Monday, September 30, 2013

तो शायद इतने भरोसे से मैं यह बात कह न पाता


वही तोता

-वीरेन डंगवाल


फलों से लदा है अमरूद का पेड़ इस भादो मास में 
भीगी हुई पत्तियों से बचता उन्‍हीं में छिपता भी 
कुतरता सतर्क बेतकल्‍लुफी से 
फुनगी के पास के 
पके हुए फल वह तोता 
वहां से उड़ने में आसानी होगी उसे 
किसी भी आकस्मिकता में 

मैं पहचानता हूं उसे 
उसका श्‍यामल सर और कंठीदार गला 
उसकी शाही अदा 
किसी खूब पके छोटे फल को 
एक पंजे में पकड़कर कुतरने की 
उसका भव्‍य अकेलापन 
सर्दियों की फसल में भी आता था वह वही 
पिछली बरसात में भी 
लौटकर आया हुआ कोई अनजान आदमी होता 
तो शायद इतने भरोसे से मैं यह बात 
कह न पाता 
या शायद 
उसी से पूछता.

Sunday, September 29, 2013

लेनर्ड कोहेन की एक रीपोस्ट सुशांत सिंह के लिए


सुशांत सिंह पुराने दोस्त हैं. कोई सप्ताह भर पहले इंटरनेट की दुनिया के ज़रिये उनसे काफ़ी सालों बाद दोबारा बातचीत शुरू हुई. इस अरसे में उन्होंने हिन्दी फिल्मों में अपने वास्ते एक अलग जगह बनाई है और इस बात पर मुझे फ़ख्र है.

सुशांत के लिए यह ख़ास रीपोस्ट -


कैनेडियन मूल के लेनर्ड कोहेन (जन्म:१९३४) पिछले चालीस सालों से हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण गीतकारों में रहे हैं: समय बीतने के साथ साथ उनका कार्य उत्तरोत्तर रहस्यवादी होता चला गया है. अपनी गम्भीरता और विषयवस्तुओं की रेन्ज के फैलाव के चलते समूचे पश्चिमी संगीतजगत में उनका काम अपनी ख़ास जगह बनाए हुए है. मानव जीवन से रू-ब-रू सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियां उनके गीतों के विषय रहे हैं - अध्यात्म, धर्म, इतिहास, सत्ता, सैक्स - और इन सब पर उन्होंने बहुत निर्ममता से विचार किया है.

गीतकार होने के साथ-साथ कोहेन स्वयं अपने लिखे गीतों को गाते हैं और उनका संगीत भी रचते हैं। वे एक अच्छे उपन्यासकार भी हैं।

एक कवि के रूप में वे पहले ही अपनी जगह बना चुके थे। तीन कविता संग्रह प्रकाशित कर चुकने के बाद १९६७ में उन्होंने अपना पहला अल्बम रिलीज़ किया। 'सॉंग्स ऑफ़ लेनर्ड कोहेन' नामक इस अलबम के बाज़ार में आने के साथ ही विश्व संगीत-जगत को एक नया और अलग क़िस्म का स्वर मिला। अपने संगीत को कोहेन 'यूरोपियन ब्लूज़' का नाम देते हैं.

सबसे पहले सुनिए उनका बेहद मशहूर गीत फ़र्स्ट वी टेक मैनहैटन, दैन वी टेक बर्लिन :




They sentenced me to twenty years of boredom
For trying to change the system from within
I'm coming now, I'm coming to reward them
First we take Manhattan, then we take Berlin

I'm guided by a signal in the heavens
I'm guided by this birthmark on my skin
I'm guided by the beauty of our weapons
First we take Manhattan, then we take Berlin

I'd really like to live beside you, baby
I love your body and your spirit and your clothes
But you see that line there moving through the station?
I told you, I told you, told you I was one of those

Ah, you loved me as a loser
But now you're worried that I just might win
You know the way to stop me, but you don't have the discipline
How many nights I prayed for this, to let my work begin
First we take Manhattan, then we take Berlin

I don't like your fashion business, mister
And I don't like these drugs that keep you thin
I don't like what happened to my sister
First we take Manhattan, then we take Berlin

I'd really like to live beside you, baby
I love your body and your spirit and your clothes
But you see that line there movin' through the station?
I told you, I told you, told you I was one of those

