Monday, August 31, 2009

घड़ी एक बालमा थांसूं एक-दो बात करूं - अल्लाह जिलाई बाई



कुछ दिन पहले कबाड़ख़ाने में लगी राजस्थानी संगीत की श्रृंखला में एक पोस्ट बीकानेर की अल्लाह जिलाई बाई के संगीत पर आधारित थी. इस पोस्ट पर आई एक टिप्पणी में भाई प्रियंकर जी ने कमेन्ट किया था :

"उनका एक और अद्भुत गीत है ’ए मां हेलो देती लाज मरूं, झालो म्हासूं दियो न जाय/ बोलूं तो पोंचूं नहीं, हेलो देती लाज मरूं/ घड़ी एक बालमा थांसूं एक-दो बात करूं’. जब सुनता हूं मन तरल हो उठता है. परम्परा और पर्दा-प्रथा की अमानवीयता की पृष्ठभूमि में उठता दाम्पत्य-प्रेम का यह उत्कट स्वर - स्वकीय प्रेम की यह करुण पुकार भला किसे द्रवित न करेगी."

मैंने उनसे आग्रह किया था कि उक्त गीत हमें उपलब्ध करवाने की कोशिश करें. तो कल उन्होंने मेल पर यह लिंक भेज कर मेहरबानी की है.

सुनिये और आनन्दित होइये:



प्रियंकर जी का धन्यवाद.

यूट्यूब पर ही एक और शानदार गीत मिला 'बाईसा रा बीरा'

फ़क़त इसलिए कि "मुलाक़ात का वक़्त" ख़त्म हो चुका


१९६५ में बग़दाद में जन्मी दुन्या मिखाइल अब अमेरिका में रहती हैं. अपने विचारों की वजह से उन्हें ईराक में बेतहाशा धमकियां मिलीं और नब्बे के दशक के आखिरी सालों में उन्हें मातॄभूमि छोड़ने पर विवश होना पड़ा. कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय इनामात से नवाज़ी जा चुकी दुन्या मिखाइल की तीन कविताएं पेश हैं:

१.
क़ैदी


वह नहीं समझती
क्या होता है "अपराधी" होना
वह क़ैदख़ाने के द्वार पर प्रतीक्षा करती है
जब तक कि वह उसकी निगाहों के सामने नहीं आ जाता
ताकि उस से कह सके "अपना ख़याल रखना"
ठीक जिस तरह वह उसे याद दिलाया करती थी
जब वह स्कूल जा रहा होता था
या काम पर
या आने वाला होता था लम्बी छूट्टियों के लिए
वह नहीं समझती
सींखचों के पार
वर्दी पहने वे लोग
क्या बक रहे हैं
अलबत्ता तय उन्होंने ही किया है
कि वह वहां रहेगा
उदास दिनों वाले अजनबियों के साथ
उसे कभी ख़याल नहीं आया था
उन सुदूर रातों के दौरान
उसके बिस्तर के पास लोरियां गाते हुए
कि उसे कभी रखा जाएगा
बग़ैर खिड़कियों और चन्द्रमाओं वाली
इस ठंडी जगह में
वह नहीं समझती
नहीं समझती वह जो माता है क़ैदी की
कि वह क्यों छोड़ जाए उसे
फ़क़त इसलिए कि "मुलाक़ात का वक़्त" ख़त्म हो चुका!

२.
अमेरिका


मेहरबानी कर के मुझ से मत पूछो, अमेरिका
- मुझे याद नहीं
किस कूचे में
किसके साथ
या किस सितारे के नीचे

मुझसे मत पूछो
मुझे याद नहीं
लोगों की त्वचाओं का रंग
या उनके दस्तख़त
मुझे याद ही नहीं
कि उनके पास हमारे चेहरे थे
या हमारे ख़्वाब
कि वे गा रहे थे
या नहीं
कि वे बांए से लिखना शुरू कर रहे थे
कि दांए से
या लिख भी रहे थे कि नहीं
घरों में सो रहे थे
या फ़ुटपाथों पर
या हवाई अड्डों में

३.
नगीना


अब वहां से नदी पर निगाह नहीं डाली जा सकती
वह शहर में भी नहीं है अब
नक्शे में भी नहीं
वह पुल जो था
वह पुल जिसे हम पार किया करते थे हर दिन
वह पुल
युद्ध ने उछाल दिया उसे नदी की तरफ़
ठीक जिस तरह 'टाइटैनिक' पर सवार वह महिला
उछाल देती थी अपना नीला हीरा

मार्क स्ट्रेंड की एक और कविता

( कुछ दिन पहले मैंने मार्क स्ट्रेंड की एक कविता का अनुवाद यहां पोस्ट किया था। अब एक और ...)

हम पढ़ रहे हैं किस्से अपनी जिंदगी के

हम पढ़ रहे हैं किस्से अपनी जिंदगी के
जो बनते हैं एक बंद कमरे में
कमरा झांकता है एक गली में
कोई नहीं है वहां
किसी चीज़ की आवाज़ नहीं

पेड़ लदे हैं पत्तों से
खडी कारें चलती ही नहीं कभी
हम कुछ होने की उम्मीद में
पलटते रहते हैं पन्ने
जैसे कि दया या परिवर्तन
एक स्याह पंक्ति जो जोड देगी हमें
या कर देगी अलग

जिस तरह है सबकुछ
लगता है
ख़ाली है हमारी ज़िंदगी कि किताब
कभी नहीं बदली गयी
घर के फर्नीचरों की जगह
और उन पर पडे बिछावन
हमारी छायाओं के गुज़रने से
हर बार हो जाते हैं और स्याह

यह वैसे ही है कमोबेश
कि जैसे कमरा ही था पूरी दुनिया
पढते हुए पलंग के बारे में
हम बैठे हैं पलंग पर अगल-बगल

हम कहते हैं - आदर्श है यह
आदर्श है यह!

Sunday, August 30, 2009

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ।।


कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ।।
चंदन काठ के बनल खटोला ता पर दुलहिन सूतल हो।
उठो सखी री माँग संवारो दुलहा मो से रूठल हो।
आये जम राजा पलंग चढ़ि बैठा नैनन अंसुवा टूटल हो
चार जाने मिल खाट उठाइन चहुँ दिसि धूं धूं उठल हो
कहत कबीर सुनो भाई साधो जग से नाता छूटल हो



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Saturday, August 29, 2009

आज ध्यान चन्द का जन्मदिन है



आज ध्यान चन्द का जन्मदिन है.

सिर्फ़ एक वीडियो देखिये आज : Tribute to Indian Hockey

सवा दो मिनट का वीडियो है. देख लेंगे तो बहुत सारी यादें आएंगी. हिटलर, बर्लिन ओलिम्पिक, ग्रेट ब्रिटेन के झन्डे का अनुसरण करता ग़ुलाम भारत का दल और दद्दा ध्यानचन्द का अतुलनीय कौशल:

निरभय निरगुन गुन रे गाऊँगा



निरभय निरगुन गुन रे गाऊँगा ।
मूल कमल दृढ आसन बांधूं जी, उलटी पवन चढाऊंगा ॥
मन ममता को थिर कर लाऊं जी, पाँचों तत्व मिलाऊँगा ॥
इंगला, पिंगला, सुखमन नाड़ी जी, तिरवेनी पर हौं न्हाऊंगा ॥
पांच पचीसों पकड़ मंगाऊं जी, एक ही डोर लगाऊँगा ॥
शून्य शिखर पर अनहद बाजे जी, राग छत्तीस सुनाऊँगा ॥
कहत कबीरा सुनो भाई साधो जी, जीत निशान घुराऊँगा ॥

उसके नहीं होने के बाद

आज माइकल की सालगिरह है ... उसके नहीं होने के बाद उसके वजूद के पहले निशान की ये तवारीख़.



लेकिन 18 बरस पहले ही माइकल अपना 'स्‍वैन सॉन्‍ग' रच चुका था. अपना हंसराग. 'डेंजरस' एल्‍बम में वो 'गोस्‍पेल' गीत शामिल किया गया था- 'विल यू बी देयर' ... 'हील द वर्ल्‍ड' के बाद संभवत: माइकल की सबसे उदात्‍त रचना.

'विल यू बी देयर' का साउंडस्‍केप तितलियों से घिरा हुआ है. इस पॉप गोस्‍पेल के शुरुआती ऑर्केस्‍ट्रा को सुनकर न जाने क्‍यों ऐसा लगता है, जैसे सैकड़ों-हज़ारों तितलियां फ़लक पे झिलमिला रही हों- पीले रंग वाली शोख़ तितलियां. यह उल्‍लास का अतिरेक है. इस गीत की धुन, उसका ग्रैंड ऑर्केस्‍ट्रा, उसकी हमिंग, उसके आउट-बर्स्‍ट, माइकल की फ़ॉल्‍सेटो आवाज़ और उसके सुपरिचित वोकल हिकअप...सभी लाजवाब हैं.

गीत में जब माइकल पूछता है- 'विल यू बी देयर'... तो हमेशा मेरा जी करता है कि चीख़कर कहूं- 'येस माइकेल, आई शैल!'

और आज, उसकी सालगिरह पर हम कुछ नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि उसे फिर-फिर याद करें. इस गीत के साथ- हमेशा से हमेशा तक...

मन को मोमबत्‍ती बनाते हुए.

गाने में माइकेल ने सफ़ेद आउटफिट पहने हैं और वो उसमें बड़ा वायवी नज़र आ रहा है. वीडियो के अंत में आसमान से एक एंजेल उतरता है और उसे अपनी गिरफ़्त में ले लेता है.

इस बदनाम और बहुश्रुत पॉप सिंगर के लिए उसके ही द्वारा रचा गया यह मेटाफ़र जंचता है मुझे.

रेस्‍ट इन पीस...माइकेल! अब...हमेशा.



गीत के बोल:

Hold Me
Like The River Jordan
And I Will Then Say To Thee
You Are My Friend

Carry Me
Like You Are My Brother
Love Me Like A Mother
Would You Be There?

Weary
Tell Me Will You Hold Me
When Wrong, Will You Skold Me
When Lost Will You Find Me?

But They Told Me
A Man Should Be Faithful
And Walk When Not Able
And Fight Till The End
But I'm Only Human

Everyone's Taking Control Of Me
Seems That The World's
Got A Role For Me
I'm So Confused
Will You Show To Me
You'll Be There For Me
And Care Enough To Bear Me

(Hold Me) show me
(Lay Your Head Lowly)
told me
(Softly Then Boldly)
yeah
(Carry Me There)
I'm Only Human

(Lead Me)
hold me
(Love Me And Feed Me)
ye yeah
(Kiss Me And Free Me)
yeah
(I Will Feel Blessed)
I'm Only Human

(Carry)
Carry
(Carry Me Boldly)
Carry me
(Lift Me Up Slowly)
yeah
(Carry Me There)
I'm Only Human

(Save Me)
need me
(Heal Me And Bathe Me)
lift me up, lift me up
(Softly You Say To Me)
(I Will Be There)
I Will Be There

(Lift Me)
i'm gonna care
(Lift Me Up Slowly)
(Carry Me Boldly)
yeah
(Show Me You Care)
Show Me You Care

(Hold Me)
whoooo
(Lay Your Head Lowly)
i git lonly some times
(Softly Then Boldly)
i git lonly
(Carry Me There)
yeah yeah carry me there
yeah yeah yeah

[Spoken]
In Our Darkest Hour
In My Deepest Despair
Will You Still Care?
Will You Be There?
In My Trials
And My Tripulations
Through Our Doubts
And Frustrations
In My Violence
In My Turbulence
Through My Fear
And My Confessions
In My Anguish And My Pain
Through My Joy And My Sorrow
In The Promise Of Another Tomorrow
I'll Never Let You Part
For You're Always In My Heart.

नदियों पर झुका हुआ काँपता है कौन : कवि अथवा सन्निपात ?

श्रीकान्त वर्मा ( १८ सितम्बर १९३१ - २५ मई १९८६ ) की यह कविता पिछले बीसेक वर्षॊं से यँ ही मेरी फाइल में लिखी पड़ी थी. अभी कुछ दिनों से नये सिरे से उनकी कविताओं से गुजरते हुए लगा कि इसे 'कबाड़खाना' के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया जाय. लीजिए प्स्तुत है 'मायादर्पण' संग्रह में संकलित यह कविता - 'नक़ली कवियों की वसुन्धरा'
नक़ली कवियों की वसुन्धरा / श्रीकान्त वर्मा


धन्य यह वसुन्धरा
इतनी सारी
नदियों का झाग
केशों में अंधकार.
एक अन्तहीन प्रसव - पीड़ा में
पड़ी हुई
पल - पल
मनुष्य उगल रही है
नगर फेंक रही है
बिलों से मनुष्य निकल रहे हैं
दरबों से मनुष्य निकल रहे हैं....
टोकरी के नीचे छिपे
मुर्गों के मसीहा कवि
बाँग दे रहे हैं
सुबह हुई..

धन्य ! धन्य ! कवियों की ऐयाशी के झूठ में
लिपटी
वसुन्धरा !

-- वसुन्धरा ! सूजा हुआ है क्यों
उदर ?
नसें क्यों
विषाक्त हैं ?
साँसों में
सीले -- जंगल -- जैसी
यह कैसी
बास है?
कवियों के झूठ में लिपटी
हुई वेश्या -- माँ
अपनी संतानों का स्वर्ग देख रही है ...

बरस रहा है अन्धकार इस कुहासे पर
भुजा पर,
मसान पर,
समुद्र पर,
दुनिया - भर के तमाम
सोये हुए
बन्दरगहों पर
डूबती हुई अन्तिम
प्राथना पर
बरस रहा है
अन्धकार --
मगर वेश्याई स्वर्ग में
फोड़ों की तरह
उत्सव फूट रहे हैं .
बरस रहा है अन्धकार !
मगर उल्लू के पठ्ठे !
स्त्रियाँ - रिझाऊ कवितायें
लिख रहे हैं.


भेड़ियों के कोरस की तमाच्छन्न अन्ध - रात्रि !
मनुष्य के अन्दर
मनुष्य,
सदी के अन्दर
एक सदी
खो रही है --
मगर इससे क्या ! वसुन्धरा
सोये मसानों में
जागते मसान
बो रही है

आदमी का कोट पहन
चूहे
निर्वसन मनुष्य की
पीठ कस रहे हैं;
चुहियों के कन्धों पर
पंख
फूट रहे हैं और कंठ में
क्लासिक संगीत !
नक़ली वसन्त के
गोत्रहीन पत्ते
झड़ रहे हैं.

धन्य ! धन्य ! ओ नक़ली कवियों कवियों के वसन्त में
लिपटी वसुन्धरा !

