Sunday, July 30, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - चौबीस

फोटो: http://arjunhaarith.blogspot.in से साभार


उनकी नींद ग्यारह बजे खुली. बागेश्वर जाने वाली सभी बसें जा चुकी थीं. हल्द्वानी से आने वाली वही बस आख़िरी थी जिसमें बैठकर वे पिछले दिन अल्मोड़ा पहुंचे थे. उसके आने में अभी देर थी. दोनों की खोपड़ियां सुबह तक चले सांस्कृतिक कार्यक्रम के चलते भन्ना रही थीं जिनका इलाज पेट के रास्ते किया जाना था. ऐसी परिस्थितियों से निबटने का उन्हें पुराना अनुभव था. एक कीच ढाबे में उन्होंने भरपूर शिकार-भात दबाया और बाहर निकालकर अगली योजना की बाबत सोचने लगे.

गिरधारी का कहना था कि अगर तीन बजे तक अल्मोड़े में ही झख मारनी है तो वह हरुवा भन्चक की संगत में क्यों न मारी जाय जबकि सफल बिजनेसमैन होने के नाते परमौत जानता था कि थोड़े से जतन से वैकल्पिक मार्ग खुला करते हैं. परमौत की बात मानी गयी और हैंगओवरजनित आलस के चलते ह्वा-ह्वा जम्हाइयां लेते, कन्धों पर अपने बैग लटकाए, दोनों मित्र बस अड्डे के आसपास के क्षेत्र में विकल्प खोलने के प्रयासों में लग गए.

पिछले कुछ वर्षों से मारुति कंपनी की बनाई छोटी-छोटी कोई दर्ज़न भर डिब्बेनुमा गाड़ियों ने हल्द्वानी-अल्मोड़ा रूट पर टैक्सियों के रूप में चलना शुरू कर दिया था और इस जनसेवा के चलते शहर में एक छोटा-मोटा टैक्सी स्टैंड स्थापित हो गया था. अमूमन शोहदों जैसे दिखने वाले इन गाड़ियों के लौंड-ड्राइवरों को दिन भर गुटखा चाबते-थूकते “हल्द्वाने! हल्द्वाने! एक सीट! एक सीट!” का जाप करते देखा जा सकता था. ज़ाहिर है वे उस दिन भी उपस्थित थे. परमौत और गिरधारी अपनी देह-भाषा से हल्द्वानी वाले लगते थे सो इन सभी ड्राइवरों की उनमें दिलचस्पी पैदा हो गयी और बावजूद इस तथ्य के उन्होंने हल्द्वानी नहीं बागेश्वर जाना था, आधे घंटे के भीतर वे सब उन दोनों के गिर्द झुण्ड जैसा बनाकर टहलने लगे.

ये सभी वैन-चालक आज के ज़माने की मल्टी-टास्किंग कंसल्टेंट कंपनियों के पूर्वज रहे होंगे क्योंकि उनके पास बागेश्वर पहुंचाने के अलावा तमाम सहानुभूतिपूर्ण नुस्खे उपलब्ध थे. एक का कहना था कि बागेश्वर की खराब सड़क के चलते उन छोटी गाड़ियों का बागेश्वर पहुंचना असंभव था और उस सड़क को ऐसी नाज़ुक-नक़्शेबाज़ और मॉडरन गाड़ियों के लायक बनाने के लिए पहले एमेले बदला जाना चाहिए और उसके बाद सरकार. एक दूसरे वाले मुटल्ले ड्राइवर ने कहा कि वे बागेश्वर पहुंचाने के आठ सौ रुपये दे भी दें तो उसका पड़ता नहीं खाएगा क्योंकि वापसी में सवारी नहीं मिलेगी और मिलेगी भी तो वह इतनी कंजड़ होगी कि बस के किराए से दस पैसे ऊपर देने को राजी न होगी. तीसरे ने हाल ही में की गयी अपनी एक यात्रा का ज़िक्र करते हुए मुंह बनाया कि उसकी गाड़ी में बैठी महिलाओं और बच्चों ने गाड़ी के बाहर और भीतर इतनी उल्टियां कीं कि महीने भर से उसकी गाड़ी से उनकी भभक नहीं जा रही और हल्द्वानी में साफ़-सफाई कराने में पैसे नफे में फुंक गए.

कुल मिलाकर कोई भी ड्राइवर बागेश्वर जाने के मूड में नहीं था और दोनों मित्रों को राय दी गयी कि वे अपने गंतव्य की तरफ जा रहे किसी ट्रक ड्राइवर के शरणागत हों जाएं या तीन बजे वाली बस का इंतज़ार करें. इस सम्मलेन में भागीदार बने एक अड्राइवर सज्जन ने अंत में अपने पत्ते खोले जब हताश दिखाई देने लगे परमौत और गिरधारी लम्बू एक ड्राइवर द्वारा रास्ता बताये जाने के उपरान्त चौघानपाटे के समीप स्थित एक ट्रांसपोर्टर के दफ्तर को जा ही रहे थे – “सूबेदार की जीप आती है वैसे हर हप्ते तीन-चार दफा बागेश्वर से ... देख लो क्या पता ...”

किस्मत अच्छी थी और उक्त महामना द्वारा बताये गए ठिकाने पर हाथ में पंचर स्टेपनी थामे एक  प्रौढ़ मुच्छड़ उक्त सूबेदार ही निकले और थोड़े मोलभाव के उपरान्त चार सौ रुपये में उनकी जीप बुक कर ली गयी. पैसे की वकत समझने वाला धनहीन गिरधारी परमौत के कान में बार-बार इतने पैसे न फूंकने और बस का इंतज़ार करने के सलाह दे रहा था लेकिन अब तक इस सारे घटनाक्रम से आजिज़ आ चुके परमौत ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया. स्टेपनी तैयार करवाने और जीप के फिट-फोर होने में जितना समय लगा, उसमें परमौत ने नब्बू के घर के वास्ते फल-मिठाई के अलावा लम्बी-चौड़ी खरीदारी संपन्न कर ली.

फ़ौज से रिटायर हुए सूबेदार साहब की जीप भी फ़ौज ही से रिटायर होने के बाद कबाड़ के दाम हासिल की गयी थी और तमाम जोड़-जन्तर करने के बाद इस लायक बनाई गयी थी कि बमय माल-असबाब दर्ज़न-डेढ़ दर्ज़न सवारियों को सप्ताह में तीन दिन बागेश्वर से अल्मोड़ा और वापसी यात्रा करवा सके. रास्ते में आठ-दस बार बोनट खोलकर उसे पर्याप्त पानी डालकर ठंडा किया जाना होता था और गाड़ी में बैठे असहाय यात्रियों को वाचाल सूबेदार के अंतहीन-बोझिल किस्से सुनने होते थे. परमौत और गिरधारी लम्बू को गाड़ी के स्वास्थ्य और उसके गौरवशाली इतिहास की तफसीलात से सेवानिवृत्त सूबेदार उम्मेद सिंह भाकुनी द्वारा अल्मोड़ा नगर की सीमा छोड़ते-छोड़ते इस स्वर में वाकिफ करा दिया गया कि यह यात्रा उनके जीवन का न भूलने वाला मील का पत्थर बनने जा रही है अर्थात ज़्यादा चैं-चैं पैं-पैं करने की ज़रुरत नहीं है. गाड़ी अपने हिसाब से ठिकाने लगेगी.

