Friday, November 30, 2012

एक अरसे से - किशोर चौधरी की कहानी – १



किशोर चौधरी के सद्यःप्रकाशित संग्रह 'चौराहे पर सीढियां' से एक कहानी. इस कहानी की प्रस्तावना के बतौर किशोर चौधरी ने कबाड़खाने के लिए यह एक्सक्लूसिव टिप्पणी भेजी है –

जीवन एक दीर्ध स्वप्न है. अनिश्चित आवृति में टकराती हुई स्मृतियों से बना हुआ स्वप्न. एक बड़े वाला गोल कंचा है, इसके साथ वाले खो गए कंचों की छुअन से भरा हुआ. इसके भीतर भरे हुये पानी की जटिल संरचना के पार देखते हुये रंगों के बिम्ब से सजे अनगढ़ दृश्यों की कामना सरीखा जीवन साथ चलता रहता है. अंधेरे और उजाले के बीच का समय चीज़ों को जिस नए अर्थ से परिभाषित करता है, उसी के सम्मोहन में खोया हुआ. एक बचपन है, जो अपने ही कक्षा के घूर्णन में लगा है. वह समय की छीजत से उम्र को बुन रहा है लेकिन प्रेम के गोदनों का रंग और चुभन गहरी है. एक अबोलापन है, उसी से बनी हुई उदास तस्वीर के व्यापक वितान पर आर्द्र और हठी स्मृतियों का समुच्चय है. यहाँ प्रेम, अभिमन्यु के विपरीत घेरे के भीतर ही लड़ते जाने वाले योद्धा के रूप में है जो कभी बाहर नहीं आना चाहता है. अनेक कुंडलियों के फरेब में एक आदमी है, आग जैसी एक उम्मीद है. जीवन, एक स्त्री के बाजूबंद में बंधी हुई आग है. इसी में प्रेम की पूर्णता है कि वह खोकर और अधिक हृदयस्पर्शी होता जाता है.

कहानी प्रस्तुत है-

एक अरसे से -

जहाँ भी जाताउसे लगता कि मैं यहाँ पहले भी आया हूँ. वह चंद किताबें पढ़ कर पगला गया था. वह सारे दोष किताबों के सर मढ़ कर सो जाना चाहता. किताबों में लिखा था कि पहलू बदल बदल कर सोनामोर पंखों को चुनते हुए उदास रहनामुसाफ़िरखानों में बेवजह बैठनानए दरख्तों की भीनी छाँव को ओढ़नापराई औरतों को एकटुक देखना और ओक से पानी पीते हुए गुलाबी गर्दनों में नीली नसों को चूम लेने की ख्वाहिश रखना अपराध है. तुझे दोज़ख मिलेगा.

उसे एक सुस्त ठहरा हुआ शहर याद आता. पेंटिंग के लिए टंगे हुए केनवास पर जैसे बहुत सारा खाली छूटा हुआ हो. एक लंबा रास्ता जो कहीं खत्म होता हुआ दिखने की जगह विलोप होता हुआ जान पड़े.  एक - दो मुसाफ़िरकोई भूल से गुज़रा तिपहिये वाला या फिर किसी सूखे हुए से दरख़्त की छाँव में बैठा हुआ कोई साया. वह अक्सर छत की मुंडेर पर बैठे हुए पश्चिम को तकते हुए शाम बुझा देता था. कभी तय करता कि आज वह डूबते हुए सूरज को आँखों से ओझल होने तक देखेगा मगर कोई ख़याल आता और उसे अपने साथ लेकर चला जाता था.

माँ कहती थी. ऐसे शाम होने के वक़्त अकेले चुपचाप नहीं बैठना चाहिए. वह प्यार से बुला कर ले जाती. माँ की आँखों में एक डर करवट लेने लगता था. ऐसे अकेले बैठा रहना उदास करता होगा नया उदास होने की वजह से वह अकेला बैठा रहता है. ये दोनों बातें बिलकुल गलत थी. वह किसी सूरत उदास न था.  बस उसे अच्छा लगता था इस तरह सूरज को डूबते हुए देखना और साँझ के झुटपुटे का इंतज़ार करना.

