Monday, March 30, 2015

माइ हार्ट विल गो ऑन - सीलीन डियोन और केनी जी



हाल के वर्षों की सबसे चर्चित और हिट फ़िल्मों में गिनी जानी वाली 'टाइटैनिक' का वह गीत ज़्यादातर लोगों को याद होगा जिसमें नायक और नायिका हाथों को फ़ैलाए जहाज़ के एक सिरे पर आंखें मूंदे खड़े होते हैं. सीलीन डियोन के गाए इस गीत ने प्रसिद्धि के नए कीर्तिमान स्थापित किए थे.




उसी गीत की धुन सुनिये केनी जी से सैक्सोफ़ोन पर. केनी जी का असली नाम है केनेथ गोर्लिक. अमरीकी मूल के केनी जी मूलतः सोप्रानो सैक्सोफ़ोन बजाते हैं. उनकी बांसुरी भी बहुत सुरीली मानी जाती है. ज़्यादातर हॉलीवुड की फ़िल्मों के गीतों को वे अपने सैक्सोफ़ोन पर बजा चुके हैं. कई बार तो ऐसा भी लगता है कि वे एक बार गाए गए गीत को बाक़ायदा दुबारा रच रहे हैं.

 


फ़ास्ट कार


ट्रेसी चैपमैन ने अप्रेल १९८८ में अपना पहला अल्बम जारी किया था. उस साल यह गीत अमेरिका और यूं.के. की टॉप टेन लिस्ट में शुमार हुआ. आज ट्रेसी का जन्मदिन भी है. उसी पहले अल्बम से यह मशहूर गीत पेश है -




You got a fast car
I want a ticket to anywhere
Maybe we make a deal
Maybe together we can get somewhere
Any place is better
Starting from zero got nothing to lose
Maybe we'll make something
Me myself I got nothing to prove

You got a fast car
I got a plan to get us out of here
I been working at the convenience store
Managed to save just a little bit of money
Won't have to drive too far
Just 'cross the border and into the city
You and I can both get jobs
And finally see what it means to be living

See my old man's got a problem
He live with the bottle that's the way it is
He says his body's too old for working
His body's too young to look like his
My mama went off and left him
She wanted more from life than he could give
I said somebody's got to take care of him
So I quit school and that's what I did

You got a fast car
Is it fast enough so we can fly away?
We gotta make a decision
Leave tonight or live and die this way

So remember when we were driving driving in your car
Speed so fast I felt like I was drunk
City lights lay out before us
And your arm felt nice wrapped 'round my shoulder
And I had a feeling that I belonged
I had a feeling I could be someone, be someone, be someone

You got a fast car
We go cruising, entertain ourselves
You still ain't got a job
And I work in a market as a checkout girl
I know things will get better
You'll find work and I'll get promoted
We'll move out of the shelter
Buy a bigger house and live in the suburbs

So remember when we were driving driving in your car
Speed so fast I felt like I was drunk
City lights lay out before us
And your arm felt nice wrapped 'round my shoulder
And I had a feeling that I belonged
I had a feeling I could be someone, be someone, be someone

You got a fast car
I got a job that pays all our bills
You stay out drinking late at the bar
See more of your friends than you do of your kids
I'd always hoped for better
Thought maybe together you and me find it
I got no plans I ain't going nowhere
So take your fast car and keep on driving

So remember when we were driving driving in your car
Speed so fast I felt like I was drunk
City lights lay out before us
And your arm felt nice wrapped 'round my shoulder
And I had a feeling that I belonged
I had a feeling I could be someone, be someone, be someone

You got a fast car
Is it fast enough so you can fly away?
You gotta make a decision

Leave tonight or live and die this way

आज विन्सेंट का जन्म हुआ था

द रीपर : आफ्टर मिले. रचना: १८८९-९०, सां रेमी
दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है.

- (विन्सेन्ट वान गॉग की जीवनी 'लस्ट फ़ॉर लाइफ़'से)

Sunday, March 29, 2015

गरीब-मेहनतकश ही बचाएंगे इस देश में लोकतंत्र को : मंगलेश डबराल

यहां जो बातचीत जारी की जा रही है वो मैंने मंगलेश डबराल के घर (दिल्ली) 26 जून 2004 को रिकॉर्ड की थी.

महान कलाकारों की पहली पेंटिंग्स - 5

फ्रीदा काहलो ने चित्र बनाना काफी देर से शुरू किया था. उन्होंने अपना यह पहला आधिकारिक सेल्फ़-पोर्ट्रेट अपने तत्कालीन बॉयफ्रेंड अलेहान्द्रो गोमेज़ आरीयास के लिए बनाया था. चित्र के पार्श्व में दिखाया गया समुद्र जीवन का बिम्ब है.


Saturday, March 28, 2015

महान कलाकारों की पहली पेंटिंग्स - 4

'द टार्मेंट ऑफ़ सेंट एंथनी' शीर्षक यह पेंटिंग माइकेलएंजेलो ने बारह या तेरह वर्ष की आयु में पूरी कर ली थी. माइकेलएंजेलो की बनाई कुल चार ईज़ल पेंटिंग्स में इसकी गिनती की जाती है. २००९ से यह टेक्सास के एक संग्रहालय में है. एक अतीव कल्पनाशील मानव के बीज इस पेंटिंग की तमाम डीटेल्स में देखे जा सकते हैं.  


इस बात से शर्मसार होने की कोई ज़रुरत नहीं कि तुम इंसान हो


“दुनिया का हर अमूर्त चित्र किसी तूफ़ान के ब्लूप्रिंट जितना असंभव होता है.”

जब मैं उसकी कविता के बारे में सोचता हूँ तो उसकी कविताओं में आईं दो बेहद ठोस छवियाँ सबसे पहले दिमाग में आती हैं. एक कविता में वे घने जंगल के बीच कई सारे पेड़ काट कर बनाए गए एक कृत्रिम मैदान की तुलना ब्रेन ट्यूमर के एक रोगी से करते हैं जिसके दिमाग की सर्जरी से पहले उसके सर के एक ख़ास हिस्से के बाल साफ़ कर दिए गए हों. एक और कविता में वे बताते हैं कि ट्रैफिक की बत्ती के ऊपर बैठी दोपहर ने अपने आप को गोली मार ली है.

रोटी के लिए इस शख्स ने औद्योगिक मनोचिकित्सक की पार्ट-टाइम नौकरी की और जीवन एक कवि का जिया.

२०११ का साहित्य का नोबेल पाने वाले स्वीडिश कवि टॉमस ट्रान्सट्रामर का बीती २७ मार्च को स्टॉकहोम में देहांत हो गया. १९९० में पड़े फालिज के दौरे के कारण उनकी वाणी चली गयी थी अलबत्ता उन्होंने कविता लिखना और बाएँ हाथ से पियानो बजाना जारी रखा.

१९५४ में उनका पहला संग्रह आया था ‘सेवेनटीन पोयम्स’ और नोबेल अवार्ड दिए जाने के बहुत पहले ही वे स्वीडिश भाषा के महानतम जीवित कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे, उनकी कविताओं के अनुवाद ६० से अधिक भाषाओं में हुए.

उन्होंने बहुत कम कविताएँ लिखीं. प्रकृति के उनके वर्णनों को किसी ने जापानी चित्रों की तरह किफायतभरा और जीवंत बताया था. सच तो यह भी है कि लेखन के अंतिम दौर में उन्होंने हाइकू में भी हाथ आज़माया.