--वसुन्धरा ! तेरे शरीर पर
झुरियाँ हैं
अथवा दरार ?
होठों पर उफन रहा
पाप !
छटपट कर
टूट रहे
चट्टानी हाथ !
धो - धो जाता है
कौन
बार - बार आँसू से
कीचड़ में लथपथ
इस पृथ्वी के पाँव ?
नदियों पर झुका हुआ काँपता है कौन : कवि अथवा सन्निपात ?

जिज्ञासाहीन अंधकार में
कीचड़ की शय्या पर
स्वप्न देखती हुई
सुखी है वसुन्धरा ! मनुष्य
उगल रही है
नगर
फेंक रही है
टोकरी के नीचे कवि बाँग दे रहे हैं .

Thursday, August 27, 2009

तामुल और जलपरी

वह भी कोई देश है महाराज: भाग ४

अनिल यादव

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हम दोनों को ही जोरदार पूर्वाभास था कि कहां जाना है और वहां हमारा स्वागत करने वाले लोग कौन होंगे।

लेकिन स्टेशन से बाहर निकलते ही सबसे पहले तामुल खाना चाहता था। इस नशीली सुपारी से मेरा बचपन से भय, जुगुप्सा, अपराध बोध और आकर्षण का संबंध रहा है। सबसे पहले इस तामुल ने ही मेरे अबोध जीवन का अंत कर दिया था और बहुत दिनों तक सपनों में तरह-तरह के रूप धर कर आतंकित किए रखा था।



तब में आठ-नौ साल का रहा होऊंगा। ननिहाल मेरे हमारे जो पड़ोसी असम में रहते थे, उनका एक प्रद्युम्न नाम का रिश्तेदार उनके यहां आया हुआ था। पहली बार मैने उसे ही तामुल खाते देखा था। अंडाकार, भूरी, बदबू करती, अजीब सी चिकनी चीज। एक दोपहर मैं उनके दालान में बैठा था, उस रिश्तेदार ने मुझे खेलने के लिए एक तामुल दिया। थोड़ी देर तक बतियाने, पुचकारने के बाद उसने मेरा नन्हीं, कोमल उंगलियों वाला हाथ, धोती के भीतर ले जाकर अपना गरम, भारी शिश्न मुझे पकड़ा दिया और उसके ऊपर लाल किनारी वाला जगप्रसिद्ध असमिया गमछा रख दिया। मैने बस उसकी एक झलक देखी, उसका अगला हिस्सा बिल्कुल तामुल जैसा था। मैं मुंह बाए उसकी लाल-लाल आंखों को देखते हुए वहीं जड़ हो गया। उस घर की एक बुढ़िया जो वहीं बैठी हुक्का पी रही थी, ने इसे भांप लिया। उसने आँखे तरेरते हुए वह गमछा मांगा और उठाने के लिए हाथ भी बढ़ा दिया। इससे हड़बड़ाकर उस आदमी ने मुझे छोड़ दिया। बाएं हाथ की मुट्ठी बांधे मैं दो दिन बुखार में पड़ा रहा।

बहुत बाद में पता चला कि लोकभाषा में शिश्न को सुपाड़ा या सोपारा भी कहा जाता है। लोगों की देखा देखी मैने भी एक रूपए का सिक्का तामुल के खोमचे पर रखा। उसने आधा कटा पान, आधा तामुल और कागज पर लद्द से रखा ढेर सारा चूना मेरी तरफ बढ़ा दिया। एक क्षण की देर किए बिना मैने उसे मुंह में डालकर चुभलाया फिर चबाने लगा। बस जरा सी देर कनपटियां गर्म हो गईं, गला सूखा और पसीना चुहचुहाने लगा। तय हो गया कि जब तक उत्तर-पूर्व में रहूंगा, तामुल ही खाऊंगा। जबर्दस्त किक थी, किसी भी पुरानी स्थिति से जड़ समेत उखाड़ कर नए भावलोक में उछाल देने वाली। दरअसल मेरी आत्मा में तामुल के आकार का एक घाव जो उसे चबाने, उसके उत्ताप को झेलने और फिर थूक देने के बाद भरेगा, मैं जानता था। एक रिक्शे पर सामान फेंकते हुए हम दोनों ने एक लगभग एक साथ कहा, जो सबसे सस्ता होटल जानते हो, ले चलो।



खुदी सड़क की गिट्टियों पर उछलता रिक्शा पांच रूपए की दूरी पर यानि अगले चौराहे पर ही रूक गया। यह रामचंद्र ग्वाला का जनता होटल था। एक सौ तीस साल पुराना, किराया भी एक सौ तीस रूपया। लोहित (ब्रह्मपुत्र) के पानी से लाल बाथरूम का फर्श, अंधेरे गलियारों में जीरो वॉट के बल्ब की लाल रोशनी, उड़े रंग के लाल दरवाजे और आधी रात तक रोशनदान से गिरता धूल का झरना। फटी हुई मसहरी, चीकट गद्दे जिन पर तिलचट्टे रेंग रहे थे, खिड़की में शीशे की जगह गत्ते ले चुके थे और हर कहीं काला पड़ चुका पीतल का भारी हैंडिल लॉक। वाकई बूढा होटल था जिसे हम जैसे नाती-पोते मेहमान ही मिलने थे। कमरे के नीचे सिटी बस स्टैंड का शुरूआती स्टॉप था। शोर के बीच दो आवाजें लगातार आती रहतीं थीं-

ऊलूबाड़ी, आदाबाड़ी, पांजाबाड़ी, दिसपूर......।

ऊलूबाड़ी, आदाबाड़ी, पांजाबाड़ी, दिसपूर.......।।

दूसरी आवाज किसी किशोर लड़के की होती थी जो अनवरत रिरियाता था- आइए खाना खाइए, आइए खाना खाइए, आइए खाना खाइए.....

चार घंटे लगातार भूखे चिल्लाने के बाद उसे खाना और बीस रूपए मिलते थे। रात में जब सारी आवाजें थम जातीं तो खिड़की से नामघर में चल रहा कीर्तन आने लगता था जिसमें बच्चों की चिचिंयाती आवाजें भी शामिल रहती थीं। आंतक में अवलंब खोजते निर्धन लोगों की सामूहिक प्रार्थनाएं।

रात में हम लोग ब्रह्मपुत्र का हालचाल लेने गए। नदी किनारे सुनसान फुटपाथों पर दूर-दराज के जिलों से आए बिहारियों के परिवार के डेरा डाले थे जो ईंट के चूल्हों पर खाना पका रहे थे। ये लोग उनके वतन को जाती ट्रेनों में भीड़ के कारण घुस नहीं पाए थे।

शहर के अंधेरे कोनों में एल्युमिनियम के बर्तनों के नीचे की लाली में नरसंहारों का आतंक, पलायन की लाचारी और लाचार क्षोभ खदबदा रहे थे। अचानक खानाबदोश हो गए लोगों के बरअक्स ब्रह्मपुत्र में खड़े जर्जर स्टीमरों में बिजली की झालरों से सजे रेस्टोरेंट देर रात तक खुले हुए थे। इस रेस्टोरेन्टों के नाम वही पुराने जहाजों वाले ही थे- फेरी क्वीन, जलपरी, डाल्फिन.

Wednesday, August 26, 2009

महानद से पहला साक्षात्कार



वह भी कोई देश है महाराज: भाग ३

अनिल यादव

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असम में प्रवेश करते ही हरियाली का जैसे विस्फोट होता है। सूरज की रोशनी में कौंधती, काले रंग को छूती हरियाली। खिड़कियों, मकानों की दरारों, पेड़ो के खोखलों से कचनार लताएं झूलती मिलती है जो हर खाली जगह को नाप चुकी होती हैं।

बाँस, नारियल, तामुल, केले के बीच काई ढके ललछौंहे पानी के डबरों और पोखरों से घिरे गांव। घरों और खेतों के चारों और बांस की खपच्चियों का घेरा। सीवान में हर तरफ नीली धुंध। छोटे-छोटे स्टेशन और हाल्ट गुजर रहे थे- न्यू बंगाई गांव, नलबाड़ी, बारपेटा, रंगिया….अखबारों में छपी रपटें, तस्वीरें बता रही थीं कि ये वही जगहें हैं जहाँ पिछले दिनों हिंदीभाषियों की हत्याएं की गईं हैं। एक वेंडर से लाल सा और कोई लोकल नमकीन लेते हुए मुझे धक से लगा कि मेरे बोलने में खासा बिहारी टोन है जो जरा सा असावधान होते ही उछल आता है।

हमारा नाम अनील यादव है।

मैं पता नहीं अपने सिवा किन और लोगों को अपने भीतर शामिल करते हुए अपने नाम को खींचता हूं।

मैने पहली बार गजब आदमी देखा जो बांस की बडी अनगढ़ बांसुरी लिए था। यात्रियों से कहता था, गान सुनेगा गान। अच्छा लगे तब टका देगा। अपने संगीत पर ऐसा आत्मविश्वास। बहुत मन होते हुए भी उसे नहीं रोक पाया। शायद सोच रहा था कि क्या पता वे लोग इन तरीकों से हिंदी बोलने वाले लोगों की ट्रेनों में शिनाख्त कर रहे हों।

मे आई सिट हियर ऑनली फॉर थ्री मिनिटस, छाता और बैग लिए एक अधेड़ ने मुझसे पूछा। मैं एक तरफ खिसक गया। उन्होंने बताया कि ब्रह्मपुत्र पार करने में ट्रेन को तीन मिनट लगते हैं, उसके बाद गौहाटी है।

सारी खिड़कियाँ पीठों से ढंक गईं। लोग खासतौर पर महिलाएं जान-माल की सलामती की कामना बुदबुदाते हुए, नीली धुंध में पसरी दानवाकार नदी में सिक्के फेंक रहे थे।



(जारी)

मार्क स्ट्रेंड की कविता

( अंग्रेजी साहित्य के अपने अत्यल्प ज्ञान को साबित कराने की मुझे कोई ज़रूरत तो नही है पर मै सचमुच नही जानता की ये स्ट्रेंड साहब कौन हैं। बस आज एक दोस्त ने यह कविता मेल की और पढ़ने में किक लगी तो अनुवाद कर डाला और अब आपके हुज़ूर में...,हमनाम बड़े भाई से क्षमा याचना सहित)

मैदान में
मैदान की अनुपस्थिति हूँ मै
ऐसा ही होता है हमेशा
मै जहाँ भी होता हूँ
वही होता हूँ
कमी ख़ल रही होती है जिसकी

जब चल रहा होता हूं मै
बांट देता हूं हवा को दो हिस्सों में
और फिर हवा भर देती है उस जगह को
जहां था मेरा शरीर

सबके पास होतीं हैं
चलने की अपनी वज़हें
मैं चलता हूं
चीज़ों को पूरा बनाये रखने के लिये

“स्‍याही ताल” के साथ फिर प्रकट हुए कवि वीरेन डंगवाल

Syahi Taal PB

किताब का ब्‍लर्ब


वीरेन डंगवाल ने दुश्चक्र में स्रष्टा में पूछा था, किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है/ जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है? वीरेन के इस नये संग्रह में हम देखते हैं कि कालेपन की प्रतिनिधि ताकतें इस बीच किस तरह एक संवेदनहीन और निर्मम समाज की रचना करने में कामयाब हुईं हैं। यहां वीरेन अपने भयावह समाज और समय को उन कथाओं में पढ़ते हैं, जो खंडित हैं, काव्यात्मक नहीं बल्कि गद्यात्मक हैं और जिनमें कई जटिल और वीभत्स रहस्य छिपे हुए हैं और जिन्हें कवि के अनुसार, एक अलग रास्ता पकड़ कर ही पहचाना जा सकता है। अपेक्षाकृत लंबी कविता कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा ऐसी ही रचना है। यह एक चिंतित मनुष्य की कविता है, जो साधारण जन के निश्छल और संक्षिप्त स्वप्नों को टूटते हुए देख रहा है और एक ऐसे रास्ते से गुज़र रहा है, जिसकी बगल में सड़ता हुआ जल है। हमारी व्यवस्था और समाज की भीतरी सड़न दरअसल वीरेन की नयी कविताओं का प्रमुख सरोकार बन कर उभरी है। जिस क्षरण का साक्षात्कार हमें कटरी की रुकुमिनी के शोषण में होता है, वह रॉकलैण्ड अस्पताल डायरी, लकड़ी का बना वही रावण, चारबाग स्टेशन का प्लेटफार्म नंबर सात और कानपुर जैसी दूसरी कुछ लंबी कविताओं में भी अलग-अलग संदर्भों में प्रकट हुआ है।

पिछली कविताओं की बेफिक्री और उम्मीदों के बरक्स नये संग्रह में वीरेन डंगवाल की एक बेचैन छवि उभरती है। एक गहरी तकलीफ और अपने समय को समझने की एक दुर्वह-दुस्सह अनिवार्यता के एहसास से भरी। गंगा के उदगम पर जाकर उसका एक किशोरी जैसा एकांत उल्लास देखते हुए वीरेन आशंकित होकर यह भी कहते हैं कि चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना/ गाद-कीच-तेल-तेज़ाबी रंग सभी पी लेना/ ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुईं। इसी तरह अपने प्रिय इलाहाबाद से सरल-निश्छल और अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गंध वाले अतीत को याद करते हुए वे पाते हैं अब बगुले हैं या पंडे हैं या कउए हैं या हैं वकील... नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार। यह सिर्फ मोहभंग नहीं है, बल्कि एक नये-डरावने समय में आशंकित मन की मुक्तिबोधीय विकलता है जो पिता की रुग्णता और मृत्यु पर लिखी हुई बहुत मार्मिक कविताओं में भी जीवन की कठिन उलटबांसी को देख लेती है। इसके बावजूद वीरेन खासे कड़‍ियल कवि हैं इसलिए वे बुनियादी उम्मीद को नहीं छोड़ते और उसे फ्यूंली जैसे पहाड़ी फूल, वसंत के विनम्र कांटों, एक पुराने तोते, चिरौटे की मां, बकरियों, पुराने ज़माने की एक साइकिल, अपने जहाजी बेटे के नाम एक सन्देश और वास्तुशिल्पी लॉरी बेकर के बेजोड़ शिल्प में छिपी हुई हवा में पहचान कर अपनी तत्सम-तदभव-क्लासिक-देशज-व्यंग्य-विनोद-वक्रोक्ति की बांकी-तिरछी भंगिमाओं के मिश्रण से बनी उस भाषा में दर्ज कर लेते हैं, जो हिंदी कविता में उन्हें एक अलग-से रास्ते का चमकता हुआ कवि बनाती है।

