Tuesday, August 31, 2010

रोहित उमराव के कैमरे से सारस -३






नया परिवार बसाने को नई जगह ढूंढ़ते न ढूंढ़ते बारिशें आ गईं.

सो ठिकाने के चारों तरफ़ पानी से घिरा होने के बावजूद उसे महफ़ूज़ तो रखा ही जाना था सो इस सारस युगल ने उस जगह के आसपास की घास को उखाड़ कर इतना ऊंचा बना लिया कि वहां मादा सारस अण्डे दे सके.

इस प्रक्रिया की अगली सीरीज़ अगली किस्त में.

रोहित उमराव के कैमरे से सारस -२

आख़िर ढूंढ़ ही लिया गया ठिकाना

रोहित उमराव के कैमरे से सारस - १

कबाड़ी फ़ोटूकार रोहित उमराव के खींचे चिड़ियों के कुछ चित्र कुछ दिन पहले यहां प्रकाशित किये गए थे. आज आपको उनकी सारस के एक जोड़े की खींची सीरीज़ के शुरुआती फ़ोटो आपके सामने पेश कर रहा हूं. ये तस्वीरें छः जुलाई से पन्द्रह जुलाई के दौरान बरेली में खींची गई थीं. तब सुदूर किसी जगह से आया यह जोड़ा अपने लिए किसी मुफ़ीद ठिकाने की तलाश कर रहा था.

रोहित फ़िलहाल बरेली में दैनिक हिन्दुस्तान के लिए फ़ोटोपत्रकारिता करते हैं.

इस सीरीज़ के अगले हिस्से यहां क्रमशः प्रकाशित करता जाऊंगा जिनमें इस जोड़े को अगले करीब डेढ़ माह तक रोहित अपने कैमरे में क़ैद करते रहे और कुछ बेहद दुर्लभ तस्वीरें उन्होंने कबाड़ख़ाने के लिए भेजी हैं.

थैंक्यू रोहित!









एक प्रार्थना: महमूद दरवेश की कविता


जिस दिन मेरे शब्द
धरती थे ...
मैं दोस्त था गेहूं की बालियों का.

जिस दिन मेरे शब्द
क्रोध थे
मैं दोस्त था बेड़ियों का.

जिस दिन मेरे शब्द
पत्थर थे
मैं दोस्त था धाराओं का,

जिस दिन मेरे शब्द
एक क्रान्ति थे
मैं दोस्त था भूकम्पों का.

जिस दिन मेरे शब्द
कड़वे सेब थे
मैं दोस्त था एक आशावादी का.

लेकिन जिस दिन मेरे शब्द
शहद में बदले ...
मधुमक्खियों ने ढंक लिया
मेरे होठों को! ...


(चित्र: फ़िलिस्तीनी कलाकार इस्माइल शमाउत का बनाया महमूद दरवेश का पोर्ट्रेट (१९७१))

Monday, August 30, 2010

गिर्दा के लिए मरदूद का मातम

गिर्दा के लिए मरदूद का मातम

वीरेन डंगवाल

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क्या शानदार शवयात्रा थी तुम्हारी जिसकी तुमने जीते जी कल्पना भी न की होगी. ऐसी कि जिस पर बादशाह और मुख्यमन्त्री तक रश्क करें. दूर-दूर से गरीब-गुरबा-गंवाड़ी. होटलों के बेयरे और नाव खेने वाले और पनवाड़ी. और वे बदहवास कवि-रंगकर्मी, पत्रकार, क्लर्क, शिक्षक और फटेहाल राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता जिनके दिलों की आग अभी भी ठण्डी नहीं पड़ी है. और वे स्त्रियां, तुम्हारी अर्थी को कन्धा देने को उतावली और इन सब के साथ ही गणमान्यों - साहिबों - मुसाहिबों का भी एक मुख़्तसर हुजूम. मगर सबके चेहरे आंसुओं से तरबतर. सब एक दूसरे से लिपट कर हिचकियां भरते. सबके रुंधे हुए कण्ठों से समवेत एक के बाद फूटते तुम्हारे वे अमर गीत जो पहले पहल सत्तर के चिपको आन्दोलन के दौरान सुनाई दिए थे और उसके बाद भी उत्तराखण्ड के हर जन आन्दोलन के आगे आगे मशाल की तरह जलते चलते थे: "जैंता एक दिन तो आलौ, दिन यो दुनि में/ आएगा मेरी प्यारी जैंता वो दिन/ चाहे हम देख सकें चाहे तुम न देख सको/ फिर भी आएगा तो प्यारी वो दिन/ इसी दुनिया में ." वो एक सुदूर झिलमिलाता सपना जैसे एकमेक हो चुके दिलों में हिलोरें लेने लगता था. रोमांच, उम्मीद और हर्षातिरेक से कंपकंपाते हुए ये जुलूस आज भी स्मृति में एक खंडित पवित्रता की तरह बसे हुए हैं.

क्या बात थी यार गिर्दा तुम्हारी भी! अफ़सोस, सख़्त अफ़सोस कि मैं तुम्हारी इस विदा यात्रा में शामिल नहीं हो पाया जिसका यह आंखों देखा हाल मैं लिख रहा हूं. और इस समय मुझे तुम्हारी वह खरखरी हंसी साफ़ सुनाई दे रही है जिसे तुम गले से सीधे गालों में भेजते थे और दांतों में थोड़ा सा चबाकर बाहर फेंक देते थे. कैसा विचित्र नाटक है यार!

क्या तो तुम्हारी बातें, क्या तो तुम्हारे शब्द. घाटियों, चोटियों, जंगलों, बियावानों जनाकीर्ण मेले-ठेलों, हिमालय की श्रावण संध्याओं और पहाड़ी स्त्रियों के पुलकते और गमगीन दिलों से बटोरे गए काष्ठ के अधिष्ठान्न, जिनमें आग जलाई जाएगी और खाना पकेगा. और तुम्हारी वो आवाज़? बुलन्द, सुरीली, भावों भरी, सपनीली: "ऋतु औनै रौली, भंवर उड़ाला बलि/ हमरो मुलुका भंवर उड़ला बलि/ चांदनी रातों में भंवरे उड़ेंगे सुनते हैं/ हमारे मुलुक में खूब भंवरे उड़ेंगे सुनते हैं. हरे - हरे पत्ते में रखकर खूब बढ़िया दही खाएंगे हम सुनते हैं. अरे क्या भला लगेगा कि हमारे मुलुक में भंवरे उड़ेंगे ही!"

कभी वो पुकार होती थी तुम्हारी, पुरकशिश. क्षुब्ध आन्दोलनों की हिरावल ललकार: "आज हिमाला तुम्हें बुलाते हैं. जागो -जागो हे मेरे लाल. जागो कि हम तो हिल भी नहीं सकते. स्वर्ग में हैं हमारी चोटियां/ और जड़ें पाताल. अरी मानुस जात, ज़रा सुन तो लेना/ हम पेड़ों की भी बिपत का हाल. हमारी हड्डियों से ही बनी कुर्सियां हैं इनकी/ जिन पर बैठे वे हमारा कर रहे ये हाल/ देखना-देखना एक दिन हम भी क्या करते हैं इनका हाल." ये केवल पेड़ नहीं हैं जिनकी हड्डियों से उनकी कुर्सियां बनी हैं. ये केवल आत्मरक्षा की फ़रियाद भी नहीं, परस्पर सहयोग की मांग है. ये केवल हिमालय भी नहीं है जो अपने बच्चों से जागने को कह रहा है. इतिहास, प्रकृति, लोक और वर्तमान का ये अनूठा जद्दोजेहद भरा रिश्ता है जो लोकगीतों की मर्मस्पर्शी दुनिया के रास्ते गिर्दा ने अपनी कविता में हासिल किया है और जिस रिश्ते के साथ वह बेईमानी, अत्याचार, ढोंग और अन्याय के ख़िलाफ़ अपना मोर्चा बांधता है: "पानी बिच मीन पियासी/ खेतों में उगी उदासी/ यह उलटबांसियां नहीं कबीरा/ खालिस चाल सियासी." किसान आत्महत्याओं के इस दुर्दान्त दौर के बीस-पच्चीस बरस पहले लिखी उसकी यह ’कबीर’ ही नहीं, उसकी समूची कविता, उसके गीत, उसके नाटक, उसका रंगकर्म - उसका समूचा जीवन सनातन प्रतिरोध का है. जैसा कि मौजूदा हालात में किसी भी सच्चे मनुष्य और कवि का होगा ही.

तीस पैंतीस साल के मुतवातिर और अत्यन्त प्रेमपूर्ण सम्बन्ध के बावजूद मुझे ये मालूम ही नहीं था कि गिर्दा की उम्र कितनी है. दोस्तों, हमखयालों, हमराहों के बीच कभी वह बड़ा सयाना लगता और कभी खिलखिलाते हुए सपनों और शरारत से भरा एकदम नौजवान.

ये तो उसके मरने के बाद पता चला कि उसकी पैदाइश १० सितम्बर १९४३ की थी, अल्मोड़ा ज़िले के गांव ज्योली की. वरना वो तो पूरे पहाड़ का लगता था और हरेक का कुछ न कुछ रिश्तेदार. जब उसने काफ़ी देर से ब्याह किया और प्यार से साज-संभाल करने वाली हीरा भाभी उस जैसे कापालिक के जीवन में आई तो लम्बे अर्से तक हम निठल्ले, छोकड़ों की तरह दूर से देखा करते थे कि "देखो, गिर्दा घरैतिन के साथ जा रहा है." कभी थोड़ा आगे और अक्सर थोड़ा पीछे हमारी सुमुखी भाभी, और साथ में लजाए से भीगी बिल्ली से ठुनकते गिर्दा. दाढ़ी अलबत्ता चमक कर बनी हुई, मगर कुर्ता वही मोटा-मोटा और पतलून, और कन्धे पर झोला जिसमें बीड़ी-माचिस, एकाध किताब-पत्रिका, मफ़लर. यदा-कदा कोई कैसेट और कुछ अन्य वर्जित सामग्री भी. आख़िर तक उसकी यह धजा बनी रही. अलबत्ता दिल का दौरा पड़ने के बाद पिछले कुछेक बरस यह फ़ुर्तीली चाल मन्द हो चली थी. चेहरे पर एक छिपी हुई उदासी की छाया थी जिसमें पीले रंग का एक जुज था - अपरिहार्य आगात का पीला जुज. और झाइयां आंखों के नीचे, और बातचीत में रह-रहकर उमड़ता लाड़.

सन सतत्तर - अठत्तर, उन्यासी या अस्सी साल के जो भी रहा हो, उस से पहली मुलाकात मुझे साफ़-साफ़ और बमय संवाद और मंचसज्जा के पूरम्पूर याद है. नैनीताल में ऐसे ही बरसातों के दिन थे और दोपहर तीन बजे उड़ता हुआ नम कोहरा डीएसबी के ढंके हुए गलियारों-सीढ़ियों-बजरी और पेड़ों से भरे हसीन मायावी परिसर में. हम कई दोस्त किसी चर्च की सी ऊंची सलेटी दीवारों वाले भव्य ए एन सिंह हॉल के बाहर खड़े थे जहां कोई आयोजन था. शायद कोई प्रदर्शनी. रूसी पृष्ठभूमि वाली किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म्के इस दृश्य के बीचोबीच सलेटी ही रंग के ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले, तीखे-लगभग ग्रीक नैननक्शों और घनी घुंघराली ज़ुल्फ़ों वाला एक शख़्स भारी आवाज़ में कह रहा था: "ये हॉल तो मुझे जैसे चबाने को आता है. मेरा बड़ा जी होता है यार इसके इर्द्गिर्द ’अंधायुग’ खेलने का. मैंने चिहुंक कर देखा -डीएसबी कॉलेज में अन्धायुग? वहां या तो अंग्रेज़ी के क्लासिक नाटक होते आए थे या रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर के एकांकी. राजीव लोचन ने आगे बढ़कर मुझे मिलवाया: ये गिरीश तिवाड़ी हैं वीरेन जी, ’चिपको’ के गायक नेता और ज़बरदस्त रंगकर्मी. वैसे सॉंग एन्ड ड्रामा में काम करते हैं. बड़े भाई हैं सबके गिर्दा.. गिर्दा ने अपना चौड़ा हाथ बढ़ाया. किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म के दयालु रूसी पात्र जैसा भारी चौड़ा हाथ. देखते देखते हम दोस्त बन गए. देश-दुनिया में तरह तरह की हलचलों से भरे उस क्रान्तिकारी दौर में शुरू हुई हमारी वह दोस्ती २१ अगस्त २०१० को हुई उसकी मौत तक, बग़ैर खरोंच कायम रही. उसके बाद तो वह एक ऐसी दास्तान का हिस्सा बन गई है जिसे अभी पूरा होना है. जिसके पूरा होने में अभी देर है.

गिर्दा को याद करते हुए ही इस बात पर भी ध्यान जाता है कि यह शख़्स अपने और अपने भीषण जीवन संघर्ष के बारे में कितना कम बोलता था. वरना कहां तो हवालबाग ब्लॉक का उसका छोटा सा गांव और कहां पीलीभीत-लखीमपुर खीरी के तराई के कस्बे-देहातों और शहर लखनऊ के गली कूचों में बेतरतीब मशक्कत और गुरबत भरे वे दिन. गरीबी से गरीबी की इस खानाबदोश यात्रा के दौरान ही गिरीश ने अपने सामाजिक यथार्थ के कठोर पाठ पढ़े और साहित्य, लोक रंगमंच और वाम राजनीति की बारीकियां भी समझीं. संगीत तो जनम से उसके भीतर बसा हुआ था.

