Saturday, July 28, 2012

देवालय से दुर्ग


राणकपुर से कुम्भलगढ़.देवालय से दुर्ग की ओर.जैन मंदिर परिसर के विशाल काष्ठ-द्वार से प्रस्थान.पहाड़ों की विनम्र ऊंचाइयां और ढलानों का सौहार्द्र.अरावली यहाँ प्रार्थनाएं बुदबुदाता लगता है.एक पवित्र प्रदक्षिणा में गाड़ी बढती जाती है.हमने दुनिया से ओट ले रखी है. आगे एक जगह एक दयनीय से बोर्ड पर तीर के दो निशान उदयपुर और कुम्भलगढ़ की तरफ जाने का संकेत कर रहे हैं.मैं वाहन कुम्भलगढ़ की ओर मोड़ लेता हूँ.प्राचीन अरावली का मेरुदंड कब का बुरादा हो चुका है.इसका कंकाल भी भुरभुरा हो चुका है.अरावली अपने ही जीवाश्म के रूप में शेष बचा है.

पर उत्तुंगता फिर भी छलावा है.ये वहाँ अपने को प्रकट करती है जहां हमारी सोच तक में नहीं होती.और अपने पर पाँव धरे जाते ही ये शून्य को उदग्र भेदती वेग के साथ आरोहण करती है. एक मोड़ के तुरंत बाद अप्रत्याशित ऊँचाई ने गाड़ी पर मेरी पकड़ में कंपन पैदा कर दिए. उससे उतरते ही मोड़ के बाद एक और तीखी चढान ने ऐसे रास्तों पर मेरे पहली बार होने के भेद को उजागर कर दिया.आगे ताज़ा कोलतार का रेला सरपट उतर कर एक आह के साथ मरोड़ खा कर फिर ऊँचाई की किसी फुनगी पर चढ़कर गुम हो रहा था.इसी उफ़-कारी मोड़ पर किसी ने गाँव-भर मिट्टी ढूह बनाकर जमा कर रखी थी. मेरी छोटी गाड़ी को इसी में  धंस कर कोलतार के साथ एक सांस में ठेठ ऊपर चढ़ना था.सड़क के एक तरफ पहाड़ था तो दूसरी और अंधा खड्ड.रास्ते का कगार जैसे अंतिम छलांग के लिए ही  छोड़ा हुआ था.राणकपुर से दूदालिया होकर कुम्भलगढ़ का ये रास्ता शायद प्रचलित रास्ता नहीं था.जो भी हो मेरे लिए ये अनंत को जाती सूच्याकार चढाईयां थी जिन पर पहुंचकर उसके उच्चतम बिंदु पर अपने गुरुत्वकेन्द्र को भी साध कर रखना था.


किसी नक्षत्र की तरह टिमटिमाते इस शिखर बिंदु पर गाड़ी कैसे पहुँचकर कहाँ लुढकती है, सोच पाना आसान नहीं है पर लगता है कोई उसे यहाँ की,हम लोगों की दुनिया में फेंकता है और मेरे लिए कुम्भलगढ़ का किला एकदम सामने आता है.हठात.किसी एंटिटी की तरह.एक ज़माने में ये ज़रूर पत्थर गारे का संयोजन रहा होगा पर फिर धीरे धीरे किसी व्यक्तित्व में बदल गया था.
संगो खिश्त से हाड़ मांस का ढेर और फिर किसी बारिश में गिरी भीषण बिजली ने इसमें जैसे चेतना दौड़ा दी हो.इसके कंधे पर पाँव रखते हुए सर पर सवार होना एक खूबसूरत अनुभव है पर सर पर लोहे की रेलिंग के मुकुट से नीचे झांकना शरीर में ऐसी झुरझुरी दौड़ाता है जैसे किसी ने देह में बारिश के कीड़े झौंक दिए हों.

वापसी में किले से नीचे उतरती ढलान पर आगे जाकर केलवाड़ा है. यहाँ से चारभुजा के   ठीक पहले देसूरी की ओर उतर कर अपने ठिकाने जोधपुर जाने की आशु-योजना बनाई.सामने कई किलोमीटर तक का घना जंगल है.अरावली के महाखड्ड में जीवन कई तरह से पनपता है.गाड़ी कुछ ढलानों से होकर जंगल के गाढ़ेपन में घुसती है.एक लंबी थका देने वाली खोह.घात में बैठे किसी हिंस्र पशु की तरह जंगल यहाँ बहुत सधा हुआ लगता है.एकदम तैयार.लगातार आपका पीछा करता हुआ.वैसे ही जैसे काफ्का ऑन द शोर में काफ्का तमूरा को लगता है,जब वो पहली बार जंगल में घुसता है.


राणकपुर जैन मंदिर 
कुम्भलगढ़ 
     
                             

Saturday, July 21, 2012

जो सुन्दर था

कोई ढाई साल पहले मैंने अपनी एक हिमालय यात्रा पर संस्मरण यहाँ पोस्ट किया था. उसमें उतराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ की दारमा घाटी के गाँव दांतू में वहाँ की एक दानवीर महिला जसुली दताल की शानदार मूर्ती का फोटो लगाया था.

इधर पिछले सप्ताह मेरे कुछ परिचित दोबारा से दांतू गए तो मेरे इसरार पर मेरे वास्ते उसी मूर्ति का ताज़ा फोटो खींच कर लाये. मूर्ति के इस नए संस्मरण को देखना हैरत और खौफ पैदा करता है. साथ ही उस चित्रकार के प्रति मन में ऐसी हैबतनाक भावनाएं उमडती हैं की उन्हें शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता.

क्या आपको लगता नहीं कि इस देश में जो भी सुन्दर है उसकी खाल में भुस भरने का कार्य बहुत बड़े स्तर पर जारी है -

यह रही पुरानी मूर्ति -


और यह ताज़ा तस्वीर -

Saturday, July 14, 2012

वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

परवीन शाकिर की एक और  ग़ज़ल –

खुली आँखों में सपना झाँकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन के नाचता है

मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है

मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रिज़ा से माँगता है

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है

(दस्तरस हाथ की पहुँच, रिज़ा स्वीकृति)

Friday, July 13, 2012

तन्हा कटे किसी का सफर , तुमको इससे क्या


परवीन शाकिर  की एक ग़ज़ल पेश है ––

टूटी है मेरी नींद मगर तुमको इससे क्या
बजते रहें हवाओं से दर तुमको इससे क्या

तुम मौज –मौज मिस्ले-सबा घूमते रहो
कट जायें मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या

औरों के हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुमको इससे क्या

अब्रे –गुरेज़पा को बरसने से क्या गरज़
सीपी मे बन न पाये गुहर तुमको इससे क्या

ले जाये मुझको माले-गनीमत के साथ उदू
तुमने तो डाल दी है सिपर तुमको इससे क्या

तुमने तो थम के दश्त में खेमे गड़ा दिये
तन्हा कटे किसी का सफर , तुमको इससे क्या

Thursday, July 12, 2012

रुस्तम-ए-हिंद को श्रद्धांजलि


रुस्तम-ए-हिंद दारा सिंह नहीं रहे. कबाड़खाने की विनम्र श्रद्धांजलि.

उन पर एक अच्छा लेख वेबदुनिया में छपा है. यह रह उसका लिंक - दारा सिंह : रुस्तम-ए-हिंद

आज भी याद आता है



विख्यात भजन गायिका जूथिका रॉय का एक संस्मरण –

बीते दिनों को याद करने बैठते ही पहले याद आती है हावड़ा जिले के आमता ग्राम की बात यहाँ मेरा जन्म हुआ था. जन्मस्थान की तरह मधुर एवं अपनी जगह शायद दूसरी नहीं होती. वो चाहे ग्राम ही क्यों न हो. हरीतिमा के स्नेह में लिपटा उसी आमता से मैं अपनी जीवनगाथा शुरू करना चाहती हूँ.

आमता ग्राम बहुत ही छोटा है किन्तु उसका स्वर्गीय प्राकृतिक सौन्दर्य भूलने योग्य नहीं है. हरे-भरे मैदान नीला आकाश, स्वर्ण बरसाते सुहरे धान के खेत, रास्तों के दोनों तरफ काश के वन एवं सबसे अधिक स्मरणी जो है वह है ग्राम के अन्तिम छोर पर दामोदर नदी. दामोदर का बहुत सुनाम- दुर्नाम है. कभी हँसाता कभी डुबाता. ग्रीष्म ऋतु में जलशून्य सूना मैदान और वर्षा में विकराल. कब वह गाँव के गाँव बहा डालेगा कौन जानता है. इसी दामोदर की गोद में बसे आमता ग्राम में 20 अप्रैल 1920 को मेरा जन्म हुआ और इसी आमता स्टेशन के सामने मेरा घर. घर के सामने सीधा रास्ता एवं पार्श्व में काटों के तार का घेरा. अनेकानेक रेलवे लाइन आकर स्टेशन में एक साथ मिलती हुई. रास्ते के पास से छोटी रेलगाड़ी गुजरती हुई कभी तालाब या धान के खेतों का साथ तो कभी हरे मैदानों का, मिट्टी के घरों के आँगन के पास से ग्राम से ग्रामान्तर की ओर काँस के वन. रेल लाइन के दूसरी तरफ है विख्यात तारकेश्वर मंदिर. प्रत्येक वर्ष चड़क पूजा का उत्सव होता. गाँव के दूसरी तरफ थे शिव मंदिर, पोस्ट आफिस एवं उसके बाद बाजार. हमारे घर से कुछ ही दूर था हमारे बचपन का वह करोनेशन गर्ल्स स्कूल, जिस स्कूल में मेरी एवं दीदी की पढ़ाई लिखाई शुरू हुई. प्रारम्भिक जीवन की बहुत सी बातों की तरह पहले स्कूल की बात को भूला नहीं जा सकता.

बाबा सत्येन्द्रनाथ राय सबडिभिशनल इंस्पैक्टर आफ स्कूल के पद पर नौकरी करते थे. इस नौकरी के कारण ही दो तीन वर्षों के अन्तर पर उनका स्थानांतरण होता हमें भी बाबा के साथ नई नई जगहों पर घूमते रहने पड़ता था, बहुत कुछ यायावरों की तरह. बाबा बहुत ही संगीत प्रिय थें. उनको शास्त्रीय संगीत के सम्बंध में प्रगाढ़ ज्ञान था. बाबा-माँ के ही प्रयासों से मेरे संगीत जीवन का प्रारम्भ हुआ. माँ स्वर्गीय स्नेहलता राय, अत्यन्त भक्तिनी उचित वक्ता एवं कठोर परिश्रमी थीं. उनके जीवन के आदर्श श्रीश्रीरामकृष्ण, श्रीश्री शारदा माँ एवं स्वामी विवेकानन्द थे. स्वामी विवेकानन्द के आदर्श को सम्मुख रखकर ही उन्होंने अपनी सभी सन्तानों की शिक्षा-दीक्षा का प्रयास किया था. बाबा की तरह माँ भी गाना बजाना खूब पसंद करती थीं. विभिन्न देवी देवताओं की स्तुतियाँ, भक्ति गीत मुधर कंठ से गाती थीं. इसी कारण बचपने में ही मैंने माँ से सभी स्तुतियाँ एवं भक्ति गीत सीख लिये थे.

बाबा मुझे संगीत के राग-रागिनी सिखाते थे एवं तबले की ताल को अँगुली पर गिन कर दिखा देते थे. बाबा कहते थे गाना यदि ताल में न गाया तो उसके सुर का ज्ञान नहीं होता.

