Friday, March 9, 2018

एक नहीं बचता तो कोई बच नहीं सकता

भागते हैं
- नवीन सागर

हमसे कुचल कर कोई
हिलते-भागते दृश्‍य में पीछे
छूट जाता है
हम जान छोड़कर भागते हैं

जो लोग भागने की कठोरता को
देख रहे हैं
जो अपमानित हैं
जिन्‍हें गुस्‍सा आता है
और जिन्‍हें हम भाषा की किसी दरार में
धकेल सकते हैं

बिना तर्क इस तरह अचानक
चले जाते हैं
कंधों पर बंदूकें टांगे
और मारे जाते हैं

खबर पढ़ी जब
भय हुआ कि वे मारे जा रहे हैं
वे मारेंगे

कहो यह बच्‍चा जो अभी सोया है
मां के पास
वहां रहे जहां हमें रहना नहीं पड़ा
और हम बचे रहे

हमने समझा हम बच गए हैं
भूल गए कि अगर एक नहीं बचता

तो कोई बच नहीं सकता

Thursday, March 8, 2018

यह दस्‍तक हत्‍यारे की है

मेरी दस्तक
- नवीन सागर

यह दस्‍तक हत्‍यारे की है
दूर किसी घर में उठी चीखों के बाद.

हर तरफ दम साधे
घरों के निहत्‍थे सन्‍नाटे भर हैं
हुआ क्‍या आखिर
कि चीखों के इस संसार में हर कोई अकेला
ऐसा जीना और ऐसा मारना!
इस तरह कि एकदम बेमतलब!

पाप के इतने चेहरे
ईश्‍वर का कोई चेहरा नहीं
बचाने वाले से बड़ा
मारने वाला आया!

एक बच्‍चा लातों की मार से
अपने मैल और कीचड़ में
मरता है रोज.
बेघर करोड़ों
सड़कों पर करते हैं कूच
कटोरे पर माथा पटकते मरते हैं बेपनाह.

ऐसे में मतलब क्‍या है मेरे जीवन का!
अगर मैं सांकल चढ़ाए बाहर को पीठ किए
भीतर को धंसता ही जाता हूं.
मतलब है क्‍या मेरे जीवन का!

मैं दरवाजा खोलता हूं
कि लड़ते-लड़ते नहीं दरवाजा खोलते-खोलते
मारा गया

बाहर पर कोई नहीं हथियार बंद कोई
बचा रह गया मैं
मौत के मुंह से लौटकर
जीवन के बंद दरवाजे पर

मेरी दस्‍तक!

यह दस्‍तक हत्‍यारे की है.

Wednesday, March 7, 2018

एक परछाई बची है पूरे नाटक के बाद

असम्भव शहर में रात
- नवीन सागर

मैं रुक गया देखने
आखिर कौन है
मैंने देखा अभी रूकना उसका
अपने पास
अभी वह परछाई के भीतर
दिख नहीं रहा है
उसे देखने जाता हूं अचानक उसके भीतर
तो दिख नहीं रहा हूं मैं.

एक परछाई बची है
पूरे नाटक के बाद
थिएटर बंद है उसके बाहर
असंभव शहर में रात

घण्‍टों की तरह बज रही है.

इस तरह रोज तुम्‍हारे सपनों का घर खड़ा किया

अत्र कुशलम तत्रास्तु
- नवीन सागर

सितारे जब अकेले
छूट जाते हैं आसमान के साथ दूर
बत्तियॉं बुझी होती हैं
और दिन भर की नींद हमारी
टूटती है बिस्‍तरों पर
तो अंधेरे में चुपचाप लगता है मुझे
न जाने कौन लेटी हो तुम!

क्‍योंकर
बंद दरवाजे के आर-पार रह गए
एक दूसरे में मर कर
मृत्‍यु के इस पार!

चिट्ठी लिख रहे हैं
मॉं! अत्र कुशलम् तत्रास्‍तु.

एक आदमी घर आता
घर से चला जाता है
वह रह जाती है अकेली
चीजों के बीच जिनमें
उसकी कीमत लिखी है

भीतर से कोई
दस्‍तक दे रहा है बाहर कोई
खड़ा है दस्‍तक दिए
दरवाजा
खुला पड़ा है.

घर गिरा
सुबह से पहले मैंने मलबे का घर
खड़ा किया
मां! इस तरह रोज मैंने

तुम्‍हारे सपनों का घर खड़ा किया.

Tuesday, March 6, 2018

एक हरा-भरा फुटबॉल का मैदान अब एक जुआघर है


ओह अगरतला 
-कृष्ण कल्पित

1.

एक वंचित राजकुमार के गाँव का नाम है अगरतला

सचिन देब बर्मन भाग गया
पहले कलकत्ता फिर बम्बई
सारे मछुआरे चले गये उसके साथ
सारा संगीत
संगे-मरमर से बने हुये
वे सुचिक्कन श्वेत राज-महल
जलाशयों से और आदिवासियों की झोपड़ियों से घिरे हुये

बोडतल्ला (चोर) बाज़ार का नाम है अगरतला के जहाँ त्रिपुरा के मुख्यमंत्री नृपेन चक्रबर्ती सुबह-सुबह रिक्शा में बैठकर मछली ख़रीदने और बाज़ार करने आते थे कोई भूमि-सुधार नहीं, ईमानदारी ही ख्याति रही उनकी अंत तक
1997 में गया था मैं अगरतला और जब 1999 में लौटा तो माणिक सरकार वहाँ का मुख्यमंत्री था

