Tuesday, January 31, 2012

तुम सूखे पेड़ की तरह सुन्दर


अन्तिम प्रेम

चन्द्रकान्त देवताले

हर कुछ कभी न कभी सुन्दर हो जाता है
बसन्त और हमारे बीच अब बेमाप फासला है
तुम पतझड़ के उस पेड़ की तरह सुन्दर हो
जो बिना पछतावे के
पत्तियों को विदा कर चुका है

थकी हुई और पस्त चीजों के बीच
पानी की आवाज जिस विकलता के साथ
जीवन की याद दिलाती है
तुम इसी आवाज और इसी याद की तरह
मुझे उत्तेजित कर देती हो

जैसे कभी- कभी मरने के ठीक पहले या मरने के तुरन्त बाद
कोई अन्तिम प्रेम के लिए तैयार खड़ा हो जाता है
मैं इस उजाड़ में इसी तरह खड़ा हूँ
मेरे शब्द मेरा साथ नहीं दे पा रहे
और तुम सूखे पेड़ की तरह सुन्दर
मेरे इस जनम का अंतिम प्रेम हो।

(चित्र- मैक्सिकी चित्रकार फ्रीडा काहलो की पेंटिंग- द रूट्स)

प्रोफ़ेसर पी. लाल को सैल्यूट!


अच्छी किताबें पढ़ने वाले के शौकीनों के घर में राइटर्स वर्कशॉप, कलकत्ता की एकाध किताबें ज़रूर पाई जाती हैं. अपने गेट अप में ये किताबें सब से अलग नज़र आती हैं. हैण्ड टाइपसेट में स्थानीय भारतीय प्रेस में छपी हैंडलूम की साड़ी के कपड़े से मढ़ी हर किताब अपने आप में अलग नज़र आने के बावजूद किसी की भी पहचान में आ सकती हैं. इन किताबों के प्रकाशक, संपादक, प्रूफरीडर, प्रकाशकीय सचिव और सम्पादकीय सहायक का काम एक ही व्यक्ति करता रहा. प्रोफ़ेसर पी. लाल इस लिहाज़ से एक अद्वितीय व्यक्ति थे. अपने जीवनकाल में इस ज़िद के पक्के मेहनती इंसान ने तीन हज़ार से भी ज्यादा किताबें छपीं. अकेले!

विक्रम सेठ, प्रीतीश नंदी, चित्रा बनर्जी जैसे लेखकों की पहली किताबें प्रोफ़ेसर पी. लाल ने ही छपीं जब इन्हें कोई नहीं जानता था. कॉलेज के समय के मेरे गुरूजी प्रोफ़ेसर सैयद अली हामिद (जिनके मजाज़ और क्रिस्टोफर मार्लो के अनुवाद आप कबाड़खाने में पढ़ चुके हैं और जो http://hamidcauldron.blogspot.com नाम से अपना ब्लौग संचालित करते हैं) की किताब भी इन्ही लाल साहब ने छापी थी.

२८ अगस्त १९२९ को जन्मे पुरुषोत्तम लाल एक प्रकाशक बाद में थे, कवि-निबंधकार-अनुवादक और शिक्षाविद पहले. राइटर्स वर्कशॉप तो सन १९६८ में अस्तित्व में आई. कलकत्ते के सेंट ज़ेवियर कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर लाल साहब ने अमरीका के कई संस्थानों में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के तौर पर भी काम किया.


एक लेखक के रूप में पी. लाल ने आठ कविता संग्रह, दर्ज़न से अधिक साहित्य-समीक्षा की पुस्तकें, एक संस्मरण, कई बालोपयोगी किताबें लिखने के अलावा दर्जनों अनुवाद किए - विशेषतः संस्कृत से अंग्रेज़ी में. महाभारत का उनका अंग्रेजी अनुवाद सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है जो अठ्ठारह खण्डों में छाप चुका है. उन्होंने इक्कीस उपनिषदों का भी अंग्रेज़ी अनुवाद किया. संस्कृत के अन्य ग्रंथों के अलावा उन्होंने प्रेमचंद और टैगोर को भी अंग्रेज़ी में अनूदित किया.

अपने जीवन काल में उन्होंने छात्रों, कवियों और लेखकों की कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत का काम किया. बेहद सम्मोहक व्यक्तित्व के धनी पी. लाल ८१ की आयु में ३ नवम्बर २०१० को दिवंगत हुए. उनके द्वारा प्रकाशित एक युवा कवि इन्द्रजीत हज़ारा ने उन्हें बहुत प्यार से याद करते हुए उन्हें बॉब द बिल्डर की तर्ज़ पर पी. लाल द प्लंबर के नाम से संबोधित करते हुए बताया है किस तरह लाल साहब ने हजारा का कविता-संग्रह तब छाप दिया था जब वे सिर्फ १८ के थे. इस संग्रह को छापने के साथ-साथ पी. लाल इन्द्रजीत हज़ारा के पहले काव्य-गुरु भी बन गए थे.

ऐसे असंख्य लेख उनके बारे में आप खोज सकते हैं.

उनके बारे में लम्बे समय से लिखना चाहता था पर न जाने क्यों यह काम टलता रहा. आज सुबह अपनी लाइब्रेरी में एक किताब खोजते हुए राइटर्स वर्कशॉप वाली कुछ किताबों पर निगाह पड़ते ही मैंने फैसला किया कि हर हाल में इस पोस्ट ने आज और अभी लिखा जाना है.

ऐसे कर्मठ लोग बहुत कम जन्मते हैं और खासतौर पर हमारी हिन्दीभाषी गऊ पट्टी में इतना काम कर पाने की जिजीविषा शायद ही कहीं नज़र आई हो.

स्वर्गीय प्रोफ़ेसर पी. लाल को सैल्यूट!

कातिक के कूकुर थोरे थोरे गुर्रात

संजय चतुर्वेदी की कुछेक कंटीली कविताएँ आप यहाँ पहले पढ़ चुके हैं. आज फिर उन्ही को लगाने का मन हुआ -


अलपकाल बिद्या सब आई

ऎसी परगति निज कुल घालक
काले धन के मार बजीफा हम कल्चर के पालक
एक सखी सतगुरु पै थूकै एक बनी संचालक
अलपकाल बिद्या सब आई बीर भए सब बालक

कलासूरमा सदायश: प्रार्थी

कातिक के कूकुर थोरे थोरे गुर्रात
थोरे थोरे घिघियात फँसे आदिम बिधान में.
थोरे हुसियार थोरे थोरे लाचार
थोरे थोरे चिड़िमार सैन मारत जहान में.
कोऊ भए बागी कोऊ कोऊ अनुरागी
कोऊ घायल बैरागी करामाती खैंचतान में
जैसी महान टुच्ची बासना के मैया बाप
सोई गुन आत भए अगली सन्तान में.

कालियनाग जमुनजल भोगै

ऊधौ कवि कुटैम के लीन
आलोचक हैं अति कुटैम के खेंचत तार महीन
कबिता रोय पाठ बिनसै साहित्य भए स्रीहीन
चिट फंडन के मार बजीफा करें क्रान्ति रंगीन
कालियनाग जमुनजल भोगै खुदई बजाबै बीन.

Monday, January 30, 2012

तुम्हें ही चुनूंगा


तुम वहाँ भी होगी

चन्द्रकान्त देवताले

अगर मुझे औरतों के बारे में
कुछ पूछना हो तो मैं तुम्हें ही चुनूंगा
तहकीकात के लिए

यदि मुझे औरतों के बारे में
कुछ कहना हो तो मैं तुम्हें ही पाऊँगा अपने भीतर
जिसे कहता रहूँगा बाहर शब्दों में
जो अपर्याप्त साबित होंगे हमेशा


यदि मुझे किसी औरत का कत्ल करने की
सजा दी जाएगी तो तुम ही होगी यह सजा देने वाली
और मैं खुद की गरदन काट कर रख दूँगा तुम्हारे सामने

और यह भी मुमकिन है
कि मुझे खन्दक या खाई में कूदने को कहा जाए
मरने के लिए
तब तुम ही होंगी जिसमें कूद कर
निकल जाऊँगा सुरक्षित दूसरी दुनिया में

और तुम वहाँ भी होंगी विहँसते हुए
मुझे क्षमा करने के लिए

(चित्र- क्लाउड मौने की पेंटिंग)

सखी मंदरवा में आये नहीं प्रीतम प्यारे


मुकुल शिवपुत्र की एक और कम्पोज़ीशन -



डाउनलोड यहाँ से करें -

http://www.divshare.com/download/16659533-738

नए तिब्बत की कविता - ९

तिब्बती कविताओं की श्रंखला में तेनजिन त्सुंदे की यह आख़िरी कविता है. आशा है इसने आप के सम्मुख तिब्बती शरणार्थियों के जीवन और संघर्ष से सम्बंधित कुछ नए आयाम खोले होंगे. कुछ और तिब्बती कविताएँ बहुत जल्दी -


आतंकवादी

मैं एक आतंकवादी हूँ
मुझे हत्या करने में आनंद आता है.

मेरे सींग हैं
दो विषैले दांत
और ड्रैगनफ्लाई की पूंछ.