आमता में मैं, मेरी दीदी लतिका, छोटी बहन वीणा (मल्लिका) एवं भाई कालीपद रहते थे. हमारी देखभाल करने के लिए एक आया थी, जिसका नाम अम्बिका था. अम्बिका के बिना मेरा एक पल भी काम नहीं चलता था. यह बात अम्बिका अच्छी तरह जानती थी. इसलिए कई बार इसका लाभ उठाती थी. उस समय मेरी उम्र तीन-चार वर्ष की होगी. दीदी के संग खेलने निकलती, किन्तु बाहर निकल कर दीदी जिस रास्ते चलती मैं अपने मन से अन्य राह लेती. कभी तो फूलों के बागान में नाना विचित्रतामय रंगों की तितलियों को पकड़ने के लिए चुप-चाप निःशब्द घूमती रहती और कभी तो आँगन में बालू संग्रह करके विराट मंदिर बनाती एवं मंदिर के शिखर को विभिन्न फूल पत्तियों से सजाती. इस प्रकार मैं अपने मन से घूमती खेलती एवं गान गाती. जब अम्बिका आकर बुलाती तब होश आता कि बहुत देर हो गयी. नहाना खाना कुछ भी नहीं हुआ.

एक बार एक सर्कस पार्टी हमारे घर के सामने रास्ते से बैलगाड़ी से जा रही थी. किसी गाड़ी में बाघ का पिंजड़ा तो किसी में सिंह का तो किसी में बन्दर का एवं अंतिम गाड़ी में बैंड पार्टी मधुर धुन बजाते किसी गाँव की तरफ जा रहे थे. मैं घर के बरामदे में खड़ी थी, परन्तु कब सर्कस पार्टी के संग-संग चलने लगी पता नहीं. मैं एकाग्रमन से चली जा रही थी कितनी दूर आई... कहाँ कहाँ जा रही हूँ.. क्यों इस चलने का अंत नही आ रहा... कुछ भी नहीं जानती. बैंडपार्टी की सुन्दर ताल-छन्द में मेरा मन खो गया था. मैं चल रही हूँ रेललाइन के पार्श्व से धान के खेत के किनारे से. चल रही हूँ... चल रही हूँ.... चल रही हूँ.

संध्या होने को आई, चारो तरफ अंधकार, सूर्य अस्तप्राय. घर लौटने को ख्याल नहीं. मुझे जैसे चलते जाने का नशा हो आया हो. इस चलने का अंत कहाँ होगा ये भी नहीं जानती. हठात् एक भयंकर पुकार सुन कर चौंक उठी. बिना कुछ सोचे फिर चल पड़ी. किन्तु पुनः वही कान फाड़ देने वाली पुकार- रेणु लौट आ. लौट आ. पीछे मुड़ कर देखा अम्बिका पागलों की तरह दोड़ती आ रही है. रेणु लौट आ, लौट आ. अम्बिका को देख मेरा चित्त लौटा. मैं दौड़ कर अम्बिका की गोद में कूद पड़ी. अम्बिका मेरे दोनों हाथों को अपने सीने से जकड़े घर ले आई. घर के सभी लोग कहने लगे कि आज अम्बिका की वजह से रेणु पर आई एक बड़ी विपत्ति टल गई. बचपन में आमता की बैंड पार्टी की सुरों में खो जाने वाली वह घटना अब भी स्मृति में स्पष्ट है.

आमता में हमारे घर से कुछ दूर लड़कियों का एक स्कूल था. मैं और मेरी दीदी इस स्कूल में पढ़ने जाते थे. दीदी पढ़ाई लिखाई में बहुत अच्छी थी. अध्यापिका उसको बहुत प्यार करतीं एवं सदा उसकी प्रशंसा करती थीं. मैं उस समय बहुत छोटी थी. मुझे अच्छी तरह याद है स्कूल के फर्श पर दीदीमुनी बड़े अक्षरों में चाक से अ, आ लिख देती थीं. मैं और मेरी सहपाठिनी मिट्टी पर बैठकर चाक से उनके अक्षरों पर दुहराती थीं. इस प्रकार स्कूल में पहली बार वर्णमाला से परिचय के साथ हमारी शिक्षा का प्रारंभ हुआ.

उसी समय की एक घटना याद आती है. एकदिन स्कूल की छुट्टी के बाद मैं और मेरी दीदी घर वापस लौट रहे थे. चारों तरफ कड़ी धूप थी किन्तु एक दो कदम चलते ही आकाश में काली घटा छा गई. चारो तरफ से जल की धाराएँ टूट पड़ीं. अचानक इस दृश्य को देखकर हम भयभीत होकर घर की तरफ दौड़ पड़े. परन्तु देखते ही देखते हमारे घुटने डूब गए. क्रमशः पानी बढ़ने लगा, क्षण में ही पानी हमारे कमर तक उठ गया. ऐसा लगता कि थोड़ा सा ही चलने घर पहुँच जाएँगें, किन्तु ऐसा नहीं हुआ, मुहुर्त में ही हम गर्दन तक पानी में डूब गए. इसके बाद भयंकर जल-धारा. हमलोग सीधे खड़े नहीं हो पा रहे थे. बड़ी मुश्किल से एक कदम आगे बढ़ते तो जल-धारा दस कदम पीछे ले जाती. चारो तरफ असीम जलधारा पल भर में सब बहा ले चली. हम भी शायद बह जाएँगे इसी डर से मैं जान लगाकर चिल्लाने लगी. बह गई.....बह गई. मेरी असहाय चीत्कार सुन कर पड़ोस के घर के एक भद्रव्यक्ति ने हम दोनों को घर पहुँचा दिया. उस यात्रा में इस प्रकार हम बच गए नहीं तो जल की वह धारा कहाँ बहा ले जाती कौन जानता है. आज भी आमता के दामोदर की उस भयंकर बाढ़ की बात याद आती है.

मैं और मेरी दीदी रोज एकसाथ घर से खेलने के लिए निकल पड़ते थे. किन्तु बाहर कुछ दूर जाकर हम दोनों दो तरफ चल देते. दीदी अपने दोस्तों के साथ धान के खेत में धान बीनती. यह दीदी का एक खेल था. मेरे घर के पास ही एक नया दालान बन रहा था, मैं वहाँ मिस्त्रियों का काम देखने एवं एक मिस्त्री के छोटे लड़के हुसेन अली का गाना सुनने जाती जो कि बहुत मधुर गाता था. हर दिन सुनसुन कर कई गाने सीख लिए मैंने. घर आकर खेलते खेलते मैं वे गाने स्वयं गुनगुनाती एवं माँ दूर निःशब्द खड़ी होकर सुनती और चकित होती. रोज ही मैं नए-नए गाने गाती, एक दिन माँ ने मुझे समीप बुलाकर पूछा, रेणु ये सब गीत कहाँ से सीखे? ये गीत तो हमने तुम्हें सिखाए नहीं! रोज-रोज तुम नवीन-नवीन गाने गाती हो, कहाँ मिले? मैंने तब माँ को सब खुलकर बताया. माँ ने सुनकर आनन्द, विस्मय में आत्मविभोर होकर मुझे दोनों हाथों से पकड़कर सीने से लगा लिया. नहीं नहीं तुम और अब वहाँ नहीं जाओगी, मैं कल ही उस लड़के को घर बुला लाऊँगी. यहाँ बैठकर तुम गाने सीखना. यह बात सुन कर मैंने आनन्द एवं खुशी से माँ को दोनो हाथों से पकड़ लिया.

भोर बेला उठते ही माँ को विभिन्न कामों को करने के लिए इधर से उधर जाते देखती. माँ जब भी कोई काम करती तो बहुत ही शान्त भाव से करती, कभी भी चिल्लाकर बात करते माँ को नहीं सुना, कभी भी काम करते-करते विरक्त होते नहीं देखा. भोर बेला में माँ जब स्नान करके अपने विशाल घने बालों को पीठ पर फैलाकर, नतमस्तक होकर, हाथ जोड़कर बैठ सूर्य एवं नाना देवी देवताओं के श्लोक भक्ति पूर्वक गाती तो ये सब भक्ति गान सुनकर मैं तन्मय हो जाती थी. बाद में मैंने माँ से वे सब सुन्दर श्लोक सिख लिये थे.

एक करूण व दुख की घटना याद आती है एक दिन सुबह उठी, उस समय सुना, सभी कह रहे हैं ‘अहा! लड़का तालाब के पानी में डूब कर कब तैरने लगा, ये कोई नहीं जान पाया. तैरना जानता तो शायद न मरता.‘

मैं बरामदे में खड़ी होकर सुन रही थी, कौन डूब कर मर गया? देखने के लिये बिना किसी को बताये मैं तालाब की ओर दौड़ पड़ी. तालाब के किनारे जाकर देखा कि सारे मिस्त्री भी वहाँ हैं. उस समय भी मृत शरीर को तालाब से निकालने का प्रयास चल रहा था. बहुत प्रयास के बाद जब निकाला गया, तो देखा गया, और कोई नहीं, उसी मिस्त्री का छोटा लड़का (हूसेन)- जिसके पास मैं गाना सीखने जाती थी. मिस्त्री फूट-फूट कर रो पड़ा, सभी के आँखों में आसू, मैं निःशब्द रोने लगी. मेरे मन को जो आघात लगा था, वह चीत्कार कर रोने से शायद मन हल्का हो जाता. किन्तु मैं पत्थर होकर खड़ी थी.

शिशुशिल्पी हुसेन अली को जब सुन्दर से नाना फूलों के गुलदस्तों एवं मालाओं से सजाकर समाधिस्थल की तरफ ले जाया जा रहा था, मैंने भी संग-संग चलना शुरू किया परन्तु अन्ततः अन्दर न जा सकी, दौड़ कर घर लौट आयी. घर आते ही माँ को बोली- ‘बहुत प्यास लगी है पानी दो. बहुत ठण्ड लग रही है, शरीर में कम्बल लपेट दो.’ माँ ने देह को छूकर कहा, ‘ये क्या पूरा शरीर तो जल रहा है. ठंड से पूरा शरीर काँप रहा है.’

इसके बाद मैं भयंकर बीमार पड़ी, बचने की कई आशा नहीं न थी. प्रायः डेढ़ महीने भुगतने के बाद, माँ की अथक सेवा यत्न से मैं स्वस्थ हो उठी. हुसेन की मृत्यु का संवाद कई दिनों बाद जब माँ ने जाना तो दूःख से टूट पड़ी थी. आज भी न भूल सकी, बालगायक हुसेन की वह मर्मांतक दुर्घटना की बात भूली नहीं है.

(“अभिव्यक्ति” से साभार)

Wednesday, July 11, 2012

गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने की सामर्थ्य - उस्ताद अमीर खां का संस्मरण - ४


(जारी)

महान गायक उस्ताद अमीर खाँ - ४

-प्रभु जोशी

कहना न होगा कि अब तक वे एक ऐसे शिखर पर आ गये थे कि मिर्जापुर की महफिल का मान-अपमान बहुत पीछे छूट गया था. अब वह बहुत दूरस्थ और धूमिल था. उन्हें खासतौर ‘मेरुखण्ड‘ की गायकी ने जिस रचनात्मक-स्थापत्य पर खड़ा कर दिया, वहाँ उनकी ऊँचाइयाँ देख कर ‘किराना‘ घराना से लेकर भिण्डी बाजार तक के लोग उनको अपने दावों के भीतर रखने लगे,. लेकिन वे अपनी कठिन तपस्या के बल पर, अब अपने आप में एक ‘घराना’ बनने के करीब थे. देश भर के संगीत-संस्थानों के आयोजनों और आकाशवाणियों के केन्द्रों परचारों-ओर अब वही पाटदार और ठाठदार आवाज गूँजने लगी. यह ‘इतिहास में हुए अपमान के विरुद्ध’ शनैः शनैः अर्जित प्रसिद्धि का पठार था. मगर, उस्ताद अमीर खाँ एक गहरी आध्यात्मिक उदारता और दार्शनिकता के साथ अपनी तपस्या में लगे रहे.