“दुनिया भर में उनकी कविता की सफलता का रहस्य इस तथ्य में निहित था कि उन्होंने रोज़मर्रा के जीवन की बाबत लिखा. शब्दों के इस्तेमाल में उनकी मिटव्ययिता उनकी कविताओं की कम संख्या में भी देखी जा सकती है. उनके समूचे काम की आत्मा तक आपने पहुंचना हो तो आपको उनकी कविताओं की बस २२० पन्ने की एक पॉकेटबुक की ज़रूरत होगी. आपको इस काम को निबटाने में एक शाम भर लगनी है.”

वे समाजवादी, मानवतावादी और नास्तिक थे, और वे ऐसा कर सके कि जीवन उससे कहीं ज़्यादा लज़ीज़ नज़र आने लगे जीतन कि वह है. वे कहते थे “इस बात से शर्मसार होने की कोई ज़रुरत नहीं कि तुम इंसान हो. इस पर गर्व करो! तुम्हारे भीतर अनन्त तक तहखानों के भीटर तहखाने खुलते जाते हैं. तुम कभी भी ख़त्म नहीं होओगे, और होना भी यही है.”

टॉमस ट्रान्सट्रामर को कबाड़खाने की श्रद्धांजलि.

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टॉमस ट्रान्सट्रामर की कुछ कविताओं के रॉबर्ट ब्लाई द्वारा किये अंग्रेज़ी अनुवाद:

Allegro

After a black day, I play Haydn,
and feel a little warmth in my hands.
The keys are ready. Kind hammers fall.
The sound is spirited, green, and full of silence.
The sound says that freedom exists
and someone pays no tax to Caesar.
I shove my hands in my haydnpockets
and act like a man who is calm about it all.
I raise my haydnflag. The signal is:
“We do not surrender. But want peace.”
The music is a house of glass standing on a slope;
rocks are flying, rocks are rolling.
The rocks roll straight through the house
but every pane of glass is still whole.

The Couple

They switch off the light and its white shade
glimmers for a moment before dissolving
like a tablet in a glass of darkness. Then up.
The hotel walls rise into the black sky.
The movements of love have settled, and they sleep
but their most secret thoughts meet as when
two colours meet and flow into each other
on the wet paper of a schoolboy’s painting.
It is dark and silent. But the town has pulled closer
tonight. With quenched windows. The houses have approached.
They stand close up in a throng, waiting,
a crowd whose faces have no expressions.

After a Death

Once there was a shock
that left behind a long, shimmering comet tail.
It keeps us inside. It makes the TV pictures snowy.
It settles in cold drops on the telephone wires.
One can still go slowly on skis in the winter sun
through brush where a few leaves hang on.
They resemble pages torn from old telephone directories.
Names swallowed by the cold.
It is still beautiful to hear the heart beat
but often the shadow seems more real than the body.
The samurai looks insignificant
beside his armor of black dragon scales.

Track

2 A.M. moonlight. The train has stopped
out in a field. Far off sparks of light from a town,
flickering coldly on the horizon.
As when a man goes so deep into his dream
he will never remember he was there
when he returns again to his view.
Or when a person goes so deep into a sickness
that his days all become some flickering sparks, a swarm,
feeble and cold on the horizon
The train is entirely motionless.
2 o’clock: strong moonlight, few stars.

Under Pressure

The blue sky’s engine-drone is deafening.
We’re living here on a shuddering work-site
where the ocean depths can suddenly open up
shells and telephones hiss.
You can see beauty only from the side, hastily.
The dense grain on the field, many colours in a yellow stream.
The restless shadows in my head are drawn there.
They want to creep into the grain and turn to gold.
Darkness falls. At midnight I go to bed.
The smaller boat puts out from the larger boat.
You are alone on the water.
Society’s dark hull drifts further and further away.


Thursday, March 26, 2015

एक पुराना जयपुर ट्रेवलॉग


पधारो म्हारे देस उर्फ़ मंकी लाइक पीनट 

1.

इस बार जयपुर में साथ में हमारी मित्र सोनिया भी थी. वियेना में रहने वाली पेशे से मानवशास्त्री सोनिया ने बाली और थाईलैंड की जनजातियों पर महत्वपूर्ण शोधकार्य किया है. उसका स्वाभाव एक नैसर्गिक घुमन्तू का है. तीन - चार दिन जयपुर और आसपास रहने - घूमने की योजना थी.

जयपुर में उस रोज़ सोनिया गांधी की रैली थी. हज़ारों-हज़ार स्त्री-पुरुष पैदल, बसों में लदे-ठुंसे सोनिया गांधी को देखने-सुनने की नीयत से राजस्थान के तमाम इलाकों से पहुंचे थे. जगह-जगह ट्रैफ़िक जाम. हमारी वाली सोनिया को कुछ फ़ोटू वगैरह लेने का अच्छा मौका मिल गया.

पहला भ्रमण म्यूज़ियम का तय हुआ क्योंकि वह रास्ते में पड़ गया.

संग्रहालय में प्रदर्शित की गई चीज़ें जाहिर है वैसी ही थीं जैसा उन्हें होना चाहिए था: कुछ परम्परा, कुछ इतिहास, पार्श्व में हल्का राजस्थानी संगीत वगैरह वगैरह. यह सब देखने में मसरूफ़ हो ही रहे थे कि दिल्लीवाली सोनिया के भक्तों का रैली से छूटा रेला किसी अंधड़ की तरह संग्रहालय में घुस आया. छः फ़ीट लम्बी ख़ूबसूरत हमारी वाली सोनिया उस रेले को संग्रहालय में प्रदर्शित अन्य दुर्लभ वस्तुओं जैसी ही प्रतीत हुई. मानवशास्त्री सोनिया के लिए भी घूंघट कढ़ी ग्रामीण महिलाओं की तनिक सकुचाई भीड़, भिन्न आकारों की मूंछों से सुसज्जित मर्दाना चेहरे और मांओं का हाथ थामे बड़ी-बड़ी आंखों से अगल-बगल देखते बच्चे, उसकी सतत -अनुसंधानरत जिज्ञासा के कारण बहुत दिलचस्प विषय थे. क़रीब दस मिनट चले इस पारस्परिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान के उपरान्त स्थितियों के सामान्य होने पर ही संग्रहालय दर्शन का कार्य पुनः चालू हुआ.

एक जगह बहुत सारी भीड़ जमा हो कर झुकी हुई कुछ देख रही थी. पास जाकर देखा तो वही चीज़ थी जो मुझे बचपन में तमाम संग्रहालयों में सबसे ज़्यादा आकर्षित करती थी. मिश्र की ममियां सम्भवतः हमारे देश के हर बड़े म्यूज़ियम में धरी हुई हैं. क्यों धरी हुई हैं और क्या वे असली हैं - ये सवाल हैं जो निवाड़ सरीखी पट्टियों में लिपटी सदियों से सुरक्षित मृत मानव देहों (अगर वे देहें ही हैं तो ... अपने मुल्क में अदरवाइज़ सब कुछ पॉसिबल है) को देखते हुए मुझे थोड़ा-बहुत परेशान करते हैं. यानी आप अभी अभी मीणा, भोपा, भील और लोहार इत्यादि जनजातियों की जीवनशैली का मुआयना कर रहे थे और अचानक यह ममी. ... क्या तमाशा है भाई!

इस से भी बड़ा तमाशा आगे आने को था. एकाध ख़ाली दीवारों को भर देने की नीयत से ब्रिटिश काल की कुछ बारोक पेन्टिंग्ज़ सजाई गई थीं. आप जानते हैं न विक्टोरियन काल की बारोक पेन्टिंग्ज़ कैसी होती थीं - किसी सुरम्य भारतीय लोकेशन पर कोई अंग्रेज़ पार्टी वगैरह हो रही होती थी जिस में लोगों की संख्या एक से लेकर दर्ज़नों तक हो सकती थी. हाथों में ट्रे लिये साफ़े-पगड़ियां बांधे भारतीय चाकरों की टोलियां होती थीं और हां इन चित्रों का सबसे ज़रूरी तत्व होता था कुछ गोरी महिलाओं की उपस्थिति. ये स्त्रियां आमतौर पर तनिक मुटल्ली होती थीं और इन्हें अपने ऊपरी बदन को ढंकने से किसी डॉक्टर ने मना किया होता था.

