Wednesday, October 31, 2012

कुछ लोग उत्पीड़न के ऐसे आदी हो जाते हैं जैसे अफ़़ीमची - शुभा का गद्य -१


असद ज़ैदी के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका ‘जलसा’ के पहले अंक में छपा शुभा का शानदार गद्य आपके लिए प्रस्तुत है. इसे यहाँ प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिए असद जी को धन्यवाद.


उत्पीड़न की पहचान

यह एक मुश्किल काम है. इसका एक मोटा उदाहरण तो यही है कि उत्पीड़न को सबसे मूलगामी रूप में पहचानने में समर्थ दर्शन के बावजूद हमारे यहाँ सामाजिक न्यायकी जगह पहचानने में हमें कितना समय लगा. उसे हम अभी भी कितना या किस तरह पहचानते हैं यह बात अलग है. बहुत बार जब कहा जाता है अमीर अमीर होते जा रहे हैं और ग़रीब ग़रीब होते जा रहे हैं तो एक ठोस सच्चाई है लेकिन यह एक मोटी बात है. यह बात दिन ब दिन और मोटी होती जा रही है. इसके पीछे क्या-क्या छिप जाता है देखने की कोशिश करना भी कोई आसान बात नहीं है लेकिन फिर भी यह एक मामूली और सरल बात है. खैर कोई मामूली और सरल बात ही सबसे मुश्किल हो जाती है, ख़ास तौर से आज के दौर में.

जैसे कि यह एक बड़ी मामूली बात है कि इन्सान के शरीर में संवेदी ऊतक होते हैं. मन की बात फ़ि़लहाल हम छोड़ देते हैं तो मनुष्य शरीर में संवेदी ऊतक समान रूप से होते हैं मसलन स्त्री-पुरुष, सवर्ण दलित आदि सभी में आग से जलना इसीलिए सबके लिए कष्टदायी है. १८ साल की युवा लड़की का ज़िन्दा जलना या जलाना उत्पीड़न है या नहीं इस पर बड़े बड़े शिक्षित सुसभ्य लोग, ‘कन्फ्यूज़डथे. इस बात पर सभी राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों, पण्डितों और ज्ञानी ध्यान ध्यानियों में सहमति थी कि सबको यहाँ तक कि औरतों को भी जलने में कष्ट होता है. लेकिन सभी जानते हैं कि आदमी स्वेच्छासे अनेक कष्ट उठाता है. इस तरह यह भी कहा जा सकता है कि बहुत से लोग स्वेच्छा से उत्पीड़न भी सहते हैं. आगे तर्क की तारतम्यता के चलते बात यहाँ पहुँचती है कि चूंकि लोग स्वेच्छा से उत्पीड़न सहते हैं इसलिए उत्पीड़न कोई समस्या नहीं है यानि असल में उत्पीड़ननहीं है वह स्वेच्छा है. यह स्वेच्छा अनेक रूपों में प्रकट होती है मसलन त्याग, बलिदान, प्रेम, वात्सल्य, आदर, स्वामिभक्ति, परम्परा-प्रेम आदि. इस तरह अगर एक आदमी स्वयं अपने को नरबलि के लिए प्रस्तुत करता है तो वह स्वेच्छासे ऐसा कर रहा है इसलिए नरबलि भी न्यायसंगतहो जाती है. एक दमनकारी विषम समाज में स्वेच्छाभी एक ऐसा उत्पीड़नकारी यन्त्र हो सकती है जो ऑटोमैटिक है, स्वचालित है. स्वचालित यन्त्र का आविष्कार किस तरह हुआ, यह किस तरह काम करता है, यह जाने बिना उत्पीड़न की पहचान नहीं की जा सकती.