“तो साहब क्या हुआ...” किस्सा-वाचन आरम्भ हुआ “मेरी पोस्टिंग थी काश्मीर में. इकहत्तर की बात है. इन्द्रा गांधी ने पाकिस्तान पर धावा बोल दिया ठैरा. सुबे-सुबे सारी बटालियन को फॉलिन करा दिया कमांडेंट साहब ने और बताया कि वार शुरू हो गयी है और सब अपनी तैयारी मजबूत कर के रखें. अपनी बात पूरी करके उन्होंने मुझे एक तरफ करके अपने दफ्तर आने को कहा. दफ्तर में उन्होंने मुझसे कहा कि देखो भाकुनी किसी को बताना मत लेकिन बात ये है कि जन्नल साहब का टेलीग्राम आया है और उन्होंने औडर दिया है कि भाकुनी को तुरंत कलकत्ता भेज दो. आर्मी में जैसी जीप मैं चलाने वाला हुआ उसकी कोई टक्कर नहीं हुई. जन्नल साब भी जानने वाले हुए ये बात. तो मुझको हुकुम हुआ कि जैसे भी हो सबसे पहले दिल्ली जा के हैडक्वाटर रिपोट करो. तो साहब अब मैं पहुंचा दिल्ली हैडक्वाटर तो वहीं गेट पर सिपाही लोग बोलने लग गए कि भाकुनी आ गया भाकुनी आ गया ...” गाड़ी ने इंजन ने भड़भड़ाना शुरू किया तो सूबेदार ने गाड़ी और फसक को ब्रेक लगाया और बोनट खोल कर पानी डाला.

पीछे की सीटों पर बैठे परमौत और गिरधारी की आंखें मुंदने लगी थीं और सूबेदार के वापस गाड़ी में बैठने तक वे बाकायदा सो चुके थे. सूबेदार के पीछे घूमकर गिरधारी को हलके से झकझोर कर जगाया और किस्सा आगे बढ़ाने से पहले उसे चेताया – “पहाड़ के सफ़र में सोना नहीं चाहिए साहब ... क्या पता कब विधाता कैसा इम्त्यान लेने लग जाए ...” थोड़ी देर बाद शीशे में देखकर जब उसने सुनिश्चित कर लिया कि सवारी की आंखें खुल गयी हैं उसने कहा – “ ... तो विधाता ने भाकुनी का क्या इम्त्यान लिया उस साल कि ठिक्क उस बखत जब दुश्मन की फ़ौज बम डाल रही ठैरी वहां जंगल में तो जीप में मैं हुआ अकेला ...” सूबेदार ने दिल्ली से कलकत्ता और वहां से सीमा पर चल रहे युद्ध के मैदान तक पहुँचने के विवरण गायब कर दिए थे. दरअसल वह इस किस्से को इतनी बार लोगों से ज़्यादा खुद को सुना चुका था कि उसे याद ही नहीं रहता था कि किस्सा किस जगह से उठाया जाना है.

“... इतने बम फूट रहे हुए कि सारा जंगल में धुआं ही धुआं हुआ. मैं भी पेड़ों के बीच से मोड़-मोड़ के गाड़ी बचाते हुए आगे ले जा रहा हुआ जहां जन्नल साहब ये बड़ी मसीनगन ले के फायरिंग ही फायरिंग कर रहे हुए. तो अचानक क्या हुआ कि एक साला बड़ा सा बम ठिक्क मेरी गाड़ी के पीछे वाले पहिये पर गिर के फूटा. बम क्या फूटा गाड़ी गयी हवा में उछल ... नहीं भी होगा सत्तर-अस्सी मीटर उप्पर उछल गयी होगी. मैं तो उपन के जैसे सीट में से तिड़ गया रहा और मैंने कहा सूबेदार भाकुनी विधाता को याद कर ले ... जीप में आग लग गयी हुई और वो नीचे को गिर रही ठैरी. मैं भी गिर रहा ठैरा अलग से. तो साहब गिरते-गिरते मैं हो गया बेहोस ...” सूबेदार ने गीयर बदला और पलट कर देखा. अब परमौत भी जाग गया था और किस्से का रस ले रहा लगता था. उत्साहित होकर सूबेदार ने फसक जारी राखी – “होस आया तो क्या देखता हूँ कि साला सूबेदार भाकुनी तो एक पेड़ के उप्पर अटक गया हुआ और नीचे हुआ सुनसान जंगल और लड़ाई का नाम-निसान खत्तम. वो तो बाद में मुझको पता चला कि पेड़ पर बेहोस हो के अटके-अटके मुझको तीन दिन बीत गए हुए. अब पचास-साठ मीटर ऊंचे पेड़ के उप्पर हुआ मैं और नीचे हुआ खतरनाक जंगल. जरा आँख जमने को हुई तो क्या देख रहा हूँ कि नीचे तीन बाघ गुर्र-ग्वां गुर्र-ग्वां करते एक गैंडे को हंकाए हुए ले जा रहे हुए... मैं तो महाराज डरन्न ... अब क्या करते हो? हैं? आवाज़ लगाता हूँ तो बाघ देख लेने वाले हुए, मौका देख के नीचे को फटक मारता हूँ तो हड्डी चुरी जाने वाली हुई. क्या जा करो ... क्या नहीं जो करो...”

“आपको भूख-हूख नहीं लगी हो सूबेदारज्यू इतनी देर में ...?” परमौत ने मजे लेते हुए पूछा.

“अरे भूख छोड़ो जान बचानी मुस्किल हो रही हुई ... फीर ... क्या हुआ ... तीन दिन और वैसेई पेड़ में लटका रहा. किसके बाप का खाना, किसके बाप का पीना! चौथे दिन जा के दोपहर का बखत हो रहा होगा कि एक हौलीकैप्टर की घ्वां-घ्वां सुनी. उप्पर को देखा तो पता लगा कि अपनी ही फौज का हुआ हौलीकैप्टर. हमारा झंडा लगा ठैरा उसमें. तो मैंने जैसे-तैसे अपनी कमीज खोल के एक हाथ से झंडा जैसा फैराना सुरू करा हो. हौलीकैप्टर के पाइलट ने मुझको जैसे ही देखा वहीं थम हो गया. वहीं खड़े-खड़े हौलीकैप्टर की खिड़की में से मूं बाहर निकाल के जन्नल साब कह रहे हुए – अरे बाकुनी तुम साला इदर ट्री के ऊपर में क्या करता है ... साउथ के कहीं के हुए ना तो ऐसे ही बोलने वाले ठैरे ... खैर साहब सीढ़ी-हीढ़ी करके जन्नल साहब ने खुद मेरा रेस्क्यू करा और अपनी बगल में बैठाला हौलीकैप्टर में और हाथ मिला के मुझसे बोले कि सूबेदार बाकुनी इण्डिया वार जीत गया ...”

किस्सा ख़त्म हो गया था और सूबेदार ने श्रोताओं की प्रतिक्रिया जानने की नीयत से मुंडी घुमाई. परमौत और गिरधारी के चेहरों पर फसकानंद पसरा हुआ था जिसे देख कर सूबेदार ने गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी. नतीजतन इंजन फिर से भड़भड़ाने लगा. बोनट को पानी का तर्पण किया गया.

ताकुला तक पहुँचते-पहुँचते सूबेदार के किस्से ख़त्म हो गए. उनके ख़तम हो जाने के पहले ही किसी क्षण दोनों यात्री हाड़तोड़ धचकोलों के बावजूद गहरी नींद में धंस चुके थे. ताकुला में उन्हें जगाया गया और – “कुछ लंच वगैरा कर लिया जाय” कहते हुए कटा हुआ गैलन थामे सूबेदार ने सामने बह रहे धारे का रुख किया. रास्ते के गड्ढों ने अल्मोड़े में सूते गए शिकार-भात को पचा दिया था सो दाल-भात का लंच करने का निर्णय हुआ. सूबेदार उनकी मेज़ पर आ कर बैठ गया और बातों-बातों में उन्होंने उसे अपने बागेश्वर जाने के प्रयोजन से अवगत कराया.