स्‍याही ताल की क़ीमत सजिल्‍द 200 रुपये है और पेपरबैक 100 रुपये। इसे आप अंतिका प्रकाशन, सी 56, यूजीएफ 4, शालीमार गार्डेन, एक्‍स. 2, साहिबाबाद, ग़ाज़‍ियाबाद 201005 (यूपी) के पते पर लिख कर मंगवा सकते हैं। अंतिका प्रकाशन का फोन नंबर है 0120-6475212... इस पुस्‍तक को मंगवाने के लिए antika56@gmail पर मेल भी कर सकते हैं। या नीचे कमेंट बॉक्‍स में इन किताबों के ऑर्डर दिये जा सकते हैं।

कवि परिचय


वीरेन डंगवाल। जन्म : 5 अगस्त, 1947, कीर्तिनगर, टिहरी गढ़वाल। मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली और फिर नैनीताल में शुरुआती शिक्षा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए। आधुनिक हिंदी कविता के मिथकों और प्रतीकों पर डीफिल। 1971 से बरेली कॉलेज में अध्यापन। हिंदी-अंग्रेज़ी में पत्रकारिता। अमृत प्रभात में कुछ वर्ष घूमता आईना स्तंभ के लिए लेखन। अरसे तक दैनिक अमर उजाला के संपादकीय सलाहकार भी रहे।
इसी दुनिया में (1991) और दुश्चक्र में स्रष्टा (2002) कविता-संग्रह प्रकाशित। तुर्की के महाकवि नाजि़म हिकमत की कविताओं के अनुवाद पहल पुस्तिका में प्रकाशित। दुश्चक्र में स्रष्टा संग्रह के अनुवाद पंजाबी और उड़‍िया में भी प्रकाशित।
विश्व कविता से पाब्लो नेरुदा, बर्टोल्ट ब्रेष्ट, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊष रूज़ेविच आदि की कविताओं के अलावा कुछ आदिवासी लोक कविताओं के अनुवाद। कई कविताओं के अनुवाद बांग्ला, मराठी, पंजाबी, मलयालम, मैथिली और अंग्रेज़ी में प्रकाशित।
इसी दुनिया में के लिए रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992), श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993), कविता के लिए शमशेर सम्मान (2002), साहित्य अकादेमी पुरस्कार (2004)।
संपर्क : 189/193ए, सिविल लाइन्स, बरेली-243000 (उप्र)

संग्रह से कुछ कविताएं

कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा


(क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय*)


मैं थक गया हूं
फुसफुसाता है भोर का तारा
मैं थक गया हूं चमकते-चमकते इस फीके पड़ते
आकाश के अकेलेपन में।
गंगा के खुश्क कछार में उड़ती है रेत
गहरे काही रंग वाले चिकने तरबूज़ों की लदनी ढोकर
शहर की तरफ चलते चले जाते हैं हुचकते हुए ऊंट
अपनी घंटियां बजाते प्रात की सुशीतल हवा में

जेठ विलाप के रतजगों का महीना है

घंटियों के लिए गांव के लोगों का प्रेम
बड़ा विस्मित करने वाला है
और घुंघरुओं के लिए भी।

रंगीन डोर से बंधी घंटियां
बैलों-गायों-बकरियों के गले में
और कोई-कोई बच्चा तो कई बार
बत्तख की लंबी गर्दन को भी
इकलौते निर्भार घुंघरू से सजा देता है

यह दरअसल उनका प्रेम है
उनकी आत्मा का संगीत
जो इन घंटियों में बजता है

यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए।
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं।

♦♦♦

दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फकत फितूर जैसा एक पक्का यकीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने।

जब मैं उतरा गंगा की बीहड़ कटरी में
तो पालेज में हमेशा की तरह उगा रहे थे
कश्यप-धीमर-निषाद-मल्लाह
तरबूज़ और खरबूज़े
खीरे-ककड़ी-लौकी-तुरई और टिंडे।

खटक-धड़-धड़ की लचकदार आवाज़ के साथ
पुल पार करती
रेलगाड़ी की खिड़की से आपने भी देखा होगा कई बार
क्षीण धारा की बगल में
सफेद बालू के चकत्तेदार विस्तार में फैला
यह नरम-हरा-कच्चा संसार।

शामों को
मढ़ैया की छत की फूंस से उठता धुआं
और और भी छोटे-छोटे दीखते नंगधड़ंग श्यामल
बच्चे-
कितनी हूक उठाता
और सम्मोहक लगता है
दूर देश जाते यात्री को यह दृश्य।

ऐसी ही एक मढ़ैया में रहती है
चौदह पार की रुकुमिनी
अपनी विधवा मां के साथ।

बड़ा भाई जेल में है
एक पीपा कच्ची खेंचने के ज़ुर्म में
छोटे की सड़ी हुई लाश दो बरस पहले
कटरी की उस घनी, ब्लेड-सी धारदार
पतेल घास के बीच मिली थी
जिसमें गुज़रते हुए ढोरों की भी टांगें चिर जाती हैं।

लड़के का अपहरण कर लिया था
गंगा पार के कलुआ गिरोह ने
दस हज़ार की फिरौती के लिए
जिसे अदा नहीं किया जा सका।

मिन्नत-चिरौरी सब बेकार गयी।

अब मां भी बालू में लाहन दाब कर
कच्ची खींचने की उस्ताद हो चुकी है
कटरी के और भी तमाम मढ़ैयावासियों की तरह।

♦♦♦

कटरी के छोर पर बसे
बभिया नामक जिस गांव की परिधि में आती है
रुकुमिनी की मढ़ैया
सोमवती, पत्नी रामखिलौना
उसकी सद्य:निर्वाचित ग्रामप्रधान है।
प्रधानपति - यह नया शब्द है
हमारे परिपक्व हो चले प्रजातांत्रिक शब्दकोश का।

रामखिलौना ने
बन्दूक और बिरादरी के बूते पर
बभिया में पता नहीं कब से दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है।
कच्ची के कुटीर उद्योग को संगठित करके
उसने बिरादरी के फटेहाल उद्यमियों को
जो लाभ पहुंचाये हैं
उनकी भी घर-घर प्रशंसा होती है।
इस सब से उसका मान काफी बढ़ा है।
रुकुमिनी की मां को वह चाची कहता है
हरे खीरे जैसी बढ़ती बेटी को भरपूर ताककर भी
जिस हया से वह अपनी निगाह फेर लेता है
उससे उसकी सच्चरित्रता पर
मां का कृतज्ञ विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है।

रुकुमिनी ठहरी सिर्फ चौदह पार की
भाई कहकर रामखिलौना से लिपट जाने का
जी होता है उसका
पर फिर पता नहीं क्या सोचकर ठिठक जाती है।

♦♦♦

मैंने रुकुमिनी की आवाज़ सुनी है
जो अपनी मां को पुकारती बच्चों जैसी कभी
कभी उस युवा तोते जैसी
जो पिंजरे के भीतर भी
जोश के साथ सुबह का स्वागत करता है।

कभी सिर्फ एक अस्फुट क्षीण कराह।
मैंने देखा है कई बार उसके द्वार
अधेड़ थानाध्यक्ष को
इलाके के उस स्वनामधन्य युवा
स्मैक तस्कर वकील के साथ
जिसकी जीप पर इच्छानुसार विधायक प्रतिनिधि
अथवा प्रेस की तख्ती लगी रही है।

यही रसूख होगा या बूढ़ी मां की गालियों और कोसनों का धाराप्रवाह
जिसकी वजह से
कटरी का लफंगा स्मैक नशेड़ी समुदाय
इस मढ़ैया को दूर से ही ताका करता है
भय और हसरत से।

एवम प्रकार
रुकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द समाज का मानी भी पता नहीं।

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

♦♦♦

रुकुमिनी का हाल जो हो
इस उमर में भी उसकी मां की सपने देखने की आदत
नहीं गयी।
कभी उसे दीखता है
लाठी से गंगा के छिछले पेटे को ठेलता
नाव पर शाम को घर लौटता
चौदह बरस पहले मरा अपना आदमी नरेसा
जिसकी बांहें जैसे लोहे की थीं;
कभी पतेल लांघ कर भागता चला आता बेटा दीखता है
भूख-भूख चिल्लाता
उसकी जगह-जगह कटी किशोर
खाल से रक्त बह रहा है।

कभी दीखती है दरवाज़े पर लगी एक बरात
और आलता लगी रुकुमिनी की एड़‍ियां।

सपने देखने की बूढ़ी की आदत नहीं गयी।

उसकी तमन्ना ही रह गयी:
एक गाय पाले, उसकी सेवा करे, उसका दूध पिए
और बेटी को पिलाए
सेवा उसे बेटी की करनी पड़ती है।

काष्ठ के अधिष्ठान खोजती वह माता
हर समय कटरी के धारदार घास भरे
खुश्क रेतीले जंगल में
उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता है
इसे वही जानती है
या फिर वे अदेखे सुदूर भले लोग
जिन्हें वह जानती नहीं
मगर जिनकी आंखों में अब भी उमड़ते हैं नम बादल
हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित।
उन्हें तो रात भी विनम्र होकर रोशनी दिखाती है,
पिटा हुआ वाक्य लगे फिर भी, फिर भी
मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है
मुंह अंधेरे जांता पीसते हुए।

इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फितूर सरीखा एक पक्का यकीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब।

(* उप-शीर्षक : बहुत ही कम आयु में दिवंगत हो गये बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्य की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक : क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय अर्थात भूख के राज्य में धरती गद्यमय है)



स्याही ताल


मेरे मुंतजिर थे
रात के फैले हुए सियह बाज़ू
स्याह होंठ
थरथराते स्याह वक्ष
डबडबाता हुआ स्याह पेट
और जंघाएं स्याह।

मैं नमक की खोज में निकला था
रात ने मुझे जा गिराया
स्याही के ताल में।

सुप्रभात



पीठ ओट दे पूड़ी खालो
गाड़ी के डब्बे में
प्लास्टिक की पिद्दी प्याली में
एक घूंट मैली-सी चाय

देहाती स्टेशन की
जंग लगे लोहे वाले चपटे तीरों की सरहद के पार
सुनहरी परछांही को फैलते देखो
काई भरे गंदे डबरे पर
जो जगमग
अलौकिक सी दीप्ति से

चूम रहा है ईश्वर
खुद अपने हाथों झुलसाये पृथ्वी के केश
और दग्ध होंठ
जिनमें इच्छाएं स्मृतियों की तरह हरी हैं

और वे कड़खड़ाती एड़‍ियां कतारबद्ध
और वे क्लाश्निकोव वगैरह चमचम
परेड मैदान की भूरी धूल में सुबह-सुबह

और वे नंगी दुर्बल सांवली पसलियां
भयग्रस्त थर-थर वक्ष के तले
वह भी चमकतीं हंसुओं की तरह
देखो बेआवाज़ सिसकियों से हिलती दिल की बूढ़ी पीठ
दिल की आंखों से उबलते आंसू
देखो फूलता-पचकता
दिल का घबराया ज़र्द चेहरा

सुप्रभात, अलबेले जीवन
चलो निकल आगे की ओर
दिल को लिये मीर की ठौर!

बावजूद मधुशाला के, कवि बच्चन जी



चांद की चकल्लस से
कुछ सुंदर हुई रात
थोड़ी-सी हवा चली
और मज़ा आ गया

बालकनी से दीखा
सुदूर भूरे रंग का अंधकार
जिसे भेदते दाख‍िल होती थी
महानगर में
अंतहीन-सी लगती कतार मोटर गाड़‍ियों की
वैसे ही इस तरफ से भी जाती थी

याद आये कुछ चेहरे
भूलें भी कुछ कसकीं
जी में आया यह भी
कवि बच्चन में कुछ तो है
बावजूद मधुशाला के!

खुद को ढूंढऩा!



एक शीतोष्ण हंसी में
जो आती गोया
पहाड़ों के पार से
सीधे कानों फिर इन शब्दों में

ढूंढऩा खुद को
खुद की परछाईं में
एक न लिए गए चुंबन में
अपराध की तरह ढूंढ़ना।

चुपचाप गुज़रो इधर से,
यहां आंखों में मोटा काजल
और बेंदी पहनी सधवाएं
धो रही हैं
रेत से अपने गाढ़े चिपचिपे केश
वर्षा की प्रतीक्षा में।

कहनानंद



अपनी ही देह
मज़े देवे
अपना ही जिसम
सताता है

यह बात कोई
न नवीं, नक्को
आनंद ज़रा-सा
कहन का है।

Tuesday, August 25, 2009

गेभ मी ओनली तीन टाका टू टेक झालमूड़ी

वह भी कोई देश है महाराज: भाग 2

अनिल यादव

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ब्रह्मपुत्र मेल की पहली सीटी और धकमपेल के बीच हम लोग भीतर घुसे तो कूपे में असम राइफल्स के मंगोल चेहरे वाले सैनिक अपना सामान जमा रहे थे। निर्लिप्त, तटस्थ, खामोश कुशलता से कूपे के खाली कोनों-अंतरों में वे अपने ट्रंक, होल्डाल, किटबैग, हैवरसैक रखे जा रहे थे। अंदाजा इतना सटीक कि जैसे वे खाली जगहें खासतौर पर उन्हीं सामानों के आकार-प्रकार के हिसाब से बनाई गईं थीं।

ऊपर की एक बर्थ पर लेटने की तैयारी कर चुके एक युवा सरदार जी, विदा करने आए एक परिजन को बता रहे थे कि उन्हें सीट तो बगल के डिब्बे में मिली थी लेकिन वहाँ सामने एक नगा बंदा था जो बहुत तेज बास मार रहा था। इसलिए कंडक्टर से कह कर डिब्बा बदलवा लिया। पता नहीं उन्हें, उस नगा बंदे से क्या परेशानी थी। शायद उसकी आधी ढकी, भीतर भेदती आँखों ने उनके मन के परदे पर हेड-हंटिंग, कुकुर भात और आतंकवाद की कोई हॉरर फिल्म चला दी होगी और दिल्ली से कमा कर देस लौटते निरीह और भुक्खड़ बिहारियों के सुरक्षित दलदल में आ धंसे। दिल्ली की बस में वे उन्हें अपने शरीर से छूने भी नहीं देते होंगे, क्योंकि बिहारी यहाँ एक गाली है।

ट्रेन थोड़ा-सा खिसक कर रूक गई। तभी गूंजे धरती आसमान-राम विलास पासवान का नारा लगाती, जवानी की धुंधली फोटो कापी, बिहारी नौजवानों की भीड़ डिब्बे में आ घुसी। वे सबसे किनारे की सीटों पर सस्ती अटैचियों, दिल्ली मॉडल के टू-इन-वन और फुटपाथों से खरीदे रंग-बिरंगे कपड़ो के ढेर के साथ काबिज होने लगे और रिजर्वेशन वाले यात्री अपने सामानों से अपनी बर्थों की किलेबंदी करते हुए पसरने लगे। वे अपनी देह भाषा में रैली से लौट रहे इन बेटिकट, दलित कार्यकर्ताओं का विरोध कर रहे थे।

