Monday, February 29, 2016

कोऊ जाय तखत पै बैठे कोऊ भए तनखैया


बानी हिरनगरभ सतसंगी
- संजय चतुर्वेदी

सबद अकाली बड़े लड़ैया,
बानी हिरनगरभ सतसंगी अगम लोक दरसैया 
कबू खुदाई कबू नबूवत पोथी कबू पढ़ैया 
कोऊ जाय तखत पै बैठे कोऊ भए तनखैया 
सुर बिराट संगीत सिरोमन अनहद राग गवैया 
निरगुन कबू कबू गुन-सम्मत शिवजंगम प्रगटैया 
रीतिबद्ध बिकराल ऊरजा कहा करै सतसैया 
निरंकार गोबिंद निहंगी जो परपीर धरैया 
भक्ति द्रावड़ी जनाधार पुनि अटपट चलै सवैया 
सिद्धनाथ रोचन कबीर मन लोचन नीर बहैया.

 (2015)

उठो ज्ञानी खेत संभारो


पंडित कुमार गंधर्व जी के स्वर में  कबीरदास जी का एक और अति प्रिय भजन-  

अवधूता गगन घटा गहरानी रे

पश्चिम दिशा से उलटी बादलरुम झूम बरसे मेहा
उठो ज्ञानी खेत संभारोबह निसरेगा पानी 

निरत सुरत के बेल बनावोबीजा बोवो निज धानी
दुबध्या दूब जमन नहिं पावेबोवो नाम की धानी 

चारो कोने चार रखवालेचुग ना जावे मृग धानी
काट्या खेत भींडा घर ल्यावेजाकी पुरान किसानी 

पांच सखी मिल करे रसोईजिहमे मुनी और ग्यानी
कहे कबीर सुनो भाई साधोबोवो नाम की धानी 


ईदगाह के मेले से लौट रहे नन्हे हामिद ने बचाया मेरी आत्मा को


किसने बचाया मेरी आत्मा को
-आलोक धन्वा


किसने बचाया मेरी आत्मा को
दो कौड़ी की मोमबत्तियों की रोशनी ने

दो-चार उबले हुए आलुओं ने बचाया

सूखे पत्तों की आग
और मिट्टी के बर्तनों ने बचाया
पुआल के बिस्तर ने और
पुआल के रंग के चाँद ने
नुक्कड़ नाटक के आवारा जैसे छोकरे
चिथड़े पहने
सच के गौरव जैसा कंठ-स्वर
कड़ा मुक़ाबला करते
मोड़-मोड़ पर
दंगाइयों को खदेड़ते
वीर बाँकें हिन्दुस्तानियों से सीखा रंगमंच
भीगे वस्त्र-सा विकल अभिनय

दादी के लिए रोटी पकाने का चिमटा लेकर
ईदगाह के मेले से लौट रहे नन्हे हामिद ने
और छह दिसम्बर के बाद
फ़रवरी आते-आते
जंगली बेर ने
इन सबने बचाया मेरी आत्मा को.

युगन युगन हम योगी अवधूत



पंडित कुमार गन्धर्व की आवाज़ में कबीरदास जी का एक कम सुना गया भजन -


अवधूता युगन युगन हम योगी
आवै ना जाय मिटै ना कबहूं
सबद अनाहत भोगी
सभी ठौर जमात हमरी
सब ही ठौर पर मेला
हम सब माय सब है हम माय
हम है बहुरी अकेला
हम ही सिद्ध समाधि हम ही
हम मौनी हम बोले
रूप सरूप अरूप दिखा के
हम ही हम तो खेलें
कहे कबीर जो सुनो भाई साधो
ना हीं न कोई इच्छा
अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं
खेलूं सहज स्वेच्छा

फूल रही सरसों सकल बन


फिर से उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान


Sunday, February 28, 2016

जो गर्क करे फिर उसको भी यां डुबकूं डुबकूं करनी है


बाबा नज़ीर अकबराबादी का कलाम  -

दुनियां बदले की जगह है
- नज़ीर अकबराबादी

है दुनियां जिसका नाम मियां, यह और तरह की बस्ती है
जो महंगों को तो महंगी है और सस्तों को यह सस्ती है
यां हर दम झगड़े उठते हैं, हर आं अदालत पस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है
                       
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

जो और किसी का मन रक्खे तो उसको भी अरमान मिले
जो पान खिलावे पान मिले जो रोटी दे तो नान मिले
नुकसान करे नुक्सान मिले अहसान करे अहसान मिले
जो जैसा जिसके साथ करे फिर वैसा उसको आन मिले

