हाजी-मुरात का सिर
कटा हुआ सिर देख रहा हूँ
बहें खून की धाराएँ,
मार-काट का शोर मचा है
लोग चैन कैसे पाएँ.
तेज धारवाली तलवारें
ऊँची-ऊँची लहराएँ,
टेढ़ी और कठिन राहों पर
अब मुरीद बढ़ते जाएँ.
रक्त-सने सिर से यह पूछा -
'मुझे कृपा कर बतलाओ,
कीर्तिवान, तुम गए किस तरह
बेगानो में, समझाओ?'
'मैं तो सिर हाजी-मुरात का
भेद न मुझे छिपाना है
भटका कभी, कटा सिर मेरा
यही मुझे बतलाना है.
गलत राह पर चला कभी मैं
मैं घमंड का था मारा...'
देख रहा था यह भटका सिर
कटा पड़ा जो बेचारा.
पुरुष पर्वतों में जो जन्मे
बेशक दूर-दूर जाएँ,
हम जिंदा या बेशक मुर्दा
आखिर लौट यही आएँ.
इमाम
शामिल को दागिस्तान से ले जाया गया. सभी ओर तोपें और बंदूकें चलाने के झरोखोंवाले
दुर्ग बना दिए गए. इन झरोखों में से तोपों और बंदूकों के मुँह बाहर निकले रहते थे.
यद्यपि वे गोले-गोलियाँ नहीं चलाती थीं, तथापि यह
कहती प्रतीत होती थीं - 'शांति से बैठे रहो, पहाड़ी लोगो, ढंग से बर्ताव करो, किसी तरह का ऊधम नहीं मचाओ.'
दुख में डूबे हुए यहाँ के
पर्वतवासी
दुख में डूबी नदियाँ, पक्षी, सभी जानवर
ऐसे लगता नहीं कहीं विस्तार यहाँ पर
सिर्फ मौत ही काल-कोठरी से है बाहर.
'जंगलियों की धरती,' एक गवर्नर ने दागिस्तान से जाते
हुए कहा. 'ये धरती पर नहीं, खड्ड में
रहते हैं,' दूसरे ने लिखा.
'इन असभ्य आदिवासियों के पास जो धरती है, वह भी
फालतू है,' तीसरे ने पुष्टि की.
किंतु
उस बुरे वक्त में भी दागिस्तान के पक्ष में लेर्मोंतोव, दोब्रोल्यूबोव, चेर्नीशेव्स्की, बेस्तूजेव-मारलीन्स्की और पिरोगोव की आवाजें सुनाई दीं... हाँ, जारकालीन रूस में भी ऐसे लोग थे जो पहाड़ी लोगों की आत्मा को समझते थे,
जिन्होंने दागिस्तान के जनगण के बारे में कुछ अच्छे शब्द कहे.
काश, पहाड़ी लोग उस वक्त उनकी भाषा समझ सकते!
शाश्वत
हिम की चादर पर्वतमाला पर
शाश्वत
रात,
अँधेरा है उनके ऊपर, -
अपनी
मातृभूमि को देखते हुए सुलेमान स्ताल्स्की ने कभी कहा था.
'दागिस्तान को जबसे काल-कोठरी में बंद कर दिया गया है, साल के हर महीने के इकतीस दिन होते हैं,' मेरे पिता
जी ने कभी लिखा था.
'पर्वतो, हम तुम्हारे साथ तहखाने में बंद हैं,'
अबूतालिब ने कभी कहा था.
'ऐसे दुख से तो पहाड़ों में पहाड़ी बकरा भी उदास हो रहा है,' अनखील मारीन ने कभी गाया था.
'इस दुनिया के बारे में तो सोचना ही व्यर्थ है. जिसका भोजन ज्यादा घीवाला
है, उसी की अधिक ख्याति है,' महमूद ने
निराशा से कहा था.
'सुख कहीं नहीं है,' कुबाची के रहनेवाले अहमद मुंगी
ने सारी दुनिया का चक्कर लगाने के बाद यह निष्कर्ष निकाला.
किंतु
इसी समय इरची कजाक ने लिखा - 'दागिस्तान के मर्द को तो
हर जगह दागिस्तान का मर्द होना चाहिए.'
मरने
से पहले बातिराय ने यह लिखा - 'बहादुरों के यहाँ बुजदिल
बेटे न पैदा हों.'
उसी
महमूद ने यह गाया -
अगर
पहाड़ी बकरा तम में और पहाड़ों में खो जाए
वह
या तो पगडंडी ढूँढ़े या फिर मृत्यु को गले लगाए.
उसी
अबूतालिब ने यह भी कहा था - 'इस दुनिया में अब धमाका
हुआ कि हुआ. यही अच्छा है कि यह धमाका ज्यादा जोर से हो.'
और
वह वक्त आया - जोर का धमाका हुआ. धमाका तो दूर हुआ, उसी
समय दागिस्तान तक उसकी गूँज नहीं पहुँची, फिर भी सब कुछ स्पष्ट
दिखाई देनेवाले लाल निशान से वह दो हिस्सों में बँट गया था - उसका इतिहास,
भाग्य, हर व्यक्ति का जीवन, पूरी मानवजाति! क्रोध और प्यार, विचार और सपने -
सभी कुछ दो भागों में बँट गया.
'धमाका हो गया!...'
'कहाँ हुआ धमाका?'
'पूरे रूस में.'
'किस चीज का धमाका हुआ?'
'क्रांति का.'
'किसकी क्रांति का?'
'मेहनतकशों की क्रांति का.'
'उसका लक्ष्य?'
'जो थे खाली हाथ, अब सब चीजों के नाथ.'
'उसका रंग कौन-सा है?'
'लाल.'
'उसका गाना क्या है?'
'यह जंग आखिरी और निर्णायक जंग है.'
'उसकी सेना?'
'सभी भूखे और दीन-दुखिया. श्रम की महान सेना.'
'उसकी भाषा, उसकी जाति? '
'सभी भाषाएँ, सभी जातियाँ.'
'उसका नेता?'
'लेनिन.'