डिब्बे में दो कंडक्टर घुसे। उन्होंने लुंगी पहने एक मरियल से लड़के से टिकट मांगा। लड़का सहमी, पीली आंखों से उन्हें ताकता ही रह गया। कुछ बोल पाता इससे पहले ही उनमें से एक ने उसे कसकर तमाचा जड़ दिया और सबको नीचे उतारने लगा। एक दढ़ियल युवक ने प्रतिवाद किया, पासवान जी की रैली में आए हैं जी टिकठ काहे लेंगे। जैसे आए थे, वैसे ही जाएंगे।

इनसे पूछिए कि इस डिब्बे में आने की इन सबों की हिम्मत कैसे पड़ी। पीछे किसी बर्थ से आवाज आई।

चलो हमारा घर भी खाली पड़ा है, वहाँ भी कब्जा कर लोगे। जाओ पासवान से पैसा लेकर आओ, रिजर्वेशन कराओ, तब यहाँ बैठो। दोनों कंडक्टर अब तक रैली वाले युवकों पर हावी हो चुके थे, पासवान जब रेल मंत्री था, तब था। अब वह हमारा कुछ नहीं कर सकता। बेटा, ट्रेड यूनियन के लीडर हैं, एक-एक को पटक के यहीं मारेंगे। पब्लिक भी अभी बताने लगेगी कि तुम्हारे पासवान की क्या औकात है। चलो चुपचाप उतरो।

दलित युवक चुपचाप उतर कर जनरल डिब्बों की ओर बढ़ गए। जैसे वे किसी शवयात्रा में जा रहे हों। जिस राजनीति और संगठन की शक्ति ने उन्हें ट्रेन में बिना टिकट सवार होने की हिम्मत दी थी, उसी संगठन का डर दिखाकर दो कंडक्टरों ने उन्हें नीचे उतार दिया। कंडक्टरों का हाथ भी दलित कार्यकर्ताओं पर ही छूटता है। महेंद्र सिंह टिकैत के साथ रैलियों में जाने वाले मुजफ्फर नगर, बागपत के जाट वातानुकूलित डिब्बों के परदे तक नोंच कर चिलम पर तमाखू के साथ पी जाते हैं तब ये टिकट बाबू किसी कोने में सिमटे हुए अपनी जान और नौकरी की खैर मनाते रहते हैं।

ट्रेन चली कि असम राइफल्स के सैनिकों ने बोतल खोल ली। वे अपने मगों और प्लास्टिक के डिस्पोजेबल गिलासों में रम पीने लगे। थोड़ी ही देर में उनकी खामोशी टूटी। किसी अबूझ भाषा में एक दूसरे से उलझी, लंबी, उछलती रस्सियों की तरह उनकी बातें डिब्बे में फैलने लगीं। जिनके साथ परिवार थे चौकन्ने हो गए और जो करीब की बर्थों पर थे, कुछ इंच ही विपरीत दिशाओं में सरकने लगे। जीआरपी के एक अधेड़ सिपाही ने फौजियों की तरफ हाथ उठाकर कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उनकी तरह कोई प्रतिक्रिया न पाकर, बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ गया। यह मंगोल भारत था जिसका गंगा के मैदान वाले आर्य सिपाही से संवाद कठिन था।



पैंट्री कार से डिब्बे में बार-बार आते एक रेखियाउठान बेयरे का नाम बड़ा काव्यात्मक था। उसकी लाल रंग की सूती वर्दी पर काले रंग की नेम प्लेट लगी थी जिस पर सफेद अक्षरों में लिखा था, सजल बैशाख। उसकी मिचमिची आँखों और उजले दांतो को देखते हुए ख्याल आया कि बरसात तो आषाढ़ में शुरू होती है, बैसाख कैसे सजल हो सकता है। कहीं चकित करने के लिए ही तो उसका नाम नही रखा गया है। अगले दिन नाश्ते के समय मैने उससे पूछा कि बैशाख कैसे सजल हो गया है। वह इत्मीनान से देर तक हंसता रहा। पहले भी उससे यह सवाल कइयों ने पूछा होगा। प्रतिप्रश्न आया, आप पहली बार आसाम जा रहा है क्या। मेरे सिर हिलाने पर उसने कहा, जब थोड़ा दिन उधर बैठेगा तो अपने ही जान जाएगा कि वहाँ बैशाख मे मानसून ही नहीं आता, बाढ़ भी आ जाती है। य़ह पूर्वोत्तर की पहली झलक थी जो मुझे मुगलसराय से बिहार के बीच कहीं मिली।

दिन में जिस, पहले रोबीले मुच्छड़ ने मेरी बर्थ पर अतिक्रमण किया, मेरे जिले गाजीपुर के निकले, गहमर गांव के वीरेंद्र सिंह। पंद्रह दिन छुट्टी बिता कर निचले असम के बोंगाई गांव जा रहे थे जहाँ वे बीएसएफ की बटालियन में तैनात थे। गांव-जवार का होने के कारण या फिर अपने अतिक्रमण को वैधता देने के लिए मेरी तरफ खैनी बढ़ाते हुए उन्होंने सलाह दी कि जा रहे हैं तो वहाँ जरा मच्छड़ और छोकड़ी से बचिएगा, तब गाजीपुर लौट पाइएगा।

मारिए वह भी कोई देश है महाराज। यह उनका तकिया कलाम था।

वह बता रहे थे कि कुनैन की गोली, बीएसएफ में जवान को कतार में खड़ा कर, मुँह पर मुक्का मार कर खिलाता है और मच्छरदानी में सोने का सख्त आर्डर है। नहीं मानने पर फाइन होता है। जान हमेशा पत्ते पर टंगी रहती है कि न जाने किधर से आल्फा या बोडो वाला आकर टिपटिपाने लगेगा। उग्रवादी भीड़ में ऐसे घूमते हैं जैसे पानी में मछली। उनके होने का तभी पता चलता है जब दो-चार आदमी गिरा दिए जाते हैं।

जैसे पानी में मछली- मैं मोंछू की उपमा पर चकित था। यही तो शिलाँग के सेंट एडमंडस कालेज से अंग्रेजी और लंदन से पत्रकारिता पढ़े संजय हजारिका की किताब में भी लिखा था। यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) का कमांडर परेश बरूआ एक बार तिनसुकिया में कालेज के लड़कों की टीम में शामिल होकर असम पुलिस की टीम के साथ फुटबाल मैच खेल कर निकल गया। तीन दिन बाद पुलिस को पता चला तब तक करीब के जंगल से उल्फा के कैंप उखड़ चुके थे।

सामने की बर्थ पर बारह-पंद्रह एयरबैगों, बोरियों, पालीथिनों से घिरी सहुआईन बैठी थीं। उनके पति को दूसरे डिब्बे में सीट मिली है इसलिए हर दो घंटे बाद कहती हैं, भइया देखे रहिएगा साथ में दो लड़कियां हैं। उनकी मणिपुर और बर्मा के बीच भारत के आखिरी कस्बे मोरे में परचून की दुकान है। गोरखपुर से मोरे कैसे पहुंच गए। कहती हैं, किस्मत भइय़ा।

आठ और ग्यारह साल की उनकी दो लड़कियां एक सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं और निराली अंग्रेजी बोलती हैं। वे एक दूसरे को मैन कहती हैं। सहुआइन अपनी निःशब्द भाषा में उन्हें प्रोत्साहित करती हैं और फिर संतुष्ट भाव से डिब्बे में पड़े प्रभाव का मुआयना करती हैं।

“मम्मा गेभ मी ओनली तीन टाका टू टेक झालमूड़ी। भ्हाई शुड आई गिभ दैट टू यू। टेक फ्राम योर मनी मैन।”

सहुआइन मोंछी को बता रही हैं। बिना दाढ़ी-मोंछ वाला, छोटा-छोटा लड़का मलेटरी-पुलिस सबके सामने आता है। टैक्स मांगता है। देना पड़ता है। नहीं तो जान से मार देगा।

हमारी दुकान के आगे एक मास्टर को मार दिया। बहुत शरीफ मास्टर था। सबसे प्रेम से बोलता था लेकिन तीन महीना से टैक्स नहीं दिया था। हम लोगों की भाषा बोलने पर रोक लगा दिया है। कहता है कोई भाषा बोलो हिंदी मत बोलो। भूल से जबान फिसल जाए तो टोकता है गाली देता है।



………तो यह निराली अंग्रेजी भारत और बर्मा की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर रह रहे बाहर के बच्चों की भाषा है जिसका आविष्कार उन्होंने जीवित रहने के लिए किया है।

तो छोड़ दीजिए, “आकर गोरखपुर में परचून की दुकान चलाइए।” शाश्वत स्लीपिंग बैग की भीतर से निंदियाई आवाज में सलाह देता है।

“नहीं भईया। जो मजा मोरे में है वह आल इंडिया में भी नहीं मिलेगा।”

“मारिए, वह भी कोई देस है महाराज।”

मोंछू का देस वह नहीं है जो बचपन में हम लोगों को भूगोल की किताब में राजनीतिक नक्शे के जरिए पहचनवाया गया था। वह भी नहीं है जिसे प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त को लालकिले से संबोधित करते हैं। दरअसल वह अपने देश से जाकर परदेस में नौकरी कर रहा है। हैवरसैक में रखे अखबारों की कतरनों के फोटोग्राफ्स मेरी आँखो के सामने घूम गए जिनमें कलात्मक लिखावट में नारे लिखे हुए थे- इंडियन डॉग्स गो बैक। ये कहाँ के कुत्ते हैं जो भारतीय कुत्तों को अपने इलाके से खदेड़ रहे हैं। डेल्ही इज स्टेप मदर टू सेवन सिस्टर्स। ये सात बहनें दूसरी किन लड़कियों को ताना दे रही हैं। एज क्रो फ्लाइज, इट इज क्लोजर टू हनोई दैन टू न्यू डेल्ही। यह क्यों बताया जा रहा है कि हम डेल्ही वालों के मुहल्ले में आकर गल्ती से बस गए हैं। अचानक लगा कि उस देस वाले, इधर के देस को लगातार गाली दे रहे हैं तो वहाँ जाती ट्रेन भी कुछ न कुछ जरूर कह रही होगी। मैं आँख बंद कर सारी आवाजों को सुनने को कोशिश करने लगा। सरसराती ठंडी हवा और अनवरत धचक-धक-धचक के बीच कल से व्यर्थ, रूटीन लगती बातों के टुकड़े डिब्बे में भटक रहे हैं। उन्हें बार-बार दोहराया जा रहा है। इतनी भावनाओं के साथ अलग-अलग ढंग से बोले जाने वाले इन वाक्यों के पीछे मंशा क्या है।

हालत बहुत खराब है।
वहाँ पोजीशन ठीक नहीं है।
माहौल ठीक नहीं है।
चारो तरफ गड़बड़ है।
आजकल फिर मामला गंडोगोल है।

जैसे लोग किसी विक्षिप्त और हिंसक मरीज की तबीयत के बारे में बात कर रहे हैं जिसके साथ, उन्हें उसी वार्ड में जैसे-तैसे गुजर करना है।

बिहार बीत चुका था। खिड़की के बाहर सत्यजीत रे की कोई फिल्म चल रही थी। मालदा के बंगाल के गांव गुजर रहे थे। सादे से घरो के आगे हरियाली से घिरा पुखुर और धान के कटे, अनकटे खेतों पर क्षितिज तक छाया नीलछौंहा विस्तार। ट्रेन में मिष्टीदोई, झालमुडी और हथकरघे पर बने कपड़े बिक रहे थे।

थोड़ी ही देर बाद न्यू जलपाईगुड़ी यानि एनजेपी आते ही हम लोग ग्राम बाँग्ला से उड़कर चीनी सामानों से भरी किसी विदेशी गली में आ गिरे। एक के पीछे एक सैकड़ो वेंडर जो चीनी कैमरे, टेलीविजन, कैलकुलेटर, मोबाइल, फोन, घड़ियां, टेपरिकार्डर, इलेक्ट्रानिक खिलौने, कंबल, बाम चीखते हुए बेच रहे थे। ऊपर से नीचे से तक सामानों से लदे वे चीन के व्यापारिक दूत लग रहे थे। प्लेटफार्म पर बिक रही सारी सिगरेटें विदेशी थी। यहाँ की सिगरेटों से लंबी और बेहद सस्ती। चीनी दूतों की तादात इतनी ज्यादा थी कि सारंगी और इकतारा लिए भिखारी ट्रेन में नहीं घुस पा रहे थे।

राजनीति की भाषा में एनजेपी को चिकेन्स नेक कॉरिडोर कहा जाता है। यह मुर्गे की गर्दन जितना दुबला यानि सिर्फ इक्कीस किलोमीटर चौड़ा गलियारा है जहाँ से पूर्वोत्तर से आती तेल और गैस की पाइपलाइनें गुजरती हैं। अक्सर पूर्वोत्तर के आंदोलनकारी इस मुर्गे की गरदन मरोड़ देने की धमकी देते रहते हैं। ऐसा हो जाए तो गैस और तेल की सप्लाई ही नहीं बंद होगी, पूर्वोत्तर का शेष देश से संपर्क भी कट जाएगा। तब कलकत्ता से गौहाटी के लिए हवाई जहाज पकड़ना होगा।

वेंडरों, अखबारों और जहाँ-तहां नेटवर्क पकड़ते मोबाइल फोनों के जरिए ट्रेन में खबरें आ रही थीं कि असम हिंदी भाषियों को मारा जा रहा है। बिहारियों के घर जलाए जा रहे हैं। तिनसुकिया और अरूणाचल के बीच कहीं सादिया कुकुरमारा में दो दिन पहले उल्फा ने तीस बिहारियों को भून डाला। उनकी लाशें अब भी वहीं सड़ रही हैं। इनमें से सभी मजदूर थे जो तेजू में लगने वाली साप्ताहिक हाट से राशन खरीद कर एक ट्रक में सवार होकर लौट रहे थे। उन्हें जंगल में ट्रक रोक कर उतारा गया, कतार में खड़ा कर नाम पूछे गए और फिर गोली से उड़ा दिया गया। लौटती ट्रेनों में जगह नहीं है क्योंकि बिहारी अपने घर, जमीनें छोड़ कर असम से भाग रहे हैं। पिछले एक हफ्ते में पचपन से अधिक बिहारी मारे गए हैं।

संजय हजारिका की किताब में खून, बारूद, गुरिल्ला, मैमनसिंघिया मुसलमान, शरणार्थी और घुसपैठिये थे। वर्गीज की किताब में संधिया, समझौते, राजनीति के दांव-पेंच, प्रशासनिक सुधार और इतिहास थे। दोनों को पढ़ते और ऊंघते हुए मुझे लगा कि यह ट्रेन मजबूर लोगों से भरी हुई है। उन्हें वहाँ लिए जा रही है जहाँ वे जाना नहीं चाहते। रोजी, व्यापार, रिश्तों की हथकड़ियों से जकड़ कर वे बिठा दिए गए हैं। वे जानते हैं कि वहाँ मौत नाच रही है फिर भी जा रहे हैं। तभी अचानक लंबी यात्रा की के बेफिक्र आलस की जगह डिब्बों चौकन्नापन पंजो के बल चलता महसूस होने लगा। तीन को छोड़ कर बाकी भाषाएँ और बोलियां भयभीत, फुसफुसाने लगीं। ये तीन नई भाषाएँ थीं असमिया, अंग्रेजी और यदा-कदा बांग्ला। मैने स्लीपिंग बैग के भीतर नाखून चबा रहे शाश्वत की ओर देखा। थोड़ी देर बाद उसने कहा, अबे जब दुर्भाग्य यहाँ तक ले ही आया है तो आगे जो होगा देखा जाएगा।

(जारी)

Monday, August 24, 2009

एक ठो हवाई सवाल और खुशवन्त सिंह की सलाह कि "जरूर जाओ बेटा"



अनिल यादव का कम्प्यूटर ख़राब चल्लिया है. सो इस काम का निमित्त मैं बन रहा हूं.

