Saturday, July 31, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - आगे का हिस्सा १

मुझे तीसेक साल पहले अपने मकान की चार दीवारों के भीतर अपने पिताजी के साथ बैठकर बातचीत करना याद आता है. ठीक जैसा मैं अब हूं वे भी अपने जीवन की गोधूलि में थे. उन्होंने ऐसे ही एक दिन कहा: "त्रिलोक, बढ़ती उम्र के साथ साथ जीवन के महत्वपूर्ण घटनाएं चाहे वे प्रीतिकर हों या कड़वी किसी फ़िल्म की तरह स्क्रीन पर नज़र आने जैसी लगती हैं मानो वे अभी हाल में ही घटी हों." इधर पिछले तीन सालों से मैं तकरीबन यही अनुभव कर रहा हूं. मुझे लगता है कि कुछ अपवादों को छोड़कर इसमें हर व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ अच्छी चीज़ें निहित रहती हैं. मैं काफ़ी समय से लगातार इस सम्बन्ध में विचार करता रहा हूं. आखिरकार मैं उन्हें मोटे मोटे विवरणों में याद करने की कोशिश कर रहा हूं. ये सब मेरी नौकरी के समय से सम्बन्धित हैं.

१९४३ में मैंने अल्मोड़ा के सरकारी इन्टरमीडियेट कॉलेज से इन्टरमीडियेट साइंस और प्री बोर्ड का इम्तहान दिया था. मैं इसमें उत्तीर्ण न हो सका अलबत्ता मुझे अंग्रेज़ी की सप्लीमेन्ट्री परीक्षा के लिए योग्य घोषित कर दिया गया. आज़ादी से पहले इस तरह के अभ्यर्थियों को उस एक विषय की परीक्षा में बैठने का अवसर अगले साल मिलता था, जबकि आज के समय में सप्लीमेन्ट्री की परीक्षा दो महीनों में हो जाया करती है. मेरे मामले में यह परीक्षा १९४४ में होती. उन दिनों हमारा परिवार भीषण दारिद्र्य से रूबरू था और मैं एक साल रुक कर और उसके बाद नौकरी तलाशने की बात सोच भी नहीं सकता था.

चूंकि वह दूसरे विश्वयुद्ध का दौर था, सार्वजनिक विभागों की नौकरियां युद्ध से लौटकर आने वालों के लिए खाली रखी जाती थीं. इसलिए मेरे पिता जी ने मुझे राय दी कि मैं सशस्त्र सेना में भर्ती हो जाऊं. वे मेरे साथ सेना भर्ती कार्यालय तक भी आए. हमने ३५ किलोमीटर की यात्रा दो दिनो में तय की क्योंकि उन दिनों अल्मोड़ा और बागेश्वर के बीच कोई मोटर मार्ग नहीं था. वहां मुझे रॉयल इन्डियन एयर फ़ोर्स में ग्राउन्ड टैक्नीशियन (पहले वायरलैस फिर राडार ऑपरेटर) के तौर पर भर्ती कर लिया गया. मेरी उम्र तब कुल साढ़े सोलह थी. १९४३ और १९४६ के बीच मैंने वायुसेना में दो साल और सात महीने काम किया.

युद्ध के समाप्त हो जाने पर १९४५ के अन्त में मैंने दो कारणों से वायुसेना से स्वैच्छिक सेवामुक्ति के लिए आवेदन किया. पहला तो यह कि १९४५ के मध्य में १८ की आयु में मेरा विवाह होने वाला था. दूसरा यह कि मेरे सामने दो विकल्प रख दिए गए थे - या तो मैं सेवामुक्ति स्वीकार कर लूं या एक लोअर ग्रेड लिपिक का पद ग्रहण करूं. मैंने पहला विकल्प चुन लिया. तीन माह का सवेतन अवकाश लेकर मैंने अप्रैल १९४६ में अल्मोड़ा के क्षेत्रीय रोजगार कार्यालय में फ़ॉरेस्टर के पद के लिए अपने को पंजीकृत करवा लिया, जैसा कि सैन्य सेवाओं से लौटने वालों के लिए निर्देशित था.

किस्मत की जेब में अंगूठा नसीब का ...


सुनिए मनपसंद का एक दिलचस्प गीत


Friday, July 30, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - आगे का हिस्सा कल से जारी

आप लोगों के इसरार पर मेरे दोस्त कुंवर साहब ने अपनी आगे की कहानी लिखना स्वीकार कर लिया है. फ़िलहाल वे आज आकर मुझे चार-पांच पन्ने लिख कर दे गए हैं और साथ ही उन्होंने अपनी कुछ पुरातन तस्वीरें मुझे स्कैन करने को दीं.

आज की पोस्ट में मैं सिर्फ़ उनकी दो तस्वीरें लगा रहा हूं. दोनों १९४३ की हैं. पहली इन्टर पास करने के बाद की है. दूसरी रॉयल एयरफ़ोर्स में नौकरी पर चले जाने के बाद की.

कल से आगे की कहानी चालू. कितने दिन यह कहानी चलेगी, कुंवर साहब को मिलने वाली फ़ुरसत पर निर्भर करेगा. वे अगले माह पिचासी साल के होने वाले हैं और मैं उन पर ज़्यादा बोझा डालना नहीं चाहता. फ़िलहाल मिलिये कथानायक से.



न रहना रवि बासवानी का



कल रात ज़रा देर से घर लौटना हुआ. मेल देखने लगा तो पाया भाई विमल वर्मा ने फ़ेसबुक पर कुछ कमेन्ट किया है. फ़ेसबुक में उनकी प्रोफ़ाइल खुली तो वहां उनके किसी मित्र ने रवि बासवानी की मृत्यु पर अफ़सोस ज़ाहिर किया था. हैरत की बात यह थी कि इस कमेन्ट में रवि बासवानी की मृत्यु मेरे नगर हल्द्वानी में होने का ज़िक्र था. ऐसी कोई ख़बर मेरे सामने से किसी भी स्थानीय अख़बार में नहीं छपी थी. बड़े असमंजस की हालत थी सो देर हो चुकने के बावजूद मैंने ख़बर की पुष्टि के लिए विमल भाई को फ़ोन लगाने की हिमाकत कर डाली. ख़बर सही थी. हल्द्वानी को लेकर ख़ासा संशय था. विकीपिडिया पर भी नैनीताल में लोकेशन हंटिंग से लौटते हुए हल्द्वानी में दिल के दौरे से हुई उनकी मृत्यु की जानकारी थी. पत्रकार मित्रों योगेश्वर सुयाल और मदन गौड़ को भी तंग किया गया.

आज अभी अभी भाई मदन गौड़ ने फ़ोन पर बताया कि इस बाबत अमर उजाला के शिमला संस्करण में २८ जुलाई को ख़बर लगी थी. उन्होंने यह जानकारी भी दी कि यह हादसा शिमला में पेश आया था.

२९ सितम्बर १९४६ को जन्मे रवि बासवानी दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज के छात्र रहे थे. चश्म-ए-बद्दूर और जाने भी दो यारो जैसी कल्ट फ़िल्मों से साक्षात्कार था इस बड़े कलाकार से. सई परांजपे की चश्म-ए-बद्दूर (१९८१) उनकी पहली फ़िल्म थी. यह वही फ़िल्म है जिसमें दीप्ति नवल घर घर जाकर चमको वॉशिंग पाउडर बेचने वाली सेल्सगर्ल बनी हैं. रवि ने इसमें फ़ारुख़ शेख़ के रूममेट का किरदार निभाया था. क्या फ़िल्म थी वह और कैसी ज़बरदस्त एक्टिंग की थी सारे कलाकरों ने.

ग़ौर फ़रमाएं यह वो ज़माना था जब गऊपट्टी में जितेन्द्र, श्रीदेवी (कभी कभी जयाप्रदा भी), कादर ख़ान और शक्ति कपूर को लेकर बनी सड़ी हुई फ़िल्में तमाम रिकॉर्ड बना रही थीं. जो गम्भीर फ़िल्मकार थे उनकी फ़िल्मों को आर्ट फ़िल्म कहा जाता था और उन्हें देखने वाला कोई न था.

चश्म-ए-बद्दूर के बाद रवि दिखाई दिये कुन्दन शाह की जाने भी दो यारो में एक असफल फ़ोटोग्राफ़र के रोल में. यह उस समय तक भारतीय फ़िल्म इतिहास में बनाइ गई अपने तरह की इकलौती फ़िल्म थी. रवि के साथ इस फ़िल्म में नसिरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, सतीश शाह, ओम पुरी और भक्ति बर्वे थे. इन दो फ़िल्मों को जिसने भी देखा होगा, उसके लिए इन्हें भुला पाना किसी भी कीमत पर सम्भव नहीं है.

अफ़सोस है फ़क़त ६४ साल की आयु में रवि बासवानी के गुज़र जाने को मीडिया ने यथेष्ट कवरेज नहीं दी.

इधर वे अपनी पहली फ़िल्म निर्देशित करने की योजना बना रहे थे. ख़ुद भाई विमल वर्मा और नैनीताल के मेरे पुराने दोस्त सुदर्शन जुयाल को कुछ ही दिन पहले बम्बई में अपने घर पर अपने हाथों बनाया खाना खिलाते हुए रवि बासवानी ने उन्हें यह बात बताई थी.

रवि बासवानी ने हालांकि कॉमेडियन के ही क़िरदार निभाए पर उन्हें याद करना एक मंजे हुए अभिनेता को याद करना होता था और होता रहेगा.

कबाड़ख़ाने की श्रद्धांजलि.

जाने भी दो यारो और चश्म-ए-बद्दूर से कुछ अविस्मरणीय वीडियो देखिये (साभार यूट्यूब)











Thursday, July 29, 2010

ऐसा भी भारत में ही हो सकता था

हॉकी के सरताज मेजर ध्यान चन्द की निकेत भूषण द्वारा लिखी गई जीवनी बायोग्राफ़ी ऑफ़ हॉकी विजार्ड ध्यान चन्द (प्रकाशक विली ईस्टर्न लि. १९९२) से इस महान खिलाड़ी के जीवन के आख़िरी दिनों के कुछ टुकड़े देखिये:



अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ध्यान चन्द भारतीय हॉकी की स्थिति को लेकर मोहभंग की स्थिति में थे. वे कहा करते थे, "हिन्दुस्तान की हॉकी खतम हो गई. खिलाड़ियों में डिवोशन नहीं है. जीतने की इच्छाशक्ति खतम हो गई है"

अन्तिम दिनों में ध्यान चन्द को कई सारी स्वास्थ्य समस्याएं हो गई थीं. जिस तरह उनके देशवासियों ने, सरकार ने और हॉकी फ़ेडरेशन ने उनके साथ पिछले कुछ सालों में सुलूक किया था, उसका उन्हें दुःख भी था और शायद थोड़ी कड़वाहट भी.

अपनी मृत्यु से दो माह पूर्व ध्यान चन्द ने एक वक्तव्य दिया था जिससे उनकी तत्कालीन मनस्थिति का पता चलता है, "जब मैं मरूंगा तो दुनिया शोक मनाएगी लेकिन हिन्दुस्तान का एक भी आदमी एक भी आंसू तक नहीं बहाएगा. मैं उन्हें जानता हूं."

उनकी मृत्यु से कोई छः महीने पहले उनके अभिन्न मित्र पं. विद्यानाथ शर्मा ने उनके समक्ष विश्व भ्रमण का प्रस्ताव रखा. उन्हें आशा थी कि ऐसा करने से यूरोप और अमेरिका के हॉकी प्रेमियों से ध्यान चन्द की मित्रता पुनर्जीवित होने के साथ साथ इस महानायक को दोबारा से सार्वजनिक स्मृति का हिस्सा बनाया जा सकता है. टिकट तक खरीद लिए गए थे लेकिन ध्यान चन्द कहीं भी जा पाने की हालत में नहीं थे.

ध्यान चन्द के मित्रों ने उनसे यूरोप आकर अपना इलाज करवाने का निवेदन किया पर उन्होंने यह कहकर इन्कार कर दिया कि वे दुनिया देख चुके हैं.


१९७९ के अन्तिम महीनों में उनके सुपुत्र हॉकी खेल रहे थे जब उन्हें पिता की खराब स्थिति का पता चला. ध्यान चन्द को झांसी से दिल्ली लाया गया और ऑल इन्डिया इन्स्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ में भर्ती कराया गया.

इन आख़िरी दिनों में भी वे अक्सर हॉकी की ही बातें किया करते थे. उन्होंने अपने परिजनों को अपने तमग़ोम का ध्यान रखने को और यह सुनिश्चित करने को कहा कि कोई भी उनके कमरे में न जाए क्योंकि कुछ समय पूर्व कोई सज्जन उनके कमरे से कुछ मेडल चुरा ले गए थे. इसके अतिरिक्त उनका ओलिम्पिक में जीता हुआ स्वर्ण पदक झांसी में एक प्रदर्शनी से चुरा लिया गया था.

उन्होंने अपने दूसरे पुत्र राज कुमार से कहा था कि भारत में स्तरीय हॉकी को ले कर किसी को कोई चिन्ता नहीं है. भारतीय हॉकी के अवसान को लेकर वे बहुत दुखी थे.

एक बार उनके डॉक्टर ने उनसे पूछा, "भारतीय हॉकी का भविष्य क्या है?" ध्यान चन्द ने जवाब दिया "भारत में हॉकी खतम हो चुकी है."

"ऐसा क्यों है?" डॉक्टर ने पूछा तो ध्यान चन्द बोले "हमारे लड़के बस खाना भकोसना चाहते हैं. काम कोई नहीं करना चाहता."

ऐसा कहने के कुछ ही समय बाद वे कोमा में चले गए और कुछ ही घन्टों के बाद ३ दिसम्बर १९७९ को उनका देहान्त हो गया. उनके शरीर को उनके गृहनगर झांसी ले जाया गया जहां झांसी हीरोज़ ग्राउन्ड में इजाज़त मिलने में आई कुछ अड़चनों के बाद उनका दाह संस्कार किया गया. ध्यान चन्द की रेजीमेन्ट, पंजाब रेजीमेन्ट ने उन्हें पूर्ण सैनिक सम्मान दिया.