म्यूज़ियम के भीतर काफ़ी उमस लगने लगी थी और हम बाहर निकलना चाह रहे थे. सोनिया ने दबी सी मुस्कान से मुझे उधर देखने को कहा: मूंछों, नंगे पैरों और सूरज में तपी झुर्रियों वाले साठ-सत्तर की उम्र के कुछ बुज़ुर्ग ग्रामीण पुरुष उक्त पेन्टिंग्ज़ में पाई जाने वाली उक्त महिलाओं के अंगों के बारीक अनुसंधान में रत थे. दबे स्वरों में एक दूसरे से कुछ कहते भी जाते थे. हॉल के बीच में खड़ी महिलाओं के अब ऊबा हुआ दिखने लगे झुंड की तरफ़ चोर निगाह कर एक बुज़ुर्ग सम्भवतः अपनी पत्नी को ताड़ने की कोशिश करते दिखाई दिए कि कहीं उन्हें तो नहीं ताड़ा जा रहा. वे निश्चिन्त हो कर पुनः अपने अनुसंधान में लीन हो गए.

मेरे भीतर बैठा शरारती चोट्टा हंसता हुआ मुझसे पूछता है कि ताऊ जी क्या सोच रहे होंगे. "पधारो म्हारे देस" - चोट्टा ख़ुद ही जवाब भी देता है.

2.

नाहरगढ़ के किले की लोकेशन ने मुझे हमेशा बहुत आकर्षित किया है. जयपुर से कुल छः-सात किलोमीटर दूर एक ऊंचे पहाड़ीनुमा टीले पर मौजूद इस किले से जयपुर नगर का सुन्दर नज़ारा देखने को मिलता है.

हमसे थोड़ा आगे एक युवक गाइड ऑस्ट्रेलियाई पर्यटकों के एक दल को किले के बारे में बहुत-सी सच्ची-झूठी जानकारियां दे रहा था (ये जानकारियां आप किसी भी सम्बन्धित वैबसाइट या ट्रैवलबुक से प्राप्त कर सकते हैं). अपनी वाचालता, बददिमागी और बदशऊरी के चलते ऑस्ट्रेलियाई बाकी गोरी चमड़ी वालों से अलग पहचाने जा सकते हैं.

किले का शिल्प भी वाकई बहुत अचरजकारी है और इसकी अच्छे से देखभाल भी की गई है. किले में रहने की इच्छा रखने वालों के लिए कुछेक शाही कमरों को किराये पर लिया जा सकता है.

हम लोग फ़ुरसत से किले का दर्शन कर के रेस्त्रां की तरफ़ निकल ही रहे थे कि किले के प्रवेशद्वार के ठीक बग़ल में दो एम्बेसेडर गाड़ियां रुकीं. लाल बत्ती, गनर वगैरह. तदुपरान्त बुज़ुर्ग से दिखने वाले एक टाई-सूटधारी सज्जन बड़ी शान से उतरे और बहुत आधिकारिक मुद्रा धारण किये हुए किले में प्रविष्ट हुए. 

ऑस्ट्रेलियाइयों का गाइड फुसफुसाहटभरी आवाज़ में बताता है कि उक्त सज्जन नाहरगढ़ किले के वर्तमान उत्तराधिकारी हैं. चलिये साहब हम नाचीज़ भी अब सुकून से मर सकेंगे कि हमने एक जीता-जागता महाराजा देख लिया. यह दीगर था कि महाराज की शान-ओ-शौकत की अब ऐसी-तैसी फिर चुकी थी. 

हाथी-घोड़ों के बदले सरकार ने उन्हें लालबत्ती वाली एम्बेसेडर गाड़ियां मुहैय्या करवा दी थीं. शेरों के शिकार पर बैन है सो महाराजा को मुर्गी-बकरियों से काम चलाना पड़ता होगा. उनके ख़ानदानी मकान की बुर्जियों पर बन्दरों के झुण्ड और अहाते में फ़िरंगी टूरिस्ट काबिज़ हो चुके थे. मुझे बेसाख़्ता वीरेन डंगवाल की 'तोप' कविता याद आ गई.

जब तक हम रेस्त्रां पहुंचते, ऑस्ट्रेलियाई कुछ मेज़ों पर फैल चुके थे और बीयर की बोतलों का श्राद्ध कर रहे थे. उनके साथ बैठा गाइड युवक अब उनके सामने पहले से भी अधिक दुबला लग रहा था. ऑस्ट्रेलियाई पहले से ही टुन्न रहे होंगे क्योंकि एक-एक बीयर सूत चुकते ही वे मोटरसाइकिलों की सी बीहड़ आवाज़ों में हंसी-ठठ्ठा करने लगे थे. गाइड बार-बार घड़ी देख रहा था.

इस टुन्नसमूह का नेतृत्व कर रही करीब पचास साला एक महिला ने गाइड से ऊलजलूल सवाल पूछने चालू किये हुए थे. उसकी आवाज़ रपट रही थी और उसके नथुनों से निकलता सिगरेट का गाढ़ा धुआं छूटने ही वाले किसी भाप-इंजन का आभास दे रहा था.

उसके इसरार पर गाइड ने अपने बटुए से अपने मां-बाप की तस्वीर निकाली. "ओकै ... ओखै ... ज़ैट्स हिज़ फ़ैदा एन ज़ैट्स ज़ा मैदा ... स्वीट! ..." टुन्यासिनी देवी की आवाज़ में टाइमपास करने की आजिज़ी और बदतमीज़ी है. फ़ैदा-मैदा की तस्वीरें कई हाथों से होती हुई वापस गाइड के पास आती है तो टुन्नेश्वरी माता पूछती हैं "मो फ़ोटोज़?" गाइड अपनी बहन की तस्वीर दिखाता है: "ग्राएट ... ग्राएट ... शीज़ प्रटी ... वैवी प्रटी ..."

बीयरम्मा की दूसरी बोतल निबट चुकी है और वह खिलंदड़ी - मोड में आ गई है. "शो मी यो ब्रादाज़ फ़ोटो बडी ... आई वान्ना सी यो ब्रादा ..." मुझे लगता नहीं गाइड ने इस कदर विकट पर्यटकों के साथ कभी काम किया है. "शो मी यो ब्रादाज़ फ़ोटो बडी ... आई वान्ना सी यो ब्रादा ..."

हम अवाक इस बेहया कार्यक्रम को कुछ देर झेलते हैं. इसके पहले कि मेरा गुस्सा फूटे, मैं बाहर खुले में लगी एक मेज़ का रुख़ करता हूं. खुले में बन्दर-साम्राज्य का स्वर्णिम काल चल रहा है. एक बन्दर बाकायदा एक कुर्सी पर बैठा हुआ टमाटर कैचप की बोतल थामे बैठा है. कुछ देर उसे उलटने-पलटने पर उसे बोतल खोलने का जुगाड़ हासिल हो जाता है. वह इत्मीनान से दो तीन बार कै़चप सुड़कता है और आगामी कार्यक्रम के बारे में विचारलीन होने ही वाला होता है कि रेस्त्रां के भीतर से आकर एक वेटर उसे डपटकर दूर भगा देता है. उसके पीछे-पीछे आया, रेस्त्रां का मालिक लग रहा एक बुढ़ाता हुआ आदमी बन्दरों के साथ अपनी नज़दीकी रिश्तेदारी की घोषणा करता पांचेक ढेले उनकी दिशा में फेंकता है. उसकी निगाह खुली हुई कैचप बोतल पर पड़ती है. वह झट से वहां जाकर उसे उठाता है. जेब से गन्दा रूमाल निकालता है और ढक्कन को पोंछ कर उसे बोतल में फ़िट करता है और उसे पुनः मेज़ पर स्थापित कर देता है.