उनका यह यात्रावृत्त प्रतिलिपि के ताज़ा अंक में छप चुका है. मेरी हार्दिक इच्छा थी कि कबाड़ख़ाने पर भी यह हो. प्रतिलिपि के सम्पादक भाई गिरिराज किराडू ने आज इसकी इजाज़त दी. शुक्रिया करें उनका, और मौज काटें इस बेहतरीन लेखन की. 'बेहतरीन' माने ... सई है ... वही जिसके लिए अनिल जाने जाते हैं.



वह भी कोई देश है महाराज - भाग १:

अनिल यादव

पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब कभी नहीं चलेगी।

अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर उल्टियों से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूख कर पपड़ी हो गईं थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेखौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था कि चूंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खडी थी।

इसी पस्त ट्रेन को पकड़ने के लिए आधे घंटे पहले, हम दोनों यानि शाश्वत और मैं तीर की तरह पूर्वी दिल्ली की एक कोठरी से उठकर भागे थे। ट्रेन छूट न जाए, इसलिए मैं रास्ते भर टैक्सी ड्राइवर पर चिल्ला रहा था। हड़बड़ी में मेरे हैवरसैक का पट्टा टूट गया, अब गांठ लगाकर काम चलाना पड़ रहा था। यह हैवरसैक और एक सस्ता सा स्लीपिंग बैग उसी दिन सुबह मेरे दोस्त शाहिद रजा ने अपने किसी पत्रकार दोस्त लक्ष्मी पंत के साथ ढूंढकर, किसी फुटपाथ से खरीद कर मुझे दिया था। मैं पूर्वोत्तर के बारे में लगभग कुछ नहीं जानता था। कभी मेरे पिता डिब्रूगढ़ के एयरबेस पर तैनात रहे थे। वहाँ व्यापार करने गए एक रिश्तेदार की मौत ब्रह्मपुत्र में डूबकर हो गई थी। उनका रूपयों से भरा बैग हाथ से छूटकर नदी में गिर पड़ा था और उसे उठाने की कोशिश में स्टीमर का ट्यूब उनके हाथ से छूट गया था। मेरे ननिहाल के गाँव के कुछ लोग असम के किसी जिले में खेती करते थे। इन लोगों से और बचपन में पढ़ी सामाजिक जीवन या भूगोल की किताब में छपे चित्रों से मुझे मालूम था कि वहाँ आदमी को केला कहते हैं। चाय के बगान हैं जिनमें औरतें पत्तियां तोड़ती हैं। पहले वहाँ की औरतें जादू से बाहरी लोगों को भेड़ा बनाकर, अपने घरों में पाल लेती थी, चेरापूंजी नाम की कोई जगह हैं जहाँ दुनिया में सबसे अधिक बारिश होती है।

इसके अलावा मुझे थोड़ा बहुत असम के छात्र आंदोलन के बारे में पता था। खास तौर पर यह कि अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में बनारस में तेज-तर्रार समझे जाने वाले एक-दो छात्रनेता फटे गले से माइक पर चीखते थे, गौहाटी के अलाने छात्रावास के कमरा नंबर फलाने में रहने वाला प्रफुल्ल कुमार मंहतो जब असम का मुख्यमंत्री बन सकता है तो यहाँ का छात्र अपने खून से अपनी तकदीर क्यों नहीं लिख सकता। इन सभाओं से पहले भीड़ जुटाने के लिए कुछ लड़के, लड़कियां भूपेन हजारिका के एक गीत का हिंदी तर्जुमा गंगा तुम बहती हो क्यों गाया करते थे।

हैवरसैक में कभी यह गीत गाने वाले दोस्त, पंकज श्रीवास्तव की दी हुई (जो उसे किसी प्रेस कांफ्रेस में मिली होगी) एक साल पुरानी सादी डायरी थी जिस पर मुझे संस्मरण लिखने थे। आधा किलो से थोड़ा ज्यादा अखबारी कतरनें थी, दो किताबें (वीजी वर्गीज की नार्थ ईस्ट रिसर्जेंट और संजय हजारिका की स्ट्रेंजर्स इन द मिस्ट) थीं जिन्हें तीन दिन की यात्रा में पढ़ा जाना था। किताबें एक दिन ही पहले कनाट प्लेस के एक चमाचम बुक मॉल से बिना कन्सेशन का आग्रह किए शाश्वत के क्रेडिट कार्ड पर खरीदी गई थीं। कुछ गरम कपड़े थे वहीं बगल में जनपथ के फुटपाथ से छांटे गए थे। वहीं से खरीद कर मैने शाश्वत को एक चटख लाल रंग की ओवरकोटनुमा जैकेट, ड्राई क्लीन कराने के बाद शानदार पैकेजिंग में भेंट कर दी थी। बड़ी जिद झेलने के बाद मैने जैकेट की कीमत नौ हजार कुछ रूपये बताई थी जबकि वह सिर्फ तीन सौ रूपये में ली गई थी। वही पहने, स्टेशन की बेंच पर बैठा वह बच्चों को दिया जाने वाला नेजल ड्राप ऑट्रिविन अपनी नाक में डाल रहा था। उसकी नाक सर्दी में अक्सर बंद हो जाया करती थी। बीच-बीच में वह जेब से निकाल कर गुड़ और मूंगफली की पट्टी खा रहा था। उसे पूरा विश्वास था कि पूर्वोत्तर जाकर हम लोग जो रपटें और फोटो यहाँ के अखबारों, पत्रिकाओं को भेजेंगे, उससे हम दोनों धूमकेतु की तरह चमक उठेगे और तब चिरकुट संपादकों के यहाँ फेरा लगाकर नौकरी मांगने की जलालत से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा।

शाश्वत की अटैची में यमुना पार की कोठरी की सहृदय मालकिन के दिए पराठे, तली मछली और अचार था, तीन फुलस्केप साइज की सादी कापियां थीं।



अपनी-अपनी करनी से मैं पिछले एक साल से और वह पांच महीनों से बेरोजगार था। कई बार वह सुबह-सुबह नौकरी का चक्कर चलाने किसी अखबार मालिक या संपादक से मिलने हेतु जिस समय तैयार होकर दबे पाँव निकलने को होता, मैं रजाई फेंक कर सामने आ जाता। मैं साभिनय बताता था कि छोटी सी नौकरी के लिए डीटीसी की बस के पीछे लपकता हुआ वह कैसे किसी अनाथ कुत्ते की तरह लगता है। खोखली हंसी के साथ उसका एकांत में संजोया हौसला टूट जाता, नौकरी की तलाश स्थगित हो जाती और मैं वापस रजाई में दुबक जाता। मैं खुद भी अवसाद का शिकार था। उस साल मैने कई महीने एक पीली चादर फिर रजाई ओढ़कर अठारह-अठारह घंटे सोने का रिकार्ड बनाया था। इसी मनःस्थिति में हताशा से छूटने, खुद को फिर से समझने और अनिश्चय में एक धुंधली सी उम्मीद के साथ यह यात्रा शुरू हो रही थी।

उत्तर-पूर्व जाकर मैं करुंगा क्या, इसका मुझे बिल्कुल अंदाज नहीं था। इसलिए मैने खुशवंत सिंह, राजेंद्र यादव, प्रभाष जोशी, मंगलेश डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा, राजेंद्र घोड़पकर, अभय कुमार दुबे, यशवंत व्यास, रामशरण जोशी, रामबहादुर राय, अरविंद जैनादि के पास जाकर एक काल्पनिक सवाल पूछा था और उनके जवाब एक कागज पर लिख लिए थे। सवाल था-

“जनाब। फर्ज कीजिए कि आप इन दिनों उत्तर-पूर्व जाते तो क्या देखते और क्या लिखते?”

जैसा हवाई सवाल था, वैसे ही कागज के जहाजों जैसे लहराते जवाब भी मुझे मिले। इन्हीं जवाबों को गुनते-धुनते मैं अपना और शाश्वत का मनोबल ट्रेन में बैठने लायक बना पाया था। हंस के संपादक राजेंद्र यादव का कहना था कि इस यात्रा में कोई लड़की मेरे साथ होती तो ज्यादा अच्छा होता। इससे वहाँ के समाज को समझने में ज्यादा सहूलियत होती और मीडिया में हाईप भी बढिया मिलती। सबसे व्यावहारिक सुझाव, रियलिस्टक स्टाइल में खुशवंत सिंह ने दिया था। मिलने के लिए निर्धारित समय से बस आधे घंटे लेट उनके घर पहुंचा तो बताया गया कि मुलाकात संभव नहीं है। पड़ोस के एक पीसीओ से फोन किया तो व्हिस्की पी रहे बुड्ढे सरदार ने कहा,

“पुत्तर तुम नार्थ-ईस्ट जाओ या कहीं और, मुझसे क्या मतलब।”

अपने कागज पर मैने खुशवंत सिंह के नाम के आगे लिखा,

“जरूर जाओ बेटा। बहुत कम लोग ऐसा साहस करते हैं। मैं तुम लोगों का यात्रा-वृत्तांत अंग्रेजी में पेंग्विन या वाइकिंग जैसे किसी प्रकाशन में छपवाने में मदद करूंगा।”



यह शाश्वत को पढ़वाने के लिए था क्योंकि पैसा उसी का लग रहा था। खुशवंत सिंह के आशीर्वचन का पाठ करते हुए मुझे अपने छोटे भाई सुनील की याद आई। छुटपन में उसे साइकिल पर खींचते-खींचते जब मैं थक जाता था, इसे भांप कर वह कहता था कि बगल से गुजर रहे दो आदमी आपस में बातें कर रहे थे यह लड़का हवाई जहाज की तरह साइकिल चलाता है। मैं उसका चेहरा नहीं देख पाता था क्योंकि वह डंडे पर बैठा होता था।

प्रतिलिपि से साभार

(जारी)

एक याद 'कनुप्रिया' से

धर्मवीर भारती की 'कनुप्रिया' को कौन नहीं जानता! आज वहीं से एक टुकड़ा:




क्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु?
लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी!

इसी लिए तब
मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,
इसी लिए मैंने अस्वीकार कर दिया था
तुम्हारे गोलोक का
कालावधिहीन रास,

क्योंकि मुझे फिर आना था!

तुमने मुझे पुकारा था न
मैं आ गई हूँ कनु।

और जन्मांतरों की अनन्त पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी होकर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
कि, इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले ना छूट जाओ!

सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अंतरंग
सखी को तुमने बाँहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु?

बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास का
शब्द, शब्द, शब्द…
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द!

सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी ज़रूरत थी न, लो मैं सब छोड़कर आ गई हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अंतरंग केलिसखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन तक रह गई……

मैं आ गई हूँ प्रिय!
मेरी वेणी में अग्निपुष्प गूँथने वाली
तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथती?

तुमने मुझे पुकारा था न!

मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!

Saturday, August 22, 2009

कोमल कोठारी का परिचय और दम मस्त कलन्दर



१९२९ में जोधपुर में जन्मे श्री कोमल कोठारी ने उदयपुर में शिक्षा पाई और १९५३ में अपने पुराने दोस्त विजयदान देथा (जो अब देश के अग्रणी कहानीकारों में गिने जाते हैं) के साथ मिलकर 'प्रेरणा' नामक पत्रिका निकालना शुरू किया. 'प्रेरणा' का मिशन था हर महीने एक नया लोकगीत खोजकर उसे लिपिबद्ध करना. उनके परिवार के राष्ट्रवादी विचारों और कोमल कोठारी के संगीतप्रेम का मिलाजुला परिणाम यह निकला कि उनकी दिलचस्पी १८०० से १९४२ के बीच रचे गए राजस्थानी देशभक्तिमूलक लोकगीतों में बढ़ी. यहीं से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ. उन्होंने राजस्थान की मिट्टी में बिखरी अमूल्य संगीत सम्पदा से जितना साक्षात्कार किया उतना वे उसके पाश में बंधते गए.

कई तरह के काम कर चुकने के बाद कोठारी जी १९५८ में अन्ततः राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी में कार्य करने लगे और अगले चालीस सालों तक उन्होंने एक जुनून की तरह राजस्थान के लोकसंगीत को रेकॉर्ड करने और संरक्षित करने का बीड़ा उठा लिया.

१९५९-६० के दौरान वे कई दफ़ा जैसलमेर गए और लांगा और मंगणियार गायकों से मिले. काफ़ी समझाने बुझाने के बाद वे १९६२ में पहली बार इन लोगों के संगीत को रेकॉर्ड कर पाने में कामयाब हुए.

उन्हीं की मेहनत का नतीज़ा था कि १९६३ में पहली बार मंगणियार कलाकारों का कोई दल दिल्ली जाकर स्टेज पर अपनी
परफ़ॉर्मेन्स दे सका.

कोठारी इस से कहीं आगे ले जाना चाहते थे जीवन से लबालब भरे इस संगीत को. १९६७ में इन कलाकारों के साथ उनकी स्वीडन की यात्रा के बाद चीज़ें इस तेज़ी से बदलीं कि आज राजस्थान के लगातार विकसित होते पर्यटन की इस संगीत के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती

१९६४ में श्री कोठारी ने 'रूपायन' नामक संस्था की स्थापना की. संगीत को रेकॉर्ड कर के संरक्षित करने का विचार उन्हें पेरिस में बस चुके एक भारतीय संगीतविद देबेन भट्टाचार्य से मिला. भट्टाचार्य साहब की पत्नी स्वीडन की थीं और उनके प्रयासों से ही लांगा-मंगणियार संगीत को पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय मंच प्राप्त हुआ.