अशोक कुमार को भारतीय हॉकी अधिकारियों के हाथों एक अन्तिम ज़िल्लत यह झेलनी पड़ी कि उन्हें १९८० के मॉस्को ओलिम्पिक के तैयारी शिविर में भाग लेने से रोक दिया गया. अशोक कुमार पिता के अन्तिम संस्कारों में व्यस्त रहने के कारण समय पर कैम्प नहीं पहुंच सके थे. भीषण कुण्ठा और अपमान के चलते अशोक कुमार ने उसी दिन हॉकी से सन्यास ले लिया.

झांसी हीरोज़ ग्राउन्ड में खेलते हुए ध्यान चन्द की एक मूर्ति स्थापित की गई. मूर्ति के नीचे लिखा हुआ था, "देश के गौरव, हॉकी के जादूगर, मेजर ध्यान चन्द."

आज ध्यान चन्द की इस मूर्ति के नीचे आवारा लड़के जुआ खेलते हैं और गांजा पीते है. यह वही स्थान है जहां ध्यान चन्द का अन्तिम संस्कार हुआ था. हॉकी के महानतम खिलाड़ी के लिए भारतीय हॉकी की यह श्रद्धांजलि है.

Wednesday, July 28, 2010

एक छोटी सी जन्नत थी हमारी बरसाती

श्री असद ज़ैदी की एक बिल्कुल ताज़ा कविता प्रस्तुत है



कठिन प्रेम

इसकी भी कई मंज़िलें होती होंगी और अनेक अवकाश
पूछिए उस भली महिला से जिसने किया था
एक अदद कठिन प्रेम
देखिए उस मानुस के जाने के इतने बरस बाद वह कठिनाई
क्या अब भी जारी है और अब
कैसे हैं उसके उतार चढ़ाव


एक बात तो यही है कि मैं अब
पहले से ज़्यादा मुक्त हूँ - उस
झाँय झाँय को पीछे छोड़कर
पर खुशी के क्षण भी मुझे याद हैं
एक छोटी सी जन्नत थी हमारी बरसाती
जिसको कुछ समझ में न आता कहाँ जाए
तो हमारे यहाँ आ धमकता था

झगड़े भी बाद में होने लगे हमारे
ऐसा भी कुछ नहीं था ये जवानी की बातें हैं
वह मुझे धोखा देने चक्कर में रहता था
मैं उसे ज़हर देने की सोचती थी
फिर वह अचानक मर गया
धोखा दिए बिना ज़हर खाए बिना
मुझे लगा सब कुछ रुक गया है

फिर मैं जैसे तैसे करके ख़ुद को हरकत में लाई
अधूरी पड़ी पी एच डी खींचकर पूरी की और
यूनिवर्सिटी के हलक़ में हाथ डालकर
निकाली एक नौकरी उसी विभाग में जहाँ मैं
अस्थायी पद पर पढ़ा चुकी थी उसके चक्कर में आकर
सब कुछ छोड़ देने से पहले

उसके बारे में क्या बताऊँ बेसुरी उसकी आवाज़ थी
बेमेल कपड़े काली काली आँखें
रहस्यमय बातें ख़ालिस सोने का दिल
और ग़ुस्सा ऐसा कि ख़ुद ही को जलाकर रख दे
हम बड़ी ग़रीबी और खु़ददारी का जीवन जीते थे

दूसरों को हमारी जोड़ी
बेमेल दिखाई देती थी - थी भी
पर बात यह है कि वह मुझे समझता था
और मैं भी उसे ख़ूब जानती थी
सोचती हूँ ऐसी गहरी पहचान
बेमेल लोगों में ही होती है

समाजशास्त्र की मैं रही अध्यापक
यही कहूँगी हमारा प्रेम एक मध्यवर्गीय प्रेम ही था
प्रेम शब्द पर हम हँसते थे,
अमर प्रेम यह तो राजेश खन्ना की फ़िल्म होती थी
जैसे आज होते हैं 24x7 टीवी चैनल

उसको गए इतने बरस हो गए हैं
पर वह जवान ही याद रहता है
जबकि मैं बूढ़ी हो चली
और कभी कभी तो एक बदमिज़ाज छोटे भाई की तरह
वह ध्यान में आता है

कितना कुछ गुज़र गया
इस बीच छठा वेतन आयोग आ गया
साथ के सब लोग इतना बदल गए
न तो वह अब हमारी दुनिया रही न वैसे अब विचार
समझ में नहीं आता यह वास्तविक समाजवाद है या
वास्तविक पूंजीवाद

एक नई बर्बरता फैल गई है समाज में
रोटी नहीं मिलती तो खीर खाओ कहते लोगों को
कहूँ तो क्या कहूँ

अगर वह जीवित होता तो सोफ़े पर पड़े
आलू का जीवन तो न जीता
हो सकता है कहता हत्यारे हैं ये चिदंबरम
ये मनमोहन ये मोदी इन्हें रोका जाना चाहिए
हो सकता है मैं उसे ही छत्तीसगढ़ के वनों में
जाने से रोकती होती कहती होती और भी रास्ते हैं

लीजिए पीकर देखिए यह ग्रीन टी - हरी चाय
जिसे पिलाकर पैंतीस बरस हुए उसने मेरा दिल
जीतने की पहली कोशिश की थी
तब मैं हरी चाय के बारे में जानती न थी

Tuesday, July 27, 2010

जीवन से जीवन तक : कुछ तस्वीरें

रोहित उमराव की खींची कुछ और मनोहारी तस्वीरें पेश हैं.











(हल्द्वानी में रहने वाले मेरे मित्र विशाल विनायक अभी अभी लेह की साहसिक यात्रा से वापस लौटे हैं और बहुत शानदार तस्वीरें लेकर आए हैं. जल्द ही उनके संग्रह से कुछ शानदार फ़ोटो देखिये.)

एक फ़ोटो एक पोस्ट

रोहित उमराव आजकल चिड़ियों और फूलों की ज़बरदस्त तस्वीरें खींच रहे हैं. इधर वे बरेली से हल्द्वानी आए तो पोस्ट करने के वास्ते कुछ माल जमा करवा गए.

पहली तस्वीर देखिये:



एक बार देखने पर आप कहेंगे कि चमेली का फूल पर एक मधुमक्खी रसास्वादन में व्यस्त है. ज़रा तस्वीर पर क्लिक कर के उसे बड़ा करें.



ग़ौर से देखिये बेचारी मधुमक्खी स्वयं ही एक विशिष्ट प्रजाति की मकड़ी का शिकार बनी हुई है.



(रोहित के खींचे कुछ और फ़ोटोग्राफ़्स आज रात नौ बजे भी देखिये. यह भी बताने का कष्ट करें कि कबाड़ख़ाने का नया टैम्प्लेट कैसा दिख रहा है. मेहरबानी होगी.)

बोलो तो, कुछ करना भी है

वीरेन डंगवाल की इस अतिलोकप्रिय कविता को एक बार पुनः लगाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं:



हमारा समाज

यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर
बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा ढब से

बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में
कुछ इज़्ज़त हो, कुछ मान बढ़े, फल-फूल जाएँ
गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे
यदि दफ्तर में भी जाएँ किसी तो न घबराएँ
अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछ्तायें।

कुछ चिंताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं
पर ऐसी भी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हों संगी-साथी, अपने प्यारे, ख़ूब घने।

पापड़-चटनी, आंचा-पांचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धांय
जितना संभव हो देख सकें, इस धरती को
हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आएं

यह कौन नहीं चाहेगा?

पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है
वह क़त्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है

किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वाही दमकता है, जो काला है।

मोटर सफ़ेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा- बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हां सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
यह भव्य इमारत काली है

कालेपन की ये संताने
हैं बिछा रही जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है?

Monday, July 26, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - अन्तिम हिस्सा

पिता और दोस्त

जैसे जैसे मैं बड़ा हो रहा था धीरे धीरे किशोरावस्था से ही बाबू और मेरे बीच दोस्ताना सम्बन्ध बनने शुरू हुए क्योंकि दूसरों से मेरा व्यवहार प्रीतिकर होता था, ठीक यही बात बाबू ले लिए कही जा सकती है जो मुझे बेहिचक अपने बीते समय के बारे में बताया करते थे, जिनमें मेरे बचपन के दुखों की दास्तानें छिपी हुई होती थीं.

मैं उन्हें अपने छात्रावास के दिनों के बारे में बताया करता जो मेरे लिए किसी पालने की तरह था. मैं उन्हें बचपन से ही अपनी आज़ादी के बारे में बताया करता था जिसमें "ये मत करो, वो मत करो" के लिए कोई जगह न थी. मैं उन्हें उन परिवारों के बारे में बताता था जिनके साथ मैं रहा था कि किस तरह वे मुझ पर लाड़ जताते थे और अपने बच्चों की तरह मेरा खयाल करते थे.

थोड़े शब्दों में कहूं तो बावजूद तमाम अभावों के वह मेरे जीवन का अविस्मरणीय समय था. बाद में रॉयल इन्डियन एयरफ़ोर्स में एक सामान्य एयरमैन की हैसियत से जब मैं नौकरी कर रहा था बाबू की चिठ्ठियों में लिखा रहता था : "तुम मेरे जीवन की इकलौती चमकीली रेखा हो. अगर तुम न होते तो मैं पागल हो गया होता. तुम अपनी मां के मूल्यों का प्रतिरूप हो." मुझे इस बात से बहुत तसल्ली मिलती है कि कि उनके जीवन के सबसे गहन समय में मैं उन्हें नैतिक सहारा दे सका.

एयरमैन के तौर पर नियुक्ति

हमारे परिवार की निर्धनता के कारण बाबू को विवश होना पड़ा कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मुझे रॉयल इन्डियन एयरफ़ोर्स में भर्ती करें. १८ साल की आयु उत्तर प्रदेश के इन्टरमीडिएट बोर्ड की विज्ञान परीक्षा अंग्रेज़ी में कम्पार्टमेन्ट आने के बाद वे मुझे अल्मोड़ा के भर्ती केन्द्र में लेकर गए.

जीवन का सबसे बड़ा पछतावा

रॉयल इन्डियन एयरफ़ोर्स में ग्राउन्ड टैक्नीशियन के तौर पर नौकरी करने लखनऊ जाने से पहली शाम मैं और बाबू मेरे चचेरे मामा ऑनरेरी लैफ़्टिनेन्ट एस. सी. बूड़ाथोकी से मिलने गए. समय सबसे बड़ा मरहम होता है, सो पिछली कड़वी बातें भुलाकर उन्होंने हमारा स्वागत किया. रात का खाना खाते समय मैंने उनसे अपनी मां की फ़ोटो दिखाने को कहा जो १९२० के दशक में एक दुर्लभ चीज़ होती थी. उन्होंने कहा कि उनके पास कोई फ़ोटो नहीं है अलबत्ता पातालदेवी के राणा परिवार से, जहां मां की पिछली ससुराल थी, इस बारे में निवेदन करने का वादा किया.

मैं जानना चाहता था कि मां कैसी दिखती थी. बाद में मुझे पता लगा कि राणा परिवार के पास भी कोई फ़ोटो नहीं थी या शायद उन्होंने परिवार की इज़्ज़त की खातिर उन्हें नष्ट कर दिया हो. इस तरह मुझे इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ा. यह इच्छा आज भी जस की तस बनी हुई है.

बाबू के जीवन के उतार चढ़ाव

बाबू एक गरीब किसान के परिवार में पैदा हुए थे. बाबू के पिताजी यानी मेरे दादा नैनीताल के उत्तरी छोर पर स्थित राजा बलरामपुर की हवेली में माली का काम करते थे. इस लिहाज़ से बाबू किस्मत वाले थे कि उन्हें पढ़ने का मौका मिल गया हालांकि पढ़ाई उन्होंने अपेक्षाकृत देर से शुरू की. बाबू ने वहां से हाईस्कूल पास किया था. मैं उनके जीवन के बारे में मोटी मोटी बातें बता चुका हूं. अब मैं कुछ बारीक बातें बताना चाहूंगा.

पहले मैं उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पहलुओं के बारे में बताऊंगा. जैसा मैंने बताया पं. गोविन्द बल्लभ पन्त की इच्छा के विपरीत उन्हें डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का सचिव चुना गया. दोनों हॊ बोर्ड के महत्वपूर्ण अधिकारी थे लेकिन छः महीनों तक दोनों में बात नहीं हुई थी. वे फ़ाइलों के माध्यम से एक दूसरे से वार्तालाप बनाए रहते थे. जैसा बाबू ने बताया एक दोपहर माल रोड में टहलते हुए दोनों एक दूसरे के सामने थे. पं. पंत ने कुमाऊंनी में बात शुरू करते हुए बाबू को नाम से पुकारा - दौलत सिंह! और उन्हें बताया कि उन्होंने बोर्ड को गर्त से उठाकर काफ़ी बेहतर बना दिया है और यह कि वे इस बात से बहुत खुश हैं. पं. पंत ने इस बात का ज़िक्र १९२८ की बोर्ड रिपोर्ट में भी किया कि ठाकुर दौलत सिंह ने बोर्ड के सारे विभागों की कार्यप्रणाली का अकेले दम पर बहुत सक्षमता के साथ निरीक्षण किया है.

१९४६ के दौरान जब बाबू सार्वजनिक जीवन में अपने को पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे, वे एक बार फिर पं. पंत से मिले. तब पंत जी यूनाइटेड प्रोविन्स के मुख्यमन्त्री बन चुके थे. उन्होंने तब ५० साल के हो चुके बाबू के लिए आयु सीमा को दरकिनार करते हुए उन्हें सार्वजनिक आपूर्ति विभाग में एरिया राशनिंग ऑफ़िसर के पद पर नियुक्त कर दिया. बाबू उस नौकरी में नहीं गए क्योंकि उसी साल उन्होंने जंगलात में ठेकेदारी का काम शुरू कर दिया.

राष्ट्रीय स्तर के एक नेता की निगाहों में इतनी ऊंची जगह रखने वाले बाबू को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता.

सिक्के का दूसरा पहलू

अब बाबू की कमज़ोरियों के बारे में कुछ. बाबू के साफ़ साफ़ दो चेहरे थे, एक अनुशासनप्रिय अधिकारी का और दूसरा एक पारिवारिक व्यक्ति का. वे दोनों इस कदर अलग अलग थे कि मुझे निश्चित नहीं मालूम कि मैं उनका बेटा होने के नाते इस बात को कितना सही सही व्यक्त कर सकूंगा.