नब्बू डीयर तक पहुंचाने वाली इकलौती लीड गिरधारी लम्बू के पास थी जिसके अनुसार बागेश्वर के फेमस किंगकौंग होटल में काम करने वाले बचेसिंह नामक एक व्यक्ति से मिल कर नब्बू डीयर के गाँव का पता पूछा जाना था. सूबेदार ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे ठीकठाक समय रहते बागेश्वर में होंगे और उन्हें किसी तरह की चिंता करने की ज़रुरत नहीं. पहाड़ की अनगिनत मामूली बसासतों में से एक ताकुला उतना ही मामूली था जितना उसे होना चाहिए था. दुकानों के आगे सड़क पर मोढ़े-कुर्सी जमाये तीन-चार चिर-चिंतित दीखते समूह बीड़ी-सुरती जैसे ऊर्जादाई साधनों की सहायता से सीप, दहल-पकड़ इत्यादि राष्ट्रीय खेलों में मुब्तिला थे. महिलायें लकड़ी-घास इत्यादि के गठ्ठर लादे अपने घरों को जा रही थीं. कोई आधा दर्ज़न स्कूली छोकरे-छोकरियां छोटे-बड़े डिब्बे लेकर धारे से पानी भर रहे थे. राष्ट्र-निर्माण हो रहा था. इस दृश्य को अनमनी-अलसाई निगाह से देखता परमौत नब्बू डीयर के गाँव के दृश्य की कल्पना कर रहा था.

आधे घंटे के लंच ब्रेक के उपरान्त जीप पुनर्जीवित हो चुकी थी और यात्रा के अगले घंटे भर उसने पानी नहीं माँगा. सूबेदार इस दौरान बागेश्वर से शुरू होकर सारे ब्रह्माण्ड के बारे में अपने दर्शन और विचारधारा पर छोटे-छोटे भाषण झाड़ चुका था और परमौत और गिरधारी लम्बू की दिलचस्पी उस से करीब-करीब निबट चुकी थी. वे जल्दी से जल्दी बागेश्वर पहुंचना चाहते थे. अचानक जीप को ब्रेक लगाए गए और सूबेदार ने उनसे बाहर आने को कहा. उन्हें भय हुआ कि कहीं कोई बड़ी गड़बड़ न हो गयी हो. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था. वे पौड़ीधार पहुँच गए थे जहां से सामने हिमालय का आलीशान नज़ारा दिख रहा था. हल्द्वानी के मुसमुसे परिवेश के आदी हो चुके परमौत और गिरधारी को अचानक अपने सामने आ गया नगराज किसी चमत्कार जैसा दिखाई दिया. उसके कल्पनातीत सौन्दर्य ने उन्हें गूंगा-बहरा बना दिया. सूबेदार सामने दिख रही उत्तुंग बर्फीली चोटियों के नाम बता रहा था लेकिन वे कुछ नहीं सुन पा रहे थे. चारों तरफ पसरे प्राकृतिक सौन्दर्य के खजाने के ऊपर धरे किसी मुकुट जैसे हिमालय को देखना बागेश्वर पहुँचने तक उनकी स्मृति में एक ठोस ताजगी की तरह जमा रहा और उन्हें न तो वाचाल सूबेदार खटका न उसका बार-बार गाड़ी रोक कर बोनट खोलना. हिमालय के दर्शन ने उनकी सारी इन्द्रियों को भरपूर खोल कर उन्हें प्रकृतिस्थ बना दिया था. एक पल को परमौत को हैरानी हुई कि ऐसी खूबसूरती देखने के बावजूद उसके मन एक बार भी पिरिया का ख़याल नहीं आया. मोहब्बत का तकाजा था कि उसे ऐसी हर जगह अपनी महबूबा को लेकर आने का ख़्वाब तो कम से कम देखना ही चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ था. उसने अपनी पतलून की जेब में हाथ डाला. रूमाल वहीं धरा हुआ था.

चार बजे के आसपास वे बागेश्वर की चहलपहल में थे. सूबेदार ने गाड़ी किंगकौंग होटल के आगे लगाई. बचेसिंह के बारे में पूछताछ भी उसी ने की. पहाड़ों में खाने-पीने की जगहों को भी होटल कहा जाता है और किंगकौंग होटल भी बागेश्वर में तारीखी महत्त्व रखने वाली ऐसी ही एक मासूम दिख रही जगह थी - अपने बौवलैंडर नाम के बावजूद!

बचेसिंह उर्फ़ बचिया होटल का सौदा-पत्तर लेने बाजार गया था. सामान सड़क पर उतरवा और सूबेदार को विदा कर उन्होंने चाय आर्डर की. दोनों के भीतर बागेश्वर पहुँच चुकने की संतुष्टि के ऊपर अपने परम सखा के लिए अपना फ़र्ज़ निभा सकने का गर्व-मिश्रित उल्लास दिपदिप करने लगा था.


(जारी)  

Saturday, July 29, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - तेईस



जगतदा गुर्जी शायद अनंत काल तक होलियाँ सुनाते रहते अगर परमौत आह्लाद के चरम पर पहुँचने को तैयार गिरधारी लम्बू को कोहनी से ठसका कर घड़ी न दिखाता जो डेढ़ बज चुका होने का ऐलान कर रही थी. सुबह बागेश्वर जाने वाली बस पकड़ी जानी थी, नब्बू डीयर का हाल देखा जाना था और आगे की स्ट्रेटेजी बनाई जानी थी. यही उनकी यात्रा का मूल अभीष्ट भी था. गिरधारी ने पहले तो ध्यान नहीं दिया पर दुबारा ठसकाए और आंखें दिखाए जाने के बाद वह चौकन्ना हो गया कि चल रही होली निबटे और निकलने का जुगाड़ बनाया जाए. फिलहाल गीत में पिछले आधे घंटे से “हाँ, हाँहाँहाँ” करते हुए छैला नामक सज्जन होरी खेल रहे थे और उनके अनाड़ीपने की शिकायत करती नायिका हाहाकार कर रही थी कि – “ऐसो अनारी चुनर गए फारी, अरे हंसी हंसी दे गयो गारी ...”. इस होली के गाये जाने में टेक यह थी कि हर तीसरी लाइन में आने वाले “हाँ, हाँहाँहाँ” को “ना, नानाना” अथवा “छूं, छांछांछां” या “हूँ, हूँहूँहूँ” या ऐसे किसी भी अनुप्रासमूलक शब्द-पद से रिप्लेस किया जा सकता था. हद तो यह थी कि ऐसा कोई शब्द-पद दिमाग में न आने की सूरत में हारमोनियम की लय पर खामोशी के साथ फकत चार बार मुंड हिलाकर भी इसकी भरपाई करे जाने का प्रावधान था. गुर्जी ने अपनी गायन प्रतिभा से आगंतुकों को इस कदर सराबोर कर दिया था कि उनके एकल गायन ने लगातार ऊंचा होते समूहगान की सूरत ले ली थी. परमौत को अचानक गुर्जी के पड़ोसियों की याद आई और अपने आप से शर्मिंदा होकर उसने गाने में भाग लगाना बंद कर दिया. इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि खड़काष्टक की आसन्न काली छाया से बाहर आकर एक घंटे पहले ग़मगीन बैठा महेसिया फल्लास अब खड़ा होकर बिंद्राबन की जोग्याणियों जैसे नाचने लगा था.

