Monday, February 28, 2011
Saturday, February 26, 2011
Friday, February 25, 2011
अनिल सिन्हा नहीं रहे
कॉमरेड अनिल सिन्हा के अचानक निधन की सूचना मुझे अभी अभी प्रणय भाई की मेल से प्राप्त हुई. क्या इत्तेफ़ाक है की कल ही उनके सहकर्मी पत्रकार श्री महेश पाण्डे से उनके बारे में ऐसे ही कुछ बात चल रही थी. १९९२ में उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई थी. जन संस्कृति मंच ने मेरा पहला संग्रह छापा था. उसी के लोकार्पण समारोह में आए थे वे. जीवन को संजीदगी से जीने के हिमायती अनिल जी बहुत सादा इन्सान थे. उनका न रहना मेरे लिए भी एक व्यक्तिगत हानि तो है ही, जन संस्कृति मंच जैसा बड़ा सांस्कृतिक संगठन भी उनके बिना काफ़ी अधूरा सा रहेगा काफ़ी समय तक. यह एक अपूरणीय क्षति है. प्रणय दादा की मेल जस की तस इस पोस्ट में:
प्रिय साथियो,
अबतक आप सबको साथी अनिल सिन्हा के असमय गुज़र जाने का अत्यंत दुखद समाचार मिल चुका होगा. अनिल जी जैसा सादा और उंचा इंसान , उनके जैसा संघर्ष से तपा निर्मल व्यक्तित्व, क्रांतिकारी वाम राजनीति और संस्कृति -कर्म का अथक योदधा अपने पीछे कितना बड़ा सूनापन छोड़ गया है, अभी इसका अहसास भी पूरी तरह नहीं हो पा रहा. यह भारी दुःख जितना आशा जी, शाश्वत, ऋतु,निधि,अनुराग, अरशद और अन्य परिजन तथा मित्रों का है उतना ही जन संस्कृति के सभी सह-कर्मियों का भी. हमने एक ऐसा साथी खोया है जिससे नयी पीढी को बहुत कुछ सीखना था, कृतित्व से भी और व्यक्तित्व से भी. हमारे सांस्कृतिक आन्दोलन के हर पड़ाव के वे साक्षी ही नहीं, निर्माताओं में थे. कलाओं के अंतर्संबंध पर जनवादी-प्रगतिशील नज़रिए से गहन विचार और समझ विकसित करनेवाले विरले समीक्षक, मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक व्यक्तित्व के रूप में वे प्रगतिशील संस्कृति कर्म के बाहर के भी दायरे में अत्यंत समादृत रहे. उनके रचनाकार पर तो अलग से ही विचार की ज़रुरत है. जन संस्कृति मंच अपने आन्दोलन के इस प्रकाश स्तम्भ की विरासत को आगे बढाने का संकल्प लेते हुए कामरेड अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि व्यक्त करता है. हम साथी कौशल किशोर द्वारा अनिल जी के जीवन और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली संक्षिप्त टिप्पणी नीचे दे रहे हैं. यह टिप्पणी और अनिल जी की तस्वीर अटैचमेंट के रूप में भी आपको संप्रेषित कर रहा हूँ.
प्रणय कृष्ण,
महासचिव,
जन संस्कृति मंच
जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे
लखनऊ, 25 फरवरी। जाने माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे। आज 25 फरवरी को दिन के 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में उनका निधन हुआ। 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से पटना आ रहे थे, ट्रेन में ही उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार आज उन्होंने अन्तिम सांस ली। उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा। उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृतिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई। जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है। उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है।
ज्ञात हो कि अनिल सिन्हा एक जुझारू व प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं। उनका जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विशविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्दालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया। अमृत प्रभात लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया।
अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के पहले सचिव थे। वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा (माले) से भी जुड़े थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जेसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। इस राजनीति जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था।
कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘सामा्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया थ। उनकी सैकड़ों रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है। उनका रचना संसार बहुत बड़ा है , उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया। मृत्यु के अन्तिम दिनों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित शमशेर, नागार्जुन व केदार जन्तशती आयोजन के वे मुख्य कर्ताधर्ता थे।
नके निधन पर शोक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी राय, अशोक भौमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप् कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीष चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंक राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं। अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे। इनकी आलोचना में सृजनात्मकता और शालीनता दिखती है। ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृजनात्मकता हो। इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है।
कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ
कबाड़ख़ाने की टीम की तरफ से अनिल जी को श्रद्धांजलि.
प्रिय साथियो,
अबतक आप सबको साथी अनिल सिन्हा के असमय गुज़र जाने का अत्यंत दुखद समाचार मिल चुका होगा. अनिल जी जैसा सादा और उंचा इंसान , उनके जैसा संघर्ष से तपा निर्मल व्यक्तित्व, क्रांतिकारी वाम राजनीति और संस्कृति -कर्म का अथक योदधा अपने पीछे कितना बड़ा सूनापन छोड़ गया है, अभी इसका अहसास भी पूरी तरह नहीं हो पा रहा. यह भारी दुःख जितना आशा जी, शाश्वत, ऋतु,निधि,अनुराग, अरशद और अन्य परिजन तथा मित्रों का है उतना ही जन संस्कृति के सभी सह-कर्मियों का भी. हमने एक ऐसा साथी खोया है जिससे नयी पीढी को बहुत कुछ सीखना था, कृतित्व से भी और व्यक्तित्व से भी. हमारे सांस्कृतिक आन्दोलन के हर पड़ाव के वे साक्षी ही नहीं, निर्माताओं में थे. कलाओं के अंतर्संबंध पर जनवादी-प्रगतिशील नज़रिए से गहन विचार और समझ विकसित करनेवाले विरले समीक्षक, मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक व्यक्तित्व के रूप में वे प्रगतिशील संस्कृति कर्म के बाहर के भी दायरे में अत्यंत समादृत रहे. उनके रचनाकार पर तो अलग से ही विचार की ज़रुरत है. जन संस्कृति मंच अपने आन्दोलन के इस प्रकाश स्तम्भ की विरासत को आगे बढाने का संकल्प लेते हुए कामरेड अनिल सिन्हा को श्रद्धांजलि व्यक्त करता है. हम साथी कौशल किशोर द्वारा अनिल जी के जीवन और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली संक्षिप्त टिप्पणी नीचे दे रहे हैं. यह टिप्पणी और अनिल जी की तस्वीर अटैचमेंट के रूप में भी आपको संप्रेषित कर रहा हूँ.
प्रणय कृष्ण,
महासचिव,
जन संस्कृति मंच
जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे
लखनऊ, 25 फरवरी। जाने माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे। आज 25 फरवरी को दिन के 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में उनका निधन हुआ। 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से पटना आ रहे थे, ट्रेन में ही उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार आज उन्होंने अन्तिम सांस ली। उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा। उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृतिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई। जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है। उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है।
ज्ञात हो कि अनिल सिन्हा एक जुझारू व प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं। उनका जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विशविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्दालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया। अमृत प्रभात लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया।
अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के पहले सचिव थे। वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा (माले) से भी जुड़े थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जेसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। इस राजनीति जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था।
कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘सामा्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया थ। उनकी सैकड़ों रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है। उनका रचना संसार बहुत बड़ा है , उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया। मृत्यु के अन्तिम दिनों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित शमशेर, नागार्जुन व केदार जन्तशती आयोजन के वे मुख्य कर्ताधर्ता थे।
नके निधन पर शोक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी राय, अशोक भौमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप् कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीष चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंक राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं। अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे। इनकी आलोचना में सृजनात्मकता और शालीनता दिखती है। ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृजनात्मकता हो। इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है।
कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ
कबाड़ख़ाने की टीम की तरफ से अनिल जी को श्रद्धांजलि.
जाना अंकल पई का
कल अनंत पई (१७ सितम्बर १९२९-२४ फरवरी २०११) का देहांत हो गया. अमर चित्र कथा जैसी अमर श्रंखला के जनक अंकल पई ने १९६७ में इन महान कृतियों की रचना शुरू की थी. मुझे यकीन है आप में से अधिकाँश के जीवन में अमर चित्र कथा से आपका साक्षात्कार एकाधिक बार अवश्य हुआ होगा. अमर चित्र कथा की हर साल तीस लाख से ज्यादा प्रतियां बिका करती हैं और एक अनुमान के मुताबिक़ अब तक इनकी बिक्री का आंकड़ा दस करोड़ से ऊपर जा चुका है. अमर चित्र कथा की शुरुआत का किस्सा बड़ा दिलचस्प है. फरवरी १९६७ में दूरदर्शन पर एक क्विज़ का प्रसारण किया गया. अनंत पई ने भी वह शो देखा. वे यह देख कर हैरान रह गए की प्रतिभागियों ने ग्रीक देवी-देवताओं से सम्बंधित सारे सवालों के जवाब तो सारे सही दिए पर भारतीय मिथकों की उनकी जानकारी बहुत कम थी. एक प्रतिभागी तो यह तक नहीं बता सका कि राम की माता का नाम क्या था.
सिर्फ दो साल की आयु में अनाथ हो गए अनंत ने विज्ञान की पढाई की. रसायन विज्ञान, भौतिकी और रासायनिक तकनीकी में स्नातक की दोहरी डिग्री धारक अनंत ने तो कुछ और ही करना था.
व्यक्तिगत रूप से मेरे जीवन में अनंत पई बहुत बड़ी जगह रखते हैं. अमर चित्र कथा की मेरी बचपन में जमा की गयी प्रतियां आज भी बाकायदा बाइंड करा के सुरक्षित धरी हुई हैं और मेरे परिजनों-मित्रों के बच्चों की कई पीढ़ियों तक पहुँचती रही हैं.
अमर चित्र कथा का कच-देवयानी वाला अंक मेरा सर्वप्रिय रहा है. राक्षस बार बार कच का वध करते जाते हैं और शुक्राचार्य बार बार उसकी राख को गटक कर अपने पेट से बार-बार उसे पुनर्जन्म देते जाते हैं.
इस बाबत कहने को बहुत कुछ है पर अभी समयाभाव है. फिर कभी. अंकल पई को कबाड़ख़ाने की हार्दिक श्रद्धांजलि.
वक़्त की कैद में जिंदगी है ...