हमारे समय में लोकसंगीत की महत्ता, आवश्यकता और प्रासंगिकता को रेखांकित करना उनके जीवन का ध्येय था और वे इस में सफल भी हुए.

भारत सरकार ने उनके योगदान को पहचाना और उन्हें पद्मश्री तथा पद्मभूषण से सम्मानित किया.

अप्रैल २००४ में कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई.

पिछली चार पोस्ट से चल रही राजस्थानी लोकसंगीत की इस सीरीज़ को मैं उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देकर फ़िलहाल समाप्त करता हुआ फ़्रांस की एक संस्था द्वारा रेकॉर्ड करवाया गया अतिविख्यात 'दमादम मस्त कलन्दर' सुनवा रहा हूं - एक बिल्कुल नया कलेवर देखिये भाषा और अदायगी का:



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वर्ष २००० में इंग्लैंड की ए. आर. सी. म्यूज़िक प्रोडक्शन्स कम्पनी ने दुनिया भर के बंजारों के संगीत पर तीन सीडी का एक संग्रहणीय अल्बम निकाला था. इस अल्बम में जयपुर में रहने वाले हमीद ख़ान के लोकसंगीत-केन्द्रित बैन्ड 'मुसाफ़िर' की एक प्रस्तुति 'निंदरेली' का भी आनन्द लीजिये:

निंदरेली:



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गोरबन्द और निम्बुड़ा के दूसरे संस्करण


निम्बुड़ा और गोरबन्द आप दो पोस्ट पहले सुन चुके हैं.

इन्हीं कम्पोज़ीशन्स को सुनिये लांगा-मंगणियारों के एक और समूह से. इनका गाया गोरबन्द मुझे ज़्यादा जीवन्त और आकर्षक लगा. ये कम्पोज़ीशन्स 'निम्बुड़ा निम्बुड़ा' नामक एक अल्बम का हिस्सा हैं जो मुझे दिल्ली के पालिका बाज़ार में मिला था. चूंकि सीडी पाइरेटेड है सो गायकों, संगीतकारों के बारे में कोई जानकारी मेरे पास नहीं है.

यदि आप में से कोई इन रचनाओं के बारे में जानते हों तो बताने का कष्ट करें. अहसान होगा


निम्बुड़ा



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गोरबन्द



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(फ़ोटो: साभार श्री अशोक विश्वनाथन)

Friday, August 21, 2009

भर लाए, कलाली दारू दाखा रो !



आशा है आप लोगों ने कल राजस्थानी लोकसंगीत का आनन्द लिया होगा. इधर मेरे हाथ बंजारों के विश्वव्यापी संगीत का छोटामोटा ख़ज़ाना हाथ लगा है सो लांगा मंगणियारों के इस शानदार संगीत पर एकाध और पोस्ट का स्कोप तो बनता ही है. लेकिन वह सम्भवतः कल.

फ़िलहाल आज राजस्थान से ही सुनिये पद्मश्री अल्लाह जिलाई बाई की आवाज़ में कुछ रचनाएं. क़रीब एक साल पहले यानी बीस अगस्त २००९ को भाई संजय पटेल ने इसी दिव्य स्वर में एक मांड सुनवाई थी. अल्लाह जिलाई बाई की आवाज़ के जादू को यूं बयान किया था संजय भाई ने:

... मुलाहिज़ा फ़रमाएँ बीकानेर राज-दरबार की बेजोड़ गायिका अल्ला-जिलाई बाई की गाई ये माँड. कैसे अनूठे सुर की मालकिन थीं ये लोक-संगीत गायिका. खनकती आवाज़ से झरते राजस्थानी अदब और रंगत के दमकते तेवर. ये आवाज़ आपको कहीं सिध्देश्वरी देवी, कहीं बेगम अख़्तर तो कहीं रेशमा की आवाज़ के टिम्बर की सैर करवाती है. आँख बंद कर सुनें, शब्द पर जाने की क्या ज़रूरत है....उस अहसास में जियें जो राजस्थान के मरूथल की रेत में दस्तेयाब है....तारीख़ और घड़ी को रोकने की ताक़त है इस आवाज़ में...



१ फ़रवरी १९०२ को जन्मी हज्जन अल्लाह जिलाई बाई (मृत्यु ३ नवम्बर १९९२) बीकानेर के एक गायक परिवार में जन्मीं. उनकी चाचियां अपने समय की लब्धप्रतिष्ठ गायिकाएं थीं. दस साल की आयु से उन्होंने उस्ताद हुसैन बख़्श ख़ां साहब से तालीम हासिल करना शुरू किया और बीकानेर के महाराजा गंगा के दरबार में गायन भी. आगामी वर्षों में उनकी प्रतिभा को संवारने में अच्छन महाराज का बड़ा हाथ रहा.

मांड, ठुमरी, ख़याल और दादरा गाने में महारत रखने वाली अल्लाह जिलाई बाई को सरकारों ने तमाम पुरुस्कारों से नवाज़ा.

आज उनकी आवाज़ में सुनिये तीन दुर्लभ रचनाएं. इनमें उनकी अतिविख्यात 'भर लाए कलाली दारू दाखा रो' शामिल है और बमय डाउनलोड लिंक के संजय भाई द्वारा सुनवाई गई उनकी ट्रेडमार्का 'केसरिया बालम' भी. और दर्द से पगी 'मूमल' भी.


कलाली


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मूमल


डाउनलोड लिंक
http://www.divshare.com/download/8247836-781

केसरिया बालम



डाउनलोड लिंक
http://www.divshare.com/download/8247834-270

Thursday, August 20, 2009

आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो


करीब एक साल पहले ग्यारह अगस्त को मैंने राजस्थान के लोकसंगीत पर छोटी सी एक पोस्ट लगाई थी और उसमें जैसलमेर के लांगा-मंगणियारों के दो लोकगीत सुनवाए थे. आज बातों बातों में दोस्तों के साथ उनका ज़िक्र चला तो मुझे उस पोस्ट की याद आई. खोज कर देखा तो पता चला कि वे तो अब चल ही नहीं रही हैं क्योंकि लाइफ़लॉगर नामक प्लेयर ने कब का काम करना बन्द कर दिया है.

फ़िलहाल काफ़ी समय से डिवशेयर का प्लेयर ठीक काम कर रहा है.

उक्त दो के अलावा आपके वास्ते इस महान संगीत से तीन और रचनाएं प्रस्तुत कर रहा हूं. आप की सहूलियत के लिए पांचों के डाउनलोड लिंक भी लगा रहा हूं. मैं तो दोपहर से रिवाइन्ड कर कर के सुन रहा हूं. डाउनलोड करें और फ़ुरसत में सुनें सभी को.

मौज गारन्टीड!


आवे हिचकी



डाउनलोड लिंक:

http://www.divshare.com/download/8240902-1ec

लवा रे जिवड़ा



डाउनलोड लिंक:

http://www.divshare.com/download/8240903-cd6
सांवरिया



डाउनलोड लिंक:

http://www.divshare.com/download/8240906-ba8

राधा रानी



डाउनलोड लिंक:

http://www.divshare.com/download/8240905-4cb

गोरबन्द नखराळो



डाउनलोड लिंक:

http://www.divshare.com/download/8240904-ab0

(कल सुनिये कुछ और शानदार आवाज़ों में राजस्थानी लोकसंगीत की कुछ दुर्लभ रचनाएं)

Wednesday, August 19, 2009

ब्रूगेल के दो बन्दर : विस्वावा शिम्बोर्स्का

पीटर ब्रूगेल (१५२५ – ९ सितम्बर १५६९) सोलहवीं सदी के विख्यात डच चित्रकार थे. उनकी एक पेन्टिंग 'ज़ंजीरों में बंधे दो बन्दर' विस्वावा शिम्बोर्स्का की इस कविता की विषयवस्तु है:



ब्रूगेल के दो बन्दर

अपनी आख़िरी परीक्षा के बारे में
अपने सपनों में मुझे यह दिखाई देता है -
खिड़की की सिल पर बैठे,
ज़ंजीर से फ़र्श पर बंधे दो बन्दर,
फड़फड़ाता है उनके पीछे आसमान
स्नान कर रहा है समुन्दर.

'मानवजाति का इतिहास' का परचा है
मैं रुक-रुक कर हकलाने लगती हूं.

एक बन्दर घूरता है
और खिल्ली उड़ाने वाली अवहेलना के साथ सुनता है,
दूसरा वाला खोया लगता है किसी सपने में -
लेकिन जब यह साफ़ हो जाता है
कि मुझे पता नहीं मुझे कहना क्या है
वह हौले से खड़का कर अपनी ज़ंजीर
उकसाता है मुझे.

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(नोबेल विजेता विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविताएं आप समय समय पर यहां पढ़ते रहे हैं. कुछ ख़ास लिंक ये रहे:

नफ़रत
बायोडाटा लिखना
सम्भावनाएं
अन्त और आरम्भ
खोज
डायनासोर का कंकाल
एक आकस्मिक मुलाकात
हिटलर का पहला फ़ोटोग्राफ़
काव्यपाठ
हमारे पूर्वजों का संक्षिप्त जीवन
नायक की पैदाइश के घर में
ग्यारह सितंबर का एक फोटोग्राफ़
मसखरों को अन्तरिक्ष में मत ले जाओ)
आतंकवादी देखता है

"मैं दुनिया की तमाम नदियों पर बने पुलों पर रहता हूं." - लोर्का


19 अगस्‍त, 73वां शहादत-दिवस, फ़ेदरीको गार्सिया लोर्का (1898-1936)

टूटे हुए पुलों के इस दौर में हम लोर्का को फिर याद कर रहे हैं. लेकिन, यह याद एकरस और अकेली नहीं है. लोर्का के साथ कुछ भी केवल अकेले नहीं हो सकता. इस याद में गिटारों का रुदन, चंद्रमाओं के सेब, तारों के परदे, अरबी लड़कियां, खुले अहाते और हरे रंग के छींटे भी शामिल हैं. और इसमें शामिल हैं गोंगोरा की क्‍लासिकी कविता की लीकें, सत्‍ताइस की पीढ़ी के भावनात्‍मक ज्‍वार, मानुएल दे फ़ाया का उदात्‍त संगीत, साल्‍वादोर डाली की अतियथार्थवादी कल्‍पनाएं, मंच और कठपुतलियां, यात्राएं और ठहराव, दोस्‍ती-यारी, प्‍यार, स्‍वप्‍न, धुंआ, मौत और गूंज.

मालूम होता है कि अल्‍हाम्‍ब्रा की ख़ामोश बुर्जियां किसी जहाज़ के मस्‍तूलों की तरह एक लंबे सफ़र पर निकल जाने को तैयार हैं. इस सफ़र में अंदालूसिया के मैदान जितने शरीक़ हैं, उतने ही मालागा के समुद्र तट और जिप्सियों के भर्राए गलों वाले गीत भी. क्‍योंकि, आखिर फ़ेदरीको लोर्का को कभी भी अपने समय के साथ ही अपनी परंपरा, अपने परिवेश और अपने लोकमानस से अलगाकर नहीं देखा जा सकता.

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जून, 1898 में स्‍पेन के ग्रानादा इलाक़े में जन्‍मे फ़ेदरीको ग‍ार्सिया लोर्का ने इस्‍पहानी परंपरा, लोक-संस्‍कृति, संगीत और अपने समय की मानव नियति को गहरे से आत्‍मसात किया था. उन्‍होंने गिटार-पियानो बजाते, कॉफ़ी हाउसों में बहस करते, बंजारों-बुद्धिजीवियों-किसानों के बीच रहते हुए अपने सृजन को नए आयाम दिए. 22 वर्ष की उम्र में प्रकाशित उनके पहले नाटक और 23 की उम्र में प्रकाशित पहले कविता संग्रह ने ही उन्‍हें अपने लोगों के बीच ज़रूरी, महत्‍वपूर्ण और प्रिय बना दिया था. सघन ऐंद्रिक बोध, लय, लोक-संवेदना, मिथक चेतना, गीतिमयता और स्‍थानिकता के रंगों-ध्‍वनियों के साथ उनकी आवाज़ अपने लोगों के सुखों-दु:खों का प्रामाणिक दस्‍तावेज़ बनती गई. 31 वर्ष की उम्र में लोर्का न्‍यूयॉर्क गए और वहां के यांत्रिक यथार्थ और अश्‍वेतों की चिंतनीय दशा ने उनके निर्मल हृदय को झकझोर दिया. 'न्‍यूयॉर्क में कवि' संग्रह उनकी मृत्‍यु के चार वर्ष बाद प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी गहरी पक्षधरता और ऊर्जा उजागर हुई.

इस दौरान प्रकाशित उनके कविता संग्रहों और नाटकत्रयी 'ब्‍लड वेडिंग', 'येरमा' और 'हाउस ऑफ़ अल्‍बामा' (हिंदी में रघुवीर सहाय के अनुवाद में 'बिरजीस कदर का क़ुनबा' शीर्षक से प्रकाशित) ने उन्‍हें इस्‍पहानीभाषी इलाक़ों का लोकप्रियतम साहित्यिक सितारा बना दिया, जो यूरोप से लेकर लातिन अमरीका तक पसरे थे. अपने घुमंतू थिएटर दल 'ला बाराका' के तहत वे गांव-गांव जाकर नाटकों का मंचन करते. जनता के बीच कविता पाठ उन्‍हें सुहाता था. अपने बुलफ़ाइटर दोस्‍त इग्‍नेशियो सांचेज़ मैख़ीआस की मृत्‍यु पर उनके द्वारा लिखा गया विलाप आधुनिक विश्‍व कविता के श्रेष्‍ठ शोकगीतों (एलिजी) में गिना जाता है. इसी तरह वॉल्‍ट विटमैन और साल्‍वादोर डाली के लिए लिखे गए 'ओड' भी श्रेष्‍ठ संबोधन गीत हैं. 'जिप्‍सी बैलेड्स' की इस्‍पहानी लोकमानस में अपार लोकप्रियता तो असंदिग्‍ध है ही, जिसने 'जिप्‍सी लोर्का' का मिथक स्‍थापित कर दिया था.

