Wednesday, September 28, 2011

वो ज़माना और फिल्मों का क्रेज़ - 1

शम्भू राणा का लाजवाब गद्य आप कबाड़ख़ाने में एकाधिक बार पढ़ चुके हैं. पूना से बागेश्वर तक का लम्बा सफ़र एक सड़ियल मारुति में किए जाने का उनका लम्बा संस्मरण खासा पसन्द किया गया था. आज उनका एक और संस्मरण पढ़िए.


फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन

शम्भू राणा

जिस तरह पुराने हीरो अब हीरो नहीं रहे, एक दम ज़ीरो हो गए हैं या दादा-नाना बनकर खंखार रहे हैं, उसी तरह अपने शहर के दो सिनेमाघरों में भी एक वीरान पड़ा है तो दूसरा मॉल बन गया है. अपने को पुराने अभिनेताओं से भला क्या हमदर्दी? मगर उनके छायाचित्रों की क्रीड़ास्थली सिनेमाघरों की हालत पर खुल्लम-खुल्ला अफ़सोस है क्योंकि उनके साथ कई यादें वाबस्ता हैं.

सिनेमा हॉल में पहली बार मेरा पदार्पण यही कोई १२-१४ वर्ष की उम्र में हुआ होगा. ज़िन्दगी में जो पहली फ़िल्म देखी थी उसका नाम था - गरम खून. फिर धीरे-धीरे सिलसिला चल पड़ा और लत सी लग गई जो सिनेमा हॉल बन्द होने तक लगी ही रही.

क्या-क्या जतन करते थे सिनेमा देखने के लिए. चोरी, ठगी से लेकर कबाड़ बीनने तक. एक बार तो हद कर दी - हमारे लिए कोई हद वाली बात इसमें नहीं, सुनने वालों के लिए हो तो हो - हम दो-तीन दोस्त यूं ही टहल रहे थे. इत्तफ़ाक़न सिनेमा हॉल कके आसपास और इत्तफ़ाक़न ही पिक्चर का पहला शो शुरू होने वाला था. अब यह भी संयोग ही था कि एक कुष्ठ पीड़ित महिला वहीं सड़क पर अपना डब्बा लिए बैठी थी. हमें उसका मांगने का अन्दाज़ पसन्द था. वह एक स्वाभाविक मुस्कराहट के साथ बातें किया करती, जिसमें दीन-हीनता न के बराबर हुआ करती थी. उसे सिर्फ़ आपके सिक्कों में दिलचस्पी नहीं थी. वह लोगों से घर के हालचाल, स्वास्थ्य वगैरह भी पूछती थी. एक तरह का ममत्व था उसमें. बस इसी नाते हमारा उससे परिचय था. उस दिन भी उसने हमें पुकारा. मैंने कह दिया कि आज तो हमारे पास कुछ नहीं है. हो सके तो तुम हमें कुछ दे दो. उसने कहा - लला, मैंने तो ज़िन्दगी भर मांगा ही मांगा, भाग ही ऐसे ठहरे. दिया किसी को नहीं. आज मौक़ा है, बोलो कितने दूं .... उसने बोरे की तहें टटोलना शुरू किया. हमने तीन लोगों के सिनेमा और चाय के पैसे ले लिए इस शर्त पर कि दो-तीन दिन में वापस कर देंगे कुछ बढ़ा के.

एक दिन मेरा एक दोस्त और मैं पिक्चर के ही जुगाड़ में चार-छः पव्वे-अद्धे लिए कबाड़ी के पास जा रहे थे. रास्ते में एक जगह टेलीफ़ोन के खम्भे पर मैकेनिक चढ़ा बैठा था और समस्या के समाधान में बुरी तरह उलझा हुआ था. मेरे दोस्त ने नीचे पड़ी उसकी प्लास्टिक की चप्पलें झोले में डाल लीं. गर्मियों के दिन थे. कबाड़ी को दुकान में बैठे-बैठे झपकी आ गई थी. उस माई के लाल ने कबाड़ी के माल से भी दो-तीन पव्वे झोले में रखे तब कबाड़ी को जगाया. अफ़सोस कि ऐसी प्रचंड प्रतिभा का धनी वह किशोर उचित वातावरण न मिल पाने के कारण आगे चल कर कोई नामी चोर नहीं बन पाया. वर्ना मन्त्री न सही मन्त्री की नाक का बाल तो तब भी होता.

(जारी)

Tuesday, September 27, 2011

पहले अन्तर्राष्ट्रीय मैच में उन्मुक्त की टीम ने ऑस्ट्रेलिया को धोया


चार देशों की अन्तर्राष्ट्रीय अन्डर - १९ क्रिकेट प्रतियोगिता के पहले मैच में उन्मुक्त की टीम ने अन्डर - १९ क्रिकेट के इतिहास में सौ से अधिक रनों का स्कोर सबसे तेज़ गति से बनाकर एक ज़बरदस्त रेकॉर्ड कायम किया. पहले खेलते हुए ऑस्ट्रेलिया ने इकतालीस ओवरों में १६३ रन बनाए. जवाब में जो हुआ उसकी कल्पना मुझे तो नहीं थी. कुल बारह ओवरों में भारत की टीम ने बिना कोई विकेट गंवाए १६७ रनों का अम्बार लगा डाला. ओपनिंग करने आए कप्तान उन्मुक्त ने तीन छक्कों के साथ ७२ रन बनाए जबकि उनके साथी मनन वोहरा ने दो छक्कों के साथ ७९ रन बनाए.

ये तो उन्मुक्त की शुरुआत है. आगे आगे देखिए होता है क्या!

(फ़ोटो - जीत का जश्न . क्रिकइन्फ़ो से साभार)

Monday, September 26, 2011

हम क्यों नहीं सीखते उस सब से जो बीता है हम पर दो हजार सालों बाद भी?

बिली जोएल का यह गीत अर्सा पहले यहां पोस्ट किया गया था. आज एक मित्र ने इसे दोबारा लगाने की मांग की है क्योंकि कई अन्य पोस्ट्स की तरह इसके प्लेयर ने भी काम करना बन्द कर दिया है. पेश है -


सन १९९३ में बिली जोएल का संग्रहणीय अलबम 'रिवर ऑफ़ ड्रीम्ज़' रिलीज़ हुआ था. एक अर्से से बिली मेरे प्रिय गायक-संगीतकारों में रहे हैं. विश्व के सबसे प्रतिभाशाली पियानोवादकों में शुमार किए जाने वाले बिली अपने गीत ख़ुद लिखते हैं और उनका संगीत भी बनाते हैं. 'रिवर ऑफ़ ड्रीम्ज़' के गीतों का स्वर बहुत गम्भीर है. यहां प्रस्तुत किये जा रहे उनके गीत 'वी आर टू थाउज़ैंड ईयर्स' को सुनिये और देखिए बिली जोएल कितने साफ़ शब्दों में कितनी ज़रूरी चीज़ों को रेखांकित करते जाते हैं. ख़ास तौर पर कबाड़ख़ाने के श्रोताओं के लिए गीत का अंग्रेज़ी से अनुवाद भी प्रस्तुत है:



In the beginning
There was the cold and the night
Prophets and angels gave us the fire and the light
Man was triumphant
Armed with the faith and the will
Even the darkest ages couldn't kill

Too many kingdoms
Too many flags on the field
So many battles, so many wounds to be healed
Time is relentless
Only true love perseveres
It's been a long time and now I'm with you
After two thousand years

This is our moment
Here at the crossroads of time
We hope our children carry our dreams down the line
They are the vintage
What kind of life will they live?
Is this a curse or a blessing that we give?

Sometimes I wonder
Why are we so blind to fate?
Without compassion, there can be no end to hate
No end to sorrow
Caused by the same endless fears
Why can't we learn from all we've been through
After two thousand years?

There will be miracles
After the last war is won
Science and poetry rule in the new world to come
Prophets and angels
Gave us the power to see
What an amazing future there will be

And in the evening
After the fire and the light
One thing is certain: Nothing can hold back the night
Time is relentless
And as the past disappears
We're on the verge of all things new
We are two thousand years

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प्रारम्भ में
बस ठंड थी और रात
पैगम्बरों और फ़रिश्तों ने हमें आग और रोशनी दी
मनुष्य विजयी हुआ
उसके पास विश्वास था और इच्छाशक्ति
जिन्हें सबसे अन्धेरे युग भी नहीं मार सके.

इतने सारे राज्य
धरती पर इतने सारे झंडे
इतने सारे युद्ध, इतने सारे घाव जिन पर मरहम लगाया जाना है
समय बड़ा क्रूर होता है
जिसमें बस सच्चा प्रेम ही बचा रह पाता है
बहुत दिन गुज़र गए पर अब मैं तुम्हारे साथ हूं
दो हज़ार सालों के बाद

यह हमारा क्षण है
हम खड़े हैं यहां समय के चौराहे पर
हम उम्मीद करते हैं कि हमारे बच्चे हमारे सपनों को आगे ले जाएंगे
उनमें बहुत पुरानापन है
कैसी ज़िन्दगी जियेंगे वे?
क्या हम उन्हें शाप दे रहे हैं या आशीर्वाद?

कभी मैं सोचता हूं
हम इतने अंधे क्यों हैं भाग्य को लेकर?
बिना प्यार के नफ़रत का कोई अन्त नहीं हो सकता
न ही दुःख का
जिनके पीछे होते हैं वही अन्तहीन भय.
हम क्यों नहीं सीखते उस सब से जो बीता है हम पर
दो हजार सालों बाद भी?

आख़िरी युद्ध के जीत लिए जाने के बाद
चमत्कार होंगे
आने वाले संसार में विज्ञान और कविता का राज्य होगा
पैगम्बरों और फ़रिश्तों ने
हमें यह देखने की शक्ति दी है.
क्या शानदार होगा वह भविष्य.

और शाम को
आग और रोशनी के बाद
एक बात तो तय है: कोई नहीं रोक सकता रात को
समय बहुत क्रूर होता है
और जैसे जैसे बीता हुआ कल अदृश्य होता जाएगा
हम लोग नई चीज़ों की देहरियों पर होंगे.
हम हैं दो हज़ार साल.

यहाँ से डाऊनलोड करें -

Two thousand years

Sunday, September 25, 2011

एक भटके हुए पक्षी की तरह मँडराती रहती है तुम्हारी कोमलता


आधुनिक पोलिश कविता  की एक सशक्त हस्ताक्षर हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) के जीवन और कविताओं से गुजरते हुए बार - बार  निराला की पंक्ति याद आती  है -' दु:ख ही जीवन की कथा रही.' । वह  इधर के एकाध दशकों से  पोलिश साहित्य के अध्येताओं  की निगाह की निगाह में आई है और विश्व की बहुत - सी भाषाओं में उनके अनुवाद हुए हैं। हिन्दी  में हालीना की  कविताओं की उपस्थिति बहुत विरल है। ' 'कबाड़ख़ाना' पर उनके बहुत से अनुवाद उपलब्ध हैं। कुछ अनुवाद पत्रिकाओं में भी आए है / आने वाले हैं। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है पोलिश कविता की समृद्ध और गौरवमयी परम्परा  की एक महत्वपूर्ण कड़ी  के रूप में विद्यमान   हालीना पोस्वियातोव्सका  की दो कवितायें :




दो कवितायें : हालीना पोस्वियातोव्सका  
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१-  लालसायें

मुझे लुभाती हैं लालसायें
अच्छा लगता है
ध्वनि और रंगो के कठघरों पर सतत आरोहण
और जमी हुई सुवास को
अपने खुले मुख में कैद करना।

मुझे भाता है
किसी पुल से भी अधिक तना हुआ एकांत
मानो अपनी बाहों में
आकाश को आलिंगनबद्ध करने को तल्लीन।

और दिखाई देता है
बर्फ़ पर नंगे पाँव चलता हुआ
मेरा प्रेम।

०२- अकेलेपन में

यह जो एक विपुला पृथ्वी है अकेलेपन की
इस पर
एक अकेले ढेले की मानिन्द रखा है तुम्हारा प्रेम।

यह जो एक समूचा समुद्र है अकेलेपन का
इसके ऊपर
एक भटके हुए पक्षी की तरह
मँडराती रहती है तुम्हारी कोमलता।

यह जो एक संपूर्ण स्वर्ग है अकेलेपन का
इसमें वास करता है
एक अकेला देवदूत
....और भारविहीन हैं उसके पंख
तुम्हारे शब्दों  के मानिन्द।

Saturday, September 24, 2011

जब चषक में ढाल दी जाती है शराब




निज़ार क़ब्बानी  की पाँच कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)


1 - कप और गुलाब

कॉफीहाउस में गया
यह सोचकर
कि भुला दूँगा अपना प्यार
और दफ़्न कर दूँगा सारे दु:ख।

किन्तु
तुम उभर आईं
मेरी कॉफी कप के तल से
एक सफेद गुलाब बनकर।

2 -वनवास

जब भी तुम
होती हो यात्राओं पर
तुम्हारी खुशबू प्रश्न करती है
तुम्हारे बारे में
एक शुशु की तरह जोहती है
माँ के लौटने की बाट।

तनिक सोचो
यहाँ तक कि  खुशबू को पता है
कि किसे कहते हैं निर्वासन
और कैसा होता है वनवास।

3 -ज्यामिति

मेरे जुनून की चौहद्दियों के बाहर
नहीं है
तुम्हारा कोई वास्तविक समय।

मैं हूँ तुम्हारा समय
मेरी बाँहों के दिशासूचक यंत्र के बाहर
नहीं हैं तुम्हारे स्पष्ट आयाम।

मैं हूँ तुम्हारे सकल आयाम
तुम्हारे कोण
तुम्हारे वृत्त
तुम्हारी ढलानें
और तुम्हारी सरल रेखायें।

4 - बालपन के साथ

आज की रात
मैं  नहीं रहूँगा तुम्हारे साथ
मैं नहीं रहूँगा किसी भी स्थान पर।

मैं ले आया हूँ बैंगनी पाल वाले जलयान
और ऐसी रेलगाड़ियाँ
जिनका ठहराव
केवल तुम्हारी आँखों के स्टेशनों पर नियत है।

मैंने तैयार किए हैं
कागज के जहाज
जो उड़ान भरते हैं प्यार की ऊर्जा से।

मैं ले आया हूँ
कागज और मोमिया रंग
और तय किया है
कि व्यतीत करूँगा संपूर्ण रात्रि
अपने बालपन के साथ।

5 -आशंका

मैं डरता हूँ
तुम्हारे सामने
अपने प्रेम का इजहार करने से।

सुना है
जब चषक में ढाल दी जाती है शराब
तो उड़ जाती है उसकी सुवास।

Wednesday, September 21, 2011

उन्मुक्त को बधाई दीजिये


अभी थोड़ी देर पहले बी सी सी आई ने उन्मुक्त यानी अपने लवी को भारत की अन्डर-१९ टीम का कप्तान घोषित किया है. विशाखापत्तनम में होने वाले चार देशों के टूर्नामेंट में उन्मुक्त देश की युवा टीम का नेतृत्व करेगा. उसके कप्तान बनने में एकाध तकनीकी दिक्कतें आईं मगर अब यह तय है.

बधाई बेटे! बधाई भरत दा! बधाई सुन्दर!

