Thursday, October 31, 2013

सरदार पटेल अगर प्रधानमंत्री बन गए होते उर्फ़ पप्पू जी का इतिहास ज्ञान


पप्पू जी का इतिहास ज्ञान


-राजेश सकलानी

सरदार पटेल अगर प्रधानमंत्री बन गए होते
देश का नक्शा कुछ और होता

गांधी और नेहरु ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा
महमूद गजनवी और औरंगजेब
मध्यकाल से दो नाम उन्हें बिद्काते हैं
बहुत से अनुमान उनके वैदिक काल के बारे में हैं

सारा ज्ञान अँग्रेज़ चोर कर ले गए
कुछ भी नहीं बचा पप्पू जी के पास! 

गनेशी लाल के पोते के भविष्य के लिए गुड़ बेचना मुनासिब रहेगा या सन्दलवुड - के. पी. सक्सेना को श्रद्धांजलि


जनाब के. पी. सक्सेना यानी कालिका प्रसाद सक्सेना के निधन की ख़बर आई है. लम्बे समय से कैसर के जूझ रहे सक्सेना साहब ने आज लखनऊ में अपनी अंतिम साँसें लीं.
उन पर एक आलेख मैंने काफ़ी समय से सम्हाला हुआ था सो जस का तस यहाँ लगा रहा हूँ और उसके बाद इस शानदार रचनाकार की एक रचना भी.
कबाड़ख़ाने की श्रद्धांजलि.
सन २००० की बात है इसी साल के.पी. सक्सेना साहब को भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया था. एक रोज़ सुबह आठ बजे के.पी. साहब के घर का फोन बजा. उन्होने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज़ आई- “के.पी. सक्सेना साहब से बात हो सकती है, मै मुंबई से आमिर खान बात कर रहा हूं.” के.पी. सक्सेना ने कहा- “अमां सुबह सुबह आपको हमी मिलें तफरीह के लिए,” और फोन काट दिया. इस एक जुमले में के.पी. साहब के व्यंग्य की धार महसूस की जा सकती है. बाद में आमिर खान ने परेश रावल से फोन करवाया जोकि के.पी. साहब के पुराने दोस्त हैं और ये ख्वाहिश जताई कि वे उनसे लगान के संवाद लिखवाना चाहते हैं. के.पी. मान गए लेकिन एक शर्त पर कि पूरी फिल्म वे लखनऊ में अपने घर पर बैठकर ही लिखेंगें, मुंबई के नहीं. ये है लखनऊ से केपी सक्सेना का रिश्ता. न सिर्फ लगान बल्कि जोधा-अकबर, स्वदेस और हलचल के संवाद भी के.पी. साहब ने लखनऊ में रहकर ही लिखे और उनकी लिखी इन चारो फिल्मों के डायलॉग लोगों के सर चढ़कर बोले.
सन 1931 में लखनऊ में जन्मे के.पी. सक्सेना की गिनती वर्तमान समय के सबसे बड़े व्यंग्यकारों में होती है. हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पहचाने गए व्यंग्यकार है, जिन्होने लखनऊ के मध्यवर्गीय जीवन के इर्द-गिर्द अपनी रचनाएं बुनीं. के.पी. साहब के रचना कर्म की शुरूआत उर्दू में अफसानानिगारी के साथ हुई थी लेकिन बाद में अपने गुरू अमृत लाल नागर के कहने और आशीर्वाद पाने पर वे व्यंग्य के क्षेत्र में आ गए. नागर साहब की शैली और आशीर्वाद दोनों ने के.पी. साहब के वयंग्य में खूब असर पैदा किया. उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि आज उनके तकरीबन पन्द्रह हजार प्रकाशित व्यंग्य हैं जो कि अपने आप में एक दुर्लभ कीर्तिमान है. उनकी पांच से ज्यादा फुटकर वयंग्य की पुस्तकें प्रकाशित हैं जबकि कुछ व्यंग्य उपन्यास भी छप चुके हैं.
के.पी. साहब की शैली हरिशंकर परसाई और मुजतबा हुसैन की तरह के तीखे व्यंग्य की नहीं है. वे शरद जोशी की तरह व्यंग्य को हास्य में लपेटकर पेश करने में ज्यादा सहज हैं. उनकी लखनवी शैली की उनकी मौलिकता और देशजता उन्हे अनूठा बना देती है. ये भी एक आश्चर्य ही है कि देश में के.पी. सक्सेना ही अकेले ऐसे गद्यलेखक रहे हैं जिनको कवि सम्मेलनों में जनता ने कवियों के बीच भी सुना है और सराहा है.
एक लम्बे कालखण्ड तक के.पी. साहब की ख्याति देशभर में व्यंग्यकार के बतौर रही है लेकिन पिछले एक दशक में उन्हे जो ख्याति आशुतोष गोवारिकर की फिल्मों के लिए उनके लिखे संवादों ने दिलाई उसका कोई जोड़ नहीं. खुद के.पी. भी ये मानते हैं. फिलहाल वे आशुतोष गोवारिकर की ही नई फिल्म के संवाद लिख रहे हैं जिसकी विषयवस्तु प्रागैतिहासिक काल के जनजीवन पर आधारित है.
लखनऊ सोसाइटी के संस्थापक ने कुछ रोज़ पहले के.पी. साहब से उनके घर पर मुलाकात की. इस दौरान के.पी. लखनऊ सोसाइटी के प्रयासों से बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि ये कोशिश ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पहुंचनी चाहिए.
(http://lucknow.me/ से साभार)