उन्हें फिल्मों में भी गाने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन वहाँ भी उन्होंने शास्त्रीयता की रक्षा के साथ अपना अवदान दिया. लोगों के लिए वहाँ भी यह विस्मय था, कि कहाँ कैसे कोई श्रुति आयी है ? षड्ज लगा है तो कौन सा लगा है ? दूसरी श्रुति या तीसरी श्रुति का ? गान्धार लगा तो कौन सा लगा ? और इसमें मूर्च्छना से जो जरब लगी, वो ‘जरब‘ कैसी लगी ? ‘जरब‘ जहाँ तोल कर लगाई, तो लगता है, वह सन्तुलित नहीं अतुलित है ? यह गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने का सामर्थ्य है. मुझे अंग्रेजी के प्रोफेसर और लेखक अजातशत्रु के दिए गए एक साक्षात्कार की याद आ रही है. उन्होंने एक दफा उनके पेडर रोड के उनके फ्लैट में सामने की गैलरी में देखा था. रात गये, जब बम्बई ऊँघ रही थी. वे उस गैलरी में चहल-कदमी करते हुए ऐसे लगे थे, जैसे कोई बैचेन सिंह है, कटघरे में. जो कटघरे के भीतर रह कर भी कटघरे से बाहर फलाँग गया है. वह खामोश है, लेकिन उसकी गर्जना मेरे कानों के भीतर गूँज रही है.‘ और सचमुच ही एकदिन उनकी देह फलाँग गयी. तेज गति से चलते वाहन के बाहर. और वे फलाँग गये, उस दुनिया से, जिसमें रहकर वे अपने स्वर और तानों में सारा प्राण फूँक रहे थे. वह चौदह जनवरी उन्नीस सौ चौहत्तर की दुर्भाग्यशाली सुबह थी, जिसमें देशभर के समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ की खबर थी कि कलकत्ता में हुई एक कार दुर्घटना ने शास्त्रीय संगीत के एक महान गायक को हमसे छीन लिया है. उस्ताद अमीर खाँ साहब का देहावसान हो गया है. आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे अब एक गायक नहीं, एक पूरे घराने की तरह मौजूद हैं, जिसमें उनके कई-कई शिष्य हैं, जो गा-गा कर अपने गुरु का ऋण उतार रहे हैं.

(समाप्त)

Tuesday, July 10, 2012

गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने की सामर्थ्य - उस्ताद अमीर खां का संस्मरण - ३


(जारी)

महान गायक उस्ताद अमीर खाँ - ३

-प्रभु जोशी

मुझे याद आता है, स्वर्गीय पंडित कुमार गंधर्व हमेशा कहा करते थे कि ’आलाप’ गायक का पुरुषार्थ बताता है. ऐसा गायक कभी बूढ़ा नहीं होता. उस्ताद रजब अली खाँ साहब के बारे में, जिनका सानिध्य उस्ताद अमीर खाँ को आरंभ से मिला था, कहा जाता है कि जब उन्हें आकाशवाणी पर गाने के लिए आमंत्रित किया जाता था तो वे बहुत वृद्ध हो चुके थे. उनकी दोनों बाहों को दो लोग अपने-अपने कंधों पर रखकर पकड़ते और बहुत शाइस्तगी के साथ स्टूडियो का कॉरीडोर पार करवा कर माइक्रोफोन के सामने बिठाते थे. लेकिन, ज्यों ही वे ‘आलाप‘ पर आते और कोई आँख मूँद सुने तो उस आवाज के आधार पर कोई उनकी उम्र का अनुमान नहीं लगा सकता था.

यहाँ मैं थोड़ा-सा ‘आलाप’ की आधुनिकता का उल्लेख करना चाहता हूं कि आधुनिक-संगीत में प्राचीन ‘निबद्ध-अनिबद्धगान’ के अन्तर्गत ’अनिबद्ध’ गान का एक ही ’प्रकार’ प्रासंगिक रहा आया है. और वह है, ‘आलाप‘. पहले ‘आलाप‘ करने वाले ध्रुपदिये होते थे, जिनका स्वर एवम् राग-ज्ञान ही ’आलाप’ को विशिष्ट सौंदर्य देता था. अब तो खयाल गायक भी सुंदर आलाप करते हैं.

’आलाप’ के दो ढंग है, एक ‘नोम-तोम‘ द्वारा तथा दूसरा ‘अकार‘ द्वारा. ‘अकार‘ का ‘आलाप‘ ‘आऽऽ‘ के उच्चारण द्वारा होता है, जबकि ‘नोम-तोम‘ का त-ना-न-रीनों-नारे-नेनेरी-तनाना-नेतोम आदि शब्दों के द्वारा किया जाता है. उस्ताद अमीर खाँ साहब दोनों तरह से करने में समर्थ थे, लेकिन ’अकार’ की अपेक्षया नोम्-तोम‘ में किसी स्थान पर ‘सम‘ दिखाने की सुविधा रहती है. ये वो समय था, जब धु्रपद गाने वाले ‘तराने‘ पर स्वयं को एकाग्र करने वाले गायकों के बारे में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा करते थे, ‘ये हमारी तरह क्या स्वर लगायेंगे, ये तो ‘नोम-तोम‘ करते-करते ही मर जायेंगे.‘

लेकिन, जब उस्ताद अमीर खाँ साहब ने स्वयं को तराने पर एकाग्र किया तो उनकी अप्रतिम मेधा ने उसका लगभग ’नवोचार’ ही कर दिया. उनका वह काम आज भारतीय शास्त्रीय-संगीत की मौलिक धरोहर में बदल गया है. तराने में प्रचलित ‘नादिर दानी तुम दिरदानीं‘, जिसे पूर्व में मात्र निरर्थक शब्द-समूह माना जाता था, उसे उस्ताद अमीर खाँ ने अपने गहन अध्ययन के आधार-पर सूफी-सम्प्रदाय का जाप-मंत्र सिद्ध किया. इसी के चलते खाँ साहब ने कई तराने के अंतरे में महान सूफी संत अमीर खुसरो की रुबाइयों का जो कायान्तरण किया, वह अद्भुत है. हालाँकि इसके पूर्व भी कुछेक संगीतज्ञों का विवेचन ऐसा रहा आया कि ये निरर्थक से जान पड़ने वाले शब्द ‘ईश्वरोपासना‘ का बिगड़ा हुआ रूप ही हैं, चूंकि पूर्वगायक संस्कृत पंडित हुआ करते थे, तो शब्दोच्चारण भी स्पष्ट था, लेकिन ‘राग‘ से आसक्ति के बाद मुस्लिम गायकों के लिए शब्दोच्चारण सहज नहीं था, नतीजतन, उन्होंने राग तो पकड़े, शब्द छोड़ दिये और जो शब्द पकड़े वे उन्होंने अपने ‘सूफी-चिंतन‘ की भाषा से उठा कर रख दिये.

यहाँ उस्ताद खाँ साहब के ‘आलाप’ को प्रक्रियागत एवम् संरचना के बारे में स्पष्ट है कि वे बहुत ही नैसर्गिकता के साथ अपनी पाटदार आवाज से स्थायी में पहले ’षड्ज’ लगा कर वादी स्वर का ऐसा महत्व दिखा देते थे कि पूर्वांग में ‘राग‘ चलता और आरंभ में कुछ मुख्य-स्वर समुदायों को लेकर फिर एक नया स्वर अपने स्वर-समुदायों में जोड़ जोड़़कर वे मध्य-स्थान के पंचम ’धैवत’ और ‘निषाद’ तक जाते हैं फिर ‘तार-षड्ज’ को बहुत खूबसूरती से छूते हुए ’मध्य-षड्ज’ पर ’स्थायी’ समाप्त करते. ‘स्थायी’ भाग का ‘आलाप’ अधिकतर ’मन्द्र’ और कभी-कभी ’मध्य-सप्तकों’ तक भी चलता. बाद इसके वे अधिकांशतः ’मध्य-सप्तक’ के स्वर से ’अंतरा’ का भाग शुरू करते और तार-सप्तक के ‘षड्ज’ पर पहुँच कर वे अपने स्वर कौशल की द्युति का भास कराते हैं. स्मरण रहे कि अपनी विशिष्ट तानों को वहीं लेकर वे वहीं समाप्त करते हैं फिर शनैः शनैः अपनी पाटदार आवाज के स्वर की आध्यात्मिक दिव्यता के साथ ‘मध्य-षड्ज’ पर आकर मिल जाते हैं. यहीं मोड़ और ‘कम्पन’ के काम के लिए पर्याप्त अवकाश होता है. उस ‘स्पेस‘ का दोहन करने में उनकी तन्मयता अलौकिक-सी जान पड़ती है. जैसे एक समाधिस्थ योगी अपनी दैहिकता के पार चला गया है.

यही वह उम्र और उनकी गायकी का पड़ाव था, जहाँ पहुँच कर उनके स्वर-सामर्थ्य ने परम्परा को नवोन्मेष से जोड़ा. मसलन ‘मार-वा‘ मूलरूप से वीर-रस का राग है. क्योंकि इस राग में ‘निषाद’ कई स्थानों पर वक्र-गति से प्रयुक्त होता है. खासकर जब इस राग में ‘अवरोह’ में ऋषभ-वक्र होता है, तो राग की अन्तर्द्युति बढ़ जाती है. इसी ’चमक’ को खाँ साहब ने कुछ इस तरह अपने स्वर से व्यक्त किया कि यह अपने ‘रसोद्रेक‘ में शांत और सौम्यता के निकट आ गया, जो कि बुनियादी रूप से आध्यात्मिकता की विशिष्टता है. दूसरे ‘मालकौंस‘ को लें. यह राग अमूमन शृंगारिक-अभिव्यक्तियों में बहुत खिलकर रूपायित होता है, लेकिन उन्होंने अपनी ख्याल गायकी के सामर्थ्य से उसमें भी आध्यात्मिक गांभीर्य पैदा कर दिया.

(जारी)

Monday, July 9, 2012

तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया है घर छोड़कर फ़ुटपाथों को छानना



विषाद का महाकाव्य

-निज़ार क़ब्बानी

तुम्हारे प्यार ने मुझे शोक करना सिखाया
और मुझे सदियों से एक स्त्री की
ज़रूरत थी जो मुझे शोक करना सिखाती
एक स्त्री की
जिसकी बांहों में मैं रो पाता
किसी गौरैया की मानिन्द
एक स्त्री की जो टूटे स्फटिक की किरचों की मानिन्द
मेरे टुकड़ों को समेटती

तुम्हारे प्यार ने, मेरे प्यार, मुझे बहुत बुरी आदतें सिखाईं हैं
इसने मुझे एक रात में हज़ारों दफ़ा
अपने कॉफ़ी के प्यालों को पढ़ना सिखाया है
और कीमियागरी के प्रयोग करना
और ज्योतिषियों के पास जाना

तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया है घर छोड़कर
फ़ुटपाथों को छानना
और तुम्हारा चेहरा खोजना बारिश की बूंदों में
और कारों की रोशनियों में
और ग़ौर करना
अजनबियों के कपड़ों में तुम्हारे कपड़ों पर
और तुम्हारी छवि को खोजना
यहां तक कि ... यहां तक कि ...
यहां तक कि विज्ञापनों के पोस्टरों में
तुम्हारे प्यार ने मुझे फ़िज़ूल भटकना सिखाया है
घन्टों एक जिप्सी के केशों की खोज में
जिन पर सारी जिप्सी स्त्रियां रश्क करती हों
एक चेहरे, एक आवाज़ की खोज में
जो कि सारे चेहरे और सारी आवाज़ें हो ...