मलिका-ए-ग़ज़ल फरीदा खानुम ने कई गज़लें गायीं हैं | लेकिन जितना लोकप्रिय ये खूबसूरत गीत हुआ है, उतना उनका गाया कोई दूसरा नहीं हुआ | कलकत्ता में जन्मी फरीदा पार्टीशन के बाद लाहौर चली गयीं | फरीदा हिंदुस्तान से मिले प्यार को सर माथे लेतीं हैं | और ये भी कहती हैं कि उन्हें अगर बुलाया जाए तो उन्हें हिंदुस्तान में रहने में भी कोई गुरेज नहीं है | यहाँ ये भी ध्यान दिलाना चाहूँगा कि हिंदुस्तान को लेकर ये प्यार राहत, आतिफ जैसा प्यार नहीं है | लता मंगेशकर की बेहद मुरीद फरीदा को पाकिस्तान का दूसरा सर्वोच्च सम्मान हिलाल-ए-इम्तियाज़ भी मिला है |
बहरहाल फरीदा के इस गीत में है प्यार की बेबसी और प्रेमियों की इक बेबाक तमन्ना कि बस आज मत जाओ | संगीत कभी तुम्हे जख्म नहीं दे सकता, लेकिन उस दर्द का हल्का अहसास पैदा कर सकता है | Thursday, February 24, 2011
इनाना
ईराक़ी कवयित्री दून्या मिखाइल की एक और कविता पढ़िये:
इनाना
मैं इनाना हूं.
और यह मेरा शहर है.
और यह हमारी मुलाक़ात है
गोल, लाल और भरपूर.
यहां, कुछ समय पहले
कोई गुहार लगा रहा था मदद के लिए
अपनी मौत से ज़रा पहले.
मकान यहां तब भी थे
अपनी छतों
लोगों
और खजूर के पेड़ों के साथ.
मेरे देश में किसी विदेशी की तरह
अपना सर कलम किए जाने से ज़रा पहले
मेरे कानों में कुछ फुसफुसाना चाहते थे
खजूर के पेड़ .
मैं टीवी पर देखती हूं
अपने पुराने पड़ोसियों को
बचकर भागते हुए
बमों
साइरनों
और अबू अल-तुबार से.
मैं देखती हूं
अपने नए पड़ोसियों को
फ़ुटपाथ पर भागते हुए
सुबह की अपनी वर्ज़िश के दौरान.
मैं यहां हूं
कम्प्यूटर और माउस
के बीच के सम्बन्ध के बारे में सोचती हुई.
मैं तुम्हें खोजती हूं इन्टरनैट पर.
मैं चीन्हती हूं तुम्हें
कब्र-दर-कब्र
खोपड़ी-दर-खोपड़ी
हड्डी-दर-हड्डी.
मैं तुम्हें
अपने ख़्वाब में देखती हूं.
मैं देखती हूं
पुरातन चीज़ों को
टूटा
और बिखरा
संग्रहालय में.
मेरा हार उनमें है
मैं चीखती हूं तुम पर:
तमीज़ से रहना सीखो, तुम मृतकों के पुत्रो!
मेरे कपड़ों और सोने के लिए
लड़ना बन्द करो!
तुम किस कदर खलल डालते हो मेरी नींद में
और मेरे देश से डरा कर भगा देते हो
चुम्बनों के एक रेवड़ को!
तुमने रोपे अनार के पेड़ और क़ैदख़ाने
गोल, लाल और भरपूर.
ये मेरी पोशाक में तुम्हारे छेद हैं.
और यह हमारी मुलाक़ात है ...
(इनाना: प्रेम, उपजाऊपन, जन्म और युद्ध की सुमेरियाई देवी. मानव इतिहास में दर्ज़ पहली देवी
अबू-अल-तुबार: १९७० के दशक में बग़दाद में एक क्रूर सीरियल किलर, जो बाद में बाथिस्ट शासन का छोड़ा गया गुर्गा निकला.)
इनाना
मैं इनाना हूं.
और यह मेरा शहर है.
और यह हमारी मुलाक़ात है
गोल, लाल और भरपूर.
यहां, कुछ समय पहले
कोई गुहार लगा रहा था मदद के लिए
अपनी मौत से ज़रा पहले.
मकान यहां तब भी थे
अपनी छतों
लोगों
और खजूर के पेड़ों के साथ.
मेरे देश में किसी विदेशी की तरह
अपना सर कलम किए जाने से ज़रा पहले
मेरे कानों में कुछ फुसफुसाना चाहते थे
खजूर के पेड़ .
मैं टीवी पर देखती हूं
अपने पुराने पड़ोसियों को
बचकर भागते हुए
बमों
साइरनों
और अबू अल-तुबार से.
मैं देखती हूं
अपने नए पड़ोसियों को
फ़ुटपाथ पर भागते हुए
सुबह की अपनी वर्ज़िश के दौरान.
मैं यहां हूं
कम्प्यूटर और माउस
के बीच के सम्बन्ध के बारे में सोचती हुई.
मैं तुम्हें खोजती हूं इन्टरनैट पर.
मैं चीन्हती हूं तुम्हें
कब्र-दर-कब्र
खोपड़ी-दर-खोपड़ी
हड्डी-दर-हड्डी.
मैं तुम्हें
अपने ख़्वाब में देखती हूं.
मैं देखती हूं
पुरातन चीज़ों को
टूटा
और बिखरा
संग्रहालय में.
मेरा हार उनमें है
मैं चीखती हूं तुम पर:
तमीज़ से रहना सीखो, तुम मृतकों के पुत्रो!
मेरे कपड़ों और सोने के लिए
लड़ना बन्द करो!
तुम किस कदर खलल डालते हो मेरी नींद में
और मेरे देश से डरा कर भगा देते हो
चुम्बनों के एक रेवड़ को!
तुमने रोपे अनार के पेड़ और क़ैदख़ाने
गोल, लाल और भरपूर.
ये मेरी पोशाक में तुम्हारे छेद हैं.
और यह हमारी मुलाक़ात है ...
(इनाना: प्रेम, उपजाऊपन, जन्म और युद्ध की सुमेरियाई देवी. मानव इतिहास में दर्ज़ पहली देवी
अबू-अल-तुबार: १९७० के दशक में बग़दाद में एक क्रूर सीरियल किलर, जो बाद में बाथिस्ट शासन का छोड़ा गया गुर्गा निकला.)
दरसन देना प्राण पियारे
पंडित भीमसेन जोशी के स्वर में रसिकलाल जी का रचा कृष्ण भजन
डाउनलोड लिंक - http://www.divshare.com/download/14131473-df3
मैं समय और अन्तरिक्ष से पुराना हूं
पुर्तगाली महाकवि-चिन्तक फ़र्नान्दो पेसोआ से कबाड़ख़ाने के पाठक अपरिचित नहीं. उनके सघन गद्य की बानगी एकाधिक बार इस ब्लॉग पर प्रस्तुत की जा चुकी है. हाल ही में उनकी पुस्तक द बुक ऑफ़ डिस्क्वायट मुझ तक मेरे एक मित्र के मार्फ़त पहुंची है. फ़िलहाल के वास्ते पेश कर रहा हूं इस अद्भुत पुस्तक के कुछ चुनिन्दा टुकड़े
१७२.
यह ढाल पनचक्की तक पहुंचता है लेकिन मेहनत कहीं नहीं पहुंचती.
शुरूआती शरद की दोपहर थी, आसमान में एक ठंडी, मृत ऊष्मा थी और बादल नमी के अपने कम्बल से रोशनी को कुचले दे रहे थे.
नियति ने मुझे फ़क़त दो चीज़ें दीं - बहीखातों का हिसाबकिताब रख सकना और सपने देखने की प्रतिभा.
१८६.
अगर नियति का कोई मतलब होता तो मेरा दिल देवताओं के पास चला जाता! अगर देवताओं की कोई नियति होती तो मैं नियति के पास चला जाता!
कभी कभी मैं रातों को जाग जाता हूं. मुझे अहसास होता है कि अदृश्य हाथ मेरी नियति को बुन रहे हैं.
यहां पड़ा है मेरा जीवन. मेरे भीतर की कोई भी चीज़ कहीं कोई ख़लल नहीं डालती.
१८८.
चाहे उसका जीवन कितना ही मुश्किलों भरा क्यों न हो, किसी भी साधारण इन्सान को कम से कम यह सुख तो है कि वह उस बारे में न सोचे. जीवन को जस का तस जीना, किसी कुत्ते या बिल्ली जैसे बाहरी तौर पर जीवित रहना - ज़्यादातर लोग इसी तरह जीते हैं, अगर हमारे भीतर कुते-बिल्ली जैसा सन्तोष आ जाए तो जीवन को ऐसे ही जिया जाना चाहिए.
सोचने का मतलब है विनाश. सोचने की प्रक्रिया में खुद विचार नष्ट हो जाता है, क्योंकि सोचने का मतलब होता ही क्षय करना है. अगर इन्सानों को पता होता कि जीवन के रहस्य के बारे में कैसे विचार किया जाए, अगर उन्हें पता होता कि किसी भी कार्य की एक-एक तफ़सील की आत्मा पर जासूसी करती हज़ारों जटिलताओं को कैसे महसूस किया जाए, तो वे कभी कोई काम नहीं करते - वे तो जीते भी नहीं. वे डर के कारण अपनी हत्या कर लेते, ठीक उन्हीं की तरह जो अगले दिन गिलोटीन पर गरदन काटे जाने से बचने के लिए आत्महत्या कर लेते हैं.
१८९.
बरसाती दिन
हवा नकाबपोश पीली है, जिस तरह ज़र्द पीला नज़र आएगा गंदले सफ़ेद से देखे जाने पर. सलेटी हवा में बमुश्किल कहीं पीला है, लेकिन सलेटी के ज़र्दपन की उदासी में एक पीला रंग है.
२१८
मैं समय और अन्तरिक्ष से पुराना हूं क्योंकि मैं चेतन हूं. चीज़ें मुझसे बनती हैं; प्रकृति मेरी सनसनियों की सन्तान है.
मैं खोजता हूं और मुझे नहीं मिलता. मैं इच्छा करता हूं पर वह मेरे पास नहीं हो सकता.
मेरे बिना सूरज उगता है और मर जाता है; मेरे बिना बरसात गिरती है और हवा दहाड़ती है. यह मेरे कारण नहीं है कि समय बीतता है, बारह महीने होते हैं, मौसम होते हैं.
पृथ्वी की ज़मीनों की तरह मेरे भीतर संसार का बादशाह, जिसे मैं अपने साथ ले कर नहीं जा सकता ...