बहुत मज़ा आ रहा था लेकिन मज़े को लम्बा जारी नहीं रखा जा सकता था. जैसे-तैसे गीत समाप्त हुआ तो परमौत ने खड़े होने का उपक्रम करते हुए कहा कि उन्हें सुबह निकलना है. बात जायज़ थी और हरुवा भन्चक की समझ में आ गयी. उसने अपने प्रशस्त टुन्न हो चुकने का संकेत देने वाली भाषा में बोलना शुरू करते हुए तुरंत प्रस्ताव दिया – “दिस बात इज बिलकुल हंड्रेड परसंट राईट माई डीयर भतीजा एंड माई डीयर गिरधर लॉन्ग बट दिस इज दी परम्परा ऑफ़ दी होली ऑफ़ दी जगतदा गुर्जी का अड्डा कि लास्ट गाना फस्ट और आफ्टर दैट एभरीवन गो होम मल्लब कि यू ऑल आर फिरी आफ्टर दी लास्ट गाना बिकॉज गाना इज ऑफ़ द टाइप ऑफ़ ए टू ... वन इज ऑफ़ दी फस्ट टाइप एंड अनदर इज ऑफ़ द लास्ट टाइप ... तो गुर्जी महाराज ...” वह गुर्जी के चरणों में लधरता हुआ बोला – “... महाराज गुर्जी हो ... लास्ट कर देते मैफिल को विद दी लास्ट गाना ... मल्लब वोई सेम सेम ...”इसके बाद हरुवा भन्चक ने पलटकर परमौत को देखा और आँखों में इशारा करते हुए आश्वस्त किया कि पांच मिनट से पहले-पहले महफ़िल बर्खास्त कर दी जाएगी.

समूचे संगीत समारोह के दौरान गुर्जी ने अपनी औकात से ज़्यादा दारू भसका ली थी और उनकी ज़बान लरबर करने लग गयी थी. उसी लरबराट में उन्होंने हारमोनियम पर पतली कराह जैसी तान छेड़ी – “हो मुबारकि मंजरि फूलों भरी ... ऐसी होली खेलें जनाबै अली”

अनंत नोस्टेल्जिया में धकेल देने वाले इस लास्ट गीत की धुन लाजवाब थी और परमौत मगन हो गया. पूरी रात उसे ऐसा मजा नहीं आया था. उत्साहातिरेक में गाते, गर्दन हिलकोरते गुर्जी के होठों के एक किनारे से थूक बहने लगा था लेकिन वे अनुपम सौन्दर्य की प्रतिमा नज़र आ रहे थे. उन्होंने एक आलीशान तान खेंची और गाने लगे - 

“जुगै-जुगै जीवें मित्र हमारे
बरसै बरस खेलें होली
ऐसी होली खेलें जनाबै अली ...”

मित्रों को जुग-जुग जीने की दुआएं अता करती इन पंक्तियों के आते ही परमौत नब्बू डीयर के बारे में सोचने को विवश  हो गया. वह इतना द्रवित हो गया कि उसके आंसू बहने लगे. हो सकता था इन आंसुओं के पीछे शराब का प्राचुर्य काम कर रहा हो लेकिन परमौत के आंसू असली थे. शुक्र है किसी ने उसे रोता हुआ नहीं देखा.

गुर्जी का गायन अपने चरम पर पहुँच कर थमा और वे जहां बैठे थे वहीं लुढ़क से गए और बोले – “मजा बाँध दिया भगतो तुमने आज यार ... अब जरा निद्रा-हिद्रा का विचार करा जाए हो? ...” उनींदी, तरल आँखों से उन्होंने उठने को उद्यत ग्राहक-मंडली को देखा और लुढ़के-लुढ़के ही बोले – “जाते हुए कुंडी बाहर से मत लगा जाना हाँ रे ... अब चलो फिर ...” और अपनी आंखें मूँद लीं.

बाहर निकलने वालों में परमौत आख़िरी था. गिरधारी ने पलट कर टोह ली कि वह आ रहा है या नहीं. उसने परमौत की उदासी भरी आंखें नोटिस कीं और ठिठक गया – “क्या हुआ परमौद्दा यार ... तुमको मजा नईं आया भलै ...”

गिरधारी के इतना कहते ही परमौत फफकने को हो आया लेकिन उसने सब्र किया. उसके मन में“जुगै-जुगै जीवें मित्र हमारे” की गूँज बंद नहीं हो रही थी. नब्बू डीयर का विचार उसकी आत्मा को अपनी जकड़ में लिए हुए था. गिरधारी ने उसका हाथ थामा और वे सड़क पर पहुंचे जहां हरुवा और महेसिया के मध्य जली हुई बीड़ियों का आदान-प्रदान चल रहा था. दोनों को अपनी तरफ आता देख हरुवा ने अहसान जैसा जताते हुए पूछा – “क्या कैते हो? मजा रहा हो हल्द्वानी वालो या नईं?”

“गज्जब मजा यार हरदा कका गज्जब ... पौने दो बज गए साले और पता ही नहीं चला ... ये हुई साली मल्लब फश्कलाश पाल्टी ...”

इधर हरुवा ने भी परमौत के चेहरे पर आ गयी उदासीभरी थकान को ताड़ लिया और झट से बोला – “अब जो है डीयर भतीजो हमारे रास्ते होने वाले हुए अलग. तुम निकलो होटल को और हम चलते हैं नैनताड़ी दीवाल अपने अड्डे को. भौत देर हो गयी यार ...”

गिरधारी भी समझ गया कि रात दो बजे सबसे उचित यही होगा कि होटल चल के सोया जाय. उसने विदा कहने के तौर पर महेसिया फल्लास से हाथ मिलाया और कहा – “महेसदा गुरु, कभी हल्द्वानी आओगे तो बताना हाँ ... और वो गन्धर्व-फंधर्व टाइप का कुछ करने का मन होगा तो न्यौता जरूर देना.”

महेसिया ने उसकी बात को मुस्करा कर जज़्ब करते हुए चेताया – “रस्ते में कुत्ते मिलेंगे हैं एकाध-दो शौ ... बच के जाना जरा...”

“कोई फिकर नहीं गुरु. हम भी हल्द्वानी से आए हैं. हमसे बड़े कुत्ते जो क्या होंगे साले ...”

हाहा-हीही भरी औपचारिकता में गुडनाईट हुई और दोनों समूहों ने अपने-अपने ठीहों की राह पकड़ी. पोखरखाली से करीब डेढ़-दो किलोमीटर का होटल के सफ़र के शुरुआती मिनट जगतदा गुर्जी के ठिकाने पर हुए होली-गायन, महेसिया फल्लास और उसकी प्रेमिका के खड़काष्टक और हरुवा भन्चक की अंग्रेज़ी जैसे विषयों पर बात करते बीत गए. फिर अचानक परमौत ने पहले लम्बी सांस ली और फिर रुआंसे स्वर में बोला -

"यार गिरधर वो पैन्चो नबुवा क्या कर रहा होगा इस बखत यार?"

"अब जो करना होगा परमौद्दा वोई कर रा होगा और क्या! कोई साला आदमियों के जगे रहने का टैम जो क्या हुआ अभी. सोया होगा बिचारा दवाई-हवाई खा के ... लेकिन तुम ऐसा जो क्यों पूछ रहे हुए?"