अपने घर से भगाया हुआ मैं
डर के मारे छिपा हुआ
बचाता अपना जीवन
दरवाजे भेड़े जाते मेरे चेहरे पर.

लगातार लगातार नहीं मिलता न्याय
धैर्य का इम्तेहान लिया जाता है
टेलीविजन पर, तोड़ा जाता हुआ
एक खामोश बहुमत के सामने
दीवार से सटाया गया,
उस मृत छोर से
लौट कर आया हूँ मैं,

मैं हूँ वह अपमान
जिसे तुमने निगला था
चपटी नाक के साथ.

मैं हूँ वह शर्म
जिसे दफनाया था तुमने अँधेरे में.

मैं आतंकवादी हूँ
गोली मार गिरा दो मुझे

डर और कायरता
मैं छोड़ आया था
घटी में
मिमियाती बिल्लियों
और जीभ लपलपाते कुत्तों के बीच.

मैं अविवाहित हूँ
खोने को
कुछ नहीं मेरे पास.

मैं बन्दूक की गोली हूँ
मैं कुछ नहीं सोचता.

टीन के खोल से
मैं झपटता हूँ
उस दो-सेकेण्ड के जीवन के रोमांच के लिए
और मर जाता हूँ मृतकों के साथ.

मैं जीवन हूँ
जिसे तुम छोड़ आए थे पीछे.

Sunday, January 29, 2012

कुंवारों के कमरे - मारियो मिरान्डा की निगाह से

पहला कमरा महिला का है दूसरा पुरुष का. ज़रा डीटेल्स पकड़ने की कोशिश कीजिये -





समदरसी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो


मुकुल शिवपुत्र से सुनिए सूरदास जी का भजन - हरि मोरे अवगुन चित न धरो -

नए तिब्बत की कविता - ८


दगा

तेनजिन त्सुंदे

हमारे घर,
हमारे गाँव, हमारे देश को बचाने की कोशिश में
मेरे पिता ने अपनी जान गंवाई.
मैं भी लड़ना चाहता था.
लेकिन हम लोग बौद्ध हैं.
शांतिप्रिय और अहिंसक.
सो मैं क्षमा करता हूँ अपने शत्रु को.
लेकिन कभी कभी मुझे लगता है
मैंने दगा दिया अपने पिता को.

Saturday, January 28, 2012

मारियो मिरान्डा की यादें - २

(ऊपर से नीचे - बाज़ार, क्योटो में मंदिर, शीर्षकहीन, बम्बई में ज़िन्दगी, कोने पर खड़ा शख्स)





नए तिब्बत की कविता - ७

तेनजिन त्सुंदे की कविताओं की सीरीज जारी है


मैं थक गया हूँ

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ दस मार्च के उस अनुष्ठान से
धर्मशाला की पहाड़ियों से चीखता हुआ.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटरें बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे, धूल और थूक के बीच इंतज़ार करता

मैं थक गया हूँ
दाल-भात खाने से
और कर्नाटक के जंगलों में गाएं चराने से.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ मजनू टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ लड़ता हुआ उस देश के लिए
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं.

नए तिब्बत की कविता - ६


तिब्बतपन

तेनजिन त्सुंदे

निर्वासन के उन्तालीस साल.
तो भी कोई देश हमारा समर्थन नहीं करता.
एक भी देश तक नहीं!

हम यहाँ शरणार्थी हैं.
खो चुके एक देश के लोग.
किसी भी देश के नागरिक नहीं.

तिब्बती - दुनिया की सहानुभूति के पात्र;
शांत मठवासी और जिंदादिल परम्परावादी;
एक लाख और कुछ हज़ार
अच्छे से घुले-मिले हुए
आत्मसात कर लेने वाले तमाम सांस्कृतिक आधिपत्यों में.

हरेक चेक-पोस्ट और दफ्तर में
मैं एक "भारतीय - तिब्बती" हूँ.
मुझे हर साल अपना रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट
रिन्यू करना होता है एक सलाम के साथ -
भारत में जन्मा एक शरणार्थी.

मैं भारतीय अधिक हूँ.
सिवा अपने चपटे तिब्बती चेहरे के.
"नेपाली?" "थाई?" "जापानी?"
"चीनी?" "नागा?" "मणिपुरी?"
कोई नहीं पूछता - "तिब्बती?"

मैं तिब्बती हूँ.
अलबत्ता मैं तिब्बत से नहीं आया.
कभी गया भी नहीं वहां.
तो भी सपना देखता हूँ
वहां मरने का.

Friday, January 27, 2012

मारियो मिरान्डा की यादें


गोवा की शिथिल, समुद्री छवियों को संसार के सामने पेश करने वाले मारियो मिरान्डा पहले कलाकार थे - गोवा के लोग, उनके विचित्र बाज़ार, ढलवां छतों वाले मकान और भीड़ भरे शराबखाने-कहवाघर.

उनकी रेखाएं अद्वितीय होती थीं. मारियो मिरान्डा को बतौर कार्टूनिस्ट सबसे ज़्यादा प्रसिद्धि उनके बनाए टिपिकल चरित्रों जैसे बण्डलदास और मिस नीम्बूपानी से मिली लेकिन वे एक साधारण कार्टूनिस्ट से कहीं बड़े जीनियस थे. अपनी दुनिया भर की यात्राओं को कार्टूनों और स्केचेज़ के जरिए उकेर कर उन्होंने यात्रावृत्तों के लिए एक नई फॉर्म ईजाद की थी.

पिछले महीने मारियो मिरान्डा ८५ वर्ष की आयु में दिवंगत हुए. उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनके कुछ स्केचेज़ पेश हैं -






(ऊपर से नीचे - चोर बाज़ार, पुराना पेरिस, रेस्तरां क्रोकोडाइल, सेंट फ्रांसिस जेवियर, शिवाजी. कुछ स्केच कल भी देखें)

नए तिब्बत की कविता - ५

अड़तीस साल के तेनजिन त्सुंदे कहते हैं - "मानवीय कथाओं में हमेशा एक सार्वभौमिक अनुगूंज होती है. मैं मानता हूँ कि जहां मेरा दिल में अपने परिवार के साथ अपने घर में रह सकने के एक सपने की टीस होगी, यह नैसर्गिक होगा कि हर कोई उस दर्द को पहचान लेगा, चाहे मेरा पाठक एक चीनी ही क्यों न हो."

तेनजिन की एक और कविता -



हताश समय

मार डालो मेरे दलाई लामा को
ताकि मैं बंद कर दूं यकीन करना.

दफ़ना दो मेरा सिर
फोड़ दो उसे
मेरे कपड़े उतार दो
जंजीरों में बाँध दो.
बस मुझे आजाद न करना.

इस कैदखाने के भीतर
यह शरीर तुम्हारा है.
लेकिन इस शरीर के भीतर
मेरा यकीन बस मेरा है.

तुम चाहते हो न?
मुझे मार डालना यहीं - ख़ामोशी के साथ.
ध्यान रखना एक भी सांस न बचे.
बस मुझे आजाद न करना.

अगर तुम चाहो
तो ऐसा फिर से करना.
बिलकुल शुरू से -
मुझे अनुशासित करो
नए सिरे से शिक्षित करो
अपने सिद्धांत सिखलाओ
मुझे दिखलाओ अपनी कम्युनिस्ट तिकड़में
बस मुझे आजाद न करना.

मार डालो मेरे दलाई लामा को
और मैं
बंद कर दूंगा यकीन करना.

नए तिब्बत की कविता - ४

तेनजिन त्सुंदे की कविताओं की सीरीज जारी है -


क्षितिज

अपने घर से तुम पहुँच गए हो
यहाँ क्षितिज तलक.
यहाँ से अगले की तरफ
ये चले तुम.

वहां से अगले
अगले से अगले
क्षितिज से क्षितिज.
हर कदम है एक क्षितिज.

कदमों की गिनती करो
और उनकी संख्या याद रखना.

सफ़ेद कंकडों को पहचान लो
और विचित्र अजनबी पत्तियों को.
घुमावों को चीन्ह लो
और चारों तरफ की पहाड़ियों को
क्योंकि तुम्हें
दोबारा घर आने की ज़रूरत पड़ सकती है.

Thursday, January 26, 2012

साजन ये मत जानियो की तोरे बिछरत मोहे चैन


महान क़व्वाल मरहूम मुंशी रज़ीउद्दीन अहमद खान (१९१२-२००३) भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े क्लासिकल गवैयों में शुमार किए जाते थे. उनका ताल्लुक़ क़व्वाली के सबसे बड़े घराने यानी दिल्ली के क़व्वाल बच्चा घराने से रहा. उनके ख़ानदान को शाही संरक्षण हैदराबाद के निजाम के दरबार से मिलता आ रहा था. निजाम के पतन के बाद वे पाकिस्तान चले आये. यहाँ उन्होंने अपने भाई मंज़ूर नियाज़ी और अपने चचेरे भाई बहाउद्दीन क़व्वाल के साथ अपनी क़व्वाली पार्टी बनाई. यह टीम १९६६ तक ही चल सकी. इस के बाद उन्होंने अकेले ही इस क्षेत्र में काम किया और अपने बच्चों फरीद अयाज़ और अबू मोहम्मद को क़व्वाली के गुर सिखाए अपनी मौत तक वे भारतीय शास्त्रीय संगीत की बारीकियों का अध्ययन करते रहे.

