Saturday, March 29, 2008
सामान की तलाश
१८५७: सामान की तलाश
१८५७ की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं
ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर ग़लती अपनी ही की हुई लगती है
सुनाई दे जाते हैं ग़दर के नगाड़े और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलक़दमी
हो सकता है यह कालान्तर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो
पर यह उन १५० करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने 'आज़ादी की पहली लड़ाई' के
१५० साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिये मंज़ूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के क़लम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर
शर्मिन्दा है और माफ़ी मांगता है पूरी दुनिया में
जो बेहतर ग़ुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिये कुछ भी
क़ुरबान करने को तैयार है
यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचन्दों और हरिश्चन्द्रों ने
और उनके वंशजों ने
जो ख़ुद एक बेहतर ग़ुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन सत्तावन के लिये सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, ईश्वरचन्द्रों, सैयद अहमदो,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई
यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब १५० साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की ख़ुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकल कर
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ़
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया उन्हें इतना अकेला?
१८५७ में मैला - कुचैलापन
आम इन्सान की नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है
लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, पूरी होने के लिये
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
कई दफ़े तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठ कर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उन से भी ज़्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझ कर बताने लगते हैं अब मैं नज़फ़गढ़ की तरफ़ जाता हूं
या ठिठक कर पूछने लगते हैं बख़्तावरपुर का रास्ता
१८५७ के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिये वे लड़ते थे
और हम उन के लिये कैसे मरते थे
कुछ अपनी बताओ
क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उस का कोई उपाय।
Friday, March 28, 2008
आप ज़ुल्फ़-ए-जानां के, ख़म संवारिये साहब, ज़िंदगी की ज़ुल्फ़ों को आप क्या संवारेंगे
अंधेरी रात है, साया तो हो नहीं सकता
ये कौन है जो मेरे साथ साथ चलता है
तर्क़े ताल्लुकात को एक लम्हा चाहिये
एक लम्हा मुझे सोचना पड़ा
अब के साल पूनम में, जब तू आएगी मिलने
हम ने सोच रखा है रात यूं गुज़ारेंगे
धड़कन बिछा देंगे शोख़ तेरे क़दमों पे
हम निगाहों से तेरी आरती उतारेंगे
तू कि आज क़ातिल है, फिर भी राहत-ए-दिल है
ज़हर की नदी है तू, फिर भी क़ीमती है तू
पस्त हौसले वाले तेरा साथ क्या देंगे
ज़िंदगी इधर आ जा, हम तुझे गुज़ारेंगे
आहनी कलेजे को, ज़ख़्म की ज़रूरत है
उंगलियों से जो टपके, उस लहू की हाजत है
आप ज़ुल्फ़-ए-जानां के, ख़म संवारिये साहब
ज़िंदगी की ज़ुल्फ़ों को आप क्या संवारेंगे
हम तो वक़्त हैं पल हैं, तेज़ गाम घड़ियां हैं
बेकरार लमहे हैं, बेथकान सदियां हैं
कोई साथ में अपने, आए या नहीं आए
जो मिलेगा रास्ते में हम उसे पुकारेंगे
हर क़िस्म का भारतीय अमीर होकर एक क़िस्म का चेहरा बन जाता है
नई पीढ़ी
एक नौजवान और उससे छोटी एक छोकरी
हर रोज़ मिलते हैं
चकर चकर बोलती रहती है लड़की
पुलिया पर बैठे लड़के को छेड़ती
वह सोच में पड़ा बैठा रह जाता है
दोनों में एक भी तत्काल कुछ नहीं मांगता
न तो वफ़ादारी का वायदा, न बड़ी नौकरी समाज से
वे एक क्षण के आवेग में सिमट रहते हैं
यह नई पीढ़ी है
भावुकता से परे व्यावहारिकता से अनुशासित
इस नई पीढ़ी को ऐसे ही स्वाधीन छोड़ दें.
हंसी जहां खत्म होती है
जब किसी समाज में बार बार कहकहे लगते हों
तो ध्यान से सुनना कि उनकी हंसी कहां ख़त्म होती है
उनकी हंसी के आख़िरी अंश में सारा रहस्य है
अकेला
लाला दादू दयाल दलेला थे
जेब में उनकी जितने धेला थे
उनके लिए सब माटी का ढेला थे
ज़िंदगी में वे बिल्कुल अकेला थे
हिन्दुस्तानी अमीर
किस तरह की सरकार बना रहे हैं
यह तो पूछना ही चाहिए
किस तरह का समाज बना रहे हैं
यह भी पूछना चाहिए
हमारे घरों की लड़कियों को देखिए
हर समय स्त्री बनने के लिए तैयार
सजी बनी
हिन्दुस्तानी अमीर की भूख
कितनी घिनौनी होती है
बड़े बड़े जूड़े काले चश्मे
पांव पर पांव चढ़ाए
हवाई अड्डे पर एक लूट की गंध रहती है
चिकने गोल गोल मुंह
अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करते हुए
हर क़िस्म का भारतीय अमीर होकर
एक क़िस्म का चेहरा बन जाता है
और अगर विलायत में रहा हो तो
उसका स्वास्थ्य इतना सुधर जाता है
कि वह दूसरे भारतीयों से
भिन्न दिखाई देने लगता है
उनमें से कुछ ही थैंक्यू अंग्रेज़ी ढंग से कह पाते हैं
बाक़ी अपनी अपनी बोली के लहज़े लपेट कर छोड़ देते हैं.
कैसे मिलती थी शराब अहमदाबाद में
तब मैं नारणपुरा में रहता था। एक दिन खूब तेज़ बरसात हो रही थी कि मूड बन गया कि आज कुछ हो जाये। छतरी उठायी और चल पड़ा सड़क पार दो सौ गज दूर बने पान के खोखे की तरफ। छोटी सी लालटैन जलाये वह मेरे जैसे ग्राहक का ही इंतज़ार कर रहा था। जाते ही एक सिगरेट मांगी, सुलगायी और पैसे देते समय उसके सामने सवाल दाग ही दिया- दारू चाहिये। कहां मिलेगी।
वह चौंका, तुरंत बोला- मुझे क्या पता, कहां मिलेगी। वो उधर पूछो।
किधर पूछूं - मेरा अगला सवाल।
- वो आगे चौराहे पर घड़े बेचने वाले की दुकान है। उधर मिलेगी।
मैं जिद पर आ गया - अब इस बरसात में वहां कहां जाऊं। कितना तो अंधेरा है और कीचड़ भी।
- कितनी चाहिये, उसने मुझ पर तरस खाया।
- क्वार्टर मिलेगी तो भी चलेगा। मैंने अपने पत्ते खोले।
- तीस रुपये लगेंगे।
- चलेगा।
- निकालो और उधर खड़े हो जाओ।
मैं हैरान कि इतनी जल्दी सौदा पट गया। मैंने पैसे थमाये, मुड़ने के लिए गर्दन मोड़ी, दो कदम ही चला कि उसकी आवाज़ आयी - ये लो। और व्हिस्की का क्वार्टर मेरे हाथ में था।
उस वक्त मैं किस रोमांच से गुज़रा होऊंगा, उसकी आप स्वयं कल्पना करें। और उस क्वार्टर ने मुझे कितनी सैकड़ों बोतलों का नशा दिया होगा, ये भी खुद ही कल्पना करें। ज्यादा मज़ा आयेगा।
अब तो सिलसिला ही चल निकला। झुटपुटा होते ही मैं अपनी यामाहा मोटर साइकिल उसके ठीये के पास खड़ी करता, उसे पैसे देता और दस मिनट बाद वापिस आता तो माल मेरी मोटरसाइकिल की डिक्की में रखा जा चुका होता।
एक बार जूनागढ़ से कथाकार शैलेश पंडित आये हुए थे तो प्रोग्राम बना। पान वाले को हाफ के पैसे दिये और जब वापिस आये तो उसने कहा कि आज फुल बाटल ले जाओ। बाकी पैसे बेशक बाद में दे देना। मैं हैरान - ये इतना उदार क्यों हो रहा है, आधे के बजाये पूरी ऑफर कर रहा है। बाद में उसने बताया था कि वह कई बार आधी रात को आ कर सप्लाई लेता है और बोतलें खोखे के पीछे जमीन में गाड़ कर देता है। आधी बोतल खोदने के बजाये पूरी हाथ में आ गयी तो वही सही।
इस तरीके से दारू लेते कुछ ही दिन बीते थे कि घर पर अखबार डालने वाला धर्मा एक दिन शाम को आया और बोला कि साब आप उस पान वाले से लेते हैं। घर तक लाने में रिस्क हो सकता है। मैं आपको घर पर ही सप्लाई कर दिया करूंगा। मैं हैरान, तो इसका मतलब हमारे मामले की खबर इसको भी है।
पूछा मैंने - लेकिन मैं तुम्हें ढूंढूंगा कहां, तो धर्मा ने कहा कि साब आप बाल्कनी में खड़े हो कर सामने सड़क पार देखें तो मैं आपको वहीं कहीं मिल जाऊंगा। आप बाल्कनी से भी इशारा करेंगे तो माल हाजिर हो जायेगा। बाद में धर्मा मेरे बहुत काम आया। फिलहाल एक और प्रसंग।
अब पान वाले की सप्लाई बंद और धर्मा की शुरू। कुछ ही दिन बीते थे और मुश्किल से उससे पांच सात बार ही खरीदी होगी कि मेरे घर पर सफाई करने वाला राजस्थानी लड़का रामसिंह एक दिन कहने लगा- साब जी आपसे एक बात कहनी है।
- बोलो भाई, क्या पैसे बढ़ाने हैं
- नहीं साब पैसे तो आप पूरे देते हैं। आप धर्मा से शराब खरीदते हैं। अगर मुझे कहें तो मैं ला दिया करूंगा। दो पैसे मुझे भी बच जाया करेंगे।
तो ये बात है। सप्लाई सब जगह चालू है। अब धर्मा बाहर और घरेलू नौकर रामसिंह चालू।
उस घर में मैं लगभग एक बरस रहा और कभी ऐसा नहीं हुआ कि अपने यार दोस्तों के लिए चाहिये हो और न मिली हो।
एक बार फिर धर्मा।