१९६७ में उसे सॉंग एन्ड ड्रामा डिवीज़न में नौकरी मिली जो उत्तराखण्ड के सीमावर्ती इलाकों में सरकारी प्रचार का माध्यम होने के बावजूद बृजेन्द्रलाल साह, मोहन उप्रेती और लेनिन पन्त सरीखे दिग्गजों के संस्पर्श से दीपित था. यहां गिर्दा खराद पर चढ़ा, रंगमंच में विधिवत दीक्षित हुआ और उसकि प्रतिभा को नए आयाम मिले. कालान्तर में यहीं वह क्रान्तिकारी वामपन्थ के भी नज़दीक आया. खासतौर पर पहाड़ के दुर्गम गांवों की जटिल जीवन स्थितियों से निकट के सम्पर्क, द्वन्द्वात्मक राजनीति चेतना, और मानवीयता पर अटूट विश्वास ने ही इस अवधि में गिरीश चन्द्र तिवाड़ी को गिर्दा बनने में मदद दी है. ’चिपको’ के उन जुझारू नौजवानों का भी इस रूपान्तरण में कुछ हाथ रहा ही है जो अब अधेड़, और कई बार एक दूसरे से काफ़ी दूर भी हो चुके हैं, पर जो तब परिवर्तन के साझा सपनों के चश्मदीप और एकजुट थे, वे पढ़ते थे, सैद्धान्तिक बहसें करते-लड़ते भी थे. एक दूसरे को सिखाते थे. नुक्कड़ नाटक करते-सड़कों पर जनगीत गाते थे. साथ साथ मार खाते और जूझते थे. शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, पी सी तिवारी, प्रदीप टम्टा, ज़हूर आलम, राजीव लोचन साह, निर्मल जोशी, गोविन्द राजू, हरीश पन्त, महेश जोशी - एक लम्बी लिस्ट है. गिर्दा ने जब भी बात की इन्हीं और इन्हीं जैसी युवतर प्रतिभाओं के बाबत ही की. उआ ’नैनीताल समाचार’ और ’पहाड़’ और ’युगमंच’ के भविष्य की. अपने और अपनी तकलीफ़ों के बारे में उसने मुंह तक कभी नहीं खोला. मुझे याद है मल्लीताल में कोरोनेशन होटल के नाले के पास नेपाली कुलियों की झोपड़पट्टी में टाट और गूदड़ से भरा उसका झुग्गीनुमा कमरा जिसमें वह एक स्टोव, तीन डिब्बों, अपने सम्भवतः नेपाली मूल के दत्तक पुत्र प्रेम, और पूरे ठसके के साथ रहता था. प्रेम अब एक सुघड़ सचेत विवाहित नौजवान है और ग़ाज़ियाबाद के एक डिग्री कालेज में पढ़ाता है. अलबत्ता ख़ुद गिर्दा का बेटा तुहिन अभी छोटा ही है और ग्रेजुएशन के बाद के भ्रम से भरा आगे की राह टटोल रहा है. एक बात थोड़ा परेशान करती है. एक लम्बे समय तक गिर्दा काफ़ी हद तक अवर्गीकृत हो चुका संस्कृतिकर्मी था. उसकी सामाजिक, आर्थिक महत्वाकांक्षाएं अन्त तक बहुत सीमित थीं. जनता के लिए उसके प्रेम में लेशमात्र कमी नहीं आई थी. यही वजह है कि उसके निर्देशित नाटकों, खासतौर पर संगीतमय ’अन्धेरनगरी’ - जिसे युगमंच अभी तक सफलतापूर्वक पेश करता है - ’अंधायुग’ और ’थैंक यू मिस्टर ग्लाड’ ने तो हिन्दी की प्रगतिशील रंगभाषा को काफ़ी स्फूर्तवान तरीके से बदल डाला था. इस सब के बावजूद क्या कारण था कि जनसांस्कृतिक आन्दोलन उसके साथ कोई समुचित रिश्ता नहीं बना पा रहे थे.उसके काम के मूल्यांकन और प्रकाशन की कोई सांगठनिक पहल नहीं हो पाई थी. ये अलग कि वह इसका तलबगार या मोहताज भी न था. अगर होता तो उसकी बीड़ी उसे भी जे. स्वामीनाथन बना देती.आख़िर कभी श्याम बेनेगल ने उसके साथ एक फ़िल्म करने की सोची थी,कहते हैं.

अपनी आत्मा से गिर्दा नाटकों और कविता की दुनिया का एक चेतना सम्पन्न नागरिक था. उसके लिखे दोनों नाटक ’नगाड़े ख़ामोश हैं’ और ’धनुष यज्ञ’ जनता ने हाथों हाथ लिए थे. लेकिन जानकार और ताकतवर लोगों की निर्मम उदासीनता और चुप्पी उसे लौटाकर लोक संगीत की उस परिचित, आत्मीय और भावपूर्ण दुनिया में ले गई जहां वह पहले ही स्वीकृति पा चुका था और जो उसे प्यार करती थी.

मगर गिर्दा था सचमुच नाटक और नाटकीयता की दुनिया का बाशिन्दा. हर समय नाट्य रचता एक दक्ष पारंगत अभिनेता और निर्देशक. चाहे वह जुलूसों के आगे हुड़का लेकर गीत गाता चलता हो या मंच पर बांहें फैलाए कविता पढ़ते समय हर शब्द के सही उच्चारण और अर्थ पर ज़ोर देने के लिए अपनी भौंहों को भी फरकाता. चाहे वह नैनीताल समाचार की रंगारंग होली की तरंग में डूबा कुछ करतब करता रहा हो या क्मरे में बैठकर कोई गंभीर मंत्रणा - हमेशा परिस्थिति के अनुरूप सहज अभिनय करता चलता था वो. दर असल लगभग हर समय वह ख़ुद को ही देखता-जांचता-परखता सा होता था.ख़ुद की ही परछांई बने गिर्दा का द्वैध नहीं था यह.शायद उसके एक नितान्त निजी अवसाद और अकेलेपन की थी यह परछांई. ख़ुद से पूरा न किए गए कुछ वायदों की. खण्डित सपनों, अपनी असमर्थताओं, जर्जर होती देह के साथ चलती अपनी ही लालसाओं के यौवन की परछांई थी यह. लोग, उसके अपने लोग. इस परछांई को भी उतना ही पहचानते थे जितना श्लथ देह गिर्दा को.

सो ही तो, दौड़ते चले आए थे दूर दूर से बगटुट वे गरीब-गुरबा-गंवाड़ी नाव खेने वाले. पनवाड़ी, होटलों के बेयरे. छात्र-नौजवान, शिक्षक, पत्रकार. वे लड़कियां और गिरस्तिन महिलाएं - गणमान्यों के साथ ही बेधड़क उस शवयात्रा में जिसमें मैं ही शामिल नहीं था. मरदूद !

Sunday, August 29, 2010

कामसूत्र से कुछ सबक

शीर्षक पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत नहीं लेकिन फ़िलिस्तीनी महाकवि महमूद दरवेश की यह कविता इधर बहुत बहुत लम्बे अर्से से मेरी पढ़ी श्रेष्ठतम प्रेम कविता है. मुलाहिजा फ़रमाएं:



कामसूत्र से कुछ सबक

आसमानी प्याले के साथ उसका इन्तज़ार करो
ख़ुशबूदार ग़ुलाबों के बीच वसन्त की शाम उसका इन्तज़ार करो
पहाड़ चढ़ने का प्रशिक्षण पाए घोड़े के धैर्य के साथ उसका इन्तज़ार करो
किसी शहज़ादे के सौन्दर्यबोध और खुसूसियत से भरी रुचि के साथ उसका इन्तज़ार करो
बादल के सात तकियों के साथ उसका इन्तज़ार करो
उड़ती हुई निस्वानी ख़ुशबू के रेशों के साथ उसका इन्तज़ार करो
घोड़े की पीठ पर चन्दन की मर्दाना महक के साथ उसका इन्तज़ार करो
उसका इन्तज़ार करो और तनिक भी हड़बड़ाओ मत
अगर वह देर से आती है, उसका इन्तज़ार करो
अगर वह जल्दी आती है, उसका इन्तज़ार करो
उसकी लटों में गुंथी चिड़ियों को डराओ मत
फूलों की लकदक के चरम पर उसके बैठने की प्रतीक्षा करो
उसका इन्तज़ार करो ताकि वह इस हवा को सूंघ सके जो उसके हृदय के लिए इतनी अजनबी
इन्तज़ार करो कि वह बादल-दर-बादल पैरों से अपना वस्त्र उठाए
और उसका इन्तज़ार करो
दूध में डूबते चन्द्रमा को दिखाने को उसे छज्जे पर लेकर जाओ
उसका इन्तज़ार करो और शराब से पहले उसे पानी पेश करो
उसके सीने पर सो रहे दो परिन्दों पर निगाह मत डालो
इन्तज़ार करो और हौले से उसका हाथ छुओ जब वह संगेमरमर पर प्याला रखे
इन्तज़ार करो जैसे कि तुम उस के वास्ते ओस ले कर आए हो
उससे बातें करो जैसे कोई बांसुरी बातें करेगी किसी डरे हुए वायोलिन के डरे हुए तार से
जैसे कि तुम्हें पता हो कल का दिन क्या लाने वाला है
इन्तज़ार करो और अंगूठी-दर-अंगूठी उसके वास्ते रात को चमकाओ
उसका इन्तज़ार करो
जब तक कि रात तुम से इस तरह बातें न करने लगे:
तुम दोनों के अलावा कोई भी जीवित नहीं है
सो हौले हौले उसे ले जाओ उस मौत की तरफ़ जिसे तुम इस कदर चाहते हो
और इन्तज़ार करो.


*(निस्वानी: स्त्रियोचित)

(चित्र: "वेटिंग फ़ॉर ट्रू लव" शंघाई के कलाकार झा ऊ की
पेन्टिंग)


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पिछली सदी के खासे विख्यात दार्शनिक रोलां बार्थ की एक किताब है ’अ लवर्स डिस्कोर्स’. उसके किसी शुरुआती अध्याय में एक क्लासिकल प्रेमी को को वे यूं परिभाषित करते हैं:

"A lover is the one who waits."

फ़ुटनोट के तौर पर इस बात का ज़िक्र करने का मोह-संवरण न कर सका.

Saturday, August 28, 2010

पीपली लाइव की एक बेबाक समीक्षा

स्वीकार करना चाहूंगा कि मैंने यह फ़िल्म नहीं देखी है. पर कुछ मित्रों ने इसे देखा है और अलग अलग तरीके से इस पर प्रतिक्रियाएं दी हैं. अग्रज समान कवि श्री रामकुमार तिवारी ने यह समीक्षा रविवार के लिए लिखी थी. उन्हीं की सहमति से इसे यहां रविवार से साभार आपके विचार के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं:



इधर कुछ महीनों से मीडिया में पीपली लाईव ने अपनी ऐसी धमक बनाई है कि देश का एक बड़ा वर्ग इस फ़िल्म पर न्यौछावर हुआ जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे इस फिल्म की स्तुति में यह कह रहे हैं कि " किसी भी नेता के भाषण या हमारे महाविद्यालयों के शोध पत्र से ज्यादा सारगर्भित और महत्वपूर्ण है यह फिल्म. इसके लिए अनुषा रिजवी को डॉक्टरेट की उपाधि दी जानी चाहिये."

‘पीपली लाइव’ पर जय प्रकाश चौकसे की यह टिप्पणी चौकस लगी कि इसमें किसी नेता के भाषण से ज्यादा सार है. बस ! इससे ज्यादा नहीं.

देखते-देखते यह कैसा दौर आ गया कि एक सनसनी का तुमार कुछ इस तरह ताना जा सकता है कि वह महानता की जगह घेर ले और समाज बौरा जाये. लगभग दो लाख किसानों की आत्महत्याओं को इस तरह तयशुदा मजाक बना दिया जाये कि वे सोच-समझकर परिवार, समाज में लंबे समय तक बातचीत करके बेहद व्यवसायिक रूप से मुआवजा के लिए ही की गई है. जीवन का कैसा अवमूल्यन है और मृत्यु का कैसा अपमान. आत्महत्या की त्रासदी को एक आर्थिक विकल्प के रूप में किस तरह घटा दिया गया है.

फिल्म निर्माण रचनात्मक अवदान है न कि एक सनसनी मात्र कि देखो! हमने किस तरह मीडिया, व्यवस्था और राजनीति को उघाड़ दिया है. बस हो गया हमारे कर्तव्य का निर्वहन. क्या एक कला माध्यम को देय सिर्फ इतना ही हो सकता है ?

हम आमिर खान या आमिर खान जैसे फिल्मकारों से ईरान के महान फिल्मकार अब्बास कियारोस्तामी की तरह किसी ऐसी फिल्म की उम्मीद नहीं कर सकते जो अपने मुल्क और उसकी जनता से बेपनाह मुहब्बत करते हुए एक-एक शॉट्स और एक-एक फिल्म इस तरह रचता हो, जिसमें उनके देश ईरान और उनके जन-जन की आत्मा का सौंदर्य अपनी मानवीय गरिमा के साथ प्रकट होते हैं. कुछ यूं कि दूर देशों के दर्शक भी उनके देश ईरान और उसकी जनता से प्रेम करने लगते हैं और उनके अंदर भी ईरान को देखने और उसकी जनता से मिलने की इच्छा जन्म लेने लगती है.

इस समय ईरान के हालात बेहद खराब है. जाफ़र पनाही जैसे फ़िल्मकार को गिरफ़्तार कर लिया गया है. राजनीति के हुक्मरानों ने अब्बास कियारोस्तामी साहब पर फिल्म न बनाने की पाबंदी भी लगा दी गई है. अमरीका सहित पूरे दुनिया के दरवाजे उनके लिए खुले हैं, फिर भी अब्बास साहब अपना घर और मुल्क छोड़कर नहीं जाना चाहते. क्या करें ? उन्हें नींद अपने मुल्क और अपने घर में ही आती है. अपने देश और अपनी जनता से ऐसी मुहब्बत का जज्बा ही ऐसी रचनात्मकता को जन्म दे सकता है.....खैर छोडिये. फिलहाल तो हम अपने ही देश की फिल्मों और फिल्म निर्माताओं की बात करें.