१७२.
यह ढाल पनचक्की तक पहुंचता है लेकिन मेहनत कहीं नहीं पहुंचती.
शुरूआती शरद की दोपहर थी, आसमान में एक ठंडी, मृत ऊष्मा थी और बादल नमी के अपने कम्बल से रोशनी को कुचले दे रहे थे.
नियति ने मुझे फ़क़त दो चीज़ें दीं - बहीखातों का हिसाबकिताब रख सकना और सपने देखने की प्रतिभा.
१८६.
अगर नियति का कोई मतलब होता तो मेरा दिल देवताओं के पास चला जाता! अगर देवताओं की कोई नियति होती तो मैं नियति के पास चला जाता!
कभी कभी मैं रातों को जाग जाता हूं. मुझे अहसास होता है कि अदृश्य हाथ मेरी नियति को बुन रहे हैं.
यहां पड़ा है मेरा जीवन. मेरे भीतर की कोई भी चीज़ कहीं कोई ख़लल नहीं डालती.
१८८.
चाहे उसका जीवन कितना ही मुश्किलों भरा क्यों न हो, किसी भी साधारण इन्सान को कम से कम यह सुख तो है कि वह उस बारे में न सोचे. जीवन को जस का तस जीना, किसी कुत्ते या बिल्ली जैसे बाहरी तौर पर जीवित रहना - ज़्यादातर लोग इसी तरह जीते हैं, अगर हमारे भीतर कुते-बिल्ली जैसा सन्तोष आ जाए तो जीवन को ऐसे ही जिया जाना चाहिए.
सोचने का मतलब है विनाश. सोचने की प्रक्रिया में खुद विचार नष्ट हो जाता है, क्योंकि सोचने का मतलब होता ही क्षय करना है. अगर इन्सानों को पता होता कि जीवन के रहस्य के बारे में कैसे विचार किया जाए, अगर उन्हें पता होता कि किसी भी कार्य की एक-एक तफ़सील की आत्मा पर जासूसी करती हज़ारों जटिलताओं को कैसे महसूस किया जाए, तो वे कभी कोई काम नहीं करते - वे तो जीते भी नहीं. वे डर के कारण अपनी हत्या कर लेते, ठीक उन्हीं की तरह जो अगले दिन गिलोटीन पर गरदन काटे जाने से बचने के लिए आत्महत्या कर लेते हैं.
१८९.
बरसाती दिन
हवा नकाबपोश पीली है, जिस तरह ज़र्द पीला नज़र आएगा गंदले सफ़ेद से देखे जाने पर. सलेटी हवा में बमुश्किल कहीं पीला है, लेकिन सलेटी के ज़र्दपन की उदासी में एक पीला रंग है.
२१८
मैं समय और अन्तरिक्ष से पुराना हूं क्योंकि मैं चेतन हूं. चीज़ें मुझसे बनती हैं; प्रकृति मेरी सनसनियों की सन्तान है.
मैं खोजता हूं और मुझे नहीं मिलता. मैं इच्छा करता हूं पर वह मेरे पास नहीं हो सकता.
मेरे बिना सूरज उगता है और मर जाता है; मेरे बिना बरसात गिरती है और हवा दहाड़ती है. यह मेरे कारण नहीं है कि समय बीतता है, बारह महीने होते हैं, मौसम होते हैं.
पृथ्वी की ज़मीनों की तरह मेरे भीतर संसार का बादशाह, जिसे मैं अपने साथ ले कर नहीं जा सकता ...
Wednesday, February 23, 2011
दून्या मिखाइल की एक कविता
चर्चित ईराक़ी कवयित्री दून्या मिखाइल की एक कविता पेश है:
मोची
एक निपुण मोची ने
अपनी समूची ज़िन्दगी
कीलें ठोकी हैं
और मुलायम बनाया है चमड़े को
अलग अलग तरह के पैरों के लिए:
बच निकलने वाले पैर
लात मारने वाले पैर
धंस जाने वाले पैर
दौड़ने वाले पैर
ठोकर खाने वाले पैर
धराशाई हो जाने वाले पैर
कूदने वाले पैर
अटकने वाले पैर
पैर जो स्थिर होते हैं
पैर जो कांपते हैं
पैर जो नाचते हैं
पैर जो लौटते हैं ...
जीवन एक मोची के हाथों में
मुठ्ठीभर कीलें होता है.
मोची
एक निपुण मोची ने
अपनी समूची ज़िन्दगी
कीलें ठोकी हैं
और मुलायम बनाया है चमड़े को
अलग अलग तरह के पैरों के लिए:
बच निकलने वाले पैर
लात मारने वाले पैर
धंस जाने वाले पैर
दौड़ने वाले पैर
ठोकर खाने वाले पैर
धराशाई हो जाने वाले पैर
कूदने वाले पैर
अटकने वाले पैर
पैर जो स्थिर होते हैं
पैर जो कांपते हैं
पैर जो नाचते हैं
पैर जो लौटते हैं ...
जीवन एक मोची के हाथों में
मुठ्ठीभर कीलें होता है.
संगत सन्तन की कर ले
कबीरदास जी का भजन, स्वर पंडित भीमसेन जोशी का
डाउनलोड लिंक: http://www.divshare.com/download/14131442-487
युवा आबिदा परवीन को देखिए-सुनिए
सूफ़ी संगीत के क्षेत्र में आबिदा परवीन एक जाना पहचाना नाम हैं. पाकिस्तान के ख्यात शास्त्रीय गायक उस्ताद ग़ुलाम हैदर की पुत्री आबिदा इस मायने में भाग्यशाली रहीं कि उन्हें उनके पिता ने तमाम रिवायतों को दरकिनार कर बाक़ायदा संगीत शिक्षा दी और वे उन्हें तमाम महफ़िलों में भी ले जाया करते थे. बाद में उस्ताद सलामत अली ख़ान साहेब ने उनके टेलेन्ट को निखारा.
आज देखिये बेहद युवा आबिदा परवीन और वहीद अली ख़ान का एक दुर्लभ वीडियो -
Tuesday, February 22, 2011
खाने पीने को पैसा होय तो जोरू बन्दगी करे
पंडित भीमसेन जोशी सुना रहे हैं सन्त कबीर की रचना - सब पैसे के भाई
(शुरू के पांच-सात सेकेन्ड तक शायद कुछ भी सुनाई न दे. कुछ तकनीकी ख़ामी है. माफ़ी!)
यहां से डाउनलोड करें: http://www.divshare.com/download/14131317-eac
अरुणा साईंराम की आवाज़ में अभंग
कर्नाटक संगीत में अरुणा साईराम एक जाना पहचाना नाम हैं. अपनी माता श्रीमती राजलक्ष्मी सेतुरमन से संगीत की पहली शिक्षा ग्रहण करने वाली अरुणा ने ख्यात कर्नाटक संगीतकारों मदुराई सोमसुन्दरम और टी. वृंदा से बाकायदा प्रशिक्षण प्राप्त किया. पल्लवी गायन उन्होंने टी. आर. सुब्रह्मण्यम से सीखा.
आज की पोस्ट में देखिये-सुनिये अरुणा जी को अभंग गाते हुए. विठ्ठल देवता (विठ्ठोबा) की प्रशंसा में गाए जाने वाले इन भजनों को सबसे पहले सन्त नामदेव ने मराठी में गाना शुरू किया था.
पेश है कर्नाटक संगीत में गाई गई अभंग की यह बेजोड़ प्रस्तुति
Monday, February 21, 2011
ओ हेलेन, क्या बारिश है
महमूद दरवेश की कई रचनाएँ कबाड़ख़ाने पर पेश की जा चुकी हैं. उसी कड़ी में अज उनकी एक और कविता:
ओ हेलेन, क्या बारिश है
एक मंगलवार को मेरी मुलाक़ात हुई हेलेन से
तीन बजा था, अनन्त ऊब का पल
लेकिन
हेलेन जैसी स्त्री के साथ
बारिश की ध्वनि
यात्रा के साथ किसी गीत जैसी थी.
उफ़ क्या बारिश है
और उफ़ क्या इच्छा
ख़ुद अपने लिए स्वर्ग की इच्छा
और उफ़ क्या कराहें
अपनों के लिए भेड़ियों की कराहें
सुखाई हुई छतों पर बारिश
गिरजाघरों में मूर्तियों का सुखाया गया सोना
रोटी बेचनेवाला एक अजनबी, हेलेन से कहता है:
"धरती मुझसे कितना दूर है और
तुमसे कितनी दूर है प्रेम?"
अजनबी हेलेन से कहता है,
एक गली में जो हेलेन के स्टॉकिंग जितनी संकरी है,
"केवल एक ही शब्द है और बारिश
पेड़ों के लिए प्यासी बारिश
पत्थरों के लिए प्यासी बारिश."
रोटी बेचने वाले से अजनबी कहता है
"हेलेन, हेलेन,
क्या इस पल डबलरोटी की महक तुम से उठती हुई
एक सुदूर देश की बालकनी में
होमर के शब्दों की जगह नहीं ले रही?
क्या कविता के सूखे पेड़ों से होकर
नमी तुम्हारे कन्धों से भाप बनकर नहीं उठ रही."
हेलेन जवाब देती है, "क्या बारिश है! क्या बारिश है!"
अजनबी उससे कहता है:
"मैं चाहता हूं कि नारसिसस पानी को निहारे,
मेरे शरीर में तुम्हारे पानी को.
ओ हेलेन, हमारे स्वप्नों के पानी को निहारो
और अपने किनारों पर तुम सुनोगी
मृतक तुम्हारे नाम का जाप कर रहे होंगे.
ओ हेलेन, हेलेन,
हमें अकेला मत छोड़ो
चन्द्रमा जितना अकेला!"
वह जवाब देती है, "क्या बारिश है! क्या बारिश है!"
अजनबी उससे कहता है,
"मैं लड़ा करता था तुम्हारी अपनी जुड़वां खन्दकों में -
मेरे एशियाई रक्त से कभी मुक्त नहीं होओगी तुम
उस अनजान रक्त से कभी मुक्त नहीं होओगी तुम
जो बह रहा है तुम्हारे ग़ुलाबों की नसों में!
कितने क्रूर थे यूनानी उन दिनों
अपनी गाथा की खोज में
कितनी शिद्दत से यात्राएं किया करता था वह जंगली ओडीसियस !"
मैंने हेलेन से जो नहीं कहा, वह कहा
और जो कहा वह मैंने नहीं कहा.