धर्मा ने एक बार बताया कि उसे बहुत नुक्सान हो गया है। बिल्डिंगों के बीच जिस खाली मैदान में उसने रात को पचास बोतलें जमीन में गाड़ कर रखी थीं, कोई रात को ही निकाल कर ले गया।
तभी मुझे नवरंगपुरा में मकान मिला। बेहतर इलाका और बेहतर लोग, बस एक ही संकट था- वहां दारू कैसे मिलेगी।
रास्ता सुझाया धर्मा ने - आपको एक फोन नम्बर देता हूं। फोन टाइगर उठायेगा। शुरू शुरू में आपको मेरा नाम लेना होगा। बाद में वो आपकी आवाज पहचान लेगा, क्या चाहिये, कितनी चाहिये, कब चाहिये और कहां चाहिये ही उसे बताना है। एक शब्द फालतू नहीं बोलना। माल आपके घर आ जायेगा। मैं निश्चिंत। इसका मतलब होम डिलीवरी वहां भी चालू रहेगी। शुरू शुरू में टाइगर की गुरू गंभीर आवाज सुन कर रूह कांपती थी। लगता था टाइगर नाम के किसी हत्यारे बात कर रहा हूं, लेकिन बाद में सब कुछ सहज हो गया।
नवरंग पुरा आने के बाद दारू बेचने वालों की एक नयी दुनिया ही मेरे सामने खुली। एक मील से भी कम दूरी पर गूजरात विश्वविद्यालय था। उसके एक गेट से सटी हुई लकड़ी की एक बहुत बड़ी लावारिस सी पेटी पड़ी हुई थी। शाम ढलते ही एक आदमी उस पेटी के अंदर से ऊपर की तरफ एक पल्ला खोल देता और भीतर जा कर बैठ जाता। अंदर ही एक मोमबत्ती जला कर खड़ी करता और शुरू हो जाता उसका कारेबार। वहां क्वार्टर या हाफ ही मिला करते। बस, एक एक करके वहां जाना होता। गुनगुने अंधेरे में।
ये तो मील भर दूर की बात हुई, हमारी कालोनी से नवरंग पुरा की तरफ जाओ तो सौ गज परे दो हॉस्टल थे। एक दृष्टिहीनों के लिए और दूसरा लड़कियों के लिए। थोड़ा आगे बढ़ो तो सामने की तरफ कुछ साधारण सी दुकानें और उनके पीछे एक गली में झोपड़ पट्टी। अंदर गली में देसी और विलायती शराब मिलने का बहुत बड़ा ठीया। वहां शाम ढलने से देर रात तक इतनी भीड़ हो जाती कि अंदर गली में स्कूटर या साइकिल ले जाना मुश्किल। किसी आदमी ने इसमें भी कारोबार की संभावना देखी और सड़क पर ही साइकिल स्टैंड बना दिया। शाम को वहां इतनी साइकिलें और स्कूटर नज़र आते कि राह चलना मुश्किल। एक और समस्या निकली इसमें से। आपने स्टैंड पर अपना वाहन खड़ा किया।. उसे पैसे दिये, आप भीतर गली में गये तो पता चला कि दारू खतम है तो मूड तो खराब होगा ही, समय भी बरबाद होगा। इसका रास्ता भी दारू वालों ने ही खोजा। गली के बाहर कोने में एक छोटा सा दोतल्ला मंदिर बना दिया। उसमें मूर्तियां तो क्या ही रही होंगी. वह ढांचा मिनी मंदिर जैसा लगता था। उसमें शाम के वक्त दो बल्ब जलते रहते। नीचे वाला बल्ब देसी दारू के लिए और ऊपर वाला विलायती के लिए। जब कोई भी दारू खतम हो जाती तो एक आदमी आ कर ऊपर या नीचे वाला बल्ब बुझा जाता। मतलब अपने काम की दारू खतम और स्कूटर स्टेंड पर पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं।
कुछ दिन बाद एक इलाके में एक ऐसे आदमी का पता चला जो साइकिल पर खूब सारे थैलों में दारू लाद कर धंधा करता था। साइकिल एक अंधेरे में एक पेड़ के नीचे खड़ी होती और वह दूसरे पेड़ के नीचे खड़ा होता। लेन एक पेड़ के नीचे और देन दूसरे पेड़ के नीचे। पकड़े जाने का कोई रिस्क नहीं।
यहां धर्मा का एक और किस्सा
एक बार मुंबई से पत्नी आयी हुई थी। उसे रात की गाड़ी से वापिस जाना था। हम स्टेशन के लिए निकलने ही वाले थे कि जूना गढ़ से शैलेश पंडित आ गये। इसका मतलब दारू की जरूरत पड़ेगी। मैंने शैलेश को एक बैग दिया और कहा कि जब तब मैं स्टेशन से वापिस आता हूं, वह नारणपुरा जा कर धर्मा को खोज कर माल ले आये।
जब मैं वापिस आया तो शैलेश पंडित का हॅंसी के मारे बुला हाल। बहुत पूछने पर उसने बताया- सरऊ, क्या तो ठाठ हैं। मैंने फिर पूछा- यार काम की बात करो, धर्मा मिला कि नहीं।
जो कुछ शैलेश ने बताया, उसे सुन कर हॅंसा ही जा सकता था। हुआ यूं कि जैसे ही नारणपुरा में मेरे पुराने घर के पास शैलेश ने धर्मा की खोजबीन शुरू की, एक भारी हाथ उनके कंधे पर आया – आप धर्मा को ढूंढ रहे हैं ना। शैलेश को काटो तो खून नहीं। वे मैं. . मैं . . ही कर पाये। घबराये, ये क्या हो गया। उस व्यक्ति ने दिलासा दी- घबराओ नहीं, आपके कंधे पर जो बैग है ना, वो सूरज प्रकाश साब का है और दारू ले जाने के काम ही आता है। बोलो कितनी चाहिये।
बाद में हमने मस्ती के लिए और खोज अभियान के नाम पर हर तरह के दुकानदार से शराब खरीदने का रिकार्ड बनाया। एक बार तो रेडिमेड कपड़े वाले के ही पीछे पड़ गये कि कहीं से भी दिलाओ, दोस्त आये हैं और चाहिये ही। और उसने दिलायी।
एक बार हम कुछ साथी आश्रम रोड पर लंच के वक्त टहल रहे थे। बंबई से एक नये अधिकारी ट्रांस्फर हो कर आये थे। कहने लगे- यार तुम्हारा बहुत नाम सुना है कि कहीं से भी पैदा कर लेते हो शराब। हम भी देखें तुम्हारा जलवा। मैंने भी शर्त रख दी- अभी यहीं पर खड़े खड़े आपको दिलाऊंगा, बस लेनी होगी आपको, बेशक थोड़ी महंगी मिलेगी। वे तैयार हो गये। हमारे सामने एक गरीब सा लगने वाला अनजान आदमी जा रहा था। मैंने उसे रोका, अपने पास बुलाया और बताया कि ये साब बंबई से आये हैं, इन्हें अभी दारू चाहिये। उस भले आदमी ने एक पल सोचा और बोला- लेकिन साब आपको आटो रिक्शे के आने जाने के पैसे और बक्शीश के दस रुपये देने होंगे। मैंने उसकी बात मान ली और अपने साथी को पैसे निकालने के लिए कहा। वे परेशान – राह चलते अनजान आदमी को इतने पैसे कैसे दे दें लेकिन मैंने समझाया – आपके पैसे कहीं नहीं जाते। ये गुजरात है। तय हुआ कि आधे घंटे बाद वह आदमी ठीक उसी जगह पर मिलेगा और माल ले आयेगा। और वह अनजान आदमी जिसका हमें नाम भी नहीं मालूम था, ठीके आधे घंटे बाद माल ले कर हाजिर था।
और भी कई तरीके रहे माल लेने के। एक बार तो होम डिलीवरी वाला सुबह दूध लाने वाले से भी पहले माल दे गया। हमारे यहां जितने भी सिक्यूरिटी वाले थे, सब भूतपूर्व सैनिक ही थे। वे अपने साथ अपनी एक आध बोतल रख कर कहीं भी आ जा सकते थे. मतलब पकड़े नहीं जा सकते थे। बस, काम हो गया। जो भूतपूर्व सैनिक नहीं पीते थे, उनका स्टॉक बेचने के लिए यही कैरियर का काम करते थे।
और अंत में
आपने कई शहरों में बर्फ के गोले खाये होंगे। अलग अलग स्वाद के। मुंबई में तो चौपाटी और जूहू में बर्फ के गोले खाने लोग दूर दूर से आते हैं लेकिन अगर आपको रम या व्हिस्की के बर्फ के गोले खाने हों तो आपको अहमदाबाद ही जाना होगा।
इस बार इतना ही, नहीं जो ज्यादा नशा हो जायेगा और . . . . ।
Tuesday, March 25, 2008
यू डॉन्ट ब्रिंग मी फ़्लावर्स एनी मोर
नील डायमंड मेरे चहेते गायकों में एक हैं। दुनिया के सबसे सफल गायकों में गिने जाने वाले नील के रेकॉर्ड्स बिक्री के मामले में सिर्फ़ एल्टन जॉन और बारबरा स्ट्राइसेन्ड से पीछे हैं। १९६० के दशक से लेकर १९९० के दशक तक एक से एक हिट गाने देने वाले नील इस गीत में बारबरा स्ट्राइसेन्ड का साथ दे रहे हैं। बारबरा स्ट्राइसेन्ड एक बेहद संवेदनशील अभिनेत्री के तौर पर भी जानी जाती रही हैं। एलेन और मर्लिन बर्गमेन के साथ नील के लिखे इस गीत के बोल ये रहे:
You don't bring me flowers
You don't sing me love songs
You hardly talk to me anymore
When you come through the door
At the end of the day
I remember when
You couldn't wait to love me
Used to hate to leave me
Now after lovin' me late at night
When it's good for you baby
you're feeling alright
Well you just roll over
And you turn out the light
And you don't bring me flowers anymore
It used to be so natural
To talk about forever
But 'used to be's' don't count anymore
They just lay on the floor
'Til we sweep them away
And baby, I remember
All the things you taught me
I learned how to laugh
And I learned how to cry
Well I learned how to love
Even learned how to lie
You'd think I could learn
How to tell you goodbye
'Cause you don't bring me flowers anymore
Monday, March 24, 2008
धर्म खाओ, राजनीति पियो और अपनी भाषा पर थूकते चलो
लॉरी बेकर के मकानों को हम तिरुअनन्तपुरम में देख आए थे. त्रिचूर जाना एक अन्य मलयाली मित्र के सौजन्य से हुआ. सन्दीप बाबू नाम के इन मित्र ने राय दी कि एक ज़माने में लॉरी बेकर के साथ काम कर चुके उन के एक मित्र का मकान भी देखा जाना चाहिए. मेरे लिए यह सूचना ज़्यादा महत्वपूर्ण इस लिहाज़ से थी कि इन साहब का एक परिचय और भी था. श्रीनिवास एक जीनियस वास्तुशिल्पी हैं और उन का विवाह श्रीमती सारा जोसेफ़ की बेटी से हुआ है।
सार्वजनिक जगहों पर लिखी गई मलयालम भाषा हमेशा व्याकरण और वर्तनी के हिसाब से सही होती है। इस तथ्य के बारे में अपनी धारणा मैंने कई लोगों से पूछ कर बनाई.