किसानों की पृष्ठभूमि पर बनी महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ को तो कम से कम हमारी दृष्टि चेतना का हिस्सा होना ही चाहिये. बैंक ऋण की जगह पुरातन महाजनी पंजे में फंसे किसान परिवार की गाथा का कैसा फिल्मांकन था ? ‘‘पीपली लाइव’’ के नत्था की परिस्थिति मदर इंडिया की अबला नारी से ज्यादा बद्दतर तो नहीं थी. लेकिन उसमें जीवन कैसे संभव हुआ, हर सर्वहारा को थामता हुआ हिम्मत देता हुआ. वह फिल्म के माध्यम से हमारा जागरण काल था. जिजीविषा, संघर्ष, आम गौरव की फिल्मी गाथा ने किस तरह मूल्यों का सृजन किया था. इतनी फिल्मी लंबी यात्रा के बाद उसी परिस्थिति पर बनी फिल्म ‘‘पीपली लाइव’’ का ट्रीटमेंट हमें सोचने पर विवश करता है. हम कब कहां से कहां आ गये और ऊपर से सफलता, महानता का इतना शोर ?
'पीपली लाइव' में न तो आत्यहत्या के मनोविज्ञान की समझ है और न ही समाज के बहुआयामों की.

कला में सिर्फ भौडा कटु यथार्थ ही सब कुछ नहीं होता, रचना अपने होने में जो अतिरिक्त, जो नहीं है, उसे सृजित करती है, जोड़ती, अलगाती है. तभी तो वह रचना है, कला है, फिल्म है.

आइडिया में कभी संवेदना नहीं होती. सिर्फ एक होशियारी होती है. जो अपनी सामाजिक भूमिका के लिए एक पेशेवर संवेदना का स्वांग रचकर समाज की भावनाओं की मार्केटिंग करती है. वह समाज को झकझोरने की जगह एक क्षणिक उत्तेजना पैदा करके एक अभ्यस्ती बनाने लगती है.

‘‘पीपली लाइव’’ में न तो आत्यहत्या के मनोविज्ञान की समझ है और न ही समाज के बहुआयामों की. फिल्म के लिहाज से भी यह आमिर खान की सबसे कमजोर फिल्म है. फिल्म की लय जगह-जगह टूटी हुई है. कहीं-कहीं तो वह फिल्म का कोलॉज लगती है.

देश में फिल्मी जगत की जो दुर्दशा है, उसमें निश्चित तौर पर आमिर खान इस दशक के सबसे सफल निर्माता है, लेकिन बड़े नहीं है. बड़ा होना और सफल होना दो अलग-अलग बातें है. उतनी ही जितनी कि आमिर खान का कोकोकोला का विज्ञापन करना और मेधा पाटकर के साथ धरने पर बैठना.

आमिर खान का भारतीय फिल्मों के विज्ञापन में बहुत बड़ा योगदान है. यहां उनकी मेधा चरम पर है. उन्होंने विज्ञापन की लाइने ही बदल दी हैं. हाल ही में ‘‘पीपली लाइव’’ के रिलीज होने के पहले ही टाइमिंग सेंस से भरे उनके गाने और नत्था का स्टारडम लोगों की जुबान पर छा गया. ‘पीपली लाइव’ की जगह नत्था और ‘महंगाई डायन खाय जात है’ लोगों के सिर चढ़कर बोल रहे हैं. जो अंतत: ओंकारदास मानिकपुरी का अभिनय या महंगाई का प्रतिरोध न होकर सिर्फ और सिर्फ ‘‘पीपली लाइव’’ का ही विज्ञापन है.


नत्था से खास मुलाकात सारे चैनलों से प्रसारित हो रही है. नत्था कैटरीना कैफ, दीपिका पादुकोण से मिलना चाहता है, यह भी एक खबर है. दीपिका नत्था से मिलने आती है, यह भी एक खबर है. नत्था सचमुच सोच रहा है कि दीपिका उससे मिलने आयी है क्योंकि वह एक बहुत बड़ा स्टार बन गया है. यह एक ऐसा भ्रम है जो ओंकारदास मानिकपुरी के शेष जीवन को कहीं त्रासद न बना दे. और भविष्य में ईश्वर न करे कि ओंकारदास मानिकपुरी खुद एक खबर बनें और एक दिन छत्तीसगढ़ के स्थानीय अखबार में छपे- एक था नत्था जिसने सन् 2010 में बहुत कम बजट की फिल्म ‘पीपली लाइव’ में आमिर खान की जगह केंद्रीय भूमिका निभाई थी और उस फिल्म ने रिकार्ड बिजनेस किया था और अखबारों की खबर पर ओंकारदास मानिकपुरी की आर्थिक बदहाली पर छत्तीसगढ़ सरकार 25-50 हजार की राशि देने की घोषणा कर दे.

आमिर खान के पास भारतीय समाज की कमजोरियों का अच्छा अध्ययन है. वे जानते हैं कि इस विस्मृति के दौर में चेतना से कटे-पिटे समाज में क्या और किस तरह परोसा और बेचा जा सकता है. इस संदर्भ में उनकी पिछली फिल्में भी गौरतलब हैं.

आमिर की एक बहुचर्चित फिल्म है ‘तारे जमीं पर’. इस फिल्म का हाल और भी भयानक है. जिसमें शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए कहीं कोई जगह नहीं है, जब तक वह पेंटिंग प्रतियोगिता में प्रथम स्थान न पा जाये. आमिर के यहां सिर्फ और सिर्फ श्रेष्ठ के लिए जगह है. सामान्य, सहज जीवन के लिए नहीं. प्रथम स्थान तो कोई एक ही पा सकता है. सभी नहीं. पूरा समाज तो सहज प्रेममय होकर ही रह सकता है. ईश्वर का शुक्र है कि ‘तारे जमीं पर’ में सिर्फ एक ही बच्चा था वरना उसी तरह के दूसरे बच्चों का क्या होता?
वे लड़के जो मेहनत से मुंह चुराते, दूर भागते अराजक और उद्दंड हैं, जिनकी तादात बहुत ज्यादा है, उनके लिए थ्री इडियट्स राहत पैकेज की तरह है, जिसमें उनकी हरकतें जीवंत और भविष्यमयी दिखायी गई है.

अरे भाई! जब प्रथम ही आना है, वहीं ही पहुंचना है जो समाज में पहले से मान्य है तो तब इतनी भावुकता क्यों? यह सब अलग और मानवीय होने का ड्रामा क्यों? सामान्य, सहज जीवन की चाह का क्या होगा? उसे कहां जगह होगी? किस रचाव में? कम से कम आमिर खान के यहां तो नहीं ही.

आमिर खान की एक और सफलतम फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ का हीरो रैंचो कैसे डिग्री किसी दूसरे के नाम करके भी किस तरह सबसे बड़ा वैज्ञानिक, सबसे बड़ी कंपनी का मालिक और सबसे दूर-दराज के प्रायोगिक स्कूल का निर्देशक एक साथ, यकायक बन जाता है.

देखा जाये तो यह एक तरह का ईश्वरीय प्रगटन है, जो भारतीय जनमानस की कमजोरी है. वे लड़के जो मेहनत से मुंह चुराते, दूर भागते अराजक और उद्दंड हैं, जिनकी तादात बहुत ज्यादा है, उनके लिए यह फिल्म राहत पैकेज की तरह है, जिसमें उनकी हरकतें जीवंत और भविष्यमयी दिखायी गई है. यह अलग और कठोर बात है कि पढ़ाई छोड़ कर या पूरी करके वे न तो सबसे बड़े वैज्ञानिक बनेंगे और न ही सबसे बड़ी कंपनी के मालिक और न ही कहीं स्कूल में नन्हों को देने के लिए उनके पास कुछ ऐसा होगा कि वे उन्हें दे सकें. वे अवारा बदहाली में भटकेंगे और उस समय उन्हें यह गाना भी याद नहीं आयेगा- ‘आल इज वेल.’

Friday, August 27, 2010

मैं कोई शेक्सपीयर नहीं हूँ

इस कविता के अनुवाद ने बहुत परेशान किया। बहुत दिनों से यह मेरे इकठ्ठा किए गए कबाड़ के ढेर में सहेज कर रखी गई थी और कई बार इससे जूझने की कोशिश करनी पड़ी। कई बार ऐसा होता है कि प्रचलित अंग्रेजी शब्दों के लिए हिन्दी में प्राय: ऐसा शब्द होता है जिसकी अर्थ छवि थोड़ी विलग होती है और उसका इस्तेमाल प्राय: संदर्भ को विचलन की ओर लेकर जाता हुआ दिखाई देने लगता है। बहरहाल, इस कविता को देखें - पढ़ें....




चार्ल्स बुकोवस्की की कविता
उस पतुरिया के लिए जिसने  हर लीं मेरी कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


लोग कहते हैं
अपनी कविता से परे रक्खो वैयक्तिक पछतावे
बने रहो गूढ़ और अमूर्त
क्योंकि इसमे जरूर छिपा होता है कोई रहस्य।

किन्तु हे प्रभु !
मेरी एक दर्जन कवितायें चली गईं
जिनकी कार्बन प्रति भी नहीं है मेरे पास।
और तो और
तुम मेरी सबसे उम्दा पेंटिंग्स भी ऊठा ले गईं
यह सब देख घुटता है मेरा दम।
क्या तुम मुझे ध्वस्त कर देना चाहती हो
बाकी बची चीजों की मार से ?

तुम क्यों नहीं ले गईं रुपए - पैसे
जो प्राय: पड़े रहे रहते हैं
बीमार शराबी जैसे कोने में लेटे मेरी पतलूनों में
अगली बार तुम भले ही उमेठ देना मेरी बायीं बाँह
अथवा पचासों और भी चीजों पर कर देना हाथ साफ
पर हाथ न लगाना मेरी कविताओं को।

मैं कोई शेक्सपीयर नहीं हूँ
अक्सर बहुत साधारण तरीके से
हो जाता हूँ गूढ़ और अमूर्त
यदि ऐसा न हो तो
उभरती दीखने लगेंगी
रुपयों वेश्याओं शराबियों और दुनिया को बर्बाद कर देने वाले
अंतिम बम की छवियाँ।

याद रहे
ईश्वर ने कही है एक सच्ची बात-
....कि उसने दुनिया में बनाए बेशुमार कवि
किन्तु
हर ओर
कितनी कम - कम
कितनी कमतर
दिखाई  दिए जा  रही है कविता।
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* टीप : इस कविता के अनुवाद के सिलसिले में हमारे समय के दो समर्थ कवि - ब्लागर  साथियों विजय गौड़ और शरद कोकास की बहुमूल्य सम्मतियों ने बहुत मदद की है, सो उनके प्रति हृदय से आभार। प्रसिद्ध अमरीकी कवि - कथाकार चार्ल्स बुकोवस्की ( 1920 -1994 ) का परिचय और उनकी  कुछ और कविताओं  के अनुवाद जल्द ही ,  यहीं  इसी  ठिकाने पर ...

Tuesday, August 24, 2010

भूपेन और दिलीप काम में व्यस्त


भूपेन, २४ अगस्त २०१०, शाम ४:३५


दिलीप, २४ अगस्त २०१०, शाम ४:३६

पृष्ठभूमि में यह संगीत संगीत बज रहा है...

Monday, August 23, 2010

गिर्दा को नमन



.....कल जनकवि - लोकगायक गिर्दा नहीं रहे। आज अखबार में उनके बारे बहुत कुछ छपा है । कल और आने वाले कल के दिनों में बहुत कुछ  लिखा जाएगा , छपेगा । आज और अभी अपनी ओर से कुछ लिखना संभव नहीं है। बस दो उद्धरण ; एक किताब से और दूसरा इसी ठिकाने की अपनी एक पुरानी पोस्ट से...

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* ...उस दिन वो रास्ते में अपना झोला लटकाये,बीड़ी सुलगाये - बुझाये दिखाई दिए। मैं घबराया कि आज मारा गया। गिरदा से कैसे बात करूँगा समझ में न आया। जी०एम०ओ०यू० स्टेशन से पहले मैं और सफ़दर जा रहे थे। सफ़दर भी झोला लटकाये था। मैंने कहा अच्छा है दोनो झोलेदारों को मिला दिया जाय। मैंने सफ़दर को गिरदा से मिलाया। सफ़दर ने अपने अन्दाजे - बयां यानी गर्दन कंधे पर टिका पूरी बत्तीसी निकाल गिरदा के हाथ को झिंझोड़ना शुरू किया,दो तीन बार वेरीग्लेड तू सी यू,..आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई...आदि कहा। पर गिरदा तो खो गए थे। वो सोच में खो गए, सफ़दर के हाथ को लिए - दिए, पर दयनीयता से घिघियाते हुए सफ़दर ने ग्लेड टू सी यू ...कहा तो फिर वो झटके से वापस आए फिर आहिस्ता से अपने धीरे - धीरे बोलने के अंदाज से बोले - " ये तो मैं नहीं कह सकता कि आपसे मिलकर खुशी हुई पर मुझे लगा कि मैं हल्का हो गया हूँ...।" सफ़दर सन्न रह गया उसने मुझे देखा, पर बाद में उसकी तुरंत बुद्धि ने भाँप लिया कि मुकाबला तगड़ा है। बाद में उसकी बात पर उसने कहा - " बड़ा अजीब आदमी है यार वह। बोलता है आपसे मिलकर ऐसा लगा कि जैसे हल्का हो गया हूँ। अरे कोई मैं संडास हूँ जो मुझसे मिलकर वह हल्का हो गया ?"