"पता नहीं यार गिरधर मेरा मन कह रहा है कि नबुवा साला बचता नहीं है भलै ... अबे उसके गाँव में कोई डाक्टर जो क्या होगा या फिर कोई अस्पताल जो क्या खोल रखा होगा उसके बुबू ने जो खाने को दवाई मिल रही होगी बिचारे को ..." परमौत ठिठककर वहीं जम गया और भर्राई आवाज़ में बोला - "कुत्ते मिलेंगे कै रा था ना वो महेसिया ... अबे हम हुए असली कुत्ते यार गिरधारी ... बिचारा नब्बू डीयर वहां मरने-मरने को हो रहा और हम साले यहाँ पाल्टी कर रहे हुए, सराब पी रहे हुए, गाना-बजाना कर रये ... हमको दिन में यहाँ रुकना ही नहीं था यार गिरधर. उसी गाड़ी से चले जाते बागेश्वर तो अभी कम से कम साले का मूँ तो देख रहे होते. अब मान लिया आज ही रात को नबुवा मर जाता है ... फिर? फिर बता गिरधारी यार हमसे बड़ा चूतिया हुआ कोई और दुनिया में ... नब्बू ... ओ नबुवा रे ..." परमौत ने सड़क पर बैठ बाकायदा दहाड़ मार कर रोना चालू कर दिया.

नशे की अधिकता ने परमौत संवेदनशीलता को भड़का दिया था और उसके अचानक इस तरह रोना शुरू करने से गिरधारी लम्बू हकबका सा गया.

"अरे परमौद्दा ... क्या कर रहे यार तुम गुरु ... ऐसे जो क्या करते हैं यार ... तुमारे कैने से जो मर रा हुआ कोई ... अरे किसी के कैने से जो कुछ हो जाने वाला होता ना तो साला ... तो साला ..." गिरधारी किसी सटीक उपमा की तलाश में था -  "त्तो परमौद्दा ... तेरा ब्या नहीं हो गया होता वो क्या नाम कहते हैं पिरिया भाबी से अब तक ... बात कर रहा है यार तू! चल उठ अब. नींद लग री मुझको. अब उठ ना ..."

पिरिया का नाम सुनकर परमौत ने और भी जोर से रोना शुरू कर दिया. किंकर्तव्यविमूढ़ सा गिरधारी कभी परमौत को देखता कभी दूर दिखाई दे रहे तिराहे को जिसके थोड़ा ही आगे जा कर उनका होटल था. असल बात यह थी कि "जुग-जुग जीवें" वाले गाने को सुनने के बाद से उसे भी नब्बू डीयर की याद सताने लगी थी लेकिन उसने अपनी भावनाओं को ज़ाहिर नहीं होने दिया. इसके अतिरिक्त डीलडौल में वह बाकियों से करीब डेढ़-गुना था जिस वजह से उसे इस तरह कभी चढ़ती नहीं थी कि अपने होश गंवा कर गनेल बन जाए. परमौत के इस अब तक न देखे गए रूप ने उसे हैरान-परेशान कर दिया. उसने हज़ार तरीकों से परमौत को बोत्याने की कोशिश की पर उसका रोना-सुबकना नहीं थमा. हार कर गिरधारी भी सड़क पर बैठे परमौत की बगल में बैठ गया. गिरधारी के नीचे बैठ जाने का तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि परमौत एकदम से चुप हो गया और उसने आस्तीन से आँखें पोंछीं. मिनट भर ऐसे ही बैठे रहने के उपरान्त वे एक दूसरे का सहारा लेकर उठे. परमौत ने गिरधारी की बांह थाम ली और अपना सर उसके कंधे पर ढुलका लिया. गिरधारी को अच्छा लगा कि वह परमौद्दा के किसी काम आ रहा था.

इसी तरह परमौत को लादे-लादे वह होटल पहुंचा. दरवाजा बंद था और दर्ज़न भर बार खटखटाए जाने पर ही खुला. उनींदी आँखों वाले छोकरे ने उन्हें देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और वापस दरवाज़ा बंद कर रिसेप्शन के मैले-कुचैले सोफे पर रजाई ढंक कर सो गया. कमरे में पहुंचते ही परमौत किसी कटे पेड़ सा बिस्तर पर गिरा. गिरधारी ने माँ जैसे लाड़ के साथ उसके जूते उतारे और उसे तरीके से लिटा दिया. परमौत के चेहरे पर गिरधारी को हमेशा पसरी रहने वाली शान्ति नज़र नहीं आ रही थी. भावनाओं के धोबियापछाड़ ने उसके अस्तित्व की पेशियों को तनाव से भर दिया था और यह जानना मुश्किल था कि वह सो गया है या नहीं. जब कुछ देर कोई हरकत नहीं हुई तो गिरधारी ने तय किया कि परमौत सो चुका है और वह कुर्सी पर लधरकर अपने जूतों के तस्मे खोलने लगा.

अनायास ही उसने गुनगुनाना शुरू कर दिया - "जुग-जुग जीवें मित्र हमारे ... बरस बरस खेलें होरी ...". अब तक बेसुध दिखाई दे रहे परमौत ने झटके में आँख खोली और "गूंगूं" करते हुए गिरधारी की आवाज़ का साथ देना शुरू कर दिया. गिरधारी ने सुखद आश्चर्य के साथ परमौत को देखा और मुस्कराने लगा.

"तुम भी ना यार परमौद्दा हुए साले भयंकरी इमोसनल कहा ..." वह परमौत की बगल में जाकर बैठ गया. थोड़े से श्रम के साथ परमौत भी उठ बैठा और तकिया ऊंचा कर के उसने अपना सर दीवार से टिका लिया.

"नब्बू डीयर बढ़िया आदमी हुआ यार गिरधर ... बहुत्ती बढ़िया ... थोड़ा लाटा हुआ लेकिन पैन्चो ... " परमौत विचारों में खो सा गया. "एक बार साले का ठीक से इलाज करा दें फिर साला गोदाम आबाद करना है सब से पहले. कितना गजब मजा आता था यार वहां ... सब साला मेरे चक्कर में घुस गया ... आदमी तो तू भी सही हुआ बेटे और पंडत भी ... एक मैं ही हुआ उल्लू का पठ्ठा साला ... सब घुस गया मेरे चक्कर में यार गिरधर ... सब घुस गया साला ..." परमौत फिर से फफकने को हो रहा था.

"और मैं कहता हूँ यार परमौद्दा सबसे बड़िया आदमी हुआ तू ... इतना बड़ा बिजनस छोड़-छाड़ के आ गया हुआ ये बागेश्वर जाने को बिना सोचे कि ददा क्या कहेगा भाभी क्या कहेगी ... किस के लिए ... बता ... किस के लिए आया रहा जो आज यहाँ ये होटल के कमरे में डाड़ाडाड़ पाड़ने को तैयार बैठा है ... बता ..."

परमौत ने गिरधारी लम्बू का हाथ थामकर उसकी आँखों में आंखें घुसाते हुए उलटा सवाल किया - "तू बता तू क्यों आया ..."

"मैं तो मल्लब नब्बू को देखने आया हुआ ... और तू भी इसी लिए आया हुआ ... है नईं है? और हम इसलिए आये हुए कि जो भी हुआ, जैसा भी हुआ साला दोस्त ठैरा नबुवा ..."