हमेशा की तरह जाते जाते उदास बना जाती है होली
वो बड़ा जाना पहचाना गीत है ना अपने अहमद हुसैन - मोहम्मद हुसैन बंधुओं का " ... जब गरमी के दिन आयेंगे, तपती दोपहरें लायेंगे, सन्नाटे शोर मचाएंगे ... "। कुछ वैसा ही छोड़ जाती है होली अपने पीछे।
राजस्थान से एक बेहद मशहूर लोक धुन प्रस्तुत है : "दूधलिया बन्ना"। वादक हैं शकर खान और लाखा खान।
आइये आती गर्मियों का इंतज़ार किया जाए और थोड़ा उदास हुआ जाए।
Friday, March 21, 2008
आयो नवल बसंत, सखि ऋतुराज कहायो
पहाङ में होली का मतलब रंग से अधिक राग से होता है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि गायन की कई प्रतिभाएं इन्हीं दिनों उभर कर सामने आती हैं। पक्के रागों की धुन से बंधी बंदिशों के रूप में गाई जाने वाली ये होलियां फागुन को संगीत से ऐसा सराबोर करती हैं कि राग-रंग रिस कर गाने वाले और सुनने वालों को असीम तृप्ति के भाव से भर देता है। आमतौर पर पुरूष व महिलाओं की होली बैठकें अलग-अलग होती हैं। पुरूषों की होली बैठकें कभी-कभी रात भर भी चलती रहती हैं और गायकी का जो समां बंधता है वह सुनने लायक होता है। कभी राधा की यह शिकायत कि "मलत-मलत नैना लाल भए, किन्ने डालो नयन में "....गुलाल अलग- अलग होल्यारों के स्वरों में रागों का जादू बिखेरती है तो कभी किसी गोपी की ये परेशानी कि "जल कैसे भरूं जमुना "......गहरी महफिल को गुंजायमान करती है। शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरे शुरुआती ग्यान और रूझान की वजह होली की यही बैठकें रहीं।
दो दिन पहले ही लाल किनारी वाली सफेद धोती और माथे पर अबीर-गुलाल का टीका लगाए होली बैठकों में जाती औरतों के झुंड को देख कर बचपन की होली याद आई और बेतरह याद आई अम्मा यानी मेरी मां। अम्मा का सबसे पसंदीदा त्यौहार था होली, मोहल्ले-पङोस की मानी हुई होल्यार जो ठहरी। कुमाऊं में होली एक दिन का त्यौहार न हो कर लगभग पूरे महीने चलने वाला राग-रंग का उत्सव होता है। होली से पहले पङने वाली एकादशी को रंग पङता और शुरू होता है महिलाओं की होली बैठकों का दौर।
बचपन में अम्मां के साथ इन बैठकों में जाने का लालच होता था वहां मिलने वाले जंबू से छौंके चटपटे आलू के गुटके, खोयेदार गुझिया और चिप्स-पापङ। बङे होने के साथ धीरे-धीरे गाई जाने वाली होलियों के बोल, धुन भी मन में उतरने लगे। ढोलक और मंजीरे के साथ जब सिद्धि के दाता विघ्न विनाशक होली खेले मथुरापति नंदन के गायन से होली का शुभारंभ होता तो मन में एक अजीब सी पुलक सी जगती थी। यह पुलक या उछाह होली में एक नया ही रंग भर देता था जिसे अनुभव ही किया जा सकता है शब्दों में समझा पाना मेरे लिए तो संभव नहीं है।
जैसे ही हवा में फागुन के आने की गमक सुनाई देने लगती अम्मा अपनी भजनों और होली की डायरी निकाल लेती। हर होली की बैठक से लौटने के बाद डायरी और समृद्ध होती थी नऐ गीतों से। अस्थमा की वजह से साल-दर-साल मुश्किल होती जाती सर्दियों की पीङा झेलने के बाद होली मानों नई जान डाल देती थी अम्मा में। होली उसकी आत्मा तक में जुङी थी शायद इसलिए इस संसार से जाने के लिए उसने समय भी यही चुना। आज से ठीक पांच साल पहले होली के दिन मेरी मां ने इस दुनिया से विदा ली। होली मेरा भी सबसे पसंदीदा त्यौहार है खासतौर से इसकी गायकी वाला हिस्सा, लेकिन अम्मा के जाने के बाद न जाने क्यों होली आते ही मन कच्चा सा हो जाता है और अबीर-गुलाल का टीका लगाऐ होली बैठकों में जाती औरतों को देख कर आंख पनीली हो आती हैं।
Thursday, March 20, 2008
जो नर जीवें खेलें फाग
जो नर जीवें खेलें फाग
मेरी बारी, मेरी बारी, मेरी बारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी
धो धो कै तो सीट जनरल भै छा
धो धो के ठाड़ हुणै ए बारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी
एन बखत तौ चुल पन लुकला
एल डाका का जसा घ्वाड़ा ढाड़ी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी
काटी मैं मूताणा का लै काम नी ए जो
कुर्सी लिजी हुणी ऊ ठाड़ी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी
कभैं हमलैं जैको मूख नी देखो
बैनर में छाजि ऊ मूरत प्यारी
घर घर लटकन झख मारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी
हरियो काकड़ जसो हरी नैनीताल
हरी धणियों को लूण भरी नैनीताल
कपोरी खाणिया भै या बेशुमारी
एसि पड़ी अलबेर मारामारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी
गद्यात्मक भावार्थ -
मेरी बारी ! मेरी बारी - कहते सोचते हैं चुनावार्थी ! हाय ! इस बार देखिए ये मजेदारी!बड़ी मुश्किल से तो सीट अनारक्षित हुई है, बड़ी मुश्किल से हम खड़े हो पा रहे है। और ये वही लोग है जो विपदा आने पर बिलों में दुबक जाते है पर इस समय तो डाक के घोड़ों की तरह तैनात खड़े हैं (पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रों में डाक घोड़ों पर ले जायी जाती रही है)। गजब कि बात है कि जो कटे पर मूतने के भी काम नहीं आता, वो कुर्सी की खातिर खड़ा होने में कभी कोताही नहीं करता। कभी जो सूरत नहीं दिखती वही उन बैनरों में चमकती-झलकती है, जो घर-घर लटके झख मारते रहते हैं।
और अंत के छंद में समया है अपार दुख - कि हरी ककड़ी के जैसा मेरा हरा नैनीताल! हरे धनिए के चटपटे नमक वाले कटोरे -सा भरा नैनीताल ! ऐसे हमारे नैनीताल नोच-नोच कर खाने चल पड़े हैं ये लोग बेशुमार ! अबकी पड़ी है ऐसी मारामारी !
Wednesday, March 19, 2008
होली है ......
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की !
जब डफ के बोल खड़कते हों, तब देख बहारें होली की !
परियों के रंग दमकते हों , खुम-शीशे-जाम छलकते हों
तब देख बहारें होली की !
महबूब नशे में झुकते हों,
तब देख बहारें होली की !
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुरुं रंग भरे
कुछ तानें होली की, कुछ नाज़ो-अदा ढंग भरे
दिल भोले देख बहारों को, कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों
तब देख बहारें होली की !
स्मृति पर आधारित - दो-चार शब्द इधर-उधर हो सकते हैं... पर होली तो होली है !
उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल (किंचित ध्वनि परिवर्तन के साथ) में प्रचलित एक होली
झनकारो, झनकारो, झनकारो
गोरी प्यारो लागौ त्यौरो झनकारो !
तुम हो बृज की सुंदर गोरी
मै मथुरा को मतवारो
गोरी प्यारो लागौ त्यौरो झनकारो !
चोली-चादर सब रंग भीजे
फागुन ऐसो मतवारो
गोरी प्यारो लागौ त्यौरो झनकारो !
सब सखियां मिल खेल रही हैं
दिलबर को दिल है न्यारो
गोरी प्यारो लागौ त्यौरो झनकारो !
अब के फागुन में अर्ज करत हूं
दिल को कर दे मतवारो
गोरी प्यारो लागौ त्यौरो झनकारो !
'आम्र बौर का (एक भोजपुरी) गीत' : तलत महमूद और लताजी की आवाज में
....और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!
उस दिन तुम उस बौर लदे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे....
धर्मवीर भारती की अद्वितीय पुस्तक 'कनुप्रिया'का ऊपर दिया गया अंश मुझे तलत महमूद और लताजी की आवाज में एक पुराना भोजपुरी गीत सुनते हुए बारबार याद आता रहा.'शब्दों का सफर' वाले भाई अजित वडनेरकर जी को पत्र लिखते समय मैंने 'कनुप्रिया' का 'आम्रबौर का गीत' वसंत की सौगात के रूप में नत्थी कर दिया था। उनका बड़प्पन और मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य है कि अजित जी ने बेहद खूबसूरती और शानदार तरीके से इसे अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर दिया है.
....लाले-लाले ओठवा से बरसे ललइया
हो कि रस चूवेला
जइसे अमवां क मोजरा से रस चूवेला....
भोजपुरी सिनेमा के शुरुआती दौर की फिल्म 'लागी नाहीं छूटे रामा' का यह गीत मेरे लिये अविस्मरणीय है किन्तु वसंत में यह अधिक परेशान करता है.आम के वृक्षों पर आने वाले बौर, फल और स्वाद के उत्स तथा आगमन का संकेत तो देते ही हैं साथ ही वे वसंत की ध्वजा फहराते हुए भी आते हैं,जिसे हमारे इलाके की भाषा में 'मौर' 'मउर'या 'मोजरा' कहा जाता है.याद करें, पूर्वांचल में विवाह के समय 'लड़का'(वर)सिर पर जो मुकुट धारण करता है उसे भी 'मउर' ही कहते हैं.'सिरमौर' शब्द की व्युत्पत्ति भी हमें खीचकर उसी आम्र-बौर तक ले जाती है जिसे स्पर्श कर खुमार तथा मादकता से भरी बौराई हवा को मेरे घर की कांच लगी खिड़कियां फिलहाल रोक पाने का हौसला और हिम्मत गवां चुकी हैं. असल बात तो यह है कि उसे रोकना भी कौन कमबख्त चाहता है!
'लाले-लाले ओठवा से बरसे ललइया' मूलतः छेड़छाड़ का गीत है;लुब्ध नायक और रूपगर्विता नायिका के बीच की चुहल और छेडछाड़ का गीत। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे मादक शब्दों को संगीतबद्ध किया है चित्रगुप्त ने और स्वर है तलत और लताजी का. तो सुनते हैं भोजपुरी सिनेमा के सुनहरे दौर का यह फगुनाया गीत-
(फोटो- tribuneinda से साभार)
Monday, March 17, 2008
समयांतर के ताज़ा अंक में प्रियदर्शन के मुँह से निकलते थूक का ज़िक्र
एनडीटीवी के प्रियदर्शन ने पुस्तक मेले के दौरान जो कार्यक्रम किये उनके बारे में समयांतर की राय है कि वे पिटे-पिटाए और रस्मी थे. सहारा समय पर पंकज के कार्यक्रमों की तारीफ़ की गई गई है जबकि प्रियदर्शन की आवाज़ और उनके होंठों के कोनों से आती झाग का भी ज़िक्र है.
Sunday, March 16, 2008
'मुर्ग-रम बुढ़ैला' उर्फ एक कवितामयी रेसिपी का रहस्योदघाटन
* अब जबकि अशोक पान्डे ने रघुवीर भाई की ओरिजिनल रेसिपी 'बकर तोतला' बनाने का तरीका विस्तार और पूरे विधि-विधान से समझा दिया है और उम्मीद है कि आज इतवार की छुट्टी का सदुपयोग करते हुए 'कबाड़खाना' के सुधी भाई-बहन लोग पाकशास्त्र में पारंगत होने के प्रयोग में लगे होंगे तब अनायास हाथ आये मौके का फायदा उठाकर क्यों न एक ऐतिहासिक रेसिपी का रहस्योदघाटन कर दिया जाय.हो सकता है कि आप इससे तात्कालिक रूप से भले ही लाभान्वित न हों किंतु यदि भविष्य के लिये 'सचेत' हों जायें तो यह इस कबाड़ी के लिये फख्र की बात होगी.