खैर उस दिन एक मिठाई की दो-मंजिली दुकान में जिसे हम राज्य सभा कहते थे दोनों का का बड़ जोरदार मुकाबला हुआ। एक कह रहा है हवा में हाथ मार- मार कर -"मुझे लगता है मैं आपको समझा नहीं पा रहा यानी पेट में तो आ रहा है पर मुँ ह में..." दूसरा बीच में रोककर अपने को न समझ पाने के दोषारोपण से अपमानित समझता जोर - जोर से हाथ झटक कर कह रहा है - " नहीं - नहीं, मैं समझ रहा हूँ आप कहिए..." एक कह रहा है- "मैं टूट रहा हूँ।" दूसरा कह रहा है मैं जुड़ रहा हूँ"। चाय ,काफी, रसगुल्ले के दौर पर दौर चल रहे थे। मुझे मालूम था कि बिल तो मुझे देना है इसलिए टूट - जुड़ तो मैं रहा था। पर भाषा की उस मार - पिटाई, द्रविड़ प्राणायाम, कसरत में शब्द भाषा के बाण,तोप , गोलियाँ चल रही थीं। अभिव्यक्ति, माध्यम, अबस्यलूट, महसूसना, युग मूल्य, प्रतिबद्धता, अभिव्यक्ति का भय...तरह- तरह के शब्दों से मैं परिचित हुआ। 'सड़ापन', 'पचापन',..'दुहरी विसंगतियाँ' ...'समझदानी'। मेरी समझ में नहीं आया कि सफ़दर कैसे - कैसे इस शुद्ध हिन्दी भाषायी खेल में जम - जमकर पट्टेबाजी दिखा रहा था। गिरदा की सुरीली आवाज , लोक संगीत, नगाड़े खामोश हैं। उसकी अभिव्यक्ति ने सफ़दर को मोह लिया। बाद में उसने कहा - यार अदमी है तो ये गावदी..। पर पकड़ भी साले की है जबरदस्त। खासकर लोकसंगीत में गजब की इमेज है पठ्ठे की, औरिजनल एप्रोच है पर आज अच्छी धुलाई कर गया कमबख़्त , मेहरबानी तुम्हारी।

- प्रभात कुमार उप्रेती की १९९१ में प्रकाशित पुस्तक 'सफ़दर एक आदम कद इंसान' / यात्री प्रकाशन ,बी- १३१, सादतपुर ,दिल्ली -११००९४ से साभार / पृष्ठ - १२२ और १२३

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** `कविता की दोपहर´ का एक आयोजन सी0 एल0 टी0 में था । यहां पहली बार एक नया नाम सुना - 'नेरूदा' । फिजिक्स के प्राफेसर अतुल पाण्डे संचालन कर रहे थे जो अब हमसे कई करोड़ प्रकाशवर्ष दूर चले गये है। उन पर एक बहुत ही अच्छी , बहुत ही संवेदनशील कविता अशोक पाण्डे ने लिखी है । कई बार सुनाई दिया वही नया नाम -' नेरूदा' । पहाड़ पर रहते हुए अब तक मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि `दा ´ एक आदरसूचक संबोधन है - दादा या दाज्यू का लघु संस्करण या कि भाषाविज्ञान की शब्दावली में कहें तो प्रयत्न लाघव । मैं स्वयं इस संबोधन का प्रयोग करने का आदी होता जा रहा था और कुछ जूनियर छात्रावासियों के लिए `दा´ बन चुका था । मैं बड़ी देर से सोच रहा था कि 'नेरूदा' आसपास के कोई बड़े कवि होंगे क्योकि मंच पर बैठै उन्ही के जैसे नाम वाले 'गिरदा' या 'गिर्दा' अपनी बुलंद खनकदार आवाज में `किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी कौन आजाद हुआ , कौन आजाद हुआ ´ गा रहे थे । यह भी लगा कि 'नेरूदा' और 'गिरदा' भाई- भाई तो नहीं ? सच कहूं वह तो लड़कपन की बात थी लेकिन आज 'नेरूदा' और 'गिरदा' सचमुच भाई- भाई लगते हैं ।

- 'हवा के तमाम किस्से हैं : कविता की नदी में धंसान ' / सिद्धेश्वर सिंह
( २७ अक्टूबर २००७ को 'कबाड़ख़ाना' पर प्रकाशित एक पोस्ट का अंश )
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( चित्र:  उत्तराखंड डब्ल्यू एस से साभार।)

Sunday, August 22, 2010

लोकगायक गिर्दा का देहावसान




उत्तराखण्ड के विख्यात क्रान्तिधर्मी लोकगायक गिर्दा का कुछ क्षण पहले देहावसान हो गया.

उनके अथक रचनाकर्म को हमारा सलाम और उनके परिजनों, मित्रों को गहरी सहानुभूति.

दुःख की इस घड़ी में इस से अधिक क्या कहा जा सकता है,

Saturday, August 21, 2010

न किसी का आंख का नूर हूं

असद ज़ैदी जी के हवाले से उस्ताद आशिक़ अली ख़ान साहब पेशावर वाले उर्फ़ बीरा आशिक पर एक संक्षिप्त परिचयात्मक पोस्ट लगाई थी. आज उनकी आवाज़ में एक ग़ज़ल बहादुरशाह ज़फ़र की:



Thursday, August 19, 2010

लग्गी वालेया नूँ नींद नईं औंदी

* सचमुच , जिसके जी  को 'लग' जाए उसे नींद कहाँ आती है और ऐसी बेखबरी में  अगर आँख लग जाए तो...

* आइए आज सुनते हैं बेगम आबिदा परवीन के स्वर में  यह लोकगीत...


........तेरी किवें नी अँक्ख लग गई

Tuesday, August 17, 2010

अगर होते रेणु तो पूछता

* एक अकेली रचना कितनी - कितनी रचनाओं की उत्स- भूमि बन जाती है अगर यह देखना हो तो हिन्दी साहित्य और सिनेमा के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाली कृति 'तीसरी कसम' ( उर्फ़ मारे गए गुलफाम) को देखा जा सकता है। फणीश्वरनाथ रेणु की यह वही लम्बी कहानी है जिसने अपने प्रकाशन के साथ ही हिन्दी कथा साहित्य का चरित्र और चेहरा बदल दिया था। १९६६ में रिलीज हुई १५९ मिनट की यह वही फिल्म है जो रेणु, राजकपूर, वहीदा रहमान, नबेन्दु घोष, सुब्रत मित्रा, हसरत जयपुरी,  शैलेन्द्र, बासु भट्टाचार्य,शंकर जयकिशन और न जाने कितने जाने पहचाने अनजाने कलाकर्मियों की सामूहिक रचनाशीलता का एक नायाब नमूना है। आइए आज इस कालजय़ी रचना को याद करें और 'पक्षधर ' पत्रिका के नए अंक में प्रकाशित केशव तिवारी की कविता कहाँ 'चला गया' को देखें - पढ़ें।२००९ के सूत्र सम्मान से सम्मानित केशव तिवारी हिन्दी के सुपरिचित युवा कवि हैं। बाँदा में रहते हैं और इसी साल उनका दूसरा कविता संग्रह'आसान नहीं विदा कहना' प्रकाशित हुआ है।



कहाँ चला गया
( केशव तिवारी की कविता )

आज देखी बाँस से लदी
मचमचाती बैलगाड़ी
याद आ गई एक फिलिम
तीसरी कसम

महुवा घटवारिन के घाट पर
न नहाने की हिदायत देता हीरामन

महुवा में खुद को खोजता
उदास हीराबाई का चेहरा

बदल  गए घाट घटवार बदल गए
पर महुवा के सौदागर तो आज भी हैं

नौटंकी की अठनिया टिकट पाकर
दुनिया पा लेने के जोश से भरा
वह अक्खड़ गाड़ीवान

आखिर तीन कसमें खाकर
कहाँ चला गया

अगर होते रेणु तो पूछता
उसका कुछ अता पता।

Friday, August 13, 2010

द नेम इज़ बॉन्ड, रस्किन बॉन्ड



जनाब रस्किन बॉन्ड का यह साक्षात्कार देहरादून में रहनेवाली पत्रकार शालिनी जोशी द्वारा लिया गया है. इसे उपलब्ध कराया है उनके हमसफ़र श्री शिवप्रसाद जोशी ने. शिवप्रसाद जोशी हाल तक जर्मन रेडियो डॉयचे वैले से सम्बद्ध थे. वापस आकर फ़िलहाल देहरादून में हैं. इधर उन्होंने हिलवाणी के नाम से एक वैबसाइट शुरू की है जिसका लिंक पिछले कुछ दिनों से आपको कबाड़ख़ाना में सबसे नीचे बमय मास्ट के नज़र आ रहा होगा. शिवप्रसाद जी कबाड़ख़ाने से जुड़े नवीनतम कबाड़ी हैं. देहरादून पर उनकी एक पोस्ट यहां पहले लगाई जा चुकी है. उनकी दिलचस्पियों का दायरा विस्तृत है और एक अच्छे गद्यकार के तौर पर वे अपने को बाक़ायदा स्थापित कर चुके हैं. फ़िलहाल इस पोस्ट को हमें यहां लगाने का मौक़ा देने के लिए उनका आभार.

भूतों के पास चला जाता हूं


जो भी मसूरी आता है, उनके बारे में पूछता है, कहां रहते हैं, कैसे दिखते हैं और यहां तक कि लोग सीधे उनके घर तक चले आते हैं.

76 साल की उम्र में भी रस्किन बॉन्ड को लेकर एक दीवानगी सी है. उनकी शख्सियत सांताक्लॉज की तरह है. सरल, रोचक, हंसमुख और बच्चों पर न्यौछावर. मसूरी के निवासियों में वो बॉन्ड साहब के नाम से जाने जाते हैं. 500 से ज्यादा रोचक कहानियों, उपन्यासों, संस्मरणों और अनगिनत लेखों के साथ एक लंबे समय से बच्चों और बड़ों सबका मनोरंजन करनेवाले मशहूर लेखक रस्किन बॉन्ड आज अंतरराष्ट्रीय ख्याति के रचनाकार हैं. उनकी कुछ चर्चित किताबें हैं – ए फ्लाइट ऑफ पिजन्स, घोस्ट स्टोरीज फ्रॉम द राज, डेल्ही इज नॉट फ़ार, इंडिया आई लव, पैंथर्स मून ऐंड अदर स्टोरीज़ औऱ रस्टी के नाम से उनकी आत्मकथा की श्रृंखला.

रस्किन का जन्म 1934 में हिमाचल प्रदेश में कसौली में हुआ था मगर कुछ ही समय बाद उनका परिवार देहरादून आ गया और तब से रस्किन देहरादून और मसूरी के होकर रह गये. मसूरी में उनके घर , आई वी कॉटेज में 12 जून को जिस दिन ये इंटरव्यू लिया ,उस दिन बारिश हो रही थी और हल्की सर्दी भी थी. लंढौर में बस अड्डे पर लगे जाम के कारण उनके घर पंहुचने में कुछ देर हो गई तो हिचक हो रही थी कि एक बुजुर्ग लेखक को इस तरह से इंतजार कराना गलत होगा .लेकिन जब उनके घर पंहुची तो वो इंतजार ही कर रहे थे .उन्हें ये भी याद था कि आज से 15 साल पहले जब मैं जी न्यूज की संवाददाता थी तो उनसे बिना अप्वाइंटमेंट लिये इंटरव्यू लेने चली आई थी.उन्होंने छूटते ही कहा कि चलिये इस बार आपने पहले से बता तो दिया कि आपको मुझसे बातचीत करनी है . औऱ फिर जब बातो का सिलसिला शुरू हुआ तो रस्किन खुलकर मिले और खुशमिजाज ढंग से .

रस्किन का घर भी उनकी किसी कहानी की तरह ही दिलचस्प है. लकड़ी की छत और लकड़ी का फ़र्श. एक कमरा, उस कमरे में एक मेज़, एक कुर्सी और एक पलंग. रस्किन यहीं पर लिखते पढ़ते और सोते हैं. एक और कमरा जहां वो आने वालों से मिलते हैं. और वहीं पर किताबें हैं पुरानी शेल्फ़ और कुछ पुरानी तस्वीरें.


आपने अभी हाल ही में अपना 76वां जन्मदिन मनाया.इस उम्र में भी आप बच्चों के लिये कैसे लिख लेते हैं?

इस उम्र में शायद ज्यादा लिखता हूं बच्चों के लिये. इस बुढ़ापे में मुझे खुद अपने बचपन की भी ज्यादा याद आती है.अब जब इतना लंबा समय बीत गया है.

कहा भी जाता है कि बच्चे और बूढ़े समान होते हैं

हां ये सच है जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं एक तरह से बच्चों की तरह बनते जाते हैं और उनमें अपना बचपन ढूंढते हैं. यही कारण है कि बच्चे अपने माता-पिता की बजाय दादा-दादी और नाना-नानी से अधिक घुल-मिल जाते है. ये जरूर है कि आज बड़े-बुजुर्गों से कहानी सुनने की परंपरा खोती जा रही है क्योंकि परिवार ढीले होते जा रहे हैं और बच्चे कंप्यूटर,टीवी औऱ सीडी से चिपके हैं.

क्या बच्चों के लिये लिखना आसान है?

नहीं, ये ज्यादा कठिन है.बच्चों को आप शब्दजाल में नहीं बांध सकते .बड़े तो शायद आपको एक –दो पन्ने तक मौका दे दें लेकिन बच्चों को अगर कोई रचना शुरू से ही रोचक औऱ सरस नहीं लगी तो वो दूसरे पन्ने को हाथ भी नहीं लगाएंगे.इसलिये बच्चों के लिये लिखते हुए कड़ा अनुशासन और मेहनत करनी होती है. मुझे बच्चों के लिये लिखना इसलिये भी अच्छा लगता है क्योंकि उनके विचारों में ताजगी और सवालों में ईमानदारी होती है. इसी बात पर रस्किन एक किस्सा सुनाते हैं “मैं किसी स्कूल में गया था वहां टीचर ने एक बच्ची से पूछा कि तुम्हें रस्किन कैसे लेखक लगते हैं तो उसने अन्यमनस्कता से कहा कि हां ठीक ही हैं. ही इज़ नॉट बैड राइटर. इस टिप्पणी को मैं अपने लिये एक तारीफ मानता हूं.”

आपने पहली बार कब और क्या लिखा?