दीगर है कि उस्ताद बहाउद्दीन क़व्वाल को आप एकाधिक बार कबाड़खाने पर सुन चुके हैं. और उनके लायक बेटों फरीद अयाज़ और अबू मोहम्मद को भी. बल्कि फरीद अयाज़ और अबू मोहम्मद को तो आपने कल ही सुना होगा. आज बड़े उस्ताद को सुनिए. उनके बेटे उनके साथ जुगलबंदी कर रहे हैं -

नए तिब्बत की कविता - 3

तेनजिन त्सुंदे की कविताओं की सीरीज जारी है -


मुंबई में एक तिब्बती

मुंबई में एक तिब्बती
को विदेशी नहीं समझा जाता.

वह एक चाइनीज़ ढाबे
में रसोइया होता है.
लोग समझते वह चीनी है
बीजिंग से आया कोई भगौड़ा

वह परेल ब्रिज की छाँह में
स्वेटरें बेचता है गर्मियों में.
लोग समझते हैं वह
कोई रिटायर हो चूका नेपाली बहादुर है.

मुंबई में एक तिब्बती
बम्बइया हिन्दी में गाली देता है
तनिक तिब्बती मिले लहज़े के साथ
और जब उसकी शब्द - क्षमता खतरे में पड़ती है
ज़ाहिर है वह तिब्बती बोलने लगता है.
ऐसे मौकों पर पारसी हंसने लगते हैं.

मुंबई में एक तिब्बती को
पसंद आता है मिड-डे उलटना
उसे पसंद है एफ़ एम. अलबत्ता वह नहीं करता
तिब्बती गाना सुन पाने की उम्मीद

वह एक लालबत्ती पर बस पकड़ता है
दौडती ट्रेन में घुसता है छलांग मारता
गुज़रता है एक लम्बी अंधेरी गली से
और जा लेटता है अपनी खोली में.

उसे गुस्सा आता है
जब लोग उस पर हँसते हैं
"चिंग-चौंग-पिंग-पौंग"

मुंबई में एक तिब्बती
अब थक चूका है
उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना.
११ बजे रात की विरार फास्ट में
वह चला जाता है हिमालय.
सुबह ८:०५ की फास्ट लोकल
उसे वापस ले आती है चर्चगेट
महानगर में - एक नए साम्राज्य में.

नए तिब्बत की कविता - २

सत्तर की दहाई के शुरुआती सालों में मनाली के नज़दीक भारत की सरहदों पर बन रही सडकों पर मज़दूरी कर रहे एक गरीब तिब्बती शरणार्थी परिवार में जन्मे तेनजिन की तीन पुस्तकें छाप चुकी हैं. इनमें दो कविता-संग्रह हैं और एक उनके लेखों का संग्रह. अपना पहला कविता संग्रह छपने के लिए उन्होंने अपने सहपाठियों से पैसे उधार मांगे थे - तब वे बम्बई में अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. कर रहे थे.

१९९९ में तेनजिन ने फ्रेंड्स ऑफ तिब्बत (इण्डिया) की सदस्यता ग्रहण की. तब से अब तक वे इस संगठन से जुड़े हैं और वर्तमान में महासचिव हैं. २००२ में उन्होंने बम्बई के ओबेरॉय टावर्स में तिब्बती झंडा और एक बैनर फहराया था जिस पर लिखा था - "तिब्बत को आजाद करो". भारत का दौरा कर रहे चीनी राष्ट्रपति उसी इमारत में भारत के बड़े व्यापारियों की एक सभा को संबोधित कर रहे थे. इस घटना ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान इस कारनामे की तरफ खींचा और भारतीय पुलिस अफसरान ने जेल में उन्हें अपने अधिकारों की पैरवी करने की हिम्मत रखने की दाद भी दी.

आज उनकी एक और कविता -



निर्वासन का घर

चू रही थी हमारी खपरैलों वाली छत
और चार दीवारें ढह जाने की धमकी दे रही थीं
लेकिन हमें बहुत जल्द लौट जाना था अपने घर.

हमने अपने घरों के बाहर
पपीते उगाये,
बगीचे में मिर्चें,
और बाड़ों के वास्ते चंगमा,
तब गौशालों की फूंस-ढंकी छत से लुढ़कते आए कद्दू
नांदों से लड़खड़ाते निकले बछड़े,

छत पर घास
फलियों में कल्ले फूटे
और बेलें दीवारों पर चढ़ने लगीं,
खिड़की से होकर रेंगते आने लगे मनीप्लांट,
ऐसा लगता है हमारे घरों की जड़ें उग आयी हों.

बाड़ें अब बदल चुकी हैं जंगल में.
अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
कि कहाँ से आये थे हम?

(चंगमा - बेंत जैसा लचीले तने वाला एक पेड़)

Wednesday, January 25, 2012

ईश्वर और गीध

ईश्वर और गीध


बहुत पहले जब कायदा कानून नही था , गीध बहुत ताक़त वर पक्षी था, और इनसानी बच्चों को खा जाया करता था . वे हमेशा अकेले खेल रहे बच्चों की ताक मे रहता और मौका पाते ही उन्हे उठा ले जाता था . एक गाँव मे लोग गीध के इस कृत्य से परेशान हो गए थे. अतः उन्हो ने ईश्वर के पास शिकायत लगाई. प्रभु इस गीध का कुछ करो वर्ना यह तो हमारी संतति को आगे बढ़ने ही न देगा . ईश्वर ने उन्हे आश्वस्त किया और गीध के पास गया. गीध उस समय बच्चे का गोश्त चबा रहा था. ईश्वर ने गीध से पूछा , तुम इंसानी बच्चों को क्यों उठा ले जाते हो? गीध ने कहा क्यों कि मुझे उन का माँस बहुत पसन्द है. ईश्वर ने कहा , यदि युम इन्हे छोड़ कर कुछ और खाना शुरू कर दो तो तुम्हे अपना मंत्री बनाऊँगा. गीध ने उत्तर दिया, तुम मुझे इस से बेहतर माँस बताओ, तो आगे से इसे मुँह से नही लगाऊँगा. ईश्वर सोचने लगा, इंसानी माँस से बेह्तर और कौन सा माँस हो सकता है ? उसे कुछ नही सूझा. फिर उस ने धमकाया, देखो मै यहाँ का राजा होता हूँ तुम्हे मेरी बात माननी चाहिए. गीध ने कहा , राजा उसे मानता हूँ जिस के पास ताक़त होती है. ईश्वर का चेहरा उतर गया. उसे गीध की ताक़त का पता था . लेकिन प्रकट मे बोला, बहुत घमण्ड है अपनी ताक़त पर ? गीध ने कहा कि उसे कोई घमण्ड वमण्ड नहीं है, वह सिद्ध कर सकता है कि उस के पास ताक़त है. ईश्वर की आँखों मे कुटिल चमक आ गई. बोला अच्छा एक गेम खेलते हैं . यदि तुम जीत गए तो तुम्हे बच्चे खाने की अनुमति मिल जाएगी. हार गए तो इनसानी बच्चे तो क्या , किसी भी ज़िन्दा जानवर का शिकार नही कर पाओगे . ठीक है बताओ क्या गेम है ? ईश्वर ने शर्त रखी-- - मक्खन के ढेले को अपनी चोंच से टुकड़े टुकड़े करना होगा . गीध हँसा...... मंज़ूर है. रखो इस पत्थर पे मक्खन का ढेला. ईश्वर अपनी कुटिल बुद्धि पर प्रसन्न हो रहा था...... गीध शोर मचाते हुए गोल गोल ऊपर उड़ने लगा. उस का कंफिडेंस देख कर ईश्वर संशय मे पड़ गया. कहीं इस ने मक्खन के टुकड़े कर दिए तो ? उसे एक चाल सूझी. जब गीध ऊपर उड़ रहा था तो उस ने चुपके से मक्खन की जगह पर एक सफेद चकमक पत्थर रख दिया. उधर गीध तीर की तरह लक्ष्य पर झपटा. जब उस की वज्र जैसी चोंच चकमक पत्थर से टकराई तो पत्थर के सैकड़ों टुकड़े हो गये. लेकिन खुद गीध भी बेहोश हो गया.
अब क्या करें ईश्वर तो हार गया ! लेकिन ईश्वर को कैसे हरा दें ? तो बच्चो, ईश्वर ने यह किया कि चुपके से चकमक पत्थर समेट के एक तरफ कर दिए, और मक्खन के ढेले मे बेहोश गीध की चोंच घुसा कर चलता बना. होश मे आने पर गीध ने देखा कि मक्खन का ढेला टूटा न था फक़त एक छेद भर निकली थी उस में. गीध को अपनी घमण्ड का अहसास हुआ. तब से गीध अपना बचन निभा रहा है. केवल मरे हुए जानवरों को खा कर गुज़ारा कर रहा है.

संस्कृत से उर्दू, उर्दू से फ़ारसी और जाने कहाँ कहाँ


फ़रीद अयाज़ और अबू मोहम्मद क़व्वाल की एक और लाइव रेकॉर्डिंग आपके लिए पेश करता हूँ. बेहतरीन चीज़ है. अवश्य सुनें.

