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(पिछली क़िस्त से आगे)
उनकी नींद ग्यारह बजे खुली. बागेश्वर जाने
वाली सभी बसें जा चुकी थीं. हल्द्वानी से आने वाली वही बस आख़िरी थी जिसमें बैठकर
वे पिछले दिन अल्मोड़ा पहुंचे थे. उसके आने में अभी देर थी. दोनों की खोपड़ियां सुबह
तक चले सांस्कृतिक कार्यक्रम के चलते भन्ना रही थीं जिनका इलाज पेट के रास्ते किया
जाना था. ऐसी परिस्थितियों से निबटने का उन्हें पुराना अनुभव था. एक कीच ढाबे में
उन्होंने भरपूर शिकार-भात दबाया और बाहर निकालकर अगली योजना की बाबत सोचने लगे.
गिरधारी का कहना था कि अगर तीन बजे तक अल्मोड़े
में ही झख मारनी है तो वह हरुवा भन्चक की संगत में क्यों न मारी जाय जबकि सफल
बिजनेसमैन होने के नाते परमौत जानता था कि थोड़े से जतन से वैकल्पिक मार्ग खुला
करते हैं. परमौत की बात मानी गयी और हैंगओवरजनित आलस के चलते ह्वा-ह्वा जम्हाइयां
लेते, कन्धों पर अपने बैग लटकाए, दोनों मित्र बस अड्डे के आसपास के क्षेत्र में विकल्प
खोलने के प्रयासों में लग गए.
पिछले कुछ वर्षों से मारुति कंपनी की बनाई छोटी-छोटी
कोई दर्ज़न भर डिब्बेनुमा गाड़ियों ने हल्द्वानी-अल्मोड़ा रूट पर टैक्सियों के रूप
में चलना शुरू कर दिया था और इस जनसेवा के चलते शहर में एक छोटा-मोटा टैक्सी
स्टैंड स्थापित हो गया था. अमूमन शोहदों जैसे दिखने वाले इन गाड़ियों के
लौंड-ड्राइवरों को दिन भर गुटखा चाबते-थूकते “हल्द्वाने! हल्द्वाने! एक सीट! एक
सीट!” का जाप करते देखा जा सकता था. ज़ाहिर है वे उस दिन भी उपस्थित थे. परमौत और
गिरधारी अपनी देह-भाषा से हल्द्वानी वाले लगते थे सो इन सभी ड्राइवरों की उनमें
दिलचस्पी पैदा हो गयी और बावजूद इस तथ्य के उन्होंने हल्द्वानी नहीं बागेश्वर जाना
था, आधे घंटे के भीतर वे सब उन दोनों के गिर्द झुण्ड जैसा बनाकर टहलने लगे.
ये सभी वैन-चालक आज के ज़माने की मल्टी-टास्किंग
कंसल्टेंट कंपनियों के पूर्वज रहे होंगे क्योंकि उनके पास बागेश्वर पहुंचाने के
अलावा तमाम सहानुभूतिपूर्ण नुस्खे उपलब्ध थे. एक का कहना था कि बागेश्वर की खराब
सड़क के चलते उन छोटी गाड़ियों का बागेश्वर पहुंचना असंभव था और उस सड़क को ऐसी
नाज़ुक-नक़्शेबाज़ और मॉडरन गाड़ियों के लायक बनाने के लिए पहले एमेले बदला जाना चाहिए
और उसके बाद सरकार. एक दूसरे वाले मुटल्ले ड्राइवर ने कहा कि वे बागेश्वर पहुंचाने
के आठ सौ रुपये दे भी दें तो उसका पड़ता नहीं खाएगा क्योंकि वापसी में सवारी नहीं
मिलेगी और मिलेगी भी तो वह इतनी कंजड़ होगी कि बस के किराए से दस पैसे ऊपर देने को
राजी न होगी. तीसरे ने हाल ही में की गयी अपनी एक यात्रा का ज़िक्र करते हुए मुंह
बनाया कि उसकी गाड़ी में बैठी महिलाओं और बच्चों ने गाड़ी के बाहर और भीतर इतनी
उल्टियां कीं कि महीने भर से उसकी गाड़ी से उनकी भभक नहीं जा रही और हल्द्वानी में साफ़-सफाई
कराने में पैसे नफे में फुंक गए.