And I thank you for those items that you sent me
The monkey and the plywood violin
I practiced every night, now I'm ready
First we take Manhattan, then we take Berlin

I am guided

Ah, remember me, I used to live for music
Remember me, I brought your groceries in
Well, it's Father's Day and everybody's wounded
First we take Manhattan, then we take Berlin

तिनतल्‍ला शयनयान छह खीसोंवाली पतलून


तिनतल्‍ला शयनयान छह खीसोंवाली पतलून

-वीरेन डंगवाल

तिलतल्‍ला शयनयान
छह खीसों वाली पतलून
शुरूआती सर्दी की सुबह-सुबह आठ बजे
लम्‍बी यात्रा वाली यह ट्रेन
झाग-भरे मुंह में टूथ बुरूश भांचता
पतली गर्दन पर डाले तौलिया फिल्‍मी अदा से
सण्‍डास के बाहर आईने में निहारता
मुदित मन छवि अपनी
खुद की समझ में दुनियादारी में सिद्धहस्‍त हो चुका
पंजाब से लौटता वह युवा कामगार
पिचके गालों वाला
छह खीसों वाली पतलून
तिनतल्‍ला शयनयान
झाड़े चला जा रहा वह छोटा बच्‍चा छोटे से झाडू से
मूंगफली के छिक्‍कल पूड़ी के टुकड़े प्‍याले प्‍लास्टिक के
और मार गन्‍द-मन्‍द
डब्‍बे के इस छोर से झाड़ता-बटोरता बढ़ रहा आगे
खुद में ही खेदजनक कल्‍मश-सा वह बच्‍चा
बढ़ा चला आ रहा इस तिनतल्‍ला शयनयान में

आई फिर वह आई
तीन बरस की बेटी नटिनी की
गालों में ऊंगली से लाल रंग के टुपके
भोली प्‍यारी आंखों में मोटा-मोटा काजल
तीन बरस की बेटी नटिनी की आई गलियारे में
डिब्‍बे के इस छोर से उस छोर तक दौड़ी
अपनी मुण्‍डी हिलाती साभिनय
कुछ भी बोले बगैर
फिर थोड़े करतब कुछ कठिन कलाबाजियां
पीछे से ताल ठोंकती युवती अम्‍मा
दफ्ती के डिब्‍बे पर
आगे वह तीन बरस की भोली-प्‍यारी बेटी नटिनी की

हैरत से सभी वाह-वाह-वाह-वाह
भेजो जी, भेजो इन्‍हें ओलम्पिक में

तीन बरस की बेटी नटिनी की

मैंने भी सोचा कुछ रख दूं
उस पसरी हुई
लाल टुपका लगी नन्‍हीं गदेली पर
‘रूपिया-दो रूपिया’
पर खुदरा न था
जेब में एक हाथ डाले सहलाता किया वह बड़ा नोट
दूसरे हाथ से बच्‍ची के सर पर
प्रोत्‍साहन-भरी थपकी
जो ताल की तरह तो नहीं
मगर कुछ बजी मेरे ही भीतर
धत्-धत् ! धत्-धत्-धत्
तिनतल्‍ला शयनयान
छह खीसों वाली पतलून


Saturday, September 28, 2013

क्लान्ति आमार खोमा करो प्रभु


 ठाकुर रवीन्द्रनाथ की यह अतिप्रसिद्ध रचना महान गायक देबब्रत बिस्वास के स्वर में -

क्या बदला?

शहीद-ए-आज़म भगतसिंह की जन्मतिथि पर उन्हीं का लिखा यह लेख प्रस्तुत है. इसका पहला प्रकाशन जून १९२८ के ‘किरती’ में हुआ था.

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज
-सरदार भगतसिंह
भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था. आज बहुत ही गन्दा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो.
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी. असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है. इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए.
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी.
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है. अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए. अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी.
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी. वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है.
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं.
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे.

आनन्‍द जरा-सा कहन का है

कहनानन्‍द  

- वीरेन डंगवाल

अपनी ही देह 
मजे देवे 
अपना ही जिस्‍म 
सताता है 

यह बात कोई 
न नवीं, नक्‍को 
आनन्‍द जरा-सा 
कहन का है. 