लेकिन अपनी रचनात्‍मकता के चरम पर ही स्‍पेन में गृहयुद्ध छिड़ने का अकारण ख़ामियाज़ा लोर्का को भुगतना पड़ा. अगस्‍त, 1936 में ग्रानादा में प्रवेश करने पर फ़ासिस्‍ट फ़ालांज दल के जनरल फ्रांको के सैनिकों द्वारा लोर्का का अपहरण करते हुए उनकी गोली मारकर हत्‍या कर दी गई. लोर्का का क़सूर था रेडिकल जनतांत्रिक मूल्‍यों में आस्‍था और अंधे राष्‍ट्रवाद से नफ़रत. उनकी किताबें ग्रानादा के चौराहों पर सार्वजनिक रूप से जलाई गईं. आज भी यह पता नहीं चल सका है कि लोर्का की मृत देह कहां दफ़नाई गई है. उनकी नृशंस हत्‍या की विश्‍वभर में कड़ी निंदा की गई और इस घटना ने पाब्‍लो नेरूदा और अर्नेस्‍ट हेमिंग्‍वे जैसे लेखकों पर गहरा प्रभाव डाला. मात्र 38 वर्ष की उम्र में क़त्‍ल कर दिए लोर्का की गिनती उनके जीवनकाल में ही दुनिया के महानतम कवि-नाटककारों में होने लगी थी. आज भी उन्‍हें पढ़ना, उनके चहल-पहलभरे जीवन और दारुण अंत को याद करना अपने आपमें एक गहरा सार्थक मानवीय और सृजनात्‍मक अनुभव है.

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वो याद- जो उदास भले करे, पर कभी भी अकेला नहीं होने पाती
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चिनार के दरख्‍़त चुप हैं फ़ेदरीको...

(लोर्का के लिए)

तुम्‍हारी कविताओं की सरहद जहां तक पहुंचती है फ़ेदरीको
उतने ही बड़े साबित हुए हैं तुम्‍हारे पैर
ठहरे हुए और शोक में डूबे जूतों में दुबकी मौत
और काले गोश्‍त के कंधे को नंगे पैर लांघते
देहातियों के सूखे-दरारोंवाले चेहरों पर
लाल शराब की नशीली आंच की मानिंद फैल गए तुम
और तब्‍दील हो गए धरती की कड़वी और
हड्डियों तक छेद देने वाली आवाज़ में
तुम्‍हारा नाम एक परचम है फ़ेदरीको
गर्म-जवान ख़ून के धब्‍बों वाली
देहलीज़ पे लहराता एक परचम
जिस पे लिक्‍खा है- 'ला बाराका!'

तुम्‍हारे गीत औचक
गीली पत्तियों की तुर्श हवा में
कौंधते हैं
पानी की हर बूंद में
गितार के लोअर ऑक्‍तेव सरीखी
तुम्‍हारी आवाज़ को आंकने की
कोशिश करते हैं हम
देज़ी के फूलों, मधुमक्खियों, धूसर मोतियों
और खिड़कियों से तारों का परदा हटाकर
ताकते हैं सीसे के आकाश में
अस्थिपंजरों के जबड़ों से सोने के दांत खींचकर
निकालने वाले हत्‍यारों को तुम
ज़ब्‍त नहीं हुए थे फ़ेदरीको
समुद्र की सलवटों पर सेब की तरह उछलते
छठे चांद की परछाई में कान लगाकर
अब भी सुनते हैं हम
ठहाकों की शराब में डूबे
तुम्‍हारे जंगली बैलेड

तुम्‍हारा नाम लेकर पुकारने वाले
चिनार के दरख्‍़त उसी रोज़ से ख़ामोश हैं
जब विज्‍़नार में देहात की दीवार के क़रीब
उधड़ी रोशनियों की उड़ती चीलों के नीचे
तुम गिर पड़े थे एक कटे पेड़ की तरह
किसी अंदालूसी गीत की जिंदादिल गूंज
मेंदोलिन की उदास ख़ामोशी में गुम गई थी
इस्‍पहानी धरती की छाती चीरते
इस्‍पात के हलों ने ठिठकते हुए देखी थीं-
उखड़ी जड़ें नहीं, बल्कि मृत देहें
कड़वे शहद में लथपथ

और मैं, तुम्‍हारी आवाज़ का हरकारा
लिहाफ़ में छुपी तुम्‍हारी चिट्ठियों को
अपनी ज़बान के उजाले में लेकर आता रहा महीनों
सर्दियों की लंबी रातों में
और अक्‍सर मैंने चाहा है ख़ासी शिद्दत के साथ
एक चिट्ठी लिखना तुम्‍हारे नाम
लालच और ज़ुल्‍म की खिलाफ़त में गवाही जैसी
कविताओं और कठपु‍तलियों के हक़ में
31, आसेरा देल कासिनो, ग्रानादा की इबारत बांचते
मैं भटकता रहता अंधेरे में
सिएरा नेवादा के पहाड़ चुपचाप खड़े रहते
तुम्‍हारा कोई तयशुदा पता नहीं मिलता

और नीबू के फूलों की भाप में
ख़ामोश तैरते रहते वेलेनसियन खेत
गुलाबों की राख उड़ती रहती
तुम दुनिया की तमाम नदियों के पुलों को
अपने बड़े-बड़े नंगे पांवों से लांघते
समुद्री घास की नशीली गंध में
गुम हो जाते हो फ़ेदरीको

और अपनी बेचैन रूह के उसी बेमाप कुंए से
हमें आवाज़ देते रहते हो हरदम
जिससे संत थेरेसा ने अपना भीतरी किला गढ़ा था
जबकि हमारी बहरी और हत्‍यारी सदी
चाक़ू की चमकीली धार पर महज़
लड़खड़ाते खड़ीभर रह सकी है

(पेन्टिंग: युवा अमरीकी चित्रकार एमिली टारलेटन द्वारा फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविता पर आधारित पोर्ट्रेट)

Tuesday, August 18, 2009

आदमी को रहना होता है अपने जीवन के भीतर

येहूदा आमीखाई की यह कविता मेरी इज़राइली दोस्त दानीएला गीतातूश ने येरूशलम से आज ही भेजी है हिब्रू से अंग्रेज़ी में अनूदित कर के. और इत्तेफ़ाक यह है कि आज ही मैंने आमीखाई की प्रेम कविताओं पर यहां एक पोस्ट लगाई है. दानीएला से मेरी मुलाकात पिछले साल फ़ोर्ट कोचीन की पुरानी येहूदी बसासत मट्टनचेरी में हुई थी. येहूदा आमीखाई का जीवन और उसकी कविता ही हमारी बातचीत और उसके बाद की दोस्ती का आधार बने थे. दानीएला के मुताबिक यह कविता आमीखाई के जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हुई थी.



एक आदमी अपने जीवन में

पहला मन्दिर तोड़ा जाता है
और दूसरा मन्दिर तोड़ा जाता है
लेकिन आदमी को रहना होता है
अपने जीवन के भीतर.

यह ठीकठीक वैसा नहीं है
जैसा मुल्कों के साथ हुआ
जो यहां से चले गए उस जगह
निर्वासन में.

यह ठीकठीक वैसा नहीं है
जैसा हुआ पिता परमेश्वर के साथ
जो आराम से चढ़ गए
और भी महान ऊंचाइयों तलक.

एक आदमी अपने जीवन में
पुनर्जीवित करता है
अपने मृतकों को अपने पहले स्वप्न में
और दफ़नाता है उन्हें दूसरे एक आदमी अपने जीवन में

पहला मन्दिर तोड़ा जाता है
और दूसरा मन्दिर तोड़ा जाता है
लेकिन आदमी को रहना होता है
अपने जीवन के भीतर.

यह ठीकठीक वैसा नहीं है
जैसा मुल्कों के साथ हुआ
जो यहां से चले गए उस जगह
निर्वासन में.

यह ठीकठीक वैसा नहीं है
जैसा हुआ पिता परमेश्वर के साथ
जो आराम से चढ़ गए
और भी महान ऊंचाइयों तलक.

एक आदमी अपने जीवन में
पुनर्जीवित करता है
अपने मृतकों को अपने पहले स्वप्न में
और दफ़नाता है उन्हें दूसरे में.

(फ़ोटो: इज़राइल के एक ध्वस्त सिनागॉग के पत्थर)

गोल उम्मीदों का चांद लुढ़क रहा है बादलों के बीच



येहूदा आमीखाई का नाम कबाड़ख़ाने के पाठकों के लिए अपरिचित नहीं है. उनकी कई कविताएं यहां पहले भी प्रस्तुत की जा चुकी हैं. युद्ध और विस्थापन और इन से जुड़ी त्रासदियां येहूदा की कविता का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. पाठक 'बम का व्यास' शीर्षक कविता को अभी शायद न भूले हों और 'मेरे समय की अस्थाई कविता' को भी.

आमीखाई की प्रेम कविताएं अपनी ताज़गी और एक ठोस इरोटिसिज़्म की वजह से चमत्कृत करने से ज़्यादा हैरान करती हैं. प्रेम के बारे में बात करते हुए वे एक कविता में पहले भी साफ़ कर चुके हैं कि:

मेरे प्रेम भी नापे जाते हैं युद्धों से
मैं कह रहा हूं यह गुज़रा दूसरे विश्वयुद्ध के बाद
हम मिले थे छह दिनी युद्ध के एक दिन पहले
मैं कभी नहीं कहूंगा '४५-'४८ की शान्ति के पहले
या '५६-'५७ की शान्ति के दौरान


आज इसी मूड की कुछ कविताएं पढ़िये मेरे प्रियतम कवियों में शुमार येहूदा आमीखाई की :


एक स्त्री के लिए कविताएं

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तुम्हारा शरीर है सफ़ेद रेत
जिसके ऊपर बच्चे कभी नहीं खेले हैं
तुम्हारी आंखें दुःखभरी और सुन्दर हैं
जैसे स्कूली किताबों में फूलों के चित्र होते हैं

तुम्हारे बाल झूलते हैं
केन की वेदी के धुंए की तरह

मुझे अपने भाई की हत्या करनी है
मेरे भाई ने करनी है मेरी हत्या

२.

हम दोनों के साथ घटी बाइबिल की सारी गाथाएं
और चमत्कार
जब हम साथ थे

ईश्वर की शान्त ढलान पर
हम कुछ देर कर सके आराम

गर्भ ही हवा चली हमारे लिए हर जगह
हमारे पास समय था

३.

घुमक्कड़ों के घुमक्कड़पन जैसा दुखी है मेरा मन
मेरी आशाएं विधवा हैं
मेरे अवसरों का कभी विवाह नहीं होगा

हमारा प्यार एक अनाथालय में
पहने हुए है अनाथ बच्चों की पोशाकें

दीवार से टकरा कर रबर की गेंद
वापस आती है हाथों में

सूरज वापस नहीं आता
हम दोनों एक छलावा हैं

४.

सारी रात तुम्हारे ख़ाली जूते
तुम्हारे बिस्तर के बग़ल में चीख़ते रहे

तुम्हारा दायां हाथ तुम्हारे ख़्वाब से नीचे झूलता रहा
तुम्हारे बाल हवा की फटी हुई किताब में से
रात को पढ़ रहे थे

हिलते हुए परदे
विदेशी महाशक्तियों के राजदूत

५.

अगर तुम अपना कोट उतारोगी
तो मुझे दूना करना होगा अपना प्यार

अग्र तुम गोल, सफ़ेद हैट पहनोगी
मुझे उन्नत करना होगा अपना रक्त

जहां तुम प्यार करती हो
उस कमरे से सारा फ़र्नीचर हटाना होगा

सारे पेड, सारे पहाड़, सारे महासागर ...
बहुत संकरी है दुनिया

६.

ज़ंजीर से बंधा चांद
निश्शब्द रहता है बाहर

जैतून की शाखाओं में उलझा चांद
ख़ुद को मुक्त नहीं कर पाता

गोल उम्मीदों का चांद
लुढ़क रहा है बादलों के बीच

७.

जब तुम मुस्कराती हो
गंभीर विचार थक जाते हैं
रात भर तुम्हारी बग़ल में मूक खड़े रहते हैं पहाड़
रेत जाति है सुबह तुम्हारे साथ-साथ समुद्र-तट तक

जब तुम भली होती हो मेरे साथ
दुनिया के सारे भारी उद्योग ठप्प पड़ जाते हैं.

८.

घाटियां हैं पहाड़ों के पास
और मेरे पास विचार

वे फैलते जाते हैं वहां तक
जहां कोहरा है और कोई रास्ता नहीं

बन्दरगाह पर पीछे मस्तूल खड़े थे
मेरे पीछे ईश्वर की शुरुआत होती है
रस्सियों और सीढ़ियों के साथ
टोकरों और क्रेनों के साथ
चिरंतनता और अनंत के साथ

वसंत ने ढूंढा हमें
चारों ओर के पत्थर पहाड़ के बाटों जैसे हैं
जिनसे तौला जाता है हमारा प्रेम

तीखी घास सुबकी
उस अन्धेरे स्थान में जहां हम छिपा करते हैं
वसंत ने ढूंढा हमें.

(येहूदा की प्रेम कविताओं पर कबाड़ख़ाने में यह पोस्ट भी देखिए: प्रेम की स्मृतियां)

Monday, August 17, 2009

जब आपने कुछ खो दिया हो तो बेहतर है थक के चूर हो जाया जाए



आसा अर्ल कार्टर उर्फ़ फ़ॉर्रेस्ट कार्टर (सितम्बर ४, १९२५ - जून ७, १९७९) को उनकी पुस्तक 'एजूकेशन ऑफ़ द लिटल ट्री' के लिए जाना जाता है. यह किताब अमरीकी मूल के चेरोकी आदिवासी जीवन का एक प्रेरक संस्मरण है. १९९१ में यानी उनकी मृत्यु के बारह साल बाद यह किताब उस वर्ष अमरीका की फ़िक्शन और नॉन फ़िक्शन दोनों श्रेणियों में बेस्टसैलर लिस्ट में सबसे ऊपर रही और उसी साल इसे अमेरिकन बेस्टसैलर बुक ऑफ़ द ईयर का सम्मान भी हासिल हुआ. १९९७ में इसी शीर्षक से एक फ़िल्म भी बनाई गई थी.

यह किताब मुझ तक मेरे प्रिय पर्वतारोहॊ दोस्त कृष्णन कुट्टी के मार्फ़त पढ़ने को मिली थी. कृष्णन कुट्टी रानीखेत में रहते हैं और दुनिया की सबसे उत्कृष्ट पर्वतारोहण संस्थाओं में से एक NOLS यानी नेशनल आउटबाउन्ड लीडरशिप स्कूल, अमेरिका के भारतीय मुख्यालय का काम देखते हैं. पेरू और अर्जेन्टीना के घने जंगलों से अपने कैरियर की पहली ट्रेनिंग ले चुके कुट्टी हिमालय के चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ हैं और पचास पार हो चुकने के बावजूद हर साल एक नया ट्रैक खोजने के अभियान में निकला करते हैं.

