Tuesday, November 30, 2010

मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं

हमारे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल के बहाने कई सवालों से मुखातिब  यह कविता मुझे बंगलौर से मृत्युंजय ने नीरज बसलियाल की पिछली पोस्ट पर बतौर टिप्पणी लगाने के वास्ते भेजी थी. कविता लम्बी ही और अच्छी. सो इसे एक पोस्ट के तौर पर लगा रहा हूँ. 

वीरेन दा के संग एकालाप  

'क्या करूँ
कि रात न हो
टी.वी. का बटन दबाता जाऊँ
देखूं खून-खराबे या नाच-गाने के रंगीन दृश्य
कि रोऊँ धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूँ
कि सोता रहूँ
जैसे दिन-दिन भर सोता हूँ
कि झगडूं अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूँ
अपने दांत से
कि टेलीफोन बजाऊँ
मगर आयं-बायं-शायं कोई बात न हो' 
तब मेरा क्या होगा वीरेन दा-  
दिन कहीं बचा है क्या वीरेन दा?
कि पूरा दिन एक विशाल चमकीली काली पट्टियों वाला विज्ञापन है
जिसमें रंगों क़ी अंधेरी सुबहें परवाज़ करती है.
कि पूरी रात एक रिमोट है
जिसके बटन दिन के हाथों में हैं.
कि पूरी कायनात एक स्क्रीन में बदल गयी है
सब कुछ आभाषी हो गया है.
कि प्रेम करने को आतुर कमीने नंगे बदन खुले रास्ते में खड़े हैं
रास्ता छेंक कर
कि रक्त की शरण्य भी आखेटकों की सैरगाह है
कि पटक देने का जी चाहता है सर
कहीं भी  
मेरा अतीत मेरा गुनाह है
मेरा वर्तमान मेरी सज़ा.
आस्था चैनल पहले बहुत आस्था देखता था मैं
फिर नहीं देखने लगा
फिर हंसी आने लगी
और अब यही हंसी गले में फंसी हुई है
धंसी हुई है
पाताल तक इतनी
कि अपनी ही हंसी अपनी ही गर्दन मरोड़ने वाली है
तोड़ने ही वाली है सारे विश्वास
आस भी और सांस भी  
मैं तो... मन करता है अपनी टाँगे धीरे धीरे रेत दूं,  काट लूं
गर्दन खींच दूं रबर की तरह
मुट्ठियों में भींच लूं सारी हड्डियाँ
बाकी लोथ पटक दूं
सारे कमरे में फ़ैल जाये आदिम रक्त गंध
कहीं तो कुछ हो  
मत बदले, बचा रहे
मत बचे, याद रहे
याद न रहे, सपने रहें
सपने जो हरदम हकीकत के अदृश्य हाथों की अवश कठपुतलियाँ हैं
और हकीकत तो वही है न वीरेन दा! 
ये हम कहाँ आ गए वीरेन दा-
कि आपके गर्म हाथों में छुपाकर अपना मुंह
रोने का मन कर रहा है
पर आंसू नश्तर की तरह चुभ रहे हैं
रोती हुई आंखे दर्द से सूख गयी हैं
दिमाग की नस तक फ़ैल गया है चिपचिपा मांस
मेरी अपनी ही पलकें चुभ रही हैं खुले घाव में
आपकी हथेली को भेद हज़ार कीड़े भिनक रहे हैं
रक्त गंध के हर ज़र्रे में उनकी नुकीली सूंड गड़ गयी है
उसी भयानक स्क्रीन पर लाईव चल रहा है यह दृश्य
पीछे से एक आकार में अंगुलियाँ उठाये एक हिंस्र पशु नगाड़ों के शोर में अपनी बारीक दाढ़ी में नफीस तराना पढ़ रहा है! 
आप सुन रहे हैं न !
देखा आपने,
आपने देखा !
देख रहे हैं न. 
चलिए उठिए वीरेन दा,
आप इतने घायल तो कभी नहीं हुए
हलक तक तक पसरे लहू में छप छप करते हम स्क्रीन पर दिख रहे हैं
देखिये नाटक नहीं है ये
टी वी चल रहा है
भागिए वीरेन दा
जल्दी करिए
कुचल नहीं सकते तो रेंग कर छुपने की कोशिश करिए प्लीज
हज़ार मेगा पिक्सल की रेंज में हैं हम !
लोग हंस रहे हैं
पापकार्न के ठोंगे और नया सिम, अभी अभी खरीदे गए हैं. 
एक नौकरी चहिये वीरेन दा, मैं तंग आ गया हूँ इस हरामपंथी से 
चुपचाप पडा रहूँ कोई आये न जाए कुछ सुनूं नहीं कुछ भी देख न सकूं महसूस करना बंद कर दूं बउरा जाऊं
सुख में नहीं दुःख में नहीं चेतना से भाग जाऊं
एक नौकरी चहिये वीरेन दा
अपने कमीनेपन क़ी बाड़ लगाकर रोक लेना चाहता हूँ सब
क्यों वीरेन दा
इस हरमजदगी के बाद भी वह मुझे प्रेम करती है
आप भी तो करते हैं
बर्दाश्त नहीं होता अब कुछ भी असली
मुझे छोड़ दीजिये
मत छूइए मुझे
हट जाईये
हटिये
मुझे एक नौकरी चहिये वीरेन दा
वहीं उस स्क्रीन के भीतर
मेरे गले तक उल्टिओं का स्वाद भर आया है
उसे पी लूंगा
मैं कमज़ोर नहीं हूँ वीरेन दा
आपने क्या समझ रक्खा है
मैं जानता हूँ ये सब नकली है
मैं अभी फोड़ डालूँगा पूरा प्रोजेक्टर
एक नौकरी दिलाईये न वीरेन दा
नहीं दिलवा सकते फिर भी दिलवाईये तो..... 
शाम को मर जाता है वक्त
वक्त क़ी लाश पर दिन और रात के गिद्ध खरोंचते है जटिल आकृतियाँ
सुबह गीला लाल रंग पसर जायेगा सब ओर
24 -7  का धंधा है यह
इतनी कठपुतलियाँ इतने वेग से इतनी तरफ घूम रही हैं
इतने धागों से बंधी हुई बड़े से देग में
यह रणनीति बनाने का वक्त है
वहीं चलिए वीरेन दा
उठिए, लहू सने होठों में खैनी दबाइए
अपनी कैरिअर वाली साईकिल निकालिए
चलिए चलते हैं कानपूर के रास्ते
जहां आपके दोस्त और मेरे गुरु हैं
जहां लोग हैं
इस स्क्रीन से बाहर निकालिए भाई
कोई प्यारा व्यारा नहीं है यहाँ
चलिए! 
अपने सलवटों भरे चहरे को संभालिये
जी कड़ा करिए
हैन्डिल थाम लीजिये कस कर
पूरे वज़न को गुटठल भरे पैरों में
उतारिये तो सही
अपनी दवा की डिबिया, चप्पलें और
चश्मा झोले में भर लीजिए

बाप रे संभालिये इतनी तेजी इस उम्र में
मैं छूट जाउंगा
गिर जाऊंगा मैं
सहस्रों फुट नीचे यहीं खो जाउंगा मैं
इन प्रिज्मों की आभाषी दुनिया में
ज़रा धीरे चलिए
हज़ारहां रपट चले घुटनों पर तो तरस खाईये
ये कोई फैसले का वक्त नहीं है
अभी तो रात बाकी है बात बाकी है
बाकी, मीर अब नहीं हैं
कोई पीर भी नहीं है 
हिंस्र पशुओं से भरा  ये अन्धेरा काफी डरावना है
अपने डर से डरिये वीरेन दा धीरे चलिए
मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं  
धीरे चल बुढऊ!
चाल बदल कर नहीं बच सकता तू ! 
माफ़ करिएगा वीरेन दा
अनाप-शनाप बक गया गुस्से में
पर जा कहाँ रहे हैं
चला तो आप ऐसे रहे हैं जैसे जल्दी ही कहीं पहुँचना है हमें
पर इसी स्क्रीन के भीतर कहाँ तक जायेंगे आप
ऐसा न करिए कि मुझे गिरा दीजिये कहीं
यह रास्ता इतिहास की तरफ तो जाता नहीं है
भविष्य की तरफ तो जाता नहीं है
वर्तमान में तो आप भाग ही रहे हैं
फिर जा कहाँ रहे हैं हम  
अचम्भा है यह तो अविश्वसनीय असंभव
हम कहीं पहुँच गए
ये क्या जगह है दोस्तों ! 
ये क्या हो रहा है
मैं अब और सह नहीं पाऊंगा
मुझे मितली आ रही है
फिर से दिन उग आया है वीरेन दा
चिड़ियों की चोंचे नर्म शबनमी रक्त में लिथड़ी हैं
पेड़ अट्टहास कर रहे हैं
बाजरे की कलगी के रोयें चुभ रहे हैं भालों की तरह हवा की अंतड़ियों में
हरियाली के थक्कों के बीच आप मुझे कहाँ ले आये हैं
सरपत की नुकीली पत्तियां खुखरियों की तरह काट रही हैं मुझे इस कछार में
इतनी रेत इतनी रेत
मेरा दम घुट रहा है
वक्त बीत रहा है वीर....ए ..