Friday, September 27, 2013

एक शब्दकोष के पीले-विदीर्ण-जीर्ण पन्नों पर मत जाओ

इसे थोड़ा सा ठहर कर पढ़े जाने की दरकार है. बस इतनी सी गुज़ारिश.


रेख़ते के बीज

(उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पर एक लंबा पर अधूरा वाक्य)

-कृष्ण कल्पित

एक दिन मैं दुनिया जहान की तमाम महान बातों महान साहित्य महान कलाओं से ऊब-उकताकर उर्दू-हिन्दी शब्दकोष उठाकर पढ़ने लगा जिसे उर्दू में लुग़त कहा जाता है यह तो पता था लेकिन दुर्भाग्यवश यह पता नहीं था कि यह एक ऐसा आनंद-सागर है जिसके सिर्फ़ तटों को छूकर मैं लौटता रहा तमाम उम्र अपनी नासमझी में कभी किसी नुक़्ते-उच्चारण-अर्थात के बहाने मैं सिर्फ जलाशयों में नहाता रहा इस महासमुद्र को भूलकर और यह भूलकर कि यह लुग़त दुनिया के तमाम क्लासिकों का जन्मदाता है और एक बार तो न जाने किस अतीन्द्रिय-दिव्य प्रेरणा से इसे मैंने कबाड़ी के तराज़ू पर रखकर वापस उठा लिया था इसकी काली खुरदरी जिल्द का स्पर्श किसी आबनूस के ठंडे काष्ठ-खण्ड को छूने जैसा था जिससे बहुत दिनों तक मैं अख़बारों के ढेर को दबाने का काम लेता रहा जिससे वे उड़ नहीं जाएँ अख़बारी हवाओं में इसे यूं समझिए कि मेरे पास एक अनमोल ख़ज़ाना था जिसे मैं अपनी बेख़बरी में सरे-आम रखे हुए था यह वाक्य तो मैंने बहुत बाद में लिखा कि एक शब्दकोष के पीले-विदीर्ण-जीर्ण पन्नों पर मत जाओ कि दुनिया के तमाम आबशार यहीं से निकलते हैं कि इसकी थरथराती आत्मा में अब तक की मनुष्यता की पूरी कहानी लिखी हुई है कि इसकी पुरानी जर्जर काया में घुसना बरसों बाद अपने गाँव की सरहदों में घुसना है कि मैंने इसके भीतर जाकर जाना कि कितनी तरह की नफ़रतें होती हैं कितनी तरह की मुहब्बतें कैसे कैसे जीने के औज़ार कैसी कैसी मरने की तरकीबें कि इसकी गलियों से गुज़रना एक ऐसी धूल-धूसरित सभ्यता से गुज़रना था जहाँ इतिहास धूल-कणों की तरह हमारे कंधों पर जमता जाता है और महाभारत की तरह जो कुछ भी है इसके भीतर है इसके बाहर कुछ नहीं है एक प्राचीन पक्षी के पंखों की फड़फड़ाहट है एक गोल गुम्बद से हम पर रौशनी गिरती रहती है जितने भी अब तक उत्थान-पतन हैं सब इसके भीतर हैं इतिहास की सारी लड़ाइयां इसके भीतर लड़ी गईं शान्ति के कपोत भी इसके भीतर से उड़ाए गए लेकिन वे इसकी काली-गठीली जिल्द से टकराकर लहूलुहान होते रहे और यह जो रक्त की ताज़ा बूँदें टपक रही हैं यह इसकी धमनियों का गाढ़ा काला लहू है जो हमारे वक़्त पर बदस्तूर टपकता रहता है जो निश्चय ही मनुष्यता की एक निशानी है और हमारे ज़िंदा रहने का सबूत गुम्बदों पर जब धूप चमक रही हो तब यह एक पूरी दुनिया से सामना है यह एक चलती हुई मशीन है वृक्षों के गठीले बदन को चीरती हुई एक आरा मशीन जिसका चमकता हुआ फाल एक निरंतर धधकती