उस समय मैं स्कूल में ही था. मैंने अपने स्कूल, टीचर और हेडमास्टर के बारे में कुछ मजाक बनाकर लिख दिया था. मेरे डेस्क से दोस्तों ने निकाल कर पढ़ लिया.टीचर से शिकायत हो गई .मेरे लिखे को फाड़कर फेंक दिया गया और मुझे उसकी सजा भी मिली. लेकिन मैंने स्कूल में ही तय कर लिया था कि मुझे लेखक बनना है और स्कूल से पास आउट होते ही मेरी पहली रचना रूम ऑन द रूफ प्रकाशित हुई.

आप अपनी कहानियों के पात्र कहां से लाते हैं? कैसे योजना बनाते है?

लोगों में मेरी दिलचस्पी रहती है.उनका चरित्र मुझे आकर्षित करता है.ज्यादातर मेरे दोस्त,रिश्तेदार और रोजाना मिलनेवाले लोगों से ही मैं प्रेरणा लेता हूं.कभी हूबहू कभी उन्हें औऱ निखारकर गढ़ता हूं.मेरे दिमाग में एक खाका बन जाता है.मैं बहुत ज्यादा तैयारी या कोई साल भर की योजना भी नहीं बनाता.

आपने तो भूत-प्रेतों की कहानियां भी लिखी है. ये तो असल जिंदगी के नहीं होंगे!

जब-जब मैं लोगों से परेशान और बोर हो जाता हूं भूतों के पास चला जाता हूं.हालांकि मैं बताना चाहूगा कि मैं निजी तौर पर किसी भूत को नहीं जानता हूं लेकिन मैं उन्हें अक्सर महसूस करता हूं .कभी सिनेमाघर में,कभी किसी बार में ,रेस्तरां में या दरख्तों के आसपास और जंगल में.फिर मैं अपनी कल्पना से उन्हें पैदा करता हूं एक जादुई संसार बनाता हूं .

आप क्या कंप्यूटर पर लिखते हैं?

नहीं मैं कंप्यूटर चलाना जानता ही नहीं. पहले टाइपराइटर पर लिखता था लेकिन कंधे में दर्द हो गया तो अब हाथ से ही लिखता हूं .यहीं इस कमरे में मेज –कुर्सी पर और जब थक जाता हूं तो दोपहर को एक झपकी जरूर ले लेता हूं. (रस्किन का घर औऱ उनका कमरा भी उनकी किसी कहानी की तरह ही दिलचस्प है. लकड़ी की छत और लकड़ी का फ़र्श. एक कमरा, उस कमरे में एक मेज़, एक कुर्सी और एक पलंग. रस्किन यहीं पर लिखते पढ़ते और सोते हैं. एक और कमरा जहां वो आने वालों से मिलते हैं. और वहीं पर किताबें हैं पुरानी शेल्फ़ और कुछ पुरानी तस्वीरें.)

आपकी रचनाओं पर फिल्म बनी और अभी भी एक थ्रिलर बन रही है.

जुनून बनी फ्लाइट ऑफ पिजन पर फिर विशाल भारद्वाज ने नीली छतरी बनाई.अब वो मेरी एक भुतहा कहानी सुजैनाज़ सेवन हसबैंड पर फिल्म बना रहे हैं लेकिन फिल्म का टाइटल कुछ ज्यादा ही खतरनाक रख दिया है सात खून माफ. ये एक ऐसी औऱत की कहानी है जो एक के बाद एक 7 शादियां करती है और हर पति की मौत रहस्यमयी स्थितियों में हो जाती है. इसमें प्रियंका चोपड़ा हैं और उसके पतियों की भूमिका में नसीरूद्दीन शाह औऱ जॉन अब्राहम आदि है.

सुनने में आया है इस फिल्म में आप खुद भी अदाकारी कर रहे हैं.

मुझे बूढा बिशप बनना है.आमतौर पर बिशप के पास एक रम की बोतल होती है.लेकिन मुझे नहीं लगता कि मुझे ऐसी कोई बोतल मिलनेवाली है. (रस्किन मजाक करते हैं और खुलकर हंसते हैं)

अगर आपके बीते दिनों की बात करें तो आप ब्रिटेन भी गये थे.

उस समय मैं 17 साल का था.मुझे जबरन लंदन भेज दिया गया था.लेकिन मैं भागकर चला आया.मैंने अपने आपको वहां फिट नहीं पाया.मेरा बचपन और जवानी यहां बीती थी .वापस लौटने की कसक इतनी ज्यादा थी कि मैं वहां रुक ही नहीं पाया.

कभी इस फैसले का मलाल हुआ?

नहीं कभी नहीं .

मैं भारतीय हूं ठीक वैसे ही जैसे कोई गुजराती या मराठी होगा . मेरी जड़ें यहीं है .

आपने रहने के लिये मसूरी को चुना.पहाड़ों में रहना कैसा है?

आज 40 सालों से यहां रहते हुए कह सकता हूं कि मैं पहाड़ों में रहा इसलिये ही आज तक जिंदा हूं.यहां रहना सुंदर है और यहां की शांति का कोई मुकाबला नहीं है.

आपने विवाह नहीं किया. ऐसा क्यों?

नहीं नहीं ऐसा नहीं था मैंने दो-तीन बार कोशिश की लेकिन दूसरी तरफ से कोई उत्साहजनक जवाब नहीं मिला .उस समय मैं बहुत कम कमाता था.लोग मानते थे कि अरे ये तो ऐसे ही है कुछ लिखता-विखता है. आज कमाता तो हूं लेकिन अब मुझ बुढ्ढे से कौन शादी करेगा .(रस्किन एक औऱ मजाक करते हैं ) लेकिन मैंने शादी भले नहीं की मगर आज अकेला नहीं हूं .मेरा परिवार है.मेरे पोते हैं .मेरी अच्छी देखभाल होती है.(रस्किन ने काफी पहले एक बच्चे को गोद लिया था औऱ आज वो बच्चा बड़ा हो गया है और उसका भरा-पूरा परिवार है जो रस्किन के साथ ही रहता है)

लेकिन आपके लेखन में अकेलापन दिखता है .एक तरह की एकांतिकता. कैसे?

शायद इसलिये कि मेरा बचपन बहुत अकेला था.10 साल का था जब मेरे पिता गुजर गये.फिर मां ने दूसरी शादी कर ली. मैं बहुत मुश्किल से परिवार में ऐडजस्ट हो पाता था. अकेला मीलों तक चलता था. गुमसुम बैठा रहता था. ये बात वी एस नायपॉल ने भी कही है कि मैं उन कुछ लेखकों में हूं जिनके लेखन में एकांतिकता का भाव है.

लेकिन आज तो सिर्फ आपकी किताबें ही नहीं आप खुद भी बहुत लोकप्रिय है

शायद मेरी थुलथल देह और तोंद की वजह से ... असल में इधर 5-6 सालों से ऐसा हुआ है कि लोकप्रियता बढ़ती हुई दिख रही है .वरना मैं तो संकोची स्वभाव का हूं .पहले मैं सिर्फ एक नाम था लेकिन अब टेलीविजन और मीडिया का बढ़ता प्रसार है.मुझे प्रकाशक इधर-उधर ले जाते है.कभी बुक रीडिंग सेशन है,कभी स्कूल है तो कभी ऑटोग्राफ कैंपेन है.

आप एक तरह से आज के स्टार लेखक हैं .और आपके बेशुमार फैन हैं .कैसे सामना करते हैं आप उनका?

पागल हो जाता हूं .कई बार टूरिस्ट सीधे घर चले आते हैं. उन्हें भगाना पड़ता है.मुझे इसका दुख भी होता है लेकिन क्या करूं एक लेखक की भी तो मजबूरी होती है. कभी दिल्ली से स्कूल का ग्रुप आ जाता है जिन्हें रस्किन पर प्रोजेक्ट बनाने का एसाइनमेंट ही दिया जाता है.किसी को फोटो खींचनी है किसी को इंटरव्यू करना है. मुझ पर ये एक तरह की बमबारी है. अन्याय ही है. उन्हें समझना चाहिये कि एक लेखक को भी अपना काम करना होता है.उसमें बाधा नहीं पड़नी चाहिये .

आप किस तरह से याद किया जाना चाहेंगे?

एक तोंदियल बूढ़ा जिसकी दोहरी ठुड्डी थी. (हंसते हैं..). मैं चाहूंगा कि लोग मेरी किताबें पढ़ते रहें .कई बार लोग जल्द ही भुला दिये जाते हैं. हालांकि कई बार ऐसा होता है कि मौत के बाद कुछ लोग और प्रसिद्ध हो जाते हैं. मुझे अच्छा लगेगा कि लोग मेरे लेखन का आनन्द उठाते रहें.

मैं रस्किन की कुछ फोटो लेती हूं.उनके घर के कमरे से एक खिड़की खुलती है जहां से मसूरी की पहाड़ियां नजर आती हैं. रस्किन उस खिड़की को खोलते हैं ठंडी हवा का झोंका भीतर आता है और वो खुद अपनी पूरी जिंदगी और रचना कर्म की यादों में डूब जाते हैं उन्होंने सचिन तेंदुलकर पर एक कविता लिखी है. मुझे देते हैं - 'इसे पढ़ियेगा'. साथ ही अपनी एक किताब पर शुभकामना लिखकर वो मेरे बेटे के लिये देते हैं. मैं उनसे विदा लेती हूं और एक बार फिर सोचती हूं कि सादगी और सरलता से रहना भी शायद एक रचना की तरह है.

-शालिनी जोशी

(यह इंटरव्यू कादम्बिनी के अगस्त अंक में प्रकाशित हुआ है, वहां से साभार)

Thursday, August 12, 2010

हजरत ख़्वाज़ा संग खेलिये धमार: बीरा आशिक़

इस महत्वपूर्ण पोस्ट का आलेख ख्यात कवि श्री असद ज़ैदी का लिखा हुआ है और उस्ताद की रचनाएं भी उन्होंने ही मुहैय्या करवाई हैं. उनका शुक्रिया.

बीरा आशिक़ (आशिक़ अली खाँ पेशावर वाले) एक भोले-भाले, सादा-दिल गायक थे. उन्होंने बहुत बुरा वक़्त गुज़ारा और कुछ साल पहले विक्षिप्तता, मुफ़लिसी और गुमनामी में मर गए. पाकिस्तान में भी बहुत कम लोग उनके नाम से वाक़िफ़ हैं. उनके बिखरे बाल, मैले कपड़े और बदहाल हुलिए को देखकर उन्हें संगीत की महफ़िलों में मंच पर नहीं आने दिया जाता था; और बीरा आशिक़ को गाने के अलावा कुछ आता ही न था. साथी कलाकारों से भी उन्हें उपेक्षा और बदतर व्यवहार ही मिला. लाहौर के एक चिकित्सक और मशहूर संगीतप्रेमी डॉ. अशफ़ाक़ अली खाँ ने उनकी बहुत सी रिकार्डिंग्स संजोकर रखी हैं, जिन्हें वे इन्टरनेट पर बड़ी फ़राख़दिली से दूसरे संगीतप्रेमियों को पेश करते रहते हैं.

बीरा आशिक़ की गाने में बड़े ग़ुलाम अली खाँ जैसा लोच और उस्ताद अमीर खाँ जैसा रूहानी अनुशासन झलकता है. ऐसे पुरअसर और उस्तादाना गायन को सुनते हुए अक्सर दिल भर आता है.

यहाँ नमूने के बतौर क्रमशः राग बहार, कामोद और यमन में ख़याल की बंदिशें पेश हैं.





Wednesday, August 11, 2010

क्योंकि मेरे अन्दर भी कभी आग थी

मैं भावुक होना नहीं चाहता
मैं अपना दर्द बाँटना नहीं चाहता
मैं नहीं चाहता कि मेरे तकलीफ पर कोई हमदर्दी जताए
मैं नहीं चाहता कि मेरे टेसू पर कोई अपनी टेसू बहाए
मैं नहीं चाहता कि मेरे जज्बात किसी को ठेस पहुचाये
मैं नहीं चाहता कि मेरे कराहने से किसी की नींद खुल जाये
मैं नहीं चाहता कि सदियों से सोने वाले मेरे क्रन्दन से जग जाये
मैं नहीं चाहता कि मेरी आहट से दुनिया में उथल-पुथल मच जाये

क्योंकि मैं जानता हूँ कि उनका दर्द मुझसे कहीं ज्यादा है
क्योंकि मैं जानता हूँ कि किसी की मुंह से रोटी छीनकर खा सकते हैं वे लेकिन अपना हाथ नहीं जला सकते
क्योंकि मैं जानता हूँ कि उनके लिए औरत का अस्तित्व सिर्फ बिस्तर तक ही है
क्योंकि मैं जानता हूँ कि कुल-गोत्र-जाति-धर्मं का अर्थ संकीर्णता के दायरे में फंसा हुआ है
क्योंकि मैं जानता हूँ कि मनुष्य मनुष्य का नहीं है
क्योंकि मैं जनता हूँ कि खाप-पंचायतों का जोर हर ओर है
क्योंकि मैं जानता हूँ कि सभी कुम्भकरणी नींद में सदियों से सो रहे हैं
क्योंकि मैं जानता हूँ कि सभी मुर्दा लाश हैं

पूरी पृथ्वी श्मसान में तब्दील हो चुकी है
पूरा आसमान गिद्धों से भरा है
हर तरफ कुत्ते भौंक रहे हैं
हर तरफ नोची गई हड्डियाँ और मांस के लोथड़े पड़े हैं
मेरे आसपास सभी नपुंसक भरे-पड़े हैं
किसी को किसी का गम नहीं है
किसी को किसी से ख़ुशी नहीं है
सभी दंभ से भरे-पड़े हैं,'हम'का दम जोरों पर है

नहीं तो मेरा यह हश्र नहीं होता
और मैं यूँ ही नहीं भटक रहा होता
यूँ ही मैं इंसाफ,इंसानियत और भाई-चारे की बात नहीं कर रहा होता
सदियों से हाशिए से बाहर रह रहे लोगों के लिए लड़ नहीं रहा होता
क्योंकि मेरे अन्दर भी कभी आग थी
जो सालों-दर-साल धधक रही थी
जो अभी भी सुलग रही है
दुनिया बदलने को, नई राह चलने को.