इसके बाद के आधे-पौन घंटे तक वे नब्बू डीयर की तमाम स्मृतियों में डूबते उतराते रहे. कमरे में नब्बू डीयर की काइयां हरकतों, उसके मनहूस मुकेश-गायन और उसकी मारक आशिकी का ऐसा समां बंधा कि सोने से ठीक पहले परमौत ने दोमंजिले पर अवस्थित अपने कमरे की खिड़की खोल कर भोर के करीब पहुँच चुकी अल्मोड़े की नीम-बेहोश रात के कानों में चीखते हुए नारा लगाया - "नब्बू डीयर जिंदाबाद!" गिरधारी उसकी बगल में आ कर खड़ा हुआ और उसने अपनी आवाज़ मिलाते हुए जोड़ा - "नब्बू डीयर जिंदाबाद!"

(जारी)

Friday, July 28, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - बाईस



भीमदा के अड्डे पर समाप्त हुई दावत को पूरी तरह समाप्त होने में दो घंटे और लगे. अपने काव्य-पराक्रम के चलते महेसिया फिलहाल परमौत का यार बन गया था. खोखे से बाहर आते हुए उसने परमौत का हाथ थाम लिया और उत्साहपूर्वक बोला – “आदमी तुम बड़िया हुए यार परमौद्दा. मजा आ गया साला.”

परमौत के प्रतिक्रिया देने से पहले ही हरुवा भन्चक बोल पड़ा – “अबे आदमी तो बड़िया ही हुआ अपना भतीजा. अब अल्मोड़े की रंगत-हंगत बी तो दिखानी हुई ऐसे बड़िया आदमी को. जगतदा गुर्जी के यहाँ चलते हो कि ... अरे मजा आ जाएगा यार कह रहा हूँ ...”

परमौत ने अगली सुबह बागेश्वर जाने की बात कहकर कुछ ना-नुकुर सी की लेकिन गिरधारी लम्बू ने हरुवा के प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए कहा – “कौन सा रोज-रोज अल्मोड़ा आ रहे हुए तुम यार परमौद्दा ... हरुवा कका दिखा रहे हैं तो देख ही लेते हैं साली यहाँ की रंगत जरा... क्यों महेसदा, क्या कैते हो अब?”

“अरे जैसी पंचूं की राय होती है यार”

बहुमत रंगत की मौज लूटने के पक्ष में था. ग्यारह बजने को था. जगतदा गुर्जी के घर जाना तय पाया गया. डगमगाते-लुढ़कते चारों चर्च के सामने तक पहुँच चुके थे. परमौत ने हल्की थकान महसूस की सो वह पैरापिट पर बैठ गया. बाकी तीनों ने उसका अनुसरण किया. पुरानी विक्टोरियाई पेंटिंग का आभास दे रही चर्च की इमारत के पीछे चाँद नज़र आ रहा था. चुपचाप बैठे वे उसे देखने लगे. खामोशी महेसिया की बर्दाश्त से बाहर होती इससे पहले वह बोल उठा – “... अपना क्या हुआ ... भिसौण हुए शाले अधराती मशाण के. क्या हरदा ...? गजब सीन होने वाला हुआ रात में. जब शब शाले शो जाने वाले ठैरे तब अपना कार्यक्रम सुरू होने वाला हुआ ...”

“यार वो गाना ही सुना दे महेसिया भाई जो परसों ब्राइटन से लौटते बखत गा रहा था तू ...”

“अच्छा वो वाला .... तुमको तो वैशे भी भौत पशंद आने वाला हुआ वो गाना हरदा गुरु...” दो-तीन सेकेण्ड का ब्रेक लेकर महेसिया फल्लास ने धीमे-धीमे गाना शुरू किया जैसे कोई रहस्योद्घाटन कर रहा हो – “रात्त अकेली है ... टिंग ठिंग... बुझ गय्ये दिए ... टिंग ठिंग ...”

भीमदा के अड्डे पर उदरस्थ किये गए रसायन का असर हो गया था और बिना किसी प्रस्तावना के हरुवा भन्चक ने खड़े होकर ठुमका लगाना शुरू कर दिया. सीट छोड़ते हुए महेसिया ने अपनी आवाज़ थोड़ी ऊंची करते हुए गाना आगे बढ़ाया – “... आक्के मेरे पाश ... टिंग ठिंग ... ढिन्चिक ... ढिढिन्ग...” ठुमकते हुए हरुवा ने अपना चेहरा महेसिया के नज़दीक करते हुए उसके साथ गाना शुरू किया – “कानूं में मेरे... ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ... जो बी चाहे कहिये ...” अचानक दोनों के भीतर जैसे एक साथ देवता ने प्रवेश किया और ‘कहिये’ की ‘ये’ को उन्होंने सांस उखड़ जाने तक खींचा और सड़क पर बाकायदा डांस करना शुरू कर दिया. गाने की रफ़्तार बढ़ा कर उन्होंने रिपीट किया -“रात्त अकेली है ... ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ... बुझ गय्ये दिए ...ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ...” फिर से ‘कहिये’ के आते ही उन्होंने लंबा आलाप लिया और एक दूसरे के हाथ थाम कर बेतरतीब बॉल-डांस शुरू कर दिया. परमौत और गिरधारी कुछ देर असमंजस में खड़े रहे लेकिन मौज का तकाजा था कि वे भी इस उत्सव में सम्मिलित हों सो उन्होंने भी खड़े होकर हल्द्वानी की बारातों में सीखा हुआ ट्विस्ट चालू किया.

अल्मोड़े की रात अब अकेली नहीं रह गयी थी. पांचेक मिनट तक चले सुगम-संगीत व नृत्य के इस एक्सटेम्पोर कार्यक्रम ने चारों को प्रफुल्लित कर दिया था और गिरधारी लम्बू ने धन्यवाद-ज्ञापन करते हुए मोहर लगाई – “मजा आ गया पैन्चो...”

मद्यप-टोली का अगला ठिकाना पोखरखाली मोहल्ले में रहनेवाले जगतदा गुर्जी का डेरा था. रास्ते में चली ठिठोली के दौरान परमौत और गिरधारी को गुर्जी की संक्षिप्त जीवन-कथा से परिचित करवाया गया और आश्वासन दिया गया कि अगर वे मूड में होंगे तो और अधिक मौज के लिए तैयार रहें.

जगत गुर्जी के डेरे का प्रवेशद्वार भगौती बुआ के घर जितना ही पेचीदा निकला – अँधेरे में दीवार वगैरह की टोह लेते, ढपकते-ठोकर खाते जस-तस वे एक जर्जर जुगाड़ दरवाज़े के सामने पहुंचे जो पहले से ही खुला हुआ था. अन्दर से हारमोनियम की प्वां-प्वां के साथ जुगलबंदी करती एक मरियल आवाज़ आ रही थी. आवाज़ को सुनकर अनुमान लगा सकना मुश्किल था कि गायक स्त्री है अथवा पुरुष.

“श्श...” महेसिया ने चुप रहने का संकेत किया और धीमे स्वर में बोला – “गुर्जी की शाधना चल रही ... अब जूते-फूते खोलकर अन्दर चलकर चुपचाप बैठे रहने का काम हुआ हाँ! और जब तक गुर्जी आँख नहीं खोलते एक्क आंखर नहीं निकालना हुआ मूं से ... शमज गए?”

जगतदा गुर्जी साठ –पैंसठ के फेरे में लिपझे हुए एक सींकिया निकले. वे पट्टे का धारीदार घुटन्ना और जेब वाली बंडी धारण किये थे. सफ़ेद भंवों और सफ़ेद मूंछों के अतिरिक्त उनकी ठोड़ी पर दाढ़ी का भरम देने की नीयत से पाला गया सौ-दो सौ बालों का एक लम्बा झब्बा लटक रहा था. कुल मिलाकर वे महेसिया फल्लास और हरुवा भन्चक जैसे चेलों के आदर्श गुरुजी लग रहे थे. आगंतुकों ने गुर्जी के सामने एक ज़मीन पर धरे एक मटियल बोरेनुमा गलीचे पर आसन ग्रहण किया. आंखें बंद किये गुरुजी हारमोनियम की संगत में शास्त्रीय रियाज़ कर रहे थे– “बिरजि में होली कैसे खेलूँ री मैं सांवरिया के संगि”.

