असद ज़ैदी के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका ‘जलसा’ के
पहले अंक में छपा शुभा का शानदार गद्य आपके लिए प्रस्तुत है. इसे यहाँ प्रकाशित
करने की अनुमति देने के लिए असद जी को धन्यवाद.
उत्पीड़न की पहचान
यह एक मुश्किल काम है. इसका एक मोटा उदाहरण तो यही है कि उत्पीड़न को सबसे मूलगामी रूप में पहचानने में समर्थ दर्शन के बावजूद हमारे यहाँ ‘सामाजिक न्याय’ की जगह पहचानने में हमें कितना समय लगा. उसे हम अभी भी कितना या किस तरह पहचानते हैं यह बात अलग है. बहुत बार जब कहा जाता है अमीर अमीर होते जा रहे हैं
और ग़रीब ग़रीब होते जा रहे हैं तो एक ठोस सच्चाई है लेकिन यह एक मोटी बात है. यह बात दिन ब दिन और मोटी होती जा रही है. इसके पीछे क्या-क्या छिप जाता है देखने की कोशिश करना
भी कोई आसान बात नहीं है लेकिन फिर भी यह एक मामूली और सरल बात है. खैर कोई मामूली और सरल बात ही सबसे मुश्किल हो जाती
है,
ख़ास तौर से आज के दौर में.
जैसे कि यह एक बड़ी मामूली बात है कि इन्सान के शरीर में संवेदी ऊतक होते
हैं. मन की बात फ़ि़लहाल हम छोड़ देते हैं तो मनुष्य शरीर
में संवेदी ऊतक समान रूप से होते हैं मसलन स्त्री-पुरुष, सवर्ण दलित आदि सभी में आग से जलना इसीलिए सबके
लिए कष्टदायी है. १८ साल की युवा लड़की का ज़िन्दा जलना या जलाना उत्पीड़न
है या नहीं इस पर बड़े बड़े शिक्षित सुसभ्य लोग, ‘कन्फ्यूज़ड’
थे. इस बात पर सभी राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों, पण्डितों
और ज्ञानी ध्यान ध्यानियों में सहमति थी कि सबको यहाँ तक कि औरतों को भी जलने में कष्ट
होता है. लेकिन सभी जानते हैं कि आदमी ‘स्वेच्छा’ से अनेक कष्ट उठाता है. इस तरह यह भी कहा जा सकता है कि बहुत से लोग स्वेच्छा से उत्पीड़न भी सहते
हैं. आगे तर्क की तारतम्यता के चलते बात यहाँ पहुँचती है
कि चूंकि लोग स्वेच्छा से उत्पीड़न सहते हैं इसलिए उत्पीड़न कोई समस्या नहीं है यानि
असल में ‘उत्पीड़न’ नहीं है वह स्वेच्छा है. यह स्वेच्छा अनेक रूपों में प्रकट होती है मसलन त्याग, बलिदान, प्रेम,
वात्सल्य, आदर,
स्वामिभक्ति, परम्परा-प्रेम आदि. इस तरह अगर एक आदमी स्वयं अपने
को नरबलि के लिए प्रस्तुत करता है तो वह ‘स्वेच्छा’
से ऐसा कर रहा है इसलिए नरबलि भी ‘न्यायसंगत’ हो जाती है. एक दमनकारी विषम समाज में ‘स्वेच्छा’ भी एक ऐसा उत्पीड़नकारी यन्त्र हो सकती है जो ऑटोमैटिक
है,
स्वचालित है. स्वचालित यन्त्र का आविष्कार किस तरह हुआ, यह किस तरह काम करता है, यह जाने बिना उत्पीड़न की पहचान नहीं की जा सकती.