नए तिब्बत की कविता - १

आज से आप को तिब्बत के युवा विद्रोही कवि तेनजिन त्सुंदे की कुछ कविताओं से परिचित करने जा रहा हूँ. २००१ का पहला आउटलुक-पिकाडोर नौन-फिक्शन अवार्ड पाने वाले तेनजिन ने मद्रास से स्नातक की डिग्री लेने के बाद तमाम जोखिम उठाते हुए पैदल हिमालयी दर्रे पार किए और अपनी मातृभूमि तिब्बत का हाल अपनी आँखों से देखा. चीन की सीमा पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तीन माह ल्हासा की जेल में रखा. उसके बाद उन्हें वापस भारत में "धकेल दिया गया." तेनजिन के बारे में कुछ और बातें बाद में -


जब धर्मशाला में बारिश होती है

मुक्केबाजी के दस्ताने पहने बारिश की बूँदें
हज़ारों हज़ार
टूट कर गिरती हैं
और उनके थपेड़े मेरे कमरे पर.
टिन की छत के नीचे
भीतर मेरा कमरा रोया करता है
बिस्तर और कागजों को गीला करता हुआ.

कभी कभी एक चालक बारिश
मेरे कमरे के पिछवाड़े से होकर भीतर आ जाती है
धोखेबाज़ दीवारें
उठा देती हैं अपनी एड़ियाँ
और एक नन्ही बाढ़ को मेरे कमरे में आने देती हैं.

मैं बैठा होता हूँ अपने द्वीप-देश बिस्तर पर
और देखा करता हूँ अपने मुल्क को बाढ़ में,
आज़ादी पर लिखे नोट्स,
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के ख़त,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी नूडल
भरपूर ताक़त से उभर आते हैं सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए.

तीन महीनों की यंत्रणा
सुई-पत्तों वाले चीड़ों में मानसून,
साफ़ धुला हुआ हिमालय
शाम के सूरज में दिपदिपाता.

जब तक बारिश शांत नहीं होती
और पीटना बंद नहीं करती मेरे कमरे को
ज़रूरी है कि मैं
ब्रिटिश राज के ज़माने से
ड्यूटी कर रही अपनी टिन की छत को सांत्वना देता रहूँ.

इस कमरे ने
कई बेघर लोगों को पनाह दी है,
फिलहाल इस पर कब्ज़ा है नेवलों,
चूहों, छिपकलियों और मकड़ियों का,
एक हिस्सा अलबत्ता मैंने किराये पर ले रखा है.
घर के नाम पर किराए का कमरा -
दीनहीन अस्तित्व भर.

अस्सी की हो चुकी
मेरी कश्मीरी मकानमालकिन अब नहीं लौट सकती घर.
हमारे दरम्यान अक्सर ख़ूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है -
कश्मीर या तिब्बत.

हर शाम
लौटता हूँ मैं किराए के अपने कमरे में
लेकिन मैं ऐसे ही मरने नहीं जा रहा.
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए.
मैं अपने कमरे की तरह नहीं रो सकता.
बहुत रो चूका मैं
कैदखानों में
और अवसाद के नन्हे पलों में.

यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए.
मैं नहीं रो सकता -
पहले से ही इस कदर गीला यह कमरा.

Tuesday, January 24, 2012

रश्दी- विवाद और शत्रुओं के पक्ष में बार-बार खड़ी भारत की पुलिस

अभिनव कुमार मेरे अन्तरंग मित्र हैं. खूब पढ़ते-लिखते हैं और अपनी बेबाकी के लिए खासे विख्यात. फिलहाल देहरादून में डी आई जी के पद पर हैं.


कुछ अरसा पहले उनके लिखे एक लेख को लेकर ख़ासा विवाद हुआ था और हमने उसे कबाड़खाने में छापा था. हालिया रश्दी विवाद के बाद आज सुबह उनका एक लेख छपा था. मैंने उनसे उसका अनुवाद करने की अनुमति माँगी जो उन्होंने सहर्ष दे दी. पढ़िए एक साहसी आई पी एस अफसर कैसे प्रतिक्रिया देने की हिम्मत रख सकता है. शुक्रिया अभिनव!



प्रतिक्रियावादियों और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के शत्रुओं के पक्ष में बार-बार खड़ी होकर भारत की पुलिस ने निर्भयता और तटस्थता के साथ कानून को बनाए रखने के अपने क़ौल के साथ धोख़ेबाज़ी की है.


एम. एफ़. हुसैन, तसलीमा नसरीन और अब सलमान रश्दी. कानून की रखवाली न कर सकने और मनुष्य की अस्मिता को बचा न पाने के भारतीय पुलिस क्र इतिहास में एक और शानदार अध्याय जुड़ गया है. यह लिस्ट यहीं ख़त्म नहीं होती. चाहे मुम्बई की सड़कें हों, बंगलौर के शराबख़ाने हों, दिल्ली की रातों के अड्डे हों, गोवा के समुद्रतट हों, वैलेन्टाइन-डे का उत्सव हो, हत्यारी खाप पंचायतें हों या मनचाहे तरीके से खा, पी और कपड़े पहन सकने वाले हमारे आधे नागरिकों के व्यापक अधिकार हों, भारत की पुलिस ने, अन्यथा बेहद महत्वपूर्ण उत्तर-दक्षिण और शहरी-ग्रामीण विभाजन के आरपार, चाहे कोई भी राजनैतिक दल सत्ता में हो, लगातार धार्मिक प्रतिक्रियावाद और सांस्कृतिक कट्टरपंथी शक्तियों का ही पक्ष लिया है. ऐसा करते हुए उसने ऐसे नीतिगत आदर्श का समर्थन किया है जो लगातार एक ऐसी नैतिक संहिता का पक्षधर है जिसे सीधे-सीधे खुमैनी के ईरान और मुल्ला उमर के अफ़गानिस्तान से उठाया गया होता है. जैसा की इस घटना ने दिखाया है, हम सत्ताधारी राजनैतिक ठगों से बेहतर नहीं हैं. कानून से बंधकर रहने वाली जनता के लिए हम विघ्नसंतोषी और कायर हैं.

दुनिया में बहुत कम लोकतंत्र हैं जिनमें पुलिस को आज इतनी सारी शक्तियां मिली हुई हैं खासतौर पर किसी भी घटना के घटने से पहले उस पर लगाम कसने कीं. हमारे वर्तमान अधिनियमों के चलते पुलिस अधिकारियों को सार्वजनिक-व्यवहार पर काबू करने के लिए काफी अधिक आज़ादी मिली हुई है जिनके तहत वह सुरक्षात्मक गिरफ्तारियों से लेकर क़ानून द्वारा स्वीकृत घातक ताकत का अतीव इस्तेमाल तक कर सकती है. हमारे औपनेविशिक इतिहास और आज़ादी के बाद की आन्तरिक सुरक्षा सम्बंधित चुनौतियों ने इस बात को सुनिश्चित किया है भारत में पुलिस को मिले इस संवैधानिक अधिकार को उल्लेखनीय रूप से व्यापक स्तरों पर जनता की सोच का लगातार समर्थन मिलता रहे.

तब ऐसी कौन सी वजहें हैं की हमारा पुलिस बल उतने ही उल्लेखनीय तरीके से लगातार कायरपन का प्रदर्शन करता आया है? कुछ अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि रश्दी के जयपुर साहित्य महोत्सव में आ सकने के लिए इतना भर किया जाना था कि जयपुर के किसी एक वरिष्ठ पुलिस अफसर ने आयोजकों और रश्दी को अपने सहयोग का आश्वासन देकर हिंसा की धमकी देने वालों को सख्त चेतावनी देते हुए आवश्यक उपाय करने थे. इसके स्थान पर हमें बताया गया है की स्थानीय पुलिस ने आयोजकों से कह दिया कि वे रश्दी से समारोह से दूर रहने को कहें. यह भी आरोप लगाया गया है कि उसने इन अफवाहों को बढ़ावा दिया की मुंबई से पेशेवर हत्यारे बुलाए जा रहे हैं, जिस से मुंबई पुलिस ने इन्कार किया. इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान पुलिस के आला अफसरों ने खामोश रहने को तरजीह दी और कट्टरपंथी और रुढ़िवादी ताकतों की ऐश आ गयी.

आप किसी भी उच्च पुलिस अफसर से पूछेंगे तो रटारटाया उत्तर मिलता है - "हमारी प्राथमिकता होती है क़ानून और व्यवस्था बनाये रखना." चाहे इसका मतलब हो कि आप गुंडों की गैंग के अवैध व्यवहार के आँखें फेर लें जो राजनैतिक धाराओं के दक्षिणी और वाम के दोनों धडों के सी अतिवादी सिद्धांत की पैरवी करते हों या नस्ली गौरव और धार्मिक घृणा के किसी कट्टर स्वप्न फैलाने का काम करते हों.

