Saturday, October 24, 2015

लक्ष्मण के जन्मदिन पर रीपोस्ट


जब डेविड लो ने एक अखबार के लिए कार्टून बनाना शुरू किया था तब १९११ का साल चल रहा था. अगले कुछ सालों में दुनिया ने हिटलर को देखना था और मुसोलिनी और स्टालिन को भी. अपने पूरे करियर में अपने बनाए एक विख्यात चरित्र, कर्नल बिम्प का इस्तेमाल डेविड लो ने इन तानाशाहों का क्रूरतापूर्वक मखौल उड़ाने में ज़रा भी कोताही नहीं बरती. लोव के कार्टूनों में आने वाले पात्र और उनके विवरण ही पूरी बात कह जाते थे अक्सर बिना किसी कैप्शन या वार्तालाप के. न्यूज़ीलैंड में जन्मे और बाद में ब्रिटेन में बस गए विश्वविख्यात कार्टूनिस्ट इन्हीं सर डेविड लो को अपना गुरु मानते थे आर. के. लक्ष्मण.

सर डेविड लो

लेकिन कभी आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों को बिना उनके टैक्स्ट के समझने की कोशिश कीजिये. यह प्रयोग आपको हैरत में डाल सकता है क्योंकि उनमें से बहुत सारे आपकी समझ में आएँगे ही नहीं. तो क्या इसे लक्ष्मण के कार्टूनों का दोष माना जाना चाहिए? कतई नहीं. हर कलाकार की अपनी शैली होती है और उसकी महानता इसी में मानी जाती है कि वह अपने उस्तादों से आगे निकल जाए. यही कहानी लक्ष्मण और उनके कार्टूनों की भी है.

आर. के. लक्ष्मण का सबसे मशहूर चरित्र यानी द कॉमन मैन हमेशा खामोश रहने वाला लेकिन मन ही मन सब कुछ जानने-समझने वाला एक बुढ़ा चुका ठेठ मध्यवर्गीय आदमी है, जो अपनी वेशभूषा और बॉडी लैंग्वेज से ही भारत के आम आदमी लगता है. उसकी निगाह में मिर्ज़ा ग़ालिब का फकीरों की तरह भेस धारे तमाशा-ए-अहले-करम देखते चले जाने की निस्पृहता का बुद्धिमत्तापूर्ण तेज है. उसकी निर्विकार और तटस्थ निगाह में हमारे महागणतन्त्र में नित्य घटने वाले हर सामाजिक-राजनैतिक तमाशे को देखते हुए कभी भी मुख्य मंच पर कब्ज़ा जमाने की किसी भी तरह की इच्छा नहीं दिखती. बोलने का काम या तो कार्टून में आने वाले बाकी पात्रों का होता है या उनकी अतिमुखर पत्नी का जिनके एक हाथ में अक्सर झाड़ू होता है और जुबान पर दुनिया की हर किसी बात पर कहने के लिए कोई न कोई बात.

एक बढ़िया कार्टूनिस्ट अगर शब्दों के साथ भी माहिर हो तो उसे बड़ा माना जाता है. इस मायने में लक्ष्मण सचमुच एक बहुत बड़े कार्टूनिस्ट थे. शब्द जैसे उनकी रेखाओं का पीछा करते हुए उन तक पहुंचा करते थे.


लक्ष्मण की बड़ी खासियत थी बेहतरीन कैरीकेचर बनाना ख़ास तौर पर राजनेताओं के कैरीकेचर. इंदिरा गांधी उनके कार्टूनों में एक लम्बी तीखी नाक सबसे पहले होती थीं, और कुछ भी बाद में. नेहरू उनके यहाँ कभी नेहरू टोपी में नज़र नहीं आये, उन्हें हमेशा गंजी खोपड़ी के साथ ही दिखाया गया. राजीव गांधी एक मुटाते हुए रईसजादे अधिक लगते रहे बजाय हमारे प्रधान मंत्री के. पीवी नरसिम्हाराव के अनंत तक पसरे होंठ और उनींदी आँखें और लालू यादव के कानों पर उगे बाल बनाना उन्हें बेहद पसंद रहा. एक साक्षात्कार में उन्होंने बेबाकी से बताया भी था कि उनके विचार से इन दोनों महानुभावों की रचना भगवान में किसी कार्टूनिस्ट के लिए ही की थी. किसी के रूप या डीलडौल का मज़ाक उड़ाना उनका उद्देश्य कभी नहीं होता था. यह एक जन्मजात कार्टूनिस्ट का बालसुलभ खिलंदड़ा स्वभाव था जिसने उन्हें कुछ अपवादों को छोड़ तमाम राजनेताओं का चहेता कलाकार बनाया. शायद वे हमारे देश के इकलौते कार्टूनिस्ट थे जिनसे नेतागण अपने कार्टून बनवाने की सिफारिश करवाया करते थे.