अग्नि से तप्त-तिप्त जहाँ काठ के रेशे हम पर रहम की तरह बरसते हैं पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह अपने रंग-रेशों-धागों को अपनी आत्मा से सटाए हुए हम हमारे इस समय में गुज़रते रहते हैं यह जानते हुए कि जिन जिन ने भी इन शब्दों को बरता है वे हमारे ही भाई-बंद हैं एक बहुत बड़ा संयुक्त परिवार जिसके सदस्य रोज़ी-रोटी की तलाश में उत्तर से पच्छिम व पूरब से दक्खिन यानी सभी संभव दिशाओं में गए और वह बूढ़ा फ़क़ीर जो रेख़ते के बीज धरती पर बिखेरता हुआ दक्खिन से पूरब की तरफ आ रहा था जिसे देखकर धातु-विज्ञानियों ने लौह-काष्ठ और चूने के मिश्रण से जिस धातु का निर्माण किया उससे मनुष्य ने नदियों पर पुल बनाए लोहे और काष्ठ के बज्जर पुल जिन पर से पिछली कई शताब्दियों से नदियों के नग्न शरीर पर कलकल गिर रही है चूना झर रहा हैं अंगार बरस रहा है और जिसके कूल-किनारों पर क़ातिल अपने रक्तारक्त हथियार धो रहे हैं वे बाहर ही करते हैं क़त्ले-आम तांडव बाहर ही मचाते हैं क़ातिल सिर्फ मुसीबत के दिनों में ही आते हैं किसी शब्दकोष की जीर्ण-शीर्ण काया में सर छिपाने वे ख़ामोश बैठे रहते हैं सर छिपाए क़ाज़ी क़ायदा क़ाबू क़ादिर और क़ाश के बग़ल में और क़ाबिले-ज़िक्र बात यह है कि क़ानून और क़ब्रिस्तान इसके आगे बैठे हुए हैं पिछली कई सदियों से और और इसके आगे बैठे क़ाबिलियत और क़ाबिले-रहम पर हम तरस खाते रहते हैं जैसे मर्ग के एक क़दम आगे ही मरकज़ है और यह कहने में क्या मुरव्वत करना कि मृत्यु के एकदम पास मरम्मत का काम चलता रहता है और बावजूद क़ातिलों को पनाह देने के यह दुनिया की सबसे पवित्र किताब है जबकि दुनिया के तमाम धर्मग्रंथों को हर साल निर्दोष लोगों के रक्त से नहलाने की प्राचीन प्रथा चलती आती है इस तरह पीले नीले गुलाबी हरे रेशम वस्त्रों में लिपटे हुए धर्मग्रंथ मनुष्य के ताज़ा खून की तरह प्रासंगिक बने रहते हैं जबकि यहाँ दरवाज़े से झाँकते ही हमें दरिन्दे और दरवेश एक से लबादे ओढ़े हुए एक साथ नज़र आते हैं लुग़त के एक ही पन्ने पर गुज़र-बसर करते और उस काल्पनिक और पौराणिक धार की याद दिलाते हुए जहाँ शेर और बकरी एक साथ पानी पीते थे और यह तो सर्वथा उचित ही है कि शराब शराबख़ाना शराबख़ोर और शराबी एक ही इलाक़े में शिद्दत से रहें लेकिन क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं कि शराफ़त जितनी शराबी के पास है उतने पास किसी के नहीं हालाँकि शर्मिन्दगी उससे दो-तीन क़दम दूर ही है यह कोई शिगूफ़ा नहीं मेरा शिकस्ता दिल ही है जो इतिहास की अब तक की कारगुज़ारियों पर शर्मसार है जिसका हिन्दी अर्थ लज्जित बताया गया है जिसके लिए मैं शर्मिन्दा हूँ और इसके लिए फिर लज्जित होता हूँ कि मुझे अब तक क्यों नहीं पता था कि मांस के