ऐसा समाज,
जहाँ उत्पीड़न की पहचान बहुत कम हो और कम ही लोग
कम ही जगहों पर उसे पहचान पाते हैं,
एक बर्बर समाज होता है. हमारे यहां जब महिलाओं के उत्पीड़न की बात होती है तो
कुछ मोटी-मोटी बातें गिनाई जाती हैं जैसे मारपीट, दहेज हत्या, बलात्कार,
छेड़खानी आदि. यानी जो आदमी यह सब नहीं कर रहा वह पूरी तरह न्याय की डगर पर है. एक पति मारपीट नहीं करता, दहेज के लिए नहीं सताता, शराब में ख़ास पैसा नहीं उड़ा देता तो वह आदर्श पति
है. अगर एक आदमी मोटे-मोटे गिना देने लायक असामाजिक काम
नहीं कर रहा तो वह ‘सभ्य’ है. भले ही वह निरंकुश राजव्यवस्था और समाज व्यवस्था की
कितनी ही पैरवी करता हो. ग़रीब आदमी के ख़िलाफ़़ बोलने वाले
लोग उत्पीड़न के पक्ष में हैं, यह नहीं माना जाता. उनके असभ्य विचारों को सामाजिक
समर्थन प्राप्त होता है जबकि एक ग़रीब आदमी अगर अन्याय के ख़िलाफ़़ बोलता है तो साफ़़ तौर
पर अघिकांश लोगों को ‘असभ्य’ मालूम पड़ता है. मोटी-मोटी गालियों का प्रयोग करने वाली जमादारिन बड़ी ‘असभ्य’ मालूम पड़ती है, लेकिन
छुआछूत में यकीन करने वाले साइन्स के प्रोफ़़ेसर साहब बड़े ‘सभ्य’ दिखाई देते हैं. इस तरह बहुत सारे लोग इसलिए ‘सभ्य’ होते हैं क्योंकि उन्हें सभ्य माना जाता है. बहुत सारे आदमी इसलिए न्यायपूर्ण होते हैं क्योंकि
उन्हें न्यायपूर्ण माना जाता है. इसी तरह बहुत से लोग इसलिए शरीफ़़ होते हैं, क्योंकि उन्हें शरीफ़़ माना जाता है.
बहुत सी स्त्रियां इसलिए स्त्रियां हैं क्योंकि उन्हें स्त्री माना जाता
है. बहुत से पुरुष भी इसलिए पुरुष होते हैं क्योंकि उन्हें
पुरुष माना जाता है.
‘स्वेच्छा’
के इस साम्राज्य में उत्पीड़न की पहचान आसान काम नहीं है. फिर उत्पीड़न कोई ऐसी घटना नहीं है जो एक बार घटकर समाप्त
हो जाये,
यह बड़ी सुसंगत और लम्बे समय में निरंतर बनने वाली
चीज़ है जिसका यन्त्र सोच समझकर बनाया गया है और हर स्तर पर सक्रिय है. असल में यह यन्त्र एक लम्बे समय में किया गया ‘विकास’ है जिसे हम व्यवस्था कहते हैं. एक इन्सान के भावनात्मक ढाँचे से लेकर आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था तक इसमें
आते हैं. इसलिये उत्पीड़न की एक निरन्तरता होती है. मसलन आज होने वाले उत्पीड़न के पीछे दो हज़ार साल पुरानी
परम्परा हो सकती है,
तो उत्पीड़न की नींव गहरी होती है उसका अतीत भी समकालीन
की तरह होता है. जब हम आज के किसी उत्पीड़न को समाप्त करना चाहते हैं
तो उसे आज में ही समेटकर देखा या ख़त्म नहीं किया जा सकता, उसे पीछे भी मिटाना होता है यानि उसकी परम्परा को
भी मिटाना होेता है. यही वजह है कि बहुत से लोग ‘अघिकार’ होने पर भी उसका इस्तेमाल नहीं कर पाते. वे अपना ‘दावा’
ही नहीं रख पाते. वे पिसते रहते हैं, रोते रहते हैं, खटते
रहते हैं,
यहाँ तक कि आत्महत्या कर लेते हैं लेकिन अपनी जगह
नहीं ले पाते या कहना चाहिए अपनी जगह नहीं पहचान पाते. एक आदमी रोता है जब वह अन्याय को महसूस करता है लेकिन
उसे इस तरह नहीं पहचान पाता कि उसे अभिव्यक्त कर दे, प्रमाणित करना तो और भी मुश्किल है. यहाँ उन लोगों की बात नहीं हो रही जो मन बहलाव के लिये, समय काटने के लिये या आत्मदया से रोते हैं.
कुछ लोग तो उत्पीड़न से इतने बेख़बर होते हैं कि उसे गहने की तरह पहन लेते
हैं जैसे महिलाएं मांग भरती हैं या चूड़ियां खनकाती हैं. कुछ लोग उत्पीड़न का गाना बना लेते हैं. ये गाना बड़ा सुरीला भी हो सकता है और बेसुरा भी. कुछ लोग उत्पीड़न के ऐसे आदी हो जाते हैं जैसे अफ़़ीमची. अगर उनका उत्पीड़न न हो तो वे डर जाते हैं.