किसी अखबार के मुख्पन्ने पर कार्टूनिस्ट को जितनी जगह मिलती है उसे दिमाग में रखा जाए तो आपको समझ में आता है कि लक्ष्मण की पैनी निगाह किसी भी दृश्य के सबसे महत्वपूर्ण और स्थाई विवरण पर ही जाकर ठहरती थी. अगर उनके कार्टून में कहीं एक गड्ढा खुदा हुआ दिखाया गया है तो उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे वह स्थाई रूप से खुदा हुआ हो. चौराहे पर खड़ा टैफिक पुलिस का सिपाही अगर तिनका चबाता हुआ दीखता है तो वह समूची पुलिस व्यवस्था का एक सम्पूर्ण मुहाविरा होता है. बेख़ौफ़ आवारा कुत्ता, अतीव बुद्धिमान भिखारी, मूर्ख अफसरान, फटा हुआ तिरपाल, बिसराया गया स्मारक या टेढ़ा लैम्पपोस्ट और भी अनगिनत अन्य छवियाँ जो समूचे भारत में बच्चों के खेलों की तरह हर जगह एक सी होती हैं लक्ष्मण के कार्टूनों में जीवन भर दिया करते थे. और उनके बनाए कव्वे उनकी तो क्या ही बात होती थी. 
  

एक कार्टूनिस्ट के तौर पर लक्ष्मण की सबसे बड़ी ताकत था उनका अदम्य साहस. अपनी निगाह से गुजरने वाले हर अन्याय को उन्होंने बिना किसी खौफ़ के अपने खामोश रहने वाले कॉमन मैन के ज़रिये आवाज़ दी. चाहे अपने पास ढेर सारे मंत्रालय रखे रहने में नेहरू का आत्ममोह रहा हो, चाहे १९६५ के युद्ध की अमानवीयता, चाहे लालूप्रसाद यादव का चारा घोटाला रहा हो, चाहे मोरारजी देसाई की कार्टून तक पर बैन लगा देने जैसी सनकें लक्ष्मण ने हरेक अन्याय को दर्ज किया. यह उनके कलाकार की ताकत थी कि इमरजेंसी के दौरान वे अकेले इंदिरा गांधी से मिलकर अपना विरोध करने गए थे कि उनके कार्टूनों पर अनावश्यक सेंसरशिप थोपी जा रही थी.

इस गणतंत्र दिवस के दिन यानी २६ जनवरी को ९४ साल की आयु में दिवंगत हुए रासीपुरम कृष्णास्वामी लक्ष्मण का मानना था कि किसी भी कार्टूनिस्ट के भीतर तीन चीज़ें होनी चाहिए सेन्स ऑफ़ ह्यूमर, चित्र बना सकने की प्रतिभा और अच्छी शिक्षा. वे कहते थे कि इन में से एक भी गुण अनुपस्थित हो तो आदमी कार्टून नहीं बना सकता. उसके भीतर ये तीनों होने ही चाहिए. बच्चों जैसी अपनी निश्छलता के साथ वे यह बात जोड़ना कभी नहीं भूलते थे कि कार्टून बनाने की कला सिखाई नहीं जा सकती क्योंकि वह या तो जन्मजात होती है या नहीं होती.

आर. के. लक्ष्मण अलबत्ता एक ही हो सकता था.