कुल मिलाकर कोई भी ड्राइवर बागेश्वर जाने के
मूड में नहीं था और दोनों मित्रों को राय दी गयी कि वे अपने गंतव्य की तरफ जा रहे
किसी ट्रक ड्राइवर के शरणागत हों जाएं या तीन बजे वाली बस का इंतज़ार करें. इस
सम्मलेन में भागीदार बने एक अड्राइवर सज्जन ने अंत में अपने पत्ते खोले जब हताश दिखाई देने
लगे परमौत और गिरधारी लम्बू एक ड्राइवर द्वारा रास्ता बताये जाने के उपरान्त
चौघानपाटे के समीप स्थित एक ट्रांसपोर्टर के दफ्तर को जा ही रहे थे – “सूबेदार की
जीप आती है वैसे हर हप्ते तीन-चार दफा बागेश्वर से ... देख लो क्या पता ...”
किस्मत अच्छी थी और उक्त महामना द्वारा बताये
गए ठिकाने पर हाथ में पंचर स्टेपनी थामे एक प्रौढ़ मुच्छड़ उक्त सूबेदार ही निकले और थोड़े
मोलभाव के उपरान्त चार सौ रुपये में उनकी जीप बुक कर ली गयी. पैसे की वकत समझने
वाला धनहीन गिरधारी परमौत के कान में बार-बार इतने पैसे न फूंकने और बस का इंतज़ार करने के
सलाह दे रहा था लेकिन अब तक इस सारे घटनाक्रम से आजिज़ आ चुके परमौत ने उसकी बात पर
ध्यान नहीं दिया. स्टेपनी तैयार करवाने और जीप के फिट-फोर होने में जितना समय लगा,
उसमें परमौत ने नब्बू के घर के वास्ते फल-मिठाई के अलावा लम्बी-चौड़ी खरीदारी
संपन्न कर ली.
फ़ौज से रिटायर हुए सूबेदार साहब की जीप भी फ़ौज
ही से रिटायर होने के बाद कबाड़ के दाम हासिल की गयी थी और तमाम जोड़-जन्तर करने के
बाद इस लायक बनाई गयी थी कि बमय माल-असबाब दर्ज़न-डेढ़ दर्ज़न सवारियों को सप्ताह में तीन दिन बागेश्वर से अल्मोड़ा और
वापसी यात्रा करवा सके. रास्ते में आठ-दस बार बोनट खोलकर उसे पर्याप्त पानी डालकर
ठंडा किया जाना होता था और गाड़ी में बैठे असहाय यात्रियों को वाचाल सूबेदार के अंतहीन-बोझिल
किस्से सुनने होते थे. परमौत और गिरधारी लम्बू को गाड़ी के स्वास्थ्य और उसके
गौरवशाली इतिहास की तफसीलात से सेवानिवृत्त सूबेदार उम्मेद सिंह भाकुनी द्वारा अल्मोड़ा
नगर की सीमा छोड़ते-छोड़ते इस स्वर में वाकिफ करा दिया गया कि यह यात्रा उनके जीवन
का न भूलने वाला मील का पत्थर बनने जा रही है अर्थात ज़्यादा चैं-चैं पैं-पैं करने
की ज़रुरत नहीं है. गाड़ी अपने हिसाब से ठिकाने लगेगी.
“तो साहब क्या हुआ...”
किस्सा-वाचन आरम्भ हुआ “मेरी पोस्टिंग थी काश्मीर में. इकहत्तर की बात है. इन्द्रा
गांधी ने पाकिस्तान पर धावा बोल दिया ठैरा. सुबे-सुबे सारी बटालियन को फॉलिन करा
दिया कमांडेंट साहब ने और बताया कि वार शुरू हो गयी है और सब अपनी तैयारी मजबूत कर
के रखें. अपनी बात पूरी करके उन्होंने मुझे एक तरफ करके अपने दफ्तर आने को कहा.