लेकिन हेलेन जानती है कि अजनबी ने क्या छोड़ दिया अनकहा
और जो वह कहता है बारिश में
घुलाती अपनी महक वाली डबलरोटी से.
सो वह उसे जवाब देती है:
"ट्रॉय का युद्ध कभी हुआ ही नहीं था
कभी नहीं
कभी नहीं"
क्या बारिश है!
क्या बारिश!
---
हेलेन: हेलेन ऑफ़ ट्रॉय के नाम से जानी जाने वाली ज़ीयस और लीडा की पुत्री.
होमर: ईसा से करीब आठ सौ साल पहले जन्मे एक महान प्राचीन यूनानी कवि जो अपने महाकाव्यों इलियाड और ओडिसी के लिए जाने जाते हैं.
नारसिसस: यूनानी गाथाओं के मुताबिक एक अति सुदर्शन युवक जिसे तालाब में दिख रही अपनी ही परछाई से प्यार हो गया था जो उसकी मृत्यु का कारण बनी.
ओडीसियस: होमर की महागाथा ओडिसी का नायक एक यूनानी राजा.
ट्रॉय का युद्ध: पेरिस नामक एक योद्धा द्वारा हेलेन का अपहरण कर लिए जाने के परिणामस्वरूप ट्रॉय का युद्ध हुआ था.
ओ हेलेन, क्या बारिश है
एक मंगलवार को मेरी मुलाक़ात हुई हेलेन से
तीन बजा था, अनन्त ऊब का पल
लेकिन
हेलेन जैसी स्त्री के साथ
बारिश की ध्वनि
यात्रा के साथ किसी गीत जैसी थी.
उफ़ क्या बारिश है
और उफ़ क्या इच्छा
ख़ुद अपने लिए स्वर्ग की इच्छा
और उफ़ क्या कराहें
अपनों के लिए भेड़ियों की कराहें
सुखाई हुई छतों पर बारिश
गिरजाघरों में मूर्तियों का सुखाया गया सोना
रोटी बेचनेवाला एक अजनबी, हेलेन से कहता है:
"धरती मुझसे कितना दूर है और
तुमसे कितनी दूर है प्रेम?"
अजनबी हेलेन से कहता है,
एक गली में जो हेलेन के स्टॉकिंग जितनी संकरी है,
"केवल एक ही शब्द है और बारिश
पेड़ों के लिए प्यासी बारिश
पत्थरों के लिए प्यासी बारिश."
रोटी बेचने वाले से अजनबी कहता है
"हेलेन, हेलेन,
क्या इस पल डबलरोटी की महक तुम से उठती हुई
एक सुदूर देश की बालकनी में
होमर के शब्दों की जगह नहीं ले रही?
क्या कविता के सूखे पेड़ों से होकर
नमी तुम्हारे कन्धों से भाप बनकर नहीं उठ रही."
हेलेन जवाब देती है, "क्या बारिश है! क्या बारिश है!"
अजनबी उससे कहता है:
"मैं चाहता हूं कि नारसिसस पानी को निहारे,
मेरे शरीर में तुम्हारे पानी को.
ओ हेलेन, हमारे स्वप्नों के पानी को निहारो
और अपने किनारों पर तुम सुनोगी
मृतक तुम्हारे नाम का जाप कर रहे होंगे.
ओ हेलेन, हेलेन,
हमें अकेला मत छोड़ो
चन्द्रमा जितना अकेला!"
वह जवाब देती है, "क्या बारिश है! क्या बारिश है!"
अजनबी उससे कहता है,
"मैं लड़ा करता था तुम्हारी अपनी जुड़वां खन्दकों में -
मेरे एशियाई रक्त से कभी मुक्त नहीं होओगी तुम
उस अनजान रक्त से कभी मुक्त नहीं होओगी तुम
जो बह रहा है तुम्हारे ग़ुलाबों की नसों में!
कितने क्रूर थे यूनानी उन दिनों
अपनी गाथा की खोज में
कितनी शिद्दत से यात्राएं किया करता था वह जंगली ओडीसियस !"
मैंने हेलेन से जो नहीं कहा, वह कहा
और जो कहा वह मैंने नहीं कहा.
लेकिन हेलेन जानती है कि अजनबी ने क्या छोड़ दिया अनकहा
और जो वह कहता है बारिश में
घुलाती अपनी महक वाली डबलरोटी से.
सो वह उसे जवाब देती है:
"ट्रॉय का युद्ध कभी हुआ ही नहीं था
कभी नहीं
कभी नहीं"
क्या बारिश है!
क्या बारिश!
---
हेलेन: हेलेन ऑफ़ ट्रॉय के नाम से जानी जाने वाली ज़ीयस और लीडा की पुत्री.
होमर: ईसा से करीब आठ सौ साल पहले जन्मे एक महान प्राचीन यूनानी कवि जो अपने महाकाव्यों इलियाड और ओडिसी के लिए जाने जाते हैं.
नारसिसस: यूनानी गाथाओं के मुताबिक एक अति सुदर्शन युवक जिसे तालाब में दिख रही अपनी ही परछाई से प्यार हो गया था जो उसकी मृत्यु का कारण बनी.
ओडीसियस: होमर की महागाथा ओडिसी का नायक एक यूनानी राजा.
ट्रॉय का युद्ध: पेरिस नामक एक योद्धा द्वारा हेलेन का अपहरण कर लिए जाने के परिणामस्वरूप ट्रॉय का युद्ध हुआ था.
The Reluctant Fundamentalist
मोहसिन हामिद की किताब The Reluctant Fundamentalist एक पाकिस्तानी युवा चंगेज़ का एकालाप है. लाहौर के एक रेस्तरां में चंगेज़ और उसका अमेरिकी मेहमान मेज़ पर आमने सामने बैठ कर रात का भोजन कर रहे हैं. अमेरिकी मेहमान और उसकी पहचान के बारे में हमें कुछ ज्यादा पता नहीं चलता. बस समय समय पर चंगेज़ उसे संबोधित करता हुआ कथा को थोड़ी देर का विराम ज़रूर देता है. ऐसा कहीं कहीं लगता है की अमेरिकी संभवतः चंगेज़ का पीछा करता रहा है क्योंकि चंगेज़ हाल के समय में अमेरिकियों के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों का नेतृत्व करने लगा है. अमेरिकी एक खास मिशन पर है, ऐसा लग सकता है - शायद उसके पास कोई हथियार भी है.
चंगेज़ अमेरिकी मेहमान को अपने जीवन के बारे में विस्तार से बताता है. पढने-लिखने में खासा तेज़ चंगेज़ ९/११ घटने से पहले प्रिंसटन जैसे बड़े संस्थान से डिग्री हासिल करने के बाद एक नामचीन्ह फ़र्म में ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी कर रहा था और कॉर्पोरेट जगत में उसका भविष्य बेहद उज्ज्वल नज़र आ रहा था. वह एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मनीला गया होता है जहाँ टीवी पर उसे ९/११ के आतंकवादी हमलों की जानकारी मिलती है.
यह किताब सिर्फ ९/११ के पहले और उसके बाद जैसी थीम पर ही नहीं है. इसमें चंगेज़ का एक अटपट तरह का प्रेम-प्रसंग भी है - एरिका नाम की युवती से जो किशोरावस्था में मर गए अपने पहले प्रेमी की याद से ओब्सेस्ड रहती है और अंततः आत्महत्या कर लेती है.
उपन्यास का शीर्षक की विडम्बना समझाने के लिए हामिद हमसे बार-बार पूछते है कि क्या किसी भी मुस्लिम देश में रहने वाला कोई भी अमेरिका-विरोधी कट्टरपंथी घोषित कर दिया जन चाहिए या यह कि क्या यह शब्द (कट्टरपंथी) विशुद्ध रूप से अमेरिकी उच्च पूंजीपति समुदाय के लिए उचित नहीं है. अमेरिका में अपने शुरुआती दिनों के दौरान जब एक बार उसे अपने अमीर अमेरिकी साथियों के साथ लम्बी छुट्टी पर जाने का अवसर मिलता है तो धन के उनके भौंडे प्रदर्शन को देख कर हैरान चंगेज़ सोचता है:
“I ... found myself wondering by what quirk of human history my companions — many of whom I would have regarded as upstarts in my own country, so devoid of refinement were they — were in a position to conduct themselves in the world as though they were its ruling class.”
९/११ के बाद अमेरिका कि प्रतिक्रिया भी चंगेज़ को हैरत में डालती है:
"t seemed to me that America, too, was increasingly giving itself over to a dangerous nostalgia at that time. There was something undeniably retro about the flags and uniforms, about generals addressing cameras in war rooms and newspaper headlines featuring such words as duty and honor. I had always thought of America as a nation that looked forward; for the first time I was struck by its determination to look back."
किताब की शुरुआत में चंगेज़ ऐलान करता है कि वह अमेरिका से प्रेम करता है. लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है अमेरिका के ढीठ और संवेदनाहीन रवैये के प्रति उसका तार्किक विरोध उत्तरोत्तर मुखर होता जाता है:
"As a society, you were unwilling to reflect upon the shared pain that united you with those who attacked you. You retreated into myths of your own difference, assumptions of your own superiority. And you acted out these beliefs on the stage of the world, so that the entire planet was rocked by the repercussions of your tantrums, not least my family"
१९७१ में पाकिस्तान में जन्मे मोहसिन हामिद ने अपने बचपन के कुछ साल अमेरिका में गुज़ारे जहाँ उनके पिता स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में अपने शोध के सिलसिले में रह रहे थे. ९ वर्ष कि आयु में वे वापस पाकिस्तान आ गए. उच्च शिक्षा के लिए वे १८ का होने पर पुनः अमेरिका गए जहाँ उन्होंने प्रिन्सटन विश्वविद्यालय में पढाई करते हुए नोबेल पुरुस्कार प्राप्त लेखिका टोनी मॉरिसन जैसे अध्यापकों से शिक्षा पाई.
हार्वर्ड से कानून कि शिक्षा पाने के बाद हामिद २००१ में लन्दन आ गए. २००९ तक लन्दन में कई नौकरियां करने के बाद वे अपनी पत्नी और पुत्री के साथ लाहौर शिफ्ट हो गए. मोहसिन हामिद फिलहाल अपना समय लाहौर, लन्दन, न्यूयॉर्क, इटली, यूनान वगैरह जगहों पर बिताते हैं अपने लेखन के बारे में उनका कहना है - "अक्सर एक उपन्यास किसी खंडित व्यक्ति का अपने खुद के साथ संवाद भी हो सकता है"
मान बुकर अवार्ड के लिए नामित की गई हामिद की किताब The Reluctant Fundamentalist कोई क्लासिक तो नहीं कही जा सकती पर एक बार पढ़े जाने की दरकार ज़रूर रखती है.