चलते-चलते जिस वक्त रास्ता मुड़ जाता है. अपना ही अक्स कहीं खो जाता हैवही  दोज़ख है. उसी पल बीते लम्हे का वुजूद खोने लगता है. विस्मृत होती गंध हवाओं में बिखर जाती है. स्पर्श के छींटें आहिस्ता से छूटते जाते हैं. सुबहखिली नई कोंपलों को बेसबब देखते हुए किसी को सोचते हैं मगर कोई सूरत ओस के मोतियों से बन कर नहीं खिलती. याद के धुंधले चश्मों पर आलिंगनों की केंचुलियाँसमय की कतरनों को चूमती हुई चमकती रहती है.

ज़िन्दगी की बसावट की भूल भुलैया में रची बसी चीज़ें क्षण भर के लिए सामने होती हैं लेकिन फिर खो जाती हैं. उसके यादखाने में कुछ बहुत साफ़ साफ बसा था. मोहल्ले की तीसरी गली के आखिरी घर में रहने वाले अंग्रेजी के माड़साब भी.  उनके घर के आगे शहर खत्म हो जाता था. एक खुला मैदान शुरू होता और फिर दूर दूर बने हुए कुछ घर थे. उन घरों को देख कर आभास होता था कि यहाँ से कोई गाँव शुरू होता है. अंग्रेजी के माड़साब लंबे और दुबले थे. वे घर के बाहर सिर्फ शाम को ही दिखाई देते थे. उनके बारे में मोहल्ले की औरतों का कहना था कि वे दुपहरी के बाद और शाम होने के बीच वाले वक़्त में खाना बना लिया करते थे.
कुछ ज्यादा सिकी हुई रोटियों की गंध ही उनके खाना बना लिए जाने का संकेत था. यह गंध एक तरह से माड़साब की उपस्थिति को भी बुना करती थी. बंद कमरे पर पड़ा हुआ एक काले रंग का ताला या फिर दरवाज़े के आगे बिखरे हुए एक चुल्लू भर पानी के सिवा माड़साब के पास क्या थाये किसी को मालूम न था. उनके जीवन के बारे में कोई एक राय न थी. कुछ का कहना था कि उन्हें एक लड़की से प्रेम हो गया था और उससे शादी न हो सकी इसलिए अकेले रहते हैं. कई लोगों का ख़याल था कि पत्नी है लेकिन गांव में रहती है. जिस बात पर लोगों को सबसे अधिक यकीन थावो यह बात थी कि बहुत अधिक शराब पीने के कारण पत्नी छोड़ कर चली गयी थी.

लेकिन इन सब बातों के बीच उसे लगता था कि अंग्रेजी के माड़साब को शाम से प्रेम हो गया था. दुनिया में शाम से अधिक सम्मोहक चीज़ कोई नहीं है. दर्द और प्रेम से भीगी हुईबिछड़ने का गाढा रंग लिएइंतज़ार की पोटली जैसा कुछ सर पर उठाये हुएआती हुई शाम.

पिताजी ने जो घर बनाया वह हमेशा चुप्पियों से गूंजता रहता था. इस घर में जाते हुए मौसम कुछ करवटें छोड़ गए थे.  वे करवटें दीवारों से टकराती हुई आँगन में फिरती रहती थी. लोग कहते थे कि बड़ी गलती कीदरवाज़े के ठीक सामने दरवाज़ा बनाया. भागघर के पार हो जायेगा. सौभाग्य को क़ैद करने के लिए जरुरी था कि आर पार दरवाज़े न हों. इस घर में खिड़कियों के सामने खिड़कियाँ थीदरवाज़ों के सामने दरवाज़े थे. कई बार लगता था कि घर बनाने वाला ख़ुद को मुसाफ़िर ही समझता रहा होगा. उसने घड़ी भर की छांव के लिए इस घर को बनाया होगा. आँगन में चिड़ियाएँ उडती ही आती और उड़ती चली जाया करती थी.  जाने किसके भाग का चुग्गा होता था और जाने कौन चुगता फिरता था. सब तरह से अपशकुनी निर्माण के बाद भी इस घर में आशाएं नर्म फरों सी नाज़ुक और आसमान से अधिक चौड़ी थी कि जिस सुबह घर की नीव में पहले पत्थर के नीचे दूब रखी थी तब सही सलामत रही थीजनेऊ.

घड़ी की सुइयां घूमती रही और उसकी शक्ल बदलती गई लेकिन स्मृतियों का लोप नहीं हुआ था. इन स्मृतियों से बाहर आने की छटपटाहट से जो छींटे उछलते उनमे कुछ एक घरकुछ गलियां और रहस्य भरी उदास शामों की धड़कनें बसी हुई थी.