इसे भी देखें - लव यू लवी, ऑल द बेस्ट

Saturday, September 17, 2011

सिर गायब, टोपा सिलेगा

गुड़ मिलेगा

बाबा नागार्जुन


गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा

रुत हँसेगी
दिल खिलेगा
पैसे झरेंगे
पेड़ हिलेगा
सिर गायब,
टोपा सिलेगा

गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा

छतरी वाला जाल छोड़कर

समझदार को इशारा काफ़ी होता है और क़लम बाबा की हो तो क्या कहने -


छतरी वाला जाल छोड़कर

बाबा नागार्जुन

छतरी वाला जाल छोड़कर
अरे, हवाई डाल छोड़कर
एक बंदरिया कूदी धम से
बोली तुम से, बोली हम से,
बचपन में ही बापू जी का प्यार मिला था
सात समन्दर पार पिता के धनी दोस्त थे
देखो, मुझको यही, नौलखा हार मिला था
पिता मरे तो हमदर्दी का तार मिला था
आज बनी मैं किष्किन्धा की रानी
सारे बन्दर, सारे भालू भरा करें अब पानी
मुझे नहीं कुछ और चाहिए तरुणों से मनुहार
जंगल में मंगल रचने का मुझ पर दारमदार
जी, चन्दन का चरखा लाओ, कातूँगी मैं सूत
बोलो तो, किस-किस के सिर से मैं उतार दूँ भूत
तीन रंग का घाघरा, ब्लाउज गांधी-छाप
एक बंदरिया उछल रही है देखो अपने आप

Friday, September 16, 2011

नूर मुहम्मद `नूर’ की ग़ज़ल - 2

हक़ तुझे बेशक है, शक से देख, पर यारी भी देख

हक़ तुझे बेशक है, शक से देख, पर यारी भी देख
ऐब हम में देख पर बंधु! वफ़ादारी भी देख

हम ही हम अक्सर हुए हैं खेत, अपने मुल्क में
फिर भी हम ज़िंदा, यहीं हैं, ये तरफ़दारी भी देख

सरफ़रोशी की, लुटाया जिस्मो-जाँ, इल्मो-फ़ुनून
और बदले में ख़रीदा क्या, ख़रीदारी भी देख

लड़ रहे हैं और हम लड़ते रहेंगे तीरगी!
नूर के हिस्से का ये चकमक जिगरदारी भी देख

नूर मुहम्मद `नूर’ की ग़ज़ल -१

भारत और पाकिस्तान की समकालीन परिस्थितियों को केन्द्र में रख कर लिखी गई भाई नूर मुहम्म्द नूर की यह ग़ज़ल -


इधर पेच है तो मियाँ, ख़म उधर भी

इधर पेच है तो मियाँ, ख़म उधर भी
वही ग़म इधर भी वही ग़म उधर भी

है दोनों तरफ दर्दो-ग़म भूख ग़ुरबत
दवा बम इधर भी दवा बम उधर भी

उजाला यहाँ से वहाँ तक परेशाँ
वही तम इधर भी वही तम उधर भी

किसी से भी कोई न छोटा बड़ा है
वही हम इधर भी वही हम उधर भी

ज़रा-सी मुहब्बत ज़रा-सी शराफ़त
वही कम इधर भी वही कम उधर भी

उखड़ता हुआ नूर इंसानियत का
वही दम इधर भी वही दम उधर भी

Wednesday, September 14, 2011

गोसाईं पवार - मृत्युंजय की लम्बी कविता

मृत्युंजय का मृत्युबोध नामक ब्लॉग संचालित करते हैं मृत्युंजय . युवा हैं, संगीत में खासा दखल रखते हैं. और प्रतिबद्ध राजनैतिक चेतना से लैस. कबाड़खाने के लिए उन्होंने ख़ास अपनी यह लम्बी कविता भेजी है.

तुम्हारा छोटा बेटा
एक विचित्र सपने में फंस चुका है
गोसाईं पवार.

उसने सीधी कर ली है हल की फाल
हरिस संभल नहीं रही है
उसकी रीढ़ पोरों में गड़ गई है
लोहे की मजबूत सइल मूठ तक दोनों कन्धों में पैवस्त है
गरुआये बोझ से गर्दन मुचड़ गई है
दहिनवारी जोत रहे हैं बाएं नाटे को मिस्टर च
पूँछ उमेठ कर तोड़ दी जा रही है
और छ जोड़ी हलवाहे एक ही फंदे में गर्दन फंसा रहे हैं.

एक सूखा कुवां उफना आया है लाशों से बेतरह
सारे पुराने पेड़ों से रस्सी के टुकड़े लटक रहे हैं
सल्फास की गोलियां बिखरी हैं सब तरफ
दिल्ली-मुंबई में बनाया गया है यवतमाल का पुतला
उसे जादुई आंकड़ों की कीलों से भेद रहे हैं मिस्टर म
और लाशें विदर्भ में चू रही हैं टप-टप
सूदखोरों के आँगन में
कफ़न की कपास में मुचड़ी हुई टोपियाँ.
'ठगिनी क्यों नैना झमकावे!'

आत्महत्या के बाद की सबसे जरूरी चीजें सहेजी जा रही हैं
पिता के पीछे कतार बाँध कर खड़े हैं बच्चा लोग
अंतिम विदाई से पहले
तैयारी में हैं गोसाईं पवार
उतरे हैं भेड़िये झुंड बाँध
सती प्रथा के नए मसविदे के साथ
मिसेज एस की मुहर के साथ
कारों की फ्लीट पर
बीस सूत्र का वारिस
महाकाल नरसिंह नाच रहा
जाँघों पर पटक रहा प्रिय मातृभूमि को
जगह-जगह चिटक गई देह
चीर रहा पेट, अति बर्बर नाखूनों से
खसखस सी ढाढी में पगड़ी पर
शोभती हैं बूँदें
लिप्सा से ताक रहे भेड़िये
सौम्य मुस्कान से बरजता है
रुको अभी
मिलने दो आंकड़े

आंकड़े...
आत्महत्या से लिपे-पुते दो लाख घरों की
कहाँ गईं
भागी हुई लडकियां?
देशी कपास के सांवले बीजों सी
पांच से पच्चीस साल, अजुगत सलोनी उमर
ब्रूनो की
लाखों अभागी वे बेटियां
कहां गईं?
कहां गए मुस्काते
और गाते नौजवान
रहने का जीने का मरने का जिनका
कोई नहीं था ठौर ?

धोती की फटी हुई लांग को समेटे हुए
बूढ़े किसान की आँखों में बिला गया सूरज
गुलशने बरार में
दो लाख लाशों की जैविक खाद है तयार
श्म सान उर्वर हुए
उर्वर हुई पार्लमेंट
लहलह कर लहक रही नई अर्थ-नीति
कारखाने फास्फोरस के हड्डी की ऊर्जा से लहक उठे
महक उठा दिग-दिगंत जलती हुई चर्बी से
धुवां धुवां

तुम्हारा छोटा बेटा
एक विचित्र किस्से में फंस चुका है गोसाईं पवार !
धरती के सीने में दस हाथ चौड़ी दरार में
लाशें दफना कर लौटा है रोज-रोज
दुनिया की आख़िरी बची हुई
सहूलियत है उसके लिए
मिट्टी सा कड़ा लाल
गड्ढों का चेहरा है
किधर जाए, करे क्या,
जूझ पड़े, मरे क्या
लड़े क्या?

लाशों की परत परत लहर लहर आती है सुबह
सीढ़ियों पर चढ़कर
और सरकार की ओर से अभी जारी
मुफ्त शताब्दी कैलेण्डर मेरी खोपड़ी में घुसड़ जाता है
कैलेण्डर में लाशों की तिथियाँ हैं
सत्तावन के आस पास नीम के विशाल वृक्ष से लटकी हैं तीन सौ लाशें
थोड़ी ही देर बाद अवध के नक़्शे पर लाशों की शतरंज बिछी पड़ी है
तेभागा में एक विराट बंदूक की संगीन से गूंथ दी गई हैं
पांच सौ जुझारू औरतें
और नक्सलबाड़ी है
एक युवा चेहरे को
सिगरेट के टोंटे की तरह मसलते बूटों के
तस्मे से लटकाई गई जुबान के माफ़िक

दो लाख लाशों को जमीन पर हमवार सुला दूं मैं
तो कितने गज जमीन की जरूरत होगी?
क्या इतनी लाशों से पाटा जा सकता है
संसद भवन ?
चार लाख आँखें क्या वित्तमंत्री के ब्रीफकेस में बंद
रक्षा बजट के कागज़ पर दर्ज अक्षरों को ढँक सकेंगी?
दो लाख लाशों की त्वचाओं के तम्बू में
कितना अनाज बच सकेगा?
दो लाख रीढ़ की चिमड़ी हड्डियों से
कोई हथियार बन सकेगा क्या?

राष्ट्रनायको,
चाहे सपने की इसी हकीकत में
गाड़ दो उसे
सात परतों में साढ़े तीन हाथ नीचे
काले पड़ रहे खून में डोब दो चाहे
पर अभी बख्श दो !
मत मारो !
अभी उसे गोसाईं पवारों का
कफ़न दफ़न करने जाना है.

Tuesday, September 13, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 10

(पिछली पोस्ट से जारी)

लेकिन कृष्ण की कहानियों में बहुत सी इंसानी मुश्किलों के हल हैं। उन पर सोच-विचार करके किसी भी मज़हब का आदमी अपनी मुश्किलें दूर कर सकता है। अब देखो उस चाँद को, मेरे दोस्त धीरु भाई कहते हैं, चाँद कृष्ण का बड़ा भाई आकाश में अपना फ़र्ज़ निभा रहा है। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। मुझे आसमान पर दो दोस्त अपनी दोस्ती का आनंद लेते नज़र आते हैं।’ यूँ ही बातें करते-करते वे मुझे हास्टल पर छोड़ने आए। कहने लगे कि ज़िंदगी हमेशा किसी प्लान पर नहीं चलती। आज हमारा यूँ अचानक मिलना इतनी ख़़ूबसूरत बात है कि उसको बयाँ नहीं कर सकता। ये कहकर उन्होंने अलविदा ली और जब मैंने पलट कर देखा तो वे अफ्रीका की रात में एकदम अकेले चले जा रहे थे। दिल में एक तूफ़ान उठा कि भाग कर उनके पास चला जाऊँ लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उस रात के बरसों बाद यहाँ अमरीका की कोलराडो पहाड़ी पर कैम्पिंग करने गया। बर्फ़ जैसी ठंडी हवा सोने नहीं दे रही थी, सारा जिस्म काँप रहा था। ऐसी मुश्किल में अचानक मेरी निगाह आकाश की तरफ़ गई तो वैसा ही चाँद मैंने आकाश पर देखा। हवा चल रही थी कि नहीं, सर्दी थी कि नहीं मेरा बदन एकदम सहज हो गया। मैंने सकून महसूस किया।

इसी वर्ष ज़ंज़ीबार को भी आज़ादी मिली। लेकिन मैं वहाँ नहीं पहुँचा। 1964 में एक भयंकर कर्नल ओकेलो ज़ंज़ीबार में इंक़लाब लाए। कुछ ही रातों में हज़ारों अरब मर्द, औरतों और बच्चों को हलाक कर दिया गया। इस बदले में कि एक ज़माने में अरबों ने कालों को दास बनाया था। उन दिनों समुन्दर से आती हुई हवा में मुर्दों की बदबू आने लगी थी। फिर कर्नल ओकेलो ने ज़ोर ज़बर्दस्ती काले लड़कों की हिंदुस्तानी लड़कियों से सामूहिक शादियाँ करवाईं।

1964 में मुझे बी एस सी डिग्री मिली तो मैं टांगा में ही काले अफ्रीकियों के सैकेंडरी स्कूल में अध्यापक बन गया। नौकरी शुरू हुई ही थी कि फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन की स्कालरशिप पर अमेरिका आ गया। आने से पहले मैंने एक हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीत ‘तुम हो साथ रात भी हसीन है, अब तो मौत का भी ग़म नहीं है’ इस रिकार्ड को अपने साथ लाने के लिए चुना। लेकिन जब पैक करने गया तो ख़़याल आया कि अमेरिका में इसकी क्या ज़रूरत पड़ेगी। मैंने रिकार्ड वहीं छोड़ दिया। जो बाद में मुझे अपनी ग़लती ही नहीं गुनाह महसूस होने लगा। नैरोबी से हवाई जहाज़ उड़ा तो ख़ुशी की जगह रिकार्ड के पीछे छूटने का ग़म हो रहा था जिससे मैं आज भी निजात नहीं पा सका हूँ।

तुम हो साथ रात भी हसीन है
अब तो मौत का भी ग़म नहीं है


इसके बाद अफ़्रीकाकी हालत और भी बिगड़ गई। 1966 में मारे डर के मेरी माँ दो बहनों को लेकर कराची चली गई। वहाँ से खत आया यहाँ सब कुछ ठीक है। मोहाजिर ज़्यादा है, पाकिस्तानी कम। यू पी के मोहाजिर के साथ हम अफ़्रीका के मोहाजिर एक दिन से दूसरे दिन में पहुँच जाते हैं। हमारे घर का पार्टिशन हो गया। सारे आदमी अफ़्रीका में और बाहर थे, औरतें और बच्चे पाकिस्तान में। इरादा तो यही था कि सब कुछ ठीक होने के बाद अफ़्रीका लौट आऐंगे। लेकिन ये मालूम नहीं था, वह घर हमारा नहीं रहा। सच तो यह था, भारत और पाकिस्तान के लोगों ने अफ़्रीका को अपना घर कभी बनाया ही नहीं। क्योंकि अगर साउथ एशिया को अपना घर समझते तो कभी छोड़ते ही नहीं और बाहर जाकर उसे भी अपनाया नहीं। साउथ एशिया में रहते बाहर के सपने देखते रहे और बाहर रहते हुए साउथ एशिया के। ऐसे लोग कितने डाँवाडोल होते हैं। 1967 में तंज़ानिया के प्रेसिडेंट नियरेरे ने अरूशा घोषणा के साथ अपने देश को समाजवाद के रास्ते पर लगा दिया। रातों रात राजनेता और बड़े सरकारी अर्दलियों के सिवा सब ग़रीब हो गए। जो हमारे लोग बचे, वे उन लोगों के साये में जी रहे हैं।

1972 में युगांडा के डिक्टेटर ईदी अमीन ने कुछ ही दिनों में मोहलत देकर एशियाई लोगों को निकाल बाहर किया। लेकिन इस बेरहम डिक्टेटर ने हमारे लोगों के साथ वह व्यवहार नहीं किया जो 1946-47 में पार्टिशन के समय हमने ख़ुद एक दूसरे के साथ किया। हमारी पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता हमें ख़ून-ख़राबे से बचा नहीं सकी।

1983 में वाशिंगटन में एक बार जब मैं शाम को घर लौटा तो मेरे नाम एक ख़त था। हैंडराइटिंग देखकर जानी पहचानी लगी। लेकिन तुरंत कुछ भी याद नहीं आया। जब पढ़ा, तो ये ख़त मेरे भाई अय्यूब का था। उसमें छोटा सा संदेश था कि मैं तुम्हारी कुछ मदद चाहता हूँ। कुछ इन्फ़ोरमेशन। क्योंकि तुम मेडिकल स्कूल में पढ़ाते हो। तुम बता सकते हो, कभी-कभी मैं बिला वजह रोता हूँ, क्या इसका कोई इलाज है? आखि़र में लिखा संगीत निर्देशक सी रामचंद्र अपना ही ख़ून बहाकर चले गए। ज़माना अच्छा नहीं है। मैंने उन्हें जवाब दिया। लेकिन याद नहीं मैंने क्या लिखा था।

1985 में मेरे भाई अकरम जो टांगों में हमारी आखिरी निशानी थे, वे भी लंदन चले गए। इससे पहले उन्होंने अपने घर में दोस्तों को पार्टी दी। और वे सारे रिकार्ड उन्हें दे दिये जो हमने 1946 से इकट्ठे करके एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी बनाई थी। ये रिकार्ड हमारे सुख-दुख के साथी थे। इनके साथ उन दिनों की यादें जुड़ी थीं जो हमने एक साथ गुज़ारी थीं। वे सारे रिकार्ड मेरे भाई अकरम ने एक बहुत कड़वा घूँट पीकर दोस्तों को गिफ़्ट में दे दिये। हमारे परिवार ने बैंक बैलेंस नहीं बनाया था। हज़ारों रिकार्डों का ख़ज़ाना कुछ देर में ही लुट गया।

तुम भी भुला दो, मैं भी भूला दूँ
क्या भुला दें गुज़रे ज़माने...