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चन्दनवुड चिल्ड्रन स्कूल...!

- के. पी. सक्सेना

आँख मुलमुल...गाल...गुलगुल...बदन थुलथुल, मगर आवाज बुलबुल ! वे मात्र वन पीस तहमद में लिपटे, स्टूल पर उकडूं बैठे, बीड़ी का टोटा सार्थक कर रहे थे ! रह-रह कर अंगुलियों पर कुछ गिन लेते और बीड़ी का सूंटा फेफड़ों तक खींच डालते थे! जहां वे बैठे थे वहाँ कच्ची पीली ईंट का टीन से ढका भैंसों का एक तवेला था ! न कोई खिड़की न रौशनदान ! शायद उन्हें डर था कि भैंसें कहीं रोशनदान के रास्ते ख़िसक ने जाएं ! सुबह सवेरे का टाइम था और भैंसें शायद नाश्तोपराँत टहलने जा चुकी थीं ! तवेला खाली पड़ा था ! उन्होंने मुझे भर आँख देखा भी नहीं और बीड़ी चूसते हुए अंगुलियों पर अपना अन्तहीन केल्क्यूलेशन जोड़ते रहे !...
मैंने उनसे सन्दलवुड चिल्डन स्कूल का रास्ता पूछा तो उनकी आंखों और बीड़ी में एक नन्ही सी चमक उभरी !...धीरे से अंगुली आकाश की ओर उठा दी गोया नया चिल्ड्रन स्कूल कहीं अन्तरिक्ष में खुला हो ! मगर मैं उनका संकेत समझ गया ! नजर ऊपर उठाई तो तवेले की टीन के ऊपर एक तख्ती नजर आई, जिस पर गोराशाही अंग्रेजी में कोयले से लिखा था-दि सन्दलवुड चिल्ड्रन स्कूल !...प्रवेश चालू ! इंगलिश मीडियम से कक्षा ६ तक मजबूत पढ़ाई ! प्रिन्सिपल से मिलें !...

'तख्ती पढ़कर मैं दंग रह गया !...यही है चंदन लकड़ी स्कूल ?...चंदन दर किनार, कहीं तारपीन या कोलतार तक की बू नहीं थी ! मेरी मजबूरी अपनी जगह थी ! मुहल्ले के गनेशी लाल के पोते के दाखले की जिम्मेदारी मुझ पर थी ! खुद गनेशी लाल उम्र भर पढ़ाई लिखाई की इल्लत से पाक रहे और अपने बेटे को भी पाक रखा ! सिर्फ गुड़ की किस्में जान लीं और खान्दानी कारोबार चलाते रहे ! मगर पोता ज्यों ही नेकर में पांव डालने की उम्र को पहुंचा, उनकी पतोहू ने जिद पकड़ ली कि छुटकन्ना पढ़ि़ है जरूर, और वह भी निखालिस इंगलिश मीडियम से !...उसकी नजर में हिन्दी मीडियम से पढ़ने से बेहतर है कि गुड़ बेच ले !