ऐसा समाज, जहाँ उत्पीड़न की पहचान बहुत कम हो और कम ही लोग कम ही जगहों पर उसे पहचान पाते हैं, एक बर्बर समाज होता है. हमारे यहां जब महिलाओं के उत्पीड़न की बात होती है तो कुछ मोटी-मोटी बातें गिनाई जाती हैं जैसे मारपीट, दहेज हत्या, बलात्कार, छेड़खानी आदि. यानी जो आदमी यह सब नहीं कर रहा वह पूरी तरह न्याय की डगर पर है. एक पति मारपीट नहीं करता, दहेज के लिए नहीं सताता, शराब में ख़ास पैसा नहीं उड़ा देता तो वह आदर्श पति है. अगर एक आदमी मोटे-मोटे गिना देने लायक असामाजिक काम नहीं कर रहा तो वह सभ्यहै. भले ही वह निरंकुश राजव्यवस्था और समाज व्यवस्था की कितनी ही पैरवी करता हो. ग़रीब आदमी के ख़िलाफ़़ बोलने वाले लोग उत्पीड़न के पक्ष में हैं, यह नहीं माना जाता. उनके असभ्य विचारों को सामाजिक समर्थन प्राप्त होता है जबकि एक ग़रीब आदमी अगर अन्याय के ख़िलाफ़़ बोलता है तो साफ़़ तौर पर अघिकांश लोगों को असभ्यमालूम पड़ता है. मोटी-मोटी गालियों का प्रयोग करने वाली जमादारिन बड़ी असभ्यमालूम पड़ती है, लेकिन छुआछूत में यकीन करने वाले साइन्स के प्रोफ़़ेसर साहब बड़े सभ्यदिखाई देते हैं. इस तरह बहुत सारे लोग इसलिए सभ्यहोते हैं क्योंकि उन्हें सभ्य माना जाता है. बहुत सारे आदमी इसलिए न्यायपूर्ण होते हैं क्योंकि उन्हें न्यायपूर्ण माना जाता है. इसी तरह बहुत से लोग इसलिए शरीफ़़ होते हैं, क्योंकि उन्हें शरीफ़़ माना जाता है.

बहुत सी स्त्रियां इसलिए स्त्रियां हैं क्योंकि उन्हें स्त्री माना जाता है. बहुत से पुरुष भी इसलिए पुरुष होते हैं क्योंकि उन्हें पुरुष माना जाता है.

स्वेच्छाके इस साम्राज्य में उत्पीड़न की पहचान आसान काम नहीं है. फिर उत्पीड़न कोई ऐसी घटना नहीं है जो एक बार घटकर समाप्त हो जाये, यह बड़ी सुसंगत और लम्बे समय में निरंतर बनने वाली चीज़ है जिसका यन्त्र सोच समझकर बनाया गया है और हर स्तर पर सक्रिय है. असल में यह यन्त्र एक लम्बे समय में किया गया विकासहै जिसे हम व्यवस्था कहते हैं. एक इन्सान के भावनात्मक ढाँचे से लेकर आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था तक इसमें आते हैं. इसलिये उत्पीड़न की एक निरन्तरता होती है. मसलन आज होने वाले उत्पीड़न के पीछे दो हज़ार साल पुरानी परम्परा हो सकती है, तो उत्पीड़न की नींव गहरी होती है उसका अतीत भी समकालीन की तरह होता है. जब हम आज के किसी उत्पीड़न को समाप्त करना चाहते हैं तो उसे आज में ही समेटकर देखा या ख़त्म नहीं किया जा सकता, उसे पीछे भी मिटाना होता है यानि उसकी परम्परा को भी मिटाना होेता है. यही वजह है कि बहुत से लोग अघिकारहोने पर भी उसका इस्तेमाल नहीं कर पाते. वे अपना दावाही नहीं रख पाते. वे पिसते रहते हैं, रोते रहते हैं, खटते रहते हैं, यहाँ तक कि आत्महत्या कर लेते हैं लेकिन अपनी जगह नहीं ले पाते या कहना चाहिए अपनी जगह नहीं पहचान पाते. एक आदमी रोता है जब वह अन्याय को महसूस करता है लेकिन उसे इस तरह नहीं पहचान पाता कि उसे अभिव्यक्त कर दे, प्रमाणित करना तो और भी मुश्किल है. यहाँ उन लोगों की बात नहीं हो रही जो मन बहलाव के लिये, समय काटने के लिये या आत्मदया से रोते हैं.