दफ्तर में उन्होंने मुझसे कहा कि देखो भाकुनी किसी को बताना मत लेकिन बात ये है कि
जन्नल साहब का टेलीग्राम आया है और उन्होंने औडर दिया है कि भाकुनी को तुरंत
कलकत्ता भेज दो. आर्मी में जैसी जीप मैं चलाने वाला हुआ उसकी कोई टक्कर नहीं हुई.
जन्नल साब भी जानने वाले हुए ये बात. तो मुझको हुकुम हुआ कि जैसे भी हो सबसे पहले
दिल्ली जा के हैडक्वाटर रिपोट करो. तो साहब अब मैं पहुंचा दिल्ली हैडक्वाटर तो
वहीं गेट पर सिपाही लोग बोलने लग गए कि भाकुनी आ गया भाकुनी आ गया ...” गाड़ी ने
इंजन ने भड़भड़ाना शुरू किया तो सूबेदार ने गाड़ी और फसक को ब्रेक लगाया और बोनट खोल कर
पानी डाला.
पीछे की सीटों पर
बैठे परमौत और गिरधारी की आंखें मुंदने लगी थीं और सूबेदार के वापस गाड़ी में बैठने
तक वे बाकायदा सो चुके थे. सूबेदार के पीछे घूमकर गिरधारी को हलके से झकझोर कर
जगाया और किस्सा आगे बढ़ाने से पहले उसे चेताया – “पहाड़ के सफ़र में सोना नहीं चाहिए
साहब ... क्या पता कब विधाता कैसा इम्त्यान लेने लग जाए ...” थोड़ी देर बाद शीशे
में देखकर जब उसने सुनिश्चित कर लिया कि सवारी की आंखें खुल गयी हैं उसने कहा – “
... तो विधाता ने भाकुनी का क्या इम्त्यान लिया उस साल कि ठिक्क उस बखत जब दुश्मन
की फ़ौज बम डाल रही ठैरी वहां जंगल में तो जीप में मैं हुआ अकेला ...” सूबेदार ने
दिल्ली से कलकत्ता और वहां से सीमा पर चल रहे युद्ध के मैदान तक पहुँचने के विवरण
गायब कर दिए थे. दरअसल वह इस किस्से को इतनी बार लोगों से ज़्यादा खुद को सुना चुका
था कि उसे याद ही नहीं रहता था कि किस्सा किस जगह से उठाया जाना है.
“... इतने बम फूट रहे हुए
कि सारा जंगल में धुआं ही धुआं हुआ. मैं भी पेड़ों के बीच से मोड़-मोड़ के गाड़ी बचाते
हुए आगे ले जा रहा हुआ जहां जन्नल साहब ये बड़ी मसीनगन ले के फायरिंग ही फायरिंग कर
रहे हुए. तो अचानक क्या हुआ कि एक साला बड़ा सा बम ठिक्क मेरी गाड़ी के पीछे वाले
पहिये पर गिर के फूटा. बम क्या फूटा गाड़ी गयी हवा में उछल ... नहीं भी होगा सत्तर-अस्सी
मीटर उप्पर उछल गयी होगी. मैं तो उपन के जैसे सीट में से तिड़ गया रहा और मैंने
कहा सूबेदार भाकुनी विधाता को याद कर ले ... जीप में आग लग गयी हुई और वो नीचे को
गिर रही ठैरी. मैं भी गिर रहा ठैरा अलग से. तो साहब गिरते-गिरते मैं हो गया बेहोस ...”
सूबेदार ने गीयर बदला और पलट कर देखा. अब परमौत भी जाग गया था और किस्से का रस ले
रहा लगता था. उत्साहित होकर सूबेदार ने फसक जारी राखी – “होस आया तो क्या देखता
हूँ कि साला सूबेदार भाकुनी तो एक पेड़ के उप्पर अटक गया हुआ और नीचे हुआ सुनसान जंगल
और लड़ाई का नाम-निसान खत्तम. वो तो बाद में मुझको पता चला कि पेड़ पर बेहोस हो के
अटके-अटके मुझको तीन दिन बीत गए हुए. अब पचास-साठ मीटर ऊंचे पेड़ के उप्पर हुआ मैं
और नीचे हुआ खतरनाक जंगल. जरा आँख जमने को हुई तो क्या देख रहा हूँ कि नीचे तीन
बाघ गुर्र-ग्वां गुर्र-ग्वां करते एक गैंडे को हंकाए हुए ले जा रहे हुए... मैं तो महाराज डरन्न ...