कालान्तर में हमारी मित्र सोनिया ने टमाटर कैचप को 'मंकी सॉस' कहना शुरू कर दिया था.

3.

दिल्ली में मयख़ाने वाले मुनीश भाई ने सलाह दी थी कि मौका मिले तो जयपुर के नज़दीक गलता नामक जगह पर ज़रूर जाऊं. होटल से गलता की तरफ़ चलते हुए मैंने टूरिस्ट गाइड में उड़ती निगाह डाली: 

"जयपुर से दस किलोमीटर दूर स्थित गलता एक छोटा सा सुन्दर हिन्दू तीर्थस्थल है. विश्वास किया जाता है कि ऋषि गलव ने यहां रहकर साधना वगैरह करते हुए अपने दिन बिताए थे." टूरिस्ट गाइड में लिखित आखिरी पैराग्राफ़ बताता है कि गलता तीर्थ का पूरा परिसर अपने सौन्दर्य के कारण ज़्यादा जाना जाता है बजाय अपने महात्म्य के.

जयपुर बाईपास पार करते ही उचाट किस्म की सड़क शुरू हो जाती है: कंटीली झाड़ियां, छोटे-बड़े आश्रमों-मन्दिरों के बोर्ड, अधिकतर बोर्डों के ऊपर विराजमान बन्दर, हल्की उमस और धूल. करीब दस किलोमीटर निकल पड़ने के बाद भी जब कुछ ख़ास नज़र नहीं आता तो मुझे शक होता है कि हम किसी गलत रास्ते पर निकल आए हैं. रास्ता पूछे जाने पर ही इत्मीनान होता है.

चाय-पानी-प्लास्टिक मालाओं के क़रीब दसेक खोखे और उनके आसपास बिखरा सतत उपस्थित कूड़ा, प्लास्टिक की हवादार उड़ती थैलियां, उदास पस्त-पसरी गायें, लेंडी कुत्ते और गोबर इकठ्ठा करते वयोवृद्ध नागर बतलाते हैं कि आप किसी टूरिस्ट-स्पॉट पर पहुंच गए हैं. गाड़ी से बाहर निकलते ही "यस सर गाइड गाइड वाटर वाटर ..." की ध्वनियां कान में पड़ते ही याद आना ही होता है कि मेरे साथ दो विदेशी महिलाएं भी हैं. पिछले क़रीब बीस सालों से मेरे साथ ऐसा होता ही रहता है और ऐसा होने की स्थिति में या तो मैं फट पड़ता हूं या निखालिस अंग्रेज़ एक्सेन्ट में "न्नो सैंक्स ..." कहता अपनी पानी की बोतल को दुलराने लगता हूं (कभी कभार जब बोतल में भरे पानी की प्रकृति को अन्य पारदर्शी द्रवों द्वारा पवित्र बना लिया गया होता है, मैं चढ़ी हुई दोपहरी में भी उस से दो घूंट मार लेने की बहादुरी दिखा लेता हूं).

ऐसा ही कुछ कर के हम श्री गलता जी नामक विख्यात हिन्दू तीर्थ का रुख करते हैं. हम माने मैं, सबीने और सोनिया. श्री गलता जी धाम का गेट दूर से ऐसा लगता है मानो स्थानीय नदी पर बने सरकारी पुल पर चुंगी वसूलने को लगाए गए किसी स्थानीय माफ़िया-राजनेता-राजनेता ठेकेदार के मातहतों ने कोई बदतमीज़ बैरियर लगा रखा हो.

बैरियर पर पहुंचते ही एक आवाज़ आती है. इस आवाज़ में लालच-हरामीपन-नंगई-लुच्चापन इत्यादि वे तमाम गुण मौजूद हैं जिनके चलते मैं कई बार दुर्वासा का प्लास्टिक का पुतला बनने पर मजबूर हुआ हूं. "सार ... सार ... लुक हेयर ..."

"बोल! ..." मैं हिकारत से उस पैंतालीसेक सालों के कामचोर से कहता हूं. कामचोर मुझे अंग्रेज़ महिलाओं का गाइड समझ कर उनसे मुख़ातिब होता है: "मैडम मैडम यू लाइक पीनट ... मन्की लाइक पीनट ... यू गिव हिम वन बाई वन ... मंकी लाइक पीनट ... मंकी मंकी वैरी हैप्पी" (यह पूरा वाक्य इस कामचोर की ज़िन्दगी में की गई दुर्लभ मेहनत का कुल हासिल था). जब वह दुबारा इसी वाक्य को तनिक और ऊंची आवाज़ में दोहराता है मेरी इच्छा होती है उस के मुंह पर थूक कर कहूं कि बेटा कल से मेरे पास आ जाया करना. और कुछ नहीं तो तुझे फावड़ा-गैंती पकड़ना तो सिखा ही दूंगा. सबीने मेरे इस कोटि वाले गुस्से से परिचित है सो मुझे समझा कर बैरियर के उस पार घसीट ले जाती है.

एक गेरुवाधारी युवा ठग हाथों में दो मोबाइल थामे हमारी तरफ़ आ रहा है. बैरियर से अन्दर घुसते ही दांई तरफ़ एक बहुत नया सफ़ेद मार्बल का चबूतरा है जिसके एक कोने पर हनुमान का हास्यास्पद सा मन्दर चेप दिया गया है. मन्दर के भीतर चमचम करते प्लास्टिक और लाल-नारंगी रंगों की मनहूसियत बिखरा दी गई है.

अभी मेरा मन उस द्विमोबाइलोन्मुखी रुद्रांश गेरू चोट्टे के प्रति गुस्से से भरने को ही हो रहा था कि एक और छोटा सा अदमी सामने आ गया जिसकी सूरत पर बचपन से ही तमाम कुटैव कर चुकने की छापें छपी हुई थीं. "कैमरा है?" उसने बहुत उद्दंडता से पूछा. "है! बोल!" मेरा गुस्सा अब चरम पर पहुंचा ही चाहता था. 

"फ़ोटो नहीं खींचनी हमें!" मेरा ध्यान अपने कदमों तक बहती आती गन्दगी भरी अस्थाई नाली पर जा चुका था. "पांच सौ का जुरमाना भरना पड़ेगा" वह अपनी उद्दंडता का प्रदर्शन जारी रखता है. "आजा मेरे पीछे ... ले जाना अपना जुरमाना!" मैं एक मोटी गाली दे कर आगे बढ़ता हूं. मेरे साथ की दोनों महिलाएं भी सामने दिख रही किलेनुमा इमारतों की तरफ़ तनिक बेरुखी से देखती हुईं कदम बढ़ाने लगती हैं.

ज्यों ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं गन्दगी और बदबू बड़ते जाते हैं. श्री गालता जी धाम में एन्ट्री लेते ही गन्द और गाद से भरे दो बजबजाते कुण्ड दिखाई देते हैं. "स्नेक स्नेक फ़ोटो ओटो फ़िफ़्टी रुपीज़ ओनली ..." कहती टोकरी में दयनीय सांप और गोदी में सांप से भी दयनीय बच्चा चिपकाए तीन सींकिया औरतें हम पर टूट पड़ती हैं. बन्दरों की संख्या एक करोड़ के पार लगती है. भक्त किस्म के कुछ भारतीय परिवार बिना परेशानी के कीचकुण्ड तक पहुंच चुके हैं. रास्ता प्लास्टिक की बेशुमार थैलियों और विष्ठा से भरा हुआ है. 