स्त्रियों के साथ बाबू के सम्बन्धों में रूमानियत हुआ करती थी जो कि पहले बताई गई घटनाओं और परिस्थितियों के कारण बाबू के बुरी तरह टूट जाने का कारण हुआ करता था. उनकी सबसे बड़ी कमी यह नहीं थी कि वे ’दूध का जला छांछ भी फूंक फूंक कर पीता है" वाली कहावत से कोई सबक नहीं लेते थे और बार-बार वही गलती करते जाते थे.

देवी उपासना से अध्यात्म की दिशा में बढ़ने के अपने उत्साह के अतिरेक और पारिवारिक मामलों में सन्तुलन न बना सकने के कारण ही बाबू को सन्यास लेना पड़ा और परिवार के सदस्य छिन्न भिन्न हो गए.

अन्त में यह भी कि वे कमज़ोर इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे जिन्हें नकली या असली बाबाओं का चमत्कारिक व्यक्तित्व प्रभावित कर देता था. इस में कोई शक नहीं कि बाबा लोग पिछले सन्यासियों का साहित्य पढ़कर ज्ञान हासिल करते हैं. वे अपनी वाकपटुता के कारण प्रभावशाली वक्ता भी बन जाते हैं. इसके अलावा दुग्ध उत्पादों, मौसमी फलों, सब्ज़ियों और मावों के नियमित सेवन से वे अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाए रखते हैं. बाबू की यही कमज़ोरी आकर्षक स्त्रिरों के सामने भी आ जाया करती थी.

हमारे देश के ईश्वरीय व्यक्ति

मैं शुरू में ही कह देना चाहता हूं कि इस विषय पर अपनी बात रखने से पहले मुझे क्षमा किया जाएगा, क्योंकि दो तथाकथित ईश्वरीय व्यक्तियों का शिकार बना मैं थोड़ा बहुत पक्षपातपूर्ण भी हो सकता हूं.

अपने पुराने अध्ययन के आधार पर मैं कह सकता हूं कि ईश्वरीय व्यक्तियों की बाढ़, खास तौर पर हिन्दू धर्म में, १९२० के दशक से आना शुरू हुई. इसका एक कारण यातायात और संचार के साधनों की उपलब्धता हो सकता है. इनमें से कुछ ईश्वरीय व्यक्तियों ने अपने नाम के आगे भगवान शब्द भी जोड़ा. मेरे खयाल से उनके चेले इन गुरुओं के प्रभाव की बढ़ोत्तरी में बड़ी भूमिका निभाते हैं. चेलों की संख्या बढ़ती जाती है. और अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व से वे बहुत सारे भले लोगों को आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं.

मैं अपने बच्चॊं से कहना चाहता हूं कि किसी भी दिशा में छलांग लगाने से पहले उस तरफ़ देख लेना चाहिए. किसी भी गुरु के पैरों पर अपना सर्वस्व रख देने से पहले उन्होंने थोड़ा परिपक्व तरीके से सोचना चाहिये. सबसे पहले काफ़ी समय तक गुरु को हर कोण से परख लेना चाहिये और इस बात को अच्छी तरह नापतौल लेना चाहिये कि क्या वे सन्यास का जीवन बिता सकेंगे.

गलतियां मनुष्य ही करते हैं. यह बात सब पर लागू होती है - गुरु पर भी और उसे मानने वाले चेले पर भी. मैं ऐसे अनेक मामले देख चुका हूं जहां इन गुरुओं का असली रूप दुनिया के सामने उजागर हुआ है.

मैं किसी ऐसे व्यक्ति को हतोत्साहित नहीं करना चाहता जो एक समर्थ गुरु के सान्निध्य में शान्ति पाता हो.

मेरा विवाह

इस आख्यान को मैं एक सुखद बात के साथ समाप्त कर रहा हूं. मेरी मंगेतर के नाम पर बाबू ने १९४४ के आसपास डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अपने एक मातहत की सलाह पर सहमति की मोहर लगा दी थी. उनके कहने पर १९४४ के नवम्बर में मैं उससे मिला. हालांकि वह प्राइमरि स्कूल तक पढ़ी थी, मैंने उसे एक सादगीभरी और सन्तुलित लड़की पाया. हमारा विवाह १५ जून १९४५ को हुआ जब मैं अर्न्ड लीव पर बीरभट्टी, नैनीताल में था. बीस साल का होने में मुझे अभी ढाई महीने बाकी थे.

Sunday, July 25, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - ७

गुरू के गुरु का आगमन

मैं अच्छी तरह समझ सकता था कि वे एक ऊहापोह की स्थिति में थे कि वापस उस स्थान पर कैसे जाएं जिसे वे अपने मन से छोड़ आए थे. उन्होंने अन्ततः तय किया कि बाबा सदाफल के गुरु से मिलें जिनका आश्रम मध्य प्रदेश में कहीं अवस्थित था. वहां उनका सौहार्दपूर्ण स्वागत हुआ. जब गुरू प्रवचन दे रहे थे तो बाबू ने देखा कि एक चिकित्सक ने गुरू को कोई इंजेक्शन लगाया. फेंक दी गई इंजेक्शन की शीशी को बाबू ने उत्सुकतावश देखा तो पाया कि वह सिफ़लिस नामक यौनरोग की दवा थी. बाबू ने डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सचिव रहते हुए मेडिकल बोर्ड के साथ होने वाली बैठकों के दौरान यह जानकारी इकठ्ठा की थी. उन्हें भीषण अचरज हुआ कि किस तरह तथाकथित बाबा और गुरू निर्दोष और भोले भाले लोगों को लालच देकर अपने शिकंजे में फंसाया करते हैं और उनकी कथनी और करनी में कितना अन्तर होता है.

कुछ ही दिन बाद बाबू मार्च १९४१ में गढ़वाल अपने आश्रम लौट आए. अपनी पिछली गतिविधियों और अनिश्चित भविष्य के कारण वे काफ़ी असमंजस की स्थिति में रहे होगे. मैंने यह जानने की कोशिश की कि बाबू दोबारा उसी दयनीय ज़िन्दगी में डूबने को क्यों विवश हुए. मैं निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचा.

बाबू की आयु ४६ साल की थी और इसके पहले वे पांच साल तक अपने गुरु की और अपनी इच्छा से सन्यासी जीवन बिता रहे थे. इसी दौरान पास के एक गांव की युवा स्त्री जो उनसे उम्र में आधी थी, किसी न किसी बहाने उनसे मिलने आ जाती थी और शायद उनके बीच धीरे धीरे नज़दीकियां बढ़ीं और वे पुनः उसी जाल में फंस गए.


एक और सौतेली मां

उसके बाद में वापस अपने साथियों के साथ अल्मोड़ा आ गया. पन्द्रह दिन बाद मुझे बाबू की चिठ्ठी मिली कि वे दर्शिनी मौसी के साथ हड़बाड़ जाकर गजे सिंह चाचा के साथ रह रहे हैं. इसी दौरान उनका एक पुत्र हुआ - रामपाल. मैंने इस बात को भारी दिल के साथ यह दिलासा देते हुए स्वीकार कर लिया कि जिस चीज़ का इलाज़ न हो सके उसका सामना करना ही होता है.

१९४० में मेरे दादा यानी बाबू के बाबू का देहान्त हो गया था. तब मैं नवीं में पढ़ता था. जब तक वे जीवित थे गांव की ज़मीन का तीन चौथाई उनके पास था जबकि एक चौथाई पर बड़ी का हक था. दादा की मृत्यु के बाद उनकी ज़मीन चाचा गजे सिंह के पास चली गई. दोनों भाई बमुश्किल एक महीना साथ रह सके. मौसी के आने के कारण चाची के भीतर ऐसी भावना आ गई थी कि घर का काम तो उन्हें करना पड़ता है जबकि मौसी उनकी मेहनत पर सुख भोगती है. बाबू भी पैसा नहीं कमाते थे. चाई इस बात को लेकर काफ़ी हल्ला मचाया करती थी. मेरे ख्याल से मौसी ने भी कड़ा प्रतिवाद किया होगा. सामूहिक परिवार की शान्ति का यूं भंग होना बाबू से बरदाश्त नहीं हुआ. बाबू ग्राम प्रधान के पास गए और अपने हिस्से की ज़मीन दिलाने की मांग की. गांव की पंचायत ने उनके पक्ष में फ़ैसला सुना दिया.

अलग गृहस्थी

उन्होंने एक कमरे के अलग घर में रहना शुरू कर दिया जिसके भीतर एक रसोई का इन्तज़ाम किया गया था. नीचे की मंजिल मवेशियों के लिए थी. जनवरी १९४३ की छुट्टियों में मैंने देखा कि उनकी सम्पन्नता के दिनों के हिसाब से वे बेहद गरीबी में रह रहे थे. मैंने इस बारे में बहुत विचार किया और खुद को बताया कि अपने कर्मों का फल आदमी को खुद ही भुगतना होता है. छुट्टियों के बाद मैं अल्मोड़ा लौटा और अप्रैल १९४३ तक अपनी परीक्षाओं तक वहीं रहा. वापस लौटने पर मैंने पाया कि वे गांव के एक कोने पर स्थित खत्ते में (यह ज़मीन दादा ने किसी और व्यक्ति से खरीदी थी) एक दो कमरों का नया घर और बगल में मवेशियों के लिए झोपड़ी बना रहे थे. निर्माण कार्य ज़मीन की सतह तक पहुंच चुका था.

नया घर

जैसी उम्मीद थी, बाबू भीषण गरीबी में थे, सो यह कार्य ऋण लेकर किया जा रहा था. मैंने बाकी मज़दूरों और मिस्त्रियों के साथ एक मज़दूर की तरह पत्थर और छत की पटालें ढोने का काम किया. थोड़ी ऊंचाई पर बना यह नया घर दक्षिण पूर्वोन्मुख था जिससे सीढ़ीदार खेतों और नीचे बह रही लोहारू धारा का विहंगम दृश्य देखा जा सकता था. हमारा घर गांव के बाकी मकानों से अलग था जो एक दूसरे बहुत नज़दीक बने हुए थे.

मकान तकरीबन समाप्त हो चुका था और जून १९४३ के शुरू में हम उसमें आ गए. बाबू और मैंने सब्ज़ियों के खेत तैयार किये और मानसून के मौसम लिए सब्ज़ियों के बीज बोए.

(जारी)

Saturday, July 24, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - ६

रामी मौसी की याद

बाबू के सन्यास लेने के बाद रामी मौसी के लिए उन्होंने कोई भी आर्थिक व्यवस्था नहीं की थी जैसा वे हमारे लिए कर गए थे. उनके पास दो दुधारू गाएं और घर के बरतन फ़र्नीचर आदि के अलावा कुछ नहीं बचा था. मुझे पता लगा कि उन्होंने इस सारी चीज़ों को कौड़ियों के भाव बेच दिया था. अपनी गुरबत और पारिवारिक जीवन के त्रास के लिए वे बाबा सदाफल को ज़िम्मेदार ठहराती थीं. जैसी कि शहर में चर्चा थी वे १९४० के साल बाबा सदाफल के मठ में चली गई थीं.

बाबा के मठ में बवाल

अब मैं ऊपर लिखी बात का ज़िक्र करूंगा. मठ में पहुंचने के बाद रामी मौसी ने पाया कि वहां बाबा सदाफल के खिलाफ़ काफ़ी रोष और असन्तोष व्याप्त था. इनमें सबसे बड़ा पर्दाफ़ाश बाबा की एक चेली के साथ हुआ सैक्स-काण्ड था जिसके साथ उनके सम्बन्ध रहे थे. अब बाबा ने चेली की पुत्री के कौमार्य पर हाथ डालने की कोशिश की थी. इसके अलावा भी कुछ गम्भीर आरोप थे. इस तरह दोनों महिलाओं ने मिलकर मठ के अन्य प्रभावित लोगों के साथ मिलकर मोर्चाबन्दी कर ली.

अन्ततः दोनों ने बलिया की अदालत में बाबा के खिलाफ़ मुकदमा दर्ज़ करा दिया. इस मुकदमे में रामी मौसी पहली अपीलकर्ता थीं. समय के साथ साथ बाबा पर अपराध साबित हुआ और उसे दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया. बाबा ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अर्ज़ी दी और उसे ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. अजीब बात यह थी, बाबू ने मुझे बताया कि वह फ़र्ज़ी बाबा किसी तरह उच्च न्यायालय के जज को अपना चेला बना पाने में सफल हो गया. इस चेले जज ने तकनीकी कारण बताते हुए पूरे मामले को कुछ समय बाद इस कारण से रद्द कर दिया कि पहली अपीलकर्ता यानी रामी मौसी ने नैनीताल की निवासी होने कारण मुकदमा नैनीताल की अदालत में दायर करना चाहिए था न कि बलिया में. बाबा को छोड़ दिया गया. अदालत से छूट जाने के बावजूद बाबा का असली चेहरा लोगों के सामने आ गया.

बाबू की गढ़वाल यात्रा

अगस्त १९३८ में नैनीताल छोड़ने के बाद बाबू करीब सवा साल तक बाबा सदाफल के साथ छपरा, बलिया में रहे. उसके बाद उन्हें गढ़वाल के सुदूर कोने में एक आश्रम खोलने और अगले आदेश मिलने तक आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कार्य करने को कहा गया. बाबू ने बताया कि उन्हें पत्र के माध्यम से एक विश्वसनीय सूत्र ने बाबा के आश्रम में हो रहे बखेड़े की और बाबा के खिलाफ़ मुकदमे की सूचना प्राप्त हुई. जाहिर है उनके दिल को ठेस पहुंची और १९४० के अन्तिम दिनों में वे बलिया के लिए रवाना हुए ताकि स्थिति का जायज़ा ले सकें. वहां जाकर उन्हें मालूम पड़ा कि सारी बातें सच्ची थीं. बाबू ने सम्भवतः अपने आप को गालियां दी होंगी कि वे कैसे मूर्ख थे कि सन्त के चोगे में छिपे शैतान के बहलावे में आ गए. इस सब ने उनके परिवार को तहस नहस करने के साथ उनके बच्चों को बेसहारा छोड़ दिया था.

(जारी)

Friday, July 23, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - ५

जून १९४१ में नैनीताल वापसी

जून के पहले हफ़्ते के आसपास मैं वापस नैनीताल पहुंचा. हमारे हाईस्कूल का परिणाम आ चुका था. ३३ छात्रों की कक्षा में औसत से ज़रा ही ऊपर रहने वाले मैंने अच्छे नम्बरों से सेकेन्ड क्लास पाई थी. अब मेरी प्राथमिकता अपने भविष्य को लेकर थी, किस कॉलेज में जाना है, कहां रहना है वगैरह. चूंकि मुझे रास्ता दिखाने वाला कोई न था, सारे फ़ैसले मुझे खुद ही लेने थे.