Thursday, October 22, 2015

चाचा का ख़त है, हमें जो ग़लत बोलता वो ग़लत है

ओकलाहामा में बाफ़ोमेट की मूर्ति

ये कमज़र्फ लोगों का घुन लोकतन्तर
-संजय चतुर्वेदी

बड़े चैन से ज़िन्दगी कट रही थी 
सदाव्रत, पंजीरी घणी बट रही थी
सभी मालिकों से बड़ी बन रही थी
रुसूखों की लस्सी वहीं छन रही थी

वो कल्चर का शेवा ग़िज़ा-माल-मेवा 
वो अफ़सुर्दा शामों की साहित्य-सेवा 

ये जाने कहां से जनादेश आया 
ये मरदूद परजा का सन्देश आया 
ये आधी सदी का जतन फोड़ डाला 
मैं कहता हूँ सारा वतन तोड़ डाला 

ये जाहिल कुतर्की सवालों का मन्तर
ये कमज़र्फ लोगों का घुन लोकतन्तर

मलाई की लाइन कटी, प्लेट ख़ाली
लगी गैस बनने करें क्या सवाली 
सभी मिलने वाले अदीबों के आला 
सदा सिद्ध-श्यापा, तरीका निकाला 

वही लोकतन्तर जिसे हम बनाएं 
वही लोकतन्तर जिसे हम चलाएं 

हमारे ही मनसूब हों हर जगह पर 
हमारे ही महबूब हों हर जगह पर 
हमारी सहाफ़त हमारे सहीफ़े
हमारे ही चेले लपेटें वज़ीफ़े

नहीं तो समझ लो नहीं चलने देंगे 
ये जम्हूर-ए-जाहिल नहीं पलने देंगे 

ये इल्म-ओ-सुख़न में घुसेंगे मवाली 
ये वाणी की टुच्ची करेंगे दलाली 
दलाली जो करनी थी  हम ही क्या कम थे 
इसी ऐब में अपने सारे ख़सम थे 

ये दीगर है मसला कि हम लाअहल थे 
गिरोहों में बैठे हुए युक्तिबल थे 

विधा खो गई उसमें व्यापी किताबें
बिना कुछ लिखे कितनी छापी किताबें 
ये बे जौक़ बन्दे इन्हें क्या पता है 
उरूज-ए-हुनर, फ़िक्र-ओ-फ़न क्या बला है  

हमारे ही हाथों में चाचा का ख़त है 
हमें जो ग़लत बोलता वो ग़लत है.

Tuesday, October 20, 2015

ढाई-सौ ग्राम प्रेमचंद

“मनोज त्रिवेदी युवा हैं, क्रियेटिव हैं, अंग्रेज़ी के धुँआधार कॉपीराइटर रहे हैं, दिल्ली-मुम्बई में बड़ी विज्ञापन एजेन्सियों में काम किया है, इन्दौरी हैं,  ज़ाहिर है हिन्दी बेहतरीन बोलते-लिखते हैं. बीते दिनों इन्दौर में किताबों की एक ऐसी सेल लगी जिसमें तौल कर किताबें बेची जा रहीं थी. मनोज ने उसे एक चित्र के रूप में लिखा मुझे लगा ये कबाड़ख़ाना पर जाना चाहिये. एक बेहतरीन डॉक्यूमेंटेशन है.”

-कबाड़ी संजय पटेल ने यह लिख कर मुझे मनोज त्रिवेदी की यह रचना भेजी है. पेश करता हूँ -

कवि का नोट: ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ दिनों शहर में एक पुस्तक प्रदर्शनी चल रही है, जहाँ किलो के भाव किताबें उपलब्ध है. एक दिन मैं भी टहलते हुए पहुँच गया. कुछ देर घूमा, देखा और फिर निकल आया...एक वार्तालाप, एक वाकिया, एक फांस दिल में लिए...बड़ी मुश्किल से निकाल पाया हूँ. क्षमा चाहता हूँ उन 90% ग्राहकों, पाठकों से जिन्होंने घंटों पन्ने पलट-पलट कर अपना 1-2 किलो साहित्य शार्टलिस्ट किया और खरीदा.


ढाई-सौ ग्राम प्रेमचंद

भैया, एक काम कीजिये...
कुछ ढाई-सौ ग्राम के करीब प्रेमचंद ले लीजिये
उसमे फिर कुछ ३५० ग्राम दिनकर मिला दीजिये...
हो गए ना ६०० ग्राम ?
अब आपके मिनिमम एक किलो के लिए ४०० ग्राम
का बंदोबस्त करते हैं...एक मिनट...
हूं... हूं...ओके...ये...ये...१५० ग्राम पु. ल. देशपांडे
या...या...वो लाल मोटी वाली कौन सी है ?

