Wednesday, February 29, 2012

वहीं वे फूल भी हैं जो जीवन में खिलना चाहते हैं

शरणस्थली और क़त्लगाह 


-कुमार अम्बुज

जीवन में अगर चीख़ है
तो क्या बुरा है कि वह कविता में सुनायी दे
दरवाजा है तो उसमें से गुज़रा जा सके
चुम्बन है तो होंठों पर उसका स्वाद हो
यह कविता की कला है लेकिन भाषा के साथ है
उसका एक काम यह भी हो सकता है
कि वह हमें दिन के मरुस्थल या रात की सुरंग के
पार ले जाए और किसी अजायबघर में छोड़ दे

इस बीच बाज़ारों की क्यारुयाँ तुम्हें लुभाती हैं
विश्वविद्यालयों के परिसर तुम्हें पुकारते हैं
राजनेता और धर्माचार्य तुम्हें
झाडियों में ले जाने के लिए उद्यत हैं
इतिहास पर टुकड़ों में रोशनी गिरती है
और इन्हीं के बीच से होकर कविता का रास्ता है
जो कला भी है और भाषा भी

वहीं वह बन्दूक भी है जो जब कविता में चलती है
तो ठीक उसी वक़्त जीवन में भी चलती है
वहीं वे फूल भी हैं जो जीवन में खिलना चाहते हैं
तो खिलते हैं कविता में भी
वहीं वह स्पर्श है जो इन्द्रियों को
एक साथ उल्लसित और मूर्छित करता है

चौराहे की भीड़ को चीरते हुए जब तुम सुबह-सुबह
गुजरते हो तो कितने बेरोजगार
तुम्हारी तरफ झपटते हैं उम्मीद से
यह दो-चार दिन पुरानी बात भी नहीं है
जब एक निरीह बच्चा अपना हाथ फैलाए
तुम्हारे सामने खड़ा था और तुम उसे झिडक रहे थे
अक्सर ही तुम्हारे घर की बाई
अपनी उतनी छोटी बेटी को एवज़ी में भेज देती है
जो बमुश्किल पहुँच पाती है सिंक की ऊंचाई तक

यदि तुम इस तंत्र का शिकार हो तब भी
तुमने उतनी दूर तक दौड नहीं लगाई है
जितनी बिल्ली को देखकर चूहा लगाता है
तुम जो कविता को शरणस्थली बनाते हो
जो कला भी है लेकिन हर बार
खुले में एक मोर्चा बन जाती है
और शरणस्थलियों को क़त्लगाह बनाती है.

पड़िए गर बीमार


मुश्ताक़ अहमद यूसुफी की एक और रचना ज़िया मोहिउद्दीन साहब की शानदार आवाज़ में –

 

 डाउनलोड लिंक ये रहा – http://www.divshare.com/download/16858048-4ac

पर आत्मा में उजाला कब भरेंगें वे - गुजरात के बहाने से


गुजरात दंगों के दस साल बीत गए. भारतीय इतिहास के माथे पर लगी इस कालिख को कौन भुला सकता है. शिवप्रसाद जोशी उठा रहे हैं कुछ सवाल जो हमेशा से प्रासंगिक रहे हैं -


दस सालः भारी गुज़रती है रात

-शिवप्रसाद जोशी

गुजरात. दस साल से जैसे एक रात में सोए हुए हों और हड़बड़ाकर उठे फिर सो गए हों. नींद नींद नींद. एक बेसुधी. रेहान फ़ज़ल को मारने के लिए वे आ गए हैं. कार घेर ली है. पत्नी का क्रेडिट कार्ड पास है. नाम है ऋतु राजपूत. उसे दिखाया. उस हमलावर ने कहा रितिक. हिंदु है. जाने दो. रेहान फ़ज़ल पसीने में भीगते हुए सिकुड़ गए. बीबीसी रेडियो पर दस साल पहले के उस वाकये को याद करते हुए जैसे रेहान डर कर और न जाने कहां घुटी पड़ी हुई चीखों के सहारे बोलते हैं. वो उस डर के प्रेत को अपने सामने डोलता हुआ देख सकते हैं. मुझे भी झुरझुरी होती है.

दंगाई के सामने पड़ जाना.

उसका छोड़ देना. 

या आग के हवाले कर देना.

गुजरात के एक मृतक का बयान पढ़ा है और गुजरात के एक बच गए व्यक्ति का बयान सुना है. गुजरात की दास्तानें सुनी हैं. पढ़ा है सुना है किताबों पत्रिकाओं अख़बारों में तस्वीरें और टीवी में दृश्य देखे हैं. क्या उसके अंधेरों और वीरानों और डरावनी दीवारों को देख पाया. गोधरा से लेकर अहमदाबाद तक क्या कोई सीधी रेखा है जो मेरे दिल को चीरती हुई गुज़रती है. या नियति पर ये आड़ी तिरछी खरोंचे हैं बंगलौर से कश्मीरदेहरादून से जयपुर तक. ये खरोचें चाहकर भी क्यों नहीं मिटा पाता. और ये नियति क्या है. मैं गुजरात के मृतक का बयान नाम की कविता पढ़ता हूं तो मुझे अनायास रोना क्यों आता है. वे तस्वीरेंवे बयानवे लोग. क्या हम सेंटीमेंटल होकर यूं ही खप जाएंगें. हम क्या करें. उन लड़ाइयों में हमारी क्या भूमिका है जो दस साल से न्याय हासिल करने के लिए जारी हैं.

मोदी को लोग मैनेजर बताते हैं. कि आर्थिक विकास के मैनेजर हैं. पर मोदी नाम का कोई मनुष्य भी तो होगा. क्या नहीं है. गुजरात पर दस साल पहले धंसा कांटा निकाल फेंकने और बीती ताही बिसार दे का ज्ञान देने वाली एक तृप्त बिरादरीबताओ क्या जो नहीं भूलता वो सिर्फ़ बदला ही होता है. क्या प्रतिशोध ही एकमात्र भावना रह जाती है. या ग्लानि भी कोई भावना होती है. वो कांटा अब ख़ून से सना है और वहीं से खाद लेता हुआ एक कंटीला पेड़ बन गया है. इस पेड़ का साया हमारे सिरों से नहीं हटता. क्या करें. हम अभिशप्त हैं. और रहेंगे. वे गुजरात को समस्त काल्पनिक कल्पनातीत यथार्थपरक जितना भी जैसा भी स्वर्गनुमा बना दे पर इस शाप से मुक्ति असंभव है. आज़ाद भारत आत्मग्लानि का भारत भी है.

कुछ व्यक्तियों ने हम सबको एक बहुत बड़ी जेल में डाल दिया है. हमारे मातापिता हमारे बच्चे हमारे दोस्त हमारे संबंधी. घूमते फिरते ख़ुश रहते खातेपीते टहलते नौकरी पर आतेजाते क्या हम नहीं जानते कि ये सब एक बहुत बड़ी जेल के भीतर करना पड़ रहा है. खुली हवा. किस खुली हवा की बात कर रहे हैं आप. किस खुली हवा में सांस लेंगे. क्या पिछले दस साल से आप अपनी सांसों में जमा दुर्गंध को नहीं महसूस कर रहे. ये उन कब की जलाई जा चुकी फेंकी जा चुकी दफ़्न की जा चुकी लाशों से अभी तक उठ रही है. और दस साल ही क्यों.

ख़ामाख्वाह भावुक होने का किसका जी चाहता है. हिंदी में तो कितने ख़तरे हैं इसके. पूरी पहचान को काली स्याही में डुबो देंगे. पर मैं कहता हूं इसी भावुकता से आप मनुष्यता ग्रहण करेंगेसबजेक्ट से एक ऐसी दूरी रख पाएंगे कि पास जाना पड़े तो चौंके नहीं कि कहां आ गए. गुजरात बहुत ढंग से बहुत कुछ सिखाता है. चुभता तो ये रहेगा ही चाहे कितने ही वे अमिताभ कितनी ही महिमा रच लें.

24 घंटे गांवों में बिजली तो ले आएंगें पर आत्मा में उजाला कब भरेंगें वे. उस घने काले गहरे सूराख में कितनी कारें कितनी हरियाली कितना पानी और कितना सकल घरेलू उत्पाद डाल देंगे कि वो भर जाए.

एक अखबार जो चार साल में एक दिन छपता है




फ्रांस में १९८० में “La Bougie du Sapeur” नाम के अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ था – २९ फ़रवरी १९८० को. एक फ्रांसीसी वनस्पतिविज्ञानी जॉरजेस कूलाम द्वारा रचे गए एक कॉमिक कैरेक्टर कैमेम्बर को केन्द्र में रख कर इस अखबार की परिकल्पना की गयी थी. कैमेम्बर २९ फ़रवरी को जन्मा था.


आज उसका नवां अंक छापकर आने वाला है. पिछली बार इस की दो लाख प्रतियां छापी गयी थीं.
जाक देबुसी और क्रिस्टियन बेली द्वारा शुरू किये गए इस अखबार का एक नया संस्करण २००४ में लॉन्च किया गया – संडे एडीशन. अब तक इसका एक ही अंक छापा है. अगला अंक २९ फरवरी २०३२ को छपेगा.
यह अखबार शायद दुनिया का सबसे सस्ता अखबार भी है. सौ सालों की सदस्यता के लिए आपको करीव सवा छः हज़ार रुपए देने होंगे. यह अलग बात है कि एक शताब्दी तक आप अगर बचे रहे तो आपको इस अंतर्राष्ट्रीय अखबार के मात्र पच्चीस अंक मिलेंगे.



नोट- अखबार की एजेंसी लेने के इच्छुक जन मुझ से संपर्क कर सकते हैं. हमारे प्रतिष्ठान में एक हज़ार साल के पैसे एडवांस देने पर विशेष छूट की व्यवस्था भी है.

Tuesday, February 28, 2012

हत्यारों को अब कितनी आसानी है!

कुमार अम्बुज के संग्रह 'अमीरी रेखा' से इन दिनों आप कुछ कवितायेँ पढ़ रहे हैं. आज उस संग्रह से एक और छोटी सी कविता.

आसानी

(आधुनिक कंसंट्रेशन कैम्प)


मैं बहुसंख्यकों के मोहल्ले में रहता हूँ
तुमने भी बना ली है अपनी अलग बस्ती

मिट्टी से अलग मिट्टी
पानी से अलग पानी है

हत्यारों को
अब कितनी आसानी है!