जैसा कि मैंने पहले बताया बाबू ने मुझे लखनऊ जाकर ओवरसीयर का कोर्स करने की सलाह दी थी. अगर मैं उनकी इच्छा का अनुसरण करता भी तो मुझे लखनऊ ले जाने वाला कोई न था. इसके अलावा पता नहीं किन वजहों से मैं डॉक्टर बनना चाहता था जबकि हमारे परिवार में कोई भी डॉक्टर नहीं हुआ था. इसके अलावा चार साल की पढ़ाई का खर्च उठाने के कोई साधन भी न थे. मैं जासूस भी बनना चाहता था, इसकी वजह यह थी कि स्कूल के दिनों में मैंने मिस्टर ब्लेक के कई हिन्दी उपन्यास पढ़ रखे थे जिनमें मुख्य नायक मिस्टर ब्लेक अपराधियों को पकड़ा करता था. मैं अंग्रेज़ी का पत्रकार भी बनना चाहता था. यह भी एक अनाथ बच्चे के किसी हवाई किले में रहने जैसा स्वप्न था.

सारी बातों को ध्यान में रखकर मैंने आखिरकार अल्मोड़ा के सरकारी इन्टर कॉलेज में विज्ञान और जीवविज्ञान के साथ इन्टरमीडियेट में दाखिला लेने का फ़ैसला किया. यह इस वजह से हुआ कि प्राइमरी स्कूल के समय से लगातार मेरे साथ रहे एम. एल. गंगोला, जिसके परिवार के साथ मेरे काफ़ी अच्छे सम्बन्ध थे, ने भी ऐसा ही करने का फ़ैसला किया था. इसके अलावा एम. एल. गंगोला के एक नज़दीकी सम्बन्धी श्री चौधरी का अल्मोड़े में अपना घर था जहां हमने रहने का निर्णय लिया. इत्तफ़ाकन सारे कुमाउं डिवीज़न में अल्मोड़ा में ही इकलौता इन्टर कॉलेज था.

अन्ततः एक दोपहर को हम अल्मोड़ा में थे. अगले दिन हमने सरकारी इन्टर कॉलेज में दाखिले के लिए अर्ज़ी लगा दी. भाग्यवश हम दोनों को एक सप्ताह के भीतर दाखिला मिल गया. वहां हमारे रहते हुए गजेसिंह चाचा एक खच्चर भर आटा, चावल और कुछ किलो दाल हर महीने भिजवाया करते थे. श्री चौधरी भले लेकिन सीमित संसाधनों वाले सज्जन थे.

उसके बाद हम दोनों के अलावा दामोदर पाण्डे और वी. डी. काण्डपाल, जो कक्षा तीन से हाईस्कूल तक हमारे साथी रहे थे, एक दिन हमें मिले और हमने एक अलग मकान किराये पर लेकर अपनी रसोई संचालित करने का फ़ैसला किया. हमें तीन कमरों का एक छोटा सा मकान झिझाड़ मोहल्ले में तीन रुपए मासिक किराये पर मिल गया. हमने मिलजुल कर बरतन खरीदे और हमारी रसोइ दो दिनों के भीतर चल पड़ी. काण्डपाल हम में सबसे बड़ा था और गांव से आया था. उसने हमारे लिए इस शर्त पर खाना बनाना मंजूर किया कि वह बरतन नहीं धोएगा. इस काम को करने के लिए हमने खुशी खुशी हामी भर दी.

दोपहरों को हम मिलकर घूमने जाया करते थे. इतवारों को हम अल्मोड़ा के नज़दीक पिकनिक पर जाते. काण्डपाल को छोड़कर हम यदा कदा रात को सिनेमा देखने जाते थे. हमारा स्तर थोड़ा बढ़ गया था और हम साढ़े चार आने यानी अठ्ठाईस पैसे का टिकट लेकर सबसे निचले दर्ज़े से एक ऊपर का टिकट ले सकते थे. हम मिल कर दैनिक अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स भी लिया करते थे जो एक आने (छः पैसे) का मिलता था.

मुझे हर महीने पच्चीस रुपये मिलने लगे थे और इस लिहाज़ से मैं एक सम्पन्न छात्र था. इस तरह काण्डपाल को छोड़कर हम तीनों इन्टरवल के दौरान चाय और हल्का नाश्ता किया करते थे. काण्डपाल आर्ट्स का छात्र था और फ़कत तेरह रुपये पाने वाले चपरासी का पुत्र होने के कारण यह खर्च वहन कर पाने में असमर्थ था. हमें जब भी अवसर मिलता हम उसकी मुफ़्त सेवा किया करते.

मेरी मित्रमण्डली में ककड़ी, गन्ना और सन्तरे चुराने का शौक था और उसे बुरा भी नहीं माना जाता था. वैसे भी हम लोग पड़ोसियों के बगीचों में आधीरात के बाद ही हमला बोला करते थे.

हमारी सर्दी की छुट्टियां जनवरी में होती थीं. जनवरी १९४२ में मैं और काण्डपाल अपने अपने गांवों क्रमशः हड़बाड़ और काण्डा के लिए पैदल निकले. हमने काण्डपाल के पकाए नाश्ते से अपनि यात्रा शुरू की और क्रमशः ३३ और ३६ किलोमीटर का फ़ासला तय करके शाम सात बजे के आसपास अपने ठिकानों पर पहुंचे. मुझे लगता है कि अगर हमने बचपन में छात्रावास में समय नहीं बिताया होता तो ऐसा कर पाने के बारे में सोच सकना भी असम्भव था. छुट्टियों के बाद हम फिर मिले और जुलाई १९४२ तक जीवन ठीकठाक चलता रहा जब हमने दूसरे वर्ष में प्रवेश लिया.

भारत छोड़ो आन्दोलन

इसी समय महात्मा गांधी के नेतृत्व में आज़ादी का आन्दोलन अपने चरम पर पहुंच चुका था, अन्ततः ९ अगस्त का दिन आया जब देश के इस छोर से उस छोर तक अंग्रेज़ो भारत छोड़ो का नारा गूंज उठा.

ज़रूरत से ज़्यादा उत्साही होने के कारण मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बन गया जो बस अड्डे की तरफ़ जा रही थी और जिसका मकसद अल्मोड़ा के जिलाधिकारी के दफ़्तर के ऊपर तिरंगा फ़हराना था. उक्त स्टेशन के उत्तर की तरफ़ जिलाधिकारी मिस्टर एटकिंसन को पुलिस दल के साथ हमारी तरफ़ आते देखा गया. वह भीड़ को तितरबितर होने का आदेश दे रहा था. लेकिन लोग आगे बढ़ते चले गए. जब हमारे बीच कुल पचास मीटर का फ़ासला रह गया, जिलाधिकारी ने हवाई फ़ायरिंग शुरू करा दी. लोग इधर उधर भागने लगे और अफ़रातफ़री मच गई.

जिलाधिकारी के दफ़्तर पर तिरंगा फ़हराने पर आमादा भीड़ का धधकता असन्तोष लोगों की बातचीत से स्पष्ट था. जिलाधिकारी का दफ़्तर बस अड्डे से करीब ७५ मीटर की ऊंचाई पर था. प्रदर्शन का विरोध कर रहे प्रशासन ने दफ़्तर की सुरक्षा के भरपूर इन्तज़ाम किए हुए थे. करीब एक घन्टे बाद यूं ही या उत्सुकतावश लोगों ने सड़क पर चलना शुरू कर दिया. मैं भी ऐसा ही कर रहा था और जिलाधिकारी के दफ़्तर को जाने वाले रास्ते पर खड़ा था जब एक खास पल मैंने कुछ झगड़ा सा होता देखा और पाया कि खिलाड़ियों की सी कदकाठी वाले नाथ सा्ह नामक एक आदमी ने एस डी एम ठाकुर मेहरबान सिंह को सशरीर उठा कर नीचे बिच्छू झाड़ियों की दिशा में दे फेंका. सो इस घटना के चन्द प्रत्यक्षदर्शियों में मैं भी था, जो उस दिन शहर भर के लोगों में चर्चा का विषय बनी रही. बाद में कुछ आन्दोलनकारियों को जिनमें हमारे स्कूल के तीन लड़के और नाथ साह शामिल थे, जेल भेज दिया गया. अल्मोड़ा जिले के दूरदराज़ हिस्सों से भी ऐसे ही प्रदर्शनों की सूचनाएं आती रहीं.

अगस्त १९४२ का महीना आमतौर पर अफ़रातफ़री वाला था जिससे हमारी पढ़ाई भी बाधित हुई. एक ही छत के नीचे रह रहे हम तीन दोस्तों ने अल्मोड़ा के एक रेस्टोरेन्ट में साढ़े सात रुपए महीने के हिसाब से खाना शुरू कर दिया. भोजन काफ़ी अच्छा होता था. काण्डपाल अब भी अपना भोजन पहले की तरह पकाया करता था. अक्टूबर १९४३ तक सब कुछ सामान्य रहा.

एक और झटका

सितम्बर १९४२ में एक दिन अल्मोड़ा की बाज़ार में घूमते हुए एक विश्वसनीय सूत्र से मुझे पता चला कि सन्यासी बन चुकने के चार साल बाद बाबू फिर से हल्द्वानी में देखे गए हैं. यह मेरे लिए उत्साहित करने वाली बात भी पर इसके आगे जो पता चला उसे सुनकर मेरा दिल रो पड़ा. बाबू ने एक शादी और कर ली थी. मैंने अपने ऊपर काबू रखा और सूचना देने वाले के सामने अपनी भावनाओं को जाहिर नहीं होने दिया. घर पहुंचकर मैंने बाबू को एक चिठ्ठी लिख कर अपनी दुर्भावनाओं का इज़हार किया. यह पहला पत्र था जो मैंने अपने बाबू को लिखा था. रात को बिस्तर में तमाम गलत बातें याद आती रहीं, रामी मौसी के हाथों पाई सज़ाएं याद आती रहीं और भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में सोचकर डर लगता रहा.

हफ़्ते भर के अन्दर मुझे बाबू का साधारण सा जवाब मिला जिसमें उन्होंने मुझसे अक्टूबर के समय दशहरे में हल्द्वानी आने को लिखा था. मैंने ऐसा किया भी. उनके लिए अपनी पुरानी बुरी भावनाओं के बावजूद मैंने उन्हें पर्याप्त आदर और सम्मान दिया.

उनके सन्यासी जीवन के बारे में होने वाली हमारी अनौपचारिक बातचीत में कि उन्होंने पिछले चार साल किस तरह बिताए थे, बाबू ने मुझे अपनी ताज़ा शादी के बारे में भी मुझे बताया. मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि बावजूद अपने पिछले जीवन में की गई भीषण गलतियों को नज़र अन्दाज़ करके, बावजूद हड़बाड़ में बड़ी मां की उपस्थिति के ऐसी कौन सी वजहें थीं जिनके कारण वे वापस दुनियावी समाज में लौट कर आए. बाबू ने अपना पक्ष रखते हुए कहा : "अगर सबकुछ ठीक होने वाला होता तो मैं तुम्हारी मां के साथ नहीं आ सकता था. उन्होंने कहा कि उनके स्वाभाव एक दूसरे से कतई मेल नहीं खाते थे और उनके बीच संवादहीनता की स्थिति थी.

बाद में मैंने उनसे पूछा कि उन्हें दोबारा शादी करने की क्यों सूझी तो उनका जवाब काफ़ी लम्बा था. इस ज़िक्र मैं रामी मौसी और उनकी गतिविधियों के बारे में बताते समय करूंगा.

(जारी)

Thursday, July 22, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - ४

जीवन का सबसे बड़ा सदमा

जब मैं छात्रावास में ही था, अगस्त १९३८ के पहले हफ़्ते में मुझे एक हरकारे द्वारा छः पन्ने का पत्र प्राप्त हुआ जिसमें बाबू द्वारा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सचिव का पद छोड़कर अपने गुरू की इच्छानुसार सन्यासी जीवन अपनाने की सूचना दी गई थी. ऐसा करने के उन्होंने कारण गिनाए थे और इसका सारा ज़िम्मा मौसी पर लगाया था. चिट्ठी में उन्होंने मुझे दिन में दो दफ़ा भगवान की पूजा करने की सलाह दी थी ताकि मुझे सद्बुद्धि प्राप्त हो. उन्होंने मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने पर ज़ोर दिया था और यह भी लिखा था कि मैं लखनऊ जाकर ओवरसीयर का कोर्स करूं. उन्होंने मुझे सूचित किया था कि उन्होंने मेरी छोटी सौतेली बहन (बड़ी मां से), जो मुझसे डेढ़ साल छोटी थी, के विवाह और मेरे सौतेले छोटे भाई (बड़ी मां से ही), जो मुझसे आठ साल छोटा था, की पढ़ाई के लिए आर्थिक बन्दोबस्त कर दिए हैं. इस पैसे का प्रबन्धन उनके चार मित्रों की देखरेख में किया जाना था. जाहिर है मेरे गालों पर आंसुओं की धाराएं बह रही होंगी. अपनी स्थिति को जानकर मैं हैरत कर रहा था कि किसी भी तरह के नैतिक सहारे के बगैर मैं इतनी बड़ी दुनिया का सामना अकेला कैसे कर सकूंगा. चिठ्ठी को बार बार पढते हुए मैं बुरी तरह रो रहा होऊंगा, मुझे अपनी मानसिक और शारीरिक हालत के बारे में इतना याद है कि मुझे अहसास हो रहा था जैसे किसी ने मेरे दिल में एक बर्छी चुभो दी हो. बाद में मेरे वार्डन और छात्रावास के साथियों ने मेरा ढाढ़स बंधाया होगा. मैं कुल तेरह साल का था. कक्षा आठ में पढ़ रहा था और इस लड़कपन में मेरे जीवन में ऐसा धुंधुआया समय आ चुका था.