उन सालों में खपरैलों के उड़ जाने जितनी आंधियां नहीं आया करती थी. जितने भी साल बीत गए थेवे सब बेहतर थे. उन सालों की फितरत में सुकून थाअपनापन था और एक ख़ामोशी थी. आज कल जाने क्यों लगता है कि कुदरत बेचैन है.  आंधियां चलने लगती हैतो डर लगने लगता है. आहटें हमेशा खौफ़ का ही साया बुनती हैं. हर पल लगता है कि निकट ही कुछ अनिष्ट मंडरा रहा है. आज बड़ा अबूझ है. अगले पल जाने क्या हो?

जाने कितने ही साल पुरानी पुरानी बात है मगर हर चौमासे के आस पास के दिनों में एक केसरिया झोली वाला फ़कीर आया करता था. एक कटोरी आटे के बदले बसे रहने की दुआ देता. बरसात से पहले के एक छोटे से दिन ड्योढ़ी के आगे छीण पत्थरों से बनी हथाई पर बैठे हुये, उस छोटी काठी वाले बाबा ने ज़रा सी देर के लिए आँखें बंद की. अपने झोले से गिल्टी का एक कटोरा निकाल कर आगे बढाया. "बेटा पानी..." मंगते आते थे लेकिन कोई इतने अधिकार से नहीं बैठता था. उसके माथे के तेज़ से सब खिंचे चले आते.

मोहल्ले की औरतों को यकीन था कि ये बाबा सच्चा है. इसे जरूर दुनिया-जहान की बातें पता हैं. सिर के पल्लू को आहिस्ता सरकाते हुए भविष्य के गर्भ में छुपे हुए सुखों की टोह मेंवे गोल घेरे में चुप खड़ी हो गयी. किनारों पर सलवटों से सजी आँखों से देखते हुए सफ़ेद दाढ़ी वाले बाबा ने कहा- "बेटाकैसे भी कटो ज़िन्दगी कट ही जाएगी." औरतों ने सुख की सांस ली. अपने हाथों के बीच सर पर रखे ओढने के पल्लू को पकड़ा और उन्हें आपस में जोड़ कर अभिवादन किया.

उन औरतों ने घर के कोनों में जाने कितने अहसासों को दबा छुपा रखा था. वे ऐसी धरोहर थी जिनको किसी खास समय, खास व्यक्ति के सामने नितांत गहरे एकांत में ही बांटा जा सकता होगा. जैसे किसी लम्हे में तन्हाई से उपजी कोई पीड़ाकिसी चाहना को मार दिए जाने का दुःख या फिर पहाड़ जैसी लंबी चौड़ी काली रातों का डर. लेकिन वास्तव में ये किसी को मालूम न था कि वे दबी छुपी हुई चीज़ें क्या हैं. हर औरत एक दूसरे को खोल कर पढ़ लेना चाहती थी. उन सबकी एकलौती ख्वाहिश थी कि घर के भीतरखाने में दबी हुई बातों को पढ़ लिया जाये. लेकिन सब औरतें आपस में आँख के इशारे या हल्की मुस्कान से सारे सवालों को चित्त कर दिया करती.

केसरिया झोली वाला बाबा जब आया तब तक झाड़ू बुहारी के साथ सुबह चली गई थी. एक अलसाई हुए दोपहर छपरे के नीचे सो जाने को बाट जोह रही थी. बाबा ने कटोरे में बचे पानी को सर पर बंधी पगड़ी पर डाला और उठते हुए चार घरों से आई पांच औरतों को कहा "मेरे बच्चों जब भी दुःख आयेमन उदास हो और पंछी समय से पहले लौटने लगे तो अपनी रसोई की आग के पास बैठना. उसे तवे से ढकना और गहरे मन से इस आँगन के पंछियों को बुलाना. सब सही सलामत लौट आयेंगे, कुदरत कृपा करेगी..." आशीष सुन कर औरतें कर्ज़दार हो गई थी. वे झुक कर अभिवादन करते हुए कुछ उपकार इसी समय चुका देना चाहती थी.
चाची हाथ पकड़ कर उसको खींच लाई. "इसको कुछ कहो बाबा..."

बाबा ने उसके सर पर हाथ फेरा. बाबा का हाथ एक दम लड्डू जैसा गोल मटोल था.