'दागिस्तान के पहाड़ी लोगों से क्रांति क्या कहती है? अनुवाद करके हमें बताइए.'
नायकों
और गायकों ने दागिस्तान की सभी भाषाओं-बोलियों में अनुवाद कर दिया -
'सदियों से उत्पीड़ित दागिस्तान के जनगण! टेढ़ी-मेढ़ी पहाड़ी पगडंडियों से
हमारे घरों, हमारे खेतों में क्रांति आई है. उसे सुनिए और
अपने को उसकी सेवा में अर्पित कीजिए. वह आपसे ऐसे शब्द कहती है जो आपने कभी नहीं
सुने. वह कहती है -
'भाइयो! नया रूस आपकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाता है. उस हाथ को थाम लीजिए,
बड़े तपाक से अपना हाथ उसके हाथ से मिलाइए, उसी
में आपकी शक्ति और विश्वास निहित है.
'घाटियों और पर्ततों के बेटे-बेटियो! बड़ी दुनिया की ओर खिड़कियाँ खोलिए.
नया दिन नहीं, बल्कि नए भाग्य का श्रीगणेश हो रहा है. इस
भाग्य का स्वागत कीजिए.
'अब आपको शक्तिशालियों के लिए अपनी कमर नहीं तोड़नी होगी. अब से पराये लोग
आपके घोड़ों पर सवारी नहीं करेंगे. अब आपके घोड़े-आपके घोड़े होंगे, आपके खंजर - आपके खंजर होंगे, आपके खेत - आपके खेत
होंगे, आपकी आजादी - आपकी आजादी होगी.'
'अव्रोरा' जहाज पर अक्तूबर क्रांति के आरंभ का संकेत
देनेवाली तोप की गरज का दागिस्तान के जनगण की भाषाओं में उपर्युक्त अनुवाद किया
गया. इसे अनूदित किया मखाच, उल्लूबी, ओस्कार,
जलाल, काजी-मुहम्मद, मुहम्मद-मिर्जा,
हारूँ और क्रांति के अन्य मुरीदों ने जो दागिस्तान के दुख-दर्दों
से भली-भाँति परिचित थे.
और
दागिस्तान अपने भाग्य के स्वागत के लिए बढ़ा. पहाड़ी लोगों ने क्रांति के रंग
और उसके गीतों को अपना लिया. किंतु क्रांति के शत्रु भयभीत हो उठे. यह तो उन्हीं
के सिरों के ऊपर बिजली कड़क उठी थी, उन्हें के
पाँवों तले धरती हिल गई थी, उन्हीं के सामने सागर में भयानक
तूफान आ गया था, उन्हीं की पीठों के पीछे चट्टानें टूट पड़ी
थीं. पुरानी दुनिया जोर से काँपी और ढह गई. एक बहुत गहरी खाई बन गई.
'अपना हाथ हमारी ओर बढ़ाओ.' क्रांति के दुश्मनों ने
अपने को दागिस्तान के दोस्त बताते हुए कहा.
'आपके हाथ खून से सने हुए हैं.'
'जरा रुको, तुम उधर नहीं जाओ, पीछे
मुड़कर देखो, दागिस्तान.'
'जिस चीज को पीछे मुड़कर देखा जाए, क्या है पीछे
देखने को? गरीबी, झूठ, अँधेरा और खून.'
'छोटे-से दागिस्तान. किधर चल दिए तुम?'
'कुछ बड़ा खोजने को.'
'महासागर में तुम एक छोटी-सी नाव जैसे होगे. तुम कहीं के नहीं रहोगे. तुम्हारी
भाषा, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा
रंग-ढंग, तुम्हारी समूरी टोपी, तुम्हारा
सिर - इनमें से कुछ भी तो बाकी नहीं रहेगा.' इन लोगों ने
धमकी दी.
'मैं तंग पगडंडियों पर चलने का आदी हूँ. क्या अब चौड़े रास्ते पर अपना
पाँव तोड़ लूँगा? बहुत अरसे से मैं इस रास्ते की खोज कर रहा
था. मेरा एक बाल भी बाँका नहीं होगा.'
'दागिस्तान धर्मभ्रष्ट हो गया. वह नष्ट हो रहा है. दागिस्तान को बचाइए.'
कौवों ने काँय-काँय की, भेड़िये चीखे-चिल्लाए.
खूब शोर मचाया गया, धमकियाँ दी गईं, मिन्नतें
और हत्याएँ की गई, छल-कपट किया गया. क्रांति का जो दीप जल
उठा था, उसे बुझाने की कितनी कोशिशें नहीं की गईं. इस महान
पुल को जला डालने के कितने प्रयास नहीं किए गए. एक के बाद एक झंडा बदला, एक के बाद एक लुटेरा आया. जाड़े की बेहद ठंडी रात में समूर के कोट की
भाँति उन्होंने छोटे-से दागिस्तान को अपनी-अपनी तरफ खींचा, उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले. और वह जंजीर से मुक्त होनेवाले पहाड़ी बकरे
की तरह कभी एक तो कभी दूसरी दिशा में भागता रहा. हर कोई हिंसक जैसी हिंसक जैसी
तीव्र चाह से उसे पकड़ने के लिए उस पर झपट रहा था. कैसे-कैसे शिकारियों ने उस पर
अपनी गोलियाँ नहीं चलाईं.
'मैं दागिस्तान का इमाम नज्मुद्दीन मोत्सीन्स्की हूँ जिसे आंदी की झील
के तट पर लोगों ने चुना है. मेरी तलवार ऐसी समूरी टोपियों की तलाश में है जिन पर
लाल कपड़े के टुकड़े लगे हुए हें.' 'एक ही धर्म के माननेवालो,
मुसलमान भाइयो. मेरे पीछे-पीछे आइए. मैंने ही इस्लाम का हरा झंडा
ऊपर उठाया है.' एक अन्य व्यक्ति बड़े जोर से चिल्लाकर ऐसा
कहता था. उसका नाम था उजून-हाजी.