* अब थोडी-सी बात इसके इतिहास और भूगोल पर भी.यह आज से कई बरस पहले हमारी 'गदहपचीसी'के दिनों की दर्द भरी दास्तान है. नैनीताल के 'ब्रुकहिल' और 'हिमालय' में संपन्न पाक कला के प्रयोगों में से एक यह भी था. 'बकर तोतला' ने इसकी याद दिला दी और जब अपनी टिप्पणी में मैने इसका उल्लेख किया तथा 'कबाड़खाना' के पन्नों पर लगाने की मंशा जाहिर की तो अशोक ने हमेशा की तरह हां कर दी.अशोक पांडे इस समय केरल की महत्वपूर्ण यात्रा के बाद बंगलुरु में कयाम किये हुये हैं.दो-चार दिन वहां का आनंद और आस्वाद लेकर दिल्ली दरबार में आयेंगे, फिर होली से पहले हलद्वानी.तब अपन 'बकर तोतला' पर हाथ आजमायेंगे,आप भी आयें 'सुआगत' है।
* ऊपर जिस दौर का उल्लेख किया गया है,उस दौर में मैंने ' मुर्गा: एक दिन जरूर ' शीर्षक एक कविता लिखी थी जो मूलतः 'मुर्गा बूढ़ा निकला' के जवाब में लिखी गई थी या यों कहें कि एक कविता-जुगलबंदी थी.उस कविता को पढ़ने-देखने के लिये मेरे ब्लाग ' कर्मनाशा' http://karmnasha.blogspot.com पर जाने की जहमत उठायें. यहां प्रस्तुत है अशोक पांडे की कविता- 'मुर्गा बूढ़ा निकला'.
मुर्गा बूढ़ा निकला
दो सौ रुपये की शराब का
मजा बिगड़ कर रह गया
मुर्गा बूढ़ा निकला
ढ़ेर सारे
प्याज लहसुन और मसालों में भूनकर
प्रेशर कुकर पर चढ़ा दिया मुर्गा
दस बारह सीटियां दीं
मुर्गा गला नहीं
मुर्गा बूढ़ा निकला
थोड़ा-थोड़ा नशा भी चढ़ने लगा था
सब काफूर हो गया
दांतों की ताकत जवाब दे गई
मुर्गा चबाया नहीं गया
सोचता हूं
मुर्गे अगर बोल पाते तो क्या करते
मशविरा कर कोई रास्ता ढ़ूढते
सारी जालियां तोड़कर
सड़क पर आ जाते मुर्गे
वाह प्रकृति !
तू कितनी भली है
बड़ा अच्छा किया बेजुबान बनाया मुर्गा
जाली के पीछे बनाया मुर्गा
फिर भी
सोचता हूं
अगर जाली में बंद मुर्गा
बोल पाता तो कितना अच्छा होता
कल शाम
मुर्गा खरीदने से पहले
मुर्गे से ही पूछ लेते उसकी उम्र
-हमारी शाम तो खराब नहीं होती
दो सौ रुपये की शराब का
मजा तो न बिगड़ता
Saturday, March 15, 2008
फ़ारसी खाने का लुत्फ़: बकर तोतला
नोट-
Friday, March 14, 2008
केरल से कुछ और तस्वीरें
शेक्सपीयर और नन्ही नाव
चाहता था कि केरल की यात्रा से लगातार रपटें भेजता रहता लेकिन बदकिस्मती से मेरा लैपटॉप फोर्ट कोचीन में बेकाबू हो गया। आज त्रिचूर से बंगलौर पहुँचने के बाद मैंने देखा कि पिछली तस्वीरों पर इतने सारे कमेन्ट आए। उन के लिए सभी का शुक्रिया।
केरल में और लंबा समय गुजारता चाहता था , लेकिन समय की सीमा है और होली से पहले पहले घर पहुँच जाना है। इस दौरान जिस तरह के अनुभव हुए हैं उन पर मैं बाद में विस्तार से एक पूरी पोस्ट लिखूंगा। अभी आपको इस यात्रा के कई अविस्मरणीय अनुभवों में से एक के बारे में बताना चाहता हूँ।
त्रिवेंद्रम से हम लोग कोल्लम नाम की एक छोटी सी जगह पर पहुंचे। अष्टमुडी केरल की एक बहुत विशाल झील है। जैसा कि नाम से जाहिर है इस के आठ कोने हैं। इसी के एक तट पर कोल्लम है। कोल्लम में रात को केरल सरकार के यात्री निवास में बीयर पीते हुए एक फ़्रांसीसी पर्यटक से मुलाकात हुई। ऑनलाइन लॉटरी का धंधा चलाने वाला रोमान दिलचस्प आदमी लगा। उसे अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं आती थी पर देर रात तक चली हमारी बहस - बात में दुनिया भर के मसले शामिल हुए।
सुबह हमारी राहें अलग अलग हो गईं : हम मुनरो आइलैंड से एक छोटी नाव लेकर अष्टमुडी के बैकवाटर्स से होकर गुज़रना चाहते थे जबकि रोमान की मंजिल थी अलेप्पी।
रोमान से विदा लेने के बाद हमने एक ऑटो पकड़ा। करीब पौन घंटे तक भगाने के बाद हम अष्टमुडी के एक किनारे पर थे। करीब बीस साल का एक नौजवान नाविक अपनी छोटी सी नाव के साथ हमारी राह देख रहा था। बैकवाटर्स में कहीं होती हैं संकरी नहरें, कहीं आप एक चौडी नदी के सामने होते हैं, कहीं पानी झील की सूरत ले लेता है और कहीं लगता है आप समुद्र के विराट रूप का दर्शन कर रहे हैं। खजूर नारियल के वृक्षों से लदा लैंडस्केप, समुद्री झाडियों को सहलाता पानी और किनारों पर खामोशी से अपने कार्यों में लगे ग्रामीण। तरह तरह की रंगत वाले पक्षी अपनी सतत पिकनिक में रमे हुए। करीब पाँच घंटे की इस बेहद सुकून भारी और धीमी यात्रा में आप किसी गाँव में नाव किनारे लगा कर रस्सी बनाने वालों के घर देख सकते हैं, किसी गाँव में ताज़ा नारियल पानी पी सकते हैं और झाडी से तुरंत काटे गए अनन्नास का लुत्फ़ उठा सकते हैं।
खैर। यह सारी डिटेल्स आपको केरल पर्यटन से सम्बद्ध किसी भी वेब साईट पर मिल जाएंगी।
चाहे कहीं भी सफर कर रहा हूँ, मेरे लिए वहाँ मिलने वाले लोग हमेशा ज़्यादा मायने रखते हैं। बैकवाटर्स की इस शानदार यात्रा में हमारा सहयोगी नाविक बहुत साफ और अच्छी अंग्रेजी बोल रहा था। करीब आधे घंटे बाद मैंने उस से उस की शिक्षा वगैरह के बारे में पूछा। उस ने बताया की वह अंग्रेजी साहित्य में स्नातक है और अपनी पढाई आगे जारी रखना चाहते हुए भी नाव चलाने को मजबूर है। उस के पिता नहीं हैं। घर पर एक भाई और बीमार माँ है। बड़ा भाई भी नाव चलाता है। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
मैं उस से स्नातकोत्तर की पढाई में आने वाले खर्च और किताबों वगैरह के बारे में पूछता हूँ। उस के मतलब की काफी किताबें मेरे पास हैं घर पर। कोई फैसला लेने से पहले मैं उस का एक इम्तेहान लेने की सोचता हूँ। पूछने पर वह बताता है शेक्सपीयर का नाटक 'The Tempest' उस की पसंदीदा किताब है। इस के अलावा उसे एमिली ब्रोंते का उपन्यास 'Wuthering Heigths' भी अच्छा लगता है। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी की रूमानी कवितायेँ भी। कीट्स और शेली को वह हर अंग्रेज़ी साहित्य के युवा छात्र की तरह आदर्श मानता है। मैं काफी प्रभावित हो जाता हूँ । लेकिन अभी मैं उस का असली इम्तेहान लेना चाहता हूँ। मैं उस से पूछता हूँ 'The Tempest' शेक्सपीयर के बाक़ी नाटकों से किस कारण अलहदा है। वह सही जवाब देता है। 'The Tempest' इकलौता नाटक है जिसमें शेक्सपीयर ने शास्त्रीय नाट्य सिद्धांतों का प्रयोग करते हुए Unity of time, place and action का पूरा ध्यान रखा है।
अब मैं जानता हूँ घर पहुँच कर मेरा पहला काम क्या होगा। रंजीत नाम के इस दुबले पतले साहित्यप्रेमी नाविक के लिए खूब सारी किताबें और यथा सम्भव आर्थिक मदद जुटाना। पिछली पोस्ट पर लगे बैकवाटर्स के फोटो रंजीत की नाव से लिए गए हैं।
इस यात्रा में रोमान हमें दुबारा से मत्तनचेरी के यहूदी इलाकों में टकरा गया। उस से दोस्ती सी हुई। इजराइल से आई सुंदर गीता तुष से पहचान हुई, फिलिप नाम का एक विचित्र फ्रांसीसी आदमी मिला, होटल में रूफ़ टॉप रेस्तरां चलाने वाला विनोद नाम का एक शानदार रसोइया हमें बेहतरीन खाना खिलाने को ज़रूरत से ज़्यादा तत्पर मिला।
दो रुपये में आधे घंटे की समुद्री यात्रा का लुत्फ़ मिला। दिल्ली में रहने वाले दोस्त संतोष बाबू का भाई संदीप हमें अपने और अपनी बहन के घर ले गया, हमने अपने काम को शिद्दत से प्यार करने वाले श्रीनिवास नाम के एक अदभुत वास्तुशिल्पी से ढेर सारी बातें की। और साहित्य अकादेमी सहित कई पुरुस्कारों से सम्मानित श्रीमती सारा जोसेफ कई बनाई चाय पी उन्ही के घर। और भी बहुत कुछ हुआ। वह सब धीरे धीरे।
इन में से कोई भी बात यात्रा के हमारे एजेंडे में नहीं थी। सब होता चला गया। और व्यक्तिगत रूप से एक उत्तर भारतीय की निगाह से निस्संदेह भारत के सब से अच्छे राज्य केरल को देख समझ पाने का संक्षिप्त अवसर भी मिला। यह सब भी धीरे धीरे।
( एक पुराने गुरु जी ने शेक्सपीयर का पूरा सेट अपने खर्च पर रंजीत तक पहुंचाना स्वीकार कर लिया है। रंजीत का डाक का पता भी है मेरे पास : Ranjit R.S., Rathneesh Bhavan, Nenmeni. Munroe Island, Dist: Kollam. Kerala. Pin : 691 ५०२ )
Tuesday, March 11, 2008
'कलकतवा से आवेला...' शारदा सिन्हा जी का एक यादगार गीत
अवधि-४ मिनट,२३ सेकेंड
Saturday, March 8, 2008
हरीशचन्द्र पांडे
ये अभी अभी एक घर से बाहर निकले हैं
टूट गए रंगीन गुच्छे की तरह
काजल लिपस्टिक और सस्ती खुशबुओं का एक सोता फूट पड़ा है
एक औरत होने के लिए कपडे की छातियां उभारे
ये औरतों की तरह चलने लगे हैं
और औरत नहीं हो पा रहे हैं
ये मर्द होने के लिए गालियाँ दे रहे हैं
औरतों से चुहल कर रहे हैं अपने सारे पुन्सत्व के साथ
और मर्द नहीं हो पा रहे हैं
मर्द और औरतें इन पर हंस रहे हैं
सारी नदियों का रुख मोड़ दिया जाए इनकी ओर
तब भी ये फसल न हो सकेंगें
ऋतू बसंत का ताज पहना दिया जाए इन्हें
तब भी एक अन्कुवा नहीं फूटेगा इनके
इनके लिए तो होनी थी ये दुनिया एक महासिफर
लेकिन
लेकिन ये हैं की
अपने व्यक्तित्व के सारे बेसुरेपन के साथ गा रहे हैं
जीवन में अन्कुवाने के गीत
ये अपने एकांत के लिए किलकारियों की अनुगूंजें इकठ्ठा कर रहे हैं
विद्रूप हारमोनों और उदास वल्दियत के साथ
ये दुनिया के हर मेले में शामिल हो रहे हैं समूहों में
नहीं सुनने में आ रही आत्महत्याएं हिजडों की
दंगों में शामिल होने के समाचार नहीं आ रहे
मर्द और औरतों से अटी पड़ी इस दुनिया में
इनका पखेरुओं की तरह चुपचाप विदा हो जाना
कोई नहीं जानता !