मुझे बाद में पता लगा कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की मीटिंग में बाबू की शानदार सेवाओं को याद करते हुए उनके इस्तीफ़े को स्वीकार करते हुए यह भी तय पाया गया कि यदि वे अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करना चाहें तो उन्हें पुनः उसी पद पर नियुक्त करने में बोर्ड को कोई आपत्ति नहीं होगी. यह भी कहा गया कि मेरे हाईस्कूल पास करते ही पहली खाली जगह पर मुझे नौकरी मुहैया कराई जाएगी. एक तरह से काफ़ी छोटी उम्र में मैं अपनी नियति और अपने भविष्य का स्वामी बन गया था. सर्दी की अगली छुट्टियां मैंने हल्द्वानी में ठाकुर बच्ची सिंह के घर पर बिताईं. वे भी बाबू के गुरु-भाई थे और नैनीताल/हल्द्वानी के विशेष जंगलात दफ़्तर में स्टोर-क्लर्क का काम किया करते थे. द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले जीवनयापन खासा सस्ता था. मेरी कक्षा और छात्रावास का एक साथी उसी जंगलात कॉलोनी में रहा करता था. हम दोनों ने छुट्टियों में साइकिल चलाना सीखा.

फ़रवरी १९३९ में हमारा स्कूल खुला. छात्रावास के अन्य साथियों से साथ सिनेमा देखने जाने की मेरी हरकतें चालू रहीं.

छात्रावास से निष्कासन

मई १९३९ की एक दुर्भाग्यपूर्ण रात मैं अपने छात्रावास के एक साथी के साथ, जो उम्र में मुझसे बड़ा था पर स्कूल में जूनियर, "हीरो नं. 1" फ़िल्म देखने भाग निकले. छात्रावास के चौकीदार के माध्यम से हमारे वार्डन पं. पी. सी. उप्रेती को, जो कट्टर अनुशासन के हामी थे, इस बारे में पता चल गया. हमारा कमरा बाहर से बन्द था. लौटने पर ही हमें इस बारे में पता चला. अगली सुबह हमारे हैडमास्टर को इस बारे में बता दिया गया और बहुत अशालीन आचरण के आरोप लगाकर हमें छात्रावास से निष्कासित कर दिया गया. सो काफ़ी कम आयु में ही मैंने कुख्याति अर्जित कर ली थी.

हमारे सहपाठियों ने हमें फ़िल्म के नाम की तर्ज़ पर हीरो पुकारना शुरू कर दिया. एक बार फिर मैं नैनीताल में बच्ची सिंह चाचा के घर रहने लगा. गर्मियों में नैनीताल में ऑल इन्डिया ट्रेड्स कप हॉकी टूर्नामेन्ट का आयोजन किया जाता था. उत्तर भारत की सबसे प्रख्यात टीमें इसमें हिस्सा लिया करतीं. मुझे पहली बार उसे देखने में आनन्द आने लगा. बच्ची सिंह चाचा का दफ़्तर हल्द्वानी शिफ़्ट हो गया था सो मैंने बिड़ला विद्यामन्दिर के निकट ठाकुर जी. एस. बिष्ट के साथ रहना शुरू कर दिया, जो बाबू के एक और गुरु भाई थे. चूंकि वे उम्र में कहीं छोटे थे मैं उन्हें भाईसाहब और उनकी पत्नी को भाभी जी कहा करता था. उनके साथ में दिसम्बर १९३९ तक रहा. फ़रवरी १९४० में सर्दियों की छुट्टियां खत्म होने के बाद में वापस उनके साथ रहने चला गया और अक्टूबर १९४० तक उनके ही साथ रहा. चूंकि वह मेरे हाईस्कूल का साल था, मैंने नवम्बर, दिसम्बर और मार्च १९४१ में अपने पिता के एक मित्र ठाकुर बी.एस. भोज के रहने को तरजीह दी जो इम्पीरियल बैंक में एक मिनिस्टीरियल एक्ज़ीक्यूटिव थे. हमेशा की तरह सर्दियों की छुट्टियां हल्द्वानी में बच्ची सिंह चाचा के यहां बीतीं.

पैतृक गांव हड़बाड़ जाना

हाईस्कूल के हमारे इम्तहान २ अप्रैल १९४१ को खत्म हुए. अपने सोलहवें साल में मैंने अपने पैतृक गांव हड़बाड़ जाने का मन बना लिया था. मैं नैनीताल से गरुड़ के लिए रवाना हुआ जहां तक मोटर जाती थी. मैं ४ अप्रैल को शाम के कोई छः बजे वहां पहुंचा. बागेश्वर से आगे पिण्डारी ग्लेशियर को जाने वाला रास्ता पैदल पार किया जाना था. रात मैं गरुड़ में ठहरा. अगली सुबह मैं बागेश्वर से होता हुआ हड़बाड़ के लिए पैदल रवाना हुआ और दोपहर तीन बजे वहां पहुंच गया.

मैंने पहली बार तेईस किलोमीटर का रास्ता पैदल पार किया था. मुझे हड़बाड़ के भूगोल की वह झलक नज़र आई जो मेरी याददाश्त में धुंधली सी बची थी जब मैं पांच साल की उम्र में वहां गया था. मुझे ग्रामीण परिवेश की खुली हवा पसन्द आने लगी थी क्योंकि मुझे अपने स्कूल की पढ़ाई के बारे में नहीं सोचना था - किताबें, गणित के सवाल वगैरह.

मैंने अपने चाचा गजे सिंह के साथ गांव की बारह किलोमीटर की परिधि में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के साथ मिलने का कार्यक्रम बना लिया. जाने वाली जगहों की सूची बनाते हुए मेरी तीन बुआओं का ज़िक्र आया जिनमें से एक काण्डा में रहती थी और जिनके साथ मेरी मां ने करीब छः महीने बिताकर अपनी अन्तिम सांसें ली थीं. उसके बाद हम चाचा के ससुराल गए, वहां से बाबू के चचेरे भाई के गांव फल्यांठी जो बागेश्वर से तीन किलोमीटर दूर था. आखिर में हम बागेश्वर के नज़दीक मेरी चचेरी बहन के गांव खोली पहुंचे. ये सभी मुलाकातें सौहार्दपूर्ण रहीं - कुछ से मैं पहले मिला था कुछ से कभी नहीं. मेरे चाचा एक शौकीन शिकारी थे और मैं जब-तब उनके साथ जाया करता.

(जारी)

Wednesday, July 21, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - ३

सरकारी छात्रावास में दाखिला

ऐसा लगता है कि काफ़ी सोचने और यह देखने के बाद कि मैं सुबह-शाम मौसी के साथ रहने को लाचार हूं जो मेरी पढ़ाई के लिए अच्छी बात न थी, बाबू ने जुलाई १९३४ में मुझे नैनीताल में क्रेगलैन्ड के नाम से जाने जाने वाले सरकारी छात्रावास म्रं भर्ती करा दिया. तब मैं नौ साल का था. इत्तफ़ाकन में छात्रावास में सबसे कम उम्र का बच्चा था. मुझे एक सीनियर के साथ एक कमरे में जगह दी गई.

हमारा छात्रावास एक पहाड़ी की पूर्वोन्मुख चोटी पर था जहां अलस्सुबह बढ़िया धूप आया करती थी. एक छोटा सा मैदान था जिसमें बच्चे हॉकी खेलते थे. मैं भी इसमें हिस्सा लिया करता. वहां से भाबर, सामने की पहाड़ियों और ज्योलीकोट के आसपास के गांवों का नज़ारा देखने को मिला करता था. ज्योलीकोट से नैनीताल आने वाली सर्पिल सड़क का दृश्य सबसे मनोहारी हुआ करता.

हॉकी खेलते हुए गेंद अक्सर पहाड़ी की चटियल ढलान पर लुढ़क जाती और सबसे छोटा होने के कारण सीनियरों के निर्देशों का पालन करते हुए मुझे ही उसे वापस लाने का काम करना होता था. आमतौर पर मैं गेंद खोज लाने में कामयाब हो जाया करता.

हम सब मैस में साथ खाना खाया करते. हमारा स्कूल करीब एक किलोमीटर नीचे स्थित था. थोड़े शब्दों में कहूं तो घर की चहारदीवारी में घिरे जीवन की तुलना में यह सब बिल्कुल फ़र्क़ था. अपनी छोटी उम्र के बावजूद मैंने समाज के ढांचे को पहचाना और एक दूसरे की सहायता करने की ज़रूरत को भी.

इत्तफ़ाकन हमारा घर तल्लीताल बाज़ार के उस हिस्से के नज़दीक था जहां वैश्यावृत्ति होती थी. कुछ सीनियर लड़के जो यह जानते थे कि मेरी मां नहीं है, मुझे "मालती का बेटा" कह कर पुकारा करते. मालती एक नाचने-गाने वाली औरत थी. इस पर मेरी प्रतिक्रिया बहुत तीखी हुआ करती थी. धीरे धीरे मैं समझ गया कि जितना मैं जवाब दूंगा उतना ही मुझे सुनना पड़ेगा. सो जल्द ही यह मामला समाप्त हो गया.

शारिरिक गतिविधियों, खूब चलने फिरने और स्कूल आने-जाने के कारण मेरी देह काफ़ी चुस्त और तन्दुरुस्त हो गई. अब अपने छात्रावास के वार्डन पंडित जोशी की प्रशंसा में कुछ. वे हमारी नियमित गतिविधियों पर निगाह रखे रहते थे. वे सुनिश्चित कर लेते थे कि शाम का भोजन गोधूलि से पहले ले लिया जाए. फिर वे हर कमरे का मुआयना करते थे कि सारे बच्चे कमरों के भीतर हैं और पढ़ाई में लगे हुए हैं. वे ज़्यादातर समय खुले बरामदे में बिताया करते और वहीं सोया भी करते थे. इससे वे किसी भी तरह के शोर या लड़ाई झगड़े को सुन सकते थे. छात्रावास के पहले दो सालों यानी १९३६ के जून तक जीवन मज़े में कटता गया.

जीवन के प्रति बाबू के रुख में एक और बदलाव

मई १९३५ या उसके आसपास बाबू एक महीने की छुट्टी लेकर पुनः द्रोणागिरि चले गए. इस बार वे उत्तर प्रदेश - बिहार की सीमा से लगे बलिया-छपरा से आए एक कबीरपन्थी सन्त बाबा सदाफल के संसर्ग में आए. मैंने बाद में ध्यान दिया कि उन्होंने देवी उपासना यानी पूजा पाठ छोड़ दिया था और केवल ध्यान और बाबा द्वारा संकलित एक पुस्तक से दोहों का पाठ किया करते थे. इस साल उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से अपनी छुट्टी बढ़वा ली और नैनीताल वाला किराए का घर छोड़ कर नैनीताल-भीमताल पैदल मार्ग पर कोई ग्यारह मील दूर विनायक नामक गांव में जाकर रहने लगे. कक्षा छः के समूचे शैक्षिक सत्र के लिए मुझे भी छात्रावास से हटाकर उनके एक दोस्त के घर रख दिया गया - सिवाय सर्दियों की छुट्टियों के जिन्हें मैं हमेशा हल्द्वानी में बिताया करता था.

अगले साल यानी जुलाई १९३७ में मुझे दोबारा उसी छात्रावास में दाखिल करा दिया गया. इस बार मेरा साथी एक सहपाठी था. हमारे वार्डन भी बदल गए थे. हम दोनों ने तीनपत्ती वाला ताश खेलने की बुरी आदत लगा ली थी - जिसे हम छात्रावास द्वारा उपलब्ध कराई गई मोटी रज़ाइयों के नीचे लालटेन की रोशनी में खेला करते थे. इसके अलावा हमें सिनेमा के नाइट शो देखने का चस्का भी लग गया था जो साढ़े नौ बजे से शुरू होते थे. हम एक एक कर छात्रावास से बाहर निकलते - जूते हाथों में थामे हम करीब सौ मीटर तक नंगे पांव बिना आवाज़ किए चलते और वहां से सिनेमा हॉल. हम सबसे आगे की कतारों में बैठा करते. टिकट सवा दो आने यानी पन्द्रह पैसे का होता था. कहा जाता है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, सो हम छात्रावास का दरवाज़ा बाहर से बन्द कर दिया करते थे जो उसके अन्दर से बन्द होने का भ्रम देता था और इस बात का भी हम सब भीतर ही हैं. रात करीब एक बजे हमारी वापसी होती और इस बार कुन्डी अन्दर से लगा दी जाती.

इसी बीच अप्रैल १९३७ में बाबू ने नैनीताल-भवाली रोड पर करीब छः किलोमीटर दूर जखिया नामक गांव में एक दुमंजिला मकान किराये पर ले लिया. बाबू पर बाबा सदाफल का ऐसा जादू चल चुका था कि उनके जीवन का सारा उद्देश्य गुरुजी के उपदेशों से संचालित होने लगा था. इसके अलावा १९३७ की गर्मियों में बाबा नैनीताल आ बसे थे जहां उन्होंने करीब बीस चेले बना लिए थे. उनमें से ज़्यादातर को बाबू पहले से जानते थे.

बाबू ने मुझे बाद में बताया था कि बाबा के कहने पर वे १९३६ के अन्तिम दिनों में कलकत्ता हो कर आए थे. औद्योगिक क्षेत्र में कार्यरत पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों में बाबा की अच्छी खासी पैठ थी. गुरू के कलकत्ता में रहने वाले चेलों ने उनके सम्मान में एक बैठक आयोजित की. बाबू का अनुमान है कि उसमें करीब पच्चीस हज़ार लोगों के शिरकत की थी. बाबा को सर से पांव तक फूलों से लाद दिया गया था. उनके चेहरे का अनुमान सिर्फ़ उनकी दो चमकती आंखों से लगाया जा सकता था. बाबा को नज़राने के तौर पर करीब एक लाख से ऊपर की रकम जुटाई गई. बाबू शायद इन सब वजहों से बाबा के मोहपाश में बंधते चले गए.

वहीं बाबा के प्रति बाबू की अतीव भक्ति के कारण पारिवारिक जीवन सम्भवतः काफ़ी हद तक तबाह हो गया होगा. सो उनके और रामी मौसी के बीच नियमित लड़ाइयां होतीं जिनमें एक दूसरे पर इल्जाम लगाए जाने का सिलसिला चला करता. मुझे १९३७ में उनसे मिलने जाने की एक या दो बार से ज़्यादा की याद नहीं है. जहां तक मुझे याद पड़ता है उनमें बोलचाल बन्द थी. मेरा ख्याल है १९३८ की गर्मियों के आते आते उनके सम्बन्ध बद से बदतर होते चले गए थे जब बाबू ने घर छोड़कर या तो गुरू के या गुरू के किसी चेले के साथ रहना शुरू कर दिया था. जैसा कि मुझे बाद में मालूम चला, चूंकि मौसी बाबू के आध्यात्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति की राह में रोड़ा बन गई थी, बाबू ने संसार को त्याग कर गुरू के चरणों में सन्यासी जीवन बिताने के बारे में सोचना शुरू कर दिया था.