Monday, November 29, 2010

उस देश को हमारा बारम्बार नमस्कार है...

नोट : किसी को बुरा लगे तो उसके लिए मैं नहीं, मैं जिम्मेदार है|

मैं चाहता हूँ कि इस देश में सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे| साल में एक-दो दिन दंगो के लिए मुक़र्रर किया जाए| इस दिन सारे स्त्री पुरुष बिना भेदभाव खून की होली खेलें|
अगले दिन मौलाना हबीबुर्रहमान पंडित रामनाम के घर चाय पीने आयें - "कहो मियां! कल कितने लोगों का क़त्ल किया|"
पंडितजी शरमायें - "अजी, आप भी मजाक करते है| अब कहाँ रही वो जवानी की ताक़त, याद है आपके चचेरे भाई को क्या काटा था हमने|"
मौलाना जोर का ठहाका लगायें - "अजी कैसे भूल सकते हैं", अचानक घर में इधर उधर देखें और पूछे - "अरे कोमल बेटी कहीं नज़र नहीं आ रही|"
पंडित जी पंडिताइन से पूछे - "कोमल की माँ| कोमल नहीं दिखायी दे रही कल से|"
पंडिताइन रसोई से सब्जी काटने वाले चाक़ू से खून साफ़ करते हुए बोले - "भूल गए आप भी| कल जब्बार, सलीम नाई, यासिर कबाड़ी लेके नहीं गए थे उसको, बचाओ बचाओ भी तो चिल्लाई थी वो|"
काटे गए सेब बाहर लाये गए "लीजिये भाई साहब! आप खाएं|"
मियां हबीब खून सने सेब खाके वाह कहें|
"अभी थोड़ी देर में आ जाएगी वो| मैंने पुलिस और हॉस्पिटल को इन्फोर्म किया हुआ है|" पंडिताइन मुस्कुरा के पंडित जी की और प्यार छलकाती नजरों से देखती है|
"अमां, आपने बयान तो लिखा हुआ है न परजाई जी|" सरदार हरविंदर सिंह घर में बेतकल्लुफ घुसते हुए बोलें - "सिख दंगों में तो हबीब साहब ने ही मेरा बयान लिखा था| माशाल्लाह, क्या खालिस उर्दू लिखते हैं|"
पंडित जी मौलाना हबीब के क़दमों तले बिछ जाते हैं  -"ऐसा बयान लिखें मौलाना साहब कि बस थाने में हर कोई रो पड़े| वैसे भी इस देश की पुलिस बहुत इमोशनल है|"
मौलाना साहब पुराने दिनों में खो जाते हैं - "ये आजकल के लौंडों को जरा सा शऊर भी ना आया| हम जब वहीदा को उठाके ले गए थे तो उसके बाप को पूरा इकरारनामा लिख के दिया था|"
हरविंदर जी भी सेब खाते हैं- जेब से स्पेशल खून की शीशी निकालते हैं, लगाते हैं सेब पर - "ये ४७ में हमारे परदादा तारा सिंह जी ने पाकिस्तान से हैंडपंप उखाड़ के इकठ्ठा किया|"
फिर रोनी सूरत बनाते हैं -"एक हमारा घरघुस्सू निहाल सिंह है, पता नहीं क्या शान्ति , अहिंसा करता है|"
पंडिताइन के दर्द को जैसे किसी ने फिर ठेस लगा दी हो - "सही कहते हो , ऐसी ही हमारी बेटी कोमल भी है| क्या बचाओ बचाओ चिल्ला रही थी| अरे हमारे जमाने में मुझे ही पता नहीं कितनी बार उठा के ले गए, मैंने तो कभी नहीं कहा|"
मौलाना बन्द लफ़्ज़ों में कुछ बुदबुदाये - "क्या कहूँ! हमारे खानदान की नाक भी हमारी औलाद इक्लाख़ के वजह से नीची हो गयी है| न कहीं क़त्ल करता है, न किसी को करने देता है|"
पंडित जी ने इति सिद्धम किया- "नयी पीढी, पुरानी पीढ़ियों से आये संस्कार भूलती जा रही है|"

पंडित जी ने हाथ जोड़े|
मौलाना सजदे में झुक गए|
हरविंदर साहब ने सत श्री अकाल का स्मरण किया|

'हे भगवान्! इस नयी पीढ़ी को सदबुद्धि दे| इस देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बना रहे|'

Saturday, November 27, 2010

...और बन जाओ मशहूर ब्लॉगर !

  
* cartoonchurch.com से साभार.

सपनों के बारे में दो उस्तादों के बयान



कार्य उन कार्यों का सपना भी नहीं देख सकते जिन्हें सपने पूरा कर सकते हैं.

-फ़र्नान्दो पेसोआ



यह सच नहीं है कि लोग सपने देखना इस लिए छोड़ देते हैं कि वे बूढ़े हो चुके. वे सपनों का पीछा करना छोड़ देने के कारण बूढ़े होते हैं.

-गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़

Thursday, November 25, 2010

सबसे युवा कबाड़ी का स्वागत



नीरज बसलियाल सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हैं. पूना में रहते हैं. उनके ब्लॉग कांव कांव पब्लिकेशन्स लिमिटेड की कुछेक पोस्ट्स ने मेरा ध्यान खींचा था. उन्हें कबाड़ख़ाने का सदस्य बनाने की नीयत से मैंने उन्हें एक मेल लिखी और कल रात टेलीफ़ोन पर कुछ देर बात भी की. थोड़ा सा शर्मीला सा लगने वाला यह नजवान अभी फ़क़त पच्चीस साल का है. कबाड़ख़ाना अपने सबसे युवा साथी का इस्तकबाल करता है और यह उम्मीद भी कि उनके बेबाक और अनूठे गद्य का रसपान करने का हमें यहां भी मौका मिलेगा. फ़िलहाल प्रस्तुत है उनकी नवीनतम पोस्ट उन्हीं के ब्लॉग से:

नयी, पुरानी टिहरी

जमनोत्री आज सुबह से कुछ अनमनी सी थी| सर्दियों की धूप वैसे भी मन को अन्यत्र कहीं ले जाती है| इतवार का दिन सारे लोग घर पर ही थे, छत पर धूप सेंकने के लिए| जेठ जेठानी, उनके बेटे, बहुएँ भी अपनी छत पर घाम ताप रहे थे| ऐसा नहीं कि अलग छत पे हों, दोनों छत मिली हुई थी, लेकिन मनोमालिन्य ने दूरियों को एक छत से ज्यादा बढ़ा दिया था| सुधीर छुटियाँ लेकर आया था, बहू भी साथ आई थी, अमेरिका से| अमेरिका बोलने में जमनोत्री को मे पर काफी जोर डालना पड़ता था| सुधीर के पापा तो सुबह ही उठकर भजन गाने लगते हैं, अभी भी इस आदत को नहीं छोड़ा| 'बस भी करो, थोड़ा धीमे बोलो या चुपचाप सो जाओ, बच्चे सो रहे हैं|' जमनोत्री ने उलाहना दिया| सुधीर के पापा गाते रहे 'इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकलें...' हारकर जमनोत्री को उठना पड़ा|

बहू अमेरिका से साड़ी लेकर आई थी| 'नहीं मम्मी जी, इसे पहनों... देखो , आप पर कितनी अच्छी लग रही है|' जमनोत्री हतप्रभ थी- 'उस देश में साड़ी मिलती है क्या? साड़ी पहनती है तू वहां'| सुधीर नाश्ता करते हुए बोला- 'अरे माँ, इसके पास तो इतनी साड़ी हैं कि उनके लिए एक कमरा खाली करना पड़ा हमें वहां'| 'अच्छा' जमनोत्री ने बनावटी आश्चर्य प्रकट किया| 'और आप मेरी दी हुई साड़ी पहनती भी नहीं' बहू की नाराजगी जायज़ थी| 'अरे बेटा, यहाँ कहाँ पहनूं मैं अब? कभी कभी शादियों पार्टियों में पहन लेती हूँ|' जमनोत्री बचाव कर रही थी, बहू को दुःख नहीं पहुँचना चाहिए| 'क्या बात कर रही हो मम्मी जी, अरे वो तो मैंने घर पे पहनने के लिए लायी थी, आप उन्हें घर पे पहना कीजिये' बहू कहीं से भी उनका उपहास नहीं कर रही थी| यहाँ भी हारकर जमनोत्री को बहू की लायी गयी साड़ी पहनकर बैठना पड़ा|