शोरबे को संस्कृत में यूष कहा जाता है शोरिश विप्लव होता है १८५७ जैसा धूल उड़ाता हुआ एक कोलाहल और इस समय मैं जो उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पढ़ रहा हूँ जिसके सारे शब्द कुचले और सताए हुए लोगों की तरह जीवित हैं इसके सारे शब्द १८५७ के स्वतंत्रता-सेनानी हैं ये सूखे हुए पत्ते हैं किसी महावृक्ष के जिससे अभी तक एक प्राचीन संगीत क्रंदन की तरह राहगीरों पर झरता रहता है यह एक ऐसी गोर है जिसके नीचे नमक की नदियाँ लहराती रहती हैं आँधियों में उड़ता हुआ एक तम्बू जो जैसा भी है हमारा आसरा है एक मुकम्मल भरोसा कि यह हमें आगामी आपदाओं से बचाएगा कहीं से भी खोलो इस कोहे-गिराँ को यह कहीं से भी समाप्त नहीं होता है न कहीं भी शुरू जैसे सुपुर्द का मानी हुआ हस्तांतरित तो क्या कि शराब का मटका और सुपुर्दगी होते ही हवालात में बदल जाता है गाने-बजाने का सामान होता है साज़ पर वह षड्यंत्र भी होता है मरते समय की तकलीफ़ को सकरात कहते हैं शब्द है तो मानना ही पड़ेगा कि वह चीज़ अभी अस्तित्व में है सकरात की तकलीफ़ में भी शब्द ही हमारे काम आएँगे यह भरोसा हमें एक शब्दकोष से मिलता है जिसे मैं क्लासिकों का क्लासिक कहता हूँ जिस उर्दू-हिन्दी शब्दकोष को मैं इस समय पढ़ रहा हूँ उसे ख़रीद लाया था सात बरस पहले एक रविवार दिल्ली के दरियागंज से एक किताबों के ढेर से फ़क़त बीस रुपयों में उस कुतुब फ़रोश को भला क्या पता कि गाँधी की तस्वीर वाले एक मैले-कुचैले कागज़ के बदले में आबे-हयात बेच रहा है वह एक समूची सभ्यता का सौदा कर रहा है सरे-राह जिसमें सकरात के फ़ौरन बाद सुकूत है और इसके बाद सुकून इसके बाद एक पुरानी रिहाइश है जहाँ हम सबको पहुँचना है काँटों से भरा एक रेशम-मार्ग सिल्क जिसे कभी कौशेय कभी पाट कभी डोरा कभी रेशम कहा गया यह एक सिलसिलाबंदी है एक पंक्तिबद्धता जो हमारे पैदा होने से बहुत पहले से चली आती है क्या आप जानते हैं कि समंदर एक कीड़े का नाम है जो आग में रहता है ऐसी ऐसी हैरत अंगेज़ आश्चर्यकारी बातें इन लफ़्ज़ों से बसंत के बाद की मलयानिल वायु में मंजरियों की तरह झरती रहती हैं ऐसे ऐसे रोज़गार आँखों के सामने से गुज़रते हैं मसलन संगसाज़ उस आदमी को कहते हैं जो छापेख़ाने में पत्थर को ठीक करता और उसकी ग़लतियाँ बनाता था और यह देखकर हम कितने सीना सिपर हो जाते थे कि हर आपत्ति-विपत्ति का सामना करने को तैयार रहने वालों के लिए भी एक लफ़्ज़ बना है तथा जिसे काया प्रवेश कहते हैं अर्थात अपनी रूह को किसी दूसरे के जिस्म में दाखिल करने के इल्म को सीमिया कहते हैं जो लोग यह सोच रहे हैं कि अश्लीलता और भौंडापन इधर हाल की इलालातें हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि यह उरयानी बहुत पुरानी है पुरानी से भी