आना घर मुर्गियों का


मुश्ताक़ अहमद यूसुफी साहेब की विख्यात रचना का पाठ कर रहे हैं जनाब ज़िया मोहिउद्दीन-

 

 डाऊनलोड यहाँ से करें – http://www.divshare.com/download/16857923-40c

आ चल के तुझे मैं ले के चलूं


जैसे कोई सितारा बादल के गांव में

सुशोभित सक्तावत

किशोर कुमार की आवाज हिंदी सिने संगीत की पहली आधुनिक और बेतकल्लुफ आवाज थी। उसमें एक खास सांकेतिकता थी। खिलंदड़ रति चेष्टाएं थीं, मनुहार थी, अभिसार का आमंत्रण था। किशोर की आवाज में कोई चेकपोस्ट न थे, नाकेबंदी न थी, इसीलिए यह भी अकारण नहीं है कि अपने प्लेबैक गायन के प्रारंभिक दिनों में किशोर देव आनंद के लिए गाते थे, जो कि हिंदी सिनेमा के पहले आधुनिक, शहराती और डेमोक्रेटिक सितारे थे।

किशोर कुमार ने अपने समकालीनों की तुलना में देरी से प्रतिष्ठा पाई, लेकिन उनकी आवाज उन सभी से दीर्घायु सिद्ध हुई। किशोर अगर भूमंडलीकरण द्वारा प्रस्तावित संस्कृति के प्रिय गायक बन गए हैं तो यह भी अनायास नहीं है। किसी भी म्यूजिकल प्लैनेट में चले जाइए, 1950-60 के दशक का सुगम संगीत वहां मिले न मिले, किंतु ‘कॉफी विद किशोर’ सरीखे रुपहले बॉक्स सेट जरूर मिल जाएंगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि किशोर की आवाज आधुनिकता, उच्छृंखलता और अनौपचारिकता के उन गुणों का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे भूमंडलीकरण की पीढ़ी ने अपनी देहभाषा में अंगीकार किया है।

लेकिन महज इतने में किशोर कुमार को महदूद कर देना उन्हें सिरे से चूक जाना होगा। किशोर का असल गायन राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के लिए गाए गए पॉपुलर प्लेबैक गीतों में नहीं है। किशोर का असल गाना सुनना हो तो आ चल के तुझे मैं ले के चलूं या ठंडी हवा ये चांदनी सुहानी जैसे तराने सुनें।

या फिर अनिल बिस्वास की 1953 की वह बंदिश सुनें - आ मुहब्बत की बस्ती बसाएं सनम या फिर सत्यजित राय की फिल्म ‘चारुलता’ का वह भीना-भीना बांग्ला गीत सुनें : आमि चिनी गो चिनी तोमारे, ओ गो बिदेशिनी। खरे सोने जैसी खनकदार आवाज, पिघले शीशे-सी ढलाई, गाढ़ा पौरुषपूर्ण स्वर, स्मृतियों में थिगा भाव अमूर्तन और एक निरपेक्ष विषाद, ये किशोर के गायन के अनिवार्य गुण हैं।

किशोर के गाने में निर्वेद का तत्व भी हमेशा उपस्थित रहा। आए तुम याद मुझे या कोरा कागज था ये मन मेरा जैसे शांत रस के गीतों में भी उनकी आवाज डूबी-सी लगती है। लगता है जैसे किशोर की आवाज का निर्वेद विश्व-स्थिति पर एक उदास टिप्पणी है, एक कायनाती अफसोस है। कोई हमदम न रहा के अंतरे में जब किशोर की आवाज कोहरे में फैलती है तो लगता है जैसे उनके भीतर का वह अलक्षित विषाद सघन होकर दिशाओं में व्याप गया हो।

संगीत अगर निज को सार्वभौम बनाने का रसायन है तो किशोर की आवाज इसका प्रतिमान है। उनके यहां मन्ना डे का आत्मिक आलोड़न नहीं, तलत का कातर भाव या रफी की रूमानी रुलाइयां भी नहीं, एक ऐसा तत्व वैशिष्ट्य है, जिसे व्याख्याओं से नहीं, व्यंजनाओं से ही पकड़ा जा सकता है, जैसे ग्रीष्म की दुपहरियां, ऊंघता निदाघ, सांझ के लंबे साये, झुटपुटे में गुमी किरणों, घड़ी का झूलता पेंडुलम, रेडियो पर रवींद्र संगीत या कतबों के सामने सुबकती मोमबत्तियां।

किशोर हिंदी सिने संगीत के विरल म्यूजिकल जीनियस हैं। गाते समय वे अंगुलियों पर मात्राएं नहीं गिनते, अपनी धमनियों में गूंजती लय को सुनते और उसका अनुसरण करते हैं। वे सुरों के सगे बेटे हैं।

किशोर को सुनते हुए हम सभी कमोबेश किशोर हो जाते हैं। और इसीलिए उनके गीतों की पंक्तियां हमें अपना आत्मकथ्य जान पड़ती हैं, जैसे यह :

से मैं चल रहा हूं पेड़ों की छांव में
जैसे कोई सितारा बादल के गांव में
मेरे दिल तू सुना
कोई ऐसी दास्तां
जिसको सुनकर मिले चैन मुझे मेरी जां
मंजिल है अनजानी.

मेरा यकीन है ठोस, अन्धा और निराधार


फरवरी के पूरे महीने आप पोलैंड की इस महान कवयित्री की रचनाओं का आस्वाद लेते रहे. मुझे उम्मीद है आप को ये कविताएँ भाई होंगी. आज शिम्बोर्स्का - सीरीज़ की यह अंतिम कविता.

खोज

विस्वावा शिम्बोर्स्का

मुझे महान खोज पर यकीन है
मुझे उस आदमी पर यकीन है जो महान खोज करेगा
मुझे उस आदमी के भय पर यकीन है जो महान खोज करेगा
मुझे यकीन है सफ़ेद पड़ते उसके चेहरे पर
उसकी बेचैनी पर, ठण्डे पसीने से भीगे उसके ऊपरी होंठ पर
मुझे उसके नोट्स के जलने पर यकीन है
उनके राख में बदलने और
उनके आखिरी टुकड़े के जल चुकने पर यकीन है
मुझे संख्याओं के बिखराए जाने पर यकीन है
उन्हें बग़ैर किसी पश्चाताप के बिखराए जाने पर
मुझे आदमी की हड़बड़ी पर यकीन है
उसकी गति की सुघड़ता पर
और उसकी मुक्त इच्छाशक्ति पर यकीन है
मुझे दवा की गोलियों के टूटने पर यकीन है
द्रवों के उड़ेले जाने पर
और किरणों के बुझ जाने पर यकीन है
मैं पक्का विश्वास करती हूं कि इस सब का अन्त भला होगा
कि ऐसा होने में बहुत देर नहीं हो जाएगी
और यह कि बिना किसी प्रत्यक्षदर्शी के सब कुछ घटेगा
मुझे पक्का मालूम है कि कोई नहीं जान पाएगा असल में क्या हुआ था
न कोई पत्नी, न कोई दीवार,
वह चिड़िया भी नहीं जो ऊंची आवाज़ में गाती है
मुझे चीज़ों में हिस्सा न लेने पर यकीन है
मुझे तबाह ज़िन्दगानियों पर यकीन है
मुझे वर्षों की बर्बाद मेहनत पर यकीन है
मुझे उस रह्स्य पर यकीन है जिसे कोई शख्स अपनी कब्र तक ले जाता है
मेरे लिए इन शब्दों की ऊंची उड़ान तमाम कानूनों के परे है
जिसके वास्ते मुझे वास्तविक उदाहरणों की ज़रूरत नहीं पड़ती
मेरा यकीन है ठोस, अन्धा और निराधार.

Monday, February 27, 2012

स्वांतः सुखाय

स्वांतः सुखाय

कुमार अम्बुज

जो स्वांतः सुखाय था
उसकी सबसे बड़ी कमी सिर्फ यह नहीं थी
कि उसे दूसरों के सुख की कोई फ़िक्र न थी

बल्कि यह थी कि वह अक्सर ही
दूसरों के सुख को
निगलता हुआ चला जाता था.

अकबर इलाहाबादी साहब का एक खत

आज अकबर इलाहाबादी साहब का एक खत. आवाज़ फिर से ज़िया मोहिउद्दीन की –



 

डाउनलोड लिंक – http://www.divshare.com/download/16857840-d98

एक असंभव आह्लाद की दहलीज पर खड़े होने के क्या मायने हैं

उस्ताद का गायन एक असमाप्त सभा है सुशोभित सक्तावत
मैहर घराने के सितार वादक पं. निखिल बैनर्जी उस घटना को ताउम्र नहीं भूले। 1950 के दशक का उत्तरार्ध रहा होगा। वे एक संगीत सभा में अपने अग्रज गुरुभाई पं. रविशंकर का सितार वादन सुनकर लौट रहे थे कि तभी हवा में तैरती एक आवाज सुनकर ठिठक गए। एक अनसुना-सा राग और एक अप्रतिम गहन-गंभीर स्वर।

कुछ ऐसा ही, जिसे कीट्स ने ‘फुल थ्रोटेड ईज’ कहा है। वे सभा में लौट आए। वह कर्नाटकी संगीत का राग अभोगी कानड़ा था, जिसे किराना घराने के उस्ताद अब्दुल करीम खां ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रचलित कर दिया था। और गाने वाले थे अब्दुल करीम खां साहब के उत्तर-स्वर उस्ताद अमीर खां। उस्ताद अमीर खां का गाना सुनकर ठिठक जाने वाले पं. निखिल बैनर्जी अकेले नहीं थे। वे उस सम्मोहन के अकेले साझेदार नहीं थे।

 उस्ताद अमीर खां के स्वर की राग-दीप्ति ही कुछ ऐसी है। उन्हें सुनते हुए हमेशा मन में एक दीर्घ व्यक्तित्व की छवि बनती है। उन्हें सुनते हुए हमेशा पहाड़ याद आते हैं। वे सुरों के सुमेरु हैं। मेरुखंड गायकी की मेखला के विराट धारक। उस्ताद को सुनते हुए इंदौर एक शहर नहीं घराना है।

 उत्तरप्रदेश का किराना और मध्यप्रदेश का इंदौर। भूगोल कहता है कि इन दो जगहों के बीच सैकड़ों मील की दूरी है, लेकिन संगीत की दुनिया में ये दो जगहें नहीं, एक-दूसरे से परस्पर अंत:क्रिया करते दो शुद्ध स्वर हैं। षड्ज और पंचम। एक वादी, दूसरा सम्वादी।

 किराना में ही उस्ताद अब्दुल करीम खां जन्मे, यहीं उस्ताद अब्दुल वहीद खां ने सुर साधा और यहीं किराना घराने की जगविख्यात खयाल गायकी का ठाठ जमा। कोमल स्वराघात और धीमी बढ़त का भद्र सौंदर्यपरक गायन। यूं तो उस्ताद अमीर खां इंदौर घराने के हैं, लेकिन किराना घराने वाले उन्हें अपना मानते हैं।

 अलबत्ता अमीरखानी गायकी का सम्मोहन किसी एक स्वर वैशिष्ट्य से निर्मित नहीं हुआ था। उसमें उस्ताद अब्दुल वहीद खां सरीखी विलंबित लय है, उस्ताद रजब अली खां सरीखी तानें हैं और उस्ताद अमान अली खां सरीखी मेरुखंड शैली है। बंबई के भिंडीबाजार घराने के अमान अली खां का गाना अमीर खां ने उनके घर के बाहर खड़े होकर सुन-सुनकर सीखा था। इन अर्थो में वे संगीत की श्रुति परंपरा के भी संवाहक हैं।

 हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन के स्थापत्य और सौंदर्यशास्त्र के बारे में बात करते समय यह याद रखना चाहिए कि यह संगीत उस आदिम संसार से आता है, जो कंठ की कंदराओं में बसा है। अर्थध्वनियां उसके सिंहद्वार पर ठिठकी रहती हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन अनहद का आलाप है, जो समूचे अस्तित्व के मंद्रसप्तक से उठकर आता है। गायन में सम पर आमद किसी प्रतिक्रमण से कम नहीं, षड्ज पर विराम परिनिर्वाण से कम नहीं और अमीर खां की गायकी में ये तत्व पूरी धज के साथ मौजूद हैं।

 उस्ताद बड़े गुलाम अली खां अगर ठुमरी के सम्राट थे तो अमीर खां खयाल के सिरमौर। बड़े खां साहब का गायन अगर संबोधन था तो अमीर खां साहब का गायन आत्ममंथन। ये दोनों मिलकर हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन के शीर्ष राग-द्वैत का निर्माण करते हैं। विपर्यय किंतु परस्पर।

 यदि कलागत सौंदर्य साक्षात की तात्कालिक संभावना है तो कह सकते हैं कि संगीत इसका सबसे बड़ा प्रतिमान है। यही वह चीज है, जो सदियों से इंसान की रूह को रूई की मानिंद धुनती चली आ रही है। अमीर खां का मालकौंस या तोड़ी सुनें तो समझ आ जाएगा कि एक असंभव आह्लाद की दहलीज पर खड़े होने के क्या मायने हैं।

 यह गायन देशकाल के मिथक को तोड़ता है। वह तमाम जमानों और इलाकों के परे है। उसमें कायनात की विलंबित नब्ज है और गहन दार्शनिक चिंतन है। कह सकते हैं कि उस्ताद की आवाज ने हमारे जीवन को एक असमाप्त सभा बना दिया है और हम उसमें कोमल गांधार की तरह ठिठके हुए हैं।

हमारे पूर्वजों का संक्षिप्त जीवन


हमारे पूर्वजों का संक्षिप्त जीवन

विस्वावा शिम्बोर्स्का

उनमें से बहुत थोड़े जी सके तीस की उम्र तक
वृद्धावस्था तब चट्टानों और पेड़ों का विशेषाधिकार थी
बचपन उतना ही होता था जितनी देर में भेड़िये के बच्चे बड़े हो जाते थे
जीवन के साथ चलने के लिये, आपको जल्दी करनी होती थी
-सूरज डूब जाने से पहले
-पहली बर्फ़ के आने से पहले

तेरह साल की लड़कियां बच्चे जनती थीं
चार साल के बच्चे जंगलों में चिड़ियों के घोंसले तलाशते थे
और बीस की उम्र में शिकारियों की टोली का नेतृत्व करते
-अब वे नहीं हैं, वे जा चुके हैं
अनन्तता के सिरों को जल्दी-जल्दी तोड़ दिया गया.
अपनी युवावस्था के सुरक्षित दांतों से
जादूगरनियां चबाया करती थीं टोने-टोटके.
अपने पिता की आंखों के सामने पुरुष बना एक बेटा
दादा की आंखों के खाली कोटरों के साये में जन्मा एक पोता.