चाची ने बोलने में जल्दबाज़ औरत की तरह अपनी सारी बातें इस तरह फैंकनी शुरू की जैसे ज़रा सी देर में बाबा देवलोक होने वाले हैं और इससे पहले सही रास्ता पूछ लिया जाये. “बाबा ये किसी से बोलता नहीं है. शाम भर छत की मुंडेर पर बैठा हुआ पश्चिम की ओर देखता रहता है.” चाची ने हड़बड़ी में कहती गयी. "बाबा कुछ बताओ इसके बारे मेंकुछ इसको अपना आशीर्वाद दो...

बाबा ने फिर सर पर हाथ फेरा. "एक जगह छलकता हुआ कुआं देखा थाबेटी उसमें से पानी आप बाहर को उछलता था... कुदरत... कुदरत"

इसके बाद बाबा के जाते कदमों की आवाज़ नहीं सुनाई दी. औरतें अपने-अपने रहस्य का भविष्य बूझे बिना ही वापस लौटने लगी. गली में एक सन्नाटा फिर से गहराने लगा. उसने अंदाज़ लगाया कि घर पहुँचते ही सब औरतें बरसों से छिपा कर रखे हुए अहसासों के सबसे करीब होंगी. वे उन अहसासों से बहुत सारी बातें करेंगी. बाबा चला गया और समय की एक फांक नियम से कट कर एक तरफ गिर गई.

एक ज़िद में सब छूटता गया.

ज़िन्दगी को उसी के सलीके पर छोड़ देने का विचार उसका नहीं था लेकिन हर बार उसके चाहे से कुछ हुआ नहीं. उसने सींची हुई सिसकियों के साथ सब कुछ अपना लिया था. वह कभी अकेला घूमता हुआ दूर निकल जाता था. सूने रस्तों के पार दूर कहीं गाते हुए लोग खेती काटते थे. उन बीजों की ढेरियाँ बनतीगाड़ियों में लादे जाते फिर बोलियाँ लगती और वे एक दिन काम आ जाते. उसने खुद को परिवार का बीज माना और मुलाजिम हो गया. वह एक घर बना लेना चाहता था.  लेकिन घर के नक़्शे में कुछ एक पुराने घर आकर बैठ जाते.

अंग्रेजी वाले माड़साब के घर से तीन घर इधर एक और घर था. बाहर छोटी सी कच्ची दीवार. तन्हा बनी हुई रसोई और उसके आगे थोड़ा दूर बने हुए दो कमरे.  उस घर में एक औरत रात भर सिसकियाँ भरा करती थी. इस आदत के कारण मोहल्ला उससे खफ़ा रहता था. साल भर में एक बार आने वाली उस औरत के आने और जाने का समय तय रहता था. गर्मियों की छुट्टियों के शुरू होने के तीसरे दिन आती और छुट्टियों के खत्म होने के ठीक सात दिन पहले किसी तिपहिया में अपनी दो लड़कियों के साथ वापस जाती हुई दिख जाया करती थी.
साल भर सूना पड़ा रहने वाला घर एक महीने के लिए खुलता और वह भी लोगों की आशंकाओं के साथ कि कुछ बहुत अशुभ होने वाला है. जैसे चाची और माँ डरती थी कि ये लड़का शाम को डूबते हुए देखता है. वैसे ही उस औरत के साल डूबते जा रहे थे. हर शामएक साल जितनी लम्बी आती और सिसकियों के साथ डूब जाती. यह समय की एक बड़ी इकाई थी. इसलिए संभव है कि उसका दुःख भी बहुत बड़ा रहा होगा.
कई सालों बाद भी ऐसे बहुत सारे घरउसके घर बनाने की समझ के आड़े आते रहे.

ऐसे घर जिनके गुसलखानों के छत नहीं हुआ करती थी. वे उन दिनों बने थे जब बच्चों को घरों और पानी के कुओं में झांकना मना था. पल्लू से हाथ मुंह पौंछ कर माएं उनको बाहर धकेल देती थी. घर से बाहर धकेल दिए गए बच्चों के लिए कई नीम के पेड़ थे. वे हमेशा बुलाते रहते. पेड़ों से थोड़ा आगे सरकारी गोदाम का बाड़ा उदास खड़ा रहता था. वहां रात को भूत बीड़ी पिया करते और सुबह होने से पहले बड़े हाल के अँधेरे कोने में छत पर चमगादड़ बन कर उलटे लटक जाया करते थे.  

