Friday, February 14, 2014

मनुष्य बनने के बारे में क्या ख्याल है प्रेम के मारो!?


पंकज श्रीवास्तव की फेसबुक वॉल से साभार -

"वेलेन्टाइन डे’’ का खुमार उतर जाये तो जरा संत रविदास को भी याद करियेगा. आज उनकी भी जन्मजयंती है. इस महान क्रांतिकारी संत कवि ने प्रेम के बारे में कुछ यूँ कहा है-- 

रविदासप्रेम नहिं छिप सकै, लाख छिपाये कोय, प्रेम न मुख खोलै कभउँ, नैन देत हैं रोय...

लेकिन क्या प्रेम हवा में होगा.? नैना से नीर ना बहें, इसके लिए राज और समाज भी तो खुशी देने वाला होना चाहिये. ऐसा समाज, जहां प्रेम की राह में कोई बाधा ना हो. रविदास इस सिलसिले में एक सपना दिखाते हैं. 'अनपढ़' कहे जाने वाले रैदासने जो लगभग 500 साल पहले कहा, वही बात आधुनिक युग के तमाम क्रांतिकारी दार्शनिकों के पोथन्नों में मिलती है. रैदास लिखते हैं. 

ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न
छोट बड़ो सब मिलि बसें, रविदास रहें परसन्न.”

ये सपना पूरा ना हुआ तो इंसान बीमारही रहेगा. और प्रेम करने के लिए चंगा होना जरूरी है. मन चंगा हुआ तो कठौती में गंगा भी होगी और गंगाधर भी.

एक आख़िरी पर सब ज़रूरी बात. प्रेम की औदात्य महसूस करने के लिए मनुष्य होना भी ज़रूरी है. और मनुष्य पैदा नहीं होता, बनना पड़ता है.. कैसे ? रविदास बताते हैं--

जात-जात में जात है, जस केलन के पात
रैदास ना मानुष बन सके, जब तक जात ना जात..

तो हे 'प्रेम' के मारो! ... मनुष्य बनने के बारे में क्या ख्याल है...?

Tuesday, February 11, 2014

क्‍यूँ कर रखूँ मैं दिल कूँ 'वली' अपने खेंचकर


देखे सूँ तुझ लबाँ के उपर रंग-ए-पान आज
चूना हुए हैं लाला रूख़ाँ के पिरान आज

निकला है बेहिजाब हो बाज़ार की तरफ़
हर बुलहवस की गर्म हुई है दुकान आज

तेरे नयन की तेग़ सूँ ज़ाहिर है रंग-ए-ख़ून
किस कूँ किया है क़त्‍ल ऐ बांके पठान आज

आखि़र कूँ रफ्त़ा-रफ्त़ा दिल-ए-ख़ाकसार ने
तेरी गली में जाके किया है मकान आज

कल ख़त ज़बान-ए-हाल सूँ आकर करेगा उज्र
आशिक़ सूँ क्‍या हुआ जो किया तूने मान आज

तेरी भवाँ कूँ देख के कहते हैं आशिक़ाँ
है शाह जिसके नाम चढ़ी है कमान आज

गंगा रवाँ किया हूँ अपस के नयन सिती
आ रे समन शिताब है रोज़-ए-नहान आज

क्‍यूँ दायरे सूँ ज़ुहरा जबीं के निकल सकूँ
यक तान में लिया है मिरे दिल कूँ तान आज

मेरे सुख़न कूँ गुलशन-ए-मा'नी का बोझ गुल
आशिक़ हुए हैं बुलबुल-ए-रंगी बयान आज

जोधा जगत के क्‍यूँ न डरें तुझ सूँ ऐ सनम
तर्कश में तुझ नयन के हैं अर्जुन के बान आज

जानाँ कूँ बस कि ख़ौफ़-ए-रकीबाँ है दिल मनीं
होता है जान बूझ हमन सूँ अजान आज

क्‍यूँ कर रखूँ मैं दिल कूँ 'वली' अपने खेंचकर
नईं दस्‍त-ए-अख्ति़यार में मेरे इनान आज