जेठानी समझदार थी, बाहर से ही घर में चल रहा वातावरण समझ गयीं| 'अरे बहू! क्या बात है, क्यूँ डांट रही हो इसे|' जमनोत्री की जेठानी ने वातावरण को और हल्का करने की कोशिश की|'नहीं मम्मी जी, मैं मम्मी जी को कह रही थी कि....और आप भी मेरी दी हुई साड़ी नहीं पहनती|' बहू अब जेठानी से सवाल जवाब करने लगीं| 'नहीं बेटा, पहनती हूँ...' जेठानी जी भी सकपका गयीं 'मैंने अभी स्नान-ध्यान कुछ नहीं किया, उसके बाद पहनूंगी'| 'आज बहू सबकी तलाशी लेगी|' जमनोत्री को अपनी बहू पर लाड़ आ गया| कभी कभी बच्चों जैसी जिद पे उतर आती है, सुधीर की दादी तो अभी तक हमपे इतने ताने मार चुकी होती कि...खैर जमाना बदल गया है, तो हमें भी बदलना चाहिए 'अरे बहू! हम लोगों का भी क्या पहनना ओढ़ना| पूरा बचपन और जवानी जंगल में काट दी| घर से निकले मुँह-अँधेरे और जंगल गए घास-पात कभी लकड़ी लेने, खेतों में काम, बैलों को सानी, दिन भर में इतने काम होते कि किसे याद कि फैशन भी करना है| हाँ , कभी किसी की शादी-ब्याह के वक़्त देख लिया ऐना तो ठीक, नहीं तो ऐसे ही चल दिए|' बहू के मुँह से बेसाख्ता निकल गया -'हाँ तो अब थोड़े ही जंगल में हो|'


प्रतीक भी अब इस ओर नहीं आता, जाने उसकी दादी ने क्या कहा उससे कि अब सिर्फ अपनी छत पे ही खेलता रहता है| जमनोत्री ने नन्हे प्रतीक को अपनी गाडी को उलट पलटकर ठीक करते हुए देखा| पिछली छुट्टी में सुधीर लेके आया था प्रतीक के लिए, अमेरिका से| 'ए प्रतीक! इधर आ!' जमनोत्री ने पुकारा| प्रतीक ने सर उठाकर देखा, और फिर सर झुका लिया 'देख नहीं रहे, मैं अभी बिजी हूँ|' प्रतीक भी बिजी था, प्रतीक की दादी ने स्नान-ध्यान करके बहू की दी हुई साड़ी पहनी थी| इधर सुधीर के पापा धूप में चटाई बिछा के लेट गए और अखबार पढ़ने लगे| अभी थोड़ी देर में अखबार पढ़ते पढ़ते ही सो जायेंगे| सुधीर इस बीच छत पे आ गया, अपने मोबाइल पे गाने बजाने लगा| जरूर सुधीर ने बहू के साथ कुछ चुहल की होगी, तभी भागते भागते छत पे आया है| जमनोत्री का अनुमान बिलकुल सही था, बहू भी भागते भागते छत पे आई, और आँखों ही आँखों में सुधीर से गुस्सा भी थी|


रास्ते में लगे हुए पेड़ों की शाखाएं बिजली के तारों को छूने लगे थे| एक निश्चित समय अंतराल पर उनकी शाखाएं काटने के लिए बिजली विभाग किसी को भेजता था| खट-खट की आवाज आने लगी, और एक शाख काट दी गयी| शाख के गिरते ही छत की आखिरी छोरों पे खड़ी जमनोत्री और उसकी जेठानी की आँखों आखों में ही कुछ बातें हुई| फ़ौरन से दोनों उठ गयी| मंहंगी अमेरिकन साड़ी के आँचल को कमर में बाँधा, और दोनों चल पड़ी टूटी हुई शाखें उठाने के लिए| 'मम्मी जी , कहाँ जा रही हैं' बहू ने सुधीर से पूछा| सुधीर का ध्यान रास्ते पे गया, जहाँ जमनोत्री टूटी हुई डाल को कंधे पे उठा के विजयी मुद्रा में चली आ रही थी| उनके पीछे ही जेठानी भी दूसरी डाल लेकर आ रही थी| 'माँ, क्या कर रही हो उनका' सुधीर ने जिज्ञासा प्रकट की| जमनोत्री का ध्यान सुधीर की बातों पे नहीं था, जेठानी एक डाल अपनी छत पे रखके दूसरी लेने के लिए जल्दी कर रही थी| जमनोत्री ने जल्दी से डाल रखी और चली गयी| सुधीर के पापा ने धूप में लेटे लेटे एक आँख खोली| 'पिता जी! माँ ये डालें क्यों ला रही है| क्या करेगी इन लकड़ियों का?' सुधीर ने माँ की ओर दिखाकर पूछा| तभी, जमनोत्री ने कई सारी टूटी शाखों का गट्ठर बना लिया| उसे पीठ पर लादकर लाने लगी| 'पता नहीं बेटे! तभी तो मैं इसे गंवार कहता हूँ|' सुधीर के पापा हँसते हुए बोले| 'अरे सूखी लकड़ियाँ बहुत काम आती हैं|' जमनोत्री ने झुके झुके ही जवाब दिया| सुधीर के पापा ने गट्ठर को पीठ से उतार दिया| 'अरे लेकिन अब तो गैस है, और नहाने के लिए गीज़र है बाथरूम में| फिर भी?' सुधीर ने अपना तर्क प्रस्तुत किया| जिस पर जवाब देने की जमनोत्री की कोई इच्छा नहीं थी| सुधीर के पापा, जमनोत्री का ये भाव समझ गए| 'और रखोगे कहाँ? छत पे? छत खराब हो जायेगी|' सुधीर ने आखिरी तर्क प्रस्तुत किया| 'ए जमनोत्री| और भी हैं अभी वहां, रास्ते के दूसरी तरफ, जल्दी चल' छत के दूसरे छोर से जेठानी की आवाज आई|

सुधीर चुपचाप माँ को शाखें ला लाके इकट्ठी करता हुआ देखता रहा| बीच बीच में सुधीर के पापा, सुधीर की ओर देखकर सांत्वना भरे स्वर में कहते रहे 'गंवार है, कभी शहर देखा ही नहीं, तो ये हरकत तो करेगी ही|' सुधीर जानता था कि पापा की इसमें मौन सहमति है| बहू, अपनी अमेरिकन साड़ी की दुर्दशा देख रही थी| सड़क के दूसरे छोर से जमनोत्री और जेठानी खिलखिलाते हुए आ रहे थे, प्रतीक भी एक छोटी सी डाल कंधे पे लादके चला आ रहा था, उन छोटे छोटे बच्चों की तरह जो बड़ी दीदी के साथ पहली बार स्वेटा पीठ पे बाँध के घास-पात लेने जाते हैं| इधर सुधीर के मोबाइल पे गाना अभी भी बज रहा था

'अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ,
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ|'

इट्स द रमेस्ट थिंग माई आईज़ हैव एवर सीन



नई पीढ़ी की प्रयोगधर्मिता नित नए आयाम लेती जा रही है. १९ सितम्बर को टॉक लाइक अ पाइरेट डे के तौर मनाए जाने की नई रस्म चल निकली है. यानी आपको उस दिन समुद्री लुटेरों की भाषा बोलनी चाहिये. क्यों न आपको इस भाषा से थोड़ा रू-ब-रू करा दिया जाए.

Grog - किसी भी तरह की ड्रिंक को इस नाम से पुकारा जाता है. चाय से लेकर नीबूपानी तक के सारे द्रव इसमें शामिल हैं. लेकिन एक सच्चा समुद्री लुटेरा केवल रम पीता है और वह भी नीबू का रस डाल कर, क्योंकि यह संयोजन स्कर्वी से बचने का नायाब नुस्ख़ा है.

Landlubber - ज़मीन पसन्द करने वाला, यानी एक नॉन पाइरेट. ऐसा व्यक्ति जिसे समुद्र की ख़ास जानकारी न हो. इस शब्द को बड़ी गाली माना जाता है समुद्री लुटेरों में. साथी लुटेरे को कभी इस नाम से पुकारने की हिमाकत नहीं करनी चाहिये.

Parley - किसी भी तरह का बहस मुबाहिसा. आमतौर पर शत्रु-पार्टियों के दौरान कूटनीतिक वार्तालाप इस शब्द के माध्यम से परिभाषित किये जाते हैं. एक मिसाल पेश है - "Shiver me timbers! Me parents be summoned to the principal's cabin for a little parley regarding that sword fighting incident."

Yo-ho-ho - यह शब्दपद मशहूर उपन्यास ट्रेज़र आइलैण्ड से लिया गया है. इसका कोई मतलब नहीं होता पर आप इसे बारम्बार अपने वार्तालाप में प्रयोग करें तो पारखी लोग समझ जाएंगे की आप एक समुद्री लुटेरे हैं.

Rum - यह शब्द मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत भाया. यहां किसी अल्कोहॉलिक ड्रिंक की बात नहीं चल रही. शराब के लिए ऑलरेडी एक शब्द बताया जा चुका है ऊपर. इसका अर्थ हुआ अजीब या अटपटा. मिसाल के लिए - "Arr! he be a rum fellow indeed and this be the rummest thing my eyes have ever seen."

आज के लिए इतना ही.

अभी कल ही की तो बात है

हेमन्त कुकरेती कबाड़ख़ाने के लिए नए नहीं हैं. उनकी कविताओं पर एक पोस्ट यहां पहले भी लगाई जा चुकी है. आज पढ़िये उनकी एक और कविता:

कल ही की बात

वह घबराई हुई थी
मैंने उसे डरने से नहीं रोका

कुछ ही देर हुई थी
मुझे उसके साहसी होने का पता चला

मैं पड़ रहा था अकेला

वह मुझे समेट रही थी
मुझे लग रहा था मैं बच जाऊंगा
इस तरह विलीन होने से

किसी तर्क से छूट जाते हैं सब
मेरे साथ यह भी नहीं हुआ

मैं उसके घबराने से डर रहा था
अभी कल ही की तो बात है.