उस बाड़े में रखे हुये कोलतार के डिब्बों से आने वाली जादुई गंध बच्चो को और अंदर खींचती जाती फिर एकाएक शोर करते हुए बच्चे अपने घरों को भाग जाते.  अकेले किसी के लौटने की हिम्मत नहीं होती थी लेकिन मन होता था. मन मुड़-मुड़ कर देखता. उस बाड़े के सूनेपन को दुआएं देता. बंद मुट्ठी को उल्टा कर के एक फूंक से कोई नाज़ुक बाल उड़ाते हुए कुछ अर्ज़ियाँ आसमान की ओर जाती थीं कि ऐसी सूनी जगहें हमेशा बची रहें.
ये रेगिस्तान सूना ही था. यहाँ हज़ार लोग एक रास्ता बनाते और एक धूल भरी आंधी उस रास्ते को मिटा देती थी.

ऐसी पल भर में खो जाने वाली जगह पर वह होकर भी कहीं नहीं होता था.

(कहानी का टंकित संस्करण और टिप्पणी उपलब्ध कराने के लिए भाई संजय व्यास का हार्दिक धन्यवाद. बाकी का हिस्सा कल)

Thursday, November 29, 2012

आज दिन भर कबीर – ४ – कालूराम बामनिया – ये उलट वेद की बानी


अब अंत में कालूराम बामनिया-


आज दिन भर कबीर – ३ – गुंडेचा बंधु - हम ही अपना आप लगावा


तीन लोक में हमारा पसारा, आवागमन सब खेल हमारा – गा रहे हैं गुंडेचा बंधु


आज दिन भर कबीर – २ – प्रहलादसिंह टिपाणिया – साहिब ने भांग पिलाई


अब  मालवा के पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपाणिया जी -


आज दिन भर कबीर – १ – विद्या राव - ये तन थाट तम्बूरे का


आज पूरे दिन भर सुनिए कबीरदास जी को. शुरुआत कीजिये विद्या राव के गायन से -


Wednesday, November 28, 2012

बाहर क्यों भटके


कबीरदास जी की  सीरीज जारी है. आज दुबारा से महेशा राम –

देखना एक दिन यह बातूनी चुड़ैल

असद ज़ैदी  की कतई एक अलहदा किस्म की कविता पेश है –

दूसरी तरफ
-
असद ज़ैदी 

कहीं भी दाखिल होते ही
मैं बाहर जाने का रास्ता ढूँढ़ने लगता हूँ

मेरी यही उपलब्धि है कि
मुझे ऐसी बहुत जगहों से
बाहर निकलना आता है
जहाँ दाखिल होना मेरे लिए नहीं मुमकिन

कि मैं तेरह जबानों में नमस्ते
और तेईस में अलविदा कहना जानता हूँ

कोई बोलने से ज्यादा हकलाता हो
चलने से ज्यादा लंगड़ाता हो
देखने से ज्यादा निगाहें फेरता हो
जान लो मेरे कबीले से है

मेरी बीबी - जैसा कि अक्सर होता है
मुख्तलिफ कबीले की है
उससे मिलते ही आप उसके 
मुरीद हो जाएँगे

देखना एक दिन यह बातूनी चुड़ैल
हँसते- हँसते मेरा खून पी जाएगी.

Tuesday, November 27, 2012

सांचा साहिब एक तू सांवरिया


आज शफी मोहम्मद फकीर फिर से. वाणी कबीरदास जी की  –


संवेदना को मार रही है अपनी भाषा में अत्याचार की आवाज़


अनुवाद की भाषा

- असद ज़ैदी

अनुवाद की भाषा से अच्छी क्या भाषा हो सकती है 
वही है एक सफ़ेद परदा 
जिस पर मैल की तरह दिखती है हम सबकी कारगुजारी 

सारे अपराध मातृभाषाओं में किए जाते हैं 
जिनमें हरदम होता रहता है मासूमियत का विमर्श 

ऐसे दौर आते हैं जब अनुवाद में ही कुछ बचा रह जाता है 
संवेदना को मार रही है 
अपनी भाषा में अत्याचार की आवाज़!

