
जिस रात बांध टूटा
और शहर में पानी घुसा
तुमने ख़बर तक नहीं ली
जैसे तुम इतनी बड़ी हुई बग़ैर इस शहर के
जहाँ तुम्हारी पहली रेल थी
पहली फिल्म की रोशनी
आया मौसम खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका जमा था रोबोदाब
वहीं गंदे पर उगा देता हुआ बुत्ता
उठाकर सर शिखर से अकडकर बोला कुकुरमुत्ता
अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट;
बहुतों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, खिलाया जाडा घाम;
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर पर रखकर वह पीछे को भगा,
जानिब औरत के लडाई छोडकर,
टट्टू जैसे तबेले को तोडकर।
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा,
इसलिए साधारणों से रहा न्यारा,
वरना क्या हस्ती है तेरी, पोच तू;
काँटों से भरा है, यह सोच तू;
लाली जो अभी चटकी
सूखकर कभी काँटा हुई होती,
घडों पडता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिये तूझको सदा मेहरुन्निसा
जो निकले इत्रोरुह ऐसी दिसा
बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा,
जहाँ अपना नही कोई सहारा,
ख्वाब मे डूबा चमकता हो सितारा,
पेट मे डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ़्ज प्यारा।
देख मुझको मै बढा,
डेढ बालिश्त और उँचे पर चढा,
और अपने से उगा मै,
नही दाना पर चुगा मै,
कलम मेरा नही लगता,
मेरा जीवन आप जगता,
तू है नकली, मै हूँ मौलिक,
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक,
तू रंगा, और मै धुला,
पानी मैं तू बुलबुला,
तूने दुनिया को बिगाडा,
मैने गिरते से उभाडा,
तूने जनखा बनाया, रोटियाँ छीनी,
मैने उनको एक की दो तीन दी।
चीन मे मेरी नकल छाता बना,
छत्र भारत का वहाँ कैसा तना;
हर जगह तू देख ले,
आज का यह रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मै ही सुदर्शन चक्र हूँ,
काम दुनिया मे पडा ज्यों, वक्र हूँ,
उलट दे, मै ही जसोदा की मथानी,
और भी लम्बी कहानी,
सामने ला कर मुझे बैंडा,देख कैंडा,
तीर से खींचा धनुष मै राम का,
काम का
पडा कंधे पर हूँ हल बलराम का;
सुबह का सूरज हूँ मै ही,
चाँद मै ही शाम का;
नही मेरे हाड, काँटे, काठ या
नही मेरा बदन आठोगाँठ का।
रस ही रस मेरा रहा,
इस सफ़ेदी को जहन्नुम रो गया।
दुनिया मे सभी ने मुझ से रस चुराया,
रस मे मै डुबा उतराया।
मुझी मे गोते लगाये आदिकवि ने, व्यास ने,
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने
देखते रह गये मेरे किनारे पर खडे
हाफ़िज़ और टैगोर जैसे विश्ववेत्ता जो बडे।
कही का रोडा, कही का लिया पत्थर
टी.एस.ईलियट ने जैसे दे मारा,
पढने वालो ने जिगर पर हाथ रखकर
कहा कैसा लिख दिया संसार सारा,
देखने के लिये आँखे दबाकर
जैसे संध्या को किसी ने देखा तारा,
जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते
नही रोका रुकता जोश का पारा
यहीं से यह सब हुआ
जैसे अम्मा से बुआ ।
अकीला बुआ का मन हुआ कि कलकता घूम आया जाय. गांव - गिरांव के बहुत सारे लोग वहां रहते हैं .वे जब भी होली-दीवाली-, ईद-बकरीद की छुट्टियों में आते हैं तो उनका इसरार रहता है- ' ए बुआ ! एक बार कलकत्ता घूम लो. बहुत बड़का शहर है कककत्ता ' . इस बार बुआ ने सोचा कि चलो देख ही लें कैसा है कलकत्ता. सो वे दो-चार और लोगों के साथ रेलगाड़ी पर सवार होकर चल पड़ीं.दूसरे दिन जब एक बड़े-से स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो लोगों ने कहा आ गया कलकत्ता, चलो उतरो. बाहर लाल-लाल कपड़े पहने कुली चिल्ला रहे थे : हबड़ा-हबड़ा अकीला बुआ ने अपनी साड़ी घुटनों तक उठाकर कछान मार ली और अपने साथियों को हिदायत देने लगी - ' सब लोग धोती-लुंगी ऊपर उठा लो लगता है यहां तो बहुत हबड़ा है.' साथी घबरा गए- ' अरे गांव में हबड़ा और यहां भी हबड़ा.' बुआ ने कहा -' देखा ! मैं इसी मारे न आती थी , अब भुगतो सब जने.' धन्य हैं हमारी अकीला बुआ. उन्हें किसी ने बताया ही नहीं था हाबड़ा स्टेशन का नाम है, वे तो भोजपुरी भाषा के 'हबड़ा' शब्द से घबरा गई थीं . हबड़ा माने -कीचड़, दलदल.