जो भी हो, वे लोग वर्षों की गिनती नहीं करते थे.
वे जाले, बीज, बाड़े और कुल्हाड़े गिना करते थे.
समय जो इतनी उदारता से देखता है आसमान में किसी सुन्दर सितारे को
उसने उनकी तरफ़ एक तकरीबन ख़ाली हाथ बढ़ाया
और उसे वापस खींच लिया, मानो यह सब बहुत श्रमसाध्य रहा हो
एक कदम और, दो कदम और,
उस चमकीली नदी के साथ-साथ
जो अन्धकार से निकलकर अन्धकार में विलीन हो जाती थी.

खोने के लिये एक भी पल नहीं था,
न कोई स्थगित प्रश्न, न देर से होने वाले रहस्योद्घाटन
बस वही हा जिसे समय के भीतर भोगा गया.

सफ़ेद बालों की प्रतीक्षा नहीं करे सकती थी बुद्धिमत्ता
उसने रोशनी देखने से पहले सब कुछ देख लेना था
और सुनाई देने से पहले सुन लेना था हर आवाज़ को.
अच्छाई और बुराई-
इनके बारे में बहुत कम जानते थे वे, लेकिन जानते सब कुछ थे,
जब बुराई जीत रही हो, अच्छाई को छिपना होता है
और जब अच्छाई सामने हो, तो बुराई को,
दोनों में से किसी को भी जीता नहीं जा सकता
न ही ऐसी किसी जगह फेंका जा सकता है, जहां से वे वापस न लौटें

इसलिए अगर आनन्द होता, तो थोड़े भ्रम के साथ
और उदासी होती, तो ऐसे नहीं कि मद्धिम सी भी उम्मीद न हो.

जीवन चाहे कितना भी लम्बा हो, रहेगा सदैव संक्षिप्त ही.
कुछ भी और जोड़े जाने के वास्ते बहुत छोटा.

Sunday, February 26, 2012

और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है

कुमार अम्बुज जी के संग्रह 'अमीरी रेखा' से एक और कविता-

जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो

फिर न वह पेड़ वैसा बचता है और न वैसी रात आती है
न ओंठ रहते हैं न पंखुरियाँ
रूपकों और उपमाओं के अर्थ ध्वनित नहीं हो सकते
कार्तिक जा चुका है और ये पौष की रातें हैं जिनसे सामना है

जीवन में रोज ऐसा होता है कि कृतज्ञता ज्ञापित 
कर सकने के क्षण में हम सिर्फ अचंभित रह जाते हैं
और फिर वक़्त निकल जाता है

बाद में तुम पाते हो कि वे आदमी और जगहें ध्वस्त हो चुकी हैं
या इतनी बदल गयी हैं कि उन्हें धन्यवाद देना
किसी अजनबी से कुछ कहना होगा

लेकिन इस से हमारे भीतर बसा आभार
और उसका वजन कम नहीं हो जाता
एक निगाह, एक हाथ और एक शब्द ने
यहाँ तक जीवित चले आने में हरेक की मदद की है
और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है

धन्यवाद न देने की कसक भी साथ चली जाती है
जो घेर लेती है किसी मौसम या टूटी नींद में
जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
उन्हें अब खोजना भी मुश्किल है
और जो सामने हैं उनके बरअक्स तुम
फिर अचकचाए या सकुचाए खड़े रहते हो

हालांकि कई चीज़ें तुम्हारी भाषा नहीं समझतीं 
पतझड, झरने, चाय की दूकान और अस्पताल की बेन्च
लेकिन उनसे तुम्हारा बर्ताव ही बताएगा कि तुम
आखिर कहना क्या चाहते हो
शायद इसलिए ही कभी सोच समझकर या अनायास ही
तुम उनके कंधे पर अपना सर रख देते हो.

(नोट- इस कविता को पढते हुए मुझे अपने सर्वप्रिय आधुनिक फिल्मकार सर्बिया के एमीर कुस्तुरिका की  एक महशूर फिल्म 'अंडरग्राउंड' का आख़िरी दृश्य याद आता रहा. इसलिए कुछ लोगों को इस पोस्ट के साथ लगा उस फिल्म के उस दृश्य के एक लॉन्ग-शॉट का फोटो अटपटा लग सकता है. पर सनक अपनी-अपनी.)

मरहूम की याद में उर्फ साइकिल की सवारी - ज़िया मोहिउद्दीन


पतरस बुखारी की रचना को स्वर दे रहे हैं जनाब ज़िया मोहिउद्दीन. रचना लंबी है. कोई आधे घंटे की. लेकिन एक भी सेकेण्ड कोई बोर नहीं हो सकता. गारंटी. अभी समय न हो तो डाउनलोड कर लीजिए और फुर्सत में सुनिएगा ज़रूर.

 

डाउनलोड यहाँ से कीजिये- http://www.divshare.com/download/16857807-959

गिटार को वह इस कदर बजाता, जैसे बारिश की डोरियां सहला रहा हो

सुशोभित सक्तावत के लेखों की सीरीज़ में आज दूसरा लेख जॉर्ज हैरिसन पर.



कनटोपे सरीखी हेयरस्टाइल, एलग्रेको की तस्वीरों से झांकता हुआ-सा लंबोतर चेहरा, क्षितिज के उस तरफ ताकती पनीली आंखें, दुबली-छरहरी देह। वह बीटल्स का लीड गिटारिस्ट था, लेकिन अपने तीनों साथियों की तुलना में संकोची, मितभाषी, गैरराजनीतिक व अधिभौतिक रुझानों वाला।

 शायद इसीलिए उसे ‘क्वाइटेस्ट ऑफ द क्वाट्र्रेट’ कहते थे। जब जॉन लेनॅन बीटल्स की तूफानी कामयाबी की डींगें हांक रहे थे, तब उसने कहा था इतनी लोकप्रियता मुझे उदास कर देती है। वह स्टेज की चकाचौंध में एक गुमसुम-सा गिटारिस्ट था। उसका नाम था जॉर्ज हैरिसन।

१९६० में जब वह बीटल्स से जुड़ा, तब उसकी उम्र महज 17 बरस थी। वह सबसे कमउम्र बीटल था। उस समय परिदृश्य में जिमी हेंड्रिक्स, चक बेरी, कीथ रिचर्डस, एरिक क्लैपटन जैसे धांसू रॉक गिटारिस्ट मौजूद थे। अमूमन यही स्थिति बीटल्स की गैंग में भी थी।

पॉल मैकार्टनी बीटल्स का लीड सिंगर और चॉकलेटी पोस्टर बॉय था। जॉन लेनॅन उनका प्रमुख सांगराइटर
और एक्टिविस्ट था। रिंगो स्टार धुरंधर ड्रमर था। इनके बीच हैरिसन बरसों तक एक ‘छुटकू’ की भूमिका निभाता रहा, लेकिन लेनॅन-मैकार्टनी ने शायद यह भुला दिया था कि एक रॉक बैंड में लीड गिटार ही सही मायनों में लीड वोकल होता है।

जब हैरिसन ने गिटार बजाना शुरू किया, तब एल्विस प्रेस्ले के रॉक-एन-रोल का फैशन था, लेकिन उसने अपने आदर्श कार्ल पर्किसन की प्लकिंग स्टाइल से कभी दामन नहीं छुड़ाया। उसके बाद जिमी हेंड्रिक्स ने गिटार को एम्प्लीफायर से जोड़कर रॉक संगीत के साउंड में उथल-पुथल मचा दी, लेकिन हैरिसन ने कोमल स्वराघातों के सौंदर्यशास्त्र को हमेशा याद रखा।

गिटार को वह इस कदर बजाता, जैसे बारिश की डोरियां सहला रहा हो। जब उसने ‘व्हाइल माय गिटार जेंटली वीप्स’ लिखा, तब जाकर एहसास हुआ कि उसकी गिटार का गला भी रुंधा-रुंधा रहता था और उसकी स्ट्रिंग्स पर बारिश की बूंदें फिसलती रहती थीं।

 रिकॉर्डिग स्टूडियो में बैठा वह लिवरपूल की कंट्रीसाइड के बारे में सोचता रहता। कंट्री म्यूजिक उसे रास आता था। बॉब डिलन के बैलेड उसे लुभाते थे। भारत की वैष्णवता उसे खींचती थी। बीटलमैनिया के उन दिनों में वह इकलौता बीटल था, जो अपनी जगह पर अनमना था।

‘रबर सोल’ एल्बम के गीत ‘नॉर्वेजियन वुड’ में उसने गिटार और सितार का फ्यूजन कर एक नई जमीन तोड़ी। यह माधुर्य अब तक कभी सुना नहीं गया था। ‘व्हाइल माय गिटार जेंटली वीप्स’ के लिए उसने खुद एक आला दर्जे का गिटारिस्ट होने के बावजूद एरिक क्लैपटन से गिटार बजवाई।

‘विदिन यू विदाउट यू’ में उसने तमाम हदें पार करते हुए तबले-तानपूरे बजवा दिए। वह रॉक संगीत की परिभाषाएं बदल रहा था। १९७१ में जब उसने रवि शंकर के साथ कंसर्ट किया तो वह अपने समय का बहुत बड़ा क्रॉस कल्चरल इवेंट था।

1969 में उसने अपना पहला नंबर वन सिंगल लिखा : ‘समथिंग’। कुछ ने कहा यह ईश्वर को समर्पित गीत है, कुछ ने कहा यह उसने अपनी प्रेमिका के लिए लिखा है, लेकिन हैरिसन ने कहा यह गीत लिखते समय उसके मन में रे चार्ल्स थे : एक अश्वेत नेत्रहीन गायक, जिन्होंने सोल व कंट्री संगीत को अकल्पनीय ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया था।

‘समथिंग’ के लिए हैरिसन ने लिखा : ‘यू नो आई बिलीव, एंड हाऊ’। जिन दिनों म्यूजिक इंडस्ट्री में बीटल्स अपनी बौद्धिकता, कटुता और अप्रत्याशित हरकतों के लिए जाने जाते थे, तब हैरिसन इकलौता ऐसा था, जो भरोसा करना जानता था। लेकिन किस पर? शायद, समथिंग...

चीज़ें आख़िर ख़ुद को उठा तो नहीं सकतीं


अन्त और आरम्भ

विस्वावा शिम्बोर्स्का

हर युद्ध के बाद
किसी न किसी ने चीज़ों को तरतीबवार लगाना होता है.
चीज़ें आख़िर
ख़ुद को उठा तो नहीं सकतीं.

किसी न किसी ने
मलबे को किनारे लगाना होता है
ताकि लाशों से भरी गाड़ियों के लिए
रास्ता बन सके.

किसी न किसी ने गुज़रना ही होगा
गंदगी और राख़,
सोफ़ों के स्प्रिंग,
कांच के टुकड़ों
और ख़ून सने चीथड़ों से हो कर.