पतोहू ने अपने मैके में देखा कि अंग्रेजी मीडियम से पढ़े छोकरे कैसे फट-फट आपस में इंगलिश में गाली गलौज करते हैं !...एक स्मार्टनेस सी रहती है सुसरी !...चुनांचे गनेशी लाल मेरे पीछे पड़ गये कि छोकरे को कहीं अंग्रेजी मीडियम में डलवा ही दूं !...उधर जुलाई-अगस्त की झड़ी लगते ही चिल्ड्रन स्कूलों में वह किच-किच होती है कि आदमी अपना मरा हुआ बाप भले ही दोबारा हासिल कर ले, मगर बच्चे को स्कूल में नहीं ठूंस सकता !...

अंग्रेजी के 'डोनेशन' और हिन्दी के 'अनुदान' का फर्क इसी वक्त समझ में आता है आदमी को ! अनुदान के बीस रूपयों में बच्चा हिन्दी मीडियम में धंस जाता है, मगर डोनेशन तीन अंकों से नीचे होता ही नहीं !...अंग्रेजी की ग्रेटनेस का पता यहीं पर चलता है ! खैर...! शिक्षा सन्दर्भ में यह एक अच्छी बात है कि बारिश में फूली लकड़ी पर उगे कुकुरमुत्तों की तरह, जुलाई-अगस्त में चिल्ड्रन स्कूल भी दनादन उग आते हैं ! हर गली-मुहल्ले में भूतपूर्व लकड़ी की टालों और हलवाईयों की दुकानों पर नर्सरी मोन्टेसरी स्कूलों के बोर्ड टंग जाते हैं ! हर साइन बोर्ड का यही दावा होता है कि हमारे यहाँ बच्चा माँ की गोद जैसा सुरक्षित रहेगा और आगे चलकर बेहद नाम कमायेगा !...ऐसे ही दुर्लभ तथा नये उगे स्कूलों में 'सन्दल वुड चिल्ड्रन स्कूल' का नाम भी मेरे कान में पड़ा था!

नाम में ही चंदन सी महक और हाली-वुड जैसी चहक थी !...और अब मैं टीन जड़ीत, रोशनदान रहित उसी स्कूल के सामने खड़ा था !... बीड़ी तहमद वाले थुलथुल सज्जन ने आखिरी कश खींच कर बीड़ी को सदगति तक पहुंचाया, और तहमद के स्वतन्त्र कोने से मुंह पोंछ कर आंखों ही आंखों में पूछा कि क्या चाहिए ?...मैंने दोनों हाथों से बच्चे का साइज बताया और धीरे से पूछा कि प्रिंसिपल कहाँ हैं...कब उपलब्ध होंगे ? वे भड़क गये ! गुर्रा कर बोले-'हम आपको क्या नजर आवे हैं ? टाई-कमीज अन्दर टंगी है तो हम प्रिन्सिपल नहीं रहे ? जरा बदन को हवा दे रहे थे ! आप बच्चा और फीस उठा लाइए ! भर्ती कर लेंगे !'

मैं सटपटा गया और इस बार उन्हें उस ढंग से अभिवादन पेश किया जिस ढंग से अमूमन अंग्रेजी मीडियम से होता है ! यह पूछने पर कि बाकी टीचिंग स्टाफ कहाँ है, उन्होंने बताया कि बाकी का स्टाफ भी वह खुद ही हैं ! क्लास थ्री स्टाफ भी, और क्लास फोर (झाडू, पोंछा, सफाई) भी !...दो अदद लेडी टीचस भी हैं, जिनमें से एक उनकी मौजूदा पत्नी हैं और दूसरी भूतपूर्व ! फिलहाल दोनों घर में लड़ाई-झगड़े में मसरूफ हैं ! चट से टीचिंग सेशन शुरू होते ही आ जाएगी !...अभी कुल तेईस बच्चे नामजद हुए हैं ! पच्चीस पूरे होते ही ब्लैक बोर्ड मंगवा लेंगे और पढ़ाई जो है उसे शुरू करवा देंगे !...मुझे तसल्ली हुई ! डरते-डरते पूछा-खिड़कियां, रोशनदानों, पंखों और बैंचों वगैरा का झंझट आपने क्यों नहीं रखा ?'...
वे दूरदर्शी हो गए !...आप चाहते हैं कि बच्चों को अभी से आराम तलब बना दें ?... ग्लासगो कभी गए हैं आप ? वहाँ के सन चालीस के पैटर्न पर हमने स्कूल शुरू किया है ! बच्चों को, उसे क्या कहते हैं...हां...हार्डशिप की आदत डालनी होगी !...फिर धीरे-धीरे सब कुछ हो जइहे !...अगले साल रोशनदान खुलवा देंगे...फिर अगले साल पंखों वगैरा की देखी जाएगी !...पईसा चाहिए, कि नाहीं चाहिए ?...पच्चीस बच्चों की फीस लईके सुरू में ही आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी खोल दें का ?...टाइम पास होते-होते सब कुछ हुई जयिहे !...बच्चा ले आवो !...दो ही सीटें बची हैंगी !...