Wednesday, November 24, 2010

ग्यारह साल के क़ैफ़ी आज़मी साहब की ग़ज़ल

यह क़ैफ़ी आज़मी साहब की शायरी के संकलन में उनकी लिखी भूमिका का एक टुकड़ा है




... मैंने एक शे’र पढ़ा -

वह सबकी सुन रहे हैं सबको दाद-ए-शौक़ देते हैं
कहीं ऐसे में मेरा क़िस्सः-ए-ग़म भी बयां होता

मानी साहब को न जाने शे’र इतना क्यों पसन्द आया कि उन्होंने ख़ुश होकर पीठ ठोंकने के लिए मेरी पीठ प एक हाथ मारा. मैं चकी से ज़मीन पर आ रहा. मानी साहब का मुंह घुटनों में छिपा हुआ था इसलिए उन्होंने देखा नहीं कि क्या हुआ., झूम झूम कर दाद देते और शेर दुबारा पढ़वाते रहे और मैं ज़मीन पर पड़ा-पड़ा शेर दोहराता रहा. यह पहला मुशायरा था जिसमें शायर की हैसियत से मैं शरीक हुआ. इस मुशायरे में मुझे जितनी दाद मिली उसकी याद से अब तक परेशान रहता हूं. बुज़ुगों ने इस तरह मेरा दिल बढ़ाया कि वाह मियां वाह, माशा अल्लाह आपकी याददाश्त बहुत अच्छी है; किसी ने कहा - ज़िन्दा रहो मियां, किस एतिमाद से ग़ज़ल सुनाई है! हर कोई यह समझ रहा था और किसी-न-किसी तरह यह दिखा रहा था कि मुझे मेरे किसी भाई ने ग़ज़ल लिख कर दे दी है, जो मैंने अपने नाम से पढ़ी है.

ख़ैर इन वुज़ुर्गों के इन अन्देशों की मैंने ज़्यादा परवाह नहीं की. लेकिन जब अब्बा ने भी इस तरह की बात की तो मेरा दिल टूट गया और मैं रोने लगा.मेरे बड़े भाई शब्बीर हुसैन ’वफ़ा’- अब्बा बेटों में जिनको सबसे ज़्यादा चाहते थे - उन्होंने अब्बा से कहा - इन्होंने जो ग़ज़ल पढ़ी है इन्हीं की है क्यों नहीं यह शक दूर करने के लिए क्यों न इम्तहान ले लिया जाए. उस वक़्त अब्बा के मुंशी हज़रत शौक़ बहराइची थे जो मज़ाहिया (व्यंग्य) शायर थे. उन्होंने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. मुझ से पूछा गया - इम्तहान देने के लिए तैयार हो? मैं खु़शी से इसके लिए तैयार हो गया. शौक़ साहब ने मिसरा दिया - इतना हंसो कि आंख से आंसू निकल पड़े. भाई साहब ने कहा - ये ज़मीन इनके लिए बंजर साबित होगी, कोई अच्छा प्रस्ताव दीजिये. लेकिन मेरा उस वक़्त का ईगो, आज जिसे अक्सर तलाश करता हूं, मैंने कहा - अगर मैं ग़ज़ल कहूंगा तो इसी ज़मीन में वर्ना इम्तहान नहीं दूंगा. तय पाया कि इस ’तरह’ में ’तबा’ आज़माई करूं.

मैं उसी जगह लोगों से ज़रा हटकर दीवार की ओर मुंह करके बैठ गया और थोड़ी ही देर में तीन-चार शेर हो गए. आज इन शेरों को देखता हूं तो समझ में नहीं आता कि इसमें मेरा क्या है. पूरी ग़ज़ल में वही बातें जो असातिज़ः कह चुके थे. उस ज़माने का ज़्यादा क़लाम नष्ट हो गया, लेकिन यह पहली ग़ज़ल इसलिए ज़िन्दा रह गई कि न जाने कहां से वह बेग़म अख़्तर के पास पहुंच गई और उसमें उन्होंने अपनी आवाज़ के पंख लगा दिए और सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई. लीजिये यह ग़ज़ल आप भी सुन लीजिये यह मेरी ज़िन्दगी की पहली ग़ज़ल है, जो मैंने ग्यारह साल की उम्र में कही थी.

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की खलल पड़े
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

इक तुम कि तुम को फ़िक्रे-नशेबो-फ़राज़ है
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

साकी सभी को है गम-ए-तिश्न: लबी मगर
मय है उसी की नाम पे जिसके उबल पड़े

मुद्दत के बाद उसने की तो लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े

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यही ग़ज़ल पेश है बेग़म अख़्तर की आवाज़ में:

आज अरूंधति रॉय का जन्मदिन है - एक्सक्लूसिव कबाड़


सबसे पहली बात यह पोस्ट इसलिए एक्सक्लूसिव है कि इसे कबाड़ी शिवप्रसाद जोशी ने आज के वास्ते कबाड़ख़ाने के लिए लिखा है. उनके लेखन की सबसे बड़ी ख़ूबी है उनका टू-द-पॉइन्ट, सचेत-सधा हुआ और गहरा अनुशासित गद्य जिसकी सतह खुरचने पर आपको जाने कौन कौन से लेखकों, अनुभवों से पाया गया ठोस यक़ीन नज़र आएगा.

हिन्दी का कौन कवि-लेखक गया बस्तर-छत्तीसगढ़? किस नामवर-फामवर को मिला बुकर? किस महान युवा हिन्दी कवि ने कोशिश भी की कश्मीर को समझने की? और किस ... ख़ैर छोड़िये, गाली निकल जाएगी हिन्दी के महान युवाओं के लिए. अरुंधती ने यह सब करने के अलावा बाकायदा इन व्हिच एनी गिव्ज़ इट दोज़ वन्स जैसी शानदार फ़िल्म का स्क्रीनप्ले लिखा. अरुंधती अब भी युवा हैं और महान भी. मेरी उनसे मुलाकात मैसी साहब की शूटिंग के दौरान एक बार हुई थी कोई बीसेक साल पहले. उस फ़िल्म में उन्होंने एक आदिवासी युवती का रोल किया था. मुझे वे एक बेमिसाल व्यक्तित्व लगीं जैसी वे थीं ही. आज उनका जन्मदिन है. वे उनचास साल पूरे कर रही हैं. कबाड़खाना उन्हें बधाई देता है और भाई शिवप्रसाद जोशी को थैंक्यू कहता है

आज अरूंधति रॉय का जन्मदिन है

शिवप्रसाद जोशी

अरूंधति रॉय ने कई साल पहले कह दिया था कि वो विश्व नागरिक हैं. वो एक ऐसे वक़्त में अपनी अटूट ज़िद के साथ सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में अपनी भूमिका निभा रही हैं जब पूरी दुनिया में विभिन्न किस्मों का कोलाहल जारी है, एक अश्लील और बर्बर मुक्त बाज़ार है और एक चमचमाता तंबू तना हुआ है जिसके नीचे अंतरराष्ट्रीय ताक़तें दुनिया को अपनी मुट्ठी में लेने की नई चालाकियों पर काम कर रही हैं.

24 नवंबर अरूंधति रॉय का जन्मदिन है.

वो हेरॉल्ड पिंटर, हॉवर्ड ज़िन, खोसे सारामागो, एडुवार्डो गेलियानो, नॉम चोमस्की जैसे चिंतकों एक्टिविस्टों की जमात से हैं जो अर्थ, समाज, राजनीति और कूटनीति की वैश्विक अराजकता के बीच मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखने की लड़ाई में अग्रणी रहे हैं.

अरूंधति रॉय जब बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित हुई थी तो वो बीबीसी के दिल्ली दफ़्तर में आई थीं. शालिनी उस समय हिंदी सेवा में थीं. शालिनी का अनुभव कुछ यूं था कि उसका ज़िक्र हम लोग कई बार आपस में करते रहे हैं, आज अरूंधति के जन्मदिन पर उनकी उस छवि को आप लोगों से शेयर करते हैं. वो एक छोटी सी सकुचाई हुई, तीखे नाक नक्श वाली, आंखों में एक विराट गहराई और एक न जाने कौन से सिनेमा की न जाने कौन सी अज्ञात फ़िल्म की न जाने से कौन सी नायिका. कुछ ऐसे कि बस वो थीं. अरूंधति ने जींस और टॉप पहना था और शालिनी के मुताबिक उन्हें देखकर नहीं लगता था कि उनमें कोई मैदान मार लेने वाला जैसा गदगद भाव रहा होगा.

अरूंधति ने गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स शायद लिखा ही इसलिए था कि वो आने वाले दिनों के लिए अपनी भूमिका तै कर चुकी थीं. उस उपन्यास में जैसी चोटें, वेदनाएं, प्रताड़नाएं, प्रेम विह्वलताएं, द्वंद्व, लड़ाइयां और सरोकार थे, अरूंधति ने अपने आगे के जीवन के लिए जैसे उन्हीं शब्दों की सामर्थ्य से खुद को लैस कर लिया था.