मृतुन्जय’ – शिवाजी सावंत सर जी

चलो डालो तगारी में...
यार तुम्हारे तोल-कांटें में कुछ गड़बड़ तो नहीं है !?!
आई मीन पैंदे में सीसा-मोम तो नहीं चिपका रक्खा !!
अमां यह शरद जोशी की मुस्कान को क्या हुआ ?
और महादेवी वर्मा के तो जैसे आंसूं ही सूख गए हैं ??

खैर, तोल के बताइए किलो हुआ या नहीं ?
सर, ९५० ग्राम हुआ है...आ...आप कहें तो
५० ग्राम मस्तराम मिला दूं ?

हूं... हूं...नहीं...उसकी खेप अलग से तोलेंगे...

वैसे आप करते क्या हैं सर ?
बेटे नाम नहीं सुना आ एम शर्मा
दी फेमस इंटीरियर डिज़ाइनर सृजन श...र...मा

चलो, इसी से याद आया
अब आँख बंद करके १०-१२ किलो
माल तोल दो फटाफट...
टॉलस्टॉय, गोर्की और वो पाइप पीता हुआ
छितरे बाल वाला...वो उधर...हाँ वही

अच्छा, मार्क ट्वेन सर...ओके

और हाँ वो रेगजीन की जिल्द वाली
कम्पलीट वर्क्स ऑफ़ शेक्सपियर
साथ में विवेकानंद साहित्यके दसों खंड
आफ्टर-आल वी आर इंडियंस !
और सुनो...सुनो...वो क्या कहते हैं...
हाँ...एनसायक्लोपीडीया ब्रिटानिका
हूं... हूं...अब ध्यान से सुनो...
ताज़ी...मेरा मतलब है कड़क’, ‘नयीदिखनेवाली
चाहे जितनी भी पुरानी हो...नेशनल जियोग्राफ़िकमैगज़ीन
...समझ गए ?

गुड...ये तो हो गया उस वकील, बिल्डर...ज्वेलर
के शो-केस का काम !
अब...अब...ज़रा एक हेल्प करो बेटा...

...एक सरफिरा शख्स़ है...कलाकार है...
राइटर...क्रेज़ी-टाइप यू नो ?
उसका लिविंग-रूम करना है
साला है...आर्किटेक्ट का...साला
जवान-बुड्ढा टेराकोटा और चाक मिट्टी
ख़ुद अपने हाथ से लीप रहा है...
(भगवान जाने मुझे क्यों जोत लिया)
फिर कभी मांडने बनता है, तो कभी दीवारों पर
गुलज़ारकी नज़्में लिखता है मार्कर पेन से !!
सर्किट यू नो ?

उस के शो-केस के लिए
कुछ ३-४ किलो माल है क्या ?
कुछ रंगीन, कुछ हसीन !!

सर...आपका कुल २१ किलो माल तैयार है...
...कार में रखवा दूं ?

और...जहाँ तक उस राइटर का सवाल है
उसके लिए अपने तराज़ू के दांयी तरफ़ का
डेकोरेटिव माल नहीं, बायीं तरफ़ के बाटले जाओ

अमूमन ऐसे लोग वज़न की तलाश में होते हैं...

- मनोज राही मनवात्रिवेदी 

Sunday, October 18, 2015

इस चेहरे की याद है?


केन केसी के उपन्यास पर आधारित 1975 में आई फ़िल्म ‘वन फ़्लू ओवर द कुकूज़ नेस्ट’ को जैक निकल्सन के बेहतरीन अभिनय के लिए जाना जाता है. इस फिल्म को पांच एकेडमी अवार्ड्स हासिल हुए थे. छः फुट सात इंच लम्बे क्रीक मूल के विल सैम्पसन ने इसमें एक अविस्मरणीय भूमिका निभाई थी. इस फिल्म को देखने वाले रेंडल मर्फ़ी के दोस्त चीफ़ ब्रोमडेन के तौर पर उनका काम कभी नहीं भूल सकते.