दिसंबर 1985 में शुक्रवार की दोपहर की नमाज़ पढ़ते हुए हमारी माँ बेहोश होकर गिर पड़ीं। फ़ौरन उनको अस्पताल ले जाया गया। डाक्टर ने बताया कि उनके दिमाग़ की नस फट गई हैं। आहिस्ता-आहिस्ता उनका दिमाग़ अपने ही लहू में डूबने लगा। हवा में बेबस चिराग़ की तरह यादें एक के बाद एक बुझने लगीं। कुछ ही घंटों में ज़िंदगी भर की यादें, जज़्बात, ख़़याल, उम्मीदें, एक लंबी चुप्पी में खो गईं। हम जिंदगी भर माँ को बेबे जी पुकारते थे। हमने इसी भूमिका में उन्हें जाना लेकिन उनका नाम रसूल बीबी था। रसूल बीबी कौन थीं, ये भेद उनके साथ ही चला गया। 1986 के नये वर्ष की रात, मेरी माँ को स्ट्रोक हुआ और वे गहरी नींद में सो गईं। उनकी मौत के साथ उनकी दो ख़्वाहिशें भी दफ़्न हो गईं। एक तो ये कि वो खडगपुर जाना चाहती थीं वो सपना कभी पूरा नहीं हुआ और दूसरा ये कि हज करें। जब मैं अपनी माँ के फ़्यूनेरल पर गया तो भाई अय्यूब से 22 वर्षों बाद मुलाक़ात हुई। मिलने के बाद ऐसे देख रहे थे, जैसे मैं कोई अजनबी हूँ। और कहने लगे, अगर मैंने सड़क पर देखा होता तो कभी नहीं कह सकता था कि तुम मेरे भाई हो। वक़्त ऐसा भी करता है। मुझे भी भाई में एक बहुत

बड़ा फ़र्क़ नज़र आया। उन्होंने चंद्रमोहन और सोहराब मोदी की स्टाइल छोड़ दी थी। अब वे दिलीप कुमार के देवदास और गुरुदत्त के काग़ज़ के फूल के सिनेमा के कैमरे के लिए तैयार थे।

ये भी एक रूप है...

ज़िंदगी का एक दौर वह होता है जब वक़्त हमें उड़ती कालीन पर बिठाकर एक लम्हे से दूसरे लम्हे तक ले जाता है। फिर एक दौर आता है जब वक़्त एक भारी पत्थर की तरह ढोना पड़ता है। मेरे भाई की जिंदगी के उस दौर में थे।

कराची में जब मैं एक शाम उनके घर पर बैठा था और हम चाय पी रहे थे, मैंने अपने कोट में हाथ डाला तो एक कैसेट हाथ में आया। उसमें पचास के दशक के गीत थे। मैंने उनकी इजाज़त से टेप बजाया तो पहला गाना फ़िल्म आज़ाद का था, ‘जा री, जा री ओ कारी बदरिया’। उनके चेहरे से चिंता के बादल दूर हो गए। गाने के साथ झूमने लगे।

जा री जारी ओ कारी बदरिया
मत बरसो....


फिर एक के बाद एक गाने बजने लगे, तो बिना कुछ कहे ऐसा लगा कि हम फिर एक दूसरे के बहुत क़रीब आ गए हैं। कुछ गानों के बाद अचानक एक नया गीत बजा। वह था, ‘जाते हो तो जाओ हम भी यहाँ यादों के सहारे जी लेंगे’। सज्जाद हुसैन के संगीत में फ़िल्म खेल का गीत शुरू होते ही भाई एकदम भौंचक्के रह गए।

जाते हो तो जाओ हम भी यहाँ यादों के सहारे जी लेंगे

जब गीत पूरा हुआ तो उन्होंने टेप बंद कर दिया। एकदम आकर गले लगा लिया और कहा, ‘मैंने न तो भाई का और न ही दोस्त का फ़र्ज़ निभाया है। मैं वो वादा पूरा नहीं कर सका कि हम हाजीभाई को फिर से मिलने जाएँगे। मजबूरी की वजह से पूरा नहीं कर सके। कोई भी इंसान अपने आप में मुकम्मल नहीं है। अगर वो ऐसा है, तो वो फरिश्ता है।’ वो बैठ गए और मुझे ग़ालिब का ये शेर याद आया:

बस के दुश्वार है, हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना


माहौल में चुप्पी छाई हुई थी। मेरे दिमाग़ में आ रहा था, भाई की ज़िंदगी की मुश्किलों ने उन्हें एक अच्छा इंसान बनाया है। कुछ ही देर पहले उन्होंने जो कुछ कहा, वह इसका सबूत है। चुप्पी उन्होंने ही तोड़ी और कहा, इस गीत को ढूँढ़ने के लिए हम अफ़्रीका में कहाँ-कहाँ गए थे। लोगों ने वादा करने पर भी न सुनाया। लेकिन इन्हें उसका मलाल नहीं था। कहने लगे, ‘जिनके पास है, वह अपने ख़ज़ाने की क़ीमत जानते हैं।’ सज्जाद को फ़िल्म रुस्तम सोहराब के बाद किसी ने और मौक़ा नहीं दिया। फिर पूछा, ‘क्या तुम्हें मालूम है कि फ़िल्म दोस्त के गीत, ”कोई प्रेम का देके संदेसा“ इसके पीछे कौन-सा गीत था?’ तो, मैंने कहा, ‘आपके बग़ैर यह मालूम करना मुझे ठीक नहीं लगा, मुझे भी नहीं मालूम।’ मेरे दिमाग़ में एक बात उठी, मेरे भाई ने तो अपनी इंसानियत का सबूत दे दिया, मरे दिल में उनके लिए जज़्बात भर उठे। लेकिन जोश ने साथ नहीं दिया कि मैं भी उन्हें वैसे ही गले लगाऊँ जैसाकि उन्होंने किया था। कुछ ही पलों में वह सुनहरा मौक़ा हाथ से निकल गया। मेरी इंसानियत मेरे सामने थी लेकिन मैं उस तक नहीं पहुँच सका। बातें करते-करते शाम ढल गई। एक दिन हम कराची की सैर पर निकले। जो अचानक एक ऐसी सड़क पर आ गए जिसमें न इधर था, न उधर था। जब साइनबोर्ड देखा तो वो थी जिगर मुरादाबादी रोड। ये पढ़कर हम दोनों हँसने लगे। इतना हँसे कि पेट में दर्द होने लगा। फिर तो हमने पंजाब और इंडिया जाने का इरादा किया था छोड़ दिया। उनके मुँह से एकाएक जिगर मुरादाबादी का ये शेर निकला:

वही है ज़िंदगी लेकिन जिगर, ये हाल है अपना
जैसे कि जिंदगी से जिं़दगी कम होती जाती है


मैं अमरीका लौट कर आया। कुछ ही महीने बाद एक शाम घर लौटा तो एक टेलीग्राम था कि अय्यूब अब हमारे बीच नहीं रहे। जब मैंने तार पढ़ा तो वो साइसेल की धागे के हार की टूटने की आवाज़ आई। उसमें पिरोई यादें गर्द में बिखर गईं। घुटनों में ताक़त नहीं रही। वक़्त थोड़ी देर के लिए ठहर गया। बाद में पता चला एक मनहूस रात उन्हें छाती में दर्द हुआ। उनके बेटे अस्पताल लेकर गए। लेकिन रास्ते में ही वह उस रास्ते पर चल पड़े जहाँ कोई किसी का साथी नहीं होता। डाक्टर ने जब नब्ज़ देखी तो कहा ये तो कब के जा चुके हैं। उनका देहांत उनकी बेटी की शादी के एक सप्ताह पहले हुआ। शादी की तारीख़ बढ़ा दी गई। छह महीने बाद मेरे भाई असलम ने उनकी जगह खड़े होकर बेटी को विदाई दी। जिंदगी के दाम वक़्त से चुकाये जाते हैं। उनके हार्ट अटैक के वक़्त जब मेरे भाई ने जेब में हाथ डाला तो वे जेबें ख़ाली हो चुकी थीं। पहले वे पैसे से ग़रीब हुए फिर वक़्त से। उस समय उनकी उम्र 58 थी। जब मैं छोटा था, अगर किसी का हार्ट अटैक से देहांत होता तो बड़े लोग कहते, बनाने वाले की बड़ी मेहरबानी कि जल्दी उठा लिया। मेडिकल कालेज में आने के बाद जानकारी ये हुई कि इस रोग से जो भी मरता है, वह इस दुनिया में बेहिसाब पीड़ा झेलकर जाता है। मेरे भाई का ये अंजाम मुझे कभी-कभी बेबस कर देता है। तब मुझे उनकी कही बात याद आती है कि जिंदगी एक बहुत बड़ा तोहफ़ा है। जिसकी हर अच्छी और बुरी बात उससे अलग नहीं की जा सकती। इस जिंदगी के लिए ख़ुदा के शुक्र के सिवा और कुछ नहीं सोचना चाहिए।

राही कई अभी आएंगे
कई अभी जाएंगे...


श्रद्धांजलि

इस याद को ताज़ा करते हुए मुझे कहना पड़ेगा कि बच्चों की परवरिश में उनको यह सिखाया जाना बहुत ज़रूरी है कि वह जिनसे मोहब्बत करते हैं, अगर उसका उन्होंने खुलकर इज़हार नहीं किया तो यह ग़लती ही नहीं गुनाह है। मेरे कहने से भाई अय्यूब की ज़िंदगी नहीं बढ़ती लेकिन उनका हौसला तो बढ़ सकता था।

ये कैसी अजब दास्ताँ हो गई है
छुपाते-छुपाते बयाँ हो गई है


ये बेमिसाल गीत सुरैया के आखि़री गीतों में से है। यह रुस्तम सोहराब फ़िल्म का गीत है जो सज्जाद हुसैन की आखि़री फ़िल्म थी। इसके बाद वे अपनी इज़्ज़त आबरू लेकर फ़िल्मी दुनिया से दूर हो गए। किसी भी प्रोड्यूसर को ऐसा हौसला नहीं आया कि वे फिर उनको एक और मौक़ा देते। 1950 के दशक में लता मंगेशकर ने हिंदुस्तान के कोई पाँच-छह बढ़िया म्यूज़िक डाइरेक्टरों में सज्जाद हुसैन का ज़िक्र किया था। 1984 में फ़िल्मी गीत के पचास वर्ष होने पर एक मैगज़ीन में वही पुराना लेख दुबारा छापा गया था, लेकिन इस बार उसमें सज्जाद हुसैन का नाम नहीं था। तक़रीबन उसी समय यहाँ वाशिंगटन के गीतांजलि कार्यक्रम में ‘ये हवा, ये रात चाँदनी...’ गीत बजा तो एम सी ने कहा ये गीत मदनमोहन ने कंपोज़ किया था। ये वह मदनमोहन थे जिन्होंने आखिरी दाँव फ़िल्म में ‘तुझे क्या सुनाऊँ ऐ दिलरुबा’ में उसी गीत की कार्बन कापी बनाई। कहते हैं, जब सज्जाद हुसैन ने ये गीत सुना तो कहने लगे आजकल तो हम क्या हमारे साये भी उठकर चलने लगे हैं। ये कहकर वे फिर से ग़ायब हो गए। जब लता मंगेशकर के जीवन पर 1992 में वीडियो बना तो सज्जाद की झलक इस वीडियो में मिली जिसमें वह लता को आनर कर रहे हैं। दो-तीन मिनट में ऐसा दिखाई पड़ता है, उनका मुँह नहीं हाथ बोल रहा है। लेकिन उनकी जिंदगी में एक मिठास तो आ ही सकती थी।

ऐ दिलरुबा, नज़रें मिला... कुछ तो ...

1992 में यहाँ वायस आफ़ अमेरिका की ब्राडकास्टर विजयलक्ष्मी ने मुंबई में उनसे इंटरव्यू करने की बात कही तो लोगों ने कहा आप किसका इंटरव्यू करना चाहती हैं। सज्जाद हुसैन मिलनसार इंसान नहीं थे। लेकिन इतनी दूर से आए श्रोता को निराश नहीं कर सके, तो उनका आखि़री इंटरव्यू वायस आफ़ अमरीका ने लिया और उन पर तीन प्रोग्राम पेश किये। 1994 में वे हाथ जिसने इटली के मैन्डोलिन को हिंदुस्तानी गाना गाना सिखाया, इस साज़ से हमेशा के लिए दूर हो गए।

मेरे यहाँ से चल दिये
मेरा खु़दा भला करे
शौक़ से ग़म उठाब
शिकवे न लब पे लाएँगे


उनकी एक छोटी सी श्रद्धांजलि राजू भारतन ने स्क्रीन पत्रिका में दी लेकिन उसके इर्द-गिर्द के दूसरे आर्टिकल के शोरोग़ुल ने उसकी अहमियत को ढँक दिया। एक दिन मैं अपने एक छात्र को जो फ़िल्मी संगीत में दिलचस्पी रखते हैं, उनसे सज्जाद के गीत का ज़िक्र कर रहा था, तो उन्होंने पूछा, ये सज्जाद कौन था?

1988 में मेरे पिता की मृत्यु तंज़ानिया के इरिंगा शहर में हुई और उनको इरिंगा के उसी क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया जिसे वे दुनिया का स्वर्ग समझते थे।

बालूसिंह 1970 के दशक में अफ़रीक़ा में पाबंदी आने से पहले लंदन पहुँच गए और वहाँ वह वेल्फ़ेयर पर हैं। ख़बर आई कि कोयले के काम की वजह से उन्हें काले फेफड़े की बीमारी हो गई है जिसे एम्फ़ीज़ीमा कहते हैं। इसमें मरीज़ को लगता है, वह पानी में डूब रहा है। यहाँ हक़ीक़त ये थी कि आग से काम करने वाला पानी में डूब रहा था। हो सकता है वे अब तक डूब चुके हों।

सब कहाँ कुछ लाला-ओ गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक मे क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं


- मिर्ज़ा ग़ालिब

हाजीभाई एक रात ख़्वाब में मिले, बहुत जल्दी में थे, कहने लगे, बेटा, तुमने बहुत देर कर दी। सुना है, अमरीका में तुम्हें बहुत कामयाबी मिली, वक़्त बहुत कम है। एक बहुत ज़रूरी काम तुम मेरा कर सकते हो। चलो, जल्दी चलो। वह मुझे उलुगुरू पहाड़ में एक गुफा में ले गए। बहुत अंदर जाकर उन्होंने बत्ती जलाई, तो देखा, एक बहुत बड़े म्यूज़ियम में हैं जिसकी दीवारों पर तस्वीरों की तरह वह फ़िल्मी गीत फ्ऱेम में लगे हुए हैं जो अब गुल हो चुके हैं। उन्होंने एक चाबी दी और कहा, अब ये अमानत नयी पीढ़ी की है, उन तक पहुँचा देना। यह कह कर वह नज़रों से गुल हो गए।

आय हाय लूट गया...