वो उपन्यास 21वीं सदी की शुरुआत से चंद साल पहले सम्मानित हुआ था. मस्जिद नब्बे के दशक की शुरुआत में गिरा दी गई थी. भूमंडलीकरण का टेंट भारत की जर्जरता के ऊपर ताना जा रहा था. और आतंकित कर देने वाली नव-अमीरी बड़े शहरों में अपने चक्कर काट कर छोटे शहरों और क़स्बों का रुख़ कर चुकी थीं. घात वाले ऐसे उस दौर में अरूंधति ने बुकर लिया, उपन्यास लिखना स्थगित किया और एक ऐसी लड़ाई में उतर आईं जो न दिखती थीं और जिसमें हारजीत के नतीजे भी धुंधले से दिखाई देने वाले थे.

अरूंधति ने इस लडा़ई में हार का पक्ष लिया. वो उस तबके उस आम हिंदुस्तानी उस आम विश्व नागरिक की शाश्वत और अवश्यंभावी घोषित कर दी गई हार के साथ जा खड़ी हुई और वहां से उन्होंने रचना और नाफ़रमानी का एक नया रास्ता खोल दिया.

इस रास्ते पर जाने का साहस बहुत कम लोग कर पाते हैं. इस रास्ते पर जाने का विवेक बड़े जोखिम की मांग करता है. इसमें दर्द और टीस है. ये कुछ वैसा ही है जैसा अरूंधति के प्रिय लेखक अर्जेटीना के एडुआर्डो गेलियानो की किताब ओपन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका में दर्ज लोगों की ज़ख़्मी नसों की उछाड़ पछाड़ है.

हमारे समय की समस्त बैचेनियां हमारे समय की कविता कहानी या उपन्यास में न आती हों तो न सही, अरुंधति, गेलियानो, चॉमस्की और उन जैसों की ज़िंदगियों, विचारों और उधेड़बुनों के ज़रिए तो आ ही रही हैं. एक किताब से बड़ा आखिरकार एक जीवन ही है. मामूली ही सही पर 24 नवंबर के मौके पर अरूंधति रॉय के हवाले से ये बात और पुख़्ता होती है.

Monday, November 22, 2010

गोलवलकर का नस्ली सिद्धांत यानि उत्तर भारतीय ब्राह्मणों की श्रेष्ठता

( प्रो शमसुल इस्लाम की किताब ' वी आर अवर नेशनहुड डिफांइंड -ए क्रिटिक' से… अनुवाद मेरा)

आर एस एस ने हमेशा भारत के सभी हिन्दूओं की सरपरस्ती का दावा किया है। यह इस देश के हिन्दुओं सबसे बड़ा संगठन होने का भी दावा करता है। बहरहाल, यह निष्कर्ष निकालना कोई मुश्किल काम नहीं है कि गोलवलकर और संघ के लिये भारत का मतलब केवल उत्तर भारत तक सीमित था। जब वे ‘हिन्दू स्वर्ण काल’ की बात करते थे तो इसका मतलब होता था उत्तर भारत का स्वर्ण काल।[1] यह केवल मुसलमानों और इसाईयों को ही बहिष्कृत नहीं करता था बल्कि उत्तरभारतीय ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य सभी हिन्दुओं को भी बहिष्कृत करता था। इसे 17 सितंबर 1960 को गुजरात विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान अध्ययन केन्द्र के विद्यार्थियों को दिये गये गोलवरकर के भाषण में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। इस भाषण में नस्ल सिद्धांत पर अपने दृढ़ विश्वास को रेखांकित करते हुए वह भारतीय समाज में पिछले समय में मानवजाति की संकर नस्लों के प्रयोग (cross breeding) के मुद्दे को छूते हैं। वह कहते हैं-

‘आजकल संकर प्रजाति के प्रयोग केवल जानवरों पर किये जाते हैं। लेकिन मानवों पर ऐसे प्रयोग करने की हिम्मत आज के तथाकथित आधुनिक विद्वानों में भी नहीं है। अगर कुछ लोगों में यह देखा भी जा रहा है तो यह किसी वैज्ञानिक प्रयोग का नहीं अपितु दैहिक वासना का परिणाम है। आइये अब हम यह देखते हैं कि हमारे पुरखों ने इस क्षेत्र में क्या प्रयोग किये। मानव नस्लों को क्रास ब्रीडिंग द्वारा बेहतर बनाने के लिये उत्तर के नंबूदरी ब्राह्मणों को केरल में बसाया गया और एक नियम बनाया गया कि नंबूदरी परिवार का सबसे बड़ा लड़का केवल केरल की वैश्य, क्षत्रिय या शूद्र लड़की से शादी कर सकता है। एक और इससे भी अधिक साहसी नियम यह था कि किसी भी जाति की विवाहित महिला की पहली संतान नंबूदरी ब्राह्मण से होनी चाहिये और उसके बाद ही वह अपने पति से संतानोत्पति कर सकती है। आज इस प्रयोग को व्याभिचार कहा जायेगा, पर ऐसा नहीं है क्योंकि यह तो पहली संतान तक ही सीमित है।‘[2] (ज़ोर हमारा)

गोलवलकर का यह बयान कई तरीके से अत्यंत अपमानजनक है। पहला तो यह कि इससे साबित होता है कि गोलवलकर का विश्वास था कि भारत में हिन्दुओं की एक बेहतर नस्ल या वंशावली है तथा एक कमतर नस्ल भी है जिसे क्रास ब्रीडिंग द्वारा ख़ुद को सुधारे जाने की ज़रूरत है। दूसरा, उनके विश्वास का और अधिक चिंतनीय पहलू यह है कि उनके अनुसार केवल उत्तर भारतीय ब्राह्मण ; ख़ासतौर पर नंबूदरी ब्राह्मण ही उस बेहतर नस्ल से संबंध रखते थे। इस नस्लीय श्रेष्ठता के कारण ही नंबूदरी ब्राह्मणों को उत्तर से केरल में वहां के हिन्दूओं की, जिसमें वहां के ब्राह्मण भी शामिल थे, हीन प्रजाति कि सुधारने के लिए भेजा गया था। यह रोचक है कि यह तर्क एक ऐसे आदमी के द्वारा दिया जा रहा है जो दुनिया भर के सारे हिन्दूओं की एकता स्थापित करने की बात करता है। तीसरा, वह एक पुरुष वर्चस्ववादी की तरह यह विश्वास करते थे कि केवल उत्तर भारत की एक श्रेष्ठ नस्ल से संबंद्ध नंबूदरी ब्राह्मण पुरुष ही दक्षिण की हीन मानव नस्ल को सुधार सकते थे। उनके लिये केरल की हिंदू महिलाओं की गर्भ की पवित्रता का कोई मतलब नहीं था और वे केवल उन नंबूदरी ब्राह्मणों से सहवास द्वारा प्रजाति सुधारने के लिये उपयोग की जाने वाली वस्तुएं थीं जिनसे उनका कोई संबंध नहीं था। इस प्रकार गोलवलकर, दरअसल, इस आरोप को पुष्ट कर रहे थे कि पुराने समय के पुरुष प्रधान उच्च जाति के समाजों में दूसरी जाति की नवविवाहित महिलाओं को अपनी पहली रातें ‘श्रेष्ठ’ जाति के पुरुषों के साथ बिताने पर मज़बूर किया जाता था। इस प्रकार की घृणित परंपरा के समर्थन में में दिये गये गोलवलकर के तर्क बिल्कुल वही हैं जो बीते समय में नीची कही जाने वाली जातियों के अपमान को सही ठहराने के लिये सामंती तत्व दिया करते थे। यह एक सुपरिचित तथ्य है कि भारत के सामंती शासक अक्सर नीची कही जाने वाली जातियों की नवविवाहिताओं को उनकी पहली रातें अपने महलों में गुज़ारने पर बाध्य किया करते थे। आश्चर्यजनक रूप से गोलवलकर ने अपना यह नस्ली, अमानवीय, स्त्री विरोधी और समानता विरोधी दृष्टिकोण किसी अनपढ़ों या गुण्डों की भीड़ के आगे नहीं बल्कि गुजरात के एक प्रमुख विश्विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों की एक श्रेष्ठ सभा में प्रस्तुत किया। वस्तुतः, आर्गेनाइज़र में छपी रिपोर्ट के अनुसार सभागृह में पहुंचने पर उनका स्वागत एक अत्यंत प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री डा बी आर शेनाय द्वारा किया गया।[3] प्रेस रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि इन फ़ासिस्ट और उपहासजनक विचारों के ख़िलाफ़ विरोध की कोई फुसफुसाहट भी नहीं हुई। इससे पता चलता है कि गुजरात में उच्च जाति के वक्ताओं का कितना सम्मान था और यह विवेचित होता है कि कैसे हिन्दुत्व इस क्षेत्र में पांव पसार पाया।