(जारी)

Tuesday, July 20, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा - २

मेरे सिर के फोड़े और पिताजी की नई स्थिति के कारण मुझे हल्द्वानी भेज दिया गया, जो उन दिनों नैनीताल ज़िला प्रशासन का शीतकालीन कैम्प हुआ करता है. बाबू की पहली प्राथमिकता थी कि मेरे फोड़े का जल्द इलाज कराएं. एलोपैथी से ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ और अन्ततः आपरेशन का फ़ैसला किया. बाबू का एक चपरासी था जो बाद के दिनों में मेरा बहुत अंतरंग हो गया. उसने मुझे बाद में बताया कि मैं दर्द और मवाद की वजह से लगातार रोया करता था. आपरेशन के दौरान करीब आधा बेसिन भर मवाद निकला. ऊपर से आपरेशन के वक्त पाया गया कि इन्फ़ेक्शन भीतर कपाल के ऊपरी हिस्से तक फैल गया था. हर तीसरे दिन पट्टी बदली जाती थी और कपाल के उस हिस्से को खुरच कर साफ़ किया जाता था. उस वक्त मैं दर्द से बिलबिलाया करता था और अपनी बोली में डाक्टर को गालियां दिया करता था. घाव भरने में करीब एक माह लगा और धीरे धीरे समुचित देखभाल और खानपान के कारण मेरा स्वास्थ्य धीरे धीरे सुधरने लगा.

मुझे चार साल तक की आयु की कोई याद नहीं है. अलबत्ता जब मैं अपने पांचवें साल में था, अपने पिता के साथ हड़बाड़ गांव जाते हुए मुझे चीड़ से ढंके पहाड़ों, और उनके बीच से बहती धारा की साफ़ साफ़ याद है. यह धारा आगे जाकर बागेश्वर/कपकोट - पिण्डारी ग्लेशियर के मार्ग पर सरयू नदी में मिल जाया करती थी. मुझे धारा पर बनी पनचक्की की भी याद है. तब गांव के सुदूरतम बिन्दु तक की दूरी मेरे नन्हे कदमों को बहुत लम्बी लगी थी. बाद में जब मैं बारह साल बाद वहां गया तो मुझे ज्ञात हुआ कि वह दूरी फ़कत तीन सौ मीटर थी.

मेरे साथ खेलने वाले बमुश्किल ही कोई दोस्त थे. मेरे इकलौते साथियों में एक घरेलू नौकर था और एक चपरासी जिस के बारे में मैं पहले बता चुका हूं. मैं अक्सर इन्हीं से बातें किया करता. नैनीताल में तल्लीताल के प्राइमरी स्कूल में बी स्टैन्डर्ड (आज के हिसाब से यू. के. जी.) में अपने दाखिले की मुझे अच्छे से याद है. उसके बाद ही मैं अपनी उम्र के बच्चों के सम्पर्क में आया और उनके साथ खेलना शुरू कर सका. इसके अलावा शायद शाम को पिताजी के साथ भी मेरी बातचीत हुआ करती थी. अपनी जवानी के दिनों में वे एक मस्तमौला तबीयत के इन्सान थे. उनके दोस्त अक्सर हमारे घर आया करते. लोग बताते हैं कि मैं एक प्यारा सा बच्चा था सो मातृहीन होने की वजह से लोग मुझ पर बहुत दया दिखाया करते थे. मुझे बहुत साफ़ साफ़ याद है कि घर पर और बाद में दूसरी क्लास में एक बहुत कड़ियल किस्म का अध्यापक मुझे पढ़ाया करता था. मुझे उससे बहुत डर लगता था क्योंकि ज़रा सी भी ग़लती होने पर डंडे के इस्तेमाल से उस शख़्स को कोई ग़ुरेज़ नहीं हुआ करता था.

सौतेली मां का आना

१९३२ कि एक सुबह मैंने हमारे घर में एक मुटल्ली सी स्त्री को उपस्थित पाया. बाद में पिताजी ने मुझे उन्हें ईजा कह कर पुकारने की हिदायत दी. बाद में मुझे चपरासी के माध्यम से पता चला कि वह कालाढूंगी के चिकित्सा केन्द्र में मिडवाइफ़ की नौकरी किया करती थीं. अब मुझे अहसास होता है कि यह इन्सानी कमज़ोरियां थीं जिनकी वजह से पिताजी को अपने लिए एक जीवनसाथी लाने को विवश होना पड़ा था. उनकी बूढ़ी चाची भी कुछ दिनों बाद हमारे घर आ गईं. मां की बहन की तर्ज़ पर मेरी सौतेली मां को रामी मौसी भी कहा जाता था.

घर की और मेरी साफ़ सफ़ाई को लेकर रामी मौसी काफ़ी सचेत रहा करती थीं. वे कठोर अनुशासन में विश्वास रखती थीं जिसकी वजह से मुझ इकलौते बच्चे के घर और उसके आसपास मस्ती में भागते फिरते रहने पर काफ़ी हद तक रोक लग गई. मेरी शरारतों के लिए वे मुझे थप्पड़ जड़ने और पीटने मे ज़रा भी देरी नहीं किया करतीं. उनकी बूढ़ी चाची जिन्हें बुबू बुआ कहा जाता था, सुबह और शाम का खाना पकाया करती थीं; इस वजह से हमारे घर की भोजन व्यवस्था और व्यंजनों की विविधता में खासा फ़र्क़ आया. पिताजी से सम्बन्ध बनाने के पहले रामी मौसी खासी सामाजिक थीं और वे मुझे अक्सर अपने परिचितों के घर ले जाया करतीं. बमुश्किल आठवीं पास होने के कारण मुझ जैसे बढ़ते बच्चे के लिए वे आदर्श जीवननिर्देशिका तो नहीं ही थीं. पर जीवन ऐसे ही चलता गया जब तक कि मैंने दूसरी कक्षा पास कर गवर्नमेन्ट हाईस्कूल नैनीताल में तीसरी कक्षा में दाखिला पा लिया.

जीवन के प्रति बाबू की सोच में अचानक आया बदलाव

क्रमशः नवम्बर और अप्रैल में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के दफ़्तर के हल्द्वानी और नैनीताल स्थानान्तरित होने की आधिकारिक व्यवस्था के कारण १९३३ और १९३४ में पढ़ाई के लिए मुझे उन्हीं अध्यापक महोदय के घर शिफ़्ट कर दिया गया जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है. दिसम्बर से फ़रवरी की सर्दियों की छुट्टियों में मैं हल्द्वानी परिवार के साथ आ जाया करता. अप्रैल १९३३ में बाबू ने छुट्टी ली और रामी मौसी के साथ द्वाराहाट के नज़दीक द्रोणागिरि की यात्रा की. वहां वे कैलाश गिरि बाबा नामक एक सिन्धी सन्त की संगत में आए. वहां रहते हुए उन्हें करीब एक घन्टे तक असहनीय पेट दर्द हुआ. निकटतम अस्पताल काफ़ी दूर द्वाराहाट में था. सन्त ने जलती हुई लकड़ियों की धूनी में से एक चुटकी राख उन्हें खिलाई और बाबू का दर्द आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया. बाद में बाबा ने बाबू को देवी उपासना हेतु दीक्षित किया.

उसके बाद से नियमित रूप से हर सुबह शाम एक एक घन्टे के लिए बाबू ध्यान लगाया करते, श्लोक पढ़ा करते और बाकी तमाम अनुष्ठान किया करते. मई १९३४ में जब बाबू अपनी सालाना छुट्टी से वापस लौटे तो उनके भीतर आए आशातीत बदलाव ने मुझे अचरज से भर दिया.

(जारी - अगली क़िस्त का लिंक - http://kabaadkhaana.blogspot.in/2010/07/blog-post_21.html)

Monday, July 19, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा

वे मेरे सबसे बड़े दोस्त हैं. उम्र के हिसाब से. पिचासी साल के हैं. हल्द्वानी में मेरे ही मोहल्ले में रहते हैं. इन्डियन एक्सप्रेस के इतवार की क्रॉसवर्ड भरना उनका सबसे पुराना शगल है. यह हम दोनों का शगल बन गया है अब. और यही हमारी साप्ताहिक मुलाक़ातों का बहाना बनता है. ये कार्यक्रम मेरे घर के पीछे वाले कमरे में आयोजित होते हैं. इन मुलाकातों में छिपा कर बीयर की एक एक बोतल सूती जाती है और क्रॉसवर्ड पूरा करने के उपरान्त कोई दोएक घन्टे हमारी बातें चलती हैं.

मेरी मां आज भी नहीं समझ पातीं कि कैसा है यह बूढ़ा आदमी जो मेरे पिताजी की तबीयत के बारे में उस से कुछ भी नहीं पूछता और सीधा उसके बेटे के कमरे में घुस जाता है.

कुंवर साहब (यह कोई मूर्ख आभिजात्यपूर्ण उपाधि नहीं है, उनका सरनेम है. हमारे यहां पहाड़ों में कुंवर एक आम सरनेम होता है. उनकी उम्र के कारण सारा मोहल्ला उन्हें कुंवर साहब ही कहता आया है) बग़ैर चश्मे के अखबार पढ़ लेते हैं. पिछले साल तक एक दुर्घटना घटने से पहले तक वे हल्द्वानी के बेतरतीब ट्रैफ़िक में अपनी मॉपेड पर यहां वहां घूमते नज़र आ जाया करते थे. उक्त दुर्घटना उनके एक परिचित अन्दरूनी मोहल्ले में नगरपालिका द्वारा बिना किसी तरह का साइनबोर्ड लगाए खोदे गए विशाल गड्ढे की वजह से हुई थी. हादसा हो जाने के बाद उन्होंने कोई होहल्ला नहीं मचाया. खुद उठकर अस्पताल गए, भर्ती हुए, ऑपरेशन करवाया और अगली शाम को मुझे यह सूचना देने कन्धे पर प्लास्टर लगाए बाकायदा अपने झोले में इतवार का एक्सप्रेस और बीयर की बोतलें लिए हाज़िर थे.

उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है.

कोई दो साल पहले उन्होंने हैदराबाद में, जहां उनके पुत्र कार्यरत थे, अपने बचपन की गाथा नफ़ीस अंग्रेज़ी में लिख डाली थी. बताता चलूं कि उनके सारे बच्चे अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं. ख़ैर, मुझसे उन्होंने अपनी आत्मकथा के इस अंश का हिन्दी तर्ज़ुमा करने को कहा ताकि उनकी सेवानिवृत्त अविवाहित पुत्री, जिनके साथ वे हल्द्वानी में रहते हैं, अपने पिता के बचपन के बारे में जान सके (क्योंकि कुंवर साहब के मुताबिक उनकी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं) और उन्हें मुझ लौंडे टाइप इन्सान के साथ हफ़्ते में एक दफ़ा बीयर पीने की इजाज़त देने में हुज्जत न करे.

आज से आप को पढ़वाता हूं उनके बचपन की अनूठी और मार्मिक दास्तान:




मैं पिछले कई सालों से अपने बीते दिनों में वापस जाने की बारे में सोचता रहा हूं; ख़ासतौर पर लड़कपन से पहले के सालों में. अक्सर लोगों को कहता सुनता हूं कि बीता समय हमेशा सुखद होता है. इस पूर्वाग्रह का मूल मुझे इस बात में दिखाई देता है कि समय तो बीत ही चुका होता है चाहे वह सुखद रहा हो या कड़वा. चूंकि उसके बारे में सोचते हुए आप रोज़मर्रा की दिक्कतों और अनिश्चित भविष्य-संबंधी विचारों में नहीं फंसते, सो उस के बारे में सोचना अच्छा ही लगता है. मैं सत्रह साल का था और इन्टर फ़र्स्ट ईयर में साइंस का विद्यार्थी था, जब मेरे पिता ठाकुर दौलत सिंह ने मुझे मेरी पैतृक पृष्ठभूमि के बारे में बतलाया.

मेरे जन्म से पहले मेरे पिता जिन्हें मैं बाबू कहता था, अल्मोड़ा में जिलाधिकारी दफ़्तर में एक छोटेमोटे क्लर्क थे. उन्होंने नैनीताल के हम्फ़्री स्कूल (जिसे अब सी आर एस टी कॉलेज कहा जाता है) से १९१७ में हाईस्कूल पास किया था.

बाबू की शादी १९०५ में हो गई थी जब वे खुद नौ साल के थे. जैसा कि उन दिनों किसान परिवारों में होता था, उनकी पत्नी उन से तीन साल छोटी थीं और अनपढ़ थीं. इस तरह की शादियों के पीछे घरेलू कामकाज में अतिरिक्त सहायता पाने का उद्देश्य भर हुआ करता. चूंकि पहाड़ों में क्षत्रिय लोग जमींदार भी हुआ करते थे, ये पर्वतीय बालाएं जल्दी सुबह से लेकर देर रात के खाने तक काम के बोझ तले पिसती रहती थीं. इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मैं विश्वास कर सकता हूं कि विवाहित जोड़ों को साथ रहने का बहुत कम समय मिल पाता होगा. और मेरे पिता के साथ तो यह स्थिति और भी विकट रही होगी क्योंकि दोनों के बौद्धिक स्तरों में बड़ा फ़र्क़ था. इसके अलावा कम वेतन पाने वाले कर्मचारी के लिए अपनी पत्नी को गांव-घर के कर्तव्यों के चलते अपने साथ रख पाना संभव नहीं होता था. वे आपस में तभी मिल पाते होंगे जब पति छुट्टी पर घर आता होगा.

अल्मोड़ा शहर के उत्तर में अवस्थित पाताल देवी मन्दिर में बाबू हर शाम को जाया करते थे. कुछ दिनों बाद उन्होंने कुछ ऐसा किया कि पड़ोस में रहने वाली एक युवा स्त्री भी उसी नियत समय पर मन्दिर पहुंचने लगी. ऐसा लगता है कि बाबू धीरे-धीरे उस स्त्री के मोहपाश में बंधते जा रहे थे. उन्हें यह भी पता चल चुका था कि वह प्रथम विश्वयुद्ध की एक युद्धविधवा नेपाली गोरखा थी. वक्त के साथ दोनों के बीच प्रेम पनपा और बह स्त्री अपना ससुराल छोड़कर बाबू के साथ रहने लगी.