किसी न किसी ने लादना होंगे खंभे
दीवार खड़ी करने के वास्ते
किसी ने साफ़ करना होगा खिड़की को
और चौखट में जमाना होगा दरवाज़ों को.

न कोई ध्वनियां, न फ़ोटो खिंचाने के मौके
और यह करने में सालों लग जाने होते हैं
सारे कैमरे जा चुके
दूसरे युद्धों की तरफ़.

पुलों को दोबारा बनाया जाना है
रेलवे स्टेशनों को भी.
आस्तीनें मोड़ी जाएंगी
तार-तार हो जाने तलक.

हाथ में झाड़ू थामे एक कोई
अब भी याद करने लगता है कि यह कैसा था.
एक कोई सुनता है, हिलाता हुआ
अपनी खोपड़ी, जो फूटने से बच गई.
लेकिन आसपास कोलाहल मचा रहे लोगों को
यह सब
तनिक उबाऊ लगेगा.

समय समय पर किसी एक ने
खोद निकालना होगा एक ज़ंग-लगा तर्क
किसी झाड़ी के नीचे से
और उछाल फेंकना होगा उसे मलबे की तरफ़.

उन्होंने
जो इस को तफ़सील से जानते हैं,
रास्ता बनाना होगा उनके लिए
जिन्हें बहुत कम मालूम है.
या उससे भी कम.
और अन्ततः कुछ नहीं से भी कुछ कम.

किसी न किसी को लेटना होगा यहां
घास पर
जो ढंके हुए है
कारणों और परिणामों को
मक्के के पत्ते से छांटा गया तिनका दांतों में दबाए
किसी मूर्ख की तरह बादलों को ताकते हुए.

Saturday, February 25, 2012

इतना तो ज़रूर ही हुआ कि मैं अपनी गलतियों से भी पहचान में आया

कुमार अम्बुज हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण और ज़रूरी कवियों में से हैं. उन के नवीनतम कविता-संग्रह ‘अमीरी रेखा’ से आपको कुछेक पसंदीदा कवितायेँ पढ़वाता हूँ सिलसिलेवार. आज इस क्रम को चालू करते हुए किताब से पहली कविता –

 


यहाँ तक आते हुए

जैसे एक दोपहर की चमक घास कपास नमक
मेरे पास अभी भी हैं इतनी नन्ही और नाज़ुक चीज़ें
जिन्हें न तो युद्ध के ज़रिये बचा सकता हूँ
और न ही शास्त्रार्थ से
शायद उन्हें ज़िद से बचाया जा सकता है या फिर आँसुओं से
छोटी-सी आज़ादी के लिए यही एक प्रस्तावना है
लेकिन सिद्ध करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं
न ही कोई ऐसी जगह जहाँ लगाई जा सके पताका
मेरे पास केवल मेरा यह जीवन है जो जहां है जैसा है वैसा है

मैं एक अयाचित परछाईं होने के स्वप्न की
स्वप्न वह जीवन जिसे मैं जी नहीं पाया
और इस असफलता का दुःख यहीं छोड़ते हुए
एक और सपने के साथ बढ़ना चाहता हूँ आगे
जैसे मैं एक लहर हूँ, एक पत्ता और हवा की आवाज़ 
शब्दों की नमी कहती है, बारिश हो रही है पास में कहीँ

परिजनों का जीवन बचाते हुए एक दिन मेरे गले में मेरे संवाद नहीं थे
मेरी क्रियाओं में शामिल नहीं थी मेरी इच्छाएँ
और फिर इस बात ने भी रास्तों को दुर्गम बनाया
कि जिन्हें करता था प्यार उनके विचारों का नहीं कर पाया सम्मान
फिर भी यहाँ तक चले आने में
 सिर्फ मेरे ही क़दम शामिल नहीं हुए, धन्यवाद
 कि पास में ही कई लोग चलते रहे मेरी भाषा बोलते
 अँधेरे में भरते हुए आवाजों का प्रकाश

 कद्दू की बेल,कत्थई मैदान, अमावस की रात
 चींटी, एक सिसकी, एक शब्द
 और एक बच्चे ने मुझे बार-बार अपना बनाया
 इन्हीं सबके बीच मांगता रहा कुल तीन चीज़ें –
 पीने का पानी, आजादी और न्याय

 हालांकि कई कोने कई जगहें ऐसी भी रहीं
 जहां नहीं पहुंच सके मेरी कोशिशों के हाथ
 लेकिन समुद्र की आवाज़ मुझ तक पहुंचती रही
 करोड़ों मील दूर से चलकर आती रही सूर्य की किरण 
मैंने देखा एक स्त्री ने अपने तंग दिनों में एक जन को
 कहीं और नहीं पहले अपनी आत्मा में
 और फिर अपने ही गर्भ में जगह दी
 इन बातों ने मुझे बहुत आभारी बनाया
 और जीवन जीने का सलीका सिखाया

 यह ठीक है कि कई चीज़ों को मैं उ
तनी देर ठिठक कर नहीं देख सका
 जितनी देर के लिए वे एक मनुष्य से आशा करती थीं
 कई अवसरों को मैंने खो दिया
 मैं उम्मीद में गुनगुनाता आदमी था धनुर्धारी नहीं
 मेरे पास जीवन एक ही था और वह भी गलतियों
 चूकों और नाकामियों से भरा
 लेकिन उसी जीवन के भीतर से
 आती थीं कुछ करते रहने की आवाजें भी
 कितना काम करना था कह नहीँ सकता कितना कर पाया
 इतना तो ज़रूर ही हुआ कि मैं अपनी गलतियों से भी पहचान में आया.

हुमा खातून के नाम खत – जिया मोहिउद्दीन


जनाब ज़िया मोहिउद्दीन से पहलेपहल मेरा परिचय प्रिय मित्र इरफ़ान के माध्यम से हुआ था. फैसलाबाद में जन्मे हरफनमौला ज़िया साहब की ट्रेनिंग १९५० के दशक के शुरुआती सालों में लंदन के रॉयल अकेडमी ऑफ ड्रैमेटिक आर्ट्स में हुई थी. उस दौर में बतौर अभिनेता उनके नाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की फ़िल्में और नाटक हैं. अलबत्ता १९६० में वे वापस पकिस्तान आ गए और वक्त के साथ साथ उन्हें सबसे ज़्यादा ख्याति उनके रचना पाठों ने दिलवाई. आज से उनके कुछेक पाठ आप को यहाँ सुन ने को मिलेंगे. आज सुनिए उनकी आवाज़ में चौधरी मोहम्मद अली रदौलवी का एक खत -

 

इरफ़ान के ब्लॉग पर यहाँ भी सुनिए ज़िया साब को - आइये जिया साहब से एक बार फिर पढ़ना सीखें

लेकिन हमारी आंखों में नींद नहीं, मिस्टर टैंबूरिन मैन

युवा कबाड़ी सुशोभित सक्तावत का लिखा मुझे भाता है. बहुत भाता है. इधर उन्होंने संगीत के तमाम आयामों को छूते कई लेख लिखे हैं. उन्होंने लोर्का के पत्रों का पुस्तकाकार अनुवाद किया है जो संवाद प्रकाशन से छपकर आया है. मेरे एक इसरार पर उन्होंने अपनी वह किताब और कुछेक लेख मुझे भेजे हैं. ज़ाहिर है यह मेरे लिए किसी खजाने के मिलने जैसा है. आज से आप के साथ बांटने जा रहा हूँ. आज सुशोभित लिख रहे हैं मेरे चहेते गायकों में से एक बॉब डिलन पर-



बॉब डिलन के गायन की तुलना किसी भी लोकप्रिय रॉक या जैज गाने से नहीं की जा सकती। उसके गायन की तुलना केवल लोकगायकों और जनगायकों से की जा सकती है। उसके गीतों की तुलना लोकस्मृति में रचे-बसे आल्हा और बिरहे से की जा सकती है। उसे सुनते हुए पॉल रॉब्सन के रेडिकल राजनीतिक तराने या लोर्का के जिप्सी बैलेड्स याद आते हैं। बॉब गायक से बढ़कर एक कवि है, वॉल्ट विटमैन की तरह वह स्वयं का उत्सव मनाता है और दूर्वाओं पर हस्ताक्षर करता चलता है।

1965 में जब डिलन का गीत ‘लाइक अ रोलिंग स्टोन’ आया, तो लगा, जैसे किसी ने ठोस हवा की दीवार में मुक्का मारकर उसमें छेद कर दिया हो। बूज्र्वा संस्कृति के प्रति जिस हिकारत से दांत पीसते हुए डिलन ने यह गीत गाया, उसने मौजूदा काउंटर कल्चरल मूवमेंट को एक नई भंगिमा दी। डिलन के साथ मानो एक पूरी नस्ल पतनशील सभ्यता से पूछ रही थी : ‘हाऊ डज इट फील, टु बी विदाउट होम, लाइक अ रोलिंग स्टोन?’

पश्चिमी पॉप संगीत की परंपरा में रिदम एंड ब्ल्यू और रॉक एन रोल के साथ ही कंट्री और फोक संगीत की भी एक सजीव अंतर्धारा हमेशा प्रवाहित रही। बॉब डिलन के साथ कंट्री संगीत एक अनन्य आधुनिक भावबोध ग्रहण करता है। डिलन के बैलेड्स में बीटनिक कवि एलेन गिंसबर्ग और कंट्री सिंगर जीम रीव्ज एकसाथ गा रहे थे।

गिटार और माउथ ऑर्गन उसके संगी-साथी थे। आजाद हवा उसके गेसुओं में गिरहें गूंथती। काले चश्मे के नीचे छुपी उसकी आंखों में उसके लहजे का तंज दबा-छुपा रहता, लेकिन उसकी आवाज उसके भीतर पैठी इंटेंसिटी को छुपा न पाती। फ्रैंक सिनात्रा, बिल विदर्स और पॉल मैकार्टनी की सुरीली आवाज के अभ्यस्त कानों ने ऐसी आवाज पहले कभी न सुनी थी। अनगढ़ और खरी। गले में खरज। लोअर ओक्तेव को सहलाता खुरदुरा लहजा। सैम कुक ने उसकी आवाज सुनकर कहा था : बॉब के पदार्पण के साथ ही संगीत में सुरीली आवाजों का एकाधिकार समाप्त होता है और सच्ची आवाजों का सफर शुरू होता है।

‘ब्लोइन इन द विंड’ और ‘टाइम्स दे आर अ-चेंजिन’ जैसे उसके गीत युद्ध विरोधी मुहिमों के एंथम बन गए। ‘ब्लोइन इन द विंड’ में वह एक सफेद फाख्ते से, जैसे मनुष्य की नियति से, पूछता है : ‘रेत में सो जाने से पहले, और कितने समुद्र पार करने होंगे तुम्हें?’ और फिर खुद इसका उत्तर देता है : ‘हवाओं पर लिखा है इसका जवाब।’ हवाओं के बदलते रुख पर उसकी नजर थी और वह खुद हवाओं का रुख बदल रहा था।

बॉब डिलन की आवाज की खराशों में मिनेसोटा डाउन से मिसिसिपी डेल्टा तक की सड़क चमकती है, हाईवे 61, जो कि उसके संगीत का जनपथ है। उसने पॉप गीतों को विशुद्ध कविता की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया। लेकिन उसके जीनियस को किसी एक कोष्ठक में बांधना संभव नहीं। वह लोकरंजक होने के साथ ही लोकद्रोही भी है। वह आधुनिक होने के साथ ही आधुनिकता का आलोचक भी है। रॉबी रॉबर्टसन ने उसके बारे में सच ही कहा था : वह विद्रोहों के विरुद्ध विद्रोह कर रहा विद्रोही था। बॉब डिलन संगीत की दुनिया का मार्लन ब्रांडो है। उसने एक नई भंगिमा रची। उसने अपने वर्तमान को भविष्य की भाषा सौंपी।

बॉब डिलन के गीतों के साथ पली-बढ़ी पीढ़ी के लिए उसके गीत दिसंबर की दरमियानी धूप की तरह हैं, जो शहरों को शीशे के कशीदों में बदल देती है, एक चमक और ऊष्मा के साथ। जब-जब यह करिश्मा छीजता है, जी करता है बॉब के पास जाएं और उसके ही शब्दों में उससे कहें : "सांझ का साम्राज्य अब रेत के ढूहों में बिला गया है और पुरानी-खाली सड़कें स्वप्नों के सीमांतों से सुदूर हैं। लेकिन हमारी आंखों में नींद नहीं। मिस्टर टैंबूरिन मैन, कोई गीत सुनाओ..."