बहुत कम लोग जानते हैं कि विल सैम्पसन मूलतः एक सफल घुड़सवार थे और अमेरिका के रोडियो सर्किट में करीब बीस साल तक काम करते हुए ख़ासा नाम कमा चुके थे. जब ‘वन फ़्लू ओवर द कुकू’ज़ नेस्ट’ के लिए उन्हें चुना गया तो उन्हें अभिनय का ज़रा भी अनुभव नहीं था. करीब दस फिल्मों में उन्होंने उसके बाद काम किया लेकिन जाना उन्हें  कुकूज़ वाले रोल के लिए ही जाता है. ‘फिशहॉक’ और ‘क्रेज़ी मामा’ उनकी अन्य उल्लेखनीय फ़िल्में रहीं.

यह बात भी बहुत कम लोग जानते हैं कि विल एक ठीकठाक चित्रकार भी थे. ओकलाहामा के क्रीक काउन्सिल म्यूजियम में उनकी बनाई कई पेंटिंग्स आज भी प्रदर्शित हैं. 1983 में उन्होंने अमेरिका के मूल निवासी इंडियंस की कला को संरक्षित रखने के लिए अमेरिकन इन्डियन रजिस्ट्री फ़ॉर परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स की स्थापना भी की थी.

विल सैम्पसन कहते थे कि उन्होंने अभिनय उसी तरह सीखा जिस तरह वे काऊबॉयज़, और इन्डियन और वेस्टर्न लैंडस्केप्स के चित्र बनाने की तैयारी किया करते थे. उन्हें शोध करना पसंद था. ‘वन फ़्लू ओवर द कुकूज़ नेस्ट’ में काम करना भी उन्होंने उपन्यास को पढ़ने के बाद ही स्वीकार किया था. अपनी पेंटिंग्स की बाबत उन्होंने एक बार कहा था : “मैंने सभी महान इन्डियन चीफ़्स के पोर्ट्रेट बनाए हैं और मैं उनके बारे में तकरीबन हरेक चीज़ जानता हूँ.


बचपन में

क्लिंट ईस्टवुड स्टारर 'द आउटलॉ जोसे जोन्स' में 
सैम्पसन को स्क्लेरोडर्मा नाम की बीमारी थी जिसने फकत 53 साल की आयु में उनके प्राण ले लिए. देखिये उनकी कुछ पेंटिंग्स.









Saturday, October 17, 2015

साहित्य अकादमी के अफ़सरान आपके प्रश्नों से तंग आ चुके हैं

साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर चल रही ताज़ा बहस के मद्देनज़र आज असद ज़ैदी की एक कविता. 

कविता को लेकर कवि का कहना है: आज से क़रीब सत्रह या अठारह साल पहले (१९९७-९८) दूरभाषनाम की यह कविता लिखी गई थी. अभी अटलबिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री और गोपीचंद नारंग साहित्य अकादमी के अध्यक्ष नहीं बने थे (इन पदों पर इंदर कुमार गुजराल और यू आर अनंतमूर्ति विराजमान थे). बुरे आसार ज़रूर चारों तरफ़ नज़र आते थे, पर मित्रगण ऐसे किसी अंदेशे के इज़हार को अतिरेकया ओवर-रिएक्शनकहकर उड़ा दिया करते थे.


दूरभाष

-असद ज़ैदी

साहित्य अकादमी के अफ़सरान आपके प्रश्नों से तंग आ चुके हैं.
उन्हें सताना बंद कीजिए उन्हें नहीं मालूम बंदी कविराय का फ़ोन नंबर
और कलानाथ भा.प्र.से. के घर का पता
वे आपको कैसे मिला सकते हैं सुशीला गुजरांवाल से
या उनके ख़ाविंद से जिन्हें ख़ुद नहीं आजकल अपना पता!

कौन खोटे? महेश खोटे! अजी वो तो कभी के यहाँ से जा चुके...
महादेव प्रसाद से मिलिए या टेलिफ़ोन इंक्वायरी से पूछिए
महादेव प्रसाद? हाँ हाँ वही...
परसों ही की बात है फ़ोन की घंटी बजी और
अकादमी के सचिव से पूछा गया हमदर्द मुरादाबादी का
स्वास्थ्य अब कैसा है और अकादमी का कोई आदमी
उनके निवासस्थान पर तैनात है या नहीं...
और हास्य कविता महाकुंभ की तारीख़ें क्या बदल दी
गईं हैं और वो जो गुरदास कान आने वाले थे
कब आएंगे?