अल्मोड़ा तब एक छोटी बसासत था. गुरखा राइफ़ल्स की एक बटालियन का सेन्टर होने की वजह से २०वीं सदी की शुरुआत से ही यहां गुरखों की अच्छी खासी आबादी रहने लगी थी. उक्त घटना शहर में चर्चा का विषय बन गई और पूरे गुरखा वंश की खा़स तौर पर उस स्त्री के ससुरालियों और उसके आर्मी अफ़सर भाई की साख़ में बट्टा लगा गई. पूरा कुनबा क्रोध में जल उठा और दोनों की जान ले लेने की योजनाएं बनाने लगा. भाग्यवश बाबू ज़िला प्रशासन में आबकारी कर्मचारी थे और अपने वरिष्ठ अधिकारियों की कृपा से अपना तबादला अल्मोड़ा से नैनीताल करवा पाने में कामयाब हो गए. वहां उनकी पोस्टिंग डी. एम कार्यालय में लाइसेंस क्लर्क के पद पर हुई.

तल्लीताल बाज़ार में एक मकान किराये पर लिया गया. दो छोटे कमरे थे और उन से लगी रसोई. घर में कोई छज्जा नहीं था न ही हवा के आने जाने का कोई प्रबन्ध. नैनीताल बाज़ार के मकान एक दूसरे से बहुत सटे हुए थे और विशेषतः गर्भवान स्त्रियों के टहलने वगैरह की जगह तक नहीं होती थी. वहीं दूसरी तरफ़ अल्मोड़ा वाला घर खुला खुला और प्रदूषणहीन था.

आख़िरकार २५ अगस्त १९२५ की रात को मेरा जन्म हुआ जब बाहर मूसलाधार बारिश थी. मेरी मां द्वारा एक लड़के को जन्म दिये जाने की प्रसन्नता बहुत संक्षिप्त रही. बहुत जल्दी मेरी मां को भीषण बुख़ार चढ़ा - इसकी वजह घर की अस्वास्थ्यकर नमीभरी हवा रही होगी जिसके भीतर मानसून के दौरान सूरज बमुश्किल आया करता था. जन्म देने के उपरान्त ज़रूरी सेवा टहल के अभाव और लगातार बिस्तर गीला करने वाले नवजात शिशु भी कारण रहे होंगे. इन सब वजहों से उसका स्वास्थ्य बहुत जल्दी बहुत ज़्यादा बिगड़ गया. मुझे बाद में पता चला कि दो माह के भीतर ही उसे टीबी की सेकेन्ड स्टेज रोगी बताया गया. इन हालातों में मेरा पालन पोषण गाय के दूध से हो रहा था. अन्ततः अक्टूबर १९२५ में बाबू ने हमें बागेश्वर से नौ मील उत्तर-पूर्व स्थित बुआ के गांव कांडा शिफ़्ट कर दिया. यह गांव चीड़ के पेड़ों से ढंका हुआ था. डाक्टरी सलाह के मुताबिक अभी १९७० के दशक तक यह विश्वास किया जाता था कि दवा के अलावा चीड़ के जंगल की निकटता टीबी से निबटने का अच्छा संयोजन होता था. सन पचास के दशक तक तो यह आलम था कि टीबी को जानलेवा बीमारी माना जाता था जैसा आज कैंसर है.

बुआ ने मुझे बाद में बताया कि मां की हालत लगातार और जल्दी-जल्दी बिगड़ती गई. उसकी हालत इस कदर दयनीय थी कि उसे मुझे अपनी निगाहों के आगे देखना भी बर्दाश्त न था और वह झिड़कते हुए आस पास के लोगों से मुझे दूर करने को कहा करती थी. जैसी कि आशंका थी उसकी मौत अन्ततं हो गई. तब मैं छः या सात माह का था. संक्षेप में एक प्रेमप्रसंग का यह नाटकीय अन्त था जिसने मुझे तकरीबन अनाथ बच्चा बना कर जीवन से लड़ने को अकेला छोड़ दिया था.

मैंने अक्सर लोगों को कहते सुना था कि दुर्भाग्य कभी भी अकेला नहीं आता. मेरे साथ भी यही हुआ. मुझे बाद में बताया गया कि मां की मौत के करीब एक माह बाद मुझे मेरे पैतृक गांव हड़बाड़ मेरी दादी के पास छोड़ दिया गया. मैं बहुत कमज़ोर बच्चा था और मां के दूध के अभाव और ठीकठाक परवरिश के बिना मेरी हालत बहुत दयनीय थी. मुझे लगातार पेचिश तो रहती ही थी मुझे प्रोलैप्स्ड रैक्टम की शिकायत हो गई जिसके कारण टट्टी करते हुए मेरे गुदाद्वार की भीतरी पेशियां बाहर आ जाया करती थीं. मैं दर्द से चिल्लाया करता था क्योंकि मैं उन्हें अपने आप से न तो बाहर खींच सकता था न वापस भीतर कर सकता था. यह काम बड़ी दिक्कत के साथ मेरी दादी को करना पड़ता था. यह बीमारी एक साल तक बनी रही.

इस के साथ ही मेरे सिर पर एक फोड़ा हो गया. स्थानीय स्तर पर उपलब्ध उपचार के बावजूद उसका आकार बढ़ता ही गया.

जैसा मैंने पहले भी बताया था बाबू डी एम नैनीताल के दफ़्तर में कार्यरत थे. तत्कालीन कुमाऊं - गढ़वाल के डिप्टी कमिश्नर जो एक वरिष्ठ अंग्रेज़ आई सी एस थे, मेरे पिताजी की कार्यक्षमता और कुशलता से प्रभावित हुए और आगे जा कर उन्हें पसन्द भी करने लगे.

इन्हीं दिनों डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, नैनीताल के मुख्य अधिशासी यानी सेक्रेटरी का पद तत्कालीन सेक्रेटरी की मृत्यु के कारण रिक्त हो गया. १९५० के शुरुआती सालों तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ज़िले भर की शिक्षा, चिकित्सा व निर्माण सेवाओं के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार होता था. सरकार चाहती थी कि उक्त रिक्त पद को तुरन्त भरा जाए. डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्यों के मतदान द्वारा इस पद पर नियुक्ति होती थी.

डी. एम. नैनीताल की सिफ़ारिश पर बाबू को इस पद के एक प्रत्याशी के तौर पर नामित किया गया, बावजूद इस तथ्य के कि वे महज़ हाईस्कूल पास थे. स्व. पं. गोविन्द बल्लभ पंत तब बोर्ड के चेयरमैन थे. उन्होंने नैनीताल के एक वरिष्ठ अधिवक्ता पं. जी. डी. मासीवाल का नाम प्रस्तावित किया. पं. गोविन्द बल्लभ पंत बाद में संयुक्त प्रान्त के प्रथम मुख्यमंत्री, और फिर नेहरू जी की केन्द्र सरकार में गृह मन्त्री बने. मृत्योपरान्त उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सद्स्यों को सरकार द्वारा प्रायोजित किये जाते थे. जो भी हो मेरे पिताजी नैनीताल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सेक्रेटरी निर्वाचित हो गए.

१९२७ के शुरुआती महीनों में उन्होंने पदभार ग्रहण किया. परिणामवश उनकी तनख्वाह में अचानक डेढ़ सौ रुपए की बढ़ोत्तरी हो गई. अब वे आराम से घर पर एक नौकर रख सकते थे. दफ़्तर में उनका अपना चपरासी भी था और उन दिनों चपरासी खुशी-खुशी अपने साहब के घरेलू कामों में हिस्सा बंटा लिया करते थे. क्लर्कों की तनख्वाह २० से २५ रुपए माहवार हुआ करती थी और दोएक रुपए में नौकर मिल जाते थे. १९४७ में खुद मैंने तीन रुपए पर नौकर रखा था.

(जारी - अगली क़िस्त का लिंक  - http://kabaadkhaana.blogspot.in/2010/07/blog-post_20.html)

Sunday, July 18, 2010

तोमाके चाई

आधुनिक बांग्ला संगीतकारों में कबीर सुमन (पहले सुमन चटर्जी के नाम से जाने जाते थे) की एक ख़ास पहचान है. १९४९ में जन्मे सुमन गायक और गीतकार होने के साथ साथ संगीतकार, कवि, पत्रकार, टीवी एंकर और अभिनेता भी हैं. इसके अलावा वे फ़िलहाल कलकत्ता की जादवपुर सीट से तृणमूल पार्टी के सांसद भी हैं.



अस्सी की दहाई में अपने विदेश प्रवास के दौरान पीट सीगर, माया एन्जेलो और एर्नेस्तो कार्देनाल जैसी विश्वविख्यात हस्तियों के सम्पर्क में आने के बाद सुमन को अपने संगीत को जनोन्मुखी बनाने की प्रेरणा मिली और १९९२ में उन्होंने अपना पहला सोलो अल्बम तोमाके चाई रिलीज़ किया. इस अल्बम ने समूचे बांग्ला संगीत जगत में तहलका मचा दिया. तब से सुमन अब तक दर्ज़न भर से ज़्यादा अल्बम निकाल चुके हैं.

सुमन के संगीत की एक बानगी पेश करता हूं. उन के पहले अल्बम का टाइटिल नम्बर तोमाके चाई सुनिये:



सुमन का एक मार्मिक गीत कुछ दिन पहले कबाड़ी इरफ़ान ने अपने ब्लॉग पर लगाया था.

Saturday, July 17, 2010

मकड़ियों के जालों से भरे कोने में रखा यह जो आईना है



अन्ना अख्मातोवा की कविता
मार्च का मर्सिया
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


मेरे पास अतीत के सारे खजाने हैं
चाहत और जरूरत से कहीं ज्यादा
यह तुम भी जानते हो और मैं भी
कि द्रोही स्मृति
इनसे आधी दूर तलक भी जाने का नहीं देती है अवकाश.

सुनहले गुम्बद वाला
एक मँझोले कद का थोड़ा तिरछा चर्च
कौओं का कर्कश कोरस
एक रेलगाड़ी की सीटी
रूखी आकृति वाला एक दुबला पतला भोजवृक्ष
गोया  कि जेल से छूटकर भागा हो अभी - अभी.
बाइबिल में वर्णित ऐतिहासिक आबनूसों की
मध्यरात्रिकालीन एक खुफिया बैठक
और किसी के सपनों से बाहर आती
मंथर गति वाली एक छोटी नाव
धीरे - धीरे - धीरे डूबती हुई.

खेतों  खलिहानों में ठंड बुरकता हुआ जाड़ा
अलसाकर पसर गया है यहाँ
बनाता हुआ एक अलंघ्य - अभेद्य बाड़
जिसने दुनिया को घेर दिया है क्षितिज तक.

मैं सोचती थी हमारे चले जाने के बाद
कुछ नहीं , कुछ भी नहीं रह गया है शेष
तब यहाँ भटकता हुआ यह कौन है
जो बार - बार
पोर्च में आ - आकर पुकारता है हमारा नाम ?
धुँधलाये शीशों के पार धँसी हुई
यह किसकी  मुखाकृति है ?
टहनी की तरह हिलता - डोलता यह कौन - सा पर्चा है
कैसा इश्तेहार ?

मकड़ियों के जालों से भरे कोने में रखा
यह जो आईना है
उसमें नाचता है धूप में झुलसा एक चीथड़ा..
--मानो हर सवाल का जवाब .

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चित्र: ओजान ओज्कान / साभार / गूगल सर्च

Wednesday, July 14, 2010

हेम पांडे को आख़िरी सलाम !

क्या इस देश में असहमति की आवाज़ों को ऐसे ही कुचला जाता रहेगा? सिर्फ़ बत्तीस साल की उम्र थी हेम पांडे की. आंध्र प्रदेश पुलिस ने दो जुलाई को भाकपा (माओवादी) के पोलिट ब्यूरो सदस्य आज़ाद के साथ फर्जी मुठभेड़ में उसका भी क़त्ल कर डाला. आज़ाद और हेम को नागपुर से उठाकर क़रीब तीन सौ किलोमीटर दूर आदिलाबाद में मारा गया. हेम वामपंथी पत्रकार था. वो ऑपरेशन ग्रीन हंट पर स्टोरी करने के इरादे से दांतेवाड़ा जा रहा था. हो सकता है कि वो माओवादी पार्टी का समर्थक हो, फिर भी उसे मारने का हक़ किसी को नहीं था. फर्जी मुठभेड़ में किसी को भी मारने का हक़ किसी को नहीं!
शांत व्यक्तित्व वाला हेम उत्तराखंड के जन आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहा. कुमाऊं विश्वविद्यालय के पिथौरागढ़ कॉलेज में उसने दो बार छात्र संघ का चुनाव भी लड़ा. अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद उसने अल्मोड़ा कैंपस में पीएचडी शुरू की. वो अपनी जीवन साथी बबीता के साथ स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा. बाद में दिल्ली आकर भी उसने अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए लिखना ज़ारी रखा. वो ऐसे विषयों पर लिख रहा था. जिन पर लिखने के बारे में आज के ज़्यादातर नौजवान पत्रकार सोचते भी नहीं हैं. उसके लेखन में आम आदमी की भूख दिखती है. अपनी ज़मीन से बेदखल किए जा रहे लोगों का संघर्ष दिखता है. सबसे बड़ी बात सामाजिक बराबरी का एक सपना चमकता है.
हेम की हत्या की जितनी भी निंदा की जाए कम है. उसके हत्यारों को सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए.