पुरानी दो पुरानी से भी अधिक पुरानी काशी की तरह पुरानी लोलुपता जितनी पुरानी लालसा और कामशक्तिवर्द्धक तेल तमा जितनी पुरानी और जिसमें उग्रता, प्रचंडता और सख्त तेज़ी जैसी चीज़ें हों उसे तूफ़ान कहा जाता है और आदत अपने आप में एक इल्लत है जैसा कि पूर्वकथन है कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है कहीं पर भी समाप्त किया जा सकता है फिर से शुरू करने के लिए एक शब्द के थोड़ी दूर पीछे चलकर देखो तुम्हें वहाँ कुछ जलने की गंध आएगी एक आर्त्तनाद सुनाई पड़ेगा कुछ शब्द तो लुटेरों के साथ बहुत दूर तक चले आए लगभग गिड़गिड़ाते रहम की भीख माँगते हुए शताब्दियों के इस सफ़र में शब्द थोड़े थक गए हैं फिर भी वे सिपाहियों की तरह सन्नद्ध हैं रेगिस्तान नदियों समन्दरों पहाड़ों के रास्ते वे आए हैं इतनी दूर से ये शब्द विजेताओं की रख हैं जो यहाँ से दूर फ़ारस की खाड़ी तक उड़ रही है इनका धूल धूसरित चेहरा ही इनकी पहचान है ये अपने बिछड़े हुओं के लिए बिलखते हैं और एक भविष्य में होने वाले हादसे का सोग मनाते हैं और इनके बच्चे काले तिल के कारण अलग से पहचाने जाते हैं यहाँ उक़ाब को गरुड़ कहते हैं जिसे किसने देखा है एक ग़रीबुल-वतन के लिए भी यहाँ एक घर है कहने के लिए कंगाल भी यहाँ सरमाएदार की तरह क़ाबिज़ है यह एक ऐसा भूला हुआ गणतंत्र है जहाँ करीम और करीह पड़ोसी की तरह रहते हैं यह अब तक की मनुष्यता की कुल्लियात है हर करवट बैठ चुके ऊँट का कोहान एक ऐसा गुज़रगाह जिसपर गुज़िश्ता समय की पदचाप गूँज रही है और इससे गुज़रते हुए ही हम यह समझ सकते हैं कि हमारा यह उत्तर-आधुनिक समय दर अस्ल देरीदा-हाल नहीं बल्कि दरीदा-हाल है किंवा यह फटा-पुराना समय पहनकर ही हम इस नए ज़माने में रह सकते हैं यह जानते हुए कि लिफ़ाफ़ा ख़त भेजने के ही काम नहीं आता हम चाहें तो इसे मृत शरीरों पर भी लपेट सकते हैं एक निरंतर संवाद एक मनुष्य का दूसरे से लगातार वाकोपवाक एक अंतहीन बातचीत कई बार तो यह शब्दकोष जले हुए घरों का कोई मिस्मार नगर लगता है जहाँ के बाशिंदे उस अज्ञात लड़ाई में मारे गए जो इतिहास में दर्ज नहीं है एक कोई डूबा हुआ जहाज़ एक ज़ंग खाई ज़ंजीर टूटा हुआ कोई लंगर एक सूखा हुआ समुद्र उजाड़ रेगिस्तान एक वीरान बंदरगाह एक उजड़ा हुआ भटियारख़ाना इसी तरह धीरे धीरे हमारी आँखें खुलती हैं और हवा के झोंकों से जब गुज़िश्ता गर्द हटती है तब हमारा एक नई दुनिया से सामना होता है जहाँ विपत्तियों-आपदाओं और बुरे वक़्त में इस शब्दकोष से हम उस प्राचीन बूढ़े नाविक की तरह एक प्रार्थना बना सकते हैं; एक जीर्णशीर्ण शब्दकोष इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह मुसीबत के दिनों में मनुष्यता के लिए एक प्रार्थना बन जाए, भले ही वह अनसुनी रहती आई हो.