Monday, February 10, 2014

लल्लू का बाप जगधर


अलाउद्दीन खिलजी के ज़माने की एक घटना है. उस ज़माने में बादशाहों के दरबारों में अधिकतर खत्री लोग ही मंत्री तथा अन्य उत्तरदायी पदों पर होते थे. अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में एक वजीर उधारमल खत्री थे. एक बार लड़ाई में जब ज़्यादा खत्री काम आये तो उनकी विधवाओं में बहुत रोना-धोना हुआ. बहुत सी विधवाएं तो सती हो गईं. शेष की बुरी हालत देखकर बादशाह ने उधारमल से कहा – “क्यों न इनकी दूसरी शादी कर दी जाए.” उधारमल ने कहा “हुज़ूर हमारे यहाँ दूसरे विवाह का रिवाज़ नहीं. सती होना पसंद किया जाता है दूसरा विवाह नहीं. हुज़ूर का हुक्म है तो मैं कोशिश ज़रूर करूंगा.” उन्होंने हर जगह के खत्रियों के चौधरियों को यह सन्देश भेजा. आगरे के खत्रियों के चौधरी जगधरमल ताजगंज में रहते थे. उन्होंने इस काम को अंजाम देने का बीड़ा उठाया. सब चौधरियों में कोशिश की. आगरे के खत्रियों की पंचायत की. इस पंचायत का उलटा ही असर पड़ा. सब खत्री चौधरी साहब के खिलाफ हो गए. खत्रियों के जत्थे के जत्थे इनके यहाँ आकर इनको बेहूदा गालियाँ सुनाते थे. साल की कुछ निश्चित तिथियों में चौधरी साहब की ज़िन्दगी भर और उनके बाद भी यह क्रम चलता रहा. यहाँ तक कि इसने एक मेले का रूप धारण कर लिया. केवल खत्री ही नहीं हर कौम के लोग इसमें शामिल होने लगे. तरह-तरह के गीत और कबित्त बन गए. मेले में लल्लू जगधर को हर शख्स गालियाँ देता था. कुछ लोग जगधर को लल्लू मल का बाप कहते हैं वैसे लल्लू का बाप जगधर था. मियाँ नज़ीर अकबराबादी के ज़माने में भी यह मेला उसी रूप में लगता था. उसी के बारे में उन्होंने यह रचना की थी.

(नज़ीर ग्रंथावली से प्राप्त तफ़सील)   

यह पोस्ट खासतौर पर प्रिय कवि-मित्र-अग्रज जनाब संजय चतुर्वेदी के वास्ते -     

लल्लू जगधर का मेला

-नज़ीर अकबराबादी

है धूम आज यारो क्या आगरे के अन्दर
खलकत के ठठ बंधे हैं हर एक तरफ से आकर
गुल, शोर, सैर, चर्चा अम्बोह के सरासर
क्या सैर मच रही है, सुनता है मेरे दिलबर

          टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

रोजा में ताजगंज के अम्बोह हो रहा है
महबूब गुलरुखों का इक बाग़ सा लगा है
माजून और मिठाई कोला है, संगतरा है
इक दम का यह नज़ारा ऐ यारो! वाह वाह है

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

ओढ़े है साल कोई महबूब शोख़ लाला
चीरा जारी का सर पर या सुर्ख है दुशाला
माशूक गुलबदन है आशिक है दीद वाला
लग्गड़ पिला के हरदम कहता है हुक्का वाला

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

हर जा कदम कदम पर गुलज़ार बन रहे हैं
नातें, कहानी किस्से हर जा बखन रहे हैं
सुल्फों के दम हैं, उड़ते सब्जी भी छन रहे हैं
हर भंग के कदह पर यह शोर ठन रहे हैं

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

गजरों का हर तरफ को बाज़ार लग रहा है
गन्ने, सिंघाड़े, मूली, तरबूज भी धरा है
अदना चबैने वाला परमल जो बेचता है
वह भी चला जो घर से कहता यही चला है

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

जो खूबरू तवायफ है हुस्न की घमंडी
सीना लगे से जिसके हो जाय छाती ठंडी
देख आशना का चेहरा और घेरदार बंडी
हर दम यह उससे हंस हंस कहती है शोख़ रंडी

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

रंडी जो अचपली है टुक दीद की लड़ारी
कुछ लोग उसके  आगे कुछ आशना पिछाड़ी
रथवान से कहे है सुन ओ! मियाँ पहाडी
क्या ऊंगता है जल्दी लो हांक अपनी गाड़ी