कृष्णन कुट्टी


कुछ साल पहले जब मैं दारमा घाटी से सिन-ला दर्रे की तकरीबन बीस हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पार कर व्यांस और चौंदास घाटी जाने वाले कोई दो-माह लम्बे जानलेवा ट्रैक पर निकल रहा था तब रानीखेत में कुट्टी ने यह किताब मुझे थमाई थी और बताया था कि वे अपने पर्वतारोहण के अभियानों में इस किताब को हमेशा साथ रखते हैं और ट्रैक के दौरान रातों को दोस्तों के बीच इस का सस्वर पाठ किया जाता है.

किताब मैंने तब भी पढ़ी थी और तब से दो-चार बार और पढ़ चुका हूं. मुझे इस किताब ने भीतर तक उद्वेलित और आनन्दित किया है सो इधर इस के अनुवाद का वालंटरी काम उठा लिया है.

आज उसका पहला अध्याय पढ़िये:




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दादी कहा करती थीं कि जब भी तुम्हें कोई अच्छी चीज़ प्राप्त हो, तुम्हें पहला काम यह करना चाहिये कि जो भी मिले उस के साथ उसे साझा करो. यही तरीका है कि अच्छी चीज़ें वहां भी पहुंचेंगी जहां वे वरना नहीं पहुंच पातीं. जो कि सही बात है.
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१.

नन्हा पेड़


पापा के जाने के बाद मां एक साल बची रही. इस वजह से मैं अपने दादा-दादी के साथ रहने आया जब मैं पांच साल का था.

दादी बताती हैं कि इस बारे में अन्तिम संस्कार के बाद रिश्तेदारों ने काफ़ी बवाल मचाया था.

पहाड़ के हमारे झोपड़े के पिछवाड़े के अहाते में वे सारे झुंड बना कर आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि मुझे किस के साथ जाना चाहिए, साथ ही वे रंग किये हुए पलंग और मेज़-कुर्सियों का आपस में बंटवारा भी करते जा रहे थे.

दादाजी ने कुछ नहीं कहा था. भीड़ की सीमा से लगे वे बरामदे के एक छोर पर खड़े थे और दादी उनके पीछे. दादाजी आधे चेरोकी थे जबकि दादी विशुद्ध चेरोकी.

वे सारे लोगों से अलग खड़े नज़र आते थे; छः फ़ुट चार इंच लम्बे अपना बड़ा काला हैट और चमकीला काला सूट पहने जिसे केवल चर्च जाते समय या अन्तिम संस्कार में भाग लेने के लिए पहना जाता था. दादी की आंखें ज़मीन से लगी हुई थीं लेकिन भीड़ के ऊपर से दादा जी ने मुझे देखा और किसी तरह रास्ता बनाता मैं बरामदे के उस छोर तक पहूंच कर उनकी टांग से लग गया ताकि अगर वे मुझे दूर ले जाना भी चाहें तो मैं उनसे चिपका रह सकूं.

दादी बताती हैं कि मैं ज़रा सा भी नहीं चिल्लाया, न रोया, बस दादाजी की टांग थामे रहा; और रिश्तेदारों के मुझे खींचते जाने और मेरे दादाजी से चिपके रहने के काफ़ी देर बाद दादाजी ने अपना बड़ा हाथ मेरे सिर पर रखा.

"छोड़ो उसे," उन्होंने कहा था. और उन्होंने मुझे छोड़ दिया. दादाजी भीड़ में बहुत विरले बोला करते थे, लेकिन जब वे बोलते थे, दादी बताती थी, लोग सुना करते थे.

सर्दियों की अंधेरी दोपहर हम लोग पहाड़ से उतर कर नीचे शहर की तरफ़ जाने वाली सड़क पर पहुंचे. दादाजी सड़क के किनारे आगे आगे चल रहे थे, एक कट्टे में रखे मेरे कपड़े उनके कन्धे पर थे. मैंने उसी समय यह जान लिया था कि अगर आप दादाजी के पीछे चल रहे हों तो आपको तकरीबन भागना पड़ता है; मेरे पीछे दादी थी जिसे साथ बने रहने के लिए कभी कभार अपनी स्कर्ट थोड़ा सा उठा लेना पड़ती थी.

शहर पहुंचने के बाद भी हम उसी तरह चलते रहे. दादाजी आगे आगे थे जब तक कि हम बस अड्डे के पिछवाड़े नहीं पहुंच गए. हम वहां बहुत देर तक खड़े रहे; दादी आने जाने वाली बसों के सामने लिखे शब्दों को पढ़ रही थी. दादाजी कहते थे कि दादी किसी भी और पढ़े लिखे की तरह पढ़ सकती थी. गोधूलि उतरने को ही थी दादी ने हमारी बस ढूंढ ली जब वह ऐन हमारे सामने रुकी.

जब तक सारे लोग बस में चढ़ नहीं गए हम रुके रहे और यह अच्छा ही हुआ क्योंकि बस में हमारे पैर रखते ही तमाशा चालू हो गया. दादाजी आगे थे, मैं बीच में था जबकि दादी निचली सीढ़ी पर. दादाजी ने अपनी पतलून से पैसा देने के लिए बटुआ निकाला.

"तुम लोगों के टिकट कहां हैं?" बस-ड्राइवर के चिल्ला कर पूछा, और बस में बैठे हर किसी का ध्यान हम पर लग गया. इस से दादाजी को ज़रा भी परेशानी नहीं हुई. उन्होंने ड्राइवर से कहा कि वे पैसा दे तो रहे हैं, दादी ने उनसे फुसफुसाते हुए कहा कि ड्राइवर को बता तो दें कि हमें जाना कहां है. दादाजी ने उसे बता दिया.

ड्राइवर ने बताया कि कितना पैसा लगेगा; दादाजी ने सावधानी से बटुए से पैसा निकाल कर गिनना शुरू किया - क्योंकि गिनने के हिसाब से रोशनी तनिक कम थी - बस ड्राइवर ने भीड़ की तरफ़ मुड़कर अपना दायां हाथ उठा कर कहा "देखो!" और हंसा, तो सारे लोग भी हंसे. मुझे अच्छा लगा यह जानकर कि वे दोस्ताना लोग थे और इस बात से ज़रा भी नाराज़ नहीं हुए कि हमारे पास टिकट नहीं थे.

फिर हम बस के पीछे वाले हिस्से में पहुंचे, मैंने एक बीमार स्त्री को देखा. उसकी आखों के गिर्द असामान्य कालापन था जबकि उसका मुंह ख़ून से लाल पड़ा हुआ था; लेकिन जैसे ही हम उस के पास से गुज़रे उस ने अपने मुंह पर हाथ रख कर उसे साफ़ कर लिया और "वा ... हूऊऊ!" की बहुत तेज़ आवाज़ निकाली. लेकिन मुझे लगा कि उसकी तकलीफ़ बहुत जल्दी कम हो गई होगी क्योंकि वह हंसी और बाकी के लोग भी हंसे. उसके बगल में बैठा आदमी भी अपनी जांघों पर हाथ मारता हुआ हंस रहा था. उसकी टाई पर एक बड़ी और चमकीली पिन लगी हुई थी, सो मुझे पता चल गया कि वह एक रईस आदमी था और ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर की मदद ले सकने में समर्थ भी.

मैं दादी और दादाजी के बीच में बैठा, और मेरी गोदी से ले जाते हुए अपने हाथ से दादी ने दादाजी का हाथ थपथपाया. यह बहुत अच्छा लगा इसलिए मुझे नींद आ गई.

रात बहुत गहरा चुकी थी जब हम बस से कंकड़ों वाली सड़क पर उतरे. दादाजी ने चलना शुरू कर दिया, दादी और मैं पीछे-पीछे थे. कड़कड़ाती ठंड थी. आधे बड़े तरबुज़ की तरह चांद निकला हुआ था और आगे मोड़ पर गायब होने से पहले की सड़क चांदी की तरह दमक रही थी.

जब तक हम सड़क से बीच में घास उगे गाड़ियों के कच्चे रास्ते पर मुड़े नहीं थे मैंने पहाड़ों पर गौ़र नहीं किया था. वे वहां थे इतने ऊपर कि उन्हें देखने के लिए आपका सिर पीछे की तरफ़ मुड़ जाता था; आधा चांद उनके ऊपर चमक रहा था. मैं पहाड़ों का कालापन देख कर कांप गया.

मेरे पीछे से दादी ने आवाज़ दी, "वेल्स! बच्चा थक कर चूर हो रहा है." दादाजी रुके और पलटे. उन्होंने झुक कर मुझे देखा. उनका बड़ा हैट उनके चेहरे पर साया किये था.

"जब आपने कुछ खो दिया हो तो बेहतर है थक के चूर हो जाया जाए," उन्होंने कहा और चल पड़े, लेकिन अब उनके पीचे चलना आसान हो गया था. दादाजी धीमे हो गए थे और मुझे लगा कि वे भी थक चुके थे.

काफ़ी देर बाद हम लोग कच्चे रास्ते से पैदल मार्ग पर मुड़े और सीधे पहाड़ों की दिशा में चल पड़े. ऐसा लगता था कि पहाड़ हमारे ठीक सामने आ गए हैं पर जैसे जैसे हम चलते जाते थे, पहाड़ जैसे खुलते चले जाते थे और चरों तरफ़ से हमें अपनी आगोश में लेते जाते थे.

हमारे चलने की आवाज़ ने गूंजना शुरू कर दिया था. चारों तरफ़ से कुछ हिलने की आवाज़ें आने लगी थीं. पेड़ों के बीच से पंखों की तरह फुसफुसाहटें और आहें छन कर आती थीं मानो हर चीज़ जीवित हो उठी हो. थोड़ा गरमाहट थी. एक हल्की सी आवाज़ आई, कोई बुलबुला सा फूटा और सरसराने की आवाज़ आई - पहाड़ की एक शाखा चट्टानों से बहती हुई नीचे आ रही थी. वह जहां ठहरती थी एक तालाब सा बन जाता और तब वह नीचे को बह निकलती. हम लोग पहाड़ों की खोहों में थे.

आधा चांद पहाड़ियों के पीछे ग़ायब हो गया था और आसमान पर दूधिया रोशनी बिखरी हुई थी. इस से खोह पर एक सलेटी सी रोशनी पड़ने लगी थी जो हम पर प्रतिविम्बित हो रही थी.

पीछे से दादी ने एक गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया और मैं जानता था वह एक इन्डियन आदिवासी गीत था; उसके अर्थ जानने के लिए किसी भी तरह के शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. मुझे सुरक्षित महसूस हुआ.

एक शिकारी कुत्ता इतनी अचानक से रोने लगा कि मैं चौंक पड़ा. उसकी रुलाई लम्बी और शोकभरी थी - सुबकियों में टूटती हुई - कि उसकी प्रतिध्वनि और और दीर्घ होती हुई दूर दूर जाकर वापस पहाड़ों में लौट रही थी.

दादाजी धीमा सा मुस्कराते हुए बोले - "ये वही है ओल्ड मॉड - अब भी अपनी जाति के कुत्तों की सूंघने की ताकत नहीं मिल सकी है बिचारी को - अपने कानों पर ही भरोसा करती है."

एक मिनट के भीतर हमारे चारों तरफ़ शिकारी कुत्ते थे - दादाजी के गिर्द घूमते हुए, मेरी नई गंध को सूंघते हुए. ओल्ड मॉड फिर से रोई. "चोप्प मॉड!" यह सुनते ही वह जान गई कि कौन था और कूदती छलांगती हमारी तरफ़ आने लगी.

हमने एक लठ्ठा-पुल पार किया और हम केबिन के सामने थे. बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे बने लठ्ठों के इस केबिन के पीछे पहाड़ था और सामने एक बड़ा सा पोर्च.

केबिन में कमरों को अलग करने वाला दोनों तरफ़ से खुला हुआ एक बड़ा सा हॉल था. कुछ लोग इसे गलियारा कहा करते हैं पर पहाड़ों के लोग इसे 'डॉगट्रॉट' के नाम से जानते हैं क्योंकि शिकारी कुत्ते इस से हो कर गुज़रा करते हैं. एक तरफ़ एक बड़ा सा कमरा था जिसमें खाने-पकाने का काम किया जाता था. डॉगट्रॉट के दूसरी तरफ़ दो शयनकक्ष थे. एक में दादाजी-दादी रहते थे, दूसरे में मैं सोने वाला था.

मैं हिरन की मुलायम खाल से मढ़े दीवान पर लेट गया. खुली खिड़की से मैं भुतहा रोशनी में काले दिख रहे पेड़ों की टहनियों को देख रहा था. मां का ख्याल दौड़ता सा मुझ तक पहुंचा और अजनबी जगह पर होने की सनसनी भी.

एक हाथ मेरे सिर को सहलाने लगा. फ़र्श पर मेरे बग़ल में दादी बैठी हुई थी. उनकी घेरेदार स्कर्ट उनके चारों तरफ़ थी. लड़ियों वाले और चांदी की धारियां पड़े उनके बाल उनके कन्धों से होकर उनकी गोद पर पड़े हुए थे. उन्होंने भी खिड़की से बाहर देखना शुरू किया और मुलायम धीमी आवाज़ में गाना शुरू किया:

उन्हें मालूम है वह आ गया है
जंगल को और हवा को
पिता पहाड़ उसका स्वागत करते हैं गीतों से.
उन्हें ज़रा भी डर नहीं नन्हे पेड़ से
वे जानते हैं उसके दिल में है दया
और वे गाते हैं: "नहीं है अकेला छोटा पेड़,"

नन्ही ले-नाह नदी
अपने बोलते बहते पानी में
नाच रही है ख़ुशी में पहाड़ पर
"अरे सुनो न मेरा गीत
उस भाई का गीत जो हमारे साथ रहने आया है
छोटा पेड़ है हमारा भाई और यहां है अब वह छोटा पेड़."

छोटा हिरन आवी उस्दी
और मिन-ए-ली वो छोटी बटेर
और कागू कौव्वा नदी से उठा लेते हैं गीत को
" बहादुर है नन्हे पेड़ का दिल
और दया ही है उसकी ताकत
और कभी नहीं रहेगा अकेला नन्हा पेड़,"


धीरे-धीरे आगे-पीछे डोलती दादी गाती रहीं. और मैं हवा को बात करता सुन सकता था, और ले-नाह को और पेड़ की शाखा को - मेरे बारे में गाते हुए और मेरे भाइयों को मेरे बारे में बताते हुए.

मैं जानता था कि मैं था वह नन्हा पेड़, और मैं ख़ुश था कि वे सब मुझे चाहते थे और मुझे प्यार करते थे. और मैं सो गया, और मैं रोया नहीं.

(यह रहा फ़िल्म का ट्रेलर:)

The Education of Little Tree