दूसरा किस्सा - कान का झब्बा
गांव में किसी का गौना हुआ. दुलहिन घर आई. औरतों का जमघट लग गया. किसी ने खुले आम तो किसी ने दबी जुबान में बतकुच्चन की कि दुलहिन ऐसी है तो वैसी है. किसी को वह खूबसूरत लगी तो किसी को भैंगी. किसी ने उसके मुखड़े की तारीफ़ की तो किसी ने तलवों की. दुलहिन बेचारी चचिया सास, ददिया सास ,ममिया सास आदि -इत्यादि के पैर छूते-छूते पस्त हो चली थी. खैर, दुलहिन का बक्सा खोला गया . बाकी सारी चीजें तो सासों, गोतिनों और ननदों को समझ में आ गईं लेकिन एक जोड़े चमकीली- रंगीन चीज किसी की समझ में नहीं आई कि इसका क्या इस्तेमाल है? सब हलकान- परेशान. बहू से पूछें तो नई रिश्तेदारी में जगहंसाई का डर कि देखो कैसे भुच्चड़ हैं ससुराल वाले. अब एक ही उपय था कि अकीला बुआ को बुलाया जाय. वही बतायेंगी कि यह क्या बला है. अकिला बुआ आईं, सामान पर नजर दौड़ाई और हंसने लगीं .बोलीं - 'अरी बेवकूफ़ों ! हम ना रहें तो तुम लोग तो गांव की नाक कटवा दोगी. इतना भी नहीं जानतीं यह तो नई चलन का गहना है- कान का झब्बा. आजकल कलकत्ते में खूब चल रहा है . लाओ , सुई-डोरा दो . हम अपने हाथ से पहनायेंगे दुलहिन को.' दुलहिन बेचारी ! लाज के मारे कुछ न बोल पाई, चुपचाप पहन लिया -कान का झब्बा . अब वह नई बहुरिया क्या कहती कि ए बुआ ! यह कान का झब्बा नहीं पांवों में पहनने की सैंडल है !
तीसरा किस्सा - हाथी के पांव
सुबह- सुबह गांव में शोर था. कुछ लोग दिशा- फ़रागित से फ़ारिग होकर दतुअन करते हुए खड़े थे. औरतें घूरे पर झाड़न- बहारन फ़ेंक कर कमर पर टोकरी टिकाए खड़ी थीं. बच्चे घुच्ची और ओल्हा -पाती का खेल छोड़कर अकबकाये खड़े थे. सबकी निगाह पगडंडी पर बने पैरों के निशानों पर थी कि आखिर ये निशान किस जानवर के पैरों के हैं. आदमी के तो हो नहीं सकते और भूतों के तो पैर ही नहीं होते ,सो निशान का सवाल ही नहीं उठता . ये गाय, बैल,भैंस, ऊंट, घोड़े, गदहे, भेड़,बकरी, कुत्ते, बिल्ली, सियार,खरगोश के हैं नहीं. बाघ के भी नहीं, तो आखिर किस जानवर के पैरों के निशान हैं इतने बड़े-बड़े. जवाहिर चा की राय मांगी गई. उन्होंने सुलेमान खां से मशविरा किया और घोषित किया कि ये हाथी के पैरों के निशान हैं क्योंकि हाथी के पैरों के निशान ऐसे ही होते हैं हाथी के पैरों जैसे बड़े-बड़े . संदेह फ़िर भी नहीं मिटा. अब एक ही उपाय था, अकीला बुआ जो कह दें वही ठीक. अकीला बुआ आईं, निशान देखे , अभी तक की कयास आराई की बेवकूफ़ी पर मुस्कुराईं. सबको प्यार से गरियाते हुए बोलीं - ' नतिया के बेटों ! पता नही मेरे बाद तुम लोगों का क्या होगा? अरे ! ये तो हिरन के पैरों के निशान हैं, इतना भी नहीं पहचानते.' सबने मान लिया लेकिन जवाहिर चा मिमियाये- ' पर, बुआ ! इतने बड़े? हिरन के पैर तो----- ' बुआ ने तत्काल डपटा- 'चुप जाहिल ! चार जमात पढ़कर तू क्या मुझसे गियानी हो गया . हिरन अपने पैरों में जांता बांधकर कूदा होगा. जांता माने चक्की. देखो तो गांव मे किसी के घर से जांता तो गायब नही है?'
साढ़े यानि आधा किस्सा :
?.........यह तो आप खोजें कि साढ़े यानि आधा किस्सा कहाँ है?
( चित्र परिचय :इंडियन वुमन,१९४६ हैरी टर्नर , गूगल से साभार )