मेरी प्यारी, तुम्हारे प्यार ने मुझे
दाख़िल कर दिया है विषाद के नगरों में
और तुम से पहले
मैं कभी नहीं गया था विषाद के नगरों में
मैं नहीं जानता था ...
कि आंसू ही होते हैं एक शख़्स
कि बिना विषाद का शख़्स
एक शख़्स की परछाईं भर होता है.

तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया
एक लड़के की तरह व्यवहार करना
खड़िया से लिखना तुम्हारा नाम
दीवारों पर
मछुवारों की नावों की पालों पर
गिरजाघर की घन्टियों पर, सलीबों पर
तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया
किस तरह समय का नक्शा बदल देता है प्यार
तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया कि जब मैं प्यार करता हूं
धरती बन्द कर देती है घूमना
तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाईं बातें
जिन का कभी कोई मानी नहीं था.
सो मैंने बच्चों की परीकथाएं पढ़ीं
मैं ने जिन्नात के महलों में प्रवेश किया
मैंने सपना देखा कि वह मुझ से ब्याह करेगी
सुल्तान की बेटी
वे आंखें
झील के पानी से ज़्याफ़ा साफ़
वे होंठ
अनार के फूलों से ज़्यादा मनभावन
अर मैंने सपना देखा कि मैं एक राजकुमार बनकर उसका अपहरण कर लूंगा
और मैंने सपना देखा कि मैं
उसे दूंगा मोतियों और मूंगों का हार
तुम्हारे प्यार ने, मेरी प्यारी मुझे सिखाया
क्या होता है पागलपन
इसने मुझे सिखाया ... किस तरह बीत सकता है जीवन
सुल्तान की बेटी के आए बिना भी

तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया
किस तरह मोहब्बत की जाए सारी चीज़ों से
सर्दियों के एक नंगे पेड़ से
सूखी पीली पत्तियों से
बारिश से, तूफ़ान से
छोटे से कहवाघर से जहां हम गए थे
शाम से ... हमारी काली कॉफ़ी

तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया
शरण लेना
बिना नाम के होटलों में
बिना नाम के गिरजाघरों में
बिना नाम के कहवाघरों में शरण लेना

तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया
किस तरह रात में फूलती है अजनबियों की उदासी
इसने मुझे सिखाया ... बेरूत को कैसे देखा जाए
एक स्त्री की तरह ... प्रलोभन के तानाशाह को
एक स्त्री की तरह जो हर शाम धारण करती है
अपनी सबसे शानदार पोशाक
और मछुआरे के लिए और राजकुमारों के लिए
अपनी छातियों पर लगाती है ख़ुशबू
तुम्हारे प्यार ने मुझे सिखाया कैसे रोया जाए बग़ैर रोए
इसने मुझे सिखाया किस तरह सोती है उदासी
रूच और हमरा की सड़कों पर
पैर काट दिए गए बच्चे की तरह.

तुम्हारे प्यार ने मुझे शोक करना सिखाया
और मुझे सदियों से एक स्त्री की
ज़रूरत थी जो मुझे शोक करना सिखाती
एक स्त्री की
जिसकी बांहों में मैं रो पाता
किसी गौरैया की मानिन्द
एक स्त्री की जो टूटे स्फटिक की किरचों की मानिन्द
मेरे टुकड़ों को समेटती

तुम अब भी


अब भी


-निज़ार क़ब्बानी

तुम अब भी, यात्रारत मेरी प्यारी
अब भी वही इन दस सालों बाद
धंसी हुई हो मेरी बग़ल में, किसी भाले की तरह.

गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने की सामर्थ्य - उस्ताद अमीर खां का संस्मरण - २

(जारी)

महान गायक उस्ताद अमीर खाँ - 2

-प्रभु जोशी

बहरहाल, युवा गायक अमीर खाँ के लिए यह एक तरह से संगीत के अनंत में अपनी निजता को आविष्कृत करने के अत्यन्त गहरे आत्म-संघर्ष का समय था. निश्चय ही प्रकारान्तर से यह एक ऐसी ‘नादोपासना‘ थी, जिसमें परम्परा के पार्श्व में उन्हें अपने लिए यथोचित जगह बनाने पर विचार करना था. वे जहाँ एक ओर उस्ताद नसीरुद्दीन खाँ डागर की गायकी और उनकी ध्रुपद-परम्परा की तरफ देख रहे थे, दूसरी तरफ उनके समक्ष भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद छज्जू-नज्जू खाँ के ‘मेरुखण्ड‘ की तानों की तकनीक और सौंदर्य भी था, जो आसक्त करता चला आ रहा था. लेकिन, यह विवेक अमीर खाँ जैसे युवा गायक में आ चुका था कि ‘अनुकरण‘ से पहचान तो बन सकती है लेकिन संगीत की मारा-मारी से भरी निर्मय दुनिया में जगह नहीं. नतीजतन उनमें अपने लिये भारतीय संगीत में जगह बनाने की कोई अदृश्य सृजनात्मक-जिद पैदा हो गई थी, जिसने उन्हें घर और अंततः ‘घराना‘ बनाने के निकट लाकर छोड़ दिया.

निश्चय ही इसके लिए एक व्यापक और गहरी संगीत-दृष्टि की दरकार थी. उन्होंने यों तो सांस्थानिक रूप से कोई बहुत औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की थी, लेकिन उन्हें उर्दू-फारसी का अच्छा ज्ञान हो चुका था. काफी हद तक उन्होंने संस्कृत की संभावनाएँ उलीच कर अपनी सृजनात्मक के लिए आवश्यक ‘समझ‘ अर्जित कर ली थी. कदाचित् इसी के चलते उन्होंने पाया कि ‘संगीत’ और ‘अध्यात्म’ के मध्य एक ऐसा अदृश्य-सेतु है, जिसके दोनों ओर आवाजाही की जा सकती थी. यह उनकी रचनात्मक-बैचेनी से भरी प्रकृति के काफी अनुकूल भी था.

हालाँकि, अमीर खाँ साहब के निकट सम्पर्क में रहे लोगों कि अलग-अलग राय है, लेकिन काफी हद तक यह बात एक तर्कदीप्त आधार हमारे सामने रखती है कि उनकी इस तरह की प्रकृति की निर्मिति में बचपन से ही ‘पुष्टि मार्ग’ से रहे आये उनके परिचय की बड़ी भूमिका है. पद्मश्री गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज कहते हैं कि ‘उनका सांगीतिक-साहचर्य पुष्टिमार्गीय से इसलिए भी रहा कि वे बाल्यावस्था से ही रामनाथजी शैल (इण्डिया टी होटल वालों) के साथ हमारे यहाँ आया करते थे. मंदिर की संगीत-सभाओं में भी वे नियमित आत थे. लोगों का गाना-बजाना भी सुनते ही थे. जिन ‘मेरुखण्ड‘ की तानों के लिए अमीर खाँ साहब की प्रशंसा होती है, वह उन्हें हमारे इन्दौर स्थित मंदिर से ही मिली थी. हमारी ही परम्परा की एक पुस्तक में ‘मेरुखण्ड’ की तानों का विधिवत् विवरण दिया गया है.‘ आगे वे कहते हैं ‘आकार लगाने का जो तरीका उस्ताद अमीर खाँ साहब के पास था, वह सामवेद की स्वरोच्चार पद्धति ही है. यानी मुँह खोल कर ‘अकार‘ उच्चारण नहीं किया जाना चाहिए.‘ ....खाँ साहब ने मिया की सारंग की बंदिश ‘प्रथम प्यारे‘ राग शुद्ध वसंत की ‘उड़त-बंधन‘ और हमारी वंश-परम्परा में गोस्वामी हरिराय महाप्रभु की ‘राग दरबारी‘ में ‘ऐ मोरी अली, जब तें भनक परी पिया आवन की‘ तथा ‘वल्लभाचार्य जी के पुत्र गुंसाई विट्ठलनाथ जी के प्रति रचना ‘लाज राखो तुम मोरी गुंसैंया‘ (राग-चारुकेशी): आदि बंदिशें खाँ साहब ने गायी हैं.‘

कहने की जरूरत नहीं कि गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज के पास लगभग एक हजार घण्टे की अमीर खाँ साहब की रिकॉर्डिंग्स हैं. और उनकी गायकी की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचना कर सकने में वे अत्यन्त समर्थ भी हैं. क्योंकि ‘स्वर‘ और ‘लयकारी‘ की जो नाद-स्थिति है, वही अपने ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ की विशिष्टता में ‘घरानों‘ की एक निश्चित पहचान बनाती है. और उस्ताद अमीर खाँ साहब ने अपनी गायकी से यही किया कि वे ‘लय और स्वर‘ के बीच के अन्तरसंबंधों में ‘गान की आध्यात्मिकता’ के अनुसार ‘खयाल‘ को ‘मेलोडिक‘ बनाने पर स्वयं को एकाग्र करने लगे. यह प्रकारान्तर से ‘समाधिस्तता‘ की ओर जाना था.

संगीतज्ञ जानते हैं कि प्रत्येक गायक की अपनी अन्तःप्रकृति गाते समय उसकी मुद्राओं को तय करती है. उस्ताद अमीर खाँ अपनी प्रकृति से गहन ‘आध्यात्मिक’ थे शायद यही कारण था कि गाते समय वे ‘विनिमीलक‘ रहते थे. अर्थात् एक समाधिस्थ योगी की तरह आँखें मूंदे हुए गाते थे. ध्यानावस्था की तरफ शनैः शनैः बढ़ते हुए उनकी गहरी और पाटदार आवाज जो कि शास्त्रीय गायकों में बहुत कम ही मिलती है, ने भी उन्हें एक रास्ता दिखाया, जो उन्होंने उस्ताद बाबू खाँ की ‘बीनकारी‘ से आत्मस्थ किया था, ‘आलापचारी‘ में ‘अति-विलम्बित’ लय का चयन. स्वर के नैरतर्य को ‘लयकारी‘ से नाथ कर रखने का अनुशासन, शायद उन्हें अपने आरंभिक वर्षों के सारंगी-वादन ने सिखा दिया था. इसलिए उन्होंने तय किया कि संगीत में सारंगी को अनुपस्थित रखा जाये तो शायद ‘स्वर‘ को अपने ‘आत्म से ही संतुलित‘ किया जाये. वही स्वर-साहचर्य की युक्ति होगी. यही वजह थी कि उनके साथ तबला सिर्फ धीमा और सादा ठेका देता है. यहाँ इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि वे अपने गायन में ‘नाद की प्रवहमानता‘ को पूरी तरह नैसर्गिक बनाये रखने के लिए तालांे में केवल ‘झूमरा‘ या ‘तिलवाड़ा‘ को ही जगह देते हैं. हालाँकि विलम्बित ‘खयाल‘ के अस्थायी में ‘छन्दोग‘ तानों का किंचित् दिग्दर्शन कराते भी थे, जिसमें अपने स्वर के गांभीर्य के अनुरूप ‘गमक‘ ‘लहक‘ या ‘धनस‘ की उपस्थिति भी अत्यन्त नैसर्गिकता के साथ आ जाती थी. यदि हम उनके द्वारा गाये गये परम्परागत राग, मसलन ‘तोड़ी‘, ‘भैरव‘, ‘ललित‘, ‘मारवा‘, ‘पूरिया‘, ‘मालकौंस‘, ‘केदारा‘, ‘दरबारी‘, ‘मुल्तानी‘, ‘पूरवी‘, ‘अभोगी‘, ‘चन्द्रकौंस‘ आदि देखें तो यह बहुत स्पष्ट हो जायेगा कि इसमें वे अपनी ‘गांभीर्यमयी स्वर-सम्पदा से ‘मन्द्र’ का जिस तरह दोहन करते हैं, वह एकदम विशिष्ट है.