'सो साहब, चंदन वुड चिल्ड्रन स्कूल के प्रधानाचार्य के श्रीवचन सुनकर मैं काफी से भी अधिक प्रभावित हुआ ! सारी हिम्मत बटोर कर एक अन्तिम प्रश्न पूछा- 'माहसाब ! वैसे तो अपने इण्डिया में चारे-भूसे की कमी चाहे भले ही हो, मगर बच्चों का टोटा नहीं है ! फिर भी मगर दो बच्चे और न हाथ लगे तो क्या आप स्कूल डिजाल्व कर देंगे ?' वे पुन: भड़क गये !...आये गए सूबे-सूबे नहूसत फैलाने !... जिस भगवान ने तेईस बच्चे दिये, वह दो और नाहीं भेजिहे का ? डिजालव कर भी दें तो कौन सी भुस में लाठी लग जईहे ?...पहले इस टीन में पक्के कोयला कर गुदाम रहा !...सोचा कि इस्कूल डाल लें ! डाल लिया !...इन्ते पढ़े लिखे हैंगे कि कक्षा ६ तक पढ़ाये ले जावें ! नाहीं चल पईहे इस्कूल तो कोयले का लैसंस कोई खारिज हुई गवा है का ?...लपक के बच्चा लै आओ !...' मैं लपक कर चल पड़ा !...

रास्ते भर प्रधानाचार्य की उस अंग्रेजी से प्रभावित रहा जो एक फिल्मी गाने 'आकाश में पंछी गाइंग...भौरां बगियन में गाइंग' जैसी थी ! मास्साब दूर तक टकटकी बांधे मुझे उम्मीदवार नजरों से देख रहे थे, गोया कह रहे हों- बच्चा लईहे जरूर ! जईहे कहां? इधर मैं यह सोच रहा था कि गनेशी लाल के पोते के भविष्य के लिए गुड़ बेचना मुनासिब रहेगा या सन्दलवुड चिल्ड्रन स्कूल में अंग्रेजी मीडियम से शिक्षा अर्जित करना?...


(नोट - यदि किसी स्कूल का नाम यही हो, तो अन्यथा न लें! नाम काल्पनिक है !)

मुझे खोजना ही होगा प्रत्यक्षदर्शियों को


प्रत्यक्षदर्शियों को बुलाना

-येहूदा आमीखाई

कब रोया था मैं आख़िरी दफ़ा?
आ गया है प्रत्यक्षदर्शियों को बुलाने का समय.
जिन्होंने देखा था मुझे रोते हुए आख़िरी दफ़ा
कुछ मर चुके उनमें से.
ख़ूब सारे पानी से धोता हूँ आँखें
ताकि एक बार और देख सकूं संसार को
गीलेपन और दर्द के पीछे से.
मुझे खोजना ही होगा प्रत्यक्षदर्शियों को,
कुछ अरसा पहले मैंने पहली दफ़ा महसूस किया
अपने दिल में खुभी हुई सुईयों को.
मैं भयभीत नहीं हूँ
मैं करीब करीब घमंड से भरा हुआ हूँ, एक लड़के की तरह
जो पाता है पहले बाल अपनी काँखों पर
अपनी टांगों के बीच.

Wednesday, October 30, 2013

जागो! जागो! दोस्त बना जाए ओ सोती हुई तितली - मात्सुओ बाशो के तीस और हाइकू


(बाशो की शुरुआती हाइकू पढ़ने के लिए देखें पिछली पोस्ट - मैं नहीं खोल पाता अपनी कविताओं का झोला तक

३१.