सबक़

1952 में, एक दिन मैं अपने मास्टर बी एन नायक के साथ चाल्र्स डिकिन्स के नावेल डेविड कापरफ़ील्ड पर बात कर रहा था, तो उन्होंने बताया कि ये किताब आधी हक़ीक़त और आघा फ़साना है। ये कहानी डिकिन्स की अपनी जिंदगी पर आधारित है। तो, मैंने पूछा, ऐसा क्यों? तो, उन्होंने समझाया, डाक्यूमेंटरी हर समय इंसान को सच्चाई तक नहीं ले जा सकती। फ़साना भी उस तक पहँचने का मंसूबा है। तुम्हारी तरह जब मैं छोटा था, अपने देवताओं के बारे मे मुझे बहुत ख़राब लगता था कि गणेश जी आधे इंसान है, आधे हाथी। ये हमारे कैसे भगवान हैं। धड़ इंसान का, सिर हाथी का। मैं चूँकि वेस्टर्नाइज होने लगा, सोचता ये क्या चक्कर है। मैं सोचने लगा क्या गणेश जी हाथी की शक्ल में इंसान हैं या इंसान की शक्ल में हाथी! उस दौरान जिस चीज़ न मेरी ज़िंदगी काफ़ी बदली, ये समझ कि गणेश जी वो इंसान है जिनमें हाथी की विज़डम है। और इतनी है कि उतनी सामान्य इंसान में नहीं है। जिस आर्टिस्ट ने इस देवता की कल्पना की, सामान्य लोगों को समझाने के लिए हाथी का सिर बनाया कि उनमें बहुत ज्ञान है। गणेश जी की इस अक़्लमंदी की बुनियाद है हाथी की याददाश्त की शक्ति। इसके बगैर विज़डम का मंसूबा ही नहीं हो सकता। जिसको गए हुए कल का इल्म ही न हो, वह आने वाले कल में कामयाब हो ही नहीं सकता। गणेश जी हमें समझाते हैं, हम कितनी भी मुसीबत में क्यों न हों, अगर हमें ये याद रहे कि हम उस मुसीबत में किन रास्तों से होकर पहुँचे तो उन्हीं से होकर निकल भी सकते हैं। वे कहने लगे मैं मुसलमान नहीं हूँ। लेकिन मुझे मालूम है, आप लोगों को क़ुरान इक़रा से शुरू होता है। जिसका मतलब है, पढ़ो। अगर कोई सारा कु़रान शरीफ़ न भी पढ़े, सिर्फ़ इस शब्द को पढ़कर अक़्ल बढ़ती है। क्योंकि ये शब्द उस इंसान ने लिखवाया है जो पढ़ नहीं सकते थे। उन्होंने कहा, तुम होनहार बनने की कोशिश कर रहे हो, तुम कभी इन बातों पर सोचना।


हर इंसान के नाम में उसके माता-पिता की आशाएँ और उम्मीदें होती हैं। मेरा नाम अशरफ़ अज़ीज़। मैं यहाँ हावर्ड युनिवर्सिटी के मेडिकल स्कूल में प्रोफ़ेसर हूँ। इस संस्मरण में, मैंने जिन लोगों का ज़िक्र किया है, मैं उनका साथी हूँ। मैं अक्सर वाशिंगटन डी सी से न्यूयार्क जाता हूँ, तो डेलावेयर नदी के पुल के बायीं ओर डुपोंट कंपनी की फै़क्टरी मुझे साफ़ नज़र आती है। ये वह कंपनी है, जिसके नक़ली धागे ने साइसेल के असली धागे को सस्ता करके जिन लोगों की ज़िंदगियों का ज़िक्र कर रहा था बेकार कर दिया। मेरा एक भाई इसी कंपनी में था। लेकिन डुपोंट के व्यापार की उसे कोई जानकारी नहीं थी। मैं ख़ुद उस देश का नागरिक हूँ जिसके कारपोरेशन उन मुल्कों पर लगाम लगाये बैठे हैं जहाँ आज भी हमारे भाई-बहन कड़े संघर्ष में जी रहे हैं। मेरा नाम अशरफ़ अज़ीज़ है, अशरफ़ होने की गुंजाइश नहीं रही, लेकिन अज़ीज़ बनने की जद्दोजहद अभी जारी है।

हाय लूट गया... हाय लूट गया...

कहते हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। उसका पहला दौर एक गंभीर नाटक है और दूसरा दौर तमाशा। दूसरे दौर को अर्थशास्त्रियों ने ग्लोबलाइजेशन और ग्लोबल इकानोमी नाम दिया है। पिछली सदी का साम्राज्यवाद एक गंभीर नाटक की तरह गुज़र गया, अब जो तमाशा शुरू हुआ है उसका असर हमारे भाई बहनों पर क्या होगा, वो देखना अभी बाक़ी है।

आज भी बहुत से हिंदुस्तानी जिन्होंने थोड़ी बहुत पढ़ाई की है अपने आप को बुद्धिजीवी समझते हैं। वे न हिंदुस्तानी गीत और न ही लोक संगीत को वह इज़्ज़त देने को तैयार हैं ज® वे शास्त्रीय संगीत को देते हैं। साउथ एशिया की आज़ादी की पचासवीं वर्षगाँठ पर, मैंने एक ंिहंदुस्तानी फ़िल्मी गीत की क़ीमत क्या है, इसके जवाब में एक ऐसी आपबीती लिखी है, जिसमें कुछ लोगों की जानें ही चली गई होतीं। हो सकता है, इस संस्मरण को पढ़कर फ़िल्म संगीत की गहराई समझ में आए। इस लेख में ये भी ज़ाहिर है कि विकासशील देशों में फ़िल्म संगीत कितना बड़ा सहारा है। इसकी कितनी क़द्र की जाती है। 1985 में जब मैं दारेस्सलाम गया, तो वहाँ बहुत कम हिंदुस्तानी बचे थे। वहाँ पुराने एंबेसी सिनेमा के रास्ते पर भीड़ लगी हुई थी। जब थियेटर पर देखा, ‘मिस्टर इंडिया’ फ़िल्म लगी हुई थी। मैं कभी भी इंडिया नहीं गया। लेकिन फ़िल्मी गीतों ने मुझे हमेशा इंडिया से जोड़े रक्खा। मैं हिंदुस्तानी ज़बान अच्छी तरह बोल सकता हूँ, लिख नहीं सकता।

(समाप्त)

Monday, September 12, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 9

(पिछली पोस्ट से जारी)

बालूसिंह के घर जाते वक़्त उन्होंने फिर हमसे तकरार की कि फ़िल्मी गीतों ने हमें अंघा बना दिया है। फ़िल्म देखने जाते नहीं। फ़िल्म ने फ़ोटोग्राफ़रों ने जो काम किया है इसका कोई इल्म नहीं, कोई ज़िक्र नहीं। दूसरे दिन हम फिर से बस से वापस लौट रहे थे। बारिश की वजसे रास्ते कीचड़ से भरे थे। गाड़ी को धक्का देकर, कभी गाड़ी में बैठकर आगे बढ़ते रहे। तभी मुझे यह समझ आया कि अच्छी कंपनी में मुसीबतों का रंग कुछ अलग ही होता है। एक बात जो वापसी के सफ़र की याद रही, वह यह कि मैंने अपने भाई से सवाल किया था कि क्या फ़िल्मी संगीत में कोई ऐब या ख़़राबी भी है? उन्होंने कहा एक बहुत बड़ा नुक़्स है। फ़िल्म संगीत में हिंदुस्तान के लोगों में एकता लाने की संभावना पर काम नहीं किया गया है। ये इंडिया के टुकड़े होने से नहीं बचा सका। किसी भी लेखक और आलोचक ने इस प्रश्न को नहीं उठाया। उन्होंने ये भी कहा, ‘ये ख़ुदा की मेहरबानी है, पार्टीशन से पहले ही उन्होंने सहगल को उठा लिया।’

बिजलीवाला शाह, दहशत में एक छोटा चश्मा

जब हम घर लौटे तो दोनों को मच्छर के काटे का वरदान मिला। दस बारह दिन तक डाक्टरों की सूइयाँ खाते रहे। बिजलीवाला शाह हमारी कम्युनिटी में उन गिने चुने लोगों में थे, जिनका पढ़ाई-लिखाई किताबों से नाता था। हमारी कम्युनिटी में वह एक गहरी सोच वाले इंसान थे। अलीगढ़ में मुग़ल शायरों पर उन्होंने थीसिस लिखी थी। वह कहते मेरा दिमाग़, सोच-समझ, मेरे जज़्बात हमारी तारीख़ के एक वर्ष में क़ैद है, वह है 1857। इस बरस में हिंदुस्तान में क्या हुआ। अगर हम ठीक से इसे समझें तो हमारे भविष्य का दरवाज़ा खुल जाएगा। वह ख़ुद कहते कि वह उस वक़्त के आदमी नहीं है, उनका जन्म तो इस सदी में हुआ। एक लिहाज़ से वह भाई अय्यूब के उस्ताद थे।

ग़ालिब, दाग़, सौदा, हाली, ज़फ़र इनकी शायरी पर घंटों बातें करते ताकि मेरे भाई और अच्छा गा सकें। लेकिन बिजली वाले शाह एक अजीब शाह थे। मुझे ताज्जुब होता था कि जिस आदमी की इतनी पढ़ाई-लिखाई हो वह इस तरह का काम क्यों करता है? कम्युनिटी वालों को सबसे बड़ा एतराज़ यह था कि शाह ने काली अफ़्रीकी से शादी की थी। इसलिए बहुत से लोग कहते थे कि ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई इंसान के लिए अच्छी चीज़ नहीं है। मेरे भाई ने एक दिन समझाया कि उन्हें बिजली वाले के हौसले पर रश्क होता है। वह दुनिया में कितने अकेले हैं। उनके घर वाली के लिए उर्दू हवा में उड़ती हुई बेमानी आवाज़ है। शाह साहब चारदीवारी में अपनी यादों के सहारे एक लम्हे से दूसरे लम्हे पहुँच रहे हैं। मैं उनकी हिम्मत की दाद देता हूँ। इसी मुलाक़ात में बिजली वाले शाह ने हमें नायलोन की ईजाद के बारे में बताया। उन्होंने अख़बार में पढ़ा है, अमरीका में नायलोन का धागा बन चुका है और यह साइसेल का चक्कर ख़त्म होने वाला है। तो मेरे भाई ने कहा कि शाह साहब हमें बीमारी में ठीक करने आए हैं कि और बीमार करने? वह हँसने लगे। नहीं-नहीं, यह बदलाव तो सौ साल बाद होगा, अभी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। उन्होंने कहा मैं यह इसलिए बता रहा हूँ, क्योंकि नायलोन की कहानी बहुत दिलचस्प है। 1937 में अमरीका की डुपौंट कंपनी ने हारवर्ड विश्वविद्यालय के एक होनहार प्रोफ़ेसर वॉल्स करदर्स को कंपनी में लिया ताकि वे नायलोन का धागा बनाये। वे कामयाब हुए। लेकिन पेटेंट मिलते ही अपनी ईजाद पर निराश होकर उन्होंने ख़ुदकुशी कर ली। 1940 में इस धागे का स्टॉकिंग जब न्यूयार्क के मेसी स्टोर में बिका तो, औरतों ने हंगामा कर दिया। जिस चीज़ का फ़ायदा करदर्स को मिलना चाहिए था, वह कंपनी ले रही थी।

तबीयत ठीक होने पर भाई तो नौकरी पर चले गए और मैं मास्टर दया भाई के डंडे खाने की तैयारी करने लगा। स्कूल जाने के पहले बारबार मेरे दिमाग़ में आ रहा था, काश, समय पीछे चला जाए जब हम सफ़र करने की तैयारी कर रहे थे। कोई भी इंसान तवारीख़ के बाहर नहीं रह सकता। जो इसकी कोशिश करता है, उसको सज़ा मिलती है। अगस्त 1947 में महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना जो क्रांति लाए, तीसरी दुनिया के देशों में ब्रिटिश राज की लगाम ढीली पड़ने लगी। लेकिन ये आज़ादी दक्षिण एशिया में आई। अफ्ऱीक़़ा के हिंदुस्तानियों को अभी भी उसकी कोई ज़रूरत महसूस नहीं हुई। वे ब्रिटेन के वफ़ादार बने रहे। उनके लिए किपलिंग का गंगादीन खलनायक नहीं हीरो था। हालाँकि रेलगाड़ी हमारे बाप-दादाओं ने बनायी थी, लेकिन हमें सिर्फ़ सेकेंड क्लास में बैठने की इजाज़त थी और उसमें भी हम ख़ुश थे। थर्ड क्लास के डिब्बे में क्या हो रहा है, उससे हमें कोई मतलब नहीं था।

(अगली किस्त में समाप्य)

Sunday, September 11, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 8

(पिछली पोस्ट से जारी)

मुश्किल संगीत के मुश्किल फ़नकार


उन्होंने बताया कि एक दफ़ा सज्जाद हलचल फ़िल्म का गीत हारमोनियम पर बजा रहे थे। तो प्रोड्यूसर करीम आसिफ़ आए और धुन सुनते हुए बीच में ही सज्जाद को रोका और कहा, इसका स्वर थोड़ा सा बदल दीजिए। तो सज्जाद ने पूछा, आपको कौन सा स्वर चाहिए? तो आसिफ़ ने एक स्वर पर अपनी उंगली रख दी और कहा ये बहुत अच्छा चलेगा। सज्जाद ने उसी समय उस स्वर को उखाड़ कर दे दिया और कहा, ‘ये है आपका स्वर। हमारे बाजे में तो यह स्वर है नहीं। इसलिए हमारे गाने में यह नहीं लग सकता।’ और अपना काम बंद करके चले गए। सज्जाद हुसैन को हलचल से निकाल दिया गया और मोहम्मद शफ़ी को ले लिया गया। लेकिन उस फ़िल्म में सज्जाद का हर गाना अपने आप में एक ख़ज़ाना है।

आज मेरे नसीब ने मुझको रुला-रुला दिया
लूट लिया मेरा क़रार फिर भी...


दूसरी कहानी जो उन्होंने सुनाई वह इस प्रकार थी - एक दिन सज्जाद रिहर्सल कर रहे थे। सुबह बीती, शाम भी हो गई। गाना था कि बन ही नहीं रहा था। उन्होंने चपरासी को बुलाया और कहा, ‘दुकान से लंबी, तेज छुरी लेकर आओ।’ जब छुरी आ गई तो उन्होंने अपना बेटन रद्दी की टोकरी में फेंक दिया, छुरी से कंडक्ट करने लगे और उससे पहले आर्केस्ट्रा से कहा, ‘आप लोगों में बहुत ग़लतफ़हमी है। फ़िल्मी गीत जिंदगी और मौत का सवाल है, मनोरंजन का नहीं। अगर अब ये गीत ठीक से नहीं बना तो आज किसी का लहू बहेगा।’ उसके बाद गाने की रिकार्डिंग तुरंत हो गई।

कील, हथौड़ी और हाथ का संबंध

खाना खाते हुए हाजीभाई ने हमसे पूछा, ‘सिनेमा संगीत के सिवा आप और क्या करते हैं?’ मेरे भाई ने बताया, ‘हम बढ़ई और लोहार हैं।’ उन्होंने कहा, ‘आप तो अच्छी नस्ल के लोग हैं। ईसा मसीह भी यही काम करते थे। जिस सूली पर उन्हें चढ़ाया गया उसको बनाने की उन्हें अच्छी समझ थी।’ तब उन्होंने हमें कील, हथौड़ी और हाथ के रिश्ते नाते के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘इन तीनों के बगै़र कोई इमारत नहीं बन सकती। ब्रिटिश राज वह इमारत है जो इन्हीं मनसूबों से बनायी गई है। हिंदुस्तान में हम लोग कील थे, हथौड़ी थी, अंग्रेज़ों का मज़दूर वर्ग जो उनके इशारों पर चलता था और हाथ थे अफ़सर लोग। लेकिन अफ़रीक़ा में कील हैं अफ़रीक़ी भाई, और हम हैं हथौड़ी और अंग्रेज़ हैं हाथ। यह सिलसिला तो चलता रहेगा। लेकिन कभी-कभी अफ़सोस होता है और डर लगता है कि कील को हथौड़ी का एहसास है, लेकिन हाथ का नहीं।’ तब उन्होंने लालू भगत की कहानी सुनाई कि वह एक बार दारेस्सलाम गए थे, तो पता लगा कि वहाँ एक बहुत बड़ी म्यूज़िक पार्टी हो रही है जिसमें लालू भगत गाने वाले हैं। लालू भगत हिंदुस्तानी नहीं थे। वह जंज़ीबार के अफ़रीक़ी शिराज़ी थे। उनका यह नाम इसलिए रखा गया था क्योंकि वह लाल रंग की क़मीज पहनते थे। हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीतों से इतना लगाव था कि उन्होंने हमारा कल्चर अपना लिया था। वह एक्टर सुरेंद्र के गीतों की अच्छी कापी करते थे कि उन्हें अफ़रीक़ा का सुरेंद्र कहा जाता था। यह ख़बर मिलने पर कि पार्टी वह गाएँगे, सफ़र रोक कर मैं उस फ़ंक्शन में गया। वहाँ जब उनकी बारी आई तो उन्होंने अनमोल घड़ी फ़िल्म का ये गीत गाया:

क्यों याद आ रहे हैं गुज़रे हुए ज़माने

लोगों ने वाह-वाह ही नहीं की पैसों की बारिश की। इस तारीफ़ से जो हौसला मिला, उससे उन्होंने अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती की। उन्होंने सज्जाद की मौसीक़ी में सुरेंद्र का एक और गीत गाया, तो सबने उन पर कचरा, जूते और काग़ज़ फेंकने शुरू कर दिये। उन्हें स्टेज से बाहर फेंक दिया गया। लालू भगत की हार देखकर मैं एकदम जोश में उठा, भीड़ से निकलकर देखा तो वह निराश होकर जा रहे थे। मैंने उन्हें गले लगा लिया और उनकी जुर्रत की दाद दी। लेकिन मुझे नहीं लगा कि मैं उनका दिल बहला पाया था। वापसी के सफ़र में इस हादसे के बारे में बहुत विचार आते रहे। मैं सोचने लगा कि कोई भी गै़र हिंदुस्तानी हमारी कोई चीज़ पसंद करता है, तो हमें उस पर ख़ुशी होनी चाहिए और उसे अपनाना चाहिए जिसने हमें अपनाया है। मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि कील को हथौड़ी का इल्म हैं, हाथ का नहीं। जो ज़ख़्म हथौड़ी ने कील पर लगाये हैं वह मरहम भी लगाये तो एक अच्छा भविष्य बन सकता है।

इस हादसे ने अफ़रीक़ा के भविष्य के प्रति संदेह पैदा कर दिया। जब इस बातचीत में मैंने जोश में आकर हाजीभाई से सवाल किया, सज्जाद हुसैन के गीत की रेडियो नैरोबी पर भी फ़रमाइश नहीं आती, तो फिर लोग क्येां इन संगीतकार को इतना महत्त्व देते हैं? और अगर कोई उनका गीत गाता है, तो उसे इस तरह का अंजाम भुगतना पड़ता है। हाजीभाई खाना बंद करके मेरी तरफ़ देखने लगे। मुझे रात का सन्नाटा सुनाई दे रहा था। मुझे लगा, वह मुझे तमाचा जड़ देगे। उन्होंने चुप्पी तोड़ी, सवाल करना बड़ों का काम है, जवाब देना छोटों का। तुमने काया पलट दी है। मैं तुम्हें सज़ा इसलिए नहीं दूँगा क्योंकि तुम्हारा सवाल बहुत अच्छा है। पहली बार किसी ने मजबूर किया है कि इस मुद्दे पर सोचूँ। अच्छा, खाने के बाद इसका जवाब दूँगा।

बाद में मैंने अपने भाई से पूछा, हाजीभाई की कहानी सच है या उन्होंने ख़ुद ही बना ली है? तो मेरे भाई ने समझाया, ‘सच्चाई तक पहुँचने के अलग-अलग रास्ते होते हैं। लालू भगत की कहानी में हक़ीक़ी हक़ीक़त है, बाक़ी में कविता की हक़ीक़त। लेकिन जो भी उन्होंने कहा वह सज्जाद हुसैन की सच्चाई को बयाँ करता है।’

सज्जाद हुसैन की कहानियाँ और हिंदुस्तानी फ़िल्म और उसके संगीत की देर तक बातें होती रहीं। आज जब उस रात की बातें याद आती हैं, तो लगता है हम सब एक ख़़ूबसूरत दुल्हन की गोद में बैठे हुए हैं और उसने काली चादर ओढ़ी हुई है। उस रात मैंने अपने आपको बड़ा रिलेक्स्ड महसूस किया। लगा, ऐसी सच्चाइयों में ही जिं़दगी है। रात ढल रही थी, मुझे अच्छा लगा कि बड़ों ने मुझे अपना लिया है। अपनी बैठक से अलग नहीं किया। आखिरकार हमने हाजीभाई से वादा करके जाने की इजाज़त माँगी कि हम उनसे फिर मिलने आएंगे। उन्होंने मुझसे पूछा क्या तुम भी आओगे? मैंने कहा, बिल्कुल ज़रूर आऊँगा। उस समय मैं तेरह बरस का था।

(जारी)

Saturday, September 10, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 7

(पिछली पोस्ट से जारी)

एक पुराने गीत से नयी मुलाक़ात


ये कहकर उन्होंने अपने एक मुलाज़िम को आवाज़ दी तो हुक़्क़ा आ गया। उन्होंने कहा, ‘सज्जाद हुसैन उस्ताद अली बख़्श (मीना कुमारी के पिता) के असिस्टेंट थे। अली बख़्श को एक नयी फ़िल्म का संगीत मिला वो थी दोस्त। एक दिन अली बख़्श बीमार होने की वजह से रिकार्डिंग पर नहीं आए। उनकी ग़ैर हाज़िरी में सज्जाद हारमोनियम में धुन बजाने लगे जिसे सुनकर नूरजहाँ वहाँ आ गईं। उन्हें वह धुन इतनी अच्छी लगी कि अली बख़्श को निकाल दिया गया और सज्जाद को ले लिया गया। हाजीभाई ने फिर मेरी तरफ़ घूर कर देखा और कहने लगे, ‘ऐसे इंसान को बड़ों का आशीर्वाद नहीं मिल सकता और उसके बग़ैर बात नहीं बनती। लेकिन हम दाद देंगे नूरजहाँ की। फ़िल्मी गीतों में एक क्रांति लाने में उनका हाथ था। कभी-कभी इंसान को ज़िंदगी का कारोबार बढ़ाने के लिए ग़लत काम भी करना पड़ता है।’ ये कहकर हाजीभाई उठ कर अंदर गए और चमड़े का एक अटैची केस उठाकर लाए। नौकर को आवाज़ दी, जो पहले एक छोटी टेबल लेकर आया, उस पर ग्रामोफ़ोन रखा। हाजीभाई ने उसमें चाबी भरी। नयी सूई लगाई और फिर बस्ते से एक रिकार्ड निकाला। उसको रखा और वह गाना जो हमने बरसों नहीं सुना था, ‘कोई प्रेम का देके संदेसा हाय लूट गया, हाय लूट गया’, फिर हमारे कानों तक पहुँचा।

कोई प्रेम का देके संदेसा हाय लूट गया, हाय लूट गया।



गाना ख़त्म होने पर उन्होंने कहा, ‘यह गाना है ही नहीं। यह ज़िंदगी की नाकामियों पर, इंसान की एक ठंडी साँस है। तो ये है सच्चाई।’ यह कहते हुए वह रिकार्ड उठाने लगे तो मैंने कहा, ‘इसके पीछे क्या है, वह भी बजाकर सुनाइये।’ तो उन्होंने मेरे गाल पर चुटकी काटी और कहा, ‘मैं तो हूँ चोर, तू डाकू बनेगा। यह सफ़र जो तुमने इस रिकार्ड की एक साइड सुनने के लिए किया, वह दोबारा करना तब हम दूसरी साइड सुनाएँगे।’ रिकार्ड को झोले में डालकर अटैची के अंदर रख लिया। रिकार्ड हमारी आँखों से ओझल हो गया जो आज तक ओझल है।

फिर कहने लगे, हर मुजरिम को अपने जुर्म का भार उठाने की थकान होती है, इसीलिए उसको अपना जुर्म बाँटकर हल्का करना होता है। आज रात वही हो रहा है। मैं आप लोगों का शुक्रगुजार हू, आप लोग भी इसे बाँट रहे हैं क्योंकि यह रिकार्ड मैंने चुराया था। मैं आपको पहले की कह चुका हूँ कि मैं सच्चा हाजी नहीं हूँ। लेकिन चोरी मेरा पेशा नहीं है। किसी बुज़ुर्ग को छोटों को नसीहत देने का कोई अधिकार नहीं, जब तक वह ख़ुद ऐसा अघिकार हासिल नहीं करना चाहता। और मुझे पास बुलाकर बताया कि ये चोरी उन्होंने कैसे की।

एक रात मोरोगरो स्टेशन पर एक गाड़ी देर तक रुकी। एक हिंदुस्तानी सज्जन उसी समय हिंदुस्तान से लौटे थे। वह तबोरा जा रहे थे। वक़्त था, उनसे मुलाक़ात हुई, बातें होने लगीं। उन्होंने बताया कि वह इंडिया से कुछ रिकार्ड लेकर आए हैं। इनमें से कुछ दारेस्सलाम में उन्हें सुनने का मौक़ा मिला। उन्होंने कहा, इनमें कुछ तो बहुत बेकार हैं जो उन्हें नहीं चाहिएँ। चूँकि उन्हें वज़न कम करना था, तो कहा, अगर आपको चाहिएँ तो ले लीजिए। मैंने रिकार्ड देखे। दिल ने कहा, उनसे कहूँ, आप ख़ज़ाना लुटा रहे हैं। जोश ने साथ नहीं दिया। और मैंने रिकार्ड जल्दी से उनसे ले लिये। ये गाना उन्हीं में से था। उन्होंने कहा, यह जानते हुए कि कोई चीज़ क़ीमती है, यह न बताना भी एक तरह की चोरी है। हाजीभाई अपने क़ीमती ख़ज़ाने को बस्ते में डालकर घर के अंदर जाकर रख आए। जब वापस आए तो संगीतकार सज्जाद के बारे में और भी कहानियाँ सुनाई।

(जारी)

Friday, September 9, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 6

(पिछली पोस्ट से जारी)

हाजीभाई से मुलाक़ात: हिंदुस्तानी फ़िल्मी कहानी का अंतरा

बातों बातों में हम रेलवे शेड पहुँचे तो उन्होंने कारख़ाने के बाहर ही रुकने को कहा और अंदर जाकर एक बुजु़र्ग से बातें करने लगे। थोड़ी देर में उन्हें लेकर हमारे पास आ गए। हम लोगों से हाथ मिलाया और कहा, ‘मेरा नाम है, हाजीभाई। आप में ग़लतफ़हमी पैदा न हो, मैं कभी मक्का-मदीना नहीं गया। मेरे पिता जी गए थे। उनके अच्छे कामों का नाम मुझे मिल गया है।’ उन्होंने मेरे भाई से पूछा, ‘आप लोग क्या करते हैं?’ भाई ने कहा, ‘हम आधे मुसलमान हैं।’ ये सुनकर वह चैंके और कहा, ‘भई ये कैसे?’ भाई ने जवाब में कहा, ‘ख़ुदा को मानते हैं लेकिन डरते नहीं।’ उन्होंने कहा, ‘ये क्या चक्कर है?’ भाई बोले, ‘हम मस्जिद नहीं जाते, रोज़ा नहीं रखते। लेकिन ईद मनाते हैं।’ यह सुनकर हाजीभाई बहुत हँसे और बोले आज का खाना हमारे घर।


दोपहर का वक़्त गुज़ारने के लिए हमने बरसात फ़िल्म देखी। बालू सिंह ने पिक्चर की फ़ोटोग्राफ़ी पर लेक्चर पर लेक्चर दिये। शाम को हम हाजीभाई के घर पहुँचे। वह बाहर बरामदे में हमारे इंतज़ार में बैठे थे। फिर से सलाम दुआ हुई। कुर्सियाँ आईं और हमें बिठा कर ख़ुद घर के अंदर चले गए। थोड़ी देर में मुर्ग़े की चीख़ सुनाई दी। तब बालूसिंह ने कहा, ‘मुझे लगता है आपका काम बन जाएगा।’ इतने में हाजीभाई भी आ गए थे। बैठकर बातें होने लगीं। वे कहने लगे मुझे उन लोगों पर ताज्जुब होता है जो रूह की सच्चाई को नहीं मानते। मुर्ग़े के गले पर जब छुरी चलती है, तो वह उड़ने की कोशिश करता है। परों की आवाज़ रूह के उड़ने का सबूत है। फिर उन्होंने पूछा, ‘आज क्या किया?’ तो बताया, बरसात पिक्चर देख कर आए हैं। उन्होंने यह सुनते ही कहा, ‘पृथ्वीराज के बेटे की फ़िल्म तो...’ उन्होंने दो गालियाँ राजकपूर को दीं। बोले, इस नौजवान पर तो बड़ों का आशीर्वाद नहीं होगा जिसने राम गांगुली को निकाल दिया और शंकर जयकिशन को लिया। फ़िल्म आग का ‘न आँखों में आँसू, न होठों पे हाय’ (मजरूह सुलतानपुरी) जिसने ऐसा डायमंड गीत दिया उसके साथ ऐसी बेवफ़ाई तो हमने कभी नहीं देखी।

न आँखों में आँसू न होठों पे हाय
मगर एक मुद्दत हुई मुसकराये।


बोले, ‘शंकर जयकिशन में क्या है? ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म में लाल दुपट्टे की बात कर रहे हैं। इनकी मत मारी गई है। कौन इन पागलों को सुनेगा?’ ये सुनकर बालूसिंह अपना सिर हिलाने लगे। यह होता है नतीजा फ़िल्म को कान से सुनने का। हाजीभाई के घर के दरवाज़े के पीछे एक साया इधर-उधर जा रहा था। मैं समझ गया, वो एक कुएँ में गिर गए हैं। ये एक्सप्रेशन हमारे बुज़ुर्ग उन हिंदुस्तानियों के लिए करते थे जिनकी शादी काली अफ्रीकी औरतों से होती थी।


ज्यों ही शाम होने लगी कि लगा हाजीभाई अपने आप में इतिहास हैं। सिनेमा संगीत का इतना ज्ञान था, वह और मेरे भाई ऐसे बैठे मानो सिनेमा संगीत के महान ज्ञानी हों। उन्होंने बताया वह बहुत दिनों में इस पसोपेश में हैं कि उन्हें यह समझ में नहीं आता कि फ़िल्म बैजू बावरा में नौशाद कहना क्या चाहते हैं? लोक संगीत को क्लासिकल संगीत के ज़रिए महलों तक पहुँचाया जाए या शास्त्रीय संगीत को लोक संगीत की तरह सरल बनाकर आम लोगों तक पहुँचाया जाए। क्या बात सच है इसका जवाब न मिलने के कारण काम में भी मन नहीं लगता। मेरे भाई ने कहा, अंत में तो वही गीत है, ‘तू गंगा की मौज मैं जमना की धारा’ आप जो जवाब ढूँढ़ रहे हैं, वह इसी गीत में है। उन्होंने कहा, ‘ये तो आपने अच्छी बात सुझाई। हो सकता है कल मैं अपना काम ठीक से कर पाऊँगा।’ फिर कहने लगे, ‘अगर मरते वक़्त उनके कानों में ये गीत ”झूले में पवन के आई बहार प्यार छलके“ सुनाई पड़ेगा तो उन्हें लगेगा वह स्वर्ग छोड़ कर जा रहे हैं।’

झूले में पवन के आई बहार प्यार छलके


बातों-बातों में ही खाना आ गया। उससे पहले हाजीभाई ने कहा, ख़ुदा का शुक्र है उन्होंने मुर्ग़े को मुर्ग़ा और हमें आदमी बनाया, नहीं तो कौन जाने, कौन किसको खा रहा होता।

खाना ख़त्म हुआ। रात के लिए गैस का लैंप जला। चाय का एक दौर हुआ और फिर हाजीभाई कहने लगे, हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत का न तो लोक संगीत और न ही शास्त्रीय संगीत से ही कोई गहरा ताल्लुक़ है। यह हिंदुस्तान में नया इंक़लाब है। ये नयी बोतल में पुराना नशा नहीं, नयी बोतल में नया नशा है। यह इसलिए कि हर टेक्नोलाजी अपने आप में एक नया पैग़ाम है। पहले तो माइक्रोफ़ोन ने हमारी गायकी बदली। माइक्रोफ़ोन के बगैर तलत महमूद जैसे गायक अपना काम नहीं चला सकते थे। फिर 78 आरपीएम का रिकार्ड साढ़े तीन मिनट में जो कहना है, वो कह देता है। यह ऐसा गीत नहीं है जब मूड आया बना लिया। ये कहानी की सिचुएशन के लिए, कहानी को आगे बढ़ाने के लिए है। अगर हम फ़िल्मी गीत को सुनते हैं, तो उसमें धुन को बाँटा हुआ है। प्रिल्यूड और इंटरल्यूड वाले भाग में हमें आर्केस्ट्रा मिलता है और अगर वह सिर्फ़ धुन को दोहराये तो वह हिंदुस्तानी रहेगा। लेकिन विदेश से हारमनी और रंग को भी हमारे संगीतकारों ने प्रयोग किया। हमारा परंपरागत संगीत लकीर की तरह फ़्लैट है। हारमनी ने उस पर मंज़िलें बनाईं। उससे गीत को और भी ख़ूबसूरत बनाया जा सका, उसमें बारीकियाँ डाली जा सकीं। इसके पायनियर संगीतकार थे, आर सी बोराल और पंकज मलिक। ये वे नौजवान थे जो अपनी संस्कृति की बहुत इज़्ज़त करते थे। उन्हें पता था कि धुन पुरानी चीज़ है, उसमें विदेशी वाद्य, प्रिल्यूड और इंटरल्यूड में लगाये और धुन को साफ़ सुथरा रखा। आवाज़ में इंसान की रूह बोलती है। धुन को उससे जोड़ा, फिर बोलों ने कहानी को आगे बढ़ाया। आम गीत इसी स्ट्रेटेजी पर बने हैं।