डायनासोर का कंकाल

डायनासोर का कंकाल

विस्वावा शिम्बोर्स्का

प्यारे भाइयो!
हमारे सामने है अनुचित अनुपात का एक उदाहरण
ऊपर देखिये, यह रहा डायनासोर का कंकाल

प्रिय मित्रो!
बांईं तरफ़ हम देख सकते हैं अनन्त तक घिसटती एक पूंछ
और दाईं तरफ़ दूसरे अनन्त तक घिसटती गरदन

सम्मानित साथियो!
पहाड़ जैसे धड़ के नीचे
मजबूती से खड़ी हैं चार टांगें कीचड़ में

उदार नागरिको!
प्रकृति ग़लती नहीं करती
पर उसे पसन्द है अपना नन्हा लतीफ़ा:
कृपया ग़ौर करें हास्यास्पद रूप से छोटे सिर पर

देवियो और सज्जनो!
इस आकार के सिर में दूरदृष्टि के लिये जगह नहीं होती
इसलिये इसका स्वामी अब उजड़ चुका है -

माननीय अतिथियो!
बहुत सूक्ष्म मस्तिष्क और बेहद स्थूल भूख
अधिक तर्कहीन नींद बजाय अक्लमन्द भय के -

सम्मानित जन!
इस मामले में हम लोग कहीं बेहतर हैं
जीवन सुन्दर है और दुनिया है हमारी -

शिष्ट प्रतिनिधिगण!
सोचनेवाली शिरा के ऊपर तारों भरा आसमान
और नैतिक नियम उसके भीतर

परम उदार मान्यवर!
शायद इस इकलौते सूरज के नीचे
दो बार नहीं होते ऐसे करिश्मे -

अनन्य सज्जनो!
कितने सधे हुए हाथ
कैसे उस्ताद होंठ
कैसा सिर इन कन्धों के ऊपर

हे सर्वोच्च दरबार!
अदृश्य हो चुकी पूंछ के बदले
कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी -

Friday, February 24, 2012

जब मैंने तुम से कहा था “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ”

सीरिया के महाकवि निज़ार क़ब्बानी की एक और कविता -
जब मैंने तुम से कहा था

जब मैंने तुम से कहा था “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ”
मैं जानता था
कि मैं एक कबीलाई क़ानून के खिलाफ
 बगावत का नेतृत्व कर रहा हूँ,
 कि मैं बजा रहा था बदनामियों की घंटियाँ.

मैं सत्ता हथियाना चाहता था
 ताकि जंगलों में पत्तियों की तादाद बढ़ा सकूं
 मैं सागर को बनाना चाहता था और अधिक नीला
 बच्चों को और अधिक निष्कपट
 मैं बर्बर युग का खात्मा करना चाहता था
 और क़त्ल करना आख़िरी खलीफा का.
 जब मैंने तुम्हें प्यार किया
 मेरी मंशा यह थी कि हरम के दरवाजों को तहसनहस कर डालूँ
 स्त्रियों के स्तनों की रक्षा कर सकूं
 ताकि उनके कुचाग्र
 हवा में खुश हो कर नाच सकें.

 जब मैंने तुम से कहा था “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ”
 मैं जानता था आदिम लोग मेरा पीछा करेंगे
 ज़हरीले भालों के साथ
 धनुष-बाणों के साथ.
 हर दीवार पर चस्पां कर दी जाएगी मेरी तस्वीर
 मेरी उँगलियों के निशान बाँट दिए जाएंगे तमाम पुलिस-स्टेशनों में
 बड़ा इनाम दिया जाएगा उसे जो उन तक मेरा सिर पहुँचायेगा
 जिसे वे शहर के प्रवेशद्वार पर टाँगेंगे
 जैसे वह कोई फिलीस्तीनी संतरा हो.

 जब तुम्हारा नाम लिखा था मैंने गुलाबों की बयाजों में
 सारे अनपढों, सारे बीमारों और नपुंसकों ने उठ खड़ा होना था मेरे खिलाफ
 जब मैंने तय किया आख़िरी खलीफा का क़त्ल करना
 ताकि मोहब्बत की सल्तनत की स्थापना करने की घोषणा कर सकूं
 जिसकी मलिका का ताज मैंने तुम्हें पहनाया
 मैं जानता था
 सिर्फ चिडियाँ गाएंगी मेरे साथ
 क्रान्ति के बारे में.

(चित्र-पौल गोगाँ की पेंटिंग)

क़ाबा नहीं बनता है तो बुतखाना बना दे


"बहजाद" लखनवी साहब को राज कपूर की फिल्म "आग" के मशहूर गीत "जिंदा हूँ इस तरह कि गम-ए-जिंदगी नहीं" के रचनाकार के रूप में खासी शोहरत मिली. लखनवी तहजीब को अपनी शायरी में रंग देने वाले जनाब सरदार अहमद खान यानी बहजाद लखनवी की एक गज़ल पेश है बेगम अख्तर की दिव्य आवाज़ में -



दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वरना कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे

ऐ देखनेवालों मुझे हँस-हँसके न देखो
तुमको भी मुहब्बत कहीँ मुझ-सा न बना दे

मैं ढूँढ रहा हूँ मेरी वो शम्मा कहाँ है
जो बज़्म की हर चीज़ को परवाना बना दे

आखिर कोई सूरत भी तो हो खाना-ए-दिल की
क़ाबा नहीं बनता है तो बुतखाना बना दे

"बहज़ाद" हरेक जाम पे इक सजदा-ए-मस्ती
हर ज़र्रे को सँग-ए-दर-ए-जानाँ न बना दे

गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - २

पिछली किस्त से आगे)


गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - २

शंभू राणा

एक मास्साब हमें कृषि विज्ञान पढ़ाया करते थे। वे न जाने क्यों हमेशा दो पायजामे पहने रहते- एक के ऊपर एक। प्लास्टिक के जूते, दो पायजामें, कुर्ता या शर्ट, कोट और टोपी- यह उनकी पर्मनेंट पोशाक थी। वे क्लास में आते- हूँ क्या है रे आज, कल क्या था ? पुस्तक निकालो। ला तो रे किताब दे तो। खुरपका मुँह पका हो गया था ? धान की खेती….हाँ चलो गन्ने की खेती लिख मारो। पैरा नम्बर 3, 5, 8 को छोड़ कर सब लिख मारो। अतः, फलतः, प्रायः, स्वतः और चूँकि शब्द जहाँ आएँ उन्हें मत लिखना। नहीं तो इम्तहान में इक्जामनर सोचेगा कि तुमने नकल की है। ये सब कठिन शब्द हैं। हम गन्ने या मक्के की खेती वाले पाठ को किताब से कॉपी में नकल करने लगते अतः-फलतः को छोड़ कर। मास्साब दोनों हथेलियाँ पायजामे की कमर में डाले क्लास में टहलने लगते- हस्तलेख जरा ठीक बना रे। दलिद्दर कहीं के। बीच-बीच में किसी लड़के की कमर में एकाध ठोकर लगा देते। मीलों तक गन्ना लहलहा उठता और घंटी बज जाती। हिन्दी वाले मास्साब एक दिन किसी प्रसंग में हमें बता रहे थे कि उस रात चन्द्रशेखर आजाद किसी किसान की झोपड़ी में ठहरे थे। सुबह को जब वे दातून कर रहे थे तो उन्होंने पुलिस की सीटी सुनी और फिर पुलिस से उनकी मुठभेड़ हुई। मैं किसी पत्रिका में पढ़ चुका था कि वह मुठभेड़ इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में हुई थी। चुप रहा, कौन डंडा खाये।

तो जी इस तरह पिटते-पिटाते, हँसते-खेलते अतः, स्वतः और फलतः आठवीं जमात पास कर गये। बाप ने सोचा होगा लड़का ठीक जा रहा है। कुल का नाम रोशन करेगा। कुल का नाम रोशन करना कि सरकारी नौकरी पा जाना, जो कि वे कर रहे थे। कुल-खानदान का नाम रोशन करने के लिये फीस देकर इतने सालों तक पिटने की भला क्या तुक है! समय और पैसे की बर्बादी और नतीजा अनिश्चित। इसके लिये तो मंत्री की कार में पत्थर मारना, डीएम या एसपी की बीवी-बेटी को छेड़ देना ही पर्याप्त है। जैसा चाहो वैसा नाम। नौकरी करते हुए खानदान का नाम रोशन होने की कोई गारंटी नहीं। जरूरी नहीं कि आप इतने बड़े नौकरशाह बनो कि मंत्री के साथ मिलकर करोड़ों-अरबों का घोटाला करने का अवसर आपको मिले ही। मामला खुले ही, आप मीडिया में छा ही जाओ- कोई गारंटी नहीं।

सही समय पर सही राय कोई साला देता ही नहीं। हमें शुरू से ही गलत राय और दिशा देकर भटकाया गया। घर में भी, स्कूल में भी। भटकाने वाले, सच कहें तो बेचारे खुद ही भटके हुए थे। हमें क्या भटकाते, क्या दिशा देते। दोष उनका भी नहीं। वे अध्यापक नैतिक शिक्षा की क्लास में हमें पढ़ा रहे थे कि माता-पिता की सेवा करनी चाहिये। माँ का दर्जा भगवान से भी ऊँचा होता है वगैरा। और ‘हमारे पूर्वज’ नाम की किताब में पढ़ा रहे थे कि परशुराम इतने पितृ भक्त थे कि उन्होंने पिता के कहने पर अपनी माँ की गर्दन काट डाली। इसी विरोधाभासी शिक्षा का नतीजा है कि अधिकांश बच्चों को उनकी संचयिका का पैसा वापस नहीं मिलता। मुझे तो जहाँ तक याद है, कभी नहीं मिला। शायद अच्छा हुआ वर्ना हो सकता है संचय करने की लत लग जाती।

पढ़ाया चाहे जो जा रहा हो लेकिन अपनी समझ में इतना तो तब भी आ गया था कि पितृभक्त होने में कोई बुराई नहीं, लेकिन उसके लिये परशुराम जैसा उजड्ड, विवेकहीन और शायद हाई बी.पी. का मरीज कतई आदर्श नमूना नहीं। इससे तो अच्छा कि बाप के हाथों मार खा लो। माँ गोद में बिठा कर तुम्हारे घाव सहला देगी।

इंटर कॉलेज में नवीं-दसवीं की पढ़ाई का दो-एक साल का अनुभव है। वहाँ हम फीस खा जाना, पीरियड गायब करना, स्कूल न जाकर पिक्चर जाने जैसी कलायें सीख गये।

एक दिन पूरी की पूरी क्लास स्कूल से भाग गई। नतीजतन क्लास टीचर ने हर लड़के को दो-दो रुपये का फाईन कर दिया जो कि उस जमाने में एक अच्छी रकम थी। अठन्नी और मिलाओ तो सिनेमा का टिकट आ जाता था। कुछों ने इसी तरह फाईन माफ करवा लिया तो ज्यादातर ने चुका दिया। हमारे बीच एक माई का लाल ऐसा भी था कि उसने दो रुपये क्लास टीचर की जेब से निकलवा लिये। उसने कहा- सर मैं भागा नहीं था। मैं तो स्कूल ही नहीं आया था। कैसे आता मेरी दादी मर गई थी। क्लास टीचर ने कहा- अरे अच्छा, ओ हो यार ये तो गलत हो गया। अब यार मैं माफ तो नहीं करता क्योंकि प्रिसिपल साहब भी नाराज होते हैं कि पहले फाइन करता है फिर माफ कर देता है। तु मुझसे दो रुपये ले ले, फाइन भर दे।