देखता चारों तरफ़
गौर से, ध्यान देता:
सूमा में शरद

३२.

सुबह की बर्फ़
उगते हुए प्याज़ के कल्ले
निशान लगाते हैं बगीचे में अपना

३३.

आह वसंत, वसंत
महान होता है वसंत
इत्यादि

शरद, १६८०

३४.

मकड़ी, क्या है यह,
किस आवाज़ में – क्यों – रोती हो तुम
शरद की हवा

३५.

शारोन का ग़ुलाब
एक विवस्त्र शिशु के केशों में
फूलों की एक फुहार

३६.

रात को, छिपकर
सूराख़ करता हुआ पांगर के तने में
चांदनी में एक कीड़ा

३७

मेरा विनम्र विचार है
रसातल ने ऐसा ही होना चाहिए -
शरद की संध्या

३८.

सूख गयी एक टहनी पर
ठहर गया है एक कौवा –
शरद की शाम.

३९.

कहाँ है जाड़ों की फुहार?
हाथ में छाता लिए
वापस लौटता है भिक्षु

४०.

(नौ वसंत और शरद मैंने शहर में बिताये – संयम के साथ. अब मैं वापस लौट आया हूँ फ़ूकागावा नदी के तट पर. किसी ने एक दफ़ा कहा था – “पुराने समय से ही, चांग-आन नाम और धन कमाने की जगह रही है. बड़ी मुश्किल है यहाँ खाली हाथों वाले, गरीब मुसाफ़िर के लिए.” क्या इसलिए कि मैं ख़ुद ग़रीबी में धंसा हुआ हूँ, मुश्किल है मेरे लिए इन भावनाओं को समझ सकना?)

झाड़ से बने फाटक के बाहर
चाय की पत्तियों को बुहारती है
आंधी

४१.

(फुकागावा की एक ठंडी रात में भावनाएं)

लहरों पर पड़ते पतवार सुनाई देते हैं
पेट को जमा देने वाली रात –
और आंसू

४२.

(अमीर लोग मांस खाते हैं, कड़ियल जवान खाते हैं सब्ज़ियों की जड़ें; मगर मैं निर्धन हूँ)

बर्फ़ीली सुबह
अकेला, मैं चबा ही लेता हूँ
सूखी सामन मछली

४३.

मुरझा गयी चट्टानें
पानी कुम्हलाए –
सर्दियों का अहसास तक नहीं

४४.

जागो! जागो!
दोस्त बना जाए
सोती हुई तितली

४५.

(झूआंग्ज़ी के एक पोर्ट्रेट के सामने)

तितली! तितली!
मैं पूछूंगा तुमसे
चीन की हाईकाई की बाबत

* हाईकाई – लघु कविता का एक रूप. हाइकू, सेनरयू और हाइगा जैसी समस्त जापानी काव्य-विधाएं इसी के अंतर्गत आती हैं.

गर्मियां १६८१-८३

४६.

(दोपहर के फूल का साहस)

बर्फ़ में भी
कुम्हलाता नहीं दोपहर का फूल:
रोशनी सूरज की

४७.

दोपहर के फूल की बगल में
एक धान कूटने वाला सुस्ताता है
किस कदर छू लेने वाला यह दृश्य

४८.

कोयल:
बचे नहीं अब
हाईकाई के उस्ताद

४९.

सफ़ेद गुलदाऊदी, सफ़ेद गुलदाऊदी
उतनी सारी शर्म तुम्हारे
लम्बे बालों, लम्बे बालों पर

सर्दियां १६८१-८३

५०.

काले जंगल:
तो अब क्या है नाम तुम्हारा?
बर्फ़ की एक सुबह

वसंत १६८१

५१.

पानी के शैवालों में झुण्ड में तैरतीं
सफ़ेद मछलियाँ: उन्हें हाथ में थामा जाय
गायब हो जाएँगी

५२.

(रीका ने मुझे केले का एक पौधा दिया)

बाशो को रोप चुकने के बाद
अब नफ़रत करता हूँ मैं उस से
अंकुवाती हैं बांसुरियां

गरमियाँ १६८१

५३.

कोयल,
क्या तुम्हें न्यौता दिया गया था
बीजों से सजी जौ ने?

५४.

गरमियों की बारिशों में
छोटी हो जाती हैं
सारस की टांगें

५५.