डकैत पिण्डारी दिखते पांचेक शोहदे ऊपरी कुंड के पास बैठे स्त्रीदर्शन में व्यस्त हैं. सबके माथों पर तिलक है, गलों में रुद्राक्ष की मालाएं हैं. उनका नेता मुझे अंग्रेज़ समझता है और बहुत भद्दी आवाज़ में मेरे साथ चल रही स्त्रियों पर कमेन्ट करता है. मेरे मुंह से और मोटी गाली निकलती है और पिण्डारीसमूह इधर उधर हो जाता है.

मैं इस जगह एक पल भी नहीं ठहर सकता अब. ऋषि गलव की कर्मभूमि पर कई सदियों का कीचड़ ठहरा हुआ है. निचले कीचकुण्ड के पानी को अंजुरी में ले कर दो तोंदू धर्मपारायण आत्माएं जैसे ही उसका कुल्ला करती हैं, मुझे उबकाई आ जाती है.

मैं अपने वापस लौटने की सूचना जारी करता हूं और तेज़ तेज़ कदमों से नीचे उतर आता हूं. फ़ोटो के पैसे लेने वाले चोट्टे की निगाहें मुझ पर लगी हुई हैं. इसके पहले कि वह कुछ कहे मैं उसे घूर कर देखता हूं, सिगरेट सुलगाता हूं और ढेर सारा धुंआ उसकी दिशा में उड़ाता हूं. एक बार पलट कर देखता हूं.
असल में यह धाम वास्तुशिल्प का इस कदर बेहतरीन नमूना है कि दूर से देखने पर अकल्पनीय सुन्दर लगता है. पर ऐसा हमारे महान देश की अधिकतर महान चीज़ों के साथ होता है. मैं इस जगह की बदहाली से कम, सरकार और लोगों की बेज़ारी से अधिक दुखी हूं.

हमारे पीछे कुछ और विदेशी सैलानी आ चुके हैं और बाहरी इमारतों के अहातों में मौजूद बन्दरों को मूंगफलियां खिला रहे हैं. कामचोर ने कुछ बिजनेस कर लिया दिखता है और मंकी मंकी बहुत हैप्पी हैप्पी भाव से पीनट्स सूत रहे हैं.

4.

गन्दधाम गलता जी से लौटते हुए मन इस कदर खराब हो चला था कि मैंने पानी की बोतल में ऐसे मौकों के लिए महफ़ूज़ धरे गए, पवित्र बना लिए गए पारदर्शी द्रव को सारा का सारा गटक लिया और फ़िटफ़ोर होने का जतन करने में उद्यत हो गया. सासू मां ने विएना से अपने हाथों से खेंची जो कच्ची भिजवाई थी उसी की सहायता से निर्मित था यह पवित्र जल. इस अतीव प्रभावकारी विलयन ने कुछ पलों के लिए मेरे दिमाग और ज़बान दोनों को टेढ़ा कर देने का महाकार्य कर दिखाया. शीघ्र ही मेरा गुस्सा भी काबू में आ गया.

साथ की महिलाएं ज़्यादा स्मार्ट निकलीं. उन्होंने अपने बटुए में दो छोटी छोटी शीशियां सम्हाली हुई थीं. ये शीशियां उन्होंने अपनी हवाई यात्रा से चाऊ की थीं और मेरे साहस से प्रेरित होकर इस शुभ मुहूर्त में उन्हें खाली कर देने में तनिक भी समय नहीं गंवाया. 'दोपहर' शब्द को जस्टीफ़ाई करते दो बजे थे. आंखें चुंधियाने वाली धूप थी और भूख लगी थी. बैरियर से बाहर लगे खोखों के आगे एक बहुत ही बूढ़ा़ बाबानुमा व्यक्ति गोबर एकत्र करने में मसरूफ़ था. उसकी साथिन उससे करीब एक पीढ़ी छोटी साठोत्तरी किन्तु चुलबुल किस्म की अम्मा थी. हमारे समूह के प्रति बाबा का नकार और गैरदिलचस्पी बतला रहे थे कि उन्होंने ताज़िन्दगी अंग्रेज़दर्शन करते हुए समय जाया किया होगा. टूरिस्ट स्पॉट के पास रहने के सारे लुत्फ़ वे अपने बखत में काट चुके होंगे.

उनकी साथिन अलबत्ता सारा काम छोड़ एकटक सोनियादर्शन में लग गई. एक मरियल कुत्ता जब हमारी तरफ़ मुंह करके भौंकना ही चाह रहा था, अम्मा ने एक छोटा पत्थर उस की ओर फेंका. पत्थर बिचारे की मुंडी के बीचोबीच लगा. अपनी दबी हुई दुम को भरसक और दबाता लेंडी कुत्ता गलताजी धाम की दिशा में भाग चला.

अम्मा सोनिया के पास आकर कहती है "फ़ोटो!" सोनिया कहती है "ओके". मैं तनिक दूर से इस कार्यक्रम को देख रहा हूं. सोनिया उसकी फ़ोटो खेंचती है. तभी बाबा जी की खीझ भरी आवाज़ आती है "तंग ना कर बिचारों को. गोबर सम्हाल!"

ड्राइवर से कहा जाता है कि वह चार-पांच किलोमीटर आगे चला जाए. हम कुछ देर पैदल चलेंगे.

गलताधाम से लौटते हुए यदि वहां की गन्दगी और विष्ठा से मन खट्टा हो गया हो तो मेरी राय है कि वापसी में आप चार-पांच किलोमीटर पैदल चलें. कितनी-कितनी तरह के तो परिन्दे और क्या उनका कलरव. अलौकिक! रेत के टीले! ढूहों से झांकते गिलहरियों और चूहों के शर्मीले समूह! - जीवन! ज्ञानरंजन जी की कहानी वाला जीवन!

सिसोदिया रानी के महल बाहर हज़ारों कबूतरों को चारा डाला जा रहा है. चारा डालने वाला आदमी अपने काम से प्यार करने वाला है. दो कबूतर किसी जुगाड़ टैक्नीक से उसकी खोपड़ी पर कब्ज़ा जमाए हैं और अपने साथियों को लंच करता देखे ही जाते हैं. सामने की पहाड़ी पर किलेनुमा एक इमारत झांकती है. सबीने को उस के बारे में जिज्ञासा होती है. मैं सिसोदिया महल के बाहर बैठे एक सज्जन से इस बाबत पूछता हूं तो वे बताते हैं कि वह कोई जैन मन्दिर है.

जयपुर बाईपास के बाद हम बांई तरफ़ वाला दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं. नक्शा हमारे पास है और ऐसा हमने ट्रैक जाम वगैरह से बचने की नीयत से किया है. भारत के सारे छोटे-बड़े नगरों की तरह जयपुर का बाहरी इलाका भी देश की रीढ़ में अवस्थित निर्धनतम जनसमुदाय से अटा पड़ा है. झोंपड़े, कच्चे मकान, नालियां, छोटी दुकानें, खोखे, सद्यःजात मेमने को गोद में उठाए एक मुदित बच्ची, टायर चलाता बच्चों का एक शोरभरा समूह, दाढ़ी खुजाते मौलाना टाइप के बुज़ुर्ग ...

होटल में एक पर्यटक भारतीय परिवार हम लोगों से घुल मिल जाता है. उनका एक किशोरवय बेटा है जिसे क्रिकेट और शतरंज का शौक है. वह दोनों विदेशी महिलाओं से भी आकर्षित है. फ़ोटू वगैरह खींचे जाते हैं.