मई-जून के महीने में होली गाये जाने का कोई मतलब परमौत और गिरधारी लम्बू की समझ में नहीं आया और वे मौज लेते हुए दबी मुस्कान के साथ एक दूसरे को देखने लगे. महेस और हरुवा की आंखें मुंदी हुई थीं और वे गुर्जी के स्वर की लय पर मुंडी हिलाते घुटनों पर थाप देते हुए अपने आप को वाजिद अली शाह जैसा कोई नवाब संगीत-मर्मज्ञ समझ रहे थे.

परमौत इस गीत को अपने घर हर साल आयोजित होने वाली महिलाओं की होली में बचपन से सुनता आया था. गीत के बोल उसे अनायास रटे हुए थे. गुर्जी की कमज़ोर किन्तु सधी हुई आवाज़ से वर्षों तक सांवरिया के संग होली खेल चुकने का कॉन्फिडेंस टपक रहा था. स्वर-लहरियां कमरे की हर वस्तु पर गिर रही थीं -

“अबीरि उड़िता गुलालि उड़िता
उड़िते सातों रंग
भरि पि‍चकारी सनिमुखी मारी
अँगि‍या हो गई तंग”

वे एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य को दर्ज़नों दफा गा रहे थे. मन ही मन साथ गा रहा परमौत जब अंगिया के तंग हो चुकने तक पहुँचता वे अबीर गुलाल में अटके रहते. दो-तीन मिनट में परमौत बाकायदा चट गया और उसने आदतन अपने तात्कालिक परिवेश का जायजा लेना शुरू किया. गुर्जी जिस आसन पर विराजमान थे उसकी पृष्ठभूमि में सुतली से बंधे किताबों-मैगजीनों के चट्टे धरे हुए थे. एक तरफ कमरे के आर-पार रस्सी टंगी हुई थी और उनके कपड़ों के लिए ओपन कबर्ड का काम कर रही थी. किताबों का एक रैक, गुर्जी के सोने की पटखाट, पटखाट के नीचे घुसाई गयी असंख्य वस्तुएं, कोने में खड़ा तानपूरा, मेज़ पर तमाम तरह की आयुर्वेदिक दवाइयों की शीशियाँ, एक टेपरिकार्डर और कुछ कैसेट वगैरह बतलाते थे कि गुर्जी संतोषी और कलाप्रेमी इंसान हैं.

लोकल इंस्पेक्शन के पूरा होते न होते गुर्जी अंगिया के तंग होने तक पहुँच गए थे और इस काव्यात्मक छवि में निहित अश्लीलता से अचानक मुदित हुआ गिरधारी परमौत के कान में कुछ अनर्गल फुसफुसाने लगा.

गुर्जी का गाना ख़त्म हुआ और उन्होंने आंखें खोलते ही हरुवा भन्चक को संबोधित किया मानो खुद अपनी संगीत साधना के निबटने का इंतज़ार कर रहे हों – “जा भगत, भोग लगाता है तो रसोई से बोतल निकाल ला तो. गिलास भी ले आना हाँ जग भर पानी के साथ ...”

हरुवा के उठने पर गुर्जी से परमौत और गिरधारी का परिचय करवाया गया. गुर्जी ने सीधे मुद्दे पर आते हुए कहा – “खाने-हाने का कुच्छ नहीं बचा है हाँ और तुम्हारा पिछली बार का हिसाब भी किलियर नहीं हुआ है अभी ...”

गुर्जी आर्मी के रिटायर्ड दोस्तों से महीने भर में कोई तीस-पैंतीस बोतलें जुगाड़ कर लेते थे और आधी रात के बाद आने वाले भक्तों को सस्ते रेट पर दारू मुहैया कराते थे. यही उनकी इनकम थी और इसी से उनके संगीतमय जीवन का ब्रेड एंड बटर चला करता था.

हरुवा अन्दर से सामान ला कर उसे धरा पर स्थापित कर चुका था. महेसिया ने नाटकीय अंदाज़ में ढक्कन पर हथेली से चार-पांच बार थाप जैसी मारी और बोतल को इस अंदाज़ से खोलने लगा जैसे पंचर हो गए टायर के नट-बोल्ट खोल रहा हो. गुर्जी ने दोहराया – “... वो मैं कह रहा था भगत कि तुम्हारा पिछली बार का हिसाब जरा होना रह गया था हाँ ...” उन्होंने पटखाट के सिरहाने धरे तकिये के नीचे से एक कापी निकाल ली और अंगूठे में थूक लगाकर पन्ने पलटने लगे. यह देखते ही महेसिया ने गिलास बनाने का कार्यक्रम मुल्तवी किया और पैंट की चोर जेब से सौ-सौ के दो नोट निकाल कर मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने की अदा से गुर्जी के सामने रख दिए.

गुर्जी ने “अल्लख निरंजन ... शम्भो... शम्भो...” जैसा कुछ कहते हुए नोट बंडी की जेब के हवाले किये और शान्ति से आँख मूंदते हुए आदेश जैसा दिया – “कार्यक्रम प्रारम्भ हो भगत ...”

इस संक्षिप्त घटनाक्रम प्रत्यक्षदर्शी बन चुकने के बाद परमौत के मन में गुर्जी के लिए स्नेह और आदर उत्पन्न होने लगा. इज्ज़त से रोटी कमाने का इससे अच्छा क्या साधन हो सकता था कि तीस-चालीस रुपये में मिलनेवाली घोड़िया रम की बोतल को दो सौ के दाम पर बेचा जाय और वो भी अपनी तड़ी पर और अपने घर से. बिजनेस परमौत की पारिवारिक पृष्ठभूमि था और किसी भी तरह के ऐसे धंधे को वह स्पृहणीय मानता था जिसमें व्यापारी के आबोदाने में उसका अपना जलवा बरकरार रहे. गुर्जी एक सफल व्यापारी थे - ग्राहक उनके भगत थे और संगीत उनका जीवन.

“पहले से ही कहीं मुंह काला कर के आये दिख रहे हो भगत ...” कह कर गुर्जी ने एक ठहाका जैसा मारा और अपना गिलास थामा. इस गिलास की डबुल-तिरभुल कीमत भी भक्तों जेब से वसूली जानी थी. परमौत थोड़ा और इम्पप्रेस्ड हुआ. थोड़ी देर तक यूं ही औपचारिक बातचीत चलती रही फिर अचानक गुर्जी को कुछ याद सा आया और वे पटखाट के नीचे हाथ घुसा कर कुछ खोजने लगे. उन्होंने एक पोटली जैसी निकाल ली और उसकी गाँठ खोलते हुए बोले – “महेस भगत ... तुम्हारी तो जो है चल रही है साढ़े साती ... राहू अलग से ढैय्या मार के बैठा है तीसरे घर में... और उप्पर से तुम दोनों की कुण्डली मिल नहीं रही ... मल्लब परम खड़काष्टक का योग बना है ...”

पोटली में से उन्होंने पुराने कागज़ की लिपटी हुई दो कुण्डलियां निकाल कर अलग कीं और पोटली को यथावत बाँध कर पटखाट के नीचे सरकाया. गिरधारी और परमौत इस नए कारनामे से तनिक चकित हुए – ईश्वर की तरह जगतदा गुर्जी मिनट-मिनट पर अपने नए-नए आयाम दिखला रहे थे. हरुवा और महेसिया आगे खिसक गए ताकि गुर्जी की कही कोई बात सुनने से छूट न जाये.