Saturday, February 19, 2011
रोनाल्डो! रोनाल्डो!!
आज से क्रिकेट का विश्वकप शुरू हो रहा है. लेकिन खेल जगत में फ़रवरी २०११ एक और घटना के लिए याद की जाती रहेगी - ब्राज़ील के फ़ुटबॉलर रोनाल्डो ने इस महीने खेल से संन्यास ले लिया. जादुई लातीन अमेरिकी फ़ुटबॉल के सम्भवतः अन्तिम प्रतिनिधि रोनाल्डो के रिटायरमैन्ट पर भाई शिवप्रसाद जोशी ने यह लेख कबाड़ख़ाने के लिए भेजा है.
धूप और परछाई के फ़ुटबॉल में
शिवप्रसाद जोशी
नौ साल पहले की सुखद स्मृतियों और उसके बाद विवादों आरोपों कलहों द्वंद्वों तनावों और चोटों के अजीबोग़रीब सिलसिलों के बाद 2011 की फ़रवरी में ब्राज़ीली खिलाड़ी रोनाल्डो ने आख़िर फ़ुटबॉल से संन्यास ले लिया. उस खेल से जिसके वो सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में से एक माने जाते रहे हैं. फ़ुटबॉल के इतिहास में फ़्रांस के ज़ेनादिन ज़ेदान और रोनाल्डो ही दुनिया के सिर्फ़ दो ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें खेल की शीर्ष संस्था फ़ीफ़ा का प्लेयर ऑफ़ द इयर अवार्ड तीन बार हासिल हुआ है.
रोनाल्डो के नाम और भी कई रिकॉर्ड हैं. विश्व कप फ़ुटबॉल में सबसे ज़्यादा 15 गोलों का रिकॉर्ड उन्हीं के नाम है. 2007 में हुए एक पोल में उन्हें सर्वकालिक टीम के ग्यारह खिलाड़ियों में से एक चुना गया. फ़ुटबॉल के जादुगर पेले ने दुनिया के महानतम फ़ुटबॉलरों की सूची तैयार की थी, उसमें रोनाल्डो का भी नाम था. पिछले साल ही फ़ुटबॉल की एक मशहूर वेबसाइट गोल डॉट कॉम के एक ऑनलाइन पोल में दशक के खिलाड़ी के रूप में रोनाल्डो को सबसे ज़्यादा वोट मिले.
2010 की फ़रवरी में रोनाल्डो ने कहा था कि वो 2011 में खेल से रिटायर हो जाएंगें. अपनी धुन के पक्के रोनाल्डो ने ठीक एक साल बाद ये एलान भी कर दिया.
22 सितंबर 1976 को रोनाल्डो लुइस नज़ारियो दि लिमा नाम के साथ जन्मे रोनाल्डो फ़ुटबॉल खेल जगत में उस समय चमक के साथ प्रकट हुए थे जब 20वीं सदी का आखिरी दशक चल रहा था और 21वीं सदी आ रही थी.
21 साल की उम्र में अपना पहला खिताब पाने वाले रोनाल्डो फ़ुटबॉल की उस जादुई चमक और उस रहस्य भरे लातिनी शौर्य के आख़िरी रचनाकार हैं जिसकी झलक पेले और माराडोना ने दिखाई थी.
गठीला बदन चौड़ा मुंह खुला ललाट उभरा हुआ जबड़ा धंसी हुई आंखें और तीक्ष्ण गहरी निगाहें. पेले और माराडोना के बाद रोनाल्डो समकालीन लातिन फ़ुटबॉल के सर्वाधिक खिलाड़ियों में एक हैं. मैदान पर वो एक सोचते हुए खिलाड़ी की तरह खेलते रहे हैं जो मौक़ा लगते ही गेंद और गोल पर बाघ की तरह नहीं झपटता था बल्कि विपक्षी टीम के हाफ़ में एक रणनीति के साथ कहीं पर ठहरा हुआ अपनी जगह पर हिलडुल करता हुआ सा आवेग था. गेंद झपटने के लिए रोनाल्डो हमला नहीं करते थे वो न जाने कैसे एक शांत स्थिरता लगभग ख़ामोश चपलता से विपक्षी डिफ़ेंस के पांवों में फंसी गेंद को अपनी कलात्मकता की दर्शनीय उलझन में ले आते थे. वो डिफ़ेंस को तितरबितर नहीं करते थे. रोनाल्डो के उल्लेखनीय गोल अगर आप देखें तो पाएंगें कि विपक्षी खिलाड़ी उनके साथ बराबर बने रहते हैं. रोनाल्डो के खेल की ये रोचकता है कि उन्हें देखते ही विपक्ष दाएं बाएं नहीं हो जाता. वो उन्हें कुछ इस तरह दोस्ताना चुनौती में सहजता में साथ ले आते हैं और फिर उनके बीच अपनी वो निराली विनम्र टॉसिंग फ़्लिकिंग करते थे. वहां गेंद विपक्षी खिलाड़ी के पांव से टकराती हुई वापस रोनाल्डो के पांवों से चिपक जाती है. वो अपने दोनों पांवों को गेंद खेलाते हुए दौड़ते जाते हैं. रोनाल्डो ने बड़ी स्ट्राइकों की अपेक्षा बजाय ज़्यादातर सरकाते हुए कोण बनाते हुए ऐन गोलपोस्ट तक पहुंचते हुए छकाते हुए गोल किए हैं. गेंद भी जैसे उनके पांवों के संतुलन नियंत्रण अनुशासन और नृत्य के स्टैप्स पर लहराती झूमती गोलपोस्ट में गिरती जाती थी. रचना की कठिन चढ़ाई को पार कर रचना का एक विकट ढलान और फिर वापस. खेल का अनूठा सांबा सांबा. अपने दिग्गज अग्रजों और अपने प्रतिभाशाली समकालीन खिलाड़ियों की खेल ऊर्जा को रोनाल्डो ने अपने खेल में समाहित करने की कोशिश की थी.
रोनाल्डो ने खेल की बदौलत अपार लोकप्रियता अपार प्रतिष्ठा अपार अमीरी हासिल की.
वो उन असाधारण दिनों में अपनी पीली जर्सी पहने एक कौंध खेल में दिखा रहे थे जब बाज़ार फ़ुटबॉल के मैदान में बढ़ता ही चला आ रहा था. पीला और कई रंगों वाला ये जादू एक अभूतपूर्व आग के हवाले हो जाने वाला था जो शोहरत और कमाई के रूप में खिलाड़ियों का वक़्त और प्रतिभा और जुनून निगलती जा रही थी. और फैलती ही जाती थी.
रोनाल्डो ऐसे ही उस दौर के शिकंजे में आए हुए बीमार पस्त खिलाड़ी रह चुके थे जब 1998 के विश्व कप में उनकी टीम को फ्रांस से मात खानी पड़ी थी. इंजेक्शन देकर उन्हें मैदान पर उतारा गया था. वो फ़ाइनल खेलने लायक नहीं थे. पारिवारिक मुश्किलों अवसाद और चोटों से बीमार रोनाल्डो ड्रेसिंग रूम में उल्टी कर रहे थे. लेकिन उनकी टीम उनके देश उनकी कंपनी उनके क्लब उनके नाम का इतना भारी दबाव था कि रोनाल्डो को न उतारने की कल्पना कोई कर ही नहीं सकता था. ख़ुद रोनाल्डो हैरान थे. उस दिन उन्हें पहली बार लगा था कि प्रेत भी फ़ुटबॉल के मैदान पर जाकर भाग सकते हैं इधर उधर निरीह ढंग से गेंद को धकियाते ख़ुद को फेंकते रह सकते हैं. लेकिन रोनाल्डो बाज़ार के उस प्रेत को अपनी आदमक़द सामर्थ्य में वापस क़ैद कर सकने वाले खिलाड़ी थे. लालच और कमाई के उस विशालकाय जबड़े से चालाकी और चतुराई और चमत्कार से निकल आने वाले खिलाडी़ भी वो बने. 2002 का विश्व कप इसका गवाह है. जहां रोनाल्डो अविश्वसनीय और ऐतिहासिक ज़िद के साथ मैदान पर उतरे थे और अपनी टीम को विश्व कप जिताने में प्रमुख भूमिका उन्होंने निभाई थी.
रोनाल्डो इस जीत के बाद ब्राज़ील ही नहीं सहसा पूरे खेल के ही महानायक बन गए थे. वो एक ऐसा क़िला बन गए थे जो आसमान की बुलंदियों को न जाने कैसे ऊंचा ही उठता जाता था. रोनाल्डो को देखने के लिए नज़रें ऊपर करनी पड़ती थीं. एक बार फिर रोनाल्डो उस विकट इम्तहान में घिर गए जिससे उनका देश और समूचा लातिन अमेरिका सदियों से गुज़रता आ रहा था. रोनाल्डो एक महान खेल के एक समृद्ध संपन्न शक्तिशाली उपनिवेश बना दिए गए. रोनाल्डो जैसे धुरंधर इस “किक” से स्तब्ध रह गए. वो उन अमीर खेल क्लबों में इधर से उधर घूमते ठिठकते रहे जो इस बीच अपने खिलाड़ियों के कलात्मक हुनर और इसके पीछे पीछे उनके ग्लैमर और उनकी मांग और प्रशंसकों के बीच उनके क्रेज़ के दम पर दुनिया के कई देशों और उनकी सरकारों के सकल घरेलू उत्पाद जितना या कहीं उससे ज़्यादा कमाते रहे हैं. रोनाल्डो ने अपने रिटायरमेंट पर यही कहा कि इस ख़ूबसूरत खेल के लिए उन्होंने कई त्याग किए और अब अपने शरीर के साथ संघर्ष करते हुए वो हार चुके हैं. रोनाल्डो भले ही कह कर गए कि उन्हें कोई मलाल नहीं है. लेकिन उनके रिटायरमेंट बयान में उनकी जिस्मानी तक़लीफ़ की ओर ही इशारा नहीं है उस बड़ी फैली हुई विडंबना की ओर भी अनचाहे ही इशारा है जो एक खिलाड़ी को खेल के मैदान से इतर उसकी लोकप्रियता के रिंग में रौंद कर रख देती है.