गोलवरकर के ये महान विचार खुले तौर पर केरल की महिलाओं और समाज के लिये अपमानजनक होने के बावज़ूद आर एस एस के मुखपत्र आर्गेनाइज़र में ‘क्रास ब्रीडिंग में हिन्दू प्रयोग’ के नाम से प्रकाशित हुए थे।[4] हालांकि हाल के दिनों में आर एस एस ने गोलवलकर की इस थीसिस को छिपाने की कोशिश की। इसने जब 2004 में श्री गुरुजी समग्र नाम से गोलवलकर के समस्त कार्यों को 12 खण्डों में प्रकाशित किया तो उनके भाषण के इस हिस्से को छोड़ दिया। खण्ड पांच (आइटम नं 10) में पेज़ 28-32 में यह भाषण संकलित है लेकिन वे दो पैराग्राफ हटा दिये गये हैं जिनमें गोलवलकर की पुरुष वर्चस्ववादी थीसिस है। दुर्भाग्य से वे पुस्तकालयों से आर्गेनाइज़र की पुरानी प्रतियां हटा पाने में सक्षम नहीं हो पाये हैं। ऐसा लगता है कि आर एस एस अब भी समझता है कि वह हमेशा और हर आदमी को उल्लू बना सकता है।

इसी किताब का एक लेख यहाँ और एक यहाँ

[1] देखें, ज्याफ़्री हास्किंग और जार्ज़ स्काफलिन द्वारा संपादित किताब ‘मिथ्स आफ़ नेशनहुड’ में एंथनी स्मिथ का लेख ‘द गोल्डेन एज़ एण्ड द नेशनल रिवाइवल’ पेज़ 7 पर, प्रकाशक – हर्स्ट एण्ड कंपनी, लंदन, 2000
[2] देखें, आर्गेनाइज़र के 2 जनवरी 1961 के अंक का पेज़ 5
[3] देखें, आर्गेनाइज़र, जनवरी 2, 1961 का पेज़-5
[4] वही

Friday, November 19, 2010

बबली तेरो मोबाइल

गढ़वाली गायक गजेन्द्र राणा का यह गीत एकाध साल पहले समूचे उत्तराखण्ड में खासा लोकप्रिय हुआ था. पता नहीं क्यों मैंने इसे कबाड़ख़ाने पर नहीं लगाया. चलिये देर से ही सही गीत की मौज लीजिये. बोल बहुत मुश्किल नहीं हैं थोड़ी मेहनत से समझ में आ जाएंगे:

आख़िरी रात रात और तारा दोनों होती है



राख़

वास्को पोपा (अनुवाद: सोमदत्त)

कुछ हुईं रातें कुछ तारे

हर रात जलाती अपना तारा
और नाचती काला नाच उसके इर्द-गिर्द
तारे के ख़ाक होने तक

फिर रातें होती हैं छिन्न-भिन्न
कुछ बन जातीं तारे
कुछ रही आती रातें

फिर जलाती है अपना तारा हर रात
और नाचती है काला नाच उसके इर्द-गिर्द
तारे के ख़ाक होने तक

आख़िरी रात रात और तारा दोनों होती है
ख़ुद को जलाती है
नाचती है काला नाच अपने ही इर्द-गिर्द


(चित्र: माकूच्कीना हूलिया की पेन्टिंग नाइट होरोस्कोप)

इस वक़्त एक हाथ पर हो रही है बारिश

खेल के बाद

वास्को पोपा (अनुवाद: सोमदत्त)



आख़िर में हाथ पकड़ते हैं पेट
फूट न जाय कहीं पेट हंसते हंसते
लेकिन पेट वहां हैई नहीं

एक हाथ बमुश्किल उठा पाता है ख़ुद को
पोछने के लिए ठंडा पसीना माथे से
लेकिन माथा भी गया

दूसरा हाथ जकड़ता है दिल की जगह
को कहीं दिल ही न उछल पड़े सीने से
दिल भी उड़नछू

दोनों हाथ लटक जाते हैं
गोद पर पड़े आलसी हाथ
कि गोद भी गायब

इस वक़्त एक हाथ पर हो रही है बारिश
दूसरे पर उग रहा है सब्ज़ा
अब और क्या कहूं मैं


[चित्र: नीदरलैण्ड के विख्यात चित्रकार हायरोनिमस बॉश (1450 – 1516) की एक कलाकृति]

Thursday, November 18, 2010

आजकल के बच्चों में एक ताज़ा हिट गीत

कल मेरा दस वर्षीय भांजा आदित्य मुझसे यह गाना सुनने और उसके लिए कॉपॊ कर देने की डिमान्ड ले कर आया. जिस उत्साह से उसने अपनी बात रखी थी मुझे भी मजबूरन उसे सुनना पड़ा. अजीब तरीक़े से दिलचस्प यह गीत आप के साथ शेयर कर रहा हूं. हो सकता है यह गीत हिट हो चुका हो पर मेरी जानकारी नहीं. इसीलिए.



(यूट्यूब से साभार)

मेरी भंवर, क्या कसक रहा है तुझे


बातचीत

वास्को पोपा (अनुवाद: सोमदत्त)

पाल-पोस कर
क्यों त्याग देता है तटों को
क्यों ओ मेरे रक्त
भला क्यों भेजूं मैं तुझे
सूर्य

तू सोचता है चुम्मी लेता है सूर्य
तुझे मालूम नहीं कुछ भी
मेरी दफ़्न नदी

तू तक़लीफ़ पहुंचा रही है मुझे
समेट के ले जाते हुए मेरी लाठियां और पत्थर
मेरी भंवर, क्या कसक रहा है तुझे

तू नष्ट कर देगी मेरा निस्सीम चक्र
जिसका बनाना अब तक ख़त्म नहीं किया अपन ने
मेरे लाल अजदहे

बस आगे बह
ताकि उखड़ें न पांव साथ-साथ
बह जितनी दूर तक बह सकता है तू ओ मेरे रक्त

मेज़ पर

युगोस्लाविया के विश्वविख्यात कवि वास्को पोपा की कविताएं आज से कबाडख़ाने पर पढ़ना शुरू कीजिये. सारे अनुवाद सोमदत्त के हैं:



मेज़ पर

मेज़पोश तनता है
अनन्त तक
भुतही
छाया टूथपिक का पीछा करती है
गिलासों के खूनाखून पदचिन्हों का

सूरज ढांकता है हड्डियां
नए सुनहले गोश्त से

झुर्रीदार
अय्याशी फ़तेह करती है
गर्दन तोड़ टुकड़ों को

कल्ले उनींद के
फूट पड़े हैं सफ़ेद छाल के भीतर से

Sunday, November 14, 2010

लव यू लवी, ऑल द बेस्ट

आज मेरा सीना चौड़ा होकर दूना हो गया है. लवी यानी उन्मुक्त चन्द, मेरा पुत्र-भ्राता-मित्रसुलभ याड़ी बच्चा आज एक इतनी बड़ी ख़बर ले कर आया है. रहस्य ज़रा बना रहे. बस यह कि नीचे लिखा नोट सुन्दर ठाकुर कबाड़ी का लिखा है.

मैं लवी को धन्यवाद देता हूं. उसके माता-पिता को धन्यवाद देता हूं और सबसे ऊपर अपने सबसे प्यारे यार सुन्दर को कहता हूं "बौफ़्फ़ाइन बेटे! बौफ़्फ़ाइन!!"

लव यू लवी, योर चाचू सेज़ ऑल द बेस्ट टु यू! इतनी ख़ुशी देने का शुक्रिया!


कि रंग लाती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद

*सुंदर चंद ठाकुर

यह एक बेहद निजी मामला है, मगर मैं अशोक भाई के कहने पर इसे सार्वजनिक कर रहा हूं। वैसे मौका खुशी का है भी, ऐसी खुशी जिसे समेट पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा। दो घंटे पहले ही खबर मिली है कि उन्मुक्त दिल्ली की रणजी टीम में शामिल कर लिया गया है। वीनू मांकड अंडर-19 टूर्नामेंट में दिल्ली की कप्तानी करते हुए उसने क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल दोनों ही मैचों में लगातार शतक ठोक कर अपनी दावेदारी रखी थी। सेलेक्टरों ने संभवतः उसके पिछले साल का भी रेकार्ड देखा हो। उसने शिखर धवन के साथ ओपनिंग करते हुए रणजी वनडे में पंजाब के खिलाफ 75 रनों की पारी खेली थी।

अब मैं उन्मुक्त के बारे में कुछ और बातें आपसे साझा करना चाहता हूं। उन्मुक्त मेरा भतीजा है यानी बड़े भाई का बेटा. दिल्ली में पला-बढ़ा बच्चा है और चार साल की उम्र से क्रिकेट खेल रहा है। मेरे कुछ साहित्यकार मित्र जानते हैं कि उन्मुक्त के क्रिकेट को लेकर मैं और उसके पापा बचपन से ही पागलपन की हद समर्पित रहे हैं। एक बार जब वह सात साल का था, उसकी सहनशक्ति को बढ़ाने के इरादे से मैं और भाई मई की भरी दोपहर उसे पब्लिक पार्क में ले गए थे और हमने चार घंटे प्रैक्टिस करवाई थी। उस दिन भाई, जो कि अन्यथा बहुत सीधा-सरल और अपेक्षाकृत भीरू है, अपनी बॉलिंग की स्पीड दिखाने पर तुला था। एक बॉल, वह बाकायदा क्रिकेट बॉल थी, मगर साइज में जरा-सी छोटी थी, उन्मुक्त के हेलमेट की ग्रिल से निकलकर सीधे उसकी नाक पर लगी और खून की धार बह चली। मगर उस चोट के बावजूद हम उसे प्रैक्टिस पूरे चार घंटे प्रैक्टिस करवाकर ही लौटे। उन्मुक्त की यही खासियत रही है। उसने प्रैक्टिस से कभी जी नहीं चुराया और दो-दो घंटे बसों में धक्के खाकर भी प्रैक्टिस करने मयूर विहार से भारत नगर जाता रहा।