बहरहाल, उनकी गायकी के दो दशकों का अध्ययन करके यह बहुत साफ तौर से बताया जा सकता है कि उन्होंने, जिस तरह स्वयं का एक ‘आत्म-आविष्कृत‘ मार्ग शास्त्रीय गायकी की दुनिया बनाया, उसमें उनका शुरू से रहा आया आध्यात्मिक रुझान और बीन तथा सारंगी जैसे वाद्यों की नाद-निर्मिति को, तथा जिस तीन ‘शक्ति-त्रयी’ के शैलीगत वैशिष्ट से जोड़ा, वे थे- देवास के उस्ताद रजबअली खान, भिण्डी बाजार घराने के उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल करीम खाँ. हालाँकि, उस्ताद अमीर खाँ की गायकी के अध्येता अपने विश्लेषणों में यह भी कहते हैं कि बहरे वाहिद खाँ साहब की ‘गायकी‘ की कुछ खासियत और खसूयितों को भी उन्होंने निःशक होकर अपनाया है. ‘मेरुखण्ड‘ तानों के अभ्यास ने उन्हें ’सरगम’ और ’पलटों’ के प्रति इतना सहज कर दिया था कि उनकी गायकी से रसिकों के बीच एक अलग ही आनंद की सृष्टि हो जाती है.

(जारी)

Sunday, July 8, 2012

भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का


अमरूद वाला


-राजेश सकलानी 


लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गए

पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का
उनका छोड़ दिया रोना फैला

फ़र्श पर एक तीखी गंध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।

शहर देहरादून को कभी इससे पहले ऐसा जि़म्मेदार और मुहब्बत करने वाला कवि नहीं मिला होगा


कल से कबाड़खाने पर आप राजेश सकलानी की कविताएं पढ़ रहे हैं.अभी एकाध दिन उनकी अनूठी कविताओं से आप रू-ब-रू होते रहेंगे. उनके नवीनतम काव्य-संग्रह 'पुश्तों का बयान' का ब्लर्ब हमारे समय के बड़े कवि असद ज़ैदी ने लिखा है. पेश है -

राजेश सकलानी की कविताओं में एक निराली धुन, एक अपना ही तरीका और अनपेक्षित गहराइयाँ देखने को मिलती हैं। अपनी तरह का होना ऐसी नेमत (या कि बला) है जो हर कवि को मयस्सर नहीं होती, या मुआफि क नहीं आती। राजेश हर ऐतबार से अपनी तरह के कवि हैं। वह जब जैसा जी में आता है वैसी कविता लिखने के लिए पाबन्द हैं, और यही चीज़ उनकी कविताओं में अनोखी लेकिन अनुशासित अराजकता पैदा करती है।

उनकी कविता में एक दिलकश अनिश्चितता बनी रहती है—पहले से पता नहीं चलता यह किधर जाएगी। यह गेयता और आख्यानपरकता के बीच ऐसी धुंधली सी जगहों में अपनी ओट ढूँढ़ती है जहाँ से दोनों छोर दिखते भी रहें। ऐसे ठिकाने राजेश को खूब पता हैं। राजेश व्यक्तिगत और राजनीतिक के दरम्यान फासला नहीं बनाते।

वह मध्यवर्ग के उस तबके के दर्दमंद इंसान हैं जो आर्थिक नव-उदारीकरण और लूट के इस दौर में भी जन-साधारण से दूर अपना अलग देश नहीं बनाना चाहता। जो मामूलीपन को एक नैतिक अनिवार्यता की तरह—और इंसानियत की शर्त की तरह—बरतता है। वह इस तबके की मौजूदगी और अब भी उसमें मौजूद नैतिक पायेदारी को लक्षित करते रहते हैं। राजेश एक सच्ची नागरिकता के कवि हैं, और अपने कवि को अपने नागरिक से बाहर नहीं ढूँढ़ते।

शहर देहरादून को कभी इससे पहले ऐसा जि़म्मेदार और मुहब्बत करने वाला कवि नहीं मिला होगा। वह अपनी ही तरह के पहाड़ी भी हैं। पहाड़ी मूल के समकालीन कवियों में पहाड़ का अनुभव दरअसल प्रवास की परिस्थिति या प्रवासी दशा की आँच से तपकर, और मैदानी प्रयोगशालाओं से गुज़रकर, ही प्रकट होता है। इस अनुभव की एक विशिष्ट नैतिक और भावात्मक पारिस्थतिकी है जिसने बेशक हिन्दी कविता को नया और आकर्षक आयाम दिया है।

राजेश सकलानी की कविता इस प्रवासी दशा से मुक्त है, और उसमें दूरी की तकलीफ नहीं है। इसीलिए वे पहाड़ी समाज के स्थानीय यथार्थ को, और उसमें मनुष्य के डिसलोकेशन और सामाजिक अंतर्विरोधों को, सर्वप्रथम उनकी स्थानीयता, अंतरंगता और साधारणता में देख पाते हैं।

यह उनकी कविता का एक मूल्यवान गुण है। राजेश की खूबी यह भी है कि वह बड़े हल्के हाथ से लिखते हैं : उनकी इबारत बहुत जल्दी ही, बिना किसी जलवागरी के, पाठक से उन्सियत बना लेती है। यकीनन यह एक लम्बी तपस्या और होशमंदी का ही हासिल है।

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संग्रह की शीर्षक-कविता ये रही

पुश्तों का बयान

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे

हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़

हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं

सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए

तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन।

(पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार। पहाड़ों सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं)


गणित को जानकर गणित से बाहर हो जाने की सामर्थ्य - उस्ताद अमीर खां का संस्मरण - १



प्रभु जोशी का लिखा यह संस्मरण "अभिव्यक्ति" से साभार लिया गया है-

महान गायक उस्ताद अमीर खाँ - १ 

- प्रभु जोशी

स्त्राविन्स्की ने अपने समकालीनों की प्रतिभा की परख में संगीत-समीक्षकों के द्वारा होने वाली सहज-भूलों और इरादतन की गई उपेक्षाओं के प्रति टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘ज्यों ही हमारा महानता से साक्षात्कार हो, हमें उसका जयघोष करने में होने वाली हिचकिचाहटों से जल्द ही मुक्त हो लेना चाहिए.‘ लेकिन बावजूद इसके दुर्भाग्यवश कलाओं के इतिहास में उपेक्षा के आयुधों से की गयी हिंसा में हताहतों की एक लम्बी फेहरिस्त है. कहना न होगा कि भारतीय समाज में ऐसा खासतौर पर अ-श्रेणी की प्रतिभाओं के साथ कहीं ज्यादा ही हुआ है. बीसवीं शताब्दी के शास्त्रीय-संगीत के क्षेत्र में जिन कलाकारों के साथ में ऐसा हुआ, निश्चय ही उनमें महान् गायक उस्ताद अमीर खाँ का भी नाम शामिल है, जिनकी एक लम्बे समय तक उपेक्षा की गई.

उनकी प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के वलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे. एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें. लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये. उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खाँ, फैयाज खाँ और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे.

हालाँकि इन वरिष्ठ गायकों ने समुदाय से आग्रह करके उनको सुने जाने की ताकीद भी की लेकिन असंयत-श्रोता समुदाय ने उनके उस निवेदन की सर्वथा अनसुनी कर दी. इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर खाँ के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से नाथ दिया. वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता‘, उसके ‘स्वर‘ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना‘ भी है. नतीजतन, वे अपने गृह नगर इन्दौर लौट आये, जहाँ उनकी परम्परा और पूर्वजों की पूँजी दबी पड़ी थी. उनके पिता उस्ताद शाहगीर खाँ थे, जिनका गहरा सम्बन्ध भिण्डी बाजार घराने की प्रसिद्ध गायिका अंजनीबाई मालपेकर के साथ था. वे उनके साथ सारंगी पर संगत किया करते थे. पिता की यही वास्तविक ख्वाहिश भी थी कि उनका बेटा अमीर खाँ अपने समय का एक मशहूर सारंगीवादक बन जाये. उन्हें लगता था, यह डूबता इल्म है. क्योंकि, सारंगी की प्रतिष्ठा काफी क्षीण थी और वह केवल कोठे से जुड़ी महफिलों का अनिवार्य हिस्सा थी, लेकिन वे यह भी जानते थे कि मनुष्य के कण्ठ के बरअक्स ही सारंगी के स्वर हैं. और उनके पास की यह पूँजी पुत्र के पास पहुँच कर अक्षुण्ण हो जाएगी.

बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले. लेकिन, युवा गायक ‘अमीर‘ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था. वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था. बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था. नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया.

शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खाँ साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज्यादा नुकसान हो जायेगा.‘ नियमित रियाज उनका दैनंदिन आध्यात्मिक कर्म थी. कहते हैं कि वे सुबह से शाम तक केवल अपनी रियाज को समर्पित रहते थे. यह ‘गले‘ को नहीं, ‘स्वर‘ को साधने की निरन्तर निमग्नता थी. जाने क्यों मुझे यहाँ सहज रूप से सहसा देवास के महान् गायक उस्ताद रजब अली खाँ के एक कथन की स्मृति हो आयी. वे कहा करते थे ‘अमां यार, धक्का खाया, गाया-बजाया, भूखे रहे गाया बजाया, अमानुल-हफीज क्या कहें जूते खाये और गाया बजाया.‘ बाद इसके वे अपन वालिद की डांट-फटकार का हवाला दिया करते थे. ‘ तो मियाँ यही वजह है कि जब हम सुरलगाते हैं तो इस जिस्म में जिगर-गुर्दा एकमेक हो जाता है.’

कुल मिला कर यह रियाज के अखण्डता की बात ही थी. बहारहाल, अमीर खाँ साहब का सर्वस्व रियाज पर ही एकाग्र हो गया था. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा गायक हुआ होगा, जिसके लिए ‘रियाज‘ इतना बड़ा अभीष्ट बन गयी हो. उनके बारे में एक दफा उनके शिष्य रमेश नाडकर्णी ने जो एक बात अपनी भेंट में कही थी, वह यहाँ याद आ रही है कि ‘मौन में भी कांपता रहता था, खाँ साहब का कण्ठ. जैसे स्वर अपनी समस्त श्रुतियों के साथ वहाँ अखण्ड आवाजाही कर रहा है.’