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

है हुस्न की जो अपने सरसार बाई नूरन
जिसका मिलाप यारो सौ बाइयों का चूरन
है यार उनके मिर्ज़ा और या कि शेख़ घूरन
मिन्नत से कह रहे हैं सुनती है बी ज़हूरन

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

दो रंडियां तवायफ जोबन है जिनका बाला
बरसे हैं जिनके मुंह पर सर पाँव से छिनाला
कोई कहे है “ऐ है” काफिर ने मार डाला
कोई पुकारता है ओ! नौबहार लाला

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

जो गुलबदन चले हैं सीना उठा-उठा के
कफदों की खटखटाहट पाजेब के झनाके
आती है धज बनाके जब आशना के आगे
कहता है वह आहा! हा! ओ चित लगन अदा के

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

जो नौबहार रंडी टुक हुस्न की है काली
बाला हिला के हरदम दे है हर एक को गाली
देख उस परी का बाला औ कुर्तियों की जाली
हर एक पुकारता है ओ आ आ! बाले वाली

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

कोई आशना से अपने लडती है खुद पसंदी
हरगिज़ न जावे याँ से बिन रूपये के बंदी
वह दे है आठ आने लेती नहीं यह गन्दी
कहता है जब तो जलकर क्या चल रही है खंदी

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

रस्ते में गर किसी जा दो लड़ रहे हैं झड़वे
करते हैं गाली दे दे आपस में भड़वे-भड़वे
कोई उसको रोकता है चल छोड़ मुझको भड़वे
कोई उसको कह रहा है क्या लड़ रहा है भड़वे

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

जो हीजड़े ज़नाने आए है करके हल्ले
हाथों में मह्वियाँ हैं और पोर-पोर छल्ले
जो उनके आशना हैं देख उनको हो के झल्ले
हंस हंस पुकारते हैं ओ! जानी प्यारे छल्ले

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

कोई उनसे कह रहा है ऐ! नौबहार काहू
तेरी तो झावनी ने दिल कर दिया है मजनूँ
वह सुन के बात उसकी मटका की आँखें कर हू
ताली बजा के हर आँ कहता है “क्या है मामू”

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर


जो आशना हैं अपने लौंडे के इश्क मारे
फिरते हैं शाद दिल में लौंडे को घेर घारे
लाते हैं लड्डू पेड़े, कर हुस्न के नज़ारे
हर शोख़ गुलबदन से कहते हैं यों “कि प्यारे”

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

हर आन सुर्मा वाला सुर्मा संवारता है
औ प्यारी अंखड़ियों से आशिक को मारता है
सक्का जो छुल लगाकर पानी को ढालता है
वह भी कटोरे छनका हरदम पुकारता  है

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

इसहाक शाह जो आशिक इक रिंद आ रहे हैं
हर शोख़ गुलबदन से आँखें मिला रहे हैं
लोग उनके रेख्तों पर गर्दन हिला रहे हैं
वह भी हरेक सुखुन पर यह ही सुना रहे हैं

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

कव्वाल या अताई जो गीत जोड़ता है
मुंहचंग ढमढमी से लच्छे ही जोड़ता है
जब गतगिरी में लाकर आवाज़ मोड़ता है
वह भी उसी के ऊपर ला तान तोड़ता

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

मुफलिस गरीब अदना कुछ होवे या न होवे
आया है देखने को तो गम को दिल से धोवे
कहता चला है दिल से कोई रात भूका सोवे
धेले की कौड़ियों में चल होनी हो सो होवे

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

ढलाई रोशनी से मामूर हो रही है
घर जगमगा अटारी पुर नूर हो रही है
हर ईंट ईंट उसकी सिन्दूर हो रही है
यह बात तो जहां में मशहूर हो रही है

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

नौ कारखाने वाले नौबत को सज रहे हैं
रंडी कहरवा नाचे धोंसे गरज रहे हैं
इस बात पे तो यारो नक्कारे बज रहे हैं
आये है जो भी याँ पर सब होश ताज रहे

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

यह भीड़ है कि रस्ता घोड़े को, न बहल को
हो दल के दल जहां पर क्या दोष है कुचल को
निकले हैं मार धक्के  जब चीर फाड़ दल को
सब उस घड़ी हैं कहते ललकार इस मसल को

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

होता है बरसवें दिन यह आगरे का मेला
मुद्दत से लल्लू जगधर है नाम उनका ठहरा
सौ भीड़ और भड़के अम्बोह और तमाशा
हरदम नज़ीर भी अब कहता है यों अहा! हा!

टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर
          धी का टना मरावे लल्लू का बाप जगधर

लूटेगा फिर साल भर गुलबदनों की बहार

बाबा नज़ीर अकबराबादी ज़िन्दाबाद


करके बसंती लिबास सबसे बरस दिन के दिन
यार मिला आन कर हमसे बरस दिन के दिन
खेत पै सरसों के जा, जाम सुराही मंगा
दिल की निकाली मियाँ! हमने हविस दिन के दिन
सबकी निगाहों में दी ऐश की सरसों खिला
साकी ने क्या ही लिया वाह यह जस दिन के दिन
खल्क में शोर-ए-बसंत यों तो बहुत दिन से था
हमने तो लूटी बहार ऐश की बस दिन के दिन
आगे तो फिरता रहा ग़ैरों में हो ज़र्द पोश
हमसे मिला पर वह शोख़ खाके तरस दिन के दिन
गरचे यह त्यौहार की पहली खुशी है ज़्यादः
ऐन जो रस है सो वह निकले है रस दिन के दिन

लूटेगा फिर साल भर गुलबदनों की बहार
यार से मिलते नज़ीर आज बरस दिन के दिन 

Sunday, February 9, 2014

नाईट ट्रेन टू लिस्बन


लैटिन पढ़ाने वाला और पुरानी भाषाओं का एक प्रौढ़ जानकार है रेमंड ग्रिगेरियास. स्विट्ज़रलैंड के बर्न नगर में रहनेवाला. काम पर जाते हुए एक दिन उसकी निगाह अचानक एक युवती पर पड़ती है जो पुल से नदी में छलांग लगाकर अपनी जान देने को ही है. रेमंड उसे बचा लेता है. बाद में युवती गायब हो जाती है – वह अपना लाल कोट पीछे छोड़ जाती है जिसकी जेब में एक नन्ही किताब की सूरत में एक पुर्तगाली डाक्टर के नोट्स हैं और किताब के पन्नों के बीच लिस्बन जाने को उसी रात का एक रेल टिकट.









यह घटना रेमंड की अब तक की सुविधापूर्ण संतुष्ट ज़िन्दगी को पूरी तरह बदल देती है. रेमंड उस टिकट का इस्तेमाल करता है. डाक्टर के बारे में जानने की उसकी कोशिशें उसे सत्तर के दशक के पुर्तगाल के काले दिनों तक ले जाते हैं. पुर्तगाल के इतिहास के साथ साथ उसे एक जटिल प्रेम-त्रिकोण के सूत्र हाथ लगते हैं. धीरे धीरे समय और व्यक्तिगत स्पेस का अतिक्रमण कर कहानी इतिहास, दर्शन, प्रेम और जीवन के वास्तविक अर्थों का संधान शुरू कर देती है.

पास्कल मर्सी के इसी नाम के उपन्यास पर बनाई गयी यह फिल्म एकाधिक बार देखे जाने की दरकार रखती है. कहते हैं परफेक्शन दुर्लभ होता है पर किसी किताब के साथ सम्पूर्ण न्याय किसी फिल्म में किया जाना देखना हो तो मैं ‘नाईट ट्रेन टू लिस्बन’ की सिफारिश करूंगा. 


फिल्म का निर्देशन बिली ऑगस्ट ने किया है और जेरेमी आइरंस ने रेमंड का किरदार निभाया है.

पुराने कपड़ों के ढेर में जाने में जाने से ठीक पहले का स्पर्श


कल आपको संजय व्यास की सद्यःप्रकाशित पुस्तक से एक अंश पढ़वाया था. आज उसी से एक और टुकड़ा -

 ठेले पर कमीज़ 

-संजय व्यास

पुराने शहर की तंग गलियाँ. इतनी तंग कि कितना भी बचें आपके कंधे इन्हें तकरीबन छूते हुए ही आगे बढतें है. पर चिंता की कोई बात नहीं, बरसों के मानवीय स्पर्श ने इनके कोनों को काफी दोस्ताना बना दिया है. हां चलते वक्त फर्श के चिकने हो चुके पत्थरों का ध्यान रखना ज़रूरी है.