दिल्ली में स्कूलों और मध्यवर्गीय घरों में बच्चों के करियर को लेकर माता-पिता बहुत चिंतित रहते हैं। उन्मुक्त के साथ भी ऐसा था। मैं आजमाना चाहता था कि अगर एक लक्ष्य चुनकर पूरी ताकत और समर्पण के साथ उसे हासिल करने की कोशिश की जाए, तो वह हासिल होता है या नहीं। लेकिन उन्मुक्त के दसवीं तक आते-आते मुझे भी डर लगने लगा। अगर क्रिकेटर नहीं बन पाया तो! तब यह फेसला किया गया कि क्रिकेट के साथ उसकी पढ़ाई को भी बराबर महत्व दिया जाए। इस मामले में मैं उन्मुक्त को सलाम करूंगा। उन्मुक्त चौदह साल की उम्र में दिल्ली की अंडर-15 टीम में आ तो गया था, मगर उसे एक ही मैच खेलने को मिला, जिसमें वह कुछ खास नहीं कर पाया। तब हमें दिल्ली क्रिकेट की राजनीति समझ में आई क्योंकि उन्मुक्त ने दो साल लगातार टायल मैचों में सबसे ज्यादा रन बनाए थे। मगर उसके दिल्ली अंडर-15 टीम में आने से मुझे बहुत राहत मिली। जिस साल उन्मुक्त को दसवीं का बोर्ड देना था, उस साल नियम बदले और बीसीसीआई ने अंडर-15 के बदले अंडर-16 शुरू कर दिया। इस साल भी टायल मैचों में उन्मुक्त ने सबसे ज्यादा रन बनाए, मगर उसका फिर भी टीम में सेलेक्शन नहीं हुआ। मैं गुस्से में फनफनाया तब उन्मुक्त की अब तक अखबारों में छपी खबरों की पूरी फाइल लेकर सीधे डीडीसीए के प्रेजिडेंट अरूण जेटली जी से मिला। उनके हस्तक्षेप से उन्मुक्त को तीसरे मैच में खेलने का मौका मिला। इसके बाद तो उन्मुक्त ने दिल्ली की ओर से रन बनाने का ऐसा सिलसिला शुरू किया कि इस साल उसे अंडर-19 की कप्तानी ही दे दी गई। मगर वह पढ़ाई को बराबर तवज्जो देता रहा और दसवीं के बोर्ड में महज डेढ़ महीने की तैयारी के बावजूद 83 फीसदी अंक लेकर आया।

उन्मुक्त की एक ओर खासियत उसका नेचर है। उसे मैंने जब जो कहा उसने किया। ऐसे बच्चे किसी को कम ही मिलते हैं। पिछले साल एक दिन वह दस किलोमीटर भागा, क्योंकि मुझे लग रहा था कि उसका वजन बढ़ने से उसके मूवमेंट धीमे हो रहे हैं। मैं अपने साहित्यकार मित्रों से भी उसे मिलाता रहा हूं। विष्णु खरे की कविता कवर डाइव मैंने उसे पढ़कर सुनाई। वे जब भी मेरे घर आए मैंने उन्मुक्त को उनसे जरूर मिलाया। मेरे साहित्यिक लगाव ने उसे ज्ञानरंजन की कहानी अमरूद का पेड़ पढ़ने को मजबूर किया। अशोक के साथ उसका और भी गजब का रिश्ता है। अशोक हर बार उसे चुनौती देकर जाता- इतने रन बनाएगा तो ये दूंगा, वो दूंगा। उसे इसका नुकसान भी उठाना पड़ा है। पिछले साल उसे उन्मुक्त को 18000 का मोबाइल देना पड़ा और इस साल लगता है कि वह लैपटॉप हारने वाला है। पिछले महीने दिल्ली में उसने लैपटॉप के लिए उन्मुक्त के सामने अंडर-19 में तीन सेंचुरी मारने की शर्त रखी थी। उन्मुक्त अब तब दो सेंचुरी मार चुका है। हालांकि एक में वह 96 पर आउट हो गया। 15 को उन्मुक्त फाइनल खेल रहा है। अगर इसमें सेंचुरी लग गई तो अशोक को 30000 की चपत लगनी तय है। वैसे वह उदार है। हर बार दो पैग पीने के बाद उन्मुक्त की पिछली कामयाबियों से खुश होकर उसे हजार-दो हजार रूपये तो थमा ही देता है।

खत्म करने से पहले उन्मुक्त के बारे में कुछ और बातें - कि वह किताबें पढ़ता है। अशोक ने उसे दसियों किताबें दी हैं। बड़े भाई ने उसके लिए पूरी लाइब्रेरी ही बना दी है। वह पिछले कई सालों से डायरी भी लिखता है। मुझे हमेशा लगा है कि लिखने की आदत डालने के लिए डायरी लेखन सबसे बेहतरीन तरीका है। खुद मैंने 14 साल बिना एक दिन छोड़े डायरी लिखी। बहरहाल, क्रिकेट और उन्मुक्त की बात की जाए। उन्मुक्त के समर्पण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 7 साल की उम्र से अब तक एग्जाम्स के दिनों के अलावा शायद ही कोई दिन होगा जब उसने बैट नहीं पकड़ा हो। उसे इस समर्पण के लिए मैं सौ में से सौ नंबर देता हूं और उम्मीद करता हूं कि वह सिर्फ अच्छा क्रिकेटर नहीं, एक पढ़ा-लिखा, समाज के प्रति दायित्वों को समझने वाले इंसान बने। मित्रों से भी उसके लिए ऐसी शुभकामना की अपेक्षा करता हूं।

फिलहाल इतना ही।


तस्वीरें क्रमशः

१. पांच साल का लवी
२. डीपीएस नोएडा में चेतन चौहान से बैस्ट बैट्समैन का खिताब लेते हुए
३. दिल्ली डेयरडेविल्स के साथ प्रक्टिस मैच २००९
४. चचा सुन्दर के साथ
५, १३ साल का था जब उसे बिशन बेदी ऑस्ट्रेलिया ले गए
६. आज की ताज़ा तस्वीर - मॉडर्न स्कूल का बेस्ट स्पोर्ट्समैन
७. कोटला मैदान विराट कोहली के साथ
८. २००९ में इंग्लैण्ड - दिल्ली अंडर-१९ का दौरा
९. एन सी ए बैंगलोर में वीवीएस के साथ सितम्बर २०१०
















आंग सान सू ची को सलाम


आंग सान सू ची को सलाम

शिवप्रसाद जोशी

म्यामांर की लोकतंत्रवादी नेता आंग सान सू ची 15 साल बाद अपने घर से बाहर निकल पाएंगी. उन्हें सैनिक शासन ने नजरबंदी से रिहा कर दिया है. 65 साल की सू ची की रिहाई एक तरह से नेल्सन मंडेला की रिहाई की याद दिलाती है.

सू ची अपने देश में और पूरी दुनिया में लोकतंत्र और नागरिक मूल्यों की हिफाजत की एक बडी प्रतीक बन गई थीं. 21 साल उन्होंने सैनिक शासन की बंदूकों के साए में गुजारे हैं. अंतरराष्ट्रीय दबाव से ज्यादा ये सू ची की अपनी अविश्वसनीय सी अटूट जिद ही थी किहुकूमत को उनकी रिहाई करनी ही पडी.

हालांकि सू ची ने ये भी साफ कर दिया है कि अगर रिहाई के लिए कोई शर्त थोपी गई तो वो स्वेच्छा से फिर नजरबंदी में चली जाएंगी. बहरहाल दक्षिण पूर्व एशिया के लिए ये एक बहुत बडी खबर है. कहना चाहिए पूरी दुनिया में लोकतंत्र की लडाई को अलग अलग ढंग से लडने वालों के लिए ये एक राहत की खबर है.

सैनिक शासन ने यूं तो संवैधानिक नियमों की ऐसी घेराबंदी लोकतांत्रिक अभियानों, नेताओं और दलों के खिलाफ की हुई है कि सू ची के बाहर आने के बाद उनके देश में अचानक ही कोई बदलाव हो पाएगा. ये सोचना दूर की कौडी है. लेकिन सू ची के ही शब्दों में कहें तो शांत रहने का भी एक वक्त होता है और बोलने का भी एक वक्त होता है. उन्होंने अपने समर्थकों से उस अपार धीरज को बनाए रखने की अपील की जो पिछले कई दशकों से वे प्रदर्शित करते आए हैं.