बहरहाल, जब पिता उस्ताद शाहगीर के पास देवास से उस्ताद रजबअली खाँ और उस्ताद बाबू खाँ बीनकार आया करते थे. तब पूरे समय घर में ही एक संगीत समय बना रहता था. हरदम गहरे सांगीतिक-विमर्श की गुंजाइशें बनती रहती थीं. अमीर खाँ साहब को उस्ताद बाबू खाँ बीनकार के गुरु उस्ताद मुराद खाँ के उस प्रसंग की याद थी, जिसमें उस्ताद मुराद खाँ इतनी गहरी निमग्नता से बीन बजाते थे कि लगने लगता था, जैसे सब कुछ जो इस समय दृष्टिगोचर है, वह विलीन और विसर्जित हो गया है, बस केवल एक नाद स्वर रह गया है. उन्हें उनके बीन वादन की तन्मयता एक किस्म की आध्यात्मिकता-निमग्नता लगती थी. कहते हैं एक बार वे ठाकुर जी के सामने गिरधर लालजी महाराज की हवेली में ‘बीन-वादन‘ कर रहे थे कि अचानक उनके उस निरन्तर प्रवाहमान-स्वर को किसी के अचानक द्वारा रोक दिया गया. तभी बीन वादन के रुकते ही अचानक ठाकुरजी की मूर्ति के समस्त आभूषण और शृंगार गिर गये.‘ यह स्वर और ईश्वर को अंतरंगता का प्रमाण था. पंडित गोस्वामी गोकुलोत्सव महाराज ने एक दफा बातचीत में बताया था कि ‘उस्ताद अमीर खाँ साहब अपनी दस वर्ष की अवस्था से लेकर सत्रह वर्ष की अवस्था तक, उनके पिताश्री महाराज श्री के पास आया करते थे. उन दिनों वाद्यों की साज-संभाल के लिए उस्ताद बाबू खाँ साहब को चाँदी के दो कलदार दिये जाते थे, और बालक अमीर खान को चवन्नी मिलती थी.‘ बालक अमीर को उस्ताद बाबूखाँ बहुत प्यार करते थे.

युवा गायक अमीर खाँ को संवेदना के स्तर एक और प्रसंग ने ठेस पहुँचायी थी, जिसने भी उन्हें ‘स्वयं को स्वयं पर‘ एकाग्र करने की रचनात्मक-विवशता पैदा की. प्रसंग यों है कि जब एक बार अमीर खाँ, उस्ताद नसीरुद्दीन डागर के ध्रुपद गायन को सुनने गये तो खाँ साहब ने गाते अपना गाना रोक दिया. इस आशय से कि कहीं अमीर खाँ उनकी ध्रुपद की गायन शैली के रहस्यों को ग्रहण न कर ले. युवा अमीर खाँ को इस घटना के भीतर ही भीतर कई दिनों तक अन्तरात्मा में आहत किया. कारण कि तब वे अधिकांशतः संगीत-संसार के अत्यन्त उदार और अवढरदातियों के बीच रह रहे थे, जो उनके वालिद उस्ताद शाहगीर खाँ साहब के पास मित्रता के कारण अक्सर ही आते रहते थे. क्योंकि, उस्ताद शाहमीर खाँ साहब होल्कर रियासत के दरबार से जुड़े हुए थे. उनके यहाँ ‘किराना-घराना‘ के उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ (जिन्हें बहरे वहीद खाँ के नाम से भी चिह्नित किया जाता है) तथा अंजनी बाई मालपेकर भी आती थीं. लेकिन, उन्हें वाद्य के स्तर पर लिये जाने वाले ‘आलाप’ से आसक्ति थी और गायन के लिए वे उसे ही कहीं अपने लिए ज्यादा बड़ी और सृजनात्मक चुनौती मानते थे. बाद में उन्होंने अपनी ‘आलापी‘ के लिए उस्ताद मुराद खाँ के ‘बीन वादन‘ की शैली को ‘आत्मस्थ‘ किया. क्योंकि, उनकी बीन ‘अति-विलम्बित‘ का वह रहस्यात्मक-स्वर उत्पन्न करती थी, जो गले में बैठकर और अधिक रहस्यात्मक बन सकता था. उस्ताद मुराद खाँ ने अपने वाद्याभ्यास से सामान्य बीन-वादन में ‘आलापचारी‘ का ऐसा चमत्कार पैदा किया था कि संगीतज्ञ विस्मय से भर जाते थे कि यह कैसा मुसलसल-आलाप है?

(जारी)

Saturday, July 7, 2012

वे मेरी ओर देखेंगे तो ज़रूर पहचानेंगे



पाकिस्तान से खबर

-राजेश सकलानी 

वो जो पाकिस्तान महिला बल की टुकड़ी में दिखाई दी
शायद उसे मैं जानता था
उसने जोर से आवाज़ लगाई गुस्से के अभिनय में
चेहरे की मांसपेशियां खींचती हुईं ठीक से पहचान में आईं

मुझे छोटी सी हंसी आई
देर तक न मिलो तो भाई-बहन भी एक-दूसरे की
शक्लें भूल जाते हैं

पीछे के दृश्य में कुछ घर और पहाडियां हैं
हरे-भरे में बंदूकें भी थोड़ा मासूम लगती हैं

उधर के बारे में जो ख़बरें हैं उनमें छिपा यह दृश्य
समझो बस गलती से बचा रह गया है.


वे मेरी ओर देखेंगे तो ज़रूर पहचानेंगे. 

जैसे धूप टोकरी से कहती हो



गेंद की तरह


- राजेश सकलानी 

कौन देश से आई हो
किसके हाथों उपजाई हो
गदराई हुई मटर की फलियो
जैसे धूप टोकरी से कहती हो

मैं लगा छीलने फलियाँ
एक दाना छिटक कर गया यहाँ-वहाँ
लगा ढूँढने उसे मेज़ के पीछे
वह नटखट जैसे छिपता हो

फिर सोचा एक ही दाना है
लगा दूसरी फलियों को छूने
लेकिन नहीं, बार-बार वह आँखों में कौंधता

आखिर गया तो गया कहाँ
वह कसा कसा हरियाला
मिल जाय तुरत उसे छू लूं

कागज़, किताब जूते सब उठा पलट कर
मैं लगा देखने

एक ओर मेरा समय
दूसरी ओर मटर के दाने का इतराना

ज्यों-ज्यों  आगे लगा काम में
लगता  जैसे अभी-अभी वह गेंद की तरह
टप्पा खा कर उछला है.

मेघ मेघ - पंडित गोकुलोत्सव महाराज


पंडित गोकुलोत्सव महाराज की वाणी में यह रचना मैं पिछले दो सालों से लगातार यहाँ बरसातों में लगाता आ रहा हूँ. इसी क्रम को निरंतर बनाए रखते हुए एक बार पुनः वही कम्पोजीशन. मूल बंदिश में पंडिज्जी ने अपनी तरफ से कुछ पंक्तियाँ जोड़ी हैं. पंडिज्जी ने अपने जीवनकाल में हज़ार से अधिक बंदिशें रची हैं. वे "मधुरपिया" उपनाम से इन रचनाओं को करते आये हैं. ध्यान से सुनने पर इस कम्पोजीशन के आख़िरी में भी आप उनके इस उपनाम को सुन सकते हैं -

Friday, July 6, 2012

राग मेघ अब सुनिए उस्ताद फ़तेह अली खान से


राग मेघ की कड़ी को आगे बढाते हुए आज अब सुनिए उस्ताद फ़तेह अली खान से बारिश का यह राग -

बारिशों पर परवीन शाकिर की दो और नज्में


मौसम


चिड़िया पूरी तरह भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है


फ़ोन

मैं क्यों उसको फ़ोन करूं
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी

राग मेघ में तराना - उस्ताद अमीर खान साहेब


उस्ताद अमीर खान से सुनिए राग मेघ में तराना. बेहतरीन रचना है -

Thursday, July 5, 2012

देखो माई सावन दूल्हे आयो


बारिशों की खास पेशकश के रूप में राग मेघ मी सीरीज़ जारी है. शुभा मुद्गल के स्वर में राग मेघ में एक रचना  -

सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये

परवीन शाकिर की एक ग़ज़ल पेश है -


बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गये

बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये

जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये

लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये

सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गये

जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गये

साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गये

उस्ताद छोटे गुलाम अली खान से सुनिए राग मेघ


क़व्वाल बच्चा घराने से ताल्लुक रखने वाले उस्ताद छोटे गुलाम अली खान से सुनी जाए राग मेघ की एक और कम्पोजीशन -

Wednesday, July 4, 2012

बरखा रितु आई - उस्ताद अमीर खान


बारिशों के स्वागत में राग मेघ की सीरीज़ में अगली पेशकश के रूप में उस्ताद अमीर खान साहेब की दिव्य वाणी में सुनी जाए एक  कम्पोजीशन -

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !


बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
  

-परवीन शाकिर 

बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की !
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी !

और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे.

उस्ताद लताफ़त हुसैन खान की आवाज़ में राग मेघ


खानदानी संगीतकारों की परंपरा से सम्बन्ध रखने वाले उस्ताद लताफ़त हुसैन खान ने बतौर एक गायक और उस्ताद अपने आप को एक घरानेदार संगीतकार साबित किया. वे बहुत धार्मिक थे, आत्मगर्व से कोसों दूर और सदा तबीयत. हर किसी को कभी भी कुछ भी दे देने को तत्पर उस्ताद की ये तमाम खूबियाँ उनके संगीत में भी नज़र आती हैं.

१२ दिसंबर १९२० को जन्मे लताफत आगरा घराने के गायक अल्ताफ हुसैन खान के सबसे छोटे बेटे थे. उस्ताद तसद्दुक हुसैन खान उनके पहले गुरु बने. इसके बाद लंबे समय तक उन्होंने बंबई रहकर अपने बड़े भाई उस्ताद खादिम हुसैन से सीखा. उन्नीस सौ चालीस की दहाई में वे बड़ौदा अपने चचाजान उस्ताद फैयाज खान के यहाँ बाकायदा तालीम हासिल करने पहुंचे. अपने ही घराने के वरिष्ठ संगीतकार उस्ताद विलायत हुसैन खान से भी उन्हें शिक्षा मिली.

लताफत एक तरह से उस्ताद फैयाज खान के संगीत के उत्तराधिकारी बने. अपनी बुलंद मर्दाना आवाज़ और मज़बूत आलापों के लिए जाने जाने वाले उस्ताद लताफत आगरा घराने की मुख्यधारा से कभी विरत नहीं हुए.

संगीत के क्षेत्र में तमाम बड़े सम्मान हासिल कर चुके उस्ताद की मृत्यु ११ दिसम्बर १९८६ को हुई.

आज उनकी आवाज़ में राग मेघ -


Tuesday, July 3, 2012

अपने चिंकी तिब्बती चेहरे के अलावा मैं भारतीय ज़्यादा हूँ


तिब्बत के युवा विद्रोही कवि तेनजिन त्सुंदे की कुछेक कविताएं आप कबाड़खाने में पहले पढ़ चुके हैं. आज पेश है उनका लिखा एक लेख जिसे २००१ का आउटलुक-पिकाडोर नॉन-फिक्शन अवार्ड मिला था. निर्णायकों ने इस निबंध को “छू लेने वाली सादगी” के कारण चुना था “जिसकी मदद से लेखक ने इस संसार में तिब्बती होने की त्रासदी को समझाया था, और एक दूसरे तरीके से यह दुनिया भर में फैले शरणार्थियों के दर्द को ज़बान देने जैसा था.”

मेरी किस्म का निर्वासन

-तेनजिन त्सुंदे


                                                                                  “अपने चिंकी तिब्बती चेहरे के अलावा
                                                                                   मैं भारतीय ज़्यादा हूँ.”