'जब तक मैं आखिरी बोल्शेविक का सिर बाँस पर लटकाकर दागिस्तान के सबसे
ऊँचे पर्वत पर उसे प्रदर्शित नहीं कर दूँगा, तब तक अपनी
बंदूक को खूँटी पर नहीं लटकाऊँगा. प्रिंस नूहबेक तारकोव्स्की यह शोर मचाया करता
था.
इसी
साल जार की फौज के कर्नल काइतमाज अलीखानोव ने खूँजह में अपने लिए एक महल बनवाया.
उसने एक पहाड़िये को अपना घर दिखाने के लिए अपने यहाँ बुलाया. खुद अपने पर और महल
पर मुग्ध होते हुए काइतमाज ने पूछा -
'कहो, बढ़िया है न मेरा महल?'
'मरते आदमी के लिए तो बहुत ही बढ़िया है,' पहाड़ी आदमी
ने जवाब दिया.
'मेरे मरने का भला क्या सवाल पैदा होता है?'
'क्रांति....'
'मैं उसे खूँजह में नहीं आने दूँगा.' कर्नल अलीखानोव
ने जवाब दिया और उछलकर तेज, सफेद घोड़े पर सवार हो गया.
'मैं सईदबेई हूँ - इमाम शामिल का सगा पोता. मैं तुर्की के सुलतान की तरफ से
यहाँ आया हूँ ताकि उसके बहादुरों की मदद से दागिस्तान को आजाद कराउँ,' बाहर से आनेवाले इस एक अन्य व्यक्ति ने ऐसी घोषणा की और उसके साथ सभी
तरह के तुर्क पाशा तथा बेई थे.
'हम दागिस्तान के दोस्त हैं,' हस्तक्षेपकारियों ने
चिल्लाकर कहा और दागिस्तान की धरती पर तोड़-फोड़ की कार्रवाइयाँ करनेवाले
बर्तानवी फौजी आ धमके.
'दागिस्तान - यह बाकू का फाटक है. इस फाटक पर मैं मजबूत ताला लगा दूँगा.'
जार की सेना के कर्नल बिचेराखोव ने डींग हाँकी और पोर्ट-पेत्रोव्स्क
को तबाह कर डाला.
बहुत-से
बिन बुलाए मेहमान आए. किसके-किसके गंदे हाथ ने दागिस्तान की छाती पर कमीज को नहीं
फाड़ा. कैसे-कैसे झंडों की यहाँ झलक नहीं मिली. कैसी-कैसी हवाएँ नहीं चलीं.
कैसी-कैसी लहरें पत्थरों से नहीं टकराईं.
'दागिस्तान, अगर तुम हमारी बात नहीं मानोगे, तो हम तुम्हें धकियाकर समुद्र में डुबो देंगे.' बाहर
से आने वालों ने धमकी दी.
मेरे
पिता जी ने उस वक्त लिखा था - 'दागिस्तान ऐसे जानवर के
समान है जिसे सभी ओर से परिंदे नोचते हैं.'
गोलाबारी
हुई,
आग की लपटें उठीं, खून बहा, चट्टानों से धुआँ उठा, फसलें जलीं, गाँव तबाह हुए, बीमारियों ने लोगों की जानें लीं,
दुर्ग कभी एक के हाथ में और कभी दूसरे के हाथ में जाते रहे. यह सब
कुछ चार साल तक चलता रहा.
'खेत बेचकर घोड़ा खरीदा, गाय बेचकर तलवार खरीदी,'
पहाड़ी लोग उन दिनों ऐसा कहते थे.
सवारों
को खोकर घोड़े हिनहिनाते थे. कौवे मुर्दों की आँखें निकालते थे.
मेरे
पिता जी ने उस समय के दागिस्तान की ऐसे पत्थर से तुलना की थी जिसके करीब से अनेक
नदियाँ शोर मचाती हुई गुजरी हों. मेरी माँ ने अनेक तूफानी धाराओं के प्रतिकूल
जानेवाली मछली के साथ उसकी तुलना की थी.
अबूतालिब
ने याद करते हुए लिखा था - 'हमारे देश ने कैसे-कैसे
जुरनावादकों को नहीं देखा!' खुद अबूतालिब छापामार दस्ते का
जुरनावादक था.
अब
लेखनियों से उस किस्से, उस कहानी को लिखा जाता है जो
तलवारों से लिखी गई थी. अब उन दिनों का अध्ययन करते हुए ख्याति और बहादुरी के
कारनामों को तुला पर तौला जाता है. वीरों-नायकों का मूल्यांकन करते हुए विद्वान
आपास में बहस करते हैं, हम कह सकते हैं कि वे आपस में जूझते
हैं.
पर
खैर,
वीरों ने लड़ाई लड़ ली. मेरे लिए सचमुच इस बात का कोई महत्व नहीं
है कि इनमें से किसको पहला, दूसरा या तीसरा स्थान दिया जाए.
अधिक महत्वपूर्ण तो यह चीज है कि क्रांति ने चेर्केस्का के पल्लू से मौत के घाट
उतारे गए अपने अंतिम शत्रु का खून पोंछकर खंजर को म्यान में रख लिया. पहाड़ी आदमी
ने इससे हँसिया बना लिया. अपनी नुकीली संगीन को उसने पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के
बीच खोंस दिया. हल में अपनी ताकत लगाते हुए वह अपनी धरती को जोतने लगा, बैलों को हाँकते हुए अपने खेत से घास को बैल-गाड़ी पर लादकर ले जाने लगा.
पहाड़
की चोटी पर लाल झंडा फहराकर दागिस्तान ने अपनी मूँछों पर ताव दिया. नकली इमाम
गोत्सीन्स्की की पगड़ी से उसने कौवों-चिड़ियों को डरानेवाला पुतला बनाकर खेत में
खड़ा कर दिया और खुद इमाम को तो इन्कलाब ने सजा दी. गोत्सीन्स्की अदालत में
गिड़गिड़ाता रहा था - 'गोरे जार ने शामिल को जिंदा
छोड़ दिया था. उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा था. आप लोग मुझे क्यों मौत की सजा दे रहे
हैं?'