Monday, November 26, 2012

म्हाने अब के बचा ले


एक बार पुनः मुख्तियार अली से सुनिए कबीरदास जी को –


आकाश एक तंग छतरी बनकर रह गया है


घंटी 

- असद ज़ैदी

धरती पर कोई सौ मील दूर सुस्त कुत्ते की तरह पड़ा हमारा दर्द
अचानक आ घेरता है नए शहर में
तेज़-रफ़्तार वाहन पर बैठे-बैठे
आँखें मुंद जाती हैं मेज़बान अचंभे में पड़ जाते हैं :
तुम ये क्या कर रहे हो वह पूछते हैं
हम विदा हो रहे हैं
हम विदा हो रहे हैं पारे की बूँदों की तरह
हम विदा हो रहे हैं चमकते हुए
हम क्या कर रहे हैं दोस्तो ? हम विदा हो रहे हैं
आकाश एक तंग छतरी बनकर रह गया है इस जगह की
हर चीज़ मेरे गले तक आ गई है
दिन की यह निर्णायक घड़ी एक सतत घंटी बनकर
टनटना रही है सलाम !
मैं अब जाऊँगा

Sunday, November 25, 2012

हमारे राम रहीम करीमा




शोभा मुद्गल से सुनिए एक और कबीर भजन. अभी कुछेक दिन और आप को हर रोज़ अलग अलग आवाजों में कबीरदास जी की अमर वाणी सुनाई जाएगी. आनंद लीजिये - 


जैसी पाँचवीं कक्षा में गणित मेरे लिए वैसी इस शहर में भीड़ थी


दिल्ली की नगरिकता

- असद ज़ैदी

जैसी पाँचवीं कक्षा में गणित मेरे लिए वैसी इस शहर में भीड़ थी
फ़्लैशबैक ख़त्म हुआ. बारिश में भीगता एक रोज़ चला जाता था
कि एक भली औरत ने मुझे एक छाता दिया जो मैंने ले लिया
बिना कुछ बोले अंत में एक दिन एक मक़ाम पर हम विदा हुए
कहिए श्रीमान कैसे हैं ? यह एक दोस्त का ख़त था शहर के
दूसरे कोने से
मैं वहाँ गया
गलियों में बदबू थी अँधेरा कुछ नहीं कहता था
उस दोस्त ने दाँत चमकाए
और मुझे प्यार से खाना खिलाया
वहाँ की हर चीज़ मेरा मुँह देखती थी
हमने थॊड़ी शराब पी ली रेडियो भर्रा रहा था
फटे गले से कोई गाता जाता था
अचानक एक विश्वास मुझमें आने लगा चाहे कुछ भी हो
मैं अनंतकाल तक ज़िन्दा रहूँगा

Saturday, November 24, 2012

मोहन वीणा पर राग तिलक कामोद



संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, ग्रेमी और पद्म श्री जैसे सम्मानों से अलंकृत पंडित विश्वमोहन भट्ट हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत जान हैं। उन्होने वीणा और गिटार का संयोग करके मोहन वीणा आविष्कृत की। पश्चिम और पूर्व का यह  विस्मरणीय संयोजन श्रोताओं को एक अलग दुनिया में ले जाता है। आइये सुनते हैं उनसे मोहन वीणा पर राग तिलक कामोद। ख्याल गायकों का सर्वप्रिय यह रात के दूसरे पहर का राग है। 


मन मस्त हुआ फिर क्या बोले


कालूराम बामणिया से सुनिए कबीरदास की एक भजन –


असद ज़ैदी का हलफ़नामा

हलफ़नामा

- असद ज़ैदी

नहीं ऐसा कभी नहीं हुआ
आदमी और कबूतर ने एक दूसरे को नहीं देखा
औरतों ने शून्य को नहीं देखा
कोई द्रव यहाँ बहा नहीं...

नहीं कोई बच्चा यहाँ 
सरकंडे की तलवार लेकर 
मुर्गी के पीछे नहीं भागा
बंदरों के काफिलों ने कमान मुख्यालय पर डेरा नहीं डाला
मैंने सारे लालच सारे शोर के बावजूद केबल कनेक्शन 
नहीं लगवाया 
चचा के मिसरों को दोहराना नहीं भूला 
नहीं बहुत सी प्रजातियों को मैंने नहीं जाना जो सुनना न चाहा 
सुना नहीं,
गोया बहुत कुछ मेरे लिए नापैद था 

नहीं पहिया कभी टेढा नहीं हुआ 
नहीं बराबरी की बात कभी हुयी ही नहीं
{हो सकती भी न थी } 

उर्दू कोई ज़बान ही न थी 
अमीर खानी कोई चाल ही न थी 

मीर बाक़ी ने बनवाई जो 
कोई वह मस्जिद ही न थी 

नहीं तुम्हारी आंखों में 
कभी कोई फरेब ही न था