अब क्या करते हो? हैं? आवाज़ लगाता हूँ तो बाघ देख लेने वाले हुए, मौका देख के नीचे
को फटक मारता हूँ तो हड्डी चुरी जाने वाली हुई. क्या जा करो ... क्या नहीं जो करो...”
“आपको भूख-हूख नहीं
लगी हो सूबेदारज्यू इतनी देर में ...?” परमौत ने मजे लेते हुए पूछा.
“अरे भूख छोड़ो जान
बचानी मुस्किल हो रही हुई ... फीर ... क्या हुआ ... तीन दिन और वैसेई पेड़ में लटका
रहा. किसके बाप का खाना, किसके बाप का पीना! चौथे दिन जा के दोपहर का बखत हो रहा
होगा कि एक हौलीकैप्टर की घ्वां-घ्वां सुनी. उप्पर को देखा तो पता लगा कि अपनी ही फौज
का हुआ हौलीकैप्टर. हमारा झंडा लगा ठैरा उसमें. तो मैंने जैसे-तैसे अपनी कमीज खोल
के एक हाथ से झंडा जैसा फैराना सुरू करा हो. हौलीकैप्टर के पाइलट ने मुझको जैसे ही
देखा वहीं थम हो गया. वहीं खड़े-खड़े हौलीकैप्टर की खिड़की में से मूं बाहर निकाल के
जन्नल साब कह रहे हुए – अरे बाकुनी तुम साला इदर ट्री के ऊपर में क्या करता है ...
साउथ के कहीं के हुए ना तो ऐसे ही बोलने वाले ठैरे ... खैर साहब सीढ़ी-हीढ़ी करके
जन्नल साहब ने खुद मेरा रेस्क्यू करा और अपनी बगल में बैठाला हौलीकैप्टर में और
हाथ मिला के मुझसे बोले कि सूबेदार बाकुनी इण्डिया वार जीत गया ...”
किस्सा ख़त्म हो गया
था और सूबेदार ने श्रोताओं की प्रतिक्रिया जानने की नीयत से मुंडी घुमाई. परमौत और
गिरधारी के चेहरों पर फसकानंद पसरा हुआ था जिसे देख कर सूबेदार ने गाड़ी की स्पीड बढ़ा
दी. नतीजतन इंजन फिर से भड़भड़ाने लगा. बोनट को पानी का तर्पण किया गया.
ताकुला तक पहुँचते-पहुँचते
सूबेदार के किस्से ख़त्म हो गए. उनके ख़तम हो जाने के पहले ही किसी क्षण दोनों
यात्री हाड़तोड़ धचकोलों के बावजूद गहरी नींद में धंस चुके थे. ताकुला में उन्हें जगाया
गया और – “कुछ लंच वगैरा कर लिया जाय” कहते हुए कटा हुआ गैलन थामे सूबेदार ने
सामने बह रहे धारे का रुख किया. रास्ते के गड्ढों ने अल्मोड़े में सूते गए शिकार-भात
को पचा दिया था सो दाल-भात का लंच करने का निर्णय हुआ. सूबेदार उनकी मेज़ पर आ कर
बैठ गया और बातों-बातों में उन्होंने उसे अपने बागेश्वर जाने के प्रयोजन से अवगत
कराया.
नब्बू डीयर तक
पहुंचाने वाली इकलौती लीड गिरधारी लम्बू के पास थी जिसके अनुसार बागेश्वर के फेमस
किंगकौंग होटल में काम करने वाले बचेसिंह नामक एक व्यक्ति से मिल कर नब्बू डीयर के
गाँव का पता पूछा जाना था. सूबेदार ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे ठीकठाक समय रहते
बागेश्वर में होंगे और उन्हें किसी तरह की चिंता करने की ज़रुरत नहीं. पहाड़ की अनगिनत
मामूली बसासतों में से एक ताकुला उतना ही मामूली था जितना उसे होना चाहिए था. दुकानों
के आगे सड़क पर मोढ़े-कुर्सी जमाये तीन-चार चिर-चिंतित दीखते समूह बीड़ी-सुरती जैसे
ऊर्जादाई साधनों की सहायता से सीप, दहल-पकड़ इत्यादि राष्ट्रीय खेलों में मुब्तिला थे.
