Saturday, January 31, 2015

आपका व्याकरण उनकी समझ की औक़ात से बाहर था, लक्ष्मण! - संजय चतुर्वेदी

शानदार कवि और मनुष्य श्री संजय चतुर्वेदी कबाड़खाने के सबसे लोकप्रिय कवियों में हैं. उनकी ढेरों कविताएं यहाँ पोस्ट हुई हैं और उनकी एक चतुष्पदी कबाड़खाने के साइड-मास्ट पर लगातार विराजमान रहती है. परसों उन्होंने एक मेल भेजी जिसमें मरहूम आर. के. लक्ष्मण को लेकर उन्होंने अपने मन की बातें लिखी थीं - हिन्दी-अंग्रेज़ी दोनों में मिलीजुली. मेरे इसरार पर उन्होंने पूरी टीप को हिन्दी में अनूदित कर के भेजा. 

बातचीत में ही संजय चतुर्वेदी ने तनिक संकोच के साथ बताया कि उन्हें लक्ष्मण से एक से अधिक बार मिलने का सुअवसर मिला था. और १९८५ में जब संजय जी चिकित्सा में परास्नातक की पढाई कर रहे थे तो लखनऊ में हुई एक कार्टून-प्रतियोगिता में उनके बनाए कार्टून को पहला इनाम हासिल हुआ था. और यह इनाम उन्होंने लक्ष्मण के हाथों ग्रहण किया था. दिल्ली में रहनेवाले श्रेष्ठ कबाड़ियों को हिदायत दी जाती है कि वे संजय जी के कार्टूनों को खोजने में जुट जाएं.  

संजय जी को धन्यवाद. उनका लिखा पेश है - 


विदा, लक्ष्मण! अब आप मुक्तिदाता राम के पास हैं. 

वैसे भी मतान्तर और सहज विनोद के प्रति द्वेष और हिंसा से भरी यह दुनिया आपके अनुकूल नहीं रह गई थी. 

आपने आज़ाद हिन्दुस्तान की सबसे सच्ची, खुदमुख्तार और सबसे जानदार ब्राण्ड को बनाया. एक ऐसी ब्राण्ड जो बेआवाज़ लोगों की चुप्पी की तरह फैलती गई. मार्केटिंग और मैनेजमेंट के गुरूघण्टाल कभी उस ब्राण्ड की व्याख्या नहीं कर सकते. न ही वे आपकी कथन शक्ति या आपके कथ्य को समझ सकते. आपका व्याकरण उनकी समझ की औक़ात से बाहर था. 

सच पूछा जाए तो ड्रॉइंग-दक्षता से ज़्यादा आपका कथ्य आपका निर्णायक तत्व था. शंकर की पीढ़ी के बाद सभी ने कहीं न कहीं आपका अनुगमन किया या आपकी नकल की, जबकि आप भी कहीं न कहीं डेविड लो का अनुगमन या नकल कर रहे थे - ख़ासतौर पर स्याही और ब्रश की करामात में. लेकिन अपने समय की जटिल सांस्कृतिक कहानी लिखने में आपने डेविड लो को बहुत पीछे छोड़ दिया. राजनितिक कार्टूनिंग में योरोप की सपाट ज़मीन के सामने दक्षिण एशिआ की उबड़-खाबड़, उठा-पटक को नापना बड़ा मुश्किल काम था. 

अनकही कहानियां दर्ज़ करते रहने का आपका हुनर आपको मुनफ़रिद, मुस्तनद बनाता है. 

आपकी विदाई में शोक से अधिक जीवन में आपके सकर्मक हस्तक्षेप का संतोष दिखाई देता है.


रूमानी और बेकार सा ख़याल है लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि जिस बेज़ुबान की आवाज़ बनकर रहे आप, उसकी दुआ आप तक पंहुच रही होगी.

हॉलीवुड नौस्टेलजिया - 4 – रीटा हेवर्थ




(यह पोस्ट खासतौर पर कबाड़ी भाई दिलीप मंडल के लिए, जिनके साथ हुए एक टेलीफोन वार्तालाप की वजह से यह सीरीज कबाड़खाने में शुरू हुई.)