कितना पानी बह गया हाबड़ा नदी में
जो अगरतला को काटती है
जिस पर एक पुल है
जिसमें हर रोज़ कोई लाश मिलती थी 1998 में
त्रिपुरा आतंक से ढकी हुई घाटी का नाम है
जिसकी राजधानी अगरतला है

त्रिपुरा के राजा ने पहचानी थी
किशोर रवींद्र की प्रतिभा
दिया था वज़ीफ़ा विदेश-यात्रा का

97 में साइकिल पर चल कर आता था माणिक सरकार दूरदर्शन के दफ़्तर वहीं केंटीन में खा लेता था खाना जिसे शायद वह सिगरेट पीने के लिये खाता होगा उसकी सरलता, सादगी, ईमानदारी के किस्से जनमानस में आज तक प्रसिद्ध हैं लेकिन उससे कोई नहीं पूछता कि तुमने 20 बरसों में क्या किया वही तस्करी, वही आतंक, वही हत्यायें, वही दमन, वही ग़रीबी क्या किया तुमने

तुम्हारे सामने कोकबरोक जैसी ज़िंदा ज़बान को ख़ामोश किया जाता रहा

प्रिय माणक सरकार,
लो सिगरेट पिओ और मेरी बात सुनो कॉमरेड,
मुख्यमंत्री मदर टेरेसा नहीं होता

ओह, वे कूपियों की झिल-मिल रोशनी से चमकते बाज़ार
वे तड़पती हुई मछलियाँ

आज 20 बरस बाद याद आया अगरतला
जो कभी अगर के अनगिनत वृक्षों से घिरा हुआ था
जिसकी धूम से कभी समूचा आर्यावृत धूमायित रहता था !

2.

अगरतला अब एक टूटी हुई बाँसुरी है

एक हरा-भरा फुटबॉल का मैदान
अब एक जुआघर है

उजड़ा हुआ एक चाय-बाग़ान

नाथ-पंथियों की प्राचीन रमण-स्थली
हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला

उड़ीसा और बंगाल से पहले
यह ताबूत की अनन्तिम कील है

जिस विजन-पथ से चोरी-छुपे तुम आती थी मिलने
त्रिपुर-सुंदरी,
वह अब लुटेरों की राह है !

3.

रेलगाड़ी पहुँची अगरतला
मेरे लौट आने के बाद

ढाका और अगरतला के बीच जो चलती थी
वह बस बन्द हो गयी होगी

चोर बाज़ार के नुक्कड़ पर बिकता
वह ज़हीन गाँजा
और सौ-सौ रुपये में बिकती
बांग्लादेश से तस्करी के जरिये आई सूती कमीज़ें

मंदिरों में नहीं
इलेक्शन-बूथों के सामने औरतों की अति लंबी कतारें

नदियों को और सुंदर बनाती हुईं नावें
ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार

जिस साल मैं लौटकर आया त्रिपुरा से
उस समय अगरतला में एक सोनमछरी पैदा हुई थी

बाँस और बाँसुरियों के देश में

अनन्नास अब तक रस से भर गये होंगे !

Monday, March 5, 2018

ठीक यहीं था जो अभी इस अंधेरे में

तमाम दिनों की तरह
- नवीन सागर

चोंच से गिरा हुआ दाना
आज मुझ से कुचल गया
चींटियों की एक कतार पर चलता रहा मैं आज
अपाहिज से टकराया
धरती पर थाप देती छोटे से बच्‍चे की हथेली पर
मेरा पॉंव पड़ गया.

किसी का आना देख
मेरे दरवाजे बंद हो गए

मैं आज कोई अजनबी नहीं था
ठीक यहीं था जो अभी इस अंधेरे में
सिगरेट की चिनगी के पास.

मेरी जिंदगी का यह एक दिन
मेरे तमाम दिनों की तरह है
और मैं इसी तरह रोज
जागता हुआ रात में सोचता हूं कि
मेरी जिंदगी का यह एक दिन

मेरे तमाम दिनों की तरह है.

संसार की दरारों से देखते हैं पुरखे

संसार की दरारों से
- नवीन सागर

इतने बजे का आकाश
इतने सालों से नहीं देखा
आए
सड़कों के जाले मे घूमते-घूमते
लड़खड़ाए
और कहीं भी गिर पड़े.

उठने का समय हुआ
दु-स्‍वप्‍न
अंधकार सा लिपटा चला
चेहरा झर गया
इतने सालों के आईने में

पीली मद्धिम रोशनी में
धुएं और विदाई की धुंध है
बहुत बड़े नरक का शोर
आवाज के भीतर
पछाड़े मारता है जब हम
विश्‍वास दिलाते हैं
और थपथपाते हैं हाथ

संसार की दरारों से
देखते हैं पुरखे
कि चित्रकार
भुरभुरे कैनवस में धसकता

अपना चित्र देखता हो.

Sunday, March 4, 2018

फोटू में गांधी है और बाजार ही बाजार है

प्यार करते हैं
- नवीन सागर

लालच और नफरत की आंधी है
फोटू में गांधी है
और बाजार ही बाजार है.

ऐसे में वह दिन आता है
जब युद्ध जरूरी हो जाता है
नजरें बचाते हुए
कहते हैं युद्ध अब जरूरी है.

वह दिन आता है
जब एक जड़ इबारत
भावनाओं की जगह उमड़ती है
और घेर लेती है
जब एक निनादित नाम
और सामूहिक अहंकार होता है.

जब अच्‍छाइयां
बिना लड़े हारती हैं
जब कोई किसी को कुचलता
चला जाता है
और कोई ध्‍यान नहीं देता
तब एक दिन आता है
जब सेना के मार्च का इंतजार करते हैं
बत्तियां बुझा लेते हैं

और कहते हैं प्‍यार करते हैं.