एक टीचर हमें गणित पढ़ाते थे। इंटरवल के बाद उनका पीरियड होता था। वे लगभग दस मिनट बाद स्टाफ रूम से निकलते। एक हाथ में चॉक का डिब्बा, दूसरे हाथ से डस्टर को अंगूठे और तर्जनी की मदद से पेंडुलम की तरह झुलाते हुए क्लास में आते- किताब निकालो, फलाँ पन्ना, फलाँ सवाल। वे क्लास की ओर पीठ किये ब्लैक बोर्ड पर सवाल हल करते जाते। पूरा ब्लैक बोर्ड भर जाता। फिर एक कोने में कॉपी बराबर जगह में सवाल हल करते। उसके बाद वे हाथ झाड़कर क्लास से मुखातिब होते- देखो तुम इम्तहान में इतना लंबा सवाल हल मत करना। तुम सिर्फ इतना करना (एक कोने में जो उन्होंने किया होता) जो इतना लंबा सवाल करे वह चूतिया है। क्या समझे ? बगल में साइंस वाले लड़के पढ़ रहे हैं, ये तरीका उनको मत बताना। बात आज तक पल्ले नहीं पढ़ी कि जब इतना लम्बा करना ही नहीं तो वे हमें करके क्यों दिखाते थे।

बस इतनी भर यादें हैं स्कूल के दिनों की। इससे आगे जिसे विश्वविद्यालय कहते हैं, वहाँ जाना नहीं हुआ। जिसके लोगो में ‘सर्वज्ञाने परिसमाप्यते’ टाइप का कुछ लिखा है। जिसका ठीक-ठीक मतलब मुझे आज तक मालूम नहीं। उन दिनों हम इसकी व्याख्या यूं करते थे- परिसर में आकर सारा ज्ञान समाप्त हो जाता है। तब छिछोरपने में की गई यह व्याख्या आज देखता, सुनता और महसूस करता हूँ कि एकदम ही बकवास तो नहीं थी।

थोड़ा सा जिक्र अपने सहपाठियों का कर लूँ। कई बार लोगों को कहते सुनता हूँ कि फलाँ मंत्री अपने साथ पढ़ता था। वो जो था हमसे एक साल जूनियर था, आज कल फलाँ जगह का कोतवाल है। अरुण तो फॉरेन सर्विस में चला गया था। आया था एक बार, बढ़िया जॉनी वॉकर लाया था। फलाँ ब्रिगेडियर हो गया है। चंदू का बिहार कैडर था। वहीं कहीं डी.एम. है आजकल। उनका कोई क्लास फैलो सेल में मैनेजिंग डायरेक्टर होता है तो कोई भेल में। ऐसी बातें सुनकर रश्क तो नहीं होता, हाँ सोचता हूँ कि भविष्य का वह मंत्री भी कभी पिटता होगा, फीस खाता होगा, गधे की पदवी से नवाजा गया होगा, तो एक तरह का सुकून महसूस होता है। अपने साथ का कोई लड़का न डी.एम. बना न मंत्री। एकाध फौज में है, एकाध मास्टर। सब के बारे में जानकारी नहीं है। बांकी कोई टैक्सी चलाता है तो कोई सड़क किनारे बैठा हर माल दस रुपये वाली चड्ढियाँ बेच रहा है। अलाँ मजदूरी करता है और फलाँ चाय की दुकान। वाइन शॉप में भी एकाध लड़का नजर आ जाता है। सब जीवन की गाड़ी खींच रहे हैं जैसे भी बन पड़ता है। और मैं ? वहीं निखद्द का निखद्द तब भी आज भी।

मेरी बहन कविता नहीं लिखती


अपनी बहन की प्रशंसा में

विस्वावा शिम्बोर्स्का

मेरी बहन कविता नहीं लिखती
ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं कि
वह अचानक कविता लिखना शुरू कर देगी।
वह मां पर गई है, जो कविता नहीं लिखती थी
और पिता पर भी जो कविता नहीं लिखते थे।
अपनी बहन की छत के नीचे मुझे सुरक्षित महसूस होता है।
उसका पति कविता लिखने के बदले मर जाना पसन्द करेगा
और बावजूद इसके कि यह बात पीटर पाइपर की तरह
बार-बार दोहराई जैसी लगने लगी है,
सच्चाई यह है कि मेरा कोई भी रिश्तेदार कविता नहीं लिखता
मेरी बहन की डेस्क की दराज़ों में पुरानी कविताएं नहीं होतीं
न उसके हैण्डबैग में नई कविताएं।
जब मेरी बहन मुझे खाने पर बुलाती है
मुझे पता होता है कि उसे मुझसे कविताएं नहीं सुननी होतीं।
उसके बनाए सूप स्वादिष्ट होते हैं और उनका कोई गुप्त उद्देश्य नहीं होता।
उसकी कॉफ़ी नहीं बिखरती पाण्डुलिपियों पर।
ऐसे बहुत से परिवार होते हैं जिनमें कोई कविता नहीं लिखता
लेकिन अगर ऐसा शुरू हो जाय तो फिर उसे रोकना बहुत कठिन होता है।
कभी-कभार कविता पीढ़ियों में बहती आती है
- वह रच सकती है ऐसे भंवर जिनमें परिवार का प्रेम
तहस-नहस हो सकता है
मेरी बहन ने मौखिक गद्य के इलाक़े में
थोड़ी कामयाबी हासिल की है
और उसका लिखित गद्य
छुट्टियों में भेजे गए पोस्टकार्डों में सीमित है
जिनमें हर साल
एक जैसे वायदे लिखे होते हैं:
जब वह लौटती है
उसके पास होता है
इतना
इतना सारा
बताने को इतना सारा।

Thursday, February 23, 2012

आई लव टू स्पीक विद लेनार्ड

लेनार्ड कोहेन मेरे प्रिय गायकों में हैं. वे अंग्रेज़ी भाषा में बाकायदा एक कवि के रूप में भी जाने हैं. आज सुनिए उनका एक गीत -



Going Home

I love to speak with Leonard
He's a sportsman and a shepherd
He's a lazy bastard
Living in a suit

But he does say what I tell him
Even though it isn't welcome
He will never have the freedom
To refuse

He will speak these words of wisdom
Like a sage, a man of vision
Though he knows he's really nothing
But the brief elaboration of a tube

Going home
Without my sorrow
Going home
Sometime tomorrow
To where it’s better
Than before

Going home
Without my burden
Going home
Behind the curtain
Going home
Without the costume
That I wore

He wants to write a love song
An anthem of forgiving
A manual for living with defeat

A cry above the suffering
A sacrifice recovering
But that isn't what I want him to complete

I want to make him certain
That he doesn't have a burden
That he doesn't need a vision

That he only has permission
To do my instant bidding
That is to SAY what I have told him
To repeat

Going home
Without my sorrow
Going home
Sometime tomorrow
Going home
To where it’s better
Than before

Going home
Without my burden
Going home
Behind the curtain
Going home
Without the costume
That I wore

I love to speak with Leonard
He's a sportsman and a shepherd
He's a lazy bastard
Living in a suit

इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते


शायरी के हैदराबादी स्कूल से ताल्लुक रखने वाले अली अहमद जलीली साहब के वालिद फ़साहत जंग जलीली भी खासे बड़े शायर थे. अली अहमद जलीली को आधुनिक उर्दू शायरी में इस वजह से भी एक अलग जगह हासिल है कि उन्होंने अपनी ज़्यादातर रचनाओं में रोजमर्रा की जिंदगी और उसमें खटते इंसान की जद्दोजहद को सबसे बड़ी जगह डी.

अपनी शायरी को डिफ़ाइन करते हुए उन्होंने एक जगह लिखा है -

मौज-ए-खूँ में कलम डुबो लेना
य अली जब गज़ल लिखा करना.


बेगम अख्तर की गाई एक और मशहूर गज़ल पेश है. कलाम इन्ही जनाब अली अहमद जलीली का है.



अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते
तौबा के बाद ये मंज़र नहीं देखे जाते

मस्त कर के मुझे, औरों को लगा मुंह साक़ी
ये करम होश में रह कर नहीं देखे जाते

साथ हर एक को इस राह में चलना होगा
इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते

हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
उन के बदले हुए तेवर नहीं देखे जाते

गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - १

कल तक आपने शंभू राणा का अपने पिता पर लिखा अविस्मरणीय संस्मरण पढ़ा. अब उनके गद्य की एक और बानगी देखिये -


गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - १

शंभू राणा


भूखे से रोटी के बारे में लिखने को कहना तर्कसंगत लगता है, लेकिन अशिक्षित व्यक्ति को शिक्षा के बारे में लिखने को कहना बड़ा अटपटा सा लगता है और अशिक्षित भी ऐसा कि शहर में रहने और तमाम सुख-सुविधाओं के बाद भी सिर्फ अपने निखद्दपने के कारण अपनी शिक्षा पूरी न कर पाये। और उस पर तुर्रा ये कि उसे इस बात का कोई खास मलाल नहीं। ऐसे शख्स से जो आदमी शिक्षा पर लिखने को कहे खुद उसकी अपनी शिक्षा पर संदेह होना स्वाभाविक है। हमारे संपादक की डिग्री-डिप्लोमा की जाँच होनी चाहिये। पार्टी पैसे वाली है, जैसी चाहे डिग्रियाँ खरीद सकती है।

मुझसे शिक्षा पर लिखने को कहा गया है। समझ में नहीं आता कि मेरे पास इस विषय पर लिखने को भला है क्या, क्या लिखूँ। फरमाइशी लेखन मुझसे होता भी नहीं। शिक्षा कैसी होनी चाहिये, कैसी नहीं और क्यों वगैरा पर भला मैं क्या कह सकता हूँ। इस पर शिक्षाविद् विचार करें। यह बहुत ही गंभीर और नाजुक विषय है। यह एक तरह का सॉफ्टवेयर वर्क है, अपने से नहीं होगा। मैं जरा आसान हार्डवेयर यानी ठोंक-पीट वाला काम चुन लेता हूँ। अपने स्कूल के दिनों को याद कर लेता हूँ। कुछ स्मृतियाँ हैं।

प्राइमरी स्कूल से शुरू करें। लकड़ी के फर्श पर टाट-पट्टी बिछा कर बैठते थे। सामने टीचर जी कुर्सी-मेज डाले बैठी हैं। पढ़ा या बोलकर लिखा रही हैं। कुछ समझ में नहीं आता। कुछ उनका तरीका यांत्रिक और बांकी अपना दिमाग ऐसा चिकना घड़ा कि उसमें कुछ भी अटक के न दे। कान घंटी की ओर लगे रहते थे। बीच-बीच में गधा, उल्लू, बेवकूफ, चटाक-फटाक, डस्टर फेंकने और कॉपी हवा में उछालने और ‘ऐसा गंदा बैच तो हमने देखा ही नहीं हो,’ वगैरा चलता रहता। घंटी बजी, टीचर जी क्लास से बाहर, दूसरी का प्रवेश। फिर वही।

कहा जाता था कि हिन्दी अगर मोटी टिप वाली पैन से लिखी जाये तो देखने में सुंदर लगती है। टीचरें अच्छी भली अजन्ता की निब की फर्श पर उसकी नोंक रगड़ कर ऐसी-तैसी कर दिया करती थीं। स्कूल के बरामदे में पानी से भरी एक बाल्टी और पीतल का लोटा सुबह को चौकीदार कम चपरासी भर कर रख देता था। बच्चे उस लोटे से पानी पिया करते थे। हमारी टीचरजी लोग दिन में दो-तीन बार उसी लोटे में पानी लेकर स्कूल के पिछवाड़े संकरी सी गली में न जाने क्या करने जाया करती थी। पता नहीं। नम्बर टू का वहाँ कोई चिन्ह देखने में नहीं आया और नम्बर वन में पानी भूमिका अपने को समझ में नहीं आती।

दिया हुआ काम बच्चा अगर न कर पाये तो उसे बिच्छू घास का जायका लेना पड़ता था या एक बड़ा सा पत्थर सर पर रख कर पीरियड भर धूप में खड़े रहना पड़ता था।

एक दिन हेड टीचर जी ने दरवाजे से क्लास में झाँका। अरे शीला- सुन तो। शीलाजी उनके पास गई – हाँ दीदी ? हेड टीचर कहने लगी- हाय राम, मैं पेटीकोट उल्टा पहन लाई हूँ रे आज। क्या करूँ बता तो, सीधा पहन लूँ ? शीला जी ने कहा- रहने दो हो दीदी कौन देख रहा है, घर जाकर पहन लेना। उन्हें बात पसंद आई, उल्टे से ही काम चला लिया।

एक टीचर को आदत थी कि वे अक्सर कुर्सी पर बैठी-बैठी टाँगें मय सैंडल टेबुल पर रख लेती। उनका बदन लगभग नब्बे डिग्री का कोण बना रहा होता। कई बार साड़ी का पिंडलियों की तरफ वाला हिस्सा नीचे लटक जाता और बच्चे बार-बार चोर नजरों से उसी ओर देखते रहते….