कवि हरिश्चंद्र पांडे ने अपनी कविताओं को ब्लॉग पर लगाने का अधिकार हमें दिया है ............
हवस के इस सहरा में बोले कौन
सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन
इश्क तराजू तोहै, लेकिन, इस पे दिलों को तौले कौन
सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया
दिल की दुकानें बंद पडी है, पर ये दुकानें खोले कौन
काली रात के मुंह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन
हमने दिल का सागर मथ कर kadha तो कुछ अमृत
लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन
लोग अपनों के खूं में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन।
-----राही मासूम रजा
तिरुअनन्तपुरम से एक छोटी रपट
लॉरी बेकर का घर देखने के बाद बार बार यह खयाल आता रहा कि क्यों हमें अपने संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल करने के तरीके विदेशी लोग ही बताया करते हैं और क्यों उन का काम इतना श्रमसाध्य होता है। खैर, बेकर साहब हाल में ही गुज़र चुके हैं। हमें बताया जाता है कि उनकी पत्नी अभी वहीं रहती हैं लेकिन उनसे मिला नहीं जा सकता क्योंकि वे बीमार हैं। शाम को हम ने लॉरी बेकर का डिज़ाइन किया हुआ एक रेस्त्रां देखा। 'इंडियन कॉफ़ी हाउस' की यह इमारत वास्तुशिल्प का नायाब नमूना है। उस बारे में दुबारा कभी।
कोवलम और महासमुद्रम और पुलिंकुड़ी के समुद्रतटों पर भी जीवन काफ़ी ठहरा हुआ लगा और आफ़ताबी गुस्ल करती हुई नीम मलबूस विदेशी हसीनाओं की इफ़रात के बावजूद न किसी को लार टपकाते देखा। हां उनसे कुछ न कुछ खरीद लेने का निवेदन करते इक्का दुक्का लोग थे।
Thursday, March 6, 2008
आलोक धन्वा
आलोक धन्वा - जिसकी दुनिया रोज़ बनती है !
हर उस आदमी की एक नहीं कई प्रिय पुस्तकें होती हैं, जो किताबों की दुनिया में रहता है। मैं भी किसी हद तक इस दुनिया में रहता हूँ और ऐसी दस किताबें हैं, जिन्हें मैं कथादेश के इस स्तम्भ के हिसाब से `मेरी प्रिय पुस्तक´ कह सकता हूँ। इन दस में पाँच कविता संकलन हैं और इन्हीं में शामिल है आलोक धन्वा का बमुश्किल अस्तित्व में आया संकलन `दुनिया रोज़ बनती है´। किताब के नाम में ही विद्वजन चाहें तो विखंडन और संरचना की अंतहीन बहस निकाल सकते हैं और यूरोपीय साहित्य-दर्शन की शरण भी ले सकते हैं। मेरे लिए तो यह वाकई उसी साधारण दुनिया की एक असाधारण झलक है जो रोज़ बनती है और बनती इसलिए है क्योंकि रोज़ उजड़ती भी है। आलोक धन्वा की यह दुनिया, वही दुनिया है जिसमें हम-आप-सब रहते हैं। हम भी उजड़ते और बनते हैं। आलोक धन्वा हमारे इस उजड़ने और बनने को साथ-साथ देखते हैं। दो विरोधी लेकिन पूरक जीवनक्रियाओं का यह विलक्षण कवि हमारे बीच एक कविता संकलन के साथ उपस्थित है, मेरे लिए यह बड़ी बात है।
आलोक धन्वा के कवि ने जिस दुनिया में आंखें खोलीं, वह मेरे जन्म से पहले की दुनिया थी लेकिन यही वह दुनिया थी जिसकी लगातार बढ़ती हुई गूँज से ही मैं आज अपनी दुनिया की शिनाख्त कर पाता हूँ । नक्सलबाड़ी के उस दौर में आलोक धन्वा बेहद सपाट लेकिन उतने ही प्रभावशाली क्रोध के कवि दिखाई पड़ते हैं। 1972 में लिखी जनता का आदमी हो या गोली दागो पोस्टर - आलोक धन्वा का अपने विचार के प्रति समर्पण ऊपरी तौर से बेहद उग्र और भीतर से काफी सुचिंतित नज़र आता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि 70 के बाद की एक पूरी काव्यपीढ़ी ही उस एक विचार की देन है। आलोक धन्वा इस दुनिया में अपनी आग जैसी रोशन और दहकती उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भीतर-भीतर यही सुगबुगाहट किंचित नए रूप में जारी रहती है, जिसकी अभिव्यक्ति `भूखा बच्चा´ और शंख के बाहर´ जैसी छोटे आकार की कविताओं में दिखती है। 1976 में वे एक लम्बी कविता `पतंग´ लेकर आते हैं। यह कविता उसी विचार को ज्यादा सघन या सान्द्र रूप में प्रस्तुत करती है, जिससे आलोक धन्वा ने अपनी यात्रा शुरू की और मुझे पूरा विश्वास है कि इसमें उनकी आस्था अंत तक बनी रहेगी। कविता की शुरूआती पंक्तिया हैं - उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे / और हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं / जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं - इसे बूझना कठिन नहीं कि किन लोगों की बात यहा¡ की जा रही है। इस कविता में ही आलोक धन्वा की काव्यभाषा और बिम्बों में बदलाव के कुछ संकेत भी मौजूद हैं - धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो / या फल की तरह बहुत पास लटक रही हो - "हलचल से भरे नींबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ पर / रस छोड़ता रहता है" - यह कविता आँधियों , भादो की सबसे काली रातों, मेघों और बौछारों और इस सबमें शरण्य खोजती डरी हुई चिडियों के ब्योरों मे उतरती हुई अचानक फिर अपनी पुरानी शैली में एक बयान देती है - " चिडियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं / अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें / बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं/अगर आप उन्हें मारना बन्द कर दें ...................बच्चों को मारने वाले शासको / सावधान/ एक दिन आपको बर्फ में फेंक दिया जाएगा " - यहाँ आकर पता चलता है कि यह पतंग दरअसल किस दिशा में जा रही है। इसी कविता के तीसरे खंड में फिर भाषा और बिम्बों का वहीं संसार दिखाई देने लगता है, जिससे यह कविता शुरू हुई थी -" सवेरा हुआ / खरगोश की आंखों जैसा लाल सवेरा / शरद आया पुलों को पार करते हुए / अपनी नई चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए" - पूरी कविता में मौसम का बदलना और उसके साथ पतंग उड़ाने वालों का छत के खतरनाक किनारों से गिरकर भी बच जाना और फिर उन बचे हुए पैरों के पास पृथ्वी का तेज़ी से घूमते हुए आना - ये सब उसी जगह की ओर संकेत करते हैं , जहाँ से आम जन का संघर्ष और आलोक धन्वा की कविता जन्म लेती है। यहाँ फर्क भाषा और बिम्बपरक अभिव्यक्ति भर का है - आक्रोश और उसके उपादान वही पुराने हैं। मैं कभी नहीं भूलता लखनऊ दूरदर्शन पर आलोक धन्वा का वह काव्यपाठ, जिसमें वे इसी कविता को इतनी आश्वस्तकारी नाटकीयता के साथ पढ़ते हैं कि सुनने वाला स्तब्ध रह जाता है। शायद यही कारण है कि उस कविता-पाठ में मौजूद चार-पाच बड़े कवियों में से मुझे आज सिर्फ़ आलोक धन्वा का वह दुबला और कठोर चेहरा याद है। अगर मैं कहूँ कि संजय चतुर्वेदी की `भारतभूषण पुरस्कृत -पतंग´ की प्रेरणा भी आलोक धन्वा से ही आयी होगी तो संजय भाई शायद इस बात का बुरा नहीं मानेंगे - यहा¡ मैं सिर्फ़ आरंभिक प्रभाव की बात कर रहा हूँ , काव्यात्मक मौलिकता की नहीं।
1979 में आलोक धन्वा फिर एक लम्बी कविता के साथ उपस्थित होते हैं। `कपड़े के जूते´ नामक यह कविता `पहल´ में छपी और पहल वो पत्रिका है जिससे आज के कई बड़े कवियों का जन्म हुआ है। मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि वहीं से आलोक धन्वा ने किंचित भिन्न भौगोलिक और सामाजिक परिवेश से आए अरुण कमल, राजेश जोशी, मनमोहन, वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल जैसे अपने कई समानधर्मा युवा साथियों को पहली बार पहचाना होगा। रेल की पटरी के किनारे पड़े कैनवास के सफ़ेद परित्यक्त जूतों के थोड़े बोझिल विवरण के साथ कविता शुरू होती है लेकिन कुछ ही पंक्तियो बाद वह इस दृश्य के साथ अचानक एक बड़ा आकार लेने लगती है -" ज़मीन की सबसे बारीक़ सतह पर तो / वे जूते अंकुर भी रहे हैं" - यहाँ आलोक इन जूतों और उसी सदा चमकते हुए विचार और जोश के साथ अनगिन वंचितों, पीिड़तों और ठुकराए-सताए गए अपने प्रियतर लोगों की दुनिया में एक नई और अनोखी यात्रा आरम्भ कर देते हैं। वे खिलािड़यो, सैलानियों की आत्माओं, चूहों, गड़रियों, नावों से लेकर ज़मीन, जानवर और प्रकृति तक के नए-नए अर्थ-सन्दर्भ खोलते हुए कविता को ऐसे उदात्त अन्त तक पहुंचाते हैं -" मृत्यु भी अब उन जूतों को नहीं पहनना चाहेगी / लेकिन कवि उन्हें पहनते हैं / और शतािब्दया¡ पार करते हैं।" इस कविता में विचार समेत कई मानवीय भावनाओं का तनाव टूटने की हद तक खिंचता है और फिर एक ऐसे शानदार आत्मकथ्य में बदल जाता है, जो सारे कवियों का आत्मकथ्य हो सकता है।