महिलायें लकड़ी-घास इत्यादि के गठ्ठर लादे अपने घरों को जा रही थीं. कोई आधा दर्ज़न
स्कूली छोकरे-छोकरियां छोटे-बड़े डिब्बे लेकर धारे से पानी भर रहे थे. राष्ट्र-निर्माण
हो रहा था. इस दृश्य को अनमनी-अलसाई निगाह से देखता परमौत नब्बू डीयर के गाँव के
दृश्य की कल्पना कर रहा था.
आधे घंटे के लंच
ब्रेक के उपरान्त जीप पुनर्जीवित हो चुकी थी और यात्रा के अगले घंटे भर उसने पानी
नहीं माँगा. सूबेदार इस दौरान बागेश्वर से शुरू होकर सारे ब्रह्माण्ड के बारे में
अपने दर्शन और विचारधारा पर छोटे-छोटे भाषण झाड़ चुका था और परमौत और गिरधारी लम्बू
की दिलचस्पी उस से करीब-करीब निबट चुकी थी. वे जल्दी से जल्दी बागेश्वर पहुंचना चाहते
थे. अचानक जीप को ब्रेक लगाए गए और सूबेदार ने उनसे बाहर आने को कहा. उन्हें भय
हुआ कि कहीं कोई बड़ी गड़बड़ न हो गयी हो. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था. वे पौड़ीधार
पहुँच गए थे जहां से सामने हिमालय का आलीशान नज़ारा दिख रहा था. हल्द्वानी के
मुसमुसे परिवेश के आदी हो चुके परमौत और गिरधारी को अचानक अपने सामने आ गया नगराज
किसी चमत्कार जैसा दिखाई दिया. उसके कल्पनातीत सौन्दर्य ने उन्हें गूंगा-बहरा बना
दिया. सूबेदार सामने दिख रही उत्तुंग बर्फीली चोटियों के नाम बता रहा था लेकिन वे
कुछ नहीं सुन पा रहे थे. चारों तरफ पसरे प्राकृतिक सौन्दर्य के खजाने के ऊपर धरे किसी
मुकुट जैसे हिमालय को देखना बागेश्वर पहुँचने तक उनकी स्मृति में एक ठोस ताजगी की
तरह जमा रहा और उन्हें न तो वाचाल सूबेदार खटका न उसका बार-बार गाड़ी रोक कर बोनट
खोलना. हिमालय के दर्शन ने उनकी सारी इन्द्रियों को भरपूर खोल कर उन्हें प्रकृतिस्थ
बना दिया था. एक पल को परमौत को हैरानी हुई कि ऐसी खूबसूरती देखने के बावजूद उसके
मन एक बार भी पिरिया का ख़याल नहीं आया. मोहब्बत का तकाजा था कि उसे ऐसी हर जगह अपनी महबूबा को लेकर आने का ख़्वाब तो कम से कम देखना ही चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ था. उसने
अपनी पतलून की जेब में हाथ डाला. रूमाल वहीं धरा हुआ था.
चार बजे के आसपास वे
बागेश्वर की चहलपहल में थे. सूबेदार ने गाड़ी किंगकौंग होटल के आगे लगाई. बचेसिंह के
बारे में पूछताछ भी उसी ने की. पहाड़ों में खाने-पीने की जगहों को भी होटल कहा जाता
है और किंगकौंग होटल भी बागेश्वर में तारीखी महत्त्व रखने वाली ऐसी ही एक मासूम दिख रही
जगह थी - अपने बौवलैंडर नाम के बावजूद!
बचेसिंह उर्फ़ बचिया
होटल का सौदा-पत्तर लेने बाजार गया था. सामान सड़क पर उतरवा और सूबेदार को विदा कर उन्होंने
चाय आर्डर की. दोनों के भीतर बागेश्वर पहुँच चुकने की संतुष्टि के ऊपर अपने परम
सखा के लिए अपना फ़र्ज़ निभा सकने का गर्व-मिश्रित उल्लास दिपदिप करने लगा था.
(जारी)