उरुग्वे के प्रसिद्ध लेखक उपन्यासकार और पत्रकार एडुआर्दो गैलियानो की फ़ुटबॉल पर लिखी एक ऐतिहासिक किताब है सॉकर इन सन एंड शेडो. लातिन अमेरिकी फ़ुटबॉल की फ़िलॉसफ़ी पर ये दस्तावेज़ सरीखी मानी जाती है. गैलियानो फ़ुटबॉल के इतिहास की एक विहंगम झांकी दिखाते हैं कि कैसे ये खेल दक्षिण अमेरिका में आया और कैसे उसका अभिन्न हिस्सा बन गया. ब्राज़ील, अर्जेटीना, उरुग्वे और मेक्सिको जैसी टीमों वाले लातिन अमेरिका के परिप्रेक्ष्य से वो विश्व कप आयोजनों के इतिहास पर भी नज़र डालते हैं. उस इतिहास में कई किस्से कहानियां हैं. गुदगुदाने वाली घटनाएं हैं, उदास करने वाले ब्यौरे हैं. हिला देने वाली तफ़्सील हैं. गैलियानो खेल के कॉरपोरेटीकरण के बारे में भी बताते हैं. बाज़ार का प्रवेश और कैसे खेल एक उपभोक्ता सामग्री में बदल गया है और खिलाड़ी उत्पाद में. खेल में जादू रहा न करिश्मा, कलात्मकता और रचनात्मकता के लिए जगहें सिकुड़ती जा रहीं. अब कंपनियां और क्लब एथलीट ही नहीं मैनेजर भी चाहती हैं. खेल के मैदान पर अब खिलाड़ी तो उतरते हैं लेकिन असल में वे मैनेजर भी होते हैं जिन्हें कुछ करतब करने कुछ देर दौड़ने और कुछ छलांगे लगाने के लिए मैदान पर भेजा जाता है. वे शायद किसी "डोर" से बंधे होते हैं.
फ़ुटबॉल का खेल अब शोहरत-सनसनी और बुलंदी और विवादों और अफ़वाहों और अरबों खरबों यूरो-डॉलरों के महाबिजनेस में प्रोडक्ट की हैसियत से जा रहा है. 2010 का विश्व कप आख़िर एक साया खेल ही तो था. महानता विलक्षणता जीवटता जादुई कलात्मकता वाला स्पर्श ख़ून पसीने और चोटों की वे ऊबड़खाबड़ लकीरें और मैदान पर धंस जाने वाला जुनून कहां था जिसकी तड़कती तेज़ रोशनियां उस गेंद में समाती रहती थीं और सहसा वहां से रिफ़्लेक्ट होकर हमारी ज़िंदगियों में झिलमिलाती रहती थीं. खिलाड़ी उस गेंद से ही क्यों बचते हुए उसे खेलने के लिए नहीं बल्कि न खेलने के लिए महज़ सरकाते हुए उससे मानो दूर दूर भागते हुए खेल रहे हैं जिसका प्रकाश फ़ुटबॉल कहलाता है. विश्व कपों में सबसे ज़्यादा गोल दागने वाले रोनाल्डो उम्मीद है अब इस प्रकाश की दार्शनिक मानवीय छाया में रहेंगें और आत्मीयता से याद किए जाते रहेंगें
धूप और परछाई के फ़ुटबॉल में
शिवप्रसाद जोशी
नौ साल पहले की सुखद स्मृतियों और उसके बाद विवादों आरोपों कलहों द्वंद्वों तनावों और चोटों के अजीबोग़रीब सिलसिलों के बाद 2011 की फ़रवरी में ब्राज़ीली खिलाड़ी रोनाल्डो ने आख़िर फ़ुटबॉल से संन्यास ले लिया. उस खेल से जिसके वो सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में से एक माने जाते रहे हैं. फ़ुटबॉल के इतिहास में फ़्रांस के ज़ेनादिन ज़ेदान और रोनाल्डो ही दुनिया के सिर्फ़ दो ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें खेल की शीर्ष संस्था फ़ीफ़ा का प्लेयर ऑफ़ द इयर अवार्ड तीन बार हासिल हुआ है.
रोनाल्डो के नाम और भी कई रिकॉर्ड हैं. विश्व कप फ़ुटबॉल में सबसे ज़्यादा 15 गोलों का रिकॉर्ड उन्हीं के नाम है. 2007 में हुए एक पोल में उन्हें सर्वकालिक टीम के ग्यारह खिलाड़ियों में से एक चुना गया. फ़ुटबॉल के जादुगर पेले ने दुनिया के महानतम फ़ुटबॉलरों की सूची तैयार की थी, उसमें रोनाल्डो का भी नाम था. पिछले साल ही फ़ुटबॉल की एक मशहूर वेबसाइट गोल डॉट कॉम के एक ऑनलाइन पोल में दशक के खिलाड़ी के रूप में रोनाल्डो को सबसे ज़्यादा वोट मिले.
2010 की फ़रवरी में रोनाल्डो ने कहा था कि वो 2011 में खेल से रिटायर हो जाएंगें. अपनी धुन के पक्के रोनाल्डो ने ठीक एक साल बाद ये एलान भी कर दिया.
22 सितंबर 1976 को रोनाल्डो लुइस नज़ारियो दि लिमा नाम के साथ जन्मे रोनाल्डो फ़ुटबॉल खेल जगत में उस समय चमक के साथ प्रकट हुए थे जब 20वीं सदी का आखिरी दशक चल रहा था और 21वीं सदी आ रही थी.
21 साल की उम्र में अपना पहला खिताब पाने वाले रोनाल्डो फ़ुटबॉल की उस जादुई चमक और उस रहस्य भरे लातिनी शौर्य के आख़िरी रचनाकार हैं जिसकी झलक पेले और माराडोना ने दिखाई थी.
गठीला बदन चौड़ा मुंह खुला ललाट उभरा हुआ जबड़ा धंसी हुई आंखें और तीक्ष्ण गहरी निगाहें. पेले और माराडोना के बाद रोनाल्डो समकालीन लातिन फ़ुटबॉल के सर्वाधिक खिलाड़ियों में एक हैं. मैदान पर वो एक सोचते हुए खिलाड़ी की तरह खेलते रहे हैं जो मौक़ा लगते ही गेंद और गोल पर बाघ की तरह नहीं झपटता था बल्कि विपक्षी टीम के हाफ़ में एक रणनीति के साथ कहीं पर ठहरा हुआ अपनी जगह पर हिलडुल करता हुआ सा आवेग था. गेंद झपटने के लिए रोनाल्डो हमला नहीं करते थे वो न जाने कैसे एक शांत स्थिरता लगभग ख़ामोश चपलता से विपक्षी डिफ़ेंस के पांवों में फंसी गेंद को अपनी कलात्मकता की दर्शनीय उलझन में ले आते थे. वो डिफ़ेंस को तितरबितर नहीं करते थे. रोनाल्डो के उल्लेखनीय गोल अगर आप देखें तो पाएंगें कि विपक्षी खिलाड़ी उनके साथ बराबर बने रहते हैं. रोनाल्डो के खेल की ये रोचकता है कि उन्हें देखते ही विपक्ष दाएं बाएं नहीं हो जाता. वो उन्हें कुछ इस तरह दोस्ताना चुनौती में सहजता में साथ ले आते हैं और फिर उनके बीच अपनी वो निराली विनम्र टॉसिंग फ़्लिकिंग करते थे. वहां गेंद विपक्षी खिलाड़ी के पांव से टकराती हुई वापस रोनाल्डो के पांवों से चिपक जाती है. वो अपने दोनों पांवों को गेंद खेलाते हुए दौड़ते जाते हैं. रोनाल्डो ने बड़ी स्ट्राइकों की अपेक्षा बजाय ज़्यादातर सरकाते हुए कोण बनाते हुए ऐन गोलपोस्ट तक पहुंचते हुए छकाते हुए गोल किए हैं. गेंद भी जैसे उनके पांवों के संतुलन नियंत्रण अनुशासन और नृत्य के स्टैप्स पर लहराती झूमती गोलपोस्ट में गिरती जाती थी. रचना की कठिन चढ़ाई को पार कर रचना का एक विकट ढलान और फिर वापस. खेल का अनूठा सांबा सांबा. अपने दिग्गज अग्रजों और अपने प्रतिभाशाली समकालीन खिलाड़ियों की खेल ऊर्जा को रोनाल्डो ने अपने खेल में समाहित करने की कोशिश की थी.
रोनाल्डो ने खेल की बदौलत अपार लोकप्रियता अपार प्रतिष्ठा अपार अमीरी हासिल की.
वो उन असाधारण दिनों में अपनी पीली जर्सी पहने एक कौंध खेल में दिखा रहे थे जब बाज़ार फ़ुटबॉल के मैदान में बढ़ता ही चला आ रहा था. पीला और कई रंगों वाला ये जादू एक अभूतपूर्व आग के हवाले हो जाने वाला था जो शोहरत और कमाई के रूप में खिलाड़ियों का वक़्त और प्रतिभा और जुनून निगलती जा रही थी. और फैलती ही जाती थी.
रोनाल्डो ऐसे ही उस दौर के शिकंजे में आए हुए बीमार पस्त खिलाड़ी रह चुके थे जब 1998 के विश्व कप में उनकी टीम को फ्रांस से मात खानी पड़ी थी. इंजेक्शन देकर उन्हें मैदान पर उतारा गया था. वो फ़ाइनल खेलने लायक नहीं थे. पारिवारिक मुश्किलों अवसाद और चोटों से बीमार रोनाल्डो ड्रेसिंग रूम में उल्टी कर रहे थे. लेकिन उनकी टीम उनके देश उनकी कंपनी उनके क्लब उनके नाम का इतना भारी दबाव था कि रोनाल्डो को न उतारने की कल्पना कोई कर ही नहीं सकता था. ख़ुद रोनाल्डो हैरान थे. उस दिन उन्हें पहली बार लगा था कि प्रेत भी फ़ुटबॉल के मैदान पर जाकर भाग सकते हैं इधर उधर निरीह ढंग से गेंद को धकियाते ख़ुद को फेंकते रह सकते हैं. लेकिन रोनाल्डो बाज़ार के उस प्रेत को अपनी आदमक़द सामर्थ्य में वापस क़ैद कर सकने वाले खिलाड़ी थे. लालच और कमाई के उस विशालकाय जबड़े से चालाकी और चतुराई और चमत्कार से निकल आने वाले खिलाडी़ भी वो बने. 2002 का विश्व कप इसका गवाह है. जहां रोनाल्डो अविश्वसनीय और ऐतिहासिक ज़िद के साथ मैदान पर उतरे थे और अपनी टीम को विश्व कप जिताने में प्रमुख भूमिका उन्होंने निभाई थी.