1988 के साथ ही समय बदलता है। आलोक धन्वा की कविता में भी ये बदलाव नज़र आते हैं। यहा¡ से ही उनकी कविता स्त्रियों के एक विशाल, जटिल और गरिमामय संसार की ओर मुड़ जाती है। आलोक धन्वा से पहले और उनके साथ भी स्त्रियों पर कई कवि लिखते रहे हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में निराला की सरोज-स्मृति, स्फटिक शिला और वह तोड़ती पत्थर में पहली बार स्त्रियों के प्रति एक विरल काव्य-संवेदना जन्म लेती दिखाई देती है, जिसका विकास नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, चन्द्रकान्त देवताले, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, असद ज़ैदी, विमल कुमार आदि तक कई-कई रूपों में देखने को मिलता है। आलोक धन्वा इस राह के बेहद संवेदनशील और समर्पित राही हैं। उनकी ऐसी कविताओं में ठीक वही गरिमा और सौन्दर्य मौजूद है, जो निराला में था। मुझे लगता है इस परम्परा में अगर पा¡च-छह ही नाम लेने पड़ें तो मेरे लिए वो निराला, नागार्जुन, चन्द्रकान्त देवताले, रघुवीर सहाय, आलोक धन्वा और असद ज़ैदी होंगे। आलोक धन्वा की कविता में इस दौर की औपचारिक शुरूआत 1988 के आसपास से होती है। हम देख सकते हैं इस ओर मुड़ने में उन्होंने काफ़ी समय लिया। ऐसा इसलिए क्योंकि निश्चित रूप से वे उस जटिलता को व्यक्त करने के जोखिम जानते हैं, जिसे हम आम हिन्दुस्तानी स्त्री का अन्तर्जगत कहते हैं।
1988 में लिखी भागी हुई लड़किया उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। इसमें आलोक धन्वा ने एक ऐसे संसार को हिन्दी जगत के सामने रखा जो आंखों के सामने रहते हुए भी अब तक लगभग अप्रस्तुत ही था। किसी लड़की के घर से भाग जाने का हमारे औसत भारतीय समाज में क्या आशय है, यह बहुत स्पष्ट बात है। जिस समाज में विशिष्ट सामन्ती परम्पराओं और आस्थाओं के चलते औरत की यौनशुचिता को ही आदमी की इज्जत माना जाता हो, वहाँ बेटी का प्रेम में पड़ना और फिर घर से भाग जाना अचानक आयी किसी दैवीय विपदा से कम नहीं होता। इक्कीसवीं सदी में भी जब पंचायतें ऐसी लड़कियों और प्रेमियों को सरेआम कानून की धज्जिया¡ उड़ाते हुए फांसी पर लटका देती हैं, तब आलोक धन्वा की ये पंक्तिया¡ हमें अपने भीतर झा¡कने का एक मौका देती हैं - "घर की ज़जीरें / कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं / जब घर से कोई लड़की भागती है" - ये स्त्रीविमर्श से अधिक कुछ है। साहिित्यक विमर्श के आईने में ही देखें तो ये भागी हुई लड़कियां प्रभा खेतान की तरह सम्पन्न नहीं हैं और न ही अनामिका की तरह विलक्षण बुिद्ध-प्रतिभा की धनी हैं। ये तो हमारे गली-मोहल्लों की बेहद साधारण लड़कियां हैं। प्रभा खेतान या अनामिका का स्त्रीविमर्श इनके लिए शायद कुछ नहीं कर सकता। इनके दु:ख और यातना दिखा देने में ख़ुद विमर्श की मुक्ति भले ही हो, इन लड़कियों की मुक्ति कहीं नहीं है। उनका घर से भाग जाना महज एक पारिवारिक घटना नहीं, बल्कि एक जानलेवा सामाजिक प्रतिरोध भी है। वे अपने आप को जोखिम डालती हुई अपने बाद की पीढ़ी के लिए सामाजिक बदलाव का इतिहास लिखने की कोशिश करती हैं। ये प्रेम किसी प्रेमी के बजाए उस संसार के प्रति ज्यादा है, जिसमें एक दिन उनकी दुनिया की औरतें खुलकर साँस ले सकेंगी। हमारे सामन्ती समाज को समझाती हुई कितनी अद्भुत समझ है ये कवि की - "तुम्हारे टैंक जैसे बन्द और मजबूत घर से बाहर / लड़कियां काफ़ी बदल चुकी हैं / मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा / कि तुम अब / उनकी सम्भावना की भी तस्करी करो" - आलोक धन्वा की कविता में वे लड़कियां घर से भाग जाती हैं क्योंकि वे जानती हैं कि उनकी अनुपस्थिति दरअसल उनकी उपस्थिति से कहीं अधिक गूंजेगी । वे लड़कियां अपने अस्तित्व की इस गू¡ज के लिए भागती हैं और तब तक भागती रहेंगी जब तक कि घर और समाज में उनकी उपस्थिति, अनुपस्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो जाती। ऐसी लड़कियों के सामाजिक बहिष्कार करने या उन्हें जान से मार देने वाली बर्बर पुरुषवादी मानसिकता को पहली बार कविता में इस तरह से एक अत्यन्त मार्मिक किन्तु खुली चुनौती दी गई है - " उसे मिटाओगे / एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे / उसके ही घर की हवा से / उसे वहाँ से भी मिटाओगे / उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर / वहा¡ से भी / मैं जानता हूँ / कुलीनता की हिंसा !" - यदि आलोक धन्वा की प्रवृत्ति बदलाव के स्वप्न और सामाजिक वास्तविकता के बीच झूलते रहने की ही होती तो वे कभी न लिखते - "लड़की भागती है / जैसे सफ़ेद घोड़े पर सवार / लालच और जुए के आरपार / जर्जर दूल्हों से / कितनी धूल उठती है" - और साथ ही यह भी कि - "लड़की भागती है / जैसे फूलों में गुम होती हुई / तारों में गुम होती हुई / तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई / खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में" - वे सिर्फ़ लड़की के भागने की बात नहीं कहते बल्कि उसके मूल में मौजूद सामाजिक कारणों को भी स्पष्ट करते हैं। वे जब उसे तैराकी की पोशाक में जगरमगर स्टेडियम में दौड़ते हुए दिखाते हैं तो अपने बर्बर सामन्ती समाज में हावी वर्जनाओं और पाशविकता के अन्तिम द्वार को भी तोड़ देने की एक निजी लेकिन ज़रूरी कोशिश करते हैं। उनकी इस कोशिश में वे कहा¡ तक जाते हैं ये भी देखने चीज़ है - "तुम जो / पत्नियों को अलग रखते हो / वेश्याओं से / और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो / पत्नियों से / कितना आतंकित होते हो / जब स्त्री बेखौफ भटकती है / ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व / एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों / और प्रेमिकाओं में ! " - मुझे लगता है कि अपनी कविता में इस सच से आँख मिलाने वाला यह विलक्षण कवि अपनी ज़िन्दगी में भी इससे ज़रूर दो-चार हुआ होगा। कविता में भी उसने इस सच को एक गरिमा दी है और कविता में झलकती उसकी आत्मा का यक़ीन करें तो अपने जीवन में भी वह इससे ऐसे ही पेश आयेगा। इस कविता का जो झकझोरने वाला अन्त है, वह तो बिना किसी वास्तविक और जीवन्त अनुभव के आ ही नहीं सकता। इस अन्त में करुणा और शक्ति एक साथ मौजूद हैं। इतना सधा हुआ अन्त कि दूसरी किसी बहुत बड़ी कविता की शुरूआत-सा लगे। जहाँ तक मैं जानता हूँ समकालीन परिदृश्य पर इस भावात्मक लेकिन तार्किक उछाल में आलोक धन्वा की बराबरी करने वाले कवि बहुत कम हैं।
1989 में आलोक धन्वा ने बहुत कम पृष्ठों में एक महाकाव्य रचा, जिसे हिन्दी संसार `ब्रूनों की बेटिया¡´ नामक लम्बी कविता के रूप में जानता है। मुक्तिबोध की कुछ लम्बी कविताओं के अलावा मेरे लिए यह किसी कविता के इतना उदात्त हो सकने का एक दुर्लभतम उदाहरण है। एक कवि ख़ुद भी अपने विषय की ही तरह एक दुिर्नवार आग में जलता हुआ अनाचार और पाशविकता के विरुद्ध किस तरह प्रतिरोध का एक समूचा संसार खड़ा करता है, इसे जानना हो तो यह कविता पढ़िये और इस सच को भी स्वीकार कर लीजिये कि इसके पहले एकाग्र पाठ के साथ ही आप भी अपने भीतर उतने साबुत नहीं बचेंगे। मैंने वाचस्पति जी (अब काशीवासी) के निजी पुस्तकालय से पहल का एक पुराना अंक निकालकर जब पहली बार इसे पढ़ा, तब शायद मैं 18-19 बरस का था। मुझे नहीं पता था कि इस पत्रिका के उन धूल भरे पीले पन्नों में एक आग छुपी होगी। जैसा कि होना ही था, मैं इस आग में कई दिन जलता रहा। नागार्जुन की हरिजनगाथा मेरी स्मृति में थी लेकिन यह कविता तो जैसे अपने साथ एक खौलता हुआ लावा लेकर बह रही थी, जिससे बचना नामुमकिन था। लेकिन मैं यह भी कहना चाहूँगा कि इस अद्भुत कविता में आलोक धन्वा स्त्रियों के संसार में दाखिल होकर भी एक ख़ास किस्म की वर्ग चेतना से मुक्त नहीं हो पाते - " रानियाँ मिट गईं / जंग लगे टिन जितनी कीमत भी नहीं / रह गई उनकी याद की / रानियाँ मिट गई / लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही औरतें / फ़सल काट रही है " - यहा¡ आकर मैं कथ्य के स्तर पर कवि से थोड़ा असहमत हो जाता हूँ । रानियाँ हों कि किसान औरतें - मेरी वर्ग चेतना के हिसाब से वे एक ही श्रेणी में आती हैं। रानी होना उन औरतों की प्रस्थिति मात्र थी, वरना थीं तो वे भी औरतें ही। उतनी ही जकड़ी हुई। मैं यहाँ तर्कजनित इतिहासबोध की बात कर रहा हूँ । कोई कैसे भुला सकता है, जौहर या सती जैसी कलंकित प्रथाओं को। भारतीय इतिहास में उन्हें भी हमेशा जलाया ही गया। इस कविता की औरतें ग़रीब और दलित भी हैं, इसलिए उनके अस्तित्व की अपनी मुश्किलें हैं लेकिन रानियों का यह चलताऊ ज़िक्र इस कविता के अन्त को थोड़ा हल्का बनाता है। बहरहाल मैं इस कविता की अपनी व्याख्या में अधिक नहीं जाना नहीं चाहता क्योंकि फिर वहाँ से लौटना मेरे लिए हर बार और भी मुश्किल होता जाता है। इस कविता ने मुझे आख्यान रचने की एक समझ दी है और परिणाम स्वरूप आज मेरे पास ख़ुद की कुछ लम्बी कविताए¡ हैं। जब अग्रज सलाह देते हैं कि लम्बी कविता लिखनी है तो मुक्तिबोध को पढ़ो, तब वे आलोक धन्वा को भूल क्यों जाते हैं? मैं इस इलाक़े में कदम रखते हुए हमेशा ही मुक्तिबोध के अलावा आलोक धन्वा और विष्णु खरे को भी याद रखता हूँ । आज के समय में मेरे लिए ये दोनों ही लम्बे शिल्प के कविगुरू हैं।