इनमें से एक गली सुस्त क़दमों से आगे बढती एक छोटे से चौक में खुलती है जहां छोटी छोटी दुकानों का अजायबघर है. कहीं से तेल में खौलते समोसों से आती भारी गंध है. कोने में एक मंदिर है जिसकी जीर्ण शीर्ण पताका ऊपर की स्फूर्त हवा में कांपती है. एक बीमार गाय, जिसके थूथन से कोई तरल बहता रहता है, इस चराचर जगत के दयनीय होने की घोषणा करती है. यह डिब्बे झाडू हमामदस्ते सिलालोढ़ी वगैरह का प्रागैतिहासिक संसार है.

यहीं एक ठेले पर बिकते है कमीज़, पतलून, फ्रॉक, बंडी जैसे रेडीमेड कपड़े. कभी किसी समय में इस्तेमाल किये हुए फिर घर घर फेरी लगाने वालों को बेचे हुए, जो गठरी में बंद पड़े पुरानी फैशन के कपड़े तौल के भाव ले जाते है और बदले में स्टील का कोई छोटा मोटा बर्तन दे जाते है. घर वाले भी खुश कि पुराने कपड़े किसी काम तो आये. देखिये ये शर्ट सिर्फ साठ रूपये का है. धुला हुआ, इस्त्री किया हुआ. कोई अच्छे ब्रांड का लगता है. पहली बार खरीदा गया होगा तो सात आठ सौ से कम का क्या होगा. अब फिर से इसे कोई पहनने के लिए ले जाएगा. सिर्फ साठ रुपये में. मौल भाव थोड़ा ठीक से किया जाय तो पचास में भी हाथ लग सकता है. पर ये कमीज़ बाकी पड़े कपड़ों के ढेर से कुछ अलग लगता है. हाथ में उठा कर देखो तो सिर्फ इसके कन्धों से रंग थोड़ा फीका पड़ा है. हो सकता है इसी वज़ह से इसे पहनना बंद किया गया हो. क्या इसे शादी कि पहली एनिवर्सरी पर पत्नी ने उपहार में दिया था? नहीं, फिर तो ये यहाँ नहीं हो सकता. पर कमीज़ दुल्हन के शादी के जोड़ों की तरह सम्हाल कर कहाँ रखे जाते है? इसे संदूक में जगह नहीं दी गयी होगी. ये जिस दिन गठरी में आया उसी दिन से नश्वर हो गया.

ये बात अलग है कि पुराने कपड़ों के ढेर में जाने में जाने से ठीक पहले इसका अपना एक व्यक्तित्व उभर आया था. कितनी ही बार पत्नी की उँगलियों का स्पर्श इसके ऊपर वाले बटन पर दर्ज है. इस दौरान कितनी ही बार 
बार पत्नी की उँगलियों का स्पर्श इसके ऊपर वाले बटन पर दर्ज है. इस दौरान कितनी ही बार ऑफिस के जल्दबाज़ पलों को धता बताकर पत्नी के हाथों को थाम लिया गया होगा. जाने कितनी बार कमीज़ के खुले बटन से होकर स्त्री का चेहरा पुरुष के सीने में धंसा होगा. उसके पसीने की पौरुषेय गंध से भरी उमस को महसूसते हुए. साठ रुपये की इस कमीज़ में कितना कुछ अंतरंग और कितना कुछ गोपन बसता है! इसके कन्धों से रंग ज़रूर फीका पड़ गया है पर इसके तंतुओं की मज्जा में घुले प्रेम के चटख रंग क्या इतनी जल्दी चले गए होंगे? स्वेद में घुली वो मीठी सी घुटन जो पत्नी ने महसूस की होगी उसकी गंध क्या अब जाती रही होगी? या अनगिन बार इसकी सतह पर नामालूम वजह के उसके आंसूं क्या इतनी जल्दी डिटर्जेंट से साफ़ हो गए होंगे? यहाँ तक कि पुरुष के कमज़ोर क्षणों में भीगी आँखों को भी इसकी आस्तीन ने ही सहलाया होगा, उसकी स्मृतियाँ बाजुओं पर अंकित नहीं रही होंगी?

शाम तक सिर्फ साठ रुपयों में ये कमीज किसी और घर की खूँटी पर टंगी होगी. इसे कल पहना जाएगा.