(अजन्ता देव की फेसबुक वॉल से साभार.)

Wednesday, September 25, 2013

गुस्ताव क्लिम्ट की पेंटिंग ‘शूबर्ट एट द पियानो’ के बारे में एकाध दिलचस्प बातें


कुछ दिन पहले दिल्ली में रहने वाले और हयूमैनिटीज़ अंडरग्राउंड से सम्बद्ध मित्र प्रशांत चक्रबर्ती ने मुझे गुस्ताव क्लिम्ट की पेंटिंग ‘शूबर्ट एट द पियानो’ का लिंक भेजा था. इसी साल जब वे मेरे घर आए थे तो ड्राइंग रूम में लगी क्लिम्ट की तीन पेंटिंग्स संभवतः उन्हें याद रह गयी थीं. सो यह पोस्ट पूरी तरह से उन्हीं के द्वारा प्रेरित है.

प्रशांत चक्रबर्ती जबलपुर में ज्ञान दद्दा के साथ
क्लिम्ट की इस पेंटिंग में लाल बालों वाली किशोरी और कोई नहीं मिज़ी ज़िमरमान है. २०१२ में आई ख्यात पत्रकार एन-मैरी ओ’कोनर की किताब ‘लेडी इन गोल्ड’ में विस्तार से बताया गया है कि क्लिम्ट की तरफ़ कितनी आसानी से स्त्रियाँ आकर्षित हो जाया करती थीं. इस ऑस्ट्रियाई पेन्टर की ‘शूबर्ट एट द पियानो’ में मिज़ी गर्भवती है और क्लिम्ट के बेटे की माँ बनने वाली है. विएना की एक रईस कला-संरक्षिका सेरेना लीडरर, जिनके पास क्लिम्ट की चौदह पेंटिंग्स का संग्रह था, ने इस पेंटिंग के लिए मिज़ी को अपना बेहद महंगा रेशमी गाउन पहनने को उधार पर दिया था. 

क्लिम्ट की एक और पेंटिंग ‘नेकेड ट्रुथ’ के लिए भी मिज़ी ने बतौर न्यूड मॉडल काम किया था. लेकिन ओ’कोनर कहती हैं कि इस गर्भवती कैथोलिक लड़की से शादी करने का क्लिम्ट का कोई इरादा न था. उन्हीं दिनों क्लिम्ट के कई और स्त्रियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध थे. क्लिम्ट ने मिज़ी को बताया कि उनका इरादा जल्द ही विएना विश्वविद्यालय के लिए एक बड़े म्यूरल-प्रोजेक्ट पर अपनी सारी ऊर्जा लगाने का है. मिज़ी ने अपनी गर्भावस्था की बाबत अपनी माँ से बात की. ओ’कोनर बताती हैं कि इस बात पर मिज़ी की सौतेली माँ ने उसे घर से निकाल दिया और इस बेसहारा किशोरी ने क्लिम्ट से उसकी आर्थिक मदद करने की भीख माँगी.

लेकिन इस पेंटिंग को अब हम किसी भी संग्रहालय में नहीं देख सकते क्योंकि १९४५ में घर वापस लौट रहे नात्सियों ने सेरेना लीडरर के पास सुरक्षित क्लिम्ट की सभी चौदह पेंटिंग्स को आग के हवाले कर दिया था. सेरेना लीडरर ने सुरक्षा की दृष्टि से अपने इस संग्रह को १९४३ में बैरन रूडोल्फ़ फ्रायडेटन के पास रखवा रखा था. बैरन रूडोल्फ़ फ्रायडेटन जर्मन हथियारबंद सेना में इक बड़े अफ़सर थे और उन्होंने इस संग्रह को सुरक्षित समझे जाने वाले भवन श्लोस इम्मेनडोर्फ़ में रखवाया था. इस आगज़नी में क्लिम्ट की महानतम पेंटिंग्स में शुमार ‘गोल्डन एप्पल’ और ‘ट्री, फिलोसौफ़ी एंड जूरिसप्रूडेंस’ भी नष्ट हुईं. ‘ट्री, फिलोसौफ़ी एंड जूरिसप्रूडेंस’ वही पेंटिंग्स-सीरीज थी जिसे क्लिम्ट विएना विश्वविद्यालय के लिए बनाने वाले थे पर वहां से उनके अस्वीकृत हो जाने पर सेरेना लीडरर ने उसे खरीद लिया था. श्लोस इम्मेनडोर्फ़ में लगाई गयी इस आग में और कितनी पेंटिंग्स जलकर राख़ हुईं इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं मिलता.

(पेंटिंग को बड़ा देखने के लिए उस पर क्लिक करें. यह आलेख कैथरीन शोफील्ड सेज़गिन की एक रिपोर्ट पर आधारित है.) 

हिमांचली चरवाहों का एक गीत


हिमांचल प्रदेश के चंबा जिले के मंगला गाँव के रहने वाले भाइयों राजिंदर सिंह और सरनू राम की रगों में पिछली कई पीढ़ियों के संगीत की परम्परा बहती है.

आज आपको इनका एक बेहतरीन गीत सुनवा रहा हूँ – “हाये मेरी नीलिमा”





इनके गायन में परिवार के ही चार-पांच स्त्री पुरुष भाग लेते हैं. महिलाएं मजीरा बजाती हैं जबकि पुरुष ‘रिवाना’ और ‘कांसी’ नाम के दो वाद्ययंत्र. ये कमाल के वाद्ययंत्र तेज़ी से दुर्लभ होते जा रहे हैं. फ़िलहाल राजिंदर सिंह एंड पार्टी से सुनिए हिमांचली चरवाहों का एक गीत -