1992 में लिखी छतों पर लड़कियां मुझे भागी हुई लड़कियों की कविता का आरिम्भक टुकड़ा जैसी लगती है जबकि उसे 4 साल बाद लिखा गया। उसी वर्ष में लिखी चौक कविता मेरे लिए आलोक धन्वा की एक बेमिसाल कविता है, जिसकी शुरूआती पंक्तियाँ न सिर्फ़ काव्यसाधना बल्कि एक अडिग भावसाधना का भी प्रमाण हैं - "उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा / जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया ! " - ये स्त्रियाँ ग़रीब मेहनकश स्त्रियाँ हैं जो हर सुबह अपनी आजीविका के लिए बरतन मांजने , कपड़े धोने या खाना पकाने जैसे कामों पर जाती हैं। ये भी ब्रूनो की वैसी ही बेटिया¡ हैं जो ओस में भीगे अपने आँचल लिए अलसुब्ह काम पर निकल जाती हैं। कवि का स्कूल उनके रास्ते में पड़ता है इसलिए उसकी मां उसे उन्हें उनके हवाले कर देती है। क्या सिर्फ़ स्कूल के रास्ते में पड़ जाने का कारण ही पर्याप्त है? बड़ा कवि वह होता है जिसकी कविता में अनकहा भी मुखर होकर बोले। यहाँ वही अनकहा बोलता है - दरअसल वे स्त्रियाँ भी एक मां हैं। उन ग़रीब स्त्रियों के जिस वैभव की बात कवि कर रहा है, वह यही मातृत्व और विरल मानवीय सम्बन्धों का वैभव है। कई दशक बाद भी चौराहा पार करते कवि को वे स्त्रियाँ याद आती हैं और वह अपना हाथ उनकी ओर बढ़ा देता है। मुझे नहीं लगता कि यह सिर्फ़ अतीत का मोह है। मेरे लिए तो यह वर्तमान से विलुप्त होती कुछ ज़रूरी संवेदनाओं की शिनाख्त है। आलोक धन्वा `शरीर´ नामक तीन पंक्तियों की एक नन्हीं-सी कविता में लिखते हैं -" स्त्रियों ने रचा जिसे युगों में / उतने युगों की रातों में उतने निजी हुए शरीर / आज मैं चला ढूंढने अपने शरीर में " - मैं सोचता हूँ कि इस कविता की तीसरी पंक्ति में आज मैं चला ढूंढने के बाद "उसी निजता को" - ये तीन शब्द शायद छपने से रह गए है। इस तरह ये कविता पहली दृष्टि में एक पहेली-सी लगती है लेकिन इसके बाद छपी हुई और इसी वर्ष में लिखी हुई `एक ज़माने की कविता´ में यह गुत्थी सुलझने लगती है। कविता का शुरूआती बिम्ब ही बेहद प्रभावशाली है, जहा¡ डाल पर फलों के पकने और उनसे रोशनी निकलने का एक अनोखा अनुभव हमें बा¡धता है। ये कौन से फल हैं, पकने पर जिनसे रोशनी निकलती है और यह पेड़ कैसा है? जवाब जल्द ही मिलता है, जब मेघों के घिरने और शाम से पहले ही शाम हो जाने पर बच्चों को पुकारती हुई मां गाँव के बाहर तक आ जाती है। इसके बाद आता है एक निहायत ही घरेलू लेकिन दुनिया भर के कविकौशल पर भारी यह दृश्य -" फ़सल की कटाई के समय / पिता थके-मांदे लौटते / तो मां कितने मीठे कंठ से बात करती " - पिता की थकान और मां की बातों की मिठास के अन्तर्सम्बन्ध का इस तरह कविता में आना दरअसल एक समूचे लोक का अत्यन्त सहज और कोमल किन्तु उतना ही दुर्लभ प्रस्फुटन है। इन तीन पंक्तियों में एक समूची दुनिया समाई है। मैं सोचता हूँ हिन्दी कविता में ऐसी कितनी पंक्तिया¡ होंगी ? यह कवि अपनी मां और परिवार के बारे में लिखते हुए कितनी आसानी से दुनिया की सभी मांओं के हृदय तक पहुँच जाता है। ऐसा करने के लिए यह ज़रूरी है कि कवि की आत्मा समूची स्त्री जाति के प्रति एक आत्मीय अनुराग और आदर से भरी हो। इस कविता के अन्त में कवि कहता भी है कि उसने दर्द की आँधियों में भी मां के गाए संझा-गीतों को बचाया है। इन गीतों या इनकी स्मृतियों को सहजते हुए आलोक धन्वा अपने दिल को और साफ़ - और पारदर्शी बना लेते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब रेल जैसी औपनिवेशिक मशीन को देखकर भी आलोक धन्वा इसी अकेले निष्कर्ष पर पहुँचते हैं -" हर भले आदमी की एक रेल होती है / जो मां के घर की ओर जाती है" - वे बार-बार मानो सिद्ध करना चाहते हैं कि स्त्री के कई रूपों में सबसे अहम है उसके भीतर की मां ! मां के प्रति यह झुकाव कवि के अपने निजी व्यक्तित्व की ओर भी इशारा करता है। "विस्मय तरबूज़ की तरह" कविता में वे लिखते हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा याद हैं वे स्त्रियाँ जिन्होंने बचपन में उन्हें चूमा तो यहाँ भी मातृत्व का वही आग्रह दिखाई देता है। आलोक धन्वा के लिए बिना किसी अतिरेक के समूची सृष्टि ही जैसे मां हो जाती है। दुनिया की इस सबसे बड़ी सर्जक शक्ति का एक गुनगुना एहसास कभी उनका साथ नहीं छोड़ता और इसीलिए उनकी दुनिया रोज़ बनती है ।
दुनिया रोज़ बनती है में मौजूद एक कम बड़ी कविता जिलाधीश का ज़िक्र भी मैं ज़रूर करना चाहूँगा , जिसमें आज़ाद भारत के नए कर्णधारों पर बहुत सार्थक और तल्ख़ टिप्पणी दर्ज है। यह मेरी बहुत चहेती कविताओं में से एक है। मैं कल्पना ही कर सकता हूँ कि आलोक धन्वा को यह विषय कैसे सूझा होगा। सचमुच हमारे गली-मुहल्लों में पला-बढ़ा एक लड़का जब सत्ता का औज़ार बनता है तो वह एक ही वक्त में हमसे कितना पास और कितना दूर होता है - "यह ज्यादा भ्रम पैदा कर सकता है / यह ज़्यादा अच्छी तरह हमें आज़ादी से दूर रख सकता है........... कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है" - मुझे जे एन यूं में दीक्षित कुछ मित्रों ने बताया है कि आलोक धन्वा उनके बीच बहुत समय रहे हैं। जे एन यूं में रहने या वहाँ आने-जाने के दौरान ही उन्होंने इस कविता का पहला सूत्र पकड़ा होगा। एक इतनी स्पष्ट बात पर जैसे आज तक किसी की नज़र ही नहीं थी। सामने मौजूद अदृश्यों पर रोशनी डाल उन्हें इस तरह अचानक पकड़ लेना भी शायद कला का ही एक ऐसा पहलू है, जो विचार के बिना सदा अधूरा ही रहेगा। आलोक धन्वा के यहाँ कला और विचार एकमेक हो जाते हैं। यह पूर्णता किसी भी बड़े और समर्थ कवि के लिए भी स्वप्न की तरह होती है और उतनी ही भ्रामक भी लेकिन आलोक धन्वा में इसका ज़मीनी रूप दिखता है। जहाँ कला बहुत होगी, वहाँ विचार कम होता जायेगा जैसी कोई भी टिप्पणी कभी उन पर लागू नहीं हो सकेगी। आलोक धन्वा की पहचान उनकी लम्बी कविताओं के कारण ज्यादा है, जबकि वे कुछ बेहद कलात्मक छोटी कविताओं के भी कवि हैं। शरद की रातें, सूर्यास्त के आसमान, पक्षी और तारे, सात सौ साल पुराना छन्द, पहली िफ़ल्म की रोशनी, क़ीमत आदि ऐसी ही कविताए हैं। इन कविताओं में रोशनी से भरी बेहद हल्की भाषा और कलात्मक कुशलता का जैसा रूप दिखाई पड़ता है, उसे हिन्दी का तथाकथित कलावादी खेमा सात जन्म में भी नहीं पा सकेगा। शमशेर को जिन प्रभावों के कारण कलावादी मानकर मान्यता देने की राजनीति अब तक होती आयी है, आलोक धन्वा को उस ज़मीन पर कोई छू भी नहीं सका है। इस तरह देखूं तो आलोक धन्वा ने शमशेर की परम्परा को उसके सबसे सच्चे रूप में सहेजा है। ग़ौरतलब है कि मेरे दूसरे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल के अब तक छपे दोनों संग्रहों में भी शमशेर को समर्पित कवितायेँ हैं लेकिन आलोक धन्वा के संकलन में यह समर्पण अनकहा होने बावजूद अधिक साफ़ दिखाई पड़ता है।
आलोक धन्वा ने अपनी कविता की शुरूआत बेहद खुरदुरी और ज़मीनी वास्तविकताओं के बयान से की थी और इस किताब में देखें तो वह अपने उत्कर्ष तक आते-आते एक अलग बिम्बजगत और भाषा के साथ दुबारा उसी हक़ीक़त को अधिक प्रभावशाली ढंग से बयान करने लगती है। 1998 में आलोक धन्वा ने "सफ़ेद रात" लिखी। मुझे फिलहाल तो अमरीकी साम्राज्यवाद के विरोध में लिखी गई कोई कविता इसके बराबर क़द की नहीं लगती। मैं इधर अपने मित्र अशोक पांडे की प्रेरणा से इंटरनेट पर कविताओं की खोज में काफ़ी भटकने लगा हूँ - मुझे अब तक किसी और भाषा में भी ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिखा है तो हो सकता है कि यह शायद मेरी खोज की सीमा हो। भारतीय सन्दर्भ में देखें तो क्रान्तिकारियों पर लिखे हज़ारों पृष्ठ भी उतना नहीं समझा पाते जितना आलोक धन्वा की ये तीन पंक्तियाँ समझा देती हैं - "जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े / तो अहिंसा ही थी / उनका सबसे मुश्किल सरोकार।" सफ़ेद रात का ज़िक्र आते ही मेरा मन थोड़ा पर्सनल होने को करता है। 2003 की मई में यह रानीखेत की एक अंधेरी रात थी। घर में कवि वीरेन डंगवाल और अशोक पांडे मेरे साथ थे। रात गहराती गई और तभी दूर तक फैली घाटियों और पहाड़ों पर तारों-सी टिमटिमाती बत्तियां अचानक गुल हो गईं। तब हमने अपने हिस्से की उस दुनिया में एक पतली-सी मोमबत्ती जलाई और कुछ शुरूआती हँसी -मज़ाक के बाद अचानक वीरेन दा ने इस कविता का पाठ करना शुरू कर दिया। उन्होंने जिस तरह भावावेग में का¡पते हुए इसे पढ़ा वह आने वाली पीढ़ियों के सुनने के लिए रिकार्ड करने योग्य था। कविता की एक-एक पंक्ति में मौजूद तनाव उस हिलती हुई थोड़ी-सी पीली रोशनी में मानो आकाशीय बिजली-सा कौंधता और कड़कता था। अशोक और मैं स्तब्ध थे। हमारी पलकें भीग रही थीं। बगदाद की गलियों में सिर पर फिरोजी रुमाल बांधे उस लड़की का ज़िक्र आते-आते हम फूट ही पड़े। हमारा ये भीतरी रूदन शायद हमारे निजी दु:खों से उपजा हो पर वह बर्बरों द्वारा लगातार उजाड़े जा रहे इस संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं में हमारी ताक़तवर और मानवीय उपस्थिति का भी पता देता था। मैंने इसे आंशिक रूप से एक कविता में भी लिखा है, जो पिछले दिनों आए विपाशा के कवितांक में दर्ज है।