"व्हेयर आर यू फ़्रॉम मैम?" वह हमारी डिनर टेबल पर सकुचा कर बैठने के उपरान्त पूछता है.

"ऑस्ट्रिया!"

आने वाले रिस्पॉंस का मुझे पता है. बीसेक सालों से यही सुन रहा हूं.

"ओ! ऑस्ट्रेलिया इज़ अ ग्रेट कन्ट्री. आई एम अ फ़ैन ऑफ़ रिकी पॉन्टिंग! योर क्रिकेट टीम इज़ फ़ैबुलस मैम!"

उसे यह बताना अनावश्यक लगता है कि पुत्तर ये मैडमें यूरोप निवासिनियां हैं. विश्व संगीत की राजधानी विएना से पधारी हैं. वह अपने क्रिकेट ज्ञान का प्रदर्शन जारी रखता है.

सुबह निकलना है दिल्ली वापस. जयपुर में आखिरी शाम के नाम हम वापस अपने कमरे में आ कर दो-दो गिलास व्हिस्की समझते हैं. बड़ी महंगी है दारू यहां. हमारे उत्तराखण्ड से भी ज़्यादा महंगी. ऊपर से आठ बजे सारे ठेके बन्द हो जाते हैं.

वापसी यात्रा में हरियाणा बॉर्डर पार कर चुकने से ऐन पहले ड्राइवर साहब मुझसे पूछते हैं कि मुझे दारू तो नहीं खरीदनी. हरियाणा में दारू बहुत सस्ती है. हम दोनों चौकस होकर अगले ठेके की टोह में निगाहें सड़क के अगल-बगल चिपका लेते हैं. मैं पांच बोतलें खरीदता हूं. साढ़े चार सौ रुपए प्रति बोतल की बचत होती है. मेरा शराबी मन प्रसन्न हो जाता है.

और कोई वजह हो न हो जयपुर आते हुए रास्ते में मिलने वाली सस्ती दारू का आकर्षण मुझे वापस जयपुर लाता रहेगा.


आमीन!

महान कलाकारों की पहली पेंटिंग्स - 3


'द पोटैटो ईटर्स' विन्सेंट वान गॉग की पहली पेंटिंग मानी जाती है जिसे उन्होंने बोरीनाज में कोयला खदानों के इलाके में भयंकर डिप्रेशन और आर्थिक तंगी के समय तैयार किया था. धरती के गाढ़े रंगों से बनी इस पेंटिंग को दखकर कल्पना भी नहीं की जा सकती कि विन्सेंट के जीवन में बनाए गए लैंडस्केप्स में ऐसे ऐसे चमकीले रंगों का प्राचुर्य होने जा रहा था. इस पेंटिंग में उन्होंने कामगारों के तत्कालीन जीवन की दिक्कतों को रेखांकित करने का प्रयास किया था.


यू डॉन्ट ब्रिंग मी फ़्लावर्स एनी मोर



नील डायमंड मेरे चहेते गायकों में एक हैं. दुनिया के सबसे सफल गायकों में गिने जाने वाले नील के रेकॉर्ड्स बिक्री के मामले में सिर्फ़ एल्टन जॉन और बारबरा स्ट्राइसेन्ड से पीछे हैं. १९६० के दशक से लेकर १९९० के दशक तक एक से एक हिट गाने देने वाले नील इस गीत में बारबरा स्ट्राइसेन्ड का साथ दे रहे हैं. बारबरा स्ट्राइसेन्ड एक बेहद संवेदनशील अभिनेत्री के तौर पर भी जानी जाती रही हैं. एलेन और मर्लिन बर्गमेन के साथ नील के लिखे इस गीत के बोल ये रहे:

You don't bring me flowers
You don't sing me love songs
You hardly talk to me anymore
When you come through the door
At the end of the day
I remember when
You couldn't wait to love me
Used to hate to leave me
Now after lovin' me late at night
When it's good for you baby
you're feeling alright
Well you just roll over
And you turn out the light
And you don't bring me flowers anymore
It used to be so natural
To talk about forever
But 'used to be's' don't count anymore
They just lay on the floor
'Til we sweep them away
And baby, I remember
All the things you taught me
I learned how to laugh
And I learned how to cry
Well I learned how to love
Even learned how to lie
You'd think I could learn
How to tell you goodbye
'Cause you don't bring me flowers anymore


Wednesday, March 25, 2015

एक क़स्बे की कथाएँ - 4



जल के असंख्य नाम होते हैं. मेरे एक परम सखा के भी ऐसे ही असंख्य नाम हैं. कोई तीसेक साल पहले एक दफा होली के मौसम में उन्होंने बाबा तम्बाकू के टीन के डिब्बे में छेद कर और उस छेद में से घासलेट में भीगी सुतली को गुजारकर पागल कुत्ते की आवाज़ निकालने वाली मशीन का आविष्कार किया था. इस मशीन की मदद से वे अपने घर के बाहर से गुजरने वाले हर आदमी, विशेषतः बूढ़ों के प्रति अपने सीजनल अनुराग का प्रदर्शन किया करते. अपनी पीठ पीछे अचानक आ धमके पागल कुत्ते की आवाज़ सुनकर बूढ़े धरती से कोई डेढ़ फुट हवा में उछल जाते थे. भाग्यवान बूढ़े धरती माता की शरण में पहुँच जाया करते और जो कम भाग्यवान होते उन्हें केवल अपने चेहरे पर आ गए खौफ़-ए-अज़ल भर से काम चलाना पड़ता था. 

इसमें मेरे मित्र का और मित्र के अनुसार बूढ़ों का खूब मनोरंजन होता था. उनका विचार था कि हमारे जीवन में और ख़ासतौर पर रिटायर्ड लोगों के जीवन में स्वस्थ मनोरंजन की बहुत कमी है. यही उनका स्थाई दर्द था और कुत्ता मशीन बनाने की प्रेरणा. इस महामना कर्म के एवज़ में उन्हें आसपास के मोहल्ले तक में सुतली नंगा और उनके शिष्यटोले में सुतली उस्ताद के नामों से संबोधित किये जाने का एज़ाज़ हासिल हो गया.

जब हमारे मोहल्ले में पान-बीड़ी की पहली दुकान खुली तो उसका उद्घाटन मेरे इन्हीं मित्र के हाथों हुआ. हाईस्कूल के इम्तहान में चौथी दफ़ा असफलता मिलने के बाद मेरे एक और सखा नब्बू डीयर, जिनकी जीवनगाथा मैं फिर कभी लिखूंगा, ने लगातार फेलियर कहे जाने के सुख का मोह त्यागकर इस दुकान को खोला था. दुकान सरकारी नर्सरी में आई आम की पेटियों से निकली फंटियों और सरकारी नर्सरी के ही साइनबोर्डों इत्यादि पदार्थों से बनाया गया इस कार्य में लगने वाली मेहनत के लिए नर्सरी के चौकीदार को भागीदार बनाने का काम सुतली उस्ताद ने ही किया था क्योंकि चौकीदार की निगाह में सुतली ही मोहल्ले का इकलौता शिक्षित और सभ्य इंसान था जो बिना फीस लिए उसके इकलौते बच्चे को पढ़ाया करता था. यह अलग बात है कि उसका बच्चा सातवीं में दो साल से फेल हो रहा था. उद्घाटन कार्यक्रम सुतली उस्ताद से ही कराये जाने की शर्त पर ही चौकीदार ने दुकान-निर्माण में योगदान दिया था.