कुछ लोग तो उत्पीड़न से इतने बेख़बर होते हैं कि उसे गहने की तरह पहन लेते हैं जैसे महिलाएं मांग भरती हैं या चूड़ियां खनकाती हैं. कुछ लोग उत्पीड़न का गाना बना लेते हैं. ये गाना बड़ा सुरीला भी हो सकता है और बेसुरा भी. कुछ लोग उत्पीड़न के ऐसे आदी हो जाते हैं जैसे अफ़़ीमची. अगर उनका उत्पीड़न न हो तो वे डर जाते हैं.
   

Thursday, October 25, 2012

जरा हलके गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाले



प्रह्लादसिंह टिपाणिया एवम उनके साथी सुना रहे हैं कबीरदास जी एक विख्यात भजन.  



जरा हलके गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाले
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाले

गाड़ी म्हारी रंग रंगीली पहिया है लाल गुलाल
हांकन वाली छैल छबीली बैठन वाला काल

गाड़ी अटकी रेत में जी, मजल पडी है दूर
ई धर्मी धर्मी पार उतर ग्ये पापी चकनाचूर

देस देस का बैद बुलाया लाया जडी और बूटी
या जडी बूटी तेरे काम न आई जड़ राम के घर की छूटी

चार जना मिल मतों उठायो बांधी काठ की घोडी
ले जाके मरघट पे रखिया, फूँक दीन्ही जस होली

बिलख बिलख कर तिरिया रोये बिछड़ गयी मेरी जोड़ी
कहे कबीर सुनो भई साधो जिन जोड़ी उन तोडी


आदमियों की भीड़ का अपशकुनभरा गुस्सा जाड़ों के तूफ़ान के जंगली ऑर्गन जैसा है



गियोर्ग ट्राकल की ख़ामोशी

गियोर्ग ट्राकल की कविताओं में एक शानदार ख़ामोशी है. ऐसा बहुत कम होता है जब वह ख़ुद कुछ बोलता है – ज़्यादातर वह कविता के विम्ब को अपने बदले बोलने देता है. यह बात दीगर है कि उसके ज़्यादातर विम्ब ख़ामोश चीज़ों के विम्ब हैं.

ट्राकल की कविताओं में एक दूसरे का पीछा करती छवियाँ एक बेहतरीन संरचना का निर्माण करती हैं. सारी छवियों का एक दूसरी के साथ बड़ा रहस्यपूर्ण क़िस्म का सम्बन्ध होता है; कविताओं की ले धीमी और भारी होती है, जैसा सपनों में हुआ करता है. ड्रेगनफ्लाई के पंख, मेंढक, कब्रों के पत्थर,पत्तियाँ, सैनिकों के हेलमेट – इन सब से धीर गंभीर रंग फूटा करते हैं – सारे के सारे एक गहन आनंद में. वहीं ये छवियाँ एक दिशाहीन, मार्गहीन अन्धकार में भी रहती हैं. ट्राकल की कविताओं में यहाँ-वहां यह अंधेरी ख़ामोशी नज़र आ जाती है –