साहित्य अकादमी के कारकुन
शादी के सुंदर कार्ड बनवाने में आपकी मदद नहीं कर सकते
हाँ तलाक़शुदा लोगों का अकादमी अपने
वाचनालय में स्वागत करती है क्योंकि उनसे बेहतर कोई पाठक नहीं होता!
जी नहीं, मसख़रों की अखिल भारतीय डाइरेक्टरी हम नहीं छापते
हाँ कालातीत हास्य से जो रिश्ता साहित्य का बनता है उसको
अकादमी मानती है... और इस विषय पर
सेमिनार की योजना कुछ समय से विचाराधीन है.

जी निखिल हिंदू सम्‍मेलन की गतिविधियों से तो हम वाक़िफ़ नहीं
विश्व हिंदी सम्मेलन के बारे में ज़रूर जानते हैं
पर वह हमारी शाखा नहीं है
और विश्व हिंदू परिषद का हिंदू साहित्य सम्मेलन से कोई
सीधा रिश्ता नहीं है...
अव्वल तो आपकी मुराद शायद
हिंदी साहित्य सम्‍मेलन से है... जी? अच्छा!
हिंदू साहित्य सम्मेलन फिर कोई दूसरी संस्था होगी.

नागरी प्रचारिणी सभा के हम मेम्‍बर नहीं
और हिंदी जाति परिषद का नाम तो कभी पहले सुना नहीं!
अच्छा, तो यह उत्तर-नेहरू विकास अध्ययन संस्थान का
एक प्रकोष्ठ है! ठीक है.
सुनिए, यह अकादमी एक अखिल भारतीय संस्था है
और नागरी प्रचारिणी सभा या हिंदी जाति परिषद दरअसल
दूसरी तरह की अखिल भारतीय संस्थाएँ हैं
हमारा इनसे कोई झगड़ा नहीं
असल में ये ग़ैर सरकारी संगठन हैं और अकादमी
एक स्वायत्त संगठन.

देखिए, हम न किसी के विरोध में हैं, न पक्ष में
संविधान के आठवें शिड्यूल में जो भाषाएँ हैं
उन सबको अकादमी भारतीय भाषा का दरजा देती है
उर्दू भी जैसा कि आप जानते हैं आठवें शिड्यूल में है
और नागरी प्रचारिणी वालों को भी इसका पता है.

आप कुछ जिज्ञासु आदमी मालूम होते हैं
देखिए हिंदुत्व की परिभाषा अकादमी ने नहीं
उच्चतम न्यायालय ने तय की है : हम तो
पालन के दोषी हैं

और अगर हम ऐसा बहुत लंबे समय से
करते चले आ रहे हैं
तो इसे ग़फ़लत नहीं, दूरंदेशी समझा जाना चाहिए. 

(१९९७-९८)

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कुंजी:

बंदी कविराय कैदी कविराय, अटल बिहारी वाजपेयी का कवि नाम
कलानाथ भा.प्र.से. संस्कृति मंत्रालय का कोई भी नौकरशाह
सुशीला गुजरांवाल शीला गुजराल, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल की पत्नी, साहित्य में रुचि रखती थीं और कुछ समय के लिए अकादमी की चहेती हो गई थीं
उनके ख़ाविंद प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल, जिनकी अस्थिर सरकार ग्यारह महीने ही चली
महेश खोटे विष्णु खरे, एक समय साहित्य अकादमी के उप-सचिव
महादेव प्रसाद साहित्य अकादमी का कोई भी मंझोले स्तर का कर्मचारी
हमदर्द मुरादाबादी काल्पनिक
गुरदास कान एक लोकप्रिय गायक
हिंदुत्व की परिभाषा’ — उच्चतम न्यायालय का साल 1995 का वह निर्णय जिसके अनुसार हिन्दुत्व या हिन्दुइज़्म किसी धर्म का नहीं, भारतीय लोगों की सामान्य जीवन शैली का नाम है.