दागिस्तान
और क्रांति ने उसे जवाब दिया - तुम्हारे जैसे का तो शामिल ने भी सिर काट डाला
होता. वह कहा करता था - 'गद्दार का तो धरती के ऊपर रहने
के बजाय उसके नीचे होना कहीं ज्यादा अच्छा है.' हाँ,
उसे सजा दी गई, एक भी पहाड़ी नहीं काँपी,
किसी ने भी आँसू नहीं बहाए, किसी ने भी उसकी
कब्र पर याद का पत्थर नहीं लगाया.
काइतमाज
अलीखानोव अपने सफेद घोड़े पर सवार होकर त्सूनती इलाके के वनों में से भाग चला.
उसके दो बेटे भी उसके साथ भाग रहे थे. किंतु वे लाल छापेमारों की गोलियों के शिकार
हो गए. कर्नल का सफेद घोड़ा उदास होता और एक टाँग से लँगड़ाता हुआ खूँजह के दुर्ग
में वापस लौट गया.
'तुम्हें गलत रास्ते पर छोड़ दिया था उन्होंने,' मुसलिम
अतायेव ने बेचारे घोड़े से कहा. 'वे तो दागिस्तान को भी उसी
रास्ते पर ले जाना चाहते थे.'
बिचेराखोव
को भी भगा दिया गया. उसके जहाँ-तहाँ बिखरे हुए सैनिक दस्ते कास्पी की लहरों में
डूब गए. 'अमीन,' उन्हें अपने नीचे छिपाते हुए लहरों ने कहा. 'अमीन,' पहाड़ कह उठे, 'अल्लाह
करे कि वे जहन्नुम में चले जाएँ जो इस धरती पर जहन्नुम बना रहे थे.'
इस्तंबूल
में मैं बाजार में गया. मेरे इर्द-गिर्द जमा भूतपूर्व अवार लोगों ने मुझे भीड़ में
से जाता हुआ एक बूढ़ा दिखाया. वह ऐसी बोरी जैसा लगता था जिसमें से अनाज के दाने
निकलकर बाहर गिर गए हों.
'यह काजिमबेई है.'
'कौन-सा काजिमबेई?'
'वह, जो तुर्की के सुलतान की सेनाएँ लेकर दागिस्तान
गया था.'
'क्या वह अभी तक जिंदा है?'
'जैसा कि देख रहे हैं, उसका जिस्म तो अभी तक जिंदा
है.'
हमारा
परिचय करवाया गया.
'दागिस्तान... मैं जानता हूँ उस देश को,' बूढ़े खूसट
ने कहा.
'आपको भी दागिस्तान में जानते हैं,' मैंने जवाब दिया.
'हाँ, मैं वहाँ गया था.'
'फिर जाएँगे?' मैंने जान-बूझकर पूछा.
'अब कभी नहीं जाऊँगा,' उसने जवाब दिया और जल्दी से
अपनी दुकान की तरफ चला गया.
इस्तंबूल
के बाजार का यह छोटा-सा दुकानदार क्या यह भूल गया है कि कासूमकेंट में कैसे उसने
खेत में ही तीन शांतिप्रिय हलवाहों को मार डाला था? क्या
इसे पहाड़ों में वह चट्टान याद नहीं है जहाँ से एक पहाड़ी युवती इसलिए खड्ड में
कूद गई थी कि तुर्क सिपाहियों के हाथों में न पड़े? क्या इस
दुकानदार को यह याद नहीं कि कैसे बाग में से एक छोकरे को उसके सामने लाया गया था,
कैसे उसने उसकी चेरियाँ छीन ली थीं और गुठली को उसकी आँख में थूक
दिया था? लेकिन खैर, वह यह तो नहीं
भूला होगा कि कैसे अंडरवियर पहने हुए भागा था और एक पहाड़ी औरत ने पीछे से पुकारकर
कहा था - 'अरे, आप अपनी समूर की टोपी
तो भूल ही गए.'
तोड़-फोड़
की कार्रवाइयाँ करनेवाले दागिस्तान से भाग गए. काजिमबेई भी भाग गया, शामिल का पोता सईदबेई भी भाग गया.
'सईदबेई अब कहाँ है?' मैंने इस्तंबूल में पूछा.
'साउदी अरब चला गया.'
'किसलिए?'
'व्यापार करने के लिए वहाँ उसकी थोड़ी-सी जमीन है.'
व्यापारियो!
आपको दागिस्तान में व्यापार करने का मौका नहीं मिला. क्रांति ने कहा - 'बाजार बंद है.' खून में भीगी झाड़ू से उसने पहाड़ी
धरती से सारा कूड़ा करकट साफ कर दिया. अब तो दागिस्तान के तथाकथित रक्षकों और
बचानेवालो के पंजर ही पराये देशों में भटकते फिरते हैं.
कुछ
साल पहले बेरूत में एशिया और अफ्रीका के लेखकों का सम्मेलन हुआ. मुझे भी इस सम्मेलन
में भेजा गया. मुझे सम्मेलन में ही नहीं, कभी-कभी उन
दूसरी जगहों पर भी बोलना पड़ा, जहाँ हमें बुलाया गया. ऐसी ही
एक सभा में मैंने अपने दागिस्तान, अपने यहाँ के लोगों और
रीति-रिवाजों की चर्चा की, दागिस्तान के विभिन्न कवियों की
और अपनी कविताएँ भी सुनाईं.
इस
सभा की समाप्ति पर एक सुंदर और जवान औरत ने मुझे सीढ़ियों के करीब रोक लिया.
'जनाब हमजातोव, मैं आपके साथ कुछ बातचीत कर सकती हूँ,
आप अपना कुछ वक्त मुझे दे सकते हैं?'
हम
शाम की चादर में लिपटी बेरूत की सड़कों पर चल पड़े.
'दागिस्तान के बार में बताइए. कृपया सभी कुछ,' अचानक
ही मेरे साथ चलनेवाली इस औरत ने अनुरोध किया.
'मैं तो अभी पूरे एक घंटे तक यही बताता रहा हूँ.'
'और बताइए, और बताइए.'
'किस चीज में आपकी ज्यादा दिलचस्पी है?'
'हर चीज में! दागिस्तान से संबंधित सभी चीजों में.'