बगल ही में, बल्कि एक ही इमारत में जूनियर हाईस्कूल था। पाँचवी और आठवीं की तब बोर्ड परीक्षायें हुआ करती थीं। इस वजह से आठवीं क्लास को जरा देर तक रोक के रखा जाता था। ऐसे में पाँचवी क्लास को समय पर कैसे छोड़ा जाये। जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाचार्य के ताने सुनने को मिलते थे। इसका एक अद्भुत तरीका शीलाओं-लीलाओं ने खोज निकाला- कि 20 तक के पहाड़े पढ़ो रे। बच्चे बस्ता बंद करके बैठ जाते। कोई एक बच्चा जिसे पहाड़े याद होते खड़ा हो कर चिल्लाता- दो इकम दो….बांकी बच्चे गला फाड़कर दोहराते। इत्तेफाकन शिक्षा विभाग का दफ्तर पास ही था, पहाड़े पढ़ने की आवाज वहाँ तक पहुँच जाती। अधिकारियों को दफ्तर में बैठे हुए ही पता चल जाता कि पढ़ाई जोरों से हो रही है। उन्हें स्कूल में आकर निरीक्षण करने के झंझट से मुक्ति मिल जाती। हमें बिना बताये पता था कि इन पहाड़ों को दोहराने के पीछे मकसद क्या है इसलिये हम इतना चिल्लाते कि स्कूल की छत उड़ जाती। गोविन्द बोलो हरि गोपाल बोलो, राधा रमण हरि….दस या हद से हद पन्द्रह का पहाड़ा होते-होते जूनियर हाईस्कूल में भगदड़ मच जाती। मिशन इज सक्सैस। जाओ रे तुम भी छुट्टी करो। बाकी कल पढ़ेंगे।

इसके बाद जूनियर हाईस्कूल में जाना पड़ा। छठी क्लास में प्रधानाचार्य एक-डेढ़ तक सिर्फ एबीसीडी और इमला लिखना सिखाते थे। उसके बाद सामान्य पढ़ाई शुरू होती। वे पीटते बहुत थे। हफ्ते में एक दिन नहीं पीटते थे- मंगलवार को। उस दिन उनका व्रत रहता था। जिस दिन वे माश की दाल खाते थे उस दिन भी नहीं पीटते थे। अलसाये से रहते थे। ऐसा दिन कभी कभार ही आता था, क्योंकि माश की दाल कोई रोज तो खा नहीं सकता ना। हमने आत्म-रक्षा के कुछ तरीके खोज लिये थे। मसलन वे गाल पकड़ कर खीचें तो मुँह का सारा थूक खींचे जा रहे गाल की ओर शिफ्ट कर दो। हाथ सन-सन जाने के डर से उन्हें गाल छोड़ना पड़ता या सर बचाने के लिये दोनों हाथों से सर को ढँक लो और उँगलियों में फँसी कलम ऊपर की ओर तनी रहे। एक बार यह तरकीब काम कर गई, पैन की निब उनकी हथेली में जा घुसी। एक बार एक मास्साब ने लड़के को परम्परागत तरीके से पीटने के बजाय उसके पेट में चाकू दे मारा। लेकिन न तो खून आया न अंतड़ियाँ बाहर निकलीं। लड़का खड़ा ही रहा, गिरा भी नहीं। दरअसल वह जादुई चाकू था जिसका फल रेडियो के एरियल की तरह अपने आप में सिमट जाता है। मास्साब गुस्सा करते-करते मसखरी कर गये।

(जारी. अगली किस्त में समाप्य.)

परिणामस्वरूप, यद्यपि, हालांकि


हो सकता था

विस्वावा शिम्बोर्स्का

ऐसा हो सकता था
होना ही था
पहले हो गया. बाद में हुआ.
नज़दीक. दूर.
हुआ. पर तुम्हारे साथ नहीं.

तुम बच गए क्योंकि तुम
पहले थे
तुम बच गए क्योंकि तुम
आख़िरी थे.
अकेले थे. या
औरों के साथ.
दाईं तरफ. बाएँ. या
क्योंकि बारिश हो रही थी. छांह के कारण.
क्योंकि धूपभरा था दिन.

किस्मत वाले थे तुम - वहाँ एक जंगल था
किस्मत वाले थे तुम - वहाँ कोई पेड़ न थे
किस्मत वाले थे तुम - एक हुक, एक बल्ली, एक ब्रेक
एक घुमाव, एक चौथाई इंच, एक क्षण
किस्मत वाले थे तुम - ठीक उसी वक़्त तैरता आया एक तिनका

परिणामस्वरूप, यद्यपि, हालांकि,
क्या हो गया होता अगर एक हाथ, एक पैर,
एक इंच भर और, बाल बराबर दूरी

-कोई दुर्भाग्यपूर्ण संयोग.
सो तुम यहाँ हो?
एक बार और बाल-बाल बच जाने के बाद अभी नीम-बेहोश,
मैं और ज्यादा आश्चर्यचकित और बे-आवाज़ नहीं बनी रह सकती
सुनो
किस तरह धड़क रहा है मेरे भीतर तुम्हारा दिल.

Wednesday, February 22, 2012

मेरे हमनफस मेरे हमनवा मुझे दोस्त बन के दगा न दे


आवाज़ बेगम अख्तर की, गज़ल की शकील बदायूँनी साहब की-



मेरे हमनफस, मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बनके दगा न दे,
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क से जां-बलब, मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे

मेरे दाग-ए-दिल से है रौशनी, उसी रौशनी से है ज़िंदगी,
मुझे डर है अये मेरे चारागर, ये चराग तू ही बुझा न दे

मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चारागर,
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा न दे

मेरा अज्म इतना बलंद है के पराए शोलों का डर नहीं,
मुझे खौफ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे

वो उठे हैं लेके होम-ओ-सुबू, अरे ओ 'शकील' कहां है तू,
तेरा जाम लेने को बज़्म मे कोई और हाथ बढ़ा न दे

गूगल डूडल के बहाने हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज

अगर आपने आज गूगल सर्च खोला होगा तो उसके लोगो में तीव्र गतिमान नीली, लाल, पीली और हरी विद्युतीय लहरें देखकर थोडा हैरत की होगी. जर्मनी के वैज्ञानिक हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज की १५५वीं जयन्ती मनाने का गूगल का यह तरीका मुझे तो बहुत पसंद आया. आज ही के दिन यानी २२ फ़रवरी १८५७ को जन्मे हर्ट्ज ने रेडियो तरंगों के प्रसारण के क्षेत्र में क्रांतिकारी खोजें की थीं कालान्तर में इन्हीं खोजों ने बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दियों में रेडियो-टीवी के विस्तार और विकास की नींव डाली.

तरंगों की आवृत्ति की इकाई का नामकरण भी इन्हीं जनाब के नाम पर किया गया यानी एक हर्ट्ज का मतलब हुआ एक आवृत्ति प्रति सेकेण्ड.

हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज कुल छत्तीस साल की जिंदगी जी सके. १ जनवरी १८९४ को ब्लड-पौइजनिंग से उनकी मौत हुई.

क्या आप यकीन कर सकते हैं कि अपनी ईजाद को लेकर उनके मन में ज़रा भी उत्साह या ऐतबार नहीं था. अपनी खोज के बारे में उनका कहना था – “मुझे नहीं लगता मेरे द्वारा खोजी गयी बेतार तरंगों को किसी भी व्यावहारिक उपयोग में लाया जा सकेगा.”

हर्ट्ज प्रकृति के मूलभूत तत्वों को समझने की हिमायत करते थे. इंजीनियरिंग की अपनी शैक्षिक जड़ों के बाजजूद और एक इंजीनियरिंग स्कूल में तकनीकी वैद्युती पढ़ाते हुए अपनी सबसे महत्वपूर्ण खोजें करने के बावजूद हर्ट्ज विद्युतीय तरंगों की व्यावहारिक जटिलता को लेकर एक तरह से बेपरवाह रहे. बाकी वैज्ञानिकों में उनकी खोज को लेकर पर्याप्त सम्मान का भाव था और एक युवा वैज्ञानिक मारकोनी ने १८९० के दशक में ही इटैलियन इलैक्ट्रिकल जर्नल में हर्ट्ज का एक लेख पढ़ने के बाद बेतार तरंगों की मदद से संचार की सम्भावना के बारे में सोचना शुरू किया. हर्ट्ज का काम ऐसे ही प्रयासों से भौतिकविज्ञान की किताबों से बाहर आकर तकनीकी के क्षेत्र में इतनी बड़ी क्रान्ति लेकर आया जिसकी पूरी थाह अभी हमें मिलना बाकी है. 

भौतिक विज्ञान के मेरे एक अध्यापक स्वर्गीय श्री अतुल कुमार पाण्डे के पास हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज की एक मोटी सी जीवनी थी, जिस में से उन्होंने एकाध बातें कभी मुझे पढकर सुनाईं थीं. गूगल सर्च का पन्ना खुलते ही हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज का नाम सामने आने पर अपने गुरुजी की याद आना स्वाभाविक था. सो यह पोस्ट उन्हीं की स्मृति को नज्र.

यह मेरे साथ क्या कर रहे हो दमिश्क?

निज़ार क़ब्बानी की लंबी कविता -


यह मेरे साथ क्या कर रहे हो दमिश्क?

एक.

इस दफ़ा मेरी आवाज़ गूंजती है दमिश्क से
वह गूंजती है शाम से
मेरे माता-पिता के घर से. मेरी देह का भूगोल बदलता है.
मेरे रक्त की कोशिकाएं हरी हो जाती हैं.
हरी है मेरी वर्णमाला
शाम में. मेरे मुंह के लिए उभरता है एक नया मुंह.
मेरी आकाज़ के लिए उभरती है एक नई आवाज़
और एक कबीला बन जाती हैं मेरी उंगलियां.

दो.

बादलों की पीठ की सवारी करता
मैं लौटता हूँ दमिश्क
दुनिया के दो सबसे सुन्दर घोड़ों की सवारी करता –
जूनून का घोड़ा
कविता का घोड़ा.
साठ साल बाद मैं लौटता हूँ
अपनी गर्भनाल खोजने
दमिश्क के उस नाई को खोजने जिसने मेरा खतना किया था
उस दाई को खोजने
जिसने पलंग के नीचे चिलमची में उछाला था मुझे
और मेरे पिता से पाया था सोने का एक सिक्का,
मार्च १९२३ के उस दिन
उसने छोड़ा था हमारा घर
उसके हाथ सने हुए थे
कविता के रक्त से ...

तीन.

मैं लौटता हूँ उस गर्भ तक जिसमें मेरा निर्माण हुआ था
पढ़ी हुई पहली किताब तक ...
पहली स्त्री तक जिसने मुझे पढ़ाया था ...
प्रेम के भूगोल तक ...
और स्त्रियों के भूगोल तक ...

चार.