ऐसे क़ानून और व्यवस्था को बनाये रखने का क्या मतलब है? इस उदासीनता को उस उत्साह के बरअक्स देखिये जिसका प्रदर्शन पुलिस तब करती है जब कोई नारे लगाने की कोशिश करता है या किसी बड़े नेता की रैली में काले झंडे दिखने की. इसे "सुरक्षा में गंभीर सेंध" और संगीन खामी मानते हुए ऐसा करने वाले को तुरतफुरत दबोच लिया जाता है और उसे कानून की पूरी ताक़त महसूस करा दी जाती है. ऐसा कई दफा तब भी किया जाता है जब की ड्यूटी पर तैनात पुलिस अफसर को कर्तव्य की उपेक्षा करने के कारण अनुशासनात्मक कारवाई से रू-ब-रु होना पड़ सकता है.

देश के वर्तमान नीतिगत प्रतिमान निम्नलिखित पारंपरिक बुद्धिमत्ता से निर्देशित लगती है - सुरक्षा कारणों से साधारण नागरिक जनप्रतिधियों के खिलाफ न तो नारे लगा सकते हैं न काले झंडे दिखा सकते हैं, भड़काऊ कपडे पहनने वाली स्त्रियाँ अपने को बलात्कार के लिए पेश करती हैं, अपनी जाति और धर्म के बाहर प्रेम और विवाह करने वाले जोड़ों को कानून से किसी तरह की सुरक्षा की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, सार्वजनिक जगहों पर अंतरंगता का प्रदर्शन यौन-अपमान और हिंसा का न्यायसंगत कारण हो सकता है, और इस घटना के परिप्रेक्ष्य में किसी सम्प्रदाय के किसी भी स्वयंभू रक्षक की धार्मिक भावनाएं किसी मूल अधिकार से ऊपर हो जाती हैं. और अंततः सत्ताधारी दल की राजनैतिक मजबूरियां क़ानून के ऊपर कभी भी और हमेशा ही वरीयताएँ पाती रही हैं.

पुलिस की आलाकमान, जिसका मैं भी हिस्सा हूँ, अक्सर राजनेताओं को बाधा पहुँचाने, आई ए एस अफसरों पर अवरोधवाद, मीडिया को पक्षपातपूर्ण कवरेज और न्यायपालिका को व्यावहारिक सीमाओं को पहचानने की कमी का आरोप लगाते हैं. यह पूरी तरह से छल है. हमारी राजनैतिक ताकतों को सिद्धान्तपूर्ण नेतृत्व मुहैया न करा पाने की पुलिस की साफ़ असफलता को यह लंगोटी अब और नहीं छिपा सकती.

आई पी एस का गठन सरदार पटेल और नेहरू ने ज़ाती उम्मीदों से किया था कि वे शासन करने की सीमित अर्थों भर में ही सेवा नहीं करेगी बल्कि संविधान द्वारा रक्षित पहरुवों की तरह राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा के साथ साथ स्वयं संविधान और क़ानून की रक्षा करेगी. नेहरू के परपोते को अपने पुरखे के आदर्शों के बारे में बात करने की इच्छा शायद न हो, लेकिन अखिल भारतीय सेवा में कार्यरत हम सब भी उतने ही नेहरू की सन्ततियां हैं और जब हमारी थाती को इस तरह लगातार बेख़ौफ़ अपवित्र किया जा रहा हो, हमें आगे आकर बोलना चाहिए.

हालिया घटनाओं ने मुझे हैरत करने पर विवश किया है की क्या मैंने इन्डियन पुलिस सर्विस जौइन की थी या इन्डियन अयातुल्लाह सर्विस? कहीं किसी छिपी हुई इबारत को पढने में मुझसे चूक हो गयी होगी. सिर्फ अमीरों और ताकतवर लोगों के लिए साधारण 'स्टॉर्म ट्रूपर' (स्टॉर्म ट्रूपर - नाज़ी सेना के सदस्य जिन्हें अपनी हिंसा और पाशविकता के कारण बहुत कुख्याति मिली थी) बनने भर के लिए और उस समय चुप रहने के लिए जब क़ानून और समानता के मूलभूत सिद्धांतों को ऐसे भयहीन तरीके से उपहास बनाया जा रहा हो, मैंने ऐसा नहीं किया था. ऐसा पुलिस बल जो सही काम करने के लिए कुछ नहीं करता, जो सत्ता के सामने सच बोलने की हिम्मत न रखता हो, जो एक पगलाई भीड़ के भौंकने के समक्ष मनुष्य के स्वाभिमान की बलि दे देता हो, को न तो जनता के सम्मान का अधिकार है न कानूनी ताक़त का. हम आई पी एस अगर इन मूलभूत सच्चाइयों को याद रखें तो हमारे लिए बेहतर होगा.

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इन लेखों को भी देखें -

क्या देश के आम नागरिक को वास्तविकता के बारे में बताना अपराध है
सच्चाई गले नहीं उतरती हमारे आला अफ़सरान के

Monday, January 23, 2012

उनके चेहरों पर मानवीय चिंताएं क्यों नहीं दिखतीं

भाई शिव प्रसाद जोशी का आलेख -

अण्णा ग्रुप का भ्रमणः काश पता होता लड़ाई किससे है


जनलोकपाल आंदोलन के चार सिपहसालार जो स्वयंभू टीम अण्णा है, उसका उत्तराखंड दौरा कई सवाल खड़े कर रहा है. वे पहले हरिद्वार गए, वहां उनसे कुछ सवाल कुंभ मेले की अनियमितता से जुड़े पूछे गए. क्या कैग की रिपोर्ट उन लोगों ने देखी है. ख़ैर देहरादून में भी जूता फेंकने की घटना हुई. वो आदमी भ्रष्टाचार से परेशानहाल सब्ज़ी विक्रेता है जिसे लगता है कि सिविल सोसाइटी कहा जा रहा ये ग्रुप भी सही नहीं है. हालांकि जूता फेंकने की घटना से ग्रुप के एक सदस्य ने साफ़ इंकार कर दिया जबकि कैमरे पर वो दृश्य क़ैद हो चुका था कि पुलिस के लोग जूता चलाने वाले को दबोच कर क़ैद में ले जा रहे हैं.

उत्तराखंड रक्षा मोर्चा नाम के एक नवगठित राजनैतिक दल ने किरण बेदी से पूछा कि क्या उन्होंने उत्तराखंड का लोकायुक्त बिल पढ़ लिया है. इस पर जवाब आने के पहले ही इंडिया अंगेस्ट करप्शन नामक संगठन जिसके बैनर तले ये मीटिंग हो रही थी, उसके लोग उस वरिष्ठ पार्टी पदाधिकारी के पास जमा हो गए. पुलिस उन्हें बाहर ले गई. सवाल का जवाब नहीं दिया गया.

अब कुछ दृश्य और हैं इसी मीटिंग के जो यूं तो वर्णन में अटपटे से लगेंगे लेकिन न जाने क्यों उनकी संगति बनती हुई दिखती है पर्दे के पीछे जो खेल जारी है वहां की परछाइयां हिलती हैं. अण्णा ज़िंदाबाद के नारे से ग्रुप की हॉल में एंट्री होती है, वे सब आते हैं. समर्थकों के सिरों पर रामलीला मैदान वाली टोपियां हैं. वे इंडिया अंगेस्ट करप्शन संगठन से बताए जाते हैं लेकिन संगठन के पीछे जो शक्ति उन्हें इस कार्यक्रम के लिए एकजुट किए हुए है वो नज़र नहीं आती. पर उस अनुशासन, कतारबद्धता, वंदे मातरम का समूह गान, वे पीले कुछ कुछ भगवा जैसे दुपट्टे जो कुछ मेहमानों को भेंट भी किए गए, ये सब उलझा हुआ है.

क्या यहां आरएसएस का कोई कार्यक्रम चल रहा है. फुसफुसाते हुए कोई पूछता है. फिर एक सुनियोजित सा दिखता गुणगान शुरू होता है. पहले लोकपाल नाम के बिल के लिए फिर लोकायुक्त बिल लाने वाले खंडूरी के लिए.

ऐसा ही बिल केंद्र सरकार में और बीजेपी शासित अन्य राज्यों में भी चाहिए. वे बोले.

ऐसा ही बिल...

ऐसा ही बिल...जिसमें मुख्यमंत्री विधायक टॉप ब्युरोक्रेसी के खिलाफ कार्रवाई एक लगभग असंभव मामला है. इसमें लोकायुक्त समेत उस टीम के सभी सदस्यों की अनुमति यानी सर्वसम्मति का प्रावधान है वरना हर सदस्य के पास वीटो का अधिकार है.

ऐसा ही बिल...जिसमें लोकायुक्त को हटाने की प्रक्रिया राज्य की ज्युडिश्यरी को लांघते हुए सुप्रीम कोर्ट के पास रखी गई है. उसे बताएगी सरकार फिर कोर्ट राज्यपाल को कहेगा लोकायुक्त हटाओ...सुप्रीम कोर्ट कहेगा.

ऐसा ही बिल... जिसमें लोकायुक्त और सदस्यों की नियुक्ति के प्रावधान गड्डमड्ड हैं.

ऐसा धुंधला बिल..इस धुंधलेपन में चालाकियां गढ़ी गई हैं.

क्या यही बैठकर तय हुआ था जनलोकपाल के इन बांकुरों के साथ कुछ महीनों पहले देहरादून में जब खंडूरी दूसरी बार मुख्यमंत्री बनकर आए थे.

