Saturday, November 21, 2009

सिर्फ़ विपन्न विस्मयता ही हमारे खून में खेल रचाया करती है



व्यक्तिगत रूप से मेरा ठोस यकीन है कि जीवनानन्द दास बांग्ला कविता के शीर्षस्थ कवि हैं - किसी भी कालखण्ड के. ठाकुर रवीन्द्र से भी बड़े और सुकान्त भट्टाचार्य से भी. हालांकि उन्हें उनकी कविता ’वनलता सेन’ (बौनोलता शेन) के लिए सबसे अधिक ख्याति मिली पर उनकी अनेकानेक रचनाएं मुझे आज भी हैरत और उद्दाम प्रसन्नता से भर देती हैं.

उनकी एक कविता आज लगा रहा हूं. जल्द ही जीवनानन्द दास के जीवन और उनकी रचनाओं को लेकर एकाध पोस्ट लेकर हाज़िर होता हूं. इस ख़ास कविता का मेरे लिए बहुत बड़ा महत्व इस मायने में है कि घनघोर अवसाद के जब तब आने वाले समयों में इस रचना ने मुझे बचाया है.


एक दिन आठ साल पहले

जीवनानन्द दास
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सुना चीर फाड़ कर
ले गए हैं उसे,
कल फागुन की रात के अन्धेरे में
जब डूब चुका था पंचमी का चांद
तब मरने की उसे हुई थी साध,
पत्नी सोई थी पास - शिशु भी था,
प्रेम था - आस थी -
चांदनी में तब भी कौन सा भूत देख लिया था
कि टूट गई थी उसकी नींद?
इसी लिए चला आया चीर-फाड़ घर में नींद लेने अब!
पर क्या चाही थी उसने यही नींद!

महामारी में मरे चूहे की तरह
मुंह से ख़ून के थक्के उगलता, कन्धे सिकोड़े, छाती में अन्धेरा भरे
सोया है इस बार कि फिर नहीं जागेगा कभी एक भी बार.
जानने की गहरी पीड़ा
लगातार ढोता रहा जो भार
उसे बताने के लिए
जागेगा नहीं एक भी बार
यही कहा उसे -
चांद डूबने पर अद्भुत अन्धेरे में
उसके झरोखे पर
ऊंट की गरदन जैसी
किसी निस्तब्धता ने आकर.
उसके बाद भी जागा हुआ है उल्लू.
भीगा पथराया मेंढक उष्ण अनुराग की कामना से
प्रभात के लिए दो पल की भीख मांग रहा है.

सुन रहा हूं बेरहम मच्छरदानी के चारों ओर
भिनभिनाते मच्छर अन्धेरे में
संग्राम करते जीवित हैं -
जीवन स्रोत को प्यार करके.

ख़ून और गन्दगी पर बैठकर धूप में उड़ जाती है मक्खी,
सुनहली धूप की लहर में कीड़ों का खेल
जाने कितनी कितनी बार देख चुका हूं.
सघन आकाश या किसी विकीर्ण जीवन ने
बांध रखा है इनका जीवन,
शैतान बच्चे के हाथ में पतंगे की तेज़ सिहरन
मरण से लड़ रहा है,
चांद छिपने पर गहरे अंधेरे में
हाथ में रस्सी लेकर अकेले गए थे तुम अश्वत्थ के पास
यह सोचकर कि मनुष्यों के साथ में
कीड़े और पक्षी को जीवन नहीं मिलेगा!

अश्वत्थ की शाख ने
नहीं किया प्रतिवाद? क्या जुगनुओं के झुण्ड ने आकर
नहीं किया सुनहले-फूलों का स्निग्ध झिलमिल?

थुरथुरे अन्धे घुग्घू ने आकर
क्या नहीं कहा - "बूढ़ा चांद बाढ़ में बह गया क्या?
बहुत अच्छा!
अब दबोच लूं एक दो चूहे."
बांचा नहीं घुग्घू ने आकर यह प्रमुख समाचार?
जीवन का यह स्वाद - पके जौ की गन्ध सनी
हेमन्त की शाम -
असह्य लगी तुम्हें
तभी चले आए हो ठण्डे घर में कुचल कर मरे चूहे के रूप में.

सुनो तब भी इस मॄतक की कहानी -
यह किसी नारी के प्रेम का चक्कर नहीं था
विवाहित जीवन की चाह थी
ठीक समय पर एक जीवनसंगिनी
ख़ुद ही आ गई.

ग्लानि से हड्डी टूट जाए या दुख से मर जाए
ऐसा कुछ नहीं था उसके जीवन में
जो चीर-फाड़ घर में
तखत पर चित
आ लेटता.

इन सबके बाद भी, जानता हूं
नारी का हृदय, प्रेम, शिशु, घर ही सब कुछ नहीं है
धन नहीं, मान नहीं, सदाचार ही नहीं
सिर्फ़ विपन्न विस्मयता ही हमारे
खून में खेल रचाया करती है,
क्लान्ति हमें थकाती है,
लेकिन क्लान्ति वहां नहीं है
इसलिए लाशघर की
मेज़ पर चित सोया है.
तब भी रोज़ रात को देखता हूं
आहा ...
अश्वत्थ की डाल पर थरथर कांपता अन्धा घुग्घू -

आंख पलटाए कहता है -
"बूढ़ा चांद! बाढ़ में बह गया क्या?
बहुत अच्छा!
अब दबोच लूं एक दो चूहे."

हे आत्मीय पितामह आज करो चमत्कार
मैं भी तुम्हारी तरह बूढ़ा हो पाऊं
और इस बूढ़े चांद को
पहुंचाऊं कालीदह की बाढ़ के पार ...

हम दोनों मिलकर शून्य कर जाएंगे जीवन का प्रचुर भंडार.

(यह अनुवाद समीर वरण नन्दी का है. अलबत्ता मैं यहां हिन्दी के वरिष्ठ कवि प्रयाग शुक्ल द्वारा किया गया अनुवाद लगाना चाहता था पर अपनी किताबें खंगाल चुकने पर मुझे अहसास हुआ कि किन्ही सज्जन को जीवनानन्द दास पर ज्ञानपीठ द्वारा छापा गया वह छोटा सा मोनोग्राफ़ ज़्यादा पसन्द आ गया होगा.)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

@"किन्ही सज्जन को जीवनानन्द दास पर ज्ञानपीठ द्वारा छापा गया वह छोटा सा मोनोग्राफ़ ज़्यादा पसन्द आ गया होगा." Bali..bali ...balihaari !