मैं लौटता हूँ
तमाम महाद्वीपों में अपने हाथ-पैरों के बिखर चुकने के बाद
तमाम होटलों में अपने बलगम के छितर चुकने के बाद
मेरी माँ की चादरों को
सदाबहार के साबुन से खुशबूदार बना लिए जाने के बाद
मुझे सोने के लिए कोई पलंग नहीं मिला
और तेल और अजवाइन की उस “दुल्हन” के बाद
जिसे वह बिछा देगी मेरे सामने
अब दुनिया की और कोई “दुल्हन” मुझे खुश नहीं करती
और बेल के उस मुरब्बे के बाद, जिसे वह अपने हाथों से बनाएगी
मैं सुबह के नाश्ते को लेकर उतना उत्साहित नहीं रहता अब
और काली बेरियों के शरबत के बाद
जिसे वह तैयार करेगी
किसी भी और शराब से
नहीं होता नशा मुझे ...

पांच.

मैं दाखिल होता हूँ उमय्याद की मस्जिद के अहाते में
और वहाँ मौजूद हरेक से दुआ-सलाम करता हूँ
एक कोने से ... कोने तक
एक खपरैल से ... खपरैल तक
फाख्ते से ... फाख्ते तक
मैं कूफी लिखावट के बगीचों में टहलता हूँ
और ईश्वर के शब्दों के सुन्दर फूल तोड़ता हूँ
अपनी आँखों से सुनता हूँ पच्चीकारी की आवाज़
और अकीक़ की तस्बीहों का संगीत
इलहाम और परमानंद की अवस्था मुझे आगोश में ले लेती है
सो मैं सामने पड़ने वाली
पहली मीनार की सीढियां चढ़ना शुरू करता हूँ
जो पुकार रहीं -
“चमेली के पास आओ
चमेली के पास आओ”

छह.

अपनी इच्छाओं की बारिशों के दाग लिए हुए
तुम तक लौटता
लौटता हुआ
अपनी ज़ेबों को
मेवों, हरे आलूचों और हरे बादामों से भरने
लौटता हुआ घोंघे के अपने कवच में
लौटता हुआ अपनी पैदाइश के पलंग तक
क्योंकि वर्साय के फव्वारे
फाउंटेन कैफे के सामने कुछ नहीं
और लन्दन का बकिंघम पैलेस
आज़म महल के सामने कुछ भी नहीं
और वेनिस में सान मार्को के कबूतर
उमय्याद की मस्जिद के फाख्तों से ज्यादा भाग्यवान नहीं
और लेस इन्वेलिदेस में नेपोलियन की कब्र
सालाह-अल-दिन अल अय्यूबी के मकबरे से
ज़्यादा शानदार नहीं.

सात.

मैं टहलता हूँ दमिश्क की तंग गलियों में
खिड़कियों के पीछे, जागती हैं शहदभरी आँखें
और मुझे सलाम करती हैं ...
सोने के अपने कंगन पहने हैं सितारे
सुर सलाम करते हैं मुझे ...
अपनी बुर्जियों से उतरते हैं कबूतर
और मुझे सलाम कहते हैं ...
और साफ-सुथरी बिल्लियाँ बाहर निकल आती हैं
जो जन्मी थीं हमारे साथ ...
हमारे साथ बड़ी हुईं ...
और हमारे साथ ही उनके निकाह हुए ...
मुझे सलाम करने ...

आठ.

मैं खुद को डुबो लेता हूँ बुज़ुर्रिया सौक में
मसालों के एक बादल पर तान देता हूँ एक पाल
लौंग ...
और दालचीनी ...
और कैमोमाइल के बादल.
मैं गुलाब के पानी से नहाता हूँ एक दफ़ा
और भावनाओं के पानी से कई बार
और भूल जाता हूँ – जब मैं सौक अल-अत्तारीन में होता हूँ –
नीना रिकी और कोको चैनल के तमाम मिश्रण.
ये मेरे साथ क्या कर रहे हो दमिश्क?
क्या तुमने मेरी संस्कृति बदल दी है?
मेरा सौंदर्यबोध?
क्योंकि मैं बिसरा चुका लिकरिश के प्यालों की खनक,
राख्मानिनोफ़ की पियानो कंसर्ट ...
शाम के बगीचे किस तरह बदल देते हैं मेरा रूप?
क्योंकि मैं बन गया हूँ दुनिया का पहला संगीत-संचालक
जो राह दिखा रहा है
बेंत के पेड़ों के एक ऑर्केस्ट्रा को.

नौ.

मैं तुम तक आया हूं
दमिश्क के गुलाब के इतिहास से
जो घनीभूत कर देता है खुशबू के इतिहास को ...
अल-मुतनब्बी की स्मृति से
जो घनीभूत कर देती है कविता के इतिहास को ...
मैं तुम तक आया हूँ
कड़वे संतरों की बौरों से
और नारसिसस से ...
और “अच्छे बच्चे” से
उस पहले से जिसने मुझे चित्र बनाना सिखाया
मैं तुम तक आया हूँ ...
शाम की स्त्रियों की हंसी से
जिन्होंने मुझे सब से पहले संगीत सिखाया ...
हमारी गली की टूटी हुई टोंटियों से
जिन्होंने सबसे पहले रोना सिखाया
और अपनी माँ की प्रार्थना करने वाली दरी से
जिसने मुझे सबसे पहले सिखाया
ईश्वर की तरफ जाने वाला रास्ता.


दस.

मैं याददाश्त की दराजें खोलता हूँ
एक ...
फिर दूसरी
मुझे याद आती है मुआविया गली की अपनी वर्कशॉप से बाहर आते
अपने पिता की
मुझे इक्के याद आते हैं ...
और नाशपातियाँ बेचने वाले ...
और अल-रुब्वा के कहवाघर
जो अरक की पांच कुप्पियों के बाद
करीब करीब नदी में गिर जाया करते थे
मुझे रंगबिरंगे तौलिए याद आते हैं
जब वे नृत्य कर रहे होते थे हमाम अल-खैय्यातिन के दरवाज़े पर
जैसे कि मना रहे हों अपना राष्ट्रीय अवकाश
मुझे दमिश्क के घर याद आते हैं
तांबे के उनके दरवाजों के हत्थे
और चमकीली खपरैलों से सजी छतें
और उनके भीतरी अहाते
जो आपको स्वर्ग के विवरणों की याद दिलाते हैं ...

ग्यारह.

दमिश्क का मकान
वास्तुशिल्प के सिद्धांतों से परे होता है
हमारे घरों की बनावट ...
एक भावुक नींव पर आधारित होती है
क्योंकि हर घर टेक लेता है ...
दूसरे घर के कूल्हे की
और हर छज्जा अपना हाथ बढाता है
सामने वाले छज्जे की तरफ
मोहब्बत से भरपूर होते हैं यहाँ के घर ...
सुबह अभिवादन करते हैं आपस में
और मुलाकातें उनकीं
गुपचुप – रातों में ...

बारह.

तीस बरस पहले
जब मैं ब्रिटेन में एक कूटनीतिज्ञ था
वसंत की शुरुआत में मेरी माँ मुझे चिठ्ठियां भेजा करती थी
हरेक चिठ्ठी के भीतर टेरागान की एक पोटली ...
जब अंग्रेजों को मेरी चिठ्ठियों पर शक होता था
वे उन्हें प्रयोगशाला में ले जाया करते थे
और वहाँ से उन्हें थमा दिया जाता था
स्कॉटलैंड यार्ड को
और विस्फोटक-विशेषज्ञों को
और जब वे मुझसे ... और मेरे टेरागान से थक जाते
वे मुझ से पूछते –
खुदा के वास्ते बता दो ...
इस जादुई जड़ी का नाम क्या है जिसने हमें उनींदा बना दिया है?
क्या यह कोई ताबीज है?
दवा?
या कोई गुप्त कोड?
इसे अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं?
मैं उन से कहता -
यह समझा पाना मेरे लिए मुश्किल होगा
क्योंकि टेरागान एक भाषा है
जिसे शाम के बगीचे बोला करते हैं
यह हमारी पवित्र जड़ी है ...
हमारी सुगन्धित वक्तृता
और अगर आपके महाकवि शेक्सपीयर ने जाना होता टेरागान के बारे में
तो उस के नाटक बेहतर होते ...
संक्षेप में ...
मेरी माँ एक शानदार महिला है ...
वह मुझे बेहद प्यार करती है ...
और जब भी उसे मेरी याद आती है
वह मेरे वास्ते टेरागान का एक गुच्छा भेज देती है
क्योंकि टेरागान उस के लिए “मेरे प्यारे” का समतुल्य है
- जब अँगरेज़ मेरे काव्यात्मक तर्क का एक भी शब्द नहीं समझ पाते थे
वे लौटा दिया करते मेरा टेरागान और
जांच बंद कर दी जाती ...

तेरह.

खान असद बाशा से
उभरता है अबू खलील अल-क़ब्बानी ...
दमश्क के बने अपने लिबास में ...
पहने अपनी ज़रीदार पगड़ी ...
सवालों से अभिशप्त उसकी आँखें ...
गोया हैमलेट की आँखें हों ...
वह एक अवां-गार्द नाटक पेश करने की कोशिश करता है
मगर लोग “करागोज़ के तम्बू” की मांग करते हैं
वह कोशिश करता है
शेक्सपीयर का एक टुकड़ा पेश करने की
लोग उस से अल-ज़िर की ख़बरों की बाबत सवाल करते हैं
वह कोशिश करता है एक इकलौता स्त्री-स्वर ढूँढने की
जो उस के साथ “ओ शाम” गा सके
लोग अपनी ऑटोमन राइफलों में गोलियाँ भर लेते हैं
और पेशेवर गवैये गुलाब के हर पौधे पर गोलियां दागते हैं
... वह कोशिश करता है एक स्त्री को ढूँढने की
जो उसके पीछे दोहरा सके – “ओ चिड़ियों की चिड़िया, ओ फाख्ते!”
वे अपने चाकू बाहर निकाल लेते हैं
और फाख्तों की तमाम संततियों का क़त्ल कर देते हैं ...
और स्त्रियों की तमाम संततियों का ...
सौ बरस बाद
दमिश्क ने अबू खलील अल-क़ब्बानी से माफी माँगी
और उसकी याद में खड़ा कर दिया एक भव्य थियेटर.

चौदह.

मैंने मुह्यी अल-दिन इब्न अल-अरबी का लबादा पहना
मैं उतरा कैसीउन पहाड की चोटी से
नगर के बच्चे ...
आड़ू
अनार
और तिल का हलवा थामे ...
और उस की स्त्रियों के लिए फीरोज़े के हार ...
और प्यार की कवितायेँ ...
मैं प्रवेश करता हूँ ...
गौरेय्यों की एक लंबी सुरंग
जिलीफ्लावर ...
गुडहल ...
चमेली के गुच्छे ...
और मैं प्रवेश करता हूँ खुशबू के सवालों में ...
मेरा स्कूल का बस्ता खो गया है
और तांबे का बना लंच-बॉक्स
जिस में मैं अपना खाना ले जाया करता था ...
और वे नीले मनके
जिन्हें मेरी छाती पर टांग देती थी माँ ...
सो शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे खोज ले
उसने लौटा देना चाहिए मुझे
उम्म मुआताज को और ईश्वर उसका भला करेगा
मैं तुम्हारी हरी गौरैय्या हूँ ...
शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे खोज ले
उसने चुगाना चाहिए मुझे गेहूं का एक दाना ...
मैं तुम्हारे दमिश्क का गुलाब हूँ ...
शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे खोज ले
उस ने सजा देना चाहिए मुझे पहले फूलदान में
मैं तुम्हारा पागल शायर हूँ ...
शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे देखे
उस ने खींच लेना चाहिए
याददाश्त के वास्ते मेरा एक फोटो
इस के पहले कि मैं निकल आऊं
अपने जादुई पागलपन से बाहर
मैं तुम्हारा शरणार्थी चंद्रमा हूँ
शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे देखे
उस ने दान में देनी चाहिए एक चारपाई ...
और एक ऊनी कम्बल ...
सदियों से सोया नहीं हूँ मैं.

(शाम- वृहत्तर सीरिया के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला प्राचीन नाम)