संगीतकार सज्जाद हुसैन ने इस सिद्धांत को नहीं अपनाया क्योंकि वह ख़ुद वादक थे। सज्जाद हुसैन का नाम सुनकर हम चैंके। लेकिन बाहर से ज़रा भी उत्सुकता नहीं दिखाई ताकि उनको कोई शक न हो। हम हाजीभाई को धोखा देने में कामयाब रहे। हाजीभाई ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा सज्जाद हुसैन जानते थे कि एक माहिर कलाकार के हाथ में वाद्य भी गा सकता है और आवाज़ वाद्य भी बन सकती है। उनका कहना था कि जिन गीतों में बोल ऊँचे दर्जे पर हैं और साज़ नीचे, तो वह बराबर नहीं है। अब जब बोलती गाती फ़िल्म 1931 में आई तो हिंदुस्तान की आज़ादी का आंदोलन तेज़ी पर था। आज़ादी के बाद लोगों में एकता होगी, लोग बराबर होंगे। सज्जाद ने अपने गीतों में साज़ और आवाज़ में एकता पैदा की। जो लोग समाज में एकता और बराबरी नहीं चाहते उन्हें सज्जाद हुसैन का संगीत पसंद नहीं आएगा। जहाँ गौतम बुद्ध अपने इसी मक़सद में कामयाब नहीं हुए, तो सज्जाद हुसैन की क्या बिसात! एक शायर ने कहा है- ‘तम्हीदे ख़राबी की तकमील ख़राबी है’ - सीमाब। हाजीभाई ने कहा, ‘मैं इसकी कहानी बताता हूँ।

(जारी)

Thursday, September 8, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 5

(पिछली पोस्ट से जारी)


इन बातों ने ऐसा सुरूर पैदा किया कि हमें वक़्त और जगह का अहसास ही नहीं रहा। बाहर देखा तो लहर पर लहर दिखाई दे रही थी और शाम का सुर्मा फ़िज़ा पर छा रहा था। रात होते ही हम हंडेनी पहंच गए। हमारी बस बाज़ार के बीच रुकी। रात की वजह से सफ़र वहीं बंद हो गया और सबको बस में ही रहने की हिदायत दी गई। हम बस के बाहर निकले तो हज़ारों जुगनू सितारों की तरह उड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था एक आसमान हमारे नीचे है और एक ऊपर। भाई ने ऊपर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘यह जो चमकते हुए सितारे नज़र आ रहे हैं, करोड़ों बरस सफ़र करने के बाद इनकी रौशनी हम तक पहुँच रही हैं। जब इनकी रोशनी का सफ़र शुरू हुआ था, कृष्ण, राम, मूसा, ईसा, बुद्ध और मोहम्मद पैदा भी नहीं हुए थे। इस रोशनी ने सब दौर देखे हैं। हमें भी देख रही है।’ हम रात की यह ख़़ूबसूरती थोड़ी ही देर सराह सके। मच्छरों के लश्कर ने हम पर हमला कर दिया। फिर तो रात हमने बड़ी मुश्किल से गुज़ारी। एक घंटा भाई सोते तो मैं मच्छर उड़ाता और जब मैं सोता तो वह। हंडेनी के मच्छर दुनिया के सबसे ज़हरीले मच्छर हैं। सुबह शरीर पर लाल-लाल चकत्ते नज़र आ रहे थे। भाई ने कहा, ये थी पानीपत की लड़ाई जिसमें दो फ़ौजों ने एक दूसरे का ख़़़ून किया। लेकिन फ़र्क़ यह है कि हमारे बदन पर जो ख़़ून था वह अपना ही था। मुझे ताज्जुब हो रहा था, मैं तो मुसीबत में था, वह ख़ुश नज़र आ रहे थे। उन्होंने कहा बलिदान के बगै़र कुछ काम नहीं बनता। अब मुझे यक़ीन है कि हमें गाना सुनने को मिलेगा।

दूसरे दिन बस का सफ़र फिर शुरू हुआ। लेकिन शहर के कुछ मील बाहर पहुँचते ही देखा सिंगासी नदी में बाढ़ आई हुई है। पुल पानी में डूबा हुआ है। सारा दिन इंतज़ार में गुज़रा कि नदी का पानी कब जाए और बस आगे बढ़े। बस में, साथ जा रहे अफ्ऱीक़़ी लोगों की देहाती मासूमियत का सबूत मिलने लगा। उनके पास खाने पीने के लिए जो कुछ भी था, बाँटकर खाने लगे। हमें भी दिया। रंग, भेदभाव सब कुछ ख़त्म हो गया। सब लोग बस यही चाहते थे कि पानी उतर जाए तो बस पुल के पार हो। शाम तक नदी पुल के नीचे उतर गई। जब पानी से पुल निकला तो बड़ा डरावना लग रहा था जिसे आज भी सोचकर दहशत होती है। पक्का पुल तो पिछले साल टूट गया था। उसकी जगह बाँस का पुल साइसेल की रस्सी से लटकाया गया था। बस ड्राइवर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा। ये एक्सप्रेस बस है, रुक नहीं सकती। यही पुल पार करके जाएगी। अगर आप लोगों को यहीं जंगल में रुकना है, तो यहाँ के भूखे शेर, चीते देख रहे हैं, वह आप सबको हड़प जाएंगे। अब आप लोगों की मर्ज़ी रुकिए या चलिये। पाँच मिनट में बस में नहीं बैठे तो मैं समझ जाऊँगा कि आप लोगों को नहीं जाना है।


उस वक़्त मेरे भाई के मुँह से यह मिसरा पहली बार मैंने सुना, ‘क़दो गेसू में क़ैसो कोहकन की आज़माइश है’ (ग़ालिब)। उन्होंने कहा, इस पुल को साइसेल की रस्सी ने बाँघा है। इसी रस्सी के बल पर हम सब एक हैं। मुझे भरोसा है यह रस्सी टूटेगी नहीं। पुल को फिर से देखकर मेरे दिमाग़ में एक बादल सा उठा और एक ख़याल दिमाग़ में आया कि क्यों हम अफ्ऱीक़़ा के बियाबान जगहों में इंडिया से और भी दूर एक फ़िल्मी गाना ढूँढ़ने के लिए जा रहे हैं? अगर यह पागलपन नहीं है तो हमारे दिमाग़ के ढीले स्क्रू का सबूत ज़रूर है। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी थी। फ़ैसले के लम्हे सामने थे, यह ख़याल दूर हो गया।

जिस चीज़ ने हमें रोटी दी है अगर हम उसके वफ़ादार नहीं हैं तब हम न तो इंसान हैं, न आदमी। मेरे भाई को साइसेल पर भरोसा था और मुझे भाई पर। ज्योंही हम दोनों बस पर चढ़े सब काँपते-काँपते साथ हो लिये। बस पुल पर आ गई है और हिंडोेले जैसे पुल पर झूलते हुए आगे बढ़ने लगी। पुल के दूसरी ओर पहँुचने पर ड्राइवर ने गाड़ी रोककर ताली बजाई और कहा जब आप जैसे लोग सफ़र करते हैं तो लगता है हमारे साथ सेना है। आप लोगों ने हमारी लाज रख ली। आज तो आप लोगों ने एक नयी कहानी गढ़ी है। मैं अब ये बात सबको बताऊँगा कि हमने पुल कैसे पार किया। ड्राइवर ने कहा आज मेरी एक ग़लतफ़हमी दूर हो गई कि ये दो मुहिंदी (हिंदुस्तानी) जिनकी नस्ल को हम डरपोक व्यापारी समझते हैं ऐसा सोचना ग़लत है। मेरे भाई ने कहा, ‘मुझे आज फिर भरोसा हुआ कि साइसेल के बल पर हमारी ज़िंदगी का चक्कर चलता रहेगा और दुनिया इसे क्यों सुनहरा धागा मानती है। सुनहरी इनकी क़ीमत है। लेकिन इसमें स्टील की ताक़त है। सफ़र के दूसरी ओर पहाड़ियों की दीवार नज़र आई। भाई ने बताया वह उलूगरू पहाड़ है। उनकी गोदी में है मोरोगोरो शहर, जहाँ हम जा रहे हैं। थोड़े ही आगे जाने पर रेल नज़र आने लगी। ट्रेन देखते ही हमने इत्मीनान की साँस ली क्योंकि ट्रेन अफ्ऱीक़़ा में हिंदुस्तान की लकीर है।

मोरोगोरो में बालूसिंह से मुलाक़ात

दोपहर को हम मोरोगोरो पहुँचे। सीधे भाई के दोस्त बलवंत बालूसिंह के यहाँ गए। दो बच्चों के साथ वह घर के बाहर ही बैठे थे। देखते ही बड़ी ख़ुशी ज़ाहिर की। हम लोग नहाये, घोये। चाय नाश्ते के लिए तैयार हो गए। तब उन्होंने अपनी राम कहानी सुनाई। कहने लगे वक़्त बहुत ख़राब हो गया है। कभी भी उनकी नौकरी जा सकती है। वो दारेस्सलाम-टबोरा रेलवे लाइन में इंजिन के फ़ायरमैन थे। कहने लगे, ‘कोयले का इंजिन जाने वाला है और डीज़ल इंजिन आ जाएगा तो हमारी नौकरी चली जाएगी। अगर कहीं श्मशान घाट की कोई नौकरी हो तो बता देना। एक बहुत माहिर आग का काम करने वाला है।’ इस पर हम लोग बहुत हँसे। उन्होंने कहा, भाभी को नहीं बताना। हमने उन्हें कुछ ख़बर नहीं की है। मुझे लगा था, इन्हीं के पास वह गाना होगा। उनकी नौकरी जाने का मज़ाक़ खत्म हुआ तो वह बहुत गंभीर हो गए। कहने लगे, ‘मुझे नहीं लगता कि जिस गीत को सुनने के लिए आप आए हैं, वह काम पूरा हो जाएगा। क्योंकि हाजीभाई जिनके पास रिकार्ड है, शक्की भी हैं। तुम लोग एक दिन लेट आए हो। उनके मुताबिक़ अच्छा समय निकल गया। फिर भी चलो, कोशिश करके देखते हैं। कोशिश करना इंसान के हाथ में है।’ वह हमें रेलवे शेड में ले गए हाजीभाई से मिलने के लिए। जाते समय उन्होंने नसीहत दी, रिकार्ड का नाम मुँह पर न लाना। ऐसा कुछ भी हुआ तो ज़रा भी काम नहीं बनेगा। मैं बस कहूँगा, मेहमान आए हैं तो आपसे मिलाने के लिए ले आया। बाक़ी उन्होंने तो इंतज़ाम किया हुआ होगा। शेड की तरफ़ जाते समय रास्ते से गुज़रे तो वहाँ सिनेमा में फ़िल्म बरसात लगी हुई थी। बालूसिंह ने बताया ‘सब लोग शंकर जयकिशन के संगीत पर इस फ़िल्म को बारबार देख रहे हैं। लेकिन मैं फ़ाली मिस्त्री की जादूगरी देखने जाता हूँ। उन्होंने धूप और छाँव मिला कर एक रंगीन फ़िल्म बनाई है। गीत ”हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का“ जो फ़िल्म के ब्लैक एंड व्हाइट होते हुए भी लाल नज़र आता है और कोयला जब जलता है तो इसमें से कितने ही रंग निकलते हैं।’


हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का
ओ जी ओ जी...


वह ठीक कह रहे थे। फ़ाली मिस्त्री बहुत अच्छे कैमरामेन थे। फिर भाई और बलवंत में बहस हो गई। उन्होंने कहा, ‘अय्यूब, तुम्हें फ़िल्म संगीत अच्छा लगता है कि तुम कुछ और देखते ही नहीं। सिवाय नौशाद, सी रामचंद्र, शंकर जयकिशन के अलावा तुम्हें फ़िल्म में किसी और की कला नज़र ही नहीं आती। उनका विचार था फ़िल्म पहले आँख के लिए है, फिर कान के लिए है। संगीतकारों ने इंडियन पब्लिक को अंधा बना दिया है। वह फ़ाली मिस्त्री, आर डी माथुर, फ़रीदून ईरानी, जाल मिस्त्री इनकी कारीगरी पहचानते ही नहीं। भाई ने इसके जवाब में कहा, बालू यह तुम्हारी ग़लतफ़हमी है। हिंदुस्तानी फ़िल्म पहले कानों तक पहुचती है, फिर आँखों तक।

(जारी)

क्या हम जनता से मुखातिब हैं?

क्या हम जनता से मुखातिब हैं?

कविता कृष्णन


'मैं अन्ना हूं' या 'वन्दे मातरम्' बोलने वाले सभी लोग न तो संघी हैं, न ही कारपोरेट समर्थक. वे हमारी वे सब बातें सुनने के लिए खुला रुख रखते हैं जो हमें कारपोरेट भ्रष्टाचार या उदारीकरण की नीतियों के बारे में उनसे कहनी हैं. सवाल यह है क़ि क्या हम इतने अहंकारी, श्रेष्ठ और पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो चले हैं क़ि हम उनसे बात भी न कर सकें?

सारी गरमी भर आल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन (आइसा) तथा इंकलाबी नौजवान सभा (आरवाईए) के कार्यकर्ता इसी कष्टप्रद कार्य में महीनों लगे रहे. उन्होंने सारे देश में अभियान चलाया- ऐसे मुहल्लों, गाँवों, बाज़ारों में जहां वामपंथ की कोई प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं थी. ऐसा नहीं है क़ि ये इलाके 'बड़े लोगों' की बहुलता वाले इलाके थे. अधिकांशतः ये इलाके ऐसे थे जिनमें मध्य और निम्न मध्यम वर्ग, मजदूर तबके के लोग तथा कैम्पसों के नजदीक छात्रों की बसावट वाले इलाके थे. अधिकांश जगह इन कार्यकर्ताओं को देख लोग यह मानने से शुरू करते थे क़ि वे अन्ना हजारे का अभियान लेकर उनके बीच आये हैं. जब ये छात्र कार्यकर्ता नौ अगस्त के संसद जाम करने के अपने आह्वान के बारे में बताते तो उनसे पूछा जाता था- 'जब अन्ना एक अभियान चला ही रहे हैं तो उससे अलग किसी अभियान की क्या जरूरत है?' तब वे उन्हें यह बताते क़ि वे एक प्रभावी भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून के लिए इस आन्दोलन का समर्थन करते हैं, ताकि भ्रष्टाचारी दण्डित होने से बच न पायें. लेकिन इस तरह के क़ानून बनने मात्र से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा क्योंकि यह भ्रष्टाचार उन नीतियों का परिणाम है जो क़ि जल-जंगल-जमीन, खनिज, स्पेक्ट्रम, बीज आदि की कारपोरेट लूट को बढ़ावा देती है. कार्यकर्ताओं ने बिना लफ्फाजी के लोगों के साथ संवाद बनाना सीखा. बातचीत के दौरान वे उस राज्य से कारपोरेट लूट और भ्रष्टाचार के उदाहरण देते, जिस राज्य में वे अभियान को लेकर थे. वे लोगों को राडिया टेपों, पूंजी घरानों, सत्ताधारी कांग्रेस, विपक्षी भाजपा तथा मीडिया की भ्रष्टाचार में भूमिका के बारे में बताते थे.

बगैर अपवाद के उन्हें कहीं भी लोगों के शत्रुतापूर्ण रवैय्ये का सामना नहीं करना पड़ा. यह भी स्पष्ट था क़ि अन्ना के अभियान ने भ्रष्टाचार के सवाल पर लोगों में गहरी दिलचस्पी जगा दी थी, साथ ही सरकार के खिलाफ जमीनी कार्यवाही के प्रति भारी समर्थन भी भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को जमीन और संसाधनों की कारपोरेट लूट, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा के निजीकरण, बेरोजगारी और महंगाई, ए एफ एस पी ए और ग्रीन हंट जैसी दमनकारी नीतियों के खिलाफ चल रहे संघर्षों के साथ जोड़ना, बहस-मुबाहिसे के दौरान आसान हो चला था.