तो बिना छत कीनब्बू डीयर की दुकान के उदघाटन की रस्म के तौर पर जब सुतली ने फ़ोकट कैपिस्टन का पहला सुट्टा खींचा, उनके नाम के आगे सुट्टन की उपाधि लग ही जानी थी. अगले सात माह तक नब्बू डीयर सुतली को फिरी-फ़ोकट कराता रहा. शनैः शनैः सुतली ने स्वाध्याय से चरस पीने में पीएचडी हासिल कर ली और इस शोध में नब्बू डीयर को अपना रिसर्च असिस्टेंट बनाया. सुतली चरस के सेवन से पहले घर पर खाना भकोस कर आता था जबकि नब्बू डीयर के घर हर बखत फाके चला करते. अंततः जीवन से विरक्त होकर दुकान को एक रात आग के हवाले कर नब्बू डीयर संन्यासी बन गया अर्थात घर से भाग गया. कोई कहता वह गोपेश्वर चला गया है कोई कहता उसने मुरादाबाद में एक्सपोर्ट का काम शुरू कर दिया है. नब्बू की अम्मा अलबत्ता कुछ नहीं कहती थी, पुत्र के नाम का ज़िक्र चलते ही अपनी आँखों के कोरों पर अपनी मैली धोती चिपका लेती. नब्बू-पलायन प्रकरण के बाद चरस ठूंसने की समर ट्रेनिंग कर रहे नए छोकरों की निगाह में सुतली ईश्वर हुआ चाहते थे. नब्बू की जली हुई दुकान के खंडहरों पर बड़े बड़े पत्थरों की सुरक्षित आड़ में उन्होंने एक मंदिर का निर्माण किया जिसे सुट्टन चरस के आस्ताने के नाम से ख्याति मिली.

इस तरह अच्छे भले जमुनादत्त पुत्र गंगादत्त को पहले सुतली नंगा फिर सुतली उस्ताद और फिर सुट्टन चरस के नाम दे दिए गए. हमारे देश का इतिहास गवाह है महापुरुषों की सर्जना ऐसे ही होती रही है.

पढ़ाई और कामधाम के चक्कर में मेरा हल्द्वानी से सामान बंध तो गया लेकिन मन यहीं रमा रहा. चिठ्ठी-फोन इत्यादि से मालूम पड़ता था सुतली ने पहले चरस और उसके बाद लकड़ी की तस्करी में हाथ डाला. इस दूसरे काम ने उसे क्रमशः सुतली लठ्ठ, सुतली फर्री, सुतली जड़िया, सुतली धरमकाँटा, सुतली लेलेण्ड और सुतली जंगलात जैसे नामों से विभूषित किया. हल्द्वानी में निर्माण कार्य की धूम मचना शुरू हुई तो पूर्ववर्ती धंधों में अटैच्ड रिस्क से निजात पाने की नीयत से उसने रेता बजरी की खदानों में हाथ आज़माया. यहाँ अकूत धन था और सुतली के पास उसे कमाने की कूव्वत. एक बड़ा सा प्लाट खरीदकर सुतली गौला नदी के उस पार जा बसा और दुनिया उसे सुतली गारा कहने लगी. सुतली गारा से वापस श्री जमनादत्त पुत्र स्व. श्री गंगादत्त बनने में सुतली ने सबसे मुफीद हिन्दुस्तानी दांव खेला. ज़मीन का धंधा और जनसेवा. यह दांव भी सदा की तरह निशाने पर लगा और नियतिचक्र ने सुतली को पहले अमीर आदमी फिर ग्राम प्रधान और बाद में ब्लॉक सदस्य बनवा दिया. सुतली नाम से उसे लोग अब सामने से नहीं बुलाते थे. उसमें सुतली के क्रोधित हो जाने का भय था और सुतली अब वह पुराना आविष्कारक भर नहीं रहा था जो घासलेट में सुतली डुबोकर तम्बाकू के खाली डिब्बे से पागल कुत्ते की आवाज़ निकालता था. सुतली को नागरों और ज़माने ने हल्द्वानी के सबसे संपन्न और आदरणीय लोगों में प्रतिष्ठित कर दिया था.

मेरा सुतली से सीधा संपर्क लम्बे समय तक कटा रहा था और हमारे बीच जैसा कि मुहावरे में कहा जाता है पुल के नीचे से भतेरा पानी बह चुका था. तो कहने का मतलब यह है कि जब मैंने हल्द्वानी लौटने का फैसला किया तो इससे यह साबित नहीं होता था कि सुतली इतने सालों से मेरी बाट जोह रहा था. वह मेरी स्मृति के उन गुप्त तहखानों में जा बसा था जहां खुद मैं भी बहुत मेहनत कर के ही पहुँच सकता था. इसके अलावा यह भी बात थी कि वह मेरी किसी भी तात्कालिक आवश्यकता का हिस्सा भी नहीं था. हमारे रास्ते अलग हो चुके थे.

कोई दो साल पहले घर पर घंटी बजी तो सुतली को आया देख मुझे हैरानी और खुशी दोनों का मिलाजुला अनुभव हुआ. मैं उसे तकरीबन पच्चीस सालों बाद सशरीर देख रहा था. हाल ही में स्थानीय अखबार में उसकी एकाधिक बार फ़ोटो मुझे दिखी थी लेकिन वह इतना बदल गया होगा मुझे उम्मीद न थी. उसने उम्दा काट के कपड़े पहने हुए थे, तनिक मुटा गया था और पहली निगाह में सम्मानीय समझे जाने लायक लग रहा था. हम गले मिले उसने माँ की खबर पूछी, तीन साल पहले गुज़र गए पिताजी की फ़ोटो को स्पर्श कर प्रणाम किया. हमने बहुत देर तक अपने मोहल्ले के नब्बूडीयर युग को याद किया और भरसक नोस्टाल्जिक होते रहे. हमने दिन का खाना भी साथ खाया. वह लौटने के मूड में नहीं लगता था. धीरे धीरे मेरे बिस्तर पर लुढ़क गया और बाकायदा दो घंटे सोता रहा.

शाम हो गयी थी. वह उठकर दो कप चाय सूत चुका था और अब बोतल खोलने का प्लान बना रहा था. मुझे लगा उसके बच्चे बाहर गए होंगे और उसने समय काटने की नीयत से मेरे घर का रुख किया होगा. वरना उसका मुझसे क्या काम. मैं अनमना सा उसके साथ बाहर जाने को तैयार होने लगा तो वह अभी आया पंडितकहकर बाहर चला गया.

यार आज बच्चों ने ये दिला दिया हैकहते हुए उसने अचानक कमरे में एंट्री ली और अपने साथ गाड़ी से निकाल कर लाये झोले के भीतर से चमचमाता लैपटॉप निकालते हुए कहा. मुझे गश आते-आते बचा.

कैसा है?” उसके चेहरे पर किसी महंगी चीज़ पर पैसे खर्च कर देने का कोई भी भाव नहीं था.

अच्छा बुरा तो छोड़ सुतली लेकिन ये बता यार तू इसका करेगा क्या. वो भी इस उमर में.

अरे यार पंडित, पढ़ाई के लिए बेटा दिल्ली भेज रखा है पिछले महीने से. वाइफ भी उसी के पास है. फोन करता हूँ तो बेटा कहता है पापा फेसबुक किया करो फेसबुक किया करो. वाइफ कहती है मैं कर लेती हूँ तो तुमसे कैसे नहीं होता फेसबुक. अब हमने बखत में कोई पढ़ाई कर रखी होती तो करते ना साले फेसबुक ... बाबू ने शादी भी साली एम ए पास से करा दी हुई यार पंडित. क्या लाटापंथी है साली ...

चेहरे पर गोपनीयता का भाव लाते हुए वह फुसफुसाया मुझे कम्प्यूटर सिखा दे यार पंडित. मना मती करियो भाई.