भ्रष्टाचार मिटाने का आंदोलन क्या कोई नेटवर्क है. क्या एक जाल बुना जा रहा है. अपने अपने हिसाब से.


अब अगर जनलोकपाल टीम के मुताबिक खंडूरी का लोकायुक्त बिल 100 फ़ीसदी सही और निर्दोष है और सर्वथा अनुकरणीय है तो फिर किस चीज़ के लिए अलख जगाने वे लोग उत्तराखंड के दौरे पर निकले.

वे लोग कहते हैं किसी दल के ख़िलाफ़ प्रचार नहीं कर रहे हैं. उस मीटिंग में जो देखा और सुना गया वो तो कुछ अलग ही था. “हम राजनीति करने नहीं आए हैं, हम किसी दल की जीत हार के लिए नहीं आए हैं हम ये नहीं बता रहे हैं कि आप इन्हें वोट दें या न दें. कुछ दल जाति और धर्म के नाम पर वोट मांग रहे हैं, कोई मुस्लिमों को लुभा रहा है कोई दलितों को आप उन्हें वोट मत दीजिये......आप जिसे वोट देना है उसे दीजिए पर उससे पूछिए कि वोट के बदले हमें क्या मिलेगा, क्या भ्रष्टाचार मुक्त माहौल मिलेगा.”

जैसे वो हां कह देगा जैसे वोट उसे चला जाएगा जैसे वो अपनी कसम याद रखेगा जैसे वो पहले से भ्रष्टाचार न करता होगा. जैसे वो हार जाएगा तो वोटर का कल्याण हो जाएगा. जैसे जैसे... न जाने कितने सवाल. जैसे भ्रष्टाचार को मिटाने की लड़ाई वोट देकर और वोट न देकर पूरी हो जाने वाली है. जैसे वोट मांगने के लिए जाते नेता के भ्रष्टाचार मिटाने पर हां या ना कहते ही एक आईना उग आएगा और वहां उसका सच झूठ दिख जाएगा.

क्या हम इस देश के इतने सारे लोग इस चुनावी राजनीति से ही मारे जा रहे हैं या हमारे गलों पर दिन रात की यातना की ये रस्सी कुछ और है इसकी डोर कहीं और है. भ्रष्टाचार महादेश की आर्थिक नीतियों व्यवस्थाओं और एक सामरिक फ़ुर्ती के साथ चलाए जा रहे नवउपनिवेशवादी नवउदारवादी एजेंडे की वजह से आ रही भीषणताओं की एक नुकीली कड़ी है. और भी ज़ालिम कड़ियां हैं. इतनी आसान तो नहीं होगी ये लड़ाई. इसे सही दिशा में मोड़ने से कौन रोक रहा है. कौन. प्रतिरोध की सुई उन निवेशकों मुनाफ़ाखोरों दलाल पूंजीपतियों नवउदारवादियों यथास्थितिवादी एनजीओज़ की ओर क्यों नहीं मोड़ रहे हैं वे. लोकतंत्र की रट लगाते लगाते आख़िर ये किस चीज़ की आहुति दी जा रही है कौन से यज्ञ में कौन सा है ये आंदोलन.

तो इस तरह से कुछ अजीबोग़रीब कुछ संशय भरे ढंग से ये सब चला. ग्रुप के एक सज्जन मंचों पर कविता के ज़रिए हंसाने गुदगुदाने वाले रहे हैं. अपने भाषण में वो न जाने भावुकता में बहे या आक्रोश में या बदले की भावना में कि राहुल सोनिया से लेकर लालू तक परोक्ष ढंग से कोसते ही रहे. उनकी बॉडी लैंग्वेंज में सरोकार शिष्टता और गंभीरता क्यों नहीं दिखती थी. क्या ये अपनी ही आंखों का कोई दोष था.

और वे सब इतने चहकते हुए, आनन्दित और मुदित क्यों हैं. उनके चेहरों पर अपने पिसते हुए समाज और सह नागरिकों के लिए मानवीय चिंताएं क्यों नहीं दिखतीं. उन्हें क्या चाहिए. क्या सिर्फ़ जनलोकपाल.

Sunday, January 22, 2012

वो जो इश्क था, वो जूनून था




खुदा कसम, तुम्हारी बेहद याद आती है । तुम उसी मुसाफिर की तरह हो जिसके बारे में अक्सर बात करते हैं मैं और मेरी यादें । कई शामें गुजर गयी उसके बाद आँखों में नमी लिए । अम्मा की बातें जो सच होती थी, नानी की बातें जिनमे परियां अक्सर डेरा डालती थी, जादू के खिलौने में इस तरह के कई कोनों से तुमने मिलाया था । हाथों की लकीरों में बसा लेने का अनुरोध, या आँखों के समंदर में उतर जाने की गुजारिश, तुम्हारे बगैर नामुमकिन होती । काँटों से ही सही, इस गुलशन की जीनत हो । कोई चिट्ठी, कोई सन्देश उस देश से भेजो न, जानता हूँ कि पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है ।  मैं बेहद अकेला हूँ धुंध में ।


Sunday, January 15, 2012

भूल रहा हूँ वनस्पतियों की संज्ञा

निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) की कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' के अतिरिक्त कई अन्य  वेब ठिकानों और हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं। सीरिया के इस बड़े कवि को हिन्दी  कविता के प्रेमियों की बिरादरी में पसंद किया गया है। आज प्रस्तुत है उनकी एक और कविता :



निज़ार क़ब्बानी की कविता
वर्षा उत्सव
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

किसी एक ठाँव ठिकाना नहीं मेरा
अप्रत्याशित है मेरा हाल मुकाम
एक पागल मछली की मानिन्द दूर तलक की है मेरी यात्रा
मेरे रक्त में ज्वाल है
चिंगारियाँ हैं मेरी आँखों में।

अन्वेषण कर रहा हूँ समीरण की स्वतंत्रता का
वश में कर लिया है अपने भीतर के घुमंतुओं को
दौड़ रहा हूँ हरिताभ मेघों के पीछे
अपनी आँखों से पी रहा हूँ हजारों छवियों को
अग्रसर हूँ यात्रा के अंतिम पड़ाव तक की यात्रा पर।

जलयात्रा पर हूँ एक दूसरे अंतरिक्ष की ओर
उठ रहा हूँ गर्द - गुबार से
भूल रहा हूँ अपना नाम
भूल रहा हूँ वनस्पतियों की संज्ञा
वृक्षों का इतिहास
उड़ान भर रहा हूँ सूर्य से
वहाँ की ऊब थकाने लगी है अब
भाग रहा हूँ नगरों- बस्तियों से
शताब्दियाँ बीत गईं  सोया नहीं
चंद्रमा के पदतल में।

अपने पीछे छोड़ रहा हूँ
कँचीली आँखे
पथरीला आकाश
अपना पैतृक वास -  स्थान
मुझे सूर्य की ओर लौट चलने के लिए न कहो
क्योंकि अब मैं सम्बद्ध हूँ बारिश के उत्सव संग।
--
( चित्र : जोआन मीरो की कलाकृति)

Monday, January 9, 2012

इन दिनो कर्मनाशा से भाप उठ रही होगी !



इस महादेश का वृत्त चित्र :


सिद्धेश्वर की ये कविताएं आप को एक एसेंशियल यायावरी पर ले जाती हैं . यह यायावरी कर्मनाशा और तमसा के घाटों से ले कर कौसानी और शिमला की पहाड़ियों तक चलती है. इस यायावरी मे आप हिमालय की तराईयों ले कर विध्याँचल के पार तक पहुँच जाते हैं.... बल्कि ट्राँस हिमालय के अकूत- अकथ तिलिस्म तक का आस्वाद ले लेते हैं . ये कविताऎं आप को बेचैन नहीं करती न ही कोई आध्यात्मिक क़िस्म की सांत्वनाएं देती हैं बल्कि स्टेप बाई स्टेप आप की आँखें खोलती हैं , चीज़ों को देखने का शऊर देती हैं. इस यात्रा मे आप के अन्दर उत्तरोत्तर एक समझ पकती है जो आप की तिलमिलाहट और खीझ को डाईल्यूट कर के आप को एक ठोस कौतूहल और एक सकारात्मक विस्मय सौंपती है जो आज जीवन मे नदारद है . अँधेरा इस यात्रा का स्थायी भाव है. जहाँ अँधेरा नही है, वहाँ धुँधलका तो है ही और बार बार यह धुँधलका छँटता है, कभी चकाचौँध की स्थिति भी आती है . उस कौँध मे आप को कुछ ऐसे ‘लोकेल’ मिलेंगे जिन से आप का सामना अक्सर ही होता रहा होगा , लेकिन आप की असावधान आखों ने जिन्हे बेतरह “मिस” कर दिया होगा . यही कारण है कि यह यायावरी एक पर्यटक की यायावरी क़तई नही है. सिद्धेश्वर का कवि इस पूरी यात्रा मे एक सहज साधारण आम आदमी की नज़र से चीज़ों को देखता हुआ ; कभी अचम्भित, कभी प्रफुल्लित और कभी आहत होता हुआ ; कहीं एक दम उस लोकेल मे घुल मिल जाता हुआ और कहीं सहसा कट कर उस मे ‘छूट’ सा जाता हुआ चलता है........ बड़ी बात यह है कि साथ ही साथ बहुत ज़रूरी टिप्पणियाँ करता चलता है . उस से भी बड़ी बात यह है कि इन टिप्पणियों मे न तो बड़े बड़े दावे हैं, न ही कोई बड़ा नारा. इन कविताओं को पढ़ कर पता चलता है कि सिद्धेश्वर एक सजग और बहुश्रुत कवि हैं. लेकिन कहीं भी कविता पर अपनी विद्वता को हावी नही होने देते और न ही स्थानिक या वैश्विक उथल पुथल और मारा मारी के प्रति अपनी सजगता को अपनी कविता का मुद्दा बनाते हैं . बल्कि इस सब के प्रति वे बहुत *कूल*, स्थिर और परिपक्वता पूर्ण तरीक़े से रिएक्ट करते हैं .

इस कवि की चेतना मे पंजाब का कवि पाश एक विचार की तरह बैठा दिखाई देता है . उसे पता है कि , “बीच का कोई रास्ता नही है” लेकिन इस बात को ले कर बहुत शोर मचाने की बजाय उसे चुपचाप अपना काम करते रहना पसन्द है . हालाँकि अंत मे अपने कथित काम के औचित्य पर सवाल खड़ा करना भी नही भूलता . यह कवि बड़ी उत्सुकता से बौद्धिक गोष्ठियों के सभागारों के बिम्ब खींचता है जहाँ के नीम अँधियारे से लौटते हुए दो ज़रूरी शब्द नोट करना कभी नही भूलता – “उम्मीद” , और “कविता” ! जब किसी कस्बे के चौराहे पर धुँधलका देख ठिठक कर स्कूटर रोकता है तो पूरे बाज़ार की पड़्ताल कर डालता है. वह् बाज़ार मे बिकती इमरतियाँ , जलेबियाँ ,मूँगफलियाँ , काठ के हस्तशिल्प , यहाँ तक कि रेहड़ियों और फड़ों के अँधेरे का फायदा उठा कर फल सब्ज़ियों मे सेंध मारने वाले कीड़े भी देख लेता है . एक उदास उजाड़ रेलवे स्टेशन इस यात्रा मे बार बार आता है – एक सपने की तरह ; और कवि इस के चित्र बनाने मे खूब रमता है. इस के अलावा इस कवि के सपनो मे बहुत कुछ आता है— काफल , आड़ू , सेब , खुमानी , रस्सों के पुल , सीढ़ीदार खेत , और स्कूल जाते बच्चों के बीच कभी अचानक मुक्तिबोध दिखाई दे जाते है – तेंदु पत्तों के गोदाम के बाहर सीढ़ियों पर बीड़ी पीते हुए !

इस यात्रा मे सुदूर दक्कन के अलवार भक्तों से ले कर जंगल को कलम बना देने वाले कबीर तक से आप की मुलाक़ात हो जाएगी . निराला की ‘पत्थर तोड़ती स्त्री’ और निर्मल वर्मा के ‘वे दिन’ भी नज़र आएंगे . पर्वतों पर सोना उडेलते कवि पंत मिल जाएंगे . वली दक्कनी का अपमानित तिरस्कृत भग्न मज़ार भी दिख जाएगा और अपने निखालिस प्रकाश मे सराबोर आधुनिक कवि वेणुगोपाल और उन को इस विशेषण के साथ स्मरण करने वाले वीरेन डंगवाल भी . लेकिन परम्परा यहाँ जड़ हो कर स्थिर नही हो गई है. यह कवि परम्परा से अभिभूत हो कर बैठ नही गया है. वह तो जैसे अपने तमाम प्रिय साहित्यिकों के काम मे कुछ नया जोड़ लेना चाहता है . मसलन पत्थर तोड़ती स्त्री के बारे कवि कहता है कि वो अब भी वहीं है, लेकिन एक अंतर आ गया है जिसे अनदेखा नही किया जा सकता :

“ धीरे - धीरे
ऊपर उठ रहे हैं उसके नत नयन
और समूचे इलाहाबाद को दो फाँक करते हुए
कहीं दूर देख रहे हैं।
अपने खुरदरे हाथों के जोर से
वह कूट - पीस कर एक कर देना चाहती है
दुनिया के तमाम छोटे - बड़े पत्थर”

यह कवि जितनी बारीक़ी से “भाषा के गोदामों” को खंगालता है उतनी ही शिद्दत से भूगोल के कंटुअर भी जाँच लेता है. और वो कंटुअर जब संघर्षशील आदमी की खुर्दुरी हथेलियों के हों तो कविता सहज ही समय के पार जा कर अपनी बुलन्दी अख्तियार कर लेती है :

“हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं
कुछ उफनती
कुछ शान्त - मंथर - स्थिर
और कुछ सूखी रेत से भरपूर.
कभी इन्हीं पर चलती होंगीं पालदार नावें
और सतह पर उतराता होगा सिवार.
हथेलियों के किनार नहीं बसते नगर - महानगर
और न ही लगता है कुम्भ - अर्धकुम्भ या सिंहस्थ
बस समय के थपेड़ों से टूटते हैं कगार
और टीलों की तरह उभर आते हैं घठ्ठे”

इस तरह इन कविताओं का यायावर एक साथ भाषा,विचार , इतिहास और भूगोल के दरमियान विचरण करता है और सहज ही आप को भी इन तमाम सीमाओं के पार ले जाता है.मानो इस महादेश और उस के जन को , और उस के सच को , स्वप्नो को, उम्मीदों को बहुत क़रीब से दिखा देना चाहता हों . आप ज़रूर देखना चाहेंगे सिद्धेश्वर की आँखों से !!

- अजेय
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Sunday, January 8, 2012

मेरी आँखें चमकने लगी हैं सितारों की तरह

हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३४-१९६७)  की कवितायें पढ़ते समय हम इस बात से सजग रहते हैं कि पोलिश कविता की समृद्ध और गौरवमयी परम्परा में वह एक महत्वपूर्ण   बेहद जरूरी कड़ी हैं मेरे द्वारा किए गए ( किए जा रहे) उनकी  बहुत - सी कविताओं के अनुवाद  आप यहाँ हमारे  इस ठिकाने  'कबाड़ख़ाना' प,' , 'कर्मनाशा' पर तथा 'शब्द योग' , 'अक्षर' कुछ अन्य  पत्र - पत्रिकाओं में  पढ़ चुके हैं। संतोष है  कि विश्व कविता से प्रेम रखने वाली हिन्दी बिरादरी में इन्हें पसन्द किया गया है। आभार।  इसी क्रम में आज प्रस्तुत है एक  उनकी  एक और कविता 'विवश राग': 


हालीना पोस्वियातोव्सका की कविता

विवश राग 
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

मैंने प्रेम के वृक्ष से तोड़ ली एक टहनी
और उसको
दबा दिया मिट्टी की तह में
देखो तो
किस कदर खिल उठा है मेरा उपवन।

संभव नहीं
कि कर दी जाय प्रेम की हत्या
किसी भी तरह।

यदि तुम उसे दफ़्न कर दो धरती में
तो वह उग आएगा दोबारा
यदि तुम उसे उछाल दो हवा में
तो पंख बन जायेंगे उसके पल्लव
यदि तुम उसे गर्त कर दो पानी में
तो वह तैरेगा बेखौफ़ मछली की तरह
और यदि ज़ज्ब दो उसे रात में
तो और निखर आएगी उसकी कान्ति।

इसलिए
मैंने चाहा कि प्रेम को दफ़्न कर दूँ अपने हृदय में
लेकिन मेरा हृदय बन गया प्रेम का वास- स्थान
मेरे हृदय ने खोले अपने हृदय - द्वार
इसकी हृदय - भित्तियों को भर दिया गीत - संगीत से
और मेरा हृदय नृत्य करने लगा पंजों के बल।

इसलिए
मैंने प्रेम को दफ़्न कर लिया अपने मस्तिष्क में
किन्तु लोग पूछने लगे
कि क्यों मेरा ललाट हो गया है फूल की मानिन्द
कि क्यों मेरी आँखें चमकने लगी हैं सितारों की तरह
और क्यों मेरे होंठ हो गए हैं
सुबह की लालिमा से भी अधिकाधिक सुर्ख।

मैंने आत्मसात कर लिया प्रेम को
और सहेज लिया इसे सहज ही
किन्तु इसके आस्वाद के लिए मैं हूँ अवश
लोग पूछते हैं कि क्यों मेरे हाथ बंधनयुक्त हैं प्रेम से
और क्यों मैं हूँ उसकी परिधि में पराधीन।

Thursday, January 5, 2012

मैं कुत्तों के बारे में जो जानता हूँ : ओरहन पामुक

ओरहन पामुक नोबेल पुरस्कार से सम्मानित तुर्की के गद्यकार हैं | निजी जिंदगी के बारे में उन्होंने सुन्दर बहते हुए गद्य को माध्यम बनाते हुए लिखा है | प्रस्तुत अंश उनकी किताब 'अदर कलर्स' से लिया है |



ह एक मटमैले रंग का कुत्ता था, साधारण से बहुत ज्यादा अलग नहीं | यह अपनी पूंछ हिला रहा था | इसकी आँखें उदास थी | इसने हमें वैसे नहीं सूंघा जैसे उत्सुक कुत्ते सूंघते हैं | अपनी दर्दीली आँखों का प्रयोग कर उसने हमें जानने की कोशिश की | और जब उसने ऐसा कर लिया, तो उसने अपनी गीली नाक गाड़ी में सटा ली |
चुप्पी | रुया डर गयी थी | उसने अपने पाँव पीछे किये और मेरी तरफ देखा |
"डरो मत " मैं फुसफुसाया | मैं अपनी सीट से उठकर रुया की तरफ आ गया |
कुत्ता भी पीछे हट गया | हम दोनों ने साथ मिलकर उसे सावधानी से जांचा | एक चार पैर वाला प्राणी | एक कुत्ते के जैसा बनना कैसा होता होगा ? मैंने अपनी आँखें बंद कर ली | और मैं सोचने लगा कि एक कुत्ते के जैसा होना कैसा होता होगा | कुत्तों के बारे में मैं जो भी चीजें जानता था मैंने उन्हें दुबारा याद करने की कोशिश की |

1 . हाल में मेरा एक इंजिनियर दोस्त मुझे बता रहा था कि उसने कैसे सिवास कांगल को कुछ अमरीकियों को बेच दिया | उसने तब मुझे जो विवरण पुस्तिका दिखाई उसमे जिस कुत्ते का चित्र दिया था वह ताकतवर, सुन्दर तथा तना हुआ कांगल था | जिसका शीर्षक कहता था, "हेलो, मैं एक तुर्की कांगल हूँ | मेरी औसत उंचाई [इतने सेंटीमीटर] है, मेरी उम्र [इतने साल] है, मैं इतना बुद्धिमान हूँ, और यह मेरी नस्ल है | कुछ समय पहले, हमारा एक दोस्त  खो गया, लेकिन हम उसकी गंध का चार सौ मील दूर से पीछा करते रहे जब तक कि हमने उसे ढूंढ नहीं लिया | तो हम इतने ज्यादा चालाक और वफादार है," आदि आदि |

2 .  तुर्की कॉमिक्सों और अनुवादित तुर्की कॉमिक्सों में कुत्ते 'हाव' करते हैं! लेकिन विदेशी कॉमिक्सों में कुत्ते 'वूफ' करते हैं !

कुत्तों के बारे में मैं इतना ही जानता था | मैंने कोशिश की , लेकिन कुछ ज्यादा सोच नहीं सका | मैंने अपनी जिंदगी में दसियों हजारों कुत्ते देखे होंगे, लेकिन दिमाग में कुछ और नहीं आया | बेशक, सिवाय इसके, कि कुत्तों के दांत पैने होते हैं और वे गुर्राते हैं |
"पापा, आप क्या कर रहे हो ?" रुया ने पूछा, "ऐसे अपनी आँखें बंद मत करो , मुझे ऊब होती है |"
मैंने अपनी आँखें खोली, "ड्राईवर" मैंने कहा, "यह कुत्ता कहाँ से है ?"
"कुत्ता कहाँ है ?" उसने पूछा, और तब मैंने उसे दिखाया | "वे कुत्ते आगे कूड़े के ढेर की तरफ सीधा बढ़ रहे हैं |" ड्राईवर ने कहा |
कुत्ते ने अपने आगे की ओर सीधा देखा, जैसे वह जानता हो कि हम उसके बारे में ही बात कर रहे हैं |
"सर्दियों में वे भूखे हो जाते हैं , कष्ट में रहते हैं, एक दूसरे को ही नोच डालते हैं |"
एक सन्नाटा छा गया, लम्बे समय तक कोई नहीं बोला |
"पापा, मैं ऊब गयी हूँ ," रुया ने कहा |
"ड्राईवर, चलो , चलते हैं," मैंने कहा |

जब गाड़ी चलने लगी , रुया ने अपना ध्यान  पेड़ों, समंदर, और रास्ते पर लगा दिया था और मुझे भी भूल गयी थी | तब मैंने दुबारा अपनी आँखें बंद की और एक आखिरी बार याद करने की कोशिश की जो मैं कुत्तों के बारे में जानता हूँ |

3 . एक बार एक कुत्ता था जो मुझे बेहद पसंद था | अगर मुझे आखिरी बार देखे हुए उसे ज्यादा समय हो जाता तो मुझे देखकर वह हर्षोन्माद में अपनी पीठ के बल जमीन पर तड़पता रहता, और खुद को गीला कर देता, इस उम्मीद में कि मैं उसे प्यार भरी थपकी दूंगा | उन्होंने उसे जहर दे दिया, और वो मर गया |

4 . कुत्ते का चित्र बनाना आसान होता है |

5 . पड़ोस में एक जगह, जहाँ मेरा एक दोस्त रहता था, वहां एक कुत्ता था जो किसी गरीब राहगीर पर काफी जोर से भूँका करता था, लेकिन अमीर को वह बिना कोई आवाज किये बेरोकटोक जाने देता था |

6 . कुत्ते के साथ फर्श पर घिसटती हुई टूटी हुई सांकल की आवाज मुझे डरा देती है | शायद यह मुझे किसी बेहद बुरी चीज की याद दिला देता है

7 वहां पर उस कुत्ते ने हमारा पीछा नहीं किया |

मैंने अपनी आँखें खोलीं और यह मैंने सोचा: लोग असल में बहुत कम याद रखते हैं | मैं इस दुनिया में दसियों हजारों कुत्ते देख चुका हूँ, और जब भी देखा है हमेशा मुझे वे खूबसूरत से प्रतीत हुए है | दुनिया हमें इसी तरह से आश्चर्यचकित करती है | यहाँ है , वहां है , हमारे पास है | तब यह धुंधली होती जाती है, सब कुछ सिफ़र में बदल जाता है |

8 . इस भाग को लिखने और पत्रिका में छपवाने के दो साल बाद, मेकका पार्क में कुत्तों के एक झुण्ड ने मुझ पर हमला किया | उन्होंने मुझे काटा | मुझे सुल्तान्हमेत के रेबीज़ हॉस्पिटल में पांच टीके लगाने पड़े |

Tuesday, January 3, 2012

लिरिक्स क्या हैं यार इस गाने के

ये हम लोग अक्सर आपस में पूछा करते हैं , "लिरिक्स क्या हैं यार ?"  फिल्म ममी के विडियो के साथ यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था | चेब खालिद, रचिद ताहा , फौदेल का नाम इसके गायकों में आया | इसका एक भी शब्द समझ नहीं आता, इसके बावजूद मुझे प्रिय है, और इस तरह इसे पसंद करने वालों में मैं अकेला नहीं | बाकी, मेलोडी खाओ , खुद जान जाओ |



अगर आप में से कोई गीत के बोल , और उसका अर्थ समझा सके तो बड़ी मेहरबानी |

Sunday, January 1, 2012

चार्ली चैप्लिन के बारे में बस्टर कीटन



सच कहूँ तो मुझे नहीं लगता कि चार्ली राजनीति, इतिहास या अर्थशास्त्र के बारे में मुझसे ज्यादा जानता होगा | मेरी ही तरह उसे भी मेक अप टॉवेल से पीट दिया गया , इससे पहले कि वह डायपर से बाहर आता | बड़े होते समय हम दोनों में से किसी के पास समय नहीं था कि हम शो बिजनेस के अलावा कुछ और पढ़ सकें | लेकिन चार्ली काफी जिद्दी इंसान है, और जब उसके कम्युनिज्म के समर्थन में बात करने के अधिकार को चुनौती दी गयी , तो वह बस अपनी बात पर अड़ गया |



कुछ इस तरह की अफवाहों के बारे में भी लिखा गया है कि चार्ली किसी दिन वापस अमेरिका आना चाहता है | मैं उम्मीद करता हूँ कि ऐसा हो | उससे भी ज्यादा मैं उम्मीद करता हूँ कि वह दुबारा फिल्में बनाना शुरू करने के अपने वादे को निभाए |


आज तक कोई भी इतने सारे लोगों को नहीं हँसा सका है, जितना चार्ली, उसके 'लिटिल ट्रैम्प' से | और इतिहास में कभी ऐसा समय नहीं आया , जब इतने ज्यादा लोगों को अपने डर और दुःख भुलाने के लिए चार्ली के ट्रैम्प जैसे किसी की जरुरत महसूस हुई हो |

: अपनी आत्मकथा 'माय वंडरफुल वर्ल्ड ऑफ स्लैपस्टिक' में बस्टर कीटन

फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला

[फोटो : गुजरे साल की एक उदास शाम , नगर रोड, पुणे ]


मौला वही पुरानी आरजुएं हैं | वही पुराने हालात हैं | तुझे हम बेशक पागल लगते होंगे जो वक़्त के हर एक टुकड़े के बाद वही दुखड़ा शुरू करते हैं | लेकिन वही हम हैं | दुनिया को थोडा और बेहतर कर दे, गर ये बेहतर है तो |

ये नए साल की शुरुआत, गुजरे साल की उसी एक मखमली अहसास के लिए जिसने हमारी दुआ को अपनी आवाज के हाथ पहना दिए |



आप सबको नए साल की बहुत बहुत शुभकामनाएं |