कुछ तो बात थी रीटा हेवर्थ में. याद कीजिये मशहूर फिल्म 'शॉशैंक रिडैम्पशन' को. उसके भीतर सब कुछ था. ब्रूकलिन से निकली वो छोटी सी लड़की  जिसे उसके पिता ने खूब एक्सप्लॉइट किया था और जिसे स्थाई रूप से अपना चेहरा और बाल बदलवाकर एक नयी पहचान बनाने पर विवश होना पड़ा था, यकीनन हॉलीवुड के चंद करिश्माई व्यक्तित्वों में एक में कैसे तब्दील हुई, एक दिलचस्प कहानी है. वह बेहद रूपवान और आकर्षक थी पर यह गुण तो सैकड़ों अभिनेत्रियों में पाया जाता है, बल्कि फिल्मों में अभिनेत्री, मेरा मतलब है हीरोइन बनने के लिए सबसे ज़रूरी माना जाता है. रीटा हेवर्थ की खूबी उनकी आँखों की आतुरता और उनकी चाल की ऊर्जा में निहित थी – आप जब उन्हें स्क्रीन पर देखते हैं तो ऐसा लगता है जैसे उनके साथ अभिनय कर रहे बाकी लोग नींद में चल रहे हों.  

रीटा हेवर्थ की कहानी में त्रासदी भी बहुत है – अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को जिस तरह उन्होंने सार्वजनिक रूप से बदला वह तो बेहद तनावभर था ही, तमाम पुरुषों ने जिस तरह उनका शोश्सं और दोहन किया और करना चाहा, उनके साथ भीड़ पाने की उसकी जद्दोजहद भी कम दुखभरी नहीं रही. इस सीरीज की पहली पोस्ट में इनग्रिड बर्गमैन का ज़िक्र करता हूँ. याद दिलाना चाहता हूँ कि १९४० के दशक में इनग्रिड की ख्याति उस समय के खासे परम्परावादी अमेरिकी समाज में परिवार तोड़ने वाली स्त्री की बन गयी थी और उसकी निंदा सीनेट तक में हुई थी. ठीक इसी समय रीटा हेवर्थ संसार को ठेंगा दिखाती हुई एक ऐसे पुरुष के साथ जी रही थी जो उसका पति नहीं था और मुस्लिम था (उन दिनों तक अमेरिकी समाज में ईसाई महिला का गैर-ईसाई से विवाह करना तक विवाद का विषय बनता था.)

लेकिन चूंकि यह मुस्लिम आदमी एक राजकुमार था और रीटा हेवर्थ जल्दी ही महारानी की वास्तविक भूमिका निभाने वाली थी, जनता ने उनके इस ‘अपराध’ को माफ़ कर दिया. चूंकि जनता ने इस स्त्री को बेहद कठिन दौर से गुज़रते देखा था, वह चाहती थी कि उसके साथ बेहतर चीज़ें घटीं हों – वह खुश रहे, उसका परिवार हो, वह महारानी बने. इन सब इच्छाओं के सामने ये छोटी छोटी बातें गौण थीं कि उसके सपनों का राजकुमार मुस्लिम हो या कोई और.

लेकिन राजशाही की यह चमक ज्यादा नहीं चल सकी. रीटा हेवर्थ आगे बढती गईं – कुछ ठीकठाक हिट फ़िल्मों, कुछेक पतियों और अपेक्षाकृत गुमनाम ज़िन्दगी की तरफ़.

लेकिन १९४० के आसपास का एक समय ऐसा भी था जब रीटा हेवर्थ समूचे अमेरिका की आँखों का नूर थी.
रीटा हेवर्थ के स्पानी पिता एदुआर्दो एक डांसर थे जबकि उनकी माँ वोल्गा एक कोरस गर्ल थीं. जन्म के बाद इस बच्ची का मान मार्गारिता कारमेन कान्सीनो रखा गया था. उनके दादाजी को १९३० के दशक में अमेरिका में स्पेनिश नृत्य बोलेरो को लोकप्रिय बनाने में निभाई गयी बड़ी भूमिका के लिए जाना जाता है. 

