनिवार्य पुस्तक' के यों नेपथ्य में चले जाने ( माफी चाहता हूँ के 'बंद होना' मैं लिख नहीं पा रहा हूँ ) की खबर ने उदासी में मुब्तिला कर दिया था। शिरीष की पोस्ट पर आई टिप्पणियों में मेरी बात भी छिपी है. आज शाम को ज्ञानरंजन जी से फोन पर बात हुई और दिल को जरा करार आया. उनका कहना है कि कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा और दिसम्बर में इस बारे में 'फैसला' लिया जाएगा कि किस तरह 'पहल' को अनवरत -सतत रखा जाय. इस पत्रिका का एक पाठक होने के नाते मेरी नजर में यह एक अच्छी और आश्वस्तिपूर्ण सूचना है.

मित्रों, 'पहल' की यात्रा जारी रहे -जारी रहेगी !

आओ , हम सब दुआ करें ! !