रोनाल्डो इस जीत के बाद ब्राज़ील ही नहीं सहसा पूरे खेल के ही महानायक बन गए थे. वो एक ऐसा क़िला बन गए थे जो आसमान की बुलंदियों को न जाने कैसे ऊंचा ही उठता जाता था. रोनाल्डो को देखने के लिए नज़रें ऊपर करनी पड़ती थीं. एक बार फिर रोनाल्डो उस विकट इम्तहान में घिर गए जिससे उनका देश और समूचा लातिन अमेरिका सदियों से गुज़रता आ रहा था. रोनाल्डो एक महान खेल के एक समृद्ध संपन्न शक्तिशाली उपनिवेश बना दिए गए. रोनाल्डो जैसे धुरंधर इस “किक” से स्तब्ध रह गए. वो उन अमीर खेल क्लबों में इधर से उधर घूमते ठिठकते रहे जो इस बीच अपने खिलाड़ियों के कलात्मक हुनर और इसके पीछे पीछे उनके ग्लैमर और उनकी मांग और प्रशंसकों के बीच उनके क्रेज़ के दम पर दुनिया के कई देशों और उनकी सरकारों के सकल घरेलू उत्पाद जितना या कहीं उससे ज़्यादा कमाते रहे हैं. रोनाल्डो ने अपने रिटायरमेंट पर यही कहा कि इस ख़ूबसूरत खेल के लिए उन्होंने कई त्याग किए और अब अपने शरीर के साथ संघर्ष करते हुए वो हार चुके हैं. रोनाल्डो भले ही कह कर गए कि उन्हें कोई मलाल नहीं है. लेकिन उनके रिटायरमेंट बयान में उनकी जिस्मानी तक़लीफ़ की ओर ही इशारा नहीं है उस बड़ी फैली हुई विडंबना की ओर भी अनचाहे ही इशारा है जो एक खिलाड़ी को खेल के मैदान से इतर उसकी लोकप्रियता के रिंग में रौंद कर रख देती है.
उरुग्वे के प्रसिद्ध लेखक उपन्यासकार और पत्रकार एडुआर्दो गैलियानो की फ़ुटबॉल पर लिखी एक ऐतिहासिक किताब है सॉकर इन सन एंड शेडो. लातिन अमेरिकी फ़ुटबॉल की फ़िलॉसफ़ी पर ये दस्तावेज़ सरीखी मानी जाती है. गैलियानो फ़ुटबॉल के इतिहास की एक विहंगम झांकी दिखाते हैं कि कैसे ये खेल दक्षिण अमेरिका में आया और कैसे उसका अभिन्न हिस्सा बन गया. ब्राज़ील, अर्जेटीना, उरुग्वे और मेक्सिको जैसी टीमों वाले लातिन अमेरिका के परिप्रेक्ष्य से वो विश्व कप आयोजनों के इतिहास पर भी नज़र डालते हैं. उस इतिहास में कई किस्से कहानियां हैं. गुदगुदाने वाली घटनाएं हैं, उदास करने वाले ब्यौरे हैं. हिला देने वाली तफ़्सील हैं. गैलियानो खेल के कॉरपोरेटीकरण के बारे में भी बताते हैं. बाज़ार का प्रवेश और कैसे खेल एक उपभोक्ता सामग्री में बदल गया है और खिलाड़ी उत्पाद में. खेल में जादू रहा न करिश्मा, कलात्मकता और रचनात्मकता के लिए जगहें सिकुड़ती जा रहीं. अब कंपनियां और क्लब एथलीट ही नहीं मैनेजर भी चाहती हैं. खेल के मैदान पर अब खिलाड़ी तो उतरते हैं लेकिन असल में वे मैनेजर भी होते हैं जिन्हें कुछ करतब करने कुछ देर दौड़ने और कुछ छलांगे लगाने के लिए मैदान पर भेजा जाता है. वे शायद किसी "डोर" से बंधे होते हैं.
फ़ुटबॉल का खेल अब शोहरत-सनसनी और बुलंदी और विवादों और अफ़वाहों और अरबों खरबों यूरो-डॉलरों के महाबिजनेस में प्रोडक्ट की हैसियत से जा रहा है. 2010 का विश्व कप आख़िर एक साया खेल ही तो था. महानता विलक्षणता जीवटता जादुई कलात्मकता वाला स्पर्श ख़ून पसीने और चोटों की वे ऊबड़खाबड़ लकीरें और मैदान पर धंस जाने वाला जुनून कहां था जिसकी तड़कती तेज़ रोशनियां उस गेंद में समाती रहती थीं और सहसा वहां से रिफ़्लेक्ट होकर हमारी ज़िंदगियों में झिलमिलाती रहती थीं. खिलाड़ी उस गेंद से ही क्यों बचते हुए उसे खेलने के लिए नहीं बल्कि न खेलने के लिए महज़ सरकाते हुए उससे मानो दूर दूर भागते हुए खेल रहे हैं जिसका प्रकाश फ़ुटबॉल कहलाता है. विश्व कपों में सबसे ज़्यादा गोल दागने वाले रोनाल्डो उम्मीद है अब इस प्रकाश की दार्शनिक मानवीय छाया में रहेंगें और आत्मीयता से याद किए जाते रहेंगें
Friday, February 18, 2011
हमारे समय की कविता का 'समय'
इसी महीने फरवरी की २५ और २६ तारीख को कविता प्रेमियों की एक टीम सहयोगी प्रयास के वार्षिक आयोजन की पहली कड़ी के रूप में 'कविता समय' शीर्षक से एक आयोजन ग्वालियर में कर रही है। इस आयोजन में हिन्दी के बहुत से स्थापित - चर्चित व संभावनाशील कवि आलोचकों के प्रतिभाग करने की खबर है। दो दिवसीय यह आयोजन पाँच सत्रों में बाँटा गया है जिसमें पहला सत्र 'कविता और यूटोपिया', दूसरा सत्र 'काव्य पाठ एवं अलंकरण' , तीसरा सत्र ' कविता का संकट : कविता , विचार और अस्मिता', चौथा सत्र ' प्रतिभागी कवियों का काव्य-पाठ' तथा पाँचवाँ और अंतिम सत्र 'कविता का संकट : कविता की पहुँच' पर केन्द्रित होगा। हिन्दी कविता के लिखने - पढ़ने - पढ़ाने वाले लोगों की बिरादरी के बीच इस आयोचन की चर्चा व प्रतीक्षा है। आज के प्रमुख हिन्दी समाचार पत्रों में पहला कविता समय सम्मान चंद्रकांत देवताले को और पहला कविता समय युवा सम्मान कुमार अनुपम को देने की घोषणा प्रमुख समाचार के रूप में प्रकाशित हुई है। 'कबाड़ख़ाना' की ओर से दोनो रचनाकारों को बधाई!
* 'कविता समय' टीम की विज्ञप्ति :
पहला कविता समय सम्मान हिंदी के वरिष्ठतम कवियों में एक चंद्रकांत देवताले को और पहला कविता समय युवा सम्मान युवा कवि कुमार अनुपम को दिया जायेगा. “दखल विचार मंच” और “प्रतिलिपि” के सहयोग से हिंदी कविता के प्रसार, प्रकाशन और उस पर विचार विमर्श के लिए की गयी पहल कविता समय के अंतर्गत दो वार्षिक कविता सम्मान स्थापित करने का निर्णय संयोजन समिति द्वारा लिया गया और समिति के चारों सदस्यों – बोधिसत्व, पवन करण, गिरिराज किराडू और अशोक कुमार पाण्डेय – ने सर्वसहमति से वर्ष २०११ के सम्मान चंद्रकांत देवताले और कुमार अनुपम को देने का फैसला लिया. कविता समय सम्मान के तहत एक प्रशस्ति पत्र और पाँच हजार रुपये की राशि तथा कविता समय युवा सम्मान के तहत एक प्रशस्ति पत्र और ढाई हजार रुपये की राशि प्रदान की जाएगी.
कविता समय सम्मान हर वर्ष ६० वर्ष से अधिक आयु के एक वरिष्ठ कवि को दिया जायेगा जिसकी कविता ने निरंतर मुख्यधारा कविता और उसके कैनन को प्रतिरोध देते हुए अपने ढंग से, अपनी शर्तों पर एक भिन्न काव्य-संसार निर्मित किया हो और हमारे-जैसे कविता-विरोधी समय में निरन्तर सक्रिय रहते हुए अपनी कविता को विभिन्न शक्तियों द्वारा अनुकूलित नहीं होने दिया हो. कविता समय युवा सम्मान ४५ वर्ष से कम आयु के एक पूर्व में अपुरस्कृत ऐसे कवि को दिया जायेगा जिसकी कविता की ओर, उत्कृष्ट संभावनाओं के बावजूद, अपेक्षित ध्यानाकर्षण न हुआ हो. इस वर्ष के सम्मान ग्वालियर में २५-२६ फरवरी को हो रहे पहले कविता समय आयोजन में प्रदान किये जायेंगे.
* ( अखबार की कटिंग : 'अमर उजाला' / 'कविता समय' की विस्तृत जानकारी के लिए http://kavitasamay.wordpress.com पर जाया जा सकता है।)
Thursday, February 17, 2011
गगन गिल की कविता
निस्संतान
कभी कभी वह बिलकुल भूल जाती
जिसे वह इस बार
बता रही है तीन साल का
पिछली बार वह
तेरह का था
पांचवी में पढ़ती थी
बच्ची जो
अब आठवीं में आ गयी है
जबकि उन्हें मिले अभी
छःमहीने ही गुज़रे हैं
पिछली बारी दोनों में से
एक बहुत अच्छा गाता था
जबकि इस बार कह रही है वह
दोनों अच्छे निकल रहे हैं
गणित में
नाम तक गडबड है उसकी स्मृति में
सहेलीवाले आ गए हैं
उसकी ज़ुबान पर.
बहुत दिन हुए
ईश्वर ने चुरा लिए थे
उनके बच्चे
अब वे सिर्फ उन्हें
ढूंढती फिर सकती हैं.