पीले फूल
बिना कुछ कहे
झुकते हैं नीले तालाब पर

यह ऐसी चीज़ों की ख़ामोशी है जो बोल तो सकती हैं पर उन्हें चुप रहना पसंद है. जान बूझ कर चुप रहना पसंद करने के लिए जर्मन भाषा में एक शब्द है – schweigen. ट्राकल बहुधा इसका इस्तेमाल करता है. जब वह कहता है कि पीले फूल / बिना कुछ कहे / झुकते हैं नीले तालाब पर, तो हमें अहसास होता है कि फूलों की एक भाषा होती है और ट्राकल उसे सुन सकता है. वे कविताओं में अपनी ख़ामोशी बनाए रखते हैं. चूंकि वह पौधों की वाणी में झूठे शब्द नहीं भरता, प्रकृति उस पर और भी ज्यादा विश्वास करती है. कविता जैसे-जैसे विकसित होती जाती है, उसके भीतर और और अधिक प्राणियों-जंतुओं का आगमन होता जाता है – पहले केवल जंगली बत्तखें और चूहे होते हैं, फिर बांज के पेड़, हिरन, सड़ता वॉलपेपर, तालाब, भेड़ों के रेवड़, बांसुरियां और आखिर में इस्पात के हेलमेट, सेनाएं, घयाल्लोग, युद्ध के मैदान में परिचारिकाएँ और रक्त जो उस दिन घावों से बहा था.

तो भी एक लाल बादल, जिसके अन्दर
घर है एक क्रुद्ध देवता का – जो स्वयं बिखरा हुआ रक्त है
ख़ामोशी से इकठ्ठा होता है
बेंत के पेड़ों तले
चंद्रमा जैसा ठंडापन.

आख़िरी सांस लेने से पहले ट्राकल ने अपनी आसन्न मृत्यु को भी अपनी कविता में आने दिया, जैसा उसकी बाद के दिनों में लिखी गयी कविता ‘शोक’ में नज़र आता है.

ट्राकल कुल सत्ताईस साल जिया. हार्डवेयर के एक दुकानदार के घर १८८७ में साल्सबुर्ग (ऑस्ट्रिया) में उसका जन्म हुआ. उसका परिवार आधा चेक था पर घर पर जर्मन बोली जाती थी. उसने विएना में फार्मेसी की डिग्री ली और सेना में भरती हो गया -  उसे इन्सब्रूख़ में पहली पोस्टिंग मिली. जल्द ही उसने नौकरी छोड़ दी और एक साल दोस्तों से मिलने और लिखने में बिताया.  अगस्त १९१४ में युद्ध छिड़ने के बाद वह वापस सेना में लौटा और गैलीसिया के नज़दीक युद्धरत रहा. किसी भी और सैनिक से ज्यादा उसे घायल आदमी की वेदना महसूस होती थी – और उसके काम की वजह से उसे गहरा अवसाद हुआ. ग्रोदेक की लड़ाई के बाद उसे एक खलिहान में नब्बे गंभीर घायलों की देखरेख का ज़िम्मा मिला. पहली ही रात उसने आत्महत्या का प्रयास किया पर उसके दोस्तों ने उसे बचा लिया. इस दरम्यान उसने आश्चर्यजनक साहस के साथ अपनी आसन्न मृत्यु और हताशा को अपनी कविताओं का विषय बनाया. उसकी कविता ‘ग्रोदेक’ जो संभवतः उसकी आख़िरी है, एक भीषण रचना है. बहुत सावधानी से ट्राकल ने उसकी संरचना पर काम किया है. पहले १९वीं सदी की समूची जर्मन रोमांटिक कविता की तरफ इंगित करता एक छोटा अनुच्छेद आता है और उसके ठीक बाद बीसवीं सदी के जर्मनी की मिकानीकी हिंसा. यह विरोधाभास कविता में ताकत और तनाव दोनों पैदा करता है.

ग्रोदेक संकट ख़त्म हो चुकने के कुछ महीनों तक वह फ़ौज की नौकरी करता रहा – फार्मेसी की सप्लाई में आने वाली दवाएं उसकी नियमित खुराक का हिस्सा बन चुकी थीं. उसे क्राकाव में बतौर रोगी स्थानांतरित कर दिया गया जहां नवम्बर १९१४ में दवाइयों की ओवरडोज़ लेकर उसने अपना जीवन समाप्त कर लिया.