सू ची के सामने अब कई चुनौतियां हैं. वे जानती हैं कि पश्चिम ताकतें भले ही उनकी रिहाई के पक्ष में रही हैं लेकिन अमेरिकावादी आग्रह पूरी पश्चिम मानसिकता पर छाया हुआ है और एशिया के धुरंधर देश भी अमेरिकावाद से अछूते नहीं है. सू ची के सामने मंडेला की रिहाई का ऐतिहासिक क्षण भी है, उनकी अपनी लडाई का इतिहास भी और अफ्रीकी देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों के सामने अब तक आ रही कडी चुनौतियां भी सू ची देख ही रही होंगी. पूरी दुनिया एक नई लडाई की तरफ बढ चुकी है जहां पूंजी से जुडा घिनौनापन है और देश के देश मंडी में बदल दिए गए हैं. अर्थव्यवस्थाएं या तो दहाड रही हैं या एक सामुहिक हाहाकार का माहौल है. म्यामांर भी इस अभूतपूर्व जगमग और उससे पैदा अंधकार की इस विराटता में एक कोना है जहां से सू ची की रिहाई इन तीखी हवाओं में एक कांपती हुई लौ की तरह है.

फिर भी.. फिर भी सू ची की रिहाई और उनका संघर्ष एक माने में आज की लडाइयों के लिए मशाल सरीखा है जो विभिन्न स्तरों पर लडी जा रही हैं, सर्वसत्तावाद के खिलाफ हों या पूंजीवादी अधिनायकवाद के खिलाफ या अश्लील भूमंडलीकरण के खिलाफ. जिसमें स्थानीय दबी कुचली अस्मिताएं और तमाम जन विमर्श हाशिए पर फिंकवा दिए गए हैं.

(फ़ोटो: इन्डियन एक्सप्रेस से साभार)

Wednesday, November 10, 2010

कैसे दुखों के मौसम आए कैसी आग लगी यारो






ग़ज़ल /  ओबैदुल्लाह अलीम

तेरे प्यार में रुसवा होकर जायें कहाँ दीवाने लोग।
जाने क्या क्या पूछ रहे हैं ये जाने पहचाने लोग।

हर लम्हा एहसास की सहबा रूह में ढलती जाती है'
जीस्त का नशा कुछ कम हो तो हो आयें मैखाने लोग।

जैसे तुम्हें चाहा है हमने  कौन भला यूं चाहेगा,
माना और बहुत आयेंगे तुमसे प्यार जताने लोग।

यूँ  गलियों  बाज़ारों में  आवारा  फिरते रहते हैं'
जैसे इस दुनिया में सभी आए हों उम्र गंवाने लोग।

आगे  पीछे  दायें  बाएँ  साए - से  लहराते हैं,
दुनिया भी तो दश्ते-बला है हम ही नहीं दीवाने लोग।

कैसे दुखों के मौसम आए कैसी आग लगी यारो,
अब सहराओं से लाते हैं फूलों के नजराने लोग।

कल मातम बे-कीमत होगा आज इनकी तौकीर करो,
देखो खूने-जिगर से क्या -क्या लिखते हैं अफ़साने लोग।
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* कवि परिचय और उनकी कुछ और रचनायें शीघ्र ही!

Tuesday, November 9, 2010

उनको प्रणाम!



बाबा नागार्जुन की यह कविता मुझे बहुत पसन्द है. और असफल पलों के पश्चात्ताप से उबरने में इन पंक्तियों से काफ़ी मदद मिलती है. बाबा को प्रणाम!

उनको प्रणाम!

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।

कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
उनको प्रणाम!

जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे,
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले,
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले!
उनको प्रणाम

कृत-कृत नहीं जो हो पाए,
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल!
उनको प्रणाम!

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ,
या जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहाँत हुआ!
उनको प्रणाम

दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
उनको प्रणाम!

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
उनको प्रणाम!

सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे



बाबा नागार्जुन की एक पुरानी कविता प्रस्तुत है

सच न बोलना

मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!

जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।

ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!

ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!

माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!

रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!

सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!

Sunday, November 7, 2010

एक रहस्य जिससे जिन्दगियां पलती हैं


मेरे घर से कुछ दूर सड़क पर एक मूंगफली का खोमचा जाड़ा शुरू होते ही अवतरित होता है। नवंबर की जल्दबाज सांझ के झुटपुटे में जिस तरह माथे के ऊपर के आकाश से वह खोमचा हौले से उतर कर सोंधी गंध के साथ सड़क के सरपट भागते जीवन को हस्बेमामूल बदल डालता है, वह किसी अवतार का ही काम है। उसकी चटनी में पुरातन, घरेलू लेकिन इंद्रियों के पार ले जाती एक लपक है जिसके कारण उसके खोमचे पर भीड़ लगी रहती है। चटनी उसका यूनिक सेलिंग प्रपोर्शन है जिससे उसका लंबा-चौड़ा परिवार जिसका सबसे नया सिरा शहर में रहता है और पुराना वाला गांव में, बड़े मजे में चल रहा है। उसकी मोटी, अनगढ़ उंगलियों के चुन्नट से बंधती चटनी की वह पुड़िया मुझे एक वरदान, एक जादू की पुड़िया लगती है जो एक बड़े परिवार का भरण-पोषण कर सकती है। पुरानी कहानियों के मंत्रसिद्ध शंख, फूल या पात्र की तरह जिनसे कुछ भी पाया जा सकता था।

अचानक उसकी पुड़िया का रहस्य मुझे पता चल गया। वह खोमचा समेट कर घर जाने की तैयारी में था और मैं आखिरी ग्राहक आन पहुंचा। ज्यादा चटनी देने के आग्रह पर उसने दरियादिली से कहा, जितनी चटनी है सब ले जाएं क्योंकि हर दिन सिलबट्टे पर ताजी चटनी पीसनी पड़ती है। देने का भाव आया तो स्वाभाविक ही वह जरा सा वाचाल हो गया। उसने स्वगत कहा, अगर मिक्सी में पीसो तो मशीन की गरमी से धनिया जल जाती है और लोग कहते हैं कि चटनी में धनिया की जगह मूली के पत्ते डाले हैं। धनिये और अदरक का स्वाद तो सिलबट्टे से ही आ पाता है।

वाकई यह एक रहस्य था। जो अचक्के खुल गया। कैसे छोटे-छोटे रहस्य कई जिंदगियों को टिकाए, बनाए और आगे विकसित करते रहते हैं।

वैसे यह कोई छोटा रहस्य भी नहीं है। इसका पता कई पीढ़ियों ने पत्थर, घर्षण, तापमान और धनिए की तासीर के संबंध को परखने के बाद पाया होगा। हम किसी का ई-मेल नहीं जानते, फोन नंबर नहीं जानते, रिश्तेदारियां नहीं जानते, कोई खास आदत नहीं जानते ये सब रहस्य हैं। अगर जानते तो जिन्दगी जो आज है शायद उससे अधिक संतोषजनक होती। अगर सब जान ही जाते तो अनजाने के प्रति जो खिंचाव यानि जिन्दगी का एक्सीलेरेटर है वह नहीं होता। रहस्य जरूरी है। उसके बिना जीवन खत्म हो जाता है। हम मरने लगते हैं।

Saturday, November 6, 2010

उस देश को हमारा नमस्कार है

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कालजयी नाटक अन्धेर नगरी की शुरुआत में लिखी गई हैं ये पंक्तियां


छेदश्चंदनचूतचम्पकवने रक्षा करोरद्रुमेः
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः।
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासयोः।
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मैनमः।।

[जो चन्दन, आम तथा चम्पा-वन को काटकर कीकर के वृक्ष की रक्षा करता है, जो हंस, मोर और कोयल के प्रति हिंसक होकर काक-लीला में रुचि लेता है, जो हाथी के बदले गधा खरीदता है और कपूर एवं कपास को एक-सा मानता है, जहाँ के ‘गुणीजन’ ऐसे ही विचार रखते हों, उस देश को हमारा नमस्कार है।]

Thursday, November 4, 2010

दीप रे तू जल अकम्पित











दीप रे तू जल अकम्पित
                  ( महादेवी वर्मा की कविता )
दीप मेरे जल अकम्पित,
घुल अचंचल !

सिन्धु का उच्छ्वास घन है,
तड़ित् तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का
आँसुओं से सिक्त अंचल !
स्वर-प्रकम्पित कर दिशाएँ,
मीड़ सब भू की शिराएँ,
गा रहे आँधी-प्रलय
तेरे लिए ही आज मंगल।
मोह क्या निशि के वरों का,
शलभ के झुलसे परों का,
साथ अक्षय ज्वाल का
तू ले चला अनमोल सम्बल !
पथ न भूले, एक पग भी,
घर न खोये, लघु विहग भी,
स्निग्ध लौ की तूलिका से
आँक सब की छाँह उज्ज्वल !
हो लिये सब साथ अपने,
मृदुल आहटहीन सपने,
तू इन्हें पाथेय बिन, चिर
प्यास के मरु में न खो, चल !

धूम में अब बोलना क्या,
क्षार में अब तोलना क्या !
प्रात हँस-रोकर गिनेगा,
स्वर्ण कितने हो चुके पल !

दीप रे तू गल अकम्पित,
चल अचंचल !
* 'कबाड़ख़ाना' के सभी हमराहियों को दीपावली की मुबारकबाद !

Monday, November 1, 2010

यदि होता किन्नर नरेश मैं





यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,
सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।

बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे,
प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे।

मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन,
मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण।

यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर,
हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर।

बाँध खडग तलवार सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता,
बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता।

राज महल से धीमे धीमे आती देख सवारी,
रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी।

जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते,
हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते।

सूरज के रथ सा मेरा रथ आगे बढ़ता जाता,
बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता।