Thursday, January 31, 2008

क्या हो सामाजिक विवेक की कसौटी?

कहां गया ज्ञान? सूचनाओं में खो गया। कहां गया विवेक? ज्ञान ने उसे खा लिया। माओ त्से तुंग ने चीनी कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को एक गंडा बांधा था- जनता से सीखो। गांधी ने राज संभालने जा रहे कांग्रेसियों को एक जादुई ताबीज दी थी- कोई भी फैसला लेते वक्त देश के सबसे गरीब आदमी को याद करो। ऐसे सूत्रवाक्य भुलाने में लोगों को बमुश्किल दस साल लगते हैं। खुद इन्हें देने वाले भी इन्हें उतनी ही आसानी से भूल जाते हैं। माओ के बारे में यह बात बिल्कुल साफ है। गांधी अपने सूत्रवाक्य के बाद ज्यादा दिन जिंदा ही नहीं रहे, लिहाजा दुविधा की धुंध में उनके बारे में जो चाहे कह लें।

सूचनाओं की भरमार है, ज्ञान और अज्ञान के बीच फर्क बड़ी तेजी से मिट रहा है। विवेक क्या होता है, इस बारे में जानकारी शायद कहीं किसी शब्दकोष में ही मिले तो मिले। अतीतग्रस्त पूरबी मानस बड़ी जल्दी अपनी पुरानी धुरी पर लौट आता है। चीन और भारत की कुल ढाई अरब आबादी के लिए विराट बदलावों के साठ साल बीत चुके हैं। सही और गलत के बीच तमीज करने के, फैसले लेने के मानदंड अब क्या होंगे, कोई नहीं जानता।

अपने यहां चारु मजूमदार ने जनता से सीखो नारे को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लिया था। शायद खुद माओ त्से तुंग से भी ज्यादा गंभीरता से। इस नारे के असर में विप्लवी नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी को सचमुच जनता से सीखने का प्रयास करते देखा गया था। मैं खुद ऐसे कई लोगों से मिला हूं जिन्होंने महानगरों की अभिजात पृष्ठभूमि से आकर गरीब किसान का पूरा जीवन सीखा। बोली-बानी, कामकाज, कपड़ा-लत्ता, मौसमों से लेकर इलाज तक के बारे में समूची देसी समझ अर्जित की। काश, उनका यह विवेक देश के लिए बड़े फैसले लेते वक्त किसी काम आ पाता।

वह नहीं आया। न शायद कभी आएगा। लेकिन एक धुंधली सी बात उसने जरूर उठाई कि स्थापित धारणाओं से इतर ज्ञान और विवेक के कुछ अलग मायने भी होते हैं। एक बार हम लोगों में बात हो रही थी कि सीपीआईएमएल-लिबरेशन जैसी क्रांतिकारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में भी दलित प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है? देश की कम्युनिस्ट धाराओं में यह सवाल पहले भी उठा है और इसका जवाब यही रहा है कि शीर्ष नेतृत्व के लिए जिस व्यापक ज्ञान की आवश्यकता है, वह दुर्भाग्यवश समाज के कुलीन तबकों को ही हासिल हो पाता है। कमोबेश यह वही तर्क है, जिसे आरक्षण के विरोध में और मेरिट के पक्ष में देश के तमाम विद्वज्जन दिया करते हैं।

लेकिन हमारी उस दिन की बहस से एक भिन्न नतीजा निकला था। एक साथी ने कहा कि 'चारु दा जब जनता से सीखो कहते हैं तो उनका मतलब क्या होता है? क्या सीखो? सीखने के लिए जो कुछ होगा वह कोई ज्ञान ही तो होगा- जिसे हम ज्ञान कहते हैं, उससे भिन्न किसी और तरह का ज्ञान। उसे सिर्फ एक औपचारिकता क्यों माना जाना चाहिए? क्या उस ज्ञान का पर्याप्त प्रतिनिधित्व पार्टी की शीर्ष इकाइयों में हो पाता है?' वह आज भी नहीं हो पा रहा है, लेकिन बात तो दिमाग में है।

जब हम भारत में ज्ञान सरणियों के रूप में परंपरा और पश्चिम का चर्बित-चर्वण ही हावी होने की बात कहते हैं तो क्या सिर्फ अपने सिनिसिज्म का परिचय दे रहे होते हैं? अगर नहीं, तो सूचना और ज्ञान की आडंबरपूर्ण परिभाषाओं से निपटने के लिए हमें अपने विवेक की कसौटियां नए सिरे से तय करनी चाहिए। गांधी, माओ और चारु की टीपें इस काम में शायद हमारे ज्यादा काम न आएं, लेकिन 'गतानुगतिके लोके' जैसे धुंधलके वाले माहौल में सच्चे अर्थों में एक आलोचनात्मक विवेक का खाका खड़ा करने में इनसे हमें कुछ मदद जरूर मिलेगी।

हम बेहद भाग्यशाली हैं: शिम्बोर्स्का की कविता

हम बेहद भाग्यशाली हैं

हम बेहद भाग्यशाली हैं
कि हम ठीक ठीक नहीं जानते
हम किस तरह के संसार में रह रहे हैं

आपको यह जानने के लिए
बहुत, बहुत लम्बे समय तक जीना होगा
निस्संदेह इस संसार के
जीवन से भी ज़्यादा लम्बे समय तक

चाहे तुलना करने के लिए ही सही
हमें दूसरे संसारों को जानना होगा

हमें देह से ऊपर उठना होगा
जो बस
बाधा पैदा करना
और तकलीफ़ें खड़ी करना जानती है

शोध के वास्ते
पूरी तस्वीर के वास्ते
और सुनिश्चित निष्कर्षों के वास्ते
हमें समय से परे जाना होगा
जिस के भीतर हर चीज़ हड़बड़ी में भागती और चक्कर काटती है

उस आयाम से
शायद हमें त्याग देना होगा
घटनाओं और विवरणों को

सप्ताहों के दिनों की गिनती
तब अपरिहार्य रूप से
अर्थहीन लगने लगेगी

पोस्टबाक्स में चिट्ठी डालना लगेगा
मूर्खतापूर्ण जवानी की सनक

"घास पर न चलें" लिखा बोर्ड लगेगा
पागलपन का लक्षण

Wednesday, January 30, 2008

मैदान में आइये, जन सेवक जी !!

(भाषा पर कबाड़ खाने में चल रही बहस में बार बार ये अनाम बन्धु कुछ कुछ कहने कि कोशिश करते हैं. समझना मुश्किल है कि वो अनाम क्यों रहना चाहते हैं. खैर, उनकी मरजी. अजित वडनेरकर की टिप्पणी पढ़ कर लगा जन सेवक महाशय की बात खुले मैदान में आनी चाहिए. इसलिए इसी स्वतंत्र पोस्ट के तौर पर लगा रहा हूँ. प्रार्थना जन सेवक जी से यह है कि अगर आपको लगता है कि आप कोई अपराध नहीं कर रहे हैं तो ध्यान रखियेगा कि नाम छुपाने से पाठकों को चिढ़ हो सकती है.)

अशोक पांडे जी,

अच्छा तो आपको ग्रामर की सही स्पैलिंग आती है. आपने मेरी टिप्पणी में हिंदी वर्तनी की गलतियों पर ध्यान क्यों नहीं दिया?

यही वो गूढ़ प्रश्न है जिसका उत्तर जाने बिना भाषा पर चलने वाली सभी बहसें बेमानी साबित होंगी.

आपने 'सच्ची मुची' को दुरस्त करते हुए सच्ची मुच्ची नहीं लिखा. आपने सिर्फ ग्रामर की स्पैलिंग गलत होने पर ही जोर दिया.

देखा जाए तो बात बहुत छोटी है लेकिन विश्लेषण करेंगे तो असली बात निकल आएगी.

मैं तो आपके बारे में नहीं जानता, लेकिन ऐसा लगता है कि आपके गाँव में अंग्रेजी का अब भी हव्वा है और थोड़ा बहुत अंग्रेजी जानने वाले आप अकेले व्यक्ति वहाँ हैं. आपको अच्छा भी लगता होगा कि गाँव के बच्चे कहते हैं कि देखो अशोक भाईसाहब को अंग्रेजी भी आती है.

बात यही है. यही मूल मंत्र है. समस्या की जड़ यही है, जिस पर मैं आप सबका ध्यान कब से खींचने की कोशिश कर रहा हूँ. अब जो मैं लिखने जा रहा हूँ उस बात पर कृपया ध्यान देना अशोक पांडे जी और अगर हो सके तो दिलीप मंडल भाई भी.

1- जब हम गलत हिंदी लिखते या बोलते हैं तो उसे कूल समझा जाता है.
2- जो भाषा के भ्रष्ट इस्तेमाल की ओर ध्यान खींचता है उसे कूपमंडूक और विघ्नसंतोषी बताया जाता है.
3- कहा जाता है कि भाषा तो बहता पानी है, उसे शुद्ध बनाने वाले ही भाषा के दुश्मन हैं.
4- मेरी जिस चलताऊ टिप्पणी में आपने ग्रामर की स्पैलिंग गलत होने की बात कही है उसीमें हिंदी के छह शब्दों की स्पैलिंग भ्रष्ट है. लेकिन आपने उधर ध्यान नहीं दिया.
5- धयान इसलिए नहीं दिया क्योंकि हिंदी की गलतियाँ हैं ना यार. सब चलता है. हिंदी तो अभी आकार ग्रहण कर ही रही है. ये सब तो होगा.
6- गलती अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए क्योंकिः
अ) वह साहबों की भाषा है, ब) वह पढ़े लिखों की भाषा है, स) अंग्रेजी में गलती वही करता है जो अनपढ़ या पिछड़ा होता है, जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में नहीं पढ़ा होता है, अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में इसलिए नहीं पढ़ा होता क्योंकि उसके माता पिता गरीब होते हैं.
7- अंग्रेजी के किसी उपसंपादक से पूछिए कि गलत भाषा का इस्तेमाल करने वाले को किस नजर से देखा जाता है.
8- हिंदी लिखने वाले को बाकायदा समझाया जाता है (और समझाने वाले अब वही लोग हैं जिनके माता पिता गरीब थे और उन्हें कॉन्वेंट नहीं भेज सके) कि गलत लिखो, गलत बोलो. इसे बौद्धिक जामा पहनाने के लिए कहा जाता है -- सड़क की भाषा बोलो यार.

मेरा नतीजाः मैं समझता हूँ कि हिंदी बरतने वाले एक तो अंग्रेजी के भौकाल से निकलें. हिंदी को लेकर हीनग्रंथि न रखें और ये भी न समझें कि अगर उन्हें अंग्रेजी आती है तो वो साहब हो गए या फिर साहब जैसे हो गए.

कोई गलतफहमी न हो इसलिए जोर देकर कहना चाहता हूँ कि -- अंग्रेजी सीखें. जरूर सीखें और साहित्यिक अंग्रेजी सीखें. लेकिन हिंदी में बेबात अंग्रेजी सिर्फ ज्ञान बघारने के लिए न डालें, जरूरत हो तभी डालें.

आप सभी बहुत विद्वान लोग हैं. उम्मीद रखता हूँ कि मेरी इस टिप्पणी को निजी हमला नहीं माना जाएगा. उम्मीद तो ये भी करता हूँ कि कबाड़खाने का कोई सदस्य इसे बाकायदा एक स्वतंत्र पोस्ट की तरह प्रकाशित भी करेगा.

लेकिन साहब, आपका ब्लॉग. आप मालिक हैं.

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पोस्ट में मेरी टिप्पणी का ज़िक्र है इसलिए लिख रह हूँ.

Apparently हिन्दी में एक saying है.. सब धान बाईस पसेरी.. आप ने वाही कर दिया.... दिलीप कुमार को happy birth day कहने पर objection raise करने वाला में ही था. लेकिन आपने मुझे उन लोगों के rank में put कर दिया जो language fanatic हैं. what I mean is that यार तुसी समझते हो न की this hindi fundamentalism is you know चलने वाला नही है. you are right... language को river के माफिक flow करने देना चाहिए... but you know... पुराने type की thinking hold करने वाले एकदम stupid बात करते हैं. After all हिन्दी को इस globalised world में survive करना है या नही?

Dilip, you are a genius. नही सच्ची मुची... jokes apart. Oh, by the way, who cares about लिंग भेद यार. as long as आप अपनी बात explain कर सकते हैं... किसे फुरसत है without any reason हिन्दी के grammer का रोना रोये... I mean, you know... why bother !!

And believe me you, में ख़ुद यही मानता हूँ, अगर हमारे आपके जैसे लोग language को open up .... your know.. open up नही करेंगे, ताब तक these hindi walas will not learn.

Keep it up, buddy.

जो सबसे बड़ा डिफ्रेंशिएटर है, उसे आप सिर्फ बात कहते हैं!

भाषा क्या सिर्फ बात है? अगर ऐसा होता तो शुद्धता और अशुद्धता की बहस का कोई मतलब नहीं होता। संवाद के माध्यम के रूप में भाषाई शुद्धता की अपेक्षा कम लोग ही करते हैं। संवाद के माध्यम के रूप में ब्लॉग में भी भाषा की शुद्धता की जरूरत मुझे तो नहीं लगती। बात है, की गई, समझ में आ गई। बात खत्म। या बात शुरू। लेकिन भाषा का सिर्फ यही एक काम तो नहीं है। भाषा तो शक्ति और प्रभुत्व और दबदबा कायम करने का औजार भी है।

भारतीय समाज का आज का ये सबसे बड़े डिफ्रेंशिएटर भी है। अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय भाषाएं बोलने वालों से बड़े। अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले टूटीफूटी अंग्रेजी बोलने वालों से बड़े। शुद्ध हिंदी बोलने वाले अशुद्ध हिंदी बोलने वालों से बड़े। नुक्ते लगाना वाले नुक्ते न लगाने वालों से बड़े। संस्कृतनिष्ठ बोलने वाले देसी भाषा बोलने वालों से बड़े। बांग्ला का रवींद्र संगीत वहां की पल्लीगीती से महान। पुणे की मराठी मालवण की मराठी से भली। मेरठ-आगरा की हिंदी झंझारपुर-पूर्णिया की हिंदी से बेहतर।

भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला सभी जगहों पर तो आपको ये दिख जाएगा। दरअसल हमारा इस यथास्थिति को एक हद तक चुनौती दे रहा है (लेकिन साथ में भेदभाव के नए प्रतिमान भी गढ़े जा रहे हैं)। घरानों के संगीतकारों को अब लोकमाध्यमों में (दूरदर्शन को छोड़कर) धेले भर को कोई नहीं पूछता (उनके शो अब विदेशों में ज्यादा होते हैं, जहां के एनआऱआई अपनी जड़ों की तलाश में बेचैन हैं) और आए दिन कोई अनगढ़ संगीतकार-गीतकार शास्त्रीय सुर-ताल की ऐसी की तैसी करके महफिल लूट ले जा रहा है।

भाषा में भी तो कहीं ऐसा ही नहीं हो रहा है और जो शुद्धता के उपासक हैं उन्हें इस बात का भय तो नहीं कि उनकी टेरिटरी में कोई ऐसे ही कैसे घुसा चला आ रहा है? शास्त्रीय हिंदी साहित्य की आज दो कौड़ी की भी औकात नहीं है। रचनाएं दूसरे प्रिट ऑर्डर के लिए तरस रही हैं और पहला प्रिंट ऑर्डर 500 से ऊपर कभी कभार ही जाता है। हिंदी का साहित्य तो आज पाठकों से आजाद है। लेकिन मास मीडिया के सेठ को तो पैसे चाहिए। वो दर्शकों और पाठकों से आजाद क्योंकर होना चाहेगा।

और फिर अखबार और टीवी में भाषा कहीं इसलिए तो नहीं बदल गई है कि उनके पाठक और दर्शक बदल गए हैं। अंग्रेजी में तो अशुद्ध के लिए जगह नहीं होती। वहां मिलावट की भाषा लिखने का अधिकारी भी वही है जिसका अंग्रेजी पर अच्छा अधिकार है। वहां भाषा के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ एम जे अकबर जैसे लोग करते हैं। लेकिन हिंदी में मिलावट का स्पेस बनता चला जा रहा है। अशुद्ध के लिए भी अब काफी जगह है। और ऐसा लिखने वाले कई लोग ऐसे हैं जिन्हें दरअसल ढंग की हिंदी नहीं आती। पढ़ने वालों को भी नहीं आती। क्या ये जश्न मनाने का समय है? या रोने-धोने का? पता नहीं? आपकी समझ में आ रहा है, तो बताइए।

बात क्योंकि नुक्ते से शुरू हुई है, इसलिए अब तक की बहस के बाद मुझे ऐसा लगता है कि जिन्हें नुक्ता लगाने की तमीज है वो नुक्ता जरूर लगाएं। क्योंकि इसके बिना भाषा से कुछ ध्वनियों का लोप हो जाएगा। और इससे भला कोई कैसे खुश हो सकता है। रेडियो के लिए तो ये बुरी बात ही कही जाएगी। इसलिए इरफान भाई से हमें लगातार नुक्ते वाली हिंदी सुनने को मिले, यही कामना है। लेकिन जिन्हें नुक्ते लगाना नहीं आता वो इसे छोड़ ही दें तो बेहतर या फिर अच्छी तरह से सीख लें और फिर इसका इस्तेमाल करें।

यहां पर आपको अपना निजी अनुभव बताता हूं। जब मैं पत्रकारिता सीखने देश की सबसे प्रतिष्ठित पाठशाला में पहुंचा तो बैच के बाकी लोग राजेद्र माथुर, एसपी सिंह, बाल मुकुंद जैसों से पत्रकारिता सीख रहे थे और मैं अशुद्ध लिखे शब्दों और वाक्यों को रात-रात जगकर दस-दस, बीस-बीस बार लिखकर ऐसी भाषा को साधने की कोशिश कर रहा था, जिससे मुझे रोजगार हासिल करना था। यहां ये बताना जरूरी है कि हिंदी मेरे घर में नहीं बोली जाती। और जिस हिंदी को लिखने की चुनौती थी, वो मेरे शहर में नहीं बोली जाती है। बहरहाल, टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का जब कन्वोकेशन हुआ तो "कमजोर लिंग" वाले प्रदेश झारखंड के इस लड़के को सर्वश्रेष्ट संपादन का नवभारत टाइम्स अवार्ड मिला। यानी खेल उतना मुश्किल भी नहीं है। इसलिए जब कुछ लोग कहते हैं कि जिस भाषा को बरतना है उसकी तमीज होनी चाहिए, तो उसका मतलब समझ में आता है। लेकिन किस भाषा को बरतना है ये तो तय करना होगा।

गांधी के घर में सबके लिये जगह है


वर्ष २००२ के नवंबर महीने में मुझे तीन दिन के लिए सेवाग्राम (वर्धा) में रहने का अवसर मिला था।यह महात्मा गांधी से जुड़ी जगह पर रहकर खुद की गढ़ी 'गांधी छवि' को परखने का एक खास मौका था ,जिसे मैंने कतई गवांया नहीं.

बचपन में पिताजी गांधीजी के कई किस्से सुनाया करते थे और हर किस्सा इस सिरे पर आकर पूर्णता प्राप्त करता था कि उन्होंने एक बार गांधी जी को देखा था।मेरे पिता सेवाग्राम नहीं गए थे,न ही किसी अन्य आश्रम या किसी और जगह ,न ही वह किसी दल-वल के चवन्निया-अठन्निया मेंबर थे जिससे कि सभा-सम्मेलनों में आना-जाना होता रहा हो बल्कि उन्होंने अपने गांव के निकटवर्ती रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में सवार गांधी जी को देखा था.पिताजी यह भी बताते थे कि उस दिन जैसे समूचा इलाका दिलदार नगर रेलवे स्टेशन पर उमड़ आया था,एक साधारण-से आदमी की एक झलक पाने के लिये.उस समय मुझे यह् सब अविश्वसनीय लगता था लेकिन अविश्वास की कोई ठोस वजह भी नहीं थी और न ही इतना सारा सोचने की उम्र ही थी.

सेवाग्राम में बापू कुटी के सामने वाले अतिथिशाला में हम लोग रुके थे।सामने वह जगह थी जहां कभी महात्मा गांधी रहा करते थे.शाम की प्रार्थना सभा में जाने का मन था, कौतूहल और जिज्ञासा भी.साथ के कई विद्वान प्रोफेसरों ने बताया कि वहां ऐसा कुछ नहीं है जिसको देखने के लिए तुम इतने उत्साहित हो,मत जाओ निराशा होगी.मैने कहा निराशा ही सही चलो देखते हैं.

प्रार्थना वैसे ही शुरू हुई जैसा कि सुन रखा था।एक फुटही लालटेन की मलगजी रोशनी में गांधीजी के कुछ प्रिय भजन और उनकी किसी पुस्तक के एक अंश का पाठ.सभा में लोग भी कम नहीं थे.बताया गया कि रोज ही इतने लोग तो आते ही हैं,आज विश्वविद्यालय वालों की वजह से थोड़े लोग अधिक हैं.थोड़ा अलग हटकर एक बूढा-सा आदमी जोर से बड़बड़ा रहा था -'गांधी को भगवान बना दिया, पूजा कर रहे हैं उसकी.भगवान तो बाबा अंबेदकर था-वह था भगवान'.ऐसा नहीं था कि उसकी बात किसी को सुनाई नहीं दे रही थी लेकिन कोई प्रतिवाद नहीं कर रहा था, न ही उस आदमी को वहां से चले जाने के लिये कोई कह रहा था.मैंने अपनी आंखों से देखा कि गांधी के घर में सबके लिये जगह है -गांधी के देश में भी.हां,अब तक गांधीजी को लेकर मुझे अपने पिता के सुनाये किस्सों के बाबत जो भी अविश्वास था वह धीरे-धीरे तिरोहित हो रहा था.

आज ३० जनवरी को महात्मा गांधी की 'पुण्य तिथि'पर प्रस्तुत है डा. राम कुमार वर्मा की एक कविता जो पहली बार मार्च १९४८ के 'आजकल' में प्रकाशित हुई थी-

बापू की विदा


आज बापू की विदा है!
अब तुम्हारी संगिनी यमुना,त्रिवेणी,नर्मदा है!

तुम समाए प्राण में पर
प्राण तुमको रख न पाए
तुम सदा संगी रहे पर
हम तुम्हीं को छोड़ आए
यह हमारे पाप का विष ही हमारे उर भिदा है!
आज बापू की विदा है!

सो गए तुम किंतु तुमने
जागरण का युग दिया है
व्रत किए तुमने बहुत अब
मौन का चिर-व्रत लिया है!
अब तुम्हारे नाम का ही प्राण में बल सर्वदा है!
आज बापू की विदा है!

Tuesday, January 29, 2008

कुछ तो बात आगे बढ़ाओ यारो या स्यापा मुकाओ

दिलीप मंडल जी द्वारा शुरू की गई बहस अचानक कैसे रुक सी गई, मेरी समझ से परे है। मैं चाहता हूं इस पर बात आगे चले।

इष्ट देव सांकृत्यायन जी ने कहा कि :

हिन्दी भाषा का कुल इतिहास ही सौ साल का है। इसके पहले का जो हिन्दी साहित्य उपलब्ध है वह हिन्दी का नहीं, हिन्दी की डकैती का है. कबीर-रैदास-गोरख भोजपुरी के हैं, तुलसी-जायसी अवधी के, सूर-मीरा-रसखान आदि ब्रज के और विद्यापति मैथिल के. जब हिन्दी हिन्दी नहीं थी. टैब इन्ही लिंग दोषियों को मिल कर हिन्दी के साहित्य को रीढ़ दी गई और इनमें से कोई नुक्ता-उक्ता भी नहीं जनता था. आज अगर इन्हें हिन्दी से निकाल दें तो हिन्दी की फिर वही दशा होगी। असल में हिन्दी आज तक राजभाषा ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। इसकी वजह कुछ और नहीं, ऐसे ही सरकारी चमचों का हिन्दी का नीतिनिर्धारक होना है।

इस पर अनुनाद सिंह जी ने बहुत तर्कसंगत उत्तर दिया:

आपकी बाकी बातें ठीक हैं किन्तु यह कहना कि "हिन्दी का इतिहास केवल सौ वर्ष पुराना है" बहुत अज्ञानपूर्ण है। जब आप यह लिख रहें हैं तो आपके अचेतन मस्तिष्क में कहीं ये गलतफहमी है कि भोजपुरी, मैथिली आदि हिन्दी नहीं है। जरा दुनिया की कोई भाषा बताइये जिसकी उपबोलियाँ न हों। छोटा सा ब्रिटेन है, उसमें ही अंग्रेजी की दसों बोलियाँ हैं।दूसरी बात, जरा सोलहवीं शताब्दी की अंग्रेजी पढ़िये; क्या आपको समझ आ जायेगी? नहीं। हर भाषा समय के साथ बदलती है। हिन्दी भाषा इस दृष्टि से एक हजार वर्ष पुरानी है।रही बात भाषा में मिलावट की। एक छोटी सीमा तक ये ठीक है किन्तु जब मूल भाषा ही अल्पमत में आने लगे तो बहित बुरी बात है। इस प्रवृत्ति का विरोध होना ही चाहिये।वज्ञानिक दृष्टि से शोर और संगीत में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि दोनो ही वायु के कणों के दोलन के परिणाम हैं। किन्तु कितने लोग मानेगे कि शोर और संगीत में कोई अन्तर नहीं है?

मेरी प्रतिक्रिया यह थी:

हिन्दी साहित्य के इतिहास पर अनुनाद सिंह जी की टिप्पणी से मैं सहमत हूं। भोजपुर-अवध-ब्रज और मिथिला के अलावा भी कई जगहों पर हिन्दी अपने अपने स्तरों पर विकसित होती रही है और हो रही है - (मिसाल के तौर पर उत्तराखंड के कुमाऊं में बोली जाने वाली खास लहज़े वाली हिन्दी की एक झलक मनोहरश्याम जोशी जी की 'कसप' जैसी रचनाओं में पाई जा सकती है। इसी कुमाऊं में गुमानी जैसा हिन्दी कवि "को जानै था विल्लायत से यहां फ़िरंगी आवैगा" जैसी भाषा बीसवीं सदी के पहले दशक में लिख रहा था।) और अनवरत विकसित होते जाने की प्रक्रिया ही किसी भी भाषा की लोकप्रियता और समृद्धि की पहली शर्त है।

अंग्रेज़ी के जिस रूप की तरफ़ अनुनाद सिंह जी ने ध्यान खींचा है उस पर कुछ बताया जाना ज़रूरी लगता है। १६वीं शताब्दी में जब अंग्रेज़ी अपने शैशव पर थी तब हमारे यहां तुलसीबाबा महाकाव्य रच रहे थे। क्या कारण रहा होगा कि अंग्रेज़ी लगातार दुनिया की सबसे लोकप्रिय और सम्पन्न भाषा बनती जा रही है और हम यहां हिन्दी भाषा के इतिहास और हिन्दी-उर्दू वगैरह से आगे नहीं बढ़ पा रहे!

अंग्रेज़ी दुनिया की सबसे लालची भाषा है इस लिये वह सबसे लोकप्रिय है। वह दुनिया भर की भाषाओं से शब्द और शब्द-समूह उधार लेने में कोई हिचक नहीं रखती। हिन्दी से इतर भारत की सारी ज़बानों के शब्द उस के शब्दकोश के हिस्से हैं और जापानी के भी। उसे तो कुरासाओ जैसे सूक्ष्म द्वीप की पापियामेन्तो भाषा से भी शब्द मांगने में शर्म नहीं आती। और अब जब हमारे यहां हिन्दी-उर्दू के मेलजोल से बनी जिस तरह की भाषा समाज में जज़्ब हो जानी चाहिए थी, उस पर अभी भी विचित्र (कम से कम मुझे वे विचित्र लगती हैं) बहसें चला करती हैं। कबीर-रैदास-गोरख-तुलसी-जायसी सूर-मीरा-रसखान और विद्यापति को याद करते हुए अगर आप नज़ीर, वली, मीर, ग़ालिब फ़िराक़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो आप ऐसी हिन्दी की बात कर रहे होंगे जो सिर्फ़ किताबों में पाई जाती है।

हिन्दी और उर्दू लगातार एक दूसरे से मिलाकर बोले जाते रहे हैं और हमारे पुरखे उस आलीशान मिश्रण की गरिमा और शालीनता बनाए रखना जानते थे और जिसे हमारे समकालीन शायर बशीर बद्र 'वो इत्रदान सा लहज़ा मेरे बुज़ुर्गों का' कह चुके हैं। अभी मैंने फ़हमीदा रियाज़ का एक उपन्यास खत्म किया है और यकीन मानिए उस में इस सादगी और संयम के साथ हिन्दी के ऐसे ऐसे मीठे और शानदार शब्दों का प्रयोग किया गया है कि आपको लगता ही नहीं कि आप उर्दू की किताब पढ़ रहे हैं। पाकिस्तान में आज तक किसी ने उर्दू की रचनाओं में शास्त्रीय हिन्दी के शब्दों के प्रयोग को लेकर ऐतराज़ किया हो, ऐसा कोई वाकया मेरे जेहन में नहीं है। मेरा तो यह मानना है कि हिन्दी और उर्दू के प्रयोग को लेकर उपजी बहसों के पीछे कहीं न कहीं हमारे अवचेतन में अंग्रेज़ी का बढ़ता प्रसार रहा है। और वह भी नकली नफ़ासत से लिथड़ी अधकचरी अंग्रेज़ी का जिसे महानगरों के बड़े स्कूलों में बोलते बोलते रईसों के बच्चों ने भारत के नए मीडिया की बुनियाद रखी। जब देखा गया कि असल मार्केट हिन्दी का है तो उस के बाद ... । दिक्कत उस के बाद ही शुरू हुई है। हिन्दी न जानने वाला बॉस जब हिन्दी लिखवाता है या उसे करेक्ट तरीके से लिखने के लिए ज़ोर देता है, इस बारे में मीडिया से जुड़े दोस्त ज़्यादा व्यक्तिगत अनुभव बांट सकते हैं और हम सब जानना चाहेंगे कि असल में क्या होता है कि हिन्दी चैनलों के दर्शकों के हाथ हिन्दी का सबसे पलीत और निखिद्द संस्करण लगता है। क्या कई बार नौकरी बचाने की विवशता तो ऐसा नहीं कराती। पता नहीं, इस बारे में मैं कभी कुछ नहीं कह पाता। मेरे खुद के बड़े पक्के पक्के यार जो एक ज़माने में राबर्ट पिर्सिग की नई किताब को पा और पढ़ लेने के बाद महीनों बौराये फ़िरते थे, आज किताब का ज़िक्र आने पर 'राग दरबारी' के एक मास्टर का सा भाव मुंह पर ले आते हैं कि 'जी घिन्ना गया किताबों से साहब'। ये पक्के यार बड़े चैनलों में ऊंची नौकरियां करते हैं और साल-दो साल में होने वाली मुलाकातों में "वापस पहाड़ आकर" लिखने-पढ़ने में बुढ़ापा काटने के महान प्रयोजन हेतु मुक्तेश्वर-रामगढ़ में प्लाट खोज देने का ज़िम्मा दे जाते हैं। अस्तु, इस बारे में कम लिखे को कम ही पढ़ा जाए।

हिन्दी और उर्दू की नुक्ताचीनी पर मैं इरफ़ान की बातों से सहमत हूं और सीखने का हिमायती हूं। आपको नुक्ता लगाना नहीं आता तो सीखा जा सकता है। दिलीप भाई की पिछ्ली पोस्ट पर अजित वडनेरकर जी ने शब्दकोशों की महत्ता को चिन्हित किया है और यही बात इरफ़ान भी कहते हैं।

सही भाषा लिखे-बोले जाने की ज़रूरत हमेशा रही है। वर्षों से सार्वजनिक स्थानों पर गलत लिखी और सही जाती हिन्दी भाषा को बचाने का काम कई स्तरों पर जारी है लेकिन ये प्रयास नगण्य हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे बच्चों या उन के बच्चों के पास जो हिन्दी पहुंचेगी उस में खूब मिठास होगी और खूब खुलापन भी होगा।

मैं जल्द ही एक पोस्ट लगाने वाला हूं जिस में आपको बताया जायेगा कि आत्म मोह के दलदल में आकंठ डूबे हमारे महान हिन्दी साहित्य समाज में किस किस तरह के अकल्पनीय प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि हिन्दी की जितनी जल्दी हो ऐसी की तैसी फेरी जा सके।

एक छोटा सा कमेन्ट जन सेवक सर के लिए भी था :

जन सेवक जी की बात मेरी समझ में कतई नहीं आई. अलबत्ता उस में सायास प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों में एक 'ग्रामर' की 'स्पैलिंग' गलत है. ऐसा यहां इस लिये लिख रहा हूं कि 'ग्रामर' की गलत स्पैलिंग लिखने पर मुझे छ्ठी क्लास में मार पड़ी थी: स्कूल में भी और घर में भी.

अस्तु, यहां भी कम लिखे को कम समझा जाए, ऐसी मेरी प्रार्थना है।

*यहां जिन जिन टिप्पणियों का सन्दर्भ दिया गया है, उन्हें दिलीप मंडल जी की पोस्ट पर देखा जा सकता है।

...वर्ना तो भौंपूवाला भी प्रसारक ही है

अजित वडनेरकर

हिन्दी के शुद्धतावाद पर दिलीप जी की ज्यादातर बातों से सहमत हूं और मैने शब्दों के सफर में यही लिखा भी है । भाषा तो दरिया है । बहाव में ही शुद्धता भी है और ताज़गी भी। मगर लोक बोली के उच्चारण अगर हिन्दी में न्यायोचित ठहराने की वकालत होगी तो हिन्दी भी गई और लोकभाषा भी गई।
किसी भी अशुद्ध चीज़ के लिए अस्तित्व का संकट कभी नहीं रहा है। दरअसल अशुद्ध चीज़ें ही शुद्ध के अस्तित्व को बताती हैं। मगर कई बार यह भी होता है कि अशुद्ध भारी हो जाता है, चल पड़ता है , दौड़ने लगता है। वह सत्य बन जाता है। शुद्धता का अस्तित्व रहता तो है मगर मिथक के रूप में । हिन्दी जैसे विकसित भाषा के साथ क्या हम ऐसा होने देना चाहते हैं ? आज हिन्दी उच्चारण की वजह से ही तो अन्य बोलियों, शैलियों (लोक) से अलग पहचानी जाती है तो इस उच्चारण का मानक स्वरूप भी होता है। इस पर कोई विवाद नहीं है । श और स का घालमेल न मुद्रित रूप में चलेगा और न ही वाचिक रूप में। हिन्दी को मठवाद से दूर रखा जाना चाहिए । आमजन पर शुद्धता का कोई आग्रह कभी नहीं रहा है। कोई भी भाषा आमजन की ज़बान पर चढ़कर ही प्राणवान होती है। अलबत्ता पढ़े-लिखे लोग, भाषा के क्षेत्र में काम कर रहे लोग( नाटक, सिनेमा, मीडिया, साहित्य,विज्ञापन) हिन्दी को सलीके से इस्तेमाल करें। कायदे की बात में फायदा तो है खासतौर पर प्रसारण करने वालों के लिए तो यह मंत्र है। वर्ना भौंपू लेकर नेताओं की सभा की मुनादी करनेवाले को भी प्रसारक ही कहा जाता है।

क्या औरत अश्लील शब्द है?

शेरो शायरी का उल्लेख हो और नुक्ता न लगे तो हिन्दी का भी मज़ा नहीं । यह सब दरअसल इसलिए होता है कि हम डिक्शनरी देखना भूल चुके हैं। खुद को सुधारना भूल चुके हैं। अख़बारों , चैनलों के दफ्तरों में डिक्शनरी देखने की ललक तक नहीं है। पूछ कर काम चलाते हैं। चाहे जवाब देने वाले ने भी अंदाज़न ही बताया हो। औरत शब्द अश्लील है और महलों में रहनेवाली स्त्री महिला कहलाती है जैसी मूर्खतापूर्ण धारणाएं पालनेवाले बुद्धिजीवी मैने पत्रकारिता में देखे हैं।

शब्दकोशों में पूरबी की भरमार क्यों ?

एक और बात। क्या हिन्दी की समृद्धि केवल अवधी, भोजपुरी और पुरबिया ज़बानों के शब्दों तक ही सीमित रहेगी ? हिन्दी विकसित होती भाषा है मगर शब्दकोशों में एक क्षेत्र विशेष के शब्द ठूंसने की जो गलती बीते कई दशकों से चल रही है उसका क्या ? दिल्ली और काशी से निकली तमाम शब्दकोशों को देख डालिए, ज्यादातर शब्दों के अर्थ, पर्यायवाची शब्द वही है जो पूरब की शैलियों में इस्तेमाल होते हैं। इसमें मालवी, राजस्थानी, कुमाऊंनी के शब्द नहीं मिलेंगे।
दक्कनी शैली की हिन्दी का काशी के मठाधीशों ने कभी खूब मज़ाक उड़ाया था मगर आज वही बॉलिवुड के जरिये कई दशकों से सिरचढ़ कर बोल रही है। आक्सफोर्ड डिक्शनरी हर साल अन्य विदेशी भाषाओं के आमफहम शब्दों को सघोष अपनाती है मगर हिन्दी के कोशकार ऐसी पहल कतई नहीं करते और हिन्दी वाले शुद्धतावाद का स्यापा करने बैठ जाते हैं। हिन्दी में आए मराठी शब्दों का कभी जिक्र होगा? कन्नड़ से हमने क्या लिया, क्या कभी आम हिन्दी वाला जान पाएगा ? एक ही मूल से जन्मी संस्कृत, हिन्दी , बांग्ला, अंग्रेजी, फारसी , जर्मन आदि भाषाओं के शब्द सदियों से एक दूसरे में आते जाते रहे हैं। हजारों ऐसे शब्द है जो हिन्दी की मूल धारा मे समा गए । उन्होने अपना रूप बदल लिया । शुद्धतावादी क्या इनको पहचान भी पाएंगे?

साहित्य था पत्रकारिता का संस्कार

पत्रकारिता ने हमेशा ही नई भाषा गढ़ी है और हिन्दी के प्रवाह को शायद गति मिली है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहले साहित्य पत्रकारिता में रिश्तेदारी थी । आज की पत्रकारिता से साहित्य सिरे से गायब है। पहले साहित्यिक अभिरूचि वाले लोग मीडिया से जुड़ते थे (गौर से पढ़ें मैं साहित्यकारों की बात नहीं कर रहा हूं) मगर आज की पत्रकारिता इसमें कोई योगदान नहीं कर रही है, गुंजाइश नहीं है या वैसा सामाजिक माहौल नही है। खिलाफत जैसा मज़ाक लंबे अर्से से चल रहा है। इरफान सच कहते हैं। प्रसारकों के उच्चारण से लोग सही बोलना सीखते थे। आज के भ्रष्ट उच्चारण वाले प्रसारकों को शायद सीखने की इच्छा भी नहीं है।

भाषा की बहस और बहस की भाषा

ब्लॉग और भाषा का जनपक्ष पोस्ट पर कई टिप्पणियां आई हैं। इन टिप्पणियों को एक साथ रखने का मकसद ये है कि बहस आगे बढ़े। इस बहस में हम सबके लिए कुछ न कुछ है। वैसे भाषा तो बहुत मनमाने तरीके से बहती है। कभी कोई कोई किनारा तोड़ देती है, तो कभी रास्ता बदल लेती है तो कभी अंत:सलिला बन जाती है। कभी संस्कृत बनकर पोथियों में दम तोड़ देती है तो कभी लैटिन बनकर शास्त्रीय तो हो जाती है फिर लोक से नाता जोड़ते ही पहले तो वल्गर लैटिन बन जाती है आगे चलकर कई यूरोपीय लैंग्वेज फॉर्म में तब्दील हो जाती है। खैर, शामिल हो जाइये इस बहस में। इस बहस में मेरा पक्ष इतना सा है कि शास्त्रीय भाषा, शुद्ध भाषा के साथ लोक और "अशुद्ध" को भी जीने का अधिकार मिले। और ब्लॉग पर तो इस अधिकार को मांगने की जरूरत भी नहीं है।

-दिलीप मंडल


संजय बेंगाणी said...

हिन्दी का नेट संस्करण रचा जा रहा है और हम इसके साक्षी है.

भाषा या भासा तो बहता पानी है, बहेगा...ही.

इरफ़ान said...

आपकी बात को उचित संदर्भ में समझने की कोशिश कर रहा हूँ उसी तरह जैसे आपने मेरी बात समझी होगी. भाषा के लोकपक्ष के समर्थन में आपकी बातों से उन्हें भी शक्ति मिलेगी जो अपनी मूर्खताओं को दार्शनिक जामा पहनाना चाहते हैं, इस ख़तरे से में अवगत हूँ. अगर हमारे लालन-पालन में और शिक्षण में कोई कमी है तो हम अपने बच्चों को उसका शिकार नहीं बनने देना चाहते और बच्चे ही क्यों, मौक़ा लगते ही अपनी कोशिशों से उस किये को अनकिया करना चाहते हैं.सीखना तो एक प्रक्रिया है जिसे उदाहरण के लिये अंग्रेज़ी का बरताव करते हुए जी जान से अपनाते हैं. मैं लोकभाषा के बारे में कुछ कहने के लिये ख़ुद को बहुत छोटा समझता हूँ और हर तरह की लोक अभिव्यक्तियों का सम्मान करता हूँ.
मुझे बताइये कि ख़लीफ़ाओं से जुडे ख़िलाफ़त शब्द को जब आप विरोध के अर्थ में प्रयोग करते हैं तो अर्थ बदलता है या नहीं? जब आप ख़ुलासा को खोलकर बताने के लिये काम में लाते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि खोल को आप ख़ोल से गड्डमड्ड कर रहे हैं.

एक मोटा अंतर यह है कि कल तक लोग "प्रसारकों से" सीखा करते थे कि कैसे बोला जाय और प्रसारक इस ज़िम्मेदारी को समझते हुए अपनी तैयारी करते थे,आज प्रसारक "लोगों से" से सीखते हैं कि वे कैसे बोलते हैं क्योंकि अपनी तैयारी के लिये न तो उनमें इच्छाशक्ति है और न ही उसका माहौल. क्या आप भी कुएँ में गिरे आदमी को कुएँ में गिरकर निकालने के समर्थक हैं?
आइये इस ज़िम्मेदारी को समझें कि लोग हमसे सीखते हैं और इसके लिये हमें थोडा परिश्रम करना होगा. मैं ख़ुद जिस क़स्बे में पैदा हुआ वहाँ से किश्त, ग़ुफ़ा, सफ़ल और ग़ज़ जैसी बुराइयाँ लाया था लेकिन समझने के क्रम में मैंने इन्हें ठीक किया.

Kakesh said...

इरफ़ान भाई , मैं सीखने के लिये तैयार हूँ.शागिर्द बनायेंगे क्या?

आपका सही नाम लिखना तो सीख ही लिया. ;-)

Uday Prakash said...

दिलीप जी, आपकी बात से मै सहमत हू। हिन्दी एक बनती हुई भाषा है। इसका अभी स्थिरीकरण नही हुआ है। विकासशील जीवित भाषाओ का स्थिरीकरण होता भी नही है। मै खुद छ्त्तीसगढ के सीमान्त के एक गाव से हू। ६ से ८ दर्ज़े तक 'गलत हिन्दी' लिखने के लिए हमारे नम्बर काटे जाते रहे। हमे दण्ड मिलता रहा। बाद मे हमने जाना कि अरे ये तो खडी हिन्दी के भीतर भी 'कोलोनीज़' है। साहित्य मे आकर तो यह पारदर्शी आईने जैसा साफ़ हुआ। 'शुद्ध हिन्दी' लिखना और 'एक स्थिरीक्रित' 'मानकीक्रित' या फिर काशी-प्रयाग-उत्तरकाशी के 'महामण्डलेश्वरो'द्वारा निर्धारित 'हिन्दी' लिखना, और इसके बरक्स अपनी 'मात्रिभाषा हिन्दी' लिखना...अलग-अलग मुद्दे है। इतनी सहजता से इस बहुत गम्भीर मुद्दे को उठाने के लिए बधाई।

अभय तिवारी said...

आप की सब बातें जायज़ है पर साथ-साथ इरफ़ान की चिंताएं भी.. उन्होने परिश्रम करके अपने को ठीक किया है.. मैं खुद भी लगातार अपने हिज्जों और नुक़्तों को लेकर सचेत बने रहने की कोशिश करता हूँ और मानता हूँ कि जो भी ज़िम्मेदारी के स्थानों पर हैं वे भी इसे समझें.. नहीं तो एक मधुर भाषा की मधुर ध्वनियों को खोकर नुक़सान हमारा ही होगा..

swapandarshi said...

दीलीप जी तर्क और कुतर्क लगभग हर चीज़ के दिए जा सकते है। अपने जीवन मे बहुत कुछ हम स्व -अभ्यास से सीखते है, अपने आस-पास लोगो को सुनकर सीखते है, रेडियो- टीवी से भी सीखते है, और दूनिया भर की किताबो से भी। फिर इस सीख-सीख कर कभी इस लायक भी हो जाते है कि ज्ञान के सागर मे एक बूँद खुद भी मिला दे। स्कूल से, या कोलेज से सिर्फ बुनियादी शिक्षा मिलती है, या कहे तो एक मतलब मे साक्षर हो जाते है, शिक्षा जीवन के विभिन्न आयामों से जीवनभर हमारे चाहे-अनचाहे चलती रहती है। भाषा की शिक्षा भी इसके इतर नही है, इसे भी लागातार साधना पड़ता है, शब्दावली मे लगातार नए शब्द भरने पड़ते है. प्रवाह का ख्याल, नया ट्रेंड के शब्द, नए उच्चारण, ये सब भी स्कूल के बहुत आगे जाते है। फिर नुक्तों का इस्तेमाल को भी इसी सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा क्यो ना माना जाय। उर्दू के शब्द, संस्कृत के शब्द, देशज भाषाओं के शब्द, अंग्रेजी के शब्द, सभी से मिल कर हिन्दी बनी है। पर बहुत से देशज शब्द संस्कृत और उर्दू और अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों की टांग तोड़कर बने है।
खासतौर पर अगर सरल, सुगम, और सही शब्द है तो कम से कम लिखने वालों को उन्ही को इस्तेमाल करना चाहिऐ। कम से कम उन लोगो को जो लिखने-पढने के काम से रोटी खाते है। उद्दहरण के लिए, लगभग सारी हिन्दी पत्ती के देहाती, समय के लिए "टेम" बोलते है, हमारे पास सही शब्द वक़्त और समय दोनो है ।
इसी तरह सिगरेट अंग्रेजी से है, पर उसकी खोज भी अंग्रेजो ने ही की, उसके लिए 'धूम्रदंडिका' कहना फ़जूल है।
इसी तरह का शब्द है, 'चिरकुट' जो अवधी का है पर बड़ा उपयोगी।
हर चीज़ को अच्छा बनाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, फिर पत्रकारों, लेखकों से ये उम्मीद क्यो न की जाय?

Jan Sevak said...

पोस्ट में मेरी टिप्पणी का ज़िक्र है इसलिए लिख रह हूँ.

Apparently हिन्दी में एक saying है.. सब धान बाईस पसेरी.. आप ने वाही कर दिया.... दिलीप कुमार को happy birth day कहने पर objection raise करने वाला में ही था. लेकिन आपने मुझे उन लोगों के rank में put कर दिया जो language fanatic हैं. what I mean is that यार तुसी समझते हो न की this hindi fundamentalism is you know चलने वाला नही है. you are right... language को river के माफिक flow करने देना चाहिए... but you know... पुराने type की thinking hold करने वाले एकदम stupid बात करते हैं. After all हिन्दी को इस globalised world में survive करना है या नही?

Dilip, you are a genius. नही सच्ची मुची... jokes apart. Oh, by the way, who cares about लिंग भेद यार. as long as आप अपनी बात explain कर सकते हैं... किसे फुरसत है without any reason हिन्दी के grammer का रोना रोये... I mean, you know... why bother !!

And believe me you, में ख़ुद यही मानता हूँ, अगर हमारे आपके जैसे लोग language को open up .... your know.. open up नही करेंगे, ताब तक these hindi walas will not learn.

Keep it up, buddy.

mamta said...

भाषा की शुद्धता और अशुद्धता से कहीं ज्यादा जरुरी है भाषा मे मिठास होना।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

हिन्दी भाषा का कुल इतिहास ही सौ साल का है. इसके पहले का जो हिन्दी साहित्य उपलब्ध है वह हिन्दी का नहीं, हिन्दी की डकैती का है. कबीर-रैदास-गोरख भोजपुरी के हैं, तुलसी-जायसी अवधी के, सूर-मीरा-रसखान आदि ब्रज के और विद्यापति मैथिल के. जब हिन्दी हिन्दी नहीं थी. टैब इन्ही लिंग दोषियों को मिल कर हिन्दी के साहित्य को रीढ़ दी गई और इनमें से कोई नुक्ता-उक्ता भी नहीं जनता था. आज अगर इन्हें हिन्दी से निकाल दें तो हिन्दी की फिर वही दशा होगी. असल में हिन्दी आज तक राजभाषा ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई. इसकी वजह कुछ और नहीं, ऐसे ही सरकारी चमचों का हिन्दी का नीतिनिर्धारक होना है.
एक बात और. जो लोग कहते हैं कि बिहार या यूपी या कहीं और वालों का लिंग कमजोर होता है तो उससे तुरंत यह सवाल करें की उसने इस्तेमाल करके देखा क्या? आखिर ऐसे कोई कुछ कैसे कह सकता है!

Monday, January 28, 2008

छन्नूलाल मिश्र जी के स्वर में शिव वन्दना


छन्नूलाल मिश्र जी की आवाज़ में आप सोहर सुन चुके हैं और मीराबाई का भजन भी। आज उन्हीं से सुनिये शिव-वन्दना : नमामि शमीशान निर्वाण रूपम।


ब्लॉग और भाषा का जनपक्ष

बिहारियों का लिंग कमजोर होता है (ये बात अक्सर मजाक के नाम पर किसी को अपमानित करने के लिए कही जाती है)।
नुक्ते की तमीज नहीं, और लेखक-पत्रकार बनने की जिद।
स और श का फर्क नहीं जानते, चले आए हैं साहित्य झाड़ने।
रफी साहेब को हैप्पी बर्थडे कहते शर्म नहीं आती।
एक मीडिया समूह ने हिंदी का सत्यानाश कर दिया है।
टीवी वालों को भाषा की समझ ही नहीं है।
गालियों का भी कहीं समाजशास्त्र होता है। गालियों पर बात करने वाले गंदे हैं।

ये सब किसी ऐसे आदमी के सामने बोलिए, जिसके स्कूल में अंग्रेजी हिंदी में और हिंदी स्थानीय बोली में पढ़ाई गई हो। नुक्ते से जिसका परिचय न हो। बड़ी ई और छो़टी इ या बड़ा ऊ या छोटा उ लिखने के लिए जिसके स्कूल और कॉलेज में नंबर कभी न कटे हों, तो उस पर क्या बीत रही होगी? जिनके लिए स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का भाषाई कॉन्सेप्ट धुंधला हो, उसे हिंदी समाज में जीने का हक है या नहीं? या सीधे फांसी पर लटका देंगे या हिंदी से जाति निकाला दे देंगे। और अगर आप ऐसा करेंगे तो आप हिंदी के दोस्त हुए या दुश्मन?

भाषा का जनपक्ष

एक सवाल कई बार मन में आता है कि भारत की राजधानी का नाम अगर पटना या रांची या दरभंगा या चित्रकूट या बांदा या गोपेश्वर या कोपरगांव होता और हिंदी के अपेक्षाकृत समृद्ध प्रदेशों के नाम झारखंड, मिथिलांचल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड या छत्तीसगढ़ होता तो भी क्या हिंदी का शास्त्रीय स्वरूप ऐसा ही बनता, जैसा आज है।

हिंदी का जो शास्त्रीय रूप हम लिख पढ़ रहे हैं ये कुछ सौ साल से पुराना तो नहीं है। यही तो वो समय है जब उन मुस्लिम/अंग्रेज/हिंदुस्तानी शासकों का दबदबा रहा, जिनकी सत्ता का केंद्र दिल्ली और आगरा जैसे शहर रहे।। यही तो वो इलाका है, जिसकी हिंदी आज सबकी हिंदी है। खड़ी बोली हिंदी की जिस शुद्धता का अहंकार कुछ लोग कर रहे हैं वो इसी इलाके की भाषिक परंपरा की बात कर रहे हैं। साहित्य की भाषा के बारे में अक्सर आग्रह होता है कि वो अभिजन की भाषा हो। लेकिन साहित्य सिर्फ अभिजन की भाषा में ही लिखा जाए तो सूर, तुलसी, कबीर, नानक सबको भुलाना होगा। और ऐसी है सैकड़ों, हजारों नामों के बगैर साहित्य भी कितना गरीब हो जाएगा। नए नायक क्या वही होंगे जो अभिजन की भाषा बोलेंगे, लिखेंगे?

और फिर ब्लॉग तो खुला मंच है। यहां तो आपको इस सोच/जिद के लिए भी स्पेस देना होगा कि मैं अपने तरीके की हिंदी लिखना चाहता/चाहती हूं और कि मैं देवनागरी स्क्रिप्ट में लोकभाषा का ब्लॉग लिख रहा/रही हूं। एसएमएस में, ईमेल में, फिल्मों में, एड में, गानों में और टीवी पर भी भाषायी शुद्धतावादियों को अक्सर हताश होना पड़ता है। रेशमिया जैसे संगीत के चांडाल आज हीरो हैं, जो करते बने कर लीजिए। इन जगहों पर बात को कहने के अंदाज की कीमत है। व्याकरण और वैयाकरणों को यहां विश्राम दिया जा सकता है। इन जगहों पर भाषाई महामंडलेश्वरों के लिए कोई जगह नहीं है। और ब्लॉग में तो गलत भी है तो मेरा है, पढ़ना हो तो पढ़ों वरना आगे बढ़ों बाबा। खाली-पीली टैम खोटा मत करो।

भाषा को अविरल बहने दो

भाषा सिर्फ साहित्व का नहीं संवाद का भी माध्यम है। भाषा जब अभिजन से लोक में जाती है, तो अपना स्वरूप बदलती है। हर भाषा कई फॉर्म में चलती रहती है, बहती रहती है। इस पर दुखी होने का कोई कारण नहीं है। उर्दू के साहित्य में नुक्ता रहे। उर्दू से जुड़े हिंदी के भाषायी फॉर्म में भी उसका अस्तित्व बना रहे। कोई सही जगह नुक्ता लगा सकता है तो जरूर लगाए। कई लोगों को अच्छा लगता है। हिंदी से नुक्ते का गायब होना तो शायह इसलिए हुआ है कि स्कूलों में नुक्ते की पढ़ाई नहीं होती। इसलिए ज्यादातर लोगों को भरोसा नहीं होता कि ये सही जगह लग रहा है या गलत जगह पर। नुक्ते के बगैर शब्दों के अर्थ बेशक बदल जाते हैं, लेकिन हम शब्द नहीं वाक्य बोलते हैं और वो भी अक्सर एक संदर्भ के साथ बोलते हैं। नुक्ता न लगाएं तो कुछ लोग कहते हैं कि कान में खटकता है, लेकिन अर्थ का अनर्थ होते मैंने कम ही सुना है।

उसी तरह संस्कृतनिष्ठ भाषा से किसी को प्रेम है, तो वो वैसी भाषा लिखे। खुश रहे। लेकिन ये जिद नहीं चलेगी कि हिंदी में संस्कृत के ही शब्द चलेंगे। हिंदी में लोकभाषा के शब्द आए, संस्कृत के शब्द आए, विदेशी भाषाओं के शब्द भी आए और इनके आने से भाषा गरीब नहीं हुई। अंग्रेजी अगर इस देश में एलीट की भाषा है तो अंग्रेजी के असर से देश की कोई भाषा सिर्फ इसलिए नहीं बच जाएगी, कि आप ऐसा चाहते हैं।

भाषा अगर अपने लोकपक्ष के बारे में अवमानना का भाव रखेगी तो वो दरिद्र होती चली जाएगी और बाद में शायद मौत का शिकार भी बन जाएगी। भाषा को अलग अलग रूपों और फॉर्म में प्रेम करना सीखिए। कंप्यूटर, मोबाइल, गेमिंग, ई-कॉमर्स, इन सबका असर भाषा पर हो रहा है। छाती मत पीटिए, भाषा बिगड़ नहीं रही है, बदल रही है। अक्सर जिसे हम भाषा की गलती मानते हैं वो अलग तरह से बोली गई या लिखी गई भाषा होती है। भाषा शुद्ध तरीके से लिखी या बोली जाए, इससे शिकायत नहीं है, लेकिन जो शुद्ध नहीं है उसे भी जिंदा रहने का हक मिलना चाहिए।

(ये बातें आपसे एक ऐसा शख्स बोल रहा है जिसका परिचय इसी लेख में ऊपर दिया गया है)

Sunday, January 27, 2008

पहाड़ी जाड़े की सौगात: सना हुआ नींबू

साल शुरू होने पर टूटे-बिखरे इरफ़ान और मुनीश दिल्ली से दो-चार दिनों के लिए पहाड़ों की तरफ़ आए थे। उन दिनों का वर्णन इरफ़ान अपने ब्लाग पर कर चुके हैं। इस पोस्ट में उन्होंने सने हुए नींबू के चटखारों का ज़िक्र किया था। इस अनुपम व्यंजन का आस्वादन करने के बाद विशेषत: मुनीश लगातार इस को याद करते हुए टेलीफ़ोन और एसएमएस द्वारा मुझे बार - बार सने हुए नींबू को बनाने की विधि कबाड़खाने में प्रस्तुत करने का प्रेमपूर्ण आदेश देते रहे हैं। आप भी आनन्द लें:

वांछित सामग्री:

बड़े पहाड़ी नींबू - २
पहाड़ी माल्टे - २
पहाड़ी मूली - १
दही - १/२ किलो
हरे धनिये और हरी मिर्च से बना मसालेदार नमक
भांग के भुने बीजों का चूरन

कतला हुआ गुड़ - ५० ग्राम

पहाड़ी नींबू करीब करीब बड़े दशहरी आम जितने बड़े होते हैं। माल्टे, मुसम्मी और संतरे के बीच का एक बेहद रसीला फल होता है। ताज़ी पहाड़ी मूली में ज़रा भी तीखापन नहीं होता। भांग के बीजों में नशे जैसी कोई बात नहीं होती और कुमाऊं-गढ़्वाल में जाड़ों में बनने वाले तमामतर व्यंजनों में इस का इस्तेमाल होता है।

बनाने का तरीका:

नीबू और माल्टे छील कर छोटे-छोटे टुकड़े कर लें। मूली के भी लम्बाई में टुकड़े कर लें। एक बड़ी परात में ऊपर लिखी सारी सामग्री मिलाकर सान लें। बस स्वाद के हिसाब से मीठा-नमकीन देख लें।

खाने की विधि:

आमतौर पर यह काम-काज से निबटने के बाद घरेलू महिलाओं द्वारा थोक में खाया जाता है। पुरुषों को करीब करीब भीख में मिलने वाले सान की मात्रा महिलाओं के मूड पर निर्भर करती है। इसे सर्दियों के गुलाबी सूरज में खाया जाए, ऐसा पुराने पाकशास्त्रियों का मत है।


इसे खाते वक्त महिला-मंडली में एक या दो अनुपस्थित महिलाओं का रोल सबसे महत्व का माना जाता है। इन्हीं अनुपस्थित वीरांगनाओं की निन्दा इस अलौकिक व्यंजन के स्वाद का सीक्रेट नुस्खा है।

Saturday, January 26, 2008

प्रार्थना

मेरे सबसे प्रिय समकालीन लेखक-कवियों में एक हैं अनीता वर्मा। अनीता जी रांची में रहती हैं। बेहद संवेदनशील और सचेत यह लेखिका मुझे अपनी अथक जिजीविषा से बहुत प्रभावित और आकर्षित करती रही हैं। पिछले कई सालों से दुर्भाग्यवश उनका स्वास्थ्य बहुत ज़्यादा खराब रहा है और पता नहीं कितने आपरेशन उनके हुए हैं। उसके बावजूद समय निकाल कर वे लिखती रहती हैं और चुनिन्दा पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं देखने को मिलती रहती हैं।

इस शानदार कवयित्री और उस से भी शानदार व्यक्ति की दो कविताएं पढ़िए:

पुरानी हंसी

मुझे अच्छी लगती है पुरानी कलम
पुरानी कापी पर उल्टी तरफ़ से लिखना
शायद मेरा दिमाग पुराना है या मैं हूं आदिम
मैं खोजती हूं पुरानापन
तुरत आयी एक पुरानी हंसी मुझे हल्का कर देती है
मुझे अच्छे लगते हैं नए बने हुए पुराने संबंध
पुरानी हंसी और दुख और चप्पलों के फ़ीते
नयी परिभाषाओं की भीड़ में
संभाले जाने चाहिए पुराने संबंध
नदी और जंगल के
रेत और आकाश के
प्यार और प्रकाश के।


प्रार्थना

भेद मैं तुम्हारे भीतर जाना चाहती हूं
रहस्य घुंघराले केश हटा कर
मैं तुम्हारा मुंह देखना चाहती हूं
ज्ञान मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूं
निर्बोध निस्पंदता तक
अनुभूति मुझे मुक्त करो
आकर्षण मैं तुम्हारा विरोध करती हूं
जीवन मैं तुम्हारे भीतर से चलकर आती हूं।


(दोनों कविताएं राजकमल प्रकाशन से २००३ में छपे अनीता जी के संग्रह 'एक जन्म में सब' से साभार।)

Thursday, January 24, 2008

हैरी बैलाफ़ोन्टे का एक मज़ेदार गीत


देयर्स अ होल इन द बकेट


कैरिबियाई कैलिप्सो संगीत के बादशाह हैरी बैलाफ़ोन्टे (१ मार्च १९२७) ने १९५० के दशक में दुनिया भर में नाम कमाया था। बेहद सादगीभरे और मनोरंजक गीत गाने वाले हैरी पिछले लम्बे समय से अमरीकी बाज़ारवाद के मुखर विरोध में खड़े प्रमुख नामों में हैं।


'माटिल्डा शी टुक मी मनी एन्ड रन वेनेज़ुएला', 'मामा लुक अ बूबू देयर', 'बनाना बोट सांग' और 'विल हिज़ लव बी लाइक हिज़ रम' इत्यादि उनके विश्वविख्यात गीत हैं। कुछ दिन पहले मैंने सस्ता शेर पर बैलाफ़ोन्टे का एक और मशहूर गीत 'मैन स्मार्ट वीमैन स्मार्टर' भी पोस्ट किया था। आज आपको सुनाता हूं 'देयर्स अ होल इन द बकेट'। हैनरी और एलाइज़ा नाम के पति-पत्नी के बीच पानी की एक बाल्टी को लेकर होने वाली चुहल इस मीठे गीत का विषय है। गीत के बोल पेश हैं:


There's a hole in the bucket, Dear Liza, dear Liza
There's a hole in the bucket, Dear Liza, there's a hole

Then fix it, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
Then fix it, dear Henry, Dear Henry, fix it.

With what shall I fix it, Dear Liza, dear Liza?
With what shall I fix it, Dear Liza, with what?

With a straw, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
With a straw, dear Henry, Dear Henry, with a straw.

But the straw is too long, Dear Liza, dear Liza
But the straw is too long, Dear Liza, too long

Then cut it, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
Then cut it, dear Henry, Dear Henry, cut it.

With what shall I cut it, Dear Liza, dear Liza?
With what shall I cut it, Dear Liza, with what?

With an axe, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
With an axe, dear Henry, Dear Henry, an axe.

The axe is too dull, Dear Liza, dear Liza
The axe is too dull, Dear Liza, too dull

Then sharpen it, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
Then sharpen it, dear Henry, Dear Henry, sharpen it.

On what shall I sharpen it, Dear Liza, dear Liza?
On what shall I sharpen it, Dear Liza, with what?

On a stone, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
On a stone, dear Henry, Dear Henry, a stone.

The stone is too dry, Dear Liza, dear Liza
The stone is too dry, Dear Liza, too dry

Then wet it, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
Then wet it, dear Henry, Dear Henry, wet it.

With what shall I wet it, Dear Liza, dear Liza?
With what shall I wet it, Dear Liza, with what?

With water, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
With water, dear Henry, Dear Henry, with water.

In what shall I fetch it, Dear Liza, dear Liza,
In what shall I fetch it, Dear Liza, in what?

In a bucket, dear Henry, Dear Henry, dear Henry
In a bucket, dear Henry, Dear Henry, in the bucket.

There's a hole in the bucket.


Wednesday, January 23, 2008

भारत




भारत




भारत -
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी दरख्तों की परछाइयों से
वक्त मापते हैं

उन के पास, सिवा पेट के कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उन के लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत का अर्थ है मुक्ति

जब
भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है -
उसकी टोपी हवा में उछाल दूं

उसे बताऊं
कि भारत का अर्थ
किसी दुष्यन्त से संबंधित नहीं
बल्कि खेतों में दायर है
जहां अन्न उगता है
जहां सेंधें लगती हैं ...

-अवतार सिंह 'पाश' (पंजाब के शहीद क्रांतिकारी कवि)

"सिर धरे मटकिया डोले, कोई श्याम मनोहर लो रे"



यह पोस्ट मोहल्ला वाले अविनाश की वजह से लग पा रही है। कुछ महीने पहले उन्होंने "मोरे पिछवरवा" सुना कर मुझे तो लूट ही लिया था। बनारस से ताल्लुक रखने वाले पण्डित छन्नूलाल मिश्र जी की अलौकिक आवाज़ मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत हौंट करती रही और मैंने बहुत कोशिश की कि कहीं से ही सही उन का एक ही अल्बम सही, कैसे भी मिल जाए। और कल रात यह ख्वाहिश पूरी हो गई।

पंडितजी की 'कृष्ण' वाली सीडी अब मेरे पास है। उसी से सुनिये मीराबाई का एक सुरीला भजन।

(कबीर वाले अल्बम के जुगाड़ में लग गया हूं अब।)

Tuesday, January 22, 2008

नेताजी के जन्मदिन के अवसर पर "कदम कदम बढ़ाए जा"



२३ जनवरी को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती है।

सन १९३९ में जब हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें लगातार दूसरे वर्ष कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया तो राष्ट्रपिता ने नेताजी की जीत को अपनी पराजय बताया क्योंकि गांधीजी के विचार में पट्टाभिसीतारमैया बेहतर प्रत्याशी थे। इस चुनाव के कुछ ही दिनों बाद कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्यों ने इस्तीफ़ा दे दिया। कांग्रेस संकट में थी और पार्टी की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। नेताजी उन दिनों अस्वस्थ थे लेकिन उन्होंने न सिर्फ़ बैठक में हिस्सा लिया, उन्होंने भविष्यवाणी की कि अगले छ: महीनों में यूरोप में एक औपनिवेशिक महायुद्ध छिड़ जाएगा। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि ब्रिटिश सरकार को छ: माह का अल्टीमेटम देकर "पूर्ण स्वराज्य" हेतु राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया जाए।

कांग्रेस ने अपना चरित्र दिखलाते हुए न सिर्फ़ सुभाष बाबू की बातों की अनदेखी की, उसने यह भी तय किया कि उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़े। अप्रैल १९३९ में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का पद त्याग दिया। मई में उन्होंने फ़ार्वर्ड ब्लाक की स्थापना की। सितम्बर १९३९ में यूरोप में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया और उस के बाद नेताजी ने जो कुछ भारत में और यूरोप में रह कर किया वह किसी महामानव के ही बस की बात थी। सुधी पाठकों को उस बारे में बहुत बताने की ज़रूरत शायद नहीं है। यह सवाल आज भी हमारे मन में लगातार उठना चाहिए कि अगर उन्हें वांछित समर्थन मिला होता और इस कदर देश-देश भटकना न पड़ा होता और उनकी बातों को सुना गया होता तो क्या होता।

हमारे यहां तो रिवाज़ यह रहा है कि लोग इसी बात पर अनुसंधानरत रहने में प्रमुदित होते रहते हैं कि वे उस अतिप्रसिद्ध विमान दुर्घटना में मारे गए थे या किसी वीरान जगह पर बाबाजी बन गए थे।

१९३७ में नेताजी ने विएना में रहने वाली अपनी सचिव एमिली श्नेकेल से विवाह कर लिया था। २००३ में कुछेक इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों के साथ मुझे उन की पुत्री अनीता बोस फ़ाफ़ से विएना में पन्द्रह मिनट मुलाकात का मौका मिला था। अनीता जी जर्मनी के आग्सबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ा रहीं थीं तब। उस संक्षिप्त मुलाकात में एक बार उनके पिता का ज़िक्र आया था तो उनकी आंखों में एक वैराग्यपूर्ण निराशा घिर आई। उन्होंने एक छोटे से वाक्य में सिर्फ़ इतना कहा कि "भारत के असल इतिहास को कभी न कभी ज़रूर लिखा जाएगा।" मैंने शायद मन ही मन कहा था : "आमीन!"


इस स्वप्नदर्शी वीर पुरुष को याद करते हुए आपके लिये प्रस्तुत है आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाही और संगीत निर्देशक कैप्टन राम सिंह का कम्पोज़ किया हुआ एक अतिविख्यात गीत। यहां यह बता देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि "जन गण मन" भी इसी सिपाही की कम्पोज़ीशन है।



(अवधि: ४ मिनट १४ सेकेंड)

साथ ही अगर आपको मौका लगे तो ४ जुलाई १९४४ को बर्मा में भारतीयों की एक सभा में दिए गए नेता जी के अमर व्याख्यान "तुम मुझे खून दो" का मूल पाठ भी पढ़ जाइए:

Friends! Twelve months ago a new programme of 'total mobilisation' or 'maximum sacrifice' was placed before Indians in East Asia। Today I shall give you an account of our achievements during the past year and shall place before you our demands for the coming year। But, before I do so, I want you to realise once again what a golden opportunity we have for winning freedom. The British are engaged in a worldwide struggle and in the course of this struggle they have suffered defeat after defeat on so many fronts. The enemy having been thus considerably weakened, our fight for liberty has become very much easier than it was five years ago. Such a rare and God-given opportunity comes once in a century. That is why we have sworn to fully utilise this opportunity for liberating our motherland from the British yoke.

I am so very hopeful and optimistic about the outcome of our struggle, because I do not rely merely on the efforts of three million Indians in East Asia। There is a gigantic movement going on inside India and millions of our countrymen are prepared for maximum suffering and sacrifice in order to achieve liberty.

Unfortunately, ever since the great fight of 1857, our countrymen are disarmed, whereas the enemy is armed to the teeth. Without arms and without a modern army, it is impossible for a disarmed people to win freedom in this modern age. Through the grace of Providence and through the help of generous Nippon, it has become possible for Indians in East Asia to get arms to build up a modern army. Moreover, Indians in East Asia are united to a man in the endeavor to win freedom and all the religious and other differences that the British tried to engineer inside India, simply do not exist in East Asia. Consequently, we have now an ideal combination of circumstances favouring the success of our struggle- and all that is wanted is that Indians should themselves come forward to pay the price of liberty. According to the programme of 'total mobilisation', I demanded of you men, money and materials. Regarding men, I am glad to tell you that I have obtained sufficient recruits already. Recruits have come to us from every corner of east Asia- from China, Japan, Indo-China, Philippines, Java, Borneo, Celebes, Sumatra, Malaya, Thailand and Burma. You must continue the mobilisation of men, money and materials with greater vigour and energy, in particular, the problem of supplies and transport has to be solved satisfactorily. We require more men and women of all categories for administration and reconstruction in liberated areas. We must be prepared for a situation in which the enemy will ruthlessly apply the scorched earth policy, before withdrawing from a particular area and will also force the civilian population to evacuate as was attempted in Burma. The most important of all is the problem of sending reinforcements in men and in supplies to the fighting fronts. If we do not do so, we cannot hope to maintain our success at the fronts. Nor can we hope to penetrate deeper into India. Those of you who will continue to work on the Home Front should never forget that East Asia- and particularly Burma- from our base for the war of liberation. If this base is not strong, our fighting forces can never be victorious. Remember that this is a 'total war'- and not merely a war between two armies. That is why for a full one year I have been laying so much stress on 'total mobilisation' in the East. There is another reason why I want you to look after the Home Front properly. During the coming months I and my colleagues on the War Committee of the Cabinet desire to devote our whole attention to the fighting front- and also to the task of working up the revolution inside India. Consequently, we want to be fully assured that the work at the base will go on smoothly and uninterruptedly even in our absence. Friends, one year ago, when I made certain demands of you, I told you that if you give me 'total mobilization', I would give you a 'second front'. I have redeemed that pledge. The first phase of our campaign is over. Our victorious troops, fighting side by side with Nipponese troops, have pushed back the enemy and are now fighting bravely on the sacred soil of our dear motherland. Gird up your loins for the task that now lies ahead. I had asked you for men, money and materials. I have got them in generous measure. Now I demand more of you. Men, money and materials cannot by themselves bring victory or freedom. We must have the motive-power that will inspire us to brave deeds and heroic exploits. It will be a fatal mistake for you to wish to live and see India free simply because victory is now within reach. No one here should have the desire to live to enjoy freedom. A long fight is still in front of us. We should have but one desire today- the desire to die so that India may live- the desire to face a martyr's death, so that the path to freedom may be paved with the martyr's blood. Friend's! my comrades in the War of Liberation! Today I demand of you one thing, above all. I demand of you blood. It is blood alone that can avenge the blood that the enemy has spilt. It is blood alone that can pay the price of freedom.


Give me blood and I Promise you freedom

नैनीताल - घूमना बस घूमना


क्या लिखें क्या ना लिखें इस हाल में .
लोग कितने अजनबी हैं शहर नैनीताल में .

कोहरे मे डूबा हुआ है चेहरा दर चेहरा,
वादी जैसे गुमशुदा है सुन्दर मायाजाल में .

इस सड़क से उस सड़क तक घूमना बस घूमना ,
इक मुसलसल सुस्ती-सी है इस शहर की चाल में .

धूप में बैठे हुये दिन काट देतें हैं यहां ,
कौन उलझे जिन्दगी के जहमतो-जंजाल में .

आज के हालात का कोई जिकर होता नहीं ,
किस्से यह कि दिन थे अच्छे शायद पिछले साल में .

इस शहर का दिल धड़कता है बहुत आहिस्तगी से,
इस शहर को तुम न बांधो तेज लय-सुर -ताल में

Friday, January 18, 2008

बाबा चाकलेट लाए, अकेली कौन खाये, बलम नाहिं


कबाड़ की दुछत्ती से सुनिये इन्द्र चन्द्र का लिखा नौशाद के संगीत निर्देशन में गाया गया गीत : 'बाबा चाकलेट लाए, अकेली कौन खाये, बलम नाहिं' । यह गीत १९४२ में बनी फिल्म 'स्टेशन मास्टर' का है। चिमनलाल लुहार इस के निर्देशक थे। गायिका हैं कौशल्या। कौशल्या अभिनेत्री भी थीं और इस फ़िल्म में उन्होंने काम किया था।

ऊषा अपने विधुर पिता परमानन्द के साथ रहती है। परमानन्द जी रंगपुर के रेलवे स्टेशन मास्टर हैं। ऊषा पढ़ी लिखी और समझदार है। उम्मीद की जाती है कि वह अपने स्तर के पुरुष से विवाह करेगी। कालीचरण नाम का एक छोटा रेलवेकर्मी चाहता है कि ऊषा का विवाह रेलवे के बड़े अफ़सर निरंजन से हो जाए ताकि खुद कालीचरण के बेटे को रेलवे में नौकरी मिल सके। इस उद्देश्य से कालीचरण और परमानन्द एक और रेलवेकर्मी मानिकबाबू के पास जाते हैं। मानिक बाबू के मन में कुछ और ही है - वे अपनी मनोरोगी बेटी श्यामा की शादी रेलवे गार्ड अरुण से कराने की फ़िराक़ में मुब्तिला हैं। निरंजन की बहन जल्द ही रंगपुर आती है और विवाह पर सहमत हो कर तैयारी के लिए वापस चली जाती है। लेकिन इस दौरान ऊषा को अरुण से प्रेम हो जाता है और वह निरंजन से शादी नहीं करना चाहती क्योंकि वह उस से दूनी उम्र का होने के साथ साथ विधुर भी है। ऊषा के फ़ैसले से तमाम रेलवे कर्मचारियों का जीवन उथल पुथल हो जाता है। नतीजतन एक मालगाड़ी और एक्स्प्रेस गाड़ी आपस में टकरा जाते हैं। फिर मामले की सरकारी जांच होती है जिस की ज़द में तमाम रेलवे के लोग भी आते हैं। ... ( कहानी का सार http://www.imdb.com/से साभार)

आवाज़ की गुणवत्ता थोड़ी ठीक नहीं है, उस के लिये माफ़ी।



कैलाश मानसरोवर और तिब्बत की छवियां

वर्ष २००५ में मुझे तिब्बत और मानसरोवर की यात्रा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था. उसी यात्रा से प्रस्तुत हैं कुछ तस्वीरें. यह पहली सीरीज़ है.


तकलाकोट की मन्डी में हिमालय और हरियाली

राकसताल

मानसरोवर के तट पर च्यू गोम्पा मठ


दारचिन में तिब्बत की बन्जारा खम्पा जाति के तीर्थालुओं का शिविर

कैलाश से निकली एक शीतल धारा के सान्निध्य में साज सिंगार की भी फ़ुरसत निकालनी होती है!

Thursday, January 17, 2008

द शी आइ लव इज़ अ ब्यूटिफ़ुल ब्यूटिफ़ुल ड्रीम कम ट्रू




क्या चिडियों से बातें करना बाज़ार के हित में है?

...कौन सी दुनिया इंतज़ार कर रही है
उन दरवाज़ों के उस तरफ़ जिन्हें
मैं
कभी खोल नहीं पाया...
तभी
मैंने एक अजीब सी चीज़ देखी
मैंने देखा मेरे माथे पर कुछ रेखाएँ बढ गयी हैं..अचानक...
अब ये रेखाएँ क्या हैं...क्या इनकी भी कोई नियति है अपने दरवाज़े हैं?...
नहीं...इनका कुछ भी नहीं है ये मौन की रेखाएँ हैं
मौन उन रेखाओं का जो मेरे हाथों में उभरी थीं
पर
मैं उनके दरवाज़े कभी खोल ही नहीं पाया
सच ...मैने देखा है जब भी कोई रेखा मेरे हाथों से ग़ायब हुई है
मैने
उसका मौन अपने माथे पर महसूस किया है.
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-नाटक "इल्हाम "से


"
कुछ नहीं, आज एक अजीब सी बात याद आई...मेरा स्कूल नदी के उस पार था. रोज़ एक छोटी सी नाव में उस पार जाना पडता था.जो नाव चलाता था उससे मेरी अच्छी दोस्ती थी. एक दिन हम नाव में स्कूल जा रहे थे, तभी हमने देखा कि मल्लाह नाव चलाने के बजाय अपने डंडे से एक चिडिया को उडा रहा है, पर चिडिया बार-बार उडकर वापस वहीं बैठ जाती है. मल्लाह का ग़ुस्सा बढता जा रहा था.हम सब डर गये क्यों कि नाव बुरी तरह हिल रही थी. मैंने कहा "अरे क्या कर रहे हो? नाव डुबोओगे क्या?" तो उसने कहा "अरे साहब इसे मुफ्त में नदी पार करने की आदत पड गई है." हम सब हँस दिये. इसके काफ़ी दिनों बाद हमने देखा, मल्लाह और चिडिया एक दूसरे से मुँह फेरकर बैठे हैं, मानो एक दूसरे से नाराज़ हों. फिर कुछ दिनों बाद देखा कि मल्लाह और चिडिया एक दूसरे से बात कर रहे हैं...मल्लाह लगातार कभी हँसता है कभी चिल्लाता है. सभी कहने लगे ये पागल हो गया है.मैंने उससे पूछ लिया "क्या कर रहे हो? पागल हो गये हो क्या? एक चिडिया से बात कर रहे हो?" तो वो कहने लगा-"मुझे तो लगता है आप सब लोग पागल हैं. अरे ये तो आप सब से बातें करना चाहती है.आप लोग इससे बात क्यों नहीं करते." हम उसे पागल समझ रहे थे और वो हम सबको. "

ये शब्द हैं उस नाटक के मुख्य पात्र भगवान के, जो भारत रंग महोत्सव, दिल्ली में आज शाम खेला जाएगा और आप में से ज़्यादातर लोग इस अभूतपूर्व नाटक को ज़रूर देखना चाहेंगे .नाटक है इल्हाम और इसे लेकर आया है बंबई का एक थियेटर ग्रुप. मानव कौल नाम के युवा अभिनेता और नाटककार की यह रचना कई मायनों में यह हक़ रखती है कि आप इसे देखें और उन बदक़िस्मत लोगों में गिने जाएँ जिन्हें अपनी तीन-तिकडमों से फुर्सत नहीं मिलती.
हालाँकि दिल्ली का थियेटर सीन पिछ्ले कुछ बरसों से ऐसा नहीं रह गया हि कि कोई नाटक रिकमंड किया जाय. ख़ासकर एनएसडी ने जिस तरह संसाधनों और अपनी प्रिविलेज्ड पोज़ीशन का दुरुपयोग जारी रखा है उससे और भी मन खट्टा होता है.आपमें से जिन कई लोगों ने नाट्य सभागारों से मुँह फेर लिया है उसकी वजह भी यही सुनी जाती है कि स्कूल के नाटक संस्कृत और अंग्रेज़ी नाटकों के हज़ार बार फचीटे हुए एडैप्टेशंस हैं और उनमें समय के प्रश्न नहीं उठाए जाते.ये लोग जब इन बासी क्लासिकी प्रस्तुतियों से थक जाते हैं तो मदारी के करतब और गिमिक शुरू कर देते हैं. इस माहौल में इल्हाम एक बिल्कुल नई- समय के प्रश्नों और अद्यतन संवेदनाओं से पगी प्रस्तुति है जिसे हमने पिछले महीने इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुए ओल्ड वर्ड थियेटर फ़ेस्टिवल में आशीष अरोडा के आमंत्रण पर देखा और धन्य हुए.
यह एक मध्यवय के बैंक कर्मचारी की कहानी है. इसका नाम है-भगवान. भगवान उम्र के इस पडाव पर अपने होने के सवालों से जूझ रहा है. उसके इर्द-गिर्द मौजूद दुनिया, अपनी ही रफ़्तार में चली जा रही है जबकि उसे लगने लगता है कि वह उस रफ्तार में और अधिक अकेला होता जा रहा है.
"भीतर पानी साफ था...साफ़ ठंडा पानी...कुएँ की तरह. जब हम पैदा हुए थे...जैसे-जैसे हम बडे होते गये...हमने अपने कुएँ में खिलौने फेंके,शब्द फेंके, किताबें, लोगों की अपेक्षाओं जैसे भारी पत्थर और इंसान जैसा जीने के ढेरों खाँचे...और अब जब हमारे कुएँ में पानी की जगह नहीं बची है तो हम कहते हैं ये तो सामान्य बात है."
इस तरह भगवान सामान्य हो चली चीज़ों पर संदेह और यूँ होता तो क्या होता की एक सतत क़वायद में है. वह अपने बैंक में पेंशन लेने आनेवाली एक बूढी औरत को हर बार पाँच सौ रुपये ज़्यादा दे देता है क्योंकि उसने उसकी आह सुनी है. कहानी में हम भगवान को अक्सर देर से घर लौटते देखते हैं और बताया जाता है कि वह आजकल बैंक के पास ही एक पार्क में बैठता है, जहाँ बहुत से बच्चों को वो कहानियाँ सुनाता है, एक चाचा से बातें करता है और रोने जैसी धुनों पर नाचता है. इधर कई दिनों से वो घर नहीं लौटा है क्योंकि उसे डर है-
"...तृप्ति का डर...हाँ तृप्त हो जाने का डर...पापा कह रहे थे कि वो तृप्त हैं.जिस तृप्ति में सारी वजहें,इच्छाएँ ख़त्म हो जाती हैं.वो कह रहे थे -कोई भी वजह नहीं बची है...सिवाय एक वजह के कि मुझे वापस घर आना है...रोज़..."
भगवान अपने इर्द-गिर्द की ख़ूबसूरती पर भी हैरान है-
"...पर हम क्या करेंगे इतनी ख़ूबसूरती का...मैं कभी-कभी अपना सबसे ख़ूबसूरत सपना याद करता हूँ...मेरा सबसे ख़ूबसूरत सपना भी कभी बहुत ख़ूबसूरत नहीं था.मेरे सपने भी थोडी सी ख़ुशी में, बहुत सारे सुख चुगने जैसे हैं. जैसे कोई चिडिया अपना खाना चुगती है...पर जब उसे पूरी रोटी मिलती है तो भी वह उस पूरी रोटी को नहीं खाती...वो उस रोटी में से रोटी चुग रही होती है. बहुत बडे आकाश में हम अपने हिस्से का आकाश चुग लेते हैं...देखने के लिये हम बडा खूबसूरत आसमान देख सकते हैं पर जीने के लिये हम उतना ही आकाश जी पाएँगे जितने आकाश को हमने अपनी खिडकी से जीना सीखा है."
बदलते दौर में ये सब बातें तेज़ी से पागलपन की निशानी मानी जाने लगी हैं. अगर आप 'तृप्ति प्राप्त करने की होड' से बाहर हैं तो आपको विमहैंस का दरवाज़ा दिखाया जाएगा.

नाटक में कुमुद मिश्रा भगवान की भूमिका बडी ही सूझबूझ से निभा रहे हैं जबकि हर अभिनेता अपनी ख़ास उपस्थिति दर्ज कराता है. बाक़ी सभी अभिनेताओं के नाम मैं यहाँ नहीं दे पा रहा हूँ क्योंकि नाटक का ब्रोशर मुझसे इधर-उधर हो गया है. बहरहाल... सेट्स बहुत सादा हैं और इसके सभी नाटकीय तत्व कथ्य को गरिमा देते हैं. जब तक मानव कौल जैसे लेखक-निर्देशक हैं तब तक हम जैसे लोग नाटक से निराश हो-होकर वापस आएँगे.
एक बेहद असहज करने वाला यह सर्वथा प्रासंगिक नाटक आज शाम देखा जा रहा होगा.

इल्हाम
एनएसडी का भारत रंग महोत्सव
17 जनवरी 2008
स्थान: बहुमुख, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, भगवानदास रोड, मंडी हाउस, नई दिल्ली (मेट्रो स्टेशन भी है)
शाम: छः बजे

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