बेवकूफों की तरह, अँधेरे में
जुगनुओं को खोजता
वह थाम लेता है एक काँटा

५६.

चन्द्रमा के फूल सफ़ेद
रात को आउटहाउस की बगल में
हाथ में मशाल

शरद १६८१

५७.

“संयम और सफाई से जियो!”
चन्द्रमा को देखते रहने वाला बैरागी
पीता हुआ गीतों को.

५८.

मेरी फूंस-ढंकी झोपडी में भावनाएं
आंधी में केले का पेड़: चिलमची में टपकती हुई
बरसात को सुनने की एक रात

सर्दियां १६८१-८२

५९.

एक मामूली पहाड़ी मन्दिर में
पाले में कांपती एक केतली
आवाज़ जमी हुई

६०.

फूंस-ढंकी इस झोपडी में पानी खरीदते हुए
अपनी प्यास बुझाते एक चूहे के मुंह में
कड़वी है बर्फ़

पर्याप्त समय नहीं रहा मेरे पास कभी


एक दफ़ा मेरी माँ ने मुझे कहा था

-येहूदा आमीखाई

एक दफ़ा मेरी माँ ने मुझे कहा था
फूलों के साथ न सोया करूँ कमरे में
तब से मैं कभी नहीं सोया फूलों के साथ
अकेला सोता हूँ, उनके बगैर.

बेशुमार थे फूल
मगर पर्याप्त समय नहीं रहा मेरे पास कभी.
और जिन लोगों को मैं प्यार करता था
वे अभी से धकेल रहे ख़ुद को मेरे जीवन से दूर, जैसे नावें
अपने किनारों से दूर जातीं.
   
माँ ने कहा था
फूलों के साथ न सोया करूँ.
नींद नहीं आएगी.
नींद नहीं आएगी, मेरे बचपन वाली अम्मा.

वह जंगला जिसे मैं थाम लेता था
जब घसीटा जाता था मुझे स्कूल ले जाने को
कब का जल चुका.
लेकिन मेरे हाथ, थामे हुए
अब भी

थामे हुए उसी को.

Tuesday, October 29, 2013

राजेन्द्र यादव का निधन


‘हंस’ के संपादक और हिन्दी के वरिष्ठ रचनाकर्मी राजेन्द्र यादव का कल देर रात निधन हो गया.


कबाड़खाने की और से श्रद्धांजलि.

राजेन्द्र यादव का यह परिचय http://www.literatureindia.com से साभार -
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा में हुआ था। उनके पिता चिकित्सक थे। वे आंरभिक वर्षों में पिता के साथ मेरठ के कई जगहों पर रहे। मिडिल की परीक्षा उन्होंने सुरीड़ नामक जगह से पास की। फिर उसके बाद पढ़ने के लिए मवाना (मेरठ) अपने चाचा के पास गए। वहीं हॉकी खेलते हुए पैरों में चोट लग गई जिसके कारण उनके पैर की एक हड्‌डी को निकालना पड़ा। उसी दौरान उन्होंने उर्दू की कहानियों-उपन्यासों आदि को पढ़ा। चाचा का तबादला झांसी होने के कारण वे झांसी चले गए और वहीं से उन्होंने  मैट्रिक (1944) किया।उन्होंने आगरा कॉलेज से बी..(1949) किया। आगरा विश्वविद्यालय से ही उन्होंने एम..(1951) भी किया। उसके बाद सन्‌ 1954 में वे कलकत्ता चले गए तथा 1964 तक वहीं रहे। उन्होंने वहीं ज्ञानोदय दो बार छोटी-छोटी अवधि के लिए नौकरी भी की। सन्‌ 1964 में दिल्ली आने पर अक्षर प्रकाशन की स्थापना की और कई महत्वपूर्ण लेखकों की प्रथम रचना को छापा। सन्‌ 1986 से वे साहित्यिक मासिक हंस का संपादन कर रहे हैं।

 नवीन सामाजिक चेतना के कथाकार राजेन्द्र यादव की पहली कहानी प्रतिहिंसा’(1947) कर्म योगी मासिक में प्रकाशित हुई थी। उनके पहले उपन्यास प्रेत बोलते हैं जो बाद में सारा आकाश’ (1959) नाम से प्रकाशित हुई उन्हें अपने समय के अगुआ उपन्यासकारों में स्थापित कर दिया। राजेन्द्र यादव नई कहानी आंदोलन के कुछ महत्वपूर्ण कथाकारो में गिने जाते हैं।