मैंने
बताना शुरू किया. हम इधर-उधर घूमते रहे. मेरा वर्णन समाप्त होने के पहले ही वह
फिर से अनुरोध करने लगती -
'और बताइए, और बताइए.'
मैं
बताता रहा.
'अवार भाषा में अपनी कविताएँ सुनाइए.'
'लेकिन आप तो उन्हें नहीं समझेंगी.'
'फिर भी सुनाइए.'
मैंने
कविताएँ सुनाईं. जब सुंदर और जवान औरत किसी बात के लिए अनुरोध करे तो हम क्या कुछ
नहीं करते. फिर उसकी आवाज में दागिस्तान के प्रति ऐसी सच्ची दिलचस्पी की
अनुभूति हो रही थी कि इनकार करना संभव नहीं था.
'आप कोई अवार गाना नहीं गाएँगे?'
'अजी नहीं. मुझे गाना नहीं आता.'
'अभी यह मुझे नाचने को भी मजबूर करेगी,' मैंने सोचा.
'आप चाहें तो मैं गाऊँ?'
'बड़ी मेहरबानी होगी.'
इसी
समय हम सागर-तट पर पहुँच गए थे. उजली चाँदनी में सागर हरी-सी झलक दिखाता हुआ चमक
रहा था.
तो
सुदूर बेरूत में एक अपरिचित सुंदरी समझ में न आनेवाली भाषा में मुझे दागिस्तानी 'दालालाई' माना सुनाने लगी. किंतु जब वह दूसरा गाना
गाने लगी तो मैं समझ गया कि वह कुमिक भाषा में गा रही है.
'आप कुमिक भाषा कैसे जानती हैं?' मैंने हैरान होते
हुए पूछा.
'बदकिस्मती से मैं उसे नहीं जानती.'
'लेकिन गाना...'
'यह गाना तो मुझे मेरे दादा ने सिखाया था.'
'वह क्या दागिस्तान गए थे?'
'हाँ, एक तरह से गए थे.'
'बहुत पहले?'
'बात यह है कि नूहबेक तारकोव्सकी मेरे दादा थे.'
'कर्नल? अब कहाँ हैं वह?'
'वह तेहरान में रहते थे. इस साल चल बसे. मरते वक्त वह लगातार मुझसे यही
गाना गाने को कहते रहे.'
'किस बारे में है यह गाना?'
'मौसमी परिंदों के बारे में... उन्होंने मुझे एक दागिस्तानी नाच भी
सिखाया था. देखिए!'
यह
औरत नए चाँद की तरह चमक उठी, उसने बड़ी लोच से हाथ
फैलाए और झील में तैरनेवाली हंसिनी की तरह चक्कर काटने लगी.
कुछ
देर बाद मैंने उससे मौसमी परिंदों के बार में फिर से गाना सुनाने की प्रार्थना की.
उसने मुझे गाने के शब्दों का अर्थ भी बताया. होटल में लौटकर मैंने याददाश्त के
आधार पर अवार भाषा में अनुवाद करके इस गाने को लिख लिया.
हाँ, दागिस्तान में बसंत आ गया है. लेकिन मैं लगातार यह सोचता रहता हूँ कि
प्रिंस नूहबेक तारकोव्स्की का मौसमी परिंदों के बारे में इस गाने से क्या संबंध
हो सकता है? तेहरान में रहनेवाले उस कर्नल को, जो क्रांतिकारी क्षेत्र और दागिस्तान के प्रतिशोध से बचकर भागा था,
किसलिए पहाड़ों के क्रांतिकारी लाल सूरज की याद आती थी? उसे कैसे मातृभूमि से जुदाई की तड़प महसूस हो सकती थी?
ईरान
में रहते हुए शुरू में तो तारकोव्स्की यह कहता रहा - 'मेरे और दागिस्तान के साथ जो कुछ हुआ है, वह भाग्य
की भूल है और इस भूल को सुधारने के लिए मैं वहाँ वापस जाऊँगा.' तारकोव्स्की और उसके साथ अन्य प्रवासी भी हर दिन कास्पी सागर के तट पर
जाते थे ताकि दागिस्तान से आनेवाली कोई खबर जान सकें. लेकिन उन्हें हर बार ही यह
देखने को मिलता कि कास्पी सागर से आनेवाले जहाजों के मस्तूलों पर लाल झंडे लहरा
रहे हैं. पतझर में उत्तर से उड़कर आनेवाले पक्षियों को देखकर मातृभूमि की याद में
हूक महसूस करतेहुए उसकी पत्नी गाने गाती. वह मौसमी पक्षियों के बारे में उपर्युक्त
गाना भी गाती. शुरू में तो प्रिंस तारकोव्स्की को यह गाना बिल्कुल अच्छा नहीं
लगता था.
साल
बीतते गए. बच्चे बड़े हो गए. कर्नल तोरकोव्स्की बूढ़ा हो गया. वह समझ गया कि अब
कभी भी दागिस्तान नहीं लौट सकेगा. उसकी समझ में यह बात आ गई कि दागिस्तान का
दूसरा ही भाग्य है, कि दागिस्तान ने खुद ही अपने
लिए यह एकमात्र और सही रास्ता चुना है. तब बूढ़ा प्रिंस भी मौसमी परिंदों के बारे
में यह गाना गाने लगा.
पिता
जी कहा करते थे -
'दागिस्तान उनका साथ नहीं देगा जिन्होंने दागिस्तान का साथ नहीं दिया.'
अबूतालिब
इसमें जोड़ा करता था -
'जो पराये घोड़े पर सवार होता है, वह जल्द ही नीचे
गिर जाता है. हमारा खंजर किसी दूसरे की पोशाक के साथ शोभा नहीं देता.'
सुलेमान
स्ताल्स्की ने लिखा था -
'मैं जमीन में दबे हुए खंजर के समान था. सोवियत सत्ता ने मुझे बाहर निकाला,
मेरा जंग साफ कर दिया और मैं चमक उठा.'
पिता
जी यह भी कहा करते थे -
'हम बेशक हमेशा ही पहाड़ी लोग थे, मगर पहाड़ की चोटी
पर केवल अभी चढ़े हैं.'