आप मुझ से पूछिए कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ और मेरे पास कोई उत्तर नहीं होगा. मुझे लगता है मैं कहीं का नहीं हूँ, न कभी मेरा कोई घर ही रहा है. मेरा जन्म मनाली में हुआ, पर मेरे माँ-बाप कर्नाटक में रहते हैं. हिमाचल के दो स्कूलों में पढाई करनेके बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए मद्रास, लद्दाख और बंबई गया. मेरी बहनें वाराणसी में रहती हैं जबकि भाई धर्मशाला में. मेरा रजिस्ट्रेशन प्रमाणपत्र (भारत में मेरे रहने का परमिट) बतलाता है कि मैं भारत में रह रहा एक विदेशी हूँ और मेरी नागरिकता तिब्बती है. लेकिन दुनिया के राजनैतिक मानचित्र पर तिब्बत कहीं भी नहीं है, मुझे तिब्बती बोलना अच्छा लगता है लेकिन मैं अंगरेज़ी में लिखना पसंद करता हूँ. मुझे हिन्दी गाने गाना अच्छा लगता है पर मेरी लय और उच्चारण बुरी तरह खराब होते हैं. जब-तब कोई आकर मुझसे पूछता है कि मैं कहाँ से आया हूँ. ... मेरे जिद्दी उत्तर “तिब्बत” से सिर्फ भवें ही नहीं उठा करतीं ... मुझ पर सवालों, वक्तव्यों और संदेहों और सहानुभूतियों की बाढ़ उमड़ आती है. लेकिन उनमें से एक भी इस सादा वास्तविकता को दिल से नहीं समझ सकता कि दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जिसे मैं अपना घर कह सकूं और यह कि इस संसार में मैं हमेशा सिर्फ एक “राजनैतिक शरणार्थी” रहूँगा.

जब हम हिमाचल प्रदेश के एक तिब्बती स्कूल में पढते थे हमारे अध्यापक हमें तिब्बत पर हो रहे अत्याचारों की कहानियाँ सुनाया करते थे. हमें अक्सर बताया जाता था कि हम सारे शरणार्थी थे और हमारे माथों पर एक बड़ा “R” खुदा हुआ था. वह सब हमारी समझ में नहीं आता था और हम यह चाहते थे कि अध्यापक अपनी बात पूरी करे और हमारे तेल चुपड़े बालों समेत हमें धूप में खड़ा न रखे. खासे लंबे समय तक मैं यकीन करता रहा कि हम खास तरह के लोग हैं जिनके माथों पर “R” खुदा हुआ है. अपने स्कूल परिसर के पास रह रहे बाकी भारतीय परिवारों से हम लोग अलग नज़र आते थे; वह बूचड़ परिवार जो हर सुबह इक्कीस बकरियां काटा करता था (अधकटी गर्दन वाली बकरियां जब बां-बां करती थीं हम टिन की उनकी छत पर पत्थर मारा करते थे.) वहाँ पड़ोस में पांच परिवार और थे; उनके पास सेबों के बगीचे थे और ऐसा लगता था वे अलग सिर्फ अलग तरीकों के सेब ही खाया करते थे. स्कूल में हमने अपने सिवाय ज़्यादा लोग नहीं देखे सिवाय कुछ इन्जियों (अंग्रेजों) के जो जब-तब आया करते थे. स्कूल में शायद जो पहली बात हमने सीखी वह ये थी कि हम लोग शरणार्थी थे और यह हमारा देश न था.

झुम्पा लाहिड़ी की “इंटरप्रेटर ऑफ मैलेडीज़” अभी मैंने पढ़ना बाकी है. जब एक पत्रिका में उन्होंने अपनी किताब के बारे में बताया तो कहा कि उनका निर्वासन उनके साथ बड़ा हुआ. और यही मुझे अपनी कहानी भी लगती है. हाल की तमाम हिन्दी फिल्मों में से मैंने एक फिल्म का बहुत इंतज़ार किया – जे. पी. दत्ता की “रिफ्यूजी”. फिल्म में एक दृश्य था जो हमारे दुःख को कितने अच्छे तरीके से व्यक्त करता है – सीमा के उस पार से एक पिता अपने परिवार को पड़ोसी मुल्क में लेकर आया हुआ है. उनका जीवन किसी भी तरह की सुविधाओं से वंचित है. वे किसी तरह अपने को बचाए हैं. एक के बाद एक घटनाएं घटती हैं और आखिरकार अधिकारीगण उसे कैद कर लेते हैं और उसकी पहचान के बारे में सवाल करते हैं. वह आंसुओं में टूट पड़ता है – “वहाँ हमारा जीना मुश्किल हो गया था, इसलिए हम यहाँ आए, अब यहाँ भी ... क्या रिफ्यूजी होना गुनाह है?” सेना का अधिकारी हक्का-बक्का रह जाता है.

कुछ महीने पहले न्यूयॉर्क में तिब्बतियों का एक समूह संकट में पड़ गया था. समूह में ज़्यादातर नौजवान थे. एक तिब्बती युवा की मौत हो गयी थी और अंतिम संस्कार करना किसी को नहीं आता था. हर कोई एक दूसरे को देख रहा था. अचानक उन्हें लगा कि वे घर से कितनी दूर हैं – 

                                                                                             “ ... और जहां इतने सालों से
                                                           हमारे न दफनाए गए मृतक हमारे साथ  भोजन करते हैं
                                                           पीछा करते हैं हमारे शयनकक्षों के दरवाजों से.”


                                                                                                                         - अबेना पी. ए. बूसिया


एशिया से पश्चिम जाने वाले किन्हीं और आप्रवासियों की तरह जीवनयापन के लिए तिब्बती शरणार्थी भी वहाँ के बेहद मशीनी और प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में कड़ी मेहनत करते हैं. एक बूढा आदमी नौकरी मिलने पर सिर्फ इस बात से खुश हुआ कि अब वह अपने परिवार के सीमित संसाधनों पर बोझ नहीं बनेगा. उसका काम था बीप की आवाज़ आने पर एक बटन दबाना. दिन भर ऐसा छोटा सा काम करना उसे बड़ा मनोरंजक लगा. हौले हौले अपनी प्रार्थना दोहराते हुए हाथों में पूजा की माला लिए वह दिन भर वहीं बैठा रहता. हाँ बीप बजते ही वह बटन दबा दिया करता. (उसे माफ करें, उसे नहीं पता था वह क्या कर रहा था.) कुछ दिन बाद उत्सुकतावश उसने अपने सहकर्मी से उस बटन के बारे में पूछा. उसे बताया गया कि जब भी वह बटन दबाता था एक मुर्गी की गर्दन काट दी जाती थी. उसने तुरंत वह नौकरी छोड़ दी.

अक्टूबर २००० में सारा संसार सिडनी ओलिम्पिक से जुड़ा हुआ था. हॉस्टल में हम सारे टीवी से निगाहें गडाए ओपनिंग सेरेमनी शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे. आधा समय बीतने के बाद मुझे अनुभव हुआ कि मैं कुछ भी साफ़ नहीं देख पा रहा था और मेरा चेहरा गीला था. न, न, ऐसा नहीं था कि मुझे उस समय सिडनी में होने की इच्छा हो रही थी या माहौल ऐसा था या खेलों का जज्बा. मैंने अपने आस पास को दोस्तों को समझाने की भरपुर कोशिश की. लेकिन वे समझ ही नहीं सके. समझना शुरू तक नहीं कर सके ... कर भी ऐसे सकते थे? वे एक देश के नागरिक थे. उन्हें अपने देश के छूट जाने का विचार तक नहीं करना पड़ा. उन्हें कभी नहीं रोना पड़ा अपने देश के लिए. उनके पास अपनी एक जगह थी जहां के वे थे – वह जगह न सिर्क दुनिया के नक़्शे में थी, ओलिम्पिक खेलों में भी थी. उनके देशवासी गर्व के साथ परेड कर सकते थे, अपनी नागरिकता के प्रति विश्वस्त, अपनी राष्ट्रीय पोशाकों में और ऊंचे ऊंचे उनके झंडे. मैं उनके वास्ते कितना खुश था.

                                                                               “रात आती है, पर तुम्हारे सितारे कहाँ होते हैं”

जब मैं खामोश था, डूबा हुआ आंसुओं में, नेरुदा बोले मेरे बदले. बाकी कार्यक्रम को शान्ति से देखता हुआ मैं उसांसा और भारी महसूस कर रहा था. वहाँ सीमाहीनता की बात हो रही थी और खेलों के जज्बे की मदद से भाईचारा बढाने की. अपने घर के आराम में से वे एक मानवता के नज़दीक आने और सीमाओं को नकारने की बातें कर रहे थे. मैं, एक शरणार्थी, वापस घर जाने के सिवा किस बारे में बात कर सकता हूँ?

मेरे लिए घर एक वास्तविकता है. वह वहाँ पर है और मैं उस से बहुत दूर हूँ. यह वो घर है जिसे मेरे दादा-दादी और पिता पीछे तिब्बत में छोड़ आये थे. यह वो घाटी है जहां मेरे पोपो-ला और मोमो-ला के खेत थे और बहुत से याक, जहां मेरे माँ-पिता अपने बचपन में खेला करते थे. अब मेरे माँ-पिता कर्नाटक के एक रिफ्यूजी कैम्प में रहते हैं. उन्हें एक मकान और जोतने को खेत मिला हुआ है. वे अपनी सालाना फसल मकई उगाते हैं. कुछ दिनों की छुट्टियों में मैं उन्हें मिलने हर साल दो बार जाया करता हूँ. उनके साथ रहते हुए मैं अक्सर उनसे तिब्बत के अपने घर की बाबत सवालात करता हूँ. वे मुझे उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन के बारे में बताते हैं जब वे चंग्थांग के हरे चरागाहों में, अपने याकों और भेड़ों को चराते हुए खेल रहे थे, जब उन्हें सब छोड़ छाड कर गाँव से भागना पड़ा था. हर कोई गाँव छोड़ कर भाग रहा था और लोग कह रहे थे कि चीनी लोग रास्ते में पड़ने वाले हर किसी का कत्लकर दे रहे हैं. मठों पर बम फेंके जा रहे थे, लूटपाट और अफरातफरी का माहौल था. सुदूर गाँवों में धुंआ देखा जा सकता था और पहाड़ों पर लोगों की चीखें थीं. जब उन्होंने वास्तव में अपना गाँव छोड़ा उन्हें हिमालय से होकर भारत में घुसना पड़ा – और वे तब बच्चे ही थे. अनुभव उत्तेजनापूर्ण था पर भयभीत करने वाला भी.

भारत में उन्होंने मासुमारी, बीर, कुल्लू और मनाली में पहाड़ी सड़क-मजदूरों की तरह काम किया. मनाली से लद्दाख जाने वाली सैकड़ों किलोमीटर लंबी, दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित कोलतार की सड़क का निर्माण तिब्बतियों ने किया था. मेरे माँ-पिता बताते हैं कि उन शुरुआती महीनों में भारत आए तिब्बतियों में से सैकड़ों मर गए थे. गर्मी उनसे बर्दाश्त नहीं होती थी और जब मानसून आया उनका स्वास्थ्य कमज़ोर था. लेकिन सड़क किनारे कैम्प लगा रहा – उसकी कई पालियां चला करती थीं. यात्रा के दौरान सड़क किनारे एक जुगाड़ तम्बू के भीतर मेरा जन्म हुआ. “बच्चे के जन्म को दर्ज करने का वक्त किसके पास था जब हर कोई भूखा और थका हुआ था” – मैं जब भी अपनी माँ से अपना जन्मदिन पूछता हूँ वह यही जवाब देती है. जब मेरा स्कूल केन दाखिला हुआ तब मुझे एक जन्मदिन प्राप्त हुआ. तीन अलग अलग दफ्तरों में तीन अलग अलग दस्तावेज़ बनाए गए. अब मेरे पास जन्म की तीन तारीखें हैं. मैंने आज तक अपना जन्मदिन नहीं मनाया

हमारे खेत में मान्सून का स्वागत होता है पर हमारे मकान में नहीं. चालीस साल पुरानी खपरैल की छत झुकती जाती है और अपने मकान में हम बाल्टियाँ, बर्तन, चम्मच और गिलासों के लेकर काम में जुट जाते हैं और बारिश के देवताओं की भेजी कृपा इकठ्ठा करते हैं, जबी कि पा-ला छत पर चढ़कर उसकी मरम्मत में जुट जाते हैं. अच्छी एस्बेस्टस की चादरों की मदद से पा-ला कभी भी छत की तरीके से मरम्मत करने की नहीं सोचते. वे कहते हैं – “हम जल्द ही तिब्बत लौटेंगे. वहाँ हमारा अपना घर है.” हमारी गौशाला में कुछ मरम्मत ज़रूर हुई है, फूंस को हर साल बदला जाता है. और कीड़ों के खाए हुए लकड़ी के खम्भे बदले जाते हैं.