अपनी कहानी में उन्होंने मानवीय जीवन के तनावों और संघर्षों को पूरी संवेदनशीलता से जगह दी है। नगरीय जीवन के आतंक और विडंबना को बड़ी कुशलता से वे सामने लाये। उनकी एक कमजोर लड़की की कहानी’ ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ ‘अभिमन्यु की आत्महत्याछोटे-छोटे ताजमहल’ ‘किनारे से किनारे तक जैसी कहानियां हिन्दी की ही नहीं विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती हैं। देवताओं की मूर्तियां’ ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ (1957) ‘छोटे-छोटे ताजमहल’(1961)’टूटना और अन्य कहानियां’(1987) उनके अन्य कहानी संग्रह हैं। उनकी अब तक की तमाम कहानियां पड़ाव-1′ ‘पड़ाव-2′ और यहांतक शीर्षक से तीन जिल्दों में संकलित हैं।
राजेन्द्र यादव औपन्यासिक चेतना के कथाकार माने जाते हैं। उनका पहला उपन्यास सारा आकाश हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों में से एक है। सारा आकाश की लगभग आठ लाख प्रतियांं बिक चुकी हैं। सारा आकाश की कहानी एक रूढ़िवादी निम्नमध्य वर्गीय परिवार की कहानी है जिसका नायक एक अव्यवहारिक आदर्शवादी है। आज की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था किस प्रकार एक आदर्शवादी मनुष्य को समझौतावादी बना देती है- यह उनके उपन्यास उखड़े हुए लोग’ (1956) की मुख्य कथा वस्तु है। शह और मात’(1959) डायरी शैली में लिखा गया उपन्यास है।उपन्यास कुलटा समाज के उच्चवर्गीय महिलाओं की खिन्नता को उजागर करती है। अपनी लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी के साथ लिखा गया उपन्यास एक इंच मुस्कान खंडित व्यक्तित्व वाले आधुनिक व्यक्तियों की प्रेम कहानी है। अनदेखे अनजाने पुल’ ‘मंत्र विद्ध’(1967)
उनके अन्य उपन्यास हैं जो जीवन और उसके विरोधाभासों को और भी स्पष्टता में दिखाते हैं। आवाज तेरी है ‘(1960) नाम से उनकी कविताओं का एक संग्रह भी प्रकाशित है।

उन्होंने समीक्षा निबंध की कई पुस्तकें भी लिखी हैं। कहानी :स्वरूप और संवेदना’ (1968) ‘कहानी :अनुभव और अभिव्यक्ति ‘(1996) और उपन्यास :स्वरूप और संवेदना’(1997) आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। दस खंडों में प्रकाशित कांटे की बात श्रृंखला में उनके हंस मेंं छपे संपादकीय को मुख्यत:लिया गया है। औरों के बहाने’ 1981 में प्रकाशित हुई थी। नए साहित्यकार पुस्तकमाला की श्रृंखला में मोहन राकेश कमलेश्वर फणीश्वनाथ रेणु मन्नू भंडारी तथा स्वयं अपनी लिखी हुई चुनिंदा कहानियों का उन्होंने संपादन किया।

कथा दशक’(1981-90) ‘हिन्दी कहानियां :आत्मदर्पण’(1994) ‘काली सुर्खियां’(1994 अफ्रीकी कहानियां) और एक दुनियां समानांतर का भी उन्होंने संपादन किया।उनके द्वारा किए गए महत्त्वपूर्ण अनुवादों में हमारे युग का एक नायक’ (लमेल्तोव) ‘प्रथम प्रेम’ ‘वसंत प्लावन’ (तुर्गनेव) ‘टक्कर’(चेखव) ‘संत सर्गीयस’ (टालस्टॉय) ‘एक महुआ :एक मोती’ (स्टाइन बैक) और अजनबी’ (अलबेयर कामू) हैं। मुड़-मुड़ के देखता हूं’ (2001) ‘वे देवता नहीं हैं ‘(2000) और आदमी की निगाह में औरत’ (2001) उनके संस्मरणों के संग्रह हैं।