                        कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

जो और किसी की जां बख्शे तो उसकी भी हक़ जान रखे
जो और किसी की आन रखे तो उसकी की हक़ आन रखे
जो यां का रहनेवाला है यह दिल में अपने जान रखे
ये तुरत फुरत का नक्शा है इस नक़्शे को पहचान रखे   
           
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

जो पार उतारे औरों को उसकी भी पार उतरनी है
जो गर्क करे फिर उसको भी यां डुबकूं डुबकूं करनी है
शमशीर तबर बन्दूक सिनां और नश्तर तीर नहरनी है
यां जैसी जैसी करनी है फिर वैसी वैसी भरनी है

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

जो और का ऊंचा बोल करे, तो उसका बोल भी बाला है
और दे पटके तो उसको कोई और पटकने वाला है
बे ज़ुल्मो खता जिस ज़ालिम ने मजलूम जिबह कर डाला है
उस ज़ालिम के भी लोहू का फिर बहता नद्दी नाला है

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

जो मिश्री और के मुंह में दे, फिर वह भी शक्कर खाता है
जो और के तईं अब टक्कर दे फिर वह भी टक्कर खाता है
जो और को डाले चक्कर में फिर वह भी चक्कर खाता है
जो और को ठोकर मार चले फिर वह भी ठोकर खाता है

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

जो और किसी को नाहक में कोई झूठी बात लगाता है
और कोई गरीब और बेचारा हक़ नाहक में लुट जाता है
वह आप भी लूटा जाता है और लाठी पाठी खाता है
जो जैसा जैसा करता है फिर वैसा वैसा पाता है

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

जो और की पगड़ी ले भागे उसका भी और उचक्का है
जो और पै चौकी बिठवा दे उस पर भी धौंस धड़क्का है
यां पुश्ती में तो पुश्ती है और धक्के में यां धक्का है
क्या जोर मज़े का जमघट क्या जोर ये भीड़ भड़क्का है

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

है खटका उसके हाथ लगा जो और किसी को दे खटका
और गैब से झटके खाता है जो और किसी को दे झटका
चीरे के बीच में चीरा है और धक्के में यां धक्का है
आया कहिये और नज़ीर आगे, जोर तमाशा झटपट का

कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ और अदल परस्ती है
                        इस हाथ करो उस हाथ मिले यां सौदा दस्त ब दस्ती है

वे ऐसे जिस्म को जगाती हैं जो सदियों पीछे छूट गए


रेशमा
-आलोक धन्वा

रेशमा हमारी क़ौम को
गाती हैं
किसी एक मुल्क को नहीं

जब वे गाती हैं
गंगा से सिंधु तक
लहरें उठती हैं

वे कहाँ ले जाती हैं
किन अधूरी,
असफल प्रेम-कथाओं
की वेदनाओं में

वे ऐसे जिस्म को
जगाती हैं
जो सदियों पीछे छूट गए
ख़ाक से उठाती हैं
आँसुओं और कलियों से

वे ऐसी उदासी
और कशमकश में डालती हैं
मन को वीराना भी करती हैं

कई बार समझ में नहीं
आता
दुनिया छूटने लगती है पीछे
कुछ करते नहीं बनता

कई बार
क़ौमों और मुल्कों से भी
बाहर ले जाती हैं
क्या वे फिर से मनुष्य को
बनजारा बनाना चाहती
हैं?

किनकी ज़रुरत है
वह अशांत प्रेम
जिसे वह गाती हैं!

मैं सुनता हूँ उन्हें
बार-बार

सुनता क्या हूँ
लौटता हूँ उनकी ओर
बार-बार
जो एक बार है
वह बदलता जाता है

उनकी आवाज़
ज़रा भीगी हुई है
वे क़रीब बुलाती हैं
हम जो रहते हैं
दूर-दूर!

वीदा गाबोर के चित्र - 2













वीदा गाबोर के चित्र - 1

वीदा गाबोर के बूढ़े, बच्चे और मुटल्ली औरतें अब एक तरह से उनका ट्रेडमार्क माने जाते हैं.

हंगरी के एक साधारण कामकाजी घर में जन्मे वीदा गाबोर (1937-1999) को बचपन से ही संगीत में अभिरुचि थी. उन्हें हंगरी की एक प्रतिष्ठित संगीत स्कॉलरशिप भी मिली और उन्होंने बांसुरी वादन में निपुणता हासिल की. 1956 में उन्होंने बुडापेस्ट फिलहार्मोनिक ऑपेरा में फ्लूट सोलोइस्ट के रूप में काम करना शुरू किया और वे इससे अगले 25 साल तक जुड़े रहे. हालांकि उन्होंने अपने शुरुआती जीवन में संगीत और प्रस्तरशिल्प को ज्यादा महत्त्व दिया लेकिन 1977 में उन्होंने फ़ैसला किया कि वे सिर्फ पेंटिंग किया करेंगे. वे एक परफेक्शनिस्ट थे और तमाम ललित कलाओं में उन्होंने उत्कृष्टता के नए पैमाने गढ़े.