अबूतालिब
कहा करता था -
'दागिस्तान, तहखाने से बाहर निकल आ!'
पालना
झुलाते हुए मेरी अम्माँ गाया करती थीं -
बड़े
चैन से सोओ बेटा, शांति पहाड़ों में आई
कहीं
गोलियों की आवाजें देतीं नहीं सुनाई.
'फरवरी का महीना सबसे छोटा, मगर कितना महत्वपूर्ण है,'
अबूतालिब का ही कहना था, 'फरवरी में जार का
तख्ता उलटा गया, फरवरी में लाल सेना बनी और फरवरी में ही
लेनिन पहाड़ी लोगों के प्रतिनिधिमंडल से मिले.'
इसी
समय दूरस्थ रूगूजा गाँव में नारियों ने लेनिन के बारे में एक गाना रचा -
तुमने
ही तो सबसे पहले आ, इनसान कहा हमको
अस्त्र
विजय का तुमने ही तो पहले पहल दिया हमको,
सुन
उकाब की चीख जिस तरह उड़ जाते कलहंस कहीं
उदय
लेनिनी सूर्य हुआ तो रातें काली नहीं रहीं.
हमारे
छोटे-से जनगण का बड़ा भाग्य है. दागिस्तान के पक्षी गाते हैं. क्रांति के सपूतों
के शब्द गूँजते हैं. बच्चे उनकी चर्चा करते हैं. उनकी कब्रों के पत्थरों पर
उनके नाम खुदे हुए हैं. लेकिन कुछ वीरों की कब्रें अज्ञात हैं.
शांत
रात में मुझे दागिस्तान की सड़कों पर घूमना अच्छा लगता है. जब मैं सड़कों के नाम
पढ़ता हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि फिर से हमारे जनतंत्र की क्रांतिकारी
समिति की बैठक हो रही है. मखाच दाखादायेव. मुझे उसकी आवाज सुनाई देती है - 'हम क्रांति के संघर्षकर्ता हैं. हमारी भाषाएँ, हमारे
नाम और मिजाज - अलग-अलग हैं. मगर एक चीज हम सबमें सामान्य है - क्रांति और दागिस्तान
के प्रति निष्ठा. क्रांति और दागिस्तान के लिए हममें से कोई भी न तो अपना खून और
न जिंदगी कुर्बान करने से ही हिचकेगा.'
प्रिंस
तारकोव्स्की के दस्ते के बदमाशों ने मखाच की हत्या कर डाली थी.
उल्लूबी
बुइनाकस्की - मुझे उसकी आवाज सुनाई दे रही है - 'दुश्मन
मुझे मार डालेंगे. वे मेरे दोस्तों की भी हत्याएँ कर देंगे. किंतु एक घूँसे के
रूप में बँधी हुई हमारी उँगलियों को कोई भी अलग नहीं कर सकेगा. यह घूँसा भारी और
भरोसे का है, क्योंकि दागिस्तान के दुख-दर्दों और क्रांति
के विचारों ने उसे घूँसे का रूप दिया है. वह उत्पीड़कों की शामत ला देगा. यह जान
लीजिए.'
देनीकिन
के सैनिकों ने दागिस्तान के जवान कम्युनिस्ट, अट्ठाईस
वर्ष के उल्लूबी की हत्या कर डाली. उन्होंने उसे दागिस्तान में मारा था. अब
वहाँ पोस्त के फूल खिलते हैं.
मुझे
ओस्कार लेश्चीन्स्की, काजी-मुहम्मद, अगासीयेव, हारूँ सईदोव, अलीबेक
बगातीरोव, साफार दुदारोव, सोल्तन -
सईद कज्बेकोव, पिता-पुत्र बातिरमुर्जायेव, ओमारोव-चोखस्की की आवाजें भी सुनाई देती हैं. बहुत बड़ी संख्या है उनकी,
जिनकी हत्या की गई. किंतु हर नाम ज्वाला है, चमकता सितारा और गीत है. वे सभी वीर हैं जो चिर युवा बने रहेंगे. वे हमारे
दागिस्तान के चापायेव, शोर्सऔर शाउम्यान हैं. आख्ती,
आया-काका के दर्रे, कासूमेंट के जलप्रपात,
खूँजह दुर्ग की दीवार के पीछे, जला दिए गए
हासाव्यूर्त और प्राचीन देर्बेंत में उनकी जानें गईं. अराकान दर्रे में एक भी ऐसा
पत्थर नहीं है जो दागिस्तान के कमिसारों के खून से लथ-पथ न हुआ हो. मोचोख
पर्वतमाला में ही बगातीरोव को फाँसने के लिए फौजी फंदे की व्यवस्था की गई थी.
तेमीरखान-शूरा, पोर्ट-पेत्रोव्स्क और चारों कोइसू नदियों
ने भी, जहाँ अब शहीदों की याद में फूल फेंके जाते हैं,
खून बहता देखा था. एक लाख दागिस्तानी-कम्युनिस्ट और पार्टीजान या
छापामार खेत रहे. किंतु दूसरे जनगण दागिस्तान के बारे में जान गए. लाखों-लाख
लोगों ने लाल दागिस्तान की ओर दोस्ती के हाथ बढ़ाए. इन मैत्रीपूर्ण हाथों की
गर्मी अनुभव करके दागिस्तान के लोगों ने कहा - 'अब हमारी
संख्या कम नहीं है.'
युद्ध
से लोगों का जन्म नहीं होता. किंतु क्रांतिकारी लड़ाइयों की आग में नए दागिस्तान
का जन्म हुआ.
13
नवंबर,
1920 को दागिस्तान के जनगण की पहली असाधारण कांग्रेस हुई. इस
कांग्रेस में रूसी संघ की सरकार की ओर से स्तालिन ने भाषण दिया. उन्होंने
पर्वतीय देश-दागिसतान - को स्वायत्त घोषित किया. नया नाम, नया
मार्ग, नया भाग्य.