“...त्तो ये तो है भगत तुम्हारी कुण्डली” सामने महेसिया फल्लास की जन्म-कुण्डली खोली जा चुकी थी और दूसरी को खोला जा रहा था – “और... ये जो है ... ये हुई कन्या की कुण्डली ...”

ठीक-ठाक पी चुकने के बाद भी परमौत और गिरधारी तुरंत समझ गए कि गुर्जी महेसिया के ज्योतिषी का काम भी करते हैं और यह भी कि कोई लोचा है जिसके चलते महेसिया और किसी कन्या का ब्याह संपन्न हो सकने में अड़चन आ रही है. टॉपिक सार्वभौमिक दिलचस्पी का था सो सिर्फ गुर्जी बोल रहे थे. अपने गिलास थामे चारों ग्राहक-कम-श्रोता-कम-क्लायंट सामने बनी ज्यामितीय आकृतियों की डीकोडिंग कर रहे गुर्जी के एक-एक शब्द को आत्मसात कर लेना चाहते थे.

कोई पांच-सात मिनट तक जगतदा गुर्जी ने सप्तम-अष्टम, गृह-नक्षत्र, सिंह-कर्क, राहू-बृहस्पत, सप्तमेश-राशि, उच्च स्थान-निम्न स्थान जैसे शब्दों का इतनी बहुतायत में प्रयोग किया कि चारों ने अपने को निपट गंवार समझते हुए घनघोर अन्धकार के गर्त में धंसता हुआ महसूस किया. जब सारा काम गृह-नक्षत्रों ने ही करना है तो फिर पल भर में ख़ाक बन जाने वाले आदमी की क्या औकात!

गुर्जी ने कुण्डलियाँ लपेटकर महेसिया को थमाईं और गला खंखार कर डराने वाले स्वर में कहा – “देखो महेस भगत ... शास्त्रों में साफ़-साफ़ लिखा है कि अगर जो है पुरुस की कुंडली की षष्ठ और अष्ठम की राशि कन्या के जन्म की राशि हो तो दंपत्ति में आजीवन कलह-कलेस रहेगा ... बल्की ... पुरुस की तो जो है मौत का भी मल्लब चांस हुआ ... त्तो ... मैं तो कह रहा हुआ कि जो है इस कन्या से विवाह का विचार तो त्याग ही दो ... और हरीस भगत जरा पानी कम डालना हाँ हो मेरे वाले में अब से ...”

अचानक काठ मारा उल्लू बना हुआ महेसिया फल्लास कभी अपने हाथ में थमी कुंडलियों को देखता कभी जगतदा गुर्जी को और कभी हरुवा को – “मल्लब कोई चांस तो होगा यार गुर्जी ... जैसे कि सादी नहीं करी जाए और भगा के गंधर्व विवाह टाइप का कुछ कर लिया जाए तब तो नहीं होगा ना वो क्या कह रहे हुए आप खड़काष्टक-हड़काष्टक का योग...”

गुर्जी के कुछ भी कहने से पहले ही हरुवा बोल पड़ा – “अरे जरूरी हो रहा है साला उसी पन्थ्याणी से ब्या करना यार महेसिया ... एक तो मैं तुम्से कब शे कै रा कि उसका चक्कर वो कपड़े की दुकान वाले देसी लौंडे से भी चल रा ... मेरी बात नईं  मानता है तो कोई बात नहीं गुर्जी की बात ई मान ले ... जब वो कैरे हैं कि खड़काष्टक है तो इसका मल्लब ये हुआ कि इधर तुम्हारा लगन हुआ उधर दो हप्ते में तुमारा किरिया करम करने हमें जाना पड़ने वाला हुआ बिशनाथ ...” हरुवा भंचक ने अल्मोड़ा के भूतिया विश्वनाथ घाट का ज़िक्र किया तो महेसिया फल्लास के शरीर में झुरझुरी सी मची और उसने चेहरे पर उदासी की एक और परत चढ़ाते हुए गहरी सांस भरी.

परमौत और गिरधारी इस तरह की स्थिति से पहली बार रू-ब-रू हो रहे थे और किसी भी तरह की तात्कालिक प्रतिक्रिया करने से लाचार थे. महेसिया ने आवेश ने आते हुए जेब से अपना बटुवा निकाला और उसमें लगी फोटो को सार्वजनिक करते हुए कहा - "यार चार शाल से धो-धो करके यहाँ तक बात पौंचाई कि शाला लौंडिया के बाप ने कुण्डली देने को हाँ कहा कि जा के मिला लो कर के और अब जब कुण्डली मिल गयी तो गुर्जी कैरे कि सादी नहीं हो शकती ... देखो गुर्जी तुमको सकल से ऐशी लग रही ये क्या कैते हो आप कन्या कि अपने आदमी की तो क्या किसी चींटी की भी हत्या कर शकेगी ..."

गुर्जी ने बटुवे में कन्या की फोटो को कुछ पल गौर से देखने के उपरान्त परमौत को पास ऑन किया. फोटो में उक्त कन्या अर्थात पन्थ्याणी अर्थात महेसिया फल्लास की गर्लफ्रेंड अनुपम सुन्दर लग रही थी. जिस तरह उस रात परमौत को राका की गर्लफ्रेंड होने के तथ्य ने बेचैन किया था कुछ वैसी ही हरारत उसे महसूस हुई. राका और महेसिया जैसे बेशऊर, निर्धन और गोबर जैसे थोबड़े वाले लोग पब्लिक में अपने गर्लफ्रेण्ड-सुविधा प्राप्त होने का डंका पीट सकते थे जबकि वह अपनी पिरिया से इस कदर मोहब्बत करने के बावजूद मोहब्बत के संसार में एक अनाथ से ऊपर के स्टैटस से बस थोड़ा ही आगे जा सका था. हाँ पिरिया को उसने हाल ही में अपनी मोपेड पर बिठाकर कुछ देर सवारी की थी लेकिन किसी भी ऐसे दिन का तसव्वुर उसके लिए असंभव था जब वह पिरिया के बाप से मिलान के वास्ते उसकी बेटी की जन्म-कुण्डली मांगने की हैसियत वाला बन सकेगा या उस राका जैसा जो अपनी मास्टरपुत्री प्रेमिका का कम से कम फोटो तो तड़ी के साथ डिस्प्ले कर सकता था. परमौत के मन में एक साथ बहुत सारे विचार आये लेकिन उसने उन्हें पार्श्व में धकेला और हरुवा की दिशा में बटुवा बढ़ाते हुए गौर से महेसिया को देखना शुरू किया जो खुद मुर्दनी शकल बनाए अपने गिलास को फिर से भर रहा था. महेसिया का चेहरा इस वक़्त सचमुच गोबर से पाथा हुआ जैसा लग रहा था.

बटुवे को हाथ में लेते ही हरुवा भन्चक ने अपनी बात पर कायम रहते हुए कहा - "ठीक हुआ ... ठीकी हुआ ... देखने में लग रही हुई रेखा-फेखा टाइप की लेकिन बिशनाथ की याद कर लेना यार महेसिया फिर मत कैना कि ददा लोगों ने पैले नहीं कहा कर के ..."

गुर्जी ने हारमोनियम पर उंगलियाँ फिराते हुए एक और होली गाना शुरू कर दिया - "जलै कैसे भरूं, जमुना गहरी ..."


(जारी)

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