और अंत में ......... प्रसंगवश - बड़े भाई चन्द्रभूषण ने इधर अपने ब्लाग पहलू पर सूचना दी है कि आप बिना सिर दर्द की गोली खाए आलोक धन्वा के साथ दो घंटे से ज्यादा नहीं रह सकते। मेरा यह लेख भी शायद ऐसा ही हो। बहरहाल नौजवानी के बेहद उर्वर दिनों में जो कुछ भी दिल में ध¡स चुका, उससे छुटकारा मेरे लिए तो सम्भव नहीं। इस कवि ने अपनी कविताओं से संवेदना के स्तर पर मेरे भावसंसार में बहुत कुछ नया जोड़ा है। इस कवि की ताक़त को झुठला पाना किसी भी समय और स्थिति में मुझ जैसे किसी भी व्यक्ति के लिए असम्भव ही होगा।
(संयोग ही है कि मेरे लिए अपनी इस प्रिय पुस्तक पर लिखना और कथादेश में उसका न छपना तब हो रहा है, जबकि असीमा भट्ट जी का आत्मसंघर्ष सुर्खियों में है। अपने दाम्पत्य के बारे अगर किसी को कुछ बोलने का अधिकार है तो वो असीमा के अलावा आलोक धन्वा ही हो सकते हैं। दूसरा कोई बोले तो उससे बचकाना और कुछ नहीं होगा। मैं ये ज़रूर कहना चाहता हूँ कि मेरे लिए कभी-कभार विवादों में आ जाने वाला आलोक धन्वा या दूसरे किसी साहित्यकार का निजी जीवन उसके रचना-संसार के बरअक्स ज्यादा मोल नहीं रखता। कभी निराला की जीवनशैली पर भी कुछ बड़े तूफ़ान उठाए गए थे - उठाने वालों का तो पता नहीं पर निराला अपने कवि के ज़रिए जो कुछ हिन्दी संसार को दे गए, वह अमर है।
मेरे लिए दुनिया रोज़ बनती है कि कविताओं का कवि भी इस महादेश के जीवन और जनता के कुछ बेहद सच्चे और खरे अनुभवों का एक बड़ा कवि है, जिसे मैं अब तक पढ़ी विश्वकविता के साथ रखकर देखता हूँ तो तब भी वह वहीं दिखाई देता है, क्योंकि उसके पास अपनी ज़मीन है। मुझे आज यह कहने में भी कोई संकोच नहीं कि आज से सौ साल बाद अगर बची तो आलोक धन्वा की सिर्फ़ कविता बचेगी, उनके दाम्पत्य का कोई विवरण नहीं। मेरी तो यही मान्यता है और रहेगी। बाक़ी दुनिया की खुदा जाने !)
Wednesday, March 5, 2008
बुल्लिया, की जाणा मैं कौन?
बुल्लिया, की जाणा मैं कौन?
ना मैं मोमिन विच्च मसीता
ना मैं विच्च कुफ़र दियां रीता,
ना मैं पाक आं विच पलीता,
ना मैं मूसा ना फ़िर औन।
ना मैं विच्च पलीती पाकी,
ना विच्च शादी, ना गमना की,
ना मैं आबी ना मैं खाकी,
ना मैं आतिश ना मैं पौन।
ना मैं भेत मजब दा पाया,
ना मैं आदम-हव्वा जाया,
ना मैं अपना नाम धराया,
ना विच बैटन ना विच भौं।
अव्वल आखर आप नू जाणा,
ना कोई दूजा आप पछाणा ,
मैथों वध ना कोई सिआणा,
बुल्ल्हिया ओह खड़ा है कौन ?
इन पंक्तियों का अर्थ कुछ यू है...
साधना की एक ऐसी अवस्था आती है जिसे संत बेखुदी कह लेते हैं, जिसमे उसकी अपना आपा अपनी ही पहचान से परे हो जाता है। इसीलिए बुल्लेशाह कहते हैं की मैं क्या जानू की मैं कौन हूँ?
मैं मोमिन नही की मस्जिद में मिल सकूं, न मैं पलीत (अपवित्र) लोगों के बीच पवित्र व्यक्ति हूँ और न ही पवित्र लोगों के बीच अपवित्र हूँ। मैं न मूसा हूँ और फ़िर औन भी नही हूँ।
इस प्रकार मेरी अवस्था कुछ अजीब है, ना मैं पवित्र लोगों के बीच, न अपवित्र लोगों के बीच हूँ और मेरी मनोदशा न प्रसन्नता की है, न उदासी की। मैं जल अथवा स्थल में रहनेवाला भी नही हूँ, न मैं आग हूँ और पवन भी नही।
मजहब का भेद भी नही पा सका। मैं ऐडम और हव्वा के संतान भी नही हूँ। इसलिए मैंने अपना कोई नाम भी नही रखा है। ना मैं जड़ हूँ और जगम भी नही हूँ।
कुल मिलाकर कहूँ, मैं किसी को नही जानता, मैं बस अपने-आपको ही जानता हूँ, अपने से भिन्न किसी दूसरे को मैं नही पहचानता। बेखुदी अपना लेने के बाद मुझसे आगे सयाना और कौन होगा? बुल्लेशाह कहते हैं की मैं यह भी नही जानता की भला वह खड़ा कौन है?
जब भी मैं ख़ुद को अकेला पता हूँ, पता नही क्यों बुल्लेशाह की ये पंक्तियाँ काफी प्रभावित करती हैं।... विनीत
Tuesday, March 4, 2008
बहुत दिनों से डाकिया घर नहीं आया + - 'राग दरबारी' का (प्रेम) पत्र
आजकल पत्र कौन लिखता है? सरकारी,व्यव्सायी,नौकरी-चाकरी के आवेदन-बुलावा आदि के अतिरिक्त पारिवारिक-सामाजिक पत्र हमारी जिंदगी के हाशिए से भी सरक गए है.क्या ऐसा संचार के वैकल्पिक संसाधनों-साधनों की सहज उपलब्धता के कारण हुआ है? या कि समय का अभाव,पारिवारिक-सामाजिक संरचना के तंतुजाल में दरकाव,पेपरलेस कम्युनिकेशन की ओर अग्रगामिता आदि-इत्यादि इसकी वजहें हैं? बहरहाल, इस गुरु-गंभीर विषय पर विमर्श की विचार-वीथिका में वरिष्ठ-गरिष्ठ विद्वानों को विचरण करने का अवसर प्रदान करते हुए मैं तो बस यही कहना चाह रहा हूं कि कहां गए वो दिन? वो पत्र-लेखन और पत्र-पठन के दिन अब तो पत्र-लेखन कला स्कूली पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह-सी गई है।
कुछ लोग कहेंगे कि ई मेल और एसएमएस पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है।हां,ये भी पत्र के विकल्प-रूप हैं और इनके जरिए व्यक्त की जाने वाली संवेदना तथा उसके शिल्प को मैं नकार भी नहीं रहा हूं किन्तु यहां मेरी मुराद कागज पर लिखे जाने वाले उस पत्र से है जिससे तमाम भाषाओं का विपुल साहित्य भरा पड़ा है,जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था.
श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी'(१९६८) मेरी प्रिय पुस्तकों की सूची में काफी ऊपर है.पिछले महीने दिल्ली में संपन्न पुस्तक विश्व पुस्तक मेले में राजकमल /राधाकृष्ण प्रकाशन के स्टाल पर इसकी जबरदस्त डिमांड मैंने खुद देखी थी. मुझे बार-बार इस उपन्यास से गुजरना अच्छा लगता है.अपने समय और समाज को समझने के लिए यह उपन्यास मेरे लिए एक उम्दा संदर्भ ग्रंथ का काम भी करता रहा है.अपनी इसी प्रिय पुस्तक में शामिल एक पत्र (या प्रेम पत्र )लेखक के प्रति आदर और प्रकाशक के प्रति आभार व्यक्त करते हुए 'कबाड़खाना' के पाठकों की सेवा में इस उम्मीद के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं कि इसे इतिहास के बहीखाते में दर्ज होने की तरफ अग्रसर पत्र-लेखन कला एवं(अथवा)विज्ञान का एक उदाहरण मात्र माना जाए- कंटेंट, रेफरेंस और जेंडर से परे.यह जानते हुए कि ऐसा कतई संभव नहीं है,फिर भी-...
'राग दरबारी' का (प्रेम) पत्र
ओ सजना ,बेदर्दी बालमा,
तुमको मेरा मन याद करता है.पर चॉंद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर.वह बेचारा दूर से देखे करे न कोई शोर.तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मन्दिर ,तुम्हीं मेरी पूजा ,तुम्ही देवता हो,तुम्हीं देवता हो.याद में तेरी जाग-जाग के हम रात-भर करवटें बदलते हैं.
अब तो मेरी हालत यह हो गई है कि सहा भी न जाए,रहा भी न जाए.देखो न मेरा दिल मचल गया,तुम्हें देखा और बदल गया.और तुम हो कि कभी उड़ जाए,कभी मुड़ जए भेद जिया का खोले ना.मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको प्यार छिपाने की बुरी आदत है.कहीं दीप जले कहीं दिल,जरा देख तो आकर परवाने.
तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं.ये सुलगते हुए जज्बात किसे पेश करें.मुहब्बत लुटाने को जी चाहता है.पर मेरा नादान बालमा न जाने जी की बात.इसलिए उस दिन मैं तुमसे मिलने आई थी .पिय़ा- मिलन को जाना.अंधेरी रात.मेरी चॉदनी बिछुड़ गई,मेरे घर में पड़ा अंधियारा था.मैं तुमसे यही कहना चाहती थी,मुझे तुमसे कुछ न चाहिए .बस, अहसान तेरा होगा मुझ परमुझे पलकों की छांव में रहने दो.पर जमाने का दस्तूर है ये पुराना,किसी को गिराना किसी को मिटाना.मैं तुम्हारी छत पर पहुंची पर वहां तुम्हारे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था.मैं लाज के मारे मर गई.बेबस लौट आई.ऑधियों ,मुझ पर हंसो,मेरी मुहब्बत पर हंसो.
मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो.तुम कब तक तड़पाओगे? तड़पा लो,हम तड़प-तडप कर भी तुम्हारे गीत गाएंगे.तुमसे जल्दी मिलना है.क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मन्दिर सूना है.अकेले हैं,चले आओ जहां हो तुम.लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो.यही है तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए,हाय़.हम आस लगाए बैठे हैं.देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना।
तुम्हारी याद में,
कोई एक पागल।