जल्द
ही दागिस्तान के जनगण को एक उपहार मिला. लेनिन ने 'लाल
दागिस्तान के लिए' ये शब्द लिखकर अपना फोटो भेजा. कुबाची
के सुनारों और उंत्सूकूल के लकड़ी पर नक्काशी करने वालों ने इस छविचित्र के लिए
अद्भुत चौखटा बनाया. इसी साल मखाचकला के बंदरगाह से 'लाल
दागिस्तान' नाम का नया जहाज पानी में उतरा. किंतु स्वयं
दागिस्तान ही अब एक ऐसे शक्तिशाली जहाज जैसा था जो बहुत बड़े और नए सफर पर रवाना
हुआ था.
'भारे का तारा' - दागिस्तान की पहली पत्रिका को यही
नाम दिया गया था. दागिस्तान में सुबह हो गई थी. विस्तृत संसार की ओर खिड़की खुल
गई थी.
गृह-युद्ध
के कठिन दिनों में, जब पहाड़ों में गोत्सीन्स्की
के फौजी दस्तों का बोलबाला था, मेरे पिताजी को मदरसे के
अपने एक सहपाठी का पत्र मिला.
इस
पत्र में भूतपूर्व सहपाठी ने नज्मुद्दीन गोत्सीन्स्की और उसकी फौजों की चर्चा
की थी. पत्र के अंत में लिखा था - 'इमाम नज्मुद्दीन
तुमसे नाखुश है. मुझे लगा कि उसकी बड़ी इच्छा है कि तुम पहाड़ी गरीबों को संबोधित
करते हुए कविताएँ लिखो जिनमें इमाम के बारे में सचाई बताओ. मैंने तुम्हारे साथ
संपर्क स्थापित करने की जिम्मेदारी ली है और उसे यह वचन दिया है कि तुम ऐसा कर
दोगे. तुमसे अपना अनुरोध और इमाम की इच्छा पूरी करने का आग्रह करता हूँ. नज्मुद्दीन
तुम्हारे जवाब के इंतजार में है.'
पिता
जी ने उत्तर दिया - 'अगर तुमने अपने ऊपर ऐसी जिम्मेदारी
ली है तो तुम ही नज्मुद्दीन के बारे में कविता लिखो. जहाँ तक मेरा संबंध है तो
मैं उसकी पनचक्की को चलाने के लिए पानी पहुँचाने का इरादा नहीं रखता हूँ. वाससलाम,
वाकलाम...'
इसी
वक्त बोल्शेविक मुहम्मद-मिर्जा खिजरोयेव ने पिता जी को तेमीरखान-शूरा से
निकलनेवाले 'लाल पर्वत' समाचार
पत्र के साथ सहयोग करने को बुलाया. इसी समाचार पत्र में पिता जी की कविता 'पहाड़ी गरीबों से अपील' प्रकाशित हुई.
पिता
जी नए दागिस्तान के बारे में लिखते रहे, 'लाल पर्वत'
समाचार पत्र में काम करते रहे. वक्त बीता. मुहम्मद-मिर्जा
खिजरोयेव के यहाँ बेटी का जन्म हुआ. पिताजी को बच्ची का नाम रखने के लिए बुलाया
गया. बच्ची को हाथ में ऊँचा उठाकर पिताजी ने उसका नाम घोषित किया -
'जागरा!'
जागरा
का अर्थ है - सितारा.
नए
सितारों का जन्म हुआ. खेत रहनेवाले वीरों के नामोंवाले बच्चे बड़े हो रहे थे.
पूरा दागिस्तान एक बहुत बड़े पालने जैसा बन गया.
कास्पी
सागर की लहरें उसके लिए लोरी गाती थीं. विराट सोवियत देश मानो बच्चे जैसे दागिस्तान
की चिंता करने के लिए उसके ऊपर झुक गया.
मेरी
अम्माँ उस समय अबाबीलों, पत्थरों के नीचे से उगनेवाली
घासों, समृद्ध पतझर के बारे में गाने गाती थीं. इन लोरियों
की छाया में हमारे घर में तीन बेटे और एक बेटी बड़ी हो रही थी.
दागिस्तान
में फिर से एक लाख बेटे-बेटियाँ बड़े हो गए. हलवाहे, पशु-पालक,
बागबान, मछुए, संगतराश,
पच्चीकार, कृषिशास्त्री, डाक्टर, अध्यापक, इंजीनियर
कवि और कलाकार जवान हो गए. जहाज तैर चले, हवाई जहाज उड़ानें
भरने लगे तथा अब तक अनदेखी-जनजानी बत्तियाँ जगमगा उठीं.
'अब मैं बहुत बड़ी दौलत का मालिक हो गया हूँ,' सुलेमान
स्ताल्स्की ने कहा.
'अब मैं केवल अपने गाँव के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश
के लिए जवाबदेह हूँ,' मेरे पिता जी कह उठे.
'मेरे गीतो, क्रेमलिन को उड़ जाओ.' अबूतालिब ने उत्साहपूर्वक कहा.
नई
पीढ़ियों ने हमारी जनता को नए लक्षण प्रदान किए.
सोवियतों
का महान देश - एक बहुत शक्तिशाली पेड़ है. दागिस्तान उसकी एक शाखा है.
इस
पेड़ की जड़ खोदने, इसके तने और शाखाओं को जला
डालने के लिए फासिस्टों ने हम पर हमला कर दिया.
उस
दिन जीवन अपने सामान्य ढंग से चलनेवाला था. खूँजह में इतवार के दिन की पैंठ लगी
हुई थी. दुर्ग में कृषि-क्षेत्र की उपलब्धियों की प्रदर्शनी आयोजित थी. युवजन का
दल सेद्लो पहाड़ की चोटी पर विजय पाने गया था. अवार थियेटर मेरे पिता जी का नाटक 'मुसीबतों से भरा संदूक' प्रस्तुत करने की तैयारी कर
रहा था. उस शाम को उसका प्रथम प्रदर्शन होनेवाला था.
किंतु
सुबह को मुसीबतों का ऐसा संदूक खुला कि बाकी सभी मुसीबतें भूल जानी पड़ीं. सुबह को
युद्ध आरंभ हो गया.