जब तिब्बती लोग कर्नाटक में सबसे पहले बसे, उन्होंने फैसला किया था कि वे सिर्फ पपीते और सब्जियां उगाएंगे. उन्होंने कहा कि महान दलाई लामा के आशीर्वाद से वे हद से हद दस सालों में वापस घर पहुँच जाएंगे. लेकिन अब तो अमरुद के पेड़ भी सूख गए हैं. पिछवाड़े के बरामदे में दबाए गए आम के बीज अब फल देने लगे हैं. खजूर के पेड़ हमारे निर्वासन के घरों के कंधों से कंधे मिलाने लग चुके हैं. बूढ़े लोग धूप सेकते, मक्खन वाली चाय (छंग) पीते, पूजा वाला खोर हिलाते हुए हुए पुराने दिनों की याद किया करते हैं जबकि जवान लोग दुनिया भर में बिखरे हुए हैं – अध्ययनरत या काम करते हुए. यह इंतज़ार जैसे अनंतता को पुनर्परिभाषित करता है –

                                                                                  छत पर घास
                                                                                 फलियों में कल्ले फूटे
                                                                                 और बेलें दीवारों पर चढ़ने लगीं,
                                                                                 खिड़की से होकर रेंगते आने लगे मनीप्लांट,
                                                                                 ऐसा लगता है हमारे घरों की जड़ें उग आयी हों.

                                                                                 बाड़ें अब बदल चुकी हैं जंगल में.
                                                                                  अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
                                                                                  कि कहाँ से आये थे हम?


धर्मशाला में हाल ही में मेरी मुलाक़ात एक दोस्त, दावा से हुई. चीन की जेल से छूटकर वह कोई दो साल पहले भारत आया था. उसने मुझे अपने जेल-अनुभव बतलाए. उसका भाई जो एक महंत था, “तिब्बत को आज़ाद करो” के पोस्टर लगाने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था. पुलिस द्वारा यातना दी जाने पर उसने दावा का नाम ले लिया. दावा को बिना मुक़दमा चलाए चार सौ बाईस दिन टक जेल में रखा गया. तब वह कुल छब्बीस साल का था. उसे कम उम्र में ही तिब्बत से बीजिंग ले जाया गया जहां उसकी औपचारिक शिक्षा होनी थी. वह अब भी चीनियों के उन प्रयासों की मजाक बनाया करता है जिनके माध्यम से वे तिब्बतियों पर साम्यवादी विचार लादने के प्रयास किया करते हैं. शुक्र है उसके मामले में चीनियों के प्रयास नाकाम रहे.

दो साल पहले, मेरे एक नज़दीकी स्कूली मित्र को एक ऐसा पत्र मिला जिसने उसके सामने जीवन की सबसे मुश्किल स्थिति पैदा कर डाली. पत्र उसके चाचा का था. पत्र के अनुसार उसके माँ-पिता को, जो तिब्बत में रह रहे थे, नेपाल में दो माह की तीर्थयात्रा करने की अनुमति मिल गयी है. धर्मशाला से अपने भाई को लेकर ताशी नेपाल अपने माता-पिता से मिलने चल दिया, बीस साल पहले भागकर भारत आने के बाद से वे अपने माँ-पिता से नहीं मिले थे. जाने से पहले ताशी ने मुझे लिखा – “त्सुंदे, मुझे नहीं पता कि मैं खुश होऊं किमैं अपने माँ-पिता से मिलने जा रहा हूँ या दुखी होऊं कि मुझे याद ही नहीं वे कैसे दीखते थे ... जब मुझे मेरे चाचा के साथ भारत भेजा गया तब मैं बच्चा था, अब बीस साल बीत चुके हैं.” हाल ही में उसे नेपाल में अपने चाचा से एक और चिठ्ठी मिली. चिठ्ठी के मुताबिक़ एक महीबे पहले तिब्बत में उसकी माँ का देहांत हो गया था.

मैंने देखा था किस तरह दीवार टूटने पर पूर्वी और पश्चिमी जर्मन लोग एक दूसरे के गले लग कर रो रहे थे. उत्तर और दक्षिण में विभाजित करने वाली सीमा के हट जाने पर कोरियाई लोग किस कदर खुश नज़र आ रहे थे. मुझे भय है तिब्बत के बिछड़े परिवार कभी नहीं मिलेंगे. मेरे दादा-दादी के भाई-बहन तिब्बत में ही छूट गए थे. मेरे पोपो-ला की मृत्यु कुछ साल पहले हुई थी. क्या मेरी मोमो-ला कभी भी अपने बहन-भाइयों को देख सकेंगी? क्या हम कभी साथ हो सकेंगे जब वह मुझे हमारा घर और हमारे खेत दिखा सके?

हिरना समझ बूझ बन चरना के बहाने एक रीपोस्ट


जुर्त, फुर्त, सुर्त, हाथ का सच्चा, बात का पक्का, लंगोटी का सच्चा यानी "हिरना समझ बूझ बन चरना"

कुमार गन्धर्व जी पर लिखी वसन्त पोतदार की अद्भुत संस्मरणात्मक पुस्तक 'कुमार गन्धर्व' (मेधा बुक्स, वर्ष २००५) को पढ़ना एक अविस्मरणीय अनुभव रहा है मेरे लिए.

किताब के एक हिस्से से कुछ दिलचस्प पंक्तियां आपके लिए:


चण्डालसिंह: हिमालय की गोद में एक देहात में रहनेवाले चण्डालसिंह नामक एक आदमी ने परिपूर्ण और सुलक्षण व्यक्ति की व्याख्या करते हुए मुझ से कहा था - 'जुर्त, फुर्त, सुर्त, हाथ का सच्चा, बात का पक्का, लंगोटी का सच्चा -ऐसा स्वभाव हो तो आदमी सच्चा आदमी.'

कुमार जी को देखते और मिलते हुए मुझे सौ वर्ष के चण्डालसिंह की याद हमेशा आती थी.

जुर्त - यानी हिम्मत -ज़ुर्रत. संगीत क्षेत्र में उनका काम और उनके व्यक्त किये हुए विचार - इनमें कुमार जी का असीम साहस हम आगे चलकर देखेंगे.

फुर्त - यानी चापल्य. संगीत छोड़कर उन्होंने उम्र भर कुछ भी किया नहीं. समय भी नहीं मिला. हां गायकी में उनका चापल्य अतुल था.

सुर्त - यानी अच्छी स्मरणशक्ति. गायक-वाद्कों की स्मरणशक्ति अच्छी होती ही है. कुमार जी अपनी उम्र के बारहवें साल से भारत - भर के गायकों के गीत मास्टर जी के यहां सुनते आए. बाद में अच्छे गुरु भी बहुत मिलेऔर उन्होंने बिना मांगे ही अपनी बंदिशें कुमार जी को दे दीं. उनके पास चीज़ों (रागों और बन्दिशों) का विशाल भंडार था.

हाथ का सच्चा यानी ईमानदार. पैसे के मामलों में ईमानदारी. यहां कुमार जी सौ फ़ीसदी सच्चे थे. पैसे के व्यवहार में इतना सच्चा कलाकार दिखाई देना मुश्किल है.

बात का पक्का यानी अपनी ज़ुबान पालने वाला. मैंने बड़े-बड़े नायक-वादक देखे हैं जो बात के पक्के नहीं हैं. पारिश्रमिक की आधी रकम पहले लेकर भी ऐन वक़्त किसी बहाने से नहीं आए. मगर कुमार जी ने कभी ऐसा नहीं किया. बीमारी के कारण वे कुछ कार्यक्रम नहीं कर सके पर इससे आयोजकों को दुःख नहीं हुआ. कुमार जी को ही हुआ. एक बार बोले -"तीन महीनों से प्रकृति मुझ पर नाराज़ है. मुंबई, कोल्हापुर, दिल्ली वगैरह स्थानों के कार्यक्रम नहीं कर सका. संयोजकों को परेशानी और हमारी बदनामी".

चण्डालसिंह की आख़िरी शर्त 'लंगोटी का सच्चा'. सचमुच बहुत कठिन है. कुमार एक सुदर्शन कलाकार. हमेशा चाहने वालों से घिरा हुआ एक प्रतिभावंत और जनप्रिय गायक. मगर पूरी ज़िन्दगी में कुमार जी के नाम पर एक भी, सीधे-सटक शब्दों में कहा जाए तो, एक भी 'लफ़ड़ा' नहीं. कुमार जी कहते -"मेरी ज़िन्दगी में तीन लड़कियां आईं. दो मराठी और एक दिल्ली की पंजाबी. भानु ने बाज़ी मार ली."

कुमार जी के स्वभाव और व्यक्तित्व की यह थी एक झलक. १९४६ में उनकी गायकी परिवर्तित हुई, स्वतंत्र हुई. उसी प्रकार १९६१ में उनके स्वभाव में भी परिवर्तन आया. वह अस्मिताबिन्दु आखिर तक चमकता रहा. "हम गानेवाले हैं" - यह था वह अस्मिताबिन्दु! उसे ध्यान में रखते हुए ही हमें आगे बढ़ना है. अब बारह वर्षीय कुमार के साथ देवधर गुरुजी के गुरुकुल में चलते हैं ...

प्रस्तुत है कुमार जी की वाणी में कबीर दास जी की रचना. इसे सुनते हुए कई बार ऐसा भी लगता है कि कुमार जी (या कि कबीरदास जी) सुनने वाले को चण्डालसिंह की शर्तों को लगातार याद कराते चल रहे हैं कि "हिरना समझ बूझ बन चरना":

Monday, July 2, 2012

बारिश, गिरो ना !


रचना जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा की है. अनुवाद खाकसार का. चित्र वरिष्ठ कबाड़ी रवीन्द्र व्यास का बनाया हुआ -

बारिश, गिरो ना !

गिरो ना बारिश
उन बिना प्यार की गई स्त्री पर
गिरो ना बारिश
अनबहे आंसुओं के बदले
गिरो ना बारिश गुपचुप

गिरो ना बारिश
दरके हुए खेतों पर
गिरो ना बारिश
सूखे कुंओं पर
गिरो ना बारिश जल्दी

गिरो ना बारिश
नापाम की लपटों पर
गिरो ना बारिश
जलते गांवों पर
गिरो ना बारिश भयंकर तरीके से

गिरो ना बारिश
अनंत रेगिस्तान के ऊपर
गिरो ना बारिश
छिपे हुए बीजों पर
गिरो ना बारिश हौले-हौले

गिरो ना बारिश
फिर से जीवित होते हरे पर
गिरो ना बारिश
चमकते हुए कल की खातिर
गिरो ना बारिश आज!

मिर्ज़ा अब्दुल बेग और उनके बावर्ची -


ज़िया मोहीउद्दीन की आवाज़ में उर्दू गद्य के बेजोड़ नगीने आप कबाड़खाने में सुनते रहे हैं. मुश्ताक़ अहमद यूसुफी की रचना "इक्तेबास". आवाज़ एक बार फिर से उस्ताद ज़िया मोहीउद्दीन की -