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 7

कन्ज़रवेटर महोदय से फटकार

सितम्बर या अक्टूबर १९५६ में श्री के.सी. जैन ने कुमाऊं सर्किल के कन्ज़रवेटर फ़ॉरेस्ट्स का पद सम्हाला. इस दौरान मैं नौकरी में अपनी वरिष्ठता सम्बन्धी एक मामले को लेकर उपयुक्त माध्यमों से चीफ़ कन्ज़रवेटर फ़ॉरेस्ट्स, उत्तर प्रदेश तक अपनी बात पहुंचा चुका था. श्री जैन के पदभार सम्हालने के कुछ दिनों बाद मैं नैनीताल में उनके निवास उनसे मिलने गया. जैसे ही मैंने अपना मामला उनके सम्मुख रखा, श्री जैन नैनीताल में चारकोल और लकड़ी के प्रबन्धन में हो रही गड़बड़ियों को लेकर मुझ पर चिल्लाने लगे. वे बोले "तुम और तुम्हारे रेन्ज अफ़सर ने जब से (यानी १९५६ के शुरू से) काम सम्हाला है, सब कुछ चौपट कर डाला है." मुझे बाद में पता लगा कि वे मेरे रेन्ज अफ़सर से ज़्यादा ख़फ़ा थे बजाय मुझ से. उन्होंने मुझसे आगे पूछा कि मैं नैनीताल में क्यों पोस्टेड था जबकि मेरे जूनियर डिप्टी रेन्जर के तौर पर काम कर रहे थे. मैंने उन्हें अपने नन्हे बच्चों की शिक्षा की परेशानियों के बाबत बताया. ख़ैर, मैंने उन्हें सलाम किया और लौटते हुए मन ही मन अपने से कहा: "चौबेजी छब्बेजी बनने गए, दूबे ही रह गए." अगले साल मैंने जैन साहब द्वारा कैरेक्टर-रोल में मेरे बारे में लिखी टीप देखी: "अ वेरी स्मार्ट फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर, बट हिज़ सूटेबिलिटी एज़ एन आर. ओ. कैन नॉट बी सेड, अनलैस ट्राइड इन सम रेन्ज."

आकाशीय बिजली का प्रकोप

अन्तत: मुझे रेन्ज अफ़सर, बूम, टनकपुर के पद पर नियुक्त कर दिया गया. मई १९५८ में बूम प्रभाग समाप्त किए जाने के बाद मुझे एक माह की छुट्टी के बाद अस्थाई तौर पर रेन्ज अफ़सर, देवीधूरा (मुख्यालय धूनाघाट) का चार्ज मिला. दो ही महीने बाद मुझे रेन्ज अफ़सर असकोट बनाके शन्ट कर दिया गया. असकोट में पद सम्हालने से पहले मैंने अपने कन्ज़रवेटर साहिब से मुलाक़ात कर यह पूछ ही लिया कि यह पोस्टिंग स्थाई होगी या पिछले तबादलों जैसी क़तई क्षणभंगुर. इसके पीछे मेरी मंशा यह जानने भर की थी कि मुझे अपने परिवार को अपने साथ शिफ़्ट कर लेना चाहिये या नहीं. उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मुझे अब तंग नहीं किया जाएगा. सो मेरा परिवार मेरे साथ असकोट आ गया. असकोट पहुंचने के बाद मेरा मुख्य दायित्व था वित्तीय वर्ष १९५८-५९ के समाप्त होने से पहले ही रेन्ज क्वार्टर की इमारत का निर्माणकार्य पूरा करवा लेना. इस कार्य को मैंने कर भी लिया. जून १९६१ तक असकोट में मेरा शान्तिपूर्ण निवास रहा.

जून २६, १९६१ की बात है. भीषण बारिश हो रही थी. तूफ़ान था और बिजली रह-रह कर चमकती थी. घर की चार दीवारों के बीच मुझ पर उस रात बिलजी गिर गई. इस घटना के विवरण मुझे बाद में मेरी पत्नी ने बतलाए. रात के क़रीब एक बजे हमारी सबसे छोटी बेटी उषा ने बाहर ले जाए जाने की नीयत से उसे जगाया था. मेरी पत्नी ने बच्ची को बाहर बरांडॆ के कोने में उसे ले जाकर बिठा दिया क्योंकि टॉयलेट काफ़ी दूर हुआ करता था. उसने अचानक उस जगह से एक बेहद चमकदार रोशनी को लपकते देखा जहां बच्ची बैठी हुई थी. वह डरकर भागती, चिल्लाती हुई वहां पहुंची कि कहीं बच्ची को कोई नुकसान न हो गया हो. उसे नहीं पता था कि उषा उसके पीछे पीछे आ रही थी. बाद में अन्दर पहुंचकर मेरा भिंचा हुआ चेहरा और टेढ़े हो गए हाथपैर देखकर उसे गहरा सदमा पहुंचा. डॉक्टर दास को बुलाया गया. हस्पताल रेन्ज क्वार्टर से कोई ३०-४० मीटर दूर था. मेरी पत्नी ने मुझे मुझे बाद में बताया कि होश आने में मुझे कोई घन्टे भर से ज़्यादा वक़त लगा.

जब मैं उस राह होश में आया, मैंने देखा कि लालटेन की रोशनी में मेरे परिवार के सदस्य और डॉक्टर दास मेरे गिर्द सिमटे हुए थे. उन दिनों बिजली का चलन नहीं था. डॉक्टर को देख कर मैंने पूछा कि क्या हुआ था तो अपने बंगाली लहज़े में वे बोले "शाक लौग गया है." उसके बाद जब मुझे दर्द का अहसास होना शुरू हुआ मैंने अपना दांयां हाथ अपनी दांईं पसलियों ने नीचे लगाया. मैंने पाया कि कोई चार सेन्टीमीटर व्यास का एक फफोला वहां उग आया था. उन दिनों हमारे पास एक कॉकर स्पैनीएल पिल्ला था जो मेरी खाट के नीचे सोया करता. वह भी बिस्तर से तब बाहर आया तक़रीबन जिस वक़्त मुझे होश आ रहा था. सम्भवतः बिजली उस पर भी गिरी थी.

उन दिनों रेडियो चलाने के लिए तांबे के एन्टीना लगाने पड़ते थे. हमारा वाला छत की पूरी लम्बाई पर फ़िट किया गया था. रेडियो को अलग से अनअर्थ किया जाना होता था. आमतौर पर ऐसा कोयला भरे हुए गड्ढों की मदद से किया जाता था. इस हादसे की पूरी ज़िम्मेदारी मेरी थी क्योंकि मैंने अनअर्थिंग के ज़रूरी काम पूरे नहीं किये थे.

अगली सुबह यह पाया गया कि हमारी रसोई के पिछवाड़े की दीवार खुल गई थी और भीतर रखे तांबे के एक बड़े बरतन में खरोंच आ गई थी. मुझे अब भी लगता है कि आकाशीय बिजली को तांबे के उस बरतन ने अर्थ कर लिया होगा. बिजली के बाक़ी हिस्सों की अर्थिंग तांबे के तार से बने एन्टीना से होकर हमारे मरफ़ी रेडियो सैट के द्वारा हुई होगी जो मेरे सिर के नज़दीक एक अल्मारी पर रखा हुआ था. उसी सुबह यह भी पाया गया कि मेरे माथे से होकर मेरी पीठ तक जलने के निशान की एक पतली लकीर देखी जा सकती थी. जो भी हो यह एक चमत्कार था कि मैं बच गया. बाद में मुझे पता चला कि उसी रात टेहरी सर्किल में तूनी, चकराता में पोस्टेड एक रेन्ज अफ़सर अपने मकान में घुसते ही बिजली गिर जाने से अपनी जान गंवा बैठा था, जिसे उन दिनों वह चीड़ के पेड़ों के चिन्हीकरण में मुब्तिला होने के कारण आबाद किए था.

सुबह मैं हमेशा की तरह तरोताज़ा था. मैं रोज़ ही अपना अख़बार इन्डियन एक्सप्रेस लेने पोस्टऑफ़िस जाया करता था जिसे मैं १९५१ से ही पोस्ट पार्सल के मार्फ़त प्राप्त कर रहा था. जब मैं पिछली रात के हादसे के बारे में असकोट के पोस्टमास्टर को बतला रहा था, स्पेशल पुलिस फ़ोर्स के रेडियो स्टेशन अफ़सर तिवारी जी भीतर घुसे. मेरी बात सुनकर वे लतीफ़ाना अन्दाज़ में बोले "आज किस पर बिजली गिरी?" जीवन ऐसा ही होता है. असल बात तो यह है कि आप उसे कैसे लेते हैं.

१ जून १९६१ को मुझे फ़ॉरेस्ट रेन्जर के तौर पर पदोन्नत कर दिया गया.

(जारी)

Tuesday, August 10, 2010

निज़ार क़ब्बानी की प्रेम कवितायें


* I become ugly when I don't love
And I become ugly when I don't write.

निजार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) न केवल सीरिया में बल्कि साहित्य के समूचे अरब जगत में प्रेम , ऐंद्रिकता , दैहिकता और इहलौकिकता के कवि माने जाते हैं| उन्होंने न केवल कविता के परम्परागत ढाँचे को तोड़ा है और उसे एक नया मुहावरा , नई भाषा और नई जमीन बख्शी है बल्कि ऐसे समय और समाज में जहाँ कविता में प्रेम को वायवी और रूमानी नजरिए देखने की एक लगभग आम सहमति और सुविधा हो वहाँ वह इसे हाड़ - मांस के स्त्री - पुरुष की निगाह से इसी पृथ्वी पर देखे जाने के हामी रहे हैं। इस वजह से उनकी प्रशंसा भी हुई है और आलोचना भी किन्तु इसमें कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने अपनी कविता के बल पर बहुत लोकप्रियता हासिल की है. तमाम नामचीन गायकों ने उनके काव्य को वाणी दी है. साहित्यिक संस्कारों वाले एक व्यवसायी परिवार में जन्में निजार ने दमिश्क विश्वविद्यालय से  विधि की उपाधि प्राप्त करने के बाद दुनिया के कई इलाकों में राजनयिक के रूप में अपनी सेवायें दीं जिनसे उनकी दृष्टि को व्यापकता मिली. उनके अंतरंग अनुभव जगत के निर्माण में  स्त्रियों की एक खास भूमिका रही है । चाहे वह मन चाहे पुरुष से विवाह  न कर पाने के कारण बहन विस्साल की आत्महत्या हो या बम धमाके में  पत्नी की मौत. 

Love me and say it out loud
I refuse that you love me mutely.

निजार कब्बानी की किताबों की एक लंबी सूची है. दुनिया की कई भाषाओं में उनके रचनाकर्म का अनुवाद हुआ है. उम्होंने अपनी पहली कविता तब लिखी जब वे सोलह साल के थे और इक्कीस बरस उम्र में उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था। जिसने युवा वर्ग में खलबली मचा दी थी। दमिश्क की सड़कों पर विद्यार्थी उनकी कविताओं का सामूहिक पाठ करते देखे जाते थे। यह द्वितीय विश्वयुद्ध का समय  था और दुनिया के साथ अरब जगत का के साहित्य का सार्वजनिक संसार एक नई शक्ल ले रहा था। ऐसे में निज़ार क़ब्बानी की कविताओं नें प्रेम और दैहिकता को मानवीय यथार्थ के दैनन्दिन व्यवहार के साथ जोड़ने की बात जो एक नई खिड़की के खुलने जैसा था और यही उनकी लोकप्रियता का कारण बना। यह एक तरह से परम्परा से मुक्ति थी और अपनी दुनिया को अपनी ही आँखों से देखने हिमायत। यहा प्रेम एक 'टैबू' नहीं था और न ही कोई गैरदुनियावी चीज। वे लिखते हैं 'मेरे परिवार में प्रेम उतनी ही स्वाभाविकता के साथ आता है जितनी स्वाभाविकता के साथ  कि सेब में मिठास आती है।'

Nothing protects us from death
Except woman and writing.

निजार कब्बानी  की कविताओं में में एक दैनन्दिन साधारणता है और देह से विलग होकर देह की बात किए  जाने की चतुराई जैसा छद्म नैतिक आग्रह भी नहीं है। उन पर दैहिकता और इरोटिसिज्म को बढ़ावा देने का आरोप भी लगाया गया. खैर वे लगातार लिखते रहे - मुख्यतरू कविता और गद्य भी। उनकी कविता साहित्य और  संगीत की जुगलबन्दी की एक ऐसी सफल - सराहनीय  कथा है जो  रीझने को मजबूर तो करती ही  है , रश्क भी कम पैदा नहीं करती। तभी तो लम्बे अरसे तक एक सफल राजनयिक के रूप में सेवायें देने के बाद जब लंदम में उनकी मृत्यु हुई तो तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपनी निजी विमान उनक्के पार्थिव शरीर को लाने के लिए लंदन भेजा और 'लंदन टाइम्स' ने उन्हें 'आधुनिक अरब जगत के सबसे प्रमुख प्रेम कवि  के रूप याद किया और 'वाशिंगटन पोस्ट' ने 'प्रेम कविता का शहंशाह' के रूप में याद किया




निज़ार क़ब्बानी की दो प्रेम कवितायें
( अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह )


०१ - विपर्यय

जबसे पड़ा हूँ मैं प्रेम में
बदल - सा गया है 
ऊपर वाले का साम्राज्य।

संध्या शयन करती है 
मेरे कोट के भीतर
और पश्चिम दिशा से उदित होता है सूर्य।

०२ -अनुनय

दूर रहो
मेरे दृष्टिपथ से
ताकि मैं रंगों में कर सकूँ अन्तर।

दूर हो जाओ 
मेरे हाथों की सीमा से
ताकि मैं जान सकूँ 
इस ब्रह्मांड का वास्तविक रूपाकार
और खोज कर सकूँ
कि अपनी पृथ्वी है सचमुच गोलाकार।
-------------

निज़ार क़ब्बानी की एक अन्य कविता 'कर्मनाशा' पर


Sunday, August 8, 2010

सांसों की माला पे सिमरूं मैं पी का नाम


बाबा नुसरत फ़तेह अली ख़ान की ये बन्दिश पुरानी है. मैं एक बार पोस्ट भी कर चुका हूं मगर दोबारा लगाने में क्या हरज़ है!