उसी
वक्त विभिन्न गाँवों से मर्दों और नौजवानों का ताँता लग गया. एक दिन पहले तक ये
लोग शांतिपूर्ण जीवन बितानेवाले चरवाहे और हलवाहे थे और अब मातृभूमि के रक्षक.
दागिस्तान के सभी गाँवों के घरों की छतों पर बुढ़ियाँ, बच्चे और औरतें खड़ी हुई देर तक मोरचे पर जानेवाले इन लोगों को देखती
रहीं. ये बहुत समय के लिए और कुछ तो हमेशा के लिए अपने घरों से चले गए. बस,
यही सुनने को मिलता था -
'अलविदा, अम्माँ.'
'सुखी रहिए, पिताजी.'
'अलविदा, दागिस्तान.'
'तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, बच्चो, विजयी होकर घर लौटो.'
सागर
से पर्वतों को मानो अलग करती हुई गाड़ियों पर गाडियाँ मखाचकला से चली जा रही थीं.
वे दागिस्तान की जवानी, शक्ति और खूबसूरती को अपने
साथ लिए जा रही थीं. सारे देश को इस शक्ति की आवश्यकता थी. रह-रहकर यही सुनने को
मिलता था -
'अलविदा, मेरी मंगेतर.'
'नमस्ते, प्यारी पत्नी.'
'मुझे छोड़कर नहीं जाओ, मैं तुम्हारे साथ जाना चाहती
हूँ.'
'विजयी होकर लौटेंगे.'
गाड़ियाँ
जा रही थीं. लगातार गाड़ियाँ जा रही थीं.
मुझे
अपने प्यारे अध्यापक प्रशिक्षण कालेज की याद आती है. क्रांति शहीदों के
बंधु-कब्रिस्तान के करीब दागिस्तान की घुड़-रेजिमेंट तैयार खड़ी थी. लाल छापामार, प्रसिद्ध कारा कारायेव उसकी कमान सँभाले था. घुड़सैनिकों के चेहरे बड़े
कठोर और गंभीर थे. रेजिमेंट वफादारी की कसम खा रही थी.
नब्बे
साल के पहाड़ी बुजुर्ग ने रेजिमेंट को विदा करते हुए ये शब्द कहे -
'अफसोस की बात है कि मेरी उम्र आज तीस साल नहीं है. फिर भी मैं अपने तीन
बेटों के साथ जा सकता हूँ.'
बाद
में 'दागिस्तान' नामक लड़ाकू हवाई जहाजों का दस्ता बना,
'शामिल' नाम का टैंक-दल और 'दागिस्तानी कोम्सोमोल' नामक बख्तरबंद मोटरगाड़ी.
पिता और पुत्र एक ही कतार में दुश्मन के खिलाफ लड़ रहे थे. पहाड़ों के ऊपर फिर से
फौजी शान चमक दिखाने लगी. हमारी औरतों ने अपने कंगन और झुमके, पेटियाँ और और अँगूठियाँ, अपने चुने हुए वरों,
पतियों तथा पिताओं के उपहार, सोना-चाँदी,
रत्न-हीरे तथा दागिस्तान की प्राचीन कलाकृतियाँ बड़े सोवियत देश
को भेंट कर दीं, ताकि वह विजय हासिल कर सके.
हाँ, दागिस्तान मोरचे पर चला गया. उसने पूरे देश के साथ मिलकर युद्ध में भाग
लिया. सेना के हर भाग-जहाजियों, प्यादा फौजियों, टेंकचियों, हवाबाजों, और
तोपचियों में किसीन किसी दागिस्तानी-निशानेबाज, हवाबाज,
कमांडर या छापेमार - को देखा जा सकता था. बहुत दूर-दूर तक फैले
मोरचों से छोटे दागिस्तान में शोकपूर्ण पत्र आते थे.
हमारे
त्सादा गाँव में सत्तर पहाड़ी घर हैं. लगभग इतने ही नौजवान लड़ाई में गए. युद्ध
के वर्षों में अम्माँ कहा करती थीं - 'मैं सपने में
अक्सर यह देखती हूँ मानो हमारे त्सादा गाँव के सभी जवान नीज्नी वन-प्रांगण में
जमा हो रहे हैं.' कभी-कभी आकाश में तारा देखकर वह कहतीं - 'शायद इस वक्त हमारे गाँव के नौजवान भी लेनिनग्राद के करीब ही कहीं इस
तारे को देख रहे हैं.' जब मौसमी पक्षी उत्तर से उड़कर हमारे
यहाँ आते तो मेरी माँ उनसे पूछतीं - 'तुमने हमारे त्सादा के
नौजवानों को तो नहीं देखा?'
पहाड़ी
औरतें पत्र पढ़ते और रेडियो सुनते हुए अपने लिए कठिन तथा समझ में न आनेवाले -
केर्च,
ब्रेस्त, कोरसून-शेव्चेन्कोव्स्की,
प्लोयेष्टी, कोन्स्तान्त्सा, फ्रेंकफोर्ट ओन माइन, ब्रांडेनबर्ग - आदि शब्दों को
मुँहजबानी याद करने की कोशिश करतीं. पहाड़ी औरतें खास तौर पर तो दो शहरों के मामले
में गड़बड़ करतीं. ये शहर थे - बुखारेस्ट और बुडापेस्ट - तथा हैरान होतीं कि ये
दो भिन्न शहर हैं.
हाँ, कहाँ-कहाँ नहीं गए हमारे त्सादा गाँव के नौजवान.
सन
1943 में अपने पिता जी के साथ मैं बालाशोव शहर गया. वहाँ मेरे बड़े भाई का अस्पताल
में देहांत हो गया था. छोटी-सी नदी के किनारे हमने उसकी कब्र ढूँढ़ ली और उस पर ये
शब्द पढ़े - 'मुहम्मद हमजातोव'.
पिता
जी ने इस कब्र पर रूसी बेर्योजा यानी भूर्ज वृक्ष लगाया. पिता जी ने कहा - 'हमारे त्सादा का कब्रिस्तान अब बहुत फैल गया है. हमारा गाँव अब बड़ा हो
गया है.'