यह मेरे लिए बहुत ज़्यादा बड़ी डोज़ हो गयी थी सो रात की हत्या करने के लिए पूरी बोतल निबटाने से बेहतर कोई रास्ता था भी नहीं.

अगले दिन से मैं सुतली के इस नवीनतम साइबरावातार के चक्करों में लिपझ गया. पहले तो उसे ढंग से माउस पकड़वाना सिखाने में दिन भर की ऐसी-तैसी हुई फिर वह सीधे पोर्नोग्राफी डाउनलोड करने के तरीके सीखने पर आ गया. मेरे झिड़कने पर उसने पोर्नोग्राफी का आइडिया पोस्टपोन कर दिया और ताश के पत्तों वाले खेल में दूसरे ही दिन महारत हासिल कर ली. वह सुबह दस बजे मेरे दरवाज़े पर होता और गलत नहीं कहूँगा उसकी यह कर्मठताभरी जिद मुझे अच्छी लगने लगी थी. मैंने अपने भीतर के अध्यापक को झकझोर कर जगाया और जी जान से सुतली को बिल गेट्स बनाने में जुट गया. दिन भर तल्लीन होकर कम्प्यूटर पर हाथ साफ़ करने में सन्नद्ध सुतली को देखते मुझे लगने लगा था जैसे इतने सालों में उसके बारे में सुनी गयी सारी बातों में कोई सच्चाई नहीं थी. उसके फोन भी बहुत कम आते थे. जो आते भी थे उन्हें वह घर के बाहर जाकर अटैंड करता था और वापस आकर पहले से अधिक उत्साह से इस नवीन ज्ञान की बारीकियां समझने की कोशिश करता.

चौथे दिन जब वह ठीकठाक ऑपरेट करने लगा तो मैंने उसे फेसबुक दिखा कर उसका अकाउंट बनवा दिया.
पांचवे दिन मुझे बाहर जाना था. सुतली चौबीस घंटों में एक्सपर्ट फेसबुकिया बन चुका था और उसके फ्रेंड्स में उसके बीवी बच्चों के अलावा मेरी भी एंट्री हो चुकी थी. वह तीसेक लोगों की लिस्ट में शुमार था.

मेरे लौटने में कोई तीन सप्ताह लगे. दो एक बार सुतली का फोन आया. लेकिन औपचारिकता वाला ही. मैं पूछता फेसबुक कैसा चल रहा है सुतली गुरु?” तो वह मुदित होकर कहता चीज तो अच्छी बनाई यार अमरीकावालों ने. कल बेटे ने वाइफ के साथ पिक्चर देखी तो उसकी फ़ोटो देखने को मिल गयी. सही चीज़ है पंडित यार.

एक दिन उसने अपनी सेल्फी अपलोड की. दो घंटे बाद दूसरी. अगले दिन पूरा अल्बम था दो साल पुरानी गोवा यात्रा का. प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ उसकी एक फ़ोटो पर पैंतालीस लाइक्स आये. एमएपास बीवी की स्कर्ट वाली फ़ोटो लगाई तो उस पर दो सौ से ऊपर. फ़ोटो उसने हटा दिया. फ्रेंड लिस्ट में उसे जाननेवाले अब पांच सौ हुआ चाहते थे.

फिर मैं लौट आया. सुतली अगले छः माह तक नज़र नहीं आया. अखबारों में उसकी नियमित फ़ोटो लगती. एक दफा उसने नगरपालिका लाइब्रेरी की बदहाली को लेकर इंटरव्यू दिया था तो एक दफा उसे पुलिस ने शांतिभंग की आशंका में हिरासत में ले लिया था.

फेसबुक पर उसकी अपडेट्स बेहद बेसिक और भोली होती थीं. उनकी संख्या अलबत्ता अब कम होती जा रही थी.

यार पंडित फेसबुक पे लोगों को टैग कैसे करते हैं?” छः महीने के अंतराल पर उसका फोन आधी रात के बाद आया. वह बेतरह हंस रहा था और पार्श्व की गूंजें बता रही थीं कि वह अपनी मंडली के साथ पार्टी कर रहा है.

एक माह बाद मैंने अखबार में उसकी फ़ोटो देखी. जेल में था सुतली. एसडीम को धमकाने के आरोप में.
फिर सुतली बाहर था. सुतली पर मुकदमा चल रहा था. सुतली का बेटा नशेड़ी हो गया था पूना में उसका इलाज चल रहा था. सुतली ने हमारे मोहल्ले में स्कूल की बिल्डिंग खरीद ली थी और वह उसे बैंकेट हॉल में बदलने ला रहा था.

सुतली एक दिन मिल ही गया. एक शादी थी. वह अपने असल चरित्र में था. काला चश्मा, कमर में पिस्तौल वाली चमड़े की पेटी, ००७ नंबर की लम्बी गाड़ी और चमचों की बारात.

अरे पंडित गुरु, क्या हाल!उसने उत्साहपूर्वक मुझे गले लगाया.

बस ठीक है यार सुतली. तू बता कैसा चल रहा है तेरा फेसबुक.

अरे छोड़ यार, तू बता माँ कैसी हैं आजकल? मैं जल्दी आ रहा हूँ रस-भात खाने. उनके हाथ का स्वाद उस दिन से भूला कौन साला है यार पंडित.

हमें तू-तड़ाक करता देख उसके चमचों के चेहरों पर मेरे लिए थोड़ी सी तात्कालिक इज्ज़त भभक आई.

उसकी गाड़ी के भीतर हम अपना दूसरा पैग खींच रहे थे जब वह अचानक बोला साली फेसबुक ने जीना हराम कर दिया यार. आधी आधी रात पैन्चो फोन में टुणुन्ग टुणुन्ग. सुबह हगने जाओ तो साली फोन में टुणुन्ग टुणुन्ग. इसका फ़ोटो देखो उसकी फ़ोटो देखो. बीजेपी वाले की लाइक करो तो साले कांग्रेसी नाराज़. कांग्रेसी की लाइक करो बीजेपी वालों की पिछाड़ी में चरस. बेटे ने अलग अपनी साली फ़ोटो लगा लगा के दिक कर रखा था. साले हाथ भर के हुए नहीं गर्लफ्रेंड के साथ बीयर सूत रहे हैं बाप के पैसों से. हमें गधा समझा है साला. फेसबुक पे सब दिख जाता है. बड़ी दिक्कत है यार पंडित. चल खींच ना! एक और ठोकते हैं.

माह भर बाद उसका फिर से फोन आया पंडित यार फेसबुक बंद कैसे करते हैं.

अबे हुआ क्या सुतली बाबू?”

कुछ नहीं यार. बड़ी कुत्ती चीज़ है साली फेसबुक. इतना टाइम बर्बाद होता है दिनमान भर. पिछली दीवाली पे दारू पी के साला वो वाइफ के फादर को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी एक दिन. उसका अकाउंट भी वाइफ ने ही बनाया था. वाइफ भी वहीं थी उन दिनों देहरादून. बुड्ढा निकला रंगीला सायर. रोज़ सुबह से आधी रात तक हर दस मिन्ट में पैन्चो एक सायरी. लाइक करो तो आफ़त. न करो तो आफ़त. वाइफ अलग नाराज़. आपने पापा की सायरी लाइक नहीं की. अबे खच्चर हैं साले यार हम कोई. फोन में साली हर बखत टुणुन्ग टुणुन्ग. आज बुड्ढे ने परिवार की फ़ोटो लगाई हैं. मेरी भी है एक. जेल से बाहर निकलते हमारे जामाता ये लिख के टैग किया है साले ने.

इस वाकये को साल बीतने आया. कहाँ हो सुतली उस्ताद?