हाँ, कैम्पसों और दूसरे इलाकों में विद्यार्थी परिषद् और संघ कार्यकर्ताओं ने अन्ना टोपी लगाकर 'अराजनीतिक' भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का समर्थक होने का मुखौटा लगाए जरूर दिखे और उन्होंने आइसा और दूसरे जन संगठनों को अपने बैनर और नारों के साथ स्वतन्त्र भ्रष्टाचार विरोधी प्रतिरोध से हरचंद रोकने की कोशिश की. हमने उनका जवाब देते हुए उनसे मांग की क़ि येदुरप्पा और बेल्लारी पर, नितीश सरकार के अधीन BIADA जमीन घोटाले, जिसके चलते फारबिसगंज में गोली चली, पर वे अपना रुख स्पष्ट करें. ऐसा करते ही उनका आवरण तार-तार हो जाता था और उन्हें आन्दोलन के आम समर्थकों से अलगा देना संभव होता था. आन्दोलन में शामिल गैर-संघी लोगों के लिए हमारा नारा 'कांग्रेस-भाजपा दोनों यार, देश बेचने को तैयार!' लोकप्रिय हो जाता था और संघी तत्व अलगाव में पड़ जाते थे.

ऐसे में हम सभी जो इस बात से चिंतित हैं क़ि संघ कहीं अन्ना के आन्दोलन पर सवार होकर आन्दोलन को फासीवादी दिशा न दे दे, उन्हें क्या करना चाहिए? क्या हमें इस बात की सुविधा है क़ि हम सुरक्षित रास्ता लें, पुस्तकालय में घुस जाएँ, उच्च आसन से आंदोलन का विश्लेषण करें, कयामत के दिन की भविष्यवाणी करें ताकि बाद को कह सकें क़ि हमने कहा था न! क्या हमें इसके गुजर जाने का इंतज़ार करना चाहिए? क्या हमें मैदान संघ परिवार के लिए खुला और निर्विरोध छोड़ कर हट जाना चाहिए? या क़ि हमें संघर्ष के मैदान में जाकर आम स्त्री-पुरुषों के साथ सड़कों पर कंधे से कंधा मिलाकर भ्रष्टाचार से लड़ते हुए अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए भ्रष्टाचार विरोधी विमर्श को राजनीतिक बनाने की ओर बढना चाहिए?

बाबा रामदेव की औकात बता दी गई और यह संघ के लिए बड़ा भारी झटका था. संघ, अन्ना के नेतृत्व वाले आन्दोलन का फ़ायदा उठाने के लिए ढंके-छिपे तौर तरीकों से प्रयासरत है क्योंकि उन्हें मालूम है क़ि अपनी पहचान के साथ सामने आने पर उन्हें भाजपा के खुद के भ्रष्टाचार- चाहे वह कर्नाटक में हो या गुजरात में या पैसा लेकर सवाल पूछने का मामला हो, इन सब का जवाब देना होगा. प्रगतिशील ताकतों के लिए लोगों के बीच अपनी पहुँच को बढाने का भी यह मौक़ा है, जब लोगों को बेल्लारी और बस्तर की याद दिलाई जा सकती है. मोदी के गढ़ गुजरात में आइसा का अनुभव सबक लेने लायक है. मोदी यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और दमन के खिलाफ अन्ना के समर्थन में बढ़-चढ़ कर बोलते रहे. आइसा और इंकलाबी नौजवान सभा ने सात सौ छात्रों का भावनगर में एक जुलूस निकाला जिसमें उन्होंने न केवल केंद्र सर्कार बल्कि गुजरात में भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, फर्जी मुठभेड़ तथा साम्प्रदायिक हिंसा पर पर्दा डालने की मोदी सरकार की कोशिशों के खिलाफ नारे लगाए. मोदी के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के साथ होने के दावे को तार-तार करते हुए पुलिस ने जुलूस पर लाठी-चार्ज किया तथा नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं युनुस जकारिया, जिगनाब राना, सोनल चौहान और फरीदा जकारिया को जेल भेज दिया. अगले ही दिन इन गिरफ्तारियों के खिलाफ भावनगर के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेगों सहित तमाम कालेजों ने आइसा और इंकलाबी नौजवान सभा के आह्वान पर हड़ताल की. पांच हज़ार छात्रों ने स्थानीय प्रशासन के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन कर गिरफ्तार किये गए कार्यकर्ताओं की रिहाई को मजबूर किया. वामपंथी छात्र-युवा संगठनों ने अपने ही झंडे तले पहलकदमी अपने हाथ में ली, जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार विरोधी गुस्से को उन्होंने मोदी सरकार के खिलाफ मोड़ दिया.

यह कांग्रेस थी जिसने पहले-पहल अन्ना के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन पर अनशन के द्वारा संसद को 'ब्लैकमेल' करने, संघ समर्थित, फासीवादी, संविधान विरोधी, लोकतंत्र के लिए खतरनाक होने के आरोप मढ़े. अब इन आरोपों की प्रतिध्वनि न केवल कांग्रेस के समर्थकों में बल्कि कुछ दूसरे असम्भाव्य से लगने वाले हलकों में भी सुनाई पड़ रही है. दो गंभीर व्याख्याकारों ने हाल ही में इस विषय पर तफसील से अपने विचार प्रकट किये हैं. एक हैं प्रभात पटनायक (जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं) तथा दूसरी हैं अरुंधति राय.

प्रभात पटनायक ने अन्ना के अनशन पर 'संसद पर बंदूक तानने' का आरोप लगाया है. सवाल है क़ि कोई भी अनशन किस बिंदु पर जाकर लोकतांत्रिक नहीं रह जाता? क्या इरोम शर्मिला का अनशन 'ब्लैकमेल' है? या क़ि मजदूरों और छात्रों के आन्दोलनों में समय समय पर किये जाने वाले अनशन 'ब्लैकमेल' हैं? क्या मजदूरों की हडतालों को अनगिनत बार 'ब्लैकमेल' नहीं कहा जाता रहा है? ऐसा क्यों है क़ि अनशन तभी 'ब्लैकमेल' करार दिए जाते हैं जब उन्हें जन समर्थन मिलने लगता है या जब सरकार उनका दबाव महसूस करने को विवश होती है?

प्रभात पटनायक का कहना है क़ि लोगों को विरोध का अधिकार है ताकि वे 'चुने हुए प्रतिनिधियों को अपनी भावना से अवगत करा सकें'. उनका कहना है क़ि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी होती है लेकिन कोई भी अकेली भावना सब पर भारी नहीं पड़ने दी जाती और सब कुछ बहस-मुबाहिसे से तय होता है. क्या सचमुच ऐसा होता है? क्या सेज का क़ानून जोकि भूमि हड़प का दस्तावेज है, संसद में बगैर किसी बहस या आपत्ति के पारित नहीं हो गया? राडिया टेपों ने दिखलाया क़ि किस तरह संसद में क़ानून बनाए जाते हैं और नीतियाँ तय की जाती हैं. कैसे मंत्री, सांसद, विपक्ष के नेता, मुकेश अंबानी या रतन टाटा के हितों की सुरक्षा के लिए काम करते हैं. क्या यह सब निर्णय बहस-मुबाहिसे से लिए जाते हैं? सोचकर बड़ी हंसी आती है.

क्या किसानों, मजदूरों और आदिवासियों को 'संसदीय सर्वोच्चता' के आगे सर झुका देना चाहिए, जब संसद उनके अधिकारों को छीन लेने वाले क़ानून बनाती है? क्या उन्होंने अनेक मौकों पर ऐसे कानूनों की अवज्ञा नहीं की है? क्या जनता के संघर्षों को इतना ही अधिकार है क़ि वे संसद को अपनी 'भावना से अवगत कराएं'? क्या उन्हें यह अधिकार नहीं क़ि वे आवश्यक प्रभावकारी दबाव निर्मित करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके क़ि संसद ऐसे सवालों पर उनकी भावनाओं का सम्मान करे जो उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गए हैं? एक ऐसी परिस्थिति में जब क़ि चुने हुए प्रतिनिधियों और उन्हें चुनने वाली जनता के बीच गहरे तौर पर एक गैर-बराबरी का रिश्ता है, क्या हम अनशन या हड़ताल जैसे तरीकों को 'अलोकतांत्रिक' करार दे सकते हैं?

प्रभात पटनायक कहते हैं क़ि जनता को महज अन्ना की जयजयकार करने वालों तथा समर्थक मात्र बने रहने वालों तक सीमित कर दिया गया है. इसी तरह अरुंधति राय की दलील है क़ि लोग 'खुद को भूखा मार देने की धमकी दे रहे' एक बूढ़े आदमी का नज़ारा देखने वाले 'दर्शक' मात्र रह गए हैं. हममें से कई लोग जंतर-मंतर पर अनशन कर रही मेधा पाटेकर के साथ शामिल हो गए थे. क्या हम भी महज दर्शक थे? क्या यह कहना अहंकार नहीं है कि 'हम जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं, हम प्रबुद्ध हैं, लेकिन ये लोग जो सड़कों पर अभी निकले हुए हैं, वे महज वर्ल्ड कप की ताली बजाऊ भीड़ हैं, मीडिया की पैदा की हुई भेड़ियाधसान हैं जिसे एक गुप्त एजेंडा के हित में बरगलाया गया है'. हमें इस बात से सावधान रहना चाहिए क़ि मीडिया इस आन्दोलन के साथ वही बर्ताव न कर सके जो वह दूसरे अधिकांश आन्दोलनों के साथ करती है. वामपंथी रैलियों में जुटी भारी भीड़ को 'किराए की भीड़' या सिखा-पढ़ा कर जुटाई गई भीड़ कहना अथवा माओवादियों पर भोले-भाले आदिवासियों और किसानों को बरगलाने का आरोप मढना मीडिया की ऐसी ही भंगिमाएं हैं. हमें इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि आम लीगों की भारी संख्या एक भ्रष्ट और दमनकारी सरकार को चुनौती देने और उसका सामना करने में एक नया आत्मविश्वास महसूस कर रही है. जनता की इस लामबंदी की प्रेरक शक्ति अन्ना के प्रति कोई अतार्किक श्रद्धा नहीं है. यह प्रेरक शक्ति सरकार के भ्रष्ट और तानाशाह होने, सरकारी लोकपाल के मसौदे के वाहियात होने में लोगों का दृढ विश्वास है. अधिकांश मीडिया भाले ही जनता को 'जयजयकार' करने वालों के रूप में प्रस्तुत कर रहा हो, हमें अवश्य ही जनता को उसके खुद के मूल्यांकन के आधार पर समझना होगा. पर्चा बांटने, जुलूस निकालने, सत्याग्रह आयोजित कराने, सांसदों और पुलिस बल का सामना करने, गिरफ्तारी देने में जो जनता की पहलकदमी खुली है, हमें उसका आदर करना चाहिए. आन्दोलन में शामिल युवाओं के एक बड़े तबके के लिए यह किसी भी जन कार्यवाही में भाग लेने का पहला अनुभव है. हमें उनके साथ संवाद का रिश्ता कायम करना चाहिए.

प्रभात पटनायक की दलील है कि अन्ना का 'मसीहापन' बुनियादी तौर पर अलोकतांत्रिक है. क्या गांधी द्वारा अपनाई गई रणनीति में मसीहापन के मजबूत तत्व नहीं थे? निस्संदेह 'महात्मा' के रूप में नेता का विचार अपने चरित्र में मसीहाई है. क्या इससे स्वाधीनता संग्राम जिसमें गांधी ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई, 'अलोकतांत्रिक' हो गया? इस तरह की रणनीति की आलोचना करना, यह कहना कि आन्दोलनों को और अधिक लोकतांत्रिक होना चाहिए, कि कोई भी एक नेता पवित्र गाय नहीं है, पूजा की वस्तु नहीं है, यह अलग बात है लेकिन यह कहना कि आन्दोलन लोकतंत्र के लिए खतरा है, अतिशयोक्ति है.

कोई यह याद कर ही सकता है कि नंदीग्राम के सवाल पर विरोध-प्रदर्शन कर रहे कोलकाता के बुद्धिजीवियों पर भी प्रभात पटनायक ने 'मसीहाई नैतिकतावाद' का आरोप मढ़ा था. ये बुद्धिजीवी एक समय माकपा के कट्टर समर्थक थे, लेकिन उन्होंने जमीन हड़पने के खिलाफ आंदोलनरत गरीब किसानों पर पुलिस फायरिंग के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया था. पश्चिम बंगाल में कोई अन्ना नहीं था. तब वहां 'मसीहा' कौन था- नंदीग्राम या सिंगूर के किसान?

माकपा पोलितब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने कहा है कि 'अन्ना की दलीलें संघ परिवार और भाजपा द्वारा इस्तेमाल की गई दलीलों के समतुल्य हैं जिनके अनुसार उनका कहना था कि भारत की अस्सी फीसदी जनता (हिन्दू जनता) विवादात्मक बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाना चाहती है... क्या संसद को इस मांग के आगे झुक जाना चाहिए?' क्या इस तरह की तुलना जायज है? फासीवाद किसी मांग की राजनीतिक अंतर्वस्तु में निहित होता है या कि हम किसी भी ऐसे आन्दोलन को फासीवादी कह सकते हैं जो संसद पर दबाव डालता हो? आईये इस सवाल को एक भिन्न तरीके से देखें- मान लीजिये कि भाजपा का संसद में पूर्ण बहुमत होता, और वह उसके बल पर अयोध्या में मंदिर निर्माण को बढ़ती. क्या इसे 'संवैधानिक' या 'लोकतांत्रिक' इस लिए कह दिया जाता कि संसद की ऐसी मंशा थी? स्पष्ट है कि मस्जिद गिराया जना और मंदिर अभियान असंवैधानिक थे- इसलिए नहीं कि वे संसद पर गैर-संसदीय दबाव डाल रहे थे, बल्कि इसलिए कि वे बहुसंख्यकवादी वर्चस्व तथा अल्पसंख्यकों के स्वातंत्र्य और अधिकारों को कुचलने की कोशिश कर रहे थे. जन लोकपाल बिल के मसौदे में ऐसा कुछ भी नहीं है जोकि संविधान या अल्पसंख्यकों के अधिकारों को चुनौती देता हो.

सड़क पर उतरे हुए लोग एक कानून की मांग कर रहे हैं जो कि पिछले बयालीस सालों से संसद की सूची में दर्ज है. जनता यह मांग कर रही है कि सरकारी लोकपाल बिल को जनमत द्वारा खारिज किये जाने का संसद आदर करे, और ऐसा कानून पारित करे जोकि जन भावनाओं के अनुरूप एक प्रभावी भ्रष्टाचार विरोधी संस्था का निर्माण करे.

प्रभात पटनायक यह मान कर चले हैं कि जो जनता विरोध में उतरी है, उसे सरकारी बिल और जन लोकपाल बिल के बीच फर्क की बारीकियां पता नहीं हैं. उनका कहना है कि आन्दोलन एक मसीहा पर निर्भर है और उसने तथ्यों के बारे में लोगों को शिक्षित नहीं किया. मेरा मानना है कि तथ्य कुछ और ही कहते हैं. सच तो यह है कि लम्बे समय के बाद पहली बार सामान्य जनता एक कानून के मसौदे की तफसीलों पर इतनी शिद्दत के साथ बहस कर रही है. आन्दोलन के नेताओं ने दोनों बिलों के बीच फर्क की बारीकियों को लोगों तक पहुंचाने के लिए काफी मेहनत की. रामलीला मैदान पर सवाल-जवाब के सत्रों के माध्यम से तथा देश भर में अनेक अन्य आयोजनों के जरिये, वीडियो और इंटरनेट के जरिये उन्होंने यह काम किया है. जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वालों से पूछे गए सवालों के जवाब धैर्यपूर्वक दिए गए हैं और कुछ आलोचनाओं को भी स्वीकार किया गया है. जरूरी नहीं कि हम जन लोकपाल बिल के हर प्रावधान से सहमत हों, या उसके बारे में बढ़े-चढ़े दावों से, लेकिन यह बहुत बड़ी बात होगी यदि संसद में लाये जाने वाले हरेक विधेयक को इसी तरह जन-निरीक्षण और बहस-मुबाहिसे की प्रक्रिया से गुजरा जाय, जैसा कि लोकपाल विधेयक के मसले में हो रहा है. इन कानून के मसौदों को न केवल राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् और उदारवादी अभिजनों के बीच निरीक्षण और बहस के लिए रखा जाना चाहिए बल्कि आम जनता के बीच भी.