जल जंगल जमीन जनता सम खग-मृग रहें सुखारे


केवलादेव रामसर
(भरतपुर पक्षी अभ्यारण्य)
- संजय चतुर्वेदी

साहिब सुनौ घना के भीतर,
करौ तीतर चूं चूं बोलै भूरौ करै कतीतर
गिरिजा बटई ब्राह्मी मैना खंजन चकवी चकवा
बक बगला बलाक अंजन सारस सुरकंठ चहकवा
घुंगिल दाबिल बुज्जा बाज़ भुजंगा रामचिरैया
घुघ्घू बुब्बू चुगद चील कठफोड़वा बया पपैया
पनकौआ धनेस मुटरी जलमुर्गी खुटकबढ़ैया
जाड़े में पुनि आएं हजारन लाखन यहीं बसैया  
अनजाने रसदार फलन के तोता बीज निकारै
बुलबुल ऊधम करै दूर बन केकी कहूँ पुकारै
हरे कबूतर ऊपर बैठे झुरमुट बैठे कौआ
सात सहेली चकर-चकर में महागदर समझौआ
फुनगी ऊपर हरियल फुदकै टुकटुक करै बसंता 
नीलकंठ बिसपाई जंगल ताकी कथा अनंता  
जीवतत्व मुरझाय रहे औसधी रसायन मारे
गौरैया हलकान गिद्ध सब जानें कहां सिधारे
नगर खाय जलवायु मरै घुट-घुट गामन कूँ मारै
बन मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं तासैं कौन उबारै
परजीबी बिकास के लच्छन आन परे जंगल में
आज करौ चिंता, बिनास जो छिपे काल में, कल में
जल जंगल जमीन जनता सम खग-मृग रहें सुखारे
सदा रहै जलघास सदा किलकारें हंस हमारे.

(2015)

जी मैं आता है यहीं मर जाइए - मास्टर मदन का गायन



दो-ढाई साल की उम्र से गाना शुरू कर देने वाले और मात्र चौदह साल की नन्ही आयु में स्वर्गवासी हो गए मास्टर मदन की प्रतिभा का लोहा स्वयं कुन्दन लाल सहगल ने भी माना था. उनका जन्म २८ दिसम्बर १९२७ को जलन्धर के एक गांव खानखाना में हुआ था, जो प्रसंगवश अकबर के दरबार की शान अब्दुर्ररहीम खानखाना की भी जन्मस्थली था. 

अपने भावपूर्ण गायन से वे अपने श्रोताओं को रुला दिया करते थे. इतनी नन्ही उम्र में संतों जैसा उनका गायन सुनकर आप भी एक अलग भाव-अवस्था में पहुँच जाते हैं. ५ जून १९४२ को हुई असमय मौत से पहले उनकी आवाज़ में आठ रेकॉर्डिन्ग्स हो चुकी थीं - तीन ग़ज़लें, तीन भजन और  दो पंजाबी गीतकबाड़खाने के चाहनेवालों के लिए ये आठों रेकॉर्डिन्ग्स प्रस्तुत हैं. इन्हें डाउनलोड भी किया जा सकता है.

Saturday, February 27, 2016

कुदरत के सब बन्दे

गुरबानी.
नुसरत. 

आ जइयो मोरे सांवरे


आज सुबह आपने पंडित कुमार गन्धर्व की एक दुर्लभ रेकॉर्डिंग का एक अंश सुना था. उसी में से एडिट करके एक और ज़बरदस्त पीस. इसे पंडिज्जी के सुपुत्र मुकुल शिवपुत्र ने भी गाया है और कबाड़खाने पर सुना जा सकता है.

तालाबों में पानी सूखा बोतल मिलें पचासी


बदली नहीं उदासी

-संजय चतुर्वेदी

कविता कहाँ दशक की दासी,
अस्सी-नब्बे क्या देखै जनगण की देख उदासी 
वोट हमारा राज किसी का ठगे देश के वासी 
परिवारों के हित की ख़ातिर कौम चढ़ गई फांसी 
काबिज़ हुए दबंग व्याख्या स्वयं हुई मीरासी 
संविधान मातहत न्याय को बना दिया चपरासी
तालाबों में पानी सूखा बोतल मिलें पचासी 
गिरवी हुए किसान लोकसंघर्ष हुए सन्यासी 
संसाधन की लूट व्यवस्था निश्चित करै निकासी 
मालगुज़ारी मार मसीहा दूर देश मधुमासी
पिछलग्गू विचारधारा की कढ़ी हो गई बासी
सदी बदलती क्या देखै जब बदली नहीं उदासी

(2015)