तकरीबन आधे घन्टे लम्बी इस रचना को पूरा सुनिये फ़ुरसत में. मौज आएगी.



डाउनलोड यहां से कीजिये:

http://www.divshare.com/download/12217845-a3d

एक परम कबाड़ी पोस्ट: निराश न हों

तैय्यार रहो हे ज्ञानी पाठक. हिन्दी की महान साहित्यिक परम्परा के बारे में अपनी किसी पिछली पोस्ट में मैं कह चुका. कल या परसों या जब भी उस पुलिस लेखक का कोई बयान छपे तो कृपा करके उसे हुज्जत न दें क्योंकि वह सदमा देने वाला होयेगा!

ससुर हमसे काफ़्का के बारे में बात थोड़े ही कर सकेगा! या सिंगल मॉल्ट व्हिस्की के! होवेगा बहुज़्ज़ालिम सराबी मग्ग़र हियां से चैलेन्ज!

एक गाली देने की इच्छा हो रही है पर दूंगा नहीं. समझ न जाए कहीं छिन्न नाल पैं ... !

अब जा के घुसे रहो अपने घूरे में, हे पुरुषोत्तम कलमाड़शिरोमणि!

आलोक धन्वा का नाम ज़बरदस्ती उस लिस्ट में घुसाया गया है. ये मैं जानता हूं. बाक़ी आप परम ज्ञानी!

आपका

ज़बरिया

PS: खाली बोतल का रैट ३ रु कर दिया ऐत्थै - मानसून आफ़र. और कर्फ़ू का रैट जाननै कै बास्तै .... ओये सर्किट्ट!

सुरेश कलमाड़ी इस वक्तव्य पर बयान अक्टूबर के आखिर में देगा ... पैं ... !

Saturday, August 7, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 6

कर्तव्यनिष्ठता की एक मिसाल

१९५१ में मुझे नैनीताल के चीना पीक (जिसे अब नैना पीक कहा जाता है) की चीना चौकी मुख्यालय में स्थानान्तरित कर दिया गया. यहां मैं मई १९५४ तक रहा.

मैं अपने डी.एफ़.ओ. श्री वी. पी. अग्रवाल से सम्बन्धित कुछ बातें बताना चाहूंगा. वे खासे अनुशासनप्रिय अधिकारी थे - काम के प्रति समर्पित और मानवीयता का सम्मान करने वाले. उनकी जिस इकलौती बात ने मुझे प्रभावित किया वह ये थी कि मैं जितने भी अफ़सरों के सम्पर्क में आया था, वन-संरक्षण के प्रति श्री अग्रवाल का रवैया उन सब में सर्वाधिक अनुकरणीय था. गर्मियों के दिनों जब वे मुख्यालय में होते थे, नैनीताल के आसपास किसी भी स्थान पर जंगल में आग लगने की सूचना मिलते ही वे किराये पर घोड़ा लेकर अपने अर्दली के साथ मौके पर पहुंच जाया करते.

१९५२ में मुझे डिप्टी रेन्जर के पद पर पदोन्नत किया गया.

मई १९५३ में नैनीताल के नज़दीक लड़ियाकांटा की चोटी पर आग लगी. मैं स्थानीय फ़ॉरेस्ट गार्डों और अन्य स्टाफ़ के साथ तुरन्त उस तरफ़ निकल पड़ा. उन दिनों फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग के प्रशिक्षार्थी ओक पार्क, नैनीताल में ठहरे हुए थे. हमारे डी. एफ़. ओ. इन सभी को मौके पर भेज पाने में कामयाब रहे. प्रशिक्षार्थी सुबह दस बजे तक मेरे पास पहुंच गए थे. वे मेरे साथ दोपहर एक बजे तक रहने के बाद वापस अपने कैम्प चले गए.

हम लोग आग के एक हिस्से पर काबू पा सके और उसे रिज के उत्तरी हिस्से की तरफ़ बढ़ने से रोक पाए थे. शाम होते होते आगे नीचे चट्टानी हिस्से तक पहुंच गई थी. हमने आपस में मशविरा कर के यह फ़ैसला लिया कि चूंकि अब आग पर काबू पाना आसान होगा और रात के समय इस काम में लगे रहना बेवकूफ़ी होगी क्योंकि कोई भी रात के अन्धेरे में फिसल कर अपने को चोट पहुंचा सकता था. सो हमने रांची गेस्टहाउस में रात बिताकर सुबह दोबारा कार्य शुरू करने का फ़ैसला लिया.

आधी रात के बाद हमने "डिप्टी साब! डिप्टी साब!" की पुकारें सुनीं. मैं समझ गया अग्रवाल साहब अपने मुआयने पर निकले हुए हैं और उनका अर्दली मुझे पुकार रहा है. मैंने अपने साथ के लोगों को जगाया और तुरन्त पाइन्स (नैनीताल) की दिशा में बढ़ने को कहा. वहां पहुंचने पर मैंने उनसे सड़क के किनारे लगे पैरापिटों पर लेट जाने को कहा. ईसाई कब्रिस्तान की दिशा से "डिप्टी साब! डिप्टी साब!" की पुकारें आईं. मैंने साहब और उनके अर्दली के अपने से कुछ गज की दूरी तक आने का इन्तज़ार किया. मैं अचानक उठ बैठा जैसे गहरी नींद में सोया होऊं.

श्री अग्रवाल ने सीधे मुझपर झल्लाते हुए कहा कि मैंने फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग के प्रशिक्षार्थियों को वापस क्यों जाने दिया. मैंने जवाब दिया कि मैंने पूरी कोशिश की पर लड़कों के लिए बिना भोजन के वहां रुक सकना सम्भव न था. फिर मैंने थोड़ा ऊंची आवाज़ में कहा कि अफ़सरान आग से जूझने वालों की समस्याओं को नहीं समझ सकते. उसके बाद मैंने उन्हें नीचे लगी आग दिखाते हुए कहा कि चट्टानी इलाके में लगी होने के कारण उस वक़्त उसे बुझा पाना सम्भव नहीं होगा. मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि सुबह आग पर काबू पा लिया जाएगा. उनकी समझ में मेरी बात आ गई और उन्होंने हमसे उनके पीछे पीछे आने को कहा. रात का बाकी हिस्सा हमने पुनः रांची गेस्टहाउस में बिताया. पाठकगण अनुमान लगा सकते हैं कि श्री अग्रवाल अपने निवास, प्रायरी, में सुबह तीन बजे के आसपास पहुंच सके होंगे.

काम के प्रति समर्पण का इस से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है?

स्टेशन डिप्टी रेन्जर के तौर पर काम करते हुए मुझे काफ़ी लाभ हुआ. मैंने नक्शे बनाना, नई इमारतों और सड़कों के एस्टीमेट बनाना, इन कार्यों को पूर्ण करना, नैनीताल नगर के लिए चारकोल और जलाने की लकड़ी का प्रबन्धन करना और मंडल कार्यालय के सारे कार्यों को करना सीखा. यह सब मैंने अपने रेन्ज अफ़सर श्री आलम सिंह जी के निर्देशन में सीखा. मंडलीय कार्यालय का सारा कार्य आमतौर पर असिस्टैन्ट कन्ज़रवेटर फ़ॉरेस्ट्स द्वारा किया जाता था.

यहां से मई १९५४ में मेरे तबादले लीसा डिपो अफ़सर काठगोदाम और उसके बाद १९५५ में रेन्ज असिस्टैन्ट के पद पर मनोरा रेन्ज में हुए. अक्टूबर १९५५ में वहां से मुझे पुनः नैनीताल बतौर स्टेशन ड्यूटी डिप्टी रेन्जर तैनात कर दिया गया. मैंने वहां दो साल और गुज़ारे.

मुख्य सचिव की पत्नी से मुलाकात

१९५६ की गर्मियां थीं जब कुमाऊं सर्किल के तत्कालीन कन्ज़रवेटर श्री जी. एन. सिंह ने मुझसे कोयले के चूरे की बाबत उत्तर प्रदेश के तत्कालीन प्रमुख सचिव श्री ए.एन. झा की पत्नी से मिलने को कहा. जब मैं वहां गया तो श्रीमती झा ने एक बोरे में आधे भरे हुए कोयले के चूरे की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा : "इसका क्या किया जाए?" मैंने जवाब दिया : "हमारे यहां स्थानीय लोग इसे गोबर में मिला कर उपले बनाते हैं और घर गर्म करने में इस्तेमाल करते हैं." क्या आप कल्पना कर सकते हैं मैं किस कदर बेवकूफ़ आदमी था? मुझे श्रीमती झा की बात में छुपे इशारे को समझ लेना था और चूरे को ले जा कर उसके बदले अच्छा स्तरीय कोयला पहुंचा देना था. लेकिन मेरी परवरिश इस तरह हुई थी कि मैं आदतन सही को सही और गलत को गलत कहा करता. क़िस्मत से मुझे अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इस बाबत कुछ सुनने को नहीं मिला जो श्री झा के अच्छे मित्रों में थे.

Friday, August 6, 2010

कलकत्ते का गीत

सुमन चटर्जी से सुनिये यह ज़बरदस्त गीत:



एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 5

फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग (१९४८-१९४९)

फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग के लिए चयनित इक्कीस लोगों में मेरा नाम भी था. हमें १ अक्टूबर तक फ़ॉरेस्टर्स ट्रेनिंग की कक्षाओं के लिए आल्मा लॉज पहिंचने को कहा गया. यह सेन्ट लो रिज पर अवस्थित एक दुमंज़िला इमारत थी. वहां हमें १५ नवम्बर तक रहना था. हमारी दिनचर्या में सुबह सात से आठ तक परेड होती थी. दस से चार तक कक्षाएं होती थीं जिनके बीच एक घन्टा लंच का होता था. उसके बाद हम लोग फ़्लैट्स में घूमा करते थे.

तत्पश्चात हम लोग फ़ील्ड ट्रेनिंग के लिए हल्द्वानी चले गए. यहां एक बड़ा फ़र्क़ यह था कि अब से हमें डबल फ़्लाई तम्बुओं में रहना था. एक तम्बू में तीन लोगों ने रहना था. यहां से हमें बरेली ले जाया गया जहां हमें बरेली के आसपास वनाधारित उद्योगों से परिचित कराया गया. बरेली के बाद हमें पश्चिमी और पूर्वी सर्किलों में साल के जंगलों का भ्रमण करवाया गया. इसके बाद हमें एक पखवाड़े की फ़ील्ड इंजीनियरिंग ट्रेनिंग के लिए रुड़की के बंगाल इन्जीनियरिंग ग्रुप सेन्टर ले जाया गया. रुड़की में हमारा प्रशिक्षण सेना के अधिकारियों की देखरेख में हुआ. यहां से हम देहरादून गए जहां फ़ील्ड अभियानों के साथ साथ हमने फ़ॉरेस्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट भी देखा. यह संस्थान एक विशाल लैन्डस्केप में फैला हुआ था और अपने शिल्प और वहां प्रदर्शित काष्ठ वस्तुओं के कारण यादगार था. अप्रैल से हमारा ग्रुप पहाड़ में चीड़ सिल्वीकल्चर समझने के लिए एक माह पहाड़ों में शिफ़्ट हुआ. १५ मई १९४९ को हम अपनी ट्रेनिंग के अन्तिम हिस्से के लिए वापस आल्मा लॉज पहुंचे. जुलाई १९४९ के पहले सप्ताह में कुछ परीक्षाओं और न्यू क्लब में हुए उपाधि-वितरण समारोह के बाद ट्रेनिंग समाप्त हो गई. इस ट्रेनिंग के बारे में ग़ौर करने पर मुझे अहसास हुआ कि इस ट्रेनिंग में आदमी हरफ़नमौला तो बन जाता है पर उसे महारत किसी क्षेत्र में हासिल नहीं होती.

कन्ज़रवेटर के साथ कार में

दिसम्बर के महीने में मेरे रेन्ज अफ़सर ने मुझसे कुमाऊं सर्किल के कन्ज़रवेटर मिस्टर जे. स्टीफ़ेन्स की सेवा में उपस्थित होकर उन्हें अपने साथ रामगढ़ से भवाली के पी डब्लू डी डाकबंगले तक लाने को कहा, क्योंकि वे स्वयं नैनीताल के डीएफ़ओ मिस्टर डब्लू. एफ़. कॉम्ब्स के साथ व्यस्त थे.

मैं पैदल रामगढ़ के लिए रवाना हुआ और नियत समय पर वहां पहुंच गया. कन्ज़रवेटर महोदय का अर्दली कैम्प-किट को टट्टुओं पर लाद कर भवाली लेकर जा रहा था. ड्राइवर ले अलावा कार में बैठने वाले हम दो ही लोग थे. औपचारिकता का तकाज़ा था कि मुझे गाड़ी में ड्राइवर की बगल में बैठना था, लेकिन इन नियम क़ायदों से अनभिज्ञ मैं अपनी टोपी लगाए लगाए कन्ज़रवेटर महोदय के साथ बैठ गया.

हमने बमुश्किल दस किलोमीटर का फ़ासला तय किया था जब कन्ज़रवेटर महोदय खरखराती आवाज़ में मुझसे पूछा : "क्या यह तुम्हारा आधिकारिक हैडगीयर है?" मैंने हिम्मत जुटाते हुए जवाब दिया : "नहीं सर नहीं है. मैं इसे इसलिए पहने हूं कि यह हमारे आधिकारिक हैडगीयर से अधिक सुविधाजनक है. सूत की भारी पगड़ी बेहद अटपटी होती है." कन्ज़रवेटर महोदय ने तुरन्त कहा : "तुम सही हो. पगड़ी पुराने समय के लिए ठीक थी जब लोग उसे रस्सी की तरह भी इस्तेमाल कर लेते थे." मैंने राहत की सांस ली क्योंकि मैं डांट खाने से बच गया था.