अनेकशः अन्ना द्वारा संसद के सामने समय सीमा रखने के 'अलोकतांत्रिक' व्यवहार की आलोचना की गई किन्तु तथ्य यह है क़ि हमारे अधिकांश सांसदों को अमेरिका द्वारा निश्चित की गई 'समय-सीमा' का पालन करने से कोई गुरेज नहीं था. उदाहरण के लिए परमाण्विक समझौते के मसले पर.

अरुंधति राय ने जन लोकपाल के आन्दोलन की तुलना माओवादी आन्दोलन से करते हुए फरमाया कि उसका उद्देश्य 'भारतीय राजसत्ता को उखाड़ फेंकना' है. आश्चर्य है कि सरकार भी ऐसी ही तुलना करती आयी है. अंतर महज यह है कि अरुंधति के अनुसार सरकार 'खुद अपने आपको उखाड़ फेंकने' की मुहिम में शामिल है.

अगर सरकार वास्तव में इस खेल में शामिल है, अगर अवह खुद को उखाड़ फेंकने में सहयोग कर रहही है, अगर जन लोकपाल उसके कारपोरेट समर्थक एजेंडा और विश्व-बैंक निर्देशित सुधारों के कार्यक्रमों के अनुकूल है, तो क्यों नहीं उसने शुरू में ही जन लोकपाल के मसौदे को स्वीकार कर लिया? अन्ना हजारे को सार्वजनिक रूप से गालियाँ देकर और बाद में गिरफ्तार कर क्यों अपनी हुज्ज़त कराई? क्यों भाजपा भी इस मसौदे का समर्थन करने से अब तक मुंह चुराती रही? क्या जन लोकपाल का अभियान राजसत्ता को उखाड़ फेंकने का अभियान है? या तथ्यतः यह राजसत्ता के प्रति विश्वास की कमी को रोकने का प्रयास है? एक समय था जब न्यायपालिका, राजसत्ता की विश्वसनीयता को बहाल करने वाली संस्था मानी जाती थी. आज यह संस्था लोकपाल है.

अन्ना के अधिकांश आलोचक इस बात पर सहमत हैं कि लोकपाल का सरकारी मसौदा नख-दांत विहीन और कमजोर है. क्या एक प्रभावकारी और स्वतन्त्र लोकपाल का प्रावधान करने वाला कोई भी विधेयक दमनकारी है? क्या टीम अन्ना द्वारा बनाया जन लोकपाल बिल 'सुपर पुलिस' और 'कुलीनतंत्र' के समतुल्य है, जैसा कि उसे अनेकशः बताया जा रहा है? मुझे तो लगता है कि जन लोकपाल के अधिकारों के दायरे में पटवारी और चपरासी से प्रधानमंत्री तक, भ्रष्टाचार के सभी मामलों में जांच करने, निगरानी रखने और दण्डित करने के जो प्रावधान हैं, वे सी बी आई को पहले से ही प्राप्त हैं. दोनों के बीच बड़ा अंतर यह है कि लोकपाल के चयन और क्रिया-कलाप सरकार से अपेक्षया अधिक स्वतन्त्र होगा, और चयन की प्रक्रिया जनता की भागीदारी या हस्तक्षेप की भी इसमें कुछ न कुछ गुंजाईश है. जन लोकपाल के मसौदे में किन्हीं ख़ास धाराओं को हटाने या उनमें परिवर्तन करने अथवा उसके अधिकारों में नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली की मांग करना एक बात है लेकिन पूरे मसौदे को ही दमनकारी बताना एकदम दूसरी बात है.

निस्संदेह हमें यह मांग करनी चाहिए कि कारपोरेट जगत, मीडिया, बड़ी फंडिंग वाले एनजीओ और राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के दायरे में लाये जाने चाहिए. क्या एक जन लोकपाल अकेले ही भ्रष्टाचार से निपट पायेगा? आज अधिकांश भ्रष्टाचार सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की सह-भागेदारी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) के दायरे का है. लिहाजा वे उपाय जो सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार की रोक-थाम के लिए किये जायेंगें, वे सिर्फ आंशिक रूप से प्रभावकारी होंगें. जैसा कि प्रशांत भूषण अक्सर कहा करते हैं कि इस तरह का कानून भ्रष्टाचार के 'आपूर्ति पक्ष' (सप्लाई साइड) को ही संबोधित कर सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार का 'मांग पक्ष' (डिमांड साइड) तब भी बना रहेगा, जब तक कि प्राकृतिक संसाधनों और सेवाओं के निजीकरण की नीतियां बनी रहती हैं. एक कानून जो कि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वालों के भ्रष्टाचार पर ही केन्द्रित है वह इस समस्या का महज आंशिक समाधान ही करता है. वह रामबाण नहीं है. लेकिन क्या यह बात उसे दमनकारी और कारपोरेट हितो के लिए फायदेमंद बनाती है? मुझे ऐसा नहीं लगता. आखिर 'निजी' लुटेरों को 'सार्वजनिक' लुटेरों की जरूरत होती है- टाटा और अंबानी को ए राजा की जरूरत होती है, जिंदल, एस्सार, रियो टिंटो को मधु कोड़ा जैसों की जरूरत होती है. एक कानून जो राजाओं और कोडाओं से निपटने के लिए बने, वह भ्रष्टाचार के रोग के लिए रामबाण भले ही न हो, लेकिन एक अत्यंत आवश्यक उपाय जरूर है.

कुछ अखबार भ्रष्टाचार का इलाज उदारीकरण की बढ़ी हुई खुराक से करने का सुझाव अवश्य ही दे रहे हैं, जैसा क़ि कारपोरेट सेक्टर के विभिन्न स्वर. क्या इसका मतलब यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में जो लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं, वे सब उसी शिद्दत के साथ अधिक उदारीकरण की मांग करने लग जायेंगें, जिस शिद्दत से वे जन लोकपाल की मांग कर रहे हैं? संभवतः नहीं. हाल-फिलहाल तक मीडिया ने भावी पीढी को उदारीकरण के उत्साही समर्थकों के बतौर प्रस्तुत किया था. क्या इस आन्दोलन में युवाओं की भागीदारी महंगी शिक्षा और असुरक्षित रोजगार की परिस्थिति में उदारीकरण के वायदों के खिलाफ इनके बढ़ते हुए मोहभंग को सूचित नहीं करती? क्या इस बात के पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं क़ि सडको पर उतरे हुए लोगों का गुस्सा महज भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं बल्कि महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ भी है? उनमें से एक बहुत बड़ी संख्या ऊर्जा के निजीकरण के चलते उनके बिजली के बिलों में बढ़ोत्तरी की शिकायत कर रही है, वे महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ शिकायत दर्ज करा रहे हैं. यदि नव-उदारवादी विचारक और कारपोरेट मीडिया रोग को ही निदान बता रहे हैं तब निश्चय ही ज्यादा रेडिकल राजनीतिक ताकतों को इस क्षण आन्दोलन में उतरे लोगों के साथ संवाद बनाने की और भी ज्यादा जरूरत है ताकि भ्रष्टाचार और उदारीकरण के बीच गहरे संबंध को उजागर किया जा सके, ताकि जल-जंगल-जमीन, बिजली, खनिज, स्पेक्ट्रम, गैस, शिक्षा, सड़क, हाईवे, एयरपोर्ट आदि के निजीकरण के जरिये कारपोरेट लूट का भंडाफोड़ किया जा सके.

टीवी चैनल अधिकांशतः आन्दोलन को तो चढ़ा रहे हैं, पर उसमें निहित मुद्दों को दबा रहे हैं. लेकिन इससे पहले कि हम कांस्पिरेसी या षडयंत्र के निष्कर्ष तक पहुंचे, हमें याद रखना चाहिए कि अधिकांश अखबारों ने आन्दोलन के समर्थन की जगह निर्णय लेने की प्रक्रिया में 'संसदीय सर्वोच्चता' को ही अपने सम्पादकीयों में स्थापित किया है. कुछ अपवादों को छोड़कर मीडिया की भूमिका और कवरेज समस्याग्रस्त और चुनिंदा चीजों को ही रेखांकित करने वाली है. उसने कारपोरेट भ्रष्टाचार पर किसी बहस-मुबाहिसे को शायद ही सतह पर आने दिया हो. लेकिन बड़े पैमाने पर जनता की लामबंदी को मीडिया के भड़कावे का परिणाम मानना पूरी तौर पर गलत है. अप्रैल के महीने में कई लोगों ने भविष्यवाणी की, 'पुलिस दमन और गिरफ्तारियों की संभावना का इन्तजार कीजिये, ये भीड़ मिनटों में छंट जायेगी.' इसके उलट अगस्त में लोगों ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां दीं. अब कुछ संशयात्मा लोग कह रहे हैं, 'टीवी कैमरे हटा लीजिये, और देखिये कि लोग कैसे छूमंतर हो जाते हैं.' मुझे ऐसा नहीं लगता.

अनिवार्यतः अन्ना के राजनीतिक दर्शन और उनकी सामाजिक दृष्टि को लेकर अनेक सवाल बहस तलब हैं. राजनीतिक और लोकतांत्रिक सवालों- मसलन जाति, साम्प्रदायिकता, राज्य दमन, आर्थिक नीतियां, आदि पर सुसंगतता की मांग हर आन्दोलन से की ही जानी चाहिए. अन्ना के पंद्रह अगस्त के भाषण ने जमीन की कारपोरेट लूट और पुलिस फायरिंग जैसे ज्वलंत सवालों को स्पर्श किया. लेकिन येदुरप्पा और बेल्लारी पर उनकी चुप्पी ज्यादा प्रकट थी. एक भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से निश्चय ही यह अपेक्षा की जाती है कि किसी सवाल पर अगर किसी मुख्यमंत्री को गद्दी छोड़नी पड़ी हो वह भी उस रिपोर्ट के आधार पर जिसे जन लोकपाल बिल बनाने वालों में से एक जस्टिस हेगड़े ने तैयार किया हो तो वह उसका जरूर ही स्वागत करे. भाषण दर भाषण येदुरप्पा और बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं पर चुप्पी और राजा, सिब्बल और कलमाडी जैसों के खिलाफ मुखर होना राजनीतिक अवसरवाद है.

राजनीतिक ताकतों के प्रति ही अन्ना के नेतृत्व वाले समूह का रवैया विरोधाभाषी है. काफी पहले मार्च 2011 में उन्होंने सभी राजनीतिक पार्टियों को आन्दोलन का समर्थन करने के लिए आमंत्रित किया था. लेकिन राजनीतिक कार्यकर्ता उनके मंचों पर हूट किये जाते हैं- भ्रष्टाचार पर उनके रवैय्ये के कारण नहीं, बल्कि सिर्फ उनकी राजनीतिक पहचान के चलते. समाजवादी विचारधारा के एक दल के कार्यकर्ताओं को रामलीला मैदान में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कार्यकर्ताओं द्वारा एक पुस्तिका के वितरण से रोक दिया गया जिसमें भ्रष्टाचार की परिघटना का विश्लेषण किया गया था. विडम्बना यह है कि इस पुस्तिका का लोकार्पण प्रशांत भूषण ने किया था. दूसरी ओर तमाम तरह के दक्षिणपंथी समूह न केवल खुले तौर पर अपना साहित्य वितरित कर रहे हैं बल्कि उन्हें मंच पर भी जगह मिल रही है- अनेक प्रकार के गैर-राजनीतिक आवरण 'राजनीति धोखा है' जैसी अराजनीतिक विचारधारा पर अन्ना का एकाधिकार नहीं है. दूसरे अनेक समूह हैं जो 'जन आन्दोलनों' को अराजनीतिक बताते हैं. हम इस परभाषा को स्वीकार नहीं कर सकते लेकिन सड़कों पर जनता के बीच उतरे बगैर हम इस विचार से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, और न इसे चुनौती दे सकते हैं.

हममें से तमाम लोग, जिनके पास भ्रष्टाचार या संगठित राजनीतिक आन्दोलन का राजनीतिक विश्लेषण है, उनके लिए अन्ना आन्दोलन ऐसा नहीं है जिसके साथ आसान, सुविधाजनक, निरपेक्ष एकजुटता या समर्थन संभव हो. एकता और संघर्ष, उसके भीतर कार्यरत अन्य राजनीतिक शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा की जरूरत हैं, लेकिन क्या अधिकांश बड़े आन्दोलन आमतौर पर उबड़-खाबड़ और अस्त-व्यस्त नहीं होते? क्या उनमें एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती ताकतें नहीं होतीं? तहरीर चौक का आन्दोलन ऐसा ही था. जेपी आन्दोलन निश्चय ही ऐसा था. भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भले ही तहरीर चौक या जेपी आन्दोलन (जिनका केन्द्रीय मुद्दा लोकतंत्र था) जितना महत्वपूर्ण न हो, लेकिन 'लोकपाल' के लिए आन्दोलन में उतरी जनता के लिए 'लोकतंत्र' का सवाल (जिसमें विरोध का अधिकार तथा जन आकांक्षाओं के मुताबिक़ संसद में कानून बनाने को सुनिश्चित करना शामिल है) प्रभावी हो चला है. हव्वा खड़ा करने की जगह हमें आन्दोलन के बीचो-बीच होना चाहिए और वास्तविक चुनौतियों और खतरों का मुकाबला करना चाहिए. हमें 'भ्रष्टाचार' और 'लोकतंत्र' की परिभाषाओं को विस्तारित करने की जरूरत है.

क्या भारतीय राजसत्ता के लिए संकट और उथल-पुथल का यह समय फासीवादी दिशा ले सकता है? निस्संदेह ऐसा हो सकता है. लेकिन क्या वामपंथी और प्रगतिशील ताकतें इस संकट के फासीवादी समाधान को अनिवार्य नियति के तौर पर स्वीकार करते हुए विरोध करने वाले लोगों को 'प्राक-आधुनिक' कहकर उनका अवमूल्यन कर सकती हैं? क्या हम विरोध कर रहे लोगों के बीच 'संसद की सर्वोच्चता' का प्रचार कर शासक वर्ग के साथ बिरादराना कायम कर सकते हैं? क्या इसकी जगह हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों की भावना और संकल्प का स्वागत नहीं करना चाहिए? ऐसा करते हुए क्या हमें शुद्ध कानूनी लड़ाई जो क़ि भ्रष्टाचार के नीतिगत आधारों पर चुप है, उसके आगे का रास्ता प्रशस्त नहीं करना चाहिए? अपने राजनीतिक झंडों को झुकाकर और 'अराजनीतिक' दिखने के दबाव के आगे घुटने टेकने की जगह, यह समय है क़ि हम साहसपूर्वक सड़कों पर उतरें और विरोध में उमड़ी जनता के साथ भ्रष्टाचार के बारे में अपनी राजनीतिक समझ के आधार पर संवाद कायम करें.

इधर अन्ना के अनशन को इरोम के अनशन से तुलना कर अलगाने का फैशन बढ़ चला है. समाचार लेकिन यह है कि इरोम ने अन्ना के साथी अखिल गोगोई के आमंतरण के जवाब में अन्ना के "आश्चर्यजनक धर्मयुद्ध" का गर्मजोशी से समर्थन किया है, इरोम ने इंगित किया क़ि जहां अन्ना को अहिंसक तरीके से विरोध करने की स्वतंत्रता मिली, वाहें उन्हें यह स्वतंत्रता नहीं दी गई. इरोम ने अन्ना से अपनी रिहाई के लिए काम करने की अपील की और उन्हें मणिपुर की यात्रा का निमंत्रण दिया. क्या यह संभव नहीं कि हम इरोम की परिपक्वता से हम कोई सबक लें.

(समकालीन जनमत से साभार.)