उसकी मृत्यु के बाद उसकी रचनाएं तीन खण्डों में छपीं. आस्ट्रिया के सबसे महत्वपूर्ण एक्सप्रेशनिस्ट कवियों में शुमार गियोर्ग ट्राकल की कुछ कवितायेँ प्रस्तुत हैं -



गर्मियां

शाम के समय कोयल की शिकायत
ठहर जाती है जंगल में
अन्न का दाना अपना सिर झुकाता है और गहरे,
पोस्ते का लाल फूल.

पहाडी के ऊपर
गहराता तूफ़ान.
झींगुर का पुराना गीत
ख़त्म होता है खेतों में.

पांगर की पत्तियाँ
और नहीं हिलतीं.
तुम्हारे कपड़े सरसराते हैं
घुमावदार सीढ़ियों पर.

मोमबत्ती जगती है चुपचाप
अँधेरे कमरे में;
चांदी का एक हाथ
बुझाता है रोशनी;

बिना हवा बिना तारों की रात.


हैल्ब्रून से

एक दफा और पीछा करना शाम के नीले दुःख का
पहाडी की ढाल पर से वसंत के मछलियों वाले तालाब तक –
जैसे कि लम्बे समय पहले मर चुकों की छायाएं मंडरा रही हों,
गिरजाघर के संभ्रांत लोगों की, कुलीन स्त्रियों की छायाएं –
उनके फूल इतनी जल्दी खिल जाते हैं, वे ईमानदार फूल वॉयलेट के
शाम के समय धरती पर, और नीले सोते से बहता
साफ़ पानी, मृतकों की विस्मृति पदचापों से ऊपर
इतनी भयावह तरीके से हरे होते हैं बाज के पेड़
-मछलियों वाले तालबों के ऊपर सुनहरे बादल.  

ग्रोदेक

शाम के समय, शरद का जंगल भरपूर है
मृत्यु के हथियारों की आवाज़ से, सुनहरे मैदान
और नीली झीलें, जिनके ऊपर रपटता जाता है
गहराता सूरज; रात इकठ्ठा होती है
मरते हुए रंगरूट, उनके फटे हुए मुंहों से जानवरों जैसी कराहें.

तो भी एक लाल बादल, जिसके अन्दर
घर है एक क्रुद्ध देवता का – जो स्वयं बिखरा हुआ रक्त है
ख़ामोशी से इकठ्ठा होता है
बेंत के पेड़ों तले
चंद्रमा जैसा ठंडापन.
सारी सड़कें फैलती जाती हैं एक काली फफूंद में.
रात और सितारों की सुनहरी टहनियों के नीचे
सिस्टर की परछाईं टकराती चलती है धुंधले बगीचे में
नायकों के प्रेतों का अभिवादन करते खून से सने सिर;
और शरद की काली बांसुरी की आवाज़ निकलती है छिद्रों से
अरे अभिमानी दुःख! तुम तांबे की वेदी,
आज आत्मा की गर्म लपट का भोजन है
एक और दानवी दर्द,
अजन्मे वे पोते-पोतियाँ.



पूर्वी सीमा पर

आदमियों की भीड़ का अपशकुभरा गुस्सा
जाड़ों के तूफ़ान के जंगली ऑर्गन जैसा है
युद्ध की हल्की कत्थई उठान
बिना पत्तों का एक ग्रह.

टूटी भंवों और चांदी बांहों से
रात हाथ हिलाती है मरते सैनिकों को
शरद के राख-वृक्ष की छाया में
क़त्ल कर दिए गायों की आत्माएं कराह रही हैं.

काँटोंभरा एक रेगिस्तान शहर को घेरे हुए है
बहते खून की सीटियों से
चंद्रमा पीछा करता है हैरतज़दा औरतों का
जंगली भेदिये घुस चुके दरवाजों से भीतर.