Thursday, August 5, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 4


आग अभी बसासत से दूर थी. उस से निबटने को मेरे साथ केवल छः लोग थे और हम भवाली सैनेटोरियम से लगे जंगल को बचाने के प्रयास में जुटे हुए थे. जलते हुए लठ्ठों और चिंगारियों के कारण आग से जुझना मुश्किल हो रहा था. चूंकि हम रात का भोजन खाए बिना ही आ गए थे, हमने अपने साथ के दो लोगों को नज़दीक के गांव से कुछ खाना-पानी लेकर आने को कहा. सारे सद्प्रयासों के बावजूद हम सिर्फ़ इतना कर पा रहे थे कि दर्शक बने रहते हुए जलते हुए लकड़ी के टुकड़ों को सड़क पर आने से रोक रहे थे. सम्भवतः हम ने बारी बारी कुछ देर को नींद भी निकाली. इस समूचे मसले का दुखद पहलू यह था कि उन दिनों हमारे रेन्ज अफ़सर महोदय कैज़ुअल लीव पर गए हुए थे.

अगली सुबह चन्द और ग्रामीणों की मदद से हमने एक सूखे नाले से सटे बांज के जंगल में लगी आग को बुझाने का काम शुरू किया. इसके अलावा हम इस बात की निगरानी भी कर रहे थे कि चिंगारियां सुरक्षित इलाके को नुकसान न पहुंचा सकें. यह कार्य शाम तक चलता रहा. हम सब बेतरह थक चुके थे. उस रात हम एक नज़दीकी गांव में रहे जहां हमें अपनी नींद पूरी कर पाने का समय मिल सका. तीसरी सुबह मैंने देखा कि आग पर तकरीबन काबू पाया जा चुका था. इलाके की निगरानी करते हुए मैंने पहाड़ी से नीचे उतरते एक सन्देशवाहक को देखा. उसने पास आकर मुझे बताया कि उत्तर प्रदेश के चीफ़ कन्ज़रवेटर श्री एम. डी. चतुर्वेदी और कुमाऊं के कन्ज़रवेटर श्री जे. स्टीफ़ेन्स भवाली सैनेटोरियम कैम्पस के नज़दीक एक रिज पर मौजूद थे और मैंने तुरन्त उन्हें रिपोर्ट करना था. चूंकि मेरे तात्कालिक उच्चाधिकारी अनुपस्थित थे, मेरे कार्य की किसी भी कमी के लिए मुझे बचाने वाला कोई न था. ऊपर चढ़ते हुए मैंने अनुमान लगाया कि सम्भवतः भयभीत होकर भवाली सैनेटोरियम के सुपरिन्टेन्डैन्ट ने आला अफ़सरान को सूचित कर दिया होगा.

चूंकि उन दिनों नैनीताल राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी, हमारे विभाग के उच्चाधिकारियों से मामले को गम्भीरता से देखने को कहा गया होगा. ढाई दिनों तक आग से लड़ते हुए मेरा चेहरा काला पड़ा हुआ होगा और मेरे बालों और कपड़ों की दुर्गति अलग. मुझे ठीकठीक याद नहीं मुझसे क्या पूछा गया और मैंने क्या जवाब दिए. चूंकि उच्चाधिकारियों के सामने मैं आदतन मुखर रहा करता था मैंने ढाई दिन तक की मशक्कत और तनाव को लेकर काफ़ी कुछ कहा होगा. बाद में मुझे पता चला कि हमारे रेन्ज अफ़सर से अनुपस्थित होने के बाबत स्पष्टीकरण मांगा गया क्योंकि कैज़ुअल लीव को हमेशा ऑन-ड्यूटी माना जाता था. चीफ़ कन्ज़रवेटर ने लिखित में कहा कि उनका सामना एक बेवकूफ़ अफ़सर यानी मुझसे हुआ था.

जून के तीसरे हफ़्ते में मानसून से पहले की बारिश की मुझे आज तक याद है. हम उस दिन भी आग बुझाने में लगे हुए थे. बारिश के आने पर हम खुशी में झूम उठे और आत्मा तक उसके नीचे भीगते रहे. १९४८ के वनाग्नि काल का यह अन्त था.

Wednesday, August 4, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 3

ए आई एफ़ सी कक्षाओं का संचालन

जनवरी १९४८ में ऑफ़िसर-इन-चार्ज श्री शौरी के निर्देशन में ए आई एफ़ सी की १९४७-४९ कक्षा का प्रशिक्षण दौरा चल रहा था. वे लोग भवाली की मिलिट्री बैरकों में कैम्प किये हुए थे. मुझे चारकोल बर्निंग पर उन्हें प्रशिक्षण देने को कहा गया. नदी की धारा के बगल में स्थित होने के कारण मिलिट्री की बैरकें पाले से अटी रहती थीं. सारा इलाका जंगल से ढंका हुआ था और चारों तरफ़ सफ़ेदी नज़र आती थी. जब दोनों प्रशिक्षक कैम्प पहुंचे तो जब श्री शौरी ने पाया कि कुछ प्रशिक्षणार्थियों ने ऊन या चमड़े के दस्ताने पहने और थे सिर और गले भी ढंक रखे थे तो वे बहुत तेज़ आवाज़ में चिल्लाए: "इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता! फ़ॉरेस्ट ट्रेनिंग अफ़सरों ने दस्ताने वगैरह पहने हुए हैं! उतारिये इन्हें!" अगले दिन मैं उन्हें नज़दीकी चीड़ के जंगल तक ले गया जहां मैंने उन्हें लीसा निकालने का तरीका बताने के साथ साथ कुमाऊं के लीसा उद्योग के इतिहास पर एक भाषण भी दिया. तीसरे दिन हम लोग नैनीताल और उसके आसपास के इलाके के भ्रमण के लिए गए. मुझे यह सब अच्छा लग रहा था क्योंकि बिना प्रशिक्षण के सिर्फ़ सवा साल की नौकरी के बाद भी मैं यह सब कर पा रहा था. इसके अलावा मेरा उठना बैठना बेहतर और स्तरीय लोगों के साथ हो रहा था. बाद के वर्शों में इन में से तीन प्रशिक्षणार्थियों के मातहत मुझे काम करने का अवसर मिला. ये थे श्री पी.सी.चटर्जी और श्री डी.सी.पाण्डे मेरे डी एफ़ ओ रहे थेजबकि श्री सी.एल.भाटिया चीफ़ कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट, उ.प्र.

आग का मौसम - १९४८

यह साल मेरे लिए अविस्मरणीय था क्योंकि अप्रैल से जून के बीच मुझे चीड़ के इलाके में कुल अट्ठाइस वनाग्नियों से जूझना पड़ा. होता यह था कि जब तक हमारा स्टाफ़ गांव वालों की मदद से एक आग को बुझाता सामने की पहाड़ी पर दूसरी आग जलनी शुरू हो जाया करती. उस तरफ़ दौड़ पड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता था. कुछ घन्टों के बाद उसी पहाड़ी के किसी और हिस्से में आग की खबर मिलती. इस काम को करने के लिए काफ़ी तेज़ तेज़ पैदल चढ़ना और उतरना पड़ता था. कई बार स्टाफ़ को हकधारी ग्रामीणों के आने का इन्तज़ार करना पड़ता. समय की कमी के कारण ऊपरी हिस्सों में खासी आग लग जाया करती थी. अग्निशमन के इस काम में दिन-रात कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी.

चीफ़ कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट और कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट का अग्निपीड़ित स्थलों का दौरा

मई के महीने के मध्य में मुझे सूचना मिली कि पाइन्स-भवाली पैदल मार्ग पर चीड़ के जंगलों में आग लग गई है. एक स्थानीय फ़ॉरेस्ट गार्ड, बाकी स्टाफ़ और दो फ़ायर-वाचर्स के साथ मैं तुरन्त निकल पड़ा. वहां पहुचने में हमें एक घन्टा लग गया होगा. ऊपर की तरफ़ बढ़ रही आग तब तक रास्ते को पार कर लड़ियाकांटा रिज की तरफ़ बढ़ रही थी.

Tuesday, August 3, 2010

शर्मसार हिन्दी

मुझे पता है अब लीपापोती का लम्बा सिलसिला चल निकलेगा और पूरे मसले को नित नए नए आयाम दिए जाएंगे - बड़े बड़े सूरमा तमाम तरह के विमर्शों में अपनी खोपड़ी घुसाए मिलेंगे और सब कुछ वैसे का वैसा हो जाएगा.

पता नहीं हिन्दी का साहित्य कब तक मतिभ्रष्ट अय्याशों के बयानों पर स्यापा करता रहेगा. म. गां. अं हि. वि. वि. के कुलपति राय साहब को मैं नहीं जानता, जानना भी नहीं चाहता. इन्टरव्यू के नाम पर जितना असंवेदनशील और घनघोर निन्दनीय बयान नया ज्ञानोदय में इन साहब के नाम से छापा गया है, उस पर कबाड़ख़ाना दोनों के प्रति अपनी आपत्ति दर्ज़ करता है.

मुझे उम्मीद है साहित्यकारों की नई पीढ़ी सामने आएगी और इस तरह के बड़बोले, दबंग और गैरज़िम्मेदार लोगों से रेवड़ियां लूटने की फ़िराक में लगे रहने के बजाय हमारी महान भाषा की मर्यादा को बचाए रखने में नए सिरे से सन्न्द्ध होगी.

Sunday, August 1, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा २

भर्ती बोर्ड

उक्त पद के लिए नुझे १६ अगस्त १९४६ को एक मौखिक साक्षात्कार हेतु ग्लेनथॉर्न, चीफ़ कन्ज़र्वेटर के दफ़्तर पहुंचने का निर्देश प्राप्त हुआ. भर्ती बोर्ड में तीन सदस्य थे - मि. सॉल्वोय, डाइरेक्टर रिलीफ़ एन्ड रिहैबिलिटेशन उ.प्र. और मि. डब्लू. टी. हिल, सीसीएफ़, उ.प्र. नामक दो ब्रिटिश आई सी एस और आई एफ़ एस जो अपने महकमों के मुखिया थे और तीसरे मि. एम. डी. चतुर्वेदी जो सबसे वरिष्ठ भारतीय आई एफ़ एस थे और उन दिनों कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट्स वेस्टर्न सर्किल के पद पर कार्यरत थे. बाद में मि. चतुर्वेदी पहले या दूसरे इन्सपैक्टर जनरल ऑफ़ फ़ॉरेस्ट्स के पद पर भी रहे थे. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उन दिनों वन विभाग का वेतनमान रु. ३०-१-४५ हुआ करता था जो सेना के रु. ७० से अधिक की तुलना में बहुत कम था. जहां तक मुझे याद है कुल पन्द्रह चुने गए प्रत्याशियों में मैं एक था. मुझे भवाली रेन्ज में भवाली हैडक्वार्टर में तैनात किया गया.

फ़ॉरेस्ट सबॉर्डिनेट सर्विस में प्रवेश

मैं नियत तारीख को ड्यूटी पर पहुंच गया. मेरे साथ मेरी पत्नी भी आई थी और मुझे तीन कमरों का एक निवास मिला था. कुछ दिन तक मैंने रेन्ज ऑफ़िस में काम किया और एक दिन मेरे रेन्ज ऑफ़िसर ने मुझे सड़कों और भवनों की मरम्मत के अनुमानित खर्चों का विवरण (एस्टीमेट) तैयार करने को कहा. सच तो यह है कि तब तक मैंने एस्टीमेट शब्द का नाम भी नहीं था. मैंने इस बाबत अपने रेन्ज ऑफ़िसर से पूछा. उन्होंने मुझे सब समझाया. करीब एक सप्ताह के बाद मैं रेन्ज में अपने सारे काम कर रहा था - ग्रामीणों के अधिकारों और उनकी छोटी छोटी ज़रूरतों का हिसाब रखने से लेकर एस्टीमेट बनाने और चीड़ के जंगलों में नियन्त्रित आग लगाने तक. मेरी दिनचर्या तकरीबन रोज़ यह रहती थी कि मैं सुबह घर से खाना खाकर निकलता और शाम को ही लौटता.

एक दिन मुझे पता लगा कि वायरलैस के ज़माने के मेरे कुछ साथियों को देहरादून रेन्ज में रेन्जर्स कोर्स १९४७-४९ के लिए केवल इन्टरव्यू के आधार पर ही चुन लिया गया है. मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आया. बाद में मुझे अहसास हुआ कि यह मेरी बेबात की शिकायत थी. ऐसा मेरे लिए भी तब सम्भव होता जब मैंने इस सिलसिले में अप्रैल १९४६ से ही प्रयास शुरू कर दिए होते यानी अपनी अर्ज़ी को सिर्फ़ फ़ॉरेस्टर की नौकरी तक ही सीमित न रख कर उसे विभिन्न विभागों में पहुंचाया होता. मैंने इसके लिए अपनी अपरिपक्वता और सूचना के अभाव को दोषी ठहराया. मैंने मार्च १९४७ में होने वाले इन्टरमीडियेट बोर्ड के सप्लीमेन्ट्री इम्तहान के लिए अनुमति हासिल की और उसे उत्तीर्ण भी कर लिया.

बाद में मुझे यह भी पता चला कि जो राडार ऑपरेटर पदावनति के बावजूद वायुसेना में बने रहे थे, उन्हें आज़ादी के बाद दोबारा उसी वेतनमान और उसी पद पर वापस बुला लिया गया था. राडार का अविष्कार दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हुआ था जिसकी मदद से जर्मनी की लगातार बमबारी से इंग्लैण्ड कई बार बचा. राडार जर्मन जहाज़ों की टोह ले लेते थे और उन्हें आर ए एफ़ फ़ाइटरों की मदद से ध्वस्त कर दिया जाता था.

जीवन उसी सरकारी ढर्रे पर चल रहा था.