मिलान कुंदेरा के ( निजी ) शब्दकोश से कुछ शब्द


                                 


मिलान कुंदेरा की किताब 'द आर्ट आफ़ द नावेल' में एक अध्याय है -'सिक्स्टी -थ्री वर्डस'।. यह एक कथाकार के निजी शब्दकोश जैसा है। इसमें शामिल किए गए तिरसठ शब्द वे शब्द हैं जो उसकी कथाकृतियों में प्राय: व्यवहृत होते रहे हैं या फिर इन्हें वे शब्द कहा जा सकता है जिनके माध्यम से कृति को समझा जा सकता है। दुनिया भर के तमाम शब्दकोशों के होते हुए इसकी जरूरत क्यों आन पड़ी? इस 'शब्दकोश' की भूमिका या पूर्वकथन में लेखक ने अनुवाद और अनुवादकों को लेकर कुछ बातें कही हैं :

" १९६८ और ६९ में 'द जोक' का पश्चिम की सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ। आश्चर्य तो तब हुआ जब फ्रांस के एक अनुवादक ने मेरी शैली की सजावट करते हुए उपन्यास का पुनर्लेखन कर दिया। इंगलैंड में प्रकाशक ने बहुत से महत्वपूर्णस और जरूरी परिच्छेदों को उड़ा दिया,और एक तरह से यह दोबारा लिख दिया गया। एक अन्य देश में मैं एक ऐसे अनुवादक से मिला जिसे चेक भाषा का एक भी शब्द नहीं आता था। जब मैंने यह पूछा - 'तो तुमने इसका अनुवाद कैसे किया?' क्या ही विलक्षण और मासूम उत्तर था उसका - 'दिल से' और उसने अपने बटुए से मेरी तस्वीर निकाल कर दिखला दी। वह व्यक्ति इतना प्रेमिल और सौहार्द्रपूर्ण था कि मुझे लगभग विश्वास करना पड़ा कि हृदय की टेलीपैथी या इसी तरह के किसी दूसरे उपाय से अनुवाद भी किया जा सकता है।"

कुंदेरा आगे बताते है कि इसी तरह और भी कई बातें हुईं और मुझे अपनी ही कृतियों के अनुवाद पढ़कर यह पता लगाना पड़ा कि अब वे वास्तव में कैसी हैं तथा उनकी काया में अब कितना मेरा लिखा / कहा हुआ विद्यमान है। यह एक तरह से जंगली भेड़ों के झुंड में से अपनी वाली भेड़ को खोज निकालने जैसा काम है। इस तरह के काम में गड़रिया तो परेशान होता है लेकिन दूसरे लोग हँसी उड़ाते हैं। आइए उन्हीं के शब्दों इस बात का अगला सिरा देखते हैं :

" मुझे आशंका है इस गड़रिए की 'हुनरमंदी' को देखते हुए मेरे मित्र और 'ला देबात' पत्रिका के संपादक पियरे नोरा ने बहुत उदार सलाह देते कहा कि - देखो, कुछ समय के लिए तुम इस यंत्रणा को भूल जाओ और मेरे लिए  भी लिखना फिलहाल मुल्तवी कर दो। इन अनुवादों ने तुम्हारे ऊपर एक तरह से यह दबाव बनाया है कि तुम अपने लिखे एक - एक शब्द के बारे में गंभीरता से सोचो। अपने लिए एक निजी शब्दकोश का निर्माण करो। अपने उपन्यासों के लिए शब्दकोश बनाओ। इसमें अपने बीज शब्दों, समस्यामूलक शब्दों और प्यारे शब्दों को स्थान दो। तो लिजिए ये रहे...."

मिलान कुंदेरा का यह शब्दकोश कोई आम शब्दकोश नहीं है। यह एक लेखक की संवेदना का संवहन - संचरण करने वाले माध्यम / प्रतीक की एक पड़ताल और परख है। इसमें शब्द तो हैं लेकिन परंपरागत अर्थों में अर्थ नहीं हैं। यह एक तरह से एक लेखक की उन चाभियों का गुच्छा है जिससे वह कथानक और चरित्रों की रहस्यमयी दुनिया के कपाटों पर लगे ताले खोलने का उपक्रम करता है। तो , आइए आज इन तिरसठ शब्दों में से चुने हुए केवल तीन शब्द और उनके बाबत लिखे गए अर्थों को देखते हैं:

* हैट ( Hat )  : जादुई वस्तु। मैं एक सपना याद करता हूँ : दसेक साल का एक लड़का काला हैट पहले तालाब में कूद जाता है। लोग उस डूबते हुए को बचाते हैं। हैट अब भी उसके सिर पर शोभायमान है।

** हैटस्टैंड ( Hatstand ) : जादुई वस्तु। 'द जोक ' में लुडविक को चिन्ता होती है कि कहीं हेलेना ने स्वयं को खत्म तो नहीं कर लिया है। इसी दौरान उसे एक हैटस्टैंड दिखाई दे जाता है। " तीन पैरों पर टिकी हुई धातु की एक राड और धतु की ही तीन शाखाओं में विभक्त। चूँकि उस पर कोट आदि नहीं टँगे रहते हैं अत: यह एक इंसान की तरह दिखाई देता है - अनाथ इंसान की तरह। यह धातुई नग्नता है ,फूहड़पन और उत्सुकता में बाँहे पसारे।" " समर्पण करने को तैयार एक दुर्बल सैनिक की तरह"।  मैंने 'द जोक' के आवरण पर हैटस्टैंड लगाने की आलोचना की थी।

*** अक्षर ( Letters ) : वे पुस्तकों में दिन - प्रतिदिन छोटे और लगातार छोटे होते जा रहे हैं। मैं शनै: - शनै: साहित्य की मृत्यु की कल्पना करता हूँ - किसी के संज्ञान में आए बगैर। टंकण सिकुड़ता जा रहा है जब तक कि वह अदृश्य न हो जाय।
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मिलान कुंदेरा जब अपने शब्दकोश के निर्माण के लगभग बीचोबीच में थे तब उन्होंने उनचासवें स्थान पर एक एंट्री की है ; आक्तावियो। यह न तो बीज शब्द है , न समस्यामूलक शब्द बल्कि यह वैसा ही शब्द है जिसे भूमिका में 'प्यारे शब्द' कहा गया है। इस प्यारे शब्द और कुछ अन्य शब्दों के बारे में आगे..फिर.. ।

Saturday, July 10, 2010

वेदनाओं के रंग में हैं प्रेम की गहराईयां

जीवनानुभव की दशा और दिशा ही रचनात्मकता के मापदंड को नई ऊंचाई के साथ एक गहराई प्रदान करती है। सिर्फ व्यक्ति की चेतना ही नहीं बल्कि अंतर्द्वंद्व की मुकम्मल तस्वीर शब्दों के जरिए कविता का रूप लेती है। पवन करण की कवितायें ऐसी ही भट्ठी में तपकर सामने आती हैं जिसका विस्तृत फलक नए आयाम स्थापित करने में सफल होता है।

कविता संग्रह ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’ की कविताओं में जो सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक सोच दिखाई देती है वह वर्तमान के विरले कवियों में दिखाई देता है। ‘चांद के बारे में’ कविता में पवन करण लिखते हैं : ‘विदा लेते हुए हमेशा की तरह कहेगा/हमारी इस फाकामस्ती को जो लोग आवारागर्दी कहते हैं/ दरअसल वे जीवन के बारे में नहीं समझते कुछ भी/उन्हें नहीं पता वास्तविकताएं। इसके जरिए न सिर्फ उन्होंने चांद की बातें रखीं है बल्कि यह उनकी भी कहानी है जो हर मां के लिए बस एक ‘चांद’ होता है लेकिन घर से बाहर निकलते ही उनकी कहानी कुछ और हो जाती है। मजदूरों के दर्द को बयां करना मामूली काम नहीं होता लेकिन ‘साइकिल’ उसके बारे में लोगों से काफी कुछ कहना चाहती हैं जिनमें मुंह में जबान नहीं है, शब्द नहीं है। चाहे ‘साइकिल’ हो या ‘गेहूं’ हाशिए से बाहर रह रहे लोगों के दर्द को शब्दों में पिरोकर एक नई शैली हठात ही पाठकों को उद्वेलित होने के लिए मजबूर करती है। ‘स्कूटर’ सामाजिक परिवेश में ईर्ष्या की अभिव्यक्ति का नया मापदंड है, तभी तो वे कहते हैं, ‘हमारे यहां स्कूटर आने की बधाई देने की जगह/उन्होंने हमें स्कूटर के बारे में हिदायतें दीं/जहां भी खड़ा करो, ताला लगाकर खड़ा करना/चोरी चला गया तो दुबारा ले भी नहीं पाआ॓गे/और बीमा वाले भी पूरा पैसा थोड़े ही देते हैं।’ सभी कविताएं समझ के विस्तार की मुकम्मल तस्वीर हैं। ‘रिश्तेदार’, ‘चौथा खंभा’, ‘मकान’ जहां सामाजिक परिवेश की सूक्ष्म वेदनाओं को परिलक्षित करता है वहीं, ‘ये रास्ता जहां पहुंचता है’, ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान लड़के’ सांप्रदायिकता की उन काले अध्यायों का रेखाचित्र सामने लाने का काम करता है जिसके लाल रंग से देश की धरती रंजित होती रही है।

पवन करण की कविताओं में सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक वेदनाओं के रंग की नहीं दिखाई देते बल्कि प्रेम और इससे इतर दिल की गहराईयां भी शब्दों के जरिए सामने आती हैं। वह लिखते हैं, ‘क्यों लौट रही हो तुम अब जबकि/मेरे पास गुंजाइश ही नहीं कोई/हालांकि प्रेम कभी रहा है तो अब भी होगा/प्रेम बाकी है अब भी/मगर एक चेहरे में इस बीच खोता गया हूं मैं/जैसे कभी खो गया था बाजार में।’ ‘डाकिया’, ‘जनरल डायर और मैं’, ‘मुझ नातवां के बारे में : पांच प्रेम कविताएं’, ‘सरकारी पखाना घर : तीन कविताएं’ अनुभव को एक व्यापक फलक देने का काम करती हैं। ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’ आम लोगों के दर्द और उनकी करूणा को सामने लाने में सक्षम हैं क्योंकि अस्पताल तो अधिकतर लोग जाते हैं लेकिन वहां की बारीकियों पर किसी की नजर नहीं जाती है।

स्वतंत्र तौर से सोचने और उसे लिख डालने का साहस मायने रखता है क्योंकि बाजार के साथ-साथ राजनीति हर किसी की सोच को इस कदर प्रभावित करती है जिससे बाहर निकलकर एक कवि ही अपनी मनोदशा को सामने रख सकता है। पवन करण की कविताएं सिर्फ शब्दों का घालमेल नहीं है बल्कि आम लोगों की जुबानी और आम शब्दों की कहानी है। अधिकतर कविताओं में कोई खास भी नहीं है, मतलब न तो शब्द और न ही पात्र खास हैं, सभी सामान्य हैं जो हमारे इर्द-गिर्द हैं, लेकिन उनकी आ॓र दृष्टिगत होने का साहस हममें नहीं है। सामान्य दृष्टिसीमा से परे इतिहास के गर्त को उड़ेलते हुए वर्तमान की परत को सामने लाने का काम पवन करण ने अपनी कविताओं में किया है। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कथात्मक विन्यास के कारण कई कविताओं की लंबाई थोड़ी वर्णात्मक हो गई है, हालांकि पवन करण की कविताओं की यही तो खासियत है जिससे  अंतर्द्वंद्व की उमड़ती-घुमड़ती दुनिया शब्दों में पिरोकर सामने आती है.

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किताब – अस्पताल के बाहर टेलीफोन (कविता संग्रह) / कवि – पवन करण
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली / मूल्य – 150 रुपए / पृष्ठ - 128

Friday, July 9, 2010

कैसी आश्चर्यजनक कथा है यह



तुर्की कवि ओरहान वेली (१९१४ - १९५०) की एक कविता का अनुवाद आप यहाँ पढ़ चुके हैं।उनका संक्षिप्त - सा परिचय और उन्हीं की एक महत्वपूर्ण आत्मकथात्मक / आत्मपरिचयात्मक कविता 'कर्मनाशा' पर उपलब्ध है। ओरहान वेली ने अपने आसपास की दुनिया से अपनी कविताओं के सिरे और सूत्र तलाशे हैं । हम सब जिन चीजों को प्राय: मामूली, साधारण , तुच्छ और महत्वहीन समझ कर छोड़ दिया करते हैं  वह एक कवि की निगाह में जरूरी और बड़ी चीजों का दर्जा हासिल कर लेती हैं क्योंकि वह मामूलीपन और साधारणता में छिपे अदृश्य को शब्दों के माध्यम से दृश्यमान कर उनके होने को बाकी अन्यान्य चीजों के होने के साथ जोड़ देता है। ओरहान वेली की कविताओं की साधारणता , शब्दों की मितव्ययिता , कहन के अंदाज का खिलड़ंदापन और ओढ़ी हुई संजीदगी से बचाव उन्हें एक अलग  तरीके के कवि के रूप में देखे जाने की आवश्यकता को बताती है। खैर, अब कविताओं को ही बोलने दें , तो आइए देखते पढ़ते हैं ये दो कवितायें :
दो कवितायें : ओरहान वेली
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

०१-
व्यस्तता

सोचती हैं सुंदर स्त्रियाँ
कि उन्ही के बारे में
लिखता हूँ मैं अपनी कवितायें।

मैं परेशान हो जाता हूँ
यह  सब जान कर।

मुझे पता है
मैं इसलिए लिखता हूँ
ताकि रख सकूँ खुद को व्यस्त।

०२-
अली रज़ा और अहमद की कथा

कैसी आश्चर्यजनक कथा है यह
अली रज़ा और अहमद की!

एक रहता है गाँव में
और दूसरा शहर में।

हर सुबह
अली रज़ा जाता है
गाँव से शहर की ओर
और अहमद
शहर से गाँव की तरफ।

Thursday, July 8, 2010

सब कुछ अचानक !


अचानक
( ओरहान वेली की कविता )

सब कुछ होता है अचानक
अचानक उतरता है धरती पर उजाला
अचानक उभर आता है आसमान
अचानक मिट्टी के भीतर से
उग आता है पानी का एक सोता।

अचानक दिखाई दे जाती है कोई बेल
फूट आती हैं कलियाँ अचानक
अचानक प्रकट हो जाते हैं फल।

अचानक !
अचानक !
सब कुछ अचानक !

अचानक लड़कियाँ ढेर सारी 
लड़के अचानक बहुतेरे
- सड़कें
- बंजर
- बिल्लियाँ
- लोगबाग.....

और अचानक
- प्रेम
अचानक
- खुशी
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* तुर्की कवि ओरहान वेली (१९१४ - १९५०) की कुछ और कवितायें और परिचय जल्द ही।
* चित्र : वेली की मूर्ति ( इस्तांबुल) / साभार : गूगल सर्च
* अनुवादक : सिद्धेश्वर सिंह