तीन साल की आयु से ही दादाजी ने इस नन्ही लडकी को नृत्य के पहले पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया था.
उसके बाद से रीटा हेवर्थ की नृत्य की ट्रेनिंग लगातार चलती रही. जब वे आठ साल की थीं, उनका परिवार हॉलीवुड चला आया. उनके पिता ने वहां बड़े स्टार्स को प्रशिक्षित करना शुरू किया. लेकिन उन्हीं दिनों अमेरिका में आर्थिक मंदी का दौर चला जिसने हॉलीवुड को अन्दर और बाहर दोनों तरफ से जकड़ लिया. नृत्य का प्रशिक्षण लेना विलासिता का सामान बन गया. लेकिन एदुआर्दो कान्सीनो के पास एक योजना थी – वे अपनी बेटी को अपना डांसिंग पार्टनर बना कर तिजुआना क्लबों में ‘द डांसिंग कान्सीनोज़’ की टीम का जलवा करना चाहते थे. यह अलग बात है कि इस पूरी व्यवस्था में लोगों को ऐसा लगता रहा कि वे दोनों पति-पत्नी हैं – यह शो बेहद हिट रहा और खूब फायदे का सौदा. चीज़ें तब बदलीं जब फॉक्स स्टूडियो के एक प्रतिभा-खोजी ने इन्हीं तिजुआना नाईट क्लबों में से एक में इस लडकी को ‘देखा’ और उसके साथ छः महीने का अनुबंध कर लिया – मार्गारिता ने रीटा काउन्सेलो के नाम से दस्तखत किये.

लेकिन यह कोई उल्लेखनीय अनुभव नहीं रहा. अनुबंध के छः महीनों के दौरान रीटा ने कुछेक फिल्मों में बहुत छोटे-छोटे रोल किये और अवधि पूरी हो जाने पर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. वे कुल 18 साल की थीं जब अपने पिता की आयु के एडवर्ड जुडसन के साथ उन्होंने टेक्सस जाने का फैसला किया जहां जुडसन की मदद से उन्हें फिर से कुछेक घटिया रोल मिले. अंततः १९३७ में कोलंबिया पिक्चर्स ने उन्हें स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया जिसके बाद उनके साथ सात साल का कॉन्ट्रैक्ट  साइन किया गया. लेकिन इसके बावजूद रीटा काउन्सेलो को लैटिन अमेरिकी लड़कियों की भीड़ में ही रखा और देखा गया. दरअसल उस समय कोलंबिया पिक्चर्स को अपने प्रतिद्वंद्वी एमजीएम की टक्कर के लिए एक नये स्टार की तलाश थी. रीटा काउन्सेलो को ऐसी स्टार में बदलने के लिए बहुत मेहनत की जानी थी.

आप किसी लैटिन अमेरिकी सुन्दरी को दोबारा से कैसे सुन्दर बना सकते हैं? उसके ‘विडोज़ पीक’ को हटाइये, उसके काले बालों को बदल दीजिये. बस. महीनों तक रीटा अकेलेपन में रहीं जब उनकी हेयर इलेक्ट्रोलिसिस चल रही थी – जलते हुए लाल रंग के बालों वाली यह आकर्षक स्त्री उसके बाद रीटा हेवर्थ बनाकर जब निकली तो हॉलीवुड के इतिहास में एक हलचल हुई.

ये रहीं हेयर इलेक्ट्रोलिसिस के पहले की रीटा काउन्सेलो उर्फ़ मार्गारिता कारमेन कान्सीनो –


और ये रीटा हेवर्थ –




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 'शॉशैंक रिडैम्पशन' से एक दृश्य :

 

ये हाथ हैं तुम्हारे

"रास्ते में उगे हैं कांटे
रास्ते में उगे हैं पहाड़
देह में उगे हैं हाथ
हाथों में उगे हैं औज़ार" 

- गोरख पांडे



अफ़गानिस्तान

शरबत गुला, पेशावर पाकिस्तान के शरणार्थी शिविर में
वियतनाम

फ्लोरिडा, अमेरिका

न्यूयॉर्क सिटी, अमेरिका

क्यूबा

तिब्बत

माली

कश्मीर

तिब्बत

अफगानिस्तान

बर्मा

आयरलैंड

जापान

पैरागुए

अमेरिका

अफगानिस्तान

रूस

युगांडा

(सभी फ़ोटो स्टीव मैककरी के)