- गगन गिल
कभी कभी वह बिलकुल भूल जाती
जिसे वह इस बार
बता रही है तीन साल का
पिछली बार वह
तेरह का था
पांचवी में पढ़ती थी
बच्ची जो
अब आठवीं में आ गयी है
जबकि उन्हें मिले अभी
छःमहीने ही गुज़रे हैं
पिछली बारी दोनों में से
एक बहुत अच्छा गाता था
जबकि इस बार कह रही है वह
दोनों अच्छे निकल रहे हैं
गणित में
नाम तक गडबड है उसकी स्मृति में
सहेलीवाले आ गए हैं
उसकी ज़ुबान पर.
बहुत दिन हुए
ईश्वर ने चुरा लिए थे
उनके बच्चे
अब वे सिर्फ उन्हें
ढूंढती फिर सकती हैं.
- गगन गिल
Tuesday, February 15, 2011
मेरी ख्वाहिश है कि मैं हो जाता अँधेरे में एक कंदील
विश्व कविता के प्रेमियों के लिए फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश ( १३ मार्च १९४१ - ०९ अगस्त २००८ ) कोई अपरिचित - अनचीन्हा नाम नहीं है। हिन्दी पढ़ने - पढ़ाने वालों की दुनिया में उन्हें खूब अनूदित किया गया है और खूब पढ़ा गया है / खूब पढ़ा जाता रहेगा। नेरुदा, लोर्का , नाजिम हिकमत की तरह उन्हें चाहने वालों की कतार कभी छोटी नहीं होगी। आइए आज देखते - पढ़ते हैं उनकी एक प्रसिद्ध कविता : 'दूसरों के बारे में सोचो'।
महमूद दरवेश की कविता
दूसरों के बारे में सोचो
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
जब तुम तैयार कर रहे होते हो अपना नाश्ता
दूसरों के बारे में सोचो
( भूल मत जाना कबूतरों को दाने डालना )
जब तुम लड़ रहे होते हो अपने युद्ध
दूसरों के बारे में सोचो
( मत भूलो उनके बारे में जो चाहते हैं शान्ति )
जब तुम चुकता कर रहे होते हो पानी का बिल
दूसरों के बारे में सोचो
( उनके बारे में जो टकटकी लगाए ताक रहे हैं मेघों को )
जब तुम जा रहे होते हो अपने घर की तरफ
दूसरों के बारे में सोचो
(उन्हें मत भूल जाओ जो तंबुओं - छोलदारियों में कर रहे हैं निवास)
जब तुम सोते समय गिन रहे होते हो ग्रह - नक्षत्र - तारकदल
दूसरों के बारे में सोचो
( यहाँ वे भी हैं जिनके पास नहीं है सिर छिपाने की जगह )
जब तुम रूपकों से स्वयं को कर रहे होते हो विमुक्त
दूसरों के बारे में सोचो
( उनके बारे में जिनसे छीन लिया गया है बोलने का अधिकार )
जब तुम सोच रहे हो दूरस्थ दूसरों के बारे में
अपने बारे में सोचो
( कहो : मेरी ख्वाहिश है कि मैं हो जाता अँधेरे में एक कंदील)
Monday, February 14, 2011
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
तुम जो ठहर जाओ तो ये रात, महताब
ये सब्ज़ा, ये गुलाब और हम दोनों के ख़्वाब
सब के सब ऐसे मुबहम हों कि हक़ीक़त हो जायें
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया.
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़ दाग़ लुटा दिया.
ये सब्ज़ा, ये गुलाब और हम दोनों के ख़्वाब
सब के सब ऐसे मुबहम हों कि हक़ीक़त हो जायें
*
आज फरवरी माह की चौदहवीं तिथि को जब तमाम दुनिया प्रेम दिवस को अपने - अपने तरीके से 'सेलिब्रेट' करने में व्यस्त है तब शायरी और मौसीकी के समुद्र में अवगाहन - स्नान करते हुए अपने भीतर की कोमलता को टच करने या दुनिया के शबो - रोज में होते तमाशे को देखते , उसका हिस्सा बनते, उससे रीझते खीझते,उस पर पड़ गई धूल को झाड़ते - पोँछते आज (एक बार फिर) फ़ैज़ की शायरी का आनंद लेते हैं। याद है यह वही शायर है जिसने कहा था कि 'और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा' और यह भी कि 'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है '। कहने की बात नहीं है कि फ़ैज़ के यहाँ प्रेम दुनिया -ए- फानी से पलायन नहीं बल्कि इसी दुनिया को सुंदर दुनिया बनाने व इसकी सुंदरता को बिगड़ने से बचाने के प्रयत्न / प्रेरणा का सहचर है। और क्या कहा जाय .. तो आइए सुनते है फ़ैज़ की शायरी.. स्वर है उस्ताद मेंहदी हसन साहब का...
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया.
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़ दाग़ लुटा दिया.
मेरे चारागर को नवेद हो, सफ़े-दुश्मनाँ को ख़बर करो
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर, वो हिसाब आज चुका दिया.
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर, वो हिसाब आज चुका दिया.
करो कज जबीं पे सरे-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमाँ न हो
कि ग़ुरूरे-इश्क़ का बाँकपन, पसे-मर्ग हमने भुला दिया.
कि ग़ुरूरे-इश्क़ का बाँकपन, पसे-मर्ग हमने भुला दिया.
उधर एक हर्फ़ कि कुश्तनी, यहाँ लाख उज़्र था गुफ़्तनी .
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया.
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया.
जो रुके तो कोहे-गराँ थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गये
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया.
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया.
Sunday, February 13, 2011
फै़ज : आज तुम याद बेहिसाब आए
* जन्मशती पर फ़ैज अहमद फ़ैज़ को याद करते हुए उनकी कविता के साए में बड़ी हुई पीढ़ी तथा देश - दुनिया के प्रति संवेदनशीलता व समझदारी हासिल करने वालों की तरफ से स्मरण :
*
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए ।
उसके बाद आए जो अज़ाब आए।
बाम-ए-मीना से महताब उतरे
दस्त-ए-साकी में आफ़ताब आए।
हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चरागाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आए।
कर रहा था ग़मे-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए।
ना गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूं रोज इनकिलाब आए।
इस तरह अपनी खामोशी गूँजी
गोया हर सिम्त से जवाब आए।
‘फ़ैज़’ थी राह सर-बसर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे क़ामयाब आए।
Saturday, February 12, 2011
सहस स्वाद सो पावै एक कौर जो खाइ
आजकल शादी - ब्याह का सीजन है। बीच - बीच में दावत भी हो जाती है। बड़े शहरों - महानगरों और धुर अन्चीन्हे इलाकों की शादियों की दावतों की तो खबर नहीं लेकिन जहाँ अपना कयाम - मुकाम है वहाँ की शादियों में खाना अक्सर एक जैसा ही लगता है - देखने में भी और खाने में भी। ऐसे में हिन्दी कविता की समृद्ध परंपरा के सर्वाधिक प्रसिद्ध महाकाव्यों में से एक 'पद्मावत' ( मलिक मोहम्मद जायसी ) के 'रत्नसेन-पद्मावती-विवाह-खंड' में वर्णित शाही भोज की याद हो आती है। यह एक तरह से हमारे विलोपित होते पाकशास्त्रीय परंपरा व उत्तरोत्तर परिवर्तित स्वाद की विरासत की ऐतिहासिक यात्रा है .. आइए देखते हैं .
पाँति पाँति सब बैठे, भाँति भाँति जेवनार ।
कनक-पत्र दोनन्ह तर, कनक-पत्र पनवार ॥
पहिले भात परोसे आना । जनहुँ सुबास कपूर बसाना ॥
झालर माँडे आए पोई । देखत उजर पाग जस धोई ॥
लुचुई और सोहारी धरी । एक तौ ताती औ सुठि कोंवरी ॥
खँडरा बचका औ डुभकौरी । बरी एकोतर सौ, कोहड़ौरी ॥
पुनि सँघाने आए बसाधे । दूध दही के मुरंडा बाँधे ॥
औ छप्पन परकार जो आए । नहिं अस देख, न कबहूँ खाए ॥
पुनि जाउरि पछियाउरि आई । घिरति खाँड़ कै बनी मिठाई ॥
जेंवत अधिक सुबासित, मुँह मँह परत बिलाइ ।
सहस स्वाद सो पावै , एक कौर जो खाइ ॥
Thursday, February 10, 2011
लचके है ज़र्द जामा में खूबां की जो कमर
यह पोस्ट एक्सक्लूसिवली हमारे एक बहुमूल्य और सुधी पाठक जनाब एबीसीडी (असल नाम से तार्रुफ़ नहीं है) की डिमांड को नज्र है. सही है पिछले बरस मैंने बसंत के समय बाबा नज़ीर अकबराबादी की बसंत से सम्बंधित एकाधिक रचनाएँ आपको पढवाई थीं पर इस बरस कुछ और ही तरह के हालात पैदा होने की वजह से ऐसा कुछ न कर सका. उम्मीद करता हूँ मार्च के महीने से मैं यहाँ अपने इस अड्डे पर ज्यादा सक्रिय हो सकूंगा.
फ़िलहाल नज़ीर
आने को आज धूम इधर है बसंत की
कुछ तुमको मेरी जान ख़बर है बसंत की.
होते हैं जिससे ज़र्द ज़मीं-ओ-ज़मां तमाम
ऐ महर तलअतो वह सहर है बसंत की.
लचके है ज़र्द जामा में खूबां की जो कमर
उसकी कमर नहीं वह कमर है बसंत की.
जोड़ा बसंती तुमको सुहाता नहीं ज़रा
मेरी नज़र में है वह नज़र है बसंत की.
आता है यार तेरा वह हो के बसंत रू
तुझ को भी कुछ "नज़ीर" ख़बर है बसंत की.
फ़िलहाल नज़ीर
आने को आज धूम इधर है बसंत की
कुछ तुमको मेरी जान ख़बर है बसंत की.
होते हैं जिससे ज़र्द ज़मीं-ओ-ज़मां तमाम
ऐ महर तलअतो वह सहर है बसंत की.
लचके है ज़र्द जामा में खूबां की जो कमर
उसकी कमर नहीं वह कमर है बसंत की.
जोड़ा बसंती तुमको सुहाता नहीं ज़रा
मेरी नज़र में है वह नज़र है बसंत की.
आता है यार तेरा वह हो के बसंत रू
तुझ को भी कुछ "नज़ीर" ख़बर है बसंत की.
Wednesday, February 9, 2011
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