जीवन से गायब होते लोग – 3


शमशेर नेगी

(यह पोस्ट पूरी तरह से मित्र शमशेर नेगी की है. मैंने इसे ब्लॉग के लिए तैयार भर किया है)


बागेश्वर के कन्यालीकोट गाँव के लोग परंपरा से ही लकड़ी की ठेकियां बनाते आ रहे हैं. बड़े पैमाने पर लकड़ी की ठेकियों का इस्तेमाल कुमाऊँ में अनाज भंडारण में तो इस्तेमाल होता ही था, उनका सबसे अधिक इस्तेमाल दही जमाने के लिए किया जाता रहा है.

इधर कुछ बीसेक सालों से ये ठेकियाँ दिखनी या मिलनी बिलकुल बंद हो गयी हैं.

अमर उजाला, हल्दानी में कार्यरत पत्रकार और प्रिय मित्र शमशेर नेगी ने ठेकी बनाने वाले इन शिल्पकारों की बाबत कुछ दिलचस्प जानकारियाँ इकठ्ठा की हैं.

हर साल जाड़ों में ये लोग अपना गाँव छोड़कर कोई दो-एक सौ किलोमीटर दूर हल्द्वानी के समीप कॉर्बेट की कर्मभूमि कालाढूंगी में बहने वाली बौर नदी के किनारे आकर अब भी अपना परंपरागत पेशा करने में लगे रहते हैं.

यहाँ के जंगलों में मिलने वाली सांदन की मुलायम लकड़ी ठेकियां बनाने के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है. कालाढूंगी से करीब तीन किलोमीटर चलकर आप पहले बौर नदी तक पहुँचते हैं. और फिर नदी पार करके इन लोगों के ठिकाने पर.

गाड़ी, मोटरसाइकिल वगैरह से यहाँ नहीं पहुंचा जा सकता. इसके लिए ट्रैक्टर ट्रॉली में बैठकर जाना होता है. नदी के पानी के बहाव से चलने वाली लकड़ी की बनी एक मोटरनुमा घिर्री की मदद से यह जटिल कार्य संपन्न होता है. 

कुछ साल पहले तक करीब १०० लोग यहाँ आते थे. इस साल कुल ९ आये हैं. चन्दन, रमेश, गोपाल, गोविन्द, सुरेश, तेज और धनराम के अलावा इनके मुखिया पुष्कर राम.


जिस औज़ार का इस्तेमाल वीडियो और तस्वीरों में पुष्कर कर रहे हैं उसे बांक कहा जाता है. पुष्कर की टीम के बाकी सदस्य जंगल से लकड़ी लेकर आते हैं जबकि कलाकारी का सारा काम पुष्कर राम का होता है.

आमतौर पर दो से लेकर दस किलो क्षमता की लगभग सौ ठेकियां बनती हैं एक सीज़न में, जिन्हें ये वापस अपने गाँव जाकर बेचते हैं - अमूमन सौ रूपये प्रति किलो क्षमता की दर से. कई बार अनाज के बदले भी ठेकी दे दी जाती है.

कुछ महीने पेट पालने को तो पैसा आ जाएगा पर बाकी के महीने कैसे बिताते हैं, इसका कोई ठोस जवाब उनके पास नहीं. बाकी अगले साल भी आएँगे क्या? – इसका भी नहीं.

समाप्त होते हुए ये भी कुछ लोग हैं जो किसी भी तरह के विकास के दायरे में नहीं आते. 

कुमाऊनी हस्तशिल्प के इन नायाब नमूनों को लोग आजकल अपने बैठक के कमरों में भी सजाने लगे हैं.

लेकिन कभी ठेकी के दही का स्वाद किसी कुमाऊनी बुज़ुर्ग से पूछिए.  

अरे मुझसे ही पूछिए न.






       



नेवर लेट मी गो – ऐन मैगिल के चित्र – 5










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